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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १५६ ॥
कारी होय तो स्पर्शन इंद्रियकीज्यों स्पा जो अंजन ताका रूपकू देख ले । सो अंजनका रूपकुं नेत्र नाही जाने है । यातें मनकीज्यों नेत्र अप्राप्यकारी है ऐसा निश्चय कीजिये । तातें नेत्र मन इनि दोऊविना अवशेष च्यारि इंद्रियनिकै व्यंजनावग्रह होय है । ऐसें या व्यंजनावग्रहके बहु आदि बारह विषयकी अपेक्षा अठतालीस ४८ भेद होय हैं। ऐसे अर्थावग्रहके २८८ मिलि मतिज्ञानके | तीनसै छतीस ३३६ भेद होय हैं । बहुरि नेत्रके अप्राप्यकारीकी विधिनिषेधकी चरचा विशेषकरि
श्लोकवार्तिकमें है । तहांतें जाननी ॥ कोई कहै, जैसे नेत्र दूर जाने है तैसे शब्दभी दूरतें सुणिये ।। है । तातें अप्राप्यकारी कहौ । ताडूं कहिये, ऐसें नाही है । जातें जिस ठिकाणेते शब्द उपजै है | तहातै लगाय कर्णइंद्रियके प्रदेशताईके पुद्गल शब्दरूप होय जाय है, तब सुणिये है । ऐसेंही गंधद्रव्य | जहां तिष्ठै है तहां” लगाय नासिका इंद्रियके प्रदेशताईके पुद्गल गंधरूप होय जाय हैं । ते संघिये हैं ऐसें कर्णइंद्रिय तथा प्राणइंद्रिय प्राप्यकारी है । ऐसें नेत्र नाही हैं । यह अप्राप्यकारीही है ॥
आगें शिष्य पूछ है, जो, मतिज्ञान तौ स्वरूपते तथा भेदनसहित कह्या । ताकै लगता श्रुतज्ञान कह्या है । ताका अब लक्षण तथा भेद कहनेयोग्य है । ऐसें पूछे आचार्य सूत्र कहे हैं--
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