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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ।। पान ११५ ॥
SAGASPARACORPAGAPATRINAKPRONICIPROGRAPATREACANPROGNASPAR
संज्ञीके अनुवादकरि संज्ञीनिकै गुणस्थानवत् । असंज्ञीनिकै औदयिक भाव है। दोऊ संज्ञारहितनिकै गुणस्थानवत् भाव है ॥
आहारकके अनुवादकरि आहारकनिकै अर अनाहारकनिकै गुणस्थानवत् भाव है। ऐसे भावका निरूपण मोहकर्म अपेक्षा उदाहरणरूप समाप्त भया ।
आगै अल्पबहुत्वका वर्णन कीजिये है । सो दोय प्रकार । सामान्यकरि, विशेषकरि । तहां प्रथमही सामान्यकरि तीन उपशमश्रेणीवाला सर्वतें स्तोक कहिये थोरा है ।। ते अपने अपने गुणस्थानकालवि प्रवेशकरि तुल्यसंख्या हैं। अर उपशांतकषायवालाभी तितनाही है । बहुरि | तीन क्षपकश्रेणीवाला इनितें संख्यातगुणा है। अर क्षीणकषाय छद्मस्थ वीतरागभी तितनाही है।
अर सयोगकेवली अयोगकेवली प्रवेशकरि तुल्यसंख्या है। अर सयोगकेवली अपने कालविर्षे | | भेले होय ते इनितें संख्यातगुणां हैं। बहुरि अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणां हैं। तिनितें प्रमत्तसंयत
संख्यातगुणां हैं । तिनितें संयतासंयत असंख्यातगुणां है । तिनितें सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा | हैं। तिनितें सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणां हैं। तिनितें असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणां हैं। | तिनितें मिथ्यादृष्टि अनंतगुणां हैं ।
ఆరుదకులకు
రకులను
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