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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १२६ ॥
अग्रहणका प्रसंग आवै । ते पदार्थ इंद्रियनितें सन्निकर्ष होय नाही। याहीते सर्वज्ञका अभाव आवै । ऐसेंही इंद्रियकू प्रमाण मानिये तो येही दोष आवै । जातें नेत्रादिकका अल्पविषय है । तथा ज्ञेय अनंत है। तथा सर्वही इंद्रियनिके सन्निकर्षभी नांही है। नेत्र अर मनकै प्राप्यकारी कहिये पदार्थनिका प्राप्त होनेका अभाव है अप्राप्यकारी है ताका वर्णन आगै करसी ॥
इहां अन्यवादी कहै हैं, जो तुमनें ज्ञानकू प्रमाण कह्या, तो याका फलका अभाव आवेगा। बहुरि प्रमाणका फल चाहियेही । बहुरि हम कहै हैं तहां फलका सद्भाव नीकै बणे है । जो सन्निकर्ष तथा इंद्रिय तौ प्रमाण है अरु याते अर्थका ज्ञान हो है सो प्रमाणतें जुदा फल हो है, | यह कहना युक्त है । ताकू कहिये, जो तें कह्या सो अयुक्त है। जातें जो सन्निकर्षप्रमाण होय | अर्थका ज्ञान फल होय तौ प्रमाता अर प्रमेय जो अर्थ ते दोऊ भिडिजाय, तब सन्निकर्ष होय है। सो याका फल जो अर्थका ज्ञान, सो प्रमाताकै अरु प्रमेय पदार्थकै दोऊनिकै हुवा चाहिये । | ऐसे होते अन्यपदार्थकभी अर्थका ज्ञानकी प्राप्ति आवै है । बहुरि वे कहैं, जो, अर्थका ज्ञान तो चेतन जो आत्मा ताकै होय है। अन्य जडके कैसैं होय? तौ वाकू कहिये, आत्माकू ज्ञानस्वभाव तो तू माने नांही। अरु समवाय तें चेतन मान है, सो ऐसें तौ आत्माभी चेतनाविना जडही |
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