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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १४२ ।। शून्यता आवै । तातें स्मृतिप्रमाण मानेही अन्यप्रमाण सिद्ध होय है । बहुरि स्मृतिकीज्यों अपने विषयविर्षे प्रत्यभिज्ञानभी बाधारहित है । अतीतवस्तुका यादि करनां जो स्मरण सो याका कारण है । सो अतीतकू यादिकरि वर्तमानमें तिसही वस्तूकू देखि बहुरि अतीतवर्तमानकी एकता जोड रूपकू जाननां तथा अतीत सारिखी वस्तु देखि दोऊके समानताका जाननां सो प्रत्यभिज्ञान है सो सत्यार्थ है । जैसें में बालक था सोही मै अब युवा हूं बूढा हूं इत्यादि । तथा पहले घट देख्या था तैसाही यह दूसरा घट है इत्यादि । याके भेद बहुत हैं सो प्रामाणशास्त्रतें जाननै ।
बहुरि साध्यसाधनके अविनाभावसंबंधरूप जो व्याप्ति, ताका जाननां सो तर्क है । सोभी प्रमाण है । सो यहु अप्रमाण होय तौ अनुमानभी प्रमाण न ठहरै। बहुरि अनुमानादिकमैं यहु | गर्भित होय नाही । ताते न्याराही प्रमाता जाननां । याका उदाहरण- जैसे धूम अमिका संबंध
देखिकार ऐसा निश्चय कीया; जो, जहां जहां धूम है तहां तहां नियमकरि अग्नि है । ऐसे निश्चय | करनेका नाम तर्क है । सो सत्यार्थ है, तातें प्रमाण है । जो यह ज्ञान अप्रमाण होय तो अनुमान
प्रमाण कैसै ठहरै ? बहुरि साधन कहिये लिंग-चिन्ह, तातें साध्य कहिये जाननेयोग्य वस्तु लिंगी | चिन्हवान्, ताका निश्चय करनां सो स्वार्थानुमान है । तहां साधन ताकू कहिये; जाकी जह
కుజునకు వసులను నడుము
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