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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १७० ॥
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तरफ बैठा होय सो मंत्री होय । यहु यातें पूर्वदिसाकी तरफ है । यह याते दक्षिणदिसाकी तरफ है । यहु यातें उत्तरदिसाकी तरफ है। याका यहु नाम है इत्यादि वाक्य पूर्व सुणे थे । ताका संस्कार फेरि इनको देखे तब राजादिकका ज्ञान होय । बहुरि षण्मुख स्वामिकार्तिकेय है, ब्रह्मा चतुर्मुख है । ऊची नासिकावाला सुखदेव है । दूधजलकू न्यारा करनेवाला जाकै चूंच सो हंस है। सप्तपत्रवाला अशोकवृक्ष है ऐसे वाक्यनितें यथार्थकी प्राप्ति सोभी आगम है । तथा रूपकादि अलंकारनितें ज्ञान होना सोभी आगमप्रमाण है । ऐसँही उपमानप्रमाणभी आगमप्रमाणही है । बहुरि पूर्व जाळू देख्या था तथा बहुरि फेरि देख्या; तब जाणी “ यह पूर्व देख्या सोही है ऐसा जानै " ताईं प्रतिभा कहिये सो प्रत्यभिज्ञान है, सो मतिज्ञानही है । याकै पूर्वे शब्द लगाये तब आगमप्रमाण है । बहुरि संभव अभाव अर्थापत्ति अनुमान ए सर्वही नामपूर्वक तो आगमप्रमाण है । विनां नाम मतिज्ञानरूप प्रमाण है । ऐसें मतिज्ञान रुतज्ञान ए दोऊ पूर्वे सूत्रमें परोक्षप्रमाण कहे ते जानने ।
आगें प्रत्यक्षप्रमाण कहनेयोग्य है । सो दोय प्रकार है, देशप्रत्यक्ष सकलप्रत्यक्ष । तहां देशप्रत्यक्ष अवधि मनःपर्यय ज्ञान है । सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है । तहां पूछ है जो ऐसे है तौ प्रथमही अवधिज्ञान तीन प्रकारके प्रत्यक्षविर्षे आदि है सो कहिये? ऐसें पूछे कहै हैं- अवधि दोय प्रकार है |
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