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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय । पान १२७ ॥ ठहरेगा। बहुरि ज्ञानस्वभावही मानेगा तो तेरी प्रतिज्ञाकी हानि आवैगी। तातें हम कहै हैं सो युक्त है। ज्ञानकू प्रमाण कहतें फलका अभाव है। यह दोष नाही आवै है । कथंचिद्भेदाभेदरूप याका फलभी है। प्रथम तौ अर्थका यथार्थज्ञान होय तब तिस अर्थकेविर्षे प्रीति उपजै है । कर्मकरि मैला जो यह आत्मा ताके इंद्रियनिके आलंबनते अर्थका ज्ञान होय । ताविर्षे उपादेय जानि प्रीति उपजै है । सो यह प्रीति वा प्रमाणका फल है । बहुरि यथार्थज्ञान होय तब रागद्वेषके अभावतें मध्यस्थभाव होय सो दूसरा यह फल है। बहुरि पहलै अर्थका अज्ञान था ताका नाश भया सो तीसरा यह फल है । ऐसें हमारे प्रमाण फलरहित नाही है ।
अब या प्रमाणशब्दका अर्थ कहै हैं । 'प्रमीयते अनेन' कहिये याकरि वस्तु प्रमाण करिये ऐसें तौ करणसाधन भया । बहुरि 'प्रमिणोति' कहिये जो वस्तुकू प्रमाण करनेवाला, सो प्रमाण है, ऐसें कर्तृसाधन भया । बहुरि ‘प्रमितिमात्र' कहिये वस्तुका प्रमाण करना सो भावसाधन
भया। याको क्रियासाधनभी कहिये । इहां कोई पूछे, इस प्रमाणकरि कहा प्रमाण करिये! | ताकू कहिये, जीवादिक पदार्थ प्रमाण करिये । फेरि पूछै, जो, जीवादिकका अधिगम तौ प्रमा| णकरि करिये । बहुरि प्रमाणका अधिगम काहेकरि करिये ? जो अन्य प्रमाण कल्पिये तो
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