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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ।। पान १५७ ।।
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॥ श्रुतं मतिपूर्व द्यनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ याका अर्थ- श्रुतज्ञान है सो मतिज्ञानपूर्वक है । बहुरि दोय भेदरूप है। ते दोय भेद अनेक भेदरूप तथा बारह भेदरूप हैं ।। यहां यह श्रुतशब्द है सो सुनने कू ग्रहणकरी निपजाया है । तोभी रूढिके वशतें कोईक ज्ञानका विशेष है तामें वर्ते है । भावार्थ, ज्ञानका नाम है। जैसें कुशल ऐसा शद है सो कुश जो डाभ ताकू छेदै ताकू कुशल कहिये । ऐसें व्युत्पत्तितें निपजाया है। तौभी | रूढिके वशतें प्रवीण पुरुषका नाम है तैसें जाननां । बहुरि यह ज्ञानविशेष कह्या सो कहा है ? ऐसे पूछ कहै हैं । 'श्रुतं मतिपूर्व' कहिये श्रुत है सो मतिपूर्वक है । ऐसें श्रुतकै प्रमाणरूप ज्ञानपणा | है। जो पूरै उत्पत्ति करै ताळू पूर्व ऐसा कहिये । सो पूर्व ऐसा नाम निमित्तका भया जाळू कारणभी कहिये । बहुरि मतिके स्वरूप पहलै कह्याही था। सो मति है कारण जा• ताकू मतापूर्वक कहिये। इहां कोई कहै, जो, मतापूर्वक श्रुत कह्या सो यहुभी मतिस्वरूपपणांही प्राप्त होयगा। जातें लोकविर्षे कारणसारिखाही कार्य देखिये है । तहां कहिये हैं, जो, यहु एकांत नाही अन्यसारिखाभी होय है। जैसें घट है सो दंड चाक आदि कारणकरि निपजै है, परंतु तिस स्वरूप नाही है । बहुरि | ऐसाभी है, जो, बाह्यकारण तो मतिज्ञानादिक विद्यमान होय अरु जाकै श्रुतज्ञानावरणकर्मका प्रबल
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