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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय || पान १७६ ।।
समासकरि ऋजुविपुलमती ऐसा द्विवचन कीया है ॥ तहां मतिशब्द एकहीकरि अर्थ आय गया । तातें दूसरा मतिशब्द न कह्या । अथवा ऐसा भी समास होय है ऋजु बहुरि विपुल ए दोऊही मति है । तातें दोऊही जहां होय ते दोऊही ऋजुविपुलमती है । ऐसें कहनेतें यहु मनःपर्ययज्ञान दोय प्रकार भया ऋजुमति विपुलमति ऐसें । अब याका लक्षण कहै हैं |
वीर्यांतराय मन:पर्ययज्ञानावरणकर्मका तौ क्षयोपशम बहुरि अंगोपांगनामा नामकर्मका उदयका लाभके अवलंबन आत्माकै परके मनके संबंधकी पाई है प्रवृत्ति जानें ऐसा जो ज्ञानोपयोग ताकूं मन:पर्ययज्ञान कहिये । इहां कोई कहै, मनके संबंधकरि भया तातें या मैं मतिज्ञानका प्रसंग है। तहां कहिये, याका उत्तर तौ पूर्वै सामान्यज्ञान के सूत्रके व्याख्यानमैं कह्या था, sit अपेक्षामा है उत्पत्तिकारण नाही । परके मनविषै तिष्ठता पदार्थ कूं यह जाने है एतावन्मात्र अपेक्षा है । तहां ऋजुमतिज्ञान है सो कालतें जघन्य तौ आपके तथा अन्यके दोय तथा तीन भवका ग्रहणकूंं कहै | बहुरि उत्कृष्ट सात आठ भव कहै पहले भी अरु अगले भी । बहुरि क्षेत्र जघन्य तौ च्यारि ले आठ कोशतांईकी कहै । उत्कृष्ट च्यारि योजनतें ले आठ योजनतांईकी कहै । बाह्यकी नही है | बहुरि विपुलमतिज्ञान है सो कालतें जघन्य तौ सात आठ भव अगिले पिछलेका ग्रहण
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