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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय || पान १६६ । अपौरुषेयपणां काहेकूं कल्पिये । तातें आगमकै प्रमाणताभी स्याद्वादमत में असंभव बाधकप्रमाणतें साधी है सोही सत्यार्थ है । बहुरि कोई कहै जो शब्दपूर्वकही ज्ञान है ऐसा एकांत है । जातें ऐसा पदार्थही लोकवि नांही जो नामविना होय तथा नामविना निश्चय जाका होय । ताका उत्तर अकलंकदेव आचार्य ऐसै कया है, जो नाम कहे पहली स्मृति संज्ञा चिंता आभिनिबोध भेद लीये
ज्ञान प्रवर्ते है । अवशेष शब्दपूर्वक श्रुतज्ञान है । ऐसे कहनेतें जो अन्यवादी क है है, ज्ञान के पूर्व जो निरंतर वचनरूपपणां होय तौ ज्ञानका प्रकाश होय नाही । सो ऐसा कहनांभी निराकरण भया । वचनरूपताविनाही मतिज्ञान प्रकाशै है |
बहुरि शब्दाद्वैतवादीकी मानि कहकर निराकरण कीजिये है । बहुरि वह कहै, जो, वाणी च्यारि प्रकार है -- वैखरी मध्यमा पश्यंती सूक्ष्मा । तहां उर कंठ आदि स्थाननिकं भेदिकरि पवन निस ऐसा जो वक्ताका सासोछास है कारण जाकूं ऐसा अक्षररूप प्रवर्तती ताकूं तौ वैखरी कहिये | बहुरि वक्त की बुद्धि तो जाका उपादान है कारण है बहुरि सासोछासकूं उल्लंघि अनुक्र तैं प्रवर्तती ताकूं मध्यमा कहिये । बहुरि जामैं विभाग नांही सर्व तरह संकोच्या है क्रम जानें ऐसी पश्यंती कहिये । बहुरि अंतर प्रकाशरूप स्वरूपज्योतीरूप नित्य ऐसी सूक्ष्मा कहिये ।
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