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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ।। पान ६६ ।।
॥ सत्सङ्खचाक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥ याका अर्थ --- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व इनि आठ अनुयोगनिकरिभी जीवादिक पदार्थनिका अधिगम होय है ॥ तहां सत् ऐसा अस्तित्वका निर्देश है । सत शद प्रशंसादिकवाचीभी है, सो इहां न लेणां । बहुरि संख्या भेदनिकी गणना है । क्षेत्र निवासकू कहिये सो वर्तमानकालका लेणा | स्पर्शन त्रिकालगोचर है । बहुरि काल निश्चयव्यवहारकरि दोयप्रकार है, ताका निर्णय आगे कहसी । बहुरि अंतर विरहकालकू कहिये । भाव औपशमिक आदि स्वरूप है । अल्पबहुत्व परस्पर अपेक्षाकरि थोरा घणां विशेषकी प्रतिपत्ति करनां । इन आठ अनुयोगनिकरि सम्यग्दर्शनादिक बहुरि जीवादिक पदार्थनिका अधिगम जाननां ॥ इहां प्रश्नजो, पहले सूत्रमें निर्देशका ग्रहण है ताहीते सत्का ग्रहण मिद्ध भया । बहुरि विधानके ग्रहणते संख्याकी प्राप्ति भई । अधिकरणके ग्रहणते क्षेत्रका अर स्पर्शनका ज्ञान होय है । स्थितिके ग्रहणते कालका ग्रहण आया । भावका ग्रहण नामादि निक्षेपविर्षे हैही । फेरि इनिका ग्रहण इन सूत्रमें कौन
अर्थि किया ? ताका समाधान आचार्य कहै हैं- जो, यह तो सत्य है । पहले सूत्र सिद्ध तौ होय है है । परंतु तत्त्वार्थका उपदेश भेदकरि दीजिये है । सो शिष्यके आशयतें है । जाते केई शिष्य तौ
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