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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १३८ ॥ । कहै; जो, दीपकवत् जिस समय भया तिस समय पदार्थ प्रकाशै, तो यह दृष्टांत मिलै नांही ।
जाते दीपक तौ अनेकक्षणवर्ती है। ताकै पदार्थनिका प्रकाशन होय है । बहुरि तिस योगीश्वरके ज्ञानकू विकल्पते भेदनि रहित मानिये तब शून्यताका प्रसंग आवै है । जातें सर्वपदार्थनिळू भिन्न जानेविना तो वह ज्ञान शून्यही है ॥
बहुरि अकलंकदेव आचार्य प्रत्यक्षके तीन विशेषण कीये हैं। स्पष्ट, साकार, अंजसा ऐसै। तिनिका अर्थ-- स्पष्ट तौ जो वीचिमैं अन्यकी प्रतीतिका व्यवधान न होय अर वस्तुकू विशेषनिसहित जानै ऐसा है । सो द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानता करिये तब तो मतिश्रुतज्ञान अस्पष्टही है। जातें द्रव्यका समस्तपणाकू ए जाने नांही। इंद्रिय मन प्रकाशादिकके सहायतें किंचित् जानै है । | बहुरि पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता करिये तब मतिज्ञान व्यवहारके आश्रयतें किंचित् स्पष्टभी जाने | है ॥ बहुरि साकार कहने निराकारदर्शनका निषेध है । बहुरि अंजसा कहनेते विभंगज्ञान तथा | इंद्रियमनकरि अन्यथाज्ञान हो है ताका निषेध है । ऐसें कहनेतें सूत्रतेंभी विरोध नाही है। जाते | | प्रत्यक्ष ऐसा कहनेतें तो आत्माधीन है, इंद्रियाधीन नांही है । बहुरि ज्ञानकी अनुवृत्तितें दर्शनका || निषेध है । बहुरि सम्यक्के अधिकारतें कुज्ञानका निषेध है, ऐसें जाननां ॥
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