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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय || पान १५४ ॥
कोई पूछे है यह सूत्र काहेके अर्थि कह्या ? ताका उत्तर, जो, नियमकै अर्थ है | व्यंजनका अवग्रहही होय है । ईहादिक नाही होय है । ऐसा नियमकै अर्थ है । फेरि कोई कहै; जो, ऐसें है तौ नियमका वाचक एवकारशब्द इहां चाहिये । ताकूं कहिये, जो एवकार नांही चाहिये । जातें जाका विधान पहली सूत्रमैं सिद्ध हुवा होय ताकूं फेरि कहनां सो यह कहनांही नियमका वाचक है । अवग्रहका विधान पहली सूत्रमैं सिद्ध हुवा । इस सूत्र में फेरि अवग्रहका नाम कह्या, तातेंही नियम सिध्द भया । एवकार काहे कूं कहिये ? बहुरि इहां कोई प्रश्न करे है - अवग्रहका ग्रहण अर्थमैं तथा व्यंजन मैं तुल्य है । इनिमैं विशेष कहा है? ताका उत्तर अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह इनि दोऊनि मैं व्यक्त अव्यक्तका विशेष है । सोही कहिये है । जैसें नवा मांटीका डीवाविषै जलका कणां क्षेपिये तहां दोय तीन आदि कणाकरि सींच्या जेतैं आला न होय तेतैं तो अव्यक्त है । बहुरि सोही डीवा फेरि फेरि सींच्या हुवा मंद मंद आला होय तब व्यक्त है । तैसेंही श्रोवादि इंद्रियनिका अवग्रहविषै ग्रहणयोग्य जे. शब्दादि परिणया पुद्गलस्कंध ते दोय तीन आदि समयनिविषै ग्रह्या हुवा जेतें व्यक्त ग्रहण न होय तेतैं तौ व्यंजनावग्रह हो है । बहुरि फेरि फेरि तिनिका ग्रहण होय तव व्यक्त होय, तब अर्थावग्रह होय है । ऐसें व्यक्तग्रहणतें पहलें तौ व्यंजनावग्रह कहिये । बहुरि व्यक्त ग्रहणकूं
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