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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir eddreameraలకలంకులfier తను ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १५५ ॥ अर्थावग्रह कहिये । यातें अव्यक्तग्रहणरूप जो व्यंजनावग्रह तातें ईहादिक न होय है ऐसें जाननां ॥ ___आगें, सर्वही इंद्रियनिकै व्यंजनावग्रहका प्रसंग होते जिनि इंद्रियनिकै व्यंजनावग्रह न संभवै, तिनिका निषेधकै अर्थि सूत्र कहै हैं ॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९॥ ___ याका अर्थ- नेत्र इंद्रिय अरु मन इनि दोऊनिकरि व्यंजनावग्रह न होय है। जातें ए दोऊ अप्राप्यकारी कहिये पदार्थतें भिडिकरि स्पर्शनकरि नांही जाने हैं दूरिहीतें जाने हैं। जातें | अप्राप्त कहिये विना स्पा अविदिकं कहिये सन्मुख आया निकट प्राप्त हूवा बाह्य प्रकाशादिककरि प्रगट कीया ऐसा पदार्थकू नेत्र जाणे है। बहुरि मन है सो विनां स्पा-दृर तिठ्या पदार्थकू विचारमें ले है । यातें इनि दोऊनिकै व्यंजनावग्रह नाही हो है । बहुरि इहां कोई पूछ है, जो, नेत्रकै अप्रा. | प्यकारिपणां कैसे निश्चय कीजिये? ताका उत्तर- जो, आगमतें तथा युक्तितें निश्चय कीजिये | है । सो प्रथम तौ शास्त्रमें कह्या है, जो, शब्द तौ स्पर्शने सुणिये है। बहुरि रूप है सो अस्पर्शते | | देखिये है । बहुरि गंध स्पर्श रस ये स्पर्श तथा संधाणरूप भये जाणिये है । यहु तो आगम है । || बहुरि यह युक्ति है जो नेत्र है ते अप्राप्यकारी है, जाते यह स्पर्शकू नाही जाने है। जो पाप्य. atsaproxesirezithreatsa ksixcertiliteritsabreritalists For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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