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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || प्रथम अध्याय || पान १४६ ।
ज्ञान
स्मरणविषै इंद्रियनिकी याकै अपेक्षा नाही है । बहुरि नेत्रादिककीज्यों बाह्यतें अन्य मनुष्यादिक तिनिकरि न जाणिये है । ताही अंतर्गत इंद्रिय ऐसा कहिये है । ऐसे ईपत् अर्थ याविषै संभव है || बहुरि कोई पूछे है - सूत्रविषं तत् शब्द किस प्रयोजनकूं है ? ताका उत्तर- तत् शब्द मतिके अर्थ है । बहुरि कोई कहै है - मतिज्ञान तौ लगताही है अनंतरही है । यातें ऐसा परिभाषा है, जो, अनंतरकी विधिका सूत्र होय के निषेधका होय । यातें ता मतिज्ञानका विना तत् शब्दही ग्रहण होय है । तत् शब्द निरर्थक है । ताकूं कहिये हैं- इहां तत् शब्द है सो इस सूत्र के अभी है बहुरि अगले सूत्र के अर्थिभी है । मत्यादिक पर्याय शब्दकरि कहने में आवै । ऐसा ज्ञान है सो इंद्रियानिंद्रियनिमित्तक है । ऐसें तौ इस सूत्र अर्थि भया । बहुरि सोही मतिज्ञान अवग्रह ईहा अवाय धारणा स्वरूप है ऐसे अगिले सूत्रकै अर्थि भया । जो ऐसें न होय तत् न कहिये तो पहले मत्यादिशब्दकरि वाच्य ज्ञान है ऐसें कहिवेकरि इंद्रिय अनिंद्रियनिमित्तक श्रुतज्ञान है ऐसा प्रसंग आवै । तथा सोही श्रुतज्ञान अवग्रह ईहा अवाय धारणास्वरूप है ऐसा अनिष्ट अर्थका संबंध होय है । बहुरि यहु विशेष जननां जो ए इंद्रिय मन हैं ते मतिज्ञानके बाह्य उत्पत्तिनिमित्त हैं। अंतरंग निमित्त तौ मतिज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशमही है ।
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