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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान ८४ ।।
परस्थानविहार अपेक्षा स्पर्श किछू घाटि ।।
इंद्रियनिके अनुवादकरि मिथ्यादृष्टि एकेंद्रिय सर्वलोक स्पर्शे । विकलत्रय लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्शे । मारणांतिक अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श । पंचेंद्रियविर्षे मिथ्यादृष्टि लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्शे । परस्थानविहार अपेक्षा चौदह भागमेंसू आठ भाग देशोन मारणांतिक | अपेक्षा सर्वलोक स्पर्शे । बहुरि सासादन आदि सर्वगुणस्थानवर्तीकै गुणस्थानवत् स्पर्शन है ॥ कायके अनुवादकरि स्थावरकायिक तौ सर्वलोक स्पर्श है त्रसकायिकनिकै पंचेंद्रियवत् स्पर्शन है ।। |
योगके अनुवादकरि वचनमनोयोगीनिकै मिथ्यादृष्टिनिकै लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्श है । अर चौदह भागमेंसू आठ भाग देशोन है । अर सर्वलोकभी है । अर सामादनसम्यग्दृष्टि आदि क्षीणकषायपर्यंतनिकै गुणस्थानवत् स्पर्शन है । सयोगकेवलीनिकै लोकका असंख्यातवा भाग है । काययोगीनिकै मिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवलीपर्यंतनिकै अर अयोगकेवलीनिकै गुणस्थानवत् | स्पर्शन है ।
वेदके अनुवादकरि स्त्रीपुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि लोककै असंख्यातवा भाग स्पर्श है । अर चौदह भागमसूं आठ भाग नव भाग देशोन स्पर्श है । अथवा सर्वलोकभी स्पर्शे है । सासादनसम्यग्दृष्टि
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