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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १५९ ॥
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मतिपूर्वकपणां श्रुतकै कैसै ठहरै ? ताकू कहिये । यह कहना अयुक्त है । जाते ज्ञानकै सम्यक्षणा सम्यक्त्वकी अपेक्षा” भया है। ज्ञानका स्वरूपका लाभ तौ अनुक्रमतेंही है। ऐसें मतिपूर्वकपणामें विरोध नाही!
बहुरि कोई कहै है, मातिपूर्वक श्रुत है यह लक्षण तो अव्यापक है-सर्वश्रुतज्ञानमैं व्यापै नांही। जाते श्रुतपूर्वक रुत मानिये है । सोही कहिये है। शब्दरूप परिणया जे पुद्गलस्कंध ते अक्षर पदरूप भये । तब घट आदि शब्द कर्ण इंद्रियका विषय भया। तथा ताके रूपादिक नेत्र | आदिके विषय भये, पीछे तेही पहलै रुतज्ञानके विषय भये । तिनिमें किछ व्यभिचार नाही । तिनितें कीया है संकेत जानें ऐसा पुरुष है सो घट ऐसे शब्दके गोचर जो घट नामा पदार्थ तातें जलधारणादिक जे कार्य तिनरूप जो दूसरा संबंधका विशेष ताही प्राप्त हो है। तथा धूमादिक | पदार्थतें अम्यादिक वस्तुकू प्राप्त हो है । तिस काल रुतज्ञानते श्रुतज्ञान भया ऐसें कहते आचार्य | उत्तर कहै हैं । जो, यह दोष नांही है। तिस श्रुतज्ञानकैभी उपचारतें मतिपूर्वकपणांही कहिये । | जाते श्रुतज्ञानकैभी कोई ठिकाणे मतिहीका उपचार कीजिये है। जाते मतिपूर्वकही सोही इरुतज्ञान || भया है ऐसें जाननां । बहुरि सुत्रमें भेदशब्द है सो जुदा जुदा कहनां दोय भेदभी है, अनेक
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