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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ८७ ॥
कह्या । अर प्रमत्त अप्रमत्त संयत लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्शे । पद्मलेश्यावाला मिथ्यादृष्टि आदि असंयतसम्यग्दृष्टिपर्यंत लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्शे । अर आठ भाग देशोन चौदहमैंसूं अर संयतासंयत लोकका असंख्यातवा भाग अर चौदह भागमैसूं पांच भाग देशोन स्पर्शे । प्रमत्त अप्रमत्त संयत लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्शे । शुक्ललेश्यावाला मिथ्यादृष्टि आदि संयतासंयतपर्यंत लोकका असंख्यातवा भाग अर चौदह भागमैसू छह भाग देशोन स्पर्शे । प्रमत्त आदि सयोगकेवलीपर्यंतनिकै अर लेश्यारहितनिकै गुणस्थानवत् स्पर्शन है ॥
भव्यके अनुवादकरि भव्यनिकै मिथ्यादृष्टि आदि अयोगकेवलीपर्यंतनिकै गुणस्थानवत् स्पर्शन है। अभव्य सर्वलोक स्पर्शे है ॥
सम्यक्तके अनुवादकरि क्षायिकसम्यग्दृष्टीनिके असंयतसम्यग्दृष्टि आदि अयोगकेवलीपर्यंतनिके गुणस्थानवत् स्पर्शन है । विशेष यहु, जो, संयतासंयतनिका लोकका असंख्यातवा भागही है । क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिनिका गुणस्थानवत् स्पर्शन है । औपशमिकसम्यक्त्ववालेनिका असंयतसम्य
ग्दृष्टीनिका गुणस्थानवत् । अन्यका लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्शन है । सासादनसम्यग्दृष्टि || सम्यमिथ्यादृष्टीनिका गुणस्थानवत् स्पर्शन है ।।
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