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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ।। पान. ७१ ॥
संज्ञीके अनुवादकरि संज्ञीकेविर्षे आदितें लगाय वारह गुणस्थान हैं । असंज्ञीकेविर्षे एक मिथ्यादृष्टिही है । दोऊते रहित सयोगकेवली अयोगकेवली है।।
आहारकके अनुवादकरि आहारकवि मिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवलीपर्यंत तेरह हैं । अनाहारकविर्षे विग्रहगतिविर्षे मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि असंयतमम्यग्दृष्टि ए तीन गुणस्थान हैं । समुद्रातसहित सयोगकेवली है अर योगकेवली है । बहुरि सिद्धपरमेष्ठी हैं ते अतीतगुणस्थान हैं । ऐसें सत्की प्ररूपणा तो कही ।।
अब संख्याप्ररूपणा कहिये हैं । सो भेदनिके गणनाकू संख्या कहिये हैं । सो दोय प्रकार । सामान्यकरि गुणस्थानविर्षे, विशेषकरि मार्गणानिवि । तहां सामान्यकरि मिथ्यादृष्टि जीव तो अनंतानंत हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यमिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत पल्यके असंख्यातवै भागपरिमाण हैं । प्रमत्तसंयत पृथक्त कोडिसंख्या हैं । इहां पृथक्त ऐसी आगममें संज्ञा | है । सो तीन कोडीकै उपरि नवकोडीकै नीचे जाननी । ते ५९३९८२०६ हैं । अप्रमत्तसंयतसंख्या है
ते प्रमत्तसंयतनितें आधे हैं । ते २९६९९१०३ हैं। बहुरि च्यारि उपशमश्रेणीवाले प्रवेशकरि तो एक | अथवा दोय तीन आदि उत्कृष्ट चोवनताई हैं । बहुरि इनिका सर्वकालके भेले होय तब संख्यात हैं।
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