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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १५८ ॥
उदय होय तौ श्रुतज्ञान होय नाही । श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशमका प्रकर्ष होय तव श्रुतज्ञान उपजै । ऐसे मतिज्ञान निमित्त मात्र जाननां । मतिसारिखाही श्रुतज्ञान न जाननां ॥
बहुरि इहां कोई कहै है, जो, श्रुतकुं तौ अनादिनिधन मानिये है। याकू मतिपूर्वक कहनेते नित्यपणाका अभाव होय है । जातें जाका आदि है सो अंतसहितभी होय है । बहुरि पुरुषका कीयापणातें अप्रमाणभी ठहरै है । तहां आचार्य कहै हैं । यह दोष नाही है । द्रव्यादिक सामान्यकी अपेक्षा तौ श्रुत अनादिनिधन मानिये है । काहू पुरुष कोई क्षेत्रकालविर्षे नवीन कीया नाही । बहुरि तिनि द्रव्य क्षेत्र काल भावनिकी विशेषापेक्षाकरि श्रुतका आदिभी संभव है । तथा अंतभी संभवै है । याते मतिपूर्वक कहिये है । जैसे अंकुरा है सो बीजपूर्वक हो है । सोही संतानकी अपेक्षाकरि अनादिनिधन चल्या आवै है । बहुरि अपौरुषेयपणां प्रमाणका कारण नाही है । जो ऐसे होय तौ चोरि आदिका उपदेशका संतान अनादिनिधन अपौरुषेय चल्या आवै है । सो यहुभी प्रमाण ठहरै । या उपदेशका कर्ता कोई• यादि नाही, जो, वा पुरुषनै चोरीका उपदेश चलाया है । बहुरि अनित्य प्रत्यक्षादि प्रमाणही है । अनित्यके प्रमाणता कहिये तो कहा विरोध है ? बहुरि | कोई कहै है, प्रथम उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति होते ज्ञानभी सम्यक् तिसही कालमें होय है । तातें
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