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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय || पान ६७ ॥ संक्षेपरुचिवाले हैं थोरे में बहुत समझे । बहुरि केई शिष्य विस्ताररुचिवाले हैं, बहुत कहै समझें । बहुरि केई शिष्य मध्यमरुचिवाले हैं, बहुतसंक्षेपतेंभी नाही समझें बहुतविस्तार कीये भी नाही समझें । बहुरि सत्पुरुषनिकै कहने का प्रयास है सो सर्वही प्राणीनिके उपकारकै अर्थ है । यातें अधिगमका उपाय भेदकर कया है । जो ऐसें न कहै तौ प्रमाणनयनिकरिही अधिगमकी सिद्धि हो है । अन्य कहना निष्प्रयोजन ठहरै । तातें भेदकर कहनां युक्त है ॥
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तहां जीवद्रव्यकूं आश्रयकरि सत् आदि अनुयोग द्वार निरूपण करिये हैं । जीव हैं ते चोदह गुणस्थान निविषै व्यवस्थित हैं । तिनिके नाम- १ मिथ्यादृष्टि । २ सासादनसम्यग्दृष्टि | ३ सम्यद्मिथ्यादृष्टि । ४ असंयतसम्यग्दृष्टि । ५ संयतासंयत । ६ प्रमत्तसंयत । ७ अप्रमत्तसंयत । अपूर्वकरण गुणस्थानविषै उपशमक क्षपक । ९ अनिवृत्ति बादर सांदरायस्थानविषै उपशमक क्षपक । १० सूक्ष्मसपरायस्थानविषै उपशमक क्षपक । ११ उपशांतकषाय वीतराग छद्मस्थ | १२ क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ १३ सयोगकेवली । १४ अयोगकेवली । ऐसे चौदह गुणस्थान जानने । बहुरि इनिकं जीवसमास संज्ञाभी कही है । सो इनके निरूपणाके अर्थ चौदह मार्गणास्थान जानने । तिनिके नाम - गति ४ । इंद्रिय ५ । काय ६ । योग १५ | वेद ३ | कषाय
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