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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय || पान १४३ ॥
साध्यवस्तु न होय, तहां प्राप्ति न होय । तथा जहां साधन होय तहां साध्य होयही होय ॥
बहुरि साध्य के तीन विशेषण हैं; शक्य, अभिप्रेत, अप्रसिद्ध । तहां जो साधने की योग्यता लये होय सोही साध्य | जामैं योग्यता नांहीं सो साध्य नांही, जैसे आकाशकै फूल | बहुरि जो साधनेवाला पुरुष अभिप्रायमें ले, सोही साध्य, तिसविना जगत्मैं अनेक वस्तु हैं ते वाकै साध्य नांही । बहुरि पहलै सिद्ध न हूवा होय, सो साध्य । सिद्ध भये फेरि साधना अफल है। ऐसे साध्यके सन्मुख जो पूर्वोक्त साधनकरि नियमरूप ज्ञान होय, तातें याकूं अभिनिबोधभी कहिये । इहां कोई कहै; शास्त्रमें मतिज्ञानसामान्यक नाम अभिनिबोध कया है; तुम स्वार्थानुमानं अभि निबोध कैसे कह्या ? ताका उत्तर - जो, सामान्यार्थकी विशेषविषै प्रवृत्ति होतें विरोध नांही । जो अवग्रहादि अनेकभेदरूप मतिज्ञान कहिये तदि तौ सामान्यकूं अभिनिबोध कहिये । बहुरि जब विशेष लीजिये तत्र स्वार्थानुमानकुंभी कहिये । तहां साधन के संक्षेपतें दोय भेद है; उपलब्धि अनु पलब्धि । तहां इंद्रिय मनकरि वस्तुका सद्भावका ग्रहण होय सो तौ उपलब्धि कहिये | बहुरि अभावका ग्रहणकूं अनुपलब्धि कहिये । तहां कार्योपलब्धि जैसैं; या पर्वत में अभि है, जातै अमिका कार्य धूम दीखे है । बहुरि कारणोपलब्धि जैसैं; वर्षा होसी, जातें याका कारण बादल सघन दीखे
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