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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ११६ ॥
विशेषकरि गतिके अनुवादकरि नरकगतिविर्षे सर्वपृथ्वीनिविर्षे नारकी जीव सर्वते स्तोक सासादनसम्यग्दृष्टि हैं। तिनितें संख्यातगुणां सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं। तिनितें असंख्यातगुणां असंयतमम्यग्दृष्टि हैं । तिनितें असंख्यातगुणां मिथ्यादृष्टि हैं । तिर्यंचगतिवि तिर्यंच सर्वतें थोरा संयतासंयत हैं। अन्यकी संख्या गुणस्थानवत् है। मनुष्यगतिविर्षे मनुष्यनिकै उपशमश्रेणीवाला आदिविर्षे अर प्रमत्तसंयतनिताई गुणस्थानवत् । तिनितें संख्यातगुणां संयतासंयत हैं । तिनितें सासादनसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणां हैं । तिनि” संख्यातगुणां सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं । तिनितें अमंयतसम्यग्दृः ष्टि संख्यातगुणां हैं। तिनितें मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणां हैं। देवगतिवि देवनिके नारकीयत् अल्पबहुत्व है ॥ इंद्रियके अनुवादकरि एकेंद्रिय विकलत्रयविर्षे गुणस्थानभेद नांही। तातें अल्पबहुतका अभाव है । इंद्रिय अपेक्षा कहिये । तहां पंचेंद्रिय आदि एकेंद्रियपर्यंत उत्तरोत्तर बहुत्व है। पंचेंद्रियनिके गुणस्थानवत् । विशेष यहु जो मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणेही है ॥
कायके अनुवादकरि स्थावरकायविर्षे गुणस्थानभेद नाही. तातें अलाबहुत्वका अभाव है । कायप्रति कहिये है, तहां सर्वतें थोरा तेजस्कायिक हैं, तिनितें बहुत पृथिवीक.यिक हैं, तिनितें बहुत अप्कायिक हैं, तिनितें बहुत वातकापिक हैं, सर्वते अनंतगुणां वनस्पतिकायिकै हैं। त्रसकायिकनिकै पंचेंद्रियवत् है ।।
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