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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ॥ पान ७७ ।।
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संज्ञीके अनुवादकरि संज्ञीविर्षे मिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषायपर्यंत चक्षुर्दर्शनिवत् संख्या है । असंज्ञी मिथ्यादृष्टि अनंतानंत हैं । दोऊरहित गुणस्थानवत् संख्या है ॥
आहारकके अनुवादकरि आहारकनिवि मिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवलीपर्यंत गुणस्थानवत् संख्या । अनाहारकनिविर्षे मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि असंयत सम्यग्दृष्टि गुरुस्थानवत् संख्या । सयोगकेवली संख्यात हैं । अयोगकेवली गुणस्थानवत् संख्या है । ऐसे संख्याका निर्णय कीया ॥
अब क्षेत्रप्ररूपणा कहिये हैं । तहां क्षेत्र दोय प्रकार है । सामान्यकरि गुणस्थाननिका विशेषकरि मार्गणाका । तहां सामान्यकरि मिथ्यादृष्टिनिका सर्वलोक क्षेत्र है । सासादनसम्यग्दृष्टि आदि अयोगकेवलीपर्यंतनिका लोकका असंख्यातवा भाग है । सयोगकेवलीनिका लोकका असंख्यातवा भाग है । अथवा समुद्घातके प्रतर अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभाग है । पूरण अपेक्षा सर्वलोक है ॥ विशेषकरि गतिके नुवादकरि नरकगतिविर्षे सर्व पृथिवीनिवि नारकीनिका च्यार गुणस्थाननिवि लोकका असंख्यातवा भाग है । तिर्यंचगतिवि गिर्यचनिका मिथ्यादृष्टि आदि संयतासंयतताई गुणस्थानवत् क्षेत्र है । मनुष्यगतिविर्षे मनुष्यनिका मिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवलीपर्यंतनिका लोककै असंख्यातवै भाग है । सयोगकेवलीनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है ।
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