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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १७९ ॥ क्षेत्र तौ घणां है याका थोरा है । बहुरि स्वामी मनःपर्ययज्ञानका तौ प्रमत्तगुणस्थानतें ले क्षीणकषायगु | णस्थानतांई संयमीही होय है । तामैं भी उत्तमचारित्रवालाही होय । तामेंभी वर्धमानचारित्रवालाही
होय है । तामैंभी सप्तविध ऋद्धिमैसूं कोई ऋध्दिधारी होय ताहीकै होय है अन्यकै नाही होय । | बहुरि तिनिमेंभी कोईसेकै होय है सर्वही ऋद्धिधारीनिकै न होय है। बहुरि अवधि है सो च्यारीही गतिके जीवनिकै होय है । ऐसें स्वामीके भेदतें इनिमें भेद है। बहुरि विषयकी अपेक्षा भेद है सो आगें कहसी ॥
आगें केवलज्ञानका लक्षण कहनेका अवसर है। ताळू छोडि ज्ञाननिका विषयका नियम विचारिये है। काहेत ? जातें केवलज्ञानका स्वरूप दशम अध्यायमैं “ मोहक्षयात् " इत्यादि सूत्र कहसी । जो ऐसें है तो आधके मति श्रुत दोय ज्ञान तिनिका विषयनियम कहा? ऐसे प्रश्न होते सूत्र कहै हैं--
॥ मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २६ ॥ ___ याका अर्थ-- मति इरुत इनि दोऊ ज्ञाननिका विषयका नियम द्रव्यनिकैविर्षे केईक पर्यायवि है, सर्वपर्यायविष नाही है ॥ तहां निबंध कहिये विषयका नियम । इहां कोई कहे विषयका
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