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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान ६८ ॥
२५ । ज्ञान ८ । संयम ७ । दर्शन ४ । लेश्या ६ । भव्य २। सम्यक्त ६ । संज्ञी २ । आहारक २ ऐसे ।।
तहां सत्प्ररूपणा दोय प्रकार है । सामान्यकरि, विशेषकरि । तहां सामान्यकरि तो गुणस्थानविर्षे कहिये । विशेषकरि मार्गणाविर्षे कहिये । तहां प्रथमही सामान्यकरि तो मिथ्यादृष्टि सत्रूप है । सासादनसम्यग्दृष्टि सत्स्वरूप है । ऐसें चौदहही गुणस्थान सत्स्वरूप कहने । बहुरि विशेषकरि गतिके अनुवादकरि नरकगतिविर्षे सर्व पृथिवीनिविर्षे आदिके च्यारि गुणस्थान हैं । बहुरि तिर्यंच गतिविर्षे च्यारि आदिके संयतासंयतकरि अधिक ऐसें पांच हैं । मनुष्यगतिवि चौदहही हैं। देवगतिविर्षे नरकवत् च्यारि हैं ।
बहुरि इंद्रियके अनुवादकरि एकेंद्रियतें लगाय चतुरिंद्रियपर्यंत एक मिथ्यादृष्टिगुणस्थान है। पंचेंद्रियविर्षे चौदहही हैं ।
बहुरि कायके अनुवादकरि पृथिवीकाय आदि वनस्पतिपर्यन्त पांच स्थावरकायविर्षे एक मिथ्यादृष्टिगुणस्थानही है । बसकायवि चौदहही हैं।
योगके अनुवादकरि मन वचन काय तीही योगविर्षे तेरह गुणस्थान हैं । तातें आगे | चौदहवा अयोगकेवलीमें योग नांही है ।
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