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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १५५ ॥ अर्थावग्रह कहिये । यातें अव्यक्तग्रहणरूप जो व्यंजनावग्रह तातें ईहादिक न होय है ऐसें जाननां ॥ ___आगें, सर्वही इंद्रियनिकै व्यंजनावग्रहका प्रसंग होते जिनि इंद्रियनिकै व्यंजनावग्रह न संभवै, तिनिका निषेधकै अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९॥ ___ याका अर्थ- नेत्र इंद्रिय अरु मन इनि दोऊनिकरि व्यंजनावग्रह न होय है। जातें ए दोऊ अप्राप्यकारी कहिये पदार्थतें भिडिकरि स्पर्शनकरि नांही जाने हैं दूरिहीतें जाने हैं। जातें | अप्राप्त कहिये विना स्पा अविदिकं कहिये सन्मुख आया निकट प्राप्त हूवा बाह्य प्रकाशादिककरि प्रगट कीया ऐसा पदार्थकू नेत्र जाणे है। बहुरि मन है सो विनां स्पा-दृर तिठ्या पदार्थकू विचारमें
ले है । यातें इनि दोऊनिकै व्यंजनावग्रह नाही हो है । बहुरि इहां कोई पूछ है, जो, नेत्रकै अप्रा. | प्यकारिपणां कैसे निश्चय कीजिये? ताका उत्तर- जो, आगमतें तथा युक्तितें निश्चय कीजिये | है । सो प्रथम तौ शास्त्रमें कह्या है, जो, शब्द तौ स्पर्शने सुणिये है। बहुरि रूप है सो अस्पर्शते | | देखिये है । बहुरि गंध स्पर्श रस ये स्पर्श तथा संधाणरूप भये जाणिये है । यहु तो आगम है । || बहुरि यह युक्ति है जो नेत्र है ते अप्राप्यकारी है, जाते यह स्पर्शकू नाही जाने है। जो पाप्य.
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