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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय । पान १३१ ॥
बहुरि अन्यवादी ज्ञानकोंही प्रमाण मानि याका स्वरूप लक्षण एकांततैं अन्यप्रकार कहै हैं । सोभी सवाध है । तहां बौद्धमती कहै हैं, जो 'अविसंवादि ज्ञानं प्रमाणं, कहिये जायें विसंवाद न होय सो ज्ञान प्रमाण है । ताकूं पूछिये; जो कहैगा प्रमाताकी इच्छा जहां पूरि होय जाय तहां अविसंवाद है, तौ स्वप्रादिकका ज्ञानभी प्रमाण ठहरेगा, तहांभी वांछापूरण होय जाय है । बहुरि कहेगा, जो, जहां वस्तूकै अर्थक्रिया ठहरै, तहां अविसंवाद है, तौ गीतादि शब्दका ज्ञान तथा चित्रामादिकका ज्ञानकै प्रमाणता ठहरेगी। तहां स्वरूपमात्रका ज्ञान है, अर्थक्रिया नही है । ऐसें बौद्धकर मान्या अविसंवाद लक्षण बाधासहित है || बहुरि और भी मतके एकांत प्रमाणके लक्षण तथा विशेषण जुदे जुदे करे हैं ते युक्तिशास्त्रतैं बाधासहित हैं । ते श्लोकवार्तिकादिकतें जानने । जैनमतमें तौ " स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्” ऐसा लक्षण परीक्षामुखविषै
है । और शास्त्र पाठांतर का है । सोही निर्वाध है । बहुरि प्रमाणका प्रमाणपणां कैसें होय ? तहां सर्वथा एकांतवादी केई तौ तिस प्रमाणही प्रमाणपणांका निश्चय होय है ऐसें कहै हैं । केई अन्यतें प्रमाणता हो है ऐसें कहै हैं । सो यहु बाधासहित है । स्याद्वादकर अभ्यासदशा में तौ प्रमाणका निश्चय प्रमाणही होय है । बहुरि विना अभ्यासदशा में परतें निश्चय होय है ऐसा
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