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1990
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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || प्रथम अध्याय || पान १२५ ।।
लक्षणका सूत्र न्यारा कह्या बहुरि ज्ञानका न कह्या सो कारण कहा ? ताका उत्तर जो, जहां शब्दकी निरुक्ति मैं व्यभिचार आवै तहां न्यारा लक्षण कह्या चाहिये । यातें दर्शन नाम देखनेका प्रधान है । तातें श्रद्धानार्थके निमित्त लक्षण न्यारा कह्या । बहुरि ज्ञानविषै निरुक्तिही अर्थ अव्यभिचारी है, तातैं लक्षण न्यारा न कह्या ऐसा आशय है ।
आगे कहै हैं, जो पूर्वै कह्या था, जो, प्रमाणनयकरि अधिगम होय है । तहां केई तौ ज्ञ प्रमाण मा हैं । केई सन्निकर्षकं प्रमाण माने हैं । केई इंद्रिय प्रमाण कहै हैं । यातें अधिकार मैं लीये जे मत्यादि ज्ञान तिनिकै प्रमाणपणाके प्रगट करने कै अर्थि सूत्र कहै हैं-॥ तत्प्रमाणे ॥ १० ॥
याका अर्थ - तत् कहिये पूर्वे कहे जे पांच ज्ञान ते दोय प्रमाण है । इहां तत् शब्द है सो अन्यवादी सन्निकर्ष तथा इंद्रियकूं प्रमाण कल्पै हैं ताके निषेधके अर्थ है । तत् कहिये सो मत्यादिक ज्ञान कहे सोई प्रमाण है । अन्य नांही है । इहां अन्यवादी पूलै जो, सन्निकर्ष तथा इंद्रिय प्रमाण मानिये तौ दोष कहां ? ताकूं कहिये हैं, जो, सन्निकर्षकूं प्रमाण मानिये तो सूक्ष्म अंतरित विप्रकृष्ट जो परमाणू रामरावणादिक, मेरुपर्वतादिक पदार्थ हैं तिनिका प्रमाणविषै
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