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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १८१ ॥
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ऐसे दोऊके भावतें सर्वशून्यता आई। बहुरि जो पैला आत्मा सत्यार्थ है तौ घटादिक पदार्थभी सत्यार्थ कैसे न होय? । इहां फेरि कोई वादी कहै, इंद्रियज्ञान तो बाह्यपदार्थकू अवलंबै है बहुरि स्मरणादिक तो निरालंबन है। ताळू कहिये- अनुभवपूर्वक स्मरणादि प्रवर्ते है, तातें निरालंबन नाही । बहुरि श्रुतज्ञान है सोभी अर्थालंबनस्वरूप है । जातें श्रुतज्ञानतें वस्तुकू जाणि जो तिस वस्तुविर्षे प्रवर्ते है तहां बाधा नांही है। जो श्रुतज्ञानगोचर वस्तुविषं बाधा नांही सो तौ श्रुतज्ञान वस्तुके आलंबनस्वरूप सत्यार्थ है । बहुरि जहां बाधा होय, सो वह श्रुतज्ञान नाही श्रुताभास है ॥ __आगें मतिश्रुतकै लगताही कहनेयोग्य जो अवधिज्ञान ताका विषयका नियम कहा है ? ऐसा प्रश्न होतें सूत्र कहै हैं
॥ रूपिष्ववधेः ॥२७॥ याका अर्थ- अवधिज्ञानका विषयका नियम रूपी पदार्थनिविर्षे है ॥ इहां सूत्रविर्षे विषयनिबंधशब्दकी अनुवृत्ति पहले सूत्रनितें लेणी । बहुरि रूपी कहनेते पुद्गलद्रव्य ग्रहण करनां तथा | पुद्गलद्रव्यके संबंधसहित जीवद्रव्य लेने । बहुरि रूपीविर्षेही विषयनिबंध है ऐसा नियम करनेतें अरूपीद्रव्य न लेणे याके विषय नांही। बहुरि रूपीद्रव्यविभी केईक पर्याय अपनेयोग्य हैं तेही
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