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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १२३ ॥
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करि जो जानें, अथवा जाकरि जानिये, अथवा जाननेमात्र सो अवधिज्ञान है । बहुरि मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशमते परके मनविर्षे प्राप्त जो पदार्थ ताकू जाणे, अथवा जाकरि जानिये, तथा जो जानना सो मनःपर्ययज्ञान कहिये । इहां परके मनविर्षे प्राप्त जो पदार्थकू मन ऐसा संज्ञा साहचर्यतें कही है। इहां कोई कहै याकै मतिज्ञानका प्रसंग आवै है ? ताकू कहिये इहां | मनकी अपेक्षामात्रही है, कार्यकारणभाव नांही है। अपने प्रतिपक्षी कर्मके क्षयोपशममात्रतेही भया है। ताळू अपने परके मनकी अपेक्षामात्रतें मनःपर्यय ऐसी संज्ञाकरि कह्या है । जैसे काहूनें कही या बादलेविर्षे चंद्रमाकू देखो, तहां बादलेकी अपेक्षामात्र है। चंद्रमा बादलेतें भया
तौ नाही । तैसें इहांभी जाननां । बहुरि जा ज्ञानके अर्थि तपस्वी मुनि केवते' कहिये सेवन | करै ताकू केवलज्ञान कहिये । इहां के सेवने' ऐसी धातुतें केवलशब्द निपज्या है । अथवा | यहु ज्ञान असहाय है बाह्य कछु सहाय न चाहै है । जैसें मतिश्रुतज्ञान इंद्रिय प्रकाशादिकका | सहायतें जानें है, तैसें इहां नांही, केवल एक आत्माहीतें प्रवते है । तातें केवल कहिये । अब | इनिका सूत्रवि प्रयोगके क्रमका प्रयोजन कहै हैं ॥
केवलज्ञान अंतविर्षे पाईये है, तातें अंतहीमें धस्या है। ताके निकट मनःपर्ययज्ञान
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