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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १३२ ॥
| निर्वाध सिद्ध कीया है। कोई कहै है " प्रमाणपणा प्रवृत्तिसामर्थ्यते निश्चय होय है" सो प्रमाणकरि प्रतीतिमें आया जो पदार्थ ताके निकटि होते वाके फलकी प्राप्ति होय तब जानिये कि यह प्रमाण है। यह प्रवृत्तिसामर्थ्यते प्रमाणता आई, परंतु इहां अनवस्था दूषण होय है । जातें प्रवृत्तिसामर्थ्यका समानजातीय ज्ञानकी प्रमाणता अन्यप्रवृत्तिसामर्थ्यतें होयगी तब अनवस्था आवैहीगी। बहुरि प्रवृत्ति है सो तो जे परीक्षावान् हैं तिनिकै तो प्रमाणका निश्चय होय तब होय है । बहुरि लौकिकजनकै विना निश्चयभी प्रवृत्ति हो है। बहुरि परीक्षावान्भी कोई पदार्थनिविर्षे अपरीक्षावान है । जाते सर्वपदार्थनिकी परीक्षा तौ सर्वज्ञकै है। अन्य तौ कोई प्रकार | परीकक्ष है कोई प्रकार अपरीक्षक है । सो परीक्षक है सोहू अपरीक्षक है, ऐसें जाननां ॥
बहुरि इहां कोई पूछे, अन्यवादीनिके प्रमाणनिकी संख्याका निराकरण कैसे है? ताकू कहिये है, जे अन्यवादी चार्वाक एक प्रत्यक्षप्रमाणही मानै है ताकै परके चित्तकी वृत्तिकी सिद्धि अनुमानविना होयगी नांही। ताकै अर्थि अनुमान मानेगा तब एकही प्रमाण माननां कैसे सिद्ध होयगा? बहुरि बौद्धमती प्रत्यक्ष अनुमान ए दोय प्रमाण मानै है । ताकै साध्यसाधनके | व्याप्तिसिद्धि करनेकू स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क ए तीन प्रमाण चाहियेगा। तब दोयकी संख्या
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