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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १६७ ॥
| तिनिमें वैखरी मध्यमा इनि दोऊविना तो इंद्रियज्ञान प्रवर्ते है । सो तो स्वसंवेदन हमारे इष्ट है। हमभी मानै हैं॥
बहुरि पश्यंती तथा सूक्ष्मा विनाज्ञान नाही प्रवर्ते है । जातें निश्चयात्मक व्यापारस्वरूप जो ज्ञान सो जो पश्यंती अभेदरूप वाणी ताविनां कैसे प्रवर्ते ? तथा सर्वव्यापक नित्य एकरूप शाश्वती बीजरूप सर्ववाणीका कारण सर्वज्ञानविर्षे प्रकाशरूप जो सूक्ष्मा वागी ताविनां कैसे प्रवर्ते? ऐसे शब्दाद्वैतवादी कहै हैं । ताडूं कहिये-जो, शब्दब्रह्म तौ तू निरंश मानै है, ताविर्षे च्यारी अवस्था कैसै होय? जो होय तो अंशसहित हूवा अनित्य ठहरै । अद्वैतपणां कैसे ठहरै ? जो कहै अविद्याते च्यारि अवस्था दीखै है तो अविद्या कोणकै है ? शदब्रह्म तो निरंश है ताकै अविद्या कैसै वणै? तथा निरंश शब्दकी सिद्धि कैसे प्रमाणते करिये? इंद्रियनिकरि तौ जाका ग्रहण नाही तथा जाका कछु एकताका लिंग नांही अर स्वसंवेदनमें आवै नाही, अर आगमतें भेदकीभी सिद्धि है अभेदही सिद्धि नाही, बहुरि केवल आगमहीते अन्यप्रमाणविनां तत्त्वकी सिद्धिभी प्रमाणभूत नाही, बहुरि शब्दब्रह्मते जुदाही आगमभी कछु है नाही, बहुरि ताके भेद अविद्यारूप बतावे तो अविद्यातें ताकी सिद्धि कैसे होय । इत्यादि युक्तिनै निरंशरादब्रह्मकी सिद्धि होती
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