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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान १४७ ॥
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आगें कहै हैं, ऐसें मतिज्ञानका उत्पत्तिका निमित्त तो जाण्या; परंतु याके भेद केते हैं ? यह निर्णय न भया । ऐसा प्रश्न होते याके भेदनकी प्राप्तिकै अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ अवग्रहेहावायधारणाः ॥ १५॥ याका अर्थ- अवग्रह ईहा अवाय धारणा ए च्यारि मतिज्ञानके भेद हैं ॥ इनिका लक्षण कहिये हैं। विषय जे रूपादिक बहुरि विषयी जे इंद्रिय तिनका संबंध होते ताका लगताही तो दर्शन हो है । ताके लगताही वस्तुमात्रका ग्रहण सो अवग्रह है। जैसे नेत्रकरि यह श्वेतरूप है ऐसे ग्रहण सो अवग्रह है। बहुरि अवग्रहकरि ग्रहण कीया जो वस्तु ताका विशेषकी वांछा सो ईहा है। जैसे अवग्रहकरि श्वेतरूप देख्या सो कहा वुगलाकी पंक्ति है अथवा कहा धुजा है ? ऐसे याकू संशय न जाननां । जातें संशय तो दोय पक्षविर्षे अनिश्चित ज्ञान है अप्रमाण है। बहुरि ईहा एकही पक्षविर्षे वांच्छारूप ज्ञान है। जो वुगलाकी पंकति है तौ वाहीकी वांछा है। जो | पताका है तो वाहीकी वांछा है। बहुरि ईहाकरि जान्या था ताका विशेष अवयवादिकका निर्णय
होने जैसा है तैसा नियमरूप निश्चय होना सो अवायज्ञान है। जैसें ईहाविर्षे उगलाकी पंक्तीकी | तर्फ वांछा थी। परंतु धुजाका निषेध न कीया। अब इहां ऊंचा चढना नीचा आवनां पांख
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