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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || प्रथम अध्याय || पान ६५ ।। मानिये तब शून्यताका प्रसंग आवै । तातैं निर्देश आदिकरि जीव आदि पदार्थनिका अधिगम करनां ॥ इहां उदाहरण- निश्चय व्यवहार तौ नय, अरु दोऊ युगपत् प्रमाण इनिकरिकरणां तहां निश्चयनय तौ इहां एवंभूतकूं कह्या है । बहुरि व्यवहार अशुद्ध द्रव्यार्थिककूं का है । हां निश्चयनयतैं तौ अनादिपारिणामिक जो चैतन्यरूप जीवतत्त्व, ताकरि परिणमता होय, ताकूं जीव कहिये | बहुरि व्यवहारनयकरि औपशमिक आदि च्यारि भावस्वरूप जीवकूं कहे हैं । बहुरि निश्चय तौ अपने चैतन्य परिणामका स्वामी है ।। व्यवहार च्यान्यों भावनिका स्वामी है । बहुरि निश्चयतें
जीवत्वपरिणामका साधन है । व्यवहार च्यान्यही भावनिका साधन है । बहुरि निश्चयतें अपने प्रदेशनिक आधार है । व्यवहारतें शरीरकै आधार है । बहुरि निश्चयतें जीवन समयस्थिति है । व्यवहारतें दोय समय आदि स्थिति है तथा अनादि सांत स्थिति है । बहुरि निश्चयतें अनंतविधान है । व्यवहारतें नारक आदि संख्यात असंख्यात अनंत विधान है । बहुरि प्रमाणतें दोऊ नयका समुदायरूप स्वभाव है । इत्यादि जीवादि पदार्थनिविषै आगमतें अविरोध निर्देशादिका उदाहरण जाननां || आगे, ह्या इनहीकर जीवादिकका अधिगम होय है, कि औरभी अधिगमका उपाय है ? ऐसें पूछें कहैं हैं कि और भी है, ऐसा सूत्र कहै हैं
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