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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय । पान १२० ॥
तिनितें असंख्यात गुणां संयतासंयत है । तिनितें असंख्यातगुणां असंयतसम्यग्दृष्टि है । अवशेषनिकै अल्पबहुत्व नही है । जातैं विवक्षित एक एक गुणस्थानही है ||
संज्ञीका अनुवादकरि संज्ञी निकै चक्षुर्दर्शनवालेवत् है । असंज्ञीनिकै अल्पबहुत्व नही है । दो संज्ञारहितनिकै केवलज्ञानीवत् है ॥
आहारकके अनुवादकर आहारक निकै काययोगीवत् है । अनाहारकनिकै सर्व स्तोक सयोगकेवली है । तिनितैं संख्यातगुणां अयोगकेवली है । तिनितें असंख्यातगुणां सासादनस म्यग्दृष्टि है । तितेिं असंख्यातगुणां असंयतसम्यग्दृष्टि है । तिनितें अनंतगुणां मिथ्यादृष्टि है । ऐसें मिथ्यादृष्टि आदिनिकै गत्यादिकविर्षे मार्गणाकरि सो सामान्यकरि है । तहां सूक्ष्मभेद आगमतें अविरोधकरि अंगीकार करनां ||
इहां सत् आदिका संक्षेप भावार्थ ऐसा जाननां - जो, सत् कहिये वस्तु है, ऐसा अस्तित्वका कहना । संख्या कहिये यह वस्तु केती है, ऐसें भेदनिकी गणना कहनां । क्षेत्र कहिये यह वस्तु वर्तमानकाल मैं एते क्षेत्र में है, ऐसा कहना । स्पर्शन कहिये यह वस्तु तीन कालमें एते क्षेत्र में विचरै है, ऐसा कहनां । काल कहिये निश्चय व्यवहाररूप है, सो जिस वस्तु अपेक्षा जेता
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