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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान १८० ॥
| कैसें जान्या ? विषयशद तो सूत्रमें नाही ॥ ताडूं कहिये- विषयशब्द पहले सूत्रमैं कह्या है सो लेना, ताकै विभक्तिभी लगाय लेणी। बहुरि द्रव्येषु ऐसा बहुवचनतें सर्वद्रव्य जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल ग्रहण करने । तिनके असर्वपर्याय कहिये केईक पर्याय लेने । ऐसें केईक पर्यायनिसहित सर्वद्रव्य मतिश्रुतज्ञानके विषयभावकू प्राप्त हो हैं । सर्वपर्यायनिसहित इनिका विषय नाही है जाते ते पर्याय अनंत हैं । इहां कोई कहै, धर्मास्तिकायादिक जे अतींद्रिय हैं ते इंद्रियज्ञान जो मतिज्ञान ताके विषय कैसे होय? यातें सर्वव्यनि मतिज्ञान प्रवर्ते यह कहना अयुक्त है। ताकू कहिये- ए दोष इहां नाही आवै । जाते अनिंद्रिय कहिये मन नामा अंतरंग कारण है, तातें नोइंद्रियज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमकी लब्धिपूर्वक उपयोग अवग्रहादिरूप पहली प्रवर्ते है । तातें तत्पूर्वक श्रुतज्ञान सर्वद्रव्यनिविर्षे स्वयोग्यविषै प्रवर्ते है ऐसें जाननां ॥ इहां कोई अन्यवादी कहै , जो मतिज्ञान रुतज्ञान तो स्वप्नवत् है । बाह्यपदार्थकू अवलंबीकरि नाही उपजै है । जैसें स्वप्नाका कोई बाह्यपदार्थ सत्यार्थ नाही तैसैं यहभी है। ता• कहिये, यह कहना अयुक्त है । जातें ऐसे कहतें सर्वशून्यता ठहरे है । प्रथम तो आपकै पैला दूसरा आत्मा वाह्यार्थ है सो मतिश्रुतज्ञान ताक् ग्रहण करै है । जो ताका अभाव मानिये तो पैलाकै आप वाह्यार्थ है सो आपकाभी अभाव भया।
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