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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १३७ ॥
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कहै प्रत्यक्षपणा तौ ताकै न आवैगा । जातें ऐसा मान है, जो इंद्रियप्रति वर्ते ताळू प्रत्यक्ष कहिये । सो ऐसा मान्यां तव दिव्यज्ञान कहनै”भी प्रत्यक्षपना तौ न ठहरै। बहुरि औरभी दोष आवै है । जो सर्वज्ञका तो अभाव होय है । अरु प्रतिज्ञाकी हानी होय है । सोई दिखाईये है। योगीश्वरकै जो ज्ञान है सो एक एक पदार्थकू क्रमतें ग्रहण करै है कि अनेकपदार्थका ग्रहण करनेवाला है? जो एक एक पदार्थकों कमरौं ग्रहण करै है; तौ सर्वज्ञपणां नांही ठहरै है। जाते ज्ञेय तौ अनंत है, सर्वकू एककाल जाने सर्वज्ञ होय । बहुरि जो अनेक पदार्थकू ग्रहण करै है; तो जो बौद्धमती प्रतिज्ञा करी है ताकी हानि आवै है । सो प्रतिज्ञा कहा ? 'एक विज्ञान तो दोय पदार्थकू न जानै है। बहुरि दोय विज्ञान एक पदार्थकू न जानै है' ऐसी प्रतिज्ञा है, ताकी हानि होय है। अथवा सर्वसंस्कार हैं ते क्षणिक हैं ऐसी प्रतिज्ञा करै है, ताकीभी हानि होय है । जाते अनेकक्षणवर्ती एक विज्ञान मान्या । अनेक पदार्थका ग्रहण क्रमकरि होय है। बहुरि वै कहै; जो, अनेक पदार्थका ग्रहण एकक्षणवर्तिविज्ञानकै तिस एक कालही मैं होय है, तो यह बनै नांही। जातें जा क्षणमैं | ज्ञान उपज्या सो तो क्षण वा ज्ञानका स्वरूपका लाभही होय । जब आप भया ता पीछे अपना जो कार्य पदार्थका जाननां ताप्रति व्यापार करै । उपजनेहीकै क्षण तो जानै नांही । बहुरि वै
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