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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १३६ ॥
केवलदर्शनभी है। आत्माहीका आश्रय ले उपजे है तेभी प्रमाण ठहरै । ताकू कहिये, यह दोष न आवै है । इहां सूत्रमें ज्ञानहीका अधिकार है । तातें ज्ञानही लेना, दर्शन न लेना । बहुरि कोई | कहै, जो, विभंग तो ज्ञान है ताका प्रसंग आवैगा यहुभी आत्माहीकू आश्रय ले उपजै है । ताळू कहिये, इहां सम्यक्का अधिकार है, तातें विभंगज्ञान न लेनां । यहु विपर्ययस्वरूप है । जाते मिथ्यात्वके उदयतें विपरीतपदार्थकों ग्रहै है । तातें यहु सम्यक् नाहीं ॥
इहां वैशेषिकका आश्रयतें प्रश्न है; जो, इंद्रियव्यापारतें होय सो प्रत्यक्ष कहिये । विना इंद्रि. यव्यापार होय सो परोक्ष कहिये । ये लक्षण यथार्थ वाधारहित है सो माननां । ताका उत्तर जो, यहु
अयुक्त है । ऐसें होय तो आप्त सर्वज्ञकै प्रत्यक्षज्ञानका अभाव होय । जो इंद्रियज्ञानही प्रत्यक्ष मानिये | तो आप्तकै प्रत्यक्षज्ञान न होय । जो आप्तकैभी इंद्रियपूर्वक ज्ञान कल्पिये तो ताकै सर्वज्ञपणांका
अभाव होय । जो कहै, सर्वज्ञकै मनसूं भया प्रत्यक्ष है तो मनके चितवनपूर्वककैभी सर्वज्ञपणाका तो अभावही आवैगा । बहुरि कहै, जो ताकै सर्वपदार्थनिके ज्ञानकी आगमतें सिद्धि हो है । सो ऐसेंभी नाहीं । जातें आगम तो प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक होय सो प्रमाण है ।
बहुरि बौद्धमती कहै है योगीश्वरनिकै अलौकिक दिव्यज्ञान औरही जातिका है । तो ऐसे
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