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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान ११२ ॥ आगै भावकू प्रगट कीजिये ॥ तहां भाव दोय प्रकार । सामान्यकरि गुणस्थान, विशेषकरि मार्गणा। तहां प्रथम ही सामान्यकरि मिथ्यादृष्टि तौ औदयिक भाव है। सामादनसम्यग्दृष्टि पारिणामिक भाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि क्षायोपशमिक भाव है । असंयतसम्यग्दृष्टि औपशमिक अथवा क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव है। इहां असंयतपणां है सो औदयिकभावकरि है । संयतासंयत प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत ऐसे क्षायोपशमिक भाव है । च्यारि उपशमश्रेणीवाला औपशमिक भाव है। च्यारि क्षपक श्रेणीवालानिविर्षे अर सयोगकेवली अयोगकेवली. | निविर्षे क्षायिक भाव है ॥
विशेषकरि गतिके अनुवादकरि नरकगतिवि प्रथमपृथिवीवि नारकी मिथ्या दृष्टि आदि असंयतसम्यग्दृष्टिपर्यंतनिके गुणस्थानवत् भाव है। दूसरी पृथिवी आदि सातमीपर्यंत मिथ्यादृष्टि सासादन सम्यमिथ्यादृष्टीनिकै गुणस्थानवत् । असंयतसम्यग्दृष्टिकै औपशमिक क्षायोपशमिकभाव है । असंयत है सो औदयिकभावकरि है । तिर्यंचगतिवि तिर्यंचनिकै मिथ्यादृष्टि संयतासंयत पर्यंतनिकै गुणस्थानात् भाव है । मनुष्यगतिविर्षे मिथ्यादृष्टि आदि अयोगकेवलीपर्यंतनिके गुण थानवत् भाव है । देवगतिवि देवनिकै मिथ्यादृष्टि आदि असंयतसम्यग्दृष्टिपर्यंतनिकै गुणस्थानवत् भाव है ।।
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