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। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ॥ पान १२१ ॥
| कालका परिमाण कहनां । अंतर कहिये एकगुणतें दूसरै गुण जाय फेरी तिसही गुण आवै ताकै बीचि जेते काल रहै सो विरहकाल है, ताकू अंतर कहिये, ताका कहनां । भाव कहिये औपशमिक |
आदि पंच भाव हैं, तिनिका कहना । अल्पबहुत्व कहिये परस्पर दोयकी अपेक्षातें संख्याका हीनाधिकपणां कहनां । ऐसें इनि आठ अनुयोगनिकरि वस्तुका अधिगम होय है। तिसका उदाहरण जीवनामा वस्तुका गुणस्थान मार्गणापरि कह्या सो जाननां । ऐसेंही यथासंभव आगमके अनुसार सर्ववस्तुपरि लगावणां । केई नास्तिकवादी वस्तूकू सर्वथा अभावरूपही कहै हैं, तिनिका निराकरण सत् कहनेतें होय है । केई वस्तुकू सर्वथा एक अभेद कहै हैं, तिनिका निषेध भेदनिकी गणनातें जाननां । केई वस्तुके प्रदेश नांही माने हैं तिनिका निषेध क्षेत्र कहनेतें जाननां । केई वस्तुकू सर्वथा क्रियारहित माने हैं तिनिका निषेध स्पर्शन कहनेतें जाननां । अथवा जो कोई वस्तुका | सर्वथा कदाचित् प्रलय होना मानै हैं तथा क्षीणकही मानै तिनिका निषेध कालका नियम कहनेतें होय है। केई वस्तुकू क्षणिकही माने हैं तिनिका निषेध अंतरके नियम कहनेतें होय | है। केई वस्तूकू एकही माने हैं तथा अनेकही माने हैं तिनिका निषेध अल्पबहुका नियम कहनेतें | होय है । ऐसें वस्तु अनंतधर्मात्मक है। ताके द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा विधिनिषेधतें |
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