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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १८५ ॥
॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्व्यः ॥ ३०॥ याका अर्थ- एक आत्माविर्षे एककाल एक तथा दोय तथा तीन तथा च्यारि ऐसें भाज्य रूप च्यारिताई होय है ॥ इहां एकशद संख्यावाची है । बहुरि आदिशब्द है सो अवयववाची है एक है आदि जिनकै ते एकादीनि ऐसा समास है । भाज्यानि कहिये भेदरूप करने । युगपत् कहिये एककालविर्षे । एकस्मिन् कहिये एक आत्मावि । आ चतुर्थ्यः कहिये च्यारिताई होय है । तहां एक होय तो केवलज्ञानही होय, याकी साथ अन्य क्षायोपशमिक ज्ञान होय नाही । दोय होय तो मतिश्रुतज्ञान होय । तीन होय तौ मतिश्रुतअवधि होय अथवा मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञान होय । च्यारि होय तौ मतिश्रुत अवधि मनःपर्यय च्यायोंही होय । पांच एककाल न होय । जातें केवलज्ञान क्षायिक असहायरूप है ॥ इहां प्रश्न, जो क्षायोपशमिकज्ञान तौ एककाल एकही प्रवर्तता कह्या है । इहां व्यारी कैसे कहे? ताका उत्तर, जो, ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होते च्यारी ज्ञानकी जाननशक्तिरूप लब्धि एककाल होय है । बहुरि उपयोग इनिका एककाल एकही होय है।
ताकी एक ज्ञेयतें उपयुक्त होनेकी अपेक्षा स्थितिभी अंतर्मुहूर्तकी कही है। पीछै ज्ञेयांतर उपयुक्त ना होय जाय है क्षयोपशम जिनिका होय है ते लब्धिरूप एककालही है। इहां कोई कहै उपयोग
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