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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ॥ पान ९५ ।। असंयतसम्यग्दृष्टिकोनानाजीवकी अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीवकी अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट तेतीस सागर सतरा सागर सात सागर कछु घाटि है । पीतपद्मलेश्याविषै मिथ्यादृष्टि अनंयतसम्यग्दृष्टिको नानाजीवकी अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीवकी अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट दोय सागर अठारह सागर किछु अधिक है सो स्वर्ग अपेक्षा है । सासादन सम्यग्मिथ्यादृष्टिको गुणस्थानवत् काल है । संयतासंयत प्रमत्त अप्रमत्त संयतनिको नानाजीवकी अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीव अपेक्षा जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है । शुक्ललेश्याविषै मिथ्यादृष्टिको नानाजीव अपेक्षा सर्वकाल है | एकजीव अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट इकतीस सागर किछु अधिक है । सासादनसम्यग्दृष्टि आदि सयोगकेवलीपर्यंतनिका अर लेश्यारहितका गुणस्थानवत् काल है। विशेष यहु जो, संयतासंयतका नानाजीव अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीव अपेक्षा जघन्य एकसमय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है ॥
भव्यके अनुवादकरि भव्य विषै मिथ्यादृष्टिका नानाजीव अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीव अपेक्षा दोय भंग हैं। अनादि सांत सादि सांत । तहां सादिसांत जघन्य तौ अंतर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट अपुग परिवर्तन कछु घाटि है । सासादन आदि केवलीपर्यंतनिका गुणस्थानवत् काल है । अभव्यनिका अनादि अनंत काल है |
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