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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १७१ ॥
एक भवप्रत्यय दूसरा क्षयोपशमनिमित्तक । तहां भवप्रत्ययकू कहै हैं
॥ भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम् ॥ २१ ॥ याका अर्थ- भवप्रत्यय अवधि है सो देवनारकीनिकै होय है ॥ तहां पूछे हैं- भव कहा ? | तहां उत्तर- आयु नामकर्मका उदयका है निमित्त जा• ऐसा आत्माका पर्याय सो भव कहिये , बहुरि प्रत्यय नाम कारणका है । सो भव है कारण ताकू ताहि भवप्रत्यय कहिये । ऐसा अवधिज्ञान | देवनारकी जीवनिकै होय है । इहां कोई पूछ है जो, ऐसे है तो क्षयोपशमनिमित्तपणा तिनकै न ठहस्सा । आचार्य कहै हैं । ऐसा दोष इहां नांही आवै है । जातें भवके आश्रयतें इनिकै क्षयोपशम होय है । तातें प्रधानकारण है ऐसा उपदेश है । जैसे पक्षीनिकै गमन आकाशविर्षे होय है तहां भवही प्रधाननिमित्त है किसिका सिखाया नांही है । तैसें देवनारकीनिकै व्रतनियमतपश्चरणके अभाव होतॆभी होय है, यातें भवप्रत्यय कहिये है। बहुरि भवप्रत्यय देवनारकीकैही है अन्यकै नांही ऐसा नियम | जाननां । जो ऐसें न होय तो भव तौ सर्वजीवनिकै साधारण है। तब सर्वहीकै याकी प्राप्ति
आवै । बहुरि अवधिकी हीनाधिकप्रवृत्तिभी देखिये है । तातें यह क्षयोपशमका विशेष है। बहुरि | देवनारकी सर्वहीकै अवधि नाही कहिये । सम्यग्दृष्टिनिहीकै अवधिज्ञान कहिये । जातें अवधि |
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