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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १८७ ॥
దకుండ
तैसें मिथ्यादर्शनके उदयकरि सहित ज्ञानभी मिथ्या होय है । इहां विशेष जाननां- जो, विपर्यय कहनेते मिथ्याज्ञान कह्या है सो संशय विपर्यय अनध्यवसायभी लेना। तथा चशब्दतेभी इनिका समुच्चय हो है। तहां मतिश्रुतज्ञानकै तौ तीनही होय हैं । जातें संशय इंद्रियमनतेही उपजै है। यह स्थाणु है कि पुरुष है ऐसा याका स्वरूप है । सो यहु सामान्य देखै ताका विशेष न देखै तातें तथा दोय विषयके स्मरणते हो है । बहुरि अवधिकी उत्पत्तिविर्षे इंद्रियमनका व्यापार है नाही, तातें सो संशयस्वरूप नाही है । वहुरि दृढ उपयोगकी अवस्थावि याकै विपर्यय कहिये है । सो मिथ्यात्वश्रद्धानका सहभावपनाते है । तथा शीघ्र उपयोग संकोचन” कदाकाल अनध्यवसायस्वरूपभी हो है। ऐसें याकै दोयही होय है संशय नाही । इहां कोई प्रश्न करै है, जो कटुक तुंबावि तौ आधारके दोषतें दूध कटुक हो है ज्ञानविष तौ विषयका ग्रहण सम्यमिथ्यावि समान हो है। जैसे मिथ्यादृष्टि नेत्रादि मतिज्ञानकरि रूपादिककू देखै है तैसेंही सम्यग्दृष्टिभी देखे है । बहुरि जैसैं सम्यग्दृष्टि ।
रुतज्ञानकरि रूपादिककू जाने है पैलेनकू कहै है तैसेंही मिथ्यादृष्टिभी कुश्रुतज्ञानकरि जान है । | तथा अन्यकू कहै है । बहुरि अवधिज्ञानकरि सम्यग्दृष्टि जैसें रूपीपदार्थनिकू जाने है तैसेही मिथ्यादृष्टि विभंगज्ञानकरिभी जाने है । याका उत्तरके अर्थि सूत्र कहै हैं--
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నందన
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