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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १३९ ॥
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___ इहां कोई प्रश्न करै, सकलप्रत्यक्ष जो केवलज्ञान सो योगीश्वरनिकै है ऐसा काहेरौं जानिये ? ताका उत्तर; जो, भलै प्रकार जाका निर्णय कीया जो बाधकप्रमाणका अभाव तातें जानिये, जो, योगीश्वरनिकै केवलज्ञान है। जाते समस्त आवरणके नाशते उपजै सो केवलज्ञान है। समस्तवस्तुकू एककाल इंद्रियादिक सहायविना सोही ज्ञान जान, जाकै आवरण न होय । ताका बाधक अल्पज्ञान है नाही । जा ज्ञानका जोही साधक तथा बाधक होय । अन्यज्ञानका अन्यज्ञान बाधक होय नाही यह न्याय है। बहुरि बौद्धमती प्रत्यक्षका लक्षण निर्विकल्प सत्यार्थ कहै है । सो सर्वथा निर्विकल्पक होय सो तो सत्यार्थ होय नांही। विपर्ययभी निर्विकल्पक है । निर्विकल्पकते अर्थका निश्चयही होता नांही । सत्यार्थ काहेतें होय? बहुरि नैयायिकमती इंद्रियमनकै अर आत्माकै पदार्थतें सन्निकर्ष होय ताकू प्रत्यक्ष कहै हैं। सो यहभी अयुक्त है। जातें ईश्वरकै ज्ञान इंद्रियमनतें होय तौ सर्वज्ञपनां न होय । जातें इंद्रियनिकै अर सर्वपदार्थनिकै संबंध नाही । तातें जो सूत्र प्रत्यक्षका कह्या सोही निराबाध है ॥ ___ आगें, कह्या जो परोक्ष प्रत्यक्ष दोय प्रकार प्रमाण तिनिमें आदि प्रकारके विशेषकी प्राप्तिकै || अर्थि सूत्र कहै हैं--
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