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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान ८० ॥
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क्षेत्र है । अवधिदर्शनवालेनिका अवधिज्ञानीवत् है । केवलदर्शनवालेनिका केवलज्ञानीवत् है ॥ __ लेश्याके अनुवादकरि कृष्ण-नील-कापोतलेश्यावालेनिका मिथ्यादृष्टि आदि असंयतसम्यग्दृष्टिपयंतनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है। पीत-पद्मलेश्यावालेनिका मिथ्यादृष्टि आदि अप्रमत्तसंयतपर्यंतनिका लोकका असंख्यातवा भाग है । शुक्ललेश्यावालेनिका मिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषाय पर्यंतनिका लोकका असंख्यातवा भाग है । सयोगकेवलीनिका अर लेश्यारहित अयोगकेवलीनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है ।।
भव्यके अनुवादकरि भव्यनिका चौदहही गुणस्थानका सामान्योक्त कहिये गुणस्थानवत् क्षेत्र है । अभव्यनिका सर्वलोक है ।। ___ सम्यक्त्वके अनुवादकरि क्षायिकसम्यग्दृष्टिनिका असंयतसम्पग्दृष्टि आदि अयोगकेवलीपर्यंतनिका अर क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिनिका असंयतसम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयतपर्यंतनिका अर औपशमिकसम्यग्दृष्टिनिका असंयतसम्यग्दृष्टि आदि उपशांतकषायपर्यंतनिका अर सासादनसम्यग्दृष्टिनिका | अर सम्यमिथ्यादृष्टिनिका अर मिथ्यादृष्टिनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है ॥
संज्ञीके अनुवादकरि चक्षदर्शनवत् तो संज्ञीनिका क्षेत्र है । अर असंज्ञीनिका सर्वलोक है । | तिन दोऊनितें रहितनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है ।।
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