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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || प्रथम अध्याय || पान १६५ ॥
कहिये तो कहा विरोध है ? बहुरि पढावनेवाले विना वेदका पढनां कैसे होय? जो कहै ब्रह्मा स्वर्गविषै आप अध्ययन करै है पीछे मनुष्यलोक मैं आय औरनिकं पढ़ावै है, तो ऐसे तौ सर्वही शास्त्र पढने पढानेवाले कहिये । जो ऐसेही अकृत्रिमता ठहरै तौ सर्वही शास्त्र अकृत्रिम ठहरै | बहुरि है जो मैं पूर्व शास्त्र पढे थे तेही अबहूं पढाऊं हूं। ऐसा अनुभव तौ काहूकै दीखे नाही तहां कहिये तत्काल हुवा बालक बछा माताका दूध खैचै है सो अनुभवविना कैसे खैचे है ? जो वाकै अनुभव है तौ खैच है, तैसेही शास्त्रका संस्कार पढने पढावनेवाले के होय तौ कहा विरोध ? बहुरि जो अक्षर पद वाक्यनिविषै व्युत्पत्ति काव्य रचनेवाले कवीश्वरनिकै देखिये है तैसैंही वेद की रचनाका कर्ता कहिये तौ यामैं कहा विरोध है ? तथा ऐसें भी सुणिये है सामगण तौ सामवेद कीया बहुरि रुचिरा रिचा करी । तातें वेदकै अपौरुषेयपणां कहा रह्या ? तातैं भारतादिककीज्यों वेदभी पदवाक्यस्वरूप है । सो पौरुषेयपणाही संभव है !
बहुवे अकृत्रिमपणां प्रमाणताका कारण मानिये तो ऐसेंही सर्वपदार्थनिकै अकृत्रिमपणां प्रमाणताका कारण क्यों न कहिये । बहुरि निर्दोष कारणतें उपजनां । बहुरि अपूर्वार्थपणां बाधारहि - पण प्रमाणताका कारण है । सो अनुमानादि प्रमाणविषै समान है । तातें निष्प्रयोजन वेदकै
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