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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ॥ पान १३० ॥
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चन्द्रमाका सामान्यपणां निर्वाध है। तथा निर्विकार नेत्रवाले चंद्रमा तौ एकही दिखै, परंतु निकटही दीखे है । ऊगता जमीसूं लगता दीखै । सो याकी ऊचाईका योजनांकी अपेक्षा सबाध | है। तथा शास्त्रकरि ग्रहणका काल तौ निश्चय कीया सो तो निर्वाध है। परंतु दोय अंगुल च्यारि अंगुल ग्रहण होगा, यह कहनां निर्बाध नाही। जातें यह विमान केता चौडा है? तामै केता आच्छादित हुवा? यह तो प्रत्यक्षज्ञानी जानें, याकी अपेक्षा सवाध है। ऐसे मतिश्रुत अपने विषयविभी प्रमाणाप्रमाणस्वरूप है। तथा अन्य भी उदाहरण- जैसें पर्वत तथा वृक्षोंका समूहरूप वन इत्यादि वस्तु दूरिौ तौ औरसाही दीखे निकट गये औरसाही दीखै ऐसें जाननां । इहां कोई पूछै, जो ऐसे है तो यहु याका ज्ञान प्रमाण है यहु याका ज्ञान अप्रमाण है ऐसा नियम कैसे कहिये? बहुरि नियम कीयाविना व्यवहार कैसे प्रवर्तेगा! ताका उत्तर-जो, व्यवहार मुख्यगौणकी अपेक्षातें प्रवर्ते है । जैसें काहू वस्तुमैं सुगंध बहुत देखि लोक कहै यह सुगंध द्रव्य है, तहां वा द्रव्यविर्षे स्पर्शादिकभी पाईये हैं। परंतु वाकी मुख्यता न करै । तातें जिनके मतविर्षे एकांत ज्ञान प्रमाण अप्रमाण दोऊ स्वरूप नांही है तिनिकै यह छद्मस्थका ज्ञानकै प्रमाणता न आवैगी। तब अपना मतभी न सिद्ध होगा।
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