Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दूसरी जिल्द तिहासप्रेमी - For Pivate & Personal use Only | महाराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञान-गुण पुष्पमाला पुष्प नम्बर ३५ श्रीमद् रत्नप्रभसूरीश्वर पादकमलेभ्यो नमः श्री भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पूर्वार्द्ध [दूसरी जिल्द ] लेखक शीघ्रबोधादि तात्विक, ककाबतीसी अध्यात्म, पंचप्रतिक्रमणादि विधि विधान, व्याख्या विलासादि उपदेशीक, समाज सुधार विषय कागद हुन्डी पैठ परपैठ और मेझरनामा, स्तवनादि भक्ति विषय, प्रतिमा छत्तीसी दान छत्तीसी दयाबहुतरी, चर्चा, ऐतिहासिक विषय मूर्तिपूजाका प्राचीन इतिहास, लौकाशाह, जैनजाति महोदय या समसिंहादि विविध विषय २३५ ग्रन्थों के लेखक व सम्पादक इतिहास प्रेमी मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज प्रकाशक श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला मु० फलौदी ( मारवार) ओसवाल संवत् २४०० - वीर सं० २४६६ [वि० सं० २०००] ई० स० १६४३ सम्पूर्ण ग्रंथ का मूल्य प्रथमावृति [ ] ५०० ३१) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r-.. - . .-AA S AN प्रकाशक लिछमीलाल मिश्रीलाल वैद्य महता मन्त्री श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला फलोदी (मारवाड़) .14.11TMAIL aupassanmanss...anesenonence-ones -ms-be इस ग्रन्थ के शुरू के १६५ फार्म, इनर टाईटल तथा उसके बाद के फार्म आदर्श प्रिन्टिंग प्रेस, केसरगंज अजमेर में छपे हैं। - -- - सर्व हक स्वाधीन इस प्रन्थ के अन्त के ३५ फार्म, १६६ से २०० तक श्री नथमलजी लूणिया द्वारा सस्ता साहित्य प्रेस ब्रह्मपुरी अजमेर में छपे हैं। संचालक-जीतमल लूणिया . मुद्रकपावू चिम्मनलाल जैन आदर्श प्रिंटिंग प्रेस, कैसरगंज, अजमेर .00..--...0000000000. J................. .... ...........0000 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 29 भगवान् Private Personal use only श्री केसरियानाथ बावा Jain Education Internal भगवान् पार्श्वनाथ ध्यान में खड़े हैं Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dans le ** *. COTC+*.** estito che ..0 .... O .... . ..... .. ....eveda. ..... g . Shree Gyan-Gun Pushpa Mala. Pushpa No. 35 Shreemad Ratnaprabh Sooriswar Padkamlebhyo Namah Shree Bhagwan Qarshwanath ki Larampara ka Ýtihas POORVARDIHI [VOL:] Author Sheeghra-bodhaditatvik, Kakabateesi Adhyatma, Panch pratikramanade vidhi vidhan, Vyakhya vilasadi updesheek, Samajsudhar vishaya Kagad Hundi Peth Per-peth or Mejharnama stavnadi bhakti vishaya, Pratima chattisee, Dan chattisee, Dayabahutari, Charcha Eitihasik vishaya, Murti Puja ka Pracheen Itihas, Lonkashah, Jain Jati Mahodaya ya Samsinghadi vividh vishaya ke 235 Granthon ke Lekhak va Sampadak Itihas Premi Muni Shree Gyan Sunderji Maharaj Prakashak Shree Ratnaprabhakar Gyan Pushpa Mala PHALODI ( Marwar ) ....... ... . ..... di ...... . . ... .. ... . . .. . .... ..... 0 0 OSWAL SAMVAT 2400 .0 olul addisi opo000 Veer Samyat 2469. [V. Samvat 2000 ] Iswi Samvat 1943 . Tirst Edition 500 [ 41 41 41 41 41 ) dost of complete set Rs. 31 ON - .. ..tava Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher Lichmi Lal, Misri Lal Vaidya Mehta Secretary Shree Ratnaprabhakar Gyan Pushpa Mala PHALODI (Marwar) ..... !****** The first one hundred and sixty five forms, inner title & subsequent forms printed by Babu Chimman Lal Jain at Adarsh Printing Press, Kaisargunj, AJMER. ALL RIGHTS RESERVED. The last 35 forms, from 166 to 200, have been printed by Nathmul Loonia at the Sasta Sahitya Press, Brahmpuri, AJMER. Sanchalak-Jeet Mal Loonia Printer: ................................ Babu Chimman Lal Jain At ADARSH PRINTING PRESS, For Pale & Personal Use Only Kaisargunj, AJME! Personal use.On. ...... ....................inelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इतिहास-प्रेमी के साहित्य-रसिक मुनीश्रीज्ञानसुन्दरजी म. ® मुनिश्रीगुणसुन्दरजी म. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ शंकरलालजी मुनौयत -व्यावर- Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन । [ओसवाल संवत् ७१०-७३६ २७–प्राचार्य यक्षदेवसूरि ( पांचका) भूर्याख्यान्वयभूषणं सुचरितः सूरिस्तु यक्षोचरः । देवो दीर्घतयाः प्रभावमहितो नित्यं स्वधर्मे रतः ॥ तेनैवेय मिहागमज्जनतथा साकं सुभूपेन्द्रता । सेवायां स हि वन्दनीय चरितः कल्याणकारी प्रभुः ॥ Food DBOOR DDO प्राचार्य यक्षदेवसूरीश्वर एक यक्षपूजित महान प्रतिभाशाली धुरंधर विद्वान और योग विद्या में निपुण आचार्य हुये । पट्टावलीकारों ने आपके जीवन के @ @@@ विषय में बहुत विस्तार से वर्णन किया है पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैं POOOD यहाँ आपका पुनीत जीवन संक्षिप्त से ही लिखता हूँ। सिन्ध देश में धन धान्यपूर्ण वीरपुर नाम का नगर था वहाँ पर उपकेशवंशी भूरि गोत्रिय शाह गोशल नाम का धनकुबेर सेठ बसता था । शाह गोसल के पूर्वज पांचवों पुश्त लल्ल नाम का पुरुष हुआ और किसी कारण से वह उपकेशपुर का त्याग कर सिन्ध में आया और वीरपुर को अपना निवास स्थान बनाया । शाह लल्ल ने अपने आत्मकल्याण के लिये वीरपुर में भगवान पार्श्वनाथ का एक मन्दिर बनाया था। उस जमाने में यह तो एक जैनों की पद्धति ही बन गई थी कि जहाँ जाकर वे वसते वहाँ अपने मकान के पहिले जैन मंदिर की नींव डालते । शाह लल्ल के इतने पुण्य बढ़ गये कि एक ओर तो परिवार बढ़ता रहा तब दूसरी ओर धन भी बढ़ता गया । गोसल के समय भूरि गोत्रिय शाह लत्ल की संतान में परिवार सम्पन्न और धन धान्य से समृद्ध एक सौ घर होगये थे । शाह गोशल के दो स्त्रियां थीं, एक उपकेशवंश की जिसका नाम जिनदासी था तब दूसरी क्षत्रिय वंश की जिसका नाम राहुली था गोशल की वीरता एवं कार्यकुशलता से वहाँ का राव कोक ने गोसल को मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया। शाह गोशल की जिनदासी स्त्री के सात पुत्र और दो पुत्रिये थीं तब राहुली के चार पुत्र थे जिसमें धरण नामक पुत्र एक विलक्षण ही था अर्थात् उसका तप तेज पराक्रम सब क्षत्रियोचित ही था। धारण एक समय किसी विवाह प्रसंग पर अपने मामाल गया था। वहाँ कई भाई और कई सगा सम्बन्धी एकत्र हुए थे और राजपूतों का भोजन मांस मदिरा की मनुहारो हो रही थी। किसी ने धारण को भी इस कार्य में शामिल होने को कहा पर धारण के तो संस्कार ही ऐसे जमे हुये थे कि वह इन अभक्ष्य पदार्थों से घृणा करता था । धारण ने कहा कि यह मनुष्यों का नहीं पर राक्षसों का भक्ष्य है । बड़ी शरम की बात है कि राजपूत जैसी पवित्र एवं उच्च जाति कि जिस वंश में चौबीस तीर्थंकर एवं भगवान् रामचन्द्र श्रीकृष्ण पाण्डव वगैरह महापुरुषों ने अवतार लेकर दुनिया में अहिंसा धर्म का प्रचार किया जिनका उज्ज्वल यश वड़े बड़े ऋषि मुनि गा रहे हैं । बड़ी लज्जा की बात है कि उनकी संतान श्राज निर्दयतापूर्वक विचारे मूक प्राणियों के कोमल कंठ पर छुरेचलाकर अर्थात् उनका मांस भक्षण करने में खुशी मना रही है । पर याद रक्खो इसका फल सिवाय नरक के और क्या हो सकेगा इत्यादि खूब फटकारा। आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] ७४९ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३१०-३३६ वर्षे ] [ भगवान् पावेनाथ की परम्परा का इतिहास किसी ने कहा क्यों धरण तू तो वाणिया है, मास खाकर तेरे कौनसा संग्राम में जाना है तू तो अपनी दुकान पर बैठकर लून मिरच तोला कर । धरण ने कहा यह आपकी भ्रान्ति है कि मांस खाने वाला ही संग्राम कर सकता हैं पर अमांसभोजी में कितनी ताकत होती है यह आपको मालूम नहीं है यदि किसी को परीक्षा करनी हो तो मेरे सामने आइये फिर आपको मालूम हो जायगा कि ताकत मांस भक्षी में ज्यादा है या अमांस भोजी में । धरण था बाल ब्रह्मचारी उनके चेहरे पर प्रचण्ड तप तेज झलक रहा था किसी की ताकत नहीं हुई कि धरण के सामने आकर खड़ा हो । किसी ने कहा धरण तेरे अन्दर कितनी ही ताकत क्यों न हो पर अाखिर वह तेल घृत तोलने में ही काम आबेगी । न कि राज करने में ? __ धरण ने कहा कि क्या अमांस भोजी राज नहीं कर सकता है देखिये शिवनगर, डमरेल, उच्चकोट उपकेशपुर, चन्द्रावती, शिवपुरी, कोरंटपुर, पद्मावती, आदि के सब राजा अमांसभोजी होते हुये भी वे बड़ी वीरता से राज करते हैं और कई बार संग्राम में माँस भक्षियों को इस कदर परास्त किये हैं कि दूसरी बार उन्होंने कभी ऐसा साहस ही नहीं किया कि अमांस भोजियों के सामने जाकर खड़े हो । दूसरे राज करना कौनसी बड़ी भारी बात है परन्तु हमारा धर्म सिद्धान्त तो राज करने के वजाय राज त्यागने में अधिक गौरव समझता है । और पूर्व जमाने में बड़े बड़े चक्रवर्ती राजाओं ने राज्य त्याग करने में ही अपना गौरव एवं कल्याण समझा है । भाइयो ! त्याग कोई साधारण बात नहीं है एवं त्याग करना कोई कायरों का कामभी नहीं है । त्याग में बड़ी भारी वीरता रही हुई है और वीर होगा वही त्याग कर सकता है पर जो इन्द्रियों के गुलाम और विषय के कीड़े बन चुके हैं वे त्याग के महत्त्व को नहीं समझते हैं जैसे एक ग्रामीण भील रत्न के गुण को नहीं समझता है इत्यादि धरण ने उन मांस भक्षियों को ऐसे आड़े हाथों लिया कि उसके सामने किसी ने चूं तक भी नहीं की। धरण ने अपनी कुशलता से कई माँस भक्षियों को मांस का त्याग करवा कर अहिंसा भगवती के उपासक बना दिये । अतः इस कार्य में धरण की रुचि बढ़ गई औरजहाँ जाता वहाँ इसका ही प्रचार करता। धरण मामाल से अपने घर पर आया पर उसके दिल में वही बात खटक रही थी कि मैं एक छोटा बड़ा राज स्थापन कर वहाँ का गज करूँ पर यह कार्य कोई साधारण नहीं था कि जिसको धारण आसानी से कर सके । फिर भी धरण के दिल में इस काम के लिये सच्ची लगन थी। पहिले जमाने में राज छोटे २ हिस्सों में विभक्त थे और वे थे निर्मायक कि थोड़े थोड़े कारणों से एक दूसरे के साथ लड़ाइये किया करते थे । कभी कभी विदेशियों के आक्रमण भी हुआ करते थे । एक दिन वीरपुर पर भी एक सेना ने आकर आक्रमण किया उस समय धारण का पिता गोसल वहां का मंत्री था । उसने अपनी ओर से लड़ाई की तैयारिये की जिसमें धरण भी शामिल हुश्रा केवल शामिल ही क्यों पर धरण तो सेनापति बनने को तैयार हो गया । राजा कोक के मन में शंका तो रही थी कि यह महाजन ( बणिया ) क्या करेगा ? परन्तु धरण ने अच्छा विश्वास दिला दिया । अतः सेनापति पद धरण को दिया गया । बस, फिर तो था ही क्या, पहिले दिन की लड़ाई में धरण की विजय हुई। अतः धरण का उत्साह खूब बढ़ गया दूसरे दिन जोर से युद्ध हुआ और तीसरे दिन के संग्राम में दुश्मन की सेना को भगा दिया ७५० [ अमांस भोजी धरण की वीरता Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७१०-७३६ और उनका सामान भी छीन लिया । अतः राजा ने धरण की वीरता देख ७ प्राम उनको विजय के उपलक्ष में इनायत कर दिये। अब तो धरण सात प्राम का जागीरदार बन गया और अपनी हुकूमत चलाने लगा। धरण की तृष्णा इतने से शांत नहीं हुई फिर भी उसका संकल्प था वह सफल हो ही गया। इधर धर्मधुरंधर धर्मचक्रवर्ती एवं धर्मप्राण आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी अपने विद्वान शिष्यों के परिवार से जनकल्याण करते हुये वीरपुर नगर की ओर पधार रहे थे। शाह गोसल आदि को खबर होते ही उनके हर्ष का पार नहीं रहा । सूरिजी महाराज का सुन्दर स्वागत किया और गोसल ने धरण को भी खबर दे दी कि वह भी सूरिजी की सेवा में हाजिर हुआ । सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा होता था । वहां का राजा कोक भी सूरिजर्जा के व्याख्यान सुनने से सूरिजी का परम भक्त बन गया। एक दिन सूरिजी ने मनुष्य जन्म की दुर्लभता पर इस कदर व्याख्यान दिया कि यह मनुष्य जन्म चिन्तामणि रत्नतुल्य मिला है इसको जैसे किसान काग उड़ाने में रत्न फेंक देता है और मालूम होने पर पश्चाताप करता है इसी प्रकार लोग इस मनुष्य भव की कीमत को न समझ कर व्यर्थ ही गंवा देते हैं और पीछे पश्चाताप करते हैं। प्यारे बन्धुओ! लोहे से सोना बनाने की रसायन मिलना सुलभ है पर गंवाया हुश्रा नरावतार पुनः प्राप्त होना बड़ा ही दुर्लभ है। मनुष्य चाहे तो घर में रह कर भी इसको सार्थक बना सकता है पर घर में रहने से कई उपाधियां एवं झमटें पीछे लग जाती हैं कि वह इच्छा के होते हुये भी आत्म कल्याण नहीं कर सकता है । इत्यादि ज्यों ज्यों सूरिजी बातें कहते गये क्यों २ गजा और धरण के गले उतरती गई उन्होंने सोच लिया कि सूरिजी फरमाते हैं वह सोलह आना सत्य है और यह सब बातें हम खुद अनुभव कर रहे हैं। मनुष्य की दृष्टि सम हो जाती है फिर उनको ज्यादा उपदेश की जरूरत नहीं रहती है । जब सूरिजी का व्याख्यान समाप्त हुआ तब सब लोग अपने २ स्थान जाने लगे तो राजा धरण को अपने राज में ले गये और दोनों बैठ कर बातें करने लगे। राजा ने कहा धरण आज के व्याख्यान में सूरिजी ने कहा वह बात सत्य है । धरण ने कहा हां, दरबार मेरे भी यही जंचती है। राजा ने कहा फिर करना क्या है ? केवल जचने से ही क्या होता है । धरण ने कहा दरबार मेरी इच्छा तो बहुत है पर थोड़ी सी तृष्णा आड़ी श्रा रही है वरना मैं तो सूरिजी के हाथों से दीक्षा ले अपना कल्याण कर सकता हूँ। राजा ने कहा मैं जानता हूँ तेरे तृष्णा राज की है। ले मैं अपना राज तुमको दे देता हूँ बोल फिर क्या है ? धरण ने कहा हुजूर मैं जानता हूँ कि राजेश्वरी नरकेश्वरी होता है । खैर, दोपहर को सूरिजी के पास चलेंगे। इतना कह कर धरण तो अपने मकान पर श्रा गया। पीछे राजा ने विचार किया कि ये राज तो अस्थिर है या तो राज मुझे छोड़ जायगा या राज को मैं छोड़ जाउंगा इसलिये कुछ भी हो मुझे तो आत्म कल्याण करना है। इस प्रकार राजा ने दृढ़ संकल्प कर लिया। दोपहर को धरण के साथ राजा सूरिजी के पास गये और अपने मनोगत भाव सूरिजी की सेवा में निवेदन कर दिये । बस, फिर तो कहना ही क्या था सूरिजी जैसे चतुर दुकानदार भला आये हुये ग्राहक को कैसे जाने देने वाले थे। सूरिजी ने कहा राजन् ! आपका तो क्या राज है पर चारित्र के सामने छः खंड के राज की भी कुछ कीमत नहीं है। उन चक्रवर्तियों ने भी राज ऋद्धि पर लात मार के चारित्र की शरण ली थी। आयुष्य सरिजी का उपदेश और रैराग्य ] ७५१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३१०-३३६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के लिए क्षण भर का भी विश्वास नहीं है। जो विचार किया है वह शीघ्र ही कर लीजिये । राजा ने धरण के सामने देखकर कहा धरण ! सूरिजी महाराज क्या कह रहे हैं ? धरण ने कहा सूरिजी सत्य कह रहे हैं। यदि आप तैयार हैं तो आपकी सेवा में मैं भी तैयार हूँ। बस, दोनों ने निश्चय कर लिया कि इस असार संसार का त्याग कर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करेंगे। राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राहूप को गजतिलक कर दिया और राजा राहूप तथा मंत्री गोसल ने दीक्षा का बड़ा भारी महोत्सव किया। सिन्ध में गव रुद्राट के बाद राजा की दीक्षा होना यह पहला ही नंबर था। अतः दुनिया में बड़ी भारी हलचल मच गई । राजा और धरण के साथ कई ३५ नरनारी दीक्षा लेने को और भी तैयार हो गये। सूरिजी महाराज ने शुभ मुहूर्त में उन ३७ मुमुक्षुओं को विधि विधान के साथ भगवती जैन दीक्षा देकर उन सबका उद्धार किया। धरण का नाम मुनि जयानन्द रख दिया । मुनि जयानन्द बाल ब्रह्मचारी थे : धर्म प्रचार का पहिले से ही आपको शौक था । मुनि जयानन्द पर सूरिजी की पहिले से ही पूर्ण कृपा थी। दीक्षा लेने पर तो और भी विशेष हो गई । मुनि जयानन्द सबसे पहिले तो जैनागमों के अभ्यास को आवश्यक समझ कर उसके अध्ययन में लग गया । पर जिन्होंने अपने कर्म को कमजोर एवं निर्बल बना दिये फिर थी देवी सरस्वती की मेहरवानी उनको ज्ञान पढ़ने में क्या देर लगती है। यही हाल मुनि जयानन्द का था। उसने स्वल्प समय में वर्तमान जैन जैनेतर साहित्य का अध्ययन कर लिया। श्राचार्य रत्नप्रभसूरि भूभ्रमण करते हुये नागपुर नगर में पधारे वहाँ पर देवी सच्चायिका की सम्मति से महा महोत्सवपूर्बक मुनि जयानन्द को सर्वगुण सम्पन्न समम कर सूरिपद से अलंकृत कर श्रापका नाम अपने पट्टक्रमानुसार यक्षदेवसूरि रख दिया । कहा है कि 'कर्मेशूरा वह धर्मेशूरा' संसार में धरण कर्म में शुरवीर था अब यक्षदेवसूरि बनकर धर्म में शूरवीर बन गये । आचार्य यक्षदेवसूरि नागपुर से विहार कर मेदनीपुर, मुग्धपुर, शंखपुर, खटकुप नगर आदिन गरों में भ्रमण करते हुये उपकेशपुर पधारे । नूतनाचार्य के पधारने से जनता में खब उत्साह बढ़ गया । सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। सूरिजी ने महावीर और श्राचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा का बड़ा ही आनन्द मनाया । कुछ अर्सा वहाँ स्थिरता का माडव्यपुर होते हुये पाल्दिका नगरी में पदार्पण किया । पाल्हिका नगरी जैसे धन-धान्य से समृद्धिशाली थी वैसे ही उसमें जैनों की आबादी भरपूर थी एवं जैनों का एक केन्द्र ही था। सूरिजी का वीरतापूर्वक व्याख्यान सबको रुचिकर था । श्री संघ ने साग्रह चतुर्मास की प्रार्थना और सूरिजी ने लाभा-लाभ का कारण जान स्वीकार करली । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था । सूरिजी की एक तो तरुणावस्था थी दूसरे संसार में आप वीर थे अतः आपका व्याख्यान वीरतापूर्ण होता था, जिस किसी ने एक बार सुन लिया उसके हृदय में फिर कायरता तो रह ही नहीं सकती थी। सरिजी इस बात पर अधिक जोर दिया करते थे कि जैनधर्मवीरों का धर्म है तीर पुरुषों ने ही जैनधर्म का उद्धार एवं प्रचार किया है। तुम भी वीर बनो । मुक्ति वीरों के लिये हैं न कि कायरों के लिये । जैसे वीरता की ओर आपका लक्ष था वैसे ही उदारता की ओर भी आपका ध्यान था। एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि यों तो मनुष्य में अनेक गुण होना चाहिये पर सबसे पहिले मनुष्य में उदारता गुण की परमावश्यक है जिसमें एक उदारता का गुण है उसमें दूसरे सैकड़ों गुण स्वयं ही आ जाते हैं । यदि दूसरे सैकड़ों गुण हैं पर एक उदारता का गुण नहीं है तो दूसरे कोई गुण ७५२ [रावलोक और धर्म की दीक्षा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७१०-७३६ फल नहीं देंगे । यही कारण है कि तीर्थकर भगवान ने दीक्षा लेने के पूर्व दुनियों को सिखाने के लिये पहिले वर्षीदिन दिया था क्योंकि संसार भर इनका अनुकरण कर सहज ही में कल्याण कर सके। भगवान केशीश्रमणाचार्य सब गुणों की आवश्यकता जानते थे तथापि राजा प्रदेशी को सबसे पहिले दानधर्म का उपदेश दिया कि जो साधुओं की भिक्षा से भाग लेने वाला राजा प्रदेशी ऐसा उदार दिल वाला बन गया कि अपने राज की आमदानी का चतुर्थ भाग ज्ञानशाला में लगा दिया इसका विस्तार से वर्णन श्री राजप्रश्नी सूत्र में किया है। श्री त्रिपा सूत्र में सुबहु आदि दश राजकुमारों के अधिकार में लिखा है कि उन्होंने पूर्व भव में उदारता पूर्वक दान देकर ऐसे पुन्योपार्जन किये कि बड़े ही सुखों का अनुभव करते हुये कई एक भव और कई १५ भव में मोक्ष जाने का निश्चय कर लिया इत्यादि । श्रोतागण ! दान कोई साधारण धर्म नहीं है पर एक विशेष धर्म है जिसमें भी पात्र को दान देना । इसका तो कहना ही क्या है । ऐसा नीतिकारों ने फरमाया है। दूसरे को कोई भी पदार्थ देना उसको दान कहा जाता है वह दान दश प्रकार का है यथा१-अनुकम्पादान-दीन अनाथ दुःखी जीवों पर अनुकम्पा लाकर दान देना। २-संग्रहदान-व्यसनीया मृतपण्डादि मृत के पिछ दान देना ३-भयदान-राजा या बलवान के भय से दान देना। ४-कालुणा करुणा दान-पुत्रादि के वियोग में शोक वगैरह से दान देना । ५-लज्जादान-बहुत मनुष्यों के बीच रह कर उनकी लज्जा से दान देना । (-गर्वदान-नाटक नृत्यदि में दूसरों की स्पर्द्ध करता हुआ दान देना। ७-अधर्मदान-हिंसादि पाप करने वाले तथा व्यभिचारियों को दान देना । ८-धर्मादान---वृत्ति महात्मा को सत्पात्र जान कर दान देना। ९-प्रति उपकार-अपने पर उपकार करने वालों को दान देना। १४-कीर्तिदान-अपने यशः कीर्ति बढ़ाने के लिये दान देना। जैसे-एकमास में अमावश की रात्रि पर्व अंधेरा और पूर्णिमा की रात्रि में सर्वथा उज्जवल शेष २८ गत्रि किसी में उज्जवल अधिक अंधेरा थोड़ा किसीमें अन्धेरा अधिक उज्जवल कम है इसी प्रकार उपरोक्त दम प्रकार के दान में सातवाँ अधर्मदान हय और आठवाँ धर्मदान उपादय है शेष आठ दान ज्ञय हैं कारण इन आठ प्रकार के दानों में पुन्य पाप का मिश्रण है अनुकम्पादान-अभयदान यह विशेष पुन्य बन्ध का कारण है । अभयदान के लिये तो यहाँ तक कहा है कि यदि कोई दानेश्वरी एक सोना का मेरु पर्वत बना कर दान दे रहा है तब दूसरा एक मरता हुआ जीव को अभय यानी प्राणों का दान दे रहा है तो अभय. दान के सामने सुवर्ण का मेरु पर्वत कुछ भी गिनती में नहीं है अतः अभयदान सब दानों में प्रधान दान है । तथा सुपात्र दान के भी दो भेद हैं एक स्थावर और दूसरा जंगमदान-शास्त्रकारों ने फरमाया है किस्थावरं जङ्गमं चेति सत्पात्रं द्विविधं मत् । स्थावरं पत्र पुष्पाय प्रासादं प्रतिमादिकम् ॥ १॥ ज्ञानाधिकं तपः क्षमा निर्ममं निराकृतिम् । स्वद्यायब्रह्मचर्यादि युक्तं पात्रं तु जङ्गम ॥२॥ दानधर्म का उदार व्याख्यान ] ७५३ Jain Education Intek५०nal Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३१०-३३८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास इष्टदेव का मन्दिर बनाना मूर्तियों की प्रतिष्टा करवानी पुष्पादि से सेवा पूजा करना यह स्थावर सुपात्र दान है कि जिससे अनेक भव्य स्वपर का कल्याण कर सके दूसरा जङ्गम सुपात्र जो ज्ञानदर्शन चारित्र, तप, क्षमा, दया, तथा ममत्व एवं अहंकारादि रहित या स्वद्याय ध्यान योग श्रासन समाधि और ब्रह्मचर्यादि अनेक गुणों वाले महात्मा को दान देना यह जंगम सुपात्र दान है। साधु साध्वी श्रावक श्राविका मन्दिर मूर्ति और ज्ञान एवं सात क्षेत्र रूपी भूमि में दान रूपी बीज बोना और शुभ भावना रूपी जल सिंचन करने से भव भवान्तर में मोक्ष रूपी फल प्राप्त होता है अतः प्रत्येक बुद्धिवान का कर्तव्य है कि पूर्वोक्त शुभ क्षेत्र में यथाशक्ति दान करके सद् कर्म उपार्जन करना चाहिये। ___ उदाहरण के तौर देखिये ! एक समुद्र में अथाह जल है पर वह दूसरे का उपकार नहीं कर सके जब मेघ थोड़ा थोड़ा बरसता है वह सर्वत्र उपकार कर सकता है इसी प्रकार एक मनुष्य के पास अपार द्रव्य है पर वह दूसरे का उपकार नहीं कर सकता है तब वही धन थोड़ा थोड़ा दूसरे को दान रूप में दिया जाय तो अनेकों का उपकार हो सकता है अतः उदार मनुष्यों को चाहिये कि अपनी लक्ष्मी का दान करके लाभ उठावे । क्यों कि पाप और दुगति से बचाने वाला एक दान ही है यशः कीर्ति बढ़ाने वाला सुख सम्पति लाने वाला और संसार समुद्र से पार उतरने वाला एक दान ही है । दान देना तो बहुत बड़ी बात है पर दान देने वाले दानेश्वरी का अनुमोदन करने वाला एवं मुख देखने से भी स्वर्ग की प्राप्ती हो सकती हैं । महानुभावों । जैसे समुद्र का जल लेजाने से कम नहीं होता है पर बढ़ता है और उस जल का अच्छी तरह से रक्षण होता है इसी प्रकार धनवान के दान करने से धन कम नहीं होता है पर बढ़ता ही है कारण इस भव में शुभ कृत्य एवं उज्वल भावना से द्रव्य बढ़ता है तब भवान्तर में पुन्य वढ़ता है और पुन्य उदय होने से लक्ष्मी स्वयं आकर स्थिर वास करती है। जिस द्रव्य को खाना खर्चना और दूसरों को देना बस इतना ही द्रव्य तेरा है शेष द्रव्य के लिये तो केवल तू एक नौकर पहरेदार ही है। १-याचक घर २ में भटकते हैं वे यों तो भिक्षार्थ ही फिरते हैं पर दुसरा अर्थ इसका यह होता है कि वे जनता को चेतावनी देते हैं कि हमलोगों ने पूर्वभव में दान नहीं किया अतः इस प्रकार दीन होकर आपसे याचना करते हैं पर श्राप सावधान हो जाइये कहीं आपकी भी यही दशा न होजाय कि भवान्तर में हमारा अनुकरण करना पड़े । २-संग्रह करने से ही समुद्र रसातल में जाता है तब मेघ अपना जल ऊँच नीच सब को देता है इसलिये वह आकाश में गर्जना करता है । ३-जैसे मनुष्य गुणी होने पर भी उसमें कई ऐसे भी अवगुण पड़जाते हैं कि वह सब गुणों को दबा देते हैं । इसी प्रकार दान देने वाले दातार के लिये १-अनादर से देना २-विलम्ब करके देना ३-मुँह चढ़ा कर देना ४-कटु बचन बोलना ५-दान देने के बाद पश्चाताप करना एवं पांच दूषण होते हैं इन दूषणों से युक्त दान करने का उतना फल नहीं होता जो होना चाहिये । ४-थोड़ा दान करने बालों में भी कइ गुण होता है जैसे १-पात्र देख प्रसन्न होना, २-श्रादर सत्कार करना, ३-उदारता एवं बहुमान पूर्वक दान देना, ४-दान करने के बाद खुश होना और विशेष में ५-दान की बात को गुप्त रखना यह पांच दानेश्वर के भूषण हैं । इनके संयुक्त दान देने से महान पुण्य होता है। सुपात्र में दान देने से अनेक गुण प्राप्त होते हैं । जैसे दर्शन की शुद्धि, ज्ञान की वृद्धि, चारित्र की ७५४ [ दानधर्म का उदार व्याख्यान Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७१०-७३६ उज्जवलता, पुण्य का संचय, पाप का नाश, यश कीर्ति का पसारा विनय का विकाश, स्वर्ग का साधन और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ती होती है । कहा है कि-- व्याजे स्यादिगुणं वित्त व्यवसायो चतुगंणम् । क्षेत्रे दशगुणं प्रोक्त, पात्रेऽनन्तगुणं भवेत् ॥ ब्याज में दुगुणा व्यापार में चारगुणा क्षेत्र में दश एवं सौगुणा परन्तु सुपात्र में दान देने से तो अन्नत गुणा पुण्य होता है गृहस्थवास में रहे हुये जीवों से अन्य कार्य मुश्किल से बनते हैं पर दान तो सहज ही में बन सकता है । अतः मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले सज्जनों को सामग्री के सद्भाव दान जरूर देना चाहिये। संसार में धन माल राज पाट कुटुम्ब परिवार सब नाशवान हैं परन्तु दान के द्वाग कीर्ति मिली है वह अमर रहती है जैसे कर्ण की कीर्ति अब भी लोग गारहे हैं। हाथ कंकण से शोभा नहीं पाता है पर दान से सुशोभित होता है । दान से भोग मिलते हैं बैरी शान्त होते हैं सर्व जगत बश में होता है और क्रमशः स्वग और अपवर्ग मिलता है फिर क्या चाहते हो ? जैनों के अलाबा जैनेतर शास्त्रों में भी दान के गुण गाये हैं नान्नदानात्परं दानं, किंचिदस्ति नरेश्वर ! । अन्नेन धार्यते कृत्स्नं चराचरमिंद जगत् ॥१॥ सर्वेषामेव भूतानामन्ने प्राणाः प्रतिष्ठिताः । तेनान्नदो विशां श्रेष्ठ ! प्राणदाता स्मृतो बुधैः ॥२॥ ददस्वान्नं ददस्वन्नं ददस्वान्नं नराधिप ! । कर्मभूमौ गतो भूयो यदि स्वर्गत्वमिच्छसि ॥३॥ दातव्यं प्रत्यहं पात्रे निमित्तषु विशेषतः । याचितेनापि दातव्यं श्रद्धापूतं तु शक्तितः ॥४॥ दुःखं ददाति योऽन्यस्य भूयो दुःखं च विन्दति । तस्मान्न कस्यचिदुःखं दातव्यं दुःख भीरुणा ।।५।। पात्रेवल्पमपि दानं कालं दानं युधिष्ठिर ! । मनसा सुविशुद्धेन प्रेत्यानन्तफलं स्मृतम ॥६॥ पात्रे दत्वा दानं प्रयाण्युक्त्वा च भारत ! । अहिंसाविरतः स्वर्ग गच्छेदिति मतिर्मम ॥७॥ साधूनां दर्शनं स्पर्शः कीर्तनं स्मरणं तथा । तीर्थानामिव पुण्यानां सर्वमेवेह पावनम् ॥८॥ साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः । कालतः फलते तीर्थ सद्यः साधुसमागमः ॥९॥ आरोहस्व रथे पार्थ ! गाण्डीवं च करे कुरु । निर्जितां मेदिनी मन्ये निर्ग्रन्थो यदि संमुखः ॥१०॥ श्रमणस्तुरगो राजा मयूरः कुंजरो वृषः । प्रस्थाने या प्रवेशे वा सर्वे सिद्धिकाए मताः ॥११॥ पद्मिनी राजहंसाश्च निर्ग्रन्थाश्च तपोधनाः । य देशमुपसर्पन्ति तत्र देशे शुभं वदेत् ॥१२।। धर्म रूपी नगर में दान राजा है । जैसे स्वाति नक्षत्र में सीप में गिरा हुआ जल बहुमूल्य मौती बनता है इसी प्रकार सुपात्र को दान देना बहुत फल देता है । इत्यादि दान के अनेक गुण हैं और इस प्रकार सुपात्र को दान देकर अनेक भव्यों ने अपना कल्याण किया है। १--भगवान् ऋषभदेव के जीव धना सारथबाह के भव में एक मुनि को घृत का दान दिया अतः वे तेरहवें भव में ऋषभदेव तीर्थकर हुये । ओर जो भव किया है वे बड़े ही सुख के लिये। २--शालीभद्र सेठ ने ग्वालिये के भव में एक मुनि को खीर का दान दिया ३-अमरजम राजकुँवार ने पूर्व ग्वालिये के भव में एक मुनि को वस्त्र दान दिया जिससे दूसरे भव में अपार ऋद्धि का धणी गजकुँवार अमरजस हुआ। जैनेतर शास्त्रों में भी दान धर्म की महिमा ] ७५५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३१०-३३६ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ४--दान का अनुमोदन करने वाली ग्वालिये की औरत तथा एक पड़ोसन भवान्तर में राजकन्यायें हो अपार सुख भोग कर स्वर्ग गई । ५--सुबाहु कुँवारादि दश राजकुँवरों ने पूर्व भव में दान देकर ऋद्धि प्राप्त की। ६--तीर्थङ्कर शान्तिनाथ ने पूर्व मेघस्थ राजा के भव में अपने शरीर का मांस काट काट कर देकर एक कबूतर को प्राणदान दिया। ७--भगवान् नेमिनाथजी तथा राजमति ने शंखराजा और जसोमती राणी के भव में मुनि को जलदान दिया तथा नेमिनाथ प्रभु ने विवाह के समय अनेक पशुओं को जीवनदान दिया। ८--भगवान् पार्श्वनाथ ने अग्नि में जलते हुये सर्प को अभयदान दिया। ९--इनके अनुकरण रूप में ऐसे सैकड़ों नहीं पर हजारों उदाहरण हैं कि जिन्होंने अभयदान एवं सुपात्र दान देकर अपना कल्याण साधन किया है। १०-- दान करने के लिये सुपात्र एवं सुक्षेत्र होना जरूरी बात है । इसके लिये शास्त्रकारों ने सात क्षेत्र बतलाये हैं जैसे: १ साधु २ साध्वी ३ श्रावक ४ श्राविका ५ जिनमन्दिर ६ जिनमूर्ति ७ ज्ञान साधु साध्वियों को आहार पानी वस्त्र पात्र मकान पाट पाटले और औषधी वगैरह का दान देना महान लाभ है। श्रावक श्राविकायें-प्रभावना, स्वधर्मीवात्सल्य तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को लाभ पहुँचाना तथा कोई अशक्त एवं निर्बल साधर्मी भाई हो उसको मदद पहुंचाना यह भी एक उत्तमक्षेत्र है। कारण सात क्षेत्र के पोषण करने वाले श्रावक हैं । यह क्षेत्र हरा भरा गुलचमन रहता है । तब ही धर्म की उन्नति होती है। जिनमन्दिर यह एक धर्म का स्थायी स्थम्भ है । इसके होने से हजारों जीव धर्म में स्थिर रह कर आत्मा कल्याण कर सकते हैं । मन्दिर के लिये आर्य भद्रबाहु ने कूप का उदाहरण दिया है और महानिशीथ सूत्र में मन्दिर बनाने वाले की गति बारहवां स्वर्ग की बतलाई है । श्रावक का आचार है कि शक्ति के होते हुये अपने जीवन में छोटा बड़ा एक मन्दिर तो अवश्य ही बनाना चाहिये ।। जिनप्रतिमा-जिनप्रतिमा की अन्जनसिलाका, प्रतिष्ठा और पूजा करने आदि में द्रव्य व्यय करना। जितना मावतीर्थङ्करों की सेवा भक्ति का लाभ है उत्तना ही उनकी स्थापना की सेवा भक्ति से लाभ है इतना ही क्यों पर मूर्ति द्वारा तीर्थङ्करों के सब कल्याण क की आराधना हो सकती है। ज्ञान-ज्ञान की वृद्धि करना ज्ञान पढ़ने वालों को मदद करना । ज्ञान के साधन पुस्तकों पर ज्ञान एवं आगम लिखा कर ज्ञान भंडार में रखना । इस पंचम आरा में जितनी मन्दिरों की जरूरत है उतनी ही ज्ञान की आवश्यकता है । अतः ज्ञानवृद्धि के निमित्त द्रव्य व्यय करना भी महान् लाभ का कारण है । इस प्रकार सात क्षेत्रों में द्रव्य दान किया जाय वह सुपात्र दान कहा जाता है । इनके अलावा काल दुकाल में मनुष्य और पशुओं को मदद पहुँचाना भी दान की गिनती में ही गिना जाता है। इत्यादि सूरिजी ने अनेक हेतु युक्ति दृष्टान्त और आगमों के प्रमाण से दान का महत्व बतलाते हुये ७५६ [ दान धर्म का भविष्य में फल : Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७१०-७३६ परिषदा पर इस कदर का प्रभाव डाला कि श्रोतावर्ग चौंक उठा और हरेक के दिल में दान देने की विशेष रुचि जागृत होगई। ____ इस प्रकार सूरिजी ने अपने व्याख्यानों में प्रत्येक विषय पर विवेचन कर श्रोताजनों पर धर्म का खूब ही प्रभाव डाला ओर भावुको ने अच्छा लाभ भी प्राप्त किया। उस समय का श्रीसंघ कल्पवृक्ष ही समझा जाता था । आवार्य श्री जिस सम । जो कार्य श्रीसंघ से करवाना चाहते उसी विषय का उपदेश करते कि आचार्य श्री का हुक्म श्रीसंध उठा ही लेता। एक दिन सूरिजी ने तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय का महत्व और संघपति पद का वर्णन किया तो बलाह गोत्रिय शाह केसा ने शत्रुजय का संघ निकालने का निश्चय कर लिया। चतुर्मास समाप्त होते ही शाह केसा ने खूब उत्साह से विराट संघ निकाला । पट्टावलीकारों ने उस संघ का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। तीर्थ पर पहुँचे वहाँ तक पाँच हजार साधु साध्वियों और एक लक्ष भावुकों की संख्या बतलाई है । शाहफेसा ने इस संघ के निमित्त पाँच लक्ष द्रध्य व्यय किया । यात्रा कर संघ तथा कई मुनि तो वापिस लौट आये और सूरिजी वहीं रहे । आचार्य यक्षदेवसूरि जैसे ज्ञानी थे वैसे तपस्वी भी थे। श्राप पहिले से ही कठोर तप तपने वाले थे परन्तु शत्रुजय पधारने पर तो आपने अपनी शेष जिन्दगी के लिये छट छट पारणा और पारणा के दिन भी आंबिल करना इस प्रकार की भीषण प्रतिज्ञा करली थी। सूरिजी जानते थे कि दुष्ट कर्म विना तपस्या कट नहीं सकता है और जब तक पुद्गलों का संडा नहीं छुटे वहाँ तक आत्मा निर्मल भी नहीं हो सकता है । अतः आपश्री ने निरन्तर तपश्चर्य करना शुरु कर दिया। सूरिजी महाराज का अतिशय प्रभाव और कठोर तपस्या के कारण कई राजा महाराजा भी आपकी सेवा में उपस्थित होकर आपकी देशना सुधा का प किया करते थे। इतना ही क्यों पर कई देवी देवता भी सूरिजी की सेवा कर अपने जीवन को सफल बनाते थे। सौराष्ट्र के विहार के अन्दर कई स्थानों पर आफ्की बौद्धों से भी भेट हुई थी पर वे सूरिजी के सामने सदैव नत मस्तक ही रहते थे। सूरिजी ने सौराष्ट में विहार कर कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई, कई मुमुक्षुत्रों को दीक्षा भी दी और कई अजैनों को जैनधर्म में दीक्षित किये । तत्पश्चात् आपका विहार कच्छभूमि में हुआ। आपके पधारने में वहां भी धर्म की खूब ही जागृति हुई । आपके कई साधु पहिले से ही विचरते थे उन्होंने भी सूरिजी की सेवा में आकर वंदन किया। सूरिजी ने उनके प्रचार कार्य पर खूब ही प्रसन्नता प्राट की और उनमें जो विशेष योग्य थे उनको पदस्थ बना कर उनके उत्साह को बढ़ाया। जब सूरिजी कच्छ में घूम रहे थे इस बात का पता सिंध वासियों को मिला तो उन लोगों ने दर्शनार्थ आकर सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! एक बार जन्मभूमि की यात्रा कर सिन्धवासियों को दर्शन देकर कृतार्थ बनावें। सब लोग आपके दर्शन के प्यासे हैं और प्रतःक्षा कर रहे है सुरिजी के साथ कल्यणामूर्ति ( वीरपुर का राजा कोक ) भी थे और उनका हाड़ और हाड़ की मांगी जैनधर्म में इतनी रंगी हुई थी कि वृद्धावस्था में कठोर तपस्या और ज्ञान ध्यान में तल्लीन रहते थे। सिंधवासियों ने उनसे बहुत ही आग्रह किया कि पूज्यवर ! आप पहिले ही हमारे नाथ थे और अब तो विशेष हैं । अतः आप जल्दी ही सिन्ध को परवन बनावें । मुनि कल्याणमूर्ति ने कहा मैं पूज्याचार्यदेव की कृपा से परमानन्द में हूँ : मेरी इच्छा है कि मुझे भव भव में जैनधर्म की शरण हो । संसार में तारक और पार उतारफ है तो एक जैनधर्म ही है। देवानुप्रिय ! संसार में विषय कषाय की जालों जाल अग्नि लग मूरिजी का कच्छ में विहार और सिंध का संघ ] ७५७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३१० - ३३६ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रही है इनसे बचना चाहो तो आओ जैनधर्म की शरण लो इत्यादि । सिन्ध के लोगों ने सोचा कि जब जीव के कल्याण का समय आता है तब स्वयं उनकी भावना बदल जाती है । हिरा खरगोश की शिकार करने वाले जीव की क्या भावना चढ़ गई है। सच कहा है कि 'कर्मे शूराने धर्मे शूरा' इस युक्ति को हमारे बावजी ने ठीक चरितार्थ करके बतला दी है इत्यादि । सूरिजी एवं कल्याणमूर्ति के कहने से सिन्ध के श्रावकों विश्वास हो गया कि सूरिजी सिन्ध में अवश्य पधारेंगे। वे वंदन कर वापिस लौट गये । सूरिजी ने कई अर्सा तक कच्छ में विहार किया बाद आपश्री ने सिन्ध की ओर प्रस्थान कर दिया जब इस बात की खुशखबरी सिन्ध में पहुँची तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा। जब सूरिजी सिन्धवासियों धर्मोपदेश करते हुए वीरपुर पधार रहे थे तो राजा राहूप तथा शाह गोसल और उनके सब परिवार ने सूरिजी का स्वागत बड़े ही धामधूम से किया। क्यों नहीं करे एक तो थे नगर के राजा, दूसरे बन आये माहुली ने अपने पुत्र धरण को देखा तो उसके हर्ष के अश्रु बहने लग गये । सूरिजी भले ही साधु एवं ज्ञानी थे। शायद उनको अपने माता पितादि कुटुम्ब का स्नेह न होगा पर वे तो थे संसारी उनको स्नेह आये बगैर कैसे रह सकता । देवानन्द ने भगवान् महावीर को देखा तो उनके स्तनों से दूध टपकने लग गया। माता राहुली ने अपने बेटे को खूब कहा पर सबका चित बड़ा ही प्रसन्न था एक माई का सुपूत जगत का पूज्य बन कर आया है। सूरिजी का व्याख्यान खूब छटादार होने लगा । जब सूरिजी वैराग्य के विषय को व्याख्यान में चर्चते थे तो लोगों को बड़ा भारी भय उत्पन्न होता था कि न जाने सूरिजी फिर कितनों को साधु बना देंगे। क्योंकि सूरिजी जब संसार के दुखों का चित्र खींच कर बतलाते थे तब लोगों के रूवाटे खड़े हो जाते हैं, और यही भावना होती थी कि इस दुःखमय संसार का त्याग ही कर दिया जाय । पर संसार छोड़ना कोई हँसी मजाक की बात नहीं था जिसके कर्मों का क्षयोपशम हुआ हो वही संसार छोड़ दीक्षा ले सकता है । तथापि सूरिजी ने चार पांच मुमुक्षुओं पर जादू डाल ही दिया पर बनाव ऐसा बना कि दीक्षा लेने वाले तो चार मनुष्य थे पर अन्तिम हजामत बनाने के लिये नाई पांच आगये । जब चार तो चारों की हजामत बनाने लगे तब एक बड़ी ही चिन्ता में उदास होकर बैठा था किसीने पूंछा खवास तू उदास क्यों है ? उसने कहा सेठ साहिब मैं बुलाया हुआ बड़ी आशा करके आया था कि दीक्षा लेने बालों की हजामत करने पर कुछ प्राप्ति होगी पर मेरी तकदीर ही फूटी हुई है । इसपर सेठजी को दया आई और पगड़ी उतार कर कहा कि ले मैं दीक्षा लेता हूँ तू मेरी हजामत बना दे । अहाहा ? कैसे घुर्मी सेठजी कि नाई की दया के लिये आप दीक्षा लेने को तैयार होगये । बस, सूरिजी ने महा महोत्सव पूर्वक पांचों भावुकों को दीक्षा देदी। तदनन्तर राजा राहूप के बनाये पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई पश्चात् सूरिजी ने विहार का विचार किया पर माता राहुली ने सूरिजी से कहा कि मैं अब वृद्धावस्था म हूँ न जाने कब चल पड़गी । अतः यह चतुर्मास यहाँ करके हमारा उद्धार करावें । इसी प्रकार शाह गोशल ग्रह प्रार्थना की जिसको सूरिजी ने स्वीकार करली और वह चतुर्मास वीरपुर में करने का निश्चय कर लिया । वस, फिर तो था ही क्या वीरपुर के लोगों के मनोरथ सफल हो गये । माता राहुली ने महामहोत्सव करके सूरिजी से श्रीभगवती सूत्र व्याख्यान में बचाया शाह गोशल इस पवित्र कार्य में नौलक्ष रुपये व्यय किया । माता राहुली ने ३६००० सुवर्ण मुद्रिकाओं से श्री भगवतीजी सूत्र के ३६००० प्रश्नों की पूजा की। इसी प्रकार नागरिक लोगों नें भी आगम पूजा कर ७५८ [ सूरिजी का वीरपुर में व्याख्यान Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७१०-७३६ लाभ उठाया और श्री भगवतीजी सूत्र बड़े ही श्रानन्द से सुना । इतना ही क्यों पर आस पास के नगरों के लोग भी बहुत संख्या में श्राये थे ! उन्होंने श्री भगवतीजी सूत्र सुनकर अपने जीवन को सफल बनाया। क्यों कि उन लोगों को इस प्रकार का सुश्रवसर मिलना कहाँ सुलभ था। सूरिजी के विराजने से केवल वीरपुर के लोगों को ही नहीं पर सिन्ध प्रान्त वालों को बड़ा ही लाभ मिला । सूरिजी माई के एक सुपूत पुत्र थे । माता पिता के करजा को अदा करने को कुछ अर्सा तक सिन्ध में विहार किया । और सर्वत्र धूमधूम कर जैन धर्म का खूब प्रचार बढ़ाया जिस समय आचार्य श्री सिन्ध में विराजमान थे उस समय देवी सच्चायिका सूरिजी के दर्शन करने को आई थी। उसने प्रार्थना की कि प्रभो ! आप एक बार उपकेशपुर शीघ्र पधारें आपको बड़ा भारी लाभ होने वाला है । और इस कार्य के लिये ही मैं आपकी सेवा मे हाजर हुई हू ? सूरिजी ने कहा देवीजी उपकेशपुर में ऐसा कौनसा लाभ होने वाला है ? कारण कि मेरा विचार पांचाल में होकर पूर्व देश की यात्रा करने का है। फिर जैसी आपकी इच्छा | देवी-पूयवर ! पांचाल और पूर्व में श्राप फिर भी विहार कर सकते हो पर इस समय तो आपको उपकेशपुर ही पधारना चाहिये । सूरिजी ने सोचा कि देवी की जब इतनी आग्रह है तो वहाँ कोई लाभ होने वाला ही होगा । आपश्री नेफरमा दिया कि ठीक है देवीजी क्षेत्र स्पर्शना होगा तो मैं मरूधर की ओर ही विहार करूँगा । बस देवी तो सूरिजी को वंदन करके चली गई और सूरिजी ने थोड़े ही समय में मरुधर की ओर विहार कर दिया और क्रमशः विहार करते उपकेशपुर के नजदीक पधार भी गये । 1 इधर पूर्व में आभापुरी नगरी का कर्माशाह एक संघ लेकर उकेशपुर भगवान महावीर के दर्शन एवं देवी सचायिका की यात्रा के लिये आया था । शाह कर्मा ने स्थावर तीर्थ के साथ जंगम तीर्थ अर्थात् श्राचार्य यदेवसूरि के दर्शन किये । आचार्यश्री ने एक दिन व्याख्यान में ऐसा वैराग्य का उपकेश दिया कि संघपति कर्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को घर का भार सौंप कर सूरिजी के पास दीक्षा लेने को तैयार होगया । आपके अनुकरण रूप १७ नारी और १३ पुरुषों ने भी निश्चय कर लिया एवं सब ३१ मुमुक्षुओं को सूरिजी ने दीक्षा दी। उसी रात्रि में देवी सच्चायिका ने सूरिजी को बन्दन कर अर्ज की कि क्यों पूज्यवर ! उपकेशपुर पाधारने से आपको लाभ हुआ है न ? आपके कर कमलों से ३१ भावुकों का उद्धार हुआ। जिसमें कर्मा तो एक शासन का उद्धारक ही होगा । सूरिजी ने कहा देवीजी ! भला कहीं श्रापका कहना कभी व्यर्थ जाता है; आप तो इस गच्छ की शुभचिन्तका हैं और आपकी सहायता से ही इस गच्छ की दिन व दिन वृद्धि हुई है । देवीजी आप खूब पुन्य संचय कर रही हो | आचार्य रत्नप्रभसूरि से श्राज पर्यन्त जितने आचार्य हुये हैं आपने सब की सेवा की है और देवता के अवसर सब श्राचार्यों ने आपको धर्मलाभ दिया है और आशा है कि भविष्य के लिये भी आप इसी प्रकार करती रहेंगी । देवी ने कहा पूज्यवर ! आचार्य रत्नप्रभसूरि का मेरे पर स्त्रीम उपकार हुआ है कि मैं इस भव में तो क्या पर भवोंभव में भूल नहीं सकती हूँ। मैं व्यर्थ घोर पातक संचय कर रही थी जिससे छुड़ा कर जैनधर्म की उपासिका बनाई। मैं आप लोगों की जितनी सेवा करती हूँ इसमें मैं अपना अहोभाग्य समझती हूँ इत्यादि बातें होने के बाद देवी सूरिजी को वन्दन कर चली गई । उपकेशपुर के लिये देवी की विनति ] ७५९ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३१०-३३६वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी ने कर्मा को दीक्षा देकर उसका नाम धर्मविशाल रख दिया था। मुनि धर्मविशाल ने सूरिजी की विनय भक्ति कर जैनागमों के ज्ञान का अध्ययन कर लिया । इतना ही क्यों पर उस समय के वर्तमान साहित्य व्याकरण न्याय काव्य तर्क छन्द ज्योतिष एवं अष्टांग महानिमित्तादि सर्वशास्त्रों का पारगामी होगया सूरिजी महाराज ने एक समय विहार करते हुये पद्मावती नगरी में पदार्पण किया। वहाँ के श्रीसंघ ने सूरिजी का सुन्दर स्वागत किया सूरिजी का व्याख्यान हमेशा हो रहा था । एक दिन के व्याख्यान में पुनीत तीर्थ श्रीशत्रुजय का वर्णन आया जिसको सूरिजी ने इस प्रकार प्रतिपादन किया कि उसी सभा में प्र.ग्वटवंशीय शाह रावल ने प्रार्थना की कि पूज्यवर ! श्राप यहाँ विराजें मेरा विचार तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालने का है। सूरिजी ने कहा 'जहासुखम' रावल ने श्रीसंघ की अनुमति लेकर संघ की तैयारियें करनी शुरू करदों : श्रामत्रण पत्रिकायें भेज कर बहुत दूर दूर से संघ को बुलाया । इस संघ में कई चार हजार साधुसाध्वी और सवा लक्ष यात्रीगण की संख्या थी। आचार्यश्री के नायकत्व में संघपति रावल ने संघ निकाल कर अनंत पुण्य संचय किया। इस संघ में शाह रावल ने नौ लक्ष द्रव्य व्यय किया । कमशः रास्ते में जितने तीर्थ आये सब यात्रा पूजा कि । जिर्णोद्धार और गरीबों की सहायता में खूब धन व्यय किया। संघ ने तीर्थ पर जाकर यात्रा पूजा प्रभावना साधर्मीवात्सल्य कर लाभ प्राप्त किया कई मुनियों के साथ संघ लौट कर वापिस श्रागया और सूरिजी कच्छ, सिन्ध, पांचाल श्रादि प्रदेश में विहार करते हस्तनापुर पहुँचे । वहाँ से तप्तभट्ट गोत्रिय शाह नन्दा के निकाले हुए सम्मेत शिखर तीर्थ का संघ के साथ पूर्व के तमाम तीर्थों की यात्रा की वहाँ से लौटकर पुनः हस्तनापुर पधारे । वह चर्तुमास सूरिजी का हत्तनापुर में ही हुआ। सूरिजी के विराजने से धर्म की अच्छी प्रभावना हुई । बाद चर्तुमास के विहार करते हुये मथुरा सोरीपर आदि नगरों में होते हुये पुनः मरुधर में पधारे। जब सूरिजी शाकम्भरी नगरी में पधारे तो आपके शरीर में अकस्मात वेदना हो आई । मृरिजी ने शाकम्भरी में मुनि धर्मविशाल को अपने पद पर आचार्य बनाकर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया और आपने अनशनत्रत धारण कर लिया और पंच दिन में ही आप समाधि के साथ स्वर्ग पधार गये । आचार्य श्री के शासन में भावुकों की दीक्षा १-सोपार पट्टन के बलाहागौ० शाहदेदा ने सूरिजी के पास दीक्षा ली २-सेवानी के बाप्पनाग शाहपुनड़ ने , ३--देवपट्टन के भूरिंगौ शाहनाथा ने ४-बानपुर के भाद्रगौ. शाहगुणपाल ने ५-कोटपुर के आदित्यनाग शाहसहजपाल ६- पुनोली हे सुचंतिगौ० शाहदेहल ७-प्रापव के श्रेष्टिगौ० शाहपेथा ८-शौर्यपुर के चिचटगो० शाहकल्हा ने , ९-चक्रपुर के क्षत्रिय कु. शाहगंगा १८-सोतावा के ब्राह्मण शाहदेवा ने ७६० [ शाकम्भरी नगरी में सूरिजी का स्वर्गवास IA AE EArrar TET m Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७३६-७१० ११-करणावती के तप्तभट्ट शाहपुनड़ा ने सूरिजी के पास दीक्षा ली १२-कुर्चपुर के मोरीक्ष शाहवीजा ने १३-स्थानापुर के चोरलिया शाहवागा ने १४-चन्द्रावती के पोकरणा शाहगंगा १५-चेतराली के कुलभद्र शाहपद्मा १६-पद्मावती के वीरहट शाहफुवा १७-कोरंटपुर के अदित्यनाग शाहलाछा १८-शिवपुरी के बाप्पनाग शाहनारायण १९-वल्लभी के बोहरा शाहगाड़ा २.--स्तम्भनपुर के भीयाणी शाहनारा २१-भरोंच के श्रेष्टिगौ० शाहगेंदा २२-माडव्यपुर के कुंमटगौ० शाहहंसा २३ --मुग्धपुर के कनोजिया शाहहीरा २४-खटकुंपनगर के भूपाला शाहमुमल २५-अशिकाढुंग के सुचंतिगौ० शाहपीरा ने २६-हर्षपुर के सुचंतिगौ० शाहनाथा ने २७-नागपुर के पाराकरा शाहकर्मण २८-उपकेशपुर के नागगौत्ता शाहधर्मा २९ -रांधण के चरडगौत्ता शाहरावल ३०-संखण के सुघड़गौ० शाहगवण ३१-मदनपुर के मलगौ शाहमाला ३२–पाल्हिका के प्राग्वटवंशी शाहचतुरा ने , ३३ -दान्तिपुरा के श्रीमालवंशी शाहखेमा ने " ३१-राणकदुर्ग के प्राग्वटवंशी शाहनोंधण ने , प्राचार्य श्री के शासन मे यात्रार्थ संघादि शुभ कार्य१-उपकेशपुर से लुंग गोत्रीय शाह जसा ने शत्रुञ्जय का संघ निकाला २--नागपुर से अदित्य नाग० शाह सहदेवने , " " ३-हँसावली से बाप्य नाग. शाह होना ने , ४-पद्मावती से बलहा गौ० शाह नागदेव ने , ५-आनन्दपुर से भूरि गौ शाह पद्मा ने , ६-रिहुनगर से चोरलिया० शाह नेता ने , ७-मेंदनीपुर से सुघड़ गौ शाहसुलतान ने " सूरीश्वरजी के शासन में भावुकों की दीक्षाएं Jain Education Internal ACADEMAGARATACEAEERACTICIPATE 059 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३१० - ३३६ वर्ष ] ९ ८- कोरंटपुर से - शिवपुरी से १० - नारदपुरी से ११ - देसलपुर से प्राग्वट १२ - साघाटनगरसे चिंचट० प्राग्वट वंशीय पोकर प्राग्वट वंशीय हापा श्रेष्ट मंत्री 2 २ ७६२ यशोदेव माथुरा देपाल नागदेव शाखला [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ने शत्रु जय का संघ निकाला ने ने चंति ० के श्रेष्टि गो० 19 ने पुखा हापा "" 29 21 19 " १३ - चित्रकोट से चोरलिया १४ - उज्जैनगरीसे श्रीपाल १५ - कोलापुर से क्षत्री वीर वीर ने " " १६ - राजपुर का चरड़-नारायण युद्ध में काम श्राया उसकी स्त्री सती हुई १७ -- चोपउनगर का सुचंती मंत्री गहलड़ा युद्ध में मारा गया उसकी स्त्री सती हुई १८- - नारदपुरी का राव माथुर संग्राम में काम आया उसकी स्त्री सती हुई १९ - मादड़ी का श्रष्टि शार्दुल युद्ध में मारा गया उसकी स्त्री सती हुई २०- खटकुम्प नगर का मंत्री भारमल युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई २१ -- नागपुर का अदित्य नाग रामदेव युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई २२ - डमरेल नगर का कोष्टि गणपत युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई २३ - कीराट कुम्प का सुचेती सपरथ संग्राम में मारा गया उसकी स्त्री सती हुई २४ - पाल्हिका नगरी का बाप्य नाग मंत्री धंधल युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई मंत्री महकरण युद्ध में मारा गया उसकी स्त्री सती हुई २५ - चित्रकोट का भाद्र गौ० २६ - धोलागढ़ का बलाह गौ मंत्री रघुवीर युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई २७ - उपकेशपुर का श्रेष्ठ हाना ने सं० ३०२ के दुकाल में शत्रुकार दिया 3 २८ - पद्मावती के प्राग्वट मुम्माने दुकाल में एक बड़ा तलाव खुदाया २९ - चन्द्रावती के भाद्र गौ० शालाखा ने सं ० ३०२ दुकाल में शत्रुकार खोल दिया 35 महावीर " 15 " "" 77 "" 19 "" ३० - विसर नगर का श्रष्टव रुघनाथ ने दुकाल में शत्रुकार खोल दिया ३१ - शंखपुर का कुमट गौत्री दोला ने दुकाल में शत्रु कार दिया - ३२- माडव्यपुर का डिडू गौ० मंत्री धरण ने युद्ध में वीरता से विजय की जिसको १२ प्राम इनाम में मिले प्राचार्य श्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएँ १ - उन्निनगरी के श्रदित्यनाग करमण ने पार्श्व मन्दिर प्रतिष्टा २ - रूणावती कजल ने ३ - जेगालुपुर ४ - उपकेशपुर के बाप्पनाग० कल्हण ने ५- नारदपुरी के चोरलिया० 97 39 22 :) 11 55 19 39 19 "" 27 " " 19 "" [ सूरीश्वरजी के शाशन में मन्दिरों की प्रतिष्टाएँ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ७१०-७३६ या ने TAGRAAG चड़ा अजीत. थाना ६-पाल्हिकापुरी के चिंचट गो. __ शाह साना ने ऋषभ० मन्दिर प्रतिष्ठा ७-कोरेटपुर के चरड़ गो. ८--चन्द्रावती के भूरि गो० जैसल ने शान्त ९--शिवपुरी के भाद्र गो , जोजर ने पार्श्व १०-टेलीग्राम के मल्ल गो० , नाथा ने सुपार्श्व ११-नन्दपुर के सुघड़ गो० आदू चंद्र० १२- ब्राह्यणपुर के कुमट गो० ओटा ने धर्मनाथ १३-विजयपुर के कनौजिया० गेदा ने महावीर १४-देवपतन के तप्तभट्ट डूडमल ने १५-पंचासरा के लधुश्शेष्टि धीरा ने पार्श्व० १६-पोतनपुर के डिडू गो० धंधला ने १७-रत्नपुर के पोकरणा. १८-हुनपुर के लुंग चोला ने आदीश्वर ५९-चपटनगर के अष्टि० छाजू ने २०-सागापुर के श्रष्टि गो० चहाड़ ने महावीर २१-श्रीनगर के बलाह गो० तोला ने २२-बावला के प्राग्वट वंशी २३-कलकोड़ी के प्राग्वट वंशी , देदा ने पार्श्व २४-खेडीपुर के श्रीमाल वंशी , देपाल ने २५-खोखड़ के श्रीमाल वंशी , जोजा ने २६-खीजुरी के श्री श्रीमाल गो०, नागडा ने पार्श्व २७-हेमड़ी के सुघड़ गो० , पेथा ने चोमुख २८-दानीपुर के सोमांवत , फूवा ने। पाव २०-दुजाणा के कुमट गो० , सारंग ने महावीर ३०-वसावती के बाप्पनाग० , सलखण ने , ३१-फूसीग्राम के आदित्यनाग , सूढ़ा ने , ३२-नागपुर के श्रष्टि गो० , महादेव ने पार्श्व ३३-शाकम्भरी के लुंग गो० , धनदेव ने पार्श्व पट्ट सतावीस यक्षदेव गुरु, भूरिगोत्र दिपाया था । तप जप ज्ञान अपूर्व करके, जैन झण्ड फहराया था । संघ चतुर्विध केथे नायक, सुरनर शीश झुकाते थे। सुन करके उपदेश गुरु का, मुमुक्ष दीक्षा पाते थे। ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के ६७ वें पट्टपर आचार्य यक्षदेवसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुये ॥ सूरीश्वरजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्टाएँ ] ७६३ चन्द्र Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३३६-३५७ वर्ष भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २८-प्राचार्य श्री कक्कसरि (पांचवां ) श्रेष्ठीत्यारव्य कुले तु लब्ध महिमः ककारव्यमूरिः कृती । आभारव्यानगरात्तु संघपतिना सार्धं ययौ पत्तने ॥ दीक्षां चाप्युपकेश पूर्वक पुरे संघं प्रति द्वन्द्विनः । जित्वा जैनमत प्रचार निपुणो गन्थान् बहून् निर्ममौ । .000000 He0.0000loeoneeee Polya. 0000000000. 10000nand चायश्री ककसूरीश्वर प्ररवर धर्म प्रचारक जैन शासन के एक महान प्रभाविक श्राचार्य हुये आपके पवित्र जीवन के लिये पट्टावलीकार लिखते हैं कि पूर्व देश में धन धान्य पूर्ण श्राभापुरी नगरी थी। जहां जैनधर्म के कट्टर प्रचारक चतुर राजा चंद जैसे भूपति हो गये थे। अतः आभापुरी एक प्राचीन नगरी थी जहां ऊंचे ऊंचे शिखर और सुवर्णमय कलस एवं ध्वजदंड से सुशोभित मन्दिर और अनेक धर्मशालायें थीं । बड़े २ धनाढ्य श्रावक सुखपूर्वक आत्मसाधना कर रहे थे उसमें श्रेष्ठि गोत्रिय वीर शाह धर्मण नाम का एक बड़ा भारी व्यापारी था आपके जेती नाम की भार्या थी आपके पूर्वज मरुधर से व्यपारार्थ आये थे पर व्यापार की बाहुल्यता के कारण आभापुरी को ही अपना निवास स्थान बना लिया। शाह धर्मण के ग्यारह पुत्र थे जिसमें कर्मा नाम का पुत्र बड़ा ही धर्मात्मा था। शाह धर्मण ने अपने जीवन में तीन बार तीर्थों का संघ निकाला। श्राभापुरी में एक आदीश्वर भगवान का मन्दिर बनाया संघ को तिलक करके पहिरामणी दी इत्यादि शुभकार्यों में लाखों द्रव्य व्यय किया । अन्त में अपने पुत्र कर्मा को घर का भार सोंप आप सम्मेतशिखर तीर्थ पर अनशन कर स्वर्ग में वास किया । पीछे कर्मा भी सुपुत्र था उसने अपने पिता की उज्ज्वल कीर्ति और धवलयश को खूब बढ़ाया था कारण कर्मा भी बड़ा ही उदार चित्त वाला था शुभकार्यों में अग्र भाग लेता था । शाह कर्मा ने अपने व्यापारिक व्यवसाय एवं व्यापार क्षेत्र को खूब विशाल बना दिया। केवल भारत में ही नहीं पर भारत के बाहर पाश्चात्य देशों के साथ भी कर्मा का व्यापार चलता था। साधर्मी भाइयों की ओर कर्मा का अधिक लक्ष्य था । शाह कर्मा के सात पुत्र और चार पुत्रियें थीं । शाह कर्मा देवगुरु का परम भक्त था, धर्म साधना में हमेशा तत्पर रहता था। उस जमाने की यही तो खूबी थी थी कि उनके पीछे इतना बड़ा कार्य लगा होने पर भी वे अपना जीवन बड़े ही संतोष में व्यतीत करते थे। इतना व्यवसाय होने पर भी वे एक धर्म को ही उपादेय समझते थे। एक समय शाह कर्मा अर्द्ध निद्रा में सो रहा था कि रात्रि में देवी सच्चायिका आकर कर्मा को कह रही है कि कर्मा तू उपकेशपुर स्थित भगवान महावीर की यात्रा कर तुमको बड़ा भारी लाभ होगा। बस इतने में तो कर्मा की आँखें खुल गई । उसने सोचा कि यह कौन होगी कि मुझे सूचित करती है कि तू उपकेशपुर मंडन महावीर की यात्रा कर । खैर, शाहकर्मा ने बाद निद्रा नहीं ली । सुवह अपनी स्त्री और पुत्र वगैरह को एकत्रित कर रात्रि का सब हाल सुनाया । महान लाभ के नाम से सब सम्मत हो गये कि अपने Jain E19 & 8 International For Private & Personal Use For Private & Personal us [ आभापुरी और शाह कर्मा को उपदेश.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७३६-७५७ पूर्वज बातें भी किया करते थे कि एक बार जननी जन्म भूमि की स्पर्शना करनी है वे नहीं कर पाये । जब ऐसा संकेत हुआ है तो अपने सब कुटुम्ब के साथ उपके शपुर की यात्रा अवश्य करनी चाहिये । शाह कर्मा ने सोचा कि उपकेशपुर भी एक तीर्थ ही है । अव्वल तो अपनी जन्म भूमि है दूसरे महावीर के दर्शन तीसरे अपनी कुलदेवी सच्चायिका । अतः संघ के साथ ही यात्रा करनी चाहिये । जब काम बनने को होता है तब निमित्त भी सब अनुकूल मिल जाता है । इधर से पूर्व में बिहार करने वाले उपकेशगच्छीय वाचनाचार्य देवप्रभ अपने शिष्य परिवार से आभापुरी पधार गये । शाह कर्मा ने अपने विचार वाचकजी के सामने रक्खे । वाचकजी ने तुरंत ही आपके सम्मत होकर उपदेश दिया कि कर्मा समय का विश्वास नहीं है धर्मका कार्य शीघ्र ही कर लेना चाहिये । कर्मा ने संघ की तैयारिये करनी शुरू करदी और अंग वंग मगध कलिंग वगैरह प्रान्तों में आमंत्रण पत्रिकायें भिजवादीं। कारण उस समय पूर्व देश में मरुधर से आये हुये उपकेशवंशी लोगों की काफी संख्या थी और उपकेशपुर का संघ निकालने का यह पहला ही अवसर था अतः ऐसा सुअवसर हाथों से कौन जाने देने वाला था । ठीक शुभ मुहूर्त में कर्मा शाह को संघपति पद प्रदान कर दिया और वाचनाचार्य देवप्रभ के नायकत्व में संघ ने प्रयाण कर दिया। रास्ते में जितने तीर्थ आये सबकी यात्रा की ध्वजमहोत्सव वगैरह शुभ कार्य करते हुए संघ उपकेशपुर पहुँचा । शासनाधीश चरम तीर्थाङ्कर भगवान महावीर की यात्रा का लाभ तो मिला ही पर विशेष में उपकेशगच्छाधीश धर्मप्राण प्राचार्य यक्षदेवसूरि भी अपने शिष्य मण्डल के साथ उपकेशपुर विराजते थे उनके दर्शन का भी संघ को लाभ अनायास मिल गया जिसकी संघ को बड़ी भारी खुशी थी तत्पश्चात् देवी सच्चायिका के दर्शन किये । इधर वाचनाचार्यजी ने भी श्राकर अपने पूज्य आचार्य देव को बंदना की और चिरकाल से मिलने से साधुओं के समागम से बड़ा भारी आनन्द हुआ। संघ ने स्थावर तीर्थ के साथ जंगम तीर्थ की यात्रा की तो उपदेशश्रवण की भावना होना तो स्वभाविक ही था। सूरिजी ने दूसरे दिन व्याख्यान दिया तो नगर के अलावा संघपति कर्मा तथा संघ के सब लोग व्याख्यान में उपस्थित हुये। सूरिजी ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि मोक्षमार्ग की आराधना के लिये प्रवृति और निर्वृति एवं दो मार्ग हैं। प्रवृति कारण है तब निवृति कार्य है। कार्य को प्रगट करने के लिये कारण मुख्य साधन है । जैसे एक मनुष्य को मकान पर चढ़ना है तो सीढ़ी के आलम्बन की जरूरत है। बिना सीढ़ी मकान के ऊपर पहुँच नहीं सकता है पर केवल सीढ़ी को ही पाड़ के बैठ जाना एवं संतोष करना ठीक नहीं हैं, पर आगे बढ़कर मकान पर जल्दी पहुँचजाने की कोशिश करना चाहिये । कारण, विलम्ब करने में कई अन्तरायें उपस्थित होजाती हैं। इसी प्रकार प्रवृति मार्ग में प्रवृति करता हुआ निर्वृति प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिये जैसे पूजा, प्रभावना, स्वामी वात्सल्य, मन्दिर मूर्ति बनाना, तीर्थ यात्रा के लिये संघ निकालना। यह सब प्रवृति मार्ग है इसका उद्देश्य निर्वृति प्राप्त करने का है जैसे सीढ़ी पर रहा हुश्रा मनुष्य मकान पर चढ़ता है इसी कार मनुष्य को प्रवृति से ऊँचा चढ़ निर्वृति मार्ग को स्वीकार कर उसकी ही आराधना करनी चाहिये । जब तक आरम्भ और परिग्रह को न छोड़ा जाय तब तक निर्वृति श्रा नहीं सकती है अतः निर्वृति के लिये सर्वोत्कृष्ट मार्ग तीर्थ कर कथित भगवती जैनदीक्षा है इसकी आराधना किये बिना मोक्ष हो नहीं सकती है। क्योंकि गृहस्थ ज्यादा से ज्यादा पांचवें गुणस्थान का स्पर्श कर सकता है तब मोक्ष है चौदहवें गुणस्थान के अन्त में ! श्रावकों ! अभी आपको बहुत दूर जाना है। आभापुरी से उपकेशपुर का संघ ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३३६-३५७ वर्ष ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चेतना हो तो चेत लो यह सुअवसर हाथों से जाता है। आयुष्य का क्षण मात्र भी विश्वास नहीं है । यदि आपको जन्म मरण के दुःख मिटा कर अक्षय सुखी बनना है तो आज लो कल लो देरी से लो या भवान्तर में लो दीक्षा अवश्य लेनी पड़ेगी पर भविष्य में न जाने कैसे संयोग एवं साधन मिलेंगे वे दीक्षा लेने में साधक होंगे या बाधक ? अतः मेरी सलाह तो यही है कि क्षणमात्र का विलम्ब न करके अभी दीक्षा लेकर मोक्ष को नजदीक कर लेना चाहिये इत्यादि । सूरिजी के उपदेश ने तो मोह-निद्रा में सोते हुये भावुकों को जागृत कर दिया । संघपति कर्मा ने सोचा कि क्या सूरिजी ने आज मुझे ही उपदेश दिया है। पर आपका कहना अक्षरशः सत्य है चाहे द्रव्य दीक्षा लो चाहे भाव दीक्षा लो पर यह तो निश्चय है कि दीक्षा बिना मोक्ष नहीं है तो मुझे तो आज ही सूरिजी के पास दीक्षा लेलेनी चाहिये । बस, फिर तो देरी ही क्या थी मनुष्य की भावना ही फिरनी चाहिये । कर्मा को जिधर देखे संसार असार लगने लग गया । उसने उठकर सूरिजी से अर्ज की प्रभो ! आपका कहना सत्य है और मैं उसे स्वीकार करने को भी तैयार हूँ । परिषदा के लोग शाह कर्मा के शब्द सुन कर चकित रह गये कि संघपति यह क्या कह रहा है ? कई लोगों सोचा कि संघ दीक्षा लेने को तैयार है तो अपने को ऐसा अवसर हाथों से क्यों जाने देना चाहिये । पहिले भी इनके साथ तीर्थयात्रा की तो अब भी संयम यात्रा करनी चाहिये कई ३० नरनारी कर्मा के साथ होगये और कर्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र धन्ना को संघपति की माला एवं सब घर का भार सुपुर्द कर के आपने ३० नरनारियों के साथ भगवान् महावीर के मन्दिर में सूरिजी के कर कमलों से भगवती जैन दीक्षा स्वीकार कर ली क्षयोपशम इसका ही नाम है जैसे समुदानी कर्म एक साथ बँधते हैं वैसे ही पूर्वभव के कृतकर्म से कर्मों का क्षयोपशम भी एक साथ में होजाता है । जम्बुकुँवर के था तब इन्द्रभूति आदि के साथ ४४०० ब्राह्मणों का सम्बन्ध था एक साथ में ही दीक्षित हुये थे । आचार्य श्री ने सबको दीक्षा देकर संघपति कर्मा का नाम धर्मविशाल रख दिया था । तदान्तर मुनि धर्मविशाल ने ज्ञानाध्ययन कर धुरंधर विद्वान होगये तथा सर्वगुण सम्पादित कर लिये तो आचार्य यक्षदेवसूरि ने शाकम्भरी नगरी में श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक मुनि धर्म विशाल को सूरिपद से विभूषीत कर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया। जो नाम के पट्टपरम्परा से क्रमशः चला आ रहा था - साथ ५२७ जनों का सम्बन्ध आचार्य कक्कर बड़े ही विद्वान् प्रतिभाशाली और धर्मप्रचारक आचार्य हुये । आचार्य ककसूरि सपादलक्ष प्रान्त में सर्वत्र विहार करते हुये नागपुर पधारे । वहाँ के बाप्पनाग गोत्रिय शाह पुनड़ ने सवा लक्ष रुपये व्यय करके सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा ही समारोह से महोत्सव किया। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था और जनता पर प्रभाव भी खूब ही पड़ता था। एक दिन सूरिजी ने उकेशपुर का वर्णन करते हुये फरमाया कि जैसे शत्रु जय गिरनारादि तीर्थ हैं वैसे ही मरुधर में उपकेशपुर भी एक तीर्थ है जिसमें महाजन संघ के लिये तो उपकेशपुर की भूमी और भी विशेष है । कारण, वहाँ पूज्याचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों से महाजन संघ और भगवान् महावीर के मन्दिर की स्थापना हुई थी । महाजन संघ की सहायक देवी सच्चायिका का स्थान भी उपकेशपुर में ही है । अतः महाजन संघ का कर्तव्य है कि साल में एक वार उपकेशपुर की स्पर्शना कर भगवान महावीर का स्नात्र महोत्सव करके लाभ उठावें इत्यादि । सूरिजी के उपदेश का जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ । चरड़ गोत्रिय शाह कपर्दी ने उपकेशपुर की यात्रार्थ संघ निकालने का विचार कर सूरिजी एवं श्रीसंघ से प्रार्थना की कि मेरी इच्छा है कि मैं उपकेशपुर का संघ निकाल कर ७६६ [ उपकेशपुर में शाह कर्मादि की दीक्षा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जोवन ] [ ओसवाल संवत् ७३६-७५७ श्रीसंघ के साथ यात्रा करूँ । सूरिजी ने फरमाया कदर्पि तू भाग्यशाली है । तीर्थयात्रा का लाभ कोई साधारण लाभ नहीं है पर इस पुनीत कार्य से कई भव्यों ने तीथङ्कर नाम कर्मापार्जन किया है क्योकि श्रीसंघ रत्नों की खान है इसमें मोक्षगामी जीव भी शामिल है न जाने किस जीव के इस निमित्त कारण से किस प्रकार से भला हो जाता है इत्यादि बाद में संघ अग्रेश्वरों ने भी कहा कदर्पि आपके यह विचार सुन्दर और शुभ हैं । आप खुशी से संघ निकालें श्रीसंघ आपके सहमत है । बस, फिर तो था ही क्या नागपुर के घर-घर में आनंद मंगल छागया । कारण गुरुदेव के साथ छरी पाली यात्रा का करना कौन नहीं चहाता था। सेठ कदर्पि ने संघ के लिये आमंत्रण पत्रिकायें भेज दी और सब तरह की तैयारियें करने में लग गया। कार्प जैसे विपुल सम्पत्ति का मालिक था वैसे ही बहुकुटुम्बी भी था। और दिल का भी उदार था-- सूरिजी के दिये हुये शुभ मुहूर्त में शह कदर्पि को संघपति पद अर्पण कर सूरिजी के नायकत्व में संघने प्रस्थान कर दिया। मुग्धपुर, कुच्चपुर, फलवृद्धि, मेदनीपुर खटकूप शंखपुर, हर्षपुर, आसिकापुरी और माढल्यपुर होते हुये जब संघ उपकेशपुर पहुँचा तो वहाँ के लोगों को ज्ञात हुआ कि प्राचार्य कक्कसूरीश्वरजी महाराज नागपुर से संघ के साथ पधार रहे हैं अतः संघ में उत्साह का पार नहीं रहा । संघ की ओर से नगर प्रवेश का बड़े ही समारोह के साथ महोत्सव किया । भगवान् महावीर की यात्रा कर सबने अपना अहो भाग्य समझा तत्पश्चात् पहाड़ी पर भगवान पार्श्वनाथ के मन्दिर की यात्रा और देवी सच्चायिका के दर्शन एवं श्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज के स्थंभ की यात्रा की । संघपति ने पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि अनेक शुभ कार्य किये अष्टान्हिका महोत्सव और ध्वजारोहणमें संघपति ने पुष्कल द्रव्य व्यय कर खूब ही पुन्योपार्जन किया। वहाँ भी सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था। एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि यों तो मोक्ष मार्ग की आराधना के अनेक कारण हैं पर साधर्मी भाइयों के साथ में वात्सल्यता रखना उनकी सहायता एवं सेवा उपासना करना विशेष लाभ का कारण है शास्त्रों में भी कहा है कि "रागत्थ सव्व धम्मा, साहम्मिअवच्छलं तु एगत्थ" । बुद्धि तुलाए तुलिया, देवि अतुल्लाई भणिआई। श्रोताओ ! इसी वात्सल्यता के कारण जो महाजन संघ लाखों की संख्या में था वह करोड़ों तक पहुँच गया है। आपने सुना होगा कि जिस समय महाराजा चेटक और कोणिक के आपस में युद्ध हुआ उस समय काशी कौशल के अट्ठारह गण राजा केवल एक साधर्मी भाई के नाते से चेटक राजा की मदद में अपने २ राज्य का बलिदान करने को तैयार होगये । इतना ही नहीं पर उन्होंने अपने २ राज बलिदान कर भी दिया था । अतः साधर्मी भाइयों की ओर सदैव बात्सल्यता रखनी चाहिये। यात्रार्थ संघ निकलना भी एक साधर्मी वात्सल्यता ही है पूर्व जमाने में भरत सागर चक्रवर्ती व राम पाण्डव जैसे भाग्यशालियों ने संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को तीर्थों की यात्रा करवाई थी। महाराज उत्पलदेव, सम्राट सम्प्रति और राजा विक्रमादि अनेक भूपतियों ने तथा इस महाजन संघ के अनेक भाग्यशालियों ने भी सम्मेत शिखर शत्रुजय गिरनारादि तीर्थों के संघ निकाल कर अपने साधर्मी भाइयों को यात्रा करवाई थी । इसका अर्थ यह नहीं होता है कि एक धनाढ्य संघ निकाले और साधारण लोग उसमें शामिल होकर यात्रार्थ जावें । पर साधारण मनुष्य के निकाले हुये संघ में धनाढ्य लोग भी जावे और उसके दिये हुये स्वागीवात्सल्य एवं पहरामणी को वे धनाढ्य बड़ी खुशी से लेते थे और आज भी ले रहे सरिजी का वात्सल्यता पर उपदेश ] ७६७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३३६-३५७ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हैं तथा भविष्य में लेंगे जैनधर्म की यही तो एक विशेषता है कि द्रव्य की अपेक्षा भावकों ही विशेष स्थान दिया है इत्यादि सूरिजी के व्याख्यान का जनता पर अच्छा असर हुआ और साधर्मी भाइयों की वात्सल्यता पर विशेष भाव जागृत हुए । शाह कदर्पिने अपनी उदारता से इस शुभ कार्य में पुष्कल द्रव्य व्यय किया और सूरिजी को बन्दन कर संघ वापिस लौट कर नागपुर गया। सूरिजी कई अर्सा तक उपकेशपुर में स्थिरता कि जिससे धर्म की खुबही प्रभावना हुई । बाद वहाँ से विहार कर आस-पास के ग्रामों में भ्रमन करते हुए कोरंटपुर नगर की ओर पधार रहे थे। उस समय कोरंट संघ में एक ऐसा विग्रह उत्पन्न हुआ था कि सरिजी के पधारने की न तो किसी ने खबर मंगाई न स्वागत ही की तैयारिये की। किंतु वहाँ पर कोरंटगच्छीय उपाध्याय मेरुशेखर विराजते थे । उन्होंने सुना कि आचार्य ककसू रिजी महाराज पधार रहे हैं। संघ को बुला कर कहा कि यह क्या बात है कि संघ निश्चित् बैठा है हाँ, साधुओं को तो इस बात की जरूरत नहीं है पर इसमें संघ की क्या शोभा है कि कक्कमूरि जैसे प्रभाविक आचार्य कृपा कर आपके नगर की ओर पधार रहे हैं जिसमें तुम्हारा कुछ भी उत्साह नहीं । यह बड़े अफसोस की बात है। संघ अग्रेश्वरों ने कहा पूज्यवर ! यहाँ एक उपकेशवंशी व्यक्ति ने राजपूत की कन्या के साथ शादी करली है जिसका विग्रह फैल रहा है । उपाध्यायजी ने कहा कि ऐसे पूज्य पुरुष के पधारने से विग्रह शांत हो जायगा अतः सूरिजी का स्वागत कर नगर-प्रवेश कराओ । उपाध्यायजी महाराज अपने शिष्यों को लेकर सूरिजी के सामने गये और श्री संघ ने भी अच्छा स्वागत किया सरिजी-भगवान महावीर के दर्शन कर उपाध्यायजी के साथ उपाश्रय पधारे । और थोड़ी पर सारगर्भित देशना दी बाद सभा विसर्जन हुई। जब संघ का झगड़ा सरिजी के पास आया तो सूरिजी ने मधुर बचनों से सबको समझाया कि राजपूत की कन्या के साथ विवाह करने से आपको क्या नुकसान हुआ है । एक अजैन कन्या आपके घर में आई है आपके धर्म की आराधना करेगी और आप स्वयं राजपूत ही थे विवाहिक क्षेत्र जितना विशाल होता है उतनी ही सुविधा रहती है । जब से क्षेत्र संकुचित हुआ है तब से फायदा नहीं किन्तु नुकसान ही हुआ है अतः बिना ही कारण संघ में विप्रह डालना सिवाय कर्मबद के कुछ भी लाभ नहीं है। यदि राजपूत की पुत्री जैनधर्म का वासक्षेप लेले एवं शिक्षा दीक्षा लेकर भगवान महावीर की स्नात्र महोत्सव करने फिर तो संघ में किसी प्रकार का मतभेद नहीं रहना चाहिये । बस, सूरिजी का कहना दोनों पक्ष वालों ने स्वीकार कर लिया। कारण, उस समय जैनाचार्यों का संघ पर बड़ा भारी प्रभाव था । अपक्षपात से कहना सब संघ शिरोधार्य कर लेता था । कोरंट संघ में शांति हो गई । राजपूत कन्या ने सूरिजी से वासक्षेप लेकर जैनधर्म स्वीकार कर लिया और भगवान महावीर का स्नात्र महोत्सव कर अपना अहोभाग्य सममा । हां, कलिकाल ने तो श्री संघ में फूट कुसम्प के बीज बोने का प्रयत्न किया था पर आचार्य भी हाथ में दंड लेकर खड़े कदम रहने थे। संघ में एक वरदत्त के विषय में भी मतभेद चलता था उसको भी सूरिजी ने शान्ति कर दी थी इतना ही क्यों पर वरदत्त को बड़े ही समारोह से दीक्षा देकर सूरि जी ने अपना शिष्य बना कर उसका नाम मुनि पूर्णानंद रख दिया था--यह सब सूरिजी की कार्य कुशलता एवं अपक्ष पात वृति का ही प्रभाव था। सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा होता था। व्याख्यान एक शांति और वैराग्य का मुख्य कारण था । व्याख्यान से अनेक भावुकों का कल्याण होता है त्यागियों के व्याख्यान का जनता पर अवश्य ७६८ [ कोरंट संघ के मत्तभेद की शान्ति Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७३६-७५७ प्रभाव पड़ता है । एक समय सूरिजी महाराज ने अपने व्याख्यान में अनादि संसार का वर्णन करते हुये फरमाया कि मोह कर्म के जोर से जीव श्रनादि काल से जन्म मरण करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता श्राया है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्टौ स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम की है जिसमें गुनंतर कोड़ाकोड़ सागरोपम मिध्यात्व दशा में ही क्षय करता है जब धर्म प्राप्ती करने के योग्य द्रव्य क्षेत्र काल भाव का निमित्त कारण मिलता है. तत्पश्चात् सात प्रकृतियों का क्षय करता है जैसे १ - - मिथ्यात्व मोहनीय - कुदेव, कुगुरु, कुधर्म पर श्रद्धा विश्वास रखना । २ - मिश्रमोहनीय - सुदेव, सुगुरु, सुधर्म और कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को एकसा ही मानना । ३ - सम्यक्त्व मोहनीय-क्षायक दर्शन आने में रुकावट करना । पर दर्शन का विरोधी न हो । ४ - अन्तानुबंधी क्रोध - जैसे पत्थर की रेखा वैसे ही जावत जीव क्रोध रखना । ५ - अन्तानुबन्धो मान जेसे वज्र का थंभ वैसे ही जावत् जीव मान रखना । ६- श्रन्तानुबन्धी माया -जैसे बांस की गांठ वैसे ही जावत जीव माया रखना । ७- अंतानुबंधी लोभ-जैसे किरमिची रंग वैसे ही जावत् जीव लोभ रखना | इन सात प्रकृति का क्षय करने से दर्शन गुण ( सम्यक्त्व ) प्राप्त होता है। जब जीव को लायक दर्शन की प्राप्ति हो जाती है तो वह फिर संसार में जन्म मरण नहीं करता है। यदि किसी भव का आयुष्य नहीं बंधा हो तो उसी भव में मोक्ष जाता है किंतु आयुष्य पहिले बंध गया हो तो एक भव बंधा हुआ आयुष्य का करता है और दूसरे भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। शास्त्र में जो तीन भव कहा है इसका कारण यह है कि यदि तिच का आयुष्य बंधा हुआ हो तो उसको तिर्यच में जाना पड़ता है और सम्यदृष्टि तिथैच सिवाय विमानीक देव के आयु बंध नहीं सकता है अतः तिर्यच से विमानीक देवता का भव करे और वहां से मनुष्य का भव कर मोक्ष जाता है। दर्शन के साथ ज्ञान चारित्र की भी आवश्यकता रहती है और इन तीनों की आराधना करने से ही जीव की मोक्ष होती है। श्री भगवतीजी सूत्र के आठवें शतक के दशवें उद्देश्य में विस्तार से उल्लेख मिलता है कि - आराधना तीन प्रकार की होती है, ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चारित्राराधना इनके भी तीन २ भेद वतलाये हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टा - जो निम्न लिखित हैं- -ज्ञानाराधना के तीन भेद 13 79 31 १- जघन्य ज्ञानाराधना- अष्ट प्रवचन की आराधना करना । या मति श्रुति ज्ञान की आराधना करना २ - मध्यम ज्ञानाराधना - एकादशांग की आराधना करना । अवधि मनः पर्यव ज्ञान की ३ - उत्कृष्ट ज्ञानाराधना-चौदह पूर्व एवं दृष्टिवाद की श्राराधना या केवल ज्ञान की इनके अलावा ज्ञान पढ़ने में उयमापेक्षा थोड़ा परिश्रम करना यह जघन्य आराधना है मध्ममोद्यम करना यह मध्यम श्राराधना है और उत्कृष्ट --- प्रबल्य परिश्रम करना यह उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है । चाहें पूर्व भवोपार्जित ज्ञानावरिय कमोदय होने में ज्ञान नहीं चढ़ता हो पर उत्कृष्ट परिश्रम करने से ज्ञानवर्णिय कर्म का क्षय हो सकता है। जैसे एक मुनि को परिश्रम करने पर एक पद भी नहीं आसका परंतु उसने उद्यम नहीं छोड़ा अर्थात् रुचि पूर्वक उद्यम करता रहा। अंत में उसको केवल ज्ञान उत्पन्न होगया । १ Jain Education Interna national --- ज्ञान दर्शन चारित्री की आराधना ] JAAA 99 ७६९ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०३३६-३५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २ - दर्शन याराधना के तीन भेद ------ दर्शनाराधना भी तीन प्रकार की है। जैसे कि--- १ - जघन्य दर्शनाराधना - जघन्य क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होना । २ - मध्यम दर्शनाराधना उत्कृष्ट क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होना । ३ - उत्कृष्ट दर्शनाराधना क्षायक सम्यक्त्व की प्राप्ति होना । उद्यमापेक्षा जघन्य दर्शनाराधना देवदर्शन एवं पूजन करना गुरुदर्शन, स्वाधर्मियों से वात्सल्यता आदि जिनशासन की उन्नति के काग्र्यों में शामिल होना । मध्यम दर्शनाराधना तीर्थकरों का मंदिर बनाना मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाना, साधर्मी भाइयों को सहायता पहुँचा कर धर्म में अस्थिर होते हुए को स्थिर करनादि । उत्कृष्ट दर्शनाराधना तीथों का बड़ा संघ निकालना यत्र जैनों को जैनधर्म में दीक्षित करनादि । ३ – चारित्र आराधना के तीन भेद १ -- जघन्य चारित्र आराधना सामयिक चारित्र, देशत्रत एवं सर्वव्रत धारणकर आराधना करना। २ - मध्यम चारित्र आराधना-प्रतिहार विशुद्ध एवं सूक्ष्म संप्रराय चारित्र की आराधना । ३ - उत्कृष्ट चारित्र श्राराधना यथाख्यात चारित्र की आराधना | उद्यम की अपेक्षा चारित्रवान को उपकरण वग़ैरह सहायता पहुँचानी यह जघन्य चारित्र आराधना चारित्र का अनुमोदन करना चारित्र लेने वालों को भावों की वृद्धि करना यह मध्यम चारित्र आराधना और चारित्र लेना या चारित्र से पतित होते हुये को चारित्र में स्थिर करना यह उत्कृष्ट चारित्र आराधना है । इन ज्ञान दर्शन चारित्र की जघन्य आराधना करने वाले जीव पन्द्रह भव में अवश्य मोक्ष जाता है। तथा इन रत्नत्रय की मध्यम आराधना करने से तीन भव में तथा उत्कृष्ट आराधना करने से उसी भव मैं मोक्ष जाता है । अतएव आप लोगों को इस भव में सब सामग्री अनुकूल जिलगई है तो ज्ञान दर्शन चारित्र के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टि जैसी बने वैसी आराधना अवश्य करनी चाहिये इत्यादि खूब विस्तार से उपदेश दिया जिसका श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव पड़ा । और आत्मकल्याण की भावना वालों की अभिरुचि श्रार धना की ओर झुक गई। सूरिजी ने कोरंटपुर में स्थिरता कर वहाँ के श्रीसंघ में शान्ति स्थापन करदी औ उनको इस प्रकार समझाया कि उनका दिल उदार एवं विशाल बन गया ! एक समय चन्द्रावती नगरी के संघ अश्वर सूरिजी के दर्शनार्थ आये और प्रार्थना की कि प्रभो चन्द्रावती का सकल श्रीसंघ आपके दर्शनों की अभिलाषा कर रहा है अतः आप शीघ्र ही चन्द्रावती धा आपके पधारने से बहुत उपकार होगा। सूरिजी ने फरमाया कि इनको विहार तो करना ही है और इस प्रदे में आये हैं तो चन्द्रावती की स्पर्शना भी करनी ही है पर आप शीघ्रता करने को कहते हो ऐसा वहाँ क्य ला ७७० ? श्रावकों ने कहा यह तो आप वहाँ पधारेंगे तब मालूम हो जायगा । सूरिजी ने कहा क्या कोई दीक्ष लेने वाला है या मंदिर की प्रतिष्ठा करवानी हैं तथा तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालना है ऐसा कौनसा लाभ है श्रावकों ने कहा कि दीक्षा श्रावक ही लेते है मंदिर श्रावक ही करवाते है और संघ भी श्रावक ही निकाल हैं। आप चंद्रावती पधारें सब होगा। सूरिजी ने कहा क्षेत्र स्पर्शन । वस, चंद्रावती के श्रावक सूरिजी वंदन करके चले दिये । तदनंतर सूरिजी कोरंटपुर से विहार करके आस पास के ग्रामों में धर्मोपदेश क [ चन्द्रावती का संघ कोरंटपुर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक सूरि का जीवन | [ ओसवाल संवत् ७३६-७५७ हुये चंद्रावती पधारे। श्रीसंघने बड़े ही समारोह से सूरिजी का स्वागत किया । सूरिजी महाराज ने मंगलाचरण में ही फरमाया कि जिनशासन की प्रभावनाः जिनशासन की उन्नति और मिथ्या दृष्टियों को प्रतिवोध करने से जीव तीर्थङ्कार नाम कर्मोपार्जन करता है । इस विषय में कई उदाहरण बतला कर जनता पर अच्छा प्रभाव डाला तत्पश्चात् भगवान् महावीर की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । दोपहर के समय ओकोरंटपुर आये थे वे श्रावक आये। सूरिजी को वन्दन करके श्रर्ज की कि प्रभो ! यह दुर्गा श्रीमाल है इसने भगवान शान्तिनाथ का मंदिर बनाया है इसकी इच्छा है कि प्रतिष्ठा करवा कर श्रीशत्रु जय का संघ निकाल और उस तीर्थ की शीतल छाया में दीक्षा ग्रहण करूँ इसलिये हम आपके पास विनती करने को आये थे । सूरिजी ने कहा दुर्गा बड़ा ही भाग्यशाली है । जो श्रावक करने योग्यकृत्य है उनको करके कृतार्थ होना चाहिये ! दुर्गा ने जो कार्य करने का निश्चय किया यह तो बहुत अच्छा है कल्याणकारी है पर दुर्गा के कुटुम्ब में कौन है ? उन्होंने कहा दुर्गा के औरत तो गुजर • गई तीन पुत्र और पौत्रे वगैरह हैं पर वे भी धर्मिष्ठ हैं उन्होंने कह दिया कि आप अपने कमाये द्रव्य का धर्म-कार्य में व्यय करें इसमें हमारा कोई उजर नहीं है इतना ही नहीं बल्कि जरूरत हो तो हम अपने पास से भी दे सकते हैं आप खुशी से धर्म-कार्य करावे इत्यादि । सूरिजी ने कहा कि शाल का वृक्ष के परिवार भी शाल का ही होता है पर धर्म कार्य में बिलम्ब न होना चाहिये । श्रावकों ने कहा गुरुदेव ! मन्दिर तो तैयार होगया | आप शुभ मुहूर्त निकाल दें सब सामग्री तैयार है संघ के लिये अभी तो ऋतु गरमी की है आप चतुर्मास करावे और बाद चतुर्मास के संघ निकाल कर दुर्गा दीक्षा लेने को भी तैयार है । उम्मेद है कि दुर्गा का अनुकरण करने को और भी कई भावुक तैयार होजांयगे । सूरिजी ने फरमाया कि क्षेत्र स्पर्शन सूरिजी का व्याख्यान हमेश हो रहा था श्री संघ ने चतुर्मास की विनती की और सूरिजी ने स्त्रीकार करली । सूरिजी ने आर्बुदाचलादि प्रदेश में घूम कर पुनः चन्द्रावती आकर चतुर्मास कर दिया । व्याख्यान में आगन वाचना के लिये श्रीभगवती सूत्र वाचने का निश्चय होने पर शाहदुर्गा ने रात्रि जागरणादि श्रागम पूजा का लाभ हासिल किया कारण दुगा के एक यही काम शेष रहा था । सूरिजी की कृपा से वह भी होगया चन्द्रावती नगरी के लिये यह सुवर्ण समय था कि एक तो सूरिजी का चतुर्मास और दूसरे महा प्रभाविक पंचमागम का सुनना जिसके लिये मनुष्य तो क्या पर देवता भी इच्छा करते हैं। प्रत्येक शतक ही नहीं पर प्रत्येक प्रश्न की पूजा सुवर्ण मुद्रिका से होती थी जनता को बड़ा ही आनन्द आरहा था, क्यों नहीं सूरिजी जैसे विद्वान के मुँह से श्रीभगवती सूत्र का सुनना । यों तो भगवती सूत्र ज्ञान का समुद्र ही है और इसमें सब विषयों का वर्णन आता है पर त्याग वैराग्य एवं आत्म कल्याण की और विशेष विवेचन किया जाता था जिससे कई मुमुक्षुओं के भाव संसार से विरक्त होगये थे सूरिजी के चतुर्मास से जनता को बहुत लाभ मिला, तप संयम की आराधना भी बहुत लोगों ने की । इधर शाह हुर्गा ने अपनी ओर से संघ की तैयारियें करनी शुरू करदी | बड़ी खुशी की बात है कि मन्दिर की प्रतिष्ठा और संघ प्रस्थान का मुहूर्त नजदीक २ में ही निकला कि जनता का और भी सुविधा होगई। दुर्गा ने आमंत्रण भी दूर २ प्रदेश तक भिजवा दिये थे । श्रतः चतुर्दिध श्रीसंघ बहुत गहरी संख्या में उपस्थित हुआ । सूरिजी ने शुभ मुहूर्त में मन्दिरजी की प्रतिष्ठा करवा कर शाह दुर्गा को संघपति बनाया और संघ यात्रा के लिये प्रस्थान कर दिया । रास्ते में मंदिरों के दर्शन पूजा प्रभावना ध्वजारोहण और स्वामिवात्सल्यादि कई शुभ कार्य करते हुये संघ श्रीशत्रु जय पहुँचा । दुर्गा श्री महल का प्रशंसनीक कार्य / ७७ Amelibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० ३३६-३५७ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दर्शन स्पर्शन कर सब लोगों ने अपना अहोभाग्य समझा । अष्टान्हिका महोत्साव ध्वजारोहणादि के पश्चात् शाह दुर्गा ने संघपति की माला अपने ज्येष्ठ पुत्र कुंभा को पहना दी और आपने एकादश नरनयिों के साथ सूरिजी के चरण कमलों भगवति जैनदीक्षा स्वीकार करली । इस सुअवसर पर सूरिजी ने उन मुमुक्षुओं की दीक्षा के साथ अपने शिष्यों में से मुनि पूर्णनन्दादि पांच साधुओं को उपाध्याय पद राजसुन्दरादि ५ साधुओं महत्तर पद कुँवारहंसादि पांच साधुओं को पण्डित पद प्रदान किया। बाद संघ शाह कुंभा के संघपतित्व में वापिस लौट कर चन्द्रावती आया। सरिजी महाराज ने कई अर्सा तक तीर्थ की शीतल छाया में निर्वृति का सेवन किया बाद विहार कर सौराष्ट्र भूमि में सर्वत्र भ्रमण कर धर्म जागृति एवं धर्म का प्रचार बढ़ाया इत्यादि अनेक प्रान्तों में घूम कर अपने पूर्वजों की स्थापित की हुई शुद्धि की मशीन को द्रुतगति से चलाकर हजारों लाखों मांस भक्षियों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर उनका उद्धार किया। कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवाई। कई मौलिक प्रन्थों का भी निर्माण किया और अपने कच्छ सिन्ध में विहार कर पंजाब की भूमि को पावन की । कई अर्सा तक वहाँ विहार कर जैनधर्म की प्रभावना की तत्पश्चात् हस्तनापुर मथुरादि तीर्थों की यात्रा कर बुदेल खण्ड एवं आवन्ति मेदपाट होते हुये मरुधर में पधारे । श्रापके आज्ञावृति साधु साध्वयों की संख्या बहुत थी। अपने भी कई नरनारियों को दीक्षा थी अतः वे साधु साध्वियों प्रत्येक प्रान्त में विहार करते थे। अपने अपने २१वर्षों के शासन में जैनधर्म की खूब सेवा बजाई। अन्त में आप उपकेशपुर पधारे और कुमट गौत्रिय शाह लाधा के मह महोत्सव पूर्वक तथा देवी सच्चायिका की सम्मति से उपाध्याय पूर्णनन्द को आचा र्यपद से विभूषित कर अपना सर्व अधिकार नूतन प्राचार्य देवगुप्तसूरि को सौंप कर श्राप अन्तिम सलेखना में लगगये और अन्त में १६ दिन का अनशन कर समाधि पूर्वक स्वर्ग पधारे। प्राचार्य श्री के शासन में भावुकों की दीक्षा १- चन्द्रावती के उपकेश वंशीये रामादि कई भावुकों ने सूरिजी से दीक्षा ली २-चुड़ा के प्राग्वट वंशीये विमला ने ३-पद्मावती के प्राग्वट वंशीय थेरू ने ४-गरोली ग्राम के श्रीमाल शाह सुखा ने ५-टेली प्राम के सुचंति गौत्रीय ,, मादा ने ६-वडवोली के भूरि गोत्रीय , आदू ने ७-उपकेशपुर के श्रेष्टि गौत्रीय ,, कुम्पा ने ८-नागपुर के बाप्पनागगौत्रीय ,, बागा। ९-जंगालु के भाद्र गौत्रीय ,, भीमा १०-जसोली के चरड गौत्रीय , देवा ११-शंखपुर के चोरलिया गौत्रीय,, जोगड़ ने १२-हारदा के कुम्मट गौत्रीय , नोंधण ने १३-घोघा के कनोजियागोत्रीय ,, लाधा ने ७७२ [ सरिजी के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ CATEIN AME Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कर का जीवन ] १४ - भरोंच १५ - भीयाणी १६ – भुजपुर १७ - वीरपुर १८ - खोखर १९ - नरवर २० के मल्ल गौत्री के सुघड़ गौत्रीय के तप्तभट्ट गोत्रीय करागी - कीराटकुम्प के अदित्य नाग गौ० के श्रेष्टिगोत्रीय २१- मथुरा २२- मीमावती के कुलभद्र गौत्रीय २३-विसट के विरहगोत्रीय के सोनावत गौत्रीय २४ - चन्देरी २५ - मांडव्यपुर के सुसाणिया गौत्रीय २६-- मधुमति के भाद्रगोत्रीय २७---मधिमा नाग गौत्री २८-- ठाकुरपुर के डिडुगौत्रीय २९- दशपुर ३० --- देवली के वोहरागोत्रीय केष्टिग ३१ - देवपटूटन के प्राग्वटवंशीगोत्रीय ३२ --- कानड़ा के राव क्षत्री गौत्रीय के चिचटगौत्रीय शाह सारंग ने के मोक्षगौत्रीय शोभा ने करमण ने रांगा ने माथुर में फागु ने पेथा ने कल्याण सूपण ने हरदेव ने देसल ने हाला ने 167 "" 35 सूरिजी के शासन में संघादि सद्कार्य ] 33 "3 " " 32 "3 39 "" 39 "" 93 79 हरराज ने "" करमाण ने " नारायण ने पन्ना ने सूघा ने " डुगर मे भैसा ने 33 [ औसवाल संवत् ३३६-३५७ सूरिजी से दीक्षाली 33 29 "" " 39 33 " 22 "" 39 59 39 39 "" 99 "" 33 "" ९ - तक्षशिला से करणाट गौत्रीय शाह रावल ने श्री शत्रुंजय का सङ्घ निकाला । १०- देवपट्टन से श्रेष्ट गौत्रीय मंत्री गोकल ने श्री शत्रुंजय का सङ्घ निकाला | 59 39 "" "" "" "" 35 " "9 "" 99 पूज्याचार्य देव के शासन में सद्कार्य्य १. - नागपुर के अदित्यनाग गौत्रीय शाह दीपा ने श्री उपकेशपुर स्थिति भगवान् महावीर की घरी पाली संघ निकाला साधर्मी भाइयों को स्वामिवात्सल्य एवं एक एक सुवर्ण मुद्रिका की पहरामणी दी । इस स ंघ में शाह दीपा ने एक लक्ष द्रव्य व्यय कर शुभ कर्मों का संचय किया । २ - उपकेशपुर का श्रेष्ट गौत्रीय शाह रावल ने श्री शत्रुंजय का सङ्घ निकाला । ३ - सौपार पाटण का बलाह गौत्रीय शाह राणा ने श्री शत्रुंजय का सङ्घ निकाला । ४ - मांडवगढ़ के मोरक्ष गौत्री मंत्री नागदेव ने श्री शत्रुंजय का सङ्घ निकाला । ५ - दशपुर के सुचंति गौत्र का शाह भारमल ने श्री शत्रुंजय का सङ्घ निकाला । ६ - वीरपुर के भूरि गौत्रीय शाह भाला ने श्री शत्रुंजय का सङ्घ निकाला । - चंदेरी के कुम्मट गौत्रीय शाह कल्हण ने श्री शत्रुंजय का सङ्घ निकाला । ====== " ८ - लोहाकोट के बाप नागगोत्रीय मंत्री रणवीर ने श्री सम्मेतशिखरजी का सङ्घ निकाला | "" "3 ७७३ www.jainenbrary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३३६-३५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ११-भरोंच नगर से प्राग्वटवंशीय मन्त्री जल्हण ने श्री शत्रुजय का सङ्घ निकाला। १२-पोतनपुर से प्राग्वटवंशीय महरा ने श्री शत्रुजय का सच निकाला। १३--कोरंटपुर के श्रीमालवंशीय शाह देदा ने श्री शत्रुजय का सच निकाला। १४-भिनामाल के श्रेष्टि गौत्रीय शाह चैना ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला। १५-जावलीपुर के अदित्य नाग गौत्रीय शाह भुरा ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला। १६-शिवगढ़ के श्रेष्टि गौनीय मन्त्री खूमाण युद्ध में काम आया उनकी स्त्रिी सती हुई । १७-चाव का वापनाग गौत्रीय शाह सूघा युद्ध में मारा गया उनकी दो स्त्रिां सती हुई। १८-मेदनीपुर का भाद्र गौत्रीय नागयण युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई । १९--डिडु नगर का तप्तभद्र गौत्रीय गुणपाल युद्ध में काम पाया उनकी दो स्त्रिां सती हुई। २०-चन्द्रावती का प्राग्वट मन्त्री हाथी युद्ध में मारा गया उसकी स्त्री सती हुई । २१ उपकेशपुर का श्रेष्टि वीर वीरम युद्ध में मारा गया उसकी स्त्री सती हुई। २२-शक्खपुर का विरहट गौत्रीय वीर जाल्हण युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई। २३-खटकुंप के चरड गौत्रीय शाह तेजा युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई। २४--जंगालु के कनोजिया शाह कुका युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई ! २५---सत्यपुर के भीमाल वंशी दूधा युद्ध में काम श्राया उसकी स्त्री सती हुई। २६-पीपाणा का श्रेष्टि गौत्रीय रावल की विधवा पुत्री ने एक तलाब खुदाया। २७ --नारदपुरी के प्रारपट लाखा ने वि० सम्वत ३४७ दुकाल में शत्रुकार दिया। २८-कीराटकुंप के कुलभद्र गौत्रीय शाह नेना ने ३४७ दुकाल में शत्रुकार दिया । २९-हपुर का बलाह गौडीय भीम ने सम्वत ३४७ शत्रुकार तथा पशुओं ने घास देकर दुकाल को सुकाल बना दिया। भीमा रे घर भुलो आवे अन्न जल घास तुरत हो पावे । भीम भीम में अन्तर न आणो, कलि नहीं पर सतयुग जाणो॥ प्राचार्य श्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ । १-- विजयपहन के अदित्यनाग० धरण ने भ. महावीर म० प्र० १-भिन्नमाल के बाप्पनाग गौ० अजरा ने , , , , ३- सत्यपुर के श्रीमाली वंशी गोपाल ने , पार्श्व , , ४--सोढेराव के प्राग्वट वंशो रहाप ने , ५-चन्द्रपुर के घरड़ गोर जोरा ने ६ गजपुर के मल्ल गौ० दोला ने ने , सुपार्प ,, ७-रेणकोट के भूरि गौ० साहा ने , चन्द्र०,, , ८-रेवाड़ी के पोकरणा गोर दुरगा ने , महावीर , , ९-हालड़ी के डिडुगौत्र चंचग ने चंचग " " " " [ मरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाएँ 05 TREATED ७७४ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन [ओसवाल संवत् ७३६-७५७ • 4, , वासपूज ༔ མ་ ., धर्म शान्ति पहावीर १.-सिलोरा के श्रेष्टि गौ० चूड़ा ने भ० महावीर म० प्र० ११-डामरेल के भूरि गौ० जाला ने , शितल० १२-श्रालोर के अदित्य नाग० जोधा १३-जाबलीपुर के चोरलिया० , विमल १४-गगरकोट के बलाह गी० । १५-त्रिभुवनगीरि के कुमट गौ० १६-मारोटगढ के कनोजिया० जैहिंग ने ,, महावीर १७-नारायणगढ़ के चिंचट गौ। नागड़ ने , १८-देवलकोट के सुचंति गौ. पर्वत ने , १९- कानपुर के श्री श्रीमाल अमाराने , आदीनाथ ,, २०-दुनारी के श्री श्रीमाल वोपा ने , पार्श्व २१-कोटीपुर के तप्तभट्ट गौर डुंगर ने , २२-वदनपुर के वाप्पनाग गौ० उरजणने , गोडीपार्श्व, २३-घूसीग्राम के फरणाट गी० कचरा ने २४ -- देपालपुर के कुलभद्र गौ. नोधण ने २५-अटालू के विरहट गौ० २३-अरणी के चरण गौत्र० टेका ने , सीमंधर , , २७-पाल्हिका के सुघड़ गौ दुर्गा ने, शान्ति० , २८ - पुष्कर के लुंग गोत्र. मुकना ने, ६९ -मासी के प्राग्वट गौ वच्छा ने , महावीर , ३०.-जैतलपर के प्राग्वट गौ० नानग ने , , ३१-सिद्धपुर के श्रीमाल गौ० हाइमंत ने , , , , ३२-बड़नगर के श्रेष्टि गौ० पृथुसेन ने , , , , ३३-आकांणी के डिदु गौत्र० नाथा ने " " " " बीस अट्ट पट्ट ककसरि हुये, श्रेष्टि कुल उारक थे। वादी गंजन बन केसरी, जैनधर्म प्रचारक थे । जैन मन्दिरों की करी प्रतिष्ठा, दर्शन खूब दिपाया था। जिनके गुणों को कहे बृहस्पति, फिर भी पार न पाया था । ॥ इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के २८ वें पट्ट पर भाचार्य ककसूरिजी महान् आचार्य हुये ॥ लढा ७ सूरीश्वरजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ ] ७७५ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३५७-३७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २६-- श्राचार्य देवगुप्तसूरि ( पांचवा ) आचार्यस्तु स देवगुप्त पदयुक् श्रीमाल वंशे बुधः । रोगग्रस्त तयाsपि यो न विजहौ धर्मे प्रतिज्ञां च स्वाम् ॥ दीक्षानन्तरमेव येन रविणा तेजस्तथा दीपितम् । वादि ध्वान्त विनाशनं च विहितं तस्मै नमः शास्वतम् ॥ + Co या चार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वरजी महाराज जैसे जैनागमों के पारगामी थे वैसे ही तपस्या करने में बड़े ही शूरवीर थे । आपकी तपस्या के कारण कई देवी देवता आपके चरण कमलों की सेवा में रहना अपना अहोभाग्य समझते थे । आपको कई लब्धियें एवं विद्यायें तो स्वयं वरदाई थी। जैनधर्म का उत्कर्ष बढ़ाने के लिये आप खूब देशाटन करते थे । आपके आज्ञावृति हजारों साधु साध्वियां प्रत्येक प्रान्त में विहार कर जनता को धर्मोपदेश दिया करते थे । आपका प्रभावोत्पादक जीवन बड़ा ही अनुकरणीय था । श्राप श्रीमान् कोरंटपुर नगर के श्रीमालवंशी शाह लुम्बा की पुन्य पावना भार्या फूलों के लाड़ले पुत्र थे श्रापका नाम वरदत्त था। शाह लुम्बा अपार सम्पत्ति का मालिक था। आपका व्यापार क्षेत्र इतना विशाल था कि भारत के अलावा भारत के बाहर पाश्चात्य प्रदेशों में जल एवं थल दोनों रास्तों से पुष्कल व्यापार था । साधर्मी भाइयों की ओर आपका अच्छा लक्ष था । शाह लुम्बा ने पांचवार तीर्थ यात्रा संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को सुवर्ण मुद्रिका की पहरामणी दी थी। उस जमाने में तीर्थों के संघ का खूब ही प्रचार था। श्रीसंघ को अपने यहां बुला कर उनको अधिक से अधिक पहरामणी में द्रव्य देना बड़ा ही गौरव का कार्य समझा जाता था, मनुष्य अपनी न्यायोपार्जित लक्ष्मी इस प्रकार शुभ कार्य एवं विशेष साधर्मी भाइयों को अर्पण करने में अपने जीवन को कृतार्थ हुआ समझते थे। यों तो शाह लुम्बा के बहुत कुटुम्ब था पर वरदत्त पर उसका पूर्ण प्रम एवं विश्वास था कि मेरे पीछे वरदत्त ही ऐसा होगा कि धर्म कर्म करने में जैसे मैंने अपने पिता के स्थान, मान, एवं गौरव की रक्षा की है वैसे ही मेरे पीछे वरदत करेगा, यों भी वरदत्त सर्व प्रकार से योग्य भी था ! ७७६ रक्त चिकने लग गया । वरदत्त के भगवान् महावीर के एक समय अशुभ कर्मोदय वरदत्त के शरीर में ऐसा रोग उत्पन्न होगया कि उसके शरीर में जगह २ स्नान करने का अटल नियम था जिस दिन से दत ने यह नियम लिया था उस दिन से अखण्डपने से पाला था पर न जाने किस भव के कर्मोदय हुआ होगा। जहां तक शरीर में धोड़ा रक्त चीकता था वहां तक तो वरदत्त अपने नियमानुसार भगवान् महावीर का स्नान करता रहा पर जब कुछ अधिक विकार हुआ तो लोगों में चर्चा होने लगी कि वरदत्त के शरीर में रक्त चीक रहा है। इससे स्नान करने से भगवान की आशातना होती है। अतः वरदत्त को पूजा नहीं करनी चाहिये । तब कई एकों ने कहा कि वरदत्त के अखण्ड नियम है वह पूजा किये बिना मुँह में अन्नजल तक भी नहीं लेता है । श्रीपालजी को कुष्ठरोग होने पर भी पूजा की है मुख्य तो भावों की शुद्धि होनी [ कोर टपुर का श्रीमाल लुम्बा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७-७७० चाहिये । इस प्रकार की चर्चा हो रही थी परन्तु कलिकाल के प्रभाव से चर्चा ने उग्र रूप धारण कर लिया कि दो पार्टियां बनगई। इस हालत में वरदत्त ने सोचा कि केवल मेरे ही कारण से संघ में फूट कुसम्प पैदा होना अच्छा नहीं है। दूसरे प्राण चले जाने पर भी मैं अपने नियम को खण्डित करना नहीं चाहता हूँ। इससे तो यही उचित है कि जहां तक मैं स्नात्र नहीं करलं वहां तक मुंह में अन्न जल नहीं लू वरदत्त का यह विचार विचार ही नहीं था परन्तु उसने तो कार्य के रूप में परिणित कर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया जिसको करीब नौ दिन व्यतीत होगये न वरदत्त का रोग गया न उसने पूजा की और न उसने नौ दिनों में मुह में अन्नजल ही लिया। इस बात की नगर में खूब गरमा गरम चर्चा भी चल रही थी। ठीक उसी समय धर्मप्राण आचार्य कक्कसूरि का शुभागमन कोरंटपुर में हुआ । श्री संघ में जैसे वरदत्तकी चर्चा चल रही थी वैसे एक उपकेशवंशी ने राजपूत की कन्या के साथ शादी करली थी इसका भी विग्रह चल रहा था परन्तु सूरिजी के पधारने से एवं उपदेश से राजपूत की कन्या को जैनधर्म की दीक्षाशिक्षा देकर उस झगड़े को शान्त कर दिया पर वरदत्त का एक जटिल प्रश्न था । इसके लिये सूरिजी ने सोचा कि इसमें निश्चय तो स्नान करने में कोई हर्ज है नहीं पर व्यवहार से ठीक भी नहीं है। अतः इस प्रश्न का निपटारा कैसे किया जाय । दूसरे संघ की दोनों पार्टी अपनी २ बात पर तुली हुई हैं अतः आपने देवी सच्चा यिका का स्मरण किया । बस, फिर तो क्या देरी थी । सूरिजी के स्मरण करते ही देवी ने आकर बन्दन किया और अर्ज की प्रभो ! फरमाइये क्या काम है ? सूरिजी ने कहा देवीजी ! वरदत्त का यहां बड़ा भारी बखेड़ा है इसको किस प्रकार निपटाया जाय ? देवी ने अपने ज्ञान से उपयोग लगा के देखा तो वरदत्त के वेदनीय कर्म का अन्त हो चुका था। अतः देवी ने सूरिजी से कहा प्रभो! आप बड़े ही भाग्यशाली हैं आपके यश रेखा जबरदस्त हैं और यह पूर्ण यश आपको ही आने वाला है । वरदत्त की वेदना खत्म हो चुकी है । सुबह आप वरदत्त को वासक्षेप देंगे तो इसका शरीर कंचन जैसा हो जायगा और वह महावीर स्नान करवाकर पारणा भी कर लेगा और भी कुछ सेवा हो तो फरमाइये ? सूरिजी ने कहा देवीजी आप समय २ पर इस गच्छ की सार सँभाल करती हो अतः यह कोई कम सेवा नहीं है । देवी ने कहा पूज्यवर ! इसमें मेरी क्या अधिकता है । यह तो मेरा कर्तव्य ही है । पर इस गच्छ का मेरे पर कितना उपकार है कि जिसको मैं वर्णन ही नहीं कर सकती हूँ इत्यादि । सूरिजी को वंदन कर देवी वरदत्त के पास आई और कहा कि वर. दत्त ! तू सुबह जल्दी उठकर सूरिजी का वासक्षेप लेना कि तेरी वेदना चली जायगी । वरदत्त ने कहा तथाऽस्तु । बस, देवी तो अदृश्य हो गई । वरदत्त ने सोचा कि यह अदृश्य शक्ति कौन होगी कि मुझे प्रेरणा की है ? खैर उसके दिलों में तो परमात्मा के स्नात्र की लगन लगही रही थी उसने रात्रि में निद्रा ही नहीं ली । सुवह उठ कर सीधा ही सूरिजी के पास गया और प्रार्थना की कि प्रभो ! कृपा कर वासक्षेप दिरावं । ज्योंही सूरिजी ने वरदत्त पर वासक्षेप बाला त्यों ही वेदना चोरों की भाँति भाग छूटी और वरदत्त का शरीर कंचन सा हो गया। वह सूरिजी को बन्दन कर सीधा ही महावीर के मन्दिर गया और स्नान कर स्नान कराने लग गया। इस बात की जब लोगों को खबर हुई तो आपस में चर्चा करते हुये सब लोग चल कर सूरिजी के पास आये और अपना २ हाल कहा । सूरिजी ने कहा महानुभावो! आपने विना हि कारण संघ में अशांति फैला रखी है ? तीर्थङ्करों का धर्म स्याद्वाद है । जैनधर्म कषाय जीतने में धर्म बतलाता है न कि कषाय बढ़ाने में । धन्य तो है वरदत्त को कि कषाय बढ़ने के भय से उसने तपस्या करना शुरू कर दिया कि जिससे आचार्य ककसरि कोरंटपुर में] ७७७ Jain Education Sci Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३५७-३७० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास न तो अपना व्रत खण्डित हो और न संघ में कषाय बढ़े । कई ने कहा गुरुदेव ! वरदत्त भद्रिक स्वभाव वाला है उसने तपस्या तो की है पर आज किसी की बहकावट में आकर मन्दिर में स्नान करा रहा है । इसलिये हम सब लोग आपकी सेवा में आये हैं जैसा श्राप फरमावें हम शिरोधार्य करने को तैयार हैं। सूरिजी ने कहा वरदत्त का शरीर निरोग है उसके पूजा करने में कोई भी हर्ज नहीं है। सूरिजी के वहाँ बातें हो रही थीं इतने में वरदत्त सूरिजी को बन्दन करने के लिये आया तो सब लोगों ने देखा कि उसका शरीर कंचन की भाँति निर्मल था । उपस्थित लोगों ने सोचा कि यह सूरिजी महाराज की कृपा का ही फल है । बस, फिर तो था ही क्या सब लोगों ने वरदत्त को धन्यवाद देकर अपने अपने अपराध की माफी माँगी। वरदत्त ने कहा कि मेरे अशुभकर्मोदय के कारण आप लोगों को इतना कष्ट देखना पड़ा, अतः मैं आप लोगों से माफी चाहता हूँ। इतने में व्याख्यान का समय हो गया था सूरिजी ने अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया । उस दिन के व्याख्यान में सूरिजी ने चार कपाय का वर्णन करते हुये फरमाया कि क्रोध और मान द्वेष से उत्पन्न होते हैं तथा माया एवं लोभ राग से पैदा होते हैं और राग द्वष संसार के बीज हैं । अन्तानुबन्धी क्रीध मान माया लोभ मूल सम्यवत्त्वगुण की घात करता है । जब अप्रत्याख्यानी क्रोध मान माया लोभ देशतिगुण की रुकावट करता हैं तथा प्रत्याख्यानी क्रोध मान माया लोभ सर्वव्रतिगुणस्थान को आने नहीं देता हैं और संजल का क्रोध मान माया लोभ वीतराग गुण की हानि करता हैं । अब इन चारों प्रकार के क्रोधादि की पहचान भी करवादी जाती है कि मनुष्य अपने अन्दर आये हुए क्रोधादि को जान सकें कि मैं इस समय कौनसी कषाय में बरत रहा हूँ और भवान्तर में इसका क्या फल होगा। १-अन्तानुबधी क्रोध -- जैसे पत्थर की रेखा सदृश अर्थात् पत्थर की रेखा टूट जाने से पिच्छ। मिलती नहीं है वैसे ही अन्तानुबन्धी क्रोध आने पर जीवन पर्यन्त शान्त नहीं होता है। २-अन्तानुबन्धीमान-जैसे बत्रका स्तंभसदृश्य अर्थात् बनकास्तम्भ तुटजाता है पर नमता नहीं है। ३-अन्तानुबन्धी माया-जैसे बांस की गंठी अर्थात् बांस के गंठ गंठ में गंठ होती है। ४-अन्तानुबन्धी लोभ--जैले करमचीरंग को जलादेने पर भी रंग नहीं जाता है । इन चारों की स्थिति यावत् जीव, गति नरक की, और हानि समकित की अर्थात् यह चोकड़ी मिथ्यात्वीक के होती है। ५-अप्रत्याख्यानी क्रोध-जैसे तालाब की तड़ जो बरसाद से तड़े पड़ जाती है पर वे एक वर्ष में मिट जाती है । वैसे ही क्रोध है कि सांवत्सरि प्रतिक्रमण समय उपशान्त हो जाता है । ६-अप्रत्याख्यानी मान -जैसे काष्ट का स्तंभ । ७- अप्रत्याख्यानी माया-जैसे भिंड़ा का सोंग । ८-अप्रत्याखानी लोभ - जैसे गाड़ा का खंजन । इन चारों की स्थिति एक वर्ष की, गति तिर्यच की, हानि श्रावक के व्रत नहीं आने देता है । ९-प्रत्याख्यान क्रोध- जैसे गाड़ा की लकीर । १०-प्रत्याख्यान मान-जैसे वेंत का स्तंभा ११-प्रत्याख्यान माया - जैसे बांस की छाती। १२-प्रत्याख्यान लोभ-जैसे आंखों का काजल । इन चारों की स्थिति चार मास की, गति मनुष्य की, हानि मुनि के पांच महाव्रत नहीं आने देता है। [ कषाय शान्ति का उपदे ७७८ Jain Educator international Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७–७७० १३--संज्वल का क्रोध-जैसे पानी की लकीर । १४-संज्वल का मान-जैसे तृण का स्तंभा । १५-संज्वल का माया-जैसे चलता बलद का पैशाव १६ --- संज्वल का लोभ-जैसे हल्दी का रंग ! इनमें क्रोध की दो मास, मान की एकमास, माया की पन्द्रह दिन, और लोभ की अन्त मुहूत की स्थिति है गति देवतों की ? हानि वीतरागता नहीं आना देती है। ___ इस प्रकार क्रोधादि सोलह कषाय हैं इसमें भी एक एक के चार चार भेद होते हैं जैसे १-अन्तानुबन्धी क्रोध अन्तानु बन्धी क्रोध जैसा २-अन्तानु बन्धी क्रोध अप्रत्याख्यानी क्रोध जैसे ३-अन्तानुबन्धी क्रोध प्रत्याख्यानी क्रोध जैसे और ४-अन्तानुबन्धी,क्रोध संज्वल जैसा उदाहरण जैसे एक मिथ्यातवी प्रथम गुणस्थान वाला जीव है ! और वह इतनी क्षमा करता है कि उसको लोग मारे पिटे कटू शब्द कहें तो भी क्रोध नहीं करता है ! पर उसका मिथ्यत्वमय पहिला गुनस्थान नहीं छुटा है अतः अन्तानुबन्धी कषाय मौजुद है हाँ यह अन्तानुबन्धी क्रोध संज्वल सदृश है ! तथा एक मुनि छठे गुणस्थान वाला है ! परन्तु उसका क्रोध इतना जोर दार है कि जिसको अन्तानुबन्धी क्रोध कहा जाता है ! परन्तु तीन चौकड़ीयों का क्षय होने से उस क्रोध को संज्वल का क्रोध अन्तानुबन्धी जैसा ही कहा जा सकता है ! इसी प्रकार शेष कषायोंको भी समझ लेना ! महानुभावों! संसार में परि भ्रमन कराने वाला मुख्य कषाय ही है श्री भगवतीजी सुत्र के बारहवें शतक के उइंश म शक्ख श्रावक ने भगवान महावीर को पुच्छा था कि जीव क्रोध करे तो क्या फल होता है ? उत्तर में भगवान महावीर ने फरमाया कि शंक्ख क्रोध करने से जीव आयुष्य कर्म साथ में बन्धे तो आठों कों का बन्धकरे शायद आयुष्य कर्म न बन्धे तो सात कर्म निरन्तर बन्धता है जिसमें भी क्रोध करने वाला शिथल कर्मों को मजबूत करे, मन्द रस को तीब्र रस वाला करे अल्मस्थिति वाला कर्मों को दीर्घ स्थिति करे । अल्पप्रदेशों को बहु प्रदेशों वाला बनावे असाता वेदनी बार बार बन्धे और जिस संसार की आदि नहीं और अन्त नहीं उन संसार में दीर्घ काल तक परि-भ्रमन करे इसी प्रकार मान माया और लोभ के फल बतलाय हैं । इससे आप अच्छी तरह समझ सकते हैं ? कि क्रोध मान माया और लोभ करना कितना बुरा है और भवान्तर में इसके कैसे कटु फल मिलते हैं। उदाहरण लीजिये-- टेली ग्राम में चंड़ा नाम की बुढ़िया रहती थी उसके आरुण नाम का पुत्र था वे निर्धन होने पर भी बड़े ही क्रोधी थे बुढ़िया सेठ साहुकारों के यहां पानी पीसनादि मजूरी कर दुखः पुर्ण अपना गुजारा करती थी आरुण भी बाजार में मजूरी करता था पर क्रोधी होने से उसे कोई अपने पास आने नहीं देता था ! एक समय चंडा रसोई बना कर अपने बेटे की राह देख रही थी कि वह भोजन करले तो मैं किसी र जुरी पर जाऊं पर श्रारुण घर पर नहीं आया ! इतने ही मैं किसी सेठ के यहाँ से बुलावा आया कि हमारे यहाँ पर महमान आये हैं पानी ला दो ! बुढ़िया ने सोचा कि बेटे का स्वभाव क्रोधी है वह भोजन कर जावे तो में जाऊ पर साथ में यह भी सोचा की संठजी का घर मातम्बर है मेरा गुजारा चलता है इस वक्त इन्कार करना भी अच्छा नहीं है चंडाने बनाई हुई रसोई एक छींके पर रख पानी भरने को चली गई पिछे श्रामण आया माता को न देख लाल बंबुल बन गया जब माता आई तो बेटाने कहा रे पापनी तुझे शुली चढ़ादूं कि तु कहाँ चली गई थी मैं तो भूखों मर रहा हूँ इत्यादि बेटे के कठोर बचन सुन कर माता को भी क्रोध श्रागया कषाय की कटुता विषय द्रष्टान्त ] ७७९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३५७-७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और उसने कहा रे दुष्ट ! क्या तेरा हाथ कट गया था कि छींके में पड़ी रोटी लेकर तु नहीं खा सका बस ! दोनों के निकाचित कर्म बन्ध गये ! बाद कई वर्षों के वे दोनों मर कर संसार में भ्रमन करते हुए बहुत काल व्यतित कर दिया और क्रमशः बुढ़िया का जीव एक धना सेठ के यहाँ कन्या हुई जिसका नाम लीलू रखा और आरुण का जीव एक दत्त सेठ के यहाँ पर पुत्र हुआ जिसका नाम सरजा दिया भाग्य बसात् इन दोनों की आपस में सगाई हो गई सरजा ने दिशावर जाकर पुष्कल द्रव्योपार्जन किया उसने माता पिता के छाने एक काकरण की जोड़ी आपनी औरत के लिये भेज दी बाद आरुण देश को आने के लिये एक मित्र के साथ रवाना हो गया। इधर लीलू मेला में गई थी वापिस आते वक्त किसी बदमास ने उसके हाथ काट कर कार्कण निकाल लिया जब पुलिस आई तो वो बदमास भाग कर एक बगीचा में आया वहाँ मुसाफिरी करता सरजा भी आकर एक मकान में सो रहा था बदमास ने छुरा और कार्कण सरजा के पास रख दिया गरज कि पुलिस आवेगी तो सरजा को पकड़ेगी और नहीं तो मैं काकण लेकर भाग जाऊंगा। पुलिस आई और कोकण देख सरजा को पकड़ कर ले गई और राजा के हुक्म से उसे शूली चढ़ा दिया। सरजा के मित्र द्वारा यह खबर धना सेठ को हुई तो उसे अपार दुख हुआ कारण एक ओर तो पुत्री के हाथ कटे दूसरी ओर जमाई को शूली दे दी गई। उस समय शानके समुद्र गुणसागर नामक आचार्य बगीचे में पधारे कि उनके पास ही सरजा को शूली दी गई थी । सेठ धना अपनी पुत्री को लेकर सूरिजी की सेवा में पहुँचा और व्याख्यान सुन कर प्रश्न किया कि पूज्यवर ! मेरी पुत्री और जमाई ने पूर्व भव्य में क्या कार्य किया था कि पुत्री के हाथ कटे और जमाई को शूली चढ़ाया गया । इस पर सूरिजी ने कहा क्रोध के कटू फल हैं पूर्व जन्म में तुम्हारी लड़की चंडा नाम की सेठानी थी और जमाई आरुण नाम का पुत्र था पुत्र ने कहा कि तुझे शूली चढ़ा दूँ तब माता ने कहा था कि तेरे क्या हाथ कट गया है कि छींके पर से रोटी लेकर खा नहीं सके । इस प्रकार क्रोध के वश शब्द निकालने से दोनों के कर्म बन्ध गये वे ही कर्म आज दोनों के उदय आये हैं और इन कर्मों की अवधि भी पूरी हो गई है इस कथन को सुन कर परिषदा भय भ्रान्त हो गई और क्रोध को त्याग-क्षमा करना अच्छा समझा । राजा के मन्त्री ने निर्णय किया तो बदमास दूसरा ही निकला तब जाकर सरजा को शुली से उतार दिया। इधर लील्लू के हाथ भी अच्छे हो गये। सारांश यह है कि क्रोध महा चाण्डाल होता है क्रोध व्याप्त मनुष्य अपना ज्ञान भूल जाता है और क्रोध में अनर्थ कर नरक जाने के कर्मोपार्जन कर लेता है अतः समझदारों को क्रोध के समय क्षमा धारण करनी चाहिये । इत्यादि सूरिजी ने इस कदर से विवेचन किया कि उपस्थित लोग थर थर कॉपने लग गये । कारण, संसार वृद्धि का मुख्य कारण कषाय ही है । अत: सब, लोग सूरिजी के व्याख्यान में ही अन्तः करण से क्षमापना करके निशल्य हो गये । तत्पश्चात महावीर की जयध्वनि से व्याख्यान समाप्त हुश्रा । वरदत्त ने अपने मकान पर जाकर नौ उपवास का पारण किया पर उसका दिल संसार से विरक्त है गया कि मेरे ही निमित इतने लोगों के कर्म बन्ध का कारण हुआ। यदि मैं पहले ही दीक्षा ले लेता तो इस कार्य का मैं कारण क्यों बनता इत्यादि विचार करता हुआ वरदत्त समय पाकर सूरिजी के पास आया और बन्दन कर कहा पूज्यवर ! मेरी इच्छा संसार छोड़ कर आपके चरणों में दीक्षा लेने की है पर मेरे स्नान क अटल नियम है । इसके लिये क्या करना चाहिये ? श्राप ऐसा रास्ता बतलावें कि मेरा नियम खण्डित न है और मैं दीक्षा भी ले सकू । अहा-हा उस जमाने के लोग अपने नियम पर कैसे पाबंद थे । [वरदत्त के विचारों का पलट Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७-७७० सूरिजी ने कहा वरदत्त ! पूजा दो प्रकार की होती है १-द्रव्य पूजा, २-भाव पूजा जिसमें भावपूजा कार्य है और द्रव्यपूजा कारण है । सारंभी सपरिगृही गृहस्थों के द्रव्य पूजा से ही भावपूजा हो सकती है कारण गृहस्थों के मनोगत भाव कई स्थानों पर बिखरे हुये रहते हैं । उन सबको एकत्र करने के लिये द्रव्य पूजा है । जब द्रव्य पूजा करली है तो भी भावपूजा अवश्य की जाती है। अकेली द्रव्य पजा इतने फल की दातार नहीं है कि जितनी भाव पूजा के साथ होती है गृहस्थ द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की पूजा के अधिकारी हैं । तब साधु एक भाव पूजा के अधिकारी हैं । तुमने आचार्य रत्नप्रभसूरि का चरित्र सुना है । गृहस्थपने में उनको भी द्रव्य पूजा का अटल नियम था पर दीक्षा लेते समय गुरु श्राज्ञा से मूर्ति अपने साथ में ले ली और वे हमेशा भाव पूजा करते थे। इतना ही क्यों पर वह मूर्ति आपके पट्टपरम्परा के आचार्य के पास उपासना के लिये चली आ रही है एवं आज मेरे पास है और मैं सदैव भाव पूजा करता हूँ। वरदत्त यदि तुझे दीक्षा लेनी है तो खुशी के साथ ले इससे तेरे नियम खण्डित न होगा पर नियम में वृद्धि होगी शास्त्रों में कहा है कि: संति एगेहि भिक्खूहि, गारस्था संजमुत्तरा । गारत्थेहि य सव्वेहि, सांहवो संजमुत्तरा ।। सब जगत के असंयति एक तरफ और एक नवकारसी ब्रत करने वाला श्रावक एक तरफ तो वे मास मास खामण के पारणे करने वाले असंयति एक श्रावक की बराबरी नहीं कर सकते हैं । तब सब जगत के देशव्रती श्रावक एक तरफ और एक संयति साधु एक तरफ तो वे सब श्रावक एक साधु की बराबरी नहीं कर सकते हैं और संयति की बराबरी तो क्या परन्तु शास्त्रकार तो यहाँ तक फरमाते हैं कि:मासे सासे उजोबालो, कुसंगणं तु भंजएँ । ण सो सुक्खातधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं । ___ मास मास की तपस्या और पारणा के दिन द्राभ के अग्र भाग पर आवे उतना पदार्थ का ही पारणा करे तो भी वे व्रतधारी के सोलहवें भाग में भी नहीं आ सकते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा असंयति-मिथ्यादृष्टि पहिले गुणस्थान है देशव्रती श्रावक पाँचवें गुणस्थान है और साधु छट्ठा या इनसे ऊपर के गुस्थान का अधिकारी होता है । पहिले गुणस्थान में अन्तानुबन्दी चौक का उदय होता है तब देशवती गुणस्थान में अन्तानुबन्दी अप्रत्याख्यानी एवं दो और सर्वव्रती के तीन चौकड़ी निकल जाती हैं । केवल एक संज्वलन की चौकड़ी रहती है अतः संयति की बराबरी कोई नहीं कर सकते हैं । वरदत्त ! ज्यों २ कषाय की चौकड़ियों का क्षय व क्षयोपशम होता जाता है त्यों २ मोक्ष नजदीक आता है। अतः दीक्षा के लिये द्रव्य पूजा का विचार करने की आवश्यकता नहीं है। कारण इसमें द्रव्य पूजा की बजाय भाव पजा अधिक गुणवाली है । इतना ही क्यों पर सोने के मंदिरों से मेदिनी मंडित कर दें तो भी एक मुहूर्त के संयम के तुल्य नहीं हो सकती है : हाँ, संसार में सारंभी सपरिगृही जीवों के लिये द्रव्य पूजा भी लाभकारी है कारण, भाव आता है वह द्रव्य से ही आता है । जब भाव पजा का अधिकारी बनता है तो उसके सामने द्रव्य पूजा की आवश्यकता नहीं है इत्यादि सूरिजी ने खूब विस्तार से समझाया । वरदत्त ने कहा पूज्यवर ! आपका कहना मेरे समझ में आ गया है और मैंने दीक्षा लेने का विचार निश्चय कर लिया है । सूरिजी ने कहा 'जहां सुखम्' देवानुप्रिय । पर यदि निश्चय कर लिया है तो बिलम्ब न करना जिसको वरदत्त ने 'तथाऽस्तु' कर सूरिजी का वचन शिरोधार्य कर लिया और सूरिजी को बन्दन परमेश्वर की द्रव्य एवं भावपूजा के भेद ] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३५७-३७० वर्ष । [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर वरदत्त अपने मकान पर आया और अपने पिता एवं कुटुम्ब वालों को कह दिया कि मेरा भाव सूरिजी के पास दीक्षा लेने का है पर कुटुम्ब वाले कब अनुमति देने वाले थे । जैसे भड़भूजा की भाड़ में चने पचते हैं यदि उससे कोई एक चना उछल कर बाहर पड़ता है तो चने संकने वाना उसे उठा कर भाड़ में डाल देता है । इसी प्रकार जीव संसार में कर्मों से पच रहे हैं यदि कोई जीव संसार का त्याग करना चाहे तो कुटुम्ब वाले उसको कब जाने देते हैं पर जिसके वैराग्य का सच्चा रंग लग गया हो वह जान बूझ कर संसार रूपी कारागृह में कब रह सकता है ! आखिर वरदत्त ने अपने माता पिता स्त्री वगैरह कुटुम्ब को ऐसा उपदेश दिया कि वे वरदत्त को घर में रखने में समरथ नहीं हुये । आखिर शाह लुम्बा ने वरदत्त की दीक्षा का बड़ा भारी महोत्सव किया और वरदत्त के साथ उसके सात साथियों ने भी वरदत्त का अनुकरण किया और सूरजी महाराज ने उन आठ वीरों को शुभ मुहूर्त में दीक्षा देदी और वरदत्त का नाम मुनि पूर्णानन्दर खा । मुनि पूर्णानन्द बड़ा ही भाग्यशाली था । सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा थी। पूर्णानन्द ने बहुश्रुतीजी महाराज का विनय व्यावच्च और भक्ति कर वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर लिया और गुरुकुलवास में रहकर सर्वगुण सम्पन्न होगया। अतः आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने अपनी अन्तिमावस्था में उपकेशपुर में महामहोत्सवपूर्वक उपाध्याय पूर्णानन्द को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया । आचार्य देवगुप्तसूरि बड़े ही प्रतिभाशाली थे। आप जैसे स्वपर मत के शास्त्रों के मर्मज्ञ थे वैसे ही तप करने में बड़े भारी शूरवीर थे । आपको जिस दिन से सूरि बनाये उसी दिन से छट छट तपस्या करने की प्रतिज्ञा करली थी। अतः श्राप श्री निरन्तर छट छट की तपश्चर्या करते थे तपस्या से आत्मा निर्मल होता है, कर्मों का नाश होता है अनेक लब्धियें उत्पन्न होती हैं देव देवी सेवा करते हैं तपस्या का जनता पर बड़ा भारी प्रभाव भी पड़ता है । और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ती भी होती है। सूरिजी महाराज ने अपने विहार क्षेत्र को इतना विशाल बना लिया था कि अपने पूर्वजों की पद्धति के अनुसार जहां जहां अपने साधु साध्वियों का विहार होता था एवं उकेशवंश के श्रावक रहते थे वहाँ वहाँ घूम घूम कर उन लोगों को धर्मोपदेश श्रवण का लाभ प्रदान करते थे। पूर्वाचार्यों की स्थापित की हुई द्धि की मशीन को यों तो जितने आचार्य हुये उन्होंने तीव्र एवं मंदगति से चलाई ही थी पर आपने उस मशीन के जरिये हजारों मांस भक्षियों को दुर्व्यसन से छुड़ाकर जैन संघ में वृद्धि की थी। सूरिजी महाराज के शिष्यों में कई तपसी कई विद्यावली साधु भी थे ! एक देवप्रभ पंडित आकाशगामिनी विद्या और योनि प्रभृत शास्त्र का ज्ञाता था वह हमेशा शत्रुजय गिरनार की यात्रा करके ही अन्न जल लेता था। एक समय शत्रुजय की यात्रा कर वापिस लौट रहा था रास्ते में एक संघ शत्रुजय जा रहा था । मार्ग में मलेच्छों की सेना ने संघ पर आक्रमण कर दिया जिससे संघ महासंकट में आ पड़ा। सब लोग अधिष्ठायिक देव को याद कर रहे थे । पण्डित देवप्रभ ने संघ को दुखी देख योनिप्रभृत शास्त्र की विद्या से अनेक हथियारबद्ध सुभट बनाकर उन मलेच्छों का सामनाकिया । पर विद्यावल के सामने वे मलेच्छ विचारे कहां तक ठहर सकते थे ? बस, मच्छ बुरी तरह पराजित होकर भाग छूटे और संघ उस संकट से वचकर शत्रुजयतीर्थ पर पहुँच गया । उस संघ ने सोचा कि अधिष्ठायक देव ने हमारी सहायता की है। पर वह अधिष्ठायक सूरिजी का शिष्यमुनि देवप्रभ ही था। म्लेच्छों ने पुनः अपना संगठन कर शत्रुञ्जय पर धावा बोल दिया। उस समय भी देवप्रभ शत्रुजय . [ सूरिजी के शासन में विद्यावली मुनि For Private &Personal use only . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७-७७० की यात्रा करने को आया था । म्लेच्छों को देख कर उसको गुस्सा आया तो उसने अपने विद्याबल से एक शेर का रूप बनाकर मलेच्छों की ओर छोड़ दिया। कई मलेच्छों को मारा कई को घायल किया और शेष सब भा : छूटे जिससे संघ एवं तीर्थ की रक्षा हुई । मुनिदेवप्रभ ने अपनी विद्याशक्ति से संघ के कई कार्य किये। दूसरा सूरिजी का एक शिष्य सोमलस था जिसको देवी सरस्वती ने वचन सिद्धि का वरदान दिया था। एक दिन उनके सामने से एक मिसरी ( शक्कर ) की बालद जारही थी। आपने पूँछा कि बालद में क्या है उसने कर के भय से कह दिया कि मेरी बालद में नमक है। मुनि ने कह दिया अच्छा भाई नमक ही होगा। आगे चलकर वालदियों ने देखा तो सब बालद में नमक होगया । तब वे दौड़कर मुनि के पास आये और प्रार्थना की कि प्रभो! हम गरीब मारे जायंगे हम लोगों ने तो केवल हासल के बचाव के लिये ही शकर को नमक बतलाया था परन्तु श्राप सिद्ध पुरुष के वचन कभी अन्यथा नहीं होते हैं हमारी बालद का सब शकर नमक होगया। कृपा कर उसे पुनः शकर बनादें। मुनिजी ने दया लाकर कह दिया अच्छा भाई मिसरी होगी। अतः सब बालद का नमक मिसरी होगया। इसी प्रकार एक साहूकार के कंकरों के रत्न होगये । पट्टावलीकारों ने ऐसे कई उदाहरण लिखा है कि जिससे मुनिजी ने हजारों नहीं पर लाखों जैनेतरों को जैनधर्म की दीक्षा देकर जैनों की संख्या बढ़ाई। सूरिजी के तीसरे शिष्य गुणनिधान को वचन लब्धि प्राप्त थी कि आप का व्याख्यान सुन कर गजा महाराजा मंत्रमुग्ध बन जाते थे। केवल मनुष्यही क्यों पर देवताभी आपके व्याख्यान का सुधापान कियाकरते थे आप जहाँ जाते वहाँ राज सभा में ही व्याख्यान दिया करते थे । जिससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना हुई। सूरिजी के चतुर्थ मुनि पुरंधरहंस जो आगमों के पारगामी थे और साधुओं को श्रागमों की वाचना दिया करते थे। स्वगच्छ के अलावा अन्य गच्छके कई साधु एवं आचार्य वगैरह आगमों की वाचनार्थ आया करते थे। और परंधर मनि बडी उदारता से सबको बाचना दिया करते थे आपने शासन में ज्ञान का खुब ही प्रचार किया था। इस प्रकार जैसे समुद्र में अनेक प्रकार के रत्न होते हैं। उसी प्रकार सूरिजी के गन्छ रूपी समुद्र में अनेक विद्वान मुनि रूपी रत्न थे । जिन्हो ने विगच्छ एवं शासन की खूब उन्नति की। आचार्य श्री देवगुप्तसूरि मरुधर, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्ध पांचाल, शूर मेन 'मत्स' श्रावन्ती आदि में भ्रमण करते हुऐ मेदपाट में पधारे । आपका चतुर्मास चित्रकूट में हुआ। यह केवल चित्रकोट के लिये ही नहीं पर अखिल मेदपाट के लिये सुवर्ण समय था कि पूज्याराध्य धर्मप्राण धर्म प्रचारक प्राचार्य श्री का चतुर्मास मेदपाट की राजधानी चित्रकोट में हुआ ? आपश्री ने अपने मुनियों को आस पास के नगरों में चतुर्मास के लिये भेज दिये थे ? जिसने चारों और धर्मोन्नति एवं धर्म की खुब जागृति हो रही थी ? चित्रकोट तो एक यात्रा का धामही बन गया था ? सैकड़ो हजारों भावुक सूरिजी के दर्शनार्थ आरहे थे और वे लोग सूरिजी की अमृतमय देशना सुन अपना होभाग्य समझते थे। एक समय सूरिजी ने आचर्यश्री रत्नप्रभसूरि एवं यक्षदेवसूरिका जीवन के विषय में व्याख्यान करते हुऐ फरमाया कि महानुभावों उन महापुरुषों ने किस २ प्रकार कठिनाइयों को सहन कर उन दुर्व्यसन सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ की स्थापना की और उनके सन्तान परम्परा के आचार्यों ने उस संस्था का किस प्रकार रक्षण पोषण और वृद्धि की इसमें आचार्यों का तो मुख्य उद्योग था ही पर साथ में बड़े २ राजा महाराजा एवं संठ साहुकारों सूरिजी का चतुर्मास चित्रकोट में ] ७८३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३५७ – ३७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास का भी सहयोग था उन्होंने समय २ पर अपने नगर में सभाओं करके धर्म प्रचार के लिये जनता को खुब उत्तेजित की थी सभा एक धर्म प्रचार एवं संगठन का मुख्य साधन है इस से अनेक साधु साध्वियों, श्रावक और श्राविकाएं का आपस में मिलना समागम होना बिचार सलाह करना एक दूसरे को मदद करना जिससे धर्म प्रचारकों का उत्साह में वृद्धि होती है ? और वे अपना पैर धर्म प्रचार में आगे बढ़ा सकते थे उपकेशपुर, चन्द्रावती, कोरंटपुर, पाल्हिक आदि स्थानों में कई बार संघ सभा हुई थी और उसमें अच्छी सफलता भी मिली इत्यादि सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा उपदेश दिया जिसको सुनकर उपस्थित लोगों की भावना हुई कि अपने वहाँ भी एक ऐसी सभा की जाय कि चतुर्विध श्रीसंघ को श्रामन्त्रण कर बुलाया जाय जिससे सूरिजी महाराज के कथानुसार धर्म प्रचार का कार्य सुविधा से हो सके इत्यादि उस समय तो यह बिचार २ ही रहा व्याख्यान समाप्त हो गया और सभा विसर्जन हो गई । परन्तु मंत्री ठाकुरसीजी के हृदय में सूरिजी व्याख्यान घर कर लिया उनकों चैन कहाँ था भोजन करने के बाद पन्द्रह बीस मातम्बरों को लेकर मंत्री सूरिजी के पास लाया और सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्याराध्य । यहाँ का श्रीसंघ यहाँ पर एक संघ सभ करना चहाता है ! अतः यह कार्य किस पद्धति से किया जाय जिसका रास्ता कृपा कर बतावें ? सूरिजी ने फरमाया मंत्रीश्वर यह कार्य साधारण नहीं पर शासन का बिशेष कार्य है इससे धर्मप्रचार की महान् रहस्य रहा हुआ है ? पूर्व जमाने में धर्म प्रचार की इतनी सफलता मिली वह इस प्रकार के कार्य से ही मिली थी पर आप पहले इस बात को सोच लीजिये कि इस कार्य में जैसे पुष्कल द्रव्यकी आवश्यकता है वैसे श्राग न्तुओं के स्वागत के लिये कार्य कर्ताओं की भी आवश्यकता है। साथ में यह भी है कि बिना कष्ट लाभ भी नहीं मिलता है जितना अधिक कष्ट है उतना अधिक लाभ है । मंत्रीश्वर ने कहा पूज्यवर ! आप लोगों की कृपा से इन दोनों कामों में यहां के संघ को किसी प्रकार का विचार करने की आवश्यकता ही नहीं है। कारण यहां का संगठन अच्छा है कार्य करने में सब लोग उत्साही है और द्रव्य के लिये तो यदि संघ आज्ञा दीरावे तो एक आदमी सब जुम्मा ले सकता है। इतना ही क्या पर यदि श्री संघ की कृपा मेरे उपर हो जाय तो मैं मेरा अहोभाग्य समझ कर इस कार्य मे जितना द्रव्य खर्च हो उसको मैं एकला उठा लूंगा। पास में बैठे हुए सज्जनों में से शाह रघुवीर ने कह पूज्यवर ! मंत्रीश्वर बड़े ही भाग्यशाली है संघ के प्रत्येक कार्य में आप अप्रेश्वर होकर भाग लिया करते है पर इस पुनीत कार्य का लाभ तो यथाशक्ति सकल संघ को ही मिलना चाहिये । सूरिजी ने उन सब की बातें सुन कर बड़ी प्रसन्नता पूर्वक कहा कि मुझे उम्मेद नहीं थी कि यहां संघ में इतना उत्साह है खैर आपके कार्य में अवश्य सफलता मिलेगी । सूरिजी का आशीर्वाद मिलगया पि मी किस बात की थी संघ श्रमेश्वर सूरीजी को वन्दन कर वहां से चले गये और किसी स्थान पर एक हो इस कार्य के लिये एक ऐसी स्कीम बनाली कि कार्य ठीक व्यवस्थित रूप से हो सके क्यों न हो वे लो राजतंत्र चलाने में कुशल और व्यापार करने में दीर्घ दृष्टि बाज़े थे उनके लिये यह कार्य कौन सा कठिन था मंत्रीश्वर वगैरह सूरिजी के पास आकर सभा के लिये दिन निश्चय करने की प्रार्थना की उस सूरिजी ने फरमाया कि ऐसा समय रखना चाहिये कि जिसमें नजदीक और दूर से सब मुनि श्र कारण यह सभा ही खास मुनियों के लिये ही की जाती है और धर्म प्रचार के लिये मुनियों का उत्स बढ़ाना है । मेरे ख्याल से पोष वदी १० भगवान पार्श्वनाथ का जन्म कल्याणक है । अतः वही दिन सभा I ७८४ [चित्रकोट में भ्रमण सभा का आयोज Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५३-७७० ......winrani रखा जाय तो अच्छा है यदि इससे आगे बढ़ना हो तो माघ शुक्ल पूर्णिमा का रखा जाये कि सिन्ध पंजाब और सौराष्ट एवं महाराष्ट प्रान्त के साधु भी आ सकें। इस पर संघ की इच्छा हुई की माघशुक्ल पूर्णिमा का समय रखा जाये तो अधिक लाभ मिल सकता है ! अतः उन्होंने अर्ज की कि पूज्यवर ! सभा का समय माघशुक्लपर्णिमा का ही रखा जाय तो अच्छी सुविधा रहेगी ? सूरिजी ने कहा ठीक है जैसे आपको सुविधा हो वैसा ही कीजिये । श्रीसङ्घ ने भगवान महावीर की जय ध्वनी से सूरिजी के बचन को शिरोधार्य कर अपने कार्य में लग गये । आचार्य श्री के बिराजने से चित्रकोट एवं आस पास के प्रदेश में धर्म की बहुत प्रभावना हुई । बाद चर्तुमास के सूरिजी विहार कर मेदपाट भूमि में खूब ही भ्रमन किया और जहां श्राप पधारे वहां धर्म के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया। इधर चित्रकोट के श्रीसंघ अप्रश्वेर ने अपने कार्य को खुब जोरों से आगे बढ़ा रहे थे। नजदीक और दूर २ आमन्त्रण पत्रिकाएँ भिजवा रहे थे और मुनियों को आमन्त्रया के लिये श्रावक एवं आदमियों को भेज रहे थे । इधर भागन्तुओं की स्वागत के लिए खूब ही तैयारियां कर रहे थे जिनके पास बिपुल सम्पति और राज कारभार हाथ में हो वहां कार्य करने में कौनसी असुविधा रह जाती हैं दूसरे कार्य करने वाले बड़े ही उत्साही थे यह पहिले पहल का ही काम था सब के दिल में उमंग थी। __ठीक समय पर सूरिजी महाराज इधर उधर घूमकर वापिस चित्रकोट पधार गये इधर मुनियों के झुण्ड के झुण्ड चित्रकोट की ओर आ रहे थे इसमें केवल उपकेशगच्छ के मुनि ही नहीं पर कोरंट गच्छ कोटी गच्छ और उनकी शाखा प्रशास्त्रा के आस पास में बिहार करने वाले सब साधु साध्वियों बड़े ही उत्साह के साथ आ रहे थे ऐसा कौन होगा कि इस प्रकार जैनधर्म के महान प्रभाविक कार्य से बंचित रह सकें चित्रकोट के श्री संघ ने बिना किसी भेद भाव के पूज्य मुनिवरों का खूब ही स्वागत सत्कार किया जैसे श्रमण संघ आया वैसे श्राह वर्ग भी खुब गहरी तादाद में आये थे उसमें कई नगरों के नरेश भी शामिल थे और उन नरेशों को सहायता से ही धर्म प्रचार बढ़ा और बढ़ता है चित्रकोट का राजा बैरेसिंह यों ही सूरिजी का भक्त था कई बार सूरिजी का उपदेश सुना था जब चित्रकोट में इस प्रकार महामंगलिक कार्य हुआ तो राजा कैसे बंचित रह सके ! बाहर से आये हुये नरेशों की राजा ने अच्छी स्वागत की और भी भाने वालों के लिये राजा की ओर से सब प्रकार की सुविधा रही थी। ठीक समय -अर्थात माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन ागर्य देवगुप्तसूरि के अध्यक्षत्व में विराट सभा हुई उस सभा में कई पांच हजार साधु साध्वियों और एक लक्ष भावुक उपस्थित थे इतनी बड़ी संख्या होने पर भी बातावरण बहुत शान्त था सूरिजी की बुलंद आवाज सबको ठीक सुनाई देती थी ! सूरिजी ने अपने व्याख्यान में जैनधर्म का महत्व और उसकी उपादयता के विषय में फरमाया कि जैन धर्म के स्याद्वार अर्थात् अनेकान्त बाद में सब धर्मों का समावेश हो सकता है अहिंसा सत्य अस्तय ब्रह्मचर्य निस्पृही और परोपकार में किसी का भी मतभेद नहीं हैं अर्थात् यह विश्वधर्म है । इसकी आराधना करने से जीवों का कल्याण होता है ! जन्ममरण के दुखों का अन्त कर सकते हैं पुर्व जमाने में तीर्थकर देवों ने इस धर्म का जोरों से प्रचार किया था परन्तु कलिकाल के प्रभाव से कई प्रान्तों में मुनियों के उपदेश के प्रभाव से पाखंडी लोगों ने धर्म के नाम पर इतना अधर्म बढ़ा दिया कि मांस मदिरा और व्यभिचार में ही हित सुख और मोक्ष मान लिया ! फिर तो दुनियां की वैसी कौनसी कामना शेष रह जाती कि जनता धर्म के नाम पर पुरी नहीं कर सके परन्तु कल्याण हो आचार्य स्वयंप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि श्रादि का कि उन्होंने हजारो सकटों चित्रकोट में श्रमण सभा ] ७८५ Jain Education Sational , Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३५७-३७० वर्ष ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को सहन कर चार चार मास तक भूखे प्यासे रह कर उन अधर्म की जड़ उखेड़ कर धर्म के बीज बो दीये और पिछले आचार्य ने उनका सीचन कर उसे हरा भरा एवं फला-फूला उपवन की भाति सम्रद्धशाली बना दिया है आर्य सुहस्ती सूरिने सम्राट सम्प्रति जैसे को जैन धर्म का प्रचारक बना कर आनार्य देशों तक जैन धर्म का प्रचार करवा दिया ! यही कारण है कि उन पूर्वाचार्य के प्रभाव से आज हम सुख पूर्वक विहार कर रहे हैं आज जो उपकेशवशं आदि महाजनसंघ मेरे सामने विद्यमान है यह उन आचार्यों के उपकार का ही सुमधुर फल है पर हमको केवल उन आचार्यों के बनाये हुए संघ पर ही हमारी जीवन यात्रा समाप्त नहीं कर देनी है ! पर हम भी उन पूज्य पुरुषों का थोड़ा बहुत अनुकरण करे ! प्यारे श्रमण गण आज आपके लिये सुवर्ण समय है पूर्व जमाने की अपेक्षा आज आपको सब प्रकार की सुविधा है ! यदि आप कमर कस कर तैयार हो जावें तो चारों और धर्म का प्रचार कर सकते हो और यहां के संघ ने यह सभा इसी उपदेश को लक्ष में रख कर की है ! मुझे श्राशा ही नहीं पर दृढ़ विश्वास है आप मेरे कथन को हृदय में स्थान देकर धर्म प्रचार के लिये कटिबद्ध तैयार हो जायेगें! शासन का श्राधार मुख्य आप पर ही है ! हां श्रावक वर्ग अपके कार्य में सहायक जरूर बन सकते है ! और इस प्रकार दोनों के प्रयत्न से धर्म का उत्कर्ष बढ़ सकता है ! इत्यादि सूरिजी ने उपदेश दिया और श्रवण करने वाले चतुर्विध श्री संघ में धर्म प्रचार की बिजली एक दम चमक उठी कई साधु तो भरी सभा में उठ कर अर्ज की कि पूज्यवर ! आपने हमारा कर्तव्य बतला कर हमारे जीवन में एक नयी शक्ति पैदा कर दी है जिससे हम लोग धर्म प्रचार के लिये हमारा जीवन अपर्ण करने में कटीबिद्ध एवं तैयार बैठे है । आप जिस प्रदेश के लिये श्राज्ञा फरमावे उसी प्रदेश में हम बिहार करने को तैयार है । फिर वहाँ सुविधा हो या कठनाइयों इसकी तनिक भी परवाह नहीं। इस प्रकार श्राद्धवर्ग ने भी सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! पूर्व जमाने में भी मुनियों ने धर्म प्रचार किया और आज भी मुनिवर्ग आप का हुक्म शिरोधार्य करने को तैयार है इसमें जो हमारे से बने वह हमें भी फरमाईये कि हम को भी लाभ मिले। सरिजी महाराज ने फरमाया कि यह तो मुझे पहले से ही विश्वास था कि जिस त्यागवैराग्य से मुनिवरों ने स्वपर कल्याण कि भावना से दीक्षा ली है तो शासन सेवा करने में कब पिछे पैर रखेगें ! फिर भी आपके वीरता पूर्वक बचन सुन मुझे विशेष हर्ष होता है ! इसी प्रकार श्राद्ध वर्ग के लिए भी कहा। प्रायः देश से पशुबली रुपी यज्ञप्रथ के पैर तो उखड़ गये है ! परन्तु बोद्धों का प्रचार कई प्रान्त में बढ़ता जा रहा है ! इस लिये आप लोगों को तत् विषय के साहित्य का अध्ययन कर प्रत्येक प्रान्त में बिहार कर स्वधर्म की रक्षा और प्रचार करे यह जुम्मेवारी आप लोगों पर छोड़ दी जाती है ! इत्यादि उपदेश के अन्त में सभा विसर्जन हुई इस सभा से चित्रकोट के लोगों का दिल को बड़ा ही संतोष हुश्रा कारण जिस उपदेश को लक्ष में रख सभा का अयोजन किया गया था उसमें आशातीत सफलता मिल गई इससे बढ़ कर खुशी ही क्या हो सकती है ! श्राचार्य देवगुप्तसूरि ने आये हुए श्रमण संघ के अन्दर कई योग्य मुनियों को पद प्रतिक्षित बना कर . उनके योग्य गुणों की कदर की एवं उनके उत्साह को बढाया जिसमें ७.-योगीन्द्र मूर्ति श्रादि सात साधुओं को पंडित पद १२-महन्द्र विमलादि बारह , , बांचनाचार्य पद [ चित्रकोट में मुनियों को पद प्रधान : Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तमरि का जोवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७-७७० १५-निधान कलसादि पन्द्रह , , गणि पद ५-शान्ति शेखरादि पांच , उपाध्याय" इत्यादि पदवियों प्रधान की और सूरिजी इन पदवियों की जुम्मेवारी के विषय उनका कर्त्तव्य भी विस्तार से समझाया तथा त्याग का महत्व और दीक्षा से आत्म कल्याण पर खुब ही प्रभाव डाला फलस्वरूप में उसी सभा में कई ८ नरनारी सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने को तैयार होगये। श्री संघने पुन महोत्सव किया और मोक्षाभिलाषियों को सूरिजी ने दीक्षा देकर उनका उद्धार किया और कइ दानवीरों ने संघ को पहरावणी भी दी तत्पश्चात सब लोग भगवान महावीर और प्राचार्य रत्नप्रभसूरि की जय ध्वनी के साथ अपने २ नगरों की और प्रस्थान किया। श्राचार्य देवगुप्तसूरि का चतुर्मास चित्रकोट में होने से मेदपाट में आपका बहुत जबर्दस्त प्रभाव पड़ा बहुत प्राम नगरों के संघ ने अपने २ नगर की ओर पधारने की विनती करी ! सूरिजी ने फरमाया किवर्तमान योग । आखिर सूरिजी ने वहाँ से विहार किया और छोटे बड़े प्राम में विहार करते हुए आघाट नगर की ओर पधार रहे थे जब वहां के श्रीसंघ को समाचार मिला तो उनके हर्ष का पारावार नहीं रहा बडे ही समारोह के साथ सूरिजी का स्वागत किया सूरिजी ने मन्दिर के दर्शन कर मंगलाचरण के पश्चात सारगर्भित देशना दी ! सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर होता था वहां के श्रेष्टिगोत्री मंत्री नाहरु ने भगवान पार्शनाथ का एक मन्दिर बनाया था जिसकी प्रतिष्ठा सूरिजी के करकमलों से करवाई इस प्रतिष्ठा का प्रभाव मेदपाट की जनता पर बहुत अच्छा हुश्रा था पांच पुरुष और तीन बहिनों ने सूरिजी के पास दीक्षा भी ली थी। जिससे जैन धर्म की काफी प्रभावना हुई। जब सूरिजी मेदपाट को पावन बनाकर मरुधर में पधार रहे थे तो मरुधर वासिओं के उत्साह का पार नहीं रहा जिस प्राम में सूरिजी पधारते वहां एक यात्रा का धाम ही बनजाता था सैकड़ों हजारों नरनारी दर्शनार्थ आया करते थे इस प्रकार क्रमश आप शाकम्भरी पदमावती हंसावली मुग्धपुर होते हुऐ नागपुर पधारे आपका प्रभावोत्यादक व्याख्यान हमेशा होता था कई लोगों ने त्याग वैराग्य एवं तपश्चय कर लाभ vठाया वहां से सूरिजी खेमकुशल वटपार हर्षपूर माडव्यपुर पधारे । वहाँ पर डिड्गोत्रीय शाह ठाकुरशी के महामहोत्सव पूर्वक मुनि आशोकचन्द्र को सूरिपद से विभूषित कर उसका नाम सिद्धसूरि रखा तत्पश्चात् सूरिजी ने सात दिन के अनसन एवं समाधि पूर्वक स्वर्गवास किया । आचार्य देवगुप्तसूरि महाप्रभाविक और जैनधर्म के प्रचारक हुए आपने अपने तेरह वर्ष के शासन काल में खूब देशाटन कर जैनधर्म की उन्नति की अनेक मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित किये कई मन्दिर मत्तियों की प्रतिष्टाए करवाई इत्यादि अनेक ऐसे ऐसे चोखे और अनोखे काम किये कि आपश्री की धवलकीर्ति भाज भी विश्व में अमर है ऐसे प्रभाविक आचार्यों से ही जैन शासन पृथ्वी पर गर्जना कर रहा है उन महापुरुषों का केवल जैनों पर ही नहीं पर विश्व पर उपकार हुआ है जिसको क्षणभर भी भुला नहीं जा सकता है। प्राचार्यश्री के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ १-कोरेटपुर के बलाह गौ० शाह भूराने सूरि० दीक्षा ली २-वडनगर के अदित्य गौ० . , नाहराने , परिजी के कर कमलों से दीक्षाएं ] ७८७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३५७ - ३७० वर्ष ] ३--स्तम्भनपुर ४ - देवपुर ५- भरोंच ६ - वाइली ७ - करणावती ८- सत्यपुर ९- नन्दपुर १०- ब्रह्मणपुर के ११ - शिवपुरी के १२ - वर्द्धमानपुर के के १३ - प्रतिष्टनपुर १४ -- उजैन १५ -- महेश्वरी १६--खण्डपुर १७ -- करकोली १८--इसपुर १९-२ -- हँसावली -- कुञ्चपुर २० २१--मुग्धपुर २२ -- डिडूनगर २३ -- जंगालु २४ - पाल्हिका २५--करजोड़ा २६-- मादडी २७-- नारदपुरी के के के ७८८ के के बापना गौ० श्रेष्टि गो० એંદિ गौ० भूरि गौ० नाग० गौ० भाद्र गौ० कनोजिया गौ० चिंचट गौ० कुमट गो० fsfe गौ० ब्राह्मण० प्राग्वट० प्राग्वट० तप्त भट्ट० बाप्पनाग ० आदित्य ० गौ० सुचंति गौ० चोरलिया ० चरड़गी ० मल्लगौ० कुलछट ० arrerito प्राग्वटव० श्रीमालवंशी १ - उपकेशपुर से भाद्र गौत्रीय शाह २ - भिन्नमाल का प्राग्वट ३ - भावड़ी से बाप्पनाग० ४ - शंखपुर से श्रेष्ट गौ० "" 39 12 शाह 27 99 "" 93 35 "" " "" "" 39 "" 99 99 "3 [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरि दीक्षा ली 33 25 "" "" "" "" "" 39 33 दानाने चन्द्राने डुगर देपालने देदाने चूड़ाने चतराने खेमाने डावरने कुम्भाने कल्हण यशोदेव ने भालाने नागदेव धन्नाने धर्मसीने रूपसीने गेंदाने जैताने जैमलने रूपनाथने जाने नन्दाने नों ने देशलने "3 "" 39 "" 35 "" 35 "" 33 37 33 39 "" 99 39 " , "" 29 19 39 "" "3 22 "" 33 "" 35 "" "" 33 "" 39 " 99 39 "" "" 39 "" श्री श्रीमालगौ० "" 53 इनके अलावा अन्य प्रान्तों में तथा बहुतसी बहिनों ने भी संसार को असार समझ कर आचार्यश्री या आपके श्राज्ञा वृत्ति मुनि एवं साध्वियों के पास दीक्षा महन कर स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण किया सूरिजी महाराज के शासन में तीर्थों के संघादि सद कार्य जगा ने श्री शत्रु जय का संघ निकाला पद्मा ने हाप्पा ने काना ने 39 33 "" " " 22 "" 19 " 99 "1 99 [ सूरिजी के शासन में तीर्थों के संघ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५७-७७० ॐकार ने जाला ने Arrn Arr TE माला ने ५-हर्षपुर से कुम्मट गौ० , काल्हण ने ६-श्राघाट नगर से श्रीमाल चतरा ने ७-मथुरा से बलाह गौ० नरदेव ने ८-शालीपुर से श्रेष्टि पृथुसेन ने ९-डामरेल से भूरि गौ. १. भुजपुर से प्राग्वट वंशी , ११-चन्द्रावती से श्रीमाल वंशी , मादू ने १२-सोपार पहन से कुलभद्रगौ० , फागु ने १३-ढाणापुर से करणाट गौ० १४--चंदेरी से श्रेष्टि ,, मंत्री हाला ने १५-सत्यपुर से प्राग्वट , मंत्री नारा ने १६-खटॉप का अदित्यनाग सुलतान युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई १७-नागपुर का अदित्यनाग वीर भारमल युद्ध में १८-पद्मावती का चरड़ गौ० वीर हनुमान , " " १९-रानीपुर का तप्तभट्ट गो० शाह लुम्बो २०-डिडु नगर का मल्ल गौ० शाह देदो २१--कन्याकुब्ज का श्रेष्टि० वीर शादूल २२--खटकुंप नगर में सुचंति गौ० नोंधण की स्त्री ने एक कुँवा खुदाया २३-हँसावली का श्रेष्टि धनदेव की विधवा पुत्री ने एक तलाव खुदाया २४--विराट नगर के चोरलिया नाथा ने दुकाल में शत्रुकार दिया इत्यादि वंशावलियों में उपकेश वंश के अनेक दान वीर उदार नर रत्नों ने धर्म सामाज एवं जन कल्याणार्थ चोखे और अनोखे कार्य कर अनंत पुन्योपार्जन किये जिन्हों की धवल कीर्ति आज भी अमर है। यह नोंध वंशावलियों से नमूना मात्र ली गई है परन्तु इस उपकेशवंश में जैले उदार दानेश्वरी हुए हैं वैसे अन्य वंशों में भी बहुत से नर रत्न हुए हैं। उस समय के उपकेश वंशी मंत्री महामंत्री सेनापति आदि पदकों सुशोभित कर अपनी वीरता का परिचय दिया करते थे यदि वे कहीं युद्ध में काम आजाते तो उनकी पत्नियों अपने सतीत्व की रक्षा के लिये अपने पतिदेव के पिछे प्राणापर्ण कर अपना नाम वीरांगणने में विख्यात कर देती थी। जिनके नमूने मात्र यहां बतलाया है। सूरीश्वरजी महाराज के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ १-मावोजी के चिंचट गौत्र शाह जुजार ने पार्श्वनाथ प्रतिमाए २-जैनपुर के बाल्पनाग० , कासा ने महावीर , ३-नारदपुरी के आदित्यनाग , कर्मा ने , ४--मादड़ी के करणाट , हाना ने , सरिजी के शासन में प्रतिष्टाएँ ] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३५७-३७० वर्ष । [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ५-रानपुर के बीरहट गौत्र , माना ने पार्श्वनाथ ६-शिवपुरी के कुलभद्र गौत्र , धन्ना ने शान्तिनाथ ७-ठाणापर के श्रेष्टि गौ० , धाकड़ ने महावीर ८-कुंतिनगरी के चरड़ गौ० , भाखर ने , ९-चक्रपुर के लुंग गौ० , नाढ़ा ने पार्श्व० १०-चंद्रपर के मल्ल गौ० , __दाहड़ ने ११-चरपटपुर बीरम ने सुपार्श्व १२-धंगाणी के लघुश्रेष्टि गौ० ,, उतावलिया ने शान्ति १३--उच्चकोट के कनोजिया गौ०,, पोपा ने आदीश्वर ९ १४--कीराटकुंप के डिडु गौ० , गोमा ने चंद्र प्रभु १५---रामपुर के कुंमट गौ० , जैता ने विमल १६--रत्नपुर के चोरलिया , फुवा ने धर्म १७--रेणुकोट के प्राग्वट वंशी , भिखा ने महावीर १८--वीरपुर के " " वीराव ने , १९-- भद्रावती बड़वीर ने २०-दान्तीपुर के , चांचग ने पार्ष २१-करमाव के श्रीश्रीमाल गौर, रुपा ने २२-सालणी __ के श्रीमाल वंशी , बनारस ने २३-जाजुपुर के बत तारा ने २४-मालपुरा के बोहरा गौ० ,, थेरू ने ऋषभ २५-राहोल के वाप्य नाग० , दाहड़ ने नेमिनाथ २६-गुड़नगर के श्रेष्टि गौ० , जेसल ने पार्श्व. २७-उकारपुर के , , नागड़ ने महावीर २८-माड़वगढ़ के लघु श्रेष्टि गौ०, श्रादू ने , इनके अलावा भी कई प्रान्तों में नगर देरासर एवं घर देरासर की बहुत प्रतिष्टाए हुई थी। यहां पर केवल एकेक मन्दिर का नाम लिखा है पर पट्टावलियों वंशावलियों में एकेक मन्दिर के लिये अनेक मूर्तियों की अञ्जनसिलाका करवाइ का उल्लेख भी मिला है ग्रन्थ बढ़जाने के भय से यहां संक्षित से ही लिखा है। श्री श्रीमाल गौत्र के भूषण देवगुप्त सूरि था नाम । सुविहित आप थे पूर्वधर धर्म प्रचार करना था काम ॥ जैनेत्तरों को जैन बनाकर, नाम कमाल कमाया था । मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई, ज्ञानकों खूब बढ़ाया था ॥ इति श्री पार्श्वनाथ भगवान् के २९ पट्टधर आचार्य देवगुप्त सूरि प्रभाविक आचार्य हुए [ आचार्य देवगुप्तपरि का जीवन Arra ७९० Jain Educe international Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] Pooooooo 100000( D€ €00 ग्रा ३० - प्राचार्य सिद्धसूरि ( पांचवां ) गोत्रे मोरख नाम के समभवत् सिद्धेति सूरिर्महान् । भ्रान्त्वा देश मनेकशो जिनमतं लोके तथा ख्यापितम् ॥ येनासन् बहुलब्धयोऽथ च सदा दासाः स्वयं सिद्धयः । दीक्षित्वा स जनान् बहून् विहितवान् मोक्षाध्वयात्रा परान् ॥ चार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज एक सिद्ध पुरुष ही थे। आपने अपने शासन समय में जैनधर्म की खूब ही उन्नति की। कई जैनेवरों को जैनधर्म की दीक्षा दी कई मुमुक्षुत्रों को संसार से मुक्त किये और कई वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर जैनधर्म का भंडा सर्वत्र फहराया था । आपके जीवन के विषय पट्टावलीकार लिखते हैं कि मावलीपुर नगर में मोग्ख गोत्रिय पुष्करणा शाखा में जगाशाह नाम का धनकुबेर सेठ था। आरके गृहदेवी का नाम जैती था । माता जेती ने एक समय श्रर्द्ध निद्रा के अन्दर देखा कि उसका पतिदेव बड़ी ठकुराई के साथ बैठा हुआ है और किसी आकर उसको रत्न भेंट किया है । सुबह होते ही अपना शुभ स्वप्न शाह जगा को कह सुनाया । शाह जगा धर्मष्ठ था। मुनियों की सेवा उपासना कर व्याख्यान सुनता था । वह स्वप्नशास्त्र का भी जानकार था अपनी प्रिय पत्नी का स्वप्न सुनकर विचार करके कहा कि हे प्रिय-तू बड़ी भाग्यशालिनी है । इस स्वप्न से पाया जाता है कि तेरी कुक्ष में कोई उत्तम जीव गर्भपने अवतीर्ण हुआ है इत्यादि जिसको सुन जेती ने बहुत हर्ष मनाया और जिन मन्दिरों में अष्टान्हिक महोत्सव पूजा प्रभावना और स्वामिवात्सल्यादि शुभकार्य किया । पहिले जमाने में हर्ष एवं आफत में धर्मक्षेत्रों को विशेष याद किया करते थे । Docloco@ acc boo [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० जब माता के गर्भ तीन मास पूरे हुये और चतुर्थमास चल रहा था तो एक दिन उसको दोहला उत्पन्न हुआ कि मैं संघ के साथ तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय की यात्रा कर प्रभु आदीश्वर की पूजा करू इत्यादि । जेती ने इस दौहले को अपने पतिदेव को कह सुनाया । फिर तो देरी ही क्या थी, शाह जगा स्वीकार कर लिया । उस समय उपकेशगच्छ के पण्डित विवेक निधान का शुभागमन जावळीपुर में हुआ । शाह जगा ने पण्डित जी से प्रार्थना की कि श्राप संघ में पधार कर श्रीसंघ को यात्रा का लाभ दीरावें पण्डित जी ने लाभालाभ का कारण समझ कर जगा का कहना स्वीकार कर लिया सिर तो देरी ही क्या थी शाह जगा ने संघ को आमन्त्रण करके बुलाया । पंडितजी ने जगा को संघपति पद से विभूषित किया और पण्डित विवेक निधान के नायकत्व में शुभ मुहूर्त्त एवं अच्छे शकुनों से संघ ने प्रस्थान कर दिया । माता जेती सुखासन पर बैठी हुई ज्यों २ संघ को देखती थी त्यों २ उसको बड़ा ही श्रानन्द श्राता था । क्रमश: रास्ता के मन्दिरों के दर्शन करता हुआ संघ शत्रु जय पहुँचा और भगवान आदीश्वर की भक्ती सहित पूजा कर शाह जगा और श्रापकी पत्नी जैती ने अपना अहोभाग्य मनाया और माता ने अपना दोहला पूर्ण किया । शाह जगाने तीर्थ पर पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य एवं ध्वजारोहण करने में खुल्ले दिल से पुष्कल द्रव्य व्यय जावलीपुर मंशाह जगा ] ७९१ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर पुन्योपार्जन किया पट्टावलीकार लिखते हैं कि इस संघ में ७०० साधु साध्वियां और बीस हजार भावुक थे आठ दिनों की स्थिरता के बाद संघ वहाँ से लौट कर पुनः जाबलीपुर आया । शाह जगा ने स्वामिवात्सल्य कर एक एक सोना मुहर और वस्त्रादि की प्रभावना कर संघ को विसर्जन किया। अहाहा! वह जमाना आत्मकल्याण और धर्मभावना के लिये कैसा उत्तम था कि धर्म के नाम पर बात की बात में हाजारों लाखों रुपये व्यय कर डालते थे। यही कारण था कि उन लोगों के पूर्वभव के पुन्योदय और इस भव में पुन्य बढ़ते थे कि वे सर्व प्रकार से सुखी रहते थे । लक्ष्मी की तो उन लोगों को कभी परवाह तक नहीं थी तथापि वह उन भाग्यशालियों के घरों में स्थिर वास कर बैठ जाती थी जब कभी घे लोग इस प्रकार के कार्यों में लक्ष्मी को विदा करना चाहते थे तो लक्ष्मी गुस्सा कर दुगुणी चौगुणी होकर इन भाग्यशालियों के घर में जमाव डाल कर रहती थी । लक्ष्मी का स्वभाव एक विलक्षण ही था जहाँ इस को चाहते हैं श्राशा एवं तृष्ण रखते हैं वहाँ जाने में आनाकानी करती है पर जहाँ लक्ष्मी को न तो कभी याद करते हैं और न इसका आदर करते हैं वहाँ रहने में खुशी मनाती है और चिरस्थायी रहती है । माता जेती को कभी अपनी साथणियों को भोजन करवा कर पहरामणी देने का तथा कभी गुरुमहाराज के व्याख्यान सुनने का एवं दान देने का और कभी परमेश्वर की पूजा करने का मनोरथ उत्पन्न होता था। जिसको शाह जगा आनन्द पूर्वक पूर्ण करता था । क्रमशः माता जेती ने शुभ वक्त में एक पुत्र रत्न को जन्म दिया जिससे शाह जगा के हर्ष का पार नहीं रहा । याचकों को दान और सज्जनों को सम्मान दिया। जिन मन्दिरों में अष्टन्हिका महोत्सव प्रारंभ किया। कहा है कि:रण जीतण कंकणवँधन, पुत्र जन्म उत्साव । तीनों अवसर दान के, कौन रंक को राव ॥ जन्मादि महोत्सव करते हुए बाहरवें दिन दशोटन कर पुत्र का नाम ठाकुरसी रक्खा गया। बाल कुँवर ठाकुरसी क्रमशः बड़ा हो रहा था, उसकी बालक्रीड़ायें भावी होन हार की सूचना कर रही थी। उसके हाथ पगों की रेखा एवं लक्षण उसका अभ्युदय बतला रहे थे और शाह जगा और माता जैती ठाकुरसी के लिये बड़ी बड़ी आशाओं के पुल बाँध रहे थे। जब ठाकुरसी आठ वर्ष का हुआ तो उसको महोत्सव के साथ विद्यालय में प्रवेश किया पर ठाकुरसी ने पूर्व जन्म में ज्ञानपद की एवं सरस्वती देवी की उज्ज्वल चित्त से आराधना की हुई थी कि अपने सहपाठियों से सदैव अप्रेश्वर ही रहता था व्यवहारिक विद्या के साथ ठाकुरसी को धार्मिक ज्ञान पर विशेष रुचि थी। उनके माता पितादि सब कुटम्ब पहिले से ही जैनधर्मोपासक एवं जैनधर्म की क्रिया करने वाले थे । जब ठाकुरसी बालक था तब ही माता जेती उसको स्नान करवाकर अच्छे वस्त्र पहना कर मन्दिर उपाश्रय ले जाया करती थी अतः ठाकरसी के धार्मिक संस्कार शुरू से ही जमे हुये थे अब धार्मिक पढ़ाई करने से और उसके भावों को समझने में तो और भी अधिक आनन्द आने लगा जिससे वह अपनी माता को धार्मिक क्रिया के लिये प्रेरणा किया करता था जिसको देखकर कभी कभी तो माता शंका करने लग जाती थी कि ठाकुरसी कहीं दीक्षा न ले ले ? अतः ठाकुारसी की माता चाहती थी कि ठाकुरसी का विवाह जल्दी कर दिया जाय । उसने अपने पतिदेव को कहा कि क्या ठाकुरसी की शादी नहीं करनी है ? सेठ जी ने कहा कि ठाकुरसी की शादी के लिये तो बहुत प्रस्ताव आये हैं पर अभी ठाकुरसी की उम्र सोलह वर्ष की है मेरी इच्छा है कि २० का [ शाह जगा के ठाकुरसी नाम का पुत्र ७९२ Jain Education international Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धबरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० होजाय तब शादी करनी ठीक है । सेठानी ने कहा कि १६ वर्ष के की शादी करना कौनसा अनुचित है। सोलह वर्ष के की शादी तो सब जगह होती है । मेरी इच्छा है कि ठाकुरसी की शादी जल्दी की जाय । आयुष्य का क्या विश्वास है एक बार पुत्रवधू को आँखों से दाख तो लू इत्यादि । सेठानी का अत्याग्रह होने से सेठजी ने उसी नगर में बलाह गोत्रिय शाह चतरा की सुशील लिखी पढ़ी विनयादि गुणवाली जिनदासी के साथ बड़ी ही धामधूम से ठाकुरसी का विवाह कर दिया। बस, अब तो माता की शंका मिट गई और सब मनोरथ सिद्ध होगये। इधर तो ठाकुरसी माता का सुपुत्र था और उधर जिनदासी विनयवान लज्जावान् लिखी पदी चतुर और गृहकार्य में दक्ष बहू आगई फिर तो माता जैती फूली ही क्यों समावे । संसार में जो सुख कहा जाय वह सब माता जैती के घर पर आकर एकत्र ही होगये। ___ठाकुरसी के लग्न को पूरे छः मास भी नहीं हुये थे कि धर्मप्राण धर्ममूर्ति लब्धप्रतिष्ठित धर्मप्राचारक अनेक विद्वान मुनियों के साथ श्रापार्य देवगुप्तसूरि का शुभागमन जावलीपुर की ओर हुआ । जब वहाँ के श्रीसंघ को यह शुभ समाचार मिले तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा । उन्होंने सरिजी का स्वागत एवं नगरप्रवेश का महोत्सव बड़े ही समारोह से किया जिसमें शाह जगा एवं ठाकुरसी भी शामिल थे। सूरिजी का मंगलाचरण इतना सारगर्भित था कि श्रवण करने वालों को बड़ा ही श्रानंद आया। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य और आत्मकल्याण पर विशेष होता था एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में संसार की धसारता बतलाते हुये फरमाया कि तीर्थङ्करदेवों ने संसार को दुःखों का खजाना इस वास्ते बतलाथा है किजम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणणि य । अहो ! दुक्खो हुँ संसारों, जत्थ किस्सं तिजंतुणो॥ जरा मरण कंतारे चाउरते भयागरे । मए सोढाणि भीमाणि, जम्माणि मरणाणि य ॥ यह दुःख उत्पन्न होता है इन्द्रियों से । इन्द्रिय के विषय को दो विभाग में विभाजित कर दिया जाय तो एक काम और दूसरा भोग-जैसे श्रोत्रइन्द्रिय और चक्षु इन्द्रिय कामी हैं और घ्राणेन्द्रिय रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय भोगी हैं। इस काम और भोग से ही जीव दुख परम्परा का संचय कर संसार में भ्रमण कर रहा है। जब जीव को अज्ञान एवं भ्रान्ति होजाती है तब वे दुःख को भी सुख मान लेते हैं अर्थात् हलाहल जहर को अमृत मान लेते हैं जैसे कि जहां किंपाकफलाणं, परिणामो ण सुंदरो । एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो ण संदरो॥ सल्लंकामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा । कामेय पत्थेमाणा, अकामा जति दुग्गरं ॥ कई काम भोग से विरक्त होते हुये भी माता पिता स्त्री आदि कुटुम्ब परिवार की माग में फंस कर कर्मबंध करते हैं जैसे माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ताय ओरसा । नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतितस्स सकम्मुणा ॥ पर यह नहीं सोचते हैं कि जब कर्मोदय होगा तब यह माता पितादि मेरी रक्षा कर सकेगे या मैं अकेला ही कर्म भुक्तुंगा । जैसे एक हलवाई ने किसी राजा के यहाँ गेवर बनाया पर उसके दिल में बेईमानी आगई कि गरमागरम चार गेवर चुरा कर अपने लड़के के साथ घर पर भेज दिये । औरत ने समझा कि मैं पुत्र पुत्री और पति एवं घर में चार जने हैं, और चार घेवर हैं एक एक घेवर हिस्से में आता है तो फिर गरमागरम न खाकर स्वाद क्यों गमावें । उन तीनों ने तीन घेवर खा लिये, एक हलवाई के लिये रख दिया आचार्य श्री का प्रभावशाली व्याख्यान ] Jain Education Inteooral Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास परन्तु भाग्यवसात् घर पर जमाई आगया अतः चौथा घेवर उसको खिला दिया। बाद हलवाई घेवर की उम्मेद पर स्नान कर मकान पर आया । औरत ने कहा कि तीन घेवर तो अपने २ हिस्से के हम सबने खा लिये एक आपके लिये रक्खा था पर जमाई घर पर आगये, आपके हिस्से का घेवर उनको खिला कर घर की इज्जत बढ़ाई । यह सुन कर हलवाई निराश होगया । उधर राज में घेवर तोला गया वो चार घेवर कम आये । बस, एक दूत को हलवाई के पीछे भेजा और हलवाई को बुलाकर खूब पीटना शुरू किया। उसने कहा कि घेवर मैंने चुराये पर मैंने खाये नहीं, खाये घरवालों ने अतः पीटना हो तो उन्हें पीटो। जब घरवालों को बुलाया तो उन्होंने कहा कि हमने कब कहा था कि तुम चुराकर घेवर लाना अतः हम निर्दोष हैं। आखिर सजा हलवाई को सहन करनी ही पड़ी। इस उदाहरण से आप समझ सकते हो कि कर्म करेगा उसे ही दुःख भोगना पड़ेगा। अतः कर्म करते समय इस उदाहरण को खयाल में रखे श्रोतागण ! कई मनुष्य जन्मादी लेकर तृष्णा के वशीभूत हो धन एकत्र करने में हिताहित का भान भूल जाते हैं पर उन लोभानन्दी को कितना ही द्रव्य देदिया जाय तो भी उनकी तृष्णा शान्त नहीं होती है । सुवन्नरुप्पस्सउपव्या भावे, सियाहु केलास समा असंखाय । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छाहु आगाससमा अणंताय॥ न सहस्राद्भवे तुष्टिर्न लक्षन्न 'च कोटिना । न राज्यान्ने देवत्वा न्नेन्द्रत्वादपि देहिनाम् ।। धन संसार में असंख्य है पर तृष्णा अनंत है वह कब शान्त होने वाली है अतः मनुष्य को चाहिये कि संसार के मोहजाल को तिलांजलि देकर शीघ्रातिशीघ्र आत्मकल्याण सम्पादन करने में लगजावे फिर इसमें भी विशेषता यह है कि स्वकल्लाण के साथ पर कल्याण की भावना वाले को कुंवार अवस्था एवं सारुण्यपने में चेतना चाहिये । शास्त्रकारों ने कहा है कि:"परि जूरइ ते सरीरयं केसा, पंडुराय हवंतिते । से सव्व वलेय हावई, समयं गोयमा ! मा पमायए "जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वढ्ढइ । जाधिदिया न हावंति, तावधम्म समायरे ॥ महानुभावों ! कालरूपी चक्र शिरपर हमेशा धूमता रहता है न जाने कहाँ किस समय धावा बोल दे अतः विलम्ब करने की जरूरत नहीं है। ऐसा सुअवसर हाथों से चले जाने पर कोटि उपाय करने से भी शायद् ही मिलसके ? फिर पछताने के सिवाय कुछ भी नहीं रहेगा । इसलिये तीर्थङ्करों गणधरों और पूर्वाचार्य ने पुकार पुकार कर कहा है कि आत्म कल्याण की भावना वाले मुमुक्षुओं को क्षणमात्र की देरी नहीं करनी चाहिये "अरई गंडं विसुईया अयंके विविहा फुसंतिते। विहडइ विद्ध सइ ते सरीरंयं समय गोयमा । मा पमायए । वोच्छिद सिणेहमप्पणो, कुमुदं सारइयं च पाणियं । से सव्व सिणेहवज्जिए, समयं गोयमा। मा पमायए। यदि संसार त्याग कर आत्म कल्याण न करेंगा उसको आखिर पश्चाताप करना पड़ेगा जैसे अवले जह भार बाहए, मामग्गे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम । मा पमायए।" इत्यादि सूरिजी ने वैराग्यमय देशना दी जिसको सुनकर जनता एक दम चौंक उठी और संसार की तरफ उनको घृणा श्राने लगी। ऐसा वैराग्य रहता क्षणमात्र ही है। हो, जिसके भवस्थिति परिपक्क होगई हो संसार परत होगया हो और मोक्ष जाने की तैयारी हो उसके रोम रोम में खून के साथ वैराग्य मिश्रित ७९४ [ सरिजी का प्रभावशाली व्याख्यान Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० होजाता है । ऐसा था नवयुवक ठाकुरसी । सूरिजी ने जितने पोइन्ट बतलाये ठाकुरसी ने उस पर खूब विचार किया और आखिर उसने निश्चय कर लिया कि अनुकूल सामग्री के मिलने पर भी कल्याणमार्ग साधन नहीं किया जाय तो भवान्तर में अवश्य पश्चाताप करना पड़ेगा ? जप अनंत काल से भी यह जीव विलास से तृप्त नहीं हुआ तो एकभव से तो होने वाला भी क्या है ? अतः इन विषय भोगों को तिलांजलि देकर सूरिजी के चरण कमल की शरण लीजाय की अपने को सूरिजी भव समुद्र से पार पहुँच देंगा इत्यादि । सूरिजी का व्याख्यान समाप्त हुआ तो सूरिजी की प्रशंसा एवं वंदन कर परिषद विदा हुई पर ठाकुरसी अपने विचार में इतना तल्लीन होगया की उसके माता पिता चले गये जिसकी भी उसे सुधी नहीं रही । सब लोगों के जाने पर ठाकुरसी ने कहा पूज्यवर ! आज तो आपने बड़ी भारी कृपा की कि मोह निद्रा में सोते हुओं को जागृति कर दिये मेरी इच्छा है कि मैं आपश्री के चरणों में दीक्षा लेकर अपना कल्याण सम्पादक करूँ। सूरिजी ने कहा 'जहा सुखम' पर धर्म कार्य में विलम्ब मत करना क्योंकि अच्छे कार्य में कई विघ्न उपस्थित होने की संभावना रहती है अतः शास्त्र में कहा है 'धर्मस्यत्वरतागति' सूरिजी को वंदन कर ठाकुरसी अपने मकान पर आरहा था पर उसके दिल में सूरिजी का व्याख्यान रम रहा था । भाग्यवसात् चलते २ उसके पैरों के बीच अकस्मात् एक दीर्घकाय सर्प श्रानिकला जिसकी ठाकुरसी को खबर तक नहीं पड़ी पर जब सर्प पैरों के बीच आया तब जाकर मालूम हुआ। वह दूर होकर सोचने लगा कि यदि यह सर्प काट खाता तो मैं यों ही मरजाता। अतः ठाकुरसी का वैराग्य दुगणित होगया। वहाँ से चलकर घर पर आया और माता को सर्प की बात कही जिसको सुन माता ने बहुत फिक्र किया और कहा बेटा ! गुरु महाराज की कृपा से आज तू बच गया है । बेटा ने कहा हाँ माता तेरा कहना सत्य है मैं गुरुदेव की कृपा से ही बचा हूँ अतः आप आज्ञा दीरावे कि मैं गुरु महाराज की सेवा करूँ ! माता ने कहा बेटा इस में आज्ञा की क्या जरूरत है। तू खुशी से गुरु महाराज की सेवा कर बेटा ! ऐसे गुरु महाराज का संयोग कब मिलता है इत्यादि । माता विचारी भद्रिक थी बेटा की गूढ बात को वह जान नही सकी। बेटा ने कहा बस माता मैं तेरी प्राज्ञा ही चाहता था इतना सुनते ही माता बोली कि बेटा किस बात की आज्ञा चाहता था ? बेटा ने कहा गुरु महाराज के चरणों की सेवा करने की। बेटा तू क्या कहता है मैं समम न सकी गुरु महाराज की संवा तो सब ही करते हैं। माता ! मैं जीवन पर्यन्त गुरु महाराज के चरणों में रह कर संवा करना चहता हूँ। जैसे उनके और शिष्य करते है। माता- तब क्या तू गुरु महाराज का चेला बनना चाहता है ? पुत्र-हाँ माता, मैंने जब ही तो आज्ञा मांगी थी और तुमने श्राज्ञा देदी है। मां बेटा बात करते ही थे इतने में शाह जागा घर पर आगया। सेठानी ने कहा आपका बेटा क्या कहता है, सेठानी के आंखों से आँसुओं की धारा बहने लग गई जिसको देख कर सेठजी ने कहा बेटा क्या बात है. ? सेठानी ने कहा आज ठाकुरसी के पैरों के बीच साप श्रागया था मैंने कहा कि गुरु महाराज की कृपा से तू बच गया अतः गुरुदेव की सेवा किया कर बस इतनी बात पर यह दीक्षा लेने को तैयार होगया है। आप अपने बेटे को समझाइये धरना मेरा प्राण छुट जायगा। शाह जगा ने ठाकुरसी को बहुत समझाया पर ठाकुरसी के वैराग मसानिया नहीं था पर वैराग्य था अतरंग का । ठाकुरसी ने कहा पिताजी यदि मैं सांप के कारण मर जाता तो आप किसको समझाते ? भला थोड़ी देर के लिये श्राप मुझे मर गया ही समझ लीजिये । मैं तो आप से और ठाकुरसी और उसकी माता का संवाद ] ७९५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अपनी माँ से भी कहता हूँ कि आपका मेरे प्रति पक्का प्रेम है तो आप भी गुरु महाराज के चरणों की शरण लेकर आत्म कल्याण करें। किसका बेटा और किसके मां बाप यह तो एक स्वप्न की माया है न जाने किस गति से आये और किस गति में जावेंगे यह मनुष्य जन्मादि अनुकूल सामग्री बार बार मिलने कि नहीं है। आपने सुना होगा सच्ची प्रीति तो जम्बुकँवर के माता पिता और स्त्रियों थी की उन्होंने अपने प्यारे पुत्र के साथ दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया इत्यादि । ठाकुरसी अपने माता पिता से बातें कर रहा था और एक तरफ उसकी छ:मास की परणी हुई स्त्री बैठी थी और अपने पतिदेव की सब बात सुन रही थी। जिससे उनको बड़ा ही दुःख हो रहा था । शाह जगा ने कहा बेटा तू भी जम्बुकुंवर बनना चाहता है । बेटा ने कहा पिताजी जम्बुकुँवर तो तद्भव मोक्षगामी था परन्तु भावना तो एक मेरी क्या पर सब की ऐसी ही होनी चाहिये। शाह जगा तो ठाकुरसी के वचन सुन मंत्रमुग्ध बन गया। अव ठाकुरसी को क्या जवाब दे इसके लिये वह विचार समुद्र में गोता लगा रहा था आखिर में कहा चलो भोजन तो करलो फिर इसके लिये विचार किया जायगा ! बाप बेटा ने साथ में बैठकर भोजन कर लिया बाद बाप तो गया दुकान पर और बेटा गया अपने महल में वहाँ पर ठाकुरसी की स्त्री थी उसने अपने पति को खूब कहा पर ठाकुरसी ने उसे इस कदर समझाई कि उसने अपने पतिदेव का साथ देना स्वीकार कर लिया । रात्रि के समय सेठ सेठानी ने आपस में विचार किया कि अब क्या करना चाहिये । ठाकुरसी ने तो दीक्षा का हट पकड़ लिया है । सेठानी ने कहा कि केवल ठाकुरसी ही क्यों पर ठाकुरसी की बहू भी दीक्षा लेने को तैयार होगई है । सेठ ने कहा यदि ऐसा ही है तो फिर अपने घर में रहकर क्या करना है आखिर एक दिन मरना तो है ही जब ठाकुरसी और उसकी औरत इस तरुणावस्था में भोग विलास छोड़ दीक्षा लेते हैं तो अपन तो मुक्त भोगी हैं इत्यादि । सेठानी ने कहा दीक्षा का विचार तो करते हो पर दीक्षा पालनी सहज बात नहीं है। इसका पहिले विचार कर लीजिये । सेठजी ने कहा कि इसमें विचार जैसी क्या बात है । इतने हजारों साधु साध्वियां दीक्षा पालते हैं वे भी तो एक दिन गृहस्थ ही थे। दूसरे हम व्यापार में भी देखते हैं कि थोड़ा बहुत कष्ट बिना लाभ भी तो कहां है इत्यादि दोनों का विचार पुत्र के साथ दीक्षा लेने का होगया । बस शाहजगा ने अपने पुत्र जोगा को सब अधिकार देदिया और जो सात क्षेत्र में द्रव्य देना था वह देदिया तथा जोगा ने अपने माता पिता एवं लघु वान्धव की दीक्षा का महोत्सव किया और सूरिजी ने ठाकुरसी उनके माता पिता स्त्री तथा १३ नरनारी एवं १७ मुमुक्षुओं को शुभ मुहूर्त में दीक्षा देदी और ठाकुरसी का नाम अशोकचन्द्र रख दिया। मुनि अशोकचन्द्र वड़ा ही त्यागी वैगमी जितेन्द्रिय था उसको ज्ञान पढ़ने की तो पहिले से ही रुचि थी। सरस्वती देवी की पूर्ण कृपा थी अतः विनय भक्ति करके थोड़े ही दिनों में वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर धुंरधर विद्वान् बन गया आपकी व्याख्यान शैली इतनी मधुर और प्रभावोत्पादक थी कि बड़े बड़े राजा महाराजा आपके व्याख्यान सुनने को लालायित रहते थे। शास्त्रार्थ में तो आप इतने सिद्ध हस्त थे कि कई राजाओं की सभा में वादियों को पराजित कर जैन धर्म की ध्वजा पताका फहगई थी। आचार्य देवगुप्त सूरि ने अपनी अन्तिमवास्था में देवी सच्चायिका की सम्मति से माडव्यपुर के डिडु गौत्रीय शाह ठाकुरसी आदि श्रीसंघ के महोत्सव पूर्व मुनि अशोकचन्द्र को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया। आचार्य सिद्धसूरि महान प्रभाविक एवं जैनधर्म के कट्टर प्रचारक हुये । श्राप विहार करते हुए एक [ ठाकुरसी अपने माता पिता के साथ दीक्षा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन [ओसवाल संवत् ७१०-८०० समय उजैन नगरी में पधारे । श्री संघ ने आपका अच्छा स्वागत किया तथा श्रीसंघ की आग्रह पूर्वक विनती होने से वह चतुर्मास आपने उज्जैन में ही किया। आपके विराजने से कई प्रकार से धर्म की प्रभावना हुई । उज्जैन के चतुर्मास में आपने विचार किया कि कई वर्ष होगये हैं प्राचार्यों का दक्षिण की और विहार नहीं हुआ है। वहां कई मुनि विचरते हैं उनका क्या हाल है ? अनः दक्षिण की ओर विहार करना जरूरी है। उस अवसर पर देवी सच्चायिका भी सूरिजी को बंदन करने को आई थी । सूरिजी ने देवी की भी सम्मति ली तो देवी ने बड़ी खुशी के साथ सम्मति देदी और कहा पूज्यवर ! जितना आपका विहार अधिक क्षेत्रों में होगा उतना ही धर्म का प्रचार अधिक बढ़ेगा : आप खुशी से दक्षिण की ओर विहार करें । बस चतुर्मास समाप्त होते ही आप श्री ने अपने पांचसौ साधुओं के साथ दक्षिण की ओर विहार कर दिया। ___ उस समय के आचार्य अपने पास अधिक मुनियों को इस गर्ज से रखते थे कि जिस प्रान्त में आप विहार करते उस प्रान्त के छोटे बड़े सब ग्रामों में लोगों को उपदेश मिल जाता कारण, छोटे २ प्रामों में थोड़े २ साधुओं को भेज देते और बड़े नगरों में सब साधु शामिल हो जाते थे इससे एक तो गौचरी पानी की तकलीफ उठानी नहीं पड़ती और दूसरे ग्राम वालों को उपदेश भी मिलजाता। अतः उस समय के साथ जैनाचार्यों के कम से कम एक सौ साधु और ज्यादा से ज्यादा ५०० साधु तक भी रहते थे। उस समय जैनों की संख्या बहुत थी और भग्यशाली दीक्षा भी बहुत लेते थे। उन श्राचार्यों के त्याग.वैराग्य निस्पृहता एवं परोपकार का प्रभाव भी तो दुनियां पर बहुत पड़ता था । सूरिजी महाराज अपने ५०० शिष्यों के साथ यूथपति की भांति प्रामोग्राम विहार करते हुये एवं धर्मोपदेश देते हुये और धर्म जागृति करते हुये पधार रहे थे। जिस प्रदेश में श्रापश्री का पदार्पण होता वह प्रदेश धर्म से नवप्लव बन जाता था कारण आपश्री का उपदेश ही ऐसा था कि क्या राजा और क्या प्रजा धर्म के अनुगगी बन जाते थे कइ माहानुभाव संसार त्याग कर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेकर आत्म कल्याण में लग जाते थे। सूरिजी का पहला चतुर्मास मानषेट राजधानी में हुआ यहाँ भी धर्म की खुब प्रभावना हुई बाद चतुर्मास के सूरिजी आस पास के प्रदेश में विहार कर बहुत अजैनों को जैन बनाये कहमुमुक्षुओं को दीक्षा दी तत्पश्वात् श्राप मदुरा में पधारे वहाँपर एक श्रमण सभा की गई जिसमें उप्त प्रान्त में विहार करने वाले सब मुनि एकत्र हुए थे। सूरिजी ने उन मुनियों के धर्म प्रचार कार्यों की खुब सहराना की और योग्य मुनियों को पदवियों प्रधान कर उनके उत्साह को बढ़ाया दूसरा चतुर्मास सूरिजी ने मथुरा में किया वहाँ पर श्रेष्टि यशदेव ने भगवान महावीर का बहुतर देहरी वाला मन्दिर बनाया उस की प्रतिष्टा करवाई उस सुअवसर पर बारह नर नारियों को भगवती जैन दीक्षा ली तत्पश्चात् वहाँ से विहार कर क्रमशः प्राम नगरों की स्पर्शना करते हुए सोपारपट्टन पधारे वहाँ के श्री संघ ने सूरिजी का बहुत समारोह से स्वागत किया सूरि जी का व्याख्यान हमेशा होता था श्रोताजन को बड़ा भारी आनन्द प्राता था श्रीसंघ ने सूरिजी से पतुमास की प्रार्थना की और लाभालाभ का कारण जान कर सूरिजी ने स्वीकार करली। सूरिजी के चतुर्मास से श्रीसंघ में धर्म जागृत अच्छी ई। कई शुभ कार्य हुये। पांच महिला और तीन श्रावकों ने सूरजी के पास दीक्षा ली। तदनन्तर श्रास पास के प्रदेश में भ्रमण करते हुए सूरिजी सौराष्ट्र में पधार कर गिरनार मण्डन भगवान नेमिनाथ की यात्रा की। वहाँ पर एक योगियों की जमात आई हुई थी उसमें एक तरुण साधु अच्छा लिखा पढ़ा था पर उसको अपने ज्ञान का बड़ा ही घमंड था यहाँ तक कि दूसरे विद्वानों को मुनि और तापस के आपस में संवाद ] ७९७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तृणवत् ही समझता था। एक समय सूरिजी का एक लघु शिष्य कई साधुओं के साथ थंडिले भूमि को गया था। भाग्यवसात् तापस भी वहाँ श्रागया । अतः दोनों की आपस में भेंट हुई तथा वार्तालाप भी हुआ दोनों के चेहरे पर भाग्य रेखा चमक रही थी। "तापस ने पूछा कि मुनिजी ! आपके धर्म का मुख्य सिद्धान्त क्या है ? "मुनि ने कहा हमारे धर्म का मुख्य सिद्धान्त स्याद्वाद है । इसका दूसरा नाम अनेकान्तवाद भी है । तापस- स्याद्वाद आप किसको कहते हैं ? मुनि-वस्तु में अनंतधर्म है जिसमें से एकधर्म की अपेक्षा लेकर कथन करना उसको स्याद्वाद कहते हैं। तापस- इस विषय का कोई उदाहरण बतला कर समझाइये । मुनि-एक महिला है उसमें अनेक गुण हैं जैसे वह माता है बहिन है पुत्री है औरत है इत्यादि अनेक स्वभाव वाली हैं। पर जब उसको माता कहेंगे तो पुत्र की अपेक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी, कि पुत्र की अपेक्षा माता है पर माता कहने से शेष बहिन पुत्री और औरत के गुण हैं उनका नाश न होगा क्योंकि भाई की अपेक्षा उसे बहिन पिता की अपेक्षा पुत्री, और पति की अपेक्षा औरत भी कह सकते हैं इसको स्याद्वाद, अनेकान्त एवं अपेक्षावाद कहा जाता है इसी प्रकार जिस समय जिस गुण की अपेक्षा लेकर वर्णन करेंगे वह सत्य है जैसे आत्मा ज्ञानी है उस समय आत्मा में दर्शनादि दूसरे गुण भी विद्यमान हैं । तापस-आपके मत में आत्मा का क्या स्वरूप और आत्मा को कैसे माना है। मुनि-आत्मा नित्य अक्षय सच्चिदानंद असंख्याता प्रदेशी शाश्वता नित्य द्रव्य माना है । तपसी-यदि आत्मा अक्षय एवं नित्य शाश्वताद्रव्य है तो फिर जीव मरता जन्मता क्यों है ? मुनि-श्रात्मा न तो कभी जन्मता है और न कभी मरता ही है। तापस-आपके इस कथन पर कैसे विश्वास किया जाय। कारण, प्रत्यक्ष में हम देखते हैं कि जीव मरता है और जन्मता भी है। और व्यवहार में सब लोग भी यही कहते है। मुनि महात्मा! श्राप हम और जनता जिस जीव को मरना जन्मना देख रहे एवं कहते है वह जीव नहीं पर स्थुल शरीर की अपेक्षा से ही कहा जाता है । जीव नाम कर्म के उदय से शरीर प्राप्त करता है आयुष्य के साथ इसका सम्बन्ध रहता है उस की स्थिति पूर्ण होने से जीव पूर्व शरीर को छोड़ दूसरे शरीर को धारन कर लेता है जैसे एक मुशाफिर एक कमरा दो मास के लिये किराया पर लिया है जब दो माम की मुद्रित खत्म होजाति है तब उस कमरा को छोड दूसरा कमरा किराये लेना पडता है । यही संसारी जीयों काहाल हैं। तापस-कहा जाता हैं कि पांच तत्वों एवं पाँच भूतों से शरीर बनता है मुनि-हाँ इसमें भी अपेक्षा रही हुइ है पर आपके कहने पर भी आप ध्यान लगाकर सोचिये कि जब पांच तत्वों से शरीर बना है तो जब तत्वों का नाश होने से शरीर का नाश हो जाता हैं फिर भी जीव तो अनादि शाश्वता ही रहाँ पांच तत्वों वालों ने जो कल्पना की है वह इस प्रकार है कि शरीर में अस्थि-हाड वगैरे कठिन द्रव्य है उसके लिये पृथ्वी तत्व, खूब वगैरह द्रव्य ढ़ीला पदार्थ है उनकी पानी तत्व, जेठ रानि को तेजस तत्व, शाश्वोशाख की वायुतत्व और इन तत्वा का भाजन को आकाशतत्व मान लिया है और इनको ही स्थुल शरीर कहा जाता है जिसके नाश होने पर भी जीव अनाशमान शाश्वता रहता है तापस-आप स्थूल शरीर कहते हो तो क्या दूसरा कोई सूक्ष्म शरीर भी होता है ! [ तापस और आत्मवाद Jain Educ ७९८ e rnational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० - शरीर पांच प्रकार के होते हैं जैसे कि श्रदारिक शरीर, वैक्रय शरीर, आहारीक शरीर, तेजस शरीर, और कारमाण शरीर जिसमें पहिले तीन स्थूल और अन्त के दो सूक्ष्म शरीर हैं। इन पांच शरीरों से एक आहारिक शरीर लब्धिपात्र मुनियों के ही होते हैं शेष चार शरीर सर्वसाधारण जीवों के होते हैं । उसमें औवारिक और वैकय दो शरीर उत्पन्न होते हैं और इनका विनाश भी होता है । उत्पन्न होने को जन्मना और विनाश होने को मरना कहते हैं शेष तेजस और कारमाण शरिर जीव के सदैव साथ रहता है। ये दोनों शरीर जिस समय जीव से सर्वथा अलग होजाते हैं, वे शरीर भी छुटजाते हैं तब जीव की मोक्ष होती है अर्थात् मोक्ष होने से जीव अशरीर होजाता है जिसको निरंजन निराकार कहते हैं । तापस-जीवात्मा से शरीर अलग है तब शरीर को कष्ट होने पर जीव को सुख दुख क्यों होता है ? मुनि - जीवात्मा के साथ कर्मों का संयोग है और शरीर कर्म की प्रकृति है। जीव ने भ्रांति से शरीर को अपना कर माना है उस अपनायत के कारण शरीर के साथ जीव को भी दुखी होना पड़ता है । जैसे एक वृद्ध तपसी ने शीत ताप से बचने के लिये घास की झोंपड़ी बना रक्खी थी, एक समय तपसी जंगल में गया था पीछे से किसी ने उसकी झोपड़ी को तोड़ फोड़ कर नष्ट कर दी जब । तपसी वापिस श्राया तो कोंपड़ी नष्ट हुई देख बहुत दुःख किया यद्यपि तपसी को कुछ भी तकलीफ नहीं दी थी पर पसी ने उस मोंपड़ी को अपनी कर मानली थी अतः झोंपड़ी के नष्ट होने से तपसी को दुःख हुआ इसी प्रकार जीव ने शरीर को अपना मान लिया इसलिये उसे दुःखी होना पड़ता है । तापस- शरीर में जीवात्मा किस प्रकार और किस जगह पर रहता है ? मुनि - जैसे तिलों में तेल, दूध में घृत, पुष्पों में सुगन्धी रहती है वैसे शरीर में जीवात्मा रहता है। श्रर्थात् सब शरीर में खीर नीर की माफिक मिला हुआ रहता है । तापस - जीवात्मा और शरीर के कब से संयोग हुआ है ? मुनि-जीव और शरीर नय संयोग नहीं होता है पर अनादि काल का संयोग है । तापस -- जब संयोग नहीं तो उसका वियोग भी नहीं होगा और वियोग नहीं तब तो जीव की मोक्ष भी नहीं होगी । मुनि - जीव के साथ शरीर का अनादि संयोग है फिर भी उसका वियोग हो सकता है जैसे तिलों में सेलका कब संयोग हुआ अर्थात् तिलों में तेल किसने डाला इसकी आदि नहीं है परंतु यंत्र मशीन घणि वग़ैरह के प्रयोग से तिलों से तेल का वियोग होसकता है। इसी प्रकार जीव और शरीर की आदि नहीं है पर सम्यक् ज्ञानदर्शन चरित्र रूपी यंत्र मिलने से वियोग हो सकता है । तापस- तब तो सब जीवों की मोक्ष हो जायगी १ मुनि-नही सब जीवों की मोक्ष नहीं होती है । तापस- इसका क्या कारण है ? मुनि - मोक्ष उसकी ही होसकती है कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना कर सके । तापस - तो क्या सब जीव आराधना नहीं कर सकते हैं ? मुनि- नहीं, कारण सत्र जीवों को ज्ञान दर्शन की श्राराधना का समय ही नहीं मिलता है। देखिये संसार में जीव चार प्रकार के हैं जैसे उदाहरण :-- मोक्ष मार्ग की आराधना का साधन ] ७९९ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १-एक सधवा ओरत कि जिसके पुत्र होने का स्वभाव है और पति भी पास में है उसके पुत्र की प्राप्ती जल्दी होती है । २-सधवा ओरत है पुत्र होने का स्वभाव भी है पर उसका पति घर पर नहीं जब पति घर पर आवेगा तब पुत्र होगा। अतः पुत्र होने में विलम्ब है। ३-विधवा औरत है पुत्र होने का स्वभाव है पर उसका पति गुजर गया है इसके कभी पुत्र होगा ही नहीं केवल पुत्र होने का स्वभाव जरूर है। ४-चौथी सधवा है पर बांझ है । उसका पति चाहे घर पर हो चाहे प्रदेश में हो उसके कभी पुत्र नहीं होगा क्योंकि उसमें पुत्र होने का स्वभाव ही नहीं है। इस उदाहरण का उपनय यह है कि चार ओरतों के स्थान चार प्रकार के जीव हैं। पुत्र होने के स्वभाव फे स्थान मोक्ष जाने का स्वभाव है। पति के स्थान ज्ञान दर्शन चारित्र समझ लीजिये ! अब इसका शरांश: १-- पहिला जीव निकट भावी यानी जल्दी मोक्ष जाने वाला है । कारण, मोक्ष जाने का स्वभाव है और ज्ञान दर्शन का सयोग एवं आराधना भी है । । २- दूसरा दुर्भावी इसमें मोक्ष जाने का स्वभाव है पर कर्मोदय ज्ञान दर्शन की आराधना का साधन नहीं है । जब कभी आराधना का संयोग मिलेगा तब मोक्ष होगा। ३-तीसरे जातिभव्य के मोक्ष जाने का स्वभाव है पर उसको ज्ञानादि की आराधना का समय ही नहीं मिलता और न वह मोक्ष ही जायगा केवल स्वभाव मात्र है। ४--चौथा अभव्य कि मोक्ष जाने का स्वभाव ही नहीं है उसको ज्ञानादि आराधना का समय ही नहीं मिले कदाचित् समय मिले वो अान्तरिक भावों से नहीं आराधे उसकी मोक्ष भी कभी नहीं होगी। इस उदाहरण से आप समझ सकते हो कि यह कभी न तो हुआ न होगा कि सब जीव मोक्ष चले जाय । तापस-- इसका क्या कारण है कि जातिभव्य और अभव्य को ज्ञानादि की भागधना का संयोग नहीं मिले। मुनि-जीव के आठ कर्मों में एक मोहनीय नाम का कर्म है कि जातिभव्य और अभव्य जीवों के आत्म प्रदेश से कभी हट ही नहीं सकता है । उसके बिना हटे ज्ञानादि की आराधना हो नहीं सकती है। अतः वह मोक्ष जा नहीं सकता है। तापस---ज्ञान दर्शन चारित्र किसको कहते हैं और इसकी आराधना किस प्रकार होती है ? मुनि- ज्ञान बस्तु तत्त्व को सम्यक् प्रकार अर्थात यथार्थ समझना उस सम्यक् ज्ञान कहते हैं इसके भी पांच भेद हैं । जैसे कि : १-मतिज्ञान-जो स्वयं मगज से ज्ञानशक्ति पैदा होनी। २-श्रुतिज्ञान-दूसरों से सुनना या पुस्तकादि का पठन पाठन करने से ज्ञान होता है ये दोनों ज्ञान ऐसे हैं कि साथ में ही रहते हैं और आपस में एक दूसरे के सहायक भी हैं। ३-अवधिज्ञान-इसके अनेक भेद हैं और यह है भी अतिशय ज्ञान कि इससे भूत भविष्य और वर्तमान की बात जान सकता है पर है मर्यादित । ४-मनपर्यवज्ञान-इस ज्ञान से दूसरे के मन की बात कह सकता है। [ ज्ञान दर्शन चरित्र का स्वरूप Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ७७०-८०० -www- -- - -------- ५-कैवल्य-ज्ञान यह सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मज्ञान है। इससे सकल लोकालोक के चराचार को एक समय मात्र में जान सकते हैं । इस ज्ञान से जीव की मोक्ष होजाती है फिर उस जीव को संसार में जन्म मरण नहीं करना पड़ता। दर्शन-जाने हुये भावों को यथार्थ सरद्धना अर्थात् श्रात्मा के प्रदेशों पर मिथ्यात्मा मोहनीय कर्म लगे हुये हैं जिसको समूल क्षय करने से क्षायक दर्शन और कुछ प्रकृतियों का क्षय और कुछ उपसम करना से क्षयोपसम दर्शन होता है । तथा शुद्ध देव गुरु धर्म को पहिचान कर उसकी आराधना करना और भी आत्मवाद, ईश्वरवाद, सृष्टिवाद, कर्मवाद और क्रियावाद इनको यथार्थ समझ कर उस पर श्रद्धा रखना ये व्यवहार दर्शन है एवं दर्शन की आगधना है। चारित्र-आरम्भ सारम्भ सर्व कनक कामिनी का सर्वथा त्याग कर पांच महाव्रत का पालन करना और अध्यात्म में रमणता करना चारित्र की आराधना है। स्याद्वाद इनसे भी गंभीर है। ___ महात्माजी ! दूसरा हमारा सिद्धान्त है अहिंसा परमोधर्मः और कहा है कि "एवं खु नाणीणो सारं जंन हिंसे ही किंचणं" "नाणम्स सारं वृति ।" ज्ञान का सार यही है कि किंचित मात्र हिंसा नहीं करना । इसलिये ही साधु जीवसहित कच्चा जल तथा अग्नि और वनस्पति का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हैं । प्रत्येक कार्य में अहिंसा को प्रधान स्थान दिया है । आत्म कल्याण का सर्वोत्कृष्ट यही मार्ग है। तापस थोड़ी देर विचार कर सोचने लगा कि मुनिजी का कहना तो सोलह आना सत्य है । भात्मा के कल्याण का रास्ता तो यही है । जव तक इस सड़क पर नहीं श्रावें तब तक कल्याण होना असंभव है। क्योंकि हम लोग साधु होते हुये भी अनेक प्रकार के प्रारम्भ सारम्भ करते हैं । कच्चे पानी में जीव होना तो अपने शास्त्र में भी लिखा है कि 'जले विष्णु थले विष्णु तथा कन्द मूल वनस्पति में भी बहुत जीव बतलाया है, जैसे : मूलकेन समंचान यस्तु भुडक्त नराधमः । तस्य शुद्धिर्न विद्यत चान्द्रायणश्तैरपि ॥ यस्मिन्गृहे स दानार्थ मूलकः पच्यते जनः । श्मशान तुल्यं तद्वेश्य पितृभिः परिवर्जितम् ।। पितृणां देवतानां च यः प्रयच्छति मूलकम् । स याति नरकं घोरं यावदाभूतसंप्लवम् ॥ अज्ञानेन कृतं देव ! भया मूलक भक्षणम् । तत्पापं यातु गोविंद! गोविन्द इति कीर्तनात् ।। हम स्नान करते हैं, कच्चा जल पीते हैं, अग्नि जलाते हैं, कन्द मूलादि वनस्पति का भक्षण करते हैं इत्यादि सम्पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर सकते हैं फिर भी साधु कहलाते हैं इत्यादि विशुद्ध विचार करने से तापस के चेहरे पर वैराग्य की कुछ मलक मलकने लगी जिसको देख कर मुनि ने कहा महात्माजी ! क्या विचार करते हो आत्म कल्याण के लिये मतबन्धन या वेश बन्धन का जरा भी ख्याल नहीं करना चाहिये पर जिस धर्म से आत्मकल्याण होता हो उसको स्वीकार कर उसकी हो आराधना करनी चाहिये कहा भी है कि:सुच्चा जणइ कल्लाणं सुच्चाजणइ पावयं । उभमंपि जाणई सोच ज सवं तं समायरे ॥१॥ इनके अलावा नीति कारों ने धर्म की परीक्षा के लिये भी कहा है। तापस की प्रज्ञा और स्वशास्त्र] Jain Education fogonal Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७० - ४०० वर्ष ] यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदन ताप ताडनैः । तथैव धर्मो विदुषा परिक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपो दयागुणैः ॥ पुनः महार्थियों ने कहा है कि [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कथमुत्पद्यते धर्मः कथं धर्मो विवर्द्धते । कथं च स्थाप्यते धर्मः कथं धर्मो विनश्यति ॥ १ ॥ 1 सत्येनोत्पद्यते धर्मोदयादानेन वर्द्धते । क्षमयाऽवस्थाप्यते धर्मः क्रोध लोभाद्विनश्यति ॥ इन सब बातों को आप सोच लीजिए फिर जिसमें आपको कल्याण मार्ग दीखता हो उसे ही स्वीकार कर लीजिये ? तापस ने कहा ठीक है मुनिजी ! अब आप कहाँ पधारेंगे ? मुनि - हमारे आचार्य महाराज जहाँ विराजते हैं हम वहाँ जायगे । तापस - क्या मैं भी आपके श्राचार्य के पास चल सकता हूँ । मुनि - अवश्य, आप बड़ी खुशी से चल सकते हैं। चलिये मेरे साथ । तापस अपने साथ १० तापसों जो उस समय उसके पास थे उनको लेकर मुनिजी के साथ चलकर सूरिजी महाराज के पास आया। सूरिजी महाराज ने तापस की भव्य आकृति देख कर उसका यथोचित सत्कार किया और मधुर बचनों से इस प्रकार समझाया कि वह वापिस अपने गुरु के पास भी नहीं जासका किन्तु सूरिजी महाराज के चरण कमलों भगवती जैनदीक्षा स्वीकार करने को तैयार होगया । सूरिजी ने उन १९ तापसों को दीक्षा देदी और मुख्य तापस का नाम मुनि शान्तिमूर्ति रख दिया। मुनि शांतिमूर्ति श्रादि ज्यों २ जैनधर्म की क्रिया और ज्ञान करने लगा श्यों २ उन सबको बड़ा भारी आनन्द आने लगा। मुनि शांतिमूर्ति पहिले ही लिखा पढ़ा था । फिर उसको पढ़ने में क्या देर लगती थी थोड़े ही समय में उसने जैनसाहित्य का अध्ययन कर लिया । मुनि शांतिमूर्ति जैसा लिखा पढ़ा विद्वान था वैसा ही वह वीर भी था उसने सम्यक् ज्ञान पाकर मिध्यान्धकारको समूल नष्ट करने का निश्चय कर लिया और इसके लिये भरसक प्रयत्न भी किया जिसमें आपश्री को सफलता भी काफी मिली। तत्पश्चात् सूरिजी महाराज अपने शिष्यों एवं शांतिमूर्ति के साथ विहार करते हुए पुनीत तीर्थ श्री सिद्धगिरिजी पधारे। वहां की यात्रा कर शांतिमूर्ति तो श्रानन्दमय हो गया । तदनन्तर सूरिजी महाराज अनेक प्रान्तों में विहार कर जैनधर्म के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया । सौराष्ट्र, लाट, कच्छ, सिन्ध, पंजाब तो आपके विहार के क्षेत्र ही | आपके पूर्वजों ने इन प्रान्तों में विहार कर महाजनसंघ उपकेशवंश की खूब वृद्धि की थी तो आप ही कब पीछे रहने वाले थे। आपने भी इन प्रान्तों में विहार कर कई मांस भक्षियों को सदुपदेश देकर जैनधर्म की राह पर लगाये। कई मुमुक्षुओं को दीक्षा देकर श्रमसंघ में वृद्धि की। कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर तथा कई ग्रंथों का निर्माण कर जैनधर्म को चिरस्थायी बनाया। कई बार तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकलवा कर भावुकों को यात्रा का लाभ दिया । कई वादियों के साथ राजसभाओं में शास्त्रार्थ कर जैनधर्म का भंडा फहराया इत्यादि आपने अपने दीर्घ समय अर्थात ३० वर्ष के शासन में जैनधर्म की कींमती सेवा बजाई जिसका पट्टावल्यादि प्रन्थों में बहुत विस्तार से वर्णन किया है पर प्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैंने यहां पर संक्षिप्त से नाम मात्र काही उल्लेख किया है कि श्राचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज एक महान युगप्रवर्तक आचार्य हुये हैं। आप अपनी अन्तिम स्था के समय मरुधर में विहार करते हुये माडव्यपुर पधारे और अन्तिम चतुर्मास भी वहीं ८०२ [ सूरिजी की शासन सेवाऐं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० शाह किया था वहां अपना आयुष्य नजदीक जानकर मुनि शांतिसागर को सूरिमंत्र की आराधना करवा कर देवी सहायिका की सम्मति से तथा श्रेष्ठि गोत्रीय शाह पारस के महामहोत्सवपूर्वक मुनि शांतिसागर को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया था। पश्चात श्राप आलोचना एवं सलेखना करते हुये १९ दिनों के अनशनत्रत पूर्वक समाधि के साथ नाशवान शरीर का त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। देवी सच्चायिका द्वारा श्रीसंघ को ज्ञात हुआ कि आप पांचवां स्वर्ग में पधारे और महाविदेह में एक भव कर मोक्ष पधारेंगे । ऐसे जैनधर्म का उद्योत करने वाले सूरिजी के चरण कमलों में कोटि कोटि बन्दन हो। प्राचार्यदेव के शासन में मुमुक्षुओं की दीक्षा १-वीरपुर के श्रेष्टिगौ. शाहा ___राजडा ने सूरि० दीक्षाः । २-उज्जैन के भूरिगी. " काना ने ३-दसपुर के भाद्रगौ० , शाखला ने ४-चंदेरी के मल्लगी सुरजण ने ५---विराटपुर के चरडगौर राणा ने ६-हमीरपुर के ब्राह्मण शंकगदि ने ७- माधुपुर के राववीर गोकल ने ८-वीरमपुर के आदित्य रावल ने ९-पुलाइ के कुमटगौ० मुजल ने १०-फेफावती के करणाटगौ० , भारत ने ११-चेनपुरा के बलाहगी० , धन्ना ने १२-वल्लभी के प्राग्वटवंशी १३-भवानीपुर के श्रीमालवंशी , कल्हण ने १४-चन्द्रावती के तप्तभट्टगौर १५- कोरंटपुर के बाप्पनागगौ० , सारंग ने १६-पाल्हिाका के श्रेष्टिगौर भालु ने १७-बोनापुर के सुचंतिगौ० , समरा ने १८-भोजपुर के करणाटगौ० समरथ ने १९-कुंतिनगरीके वीरहटगी। मेघा ने २०-हापड़ के कुलभद्रगौ० , देवा ने २१-हुनपुर के शंक्खगौ० , दसरथ ने २२ --हर्षपुर के नागवंशी २३-आनंदपुर के श्रेष्टिगौ० , जतल ने २४-आसावरी के सुंचंतीगौ० , गोगलाने २५-डाकीपुर के प्राग्वटवंशी , लछमणने सरिजी के शासन में भावुकों की दीक्षा ) कुंभा ने संगण ने फुधा ने " Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 2017" २६-नालपुर के प्राग्वटवंशी , भुतडा ने , २७-चुंदडी के चिंचटगौ० , झूजार ने , पाठक सोच सकते हैं कि वह जमाना कैसा लघुकर्मियों का था कि थोड़ा सा उपदेश लगता कि चट से दीक्षा लेने को तैयार हो जाते थे । और इस प्रकार दीक्षा लेने से ही साधुओं की बहुल्यता थी प्रत्येक प्रान्त में साधुओं का विहार होता था। और करोड़ों की संख्या वाले समुदाय में इस प्रकार दीक्षा का होना कोई आश्चर्य की बात भी नहीं थी। । आचार्यश्री के शासन में तीर्थों के संघादि सद्कार्य १-जाबलीपुर से बाप्पनाग गौत्रीय शाह पुनड़ ने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला २-फलवृद्धि से भूरिंगौ० , सरवाण ने , . ३-ईडर नगर से वीरहटगी. सांगण ने ४-नारणपुर से श्रेष्टिगौ० हडमल ने ५-नागपुर से अदित्य० गौ० , आशा ने ६-मंगलपुर से श्रेष्टिगौ० मुकुन्द ने ७-रत्नपुर से कुलभद्रगौ० पुनड़ ८-गुड़नगर से राववीर " चुड़ा ने ९-देवपट्टन से मल्लगी० , केसा ने १४-डीसांणी से चरडगौ. भीखा ११-दशपुर से श्रेष्टिगौ० १२-चंदेरी से सुघड़गौ० भैसा ने १३-पोतनपुर से डिडुगौ० मलुक ने १४-रानीपुर से करणाट. मेकरण ने , १५-रातदुर्ग से तप्तभट्ट. सुंमण ने , १६-लोद्रवापट्टन से बापनाग० लाला ने , १७-शाकम्भरी से सुचंति नाथु ने , १८--मुग्धपुर का श्रीमालवंशी गंगा युद्ध में काम आये, उसकी स्त्री सती हुई, ५९-भवानीपुर का प्राग्वटवंशी पाल्हा , २०-अगला का कनोजिया. , ठाकुरसी , २१-दन्तिपुर का ठिडुगौ० " धींगो , २२-षटॉप का बाप्प नाग० , पासड़ , २३-लाइपुरा का श्रेष्टिगौ० सीर्थों के संघ निकाल कर यात्रा करना और भावुकों को यात्रा करवाना यह साधारण कार्य नहीं पर पुनानुषन्धी पुन्य एवं तीर्थंकर नाम कोपार्जन का मुख्य कारण है यही कारण था कि उस जमाना में सूरीश्वरजी के शासन में संघादि सद्कार्य डुगर ने साम्रदेव Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० कम से कम एक बार संघ को अपने घर पर बुलाकर उनका सत्कार करना प्रत्येक व्यक्ति अपना खास कर्तव्य ही समझते थे और अपने पास साधन होने पर हरेक महानुभाव संघ निकालकर तीर्थयात्रा करते करवाते थे | यहां पर तो थोड़े से नाम लिखे हैं कि उन महानुभावों का अनुमोदन करने से ही कमों की निर्जरा होगी। साथ में थोड़े से जैनवीरो और वीरांगणाओं के भी नाम लिख दिये हैं कि जैन क्षत्री अपनी वीरता से देश समाज एवं धर्म की किस प्रकार रक्षा करते थे: www.www.s १- आसलपुर के मल्लगौ० २ - श्राभापुरी के श्रेष्टिगौ० ३ - घंघाणी के सुघड़गौ० के वाप्पनागगौ० ४ - जैनपुर ५- आमेर चार्यदेव के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ शाह पादा ने भोजदेव ने के लघुश्रेष्टिगो० ६ - मथुरा के चरड़गौ० ७ – चित्रकोट के श्रदित्यनाग० ८- मधिमा के सुचंतिगौ० ९ – ऊकारपुर के कुलभद्रगौ ० १० - पोतनपुर के चिंचटगौ० ११ - देवपट्टन १५ - मुलेट १६ - रोहडा के १२—दसपुर १३- चंदेरी के १४- गुडोली के के १७ - कुकुमपुर के १८- काच्छली के १९ - जैनपुर के २० - जैतलकोटके मोरक्षगौ० श्रेष्टिगौ० के लघुश्रेष्टिगो० के २४ - मारोट कोटके २५ - पादलिप्सपुर के २६ – भिन्नमाल के डिडुगौ ० करणाटगौ० डिडुगौ भाद्रगौ० २१ - कीराटकुंप के प्राग्वटवंशी २२- नंदकुल पट्टन के प्राग्वटवंशी २३ - वीरपल्ली के श्रीश्रीमाल श्रीमालवंशी प्राग्वटवंशी बलाह गौ ० भूरिगौ० सुवर्णकार ब्राह्मण सूरिजी के शासन में प्रतिष्ठाएँ ] 15 नागदेव ने नारायण ने इन्दा ने " अनड़ ने लाड़ा ने लुगा ने गंगदेव ने 57 35 15 35 "" 59 19 " " 17 " "; 19 27 33 "" " 37 "3 " 33 " "" लाखण ने विजल ने लोला ने निंबा ने पर्वत ने हाप्पा ने मांझण ने रोडा ने ने कल्हण खेता ने देदा ने कानड़ने खीवसी ने कचरा ने गधा ने करमण ने सलखण ने भ० महावीर के म० त्र० 19 " पार्श्व ० 35 33 सीमंधर० आदीश्वर पार्श्व ० महावीर "} 19 " शान्ति "" विमल ० महावीर 33 " 39 पार्श्व "" पद्यप्रभु शान्ति० ر महावीर " 17 31 39 11 "" ") 39 " 31 93 99 39 "2 32 " 53 " " ⠀⠀⠀RR 23 ८०५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २७-हटोड़ी के श्रेष्टिगौ० , वीरदेव ने २८-कुंतिनगरीके प्राग्वटवंशी , बोहरा ने श्रहा-हा ! उस जमाना में जैन श्रीसंघ की मन्दिर मूर्तियों पर कैसी श्रद्धा थी कि प्रत्येक जैन के घर में घर देरासर तो थे ही पर वे नगर मन्दिर बनाकर अपनी लक्ष्मी का किस प्रकार सद् उपयोग करते थे ? यही कारण था कि तक्षशिला में ५०० मन्दिर थे । कुन्तीनगरी में ३०० चन्द्रावती में ३०० मथुरा में ३०० मन्दिर ७.० स्तूम्भः शौयपुर, राजगृह, चम्पा, उपकेशपुर नागपुर सिन्नमाल पद्मावती हंसावली पादलिप्तपुर वगैरह बड़े-बड़े नगरों में सेकड़ों मन्दिर थे इतने ही प्रमाण में मन्दिरों के सेवा पूजा करने वाले जैन श्रावक बसते थे इतना ही क्यों पर जैनवसति वाला छोटा से छोटा ग्राम में भी जैन मन्दिर अवश्य होता था-और जैन मन्दिर होने से गृहस्थों के पुन्य बढ़ता था कारणमन्दिर के निमित कारण से गृहस्थों के घर से शुभ भावना से कुछ न कुछ द्रव्य शुभक्षेत्र में लगही जाता था यही कारण था कि वे लोग धन धान पुत्र कलित्र और इज्जत, मान प्रतिष्टा से सदैव समृद्धशाजी रहते थे । कहा भी है कि कुओं में पुष्कल पानी होता है तव गृहस्थों के घरों में भी खुव गहेरा पानी रहता है इसी प्रकार जिनके पूज्य ईष्टदेव के मन्दिर में खूब रंगराग महोत्सव रहता है तब उनके भक्तों के घरोंमें भी अच्छी तरह से रंगराग हर्ष मानन्द मंगल और महोत्सव बना ही रहता है। जब हम पट्टावलियों वंशावलियो वगैरह प्रन्थ देखते है तो इस बात का पत्ता सहज ही में मिल जाता है कि उस जमाना के जैन जोग सब तरह से सुखी थे। एकेक धार्मिक कार्यों में लाखों रुपये लगादेना तो उनके लिये साधारण कार्य ही था यह सब मन्दिरों की भक्ति का ही सुन्दर एवं मधुर फल थातीसवे पट्टधर सिद्धसूरीश्वर, तपकर सिद्धि पाई थीं । नत मस्तक बन गये वादीगण, विजय मेरी बजाई थी। किये ग्रन्थ निर्माण अपूर्व, प्रतिष्ठायें खूब कराई थी। ___अमृत पी कर जिन वाणी का कई एक दीक्षा पाई थी॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथ के ३० वें पट्ट पर प्राचार्य सिद्धसूरीश्वर महान प्रभाविक आचार्य हुये ॥ Jain Edig e rational For Private & Personal use only [बड़े बड़े नगरों में जैनमन्दिर .. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धहरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ७७०-८०० बल्लभी नगरी का भंग और रांका जाति की उत्पत्ति वल्लभी नगरी सौराष्ट्रप्रान्त की प्राचीन राजधानी थी । वल्लभी नगरी के साथ जैनियों का घनिष्ट सम्बन्ध था, पुनीत तीर्थ श्री शQजय की तहलेटी का स्थान वल्लभी नगरी ही था जैनाचार्यों के चरण कमलों से वल्लभी अनेकवार पवित्र बन चुकी थी एक समय वल्लभी के राजा प्रजा जैन धर्म के उपासक एवं अनुरागी थे । उपकेशगच्छीय प्राचार्यों का आना जाना एवं चतुर्मास विशेष होते थे, आचार्य सिद्धसूरि ने वल्लभी नगरी के राजा शिलादित्य को उपदेश देकर शत्रुजय का परम भक्त बनाया था और उसने शत्रुञ्जय का उद्धार भी करवाया था तथा पर्युषणादि पर्व दिनों में राजा सकुटुम्ब शत्रुञ्जय पर जाकर अष्टान्हिका महोत्सवादि धर्म कृत्यकर अपना कल्याण साधन किया करता था इत्यादि । यही कारण है कि जनप्रन्थकारों ने वल्लभी नगरी के लिये बहुत कुछ लिखा है । वल्लभी का इतिहास पढ़ने से पाया जाता है कि भारतीय व्यापारिक केन्द्रों में वल्लभी भी एक है वहाँ पर बड़े बड़े व्यापारी लोग थोकबन्द व्यापार करते थे। यहाँ का जत्था वन्द माल पाश्चात्य प्रदेशों में जाता था वहाँ का माल यहाँ आया करता था जिसमें वे लोग पुष्कल द्रव्य पैदास करते थे उन व्यापारियों में विशेष लोग महाजन संघ के ही थे। कई विदेशी लोग यात्रार्थ भारत में श्राते थे और भारतीय कला कौशल व्यापार वगैरह भारतीय सभ्यता देख देख कर अपने देशों में भी उनका प्रचार किया करते थे उनके यात्रा विवरण की पुस्तकों से पाया जाता है कि उस समय वल्लभी नगरी धन धान्य से अच्छी समृद्धशाली नगरी थी। विक्रम संवत पूर्व कई शताब्दियों से विदेशियों के भारत पर आक्रमण हुआ करते थे और कभी कभी तो धनमाल लूटने के साथ कई नगरों को ध्वंश भी कर डालते थे। इस प्रकार के आक्रमणों से वल्लभी नगरी भी नहीं वच सकी थी इस नगरी को भी विदेशियों ने कई वार नुकशान पहुँचाया था जिसके लिये इतिहासकारों ने वल्लभी का भंग नाम से कई लेख लिखे हैं और उनका समय अलग अलग होने से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वल्लभी पर एक वार ही नहीं पर कई वार आक्रमण हुभा होगा। इतना ही क्यों पर कई उदाहरण तो ऐले ही मिलते हैं कि भारत में आपसी विद्रोह एवं सत्ता का अन्याय के कारण भारतीयों ने अपने ही देश पर आमन्त्रण करवाने को विदेशियों को लाये थे जैसे उज्जैन के गर्द भिल्ल का अत्याचार के कारण काल काचार्य ने शकों को लाये थे । तथा कई देवादि के कोप से भी पट्टन दटन होगये थे कई आपसी झगड़ों से और कई दुकालादि के कारण भी नगर विध्वंश होगये थे जिन्होंके स्मृति चिन्ह आज भी भूगर्भ से उपलब्ध हो रहे हैं जैसे हराप्पा मोहनजाडेग और नालंदादि के खोद काम से नगर के नगर भूमिसे निकले हैं । अतः आज मैं वल्लभीभंग के विषय में यहाँ पर कुच्छ लिलूँगा । जो जैन इतिहासकारों ने अपने प्रन्थों में लिखा हैं। ___ यह तो मैं ऊपर लिख आया हूँ कि वल्लभी का भंग एक बार नहीं पर कई वार हुआ है कई विक्रम की चतुर्थ शताब्दी तो कई छटी शताब्दी एवं कई आठवी शताब्दी में वल्लभी का भंग हुआ लिखते हैं जैसे उपकेशगच्छ पट्टावली में लिखा है कि वल्लभी का भंग वि० सं०३७५ में हुआ था और यही बात भाचार्य मेरुतुंग ने अपनी प्रबन्ध चिंतामणि एवं विचार श्रेणी में लिखी हैं । जैसे किवल्लभी नगरी के साथ जैनों का सम्बन्ध ] ८०७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० ३७०-४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास "पण सयरी वासाई तिन्निसया समन्नियाई अक्कमिउं । विक्कम कालाउतओ वल्लभी भंगो सम्प्पन्नौ || " इसी प्रकार आचार्य धन्नेश्वरसूरि ने शत्रुञ्जय महात्म में भी वि० सं० ३७५ में वल्लभी का भंग हुआ लिखा है तथा भारत भ्रमन करने वाला डाँ० टाँड सावने राजपूताने का इतिहास नामक पुस्तक में लिखा है कि बल्लभी सं० २०५ ( वि० सं० ५८० ) में बल्लभी का भंग हुआ तब कई लोगों का अनुमान है कि वल्लभी का भंग विक्रम की आठवीं शताब्दी में हुआ होगा । उपरोक्त मान्यता का समय अलग अलग होने पर भी बल्लभी के भंग के समय वहाँ का राजा शिलादिल्य का शासन होना सब लेखक मानते हैं इसका कारण यह है कि वल्लभी के शासनकर्त्ताओं में शिलादित्य नाम के बहुत से राजा हो गये हैं अतः उपरोक्त संवत् में शिलादित्य राजा माना गया हो तो कोई विरोध की बात नहीं है । जैनमन्कारों के लेखानुसार यदि वल्लभी भंग का समय वि० सं० ३७५ का माना जाय तो इस समय के पश्चात् भी वल्लभी में अनेक घटनाएं घटी के उल्लेख मिलते हैं जैसे आचार्य जिनानन्द का वल्लभी में ठहरना दुर्लभादेवी और उनके जिनयश, यक्ष, और मल्ल एवं तीन पुत्रों को दीक्षा देना । श्राचार्य मल्लवादी ने वोधों को पराजय करना तथा श्रीदेवऋद्धिगणि क्षमाश्रमण ने वल्लभी में जैनागमों को पुस्तकारूढ़ करना और उनके गच्छाचार्यों का वल्लभी में वारम्वार जाना आना एवं चतुर्मास करना और अनेक भावुकों को दीक्षा देना इत्यादि वल्लभी के श्रास्तित्व के प्रमाण मिलते हैं अतः इस समय के बाद वल्लभी का भंग हुआ मानना चाहिये ? उपरोक्त सवाल वि० सं० ३७५ में वल्लभी का भंग मानने में कुच्छ भी वाधा नहीं कर सकता हैं कारण वल्लभी का भंग होने से यह तो कदापि नहीं समझा जा सकता है कि वल्लभी के मकानादि तमाम इमारतें ही नष्ट हो गई थी भंग का मतलब तो इतना है कि म्लेच्छ लोगों ने वल्लभी पर आक्रमण कर वहां का धन माल लूटा एवं वहाँ का राजा भाग गया | वाद फिर से वल्लभी को श्रावाद करदी और वह आज भी विद्यमान है जो 'वला' के नाम से प्रसिद्ध है । जैसे उज्जैन तक्षशिला को विदेशियों ने उच्छेदकर दिया था और वे पुनः आवाद हुए इसी प्रकार वल्लभो का भंग होने के बाद पुनः वहाँ पर जैनों का आगमन एवं जैनागम पुस्तकारूढ़ हुआ हो वह सर्वथ संभव हो सकता है अतः ऊपर दिये हुए जैन प्रन्थकारों के प्रमाण से वल्लभी नगरी का सबसे पहिला भंग वि० सं० ३७५ में होना युक्तियुक्त ही समझना चाहिये । वल्लभी नगरी का भंग किस कारण से हुआ जिसके लिये यों तो प्रवन्ध चिन्तामणि एवं शत्रुञ्जय महात्म में संक्षिप्त से लिखा है पर उपकेशगच्छ पट्टावली में इस घटना को कुछ विस्तार से लिखी है अतः पाठकों की जानकारी के लिये उस घटना को यहाँ ज्यों की त्यों उद्धृत करदी जाती है । पाल्हिका नगरी (पाली) में उपकेशवंशीय बलाह गौत्र के काकु और पातक नामके दो सहोदर बसते थे। साधारण स्थिति के गृहस्थ होने पर भी बड़े ही धर्मीज्ञ थे एक समय उसी पाल्हिका नगरी से बाप्पनाग गौत्रीय शाह लुगा ने श्री शत्रु जयतीर्थ की यात्रार्थ विराट्रसंघ निकाला जिसमें काकु और पलक सकुटम्ब यात्रा करने के लिये उस संघ में शामिल हो गये जब संघ यात्रा कर वापिस लौट रहा था तो वल्लभी नगरी के कई उपकेशवंशी लोगों ने काकु पातक को धर्मीष्ट जानकर वहाँ रखलिये । और आर्थिक सहायता ८०८ [ वल्लभी नगरी का भंग को मुख्य कारण ww.jainelibrary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० . . ............. दी कि जिससे वे दोनों भाई वल्लभी में रहकर व्यापार करने लगगये उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा करली थी कि प्रत्येक मास की पूर्णिमा के दिन तीर्थ श्री शत्रुजय की यात्रा करनी और उस प्रतिज्ञा को अखण्ड रुपसे पालन भी किया करते थे । इस प्रकार धर्म क्रिया करने से उनके श्राशुभ एवं अन्तराय कर्म का क्षय होकर शुभकर्मों का उदय होने लगा । कहाँ है कि नर का नसिव किसने देखा हैं । एक ही भवमें मनुष्य अनेक अवस्थाओं को देख लेता है । काकुऔर पातक पर लक्ष्मी देवी की सैने सैने कृपा होरही थी कि वे खूब धनाढ्य बनगये उन्होंने अपनी पूर्व स्थिति को याद कर न्यायोपार्जित द्रव्य से वल्लभी में एक पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया और भी कई शुभकार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग किया फिर भी लक्ष्मी तो बढ़ती ही गई काकुपातक के जैसे लक्ष्मी वढ़ती थी वैसे परिवार भी बढ़ता गया। काकु के पुत्रों में एकमल्ल नाम का पुत्र था तथा मल्ल के पुत्र थोभण और थोभण के रांका और वांका नाम के पुत्र हुए परम्परा से चली आई लक्ष्मी रांका वांका से रूष्ठमान हो उनसे किनारा कर लिया अतः गंका बांका फिर से साधारण स्थितिमे श्रा पहुँचे शायद लक्ष्मी ने उनकी परीक्षा करने को ही कुच्छ दिनों के लिये मुशाफरी करने को चली गई होगी। पर रांका वांकाने इस ओर इतना लक्ष नहीं दिया एक योगीश्वर यात्रार्थ भ्रमन करता हुआ वल्लभी में आ पहुँचा उसके पास एक सुवर्ण सिद्धिरस की तुंबी थी उनकी रक्षण करने में वह कुच्छ दुःखी होगया, ठीक है योगियों के और इस झंजाल के आपस में धन नहीं सकता है फिर भी उसकी सर्वथा ममत्व नहीं छुट सकी अतः वह चाहता था कि मैं इस तुंबी को कही इनामत रख जाउ कि वापिस लौटने के समय ले जाऊगा, भाग्यवसात् रांकां से उसकी भेट हुई और तुंबी उसको इस शर्त पर देदी कि मैं वापिस श्राता ले जाउगा । रांकाने उस तुंबी को लेजाकर अपने रसोई बनाने का पास से छाया हुआ मकान की छातमें एक वांस से बान्ध कर लटकादी योगीश्वर तो चला गया वाद किसी कारण उस तुंबी से एक बुन्द रसोई के तपा हुआ तवा पर गिर गई जिससे वह लोहा का तवा सुवर्ण बनगया। रांका गया था शत्रुजय यात्रा के लिये । वांका था घर पर उसने लोहा का तवा को सुवर्ण का हुआ देख उस तुबी को हजम करने का उपाय सोचकर अपने मकान को आग लगादी और रूदन करने लग गया अज्ञात लोगों ने उसको असास्वन दिया और वांकाने दूसरा घर बनाकर उसमें निवास कर दिया और लोहाका सुवर्ण बनाना शुरु कर दिया जब रांका घर पर आया और वांका की सब हकीकत सुनी तो उसने बहा भारी पश्चाताप कर वांका को बड़ा भारी उपालम्ब दिया कि ऐसा जघन्यकार्य करना तुमको योग्य नही था अब भी इस तुंबी को इनामत रख दो जब योगीश्वर श्रावे तो उसको संभला देना पर न आया योगीश्वर न संभला तुंबी क्योकि तुंवी तो रांका वका के तकदीर में ही लिखी हुई थी वस उस नुंबी से रांका वांकाने पुष्कल सुवर्ण बनाकर वे बड़े भारी धनकुबेर ही बनगये। न जाने इनयुगल भ्राताओं ने किस भाव में ऐसे शुभ कर्मीपार्जन किया होंगे । कि उस जमा वंदी को इस भाव में इस प्रकार वसुल किया। अस्तु । शाहरांका के एक चंपा नामकी पुत्री थी रांकाने उसके वाल समारने के लिये किसी विदेशी से रन जड़िता वहुमूल्य कांगसी खरीद कर चंपा को देदी वह कांगसी क्या भी उक अपूर्व जैवरात का पूंजथा जिसकों भरतकी एक भादर्श सभ्यता एवंशिल्य कही जा सकती है चंपाके वह कांगसी एक दूसरा प्राण ही बनाई थी। एक समय राजा शिलादित्य की कन्या रत्न(वरी अपनी साथणियों को लेकर वगेचा में खेलने के लिये एवं स्नान मजन करने को गई थी चम्पा भी वहाँ आगई जब वे खेल कुद के स्नान किया तो सवने अपने शाह रांका और वल्लभी का भंग ] Jain Education Integral Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बाल समारे इस हालत चम्पा ने भी अपनी कांगसी से पाल समारने लगी और राजकन्याने चमकती हुई कांगसी चम्पा का हाथ में देखी तो उसका मन ललचा गया उसने चम्पा के हाथ से कांगसी लेकर सब सहिलियों को देखाई तो सबने मुक्तकण्ड से चम्पा की प्रशंसाकी जिसको राज कन्या सहन नही करसकी और चम्पा को कहा चम्पा । यह कांगसी मुझे देदे ? चंपा ने कहा बाईजी मेरे यह एकही कांगसी है अतः इसको तो मैं दे नही सकती हु यदि आप फरमावे तो मेरे पिता से कह कर आपके लिये भी एक कांगसी मंगा दूंगी। राजकन्या ने कहा कि चंपा यह तेरी कांगसी तो मुझे देदे तु दूसरी मंगा लेना जिसका खर्चा लगेगा वह मैं दीला दूंगी परन्तु चप्पा भी तो महाजन की लड़की थी वह अपनी कांगसी कब देने वाली थी ।राजकन्या के हाथ से कांगसी खीच ली और वह वहाँ से भाग कर अपने मकान पर आगई इससे राजकन्या को बडा भारी गुस्सा आया कुच्छ भी हो पर वह थी राज की कन्या। अपने महल में आकर अपनी माता को कहा कि चंपा के पास क गसी है वह मुझे दीलादे वरन मैं अन्न जल नहीं लुंगी । बालकों का यही तो हाल होता है जिसमें भी बाल हट, स्त्री हट, और राजहट एवंतीन हट एक स्थान मिल गया। रानीने कन्या को बहुत समझाया पर उसने एक भी नहीं सुनी इस हालत में रानी राजा को कहा और राजा ने रांका को बुला कर कहाँ कि तुमारी पुत्री के पास कांगसी है वह ला दो और उसका मूल्य हो वह ले जाओं। रांकाने सोचा कि 'समुद्र में रहना और मगरमच्छसे वैर करना ठीक नहीं है वह चल कर चंपा के पास आया और उससे कांगसी मांगी परंतु एक तो चंपा को कांगसी प्यारी थी दूसरा था बालभाव जो राजकन्या के साथ हटकर के आई थी तीसरा उस कांगसी के कारण भविष्य में एक बड़ा भारी अनर्थ होने वाला भी था इस भविव्यता को कौन मिटा सकता था, चम्पा ने हठ पकड़ लिया कि मैं मर जाऊं पर कांगसी नहीं दूंगी । लाचार होकर रांका राजा के पास जाकर कहा हजूर मैं कासीद को भेजकर आपको कांगसी शीघ्र ही मंगा दूंगा। राजा ने कहा रांका कांगसी की कोई बात नहीं है पर मेरी कन्या ने हट पकड़ रखा है अतः तू कांगसी जल्दी से ला दे। रांका ने कहा गरीपरवर ! यही हाल मेरा हो रहा है चम्पा कहती है कि मैं मरजाऊ पर कांगसी नहीं दू अब भापही बतलाइये कि इसके लिये मैं क्या करू । राजा ने कहा तुम कुछ भी करो कांगसी तुझको देनी पड़ेगी। रांका ने कहा ठीक है मैं फिर जाता हूँ। बस रांका ने अपनी पुत्री को खूब कहा पर चम्पा टस की मस तक भी नहीं हुई। रांका अपनी दुकान पर चला गया । राजकन्या ने शाम तक अन्न जल नहीं लिया अतः राजा ने अपने आदमियों को रांका के वहां भेजा और कहा कि ठीक तरह से दे तो कांगसी ले आना वरन बल जबरी से कांगसी ले आना। राजा के आदमी आकर रांका को बहुत कहा जवाब में रांका ने कहा कि जैसे राजा को अपनी पुत्री प्यारी है वैसे मुझे भी मेरी पुत्री प्यारी है यदि राजा इस प्रकार का अन्याय करेगा तो इसका नतीजा अच्छा नहीं होगा ? आखिर राजा के आदमियों ने चम्पा से जबरन कांगसी छीन कर ले गये । चम्पा खूब जोर २ से रोई पर सता के सामने उसका क्या चलने का था चम्पा का दुःख रांका से देखा नहीं गया वह था अपार लक्ष्मी का धनी। उसने चम्पा को धैर्य दिला कर अपने घर से निकल गया और म्लेच्छों के देश में जाकर उनको एक करोड़ सोनइये देने की शर्त पर वल्लभी का भंगा करवाने का निश्चय किया पर शाह रांका ने कहा कि दूसरा सब धन माल आपका है पर एक मेरी कांगसी मुझे देनी होगी म्लेच्छों ने स्वीकार कर लिया और वे असंख्य सेना लेकर वहां से रवाना हो गये क्रमशः वल्लभी पर धावा बोल दिया उन्होंने वल्लभी को खूष लूटा तथा राजमहलों में जाकर राजकन्या से कांगसी छीन कर शाह रांका को दे दी भौर रांका ने उस कांगसी को 19. [शाह रांका की पुत्री चम्पा की कांगसी Jain Education international For Private & Personal use only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७७०-८०० लेकर चम्पा को दे दी जब जाकर चम्पा को संतोष भाया । इस प्रकार एक मामूली बात पर नगर एवं नागरिकों को बड़ा भारी नुकसान उठाना पड़ा आर विदेशियों को सहज ही में मौका हाथ लग गया पर भवितव्यता को कौन मिटा सकता है इस प्रकार स्वर्ग सदृश वल्लभीपुरी का भंग हुआ-इस घटना का समय वि० सं० ३७५ का है जो उपरोक्त प्रमाणों से साबित होता है उस दिन से शाह रांका की संतान रांका, और वांका की संतान बांका कहलाई । एवं ये दोनों जातियां आज विद्यमान हैं जो उपकेशपुर में आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा स्थापित महाजन संघ के अठारह गोत्रों में चतुर्थ बलाहा गोत्र की शाखा रूप है उस गंका जाति के संतान परम्परा में एक धवल शाह नामक प्रसिद्ध पुरुष हुआ था वि० सं०८०२ में आचार्य शीलगुणसूरि की सहायता से वनराज चावडा ने गुजरात में अणहिल्लपट्टन बसाई थी उस समय वल्लभी से शाह धवल को सन्मानपूर्वक बुला कर पाटण का नगर सेठ बनाया था उस दिन से शाह धवल की संतान सेठ नाम से मशहूर हुए जो अद्यावधि विद्यमान हैं जैतारन पीपाड़ वगैरह में जो रांका हैं वे सेठ नाम से बतलाये जाते हैं अर्थात बलाह गोत्र राका शाखा और सेठ विरूद से सर्वत्र प्रख्यात है इन गौत्र जाति और विरूद के दान वीर नररत्नों ने जैनधर्म एवं जनोपयोगी कई चोखे और अनोखे कार्य करके अपनी उज्वल कीर्ति एवं अमरयश को इतिहास के पृष्ठों पर सुवर्ण के अक्षरों से अंकित करवा दिये थे जिसके कई उदाहरण तो हम पूर्व के प्रकरणों में लिख आये हैं और शेष आगे के प्रकरणों में लिखेंगे । पर दुःख है कि कई लोग इतिहास के अनभिज्ञ और गच्छ कदागृह के कारण इस प्रकार प्राचीन इतिहास का खून कर प्राचीन जातियों कोन्यूतन बतला कर इन जातियो के पूर्वजों के सेकड़ों वर्षों के किये हुए देश समाज एवं धार्मिक कार्यों के गौरव को मिट्टी में मिलाने की कोशिश करते हैं इतना ही क्यों पर कई इस जाति के अनभिज्ञ लोग अपनी जाति की उत्पत्ति न जानने के कारण वे स्वयं अपने को अर्वाचीन मान लेते हैं पर वे विचारे क्या करें उनके संस्कार ही ऐसे जम गये कि स्पष्ट इतिहास मिलने पर भी उन मिथ्या संस्कारों को हटाने में वे इतने निर्बल एवं कमजोर हैं कि उनके पूर्वजों को मांस मदिरा एवं व्यभिचार जैसे दुर्व्यसन छुड़ाने वाले परमोपकारी महात्माओं का नाम लेते भी शरमाते हैं इतना ही क्यों पर कई तो इतने अज्ञानी हैं कि उस उपकार का बदला अपकार से देते हैं उन पर दया भाव लाने के प्रावा हम और क्या कह सकते हैं यही कारण है कि आज उन्हों की यह दशा हो रही है कि जो कृतघ्नी लोगों की होती या होनी चाहिये प्यारे ! बलाहगोत्री रांका जाति एवं सेठ विरूद वाले भाइयो अब भी आपके लिये समय है कि आप अपने प्राचीन इतिहास को पढ़कर उन महान् उपकारी पूज्याचार्यदेव का उपकार को याद करो और उन्होंने जो आपके पूर्वजों को शुरू से गस्ता बतलाया था उस पर श्रद्धा विश्वास रख कर चलो चल ओ कि फिर आपके लिये वे दिन आवें कि आप सब प्रकार से सुख शांति में आत्म कल्याण कर सदैव के लिये सुखी बनो इत्यादि। rean-warn बलाह गौत्र रांका शाखा सेठ विरूद ] ८११ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४०० - ४२४ वर्ष ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३१ - श्राचार्य श्रीरतप्रभसूरि (पष्टम् ) तातेडान्चय रत्नतुल्य महितः सूरिस्तु रत्नप्रभः । यस्य सच्चरितं विभाव्यममलं यल्लोकिकं पूजितम् ॥ ज्ञातो यः परमः सुदर्शन गणे रत्नप्रभाख्यान च । षष्ठे नैव समः स वादिजयने गोत्रा तलैऽभून् महान् । eGyan ग्रा चार्य रत्नप्रभसुरिश्वरजी महाराज एक अद्वितीय प्रतिभाशाली धर्म प्रचारक आचार्य प षष्टम रत्नप्रभसूरि षट्दर्शक के परम ज्ञाता थे जैसे चक्रवर्ति छः खण्ड में बैरी एवं वादियों का अन्त कर एक छत्र से अपना राज स्थापन करते हैं ! इसी प्रकार षष्टम रत्नप्रभसूरि वादियों को नत मस्तक कर सर्वत्र अपना शासन स्थापित किया था इतना ही क्यों पर आपका नाम सुनने मात्र से ही वादी दूर दूर भाग छुट यही आपकी विजय थी आपभी ने अपने शासनकाल में जैन धर्म की खूब प्रभावना और उन्नति की थी आपका जीवन परम रहस्यमय था पट्टावल्यादि ग्रन्थों में खूब विस्तार से वर्णन किया है । परन्तु में यहां संक्षिप रूप से पाठकों के सामने रख देता हूँ । घर प्रान्त में शंखपुर नाम का एक नगर था जो राजा उत्पलदेव की संतान में राव शक्ख ने आबाद किया था और वहां पर उस समय राव कानड़देव राज करता था और वह परम्परा से जैन धर्म का परम उपासक था । उसी शंखपुर में यों तो उपकेश वंशीयों बड़े बड़े व्यापारी एवं धनाढ्य लोग वसते हैं । पर उसमें तप्तभट्ट गोत्री शाह धन्ना नाम का साहूकार भी एक था और उनके गृह शृङ्गार धर्म परायणा फेंफों नाम की स्त्री थी शाह धन्ना जैसा धनाढ्य था वैसा वहु कुटम्बी भी था शाह धन्ना के १३ पुत्र जिसमें एक भीमदेव नाम का पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली एवं होनहार था । बच्चापन से ही वह अपने मात पिता के साथ मन्दिर उपासरे जाया करता था और साधु मुनियों की सेवा उपासना कर प्रतिक्रमण जीवचारादि atara और कर्म सिद्धान्त का ज्ञान भी कर लिया था । संसार की असारता पर भी आप कभी कभी विचार किया करता था और जन्म मरण के दुखों का अनुभव करने से कभी कभी आपको वैराग्य का समागम भी होता था । एक समय आप अपने साथियों के साथ जंगल में जा रहे इक्षु रस की चरखियां चारों श्रर चल रही थी खेत वाले किसान लोगों ने उन सब को श्रामन्त्रण किया वोहराजी पधारिये यह इक्षु रस तैयार है कुँवर भीमदेव अपने साथियों के साथ इक्षु रस का पान किया । थे ८१२ शाम की टाइम होगई वे जंगल से घूम कर वापिस नगर में आ रहे थे कुछ अंधेरा पड़ रहा था भागवशात् रास्ते में एक दीर्घ काय काला सर्प पड़ा था परन्तु वे सब लोग अपनी अपनी बातों में मग्न कि किसी को भी सर्प नजर नहीं श्राया और एक दम सर्प पर किसी का पैर पड़ गया पर सर्प ने किसी को काटा नहीं सब लोग भय भ्रांत हो हो-हा करने लगे । भीमदेव ने सोचा कि यदि यह सर्प किसी को काट खाता तो काल के कबलिय बन खाली हाथ चलना पड़ता जो कि इस प्रकार की उत्तम सामग्री मिलने पर [ शंखपुर नगर का शाह धन्ना - भीमदेव Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नपभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८००-८२५ भी अभी तक मैंने कुछ भी आत्म कल्याण सम्पादन नहीं किया इत्यादि जब भीमदेव अपने घर पर आया तब सब हाल अपने माता पिता को कहा उन्होंने बहुत फिक्र किया और कहा आइन्दा से तुम ऐसे समय कभी बाहर नहीं जाना । इत्यादि पर भीम के हृदय में वैराग्य ने घर बना लिया ! इधर लब्ध प्रतिष्ठित धर्म प्राण प्राचार्य सिद्धसूरजी भ्रमन करते करते शंखपुर नगर में पधार गये श्रीसंघ ने आपका बड़े ही धाम धूम से नगर प्रवेश कराया। आचार्यश्री ने मंगलाचरण के पश्चात् भव भंजबी देशना दी जिसमें बतलाया कि "असख्यं जीवियं भापमायए जरोवणीयस्सहु णत्थि ताणं । एवं वियाणाहिं जणे पमत्त, कन्न् वि हिंसां अजय गहिति ॥२॥" सप्तार की तमाम-चिजों तुटने के बाद किसी न किसी तरह से मिला दी जाती हैं। पर एक आयुष्य ही ऐसी चीज है कि इसके तूटने पर पुनः नही मिलता है। जिस सामग्री के लिए सुरलोक में रहें हुए सुरेन्द्र भी इच्छा करते है वह सामग्री आप लोगों को सहज ही में मिल गई है। अब उसका सदुपयोग करना आपके ही हाथ में है । यदि कई लोक बाल युवक एवं वृद्ध पना का विचार करते है तो यह निरर्थक है । कारण सब जीव अपने २ कर्म पूर्व जन्म में ही ले आये है उससे थोड़ा सा भी न्यूनधिक हो नहीं सकता है। कई लोग स्त्री पुत्रादि के मोह की पास में जकड़े हुए है। उसका रक्षण पोषण में अपना कल्याण भूल जाते हैं पर उनको यह मालुम नहीं है कि भावान्तर में जब कर्मोदय होंगें उस समय वे लोग जो जिन्हों के लिये में कर्मोपार्जन कर रहा हूँ मेरे दुःख में भाग लेगा या नहीं ? जैसे कि तेणे जहाँ सधिं महे गहीए, सकरमुणा किच्चइ पाव कारी । एवं पया पेच्चइहंच लोय, कडाण कम्माण नमोक्खअत्थि ॥२॥ एक चोर किसी साहूकार के यहां चोरी करने को गया था उसने भीत फोड़ी पर वह ऐसी तर्कीब सेकि अष्ट कली फूल की तरह फोड़ी थी पर इतने में घरधणी जाग गया और हाथ में एक रस्सी लेकर दम्पति खड़े हो गये ज्योंहि चोर ने पैर अन्दर डाला त्योंहि सेठ सेठानी ने रस्सा से खुब जोर से बांध दिया चोर न तो अन्दर आ सका और न बहार ही जा सका जब सुर्योदय होने में थोड़ा समय रहा तो चोर की औरत और माता उसको सोधने के लिये गई सेठ की भीत में फसा हुआ चोर को देखा अतः सोचा की यदि राज इसको पकड़ लेगा तो अपने सबको दुःख एवं फांसी देगा इसलिये उन्होंने बाहर से उसका शिर खेचां पर अन्दर से संठ ने छोड़ा नहीं इस हालत में चोर की स्त्री एवं माताने चोर का शिर काट कर अपने वहा ले आयी अहा-हा संसार को धिकार !! धीकार २ !!! संसार कि जिस स्त्री माता के लिए चोर ने उमर भर चोरियाँ की वे ही माता और स्त्री चोर का शिर काट डाला । जब इस भव में ही इस प्रकार अपने किये कर्म आप ही को भुगतने पड़ते हैं तब परभव का तो कहना ही क्या है ? इत्यादि सूरिजी ने बड़े ही ओजस्वी शब्दों में उपदेश दिया जिसका प्रभाव जनता पर बहुत अच्छा हुआ जिसमें भी कुंवर भीमदेव के लिए तो मानो सीप के मुह में आसौज का जल पड़ने की भांति अमूल्य मुक्ताफल ही पैदा हो गया। भीमदेव ने सोचा की आज का व्याख्यान सूरिजी ने खास तौर मेरे लिये ही दिया है खैर जयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई । सरिजी का वैराग्यमय उपदेश ] ८१३ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४००-४२४ वर्ष । [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सब लोग चले जाने पर भी भीमदेव सूरिजी की सेवा में मूर्तिमान बैठा ही रहा सूरिजी ने पूछा तेरा भीम-साहिबजी मेरा नाम भीमा है ? [क्या नाम है :सूरिजी-क्या ध्यान लगा रहा है ? भीम-आप श्री के व्याख्यान का विचार कर रहा हूँ। सूरिजी-क्या तुझे संसार से भय आया है ? भीम-जी हां। सूरिजी-तो फिर क्या विचार कर रहा है ? भीम-मैं विचार करता हूँ कि मेरा कल्याण कैसे हो सके ? सूरिजी-कल्याण का सरल और सीधा रस्ता यह है कि संसार को तिलांजलि दे और दीक्षा लेकर आराधना करे कि जन्म मरण के दुःख का अन्त हो एवं अक्षय सुख प्राप्त हो जाय । बस सबसे बढ़िया यह एक ही रास्ता कल्याण का है। ___ भीम-पूज्यवर मेरा दिल तो इस बात को बहुत चाहता है पर कुटुम्ब बंधन ऐसा है कि वे अन्तराय डाले बिना नहीं रहते हैं। सूरिजी-भीम ! हम लोग भी अकेले नहीं थे पर हमारे पीछे भी कुटुम्ब वाले थे जब हमारे अन्त. रंग के भाव थे तो उसको कौन बदला सके ! हमारा यह कहना नहीं है कि कुटुम्ब वालों को लात मार कर अनीति से काम करे । पर कुटम्ब वालों को समझा कर बन सके तो जम्बु कुंवर की भांति उनका भी उद्धार करे । और यह तुम्हारा कर्तव्य भी है। भीम-पूज्यवर ! आपका फरमाना सत्य है बन सकेगा तो मैं अवश्य प्रयत्न करूंगा! वरना मैं मेरे कल्याण के लिये तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आपके चरण कमलों में दीक्षा लेकर यथा साध्य आराधना करूंगा। सूरिजी-जहासुखम पर भीमा घर जाकर प्रतिज्ञा को भूल न जाना। भीमदेव-नहीं गुरुदेव ! प्रतिज्ञा भी कहीं भूली जा सकती है बाद सूरिजी को वंदन कर भीम अपने घर पर आया जिसकी माता पिता राह देख रहे थे। माता ने पूछा कि बेटा व्याख्यान कब का ही समाप्त हो गया तू इतनी देर कहां ठहर गया तुम्हारे बिना सब भोजन किये बिना बैठे हैं ? भीम ने कहा माता मैं आचार्य श्री की सेवा में बैठा था । भीम के वचन सुनते ही माता को कुछ शंका हुई और कहने लगी कि बेटा जब सब लोग चले गये तो एक तेरे ही ऐसा क्या काम था कि इतनी देर वहां ठहर गया ? भीम-माता बिना काम एक क्षण भर भी कौन ठहरता है । माता को विशेष शंका हुई और उसने कहा ऐसा क्या काम था ? ___भीम-माता मैं सूरिजी का व्याख्यान सूना जिससे सूरिजी से कल्याण का मार्ग पूछा था ! बस ! माता की धारणा सत्य हो गई उसने कहा बेटा मन्दिर जाकर भगवान की पूजा करो, समायिक प्रतिक्रमण और दान पुन्य करो, गृहस्थों के लिये यही कल्याण का मार्ग है। बेटा-हां माता यह कल्याण का मार्ग अवश्य है पर मैं कुछ इनसे विशेष मार्ग के लिये पूछा था। माता-मुझे यह तो बता कि सूरिजी ने तुझे क्या मार्ग बतलाया है ? ८१४ [ आचार्य श्री और भीमदेव का संवाद Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभ सरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८००-८२४ बेटा-सूरिजी ने जो मार्ग बतलाया है वह मुझे अच्छा लगा है और मैं उसी रस्ते पर चलने की प्रतिज्ञा भी कर आया हूँ केवल आपकी अनुमती की ही देर है । माता-क्या तू पागल तो नहीं हो गया है । साधुओं के तो यह काम हैं कि लोगों को बहकाना और अपनी जमता बढ़ाना । खबरदार है आइन्दा से साधुओं के पास एकान्त में बैठ कर कभी बात मत करना ले आ जीमलो ( भोजन कर लो) भीम-( अपने मन में ) अहो २ मोह विकार कैसा मोहनीय कर्म है। कि यदि कोई मर जाय तो रो पीट कर बैठ जाते हैं पर दीक्षा का नाम तक भी सहन नहीं होता है । विशेषता यह है कि धर्म को जानने वाले धर्म की क्रिया करने वालों की यह बात है तो अज्ञ लोगों का तो कहना ही क्य? पर अपने को तो शांति से काम लेना है । माता के साथ भीमादि सबने भोजन कर लिया बाद भी मां बेटा के खाबी चर्चा हुई-वह भी बड़ी गंभीरता पूर्वक भीमदेव की वैराग्य के बात सर्वत्र फैल गई । शाम को बहुत से लोग सेठ धन्ना के वहां एकत्र हो गये । कइएकों को दुख तो कईएकों को मजाक हो रही थी पर भीमदेव वैरागी बनड़ा बना हुआ सबको यथोचित उत्तर दे रहा था और कहता था कि जब मेरे पैरों में सर्प आया था वह काट गया होता और मैं मर गया होता तो आप क्या करते भला ! इस समय भी आप समझ लीजिये कि भीमदेव मर गया है मैं निश्चय पूर्वक कहता हूँ कि मैं इस संसार रूपी काराग्रह में रहना नहीं चाहता हूँ इतना ही क्यों पर मैं तो आपसे भी कहता हूँ कि यदि आपका मेरे प्रति अनुराग है तो आप भी इसी मार्ग का अनुसरण कर प्रात्म कल्याण करावे क्योंकि ऐसा सुवर्ण अवसर बार २ मिलना मुश्किल है और यह कोई नई बात नहीं है पूर्व जमाने में हजारों महापुरुषों ने इस मार्ग का अवलम्बन कर स्वकल्याण के साथ अनेक आत्माओं का कल्याण किया। आप दूर क्यों जावें आज हजारों मुनि भूमि पर विहार कर रहे हैं वे भी तो पूर्वास्था में अपने जैसे गृहस्थ ही थे। जब बाल एवं कुंवारावस्था में भी विषय भोग छोड़ दीक्षा ली है तो मुक्त भोगियों के लिये तो यह जरूरी बात है अतः जिसको आत्म कल्याण करना हो वह तैयार हो जाय । भीमदेव के सारगर्भित एवं अन्तरिक बचन सुनकर सब समझ गये कि अब भीमदेव का घर में रहना मुश्किल है और इनका वैराग्य बनावटी नहीं है पर आत्मिक है। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा बचता था त्याग वैराग्य और आत्म कल्याण आपका मुख्य ध्येय था जनता पर प्रभाव भी खूब पड़ता था इधर भीमदेव वैरागी बन रहा था और कई लोग उसका अनुकरण करने को भी तैयार हो रहे थे। एक समय शाह धन्ना और फेफोंदेवी सूरिजी के पास आये और भीमदेव के विषय में कुछ अर्ज की इस पर सूरिजी ने कहा कि भीमदेव के लिये तो में क्या कह सकता हूँ पर मैं श्राप से कहता हूँ कि जब आपकी कुक्ष से उत्पन्न हुआ नवयुवक भीमदेव अपना कल्याण करना चाहता है तो आपको क्यों देरी करनी चाहिये एक दिन मरना तो निश्चय है फिर खाली हाथे जाना यह कहां की समझदारी हैं, अतः आप मेरी सलाह मानते हो तो बिना विलम्ब दीक्षा लेन को तैयार हो जाइये भीम के माता पिता ने सूरिजी से कुछ भी नहीं कहा और वन्दन कर अपने घर पर आगये और भीम को बुला कर कहा कि बोल बेटा तेरी क्या इच्छा है तूं अपने माता पिता को इस प्रकार रोते हुए छोड़ देगा क्या तुमको हमारी जरा भी दया नहीं भीमदेव और उनके माता पिता का संबाद ] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४००-४२४ वर्ष] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आती है ? भीम ने कहा नहीं पिताजी श्रापका तो मेरे पर बहुत उपकार है और मैं जब ही थोड़ा बहुत ऋण अदा कर सकूँगा कि आप दीक्षा ले और मैं आपकी सेवा करू १ माता पिता ने सूरिजी के उपदेश की और लक्ष दौराते हुए कहा अच्छा भीम हम दोनों दीक्षा लेने को तैयार हैं । बस ! फिर तो कहना ही क्या था नगर में बिजली की तौर खबर फैल गई और सूरिजी ने दीक्षा के लिये दिन माघ शुक्ल १३ का मुकर्रर कर दिया और भी कई १३ पुरुष १८ महिलाए दीक्षा लेने को तैयार होगये शाह धन्ना का जेष्ठ पुत्र रामदेव ने जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव या और इस कार्य के लिये जो कुछ करना था वह सब बड़े ही ठाठ से किया और सूरिजी ने ठीक समय पर उन मोक्षा भिलाषियों को भगवती जैन दीक्षा देकर उनका उद्धार किया तथा वीर भीमदेव का नाम मुनि शांतिसागर रख दिया। मुनि शान्तिसागर बड़ा ही त्यागी वैरागी और तपस्वी था ज्ञानाभ्यास की रुपी पहले से भी अब तो बिल्कुल निवृति मिल गई इधर सूरिजी की भी पूर्ण कृपा थी मुनिजी ने स्वल्प समय में ही वर्तमान आगमों के साथ व्याकरण न्याय छन्द तर्क अलंकरादि शास्त्रों का अध्ययन कर लिया आपने निमित्त ज्ञान में भी पूर्ण निपुणता हासिल करली थी योग विद्या में तो आप इतने निपुण थे कि कई जैन जैनेतर आपकी सेवा में रह कर योगाभ्यास किया करते थे। एक समय आचार्यश्री भूभ्रमन करते हुए सिन्ध प्रान्त की और पधारे। उस समय सिन्ध में जैनों की खूब आबादी थी और उपकेशगच्छाचार्यों का अच्छा प्रभाव था सिन्ध के बहुत वीरों ने दीक्षा लेकर वहां भ्रमन भी किया था सूरिजी के पधारने से जनता का उत्साह बढ़ रहा था जहां आप पधारते वहां व्याख्यान का अच्छा ठाठ लग जाता था जैन जैनेत्तर काफी संख्या में सूरिजी का उपदेश सुन अपना अहोभाग्य समझते थे क्रमशः विहार करते हुए सूरिजी डमरेल नगर की ओर पधार रहे थे। यह शुभ समाचार वहां के श्रीसंघ को मिला तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा महामहोत्सव के साथ सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया सूरिजी ने मंगलाचरण के पश्चात् देशनादी और भी सूरिजी का व्याख्यान हमेशा हो रहा था जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ता था तथा सूरिजी की प्रशंसा नगर भर में फैल रही थी वहां का राव चणोट भी आचार्य श्री का उपदेश सुनकर मांस मदिरा का त्याग कर दिया था इतना ही क्यों पर उसने अपने राज में जीव हिंसा बन्ध करवादी थी। परन्तु कहा है कि खल मनुष्य दूसरों की प्रशंसा को सुन नहीं सकता हैं अतः वहां पर एक सन्यासी आया हुआ था और वह कुछ रसायन विद्या भी जानता था उसने जनता को कुछ लोभ देकर कई लोगों को अपने वश में कर जैन धर्म और प्राचार्य श्री की निन्दा करने लगा कि जैन धर्म नास्तिक धर्म है राजपूतों को मांस मदिरा छोड़ा कर उनके शौर्य पर कुठार घात कर रहे है इनका आचार विचार इतना भद्दा है कि कभी स्नान भी नहीं करते हैं इत्यादि। एक समय मुनि शान्तिसागर कई मुनियों के साथ जंगल (थडिले) जाकर वापिस आरहा तो रास्ता में सन्यासी मिल गया वह भी अपनी जमात के साथ था सन्यासी ने मुनि शान्ति सागर को सम्बोधन कर कहा-अरे सेवडाभों ! तुम जनता को मिथ्या उपदेश देकर नास्तिक क्यों बनाते हों वणियों को तो ठीक परन्तु क्षत्रियों को माल एवं शिकार छोड़ा कर कायर क्यों बनाते हो और तुम बिना स्नान अर्थात शुद्धि क्रिया बिन परमात्मा का भजन कैसे करते हो ? मुनि शान्ति सागर ने कहां प्रिय महात्माजी ! आप नस्तिक आस्तिक किसको कहते हो पहला इसका अभ्यास करो १ जैनधर्म नास्तिक नहीं पर कट्टर आस्तिक धर्म है जेन ईश्वर का श्रात्मा को सृष्टि को मानता [ मुनि शान्तिसागर और सन्यासी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८०० – ८२४ है स्वर्ग नरक को मानता हैं सुकृत के शुभ और दुकृत के अशुभ फल अर्थात पुन्य पाप को मानता है ऐसा पवित्र धर्म को नास्तिक कहना अनभिज्ञाता नहीं तो और क्या हैं ? महात्माजी ! क्षत्रियों का धर्म शिकार करना एवं मांस खाने का नहीं है किन्तु चराचर जीवों की रक्षा करने का है कोई भी धर्म विना अपराध विचारे मुक् जीवों को मारना एवं मांस खाने की आज्ञा नहीं देता हैं बल्कि 'अहिंसा परमोधर्म' की उद्घोषणा करता है । अफसोस है कि आप धर्म के नेता होते हुए भी शिकार करना एवं मांस भक्षण की हिमायत करते हो ? महात्माजी ! साधु सन्यासी तप जप एवं ब्रह्मचर्य से सदैव पवित्र रहते है उनको स्नान करने की आव श्यकता नहीं है और गृहस्थ लोगों को पट्कर्म में पहला देवपूजा है वह स्नान करके ही की जाती है और यह गृहस्थों का आचार भी हैं इसके लिये कोई इन्कार भी नहीं करते है फिर समझ में नहीं आता है कि आप जैसे संसार त्यागी व्यर्थ ही जनता में भ्रम क्यों फैलाते हो । इत्यादि मधुर वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया कि सन्यासीजी इस विषय में वापिस कुछ भी नहीं बोल सके। फिर सन्यासीजी ने कहां कि आपलोग केवल भूखे मग्ना जानते हो पर योग विद्या नहीं जानते है जो आत्मकल्याण एवं मौक्ष का खास साधन है । मुनि ने कहा महात्माजी ! योग विद्या का मूल स्थान ही जैन धर्म है दूसरों ने जो अभ्यास किया है वह जैनों से ही किया है कइ लोग केवल हट योग को ही योग मान रखा है पर जैनों में हटयोग की बजाय सहज समाधि योग को अधिक महत्व दिया हैं। महात्माजी ! योग साधना के पहला कुछ आत्म ज्ञान करना चाहिये कि योग की सफलता हो वरन् इटयोग केवल काया देश ही समझा जाता है इत्यादि मुनिजी की मधुरता का सन्यासीजी की भद्र आत्मा पर खुब ही प्रभाव पड़ा । सन्यासीजी के हृदय में जो जैनधर्म प्रति द्वेष था वह रफूचक्र होगया और श्रात्मज्ञान समझने की जिज्ञास पैदा होगई अत: आपने पूछा कि मुजी आप आत्मज्ञान किसको कहते हो और उसका क्या स्वरूप है यदि आपको समय हो तो समझाइये मैं इस बात को समझना चाहता हूँ । मुनि शान्तिसागर ने कहा सन्यासीजी बहुत खुशी की बात है मैं आपको धन्यवाद देता हूँ कि आप श्रात्म का स्वरूप को समझने की जिज्ञासा करते हो और मेरा भी कर्तव्य है कि मैं आपको यथाशक्ति सम झाऊँ पर इस समय हमको अवकाश कम है कारण दिन बहुत कम रहा है हमें प्रतिक्रमणदि अवश्यक किया करनी है यदि कल आप हमारे वहां अवसर देखे या मैं आपके पास आ जाऊँ तो अपने को समय काफी मिलेगा और आत्मादि तत्व के विषय चर्चा की जायगी इत्यादि कहकर शान्तिसागर चला गया । प्रतिक्रमण क्रिया करने के बाद सब हाल सूरिजी को सुना दिया । रात्रि में सन्यासीजी ने सोचा कि जहां तक आत्म ज्ञानप्राप्त न किया जाय वहां तक मेरी विद्यायें किस काम की हैं? यदि मुनिजी आवें या न श्रावें मुझे सुबह जैनाचार्य के पास जाना और आत्म ज्ञान सुनाना चाहिये। क्योंकि आत्म के विषय जैनों की क्या मान्यता है ? सन्यासीजी ने अपने शिष्यों को भी कह दिया और दिन उदय होते ही अपने शिष्यों के साथ चल कर सूरिजी के मकान पर आये उस समय सूरिजी अपने शिष्यों के साथ सब मौनपने से प्रतिलेखन क्रिया कर रहे थे सन्यासीजी को किसी ने आदर नहीं दिया तथापि सन्यासीजी जैनमरणों की क्रिया देखते रहे जब क्रिया समाप्त हुई तो मुनि शांतिसागर ने सूरिजी से कहा कि यह सन्यासीजी आ गये हैं आप बड़े ही सज्जन एवं जिज्ञासु हैं ! सूरिजी ने बड़े ही स्नेह एवं वात्सल्यता के साथ सन्यासीजी का यथोचित सत्कार किया और अपने पास बैठाया । सूरिजी बड़े मुनि और तापस के आपस में संबाद ] १०३ Jain Education Internationa ८१७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४०० – ४२४ वर्षे | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ही समयज्ञथे आपने मुनि शांतिसागर को श्राज्ञा दे दी कि तुम सन्यासीजी को श्रात्मा और कर्मों के विषय में अच्छी तरह समझाओ। जैसे भगवान महावीर ने गौतम को कहा था कि तुम जाओ इस किसान को समझा कर दीक्षा दो । खैर सूरिजी महाराज तो इतना कह कर जंगल में चले गये । तत्पश्चात मुनि शांतिसागर ने सन्यासीजी को कहा महात्माजी यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आत्मा के प्रदेशों से मिथ्यात्व के दलक दूर होते हैं तब उस जीव को सत्य धर्म की खोज करना एवं श्रवण करने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है जैसे श्रापको हुई है । महात्माजी श्रात्मा नित्य शाश्वता द्रव्य है यह नतो कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी इसका विनाश ही होता है । परन्तु जैसे तिलों में तेल, दूध में घृत, धूल में धातु, फूलों में सुगन्ध और चन्द्रकान्ता में अमृत अनादि काल से मिला हुआ है वैसे श्रात्मा के साथ कर्म लगे हुए हैं और उन कर्मों के कारण संसार में नये नये रूप धारण कर उच्चनीच योनियों में अत्मा परिभ्रमन करता है परन्तु जैसे तिलों को यंत्र का संयोग मिलने से तेल और खल अलग हो जाता है और तेल खल का अनादि संयोग छूट जाने पर फिर वे कभी नहीं मिलते हैं वैसे ही जीवात्मा को ज्ञान दर्शन चारित्र रूप यंत्र का संयोग मिलने से अनादि काल से जीव और कर्मों का संयोग था वह अलग हो जाता है उन कर्मों से अलग हुए जीव को ही सिद्ध परमात्मा परमेश्वर कहा जाता है। फिर उस जीव का जन्म मरण नहीं होता है जैसे वन्ध मुक्त जीव सुखी होता है वैसे कर्ममुक्त जीव परम एवं अक्षय सुखी हो जाता है । जिन जीवों ने संसारिक एवं पौदगलिक सुखों पर लात मार कर दीक्षा ली है और ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना की और कर रहे हैं उन सबका यही ध्येय है कि कर्मों से मुक्त हो सिद्ध पद को प्राप्त करना फिर वे उसी भव में मोक्ष जावे या भवान्तर में परन्तु उस रास्ते को पकड़ा वह अवश्य मोक्ष प्राप्त कर सदैव के लिये सुखी बन जाता है संसार में बड़े से बड़ा दुख जन्म मरण का है उससे मुक्त होने का एक ही उपाय है कि वीतराग देवों की श्राज्ञा का श्राराधना करना अर्थात् दीक्षा लेकर रत्नत्रिय की सम्यक आराधना करना । सन्यासी ने कहा गुरू महाराज श्रापका कहना सत्य है और मेरी समझ में भी आ गया पर कर्म क्या वस्तु है और उसमें ऐसी क्या ताकत है कि जीवात्मा को दबा कर संसार में परिभ्रमन करता है इसको आप ठीक समझाये ? मुनि ने कहा सन्यासीजी । कर्म परमाणुओं का समूह है और परमाणुओं में वर्ण गन्ध र स्पर्श की इतनी तीव्रता होती है कि चैतन का भांन भुला देता है जैसे एक अच्छा लिखा पढ़ा समझदार मनुष्य भंग पी लेता है भंग परमाणुओं का समूह एवं जड़ पदार्थ है पर चेतन को बेभान बना देता है भग के नशा की मुदित होती है जब भंग का नशा उतरता है तब मनुष्य अपना असली रूप में सावधान हो जाता है वैसे ही कर्मों के पुङ्गगलों में रसादि होते है और उसकी मुद्दत भी होती है वे कर्म मूल आठ प्रकार के है और उनकी उत्तरयक्रतिये १५८ जैसे हलवाई खंड के खिलौने बनाते हैं उन खिलौनों के लिये साँचे होते हैं जिस साँचे में खाँड का रस डालते हैं वैसे श्राकार के खिलौने बन जाते हैं वैसे ही कर्मों के आठ साँचे हैं। १ - किसी ने ज्ञान की विराधना की उसके ज्ञानावर्णिय कर्म बन्ध जाते हैं जब वह कर्म उदय में आता है तब उस जीव को सद्ज्ञान से अरुचि हो जाती है अर्थात् सद्ज्ञान प्राप्ति नहीं होने देता है । २ -- इसी प्रकार दर्शन की विराधना करने से दर्शनाबर्णिय कर्म बन्ध जाता है । ३ - जीवों को तकलीफ देने से असातावेदनी और आराम पहुँचाने से साता वेदनी कर्म बन्ध जाते हैं । ४ – कुदेव कुगुरू कुधर्मके सेवन से मिथ्यात्व मोहनी ८१८ [ तापस और आत्मबाद Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नमभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८००-८२४ अच्छे बुरे देवगुरु धर्म को एकसा समझनेसे मिश्रमोहनीय क्रोध, मान, माया, लोभ हँसारिसे चारित्र मोहनीय कर्म वन्धते हैं । ५-जैसे परिणाम वैसा आयुष्कर्म । ६-देवगुरू की सेवा उपासनादि शुभकर्म करने से शुभ नाम और अशुभ कर्म करने से अशुभनाम कर्म वन्धता है ७-जातिकुल बल,रूप, लाभादि का मद करने से नीच गोत्र और मद नही करने से उच्च गौत्र बन्धता है । ८-किसी जीव के दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य की अन्तराय देने से अन्तराय कर्म बन्धजाग है । इस प्रकार आठ कर्म तथा इनकी उत्तर प्रकृतियें हैं जैसे २ अध्यवसायों की प्रेरणा से कार्य किया जाता है वैसे-वैसे कर्म बन्ध जाता है फिर उदय पाने पर उन कमों को भोगना पड़ता है। जो लोग कर्मों का स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जान कर समभाव से भोगते हैं वे कर्मों की निर्जरा कर देते हैं और नये कर्म नहीं बन्धते हैं तब अज्ञानता के वस होकर आर्तध्यान करते हैं वे फिर नये कोपार्जन कर लेते हैं अतः कर्म परम्परा से छुट नहीं सकते । इस. लिये कर्मों की निर्जरा करने के लिये दीक्षा लेकर ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना करनी चाहिये इत्यादि । सन्यासी जी ने इस प्रकार अपूर्व ज्ञान अपनी जिन्दगी में पहला ही सुना था और भी जिस-जिस विषय में श्राप शंका करते उसका मुनिजी अपनी शान्त प्रकृति से ठीक समाधान कर देते थे जिससे सन्यासी जी को अच्छा संतोष हो गया इतना में सूरिजी भी वापिस पधार गये थे सन्यासीजी ने सूरिजी से प्रार्थना की कि मुनिजी ने अात्मा एवं कमों का स्वरूप मुझे समझाया जिसको मैंने ठीक तौर से समझ लिया पर कृपा कर आप मुझे आत्म कल्याण का रास्ता बतला कि जिससे जन्म मरण के दुःख मिट जाय ? सूरिजी ने कहा यदि आपको जन्म मरण के दुःख मिटाना है तो जिनेन्द्रदेव कथिन दीक्षा लेकर तप, संयम की आराधना करो सबसे उत्तम यही मार्ग है । बस फिर तो देरी ही क्या थी । सन्यासी ने अपने शिष्यों के साथ सूरिजी के चरणकमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करली अह-हा । जब जीव के कल्याण का समय नजदीक आता है तब वे किस प्रकार उल्टे के सुल्टे बन जाते हैं एक व्यक्ति द्वारा जैनधर्म की निन्दा होती थी वही व्यक्ति जैन धर्म की दीक्षा ले इससे अधिक क्या लाभ एवं प्रभावना हो सकती है। सूरिजी ने उन सत्योपासक सन्यासीजी को दीक्षा देकर आपका नाम "आनन्दमूर्ति" रख दिया मुनि आनन्दमूर्ति श्रादि ज्यों-ज्यों जैनधर्म के आगमों का अध्ययन एवं क्रिया काँड करते गये त्यों-त्यों उनकी आत्मा के अन्दर आनन्द की तरंगों उछलने लग गई थी यह कार्य नया ही नहीं था पर पहले भी शिवराजर्षि पोग्गल एवं स्कन्धक सन्यासी आदि अनेक सन्यासियों ने जैनदीक्षा स्वीकार कर स्व-परात्माओं का कल्याण के साथ जैनधर्म का खूब ही उद्योत किया था डामरेल नगर के श्री संघ का उत्साह खूब बढ़ गया अतः श्री संघ ने सूरिजी से साग्रह विनती की कि पूज्यवर ! यह चतुर्मास यहाँ करके हम लोगों को कृतार्थ करावें आपके विराजने से बहुत उपकार होगा-इत्यादि । सूरिजी ने लाभा-लाभ का कारण जन श्रीसंघ की विनती स्वीकार करली बस ! फिर तो कहना ही क्या था जनता का उत्साह नदी का वेग की भाँति खूब बढ़ गाय । मुनि आनन्दमूर्ति पर सूरिजी एवं मुनि शान्तिसागर की पूर्ण कृपा थी आपको ज्ञान पढ़ने की खूब कचि थी आप पहिले से ही विद्वान् थे केवल उल्टे से सुल्टे होने की ही जरूरत थी आप थोड़ा ही समय में जैनागमों का ज्ञान प्राप्त कर धुरंधर विद्वान् बन गये दुसरा एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन होता है तब उनके उत्साह का वेग कई गुना बढ़ जाता है और स्वीकार धर्म का प्रचार की बिजली खूब सतेज हो वापस की दीक्षा और आनन्द मूर्ति ] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४००-४२४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जाती है तीसरा उनको यह भी अनुभव रहता है कि जैसे मैं अज्ञान दशा में आत्मा का अहित करता था इसी प्रकार मेरे भाई कर रहे हैं उनका मैं उद्धार करूँ इत्यादि : जैसे रत्नागर भाँति-भाँति के अमूल्य रत्नों से शोभा देता है इसी प्रकार आचार्यरत्नप्रभसूरि का गच्छ अनेक विद्वान् मुनियों से शोभा दे रहे थे उन मुनि समूह में मुनि शान्ति सागर सर्व गुण सम्पन्न था सूरिजी के वृद्धावस्था के कारण व्याख्वान मुनि शान्तिसागर ही दिया करते थे आपका व्याख्यान विशेष तात्विक एवं दार्शनिक विषयपर होताथा तथा त्याग वैराग्य तो आपके नस नस ठूस-ठूस कर भरा हुआ था कि जिसको श्रवण कर मनुष्यों के रुवाटे खड़े होजाते थे अतः नगरमें मुनि शान्तिसागर की भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी इतना ही क्यों पर श्रीसंघ की भावना तो यहाँ तक हो गई कि मुनि शान्तिसागर को आचार्य पद दिया जाय तो बहुत अच्छा है कारण आप सूरि पद के सर्वथा योग्य है अतः श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! यों तो आपके सर्व शिष्य योग्य हैं और आत्मकल्याण के लिये तत्पर है परन्तु यहाँ के श्रीसंघ की प्रार्थना है कि मुनि शान्तिसागर को सूरिपद दिया जाय और यह कार्य हमारे नगर में हो कि हम लोगों को भी लाभ मिले साथ में एक यह भी अर्ज है कि यदि आपका शास्त्र स्वीकार करना हो तो आनन्दमूर्ति को भी पदस्थ बनाना चाहिये । कारण आनन्दमूर्तिजी अच्छे विद्वान एवं योग्य पुरुष हैं ऐसों का उत्साह बढ़ाने में जैनधर्म को तो लाभ है ही परन्तु दूसरे सन्यासियों पर भी इस बात का अच्छा प्रभाव पड़ेगा । पूज्यवर ! कई लोग तो इस कारण से जानते हुये भी मतवन्धन एवं वेशवन्धन छोड़ नहीं सकते हैं कि हम जैन साधु बने तो सबसे छोटा बनना पड़ेगादि ? दूसरा योग्य पुरुषों का सत्कार करना अपना कर्तव्य भी है । इस पर सूरिजी ने कहा श्रावको ! आपका कहना ठीक ह मैं इसको स्वीकर करता हूँ मुनि शान्ति सागर को सूरिपद देने का तो मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है दूसरे आनन्दमूर्ति भी योग्य पुरुष हैं जैन शास्त्रों में योग्य पुरुषों का सत्कार करने की मनाई नहीं है इतना ही क्यों पर योग्य हो तो जिस दिन दीक्षा दी उसी दिन आचार्य पदादि पद देने का फरमान है अतः मैं अानन्दमूर्ति के लिये भी विचार अवश्य करूँगा । श्रीसंघ ने कहा पूज्यवर ! आप शासन के स्तम्भ है दीर्घदर्शी हैं ज कुछ करेंगे वह शासन के लिये हित का ही कारण होगा परन्तु यहाँ के श्रीसंघ का बहुत आग्रह है कि यह पुनीत कार्य इस नगर में ही होना चाहिये अतः स्वीकृती फरमावे ? सूरिजी ने लाभालाभ का कारण जानकर स्वीकृति दे दी। वस फिर तो कहना ही क्या था आज डामरेल नगर के घर घर में उत्साह एवं हर्ष की तरंगों उछलने लग गई है और तन मन तथा धन से उच्छव करने में लग गये । शुभ मुहूर्त में मुनि शान्तिसागर को आचार्य पद देकर आपका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया तथा मुनि सोमप्रभादि ५ मुनियों को उपाध्यायपद, राज मुन्दर एवं आनन्दमूर्नि आदि ५१ मुनियों को पण्डित पद, मुनिकल्याणकलसादि सात मुनियों को वाचनाचार्य पद, मुनि रत्नशिखरादि नौ मुनियों को गणि पद दिया पूर्व जमाना में योग्यता की पूरी परीक्षा करके ही पदवियाँ दी जाती थीं और पदवियां लेने वाले भी अपनी जुम्मावारी का पूरा पूरा खयाल रखते थे यही कारण है कि आचार्यों का शासन उन पदवी धरों से शोभायमान दीखता था जैसे समुद्र कमलों से तथा चन्द्र प्रहनक्षत्र और ताराओं से शोभायमान दीखता है: एक समय आचार्य सिद्धसूरि रात्रि समय धर्म कार्य एवं आत्म ध्यान की चिंतवना करते समय ८२० [ मुनि शान्तिसागर को आचार्य पद rand Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८००-८२४ विचार कर रहे थे कि अब मेरा आयुष्य शायद् नजदीक ही हो इतने में तो देवी सच्चायिका एवं मातुला आकर सूरिजी को वन्दन कर अर्ज की कि पूज्यवर ! अब आपका अायुष्य केवल एक मास का रहा है । आपने मुनि शान्तिसागर को सूरि पद दिया यह भी अच्छा ही किया है इत्यादि सूरिजी ने देवियों को अन्तिम धर्म लाभ दिया अतः वे वन्दन कर आदृश्य होगई: सुवह सूरिजी ने प्राचार्य रत्नप्रभसूरि आदि श्रीसंघ को कहा कि मेरी श्रायुः नजदीक है। मेरी इच्छा अनशन करने का है। इसको सुनकर सब लोग उदास होगये और कहने लगे कि पूज्यवर ! आप हमारे शासन के स्तम्भ हैं हमारे शिर छत्र हैं । आपकी तन्दुरुस्ती अच्छी है ! श्रीसंघ यह नहीं चाहते कि आप इस समय अनशन करें ! हां जब समय आवेगा तो श्रीसंघ स्वयं विचार करेगा। इस प्रकार नौ दिन निकल गये आखिर सूरिजी ने अनशन कर लिया और २१ दिन समाधि पूर्वक अराधना कर आप परम समाधि से स्वर्ग धाम पधार गये । इस अवसर पर सिंध के ही नहीं पर कई प्रान्तों के भावुकजन सूरिजी के दर्शनार्थ आये हुये थे उन सब के चेहरे पर ग्लानी छाई हुई थी! फिर भी निरानन्द होते हुए भी उन सबने करने योग्य सब क्रिया की और संघ अपने अपने नगरों की और चले गये । प्राचार्य सिद्धसूरि का सिंध भूमि पर महान उपकार हुआ है। अतः सूरिजी की चिर स्मृति के लिये आपके शरीर का अग्नि संस्कार हुआ था उस स्थान पर एक विशाल स्तम्भ बनाया और आश्वन शुक्ल नौमि के दिन जो सूरिजी के स्वर्गवास का दिन था वहां एक बड़ा मेला भरना मुकर्रर कर दिया कि सालो साल मेला भरता रहे। ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि महान प्रतिभाशाली प्राचार्य हुए हैं आपने डामरेलपुर से कई ४०० मुनियों के परिवार से विचार कर सिन्ध भूमि में अपनी ज्ञान सूर्य की किरणों का प्रकाश चारों ओर डालते हुए जैनधर्म का खूब उद्योत किया कई अर्सा सिन्ध में विहारकर श्राप श्रीजी पंजाब की ओर पधारे छोटेबड़े ग्रामों में भ्रमन कर सावत्थी नगरी की ओर पधारे वहां के श्रीसंघ ने आपका सुन्दर स्वागत किया आपश्री का व्याख्यान हमेशा तात्विक एवंदार्शनिक विषय पर होता था षट दर्शन के तो आप पूर्ण अनुभवी थे जिस समय आप एक एक दर्शन का तत्व एवं मान्यता बतलाकर व्याख्यान करते थे तो अच्छे अच्छे पण्डित श्राश्चर्य में डुब जाते थे आचार्यश्री की प्रतिपादन शैली इतनी उत्तम थी कि बीच में किसी को तर्क करने का अवकाश ही नहीं मिलता था कारण आप स्वयं तर्क कर उसका समाधान कर देते थे । जिससे लोगों की मिथ्या धर्म से असूची और सत्य धर्म की ओर रुचि बढ़ जाती थी। एक समय सूरिजी के व्याख्यान में एक क्षणक वादी ने आकर प्रश्न किया कि जिस नरक का श्राप भय बतलाते हैं और स्वर्ग का लालच देते हो कि जिससे जनता का विकाश की रुकावट हो जाती है ! वे नरक एवं स्वर्ग क्या वस्तु है और कहां पर है उन नक स्वर्ग को किसने देखी और कौन अनुभव कर पाया! इस विषय मैं क्या आप कुच्छ साबुती दे सकते हो ? सूरिजी ने उत्तर दिया कि वस्तु का ज्ञान करने के लिये दो प्रकार के प्रमाण होते है एक प्रत्येक्ष दूसरा परोक्ष जो नजरों के सामने पदार्थ है । उसको प्रत्येक्ष देख सकते है पर जो दूर रहा हुआ पदार्थ है उसको जानने के लिये परोक्ष प्रमाण ही काम देता है । यदि कोई व्यक्ति सवाल करे कि एक सौ कौस पर नगर है वहां एक सुन्दर वडवृक्ष हैं परन्तु इसके लिये खुद नजरों से देखने वाला भी परोक्ष प्रमाण के अलावा क्या आचार्य रत्नप्रभसरि और क्षणकवादी ] ८२१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४००–४२४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बता सकता है इसी प्रकार स्वर्ग नरक जिन्होंने स्पष्ट देख कर कथन किया है उनके वचन ही प्रमाण एवं साबुति है । चोरी करने वाले को दंड और सेवा करने वाले की इनाम मिलता है इसी प्रकार पाप करने वाले को नरक और पुन्य करने वाले को स्वर्ग मिले इसमें शंका ही क्या हो सकती है इत्यादि सूरिजी ने बहुत हेतु युक्तियोंकर समझाया परन्तु क्षणक वादी ने कहा कि मैं ऐले परोक्ष प्रमाणकों नहीं मानता हूँ मुझे तो प्रत्येक प्रमाण बतलाओं कि यह स्वर्ग नरक है ? पास ही में सूरिजी महाराज का एक भक्त बैठा था उसने कहा पूज्य गुरु महाराज यदि श्राप आज्ञा दें तो मैं इसको समझा सकता हूँ। सूरिजी ने कहां ठीक समझाओं । भक्त ने उस क्षणक बादीकों मकान के बाहर ले जाकर उस के मुँह पर जोर से एक लप्पड़ लगाया जिससे वह रो कर चिल्लाने लगा । " भक्त ने पुच्छा कि भाई तु रोता क्यों है ? "क्षणक - तुमने मुझे मारा जिससे मुझे बड़ा ही दुःख हुआ है 1 "भक्त - भलो थोड़ा सा दुःख को निकाल कर मुझे बतला दें कारण में परोक्ष प्रमाण को नहीं मानता हूँ अतः आप प्रत्यक्ष प्रमाण से बतलावें की दुःख यह पदार्थ है ! "क्षणक - अरे दुःख कभी बतलाया जा सकता है यह तो मेरे अनुभव की बात है "भक्त - जब आप हमारे अनुभव की बात नर्क स्वर्ग को नहीं मानते हो तो हम आपके अनुभवकी बात कैसे मान लेंगे? दूसरा आप मुझे उपालम्ब भी नहीं दे सकते हो कारण आपकी मान्यतानुसार आत्मा क्षण-क्षण में उत्पन्न एवं विनाश होती हैं अतः लप्पड़ की मारने वाली आत्मा विनाश होगई और जिसके लपड़ की मारी थी वह आत्मा भी बिनाश होगई इसलिये आपको दुःख भी नहीं होना चाहिये क्योंकि आपकी और मेरी आत्मा नयी उत्पन्न हुई है विनाश हुई आत्मा का सुख दुःख नयी उत्पन्न हुई आत्मा मुक्त नहीं सकती हैं इत्यादि युक्तियों से इस प्रकार समझाया कि क्षणक बादी की अकल ठिकाने आगई और उसने सोचा कि यदि आत्मा क्षण-क्षण में विनाश और उत्पन्न होती हो तो जिस क्षण में मुझे दुःख हुआ वह अब तक क्यों ? अतः इसमें कुच्छ समझने का जरूर है चलो गुरु महाराज के पास वस क्षणकबादी और भक्त दोनों सूरिजी के पास आये क्षणकबादी ने सरिजी से पुच्छा कि गुरु महाराज आत्मा क्या वस्तु है और जन्ममरण क्यों होता है मरके आत्मा कहां जाती है और नयी आत्मा कहासे आकर उत्पन्न होती हैं और आत्माकों अक्षय सुख कैसे मिलता है ? सूरिजीने कहा आत्मा का, न विनाश होता है और न उत्पन्न ही होता है जीवके श्रनादिकाल से शुभाशुभ कर्म लगा हुआ है और उन कर्मों से नये-नये शरीर धारण करता हुआ चतुर्गति में भ्रमन करता है यदि जिनेन्द्रदेव कथित दीक्षा ग्रहन कर सम्पक् ज्ञानदर्शन चारित्र की श्राराधना करलें तो जन्ममरण रूपी कमों से होम परमात्मा बन कर सदैव सुखी बन जाता है। क्षणकबादी क्या में दीक्षा लेकर ज्ञानदर्शन चारित्र की आराधना कर सकता हूँ ? सूरिजी क्यों नहीं । श्राप खुशी से कर सकते हो । क्षणकबादी - तब दीजिये दीक्षा और बतलाइये रास्ता ? सूरिजी - उसी समय क्षणकबादी को दीक्षा देदी । ८२२ [ क्षणकवादी जैन दीक्षा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८०० – ८२४ इस प्रकार आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अनेक अन्यमतियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर उनका उद्धार किया इतना ही क्यों पर उन अन्यमति साधुओं ने जैनधर्म में दीक्षित हो एवं जैन सिद्धान्त का अभ्यास करके क्षणक वादी बोधों का और वाममार्गी एवं यज्ञवादियों के अखाड़े उखेड़ दिये थे । आचार्य रत्नप्रभसुरि षट्दर्शन के मर्मज्ञ एवं अनेक विद्या एवं लब्धियों के ज्ञाता थे और उस समय बौद्ध बेदान्तियों और वामवार्गियों के आक्रमण के सामने जैन धर्म जीवित रह सका यह उन विश्वोपकारी आचार्य रत्नप्रभसूरि जैसे प्रभावशाली आचार्यों का ही उपकार समझना चाहिये । में सूरिजी ने सारी नगरी से विहार कर क्रमशः तक्षशिला पधारे तक्षशिला का तुकों के द्वारा भंग होने से पहले वाली तक्षशिला नहीं पर सर्वथा जैनों से निर्वासित भी नहीं थी वहाँ उस समय बहुत से जैन बसते भी थे कई मन्दिरों पर बोद्धों ने अपना कब्जा कर लिया था पर श्राचार्य रत्नप्रभसूरि के पधारने से जैनों पुनः जागृति हो आई थी श्राचार्यश्री ने तक्षशिला का हाल देख वहाँ पर एक चतुर्विध संघ की सभा करने का विचार किया वहाँ के श्रीसंघ को कहाँ तो उन्होंने सूरिजी का कहना स्वीकार तो कर लिया पर उनके दिल में यह भय था कि यहाँ बोद्धों का जोर अधिक है फिर भी उनका गुरुदेव पर विश्वास था पंजाब सिंध शुरसेनादि कइ प्रान्तों में आमन्त्रण भेज दिये ठीक समय पर चतुर्विध संघ खूब गेहरी तादाद में एकत्र हुआ और श्राचार्य श्री के नायकत्व में सभा हुई सबसे पहला यह वस्ताव रखा गया कि बोद्धों ने अपने मन्दिर दबा लिया है उनको पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये दूसरा जैनधर्म का प्रचार करने के लिये मुनियों का विहार और श्रावकों को भी प्रयत्न करना जरूरी है इत्यादि इस सभा का जनता पर काफी प्रभाव पड़ा बहुत से मन्दिर बं द्धों से वापिस लेकर उनकी पुनः प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ के श्री संघ की त्याग्रह होने से वह चतुर्मास सूरिजी ने तक्षशिला में ही किया भाद्र गोत्रीय शाह चंचग के महा महोत्सव पूर्व व्याख्यान में महाप्रभाविक श्री भगवतीजी सूत्र फरमाया जिनका जैन जैनेतर जनता पर बहु असर हुआ विशेषता यह थी कि श्रेष्ठत्री शह हाप्पा ने सम्मेतशिखर तीर्थ की यात्रार्थ संघ निकलने का निश्चय किया उसने बहुत दूर-दूर तक आमन्त्रण पत्रिका भेज कर श्री संघ को बुलाया तथा आत्मकल्याण की भावना वाले बहुत लोग ठीक समय पर आ भी गये और चतुर्मास समाप्त होते ही सुरिजी की अध्यक्षत्व में संघ यात्रार्थ प्रस्थान कर दिया संघपति की माला शाह हाप्पा का कण्ठ में सुशोभित थी रास्ता के तीर्थों की यात्रा करते हुए संघ सम्मेत शेखरजी पहुँचा तीर्थ का दर्शन स्पर्शन कर सबने श्रानन्द मनाया सूरिजी ने शाह हाप्पा को उपदेश दिया कि यह बीस तीर्थङ्करों एवं आचार्य कक्कसूरि की निर्वाणभूमि है मन्त्री पृथुसेन के पुत्र ने यहाँ पर दीक्षा ली हैं ऐसा सुअवसर बार बार मिलना मुश्किल है प्रवृति में सबसे बड़ा कार्य संघ निकालने का है तब निवृति में दीक्षा लेना है । सूरिजी के उपदेश का भाव हाप्पा समझ गया और अपने जेष्ठ पुत्र कुम्भा कों संघपति की माला पहना कर शाह हाप्पा सूरिजी के पास दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया आपके अनुकरणरूप में कई ११ नर-नारी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । सूरिजी ने उन सबकों दीक्षा दे दी । कइ मुनियों के साथ संघ वापिस लौट गया और सूरिजी अपने ५०० मुनियों के साथ पूर्व में बिहार किया और बोद्धों के बढ़ता हुआ जोर को हटा कर जैनधर्म का प्रचार बढ़ाया-पाटलीपुत्र, चम्पा, अयोध्या, राजग्रह, तुर्गिया वाणियाग्राम, कांकादी, वैशाला और हेमाला एवं कपिलवस्तु तक विहार कर जनता को जैनधर्म का उपदेश दिया बाद कलिंग की ओर बिहार कर उदयगिरि खण्डगिरि जो शत्रुंजय गिरनार अवतार के नाम से तीर्थ कहलाते थे तक्षशिला में चतुर्विध संघ की सभा ] ८२३ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४००-४२४ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वहाँ की यात्रा कर क्रमशः मथुरा आकर चतुर्मास किया इन तीन वर्षों के भ्रमन में सूरिजी ने हजारों अजैनों को जैन बनाये और जैनों को धर्म में स्थिर किये । जिस समय सुरिजी मथुरा में विराजमान थे उस समय मथुरा में बोद्धों का भी खूब जोर जमा हुश्रा था पर सूरिजी और आपके विद्वान् शिष्यों के सामने बोद्धों की कुछभी दाल नही गल सकती थी सूरिजीका व्याख्यान हमेशा त्याग, वैराग्य एवं तत्त्वज्ञान पर होता था जिसका प्रभाव जनता पर खूब ही जोरदार होता था कइ भावुकों ने जैन मन्दिर बनाये थे उनकी प्रतिष्ठा सूरिजी के कर कमलों से हुई तथा कइ महानुभावों ने जैन दीक्षा भी ली वहाँ से विहार कर सूरिजी महाराज क्रमशः मरुधर में पधार रहे थे उस समय चंदेरी नगरी पे मरकी का रोगा ने बड़ा भारी उपद्रव मचा रखा था श्रीसंघ ने सुना कि आचार्य रत्नप्रभसूरि महा प्रभाविक है उनके आने से रोग की शान्ति हो जायगी अतः संघ अग्रेसर लोग मिलकर विराट नगर में श्राये और सूरिजी से अपनी दुख गाथा कह सुनाई । परोपकारी महात्माओं का तो जन्म ही जनता का कल्याण के लिये होता है सूरजी बिहार कर चंदेरी पधारे और वहाँ वृहद शान्ति स्नात्र पढ़ाई कि उपद्रव शान्त हो गया जिससे जैनधर्म की प्रभावना हुई जैन जैनेत्तर सूरिजी का उपकार माना। कई दिनों की स्थिति के वाद, बुंदेलखंड एवं आवंती प्रदेश में बिहार करते हुए आपने दशपुर में चतुर्मास किया वहाँ भी आप श्री के विराजने से धर्म की खूब ही प्रभावना हुई वहाँ से चित्रकोट नगरी देवपट्टन, आधाट, विराट वगैरह छोटे बड़े प्रामों में भ्रमन करते हुए सूरिजी ने मरुधर में पदार्पण किया। आप षष्टम रत्नप्रभसूरि थे पर जनता को आद्य रत्नप्रभसूरि की स्मति हो रही थी । आचार्य श्री ने शाकम्भरी, हंसावली, पद्यावली, कुर्चपुरा, मुग्धपुर भवानीपुर नागपुर, आशिकादुर्ग, हर्षपुर, मेदनीपुर, क्षत्रीपुर, वगैरह ग्राम नगरों में बिहार करके जब शंखपुर पधारे तो वहाँ के श्री संघ में खूब उत्साह फैल गया कारण सूरिजी की यह जन्म भूमि थी जैसे सूरिजी को अपनी जन्म भूमिका का गौरव था वैसे ही नगर निवासियों को भी गौरव था कि हमारे नगर में ऐसे अमूल्य रत्नोत्पन्न हुए कि संसार भर में शंखपुर को पावन एवं प्रसिद्ध कर दिया श्री संघ ने सूरिजी के नगर प्रवेश क महोत्सव बड़े ही समारोह से किया सूरिजी ने मन्दिरों के दर्शन कर धर्म दर्शना दी। जिसका जैन जैनेत्तर जनता पर छाच्छा प्रभाव पड़ा । तत्पश्चात् श्री संघ ने सूरिजी से चतुर्मास की प्रार्थना की कि पूज्यवर ! आप आचार्य होने के बाद अब ही पधारे है कमसे कम एक चतुर्मास तो अवश्य करना चाहिये । अतः सरिजी ने श्रीसंघ की विनती स्वीकार कर वह चतुर्मास जन्म भूमि में कर दिया आपके विराजने से धर्म का अच्छा उद्योत हुआ कई ब्राह्मण वगैरह जो जैनधर्म के विषय में अज्ञात रहकर भ्रम में गोथे खारहे थे सूरिजी ने उनका समाधान कर जैन धर्म के अनुरागी बनाये कइ मांस भक्षियों का उद्धार कर उनकों जैनधर्मोपासक बनाये और भी कई प्रकार से धर्म की प्रभावना हुइ चतुर्मास समाप्त होते ही पाच पुरूष और ७ बहिनों ने सूरिजी के नरणों में दीक्षाली तत्वपश्चात् सूरिजी विहारकर छोटे बडे ग्रामों में भ्रमण करते हुए भाडव्यपुर होते हुए उपकेशपुर की ओर पधार रहे थे यह शुभ समाचार सुना तो श्रीसंघ के उत्साह का पर नहीं रहा श्रीसंघ ने नगर प्रवेश का बड़ा ही आलीशान महोत्सव किया और सूरिजी चतुर्विध श्रीसंघ के साथ भगवान् महावीर एवं आचार्यरत्नप्रभसूरिजी की यात्रा की और श्रीसंघ को थोडी पर साणर्भेत धर्म देशना सुनाई आज उपकेश पुर के घर-घरमें आनन्द मंगल छारहा है क्यो नही सक्षात्कल्प वृक्षका शुभागमन हुआ इससे बढ़कर आनन्द क्या हो सकता है। देवी सच्चायिका भी समय समय सूरिजी को वन्दन करने को आया करती थी और यह ८२४ .. [आचार्य श्री का विहार की विशालता Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ८००-८२४ भी प्रार्थना की थी कि पूज्य आचार्य देव आपने मरुधर की पवित्र भूमि पर जन्म लेकर केवल मरुधर पर ही नहीं पर भारत पर बड़ा भारी उपकार किया है यह वही उपकेशपुर है कि आपके पूर्वजों ने जैनधर्म का बीज बोया और पिच्छले प्राचार्यों ने उसको जलसिंचन कर नवप्लव बनाया । कृपा कर यह चतुर्मास यहां कर के यहाँ की जनता पर उपकार करावे आपके विराजने से मुझे भी दर्शनों का लाभ मिलेगा। सूरिजी ने कहाँ देवीजी क्षेत्रस्पर्शना होगा तो मुझे तो कही न कही चतुर्मास करना ही है । यह कब हो सकता है कि इस गच्छ के आचार्य आपकी विनती स्वीकार नहीं करे। दूसरे हमारे लिगे तो यह एक पवित्र तीर्थ धाम हैं आचार्य रत्नप्रभसूरि के शुभ हाथों से शासनाधीश चरमतीर्थकर की स्थापना हुई जिसकी उपासना तो प्रबल्य पुन्योदय से ही मिलती है इत्यादि सूरिजी के कहने से देवी को बड़ा हो संतोष होगया। उस समय उपकेशपुर का शासन कर्ता महाराजा उत्पलदेव की सन्तान परम्परा के राव भाल्हन देव था आप वंश परम्परा से ही जैन धर्म के परमोपासक थे सूरिजी के पधारने से आपको बड़ा ही हर्ष था कारण आपका लक्ष आत्मकल्याण की ओर विशेष रहता था । अतः एक दिन श्रीसंघ एकत्र हो सूरिजी से चतुर्मास की प्रार्थना की जिस पर सूरिजी ने लाभालाभ का कारण जान श्रीसंघ की विनति को स्वीकार करली। दूसरे यह भी था कि उपकेश गच्छ के आचार्य उपकेशपुर पधारे तो कम से कम एक चतुर्मास तो वहां अवश्य करते ही थे जिसमें सूरिजी की तो अवस्था ही वृद्ध थी। रावजी ने महामहोत्सव पूर्वक श्री भगवतीजी सूत्र को अपने वहां लाकर रात्रि जागरण पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्या किया और हस्ति पर सूत्रजी विराजमान कर वरघोड़ा चढ़ा कर सूरिजी को अर्पण किया और सूरिजी ने उस म्हाप्रभाविक शास्त्रजी को व्याख्यान में बांचकर श्रीसंघ को सुनाया जिसको सुन कर जनता ने अपूर्व लाभ उठाया। सूरिजी के विराजने से धर्म का खूब ही उद्योत हुआ अपनी २ रूची के अनुसार सब लोगों ने यथाशक्ति लाभ लिया। एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन सुनाते हु र फरमाया कि महानुभावों! जिन महापुरुष ने इसी उपकेशपुर में धर्म रूपी वृक्ष का बीज बोया था और पिछले आचार्यों ने उसको जल सिंचन कर नवप्लव बनाया जिसके ही मधुरफल है कि आज हम जहां जाते है वहां उपकेशवंश उपकेशवंश ही देखते है और वे भी देवी सञ्चायका का वरदान से 'उपकेशे बदुल द्रव्यं धन धान एवं परिवार से समृद्ध और धर्म करनी में तत्पर नजर आते है और वे भी केवल मरुधर में ही नहीं पर लाट सौराष्ट कच्छ सिन्ध कुनाल पांचाल शुरसेन पूर्व बंगाल बुन्देलखण्ड आवन्ति मेदपाट तक हमने भ्रमन करके देखा है कि कोई भी प्रान्त उपकेशवंश से शुन्य नहीं पाया उनको पूछने से यह भी ज्ञात हुआ है कि प्रायः वे लोग अपनी व्यापार सुविधा के लिये ही वहां गये थे बाद में जैनाचायों ने वहां के अजैनों को जैन बना कर उनके शामिल मिलाते गये थे कि उनकी संख्या बहुत बढ़ गई। इस पवित्र कार्य में उन आचार्यों का प्रयत्न तो था ही पर साथ में महाराजा उत्पलदेव मंत्री ऊहड़ादि धर्मवीर गृहस्थों एवं उनकी सन्तान परम्परा का भी सहयोग था तथा देवी सच्चायिका की भी पूर्ण कृपा थी जिससे इस पुनीत कार्य में आशातीत सफलता मिलती गई पूर्वाचार्यों की यह भी एक पद्धति थी कि वे नैनों के केन्द्र में समय समय सभाएँ करके चतुर्विध श्रीसंघ को और विशेषतय श्रमण संघ को जैनधर्म का प्रचार के लिये प्रेरणा एवं उत्साहित करते थे तथा कोई भी प्रान्त जैन साधुओं से निर्वासित नहीं रखते थे। दूसरा यह भी था कि जहां नये जैन बनाये वहां उनके आत्मकल्याण के लिये जैन मन्दिर एवं विद्यालय की प्रतिष्ठा देवी सच्चायिका की सूरिजी से विनति ] ८२५ Jain Education inte१०४ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० ४००-४२४ वर्ष [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास करवा ही देते थे कि श्रद्धा एवं ज्ञान की वृद्धि और धर्म के संस्कार मजबूत जम जाते थे। समय समय तीथों की यात्रार्थ संघ निकलवा कर भी जनता में धर्म उत्साह फैलाया करते थे इत्यादि कारणों से ही वह धर्म वृक्ष अपनी शाखा प्रति शाखा से फला फूला आनन्द में आत्मकल्याण साधन कर रहा है । इत्यादि सूरिजी ने जनता पर अच्छा प्रभाव डाला । जिससे राजा एवं प्रजा के हृदय में धर्म प्रचार की बिजली सतेज होगई। एक समय राव आल्हणदेवादि संघ अग्रसर एकत्र होकर सूरिजी के पास गये वन्दन करके धर्म प्रचार के विषय में बातें कर रहे थे राजा ने कहां पज्यवर ! आपश्रीजी का पधारना हो गया है यहां पर एक सभा की जाय कि जिसमें चतुर्विध श्रीसंघ को बुलाया जाय और धर्म प्रचार के लिये प्रयत्न किया जाय। यहां पर पहले भी कईवार सभाए हुई थी जिसमें अच्छी सफलता मिली थी इस समय भी श्रीसंघ को यही भावना है। केवल आपकी सम्मति की ही जरूरत है। ___ सूरिजी ने फरमाया कि रावजी आपकी भावना एवं धर्म प्रचार की योजना बहुत अच्छी हैं और हमारे और आपके पूर्वजों ने इसी प्रकार धर्म प्रचार बढ़ाया था सभाए धर्म प्रचार का मुख्य कारण हैं मैं मेरी सम्मति देता हूँ कि आप धर्म प्रचार को बढ़ाइये। बस फिर तो क्या देर थी श्रीसंघ ने वहुत दूर दूर प्रान्तों तक आमन्त्रण भेजवा दिया और आगन्तु ओं के लिये सब तरह का प्रबन्ध कर दिया। सभा का समय माघ शुरु पूर्णिमा का रखा जो आचार्य रत्नप्रभसूरि का स्वर्ग रोहण दिन था। समय तीन मास जितना लम्बा रखा गया था कि नजदीक एवं दूर से साधु साध्वियों आ सके । अर्थान् ठीक समय पर कइ तीन हजार साधु साध्धियां उपकेशपुर को पावन बनाया इसमें केवल उपकेशगच्छ के ही साधु साध्वियां आदि नहीं थे पर कोरंटगच्छ एवं वीर सन्तानिये सौधर्मगच्छ के साधु साध्वियों भी शामिल थे तथा श्राद्दवर्ग भी बहुत संख्या में आये थे इसका कारण एक तो भगवान् महावीर की यात्रा दूसरा आद्याचार्य रत्नप्रभसूरि का स्वर्गवास दिन तीसरा हजारों साधु साध्वियों के दर्शन चतुर्थ लाखों स्वधर्मी भाइयों का समागम, पांचवा धर्म प्रचारार्थ सभा, छटा आचार्य रत्नप्रभसूरी की वृद्धावस्था में दर्शन एवं सेवा, चलो ! ऐसा पुनीत कार्य में पिच्छ रहना कौन चाहता था ? अर्थात कोई नहीं चाहता। ठीक समय पर सभा हुई आचार्य रत्नप्रभसूरि ने आद्याचार्य रत्नप्रभसूरि और बाममार्गियों वगैरह मरुधर का इतिहास समझाया और वर्तमान में प्रत्येक प्रान्तों में अपने भ्रमन का हाल सुनाया। बोद्ध लोग अपना प्रचार किस प्रकार बढ़ा रहे है साथ में जैनों का क्या कर्तव्य है जैन श्रमणों को क्या करना चाहिये जैन गृहस्थ जैन धर्म का किस प्रकार सहायक बन सकते है इत्यादि आप श्री ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा मार्मिक शब्दों में इस प्रकार उपदेश दिया कि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में जैन धर्म का विशेष प्रचार की भावना जागृत होगई । अतः जैन श्रमण एवं श्राद्धवर्ग उत्साह पूर्वक अर्ज की कि पूज्यवर ! धर्म प्रचार के लिये हम हमारा सर्वस्व अर्पण करने को तैयार है जिस प्रान्त में जाने की आज्ञा फरमावे हम विहार करने को कटिवद्ध तैयार है इत्यादि । भगवान महावीर की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। प्राचार्य रत्नप्रभसूरी ने देवी सच्चायिका की सम्मति लेकर आये हुए ‘घ के समीक्ष मुनि प्रमोदरत्न को अपने पट्ट पर प्राचार्य बना दिया तथा अन्य भी योग्यतानुसार कई मुनियों को पदवियों प्रदान कर उनके उत्साह को बढ़ाया और योग्य स्थान के लिये आज्ञाएँ देदी कि अमुक मुनि अमुक प्रान्तों में विहार कर धर्म प्रचार करे। राजा आल्हणदेव वगैरह उपकेश र का श्रीसंघ अपने कार्य की सफलता देख बड़ा ही आनंद Jain Educenternational [ उपकेशपुरमें श्रमणसमा-सूरिजी का उपदेश For Private & Personar Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभरि का जीवन ] । ओसवाल संवत् ८००-८२४ मनाया आये हुए श्रीसंघ को पेहरामणी वगैरह देकर विसर्जन किया कार्य की सफलता से उनके दिल में भी हर्ष का पार नहीं था। पाठकों ! आज कांग्रेसो, कान्फरन्से, मीटिंगे, कमेटिये और सभाए कोई नयी बातें नहीं है पर प्राचीन समय से ही चलती आई थीं उसके पहले धर्म प्रचार के लिये तीर्थङ्करों के समवसरण रचा जाता था वे भी एक प्रकार की समाए ही थी उस जमाने में और आज के जमाने में केवल इतना ही अन्तर है कि पूर्व जमाना में जो कार्य करना चाहते थे सर्व सम्मति से निश्चय कर कार्यकर्त्ता तन मन एवं धन से उस कार्य को करके ही निद्रा लेते थे तब आज प्रस्ताव पास कर रजिस्टरों में बान्ध कर रख दिया जाता है। विशेषता यह है कि काम करना कोई चाहते नहीं है पर एक दूसरे पर व्यर्थ अक्षेप करके मतभेद खड़ा कर देते है जिससे कार्य करना तो दूर रहा पर उल्टी पार्टियों बन जाती है और जनता का भला के स्थान बुरा हो जाता है। खैर आचार्य रत्नप्रभसूरि अपनी वृद्धावस्था के कारण उपकेशपुर के श्रीसंघ की अति आग्रह होने से वहां ही विराजमान रहे नूतनाचार्य यक्षदेवसूरि भी आपकी सेवा में ही थे सूरिजी ने गच्छी का सर्व भार यक्षदेवसूरी के सुपर्द कर आप अन्तिम सलेखना करने में लग गये अन्त में लुणाद्री पहाड़ी पर १६ दिन का अनसन कर समाधि पूर्वक स्वर्ग पधार गये। आचार्य रत्नप्रभसूरी महान प्रभाविक एवं धर्म प्रचारक आचार्य हुए है आप उपकेशगच्छ में षष्टम् आचार्य अर्थात इस नाम के अन्तिमाचार्य हुए है। आपश्री ने अपने २४ वर्ष का दीर्घ शासन में प्रत्येक प्रान्त में विहार कर जैन धर्म का खूब ही प्रचार किया आपने बहुत से मुमुक्षुओं को दीक्षा देकर श्रमण संघ में भी अच्छी वृद्धि की यही कारण है कि अपने प्रत्येक प्रान्त में मुनियों का विहार करवा कर जैन धर्म का प्रचार बढ़ाया था पट्टावलियों वंशावलियों, आदि ग्रंथों में आपके शासन में धर्म कार्यों के कई उल्लेख मिला है। प्राचार्यश्री के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ--- १-शंखपुर के श्री श्रीमालगौ० शाह जैता ने दीक्षा ली २-यासिकादुर्ग के आदित्य नागगौ। भारमल ने ३- अरजुनपुर के भाद्रगोत्रीय , भाणा ने ४-नागपुर के कुमटगौत्रीय ___ चूड़ा ने ५-उपकेशपुर के डिडूगौत्रीय सालगने ६ -शाम्बाकतरी के लघुश्रेष्ठिगी. सखला ने ७-फलवृद्धि के चिंचटगी० पोलाक ने ८-कोरंटपुर के श्रेष्टिगौत्री जिनदास ने ९-सत्यपुर आदित्यनाग मांझण ने १०-सांगली के बाप्पनाग० जोरा ने ११-सेननगर के भूरिगोत्रीय० फागु ने १२-गोसलपुर के करणाटगौ० जल्हण ने आचार्य रत्नप्रभसूरि का स्वर्गवास ] ८२७ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४००-४२४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास " भूला ने घंघा ने ब्राह्मण १३- नरवर के तप्ताभट्टगौ० शाह भैरा ने दीक्षा ली १४-वीरपुर के चरड़गौत्रीय १५-भुनपुर के मल्लगोत्रीय मेहराज ने १६-चन्दोली गागर ने १७-मराठेकोट के सुधड़गौ० हाप्पा ने १८-त्रिभुवन के सुंगगौ० देपाल ने १९-जोगनीपुर के कुलभन्द्रगौ जसा ने २०-बावलपुर के करणाटगौर नागदेव ने २१-लोद्रवापट्टन के लघु श्रेष्टिगौ० रामा ने २२-चौवाटन के श्रष्टिगौर २३-हनुमानपुर के बलाहगौर गेंदा ने २४-करणावती के कनोजियागौ पाता ने २४-मांड महादेव ने २५-अयोध्या के क्षत्रीवीर नेतसी ने २६--पाडलीपुत्र के प्राग्वटवंशी नोंधण ने २७-मादड़ी प्राग्वटवंशी शांखला ने २८--सोमावा के श्रीमालवंशी पदमा ने २९-कथोली सुघड़गोत्री० जिनदास ने ३०-कुनणपुर श्रेष्ठिगोत्री० , पारस ने ३१-बीलपुर के बाप्पनागगौ० , जोगड़ा ने ३२-मथुरा के श्रेष्टिगौत्री० ,, माथुर ने १३-चंदेरी के सुचंतिगी. , मोकल ने यह तो वंशावलियों से केवल एकेक नाम ही लिखा है पर इन एकेक भावुकों के साथ अनेक मुमुक्षुओं ने तथा कई महिलाएँ ने भी सूरिजी तथा आपके मुनिवरों के पास दीक्षा लेकर स्वपर का कल्याण किया था। यदि इन दीक्षा वालों का विवरण लिखा जाय तो एक अलग ग्रंथ बन जाता है कारण जैनों की करोड़ों की संख्या थी चौबीस वर्ष का भ्रमण में दो चारसौ दीक्षा हो गई हो तो कौन बड़ी बात है । प्राचार्य श्री के शासन में तीर्थों के संघादि शुभ कार्य१-सोपार पट्टन से श्रेष्टिगौत्रीय साह खेतसी ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला । २-देवगिरि से मल्लगी० शाह नाथा ने ३-भरोंच नगर से प्राग्वट पेथा ने ४-पद्यावती से मंत्री देदा ने " " ५-नरवर से श्री श्रीमाल० सेवा ने [ आचार्य श्री के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ ८२८ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ८००-८२४ ६-पोतनपुर से बाप्पनाग० माणा ने ७-उज्जैन से भाद्रगौ० रघुवीर ने ८-चित्रकोट से कुंभटगौ० टावा ने ९-चन्द्रावती से करणावट गौ० डावर ने १०-कन्याकुब्ज से प्राग्वट राणा ने ११- मथुरा से श्रेष्ठिगो. जैतल ने १२---उपकेशपुर के राव आल्हणने वि० सं० ४१३ का दुकाल में शत्रुकार दिया १३-चन्द्रावती के प्राग्वट मंत्री नारायण ने सं० ४१२ , , १४-शिवगढ़ के कुलभद्रगौ० शाह क्षेमाने वि० सं०४२० कादु काल , १५-भिन्नमाल के श्रीमल गुंगला ने एक वडा तलाव खुदाया १६-करणावती के श्रीमाल देवाने २२ वर्ष की उमर में दम्पति चोथा व्रत लिया १७-- जिसमें श्रीसंघ को सवासेर का लाढू और पांच पांच सोना मुहर पेरामणी दी १८-खेतड़ी का मंत्री मोहण युद्ध में काम आया । १९-उपकेशपुर का श्रेष्टि झमार युद्ध में काम आया .. २०-नागपुरका प्राग्वट वीर हरदेव २१-जंगालुका वीरहरगो. नानग २२--मेदनीपुरका भूरिगी० प्रहलाद २३-पद्मावतीका श्रेष्टिगौ० २४ - सत्यपुरका श्रेष्टिगौ० २५-वीरपुरका भाद्रगोत्र शादूल २६-हर्षपुरका कनोजिया० चटान २७-मुग्धपुरका डिडुगी. नरसिंह २८- षटकुपका प्राग्वट० जिनदास इनके अलावा भी आचार्य श्री के शासनमें कई जानने योग्य बात हुई थी पर स्थान के अभाव उन सबको यह उद्धृत कर नहीं सकते हैं सूरीश्वर जी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्टाएँ १-पटहडी के प्राग्वटवंशी शाह धर्मसीने भ० महावीर म. प्र. २-मुधानगर के उकोशिया० , कुकाने " " ३-केरलिया के मलगौ० , आल्हणने , ४-डामरेलनगर के भूरिगौ। , " इंदाने इदान , पाव ५-शालीपुर के चरड़गौ० , गोसलने " , " " ६-जाडोली के कुमटगौ० , पारसने " " " सरिजी के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएँ ] मोकल गोसल ८२९ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४००-४२४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रिषभ जैसिंघने " ७-त्रिभुवनपुर के सुघड़गौ. शाह सुरजणने भ० महावीर म० ८-विरशाली के लुंगगौ० होनाने , " " ९-पुनाकोट के अंष्टिगौ० करणाने १०-रेणुकोट के बाप्पनाग रावलने ११-जानाकोट के अदित्यनाग रामाने १२-परोली के लुंगगोत्री स्वंगारने धमक १३- मथुरा के भाद्रगौ० भैराने शान्ति १४- कपीलवस्तु के कुमटगौ. रोड़ाने सीमंधर १५-विशाला के चिंचटगौ० कानड़ने पद्यनाभा १६-खण्डगिरि बाप्पनाग० लाधाने महावीर १७-तोसली श्रष्टिगो० फुवाने १८-चासोर सुचंतिगौ० १९--मावोली डिडुगौ० बालाने , पार्श्व २८-बनारस कनोजिया० पेथाने २१-टेलीपुर के चिंचड़गौ० मगतुलाने , २२-माण्डवदुर्ग के चोरलिया० तोलाने २३-दसपुर के चरडगौ० जोंगाने श्रादीश्वर २४-खापोटी के मंत्री __ यशघरने , पार्व, २५-सापोटी श्रादित्य लछमणने २६-शाकम्भरी के श्रष्टिगी० विजाने , नेमि " " २७-पाल्हिका वाप्पनाग० भोलाने मल्ली २८-रत्नपुर के बलाहगौ० देवाने , महावीर , " २९-- रणस्थम प्राग्वट. चुडाने , सीमंधर ३०-चरपटनगर के प्राग्वट० खुमाने , पार्श्व ३१-चन्द्रावती के श्रीमाल " खीवाने , चंद्र इनके अलावा बहुत से घर देरासरों की भी प्रतिष्ठा करवाई थी जिन्हों का उल्लेख वंशावलियों पट्रावलियों वगैरह चरित्र ग्रन्थों में मिलता है पर स्थानाभाव उन सबका उल्लेख करने में हम असमर्थ हैं केवल नमूना मात्र की नामावली लिख दी है पाठक अनुमोदन कर पुन्योपार्जन करें। एक तीस पट्टसरि शिरोमण, रत्नप्रभ उद्योत किया । षट् दर्शन के थे वे ज्ञाता, ज्ञान अपूर्व दान दिया ॥ सिद्ध हस्त अपने कामों में जैन ध्वजा फहराया था । देश-देश में धवल कीर्ति, गुणों का पद न पाया था । इति श्री पार्श्वनाथ के ३१ ३ पट्टधर प्राचार्य रत्नप्रभसूरि महन् आचार्य हुए । [ आचार्य श्री के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्टाएँ ८३० Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० ३२-प्राचार्य श्री यक्षदेव सूरि ( षष्टम् ) सूरि नायक यक्षदेव पद्माक्कनौजियाख्यान्वये । त्रात्व बन्धुगणं महाधन व्यया दुष्काल पीड़ा बहम् ।। सोऽयं सूरिरनेक भव्य जनतोद्धारे रतो ग्रन्थकृत् । म्लेच्छात्नीतिपदातु रक्षण परो देवालया नाभयम् ॥ opyeoop चार्य श्री यक्षदेव सूरीश्वर जी महाराज यक्षपूजित महा प्रतिभाशाली उपविहारी धर्मप्रचारी और सुविहितशिरोमणि श्राचार्य हुए आपश्री चन्द्र को भांति, शीतल, सूर्य सदृश तेजस्वी, मेरू की तरह अकम्प, धरनी के सदृश धीरे, एवं सहनशील, मेघ की तरह चराचर जीवों के उपकारी, जन शासन के स्तम्भ, एक महान् आचार्य हुए है आप का जीवन जन कल्याणार्थ ही हु प्रा था पट्टावलीकारों ने आपका जीवन विस्तार से लिखा है तथापि पाठकों के कर्णपावन के लिये यहां पर संक्षप्त से लिख दिया जाता है। जिस समय का हाल हम लिख रहे है उस समय भारत के भूषण रूप करणावती नगरी अनेक जिनमन्दिरों से शोभायामन थी व्यापार का तो एक केन्द्र ही था वहाँ के व्यापारी लोग भारत के अलावा जल एवं स्थल रास्ता से पाश्चात्य प्रदेशों में भी व्यापार किया करते थे जिसमें अधिक व्यापारी उपकेशवंश के ही थे 'उपकेशे बहुत द्रव्यं' इस वरदान के अनुसार उन व्यापारियों ने न्याय नीति एवं सत्यता के कारण व्यापार में बहुत द्रव्य पैदा किया था और वे लोग उस द्रव्यको आत्मकल्याणर्थ एवं धर्म कार्य में व्यय कर पुन्यानुबन्धी पुन्य का भी संचय किया करते थे । आचार्य रत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन संघ के जो आगे चल कर अठारह गौत्र हुए थे उसमें कन्नौजियागौत्र भी एक था । उस कन्नौजिया गौत्र में शाह सारंग नामका धनकुबेर सेठ था जिसकी धवलकीर्ति चारो ओर प्रसरी हुइ थी शाह सारंग बड़ा ही उदार एवं धर्मज्ञ था पांच वार तीयों का संघ निकालकर संघ को सोना मुहरों और वस्त्रां की पेहरामणी दी थी सात बड़े यज्ञ जीमणवार किये थे याचकों को तो इतना दान दिया कि वे हर समय सारंग के यशोगान गाया करते थे शाह सारंग के गृहदेवी धर्म की प्रतिमूर्ति रोहणी नाम की स्त्री थी। माता रोहणी ने तेरह पुत्र और सात पुत्रियों को जन्म देकर अपना जीरन को सफल बनाया था जिसमें पात्ता नामका पुत्र बडाही तेजस्व एवं होनहार पुत्र था माता रोहणी ने भगवान् वासुपूज की आराधना अर्थ करणावती में एक प्रालीसांन मन्दिर बनाकर वासपूजतीर्थङ्कर की प्रतिष्टा भी करवाई थी। जब पात्ता के माता पिता का स्वर्गवास हुआ तो घर का सब भार पात्ता के शिर आपड़ा। पात्ता व्यापार में बडाहीदक्ष था उसने अपना व्यापारक्षेत्र को इतना विशाल बना दिया कि पश्चात्य प्रदेश इरान मित्र जावा जापान और चीनादि के साथ जल एवं थलके रास्ते थोकबद्ध व्यापार किया करता था कइ बन्दरों में तो आप अपनी दुकानें भी खोली थी। देवी सच्चायिका की आप पर बड़ी कृपा थी कि आपने व्यापार में करणावती में भगवान् वासपूज्य का मन्दिर ] ८३१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०४२४-४४० वर्ष ] [भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास पुष्कल द्रव्य पैदा किया। शाह पात्ता जैसे द्रव्योपार्जन करने में दक्ष था इसी प्रकार न्यायोपार्जिन द्रव्य का सदुपयोग करने में भी निपुण था जिसमें भी साधर्मि भाइयों की ओर आपका विशेष लक्ष था आपकों उपदेश भी इसी विषय का मिलता था। व्यापार में भी अग्रस्थान साधर्मी भाइयों को ही दिया करता था एक ओर तोजैन चार्यों का उपदेश और दूसरी ओर इस प्रकार की सहायता यही कारण था कि जैनेत्तर लोगों को जैन बना. कर सुविधास जैनधर्म का प्रचार बढ़ाया जाता था शाह पात्ता बहुकुटम्ब वाला होने पर भी उनके वहाँ सम्पथा यही कारण था कि लक्ष्मी बिना आमन्त्रण किये ही पात्ता के वहाँ स्थिर स्थाना डालकर रहती थी। जब वि० सं० ४२९ में एक जन संहारक भीषण दुकाल पड़ा तो साधारण लोगों में हा हा कार मचगया मनुष्य अन्न के लिये और पशु घास के लिये महान दुःखी हो रहे थे शाह पाता से अपने देशवासी भाइयों का और मुक् पशुओं का दुःख देखा नहीं गया। उसने अपने कुटम्ब वालों की सम्मति लेकर दुकाल पीड़ित जीवों के लिये अन्न और घास के कोठार खुल्ला रख दिया कि जिस किसी के अन्न घास की जरूरत हो बिना भेदभाव के ले जाओं फिर तो क्या था दुनियां उल्ट पड़ी पर इतना संग्रह कहा था कि पाता मुल्क कों अन्न एवं घास दे सके ? जहां तक मूल्य से धान घास मिला वहाँ तक तो पाता ने जिस भाव मिला खरीद कर आसा कर आये हुए लोगों को अन्न घास देता रहा। जब आस पाल में धन देने पर भी अन्न नहीं मिला इसका तो उपाय ही क्या था पर आये हुए दुःखी लोगों को ना कहना तो एक बड़ी शरम की बात थी शाह पात्ता की ओरत ने कहा कि इन दुःखियों का दुःख मेरे से भी देखा नहीं जाता है अतः मेरा भेवर ले जाओं पर इन लोगों को अन्न दिया करो। पात्ता ने अपने भाइयों को और गुमास्तों को भेज दिया कि देश एवं प्रदेश में जहां मिले वहां से अन्न एवं घास लाओं। बस चारों ओर लोग गये और जिस भाव मिला उस भाव से देश और प्रदेशों से पुष्कल धान लाये पर दुःकाल की भयंकरता ने इतना त्य रूप धारण कियाकि शाह पात्त के पास जितना द्रव्य था वह सब इस कार्य में लगा दिया पर दुकाल का अन्त नहीं आया। औरतों का जेवर तक भी काल के चरणों में अर्पण कर दिया कारण पात्ता की उदारता से सब दुनियां पात्ता के महमान बन गई थी अतः पाता ने अपने पास करोड़ों की सम्पति को वह सब इस कार्य में लगा दी जिसका तो कुछ भी रंज नहीं था पर शेष थोड़ा समय के लिये आये हए अाशाजन को निराश करने का बड़ा भारी दुःख था। आखिर शाह पात्ता ने तीन उपवास कर अपनी कुलदेवी सच्चायिका से प्रार्थना की कि यातो मुझे शक्ति दे कि शेष रहाहुआ दुकाल को सुकाल बना दू । या इस संसार से बिदा दें। देवी ने पात्ता की परोपकार परायणता पर प्रसन्न होकर एक कोथली (थेली) देदी कि जितना द्रव्य चाहिये उतना निकालते जाओं तुमारा कार्य सिद्ध होगा। बस देवी तो अदृश्य होगई शाहपात्ता ने पहिले दुःखी लोगों की सार संभाल ली बाद पारणा किया, अब तो पात्ता के पास अखूट खजाना आगया और शेष रहा हुआ दुकाल का शिर फोड़ कर उसको निकाल दिया जब वर्षाद पानी हुआ तो जनता पात्ता को आशीर्वाद देकर अपने २ स्थान को चली गई। शाहपात्ता अपने कार्य में सफल हुआ और पुनः तीन उपवास कर देवी की आराधना की जब देवी श्राई तो पात्ता ने कहां भगवती यह आपकी थेली संभाल लीजिये। देवी ने ने कहा पात्ता में तुझे थेली दे चुकी हूँ, इसको तुम अपने काम में ले । पात्ता ! तूं बड़ा ही भाग्यशाली है तेरे पुन्य से संतुष्ट हो यह थेली तुझे दी है इत्यादि । पात्ता ने कहा देवीजी आपने बड़ी भारी कृपा की पर ८३२ [पुन्यशाली पासा ने दुकाल का शिर फोड़ डाला Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० मेरा काम निकल गया अब इस थेली की जरूरत नहीं है अतः आप अपनी थेली ले जाइये । पात्ता के निस्पृही शब्द सुन देवी बहुत खुश हुई और कहा कि पात्ता तेरे पास थेली रहगी तो इसका दुरुपयोग नहीं पर सद्उपयोग ही होगा। देवों की दी हुई प्रासादी वापिस नहीं ली जाति है इस थेली को तु खुशी से रख । इत्यादि देवी की अत्याग्रह से पाता ने थली रखली पर उस थेली को अपने काम में नहीं ली । पाता ने पुनः व्यापार करना शुरु किया थोड़े ही समय में पात्ता ने बहुत द्रव्य पैदा कर लिया और मोरात वगैरह के व्यापार में धन बढ़ते क्या देर लगती है चाहिये मनुष्य के पुन्य खजाना में। पात्ता पहिले की तरह पुनः कोटी धीश बनगया कहा है कि समय चला जाता है पर बात रह जाति है शाह पात्ता की धवल कीर्ति अमर होगई जो आकाश में चन्द्र सूर्य रहगा वहां तक पाता की यशः पताका विश्व में फहराती रहगी किसी कवि ने ठीक कहा है कि " माता जिणे तो ऐसा जीण, के दाता के शूर, नहीं तो रही जे बांझड़ी मती गमाजे नूर।" धर्म प्राण लब्ध प्रतिष्टित पूज्याचार्य श्री रत्नप्रभसूरि अपने शिष्यमण्डल के साथ विहार करते हुए करणावती नगरी की ओर पधार रहे थे यह शुभ समाचार करणावती के श्रीसंघ को मिला तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा। जनता आपके पुनीत दर्शनों की कई अौ से अभिलाषा कर रही थी श्रीसंघ ने बड़ा ही अालीसान महोत्सव कर सूरिजी को नगर प्रवेश कराया सूरिजी ने थोड़ी पर सार गर्भित देशना दी जिसमें त्रिलोक्य पूजनीय तीर्थङ्कर भगवान् दीक्षा के पूर्व दिया हुआ वर्षीदान का इस प्रकार वर्णन किया कि परिषदा पुन्यशाली पात्ता की ओर टीकटकी लगा कर देखने लगी। किसी एक व्यक्ति से रहा नहीं गया उसने कहा पूज्यवर ! तीर्थङ्कर भगवान तो एक अलौकिक पुरुष होते है उनकी माता विश्व भर में ऐसे एक पुत्र रत्न को ही जन्म देती हैं उनकी बराबरी तो कोई देव देवेन्द्र भी नहीं कर सकते है पर इस कलिकाल में हमारे नगरी का भूषण शाहपात्ता अद्वितीय दानेश्वरी है इसने भयंकर दुकाल में करोड़ों रुपये नहीं पर अपनी ओरतों का जेवर तक अपने देशवासी भाइयों के प्राण रक्षणार्थ वोच्छावर कर दिये ? इत्यादि सूरिजी ने भी नौ प्रकार का पुन्य वतला कर शाह पात्ता के उद्धारता क खूब ही प्रशंसा की बाद में सभा विसर्जन हुई। प्राचार्य श्री का व्याख्यान प्रति दिन होता था आप जिस समय वैराग्य की धून में संसार की असारता का वर्णन करते थे तब जनता की यही भावना हो जाति थी कि इस घोर दुःखमय संसार को तिलांजली देकर सूरिजी के चरणों में दीक्षा लेकर आत्म कल्याण किया जाय तो अच्छा है। एक समय सूरिजी ने चक्रवर्ति की ऋद्धि का वर्णन करते हुए फरमाया कि महानुभावों ! मनुष्यों के अन्दर सब से बढ़िया ऋद्धि चक्रवर्ति की होती है जिनके चौदह रत्न और नवनिधान तथा इनके अधिष्टायिक पचवीस सहस्त्र देवता हाजरी में रहते हैं उन चौदह रत्नों में सात रत्न पांचेन्द्रिय है जैसे ---- १. सेनापति-चक्रवर्ति की दिग्विजय में सैना का संचालन करता है । २. गाथापति- खान पान वगैरह तमाम आवश्यक पदार्थ की व्यवस्था करता है । ३. वढ़ाई रत्न-जहां जरूरत हुई वहां मकान वगैरह की व्यवस्था करे । ४. पुरोहित -तुष्टि पुष्टि वगैरह शान्ति कार्य का करने वाला। ५. गजरत्न-युद्ध एवं संग्राम में विजय प्राप्त कराने वाला पाटवी हस्ति । आचार्य रत्नप्रभसरि करणावती में ] १०५ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४२४-४४० वर्ष] भिगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६. अश्वरत्न--चक्रवर्ति के खास सवारी करने के काम में आवे । ७. स्त्री रत्न- चक्रवर्ति के भोग विलास के काम में आवे । ये सात पंचेन्द्रिय रत्न अब सात एकन्द्रिय रत्न कहते है:१. चक्ररत्न- षट् खण्ड विजय के समय मार्ग दर्शक । २. छत्ररत्न-चक्रवर्ति पर छत्र तथा वरसाद समय सैना का रक्षण करे । ३. चामररत्न -नदी समुद्र से पार होने में काम आवे । ४. दण्डरत्न -- तमस्त्र गुफा के द्वारा खोलने में काम आवे । ५. खण्डगरत्न - दुश्मनों का शिर काटने में काम आवे । ६. मणिरत्न--अंधेरा में उद्योत करने के काम में आवे । ७. काकणिरत्न-तामस गुफा में ४९ मांडला करने के काम में श्रावे । इस प्रकार चौदह रत्न होते है तथा चक्रवर्ती के नौ निधान होते है उनके नाम और काम । १. नैसर्पः निधान--नये नये प्राम नगर पट्टनादि स्थान बनाने की विधि । २. पाण्डुक निधान-चौवीस जाति का धान उत्पन्न करना बीज बोनादि की विधि । ३. पिंगल निधान-गीनत विषय एवं सर्व प्रकार के व्यापार करने का विधान । ४. सर्वरत्न निधान- सर्व जाति के रत्नों की परीक्षा पहचान विषय की विधि । ५. महापन निधान-सर्व जाति के वस्त्र बुनना रंगना धोना वगैरह की विधि । ६. काल निधान-भूत भविष्य वर्तमान काल का शुभाशुभ फल वगैरह की विधि तथा शिल्पादि हुन्नर उद्योग वगैरह स्त्री एवं पुरुषों की तमाम कलाएँ। ७. महाकाल निधान-लोहा तांबा सोना रूपा मणि मुक्ताफलादि की उत्पति और भूषणादि की विधि । ८. मणवक निधान--शूरवीर योद्धा बनाना उनके सर्व प्रकार के शस्त्र बनाना चलाना की विधि ! ९. शंख निधान-सर्व प्रकार के नाटक गाना बजाना तथा धर्मार्थ काम मोक्ष एवं चारों पुरुषार्थ वगैरह की विधि । अतः इन नौ निधान में सब संसार के कार्यक्रम की विधि वतलाई है। और संसार में जितने न्याय नीति व्यापार कृषीकम खाने पीने भोग विलास सन्तानोत्पति आदिके साधन वगैरह जितने कार्य है उन सब का विधान इन नौ निधान में आ जाता है । चक्रवर्ति के चौदहरन और नौनिधान तो अपने सुन लिया है पर इनके अलावा भी बहुतसी ऋद्धि हैं। १-चौरासी लक्ष हस्ति इतने ही अश्व और रथ होते है। २~ छनुवै करोड़ पायदल हथियार बद्ध पैदल सिपाई होते है। ३-तेतीस करोड़ ऊँट और तीन करोड़ पोटिया भार वहने वाले बलद । ४-बत्तीस हजार मुगटबद्ध राजा चक्रवर्ति की सेवा में रहते है। ५-चौसट हजार अन्तेवर ( रानियों ) इनके साथ दो दो वरगणाए थी उन सब की गनती की जाय तो एक लक्ष और बराणु हजार १९२८०० और इतने ही रूप चक्रवर्ति वैक्रय बनाया करते है कि कोई रानी का महल चक्रवलि शून्य नहीं रहे। ६-बत्तीस हजार नाटक करने वाली मण्डलियां थी। ८३४ [चक्रवर्ती की ऋद्धि का वर्णन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२५-८४० ७-देश ६२ ०० पट्टन ४८००० मण्डप २४००० सन्निवेश ३६००० और प्राम ९६००००००० (एक प्राम में कम से कम दशहजार घर होना लिखा है।) ८-गायों के गोकल ३ करोड़। तीन करोड़ हल जमीन खड़ने के । ९-सेठ तीन करोड़ कोटवाल चौरासी लक्ष, वैद्य तीन करोड़, रसोइया ३६० मैला १४००० राजधानो ३६००० वाजा तीन लाख । १०-सोने के आग्रह २०००० रूपा को २४००० रत्नों की १६००० । ५१-चक्रवर्ति का लस्कर ४८ कोश में स्थापन होता था। इत्यादि चक्रवर्ति की ऋद्धि ग्रन्थान्तर कही है हां वर्तमान अल्पऋद्धि वाले लोग इन ऋद्धि को सुनकर श यद् विश्वास नहीं करते होगें पर जब मनुष्य के पुन्योदय होता है तब ऐसी ऋद्धि प्राप्त होना कोई असंभव सी बात नहीं है यह तो अखिल भारत की ऋद्धि बतलाई है पर आज देश विदेशों में एक-एक प्रान्त एवं राजधानी में भी देखी जाय तो बहुत सी ऋद्धि पाई जाति है तब असंख्य काल पूर्व उपरोक्त ऋद्धि हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कई लोग चक्रवर्ति के हस्ती अश्व रथ पैदल वगैरह की संख्या सुन कर संदह करते है पर भरतक्षेत्र के छखगहों का क्षेत्र फल का हिसाब लगा कर देखा जाय तो स्वयं समाधान हो सकता है। खैर इन ऋद्धि को भी चक्रवर्तियों ने असार समझी थी। इस प्रकार की ऋद्धि एवं सुख थे पर आत्मिक सुखों के सामने उन पद्गलिक सुखों की कुछ भी कीमत नहीं थी अतः चक्रवतियों ने उन भौतिक सुखों पर लात मार कर दीक्षा लेली थी तब ही जाकर वे संसार भ्रमन एवं जन्म मरण के दुःखों से छुटकारा पाकर मोक्ष के अक्षय सुखों को प्राप्त हुए थे और जिन चक्रवर्तियों ने आत्मा की ओर लक्ष नहीं दिया और पुद्गलिक सुखों को ही सुख मान लिया वे सातवी नरक के महमान बनगये कहा है कि 'खीणमात सुखा बहुकाल दुःखा' अर्थात् उस नरक के पल्योपम और सागरपम के आयुष्य के सामने मनुष्य की आयुः क्षण मात्र है अतः क्षणमात्र सुखों के लिये दीर्घ काल के दुःख सहन करना पड़ता है । अब इस पर आप लोग स्वयं विचार कर सकते हो कि प्राप्त हुई शुभ सामग्री का उपयोग किस प्रकार करना चाहिये इत्यादि सूरिजी ने बड़े हो वैराग्योत्पादक ब्याख्यान दिया। यों तो सूरिजी की देशना सुन अनेक भाबुकों का दिल संसार से हट गया था। परन्तु शाह पात्ता ने तो निश्चय ही कर लिया कि मिली हुई उत्तम सामग्री का सदुपयोग करना ही मेरे लिये कल्याण का कारण हो सकता है शाहपात्ता ने उसी व्याख्यान में खड़ा हो कर कहा पूज्यवर । आपने व्याख्यान देकर मोह निद्रा में सोये हुए हम लोगों को जागृत किया है दूसरों की मैं नहीं कह सकता हूँ पर मैं तो आपश्री जी के चरण कमलों में दीक्षा लेने को तैयार हूँ। सूरिजी ने कहा 'जहां सुखम' पर शुभ कार्य में विलम्ब नहीं करना कारण 'श्रेयसैबहुविघ्नानि' तथाऽस्तु बाद भगवान महावीर और सूरिजी की जयध्यनि के साथ सभा विसउर्जन हुई । पर आज तो करणावती नगरी में जहां देखो वहां दीक्षा की ही बातें हो रही है जैसे कोई वरराज की बरात के लिये तयारियें होती हों इसी प्रकार शाह पात्ता के साथ शिवरमणी के लिये तैयारियें होने लग गयी । शाह पात्ता की उस समय ५० वर्ष की उमर थी और पांच पांडवों के सदृश पात्ता के पांच पुत्र थे पात्ता के बारह बन्धु और उनके पुत्रादि बहुत सा परिवार भी था सबको कह दिया कि संसार असार है एक दिन मरना अवश्य है परन्तु दीक्षा लेकर मरना समझदारों के लिये कल्याण का कारण है ? पात्ता के एक सरिजी के व्याख्यान का प्रभाव और पाता ] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४२४-४४० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पुत्र चार भाई और उनकी स्त्रिये दीक्षा लेने को तैयार होगये तथा करणावती नगरी और आसपास के दर्शनार्थी श्राये हुए भावुकों से कई ७२ नर नारी दीक्षा रूपी शिवसुन्दरी के गले में वरमाल डालने को श्रातुर बन गये । जिन मन्दिरों में अष्टान्हिकादि अनेक प्रकार से महोत्सव करवाया जिस समय उन मोक्ष के उम्मेदवारों के साथ वरघोड़ा चढ़ाया गया तो मानों एक इन्द्र की सवारी ही निकली हो कारण सबके दिल में बड़ा भारी उत्साह था इस प्रकार की दीक्षा का ठाठ में ऐसा कौन व्यक्ति हतभाग्य है कि जिनके हृदय में आनन्द की लहर नहीं उठती हो । सूरिजी ने शुभ मुहूर्त एवं स्थिर लग्न में उन सबको विधि विधान के साथ भगवती जैन दीक्षा देकर संसार समुद्र से उनका उद्धार किया शाह पाता का नाम मुनि मोदरत्न रख दिया । शाह पात्ता संसार में बड़ा ही भाग्यशाली एवं उद्धार रत्न था । अब तो आपकी कान्ति एवं कीर्ति खब ही बढ़ गई । सूरिजी महाराज की भी आप पर पूर्ण कृपा थी मुनि प्रभोदरत्न ने स्थविर भगवान् का विनय भक्ति कर वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर लिया व्याकरण न्याय तक छन्द काव्य तथा ज्योतिष एवं अष्टाङ्ग महानिमितादि शास्त्रों के भी आप धुरंधर विद्वान एवं मर्मज्ञ वन गये शास्त्रार्थ में तो आप सिद्धहस्त थे कई स्थानों पर क्षणकषादी बोद्धों को आपने इस प्रकार परास्त किये कि आपश्री का नाम सुनकर वे घबरा उठते थे । विशेषता यह थी कि श्राप गुरुकुल बास से एक क्षण भर भी अलग रहना नहीं चाहते थे यही कारण है कि सोपरपट्टन के वाप्यनागगौत्रय शाह दुर्जण के महामहोत्सव पूर्वक आपको उपाध्याय पद से सुशोभित किया। तदान्तर आप सूरिजी के साथ अनेक प्रान्तों में भ्रमन कर जैनधर्म का प्रचार किया। एक समय आचार्य रत्नप्रभसूरि विहार करते हुए उपकेशपुर में पधारे वहाँ के श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज का सुन्दर स्वागत किया। सूरिजी महाराज की वृद्धावस्था के कारण व्याख्यान उपाध्याय प्रमोदरत्न दे रहे थे जिनका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ रहा था सूरिजी के उपदेश से धर्म प्रचार के लिये चतुर्विध श्रीसंघ की सभा हुई थी उस समय सूरिजी विचार कर रहे थे कि अब मी आयुष्य नजदीक है तो मैं मेरे पट्ट पर योग्य मुनि को सूरिपद दे दू ठीक उसी समय देवी सच्चायिका ने पाकर सूरिजी को वन्दन की सूरि जी ने धर्म लाभ देकर देवी से सम्मति ली तो देवी ने उपाध्याय प्रमोदरत्न के लिये अपनी सम्मति दे दी यही विचर सूरिजी के थे वस सुवह श्री संघ को सूचित कर दिया अतः वहां के श्रेष्टि गौत्रीय शाह गोसल ने अपने न्यायोपार्जित नी लक्ष द्रव्य व्यय कर सूरि पद का महोत्सव किया और सूरिजी ने उपाध्याय प्रमोदरत्न को आचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया तथा और भी कई योग्य मुनियों को पदवियां प्रदान की बाद गोशल ने बाहर से आया हुअा संघ को अनेक प्रकार की पेहरावनी देकर विसर्जन किया। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अपने चौबीस वर्ष के शासन में जैन धर्म का खूब ही प्रचार किया अन्त में उपकेशपुर की लुणाद्री पहाड़ी पर २७ दिन का अनशन कर स्वर्ग को ओर प्रस्थान किया। आचार्य यक्षदेवसरिजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली थे धर्म प्रचार बढ़ाने में विजयी चक्रवति की भांति सर्वत्र अपना धर्मचक्र वरता रहेथे । आपश्री ने उपकेशपुर से विहार कर मरुधर के छोटे बड़े ग्राम नगरों में धर्मोपदेश करते हुए आवंदाचल की यात्रार्थ पधारे वहाँ निर्वृति का स्थान देख कुछ अर्सा स्थिरता कर दी एक दिन आप मध्यन्ह में ध्यान कर रहे थे तो वहाँ की अधिष्टायिका चक्रेश्वरी एवं सच्चायिका दोनों देवियाँ आकर सरिजी को वन्दन किया सरिजी ने 'धर्मलाभ' दिया दोनों देवियों तथाऽस्तु कहकर सूरिजी की सेवा में ठहर गई । सूरिजी ने कहा कहो देवीजी भविष्य का क्या हाल है ? देवियों ने कहा पूज्यवर ! आप ८३६ [ यक्षदेव सूरि और आर्बुदाचल Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० भाग्यशाली है शासन के हितचिंतक एवं गच्छ का अभ्युदय करने वाले हैं पर यह पंचम पारा महाकर है इनके प्रभाव से कोई भी बचना बड़ा ही मुश्किल है । पूज्यवर ! आपके पूर्वजों ने महाजन संघ रूपी एक संस्था स्थापन करके जैनधर्म का महान् उपकार किया है अगर यह कह दिया जाय कि जैन धर्म को जीवित रक्खा है तो भी अतिशय युक्ति नहीं है और उनके सन्तान परम्परा में आज तक बड़ी सावधानी से महा. जन संघ का रक्षण पोषण एवं वृद्धि की है इसका मुख्य कारण इस गच्छ में एक ही प्राचार्य की नायकता में चर्तुविध श्री संघ चलता आया है पर भविष्य में इस प्रकार व्यवस्था रहनी कठिन है तथापि आप भाग्य. शाली है कि आप का शासन तो इसी प्रकार सुख शान्ति में रहेगा इत्यादि । सूरिजी ने कहा देवीजी श्राप का कहना सत्य है पूर्वाचार्यों ने इसी प्रकार महान उपकार किया है और इसमें आप लोगों की भी सहायता रही है इत्यादि वार्तालाप हुआ बाद वन्दन कर देवियां तो चली गई पर सूरिजी को बड़ा भारी विचार हुआ कि देवियों ने भले खुल्लमखुल्ला नहीं कहा है पर उनके अभिप्रायों से कुछ न कुछ होने वाला अवश्य है पर भवितव्यता को कौन मिटा सकता है। जिस समय आचार्य यक्षदेवसूरि श्रार्बुदाचल तीर्थ पर विराजते थे उस समय सौराष्ट्र में विहार करने वाले वीर सन्तानिये मुनि देवभद्रादि बहुत से साधुओं ने सुना कि आचार्य यक्षदेवसूरि अार्बुदाचल पर विराजते है अतः वे दर्शन करने को आये भगवान आदीश्वर के दर्शन कर सूरिजी के पास वन्दन करने को आये। सूरिजी ने उनका अच्छा सत्कार किया। देवभद्रादि ने कहा पूज्याचार्य देव आप बड़े ही उपकारी है आपके पूर्वजों ने अनेक कठनाइयों को सहन कर अनार्य जैसे बाममार्गियों के केन्द्र देशों में जैन धर्म रुपी कल्पवृक्ष लगाया और श्राप जैसे परोपकारी पुरुषों ने उनको नवप्लव बनाया जिसके फल आज प्रत्यक्ष में दिखाई दे रहे है अतः हम एवं जैन समाज आपके पूर्वजों एवं आपका जितना उपकार माने उतना ही थोड़ा है इत्यादि । सूरिजी ने कहा महानुभावों! आप और हम दो नहीं पर एक ही है उपकारी पुरुषों का उपकार मानना अपना खास कर्तव्य हैं साथ में उन पज्य पुरुषों का अनुकरण अपने को ही करना चाहिये श्राप जानते हो कि आज बौद्धों का कितना प्रचार हो रहा हैं यदि अपुन लोग धर्म प्रचार के लिये कटिवद्ध होकर प्रत्येक प्रान्त में बिहार नहीं करे तो उन पूर्वाचायों ने जिस जिस प्रान्त में धर्म के बीज बोये है वे फला फूला कैसे रह सकेंगे। इत्यादि वार्तालाप के पश्चात् जिन २ मुनियों के गोचरी करनी थी वे भिक्षा लाकर आहार पानी किया परन्तु अधिक साधुओं के तपस्या ही थी अहा हा पूर्व जमाना में साधुओं में कितनी वात्सल्यता कितनी विशाल उदारता और कितनी शासन एवं धर्म प्रचार की लग्न थी जहां कभी आपस में साधुओं का मिलाप होता वहां ज्ञान ध्यान एवं धर्म प्रचार की ही बातें होती थी आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने शिष्यों के साथ आये हुए मुनियों को भी श्रागमों की वाचनादि अनेक प्रकार से अध्ययन करवाया जिससे उन मुनियों को बड़ा भारी आनन्द हुआ तथा वे मुनि सरिजी की सेवा में रहकर और भी ज्ञान प्राप्ति करने का निश्चय कर लिया । इतना ही क्यों पर वे सूरिजी के विहार में भी साथ ही रहे सूरिजी बार्बुदाचल से विहार कर शिवपुरी पधारे और वहां पर बाप्पनाग गौत्रीय शाह शोभन ने एक कोटी द्रव्य व्ययकर भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा करवा कर शाह शोभनादि कह नर नारियों को दीक्षा दी जिस समय सूरिजी महाराज मार्बुदाचल के आस पास में भ्रमन कर रहे थे ठीक उस समय कभी कभी विदेशी म्लेच्छा का भी भारत पर आक्रमण हुए करते थे वे देवभद्रादि मुनियों का सूरिजी की सेवा में ] ८३७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४२४-४४० वर्ष] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास धर्मान्ध लोग धनमाल के साथ पवित्र मन्दिर मूर्ति पर भी दुष्ट परिणामों से हमले किया करते थे परन्तु वे धर्मप्राण आचार्य मन्दिरों के लिये अपने प्राणों की वोच्छावर करते देर नहीं करते थे कही उपदेश से कही विद्या बल से कही यंत्रादि से और कभी कभी अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार हो जाते थे इससे पाठक समझ सकते है कि उस समय श्रीसंघ की मन्दिर मूत्तियों पर कैसी दृढ़ श्रद्दा और हृदय में कैसी भक्ति थी यदि यह कह दिया जाय की इन मन्दिर मूर्तियों के जरिये ही जैन धर्म जीवित रह सका है तो भी कुच्छ अतिशय युक्ति नहीं है । इतना ही क्यों पर आज हम देखते है कि जैन धर्म की प्राचीनता के लिये सब से श्रेष्ट साधन है तो एक प्राचीन मन्दिर मूत्तियों ही है पाश्चत्य प्रदेशों में एक समय जैन धर्म का काफी प्रचार था इसकी साबुति के लिये भी आज वहाँ के भूगर्भ से मिली हुई मूर्ति के अलावा और क्या साधन है । इत्यादि मन्दिर मूर्तियों धर्म का एक खास अंग ही समझा जाता था। __ जिस समय सूरिजी महाराज मरूधर भूमि में विहार कर जैन धर्म का प्रचार बढ़ा रहे थे उस समय मेदपाट में कुच्छ बोद्धों के साधु आये और अपने धर्म का प्रचार बढ़ाने लगे क्रमशः वे आघाट नगर में पहुंचे और अपने धर्म की महिमा के साथ जैन धर्म की निन्दा भी कर रहे थे कारण आघाट नगर में प्रायः राजा प्रजा सब जैनधर्मोपासक ही थे । इस हालत में संघ अग्रेसरों ने मरुधर में आकर आचार्ययक्ष देवसूरि से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! श्राप शीघ्र ही मेदपाट में पधारें जिसका कारण भी बतला दिया सूरिजी ने बिना बिलम्ब मेदपाट की ओर विहार कर दिया और क्रमशः आघाट नगर के नजदीक पधारगये जिसको सुनकर बोद्ध भिक्षु पलायन करगये कारण पहिले कई वार सूरिजी के हाथों से वे परास्त हो चूके थे | श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक मृरिजी आघाटनगर में पधारे और अपने पास के बहुत साधुओं को मेदपाट में विहार करने की आज्ञा देदी। धर्म का प्रचार एवं रक्षण केवल वाते करने से ही नहीं होता है पर परिश्रम एवं पुरुषार्थ करने से होता है हम उपकेशगच्छचार्यो के विहार को देखते है तो ऐसा एक भी आचार्य नहीं था कि किसी एकादी प्रान्त में ही अपनी जीवन यात्रा समाप्त करदी हो। इसका एक कारण तो यह था कि उपकेशवंश प्राग्वटवंश और श्रीमालबंश आपके पूर्वजों के स्थापित किया हुआ था और इन वंशों की वृद्धि भी प्रायः उपकेशगच्छ के आचार्यों ने ही की थी उनका रक्षण पोषण और वृद्धि करना उनके नसों में ठूस ठूस कर भरा था दूसरे उपकेशवंशादि महाजन संघ भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में फैला हुआ था । क्योंकि इन वंशों में अधिकतर लोग व्यापारी थे और वे अपनी व्यापा' सुविधा के कारण हरेक प्रान्त में जाकर बस जाते थे अतः उनको धर्मोपदेश देने के लिये मुनियों को एवं आचार्यों को भी उन प्रान्तों में विहार करना ही पड़ता था श्राचार्य यक्षदेवसूरि ने श्राघाट नगर में चतुर्मास करदिया और आस पास के क्षेत्रों में अपने साधुओं को भी चतुर्मास करवा दिया कि मेदपाट प्रान्त भर में जैन धर्म की अच्छी जागृति एवं उन्नति हुई कई मन्दिरों की प्रतिष्टा करवाई कई भावुकों को भवतारणी दीक्षा दी बाद चतुर्मास के मेदपाट आवंति और बुन्देलखण्ड में विहार करते हुए। आप मथुरानगरी में पधारे। वहां पर भी बोद्धों का खासा जोर जमा हुआ था और जैनों की भी अच्छी आबादी थी आचार्य यक्षदेवसूरि के पधारने से वहां के श्रीसंघ में धर्म की खूब जागृति हुई सूरिजी का व्याख्यान हमेशा तात्विक दार्शनिक एवं त्याग वैराग्य पर इस प्रकार होता था कि जैन जैनेत्तर जनता सुनकर बोधको प्राप्त होती थी८३८ [ मेदपाट में सरिजी का पधारना और वौद्ध Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेव सूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० ___ आचार्य यक्षदेवसूरि की वादियों पर बड़ी भारी धाक जमी हुई थी मथुरा में बोद्धों का बड़ा भारी जोर होने पर भी आचार्यश्री एवं जैनधर्म के सामने वे चू तक भी नहीं करते थे। जिस समय आचार्यश्री मथुरा में विराजमान थे उस समय काशी की ओर से एक कपालिक नाम का वेदान्तिकाचार्य अपने ५०० शिष्यों के साथ मथरा में आया हुआ था उस समय वेदान्तिकों का जोर बहुत फीका पड़ चुका था तथापि आचार्य कपालिक बड़ा भारी विद्वान् था एवं आडम्बर के साथ आया था अतः वहां के भक्त लोगों ने उनका अच्छा सत्कार किया उन्होंने भी अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए जैन और बोद्ध को हय बतलाया। इस पर बोधों ने तो कुच्छ नहीं कहां पर जैनों से कब सहन होता जिसमें भी प्राचार्य यक्षदेवसूरि का वहां विराजना। जैनों ने आल्हान कर दिया कि आचार्य कपालिक में अपने धर्म की सच्चाई बताने की ताकत हो तो शास्त्रार्थ करने को तैयार होजाय । इसकों वेदान्तियों ने स्वीकार कर लिया और दोनों ओर से शास्त्रार्थ की तैयारी होने लगी। शर्त यह थी कि जिसका पक्ष पराजय होवे विजयिता का धर्म को स्वीकार करले। ठीक समय पर मध्यस्थ विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ हुश्रा पूर्व पक्ष जैनाचार्य यक्षदेवसूरि ने लिया आपका ध्येय 'अहिंसा परमोधर्म' का था और यज्ञ में जो मुक् प्राणियों की बली दी जाती है ये धर्म नहीं पर एक कूर अधर्म एवं नरक का ही कारण है विदान्तिक आचार्य ने यज्ञ की हिंसा वेद विहित होने से हिंसा नहीं पर अहिंसा ही है इसको सिद्ध करने को बहुत युक्तियें दी पर उनका प्रतिकार इस प्रकार किया गया कि शास्त्रार्थ की विजयमाल जैनों के शुभकण्ठ में ही पहनाई गयी। आचार्य कापालिक जैसा विद्वान् था वैसा ही सत्योपासक भी था आचार्य यक्षदेवसूरि के अकाट्य प्रमाणों ने उनपर इस प्रकार का प्रभाव डाला कि उसकी भद्रात्मा ने पलटा खाकर अहिंसा भगवती के चरणों में शिर मुका दिया और उसने अपने पांचसो शिष्यों के साथ प्राचार्य यशदेवसूरि के पास जैन दीक्षा स्वीकार करली जिससे जैन धर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई श्राचार्य श्री ने कपालिका को दीक्षा देकर कपालिक का नाम मुनि कुकुंद रख दिया इतना ही क्यों पर उस शास्त्रार्थ के बाद ३२ बौद्ध साधुओं को भी सूरिजी ने दीक्षा दी तत्पश्चात् मथुरा के संघ की ओर से बनाये हुए कई नूतन मन्दिरों की प्रतिष्टा करवाई और भाद्र गौत्रीय शाह सरवण ने पूर्व प्रान्त की यात्रार्थ एक विराट् संघ निकाला सूरिजी एवं आपके मुनिगण जिसमें नूतन दीक्षित ( वेदान्तिक एवं बोध ) सब साधु साथ में थे संघ पहले कलिंग के शत्रुञ्जय गिरनार अवतार की यात्र की बाद बंगाल प्रान्त हेमाचल) की यात्रा करते हुए विहार में राजगृह के पांच पहाड़ पावापुरी चम्पापुरी वगैरह तीर्थों की यात्रा कर बीस तीर्थङ्करों की निर्वाणभूमि श्री सम्मेशिखर तीर्थ के दर्शन स्पर्शन एवं यात्रा की वहां से संघ भगवान् पार्श्वनाथ की करपाणभूमि काशी आया और बनारस तथा आस पास की कल्याणक भूमि की यात्रा की इस यात्राओं से सकल श्रीसंघ को बड़ा ही आनन्द आया और सब ने अपना अहोभाग्य समझा। सूरिजी हस्तनापुर होते हुए पंजाब में पार गये शेष साधु वापिस संघ के साथ मथुरा आये । सूरिजी पंजाब सिन्ध और कच्छ होते हुए सौराष्ट्र में आकर श्री शत्रुजय की यात्रा की इस विहार के अन्दर मुनि कुंकुंद जैनागमों का अध्यायपन कर धूरंधर विज्ञान हो गया था इतना ही क्यों पर पंजावादि प्रदेशों में अपने अहिंसा धर्म का खूब प्रचार भी किया था इस विषय में तो आपकी खूब ही गति थी कारण आपके दोनूघर देखे हुए थे । सूरिजी महाराज ने मुनि कुंकुंदकों '५०० साधुओं के साथ कंकणादि प्रदेश में विहार की आज्ञा मथुरा में वेदान्तिक कपालक की दीक्षा ] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४२४-४४० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास देदी थी और आप सौराष्ट्र एवं लाठ प्रदेश में विहार करते हुए आर्बुदाचल पद्यावती चन्द्रावती होते हुए पाल्हिका नगरी में पधारे वहाँ के श्रीसंघ के अत्यग्रह से सूरिजी ने वह चतुर्मास पाल्हिका नगरी में ही किया आप श्रीजी के विराजने से धर्म की अच्छी उन्नति हुई । चतुर्मास के पश्चात् एक संघ सभा भी की गई थी जिसमें बहुत से साधुसाध्वियों नजदीक एवं दूर से आये परमुनि कुंकुंद नहीं आया जिसका चतुर्मास सोपार पट्टन में जो कि अधिक दूर नहीं था फिर भी सूरिजी ने इस पर अधिक विचार नहीं किया। संघ सभा के अन्दर धर्मप्रचार एवं मुनियों का विहार वगैरह विषय पर उपदेश दिया गया और कई योग्य मुनियों को पदवियों भी दी गई जिसमें मुनि सोमप्रभादि को उपाध्याय पद से विभूषीत किए बाद मुनियों को योग्य क्षेत्रों में विहार की आज्ञा दी और सूरिजी मरूधर प्रान्त में विहार किया और क्रमशः श्राप उपकेशपुर पधारे श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया । देवी सच्चायिका भी सूरिजी को वन्दन करने को आई सूरिजी ने देवी को धर्मलाभ दिया देवी की एवं वहाँ के श्रीसंघ की बहुत आग्रह से सूरिजी ने वह चतुर्मास उपकेशपुर में करना निश्चित कर दिया इधर तो सूरिजी का चतुर्मास उपकेशपुर में हुआ उधर मुनि कुंकुद एक हजार मुनियों के परिवार से मरूधर में आ रहा था जब वे भिन्नमाल आये तो वहाँ के श्रीसंघ ने अत्याग्रह से विनति की जिससे उन्होंने भिन्नमाल नगर में चतुर्मास कर दिया । कुछ मुनियों को आस पास के क्षेत्रों में चतुर्मास करवा दिया। मुनि कुकुद बड़ा भारी विद्वान एवं धर्मप्रचारक था आपने अनेक स्थानों पर यज्ञ वादियों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी एवं असंख्य प्राणियों को अभयदान दीलाया था इतना ही क्यों पर आप अपनी प्रज्ञा विशेष के कारण लोग प्रिय भी बन गये थे परन्तु कलिकाल की कुटलगति के कारण आपके दिल में ऐसी भावना ने जन्म ले लिया था कि मैं वेदान्तिक मतमै भी आचार्य था अतः यहाँ भी आचार्य बनकर वेदान्तियों को बताता हूँ कि गुणीजन जहाँ जाते है वही उनका सत्कार होता है इत्यादि आपकी भावना दिन व दिन बढ़ती ही गई और इसके लिये आप कई प्रकार के उपाय भी सोचने लगे। खैर मुनि कुकुंद भिन्नमाल में श्रीमालवंशीय शाह देशल के महामहोत्सवपूर्ण श्री भगवतीजी सूत्र व्याख्यान में वाचना प्रारम्भ किया दिया जो उस जमाना में बिना आचार्य की आज्ञा सामनसाधु व्याख्यान में श्री भगवती जी सूत्र नहीं बाच सकता था और श्रावक लोग भी इसके लिये आग्रह नहीं किया करते थे । भिन्नमाल और उपकेशपुर के लोगों में आपस का खासा सम्बन्ध था तथा व्यापारादि कारण से बहुत लोगों का आना जाना हुआ ही करता था जब आचार्य श्री ने सुना कि भिन्माल में मुनि ककंद का चतुर्मास है और व्याख्यान में श्री भगवतीजी सूत्र बाच रहा हैं। उस समय आपकों बार्बुदाचल में कही हुई देवियों की बात याद आई । खैर भवितव्पताकों कौन मिटा सकता है। प्राचार्य श्री व्याख्यान में श्री स्थानायांग जी सूत्र रमा रहे थे जिसके अाठवॉस्थानक में श्राचार्य पद एवं आचार्य महाराज की पाठ सम्प्रदाय का वर्णन आया था जिसको सुनाने के पूर्व प्रसंगोपात सूरिजी ने कहा कि महानुभावों ! आचार्य कोई साधारण पद नहीं है पर एक बड़ा भारी जुम्मावारी का पद है जैसे जनता की जुम्मावारी राजा के शिर पर रहती है इस प्रकार शासन की एवं गच्छ की जुम्मावारी प्राचार्य के जुम्मा रहती है। यही कारण है कि तीर्थक्कर देव एवं गणधर महागज ने फरमाया है कि श्राचार्य पद प्रदान करने के पूर्व उनकी योग्यता देखनी चाहिये जिसके लिये सबसे पहिला १-जातिवान् । माता का पक्ष निर्दोष एवं निष्कलंक होना चाहिये । ८४० [उपकेशपुर में सूरिजी भिन्नमाल में कुंकुद Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० २-कुलवान्-पिता का पक्ष विशुद्ध होना चाहिये कारण मानपिता के वंश का असर उसकी सन्तान पर अवश्य पड़ता है । दूसरा जातीवान् कुलवान होगा तो अकार्य नहीं करेगा । अकृत्य करते हुए को अपनी जातिकुल का विचार रहेगा अतः सबसे पहिला जातिवान् कुलवान् हो उसको ही आचार्य बनावे ३- लज्जावान-लोकीक एवं लोकोतर लज्जावान हो लज्जावान् अनुचित कार्य नहीं करेगा ४ - बलवान्-शरीर आरोग्य-तथा उत्साह और साहसीकता हो। ५-रूपवान्-शरीर की आकृति शोभनीक एवं सर्वांगसुन्दराकारहो ६-ज्ञानवान्-वर्तमान साहित्य यानि स्व-परमत के शास्त्रों का ज्ञाता है उत्पतिकादि बुद्धि हो कि पुच्छे हुए प्रश्नों के योग्य उत्तर शीघ्रता से दे सके। ७-दर्शनवान्-षट्रदर्शन के ज्ञाता और तत्वोंपर पूर्णश्रद्धा ८-चारित्रवान-निरतिचार यानि अखण्ड चारित्रकों पालन करे ९-तेजस्वी-अताप नामकर्म का उदय हो कि आप शान्त होने पर भी दूसरों पर प्रभाव पड़े १०-वचनस्वी-माधुर्यतादि वचन में रसहो जनता को प्रिय लगे वचन निः सफल न हो ११-ओजस्वी-क्रान्तिकारी स्पष्ट और प्रभावोत्पादक वचन हो। १२-यशस्वी-यशः नामकर्म का उदय हो कि प्रत्येककार्य में यशः मिले १३-अपतिबद्व-रागद्वेषवं पक्षपात रहित निस्पृही-ममत्व मुक्त हो १४- उदारवृति-ज्ञानदान करने में एवं साधु समुदाय कानिर्वाह करने में उदार हो १५-धैर्य हो गाभिर्य हो विचारज्ञतो दीर्घदर्शी हो सहनशीलताहो । इत्यादि गुण वाले को ही प्राचार्य पद दिया जा सकता है सामान साधु में उपरोक्त गुण हो या उनसे न्यून हो तब भी वे अपना कल्याण कर सकता है क्योंकि उसके लिये इतनी जुम्मावारी नहीं है कि जितनी श्राचार्य के लिये होती है । अब आचार्य की आठ सम्प्रदाय बतलाते हैं कि आचार्य के अवश्य होनी चाहिये १-प्राचार सम्प्रदाय-जसके चार भेद हैं। १-पांच आचार "ज्ञानाचार दर्शनाचार चारित्राचार तपाचार और वीर्याचार" पांच महाव्रत, पांच समिति, तीनगुप्ति, सतरह प्रकार संयम, वारह प्रकार तप दश प्रकार यति धर्म, आदि श्रावार में दृढ़ प्रतिज्ञा वाला हो और धारणा सारणा वारणा चोयणा प्रतिचोयणा करके चतुर्विध संघ को अच्छे आचार में चलावे अर्थात आप अच्छा आचारी हो तब ही संघ को चला सके । २-अष्ट प्रकार का मद और तीन प्रकार का गर्व रहीत हो अर्थात् बहुत लोग मानने से अहंकार नहीं करे और न मानने से दीनता न लावे। यह भी आचार्य के खास आचार है। ३- अप्रतिवद्ध जैसे द्रव्य से वस्त्र पात्रादि उपकरण, क्षेत्र से ग्राम नगर देश और उपाश्रयादि मकान, काल से शीतोष्णादि और भाव से राग द्वेष इनका प्रतिबन्ध नहीं रखे । ४-चंचलता, चपलता, अधैर्यता न रखे पर स्थिर चित से इन्द्रियों का दमन एवं त्यागवृति रक्खे । २-सूत्र सम्प्रदाय-जिसके चार भेद १-बहुशास्त्रों के ज्ञाता-क्रमश-पढ़ा हो-गुरु गम्यता से पढ़ा हो । अपने शिष्यों को भी क्रमश सूत्र पढ़ावें । प्राचार्य पदकी योग्यता पर व्याख्यान ] Jain Education Internation१०६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४२४---४४० वए । [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास -स्वसमय पर समय अर्थात् स्वमत परमत के सर्व शास्त्रों का जानकर हो कि प्रश्न करने वाले को अपने शास्त्रों से या उनके शास्त्रों से समझा सके ३-पढ़ा हुआ या सुना हुआ ज्ञान को बार वार याद करे यानि कभी भुले नहीं । ४-उदात अनुदातादि शब्दों को शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण करे । ३-शीर सम्प्रदाय जिसके चार भेद १--प्रमाणपेत शरीर अर्थात् न घणा लम्ब, ओच्छा स्थुन कृश हो पर शोभानिय हो । २-दृढ़ संहनन शरीर कमजोर न हो शिथिल न हो पर मजबूत हो । ३-अजजित अंगोपांग हीन जैसे कांना अन्धा बेहरा मुकादि न हो। ४-लक्षणवान् हस्तपदादि में शुभ रेखा शुभ लक्षण वगैरा हो । ४-वचन सम्प्रदाय-जिसके चार भेद १--आदय वचन-वचार निकलते ही सब लोग आदर के साथ प्रमाण करे । २-माधुर्य सुस्वर कोमल और गर्भिय वचन बोले कि सब को प्रिय लगे। ३-राग द्वेष मर्म कठोर अप्रिय वचन नहीं बोले । ४- स्पष्ट-ऐसा बनन बोले कि सब सुनने वालों के समझ में आजाय । ५-वाचना सम्प्रदाय-जिसके चार भेद १- योग्य शिष्य-विनयवान को आगम वा बना देने का आदेश दे ( वाचना उपाध्यायजी देते हैं ) आगम क्रमशः पढ़ावें जैले आचारांग पढ़ने के बाद सूत्रकृतांग इ यादि । २-पहले दी हुई वाचना ठीक धारण करली हो तब आगे वाचना दें। ३-आगम वाचना का महत्व बतला कर शिष्य का उत्साह बढ़ावें। ४-वाचना निरान्तर दे विच में खलेल न करे। सिद्धान्त का मर्म भी समझावे । ६-मति सम्प्रदाय-जिसके चार भेद १. उग्गह-सुनना। कोई भी बात हनने पर उसको अनेक प्रकार से शीघ्र ग्रहन करना। २. हा विचार करना अर्थात । द्रव्य क्षेत्र काल भाव से उसका विचार करना। ३-- आपाय-निश्चय करना। शंका रहित निःसंदेह निश्चय करना । ४-धारण-स्मृति में रखना। थोड़ा समय या बहुतकाल स्मृति में रखना। ७-प्रयोग सम्प्रदाय-जिसके चार भेद है एभी किसी बादी प्रतिबादी से शास्त्रार्थ करना हो तो पहिले इस प्रकार विचार करना । १-- अपनी शक्ति एवं ज्ञान का विचार करे कि मैं बादी को पराजय कर सकंगा ? ९-क्षेत्र-यह क्षेत्र कैसा है किसकी प्रबलता है राजा प्रजा किस पक्ष के है इत्यादि । ३-भाविफन्त-शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने पर भी भविष्यों में क्या नतीजा होगा। आचार्य की आठसम्मद Jain Education amational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० ४.-- ज्ञान बादी किस विषय का शास्त्रार्थ करना चाहता है मेरे में कितना ज्ञान है। यह समवाद है या विताड़ा बाद है। इत्यादि विचार पूर्वक ही शास्त्रार्थ करे । ८--संग्रह सम्प्रदाय-जिसः चार भेद १-क्षेत्रसंग्रह-वृद्ध ग्लानी रोगी तपस्वी आदि साधुषों के लिये ऐसे क्षेत्र ध्यानमें रखे कि जहाँ स्थिरवास करने से साधुओं की संयमयात्रा सुख पूर्वक व्यतित हो और गृहस्थों को भी लाभ मिले । कारण आचार्य गच्छ के नायक होते हैं अतः साधुओं को योग्य क्षेत्र में भेजें । २-शय्या संस्तार संग्रह-आचार्यश्री के दर्शनार्थ दूरदूर से आने वाले मुनियों के लिये मकान पाट पा ले घास तृण वगैरह ध्यान में रखे कि आगुन्तुओं का स्वागत करने में तकलीफ उठानी नहीं पड़े । अतः पहिले से ही इस प्रकार काध्यान रखना श्राचार्य का कर्तव्य है। ३-ज्ञानसंग्रह-नया नया ज्ञान का संग्रह करे क्योकि शासनका आधार ज्ञान पर ही रहता है । ४-शिष्यसंग्रह-विनयशील विद्वान शासन या उद्योत करने वारे शिष्यों का संग्रह करें इत्यादि आचार्यपद के विषय में सूरिजी ने बहुत ही विस्तार से कहा कि सुयोग्याचार्य होने से ही शासन की प्रभावना एवं धर्म का उद्योत होता है तीर्थङ्कर भगवान् अपने शासन की आदि में गणधर स्थापन करते हैं वे भी आचार्य ही थे तीर्थङ्करों के मोक्षपधार जाने के पश्चात् शासन आचार्य ही चलाते हैं । गच्छ नायक आचार्य एक ही होना चाहिये कि संघ का संगठन बल बना रहै हाँ किसी दूर प्रान्तों में विहार काना हो तो उपाचार्य बनासकते है पर गच्छ नायक आवार्य तो एक ही होना चाहिये । भगवान् पाश नाथ की परम्परा में आज पर्यन्त एक ही आचार्य होता आया है हाँ आचार्यरत्नप्रभसूरि के सा:य आपके गुरुभाई कनकप्रभसूरि को कोरंट संघ ने आचार्य बना दिया पर उस समय जैन श्रमों में अहंपद का जन्म नहीं हुआ था कि रत्नप्रभसूरि ने सुना कि कोरंट संघने कनकप्रभ को आचार्य बनादिया तब वे स्वयं चलकर कोरंटपुर गये परन्तु कनक भसूरि भी इतने विनय वान् थे कि अपना आचार्य पद रत्नप्रभसूरि के चरणों में रख कर कहा कि मैं तो आपका अनुचर हूँ मारे शिरपरनायक तो श्राप ही आनार्य हैं अहाहः यह कैस विनय विवेक और श्रेष्टाचार । पर समप्रभसूरि की उदारता भी कम नहीं थी वे अपने हाथों से कनकप्रभ कों प्राचार्य बना कर कोरंट संघ का एवं कनकः भ का मान रखा यही कारण है कि जिस बात को आज आठसौ से भी अधिक वर्ष होगया कि केवल गच्छ नाम दो कहलाया जाता है। पर वास्तव में वे एकही हैं दोनों गच्छ के प्राचार्य एवं श्रमण संघ मिलमुल कर रहते हैं एवं शासन की सेवा और धर्म प्रचार करते हैं मरुधर में इतनी सभाएँ हुई पर एक भी सभा का इतिहास यह नहीं कहता है कि जहाँ कोरंट गच्छ के आचार्य एवं मुनिवर्ग सभामें आकर शामिल नहीं हुए हो ? सावुअा के बारह संभोग दोनोंगच्छ के साधुओं में परम्परा सं चला आरहा है । यदि भविष्य में भी एक ही नहीं पर सब गच्छों के नायक इसी प्रकार चलता रहेगा तो वे अपनी आत्मा के साथ अनेक भव्य जीवों का कल्याण करने में सफलता प्राप्त कर सकेगा । इत्यादि सूरिजी महाराज का व्याख्यान श्रोताओं को बड़ाही हृदयग्राही हुआ। एक समय देवी सच्चायिका सूरिजी को वन्दन करने के लिये आई थी सूरिजी ने कहा देवीजी अव मेरी वृद्धावस्था है आयुष्य का विश्वास नहीं है मैं मेरे पट्टपर आचार्य बनाना चाहता हूँ। मेरे साधुनों मैं आचार्यपद की योग्यता] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४२४-४४० वर्ष [ भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा का इतिहास उपाध्याय सोमप्रभ मेरे पद के योग्य हैं इसमें आपकी क्या सम्मति है । देवी ने कहा प्रभो आपका श्रायुष्य तो दो मास और ११ दिन का शेष रहा है और उपाध्याय सोमप्रभ आपके पट्ट के सर्वथा योग्य है आप यहां पर ही इनको श्राचार्य पद प्रदान कर के उपकेशपुर को ही कृतार्थ बनावें । तथा एक और भी प्रार्थना है कि अब काल दिन दिन गीरता आरहा अब आत्मभाव । एवं वैराग्य की अपेक्षा जाति कुल की लज्जा से ही धर्म चलेगा। आचार्य रत्नप्रभसरि ने अपने पूर्वी एवं श्रुत ज्ञान से भविष्य का जान कर महानलाभ महाजन संघ स्थापन करके जैनधर्म को स्थायी बना दिया है इसी प्रकार इस समुदाय में आचार्य भी उपकेश वंश में जन्म लेने वाले सुयोग्य मुनिकोंही बनाया जाय और ऐसा नियम कर लिया जाय तो भविष्य में शासन का अच्छा हित होगा । कारण इस वंश में जन्मे हुए के शुरु से जैन धर्म के संस्कार होते हैं अतः वे श्रात्म भाव से त्याग वैराग्य से एवं जाति कुल की मर्याद से भी लिया हुआ भारकों श्राखिर तक निर्वाह सकेगा इस लिये मेरी तो श्राप से यही प्रार्थना है कि आप ऐसा नियम बनादें कि इस गादी पर उपकेशवंश में जन्मा हुआ सयोग्य मुनि ही आचार्य बनसकेगा इत्यादि । सूरिजी ने देवी के बचन को तथाऽस्तु' कह कर स्वीकार कर लिया बाद देवी सूरिजी को बन्दनकर चली गई। सुबह श्राचर्यश्री ने श्रीसंघ को सूचीत कर दिया कि मैं मेरे पट्ट पर उपाध्याय सोमप्रभ कों प्राचार्य बनाना निश्चय कर लिया है और देवी की सम्मति से यह भी निर्णय कर लिया है कि आचार्यरत्नप्रभसूरि की पट्ट परम्परा मैं आचार्य उपकेशवंश में जन्मा हुआ सुयोग्य मुनिको ही बनाया जायगा और इसमें प्राग्वट एवं श्रीमाल वंशकाभी समावेश हो सकेगा। श्री संघ ने सूरिजी महाराज का हुक्म को शिरोधार्य करलिया । पर श्रीसंघ ने प्रार्थना की कि प्रभो ! श्रापकी वृद्धावस्था है अतः अब आपश्री यहीं पर स्थिरवास कर विराजे जिस शुभमुहूर्त में आप उपाध्यायजी को आचार्यपदार्पण करेंगे श्री संघ अपना कर्तव्य अदा करने को तैयार है सूरिजी ने कहाकि अब मेरा श्रायुष्य केवल दो मास ग्यारह दिन का रहा है अतः मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी का शुभ दिन में मैं उ०सोमप्रभ को सूरि पददेने का निश्चय कर लिया है यह सुनकर श्रीसंघ को बड़ा ही रंजहुआ पर आयुष्य के सामने किस की क्या चल सकती है । वहां का आदित्यनाग गौत्रीय शाह वरदत्तने आचार्य पद के लिये महोत्सव करना स्वीकार कर लिया और नजदीक एवं दूर दूर श्रीसंघ को आमन्त्रण भेज दिया बहुत से ग्राम नगरों के संघ आये जिन मन्दिरों में अष्टान्हि का महोत्सव प्रारम्भ होगया और ठीक समय पर विधि विधान के साथ चतुर्विध श्रीसंघ के समीक्ष भगवान महावीर के मन्दिर मैं सूरिजी के करकमलों से उपाध्याय सोमप्रभ को आचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया और गच्छ का सर्व अधिकार नूतनाचार्य ककसूर के सुपुर्द कर दिया। शाह वरदत्त ने पूजा प्रभावना स्वामि वत्सल्य और आया हुआ संघ को पहरामणि दी जिसमें अपने नी लक्ष द्रव्य व्यव कर कल्याण कारी कर्मोपार्जन किया आचार्यश्री यक्षदेवसूरि लुणाद्री पहाड़ी पर अन्तिम सलेखना करने में सलग्न होगये जब परावर एक मास शेष आयुष्य रहा तब श्रीसघ को एकत्र कर क्षमापना पूर्वक आप अनसनव्रत धारण कर लिया और तीस दिन समाधि में बिताया अन्त में आप पांच परमेष्टी का स्मरण पूर्वक स्वर्ग पधार गये । जिससे श्रीसंध में सर्वत्र शोक के बादल लागये पर इस के लिये उनके पास इलाज ही क्या था उन्होंने निरानन्दता से पूज्याचार्यदेव के शरीर का बड़े ही समारोह से अग्नि संस्कार किया उस समय आकाश से खूब केसर बरसी ८४४ [ आचार्य और देवी सच्चायिका Jain Education international Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४-८४० और जलती हुई चिता पर पुष्पों की बरसात हुई और आकाश में यह उद्घोषणाहुई कि अब इस भरतक्षेत्र में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि और यक्षदेवसूरि जैसे आचार्य नहीं होंगा। जिसको सुनकर श्रीसंघ के शोक में और भी वृद्धि हुई बाद श्रीसंघ चलकर प्राचार्य ककसूरि के पास आये और सूरिजी निरानन्द होते हुए भी श्रीसंघ कों शान्ति का उपदेश देकर मंगलिक सुनाया। श्राचार्य यक्षदेवसूरीश्वरजी महान प्रभाविक धर्म प्रचारी एवं जिन शासन के षक सुदृढ़ स्तम्भ समान श्राचार्य हुए है आप अपने सोलह वर्ष के शासन में मरुधर मेदपाट आवंति बुलेदखण्ड मत्स्य शूरसेन उड़ीसा बंगाल विहार कुरू पंचाल सिन्धु कच्छ सौराष्ट कांकण लाटादि प्रान्तों में विहार कर अनेक प्रकार से उपकार किये कइ स्थानों पर विधर्मियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजयपता का फहराई कई विषयों पर अनेक प्रन्थों का निर्माण कर जैन धर्म को चिर स्थायी बनाया कई नर-नारियों को दीक्षा देकर एवं कइएकों के मांस मदिरादि दुर्व्यसन छोड़ा कर जैन धर्म में दीक्षित किये कइ मन्दिर मूत्तियों की प्रतिष्टा करवाई कइ तीर्थों के संघ निकला कर यात्राए की इत्यादि पट्टावलियों वंशावलियों आदि में विस्तार से उल्लेख मिलते है तथापि में यहां पर कतीपय कार्यों की केवल नामावली ही लिख देता हूँ श्राचार्य श्री के शासन समय भावुकों की दीक्षा-- १- उपकेशपुर के भूरि गौत्रीय शाह नानगदि ने सूरि के पास दीक्षा ली २-भाडव्यपुर के श्रेष्टि , , दूधा ने , ३-सुरपुर के डिडू , , श्रादू ने , ४-शंखपुर के ब्राह्मण ,, , शिवदेव ५ खटकूम्प के गव , भोत्रा ६ प्रासिका के अदित्य० , शोभण ७-हालोड़ी के श्रेष्टि गौत्र , गुणराज ८-हर्षपुर के भाद्र गौत्रीय शाह भाखर ९-नागपुर के बलाह गौत्रीय , भीमा १०-मुग्धपुर के चण्ड , नोंधण ११- चापट के चिंचट , चाहड़ १२-आधाट के लुंग , चणाटे १३--नारायणपुर के कर्णाट । फागु १४-बीनाड़ के बोहरा , पारस १५-दशपुर के मल्ल , पद्मा १६-डूगरील के तप्तभट्ट धन्ना १७-मथुग के बाप्पनाग धोकल ने १८-मरजड़ा के लघुश्रीष्टि पर्वत ने १९-रोली के वीरहट गौत्रीय , खेतसी ने , आचार्य श्री के कर कमलों से दीक्षाएं ] ८४५ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४२४-४४० वर्षे [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मेहराज ने Art २:-कातरोल के कुलभद्र , शाह । खीमड़ ने सूरि के पास दीक्षा ली २१-जंगालु प्राग्वट वंशी फूवा ने २२-डामरेल प्राग्वट वंशी रूपा ने ३-श्रीनगर श्रीमाल वंशी २४-कीराटकुम्प क्षत्रीवीर रावल ने २५-ॐकारपुर ब्राह्मण पोकर ने २६-उज्जैन मौरक्ष गौत्रीय शाह नन्दा ने , इनके अलावा कई जैनेतर जातियों के तथा बहुतसी बहिनोंने भी दीक्षा लेकर स्वपरका उद्धार किया। प्राचार्यश्री के शासन में तीर्थों के संघादि शुभकार्य१-भरोंच से भाद्र गौत्रीय शाह देपाल ने श्री शत्रुजय का संघ निकाला २-देलावल से श्रेष्टि गौत्रीय शाह वीरदेव ने , ३-चांदोला से चरड़ गौत्रीय शाह यशोदेव ने , ४-चक्रावती से मल्ल गौत्रीय शाह नागदेव ने , ५-स्तम्भनपुर से मंत्री शाह वरदेव ने ६-भवानीपुर से श्रेष्टिः शाह कानड़ ने ७-नागपुर से सुचंति गौत्रीय शाह केसा ने ४-शाकम्भरी से चिंचट गौत्रीय शाह धर्मा ने ९-वीरपुर से लघु श्रेष्टि शाह पारस ने १०-उकोल से कुमट गौत्रीय शाह लाखण ने ११-सारंगपुर से कनौजिया शाह शांखला ने १२--उचकोट से चोरलिया शाह पाता ने १३--मथुरा से लुंग गीत्रीय शाह गेहराज ने १४--भीयानी से चरड गौत्रीय जैदेव युद्ध काम आया उसकी स्त्री सती हुई। १५--विनोट के तप्तभट्ट मंत्री जोगड़ा १६--चापटपुर के श्रेष्टि सुरजण १७-दांतिपुर के सुचंति गौत्रीय टीलो १८--कोरंटपुर के श्रीमाल सोमा १९--मादड़ी के भूरि गोत्रीय भीम २०--पद्मावती के मल्ल गौत्रीय पेथो २१--हंसावली के बापनाग० पुनड़ २२--रत्नपुर में आदित्यनाग गोत्री मंत्री सालगने दुकाल में शत्रुकार दिया८४६ [ आचार्य श्री के शासन में यात्रार्थ संघ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८२४ -८४० इनके अलावा भी कई महानुभावों ने अपनी चंचल लक्ष्मी को जनकल्याणार्थ व्यय करके जैन शासन की प्रभावना के साथ अपना कल्याण साधन किया । आचार्यश्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं १ - धनपुर में श्रेष्टि गौ० शाह खूमा ने भ० पार्श्व २ -- हर्षपुर में बलाह गौ " कल्हण ने ३ - नागपुर में भाद्र गौ० " करमरण ने ४ - जानपुर में चिंचट गौ - देवपट्टन में चरड गौ० ५ ६ - कुकुरवाडा में भूरि गौ ७ - गटवाल में कनोजिया ८- गुगालिया में कुष्ट गौ० ९ - चन्द्रावती में आदित्य ना० " " फूवा ने " पद्मा ने "" " राणा ने नारा ने रावल ने दाप्पा ने राजा ने माला ने वागा ने 33 99 39 " " 79 " "" "" 72 15 12 गेंदा ने कःपिं ने मांमण ने गोसल ने लाखण ने " " कल्हल ने " अंबड़ ने श्रमदेव ने बाप्पा भैसा १० - टेलीपुर में बाप्पनाग० ११ - मारोटकोट में श्र ेष्ट गौ १२- हापड़ा में लघु श्र ेष्ट गौ० १३ - कोसी में चरडा गौ० १४ - भोजपुर में मल्ल गौ० १५--- रामसरण में लुंग गौत्रीय १६ - आभानगरी में प्राग्वटवन्शी १७ -- करकली में १८ - खेखरवाड़ा में भाद्र गौत्रीय १९ - फेफाती में श्रीमाल वंशी २० - हर्षपुर में सुचंति गौत्रीय २१ - मेदनीपुर में कुलभद्र २२ -- मथुरा में प्राग्वटवंशी "" "" 15 इनके अलावा दूसरे श्रावकों ने बहुत से मन्दिरों की एवं घर देरासर की पतिष्टाए करवा कर कल्याएकारी पुन्योपार्जन किया था। जिन्हों का वंशावलियों में खूब विस्तार से वर्णन है । 19 महावीर आचार्य श्री के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं ] "" 19 शांति " अदीश्वर नेमिनाथ पार्श्व د " 93 विमल महावीर " 23 23 पार्श्वनाथ " 27 महावीर म० श्र० 35 35 "" 39 39 " " " 99 " "" رو पट्ट बतीसवें यक्षदेव गुरु, त्यागी बैरागी पुरे थे । वीर गंभिर उदार महा. फिर तप तपने में शूरे थे । धर्म अन्ध म्लेच्छ मन्दिरों पर दुष्ट आक्रमण करते थे । उनके सामने कटिबद्ध हो, प्रण से रक्षा करते थे | इति भगवान् पार्श्वनाथ के ३२ वें पट्ट पर आचार्य यक्षदेवसूरि बड़े ही प्रभाविक आचार्य हुए। "" ८४७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४२४-४४० वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३३-प्राचार्य कक्कसूरि (षष्टम) आचार्यस्तु स कक्कसरिर भवदादित्य नागा न्वये । शोखा चोर लिया धिपोऽथ कुशलो योगासने वन्धने ।। सिद्धोयेन समः स्वरोदय विचारे चापि नासीज्जनः । यान्तं पर्वत मार्बुदं तु जनता संघ सिपेवे अयात् ॥ नाम्नो ऽ स्यैवच सोमशाह निगड़ श्छिन्नः स्वतोगच्छके । एकाचार्य ममुं तु ह्यागतवती देवी सुसच्चायिका ।। सायाता कुकुदा मुने रनुशया च्छारवा कुकुदा पृथक् । प्रत्यक्षा गमनं तु कार्य करणं देव्या स्वयं स्वीकृतम् ॥ चार्य श्रीककसूरीश्वरजी महाराज महन् प्रतिभा शाली सुविहिन शिरोमणि अनेक अलौकीक विद्या एवं लब्धियों के आगर योगासन स्वरोदय के मर्मज्ञ, तेजस्वी, PREITY ओजस्वी, यशःस्वी, वचस्वी इत्यादि अनेन शुभ गुणों से विभूषीत जैनधर्म के एक चमकता हुआ सतारा सदृश आचार्य हुये थे, देवी सच्चायिका के अलावा जया विजया पद्मवती अम्बिका मातुला लक्ष्मी और सरस्वती देवियों और कइ देवता आपके गुणों से आकर्षित होकर दर्शनार्थ एवं सेवा में आये करते थे। आपकी प्रतिभा का प्रभाव जनता पर अच्छा पड़ता था धर्मप्रचार करने में आप सिद्धहस्त थे अनेक मांस मदिरा सेवियों को आपने जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ की वृद्धि की थी आपका जीवन जनता के कल्याण के लिये हुआ था जिसकों श्रवण मात्र से ही जीवों का कल्याण होता है। पट्टावली कारों ने श्रापका।जीवन विस्तार से लिखा है पर यहाँ तो संक्षिप्त से ही लिखा जारहा है उस समय शिवपुरी नाम की एक उन्नतशील नगरी थी जिसको राजा जयसेन के लघु पुत्र शिव ने बसाइ थी और प्रारम्भ में वहाँ राजाप्रजा सब जैनधर्मोपासक ही थे उसी नगरी में आदित्यनाग गोत्रीय एवं चोरलिया शाखा के कीर्तिमान मंत्री यशोदित्य नाम का एक प्रसिद्ध पुरुष बसता था आपके गृहदेवी का नाम मैना था आपका गृह जीवन सुख एवं शान्ति से व्यतित होता था आपके घर में विपुल सम्पति थी एवं लक्ष्मी की पूर्ण कृपा थी परन्तु आपके सन्तान न होने से ठानी को कभी कभी भार्तध्यान संताया करता था एक दिन सेठानी ने अपने पतिदेव से अर्ज की कि अपने घर में इतनी सम्पति है पर इसको संभालेगा कौन ? सेठजी ने कहाँ यह तो पूर्व जन्म के किये हुऐ कर्म है इसके लिये मनुष्य क्या कर सकते है। सेठानं - हाँ पूर्व जन्म के फल तो है पर उद्यम करना भी तो मनुष्य का कर्त्तव्य है ? सेठजी-आपही बतलाइये इसका क्या उद्यम किया जाय । ८४८ [ मंत्री यशोदित्य और सेठानी का संवाद Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ८४०-८८० ___सेठानी-मैं देखती हुँ कि लोग देव देवियों को मनाते है और कई लोग अपनी आशा को पूर्ण भी करते है आपको भी इस प्रकार करना चाहिये । सेठजी-आप हमेशा व्याख्यान सुनते हो सिवाय पूर्व कर्मों के कुच्छ नहीं हो सकता है । यदि देवदेवी कुच्छ दे सकते हो तो संसार में कोई दुःखी रह ही नहीं सके ? पर जो होता है वह सब पूर्व कर्मों के अनुसार ही होता है। सेठानी- हाँ कर्म तो है ही पर केवल कर्मों पर ही बैठ जाने से कार्य नहीं बनता है पर साथ में उद्यम भी तो करना चाहिये ? ____ सेठजी-मैंने अभी चतुर्थव्रत नहीं लिया है जो तकदीर में लिखा होगा वो होजायगा । सेठानी-पर देव देवियों को मनाना भी तो एक प्रकार का उद्यम ही है । सेठजी-सेठानीजी देव देवी खुद निःसन्तान है उनके पास बेटा बेटी जमा नहीं पड़ा है कि मानता करने वालों को देदे । सेठानी-मैंने कई लोगों को देखा है कि देवताओं ने भक्त लोगों की अाशा पूर्ण की है। सेठजी-मैं तो एक अरिहन्त देव को ही देव समझता हूँ और उनके सिवाय किसी को भी शिर नहीं मुकाता हूँ। सेठानी-कहाँ जाता है कि अरिहन्त देव सर्व कार्य सिद्ध करने वाले है तो आप उनसे ही प्रार्थना क्यों नहीं करते हों ? सेठजी-सेठानीजी आपने मन्दिर उपाश्रय जा जा कर वहां के पत्थर घीस दिये है पर अभी तक आप जैन धर्म के मर्म को नहीं समझे है। वीतराग देव की उपासना केवल जन्म मरण मिटा कर मोक्ष के लिये ही की जाति है । फिर भी वीतराग तो वीतराग ही है वे न कुच्छ देते है और न कुच्छ लेते है ! उनकी उपासना से अपने चित की विशुद्धी होती है, जिनसे कर्मों की निजग होकर मोक्षको प्राप्ती होती है यदि कोई धर्म का मर्म न जान ने वाला वीतराग से धन पुत्र मांगता है उसे लोकोत्तर मिथ्यात्व ल ता है इस बात को आप अच्छी तरह से समझ कर कभी भूल चूक से धर्म करनी करके लौकीक सुख की याचना तो क्या पर भावना तक भी नहीं करना।। सेठानी-खैर वीतराग नहीं तो दूसरे भी तो अधिष्टायकादि बहुत देव देवियां है। सेठजी-मैंने कह दिया था कि विधर्मी देव देवियों को शिर झुकाने में मिथ्यात्व लगता है उस मिथ्यात्व से संसार में भ्रमन करना पड़ता है जिसको न तो पति बचा सकता है न पत्नि और न पुत्रादी कोई भी नहीं बचा सकता है अतः आप कमों पर विश्वास कर संतोष ही रखे। सेठानी -- परन्तु पुत्र बिना पिच्छे नाम कौन रखेगा। और इस सम्पति का क्या होगा ? सेठजी-नाम है उसका एक दिन नाश भी है सेठानी जी ! अपन तो किस गीनती मे है पर बड़े बड़े अवतारी पुरुष हुए है उनका भी वंश नही रहा है यदि नाम रखना हो तो कोई ऐसा काम करों कि जिससे नाम अमर हो जाय और इसके लिये या तो भीतड़ा मन्दिर या गितड़ा (प्रन्थ) हैं ! इन दो बातों से ही नाम रह सकता है। सेठानी -- ठीक है मन्दिर बनाना और ग्रन्थ लिखाना ये तो अपने स्वीधीनता के काम है चाहे आज सेठजी और सेठानी का संवाद ] ८४९ Jain Education in 2019 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ही प्रारम्भ कर दीरावे । परन्तु मेरे दील में अर्तध्यान आया करता है इसके लिये क्या करना चाहिये । आप नहीं तो मुझे आज्ञा दे मैं किसी देव देवी की आराधना कर आशा को पूर्ण करूँ ? सेठजी-मैं जिसको हलाहल जहर (विष ) समझता हूँ भला श्राप मेरे आत्मीय सज्जन है तो आपको इस मिथ्यात्व कर्म की आज्ञा कैसे दे सकता हूँ। आप इस बात पर निश्चय कर लीजिये कि बिना तकदीर में लिखे देवी देवता कुछ भी दे नहीं सकते है हां इधर तो कार्य बनने वाला हो और उधर देवादि का कहना हो तो कार्य बन सके और एक दो ऐसा कार्य बनगया हो तो भद्रिक जनता को विश्वास हो जाता है परन्तु निश्चय तो यही बात है कि पूर्व संचित कर्मानुसार ही कार्य होता हैं दूसरा जैनधर्म का यह मर्म है कि एक पूर्व जन्म की अन्तराय दूसरा मिथ्यात्व का सेवन इससे अधिक कर्म बन्ध का कारण होता हैं यदि अन्तरायोदय के समय धर्ग कार्य विशेष किया जाय तो स्वयं कर्मों की निर्जरा होकर वस्तु की प्राप्ति हो सकती है अतः ओपको तो धर्म करनी विशेष करनी चाहिये । आप नाराज न हो जैसे अच्छा खानदान की स्त्री अपने पति को छोड़ कर घर घर में पति करती फिरे तो क्या उसकी शोभा बढ़ सकती है । इसी प्रकार एक वीतराग देव को छोड़ कर अन्य देव देवियों की मान्यता करनेसे या शिर झूकाने से क्या इस लोक में और परलोक में भला हो सकता है ? सेठानी-खैर मैं तो संतोष कर लुंगी पर आप से एक अर्ज है कि आप दूसरी सादी करलीरावे कि शायद उसके पुत्र हो जायगा तो भी पीछे नाम तो रह ही जायगा ? सेठानी- वहा-वहा सेठानी जी ! आपने ठीक सलाहा दी क्या यह भी कभी हो सकता है कि मैं मेरा हृदय एक को दे चुका हूँ फिर क्या कभी दूसरी को दिया जा सकता है जैसे पत्नि को पतिव्रता धर्म पालने का अधिकार है वैसे ही पति को भी पत्निव्रत पालने का अधिकार है । और ऐसा होना ही चाहिये सेठानी-स्त्रियों के तो एक ही पति है पर पुरुष तो अनेक पत्नियों कर सकते हैं ऐसा बहुत बार शास्त्रों में आता है तो आपको दूसरी सादी करने में क्या हर्ज है। सेठजी-हाँ शास्त्रों में जाता है और आपन सुनते भी हैं इसके लिये मैं इन्कार नहीं करता हूँ पर कुदरती कानून से देखा जाय तो यह पक्षपात के अलावा कुछ नहीं है जब स्त्रियों के लिये एक पत्नि का नियम है तो पुरुषों के लिये भी ऐसा ही होना चाहिये अगर पुरुष एक से अधिक पत्नि करता है वह सरासर अन्याय करता है क्योंकि एक पुरुष पांच स्त्रियों से सादी करता है वह चार पुरुषों को कुंवारा रखता है। इससे संसार का पतन और व्यभिचार का प्रचार बढ़ता है । दूसरे संसार में प्रभुत्व पुरुषों की ही रह थी उन्होंने स्वार्थ के बस मन मांने कानून बना लिये । यदि स्त्रियों की प्रभुत्व रहती तो क्या स्त्रियां यह कानून न बना लेती कि स्त्रियां अनेक पति बना सकती है। पर पुरुष एक पत्नि से अधिक न बना सके या पुरुष मर जाने पर स्त्री एक दो बार विवाह कर सके पर पुरुष के पनि मर जाने पर वह तमाम जिन्दगी विदुर ही रहे पर दूसरी सादी नहीं कर सके जैसे पुरुषों ने स्त्रियों के लिये नियम बनाये हैं । सेठानी जी। मैंने तो मेरा हृदय एक आपको दे चूका हूँ अब इस भव में तो दूसरी स्त्रियों को हर्गिज नही दिया जा सके भलो । आप सोचिये कि शायद् कोई पुरुष अपना व्रत भंग कर दूसरी सादी कर भी ले तो क्या पुत्र होना [ सेठजी और सेठानी का संबाद Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० उसके हाथ की बात है पूर्व भव की अन्तराय हो तो एक क्यों पर दस पत्नियें कर लेने फिर भी पुत्र नहीं होता है । फिर व्रत भंग करने में क्या लाभ है ? ___ सेठानी-मैंने तो आज पर्यन्त ऐसा कोई पुरुष नहीं देखा है कि इस प्रकार का पत्निव्रत धर्म पालन किया एवं करता हो जैसे आप फरमाते हो ? सेठजी-आपने व्याख्यान में युगल मनुष्यों का अधिकार नहीं सुना है कि वे अपने दीर्घ जीवन और बऋषभनाराज संहनन में भी एक पनि के अलावा दूसरी पत्नी नहीं की थी। वे ही क्यों पर कर्म भूमि में भी एसे बहुत से पुरुष हुए हैं देखिये-मैंने सुना है एक संठ दिसावर जाने का विचार किया तो उसकी पनि ने कहाकि अच्छा आम वापिस कब आयेंगें ? सेठजी ने कहा कि मैं तीन वर्ष के बाद आऊंगा। सेठानी ने कहा कि मेरी युवावस्था है यदि तीन वर्ष के बाद भी आप नहीं पधारों तो मैं क्या करू यह बतला जाओ ? सेठजी ने कहा यदि मैं तीन वर्ष तक में नहीं आऊँ तो नगर से दो माईल टी जाने वाले के पास अपनी काम वासना शान्त कर सकती है । बस सेठजी दिसावर चले गये पर किसी जरूरी कार्य एवं लोभ दसा के कारण सेठजी तीन वर्ष के बाद भी वापिस नहीं आये । सेठानी ने तीन वर्ष तो ठीकानि काल दिये क्योंकि उसके पति ने वायदा किया था। सेठानी ने अपनी दासी से कहा कि यदि कोई नगर से दो माईल भर दूरी टटी जाने वाला हो उसको अपने यहां ले आना । सेठानी ने स्नान मज्जनादि सोलह श्रृंगार किया शय्या पलंगादि सब सजावट अच्छी तरह से की इधर दासी एक सेठ जो दूर जंगल जाने वाला था उसकों बुलाकर ले आई सेठजी को इस बात की मालुम नहीं थी उन्होंने सोचा कि सेठजी बहुत दिनों से दिसावर गये हैं तो कोई पत्र लिखने वगैरह का काम होगा वे चले आये परन्तु मकान पर जाकर वहाँ का रंगढंग देखा तो उन्होंने सोचा की मेरे तो पत्निवत है । सेठ ने अपने हाथ में जो मिट्टी का लोटा था उसको भूमि पर डाला कि वह फूट गया जिसको देख सेठजी बहुत पश्चताप किया । कामातुर सेठानी ने कहा सेठ जी इस मिट्टी का बरतन के लिये इतना बड़ा पश्चाताप क्यों करते हो मैं आपको चान्दी या सोना का लोटा देगी आप अन्दर पधारिये । सेठजी ने कहा कि मैं मिट्टी का वरतन के लिये ये दुःख नहीं करता हूँ पर मेरा गुंजप्रदेश मेरी पनि या इस मिट्टी का लोटा ने ही देखा है यह फूट गया तब दूसरे को दीखा ना पड़ेगा इस बात का मुझे बड़ा भारी दुःख एवं लज्जाआति है । सेठानी ने सुनते ही विचार किया कि एक मर्द है वह भी अपना गुंज स्थान निर्जीव वरतन को दीखाने में इतनी लज्जा एवं दुःख करता है तो मैं एक कुलीनस्त्री मेरा गुंम प्रदेश दूसरे पुरुष को कैसे दीखा सकती हूँ । बस सेठानी की अकल ठीकाने ओगई और सेठजी को अपना पिता बना कर जाने की रजा दी। इस उदाहरण से आप ठीक समझ सकते हो कि संसार में पुरुष भी पत्निव्रत धर्म के पालने वाले होते है प्रिय संठानी जी ! आपतो विद्यामान है परन्तु कभी आपका देहान्त भी हो जाय तो मैं मन से भी दूसरी पनि की इच्छा नहीं करूँगा। सेठानी सेठाजी की दृढ़ता देख बहुत खुशी हुई । और सेठजी प्रति उनका स्नेह और भी बढ़ गया। सेठानी ने कहा-पतिदेव आपके कहने से मुझे अच्छी तरह से संतोष हो गया है और मैं समझ भी गई हूँ कि पूर्व संचित कर्मों की अन्तगय है वहाँ तक कितने ही प्रयत्न करे कुछ भी नहीं होगा। खैर सेठानी ने सेठजी को कहा कि जो पिछे नाम रहने के लिए दो कार्य बतलाये है वे तो प्रारम्भ कर दीजिये कि इसके अन्दर थोड़ी बहुत लक्ष्मी लगाकर भवान्तर के सेठजी की दृढ़ता का सेठानी पर प्रभाव ] ८५१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिये तो कुछ पुन्य संचय किया जाय । और आपके कथनानुसार पिछे नाम भी रह जायगा वस। में इतना से ही संतोष करलंगी--- स्ठजी-बहुत खुशी की बात है मैं आज ही इस बात का प्रबन्ध कर दूंगा। मेरे दिल में मन्दिर बनाने की बहुत दिनों से अभिलाषा थी पर विचार हो विचार में इतने दिन निकल गये फिर भी मैं आपका उपकार समझता हूँ कि आपने मुझे इस कार्य में सहायता दी अर्थात् प्रेरणा की है बस । सेठानी ने अपने अनुचरों द्वारा शिल्प शास्त्र के जानकार कारीगरों को बुला कर कहा कि एक अच्छा मन्दिर का नकशा कर के बतालाओं मुझे एक अच्छा मन्दिर बनवाना है । कारीगरों ने कहा श्रापको द्रव्य कितना खर्च करना है ? संठजी ने कहाँ द्रव्य का सवाल नहीं है मन्दिर अच्छा से अच्छा बनना चाहिये कई शिल्पाज्ञ एकत्र होकर चौरासी देहरी वाले विशाल मन्दिर का नकशा बना कर सेठजी के सामने रखा जिसको देख कर सेठजी खुश हो गये अच्छा मुहूर्त में मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया । इधर जो-ज्यों मुनियों का पधारना होता गया त्यों-त्यों श्रागम लिखना भी शुरु कर दिया एवं दोनों शुभ कार्य खूब वैग से चल रहे थे जिससे सेठ सेठानी दीलचस्पी से एवं खुल्ले हाथ द्रव्य व्ययकर रहे थे। नगरी में संठजी की अच्छी प्रशंसा भी हो रही थी। एक समय सेठानी मैना अपने रंगमहल में सोरही थी अर्द्ध निशा में कुछ निद्रा कुछ जागृत अवस्या में स्वप्न के अन्दर एक सिंह मुंहसे जिभ्या निकालता हुआ देखा । सेठानी चट से सावधान होकर अपने पतिदेव के पास आई और अपने स्वप्न की बात सुनाई जिसपर सेठजी बड़ी खुशी मनाते हुए कहा सेठानीजी आपके मनोरथ सफल होगया है इस शुभ स्वप्न से पाया जाता है कि कोई भाग्यशाली जीव आपके गर्भ में अवतीर्ण हुआ है वस ! आज सेठ सेठानी के हर्ष का पार नहीं था भला ! जिस वस्तु की अत्यधिक उत्कण्ठा हो और अनायाश वह वस्तु मिलजाय फिर तो हर्ष का कहना ही क्या है सुबह होते ही सेठजी ने सब मन्दिरों में स्नात्र महोत्सव किया-करवाया। ज्यों ज्यों गर्भ वृद्धि पाता गया त्यों त्यों सेठानी को अच्छे अच्छे दोहले मनोर्थ उत्पन्न होताग या अर्थात् परमेश्वर की पूजा करना गुरुमहाराज का व्याख्यान सुनना सुपात्रमें दान साधर्मी भाई और बहिनों को घर पर बुलाकर भोजनार्द से सत्कार करना गरीब अनाथो को सहायता और अमरी पड़ादि जिसकों मंत्री यशोदित्य सानन्द पूर्ण करता रहा जब गर्भ के दिन पूरे हुए तो शुभ रात्रि में सेठानी ने पुत्र रत्नको जन्मदिया जिसकी खबर मिलते ही सेठजी ने मन्दिरों में अष्टन्हिका महोत्सव व याचकों को दान सज्जनों को सम्मान दिया और महोत्सव पूर्वक पुत्र का नाम 'शोभन' रक्खा । इधर तो मन्दिरजी का काम घूम धाम से बढ़ता जारहा था उधर शोभन लालन पालन से वृद्धि पाने लगा। सेठजी ने भगवान महावीर की सर्वधातमय १.६ आंगुल प्रमाण की मूर्ति बनाई जिनके नेत्रों के स्थान दो मणिय लगवाई जोकि रात्रि को दिन बना देती थी तथा एक पार्श्वनाथ की मूर्ति पन्ना की आदीश्वर की होरा की और शान्तिनाथ की माणक की मूर्तिएँ बन ई दूसरी सव पाषाण की मूर्तियाँ बनाई इस मन्दिर का काम में सोलह वर्ष लगगये इस सोलह वर्ष में भाता मैना ने क्रमशः सात पुत्रों का जन्म देकर अपने जीवन को कृतार्थ बना दिया था। नर का नसीब किसने देखा है एक दिन वह था कि माता मैंना पुत्र के लये तरस रही थी आज सेठानी के सामने देव कुँवर के सदृश सात पुत्र खेल रहे हैं । अब तो सेठ सेठानी की भावना मन्दिरजी की प्रतिष्टा जल्दी करवाने की ओर लग गई। श्रेष्टि कुंवर शोभन एक समय आर्बुदा चला गया था वहाँपर आचार्य यक्षदेव सूरि का दशन किये ८५२ (सेठजी के पुत्र होना और मन्दिर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ आसवाल संवत् ८४०-८८० सूरिजी ने शोभन की भाग्य रेखा देख उसको उपदेश दिया शोभन ने सूरिजी के उपदेश को शिरोधार्य कर शिवपुरि पधारने की प्रार्थना की सूरिजीने शोभन की विनती स्वीकार करली और अपनी योग साधना समाप्त होने के पश्चात् बिहार कर क्रमशः शिवपुरी पधारे वहा के श्री संघ एवं मंत्री यशोदित्य एवं शोभन ने सूरिजी का सुन्दर स्वागत एवं नगर प्रवेश का बड़ा भारी महोत्सव किया, सूरिजी ने महामंगलीक एवं सारगर्भित देशनादी बाद सभा विसर्जन हुई । आज तो शिवपुरी के घर-घर में आनंद एवं हर्ष मनाया जा रहा है कारण गुरुमहाराज का पधारने के अलावा आनन्द ही क्या होता है। आचार्य श्री का व्याख्यान हमेशा होता था जिसमें संसार की असारता, लक्ष्मी की चंचलता, कुटम्बकी स्वार्थता, शरीरकी क्षण भंगुरता और आयुष्य की अस्थिरता पर अच्छा प्रकाश डाला जाता था आत्म कल्याण के लिये सब से बढ़िया साधन दीक्षा लेना अगर गृहस्थावास में रहकर कल्याण करने वालों के लिये यो तो पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य सामायिक प्रतिक्रमण उपवास व्रत पौषध वगैरह दैनिक किया है पर विशेषता साधन सामग्री के होते हुए न्यायोपार्जित द्रव्यसे त्रिलोक्यपूजनीय तीर्थङ्करदेवों का मन्दिर बनाना चतुर्विध संघ को तीर्थों की यात्रा करने को संघ निकालना और महा प्रभाविक पंचमाङ्ग भगवती जी सत्र का महोत्सव कर श्रीसंघ को सूत्र सुनाना इत्यादि पुन्यकार्य करके दीक्षा ले तो सोना और सुगन्ध वाली कहावत चरतार्थ हो जाती है इत्यादि सूरिजी ने बड़ाही हृदयग्राही उपदेश दिया जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा क्यों नहीं हलुकर्मी जीवों के लिये तो केवल निमित्त कारण की ही जरूरत है मंत्री यशोदित्य और सेठान मैना के मन्दिर की प्रतिष्टा करवानी ही थी उन्हेंने सोचा को सूरिजी का व्याख्यान खास अपने लिये ही हुआ है तव शोभन के दिल में त्यागकी तरंगें उठ रही थी उसने सोचा की अाजका व्याख्यान खास मेरे लिये ही है एक समय मंत्री यशोदित्य सूरिजी के पास आया और प्रार्थना की कि पूज्यवर । मन्दिर तैयार हो गया है कृपा कर इसके मुहूर्त का निर्णय कर एवं प्रतिष्ठा करवाकर हम लोगों को कृतार्थ बनावें । सूरिजी ने कहा यशोदित्य तु बड़ा ही भाग्यशाली है । मन्दिर बनाने का शास्त्रों में बड़ा भारी पुन्य बतलाया है कारण एक पुन्यवान के बनाये मन्दिर से अनेक भावुक अनेक वर्षों तक अपनी आत्माका कल्याण कर सकते हैं । जब मन्दिर तैयार हो गया है तो प्रतिष्ठा में बिलकुल बिलम्ब नहीं होना चाहिये । मुहूर्त के लिये मैं प्राजही निर्णय करदूगा। मंत्रश्वर तो वन्दन कर चलागया। पर बाद में शोभन आया सूरिजी को वन्दन कर अर्ज की कि पूज्यवर ! आपने व्याख्यान में फरमाया वह सोलह आना सत्य है मेरा विचार निश्चय हो गया है कि मैं अ.पके चरणबिन्द में दीक्ष्य लूगा । सूरिजी ने कहां शोभन मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री मिलने का यही सार है पूर्व जमाना में बड़े बड़े चक्रवर्तियोंने राजऋद्धि पर लात मार कर भगवती दीक्षा की शरण ली तब ही जाकर उनका उद्वार हुआ था यदि तुम्हारी भावना है तो विलम्ब नहीं करना । शोभन ने गुरु महाराज के वचन को 'तथाऽस्तु' कहकर अपने घर पर आया और अपने मातापिता को स्वष्टशब्दों में कह दिया कि मेरी इच्छा सूरिजी के पास दीक्षा लेने की है अतः प्रतिष्ठा के साथ मेरी दीक्ष भी हो जानी चाहिये । पुत्र के वचन सुनते ही माता पिता को मूर्छा आगइ और वे भान भुलकर भूमिपर गिर पड़े। जब जल वायु का प्रयोग किया तो वे रोते हुए गद-गद शब्दों से कहने लगे कि बेटा ! आज तो ऐसे शब्द निकाले है पर आईन्दा से हमारे जीते हुए कभी ऐसे शब्द न निकालना कारण हम ऐसे शब्द कानों में भी सुनना नहीं चाहते है। बेटा तु मेरे सबसे बड़ा पुत्र है तेरे विवाह के लिए बड़ी उम्मेद है कइ साहूसरिजी का व्याख्यान और शोभन का घेराग्य ] ८५३ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० ४४०-४८० वर्षे [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास कारों की लड़कियों के लिए प्रस्ताव आ रहे है अतः बेटा हम नहीं चाहते कि तूं दीक्षा लेने की बात तक भी करे ? शोभन ने कहाँ कि माता संसार में मोह कर्म का ऐसा ही नश है कि जिस काम को लोग अच्छे समझने हुए भी मोहकमे के जोर से अन्तराय देने को तैयार हो जाते है । आप जानते हो कि इस संसार में जन्ममरण का महान दुःख है और बिना दीक्षा लिये वे दुःख छुट नहीं सकते है । और दीक्षा भी अच्छी सामग्री हो तब पा सकती है । माता पिता अपने वाल बच्चों के हित चिंतक होते है अतः आप हमारे हित चिनके है फिर हमारे हित में श्राप अन्तराय क्यों करते हो ? इत्यादि नम्रतासे अर्ज की कि आप आज्ञा प्रदान करे कि मैं सूरिजी के पास दीक्षा ले कर आत्म कल्याण करूँ ? __माता ने कहा-बेटा अभी दीक्षा लेने का समय नहीं है अभी तो तुम विवाह करो माता पिताकी सेवा करो जब तुमारे बाल बच्चा हो जाय हम लोग अपनी संसार यात्रा पूर्ण करलें बाद दीक्षा लेकर अपना कल्याण करना इसमें तुमको कोई रोक टोक नहीं करेंगा। बेटाने कहा- माताजी वह किसको मालूम है कि मातापिता पहले जायगें या पुत्र पहले जायगा । माता ! विवाह सादी करना यह तो एक मोह पास में बन्धना है और विषय भोग तो संसार में रुलाने वाले है जिन जिन पुरुषों ने विषय भोग सेवन किया है वे नरकादि गति में दुःख सहन किया है वे उनकी आत्माही जानती है । क्या ब्रह्मदत्त चक्रवर्तिका व्याख्यान आपने नहीं सुना है ? अतः आप कृपा कर श्राज्ञा दे दिजिये-- माताने कहा-बेटा तुमको किसीने बहका दिया है अतः तु दीक्षा का नाम लेता है। पर दीक्षा पालन करना सहज नहीं है जिसमें भी तुं इस प्रकार का सुखमाल है क्षुद्या पीपासा शीत उष्णादि २२ परिसह सहन करना कठिन है जो तु सहन नहीं कर सकेंगा इत्यादि शोभन के माता पिता ने बहुत कुछ समझा दिया। बेटाने कहा-माताजी नरक और तिर्यंच के दुःखोंकि सामने दीक्षा के परिसह किस गीनती में है जो एकेक जीव अनंती अनंतीवार सहन कर आया है । जब दीक्षा में तो साधु उल्टे उदिरणा कर के दुःख सहन करने की कोशिश करते है । माता देख सूरिजी के साथ पांचसौ साधु है और वे भी अच्छे २ घराना के देवता के जैसी सुख साहबी छोड़कर दीक्षा ली है और आपके सामने दीक्षा पालतेहैं । इतना ही क्यों पर वे सब साधनों वाले नागरोंकों छोड़कर पहाड़ों में जाकर कठोर तपस्या करते हैं तो क्या तेरे जैसी मता के स्तन पान कर ने वला मैं दीक्षा पालन नहीं कर सकूँगा अतः आप पूर्ण विश्वास रखे और कृपा कर आज्ञा दीजिये कि मैं दीक्षा लेकर अपना कल्याण करूँ । इत्यादि बहुत प्रश्रोत्तर हुए अर्थात् माता पिता ने शोभन की कसोटी लगाकर खूब जाँच एवं परीक्षा की पर शोभन तो एक अपनी बात पर ही अडिग रहा । मंत्री यशोदित्य ने कहा कि तुम दोनों चूप रहो मैं कल सूरिजी के पास जाकर उनकों कहदूगा कि शोभनकों दीक्षा न दें। बस मां बेटा चुप हो गये । दूसरे दिन मंत्री सूरिजी के पास गया और वन्दन करके अर्ज की कि गुरु देव शोभन अभी वचा है किसी की बहकावट में आकर हट पकड़ लिया है कि मैं दीक्षा लुगा । पर हमारे सात पुत्रों में यह सब से बड़ा है इसकी सादी करनी है इसकी माता रोती है इत्यादि हमारे प्रतिष्ठा कार्य में एक बड़ा भारी विन्न खड़ा हो जायगा अतः आप शोभन को समझादें कि अभी दीक्षाकी बात न करे। सूरिजी ने कहा यशोदित्य तुम्हारा घराना उपकेश गच्छ का उपासक है जिसमें भी तु हमारे अप्रेसर ८५४ [ शोभन की दीक्षा के लिये माता पिता का Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० भक्त श्रावक है तुम्हारी आज्ञा विनो तो हम शोभन को दीक्षा दे ही नहीं सकते हैं शोभन आज ही क्यों पर आर्बुदाचल आया था और मेरा उपदेश सुनाया था तब से ही कह रहा है कि मुझे दीक्षा लेनी है दूसरे श्राप यह भी सोच सकते हो कि इस कार्य में साधुओं को क्या स्वार्थ है मेरे साधुओं की कोई कमी नहीं है तथा शोभन विना हमारा काम भी रुका हुआ नहीं है कि हम इस के लिये कोशीश करे । हाँ कई भी भव्य जीव अपना कल्याण करना चाहे तो हमारा कर्तव्य है कि हम उसको दीक्षा देकर मोक्षमार्ग की आराधना करावे । मंत्रीश्वर बालाअवस्थामें दीक्षा लेना तो अमूल्य रत्न के तुल्य हैं कारण एक तो इस अवस्था में दीक्षा लेने वाले के ब्रह्मचर्यगुण जबरदस्त होता है दूसरा पढ़ाई भी अच्छी होती है तीसरा चिरकाल संमय पालने से स्वपर आत्मा का अधिक से अधिक कल्याण कर सकता है। तथा शोभन की माता फिक्र क्यों करती है जब कि उसके एक भी पुत्र नहीं था आज सात पुत्र है उसमें एक पुत्र शासन का उद्धार के लिए देदे तो उसके कौनसा घाटा पड़ जाता है और शोभन जाता भी कहाँ है वहाँ तुम्हारे पासनहीं तो तुमारा गुरु के पास रहेंगे । मंत्री - मुग्धपुर के श्रावको ने शासन शोमा के लिए अपने पुत्रों को आचार्य श्री की सेवा में अर्पण कर दिये थे यदि शोभन दीक्षा लेगा तो आपका कुल एवं माता मैना की कुक्षको उज्ज्वाल बना देगा अतः शोभन की इच्छा हो तो तुम विच में अन्तराय कर्म नहीं बान्धना इत्यादि । सूरिजी ने मधुर बचनों से ऐसा हितकारी उपदेश दिया कि यशोदित्य कुच्छ भी नहीं बोल सका। थोड़ी देर विचार कर कहा अच्छा गुरु महाराज मैं शोभन की माता को समझा दूगा और आप श्री व्याख्यान में ऐसा उपदेश दीरावे कि उसका चित शान्त हो जाय । मंत्रीश्वर सूरिजी को बन्दन कर अपने मकान पर आगया । सेठानी ने पुछा कि श्राप सूरिजी को कह पाये हो न ? सेठजी ने कहा कि मैं सूरिजी के पास गया था पर सूरिजी ने कहा है कि यदि शोभन दीक्षा लेना चाहता हो तो तुम बिच में अन्तराय कर्म नहीं बन्धना शोभन दीक्षा लेगा तो तुम्हारा कुल और उसकी माता की कुक्ष को उज्ज्वल बना देगा और शोभन जाता कहाँ है तुम्हारे पास नहीं तो गुरु के पास रहेगा इत्यादि । सेठानी ने कहा कि फिर आपने क्या कहा? सेठजी ने कहा मैं गुरु महाराज के सामने क्या कह सकता । सेठानी ने कहा क्या गुरु महाराज शोभन को दीक्षा दे देगे। सेठ ने कहा हाँ उनके तो यही काम हैं । सेठानी ने कहा उनके तो यही काम है पर आप इंकार क्यों नहीं किया । सेठजी ने कहा कि गुरु महाराज ने कहा था कि अन्तराय कर्म नहीं बान्धना । जब श्राप शोभन को दीक्षा लेने दोगे ? सेठजी-हाँ अपने छ पुत्र रहेगा यदि बटवार किया जायगा तो तीनतीन पुत्र दोनों के रह जायगा फिर अपने क्या चाहिये । जब कि तुम्हारे एक भी पुत्र नहीं था शोभन दीक्षा लेगा तो भी छ एवं तीन पुत्र रह जायगा अतः गुरु महाराज कह दिया तो लेने दो शोभन को दीक्षा सेठानी ने सोचा कि सूरिजी ने शोभन पर तो जादू डाल ही था परन्तु शोभन के बाप पर भी जादू डाल दिया ऐसा मालूम होता है तब मैं एकली कर ही क्या सकू। मंत्रीश्वर ने मन्दिर की प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकलवाया जो वैशाख शुक्ल ३ अक्षय तृतीय के दिन मुकर्रर हुआ और उस दिन ही शोभन की दीक्षा का मुहूर्त निकला बस । शिवपुरी में जहाँ देखो वहाँ शोभन के दीक्षा की ही बातें हो रही थी तथा इनके अनुकरण में कई नर नारी दीक्षा की तैयारियाँ भी करने लगे इधर मन्त्रीश्वर ने प्रतिष्ठा एवं पुत्र की दीक्षा के लिये आस पास ही नहीं पर बहुत दूर दूर आमन्त्रण पत्रिकाए भेजवादी जिससे क्या साधु साध्वियाँ और श्रावक श्राविकाएँ खुब गेहरी तादाद में शिवपुरी की शोभन की दीक्षा और प्रतिष्ठा का मुहूर्त ] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ओर आ रहे थे जिन मन्दिरों में अष्ठलिहका महोत्सव हो रहा था वैरागी शोभन वगैरह बंदोले खा रहे थे जिनके वैगग्य के बाजे चारों ओर बज रहे थे एक करोड़पति सेठके सोलह वर्ष का पुत्र दीक्षा ले जिसको देख किसके दिल में वैराग्य नहीं आता हो नगरी के तो क्या पर कई बाहर से आये हुए महमानों को ऐस वैराग्य हो आया कि वे भी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । ठीक मुहूर्त पर ४२ नर नारियों के साथ शोभन को दीक्षा देकर सूरिजी ने शोभन का नाम सोमप्रभा रख दिया वाद मूर्तियों की अंजनसिलाका एवं प्रतिष्ठा करवाई इस पुनीति कार्य में मंत्रीश्वर ने पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य और साधर्मीभाइयों को पेहरामणि वगैरह देने में एक करोड़ रुपये व्यय किया। इस पुनीति कार्य से जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई थी मुनि सोमप्रभ क्रमशः धुरंधर विद्वान एवं सर्व गुण सम्पन्न हो गया आपके अखण्ड ब्रह्मचाचर्य और कठोर तपश्चर्य के प्रभाव से राजमहाराज तो क्या पर कई देवदेवियों भी आपके चरणों की सेवा कर अपना जीवन को सफल मना रहे थे यही कारण है कि आचार्य यक्षदेवसूरि ने उपके शपुर के श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक आपको आचार्य पद से अलंकृत बनाया था। इस कलिकाल में सत्ययुग के सदृश कार्य बन जाना कुदरत से देखा नहीं गया भलो । क्रूर प्रकृति के कलिकाल में करीब ९०० वर्ष तक इस प्रकार का सम्प ऐक्यता के साथ हजारों साधु साध्वियों और करोड़ श्रावक श्राविकाएँ एक प्राचार्य की आज्ञा में चलना यह क्या साधारण बात है ? कलि के लिये ये एक वडी भारी कलंक एवं लज्जा की बातथी परन्तु इतने अ6 तक उसका कहाँ पर ही जोर नहीं चल सका। यह अपना दाव पेच खेलता रहा और छेन्द्र देखता रहा पर कहाँ है कि दुष्ठों का मनोरथ कभी कभी सफल हो ही जाता है यही कारण था कि भिन्नमाल में रहा हुआ मुनि कुंकुंद ने सुना कि उपदेशपुर में प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने पट्टपर उपाध्याय सोमप्रभ को आचार्य बना कर उसका नाम कक्कसूरि रखदिया और यक्षदेवसूरि का स्वर्गवास भी हो गया है अतः भन्न माल के संघ को इस प्रकार समझाया कि उन्होंने मुनि कुंकुद को आचार्य पद देकर उपकेशगच्छ की चिरकाल से चली आई मर्यादा का भंग कर दिया । जब इधर आचार्य ककसूरि ने यह समाचार सुना कि भिन्नमाल में मुनि कुकुद आचार्य बनगया तो अपको वडा ही विचार हुआ कि पूर्वाचार्य वडे ही भाग्यशाली हुए कि अपना शासन एक छत्र से ही चला कर शासन की उन्नति की जव में ही एक ऐसा निकला कि इस गच्छ में दो आचार्यों का नाम सुन रहाहु खैर भवितव्यतो को कौन मिटा सकता है परन्तु अब इस मामले को किस प्रकार निपटाया जाय कि भविष्य में इसके बुरे फल का अनुभव नहीं करना पड़े और गच्छ को नुकशान न पहुँचे। प्राचार्य कक्क सूरि ने अनेक ओर दृष्टि लगा कर देखा जिससे यह ज्ञान हुआ कि जब एक बड़ा नगर का संघ ने आचार्य बना दिया है वह अन्यथा तो हो ही नहीं सकेगा । यदि मैं इसका विरोध करूँगा या संघ को उतेजित करूँगा तो यह नतीजा होगा कि मेरा उपदेश मानने वाले उनको प्राचार्य नहीं मानेगा पर इससे गच्छ में एवं संघ में फूट कुसम्य बढ़ने के आलावा कोई भी लाभ न होगा । कारण जब भिन्नमाल का संघ ने यह कार्य किया है तो वे उनके पक्ष में हो ही गये है दूसा कुंकुंदमुनि विद्धान भी है और करीब एक हजार साधु भी उनके पास में है इससे दो पार्टी अवश्य बन जायगी । इत्यादि शासन का हित के लिये आपने बहुत कुच्छ सोचा आखिर आपने आचार्य रत्नप्रभसूरि और कोरंट संघ एवं कनकप्रभसूरि का इतिहास की ओर अपना लक्ष पहुँचाया ओर यह निश्चय किया कि मुझे भिन्नमाल जाना चाहिये परन्तु इस विषय में देवी सच्चायिका की सम्मति लेनाभी आपने [भिन्नमालका संघ और कुंकुंदाचार्य Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० आवश्यक सममा अत: आप ने देवी का स्मरण किया और देवी आकर सूरिजी को वन्दन किया सूरिजी ने धर्मलाभ देकर सब हाल देवी को निवेदन किया और अपना विचार भी कह सुनाया तथा आपकी इसमें क्या राय है । देवी ने कहा पूज्यवर ! भवितव्यता को कौन मिटा सकता है पर यह भी अच्छा हुआ कि यह झमेला आपके सामने आया यदि किसी दूसरे के सामने आता तो गच्छ में बड़ा भारी मत्तभेद खड़ा हो जाता पर श्राप भाग्यशाली एवं अतिशय प्रभावशाली है इस झमेला को आसानी से निपटा सकोंगे । यह ही कारण है आप अपने मान अपमान का नयाल न करके भिन्नमाल पधारने का विचार कर लिया है। इस लिये ही शास्त्रकारों ने कहा है कि जातिवान कुलवान दीर्घदर्शी एवं उच्च संस्कार वाले कों आचार्य बनाया जाय । प्रत्येक्ष में देख लीजिये कि यदि मुनि कुंकुन्द थोड़ा भी विचारज्ञ होता तो केवल अपनी थोड़ी सी महिमा के लिये पूर्वाचार्यों की मर्यादा का भंग कर गच्छ एवं शासन में इस प्रकार फूट कुसम्प के बीज कभी नहीं बोते । खैर, पूज्यवर ! आपके इस शुभ विचारों से मैं सर्वथा सहमत्त हूं और मैं आपको कोटीश धन्यवाद भी देती हूँ कि आपने धर्म एवं गच्छ के गौरव की रक्षा के लिये चल कर भिन्नमाल जाने का उत्तम विचार किया है। और आप अपने विचारों में सफलता भी पाओगें। देवी सूरिजी को वन्दन करके चली गई पर देवी को आश्चर्य इस बात का था कि इस युवक व्यय में नूतनाचार्य कितने दीर्घदर्शी है कितने धैर्य एवं गर्भिर्य है ? आचार्य कक्कसूरि अपने शिष्यों के साथ विहार कर विना विलम्ब चलते हुए भिन्नमाल की ओर पधार रहे थे। उस समय कोरंटगच्छ के आचार्य नन्नप्रभसूरि भी भिन्नमाल में विराजते थे जिन्हों को भिन्नमाल का संघ आमन्त्रण करके बुलाये थे शायद् इसमें भी कुंकुन्दाचार्य की ही करामात हो कि कोरंटगच्छ के आचार्यों को अपने पक्ष में ले ले कहा है कि विद्वान जितना उपकार करता है उतना ही अपकार भी कर सकता है खैर भिन्नमाल का संघ एवं कोरंटगच्छ के आचार्य नन्नप्रभसूरि ने सुना कि आचार्य ककसूरि भिन्नमाल पधार रहे है इससे तो प्रत्येक विचारज्ञ के हृदय में नाना प्रकार की कल्पनाएँ ने जन्म लेना शुरू कर दिया। कई विचार कर रहे थे कि कक्कसूरि यहां क्यों आ रहे है ? कइने सोचा कि मुनि कुंकुन्द को आचार्य बना कर पूर्वाचार्यों की मर्यादा का भंग किया इसलिये कक्कसूरि आ रहा है कई यह भी विचार कर रहे थे कि यहां दोनों आचार्यों का बड़ा भारी क्लेश होगा ? इस प्रकार मुण्डे मुण्डे मतिभिन्ना एवं जितने मगज उतने ही विचार और जितने मुंह उतनी बातें कहा है कि घर हानी और दुनियाँ का तमासा जब जैनों का यह हाल था तो जैनेत्तरों के लिये तो कहना ही क्या था पाठक पिछले प्रकरणों में पढ़ आये है कि मरुधर में एक भिन्नमाल ही ऐसा क्षेत्र था कि वहां के ब्राह्मण शुरु से ही जैनों के साथ द्वेष रखते आये हैं जब उनको ऐसी बात मिल गई तब तो कहना ही क्या था। वे लोग भी विचार करने लगे कि ठीक है आज जैनों के विरोध पक्ष के दो आचार्य यहां शामिल हो रहे है । देखते है क्या होगा आचार्य नन्नप्रभसूरि ने संघ को कहा कि आचार्य कक्कसूरि पधार रहे है हम स्वागत के लिये जायेंगे आपको और कुंकुन्दाचार्य को भी सूरिजी का सत्कार एवं स्वागत करना चाहिये । कारण कक्कलरिजी आचार्य होने के बाद आपके यहां पहिले पहिल ही पधार रहे है । इस पर श्री संघ और कुंकुन्दाचार्य ने एकान्त में विचार किया जिसमें दो पार्टी बन गई एक पार्टी में कुंकुन्दाचार्य और कुच्छ उनके दृष्टिरागी भक्त तब दूसरी आचार्य कक्कसरि का भिन्नभाल आना ] ८५७ १०८ Jain Education Interratonal Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४० - ४८० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पार्टी में शेष श्री संघ था पर आचार्य नन्नप्रभसूरि का कहना संघ को ठीक लगा अतः सकल श्रीसंघ ने यह निश्चय किया कि आचार्य कक्कसूरि का खूब धूमधाम के साथ नगर प्रवेश का महोत्सव पूर्वक स्वागत करना चाहिये आखिर कुंकुन्दाचार्यको संघ के सहमत होना पड़ा कारण आपके लिये अभी तो केवल एक भिन्नमाल का संघ ही था दूसरे कोरंटगच्छाचार्य का मत स्वागत करने का ही था अतः सकल श्री संघ और आचार्य नन्नप्रभसूरि एवं कुंकुन्दाचार्य मिलकर श्राचार्य कक्कसूरि का महामहोत्सव पूर्वक नगर प्रवेश करवाया श्राचार्य श्री भगवान महावीर की यात्रा कर धर्मशाला में पधारे तीनों आचार्य एक ही पाट पर विराजमान हुए उस समय उपस्थित जनता को यही भाँन हो रहा था कि ये तीनों श्राचार्य ज्ञान दर्शन चारित्र की प्रति मूर्ति ही दीख रहे है। आचार्य कक्कसूरि ने आचार्य नन्नप्रभसूरि से सविनय अर्ज की कि पूज्यवर ! देशना दीरावे । इस पर नन्नप्रभसूरि ने कहा सूरिजी सकल श्री संघ और हम आपके मुखार्विन्द की देशना के पीपा है आप अपने ज्ञान समुद्र से सब लोगों को श्रमृतपान करावे । वक्कसूरि ने कहा कि आप हमारे वृद्ध एवं पूज्याचार्य है अतः आपको ही देशना देनी चाहिये ? मैं आपकी देशना का प्यासा हूँ पुनः नन्नसूरि ने कहां सूरिजी संसारी लोग कहते है कि 'परणी जो सो गाईजे' आज तो सब लोग आपकी ही देशना सुनना चाहते है । इस पर क+कसूरि ने कुंकुन्दाचार्य को कहां सूरिजी आप फरमावे | कुंकुन्दाचार्य लज्जा के मारे मुँह नीचा कर लिया और कहां कि पूज्यवर ! आज की देशना तो आपकी ही होनी चाहिये इत्यादि । इस विनयमय प्रवृति देख दुनियाँ का दील पलटा खागया और उनके जो विचार पहिले थे वे नहीं रहे । श्राचार्य ककसूर ने अपनी ओजस्वी गिरा से देशना देनी प्रारम्भ की जिसमें मंगलाचरण के पश्चात् शासन का महत्व बतलाते हुए कहा कि भगवान महावीर का शासन २१००० वर्ष पर्यन्त चलेगा ! इसमें श्रनेक प्रभावशाली श्राचार्य हुए और होगा आचार्य का चुनाव श्री संघ करता है एक आचार्य की आवश्य कता हो तो एक और अधिक आचार्यों की जरूरत हो तो अधिक आचार्य भी बना सकते हैं इसके लिये व्यवहारादि सूत्र में विस्तार से उल्लेख मिलता है परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता है कि किसी ग्राम नगर का संघ स्वच्छदता पूर्व किसी को आचार्य बना कर शासन का संगठन बल काटुकड़ा टुकड़ा कर डाले। पूर्वाचार्यों ने महाजन संघ स्थापन करने में तथा उस महाजन संघ की वृद्धि करने में जो सफलता पाइ थी उसमें मुख्य कारण संगठन का ही था देखिये एक गृहस्थ के चार पुत्र हैं पर एक संगठन में ग्रन्थित है वहाँ तक उनका प्रभाव कुछ और ही है यदि वे चारों पुत्र अलग अलग हो जाय तो उनका उत्तना प्रभाव नहीं रह है यही हाल शासन नायकों का समझ लेना चाहिये । एक समय कोरंट संघ ने पार्श्वनाथ सनातियों में आचार्य रत्नप्रभसूरि जैसे प्रभावशाली आचार्य होते हुए भी बैग में आकर कनकप्रभसूरि को आचार्य बना दिया पर श्राचार्य रत्नप्रभसूरि इतने दीर्घ दर्शा एवं शासन के शुभचिंतक थे कि वे चलकर शीघ्र ही कोरंटपुर पधारे। इस बात की खबर मिलते ही कोरंटसंघ एवं कनकप्रभसूरि ने आपका स्वागत किया इतना ही क्यों पर कनकप्रभसूरिजी इतने योग्य एवं शासन के हितैषी थे कि कोरंटसंघ की दी हुई श्राचार्य पदवी रत्नप्रभसूरि के चरणों में रखदी परन्तु रत्नभसूरि भी इतने दीर्घ दर्शी थे कि अपने हाथों से कनकप्रभसूरि को आचार्य पद देकर कोरंटसंघ एवं कनकप्रभसूरि का मान रखा इस प्रकार दोनों ओर की विनयमय प्रवृति का मधुर फल यह हुआ कि केवल नाम मात्र के ( उपकेशगच्छ- कोरंटगच्छ ) दो गच्छ कहलाते हैं पर वास्तवतः दोनों गच्छ एक ही है उस बात को करीबन ८४० वर्ष ही गुजरा है पर इन दोनों गच्छ में इतना प्रेम स्नेह ऐक्यता ८५८ [ आचार्य श्री का प्रभावशाली व्याख्यान Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमूरि का जीवन । ओसवाल संवत् ८४०-८८० rammar है कि कोई यह नहीं कह सकता है कि ये दो गच्छ हैं । इत्यादि मधुर एवं मार्मिक शब्दों में जनता पर इस कदर प्रभाव डाला कि कुन्कुन्दाचार्य पाट पर से उतर कर सबके समीक्षा कहाँ पूज्यवर ! मेरी गलती हुई है कि मैं अज्ञानता के कारण पूर्वाचायों की मर्यादा का उल्लंघन किया है जिसको तो आप क्षमा करावें और यह प्राचार्य पद में पूज्य के चरणों मैं रख देता हूँ। आप हमारे पूज्य हैं आचार्य हैं और गच्छ के नायक है । इत्यादि अहा हा आप के अलौकिक गुणों का मैं कहाँ तक वर्णन कर सकता हूँ-पूज्यवर ! आप वास्तविक शासन के शुभचिंतक एवं हितैषी हैं । साथ में भिन्नमाल के श्री संघ ने भी कहाँ पूज्यवर ! इस कार्य में अधिक गलती तो हमारी हुई है इस पर प्राचार्य कक्कसूरि ने कहा कि कुन्कुन्दाचार्य योग्य है विद्वान है इतना ही क्यों पर आप आचार्य पद के भी योग्य हैं और भिन्नमाल संघ ने भी जो कुछ किया है वह योग्य ही किया है गुणीजन की कदर करना यह श्री संघ का कर्तव्य भी है यदि यही कार्य हमारे पूज्याचार्य यक्षदेवसूरि एवं नन्नप्रभसूरि श्रादि की सम्मति से किया गया होता तो अधिक शोभनीय होता । खैर मैं कन्कुन्दाचार्य को कोटिश धन्यवाद देता हूँ कि इस कलिकाल में भी आपने सत्ययुग का कार्य कर बनलाया है यह कम महत्व का कार्य नहीं है साथ में भिन्नमाल का श्री संघ भी धन्यवाद का पात्र है कारण जैन धर्म का मम यही है कि अपनी भूल को आप स्वीकार करले । तत्पश्चात् आचार्य कक्कसूरि ने आचार्य नन्नप्रभसूरि को प्रार्थना की कि पूज्याचार्य देव यह चतुर्विध श्री संघ विद्यमान है आपके वृद्ध हस्तकमलों से कुन्कुन्दाचार्य को प्राचार्य पद अर्पण कर मेरे कन्धे का आधा वजन हलका कर दिरावे । कुन्कुन्दाचार्य ने कक्कसूरि से अर्ज की कि पूज्यवर ! आप हमारे प्रभावशाली प्राचार्य हैं और मैं आचार्य बनने के बजाय आचार्य का दास बन कर रहने में ही अपना गौरव समझता हूँ इत्यादि । कक्कसूरि ने कहा प्रिय अात्म बन्धु ! मैं भिन्नमाल श्रीपंध की दी हुई आचार्य पदवी लेने को नहीं आया हूँ पर भिन्नमाल श्री संघ का किया हुआ कार्य का अनुमोदन कर अपनी सम्मति देने को ही आया हूँ. भविष्य के लिए जनता यह नहीं कह दें कि उपकेश गच्छ में बिना आचार्य को सम्मति आचार्य बन गये । अतः मैं आग्रह पूर्वक कहता हूँ कि आप आचार्य पद को स्वीकार कर लो। श्राचार्य नन्नप्रभसूरि और उपस्थित श्री संघ ने भी बहुत आग्रह किया अतः प्राचार्य नन्नसूरि एवं कक्कसूरि के वासक्षेप पूर्वक मुनि कुन्कुन्द कों आचार्य पद देकर कुन्कुन्दाचार्य बनाया उस समय श्री संघ ने भगवान महावीर की जयध्वनि से गंगन को गुजाय दिया था। तत्पश्चात आचार्य कक्कसरि ने कुन्कुन्दाचार्य और भिन्नमाल के श्रीसंघ को कहा कि संघ पचवीसवाँ तीर्थङ्कर होता है मगर आज मैंने 'छोटे मुंह बड़ी बात' वाली धृष्टता करता हुआ आपको उपालम्ब दिया हैं इसके लिये मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। मुझे यह उम्मेद नहीं थी कि यहाँ इस प्रकार की शान्ति रहगा । आपके धैर्य एवं गाभिर्य और सहनशीलता का वर्णन मैं वाणिद्वारा कर ही नहीं सकता हूँ आपकी सम्यग्दृष्टि बड़ी अलौकीक है मुझे अधिक हर्ष तो महानुभाव कुंकुंदाचार्य के कोमलता पर है कि आपने कलिकाल के उन्नत हृदय पर लात मार कर साक्षात सत्युग का नमूना बतला दिया है सज्जनों अपनी भूल को भल स्वीकार कर लेना इसके बराबर कोई गुण है ही नहीं इस गुण की जितनी महिमा की जाय उतनी ही थोड़ी है मैं तो यहां तक खयाल कर सकता है कि जितने जीव मोक्ष में गये हैं वे सब इस पुनित गुण से ही गये हैं क्योंकि जीव संसार में परिभ्रमन करतो है वह अपनी भूल से ही करता है जब अपनी भूल को भूल समझता है तब उस जीव की मोक्ष हो जाती है। सद् गृहस्थों आपके लिये भी यह एक अमूल्य शिक्षा है जितना राग द्वेष क्लेश कदाग्रह होते हैं उसमें मुनि कुकुन्द को आचार्य पदापर्ण ] ८५९ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्षे ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मौख्य रोग अपनी भूल स्वीकार नहीं करना ही है । एक तरफ या दोनों तरफ से भूल होने के कारण ही राग द्वेष पैदा होता है यदि अपनी अपनी भूल को स्वीकार कर लेता है तब रागद्वेष चौरों की भांति भाग छुटता है इत्यादि सूरिजी ने अपने विचारों का जनता पर इस कदर प्रमाव डाला कि जिससे सबको संतोष हो गया। कुंकुंदाचार्य और भिन्नमाल के संघ ने कहा पूज्यवर! म्वर्गस्थ श्राचार्य यक्षदेवसूरि ने आपको आचार्य पदापण कर गच्छ का सब भार आपको सुपर्द किया है यह खूब दीर्घ विचार करके ही किया था और आपश्री जी इस पद के पूर्ण योग्य भी है वैद्यराज की दवाई लेते समय भले कटुक लगती हो परन्तु इस प्रकार की कटुक दवाई बिना रोग भी तो नहीं जाता है यदि आप दीर्घ विचार कर यहाँ न पधारते तो न जाने भविष्य में इनके कैसे जेहरीले विष फल लगते पर आपके पधारने से कितना फायदा हुआ है कि भवि क्षेत्र बिलकुल निष्कण्टक बनगया है हमारे विशेष शुभकर्मों का उदय है कि उधर से आचार्य नन्नप्रभसूरि का और इधर से आपका पधारना हो गया। इत्यादि आपसमें विनय व्यवहार करके भगवान महावीर की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई श्रहा-हा-आज भिन्नमाल में जहाँ देखो वहाँ जैनाचार्यों की भूरि भूरि प्रशंसा हो रही है। आज जैनों के हर्ष का पार नहीं है परन्तु बादी लोग दान्तों के तले अंगुलिये दबाकर निराश हो गये है उनके चेहरे फिके पड़गये है उनके दिल में बूरी भावनाए थी जिनको जैनाचार्यों ने मिथ्या साबित करदी है और जहाँ देखो वहाँ जैनधर्म के ही यशोगायन हो रहा है। आचार्य ककसूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा होता था जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ता था । एक दिन भिन्नमाल के श्रीसंघ ने तीनों प्राचार्यों के चतुर्मास के लिये आचार्य नन्नप्रभसूरि से साग्रह विनती की और कहा कि पूज्यवर! यहाँ के श्रीसंघ की यह अभिलाषा है कि आप तीनों आचार्यों का यह चतुमास भिन्नमाल में ही हो । इसकी मंजुरी फरमा कर यहाँ के श्रीसंघ को मनोरथ पूर्ण करावे । सूरिजी ने कहाँ श्रावकों ! यदि तीनाचार्य तीनक्षेत्र में चतुर्मास करेंगे तो तीनक्षेत्रों का उपकार होगा अतः आपके यहाँ कक्कसूरिजी का चतुर्मास होना अच्छा है । श्रीसंघ ने कहा पूज्यवर ! आप जहाँ विराजे वहाँ उपकार ही है पर यह चतुर्मास तो यहाँ ही होना चाहिए सूरिजी ने दोनों आचार्यों की सम्मति लेकर श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार करली बस । फिरतों कहना ही क्या था भिन्नमाल के श्रीसंघ का उत्साह खूब बढ़गया । श्रमणसंघ में सर्वत्र धर्मस्नेह और संघ में शान्ति का सम्राज्य छायाहुआ था कुंकुंदाचार्य का गत चतुर्मास भिन्नमाल में ही था अतः मुनियों को वाचना का काम आपके जुम्मा कर दिया कि तीनों आचार्यों के योग्य साधुओं को आगम वाचना एवं वर्तमान साहित्याका अध्ययन करवाया करे आचार्य नन्नसूरि अवस्था में वृद्ध थे वे मुनियों की सार संभाल एवं अपनी सलेखना में लगरहे थे तब आचार्य कक्कसूरि व्याख्यान दे रहे थे । श्रीमालवंशीय शाह दुर्गा ने महाप्रभाविक पंचमांग श्री भगवतीजी सूत्र को महामहोत्सव पूर्व अपने मकान पर लेजाकर पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि कर हस्ति पर विराजमान कर वरघोड़ा चढ़ाया और हीरा पन्ना माणक मुक्ताफल से पूजा कर सूरिजी के करकमलों में अर्पण किया जिसको सूरिजी ने व्याख्यान में वाचना प्रारम्भ कर दिया जिसकों सुनने के लिये केवल भिन्नमाल के लोग ही नहीं पर आस-पास एवं दूर दूर प्राम नगरों के जैन जैनत्तर लोग आया करते थे सूरिजी महाराज की तात्विक विषय समझाने की शैली इतनी सरल सरस और हृदयग्राही थी कि श्रोताजनों को बड़ा ही आनन्द आरहा था। जिस समय [ तीनों आचार्यों का भिन्नमाल में चतुर्मास Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० आप त्याग वैराग्य की धून में संसार के दुःखों का वर्णन करते थे तब अच्छे अच्छे लोग कांप उठते थे और उनकी भावना संसार त्याग ने की हो जाति थी । इतना ही क्यों पर कई महानुभावों ने तो सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने का भी निश्चय कर लिया। एक समय आचार्य कक्कसूरिजी आत्म ध्यान में रमणता के अन्त में जैनधर्म का चार के निमित विचार कर रहे थे ठीक उसी समय देवी सच्चायिक ने आकर वन्दन की उतर में सूरिजी ने धर्मलाभ दिया । देवी ने कहाँ पूज्यवर ! आप बढ़े ही प्रभावशाली है आपके पूर्ण ब्रह्मचर्य और कठोर तपश्चर्य का तपतेज बड़ा ही जबर्दस्त है कि भिन्नमाल जैसे जटिल मामला को श्रापश्री ने बड़े ही शांति के स थ निपटा दिया यह आपके गच्छ का भावि अभ्युदय का ही सूचक है । पूज्यवर ! यह भी आपने अच्छा किया कि तीनों श्राचार्यों ने शामिल चतुर्मास कर दिया, इत्यादि । सूरिजी ने कहा देवीजी आप जैसी देवियों इस गच्छ की रक्षिका है फिर हमको फिक्र ही किस बात का है । प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के पुन्यप्रताप से सब अच्छा ही होता हैं । देवी जी अाज मेरी यह भावना हुई है कि मैं आज से पांचों विगई का त्याग कर छट छट पारण (आंबिल) करू कारण दुष्ट कमों की निर्जग तप से ही होता है ? -देवी ने कहा प्रभो ! आपका विचार तो अत्युतम है पर आप पर अखिल गच्छ का उत्तरदायित्व हैं आपके विहार एवं व्याख्यान से जनता का बहुत उपकार होता है यदि आप आहार करते हो तो भी आपके तो तपस्या ही है इत्यादि ! इसपर सूरिजी ने कहाँ देवीजी मेरी तपस्या में विहार और व्याख्यान की रुकावट नहीं होगा अतः मेरी इच्छा है कि मैं आज से ही छट छट पारण करना प्रारम्म कर, । देवीने कहाँ ठीक हैं गुरुदेव कर्म पुंज जलाने के लिये तप अग्नि समान हैं हम लोग तो सिवाय अनुमोदन के क्या कर सकती है। पर आप अपने शरीर का हाल देख लिरावे सूरिजी ने कहा कि शरीर तो नाशमान है इसके अन्दर से जितना सार निकल जाय उतना ही अच्छा है देवी ने सूरिजी की खूब प्रशंसा करती हुई वन्दन कर चली गई और आचार्य श्री ने उसी दिन से छट छट यानि दो दिन के अंतर पारण करना शुरु कर दिया। जिसकी किसी को मालुम नहीं पड़ने दी। परन्तु बाद में आचार्य नन्नप्रभसूरि को मालुम हुआ तो सूरिजी ने फरमाया कि आप हमारे शासन एवं गच्छ के स्तम्भ है आपके तो हमेशा तप ही है यदि आप विहार कर भव्यों को उपदेश करेंगे तो अनेक जीवों का उद्धार कर सकोगे इत्यादि । ककसूरि ने कहा कि श्रापका कहना बहुत अच्छा है मैं शिरोधार्य करने को तैयार हूँ पर जब तक मेरे विहार एवं व्याख्यान में हर्जा न पड़े वहाँ तक निश्चय किया हुआ तप करता रहूँगा। आचार्य कमासूरि तपके साथ योग आसन समाधि और स्वरोदय के भी अच्छे विद्वान थे इतना ही क्यों पर अपने साधु त्रों के अलावा दूसरे गच्छो के एवं अन्य धर्म के मुमुक्षु लोक भी योग एवं स्वरोदय ज्ञान के अभ्यास के लिये आपश्री की सेवा में रहा करते थे-जैसे आप ज्ञानी थे वैसे ज्ञान दान देने में बड़े ही उदार थे आये हुए महमानों का अच्छा मान पान रखते थे और उनके सब अावश्यकता को भी श्रापश्री अच्छी सुविधा से पूर्ण करते थे। अतः आपके पास रहने से किसी को भी तकलीफ नही रहती थी। भिन्नमाल का श्रीसंघ तीनों प्राचार्यों का चतुर्मास कर. वाने में खूब ही सफलता प्राप्त की थी पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य तप जपादि सद कार्यों से धर्म की एवं शासन की खूब ही उन्नति की इतना ही क्यों पर सूरिजी का वैराग्य मय व्याख्यान सुनकर कइ १८ नर-नारी दीक्षा लेने को भी तैयार हो गया चतुर्मास समाप्त होते ही सूरिजी के कर कमलों से उन सबकों भव भंजनी दीक्षा देकर उनका उद्धार किया । आचार्यश्री की ज्ञानदान की उद्धारता ] nainamammine Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ____ तत्पश्चात् आचार्य नन्नप्रभसूरि ने कोरंटपुर की और विहार किया तब कुंकुंदाचार्य को उपकेशपुर की और विहार का आदेश दिया और आप स्वयं शिवपुरी चन्द्रावती की ओर विहार कर दिया। आसपास के प्रामों में भ्रमन कर शिवपुरी पधार रहे थे यह आपके जन्म भूमि का स्थान था यों ही शिवपुरी शिव (मोक्ष) पुरी ही थी परन्तु आज तो आचार्य कक्कसूरि का शुभागमन हो रहा है ऐसा कौन हृदय शून्य मनुष्य होगा कि जिसको अपने नगरी का गौरव न हो क्या राजा क्या प्रजा क्या जैन और क्या जनेत्तर सब नगरी ही सूरिजी के स्वागत में शामिल होकर महामहोत्सव पूर्वक सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया सूरिजी ने मन्दिरों के दर्शन कर धर्मशाला में पधारे और थोड़ी पर सारगर्भित भवभंजनी देशादी मंत्री यशोदित्य और आपके गृहदेवी सेठानी मैना अपने पुत्र का अतिशय प्रभाव देख परमानन्द को प्राप्त हुए । तत्पश्चात् परिषद विसर्जन हुई और मकान पर आने के बाद मंत्री ने अपनी ओरत को कहा देख लिया नी अपने पुत्र को । पुत्र को पूछते तो सही कि आप सुख में हैं या दुःख में । सेठानीजी आपके कुक्ष से इतने पुत्र हुए हैं पर आपकी कुक्ष और हमारा कुलकों एक शोभन ने ही उज्वल बनाया है इत्यादि । जिसको सुनकर सेठानी बड़े ही हर्ष एवं आनन्द में मग्न होगयी । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था जिस कों जैन जैनेतर सुनकर सूरिजी नहीं पर मंत्री मंत्री का कुन और शिवपुर नगरों की प्रशंसा कर रहे थे । एक समय मंत्री अपनी स्त्री एवं पुत्रों को लेकर सूरिजी के पास आये वन्दन कर माता भैना ने कहां कि आप हम लोगों को छोड़ गये एवं भूल भी गये । आपके तो नये २ नगर हजारों शिष्य और लाखों भक्त है जहां जाते वहाँ खमा खमा होती है फिर हम लोग आपको याद ही क्यों आवें खैर, अब थोड़ा बहुत राम्ता हमको भी बतलावे कि जिससे हमारा भी कल्ाण हो ये आपके भाई है और ये इनकी बिनणियां है ये सब आपको वन्दन कर सुख साता पूछती हैं सूरिजी ने सबको धर्मलाभ दिया और धर्म कार्य में उद्यमशील रहने का उपदेश दिया। साथ में माता मैना को कहा कि अब आपकी वृद्धावस्था है घर और कुटुम्ब का मोह छोढ़ दो और आत्म कल्याण करो कारण यह धन माल और कुटुम्ब सब यहीं रह जायगा और अकेला जीव पर भव जायगा इत्यादि सेठानी मैना ने कहा कि उस समय आप अपने माता पिता को भी दीक्षा देदे तो हमारा भी उद्धार हो जाता ? सूरिजी ने कहाँ कि अब भी क्या हुआ है लीजिये दीक्षा मैं आपकी सेवा करने को तैयार हूँ । सेठानी ने कहा अब तो हमारी अवस्था आगई है तथापि आप ऐसा रास्ता बतलाओं कि घर में रह कर भी हम हमारा कल्याण कर सकें खैर सूरिजी ने गृहस्थों के करने काबिल कल्याण का मार्ग बतलाया जिसको मंत्री के कुटुम्ब ने स्वीकार किया। कुछ दिनों के बाद श्राप चंद्रावती पधारे । वह भी कइ अर्सा तक स्थिरता की सरिजी के व्याख्यान का जनता पर बहुत प्रभाव हुआ कई लोगों की इच्छा हुई कि गरमी के दिन एवं जेठ का मास है बार्बुदा लजी की यात्रा कर कुछ समय वहाँ ठहर कर निर्वृति से ज्ञान ध्यान करे अतः उन्होंने सूरिजी से प्रार्थना की और सूरिजी ने स्वीकार भी करलिया चन्द्रावती में जैनों कि लाखों मनुष्यों की आबादी थी शिवपुरी पदमावती वगैरह नगरों में खबर मिलने से वे लोग ऐसा सुवर्ण अवसर हाथों से कब जाने देने वाले थे बस हजारों भावुक गुरु महाराज के साथ छ री पाली यात्रा करने की प्रस्थान कर दिया है आबु का चढ़ाव भी बारह कौस का था रास्ता भी येनाऽर्बुद गिरोसद्धो, ज्येष्ठ मासि, समारुहन । पिपासितः प्राणतुलाः मारूढ़ मौढ़शक्तिना [ आचार्य श्री का अपने कुटुम्ब को उपदेश ८६२ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्क सूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४० - ८८० विकट था इधर गरमी भी खूब पड़ती थी यात्री लोग साथ में पानी लिया वह बिच में ही पीकर खत्म कर दिया था । विशेषता यह थी कि ऐसा गरमी का वायु चला कि पानी के विनों लोगों के प्राण जाने लगे जिभ्यातालुके चप गई उनकी बोलने तक की शक्ति नहीं रही। इस हालत में संघ अप्रेश्वरों ने आकर सूरीश्वरजी से प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आप जैसे जंगम कल्पवृक्ष के होते हुए भी श्रीसंघ इस प्रकार अकाल में ही काल के कवलिये बन रहे हैं। पूर्व जमाना में आपके पूर्वजों ने अनेक स्थानों पर संघ के संकटों को दूर किया है आचार्य ब्रज स्वामी ने दुकाल रूप संकट से बचाकर संघ को सुकाल में पहुँचा कर उनका रक्षण किया तो क्या आप जैसे प्रतिभाशालियों की विद्यमानता में संघ पानी बिना अपने प्राण छोड़ देंगे, इत्यदि । श्राचार्य कक्कसूरिजी ने संघ की इस प्रकार करूणामय प्रार्थना सुन कर अपने ज्ञान एवं स्वरोदय बल जान कर कहा कि महानुभावों ! मैं यहां बैठकर समाधि लगाता हूँ यहाँ एक पाक्षी का संकेत होगा । वहाँ पर आपको पुष्कल जल मिल जायगा बस । इतना कह कर सूरिजी ने समाधि लगाई इतने में तो एक सुपेत पाखोंचाला पाक्षी व्याकाश में गमन करता हुआ आया और एक वृक्ष पर बैठा जल की आशा से संघ के लोग इस संकेत को देखा और वहां जाकर भूमि खोदी तो स्वच्छ, शीतल, निर्मल पानी निकल आया वह पानी भी इतना था कि अखूट बस फिर तो था ही क्या सब संघ ने पानी पीकर arer को शान्त की और आपके साथ जल पात्र थे वे सब पानी से भर लिये पर यह किसी ने भी परवाह कलिकाल है। खैर सब काम निपट लेने अतः सब की सम्मति हुई कि की कि सूरिजी समाधि समाप्त की या नहीं। इसी का ही नाम तो के बाद सूरिजी ने अपनी समाधि समाप्त की । बाद संघ अग्रेश्वरों ने एकत्र होकर यह विचार किया कि यहाँ पर आज श्रीसंघ के प्राण बचे और सूरिजी की कृपा से सब लोग नूतन जन्म में आये हैं तो इस स्थान पर एक ऐसा स्मृति कार्य किया जाय कि हमेशों के लिये स्थायी बन जाय । यहाँ एक कुंड और एक मन्दिर बनाया जाय और प्रति वर्ष वहाँ मेला भरा जाय । बस यह निश्चय कर लिया चरित्रकार लिखते हैं कि उस स्थान आज भी कुंड है और प्रति वर्ष मेला भरता है खैर संघ आर्बुदा चल गया और भगवान् आदीश्वरजी की यात्रा की । आहाहा - पूर्व जमाने में जैनाचार्य कैसे करूणा के समुद्र थे और संघ रक्षा के लिये वे किस प्रकार प्रयत्न किया करते थे तब ही तो संघ हरा भरा गुल चमन रहता था और आचार्य श्री का हुक्म उठाने के लिये हर समय तत्पर था अस्तु । संघ यात्रा कर अपने २ स्थान को लौट गया और सूरिजी महाराज वहाँ से लाट प्रदेश की ओर पधार गये क्रमशः विहार करते हुए भरोंच नगर की ओर पधारे वहाँ का श्रीसंघ सूरिजी का अच्छा स्वागत किया सूरिजी महाराज ने भरोंच नगर के संघाग्रह से वहाँ कुच्छ अर्सा स्थिरता की आपका व्याख्यान हमेशा होता था मारोटकोट नगर में उपकेशवंशीय श्रावकों की बहुत अच्छी आबादी थी जिस में एक श्रेष्टिव पद्याधःस्थ वटस्याधो, दंर सन्दर्श्य वायुतम् । सर्वोऽप्युज्जी व्याञ्चक्रे, किमसाध्यं तपस्विनाम् सहस्रसंख्यै स्तल्लोकैः पीयमान मनेकशः । जगाम न क्षयं वारि, सङ्घः स्वस्थः क्षणादभूत् तत्कुण्ड वारि सम्पूर्ण, मद्याप्यस्ति तदाद्यपि । प्रत्यब्दवासरे तस्मिन्नृकेश गणसेविनः श्राद्धा चन्द्रावती सत्का, स्तत्र पद्यावटस्थिताः । साधर्मिकानां, वात्सल्यं कुर्वते भोजनैर्जलैः "उपकेशगच्छ रचत्रि" 3 अर्बुदाचल की यात्रा और संघ उद्धार ] ८६३ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सोमाशाह नाम का श्रद्धा सम्पन्न श्रावक भी बसता था आप धन में कुबेर और कुटम्ब में श्रेणिक ही कहलाते थे। जैन धर्म में तो आपकी हाड़ हाढ़ की मीजी रंगी हुई थी आपने कई बार श्रावक की प्रतिमा का भी आराधन किया अतः आप सिवाय देवगुरु के किसी को शिर नहीं झुकाते थे फिर भी आप संसार में बैठे थे। बहु कुटम्बी भी थे । कहां ही जाता आना पड़ जाय तो अपने हाथ की मुदड़ी में आचार्य कक्कपूरि का छोटासा चित्र बनाकर मंडवा लिया था कभी कहीं शिर झूकाने का काम पड़ता तो उस मुदड़ी को आगे कर अपने गुरु देव को नमस्कार कर लेते थे। इस बात की प्रायः दूसरों को मालुम नहीं थी। कहा है कि कभी कभी सोना की परीक्षा के लिये उसको अग्नि में तपाया जाता हैं ताड़ना पीटना और शूनाक भी लगाई जाती हैं। इसी प्रकार धर्मी पुरुषों की परीक्षा का समय भी उपस्थित होजाता है किसी छेद्रगवेषी ने सोमाशाह की बात को जान ली और इस फिराक में समय देख रहा था कि कभी मोका मिले तो सो शाह को खबर लूँ। मारोट कोट के शासनकर्ता के पुत्र नहीं था जिसका राजा और प्रजा सब को बड़ा भारी फिक्र था कई समय निकल चुका था अन्तराय क्षय होने से एवंकुदरत की कृपा से राजा के पुत्र हुआ जिस बात की गज प्रजा में बड़ी खुशी हुई । नगर के सब लोग राजा के पास गये और राजा को नमस्कार कर अपनी अपनी भेट नजर की उस समय सोमाशाह भी गया उसने राजा को नमस्कार किया पर वह चित्रराली मुंदड़ी उसके हाथ में पहनी हुई थी भाग्यवसात् वह छेद्रगवेषी भी वहां हाजर था सब लोगों के जाने के बाद गजा को कहा कि आपके पुत्र होने की सब नगर वालों को खुशी है और सबने आपको भक्ति के साथ नमस्कार भी किया है पर एक सोमाशाह नाम का सेठ है यों तो वह बड़ा ही धर्मी कहलाता है पर उसके दिल में इतना घमंड है कि वह किसी को नमस्कार नहीं करता है दूसरों को तो क्या पर वह तो आपको भी नमस्कार नहीं करता है ? राजा ने कहा कि तुमारा कहना गलत है कारण अभी सोमाशाह आया था और उसने मुझे नमस्कार भी किया था छेद्रगवेषी ने कहा हजूर यह तो आपको धोखा दिया है नमस्कार आपको नहीं किया पर उसके हाथ में मुदड़ी है उसमें उनके गुरु का चित्र है उनको नमस्कार किया है आपको नहीं १ यह सुनकर राजा को बड़ा ही गुस्सा आया तत्काल ही दूत भेज कर सोमाशाह को बुलाया । सोमाशाह समझ गया परन्तु वह धर्म का पक्का पाबंद था हाथ में मुंदड़ी पहन कर राजा के पास जाकर नमस्कार किया तो राजा ने मुंदड़ी देखी और पुच्छा कि सोमा तु नमस्कार किसको किया ? सोमाने कहा कि परम पूजनीय गुरु देव को । राजाने कहाँ कि क्या तु तेरे गुरु के अलावा दूसरे को नमस्कार नहीं करता है ? सोमा ने कहा नमस्कार करने योग्य एक गुरुदेव ही है । देखता हूँ तुमारे गुरु तुमारी कैसी सहायता करता है गजाने अपने अनुचरो कों हुकम दिया कि इस सोमा को सात शांकलों में जकड़कर बन्ध दो और अंधेरी कोटरी में डालकर पक्का ताला लगादो । बस फिर तो क्या देरं थी अनुचरों ने सोमाशाह को सात शांकलों से बन्ध कर अन्धेरी कोटरी में डाल कर कोटरी के एक बड़ा ताल लगा दिया और चाबी लाकर राजा के सामने रखदी। थोड़ी देर के लिये दुशमनों के मनोरथ सफल हो गये धर्मी लोगों को बड़ा भारी रंज हुआ पर राजा के सामने किसका क्या चलने वाला था कारण उस जमाना के कानून तो उन सत्ताधारियों के मुँह में ही रहते थे अर्थात् वे भला बुरा जो चाहते थे वे व.रगुजरते थे। खैर। सोमाशाह कारापह में बैठा हुआ यह सोच रहा था कि पूर्व भवमें संचित किये हुए शुभाशुभ कर्म भोगवते में तो मुझे तनक भी दुःख नहीं है पर मेरे कारण जैनधर्म की निंदा होगा इस बात का मुझे वडा ही दुःख है गुरुदेव बड़े ही अतिशयवाले है इसमें किसी प्रकार का [ श्रेष्ठिवर्य सोमाशाह की धर्म परीक्षा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० संदेह नहीं पर वे निस्पही है उनको इन संसारी बातें से कुच्छ भी प्रयोजन नहीं है परन्तु सोमाशाह को गुरुवर्य्य कक्कसूरिजी महागज का पक्का इष्ट था उसने काराग्रह में रहा हुआ आचार्य कक्कसूरि के गुणों का एक अष्टक सरस कवितामय बनाया ज्यों ज्यों एक एक काव्य बनता गया और एक एक शांकल तुटती गई अतः सात शांकलों सात काव्यों बनाने से तुट गई और आठवा काव्य बनाते ही कोठरी का ताला तुट पड़ा और द्वार के कपट स्वयं खुल गये सोमाशाह राजा के सामने अाकर खड़ा हुआ जिसको देख राजा और राज सभा के लोग आश्चर्य में मुग्ध बनगये और सोमाशाह के इष्ट की भूरि भूरि प्रशंसा कर सोमाशाह को लाख रुपयों का इनाम दया ! सोमाशाह राजा के पास से चलकर अपने घर पर नहीं पाया पर सीधा ही भरोंच नगर की ओर रवाना होगया क्योंकि उसने पहिले ही प्रतिज्ञा करली थी कि मैं गुरु कृपा से इस उपसर्ग से बच जाउ तो पहिले गुरुदेव के चरणों का स्पर्श करके ही घर पर जाउगा। हां दुःख में प्रतिज्ञा करने वाले बहुत होते है पर दुःख जाने के बाद प्रतिज्ञा पालन करने वाले सोमाशाह जैसे विरले ही होते है। सोमाशाह अपनी प्रतिज्ञा को पालन करने के लिये चलकर भरोंचनगर आया जो मारोटकोट से बहुत दूर था परन्तु उस संकट को देखते वह कुच्छ भी दूर नहीं था पाठकों ! आप आचार्य रत्नप्रभसूरि के जीवन में पढ़ आये हैं कि आद्यचार्य रत्नप्रभसूरि ने दीक्षा ली थी उस समय आप एक पन्ना की मूर्ति साथ में लेकर ही दीक्षा ली थी और वह मूत्तिं क्रमशः श्रापके पटधरों के पास रहती आई है और जितने आचार्य उपकेशगच्छ में हुए है वे सब उस पार्श्वनाथमूर्ति की भाव पूजा अर्थात् उपासना करते आये हैं वह मूर्ति श्राज आचार्य कक्कसरि के पास है जिस समय आचार्य श्री मूर्ति की उपासना करने को विराजते थे उस समय देवी सच्चायिका भी दर्शन करने को आया करती थी। भाग्य विसात् उधर तो सोमाशाह सूरिजी के दर्शन करने को आता है और इधर भिक्षा का समय होने से साधु नगर में भिक्षार्थ जाते हैं देवी सच्चायिका एकान्त में सूरिजी के पास बैठी है और सूरिजी मूर्ति की उपासना कर रहा है सोमाशाह ने उपाश्रय साधुओं से शुन्य देखा तथा एक और रूप योवन लावण्य संयुक्त युवा स्त्री के पास "तत्पट्टे ककसरि द्वादश वर्षयावत् पष्टतपं आचाम्ब सहितं कृतवान् तस्यस्मरण स्तेतिण मरोटकोटे सोमक श्रेष्टिस्य शृंखला त्रुटिता तेन चिंतितं यस्य गुरोनाम स्मरणेन बन्धन रहितो जातः एकवारं तस्य पादौ वन्दामि। स भरूकच्छे आगतः अटण वेलायां सर्वे मुनीश्वरा अटनार्थ गतास्ति। सच्चाका गुरु अग्रेस्थितास्ते द्वारो दतोस्ति तेने विकल्पं कृतं । सच्चायिका शिक्षा दत्ता मुखे रूधरो वमति । मुनीश्वरा आगता वृद्धगणेशेन ज्ञातं भगवन् द्वारे सोमक श्रेष्टि पतितोस्ति आचार्य ज्ञातं अयं सचिका कृतं, सच्चिका आहुता । कथितं त्वया किं कृतं ? भगवान मया योग्यकृतं रे पापिष्ट यस्य गुरू नाम ग्रहणे वन्धनोनि शृंखलानि त्रुटितानि संति स अनाचारे रतो न भविष्यति परं एतेन आत्मकृत लब्धं । गुरूणा प्रक्तो कोपं त्यज शान्ति कुरु ? तया कथितं यदि असौ शान्ति भविष्यति तदा अस्माकं आगमन न भविष्यति प्रत्यक्षं । गुरुणाचिंतितं भवितव्यं भवत्येव स सज्जी कृतः सच्चायका वचनात् द्वयानाम भण्डारे कृतः श्री रत्नप्रभसरि अपर श्री यक्षदेवसूरि एते सप्रभावा एतदने हासि "उपकेगच्छ पट्टावली" सोमाशाह के गुरु अष्टक का प्रभाव ] Jain Education Internatio१७९ ८६५ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्राचार्य को एकान्तमें बेठे हुए देखे उसके परिणामोंने पलटा खाया वह दिल में सोचने लगा कि मेरी समझ में धाँ ति है क्या एकान्तमें युवास्त्री लेकर बैठने वालों का इतना प्रभाव हो सकता है कि लोहा की शांकले टूट जाय ? नहीं ! कदापि नहीं !! वह तो मेरे पुन्यका ही प्रभाव था कि शांकले टूट गई। जैसे ही सोमाशाह वापिस लौटने के लिये कदम उठाया वैसे ही वह भूमि पर गिर पड़ा और उनके मुंहसे रक्त धारा बहने लग गयी और शाह मुञ्छित भी हो गया। जब मुनि भिक्षा लेकर आये तो उपाश्रपके द्वार पर सोमाशाह बुरी हालत में पड़ा हुआ देखा मुनियों ने सब हाल सूरिजी से निवेदन किया इस पर सूरिजी ने सोचाकी यह देवी का ही कोप है अतः सूरिजी ने देवी से कहा देवीजी सोमाशाह गच्छ का परम भव्य श्रावक है इस पर इतना कोप क्यो है ? देवीने कहा प्रभो ! इसकी मतिमें भ्रॉति होगइ है जिसके ही फल मुक्त रहा है पूज्य वर ! इस दुष्टने आप जैसे महान् प्रभाविक आचार्य के लिये विना विचार दुष्ट भाव ले आया तो दूसरों के लिये तो कहनाही क्या है ? सूरिजी ने कहा देवीजी! आप इसका अपराध को माफ करो और इसको पुनः सावचेत करदो ? देवीने कहाँ पूज्य ! यह दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य सावचेत करने काविल नहीं है इस दुर्मति को तो इनसे भी अधिक सज्जा मिलनी चाहिये । सूरिजी ने सोभाशाह पर दया भाव लाकर देवीको पुनः साग्रह कहाँ देबीजी आप अपना क्रोध को शान्त करें और इस सोम को सावचेत करदो कारण उत्तम जनका यह कर्तव्य नहीं है कि दुष्ट की दुष्टता पर खयाल कर उसके साथ दुष्टता का वरताव करे यदि ऐसा किया जाय तो दुष्ट और सज्जन में अन्तर ही क्या रह जाता है अतः श्राप मेरे कहने से ही शान्त होकर इसको साबचेत कर दो इत्यादि देवीने क्रोध में अपने आप को भल कर कह दिया कि या तो आपकी सेवामें मैं ही प्रत्यक्ष रूप में आउगी, या सोमाशाह । यदि आप सोमाको सावचेत करावेंगें तो मैं अब प्रत्यक्ष रुपमें नहीं पाउगी अर्थात् "देवताऽवसरसीन, सूरीणां पुरतः स्थितम् । स्त्रीरूव सत्यकांदेवीं, वीक्षा साद्योन्य वर्तते । व्याचिन्तय चा हा कष्टं, यदेवं विधि सूरयः । अभूवन् वशगाः स्त्रीणं, धुर्याश्चरि त्रिणामपि । वंद्याः कथं भवन्त्ये ते विचिन्त्येतिन्य वर्तते । यावतावत् पपा तोव्यों, मुखेन रूधिरं वमन् ॥ वद्धो मयर बंधेन रार टीतिस्म कष्टतः अंतः स्थाः सूरयः श्रुत्वा, सद्यो पहि पुपा गताः विलोक्य तं तथा वस्व, हेतु जिज्ञा सागुरुः यासद् दोमरी तावत् सत्यकागुरु मब्रवीत् प्रभो दुरात्मा श्रादौरऽसा वेव चिन्तित वानतः । मयंदृशी दशांनी तो मारियष्यपि मां प्रतम् सकलोऽपि पौर लोके लब्धो इन्तोऽस्तियोऽमिलत् सोऽपिविज्ञा पयमास देवी भून्यरत्त मस्तकः।। प्रसीद देवी ! ते दासो भक्तोऽयं सदाऽविहि । कृताऽपराध मज्ञ त्वाद् विमुच भगवत्य मुम् । देवी पोचेन मुचामि पापिनं खभ्र गामिन परं करीमि किं पूज्य देशो वारमेत बलात् ।। इति सूरिगिरादेवी तुंमोच तमुपरसकम् सौऽपि नत्वागुरु पादौ, ज्ञमा माल साल सादरं । अतःमूरिसुरी मुचे सांप्रतं विषमपुगे । विपरी तं चिंतयतः किमतः शिक्षयिष्यसि ॥ ततः प्रत्यक्ष रूयेण नागंतव्य मतः परम कार्य मादेश दानेन प्रोक्तव्यं स्मृतय त्वया । देवता वसरे तुभ्यं धर्म लाभं मुदा वयम् दास्याम दूयती दानी व्यवस्थाऽस्तुसदाऽवयो । "उपकेश गच्छ चरित्र" ८६६ [ देवी का प्रकोप और सोमाशाह ____ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४० - ८८० दोनों में से एक ही आत्रेगा ? सूरिजी ने सोचा कि अब दिन दिन गिरताकाल श्रा रहा है लोग तुच्छ बुद्धि और छाटावाले होंगे। जब मेरे लिये एक श्रद्दा सम्पन्न श्रावक के विचार बदल गये तो भविष्य में न जाने क्या होगा अतः देवी को प्रत्यक्ष रूप में न आना ही अच्छा है वस सूरिजी ने कह दिया देवीजी आप प्रत्यक्ष रूप से आवे या न यावे पर सोमाशाह को तो सावचेत करना ही पड़ेगा । देवीने सूरिजी का देश को शिरोधार्य कर सोमा को सावचेत कर दिया । सोमाशाह ने आचार्य श्री के चरणों में शिर रख कर गदगद स्वर से अपने अपराध की माफी मांगी साथ में देवी सच्चायिका से भी अपने अज्ञानता के बस किया हुआ अपराध की क्षमा करने की बारबार प्रार्थना की। सूरिजी महाराज बड़े ही दयालु एवं उदारवृति वाले थे सोमा को हित शिक्षा देते हुए उसके अपराध कि माफि बक्सीस की तथा देवी को भी कहा देवीजी ये सोमा आपका साधर्मी भाई है अज्ञानता से श्रापका अपराध किया है पर ये अपराध पहिली वार है अतः इसको क्षमा करना चाहिये अतः सूरिजी के कहने से देवी शान्त होकर सोमाशाह को माफि दी । बाद सोमाशाह सूरिजी को बन्दन और देवी से श्रेष्टाचार कर अपने स्थान को गया और देवीने कहा पूज्यवर ! मैं हित भाग्यनी हूँ कि आवेश में आकर प्रतिज्ञा करली कि अब मैं प्रत्यक्ष में नहीं आउगी श्रतः मैं आपकी सेवा से वंचित रहूगी यह भी किसी भव के अन्तराय कर्म होगा । खैर प्रभो ! मैं आपकी तो सदा किंकरी ही हूँ प्रत्यक्ष में नहीं तो भी परोक्षपना में गच्छ का कार्य करती रहूँगा । सूरिजी ने कहा देवीजी यह लोक युक्ति ठीक है कि 'जो होता है वह अच्छा के लिये ही होता है' अब गिरता काल श्रावेगा दुर्बुद्धिये और छेगवेषी लोग अधिक होंगे। इस हालत में आपका प्रत्यक्षरूप में आना अच्छा भी नहीं है । आप परोक्षपने ही गच्छ का कार्य किया करो और मैं देवता के अवसर पर आपको धर्मलाभ देता रहूँगा । देवीने सूरिजी के बचनों को 'तथास्तु' कहकर सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! आपके दीर्घदृष्टि के विचार बहुत उत्तम हैं भविष्य काल ऐसा ही आवेगा कारण वह हुन्डा सर्पिणी काल है न होने वाली वाले होगा अतः मैं एक अर्ज और भी आपकी सेवा में कर देती हूँ कि अपने गच्छ में आचार्य रत्नप्रभसूरि और यक्ष देवसूरि आज पर्यन्त महाप्रभाविक हुए है अब ऐसे प्रभाविक आचार्य होने बहुत मुश्किल हैं अतः इन दोनों नामों को भंडार कर दिये जाय कि भविष्य में होने वाले आचार्यों के नाम रत्नप्रभसूरि एवं यक्षदेवसूरि नहीं रक्खा जाय और दूसरा इस गच्छ में उपकेशवंश में जन्मा हुआ योग्य मुनि को ही आचार्य बनाया जाय। देवी का कहना सूरिजी के भी जचगया और आपश्री ने कहाँ ठीक है देवीजी अपका कहना मैं स्वीकार करता हूँ और हमारे साधुओं तथा श्री संघ को सूचीन कर दूँगा कि अब भविष्य में होने वाले श्रावायों के नाम. रत्नप्रभसूरि एवं यक्षदेवसूरि नहीं रखेगा । और उपकेश वंश में age योग्य मुनि को आचार्य बनाने का पूर्वाचार्यों से ही चला आ रहा है अब और भी विशेष नियम बना दिया जायगा तत्पश्चत् सूरिजी को बन्दन कर देवी अपने स्थान को चली गई बाद आचार्य श्री ने विचार किया -- कि भगवान् महावीर का शांसन २१००० वर्ष तक चलेगा जिसमें अभी तो पूरा १००० वर्ष भी नहीं हुआ है जिसमें भी शासन की यह हालत हो रही है जैसे एक ओर तो महावीर के सन्तानियों में कई गच्छ अलग अलग हो कर संगठन बल को छिन्न भिन्न कर रहा है दूसरी तरफ पार्श्वनाथ सम्तानियों की भी अलग अलग शाखाएँ निकल रही हैं जो उपकेश और कोरंट गच्छ ही था जिसमें कुंकुंदाचार्य नया श्राचार्य बन गया । भजे वह विद्वान एवं समझदार है पर उनकी सन्तान में न जानने भविष्य में यह सम्प बना रहेगा या नहीं ! इधर देवी प्रत्यक्ष में आना भी बन्ध हो गया है इत्यादि दिन भर आपने शासन का रत्नप्रभसूरि यचदेवसूरि के दो नाम ] ८६७ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८४० - ४८० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इस हित चिन्तवन में ही व्यतीत किया । श्राखिर श्रापने सोचा कि "जंजं भगवया । दिठा तंतं पणमि संति" पर ही संतोष करना पड़ा दूसरा तो उपाय ही क्या था ? जिस समय कुंकुदाचार्य हुआ था उस समय श्राचार्य कक्कसूरि की आज्ञा में पांच हजार मुनि और पैंतीस सौ के करीबन साध्वियाँ थीं और वे मुनि कई शाखाओं में विभक्त थे जैसे १ - सुन्दर २ प्रभ ३ कनक ४ मेरू ५ चन्द्र ६ मूर्ति ७ सागर ८ हंस ९ तिलक १० कलस ११ रत्न १२ समुद्र १३ कल्लोल १४ रंग १५ शेखर १६ विशाल १७ भूषण १८ विनय १९ राज २० कुँवार २१ आनन्द २२ रूची २३ कुम्भ २४ कीर्ति २५ कुशल २६ विजयादि । शाखा का मतलब यह है कि मुनियों के नाम के अन्त में यह विशेषण लगाया जाता है जैसे कि- १ सोमसुन्दर १२ सुमति प्रभ ३ राज कनक ४ ज्ञानभेरू ५ कुशल चन्द्र ६ तपोमूर्ति ७ दर्शन सागर ८ दीपहंस ९ सागर तिलक १० कीर्तिकलस ८६८ १५ शान्तिशेखर १६ धर्मविशाल १७ ज्ञान भूषण ११ शोभाग्यरत्न १८ सुमतिविनय १२ श्रार्य समुद्र १३ चारित्र कल्लोल १४ विजय रंग १९ सदाराज 70 सुमतिकुंवार २१ लोकानन्द इत्यादि नाम के साथ विशेषण को शाखा कहते है इस प्रकार मुनियों की विशाल संख्या होने से ही से दूर दूर प्रान्त विहार कर जैन धर्म का प्रचार एवं जैन धर्मोपासको को धर्मोपदेश देकर धर्म बगीचा को हरावर एवं फला फूला रखते थे । जब से जैन श्रमणों का विहार क्षेत्र संकीर्ण हुआ तब से ही जैन संख्या घटने का श्रीगणेश होने लगा और उनका उग्ररूप आज हमारी दृष्टि के सामने विद्यमान हैं । श्राचार्य कसूरि के मुनियों का विहार पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक होता था इतना ही क्यों पर स्वयं आचार्य भी एक वार पृथ्वी प्रक्षिणा दिया ही करते थे इसका कारण उनके अंतरात्मा में जैन धर्म की लग्न थी । भरोंच में इस प्रकार की घटना घटने के बाद सूरिजी का विचार वहां से विहार करने का हुआ पर वहां का श्रीसंघ घर आई गंगा को कब जाने देने वाला था । उन्होंने चतुर्मास की विनति की पर सूरिजी का दिल वहां ठहरना नहीं चाहता था अतः वहां अन्य मुनियों को चतुर्मास का निर्णय कर आप विहार कर दिया और क्रमशः कांकरण प्रान्त में पधार कर सोपारपट्टन में आपने चतुर्मास किया आप के विराजने से वहां की जनता को बहुत लाभ हुआ पर आचार्य श्री के मनमंदिर में भविष्य के लिये कई प्रकार के विचार होरहा था । एक समय देवी सत्यका सूरिजी को वन्दन करने को आई परीक्ष पने रह कर वन्दन किया । सूरिजी धर्मलाभ देकर अपने दिल के विचार देवी को वहाँ इस पर देवी ने कहाँ प्रभो ! यह काल हुन्डासर्पिणी हैं इसमें कई बार उदय अस्त हुआ करेगा। फिर भी आप जैसे शासन के शुभचिंतक एवं शासन के स्तम्भ श्राचार्यों से शासन चलता ही रहेगा। अब श्रापका विहार दक्षिण एवं महाराष्ट्रीय की और हो तो विशेष लाभ का कारण होगा । इत्यादि वार्तालाप के अन्त देवी सूरिजी को वन्दन कर चली गई। सूरिजी ने सोचा कि ठीक है इधर तो बहुत मुनि वहार करते ही हैं कुंकुंदाचार्य भी इधर ही हैं बहुत अर्सा हुआ दक्षिण में अभी कोई श्राचार्य नहीं गये हैं वहां पर बहुत से साधु भी विहार करते हैं अतः देवी का कथानुसार मेरा विहार दक्षिण २२ विनयरूची २३ मंगलकुम्भ २४ धनकीर्ति २५ शान्तिकुशल २६ कषायविजय [ उपकेशगच्छ में २६ शाखाएं के सुनि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० ही में लाभ कारी है अतः चतुर्मास समाप्त होते ही आस पास के सब साधु एकत्र होगये ५०० मुनि तो आप अपने साथ में चलने वालों को रक्खलिये शेष साधुओं को कुंकुंदाचार्य के पास जाने की आज्ञा देदी और भी कुंकुंदाचार्य को समाचार बहलादिया कि सब साधुओं की सारसंभाल का भार आपके आधीन है इत्यादि । बाद सूरिजी ने दक्षिण की और विहार कर दिया। आपके विहार की पद्वति ऐसी थी कि एक गस्ता से जाते थे तब वापिस लौटते समय दूसरे ही मार्ग आते थे कि इधर उधर के सब क्षेत्रों की स्पर्शना एवं जनता को उपदेश का लाभ मिल जाताथा पट्टावली कर लिखते हैं कि आचार्य श्री ने तीन वर्ष तक उधर विहार किया जिससे जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया और वहां विहारकरने वाले मुनियों का उत्साह भी बढ़गया। तत्पश्चात् आपने आवंति प्रदेश में पधार कर उज्जैननगरी में चतुर्मास किया। वहाँ पर खटकुंपनगर का शाह राजसी और आपका पुत्रधवल आया और उसने प्रार्थना की कि प्रभो! आप मरुधर की ओर पधारे। सूरिजी ने कहाँ रानसी मरुधर में कुंकुंदाचार्य विहार करते हैं मेरी इच्छा पूर्व की यात्रा करने की है सब साधु भी पूर्व की यात्रा करने के इच्छुक हैं। राजसी ने कहां पूज्यवर । अापके इस लघु शिष्य ने मन्दिर बनाया है उसकी प्रतिष्ठा करवानी है हम लोगों ने कुंकुंदाचार्य से प्रार्थना की पर आपने फरमाया की मूर्तियों की अंजनसिलाका जैसा वृहद् कार्य तो हमारे गच्छ नायक सूरीश्वरजी ही करवा सकते हैं अतः हम आपश्री की सेवा में उपस्थित हुए है सूग्जिी ने धवल की और देखा तो धवल की भाग्य रेखा होनहार की सूचना देरही थी। राजसी चारदिन ठहरकर सूरिजी का अमृत एवं त्यागवैराग्य मय व्याख्यान सुना । पर सूरिजी के व्याख्यान का धवल पर तो इतना प्रभाब हुआ कि वह संसार से विरक्त होकर सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो! आप शीघही खटकप पधारे जिससे हमलोगों को आत्मकल्याण का समय मिले । सूरिजी ने कहा क्यों धवल ! हम लोग तुम्हारे वहां श्रावें तो सच्चही तु आत्मकल्याण सम्पादन करेगा ? धवल ने कहा पूज्य पाद ! आपके पधारने की ही देरी है पास में बैठा राजसी भी सुन रहा था पर उसने कुछ भी नहीं कहाँ। तथा सूरिजी ने राजसी एवं धवल को विश्वास दिलादिया कि क्षेत्र स्पर्शना हुइतो हम शीघ्रही मरूधर में आवेंगे। राजसी एवं धवल सूरिजी को वन्दन कर वापिस लौटगये । बाद सूरिजो को कुंकुन्दाचार्य की विनयशीलता के लिये अच्छा संतोष हुआ । खैर उज्जैन का चतुर्मास से सूरिजी को अनेक प्रकार से लाभ हुआ चतुर्मास समाप्त होते ही आपने वहां से विहार कर दिया और रास्ते के प्राम नगर में धर्मोपदेश देते हुए। मरुधर एवं षट्कूप नगर की ओर पधारे वहां का श्रीसघ एवं शाह राजसी एवं धबल ने सूरिजी का बड़ा भारी स्वगत किया। उधर से कुंकुन्दाचाय ने सुना की गच्छनायक श्राचार्य कक्कसूरिजी महाराज खटकूप पधार गये है अतः वे भी अपने शिष्यों के साथ सूरिजी को वन्दन करने को टकूप नगर पधारे । सूरिजी ने आपका योग्य सत्कार किया और आपके कार्य कुशलता की सराहना कर आपका उत्साह में खूब वृद्धि की दोनों प्राचार्यों का मिलाप एवं वात्सल्या जनता के दील को प्रफूल्लित कर रहा था। दोनों आचार्यों के अध्यक्षत्व में मुमुक्षु धवल को दीक्षा देकर उसका नाम राजहंस रक्ख दिया बाद इधर उधर भ्रमण कर पुनः खटकुंप पधार कर शाह राजसी के बनाये मन्दिर की एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठा धाम धूम से करवाई तत्पश्चात कई अर्सा से दोनों प्राचार्य अपने शिष्यों के साथ उपकेशपुर पधारे। वहां के श्रीसंघ को बड़ी खशी हुई उन्होंने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया भगवान् महावीर एवं आचाय रत्नप्रभसूरि की यात्रा की । सूरिजी का व्याख्यान हमेशाँ होता था। वहाँ पर भिन्नमाल का संघ दर्शनार्थ आया था और उन्होंने चतुर्मास की आचार्य श्री के कर कमलों से दीक्षाएं ] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विनति की पर उपकेशपुर का संघ घर आई गंगा को कब जाने देने वाला था अतः कुंकुन्दाचार्य को भिन्नमाल चतुर्मास की आज्ञा दी और आपने उपकेश पुर में चतुर्मास करने का निश्चय किया। बात कुछ नही थी पर भविनव्यता बलवंती होती है भिन्नमाल संघ के दिल में कुछ द्वितीय भाव पैदा होगये । अतः उन्होने सोचा कि कुंकुंदाचार्य कों भिन्नमाल संघ ने आचार्य बनाये थे वह बात कक्कसूरिजी के दिल में अभी नहीं निकली है कि अपने लिये कुंकंदाचार्य को आज्ञा मिली है। अतः वे इस विग्रह में ही चलकर अपने नगर को श्रये । बाद कुंकुंदाचाय भी विहार करने की आज्ञा मांगी तो ककसूरि ने कहा कि मेरा विहार पूर्वकी और करने का है अतः पिछे साधुओं की सारसंभार आपके जुम्मा करदी जाती है कारण मेरी दक्षिण की यात्रा के समय भी आपने पीछे की व्यवस्थ अच्छी रखी थी। कुंकुंदाचार्य ने कहाँ पूज्यवर । मैं इतना तो योग्य नहीं हूँ पर श्रापश्री का हूँकम शिरोधार्य कर मेरे से बनेगी मैं सेवा अवश्य करूँगा इस प्रकार वार्तालाप हुआ बाद सुरिजी की आज्ञा लेकर ककुंदाचार्य ने भिन्नमाल की और विहार कर दिया एवं वहाँ जाकर चतुर्मास भी करदिया । आचार्य कक्कसूरि का चतुर्मास उपकेशपुर में होंगया जिससे धर्म की खूब जागृति एवं प्रभावनाहुई । बाद चतुर्मास के अपने पांचसौ शिष्यों के साथ पूर्व की यात्रार्थ बिहार कर दिया। भिन्नमाल का संघ कुंकुंदाचार्य को श्राचार्य कक्कसूरी के विरूद में कई उल्ट पुल्ट बातें कही पर कंकुंदाचार्य ने उनकी बातों पर खयाल नहीं किया इतनाही क्यों पर उनकों यहाँ तक समझाया कि इस प्रकार मतभेद करने से भविष्य में हितनहीं पर अहित होगा। मैंने आचार्य पद्वी लेकर बड़ी भारी भुल की थी पर गच्छनायक आचार्य कक्कसूरि ने अपनी गंभीरता से उनको सुधारली अतः अब वह भूल यही खत्म करदेना चाहिये नकि इनको आगेबढ़ाई जाय । और यही बात कुंकुंदाचार्य ने कक्कसूरि को कही थी कि मैं मेरे पट्टपर कोइ भी आचार्य नहीं बनाऊंगा कि यह मतभेद यहीं समाप्त होजाय । आखिर कुंकुंदाचार्य विद्वान था कहा है किदुश्मन भी हो पर विद्वान हो । इत्यादि पर कुकुदाचार्य के कहने पर भिन्नमाल संघ को संतोष नही हुआ फिर भी उन्होंने अपना प्रयत्न को नहीं छोड़ा खैर चतुर्मास के बाद कुंकुंदाचार्य भिन्नमाल से विहार कर दिया और आस पास के प्रदेश में भ्रमन करने लगे । आपका प्रभाव जनता पर बहुत अच्छा पड़ा था। आपने कई भावुकों को दीक्षा भी दीथी। आपके पास कई २००० साधु साध्वि होगये थे । श्राप की अवस्था वृद्ध होगयी थी आप कई चौमास करने के बाद पुनः भिन्नमाल पधारे तो भिन्नमाल का श्रीसंघ फिर सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो। अब आपकी वृद्धावस्था है तो हमारे लिये आपके हाथों से किसी योग्य मुनिको प्राचार्य बना दिजिये । कुंकुंदाचार्य ने कहाँ कि मैं आपसे पहले ही कहचूका था कि मैं आचार्य कक्कसूरिजी को बचन देचूका हूँ कि मैं किसी को पट्टधर नहीं बनाऊंगा। अतः आप इस आग्रहको छोड़ दीजिये और एकही गच्छ नायक की आज्ञा का आराधन कीजिये । श्रीसंघ ने कहाँ पूज्यवर ! आपश्री के आग्रह से यहां का श्रीसंघ गच्छ की बदनामी उठाकर आपको प्राचार्य बनाया और आपही इस गादी को खाली रखनी चाहते हो यह तो ऐक विश्वासघात जैसी बात है खैर । आप नहीं बनावेंगे तो भी यहां का श्रीसंघ अपनी बातको कभी नहीं जाने देगा । किसी दूसरे को लाकर गादीधर तो अवश्य बनावेंगे । भीसंघ का कथन सुन सूरिजी को बहुत दुख हुआ पर वे कर क्या सकते थे आखिर भवितव्यता पर संतोष कर अपनी अन्तिम सलेखना में लग गये और अन्त समय २१ दिन का अनसन कर स्वर्ग पधार गये भिन्नमाल श्रीसंघने कुकुदाचार्य के कई मुनियों को अपने विचारों के शामिल वना कर उनके अन्दर [खटप नगर के राजसी के बनाया मन्दिर Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ८४०-८८० मुनि कल्याणसुन्दर को कुकुदाचार्य के पट्टपर आचार्य बनाकर उनका नाम देवगुप्तसूरि रक्खदिया जब जाकर उनकों संतोष हुआ । वहा रे कलिकाल तुमको भी नमस्कार है एक अपनी बात के लिये धर्म-शासन एवं गन्छ के हिताहित की कुछ भी परवाह नहीं की इतना ही क्यों पर स्वयं कुकुदाचार्य के कहने को भी ठुकरादिया इस शाखा के बीज तो कुकुदाचार्य ने ही बोये थे पर भिन्नमाल श्रीसंघ ने उसमें जॉनडालकर चिरस्थायी बनाने का दुःसाहस करके उपकेशगच्छ के दो टुकड़े करदिये जो परम्परा से चले आरहे थे वे उपकेशपुर की शाखा और कुकुदाचार्य के अनुयायियों की भिन्नमाल शाखा नाम पड़ गये आगे चलकर इन दोनों शाखाओं के प्राचार्यों के नाम कक्कसूरि देवगुप्त सूरि और सिद्धसूरि रखेजाने लगे। जिससे पट्टावली में इतना मिश्रण एवं गड़बड़ हो गई कि जिसका पता लगाना कठिन होगया। कारण पिछले लेखकों ने उपकेशपुर शाखा में भिन्नमाल शाखा के प्राचार्यों की कई घटना लिखदी और कई भिन्तमाल शाखाकी पटावली में उपकेशपुर शाखा के प्राचार्यों की घटना लिखदी है इतना ही क्यों पर आगे चलकर एक सिद्धसूरिजी से खटकूपनगर की और कक्कसूरिजी से चन्द्रावती शाखा निकाली उनके आचार्यों के भी वे ही तीननाम रखा गया कि जिससे मिश्रण की कठिनाइयों और भी बढ़गई जिसकों हम आगे चलकर बतायेंगे कि इस उलझनों को सुलमाने में अनेक प्रकार बारीकी से गवेषना करने पर भी पूर्ण सफलता मिलनी मुश्किल होगई है। प्राचार्य कक्कसूरिजी महागज पूर्व की यात्रा की जिसमें आपको पांच वर्ष व्यतीत होगया बाद वहां से बनारस हस्तनापुर वगैरह की यात्रा कर पंचाल कुनाल होते हुए सिन्ध में पधारे वहाँ आपको खबर मिली कि कुकुदाचार्य का स्वर्गवास होगया और भिन्नमाल संघ ने आपके पट्ट पर देवगुप्तसूरि नाम का आचार्य बना दिया है इत्यादि जिप्सको सुन कर आचार्यश्री को बहुत रंज हुआ ! पर आपकी पहिले से ही धारणा थी कि कुकुंदाचार्य भले विद्वान हो पर पीछे शायद कोई ऐसा निकल जाय इत्यादि । आखिर आपकी धारणा सत्य ही निकली । सूस्जिी ने भवितव्यता पर ही संतोष किया । आपश्री ने कन्छ भूमि की स्पर्शना करते हुए सौराष्ट्र में पधार कर तीर्थ श्रीशत्रुजय की यात्रा की और वहां से मरुधर में पदार्पण किया और चन्द्रावती के श्रीसंघ की आग्रह से चन्द्रावती में चतुर्मास कर दिया । चन्द्रावती का श्रीसंघ शुरू से ही उपकेशगच्छ का अनुरागी था सूरिजी वहां के श्रीसंघ से परामर्श किया कि उपकेशगच्छ की शाखा दो होगई यह तो एक होने की नहीं है पर भविष्य में जैसा उपकेशगच्छ और कोरंटगच्छ में सम्प ऐक्यता रही इसी माफिक इन दोनों शाखा के आपस में सम्प ऐक्यता रहे तो अच्छी तरह मेल मिलाप से शासन सेवा बन सके इत्यादि। संघ अप्रेश्वरों ने कहा पूज्यवर ! श्राप शासन के हितचिंतक हैं आपकी उदारता का पार नहीं है हम लोग अच्छी तरह से मानते हैं कि श्राप भिन्नमाल पधार के ऐक्यसा बनी रहने के लिये बड़ा प्रयत्न किया पर वह कमि की करता को पसन्द नहीं हुमा पाखिर उसने अपना प्रभाव डाल ही दिया। अब इसके लिए वो वल एक ही मार्ग है कि चतुर्मास के बाद वहां पर एक श्रमण सभा की जाय और श्रमण संघ एकत्र हो उसको भविष्य का हित समझाया जाय इत्यादि । सूरिजी ने स्वीकार कर लियः । सूरिजी का चतुर्मास अच्छी तरह से होगया विशेष उपदेश सम्प ऐक्यता सगठन के विषय का दिया जाता था इधर श्रीसंघ ने संघ संभा की तैयारियों करनी प्रारम्भ करदी । और सामन्त्रण पत्रिकाएँ नजदीक एवं दूर दूर भेजवा दी तथा मुनियों के लिये खास खास श्रावकों को भेजे गये थे वही माघ शुक्ल पूर्णिम का शुभ दिन सभा के लिये मुकर्रर कर दिया जिससे नजदीक एवं दूर दूर प्रान्तों से भी मुनियों के आने में सुविधा रहे। बहुत वर्ष हुए श्राचार्यश्री भ्रमण करने में चन्द्रावती का श्री संघ और श्रमण सभा ] ८७१ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ही रहे थे कारण आपश्री का विश्वास कुकुदाचार्य पर था और उन्होंने गच्छ की सार सभाल भी अच्छी तरह से की थी पर सब तो सब व्यवस्था आपको ही करनी पड़ेगी ठीक समय पर उपकेशगच्छ कोरंटगच्छ वीर सन्तानियों में चन्द्र नागेन्द्र निवृति विद्याधर कुन के तथा अन्य भी आसपास में विहार करने वाले मुनिगण खूब गहरी तादाद में आये क्योंकि उस समय मुनियों की संख्या भी हजारों की थी पर कुकुदाचार्य के पद धर अपने कई साधुओं को लेकर पूर्व की और यात्रार्थ प्रस्थान कर दिया था। शेष रहे हुए मुनि चन्द्रावती आ भी गये थे इसी प्रकार भिन्नमाल का संघ भी स्वल्प संख्या में ही आया था सूरिजी और चन्द्रावती का संघ समझ गया कि इसमें अधिक कारण भिन्नमाल संघ का ही है खैर। ठीक समय पर सभा हुई जिसमें अन्योन्या मुनियों के व्याख्यान के पश्चात् आचार्य का सूरि का व्याख्यान हुआ जिसमें आपने आचार्य स्वयंप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि के समय का इतिहास बड़े ही महत्व पूर्ण एवं मार्मिक शब्दों में कह कर यह बतलाया कि लन महापुरुषों ने हजारों कठनाइयों को सहन कर अनेक प्रदेशों में धर्म के बीज बोये और पिछले आचार्यों ने जलसिंचन किया जिससे महाजन संघ रूपी एक कल्पवृक्ष आज फला फूल एवं हरावर विद्यमान है इसमें मुख्यकारण प्रेमस्नेह ऐक्यता का ही है आचार्य रत्नप्रभसूरि के समय पार्श्वनाथ संतानियों की दो शाखाए हो गई थी जो उपकेशगच्छ और कोरंटगच्छ के माम से कहलाई जाती थी बाद में पूर्व प्रदेश में विहार करने वाले महावीर संतानियों का भी श्रावति लाट सौराष्ट एवं मरूधर में प्रधार ना हुआ पर इन सब गच्छों में धर्मस्नेह और ऐक्यता इस प्रकार की रही कि अन्य लोगों को यह बात नहीं हुआ कि ये दो पार्टि एवं दो गच्छ-समुदाय के साधु है। यही कारण है कि वे वाममार्गियों के अ तोड़ दिये शास्त्रार्थ में बोद्धों को एवं यज्ञादियो को नतमस्तक कर दिये और लाखों करोड़ो जैनेत्तरों को जैनधर्म में दीक्षित कर चारों और जैनधर्म का झंडा फहरा दिया । प्यारे आत्मबन्धु श्रमण श्रमणियों यह आपकी कसोटी का समय है कलिकाल आपकी कई प्रकार की परीक्षा करें के कई ऐसे कारण भी उपस्थित करेंगे जो आपस में फूट डालने के अग्रेश्वर होंगे । पर आपकी नसों में भगवान महावीर का खून है तो तुम एक की परवाह मत करो और कलिकाल के शिरपर लात मार कर बतला दो कि हम सब जैन एक है हमारा कर्तव्य है कि हम किसी प्रकार की कठनई की परवाह न करके प्राणप्रण से धर्मप्रचार में लग जावेंगे। इतना ही क्यों पर धर्म के लिये हम हमारे प्राणों की भी परवाह नहीं करेंगे । हमारे अन्दर गच्छ समुदाप शाखा भले नाममात्र से पृथक्पृथक हो पर हम सबका ध्येय एक है !लक्ष एक है !! कार्य एक है !!! हम भगवान वीर की सन्तान एक है इत्यादि अतः हम सब एक सुतर में प्रन्थित रहेंगे तब ही शासन की सेवा कर सकेंगे। प्यारे मुनि पुंगओं । पूर्व जमाना के अनेक जनसंहारक दुकाल और विधर्मियों के संगठित अक्रमण एवं विदेशियों के कठोर अत्याचार का इतिहास पढ़ने से रूवाटा कापने लग जाता है पर धन्न है उन शासन संरक्षकों को कि उस विकट समय में भी वे कटिवद्ध तैयार रहते थे इतना ही क्यों पर उन्होंने जैनधर्म को जीवित रखा है अतः आप के लिये तो समयानुकुल है सब साधन मौजूद है जहाँ देखो वहाँ आपका ही झंडा फहराह रहा है अतः आप लोगों को शीघ्रतिशीघ्र कमर कस कर तैयार हो जाना चाहिये मझे आशा ही नहीं पर दृढ़ विश्ववास है कि जैनधर्म का प्रचार के लिये आप एक कदम भी पीच्छे न हटकर उत्साह पूर्वक आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे। वस सूरिजी की औजस्वी बाणी का चतुर्विध श्रीसंघ और विशेष श्रमणसंघ पर इस कदर का प्रभाव पड़ा कि उनकी अन्तरात्मा में एक नयी विजली का ही संचार हो ८७२ सूरिजी का ऐक्यता के विषय उपदेश Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० गया कहा है कि वीरों की सन्तान वीर ही हुआ करती है सिंह भले थोड़ी देर के लिये गुफा में बैठ जाय पर जब हाथ लपटक कर गर्जना करता है तब सबके दिल की बिजली जगृत हो जाती है सैना का संचालक वीर होता है वह केवल अपने वीर शब्दों से ही सैनिकों के हृदय में वीरता का संचार कर देता है आज हमारे सूरीश्वरजी ने भी उपस्थित श्रमण गण के हृदय में धर्म प्रचार की विजली भर दी है यही कारण है कि उन लोगों ने उसी सभा में खड़े होकर अर्ज की कि पूज्यवर । श्राज आपश्री ने सोये हुए श्रमण संघ को ठीक जागृत कर दिया है आप विकट से विकट प्रदेश में जाने की आज्ञा फरमावे हम जाने को तैयार है। सूरिजी ने कहा महानुभावों विकट प्रदेश तो पूर्वाचार्यों ने रखा ही नहीं है फिर भी आपका उत्साह भावि अभ्युदय की बधाई दे रहा है आपके इन शब्दों से चन्द्रावती के संघ का यह भागीरथ कार्य सफल हो गया है । सूरिजी ने श्रमण संघ के साथ दो शब्द श्राद्द संघ के लिये भी कह दिया कि रथ चलता है वह दो पहियों से चलता है अतः श्रमण संघ के साथ आपको भी तैयार हो जाना चाहिये तन मन और धन से शासन सेवा ही करना आपका भी कर्त्तव्य है कहाँ पर भी मुनि अजैनों को जैन बनावे तो श्रापका भी कर्तव्य है कि उनके साथ सहानुभूति एवं सब प्रकार का व्यवहार और उनकी सहायता कर उनका उत्साह को बढ़ावे इत्यादि श्रादवर्ग ने सूरिजी का हुक्म शिरधार्य कर लिया बाद भगवान महावीर की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। दूसरे दिन इधर तो श्रीसंघ की और से आगन्तुकों का बहुमान स्वामिवात्सल्य पहरामणि का अयोजन हो रहा था इधर आये हुए श्रमणसंघ में योग्य मुनियों को पद प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न हो रहा था सुरिजी ने बिना किसी भेद भाव के योग्य मुनियों को पदवियो प्रधान कर उनको प्रत्येक प्रान्त में विहार की आज्ञा देदी जिसको उन्होंने बड़े ही हर्ष के साथ स्वीकार कर प्रस्थान कर दिया यों तो प्रत्येक आचार्य के शासन में धर्मप्रचार के निमित सभाएँ होती ही आई थी पर इस सभा का प्रभाव कुछ अजब ही था। इसका कारण एक तो आचार्य श्री कई वर्षों से भ्रमण में लगे हुए थे यह बात स्वभाविक है कि बिना नायक के सेना में शिथिलता आ ही जाती है दूसरा सभा करने से सब साधुओं को उपदेश मिला अतः वे अपने कर्त्तव्य को समझकर स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण एवं शासन की सेवा के कार्य में लग गये इत्यादि सभा होने से धर्म की बहुत जागृति हुई। ___आचार्य कक्कसूरि एक महान् धर्म प्रचारक आचार्य हुए हैं आपके शासन में कलिकाल ने अनेक प्रकार से आक्रमण किये पर आपकी विद्वता एवं कार्य कुशलता के सामने उनको हार खाकर नत्तमस्तक होना पड़ा। आपके सामने अनेकानेक कठिनाइयों उपस्थित हुई पर आपने उनकी थोड़ी भी परवाह न करते हुए अपने प्रचार कार्य को आगे बढ़ाते ही रहे हजारों नहीं पर लाखो अजैनों को जैन बनाकर तथा अनेक महानु भावों को जैन धर्म की दीक्षा दे कर चतुर्विध श्रीसंघ की वृद्धि की का मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाए करवा कर जैन धर्म को चिरस्थायी बनाया आपने तीर्थ यात्रार्थ देशाटन भी बहुत किया एवं आप श्री ने अपने ४० वर्ष के शासन में जैन धर्म की बहुत कीमती सेवा की अतः आपकी अमर कीर्ति और धवल यशः इतिहास के पृष्टों पर सुवर्ण अक्षरों से लिखा हुआ चमक रहा हैं । जैन संसार पर आपका महान् उपकार हुआ है जिसको हम एक क्षण मात्र भी भूल नहीं सकते है । यदि हम हमारी अज्ञानतासे ऐसे परमोपकारी महा पुरुष के उपकार को एक क्षण भर भी भूल जाय तो हमारे जैसा कृतनी संसार में कौन हो सकेगा । अतः चन्द्रावती नगरी में श्रमण सभा ] ८७३ Jain Education Internal Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४० - ४८० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जैन समाज का सबसे पहला कर्त्तव्य है कि ऐसे महान् उपकारी पुरुषों के उपकार को हमेशाँ स्मरण में रखे और सालोसाल उनकी जयन्तिया मनात्रे - वार्य श्री कसूरिजी महाराज अपनी वृद्धावस्था में उपकेशपुर के श्रेष्टिगोत्रीय शाह मंगला के संघपतित्व में प्रस्थान हुए श्रीशमुँजय के संघ में पधारे थे संघ श्रीशत्रुंजय पहुँचा उस समय रात्रि में देवी चायिका ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! कहते बहुत दुख होता है पर कहे बिना भी रहा नहीं जाता है कि आपका आयुष्य अब सिर्फ ३३ दिन का रहा है अतः आप अपने पट्टपर योग्य मुनि को आचार्य बनाकर यहीं पर सलेखना करावे इत्यादि । सूरिजी ने कहा देवीजी आपने बड़ी भावी कृपा की हैं कि मुझे सावधान कर दिया है मैं आपका बड़ा भारी उपकार मानता हूँ । देवीने कहा पूज्यवर ! इसमें उपकार की क्या बात है यहतो मेरा कर्तव्य ही था जिसमें भी आप जैसे विश्वोपकारी महात्मा की जितनी सेवा की जाय उतनी ही कम हैं आपका और आप के पूर्वजों का मेरेपर जो उपकार हुआ है उसकी और देखाजाय तो उस कर्ज का व्याज भी मेरे से अदा नहीं होता है इत्यादि सूरिजी का अन्तिम 'धर्मलाभ' प्राप्त कर देवीतो अपने स्थान पर चली गई और सुबह उपकेशपुर के संघ एवं उपस्थित सकल श्रीसंघ के अध्यक्षस्व में महा पुनीत सिद्धगिरि की शीतल छाया में उपाध्याय राजहंस को अपने पट्टपर आचार्य बनाकर अपना सर्वाधि कार श्राचार्य देवगुप्तसूरि के सुपर्द कर दिया । अधिकार का अर्थ इतना ही था कि जो आचार्य रत्नप्रभसूर के पास दीक्षा लेते समय पन्नामय पार्श्वमूर्ति थी और वह परम्परा पट्टानुक्रम श्राचार्य की उपासना के लिये रहती थी कक्कसूरि ने नूतनाचार्य देवगुप्तसूरि को देदी तत्पश्चात् समय जान कर कक्कसूरि ने अनशन कर दिया और २७ दिन के अन्त में पांच परमेष्टीके ध्यानपूर्वक समाधि के साथ स्वर्गवास पधारगये । देवी सचायिका से श्री संघकों ज्ञात हुआ कि आचार्य श्री दूसरे ईशान देवलोक में महर्द्धिक दो सागरोपम की स्थिति वाले देवता हुए हैं । श्राचार्यश्री के स्वर्गवास का समय पट्टावली कारने वि० सं० ४८० चैत्रशुक्त चौदस का लिखा है अतः चैत्रशुक्ल चौदस का दिन हमारे लिये उन परमोपकारी आचार्य के स्मृति का दिन हैं। पट्टावलियों एवं वंशावलियों में आपके ४० वर्ष के शासन के शुभ कार्यों की विस्तार से नोंध की है पर मैं मेरे उद्देश्यानुसार यहाँ पर संक्षिप्त ही नामावली लिखदेता हूँ। १ - उपकेशपुर - २- माडव्यपुर ३ - क्षत्रीपुरा ४ -- के के के माणकपुर के ५- बेनापुर ६- राजपुर ७--- धनाड़ी ८--चरपट ९ - पाल्हिका आचार्यश्री के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ श्रेष्टिगो शाह सूरिजी के पास बाप्प नागगौ मल्ल गौ० चरड़गौ ८७४ る २ के के भूरिगौ० सुघड़गौ० बोहरागौ० के लुंगगौत्र ० श्रदित्यनाग० $3 92 39 "" 33 93 39 59 देवाने जखड़ने जोगड़ाने भाखरने कल्हणने सारणने सहजपाल ने हरपालने देपालने 19 " 19 93 93 22 " "3 दीक्षाल 19 " " "" "" 22 "" "" [ आचार्य श्री के शासन में भावुकों की दीक्षा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककरि का जीवन [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० दीक्षा ली काजामाला राणाने सूरिजी के पास जाखड़ने पेथाने पाताने जोधाने शंकरने रूपणसीने रावलने भाखरने भैराने पाताने कुबेराने सारंगने १०-नारदपुरी के सुचंतिगी० ११-बधोसी के श्री श्रीमाल १२- कालोडी के प्राग्वटवंशी १३-मादरी के प्राग्वटवंशी ४-कोरंटपुर के श्रीमालवंशी , १५ -सिद्धपुर के ब्राह्मण १६ - टेलीग्राम के लघुश्रेष्टि १७ --शिवपुरी के करणाटगौ० १८-भरोंच नगर के कुंमटगो) । १९-सोपार पट्टन के कनौजिया० , २०-हाकोड़ी के भाद्रगौ० २१-हषपुर के श्रेष्टिगौ० , २२-उज्जैन श्रेष्टिगौ० २३-माडव्यपुर के चिंचटगौ० २४-खटकूप नगर के पुष्करणागौ० , २५-मुग्धपुरे के कुलभद्रगोल , २६-मेलसरा के विरहटगौ० , २७-आशिका दुर्ग के भाद्रगौ० शाह २८-नागपुर के चिंचटगौः ।, २९-हंसावली के डिडूगोत्र , ३०-शाकम्भरी के बाप्पनाग० , ३१-पद्मावती के श्रेष्टिगौर । ३२-रोहती के चोरलिया। ३३-पुष्कर ३४-मथुरा के प्राग्वटगो , ३५-गरगेटी सलखणने सरवणने पृथुलेनने डायरने नागसेनने सुरजणने हाप्पाने हरगजने पोलाकने मुकन्दने जोराने कुम्माने खेतसी ने ___ यहां केवल एक एक नाम देखके पाठक यह नहीं समझ ले कि उपरलिखी नामावली वाले एक एक व्यक्ति ने ही दीक्षा ली थी पर इनके साथ बहुत से भावुकों ने दीक्षाली थी पर यहाँ वंशावलियों के लेखा नुसार मुख्य पुरुष का ही नाम लिखा है यदि सूरिजी और आपके मुनियों के हाथों से सेकड़ों नरनारियां की दीक्षा हुई उन सब नाम लिखा जाय तो एक खासा प्रन्थ उन नामावलियों से ही भर जाय अतः यहा पर तो प्रायः उपकेशवंशियों के ही नाम उल्लेख किये है अतः इस नमूने से पाठक स्वयं समझ लेंगे। आचार्यजी के शासन में भावु कों की दीक्षा ] ८७५ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४४०-४८० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्राचार्यश्री के शासन में तीर्थों के संघ १-शाकम्भरी से भूरिंगौत्री शाह नागड़ने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला २-पद्मावती से बापनागगौ० , दुर्गाने , दुगोंने .. " " " " ३-रत्नावती से भाद्रगौ० ,, रूगाने , " " " ४-कीराटंकुप से अदित्यनाग० , मालाने , ५-मथुरा से श्रेष्टिगोत्राय पोलाकने , ६-डामरेल से श्रेष्टिगोत्रीय यशोदित्यने ,, ७-वीरपुर से भाद्रगोत्रीय नारायणने ,, ८-सोवटी से तप्तभट्टगी। , लुम्बाने , ९-भरोचनगरसे करणागोट० , हेमाने , १०-स्तम्भनपुर से प्राग्वट वंशी , चताराने , ११-चन्द्रावती से प्राग्वट वंशी गमनाने , १२-दशपुर से बापनागगी० गोमाने " " " १३-मालपुरा से लघुश्रेष्टिगौ० , वरधाने " " " " १४-श्राघाटनगर से लुंगगौर , उमाने , " " १५-उपकेशपुर से श्रेष्टिगो० ,, मंगलाने , , , इनके अलावा भी कई छोटे बड़े तीर्थों के संघ निकले थे और भावुक भक्तलोगों ने संघस्वागत एवं पहरामणी देने में खुल्लेदील से लाखों रूपये खर्चकर अपनी आत्मा का कल्याण सम्पादन किया था-- प्राचार्यश्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएँ १-मुग्धपुर के मल्लगौत्री शाह चेनके बनाये महावीर मं० ६-नारायणपुर के श्रेष्टिगौ० शाह फूवाके ३-फपीलपुर के श्रेष्टिगौ० , , पाव ४-हातरवा के भूरिगौ० , ५-दुर्गपुर के चोरलिया. करणके शान्ति ६-विराटपुर के बापनाग० क्षेमाके आदीश्वर ७-कंदोलिया के सुचंतिगी० खूमाके सीमंधर ८- दान्तीपुर के श्रीश्रीमाल० , धीगाके श्रष्टापदक ९-रोवाट के लघुश्रेष्टि देवाके महावीर १०-दसपुर के बलाहगौ० " धवल के ११-नंदरोल के कुमटगो. पोमाके १२-कोपसी के चिंचटगौ० , मालाके " [आचार्य श्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाए चूड़ाके लुम्बाके " " ८७६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८४०-८८० .... " महावीर १३-श्रीनगर के चरडगौ० , नाराके बनाये महावीर मं. १४-दुर्गापुर के भाद्रगौ , गोल्हाके १५-- हाँसीपुर के लगगौ० , सुखाके १६--कुंन्तिनगरी के करणाटगौ० , बागाके नेमिनाथ १७-सौपारपटन के कुलहटगौ० , भैरूके शान्तिनाथ १८-चन्द्रावती के विरहटगी० , विजाके संभवनाथ १९-धोलपुर के मोरक्षगौ० ,, नवलाके शीतलनाथ २०-भादलिर के बलाहगौ० , पोकरके २१-घघनेर के प्रागवटवंशी , नोंधणके २२-बालापुर के प्राग्वट , , ताल्हाके पद्मनाभादि २३-चम्पार के प्राग्वट , करमणके , सीमंधर २४-चंदेरी के श्रीश्रीमाल , मदाके , महावीर इनके अलावा भी आपके श्राज्ञावर्ती मुनियों ने भी बहुत मन्दिरों की प्रतिष्टाए करवाई थी उस समय जनता की मन्दिर मूर्तियों पर अटल श्रद्धा एवं अलोकिक भक्ति थी। पट्ट तेतीसवे कक्कसरि आदित्य नाग प्रभो बढ़ाई थी कुकुंद आचार्य बनके गच्छ में शाखा दोय बनाई थी ___अर्बुदाचल जाते श्रीसंघ के जीवन आप बचाये थे सोमाशाह के बंधन टूटे, सहायक आप कहलाये थे इति भगवान् पार्श्वनाथ के ३३ वें पट्टधर आचार्य कक्कसूरि महान् प्रतिभाशाली प्राचार्य हुए दर _आचार्य श्री के शासन में म० मू० प्रतिष्टाए ] ८७७ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० ४८०-५२० वर्षे [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३४-प्राचार्य भी देवगुप्तसूरि (पष्टस) आचार्यस्तु स देवगुप्त पदयुग् वीरो विशिष्टो गुणैः । गौत्रे स्वे करणाटनामकयुते ज्ञानप्रदानेन यः॥ देवर्द्धिं च मुनि कामाश्रमण नाम्ना भूषया मास च । संख्यातीत मुनीन् विधाय कुशलान् जातो यशस्वी स्वतः ॥ httpse. da batatase 2 चार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वर-परम वैरागी, महान् विद्वान, उत्कृष्ट तपस्वी, अतिशय. प्रभावशाली उपबिहारी धर्मप्रचारी सुविहितशिरीमणि मिथ्यात्वरूपी अन्धकार कों नाश करने में सूर्य की भांति प्रकाश करने वाले देवताओं से परिपूजित पूर्वधर एक युगप्रवृतक महान् आचार्य हुए है आपश्री जैसे साहित्य समुद्र के पारगामी थे वैसे ही ज्ञानदान देने में कुवेर की भांति उदार भी थे आपके पुनीत जीवन के श्रवण मात्र से पापियों के पाप क्षय हो जाते है । यों तो आपका जीवन महान् एवं अलौकिक है जिसका सम्पूर्ण वर्णन तो वृहस्तपति भी करने में असमर्थ है तथापि भव्य जीवों के कल्याणार्थ पट्टारल्यादि ग्रन्थों के आधार पर संक्षिप्त से यहां पर लिख दिया जाता हैं। मरूधरदेश में खटकुप नाम का प्रसिद्ध नगर था वह नगर ऊँचे २ शिखर और सुवर्णमय दंडकलस वाले मन्दिरों से अच्छा शोभायमान था वहाँ पर महाजन संघ एवं उपकेशवंश के बहुत से धनवान एवं व्यापारी साहुकारों की घनी वसति थी जहां व्यापार की बहुलता होती है वहां सब लोग सुखी रहते है कारण मनुष्यों की उन्नति मापार पर ही निर्भर है खट्कुट नगर के व्यापार सम्बन्ध भारत और भारत के बाहर पाश्चात्य प्रदेशों के साथ भी था जिसमें वे पुष्कलद्रव्य पैदा करते थे जैसे वे द्रव्योंपार्जन करने में कुशल थे वैसे ही उस न्ययोपार्जित द्रव्य का सदुपयोग करने में भी दक्ष थे और उन पुन्य कार्यों से पसंद होकर लक्ष्मीदेवी भी उनके घरो में स्थिर वास कर रहती थी। प्राचार्यरत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन संघ के अष्टा. दश गोत्रों में करणाट नाम का उन्नत गोत्र था उस में राजसी नाम का एक सेठ था आपके गृहदेवी का नाम रूकमणी था शाह राजसी के तेरहपुत्र और चार पुत्रियां थी जिसमें एक धवल नामका पुत्र अच्छा होनहार उदार एवं तेजस्वी, था वच्चपन से ही उसकी धवल कीर्ति चारो ओर पसरी हुई थी शाह राजसी के यों तों बहत व्यापार था परन्तु देश में आप के घृत और तेल का पुष्कल व्यापार था राजसी के एक हजार गायों ॐसे वगैरह तो हमेशा रहती थी और उसके वहां खेती भी खूब गेहरे प्रमाण में होती थी । उस जमाने में जितना महत्व व्यापार का था उतना ही खेती का भी था और गौ धन पालन करने का महत्व भी व्यापार से कम नहीं था इतना ही क्यों पर शास्त्रकारों ने तो व्यापार खेती और गौधनका पालन करना खास वैश्य का कर्तव्य ही बतलाया हैं क्योंकि खेती वैश्यवर्ण की उन्नति का मुख्य कारण है जबसे वैश्यवर्ण का खेती की और दुर्लक्ष हुआ तव से ही वैश्यवणे का पतन होने लगा था खेती करने वाला हजारों गायों का सुख पर्वक निर्वाह कर सकता है और गायों को पालन करने से दूध दही घृत छास वगैरह प्रचूरना से मिलती है -auwomanramm-... ८७८ [खटकूम्प नगर का शाह राजसी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्त का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८८० - ९२० जिससे शरीर का स्वास्थ्य अच्छा रहता है दूसरा खेती से गृहस्थों के आवश्यकता की तमाम वस्तुओं सहज ही में पैदा हो सकती हैं जैसे गेहूँ बाजरी ज्वार मुग मोट चौला चना तुवर गवार तिल सब तरह के शाक पात और कपास गुड़ वह अतः खेती करने वाले को गृहकार्य के लिये प्रायः एक पैसा काटने की जरूरत नही रहती है इतना ही क्यों पर दरजी सुथार नाई तेली धोबी ढोली वगैरह जितने काम करने वाले हैं उनकों साल भर में धान के दिनों में धान देदिया जाता था कि साल भर में तमाम काम कर दिया करते थे । यह तो हुई गौरक्षण और खेती की वात अब रहा व्यापार जब व्यापार में जितना द्रव्य पैदा किया जाता था वह सबका सब जमा होता था कि जिसकों समझ दार त्रास्तिक लोग देश समाज एवं धर्म जैसे परमार्थ के कार्यों में लगा कर भविष्य के लिये कल्याण कारी पुन्योपार्जन करते थे । अतः उनका जीवन बड़ा ही शान्ति मय गुजरता था । यही हाल राजसी का था शाह राजसी जैसे खेती और गौ रक्षण करता करवाता था वैसे व्यापार भी बड़े प्रमाण में करता था उसके व्यापार में मुख्य घृत तैल का व्यापार था और लाखों मरण घृततैल खरीद कर के विदेशो में ले जाकर वेचता था इसका कारण यह था कि भारत में इतना गौधन था कि भारत की जनता पुष्कल दूध दही घृत काम लेने पर भी लाखों मन घृत बच जाता था इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उस जमाना में भारत में गौवन का रक्षण बहुत संख्या में होता था श्री उपासक दशांगसूत्र में भगवान महावीर के दश गाथापति ( वैश्य ) श्रावकों का वर्णन किया है जिसमें किसी के एक गौकुल, किसी के चार, किसी के छ, किसी के आठ गोकुल थे एक गोकुल में दश हजार गाये थी भले पिच्छले जमाना में काल दुकाल के कारण जैसे मनुष्यों की संख्या कम हुई वैले गायों की संख्या भी कम हो गई होगी परन्तु वे कितनी कम हो सके १ मानों कि दश हजार गायों रखने वाला एक हजार तो रखता होगा या एक हजार नही तो भी एक सौ तो रखता ही होगी ? x + एक अनुभवी का कहना है कि अधुनिक अर्थ शास्त्र के अभिज्ञ लोगो ने खेती में पाप बतला कर वैश्यवर्गको खेती करने के त्याग करवा दिये है । और भद्रिक जनता पाप के डर से खेती से हाथ भी धो बैठी है । इससे पाप कम नहीं हुआ पर कई गुणा बढ़ गया हैं एक तो शरीर से परिश्रम किया जाता था जिससे शरीर का स्वास्थ्य अच्छा रहता था पर परिश्रम कम होने से शरीर अनेक प्रकार की व्यथियों का घर बन चुका है। इससे सन्तान भी कम हो गई। दूसरा गृह कार्य के लिये तमाम आवश्यक पदार्थं खेती से प्राप्त होता था वह बन्द हो जाने से पैसा काट कर मूल्य से खरीद करना पड़ता है इससे व्यापार से प्राप्त हुए पैसे जमा नहीं होते हैं बल्कि कभी कभी खर्च की पूर्ति न होने से आर्तव्यान करना पड़ता है और उस पूर्ति के लिये व्यापार में झूठ बोलना, माया कपटाई करना, धोखाबाजी, और विश्वासघातादि अनेक प्रकार से पाप एवं अधर्म कार्य करना पड़ता है जिससे पापकर्मों का संचय तो होता ही है पर साथ में संसार एवं धर्मं पक्ष की निंदा भी होती है जब मनुष्य झूठ बोलता है तो आामिक धर्म को खो बैठता है । समदार मनुष्य तो यहाँ तक कहते हैं कि एक ओर खेती का पाप और दूसरी और झूठ बोलने का पाप तराजु में रख कर तोले तो झूठ बोलने के सामने खेती का पाप कुछ गिनती में नहीं है कारण खेती करने वाला इरादा पूर्वक पाप नहीं करता है पर झूठ बोलने वाला इरादा पूर्वक झूट बोलता है इससे झूट बोलने वाला का पाप कई गुणा बढ़ जाता हैं तीस एक नुकशान और भी हुआ है कि जो खेती गौरक्षण और व्यागर एकही स्थान पर थे तब इन तीनों को आपस में मदद मिलती थी जैसे खेती करने से गौचर भूमि रह जाती तथा खेती में घास कौरह हो जाता कि गायों को तकलीफ नहीं होती थी तब गाय का दूध दही घृत हास मनुष्यों को मिल जाता उनको भी किसी प्रकार की तककफ नहीं उठानी पड़ती और व्यापार में द्रव्योपार्जन होता था उससे खेती के सत्र साधनों की प्रचूरता रहती थी और शरीर अच्छा रहने से वे खेती एवं व्यापार में चाहिये उतना परिश्रम तथा पुरुषार्थ कर सकते थे खेतों कों पुष्फल खात मिल जाता शाह राजसी का व्यापार और गौधन पालन ] ८७९ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४८०-५२० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास खैर प्रत्येक मनुष्य एक गाय को रखते तो भी करोडों मनुष्य द्वारा करोड़ों गाया का रक्षण अवश्य होता था भारत में घृत ख.ने पीने के बाद भी करोड़ो मन घृत की बचत होती थी तब विदेशों के लोग भारत का घृत आने से ही घृत के दर्शन करते थे। शाह राजसी छोटे बड़े ग्रामों के लोग घृत लाते थे उसको भी खीद कर लिया करता था एक सय का जिक्र है कि एक गामड़े को औरत घृत का घड़ा लेकर राजसो की दुकान पर आई और उसने कहा सेठजी मैं आवश्यक कार्य के लिये शार में जाती हूँ। आप मेरे घृत के घड़े से घृत तलकर ले लिर वे मैं वापिस आती वख्त मेरा घड़ा और घृत के रुपये ले जाउंगी। यह जमाना विश्वास का, न्य य का, नीति का, और धर्म का था प्रायः किसी पर किसी का अवि नीं था जिसमें भी व्यापारी लोगों का तो सर्वत्र विश्वास था । बस सेठजी घृत के घड़े से घृत निकाल कर तोलने लगे किन्तु घृत निकालने पर भी घड़ा खाली नहीं हुआ ज्यों-ज्यों घृत निकाल कर तोलता गया त्यों-त्यों घड़े में घृत आता गया इसको देख सेठजी आश्चर्य में डूब गये कि क्या बात है करीब आध मण के घड़े से मैंने मग भर घृत तोल लिया फिर भी घड़ा रोता नही हुआ पर भरा ही पड़ा है इस पर सेठजी ने : पनी अकल दौड़ाई पर उनको कुछ भी पता नहीं लगा पास ही में सेठजी का पुत्र धवल बैठा था उसने विचार किया तो मालूम हुआ कि इस घड़े के नीचे आरी है शायद यह चित्रावली तो न हो ? मैंने चित्रावली देखी तो नहीं है पर व्यारयान में कई बार सुनी थी कि जिस बरतन के नीचे चित्रावली रख दी जाय वह वस्तु अखूट हो जाती है धवल ने अपने पित जी से कहा और पिताजी की सुरत उस आरी की ओर पहुँची। राजसी ने सोचा कि घृत वाली तो इस आरी को इधर उधर डाल देंगीतः उसको मूल्य दे दिया जायगा अतः राजसी ने उस चित्रावली वाली आरी को उठाकर अपने खजाना के नीचे रखदी जा घृतवाली औरत राजसी की दुकान पर आई और कहा सेठजी घृत के रुपये दो । राजसी ने कहा माता हमेशा तेरे घृत घड़े के जितने रुपये होते हैं उतने मेरे से ले जाओ। कारण मैं तेरे सब घृत को तोल नही सका?इस पर डोकरी ने जितने रुपये मांगे उतने राजसी ने दे दिये । जब घड़ा हाथ में लिया तो उसके नीचे की आरी नहीं पाई डोकरी ने कहा सेठजी मेरे घड़े की भरी कहाँ गई ? सेठजी ने कहा भारी तो मैंने ले लं है । डोरी तेरे तो ऐसी आरियाँ बहुत होंगी यदि तूं कहे ती मैं तुझको पैसे दे दू जो तेरी इच्छा हो उतने ही माँग ले। डोरी ने एक मामूली जंगल की ल्ली तोड़कर आरी बनाइ थी अतः उसने कहा लीजिये इसके आपसे क्या पैर सेठजी ने कहा नहीं डोरी मैं तेरी भारी मुफ्त नहीं रख सकता हूँ जो तू मह से माँगे वही मैं देने को तैयार हैं। डोकरी ने कहा अच्छा आपकी यही इच्छा है तो थोड़ासा गुड़ मुझे दे दीजिये । सेठजी ने उठा कर पाँच सेर गुड़ दे दिया। परन्तु डोकरी इतना गुड कैसे ले सके कारण वह जानती थी कि मेरी भारी कुछ मूल्यवान नहीं है फिर मैं सेठजी का इतना गुड़ कैसे लूँ अतः उसमे इन्कार कर दिया । सेठजो ने कहा माता तेरो आरी मेरे लिये बहुत काम की है मैं खुशी से देता हूँ तूं गुड़ लेजा। था कि एक मन बीज का सौमण माल पैदा कर सकते थे जैसे आज यूरोप में करते हैं जब खेती गौरक्षण और व्यापार अलग अलग हो गये तो सबकी दुर्दशा हो गई कारण खेती करने वाला खेती शिक्षा से अनभिज्ञ-अनपढ़ है और न उनको इतने साधन ही मिलते है अतः वे ऋण चुकाने के बाद अपना पेट भी मुश्किल से भरते हैं और गायों की भी बडी भारी दुर्दशा होती है क्योंकि मूल्य का लाया हुआ चारा-घास डालने वाला उन खर्चों की पूर्ति करने के पहिले न तो दूध दही घृत अपने काम में ले सकता है और न उनको पुरी खुराक ही दे सकता है यही कारण है कि यूरोप में एक गाय का एक मन न होता है तब हमारे यहाँ दो सेर दूर होता है पूर्व जमाने में एक एक गाथापति के वहाँ हजारों गायों रहती थी तब आज हमारे भारत में गिनती को गायें रह गई है तीसरा व्यापार का भी अधो पतन हो गया अब्वल तो हमारे अन्दर पुरुपार्थ नहीं रहा कि हम स्वयं व्यापार कर सके । दूसरे हमारे पास व्यापार करने जितना न्यभी नहीं रहा अतः सट्टा दलाली मीशन ही हमारा व्यापार रह गया अर्थात ६श गांठ दूसरों से लाये और दश गांठ बेच दी। सौ बोरी लाये और सौबोरी देगी। यही हमारा व्यापार रहा है भला । इसमें क्या मुनाफा मिल सके कि जिससे अपने खर्चा की पूर्ति हो सके । जब घर खचर्चा का भी यह हाल है तो देश समाज एवं धर्म कार्यों के लिये तो हम कर ही क्या सकते हैं ? ८८० [ वैश्य वर्णन का कर्त्तव्य खेती वाणज्य गौधन पालन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्त सूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ८८०-९२० डोकरी बहुत खुश होकर गुड़ ले गई । बस सेठजी के भाग्य खुल गये इसमें मुख्य कारण सेठजी का पुत्र धवल ही था अतः राजसी नेअपने पुत्र धवल को ब्रह्मचारी भाग्यशाली समझा और कहा बेटा तेरे पुन्य से या चित्रावली अपने घरमें आई है। इसका कुछ सदुपयोग किया जाय तो अच्छा है व ना जैसे जंगल में पड़ी थी वैसे ही अपने घर में पड़ी रहेगी। धवलने कहा पूज्य पिताजी आप ही पुन वान हैं और आपके पुन्य प्रताप से ही चित्रावली आई और आपका कहना भी अच्छा है कि इसका सदुपयोग करना ही कल्याणकारी है मेरा ख्याल से तो जिन मन्दिर बनाना तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकालना महाप्रभाविक भगवत्यादि सूत्र का महोत्सव कर संघ को सुनाना साधर्मीभाइयों को सहायता देना और गरीब जीवों का उद्धार करना इसमें लक्ष्मी व्यय की जाय तो चित्राबल्ली का सदुपयोग हो सकता है। राजसी ने धवल के वचन सुनकर पूछा कि बेटा ! तुझे यह किसने सिखाया ? बेटे ने कहा कि गुरु महारान हमेशां व्याख्यान में फरमाते हैं कि श्रावक के करने योग्य ये कार्य हैं। ताजी अब इन कार्यों में बिलम्ब नहीं करना चाहिये। क्योंकि प्रत्येक वस्तु की स्थिति होती है वह अपनी स्थिति से अधिक ए. क्षण भर भी नहीं ठहरती है दूसरा मनुष्य का आयुष्पकी अनिश्चित होता है इसलिये साधन के होते हुए कार्य शीघ्र ही कर लेना चाहिये । राजसी ने कहा ठीक है बेटा। पर इस बात को अभी किसी को भी नहीं कहना। बेटा ने कहा ठीक है पिताजी। __ माग्य वशात् इधर से धर्मप्राग लब्ध प्रतिष्ठित कुन्कुन्दाचार्य महाराज उपकेशपुर से विहार करते हुए खटकुम्प नगर की ओर पधार रहे थे जिसके शभ समाचार सुनते ही नगर भर में आनन्द, मंगल और सर्वत्र हर्ष छा गया जिसमें भी शाहराजसी के तो हर्ष का पार नही था क्योंकि उनको इस समय आचार्य देवकी पूर्ण जरूरत थी शाह राजसी ने अपने शुभ कार्य के मंगलाचरण में सूरिजी महाराज के नगर प्रयेश का महोत्सव किया जिसमें नौलाख रुपये व्यय कर दिये कारण साधर्मी भाईयों को सोना मुहरों एवं वस्त्रों की प्रभावना और याचकों को पुष्कल दान दिया। सूरिजी महाराज ने थोड़ी बहुत हृदय ग्राही देशनादी तत्पश्चात परिषदा विसर्जन हुई । एक समय शाहराजसी अपने पुत्र धवल को साथ लेकर सुरिजी के पास आया वन्दन कर अर्ज कि भगवान् धवल का इरादा है कि एक मन्दिर बनवाउ और तीर्थों की यात्रार्थ एक संघ निकालू अतः इसके लिये खास आपकी सम्मति लेनी है कि आप हमको अच्छा रास्ता बतलावे सूरिजी ने कहा राजसी पहिले तो यह निर्णय हो जाना चाहिये कि तुमको इस शुभ कार्य में कितना द्रव्य व्यय करना है क्योंकि हिना द्रव्य व्यय करना हो उतना ही कार्य उठाया जाय । राजसी ने कहा प्रभो ! आप गुरुदेवों की कृपा से सब आनन्द है कार्य अच्छा से अच्छा किया जाय उसमें जितने द्रव्य की आवश्यकता होगी उतना ही द्रव्य मैं लगा सदूंगा। बस फिर तो था ही क्या । सूरिजी ने कहा राजसो तूं और तेरा पुत्र धवल बड़ा ही भाग्यशाली है संसार में जन्म लेकर मरजाने वाले तो बहुत हैं पर अपने कल्याग के साथ शासन का उद्योत करने वाले विरले मनुष्य होते हैं। मन्दिर बनाना एक जैनधर्म को स्थिर करना है जन संहार दुकाल और बड़ी बड़ी आफतों के समय जैनधर्म जीवित रह सका है इसमें मुख्य कारण मन्दिरों का ही हैं संघ निकाल का संघ को तीर्थों की यात्रा करवाना यह भी एक पुण्यानुबन्धी पुन्य का कारण है इसमें उत्कृष्ट भावना आने से तीर्थकर नार कर्म भी उपार्जन कर सकता है तुमने इन दोनों पुनीत कार्यों का निश्चय किया है अतः तुम बड़े ही पुन्यरान हो। राजसी ने कहा पूज्यवर ! यह आप जैसे गुरुदेवों के उपदेश का ही फल है आद्याचार्य रुप्रभसूरि ने हमारे पूर्वजों को मिथ्याव से बचाकर जैनधर्म में दीक्षित कर महान उपकार किया है कि उनकी सन्तान परम्परा में आज हम इस स्थिति को प्राप्त हुए हैं । कृपा कर आप अच्छा दिन देखकर फरमायें कि किस तीर्थङ्कर का मंदिर बनाया जाय? और आपश्री यहां पर चतुर्मास करावें कि संघ निकालने का कार्य भी शीघ्र ही बन जाय ? सूरिजी ने कहा चतुर्मास की तो क्षेत्र स्पर्शना है पर वैशाख शुक्ला तृतीया का शुभ दिन अच्छा है । शाह राजसी ने शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलाया और बढ़िया से बढ़ियो मन्दिर का नकशा बनवा कर सूरिजी की सेवा में हाजिर किया जिसके पास हो जाने से मन्दिर कार्य प्रारम्भ कर दिया। तत्पश्चात् श्री संघ ने साग्रह चतुर्मास की विनती की और आचार्य श्री ने लाभ का कारण जान स्वीकार करली बस रूटकर नगर में बड़ा ही हर्ष उमड़ उठा । शाह राजसी के मनोरथ सफल हो गये। सूरिजी कुंकु'दाचार्य का खटकूप नगर में पधारना ] ८८१ Jain Education Internal Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४८०-५२० वर्ष 1 [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कुछ अर्से के लिये आस पास के प्रदेशों में विहार कर वापिस खटकुप नगर पधार कर चतुमस कर दिया । शाहराजसी एवं धवल ने महा महोत्सव पूर्वक आगम भक्ति एवं हीरा पन्ना माणक मोतियों से ज्ञान पूजा कर महा प्रभाषिक श्री भगवतीजी सूत्र सूरिजी के कर कमलों में अर्पण किया और आपने उसको व्याख्यान में बांच कर श्री संघ को सुनाना प्रारम्भ कर दिया जिससे जैन जैनेतर श्रोताजन को बड़ा भारी आनन्द आया । सूरिजी के विराजने से केवल खटकु नगर को ही नहीं पर भासपास के जैनों को भी अच्छा लाभ मिला विशेष धवल को तो ज्ञान पढ़ने की इतनी सुविधा मिल गई कि कई असे से उनके दिल में रूची थी अतः सूरिजी के विराजने से उसने अच्छा लाभ उठाया इधर राजसी सूरिमी से परामर्श कर श्री सम्मेत शिखरजी के संघ की तैयारियां करने लग गया। खूब दूर-दूर प्रदेशों में आमन्त्रण पत्रिकाएं भिजवा दी । मरुधर से सम्मेतशिखरजी का संघ कभी कभी ही निकलता था अतः संघ का अच्छा उत्साह था ठीक समय पर खूब गहरी संख्या में संघ का शुभागमन हुआ जिसका राजसी ने सुन्दर स्वागत किया और सूरिजी का दिया हुआ शुभ मुहूर्त मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को शाह राजसी के संघपतित्व एवं सूरिजी की अध्यक्षत्र में संघ ने प्रस्थान कर दिया जो आसपास में साधु साध्वियां थी वह शुरू संघ के साथ और भी आने वाले थे उनके लिये रास्ते में दो तीन ऐसे स्थान मुकर्रर कर दिये कि वहां आकर संघ में शामिल हो जाय । मार्ग में कई तीर्थ आये जिन्हों की यात्रा अष्टान्हिका एवं ध्वजमहोत्सव स्वामिवात्सल्य वगैरह शुभ कार्य करते हुए और इन कार्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय करते हुए संघ श्री वीस तीर्थङ्गरों की निर्वाण भूमि सम्मेतशिखरजी पहुँच गया दूर से तीर्थ का दर्शन होते ही संघ ने अपना अहोभाग्य मनाया। बीस तीर्थङ्करों के चरण कमलों की स्पर्शना पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य अष्टान्हिका एवं ध्वज महोत्सव औरह किया राजसी की ओर से द्रव्य की खले दिल से छ. थी क्यों न हो जिसके पास चित्रावल्ली हो और चित्त उदार हो फिर कभी ही किस बात की श्री संघ ने पूर्व के और भी करने योग्य तीर्थ थे उन सबकी यात्रा कर वापिस लौटा और क्रमशः रास्ते के तीर्थों की यात्रा कर पुनः खटकुप नगर की भोर आ रहा था वहां के श्री संघ ने संघ का अच्छा स्वागत कर वधाकर संघ को नगर प्रवेश करवाया। इस विराट संघ का केवल जैनों पर ही नहीं पर बड़े बड़े राजा महाराजा एवं जैनेतर जनता पर भी काफी प्रभाव पड़ा था जीर्णोद्धार और जीवदाय की ओर संघपति का अधिक लक्ष था और सहधर्मी भाइयों के लिये तो कहना ही क्या था संव लेकर वापिस भाने के बाद राजसी ने तीन दिन तक संघ और तमाम नगर के लिये जीमणवार कर सबको मिष्टान्नादि से तृप्त किये बाद पुरुषों को सोने की कंठियां और बहिनों को सोने का चूड़ा और वस्त्रादि की पहरामणि दी और याचकों को तो इत्ना द्रव्य दिया कि उनके घरों का दारिद्रय ईप करके चोरों की भांति नगर से ही नहीं पर देश से मुंह लेकर भाग गया शाह राजसी के पास रहने वाली लक्ष्मी और सरस्वती देवियों का स्वागत देखकर कीर्ति देवी कोषित हो अर्थात् ईषां कर भाग छूटी कि पद देश विदेश में घूमने एवं फिरने लगी। शाह राजसी के द्वारा आरम्भ किया हुआ मंदिर खूब जोरों से तैयार हो रहा था मंदिर इतना विशाल था कि जिसके चौरासी देहारियां और कई रंग मण्डप बन रहे थे कारीगर और मजदूर बहुन संख्या में लगाये गये थे तथापि शिल्प कला का काम सुन्दर एवं विशेष होने के कारण अभी उसके लिये समय लगने की संभावना थी कुंकुंदाचार्य खटकुप नगर से विहार कर शंखपुर आशिका दुर्ग वगैरह ग्राम नगरों को पवित्र बनाते हुए नागपुर पधारे और वह चतुर्मास नागपुर में कर दिया नागपुर में जैनों की संख्या विशेष थी आप श्री के विराजने से जैनधर्म की खूब प्रभावना एवं जागृति हुई चतुर्मस के बाद कई मुमुक्षुओं ने सूरिजी के चरण कमल में भगवती जैन दीक्षा ग्रहण की तदनन्तर सरिजी मुग्धपुर, फलावृद्धि, हंसावली, पद्मावती, मेदिनीपुर, भवानीपुर और शाकम्भरी दि छोटे बड़े ग्रा मगरों में बिहारकर भव्य जीवों को धर्मोपदेश दिया जिससे धर्म का खूब ही उद्योन हुआ। शाह र जसी ने सकुटुम्ब सरिजी की सेवा में जाकर खटकुम्प नार पधारने की साग्रह विनती की अतः सूरिजो खटकुंप पधारे। और मन्दिरजो की देख-रेख को शाहराजसी ने प्रार्थना की कि पूज्यवर ! अब मन्दिरजी तैयार हने में हैं शेष काम रह जायगा तो मैं करवाता रहूँगा पर इसकी प्रतिष्ठा पूज्य के करकमलों से हो जाय तो मैं मेरे जीवन को सफल हुआ समझें? आचार्य ८८२ [ शाह राजसी एवं धवल सरिजी की सेवा में Jain Education international Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तमरि का जोवन } [ ओसवाल संवत् ८८०-१२० श्री ने फरमाया राजसी ! इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा वगैरह का कार्य तो हमारे गच्छ नायक आचार्य कक्कसूरिजी महाराज के कर कमलों से करवाना अच्छा है। राजसी ने कहा प्रभो! पूज्याचार्य इस समय न जाने कहाँ पर बिराजते होंगे हमारे लिये तो आप ही ककसूरिजी है कृपाकर आप ही प्रतिष्ठा करवा दिरावे ? सूजिी ने कहा राजभी यह वृहद कार्य तो वृद्ध पुरुषों के बृहद् हाथों से ही होना विशेष शोभा देगा दूसरे नूतन मूर्तियों की जनशिलाका करवाना कोई साधारण काम नहीं है । आचार्यश्री जी दक्षिण की अर पधारे थे जिन्हों को तीन वर्ष हो गया अब वे इधर पधारने वाले हैं यदि आप कोशिश करेंगे तो और भी जल्दी पधार जावेंगे और अभी तुम्हारे मन्दिर में काम भी बहुत शेष रहा है। इतनी जल्दी क्यों करते हो और हमारे गच्छ की मर्यादा भी है कि अञ्जनशिलाकादि कार्य गच्छ नायक ही करवा सकते हैं उस मर्यादा का मुझे और तुझे पालन करना ही चाहिये कारण तूं भी गच्छ में अग्रसर एवं श्रद्धा सम्पन्न श्रावक है । सूरिजी का कहना राजसी के समझ में आ गया और उसके दिल में यह बात लग गई कि आचार्य कक्कसूरिजी की खबर मंगानी चाहिये कि आप कहाँ पर विराजते हैं राजसी ने अपने आदमियों को इधर-उधर भेज दिये उनमें से कई आवंती प्रदेश की ओर गये थे उन्होंने सुना कि सूरीश्वरजी महाराज इस समय उज्जैन में विराजते हैं बस फिर तो क्या देरी थी शाह राजसी एवं धवल चल कर उज्जैन गया और वहाँ सूरिजी का दर्शन एवं वंदन किया और खटकुप नगर के सब हाल कह कर उधर पधारने की प्रार्थना को। जिसको सुनकर सूरिजी महाराज को बड़ा ही हर्ष हुआ विशेष कुकुंदाचार्य की गच्छ मर्यादा को पालन और विनपमय प्रबृति पर प्रसन्नता हुई । सूरिजी ने कहा राजसी तूं बड़ा ही भाशाली है इस प्रकार शासन की प्रभावना करने से तेरी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। राजसी ने कहा पूज्यवर ! मैंने मेरे कर्तव्य के अरावा कुछ भी नहीं किया है जो किया है वह भी आप जैसे गुरुदेव की कृपा का ही कारण है भाप साहिबजी मेहरबानी कर खटकुपज पधारे और यह सब धर्म कार्य करवा र मुझे कृतार्थ करें कारण आयुष्य का क्षणभर भी विश्वास नहीं है ? सूरिजी ने कहा राजस ! हमारे साधु बहुत बिहार कर आये हैं और खटकुप नगर यहाँ से नजदीक भी नहीं है यह चतुर्मास तो हमारा इधर ही होगा चतुर्मासके बाद हम अवश्य अवसर देखेंगे ऐसी हमारी वर्तमान भावना है। राजसीने चार दिन सूरिजी काव्याख्यान सुना धवल पर सूरिजी का खूब ही प्रभाव पड़ा इतना हो क्यों पर वह संसार से विरक्त भी हो या खैर. बाप बेटा सूरिजी को बन्दन कर वापिस लौट आये और सूरिजी ने यह चतुर्मास उज्जैन में कर दिया जिससे जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई बाद चतुर्मास के वहाँ से विहार कर छोटे-बड़े ग्राम नगरों में धर्मउपदेश करते हुए भाचार्य श्री मेदपाट एवं चित्रकोट नगर के नजदीक पधार रहे थे वहां के श्री संघ को मालूम पड़ो तो हर्ष का पार नहीं रहा । सूरिजी महाराज बड़े ही अतिशयधारी थे जहां आप पधारते वहाँ बड़ा ही स्वागत होता ओर दर्शनार्थियों के रिये तो एक तीर्थ धाम ही बन जाता था चित्रकोट में कुछ दिन स्थिरता कर वहाँ से बिहार कर मरुधर की भोर पधार रहे थे शाह राजसी ने मनुष्यों की डाक ही बैठा दी कि एक एक बिहार को खबर आपके पास पहुँच जाती थी जैसे राजा कोणिक भगव न महावीर के विहार की खबर मंगवा कर ही अन्न-जल लेता था कलिकालमें राजसीने भो उसका एक अंशतो बतला ही दिया । क्रमशः सूपिजी महाराज खटकुप नगर के नजदीक पधारे तो शाइ राजसी ने सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव इस प्रकार किया कि राजा दर्शन भद्र के स्वागत को जनता याद करने लगी । श्रीमान् पूज्यवर सूरिजी महारान मन्दिर जी के दर्शन करके धर्मशाला में पधारे और मंगलाचरण के पश्च त् थोड़ी पर सार गर्मित एवं प्रभावसाला देशना दी जिसका प्रभाव जनता पर बहुत ही अच्छा पड़ा। इधर कुंकु दाचार्य जिसका चतुमोस भिन्न्माल में था बिहार करते हुए सुना कि आचार्य कक्कसूरि खटकुप नगर में पधार गये हैं वे भी चलकर खटकुंप नगर पधार गये श्री संघ ने अच्छा स्वागत किया आचार्य कक्कसूरि ने कुकुंदाचार्य का यथायोग सत्कार किया क्योंकि कमाऊ पुत्र किसको प्यारा नहीं लगता है दोनों आचार्य आपस में मिले आचार्य ककसरि ने कुकुदागर्व को खूब ही प्रशंसा की और कहा कि आपने जैमधर्म की अच्छी उन्नति को है लो अब राजसी के काम को संभालो । कुकुंदाचार्य ने कहा पूज्यवर । मैं तो आपका अनुचर हूँ यह कार्य तो आप जैसे पूज्य पुरुषों का है । और जो मेरे योग्य कार्य हो आज्ञा दिरावें मैं करने को तैयार हूँ अर्थात् दोनों ओर से विनय भक्ति इस प्रकार से हुई कि जिससे जैनधर्म की शोभा, संघ में शान्ति, श्रमण संघ में प्रेम की वृद्धि आदि हुई। आचार्य ककसरि और कुकुंदाचार्य का मिलाप ] ८८३ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४८०-५२० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तत्पश्चात् शाह राजसी एवं धवल चतुर शिल्पज्ञ कारीगरों को लेकर आया सूरिजी ने अपने साधु धर्म की मर्यादा में रह कर जो उपदेश देना था वह दे दिया राजसी की इच्छा ९६ अंगुल की सुवर्ण मय भगवान महावीर की मूर्ति बनाने की थी, परन्तु सूरिजी ने कहा राजसी तेरी भावना और तीर्थङ्करदेव प्रति भक्ति तो बहुत अच्छी है पर दीर्घ दृष्टि से भविष्य का विचार किया जाय तो सुवर्णादि बहुमूल्य धातु की मूर्ति बनाना कभी आशातना का भी कारण हो सकती है कारण कई अज्ञानी जीव लोभ के वश मूर्तियों को ले जाकर तोड़फोड़ के पैसे कर लेते हैं यही कारण है कि पूर्व महर्षियों ने मणि की मूर्तियों को भण्डार कर सुवर्णादि धातुओं की मूर्तियां बनाई और इस पंचमआरे के लिये तो घातु पदार्थ को बंद कर पाषाण एवं काष्टादि की मूर्तियाँ बनाने का रखा है। राजसी ! जैन लोग सुवर्ण पाषाणादि के उपासक नहीं पर वीतराग देव के उपासक है मूर्ति चाहे सुवर्ण पाषाण काष्टादि की क्यों न हो पर उपासना करने वालों की भावना वीतगग की आराधना करने की रहती है हाँ कहीं कहीं भक्त लोग अपनी लक्ष्मी का ऐसे कार्यों में सदुपयोग करने की भावना से सुवर्णादि धातु पदार्थों की मूर्तियां बनाते भी हैं पर उनकी दृष्टि लेवल भक्ति की ओर ही रहती है उनके भावों का लाभ तो उनको मिल ही जाता है पर भविष्य का विचार कम करते हैं एक तरफ भारत में मतमतान्तरों की द्वन्द्वता दूसरे भारत पर विदेशियों का आक्रमण और तीसरा दिन दिन गिरता काल पा रहा है जो मन्दिर और मूर्तियों का प्रभाव एवं गौरव है वह अज्ञानी जीवों की आशानता से कम नहीं होता है पर बाल एवं भद्रिक जीवों के लिए श्रद्धा उतरने का कारण बन जाता है वे अपनी अल्पज्ञता से कह उठते हैं कि जिस देव ने अपनी रक्षा नहीं की वह दूसरों का क्या भला कर सकेगा ? यद्यपि यह कहना अज्ञान पूर्ण है कारण वीतराग की मूर्तियों रक्षा व रक्षण के लिये नहीं पर आत्म कल्याण के लिये ही स्थापित की जाती है इत्यादि सूरिजी ने भविष्य को लक्ष में रख राजसी को उपदेश दिया और यह बात राजसी एवं धवल के समझो भी आगई अतः उन्होंने अपने विचारों को मुल्तवी रख कर पाषाण की मूर्तियाँ बनाने का निश्चय कर लिया और चतुर शिल्पकारों को बुलवा कर सूरिजी की सम्मति लेकर मूल नायक शासनाधीश भगवान महावीर की १२० अंगुल की परकर अर्थत् अष्ट महाप्रतिहार्य संयुक्त मूर्ती बनाने का निश्चय कर लिया जो मूल गुम्भाग में एक ही मूर्ति रहै जिसको अरिहन्तों की मृत्ति कही जाती है बहुत सी मूर्तियां पहले से ही बन चुकी थीं । और भी जो शेष काम रहा था वह भी खूब जल्दी से होने लगा। सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं आत्म कल्याण पर होता था जिस समय सृरिजी जन्म मरण के एवं संसार के दुःखों का वर्णन करते थे उस समय श्रोतागण कांप उठते थे जिसमें शाह राजसी का पुत्र धवल ने तो संसार से भय भ्रांत होकर सूरिजी के चरण कमलोंमें दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया उसने सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो ! आपका फरमाना सर्व सत्य है संसार दुःखों का घर है जब जीवों के स्वाधीन सामग्री होती है तब तो मोह में अन्धा बन जाता है जब अशुभ कर्मों का उदय होता है तब रोना पीटनादि केश में डबल कोपाजन कर लेता है अतः इस चक्रबाल संसार का कभी अन्त नहीं होता है गुरुदेव मैंने तो निश्चय कर लिया है कि मैं पूज्य के चरणों में दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करूँ जो पहिला उज्जैन में भी आपसे अर्ज की थी सूरिजी ने कहा धवल तू बड़ा ही भाग्यशाली हैं तेरी विचार शक्ति एवं प्रज्ञा बहुत अच्छी हैं धवल ! चाहे आज लो चाहे भवान्तर में लो पर पिना दीक्षा लिये सम्पूर्ण निवृति मिल नहीं सकती है और बिना निति आत्म कल्याण हो नहीं सकता है यही कारण है कि चक्रवर्ति जैसे ८.४ [ धवल का वैराग्य और मातपिता का समझाना Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८८०-६२० अतूल ऋद्धि वालों ने भी उस ऋद्धि पर लात मार कर दीक्षा ली है । अत: तेरा विचार बहुत अच्छा है पर इस कार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये । धवल ने कहा 'तथाऽस्तु' गुरु महाराज मैं इस मन्दिर की प्रतिष्ठा के पूर्व ही दीक्षा ग्रहण कर लूंगा। बस मृरिजी को वन्दन कर धवल अपने मकान पर आया। धवा और उसके माता पितादि में इस बात की खुब चर्चा एवं जवाब सवाल हुए पर आखिर जिनको वैराग्य का सच्चा रंग लग गया है वह इस संसार रूपी कारागृह में कब रह सकता है उसने अपने माता पिताओं को बहुत समझाया पर वे अपने धवल जैसे सुयोग्य पुत्र को दीक्षा दीलाना कब चाहते थे राजसी ने कहा बेटा अपने घर में चित्रावल्ली है इसका धर्म कार्यों में सदुपयोग कर कल्याण करो। यह मन्दिर तैयार हो रहा है इसकी प्रतिष्ठा कराओ। श्रीसंघ को अपने प्रांगणे (घा पर) बुला कर उनका सत्कार पूजन कर खूब पहरामणीदों इत्यादि पर दीक्षा का नाम तो भूल चूक कर भी नहीं लेना । बेटा देख तेरी माता रो रही है इसने जब से रोरी दीक्षा की बात सुनी तब से ही अन्न जल का त्याग कर दिया है बेटा जैसा दीक्षा लेना धर्म है वैसा माता पिता की आज्ञा पालन करना भी धर्म है अत: तु दीक्षा की बात को छोड़ दे और मन्दिर की प्रतिष्ठा के कार्य में लग जाय ? धवल ने अपने पिता से विनय पूर्वक कहा पूज्य पिताजी मन्दिर बनाना, श्री संघ का सत्कार करना यह भी धर्म का अंग है पर दीक्षा इससे भी विशेष है मैं क्षण भर भी संसार में रहना नहीं चाहता हूँ यदि आप लोग भी दीक्षा लें तो मैं आपकी सेवा करने को तैयार हूँ। राजसी ने धवल के अन्तःकरण को जान लिया अत: उन्होंने बड़े ही लमारोह से दीक्षा महोत्सव किया और आचार्य कक्कसूरि ने धवल को उनके १४ साथियों के साथ भगवती जैनदीक्षा दे दी। सूरिजी ने धवल को दीक्षा देकर उसका नाम मुनि राजहंस रख दिया अभी प्रतिष्ठा के कार्य में कुछ देर थी अतः सूरि जी आस पास के प्रदेश में विहार कर श्रीउपकेशपुर स्थित भगवान महावीर और आचार्य रत्नप्रभसूरि के दर्शनार्थ उपकेशपुर पधार गये तब कुकुदाचार्य ने सूरिजी की आज्ञा से नागपुर की ओर विहार कर दिया । इधर शाहराजसी अपना कार्य खब जल्दी से करवा रहा था जिसके वहां चित्रावल्ली हो द्रव्य की खुले हाथों से छुट हो वहाँ कार्य होने में क्या देर लगती है जब कार्य सम्पूर्ण होने में आया तो शाह राजसी ने दोनों प्राचार्यों को आमन्त्रण भेज कर बुलाये और सूरिजी महाराज पधार भी गये शाह राजसी ने प्रतिष्ठाके लिये खूब बड़े प्रमाण में तैयारियों की थी आस पास ही नहीं पर बहुत दूर दूर के प्रदेशों में आमन्त्रण भेज चतुर्विध श्री संघ को बुलाया जिन मन्दिरों में अष्टान्हि का महोत्सव करवाया आचार्य कक्कसूरि के अध्यतत्त्वमें नूतन मूर्तियों की अंजनशिलाका करवाई और खूब धामधूम से मन्दिर की प्रतीष्टा भी करवादी शाहगजसी ने संघ को सोने मुहरों और लढ्ढू एवं वस्त्रों की पहरामणी दी और यावकों को मन इच्छित दान दिया। इधर चतुर्मास का समय भी नजदीक आगया था शाह राजसी एवं खटकुप नगर के श्रीसंघ ने मिल कर सूरिजी से विनती की अतः कुंकुंदाचार्य को नागपुर और दूसरे नगरों, में थोड़े थोड़े साधुओं को चतुर्मा का आदेश दे खुद सूरिजी महाराज ने खर कुंप नगर में चतुर्मास करना स्वीकार कर लिया मुनि राजहंस भी सूरिजी के साथ में ही थे। ___ यों तो खटकुपनगरमें बड़ेबड़े भाग्यशाली एवं सम्पत्तिशाली श्रावक थे पर इस अवसर पर तो शाह राजसी ने ही लाभ उठाया महामहोत्सव एवं हीरापन्ना माणक मुक्तफलादि से पूजन कर सूरिजी से व्याख्यान में महा प्रभावशाली स्थानायांगजी सूत्र बचाया और भी अनेक प्रकार से बहुत सज्जनों ने लाभ लिया। शाह राजसी के बनाया मन्दिर की प्रतिष्ठा ] ८८५ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४८०-५२० वर्ष । [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एक समय सूरिजी ने तंथों की यात्राका वर्णन इस प्रकार किया कि शाहरा नसी की भावना श्रीशत्रुजय तीर्थ का संघ निकालकर यात्रा करने की हुई अतः उसने सूरिजी की सम्मति ली तो सूरिजी ने फरमाया राजसी तेरे केवल शत्रुजय का संघ निकालने का काम ही शेष रहा है कारण गृहस्थ के करने योग्य कार्य मन्दिर बनाना सूत्र बांचना और संघ निकालना ये तीनों कार्य तो तुं करही लिया है विशेषता में तेरे पुत्र ने दीक्षा भी ली है अतः तु वड़ा ही भाग्यशाली है फिर वह एक संघ का कार्य शेष क्यों रखता है । राजसी ने निश्चयकर लिया और संघकी सब तैयारियां करनी प्रारम्भ करदी चतुर्मास समाप्त होते ही सब प्रान्तों में आमन्त्रण पत्रिका भेजवादी । साल भर में एक दो संघ तो निकल ही जाता था तब भी धर्मज्ञ पुरुषों की तीर्थ यात्रा के लिये भावना कम नहीं पर बढ़ती ही जारही थी इस का कारण यह था कि उस समय गृहस्थों के बडा ही संतोष था समय बहुत मिलता था परिवार भी बहुत था और धर्म भावना भी विशेष थी। तीर्थ यात्रा के लिये बहुत से साधु साध्वियों और लाखों श्रावक श्रविकाएं खटकूपनगर को पावन बना रहे थे। आचार्य ककसूरि ने शाह राजसीको संघपति पद अर्पण कर दिया और मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा के शुभ मुहूर्तमें संघ ने प्रस्थान कर दिया रास्ते में भी बहुत से लोग मिलते गये और ग्राम नगरों के मन्दिरों के दर्शन करते हुए क्रमशः संघ तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय पहुँच गया दूर से तीर्थ का दर्शन करते ही मुक्ताफल से पूजन किया और युगादिदेवकी यात्रा कर पापोंका प्रक्षालन किया । अष्टान्हिक महोत्सव धज उच्छव पूजाप्रभावना स्वामिवात्सल्यादि शुभकार्यों में शाहराजसी ने पुष्कलद्रव्यव्यय किया वहाँ से संघ वापिस लोटने वाला था उस समय मुनि गजहंस ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर । मेरी इच्छा है कि इस तीर्थ भूमिपर शाहराजसी और उनकी पत्नि को श्राप उपदेश दिरावे कि उन्होंने प्रवृति कार्य तो सब कर लिया है अब निर्वृति कार्य कर अपने मनुष्य जन्म को विशेष सफल बनावे । सूरिजी ने कहा मुनि राजहंस --तुं सच्चा कृतज्ञ है कि अपने मातापिता का कल्याण चाहता हैं । सूरिजी ने संघपति राजसी और उपकी पनि को बुलाकर कहा कि संघपति तेरे पुत्र मुनि राजहंस की इच्छा है कि आप दोनों इस पुनीत तीर्थ पर दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करें । वास्तव में मुनि का कह । सत्य भी है जब गृहस्थों के करने योग्य सब कार्य तुमने कर लिया है तो अब निवृति यानि दीक्षा लेकर कल्याण करना जरूरी है इत्यादि साथमें मुनिराजहंसने भी जोर देकर कहाकि जिसने जन्म लिया है उसको, मरना तो निश्चय ही है तो फिर सुअवसर को क्यों जाना देते हैं मेरा अनुभव से तो दीक्षा पालन कर मरना अच्छा है इत्यादि राजसी ने अपनी पत्नि के सामने देखा इतने में पुन: मुनि राजहंस बोलाकि इसमें विचार करने की क्या बात है यह तो अपने ही कल्याण का काम है अनन्तकाल हो गया जीव संसार में परिभ्रमन कर रहा है किसी भव के पुन्य से यह अवसर मिला है इत्यादि । जिन जीवों के मोक्ष नजदीक हो उनको अधिक उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती है उस जगह बैठे ही दम्पति ने सूरिजी एवं अपने पुत्र के कहने को स्वीकार कर लिया और संघपति की माला अपने पुत्र खेतसी को पहना कर शाह राजसी और उसकी स्त्री ने सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा स्वीकार करली। अहाहा बेटा हो तो ऐसा ही होकि आपतो तरेही पर साथ में अपने मातापिता को भी तार देवे और मातापिता हो तो भी ऐसे हो कि पुत्र के थोड़े से कहने पर घर छोड़ दे राजसी ने घर और चित्रवल्ली जैसी अखूट लक्ष्मी कों बातही बात में त्याग कर दीक्षा ले ली-इस आश्चर्यः जनक घटना को देख संघर्मे का भावुकों की भावना संघपति का अनुकरण करने की होगई वहाँ आठ दिनों में २८ नरनारियोंने सूरिजी के हाथों से दीक्षा ग्रहण करली । ८८६ . [ श्री शत्रुजय पर शाह राजसी की दीक्ष Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८८०-१२० ___ शाह खेतसी के संघपतित्व में संघ वापिस लौटकर खटकुप आया और सूरिजी महाराज ने सौराष्ट्रप्रान्त में विहार कर सर्वत्र धर्म प्रचार बढ़ाया। बाद आपने कच्छ भूमि को पावन की वहाँ से सिन्ध भूमि में पदार्पण किया इस प्रकार अनेक प्रान्तों में भ्रमण करते हुए सूरिजी महाराज ने जैनधर्म की खूवही प्रभावना की जो श्राप श्री के जीवन में लिखा गया है और अन्त में श्री शत्रुजय की शीतल छाया में अष्टिगौत्रीय शाह देवराज के महामहोत्सव पूर्वक आचार्य कक्कसूरिने देवी सच्चाविका की सम्मति पूर्वक मुनि राजहंस को अपने पट्टपर अचार्य बनाकर आपका नाम देवगुप्तसूरि रखदिया बाद २७दिन का अनशन एवं समाधि के साथ स्वर्ग पधार गये श्राचार्य देवगुमसूरि महान् प्रभाविक उगते सूर्य की भांति ज्ञानप्रकाश करने वाले धुरंधर आचार्य हुए आपने गच्छ नायकत्व का भार अपने सिर पर लेते ही विजयी सुभटकी भाँति चारों ओर विहारकर आपने विजय डंका वजा दिया था आपश्री जी शत्रुजय तीर्थ से ५०० मुनियों के साथ विहारकर क्रमशः कई प्रान्तों में भ्रमन कर वापिस मरुधरकों पावन बनाते हुए खटकुपनगर पधारे जो आपकी जन्म-भूमि थी वहाँ के राजा-प्रजा ने आपका अच्छा सन्मान किया कारण एक तो आप इस नगर के सुपुत्र थे दूसरे आप स्वमतपरमत के साहित्य का गहरा अभ्यास कर धुरंधर विद्वान बनायेथे तीसरा आचार्यपदसे शोभायमान थे भला नगर में ऐसा कौन हतभाग्य होगा कि जिसको अपने नगर का गौरव न हो अतः क्या राजा क्या प्रजा क्या जैन और क्या जैनतर सब लोग सूरिजी के स्वागत में शामिल थे जब सूरिजी ने नगर प्रवेश कर सबसे पहिले धर्म देशना दी तो सब लोग एक आवज से कहने लगे कि वाहरे धवल तूं ! इस नगरमें जन्म लिया ही प्रमाण है अरे धवल ने अपने मातापिता का कल्याण तो किया ही है पर इसने तो खटकुंपनगर ही नहीं पर मरुधर भूमि को उज्जवल मुखी बनादी है। प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने मारवाड़ के छोटे बड़े ग्राम नगरों में सर्वत्र विहार कर अपनी ज्ञानप्रभा का अच्छा प्रभाव डाला अापने कई मन्दिरों की प्रतिष्टाएँ करबाई कई मुमुक्षुओं को जैनधर्म की दीक्षादी और कई जैनेतरों को जैनधर्म की राहपर लगाकर महाजनसंघ की भी खूब वृद्धि की इत्यादि आपश्री ने जैनधर्म की खूब ही तरक्की की । जिस समय आप श्री का चतुर्मास पद्मावती पुष्कर में हुआ उस समय वहाँ सन्यासियों की जमात आई सूरिजी ने उनके साथ शास्त्रार्थ कर उनमें से कइ ३०० सन्यासियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर श्रमण संघमें वृद्धि की थी। इस प्रकार सन्यासियों की दीक्षा होने का मुख कारण वेदान्तियों की हिंसावृति ही थी कारण ज्यों ज्यों जैनोंने अहिंसाका प्रचार को खूब जोरों से बढ़ाया त्यों त्यों ब्राह्मणों ने जहाँ वहाँ यज्ञादि में पशुबली देने रूप क्रिया काण्ड को इतना बढ़ा दिया था कि जनता को,अरुची एवं घृणा आने लग गइ थी इतना ही क्यों पर सन्यासी लोग तो इस प्रकार की घोरहिंसा से चिरकाल से ही विरोध करते आये ये अतः जहाँ जैनाचार्य का संयोग मिलता वे जैनधर्म की दीक्षा स्वीकार कर ही लेते थे। पिच्छले प्रकरण में आप पढ़ आये है कि बहुत से सन्यासियों एवं तापसों ने जैनदीक्षा स्वीकार कर अहिंसा एवं जैनधर्म का खूब जोरो से प्रचार किया हैं । अस्तु । प्राचार्यश्री ने एक समय कार्तिककृष्णाअमावस्या के दिन व्याख्यान में भगवान महावीर के निर्वाण विषयक व्याख्यान करते हुए, पूर्व के पुनीत तीर्थों के वर्णन में वीसतीर्थङ्करों के निर्वाण भूमि तथा चम्पापुरी पावापुरी और राजग्रह नगर के पांच पहाड़ों का वर्णन खूब विस्तार से किया और वहाँ की यात्रा का महत्व आचार्य देवगुप्तसरि और सम्मेत सिखर का संघ ८८७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४८०-५२० वर्षे ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वतलाते हुए कहा कि पूर्व जमाने में इस मरुधर भूमि से कई भाग्यशालियो ने पूर्वकी यात्रार्थ बड़े बड़े संघ निकाल कर चतुर्विघ श्रीसंघ को यात्र कराई और पु यानुबन्धी पुन्योपार्जन किया इत्यादि आपश्री के उपदेश का जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ और भावुको की भावना तीर्थों की यात्रा करने की होगई । उसी सभामे श्रेष्टिगौत्रीय मंत्री अर्जुन भी था उसके दिल में आई कि जब सूरिजी ने उपदेश दिया है तो यह लाभ क्यों जाने दिया जाय अतः उसने खड़े होकर प्रार्थना की कि पूज्यवर । यदि श्रीसंघ मुझे आदेश दिरावे तो मेरी इच्छा पूर्व के तीर्थों की यात्रार्थ संघनिकालने की हैं। संघ निकालने का विचार तो और भी कई भावुकोंके थे पर वे इस विचार मैं थे कि घरवालों की सम्मति लेकर निश्चय करेंगे किन्तु मत्रीश्वर इतना भाग्यशाली निकलाकि सूरिजीका उपदेश होते ही हुक्म उठालिया आखिर श्री संघने मंत्री अर्जुन को धन्यवाद के साथ आदेश दे दिया और भगवान महावीर एवं आचार्य देव की जयध्वनि के साथ सभा विसज्जित हुई। ___ मंत्रीअर्जुन के अठारह पुत्र थे कई गज के उच्चपद पर कार्य करते थे तब कई व्यापार में लगे हुए भी थे शामकों जबसब एकत्रित हुए तो मंत्रीने सबकी सम्मति ली पर उसमें एकभी पुत्र ऐसा नहीं निकला कि जिसने इस पुनीत कार्य के खिलाफ अपना मत प्रगट किया हो अर्थात् सबने बड़ी खुशी से अपनी सम्मति देदी । बस फिर तो था ही क्या मंत्री के सव काम हुकम के साथ होने लग गये और दूर-दूर के श्रीसंघ को आमंत्रण मिज वा दिये । पूर्वका संघ कभी व मी ही निकलता था अतः जनता में उत्साह भी खूब बढ़गया था। उस समय इस प्रकार के धार्मिक कार्यों में जनता की रूची भी बहुत थी अतः चतुर्विध श्रीसंघ के आने से पद्मावती नगरी एक यात्रा का धाम बन गयी । सूरीश्वरजी ने संघ प्रस्थान का मुहूर्त भी नजदीक ही दिया कारण मामला बहुत दूर का था और रास्ते में भी कई तीर्थ भूमियों आती है समयानुकुल हो तो स्थिरतापूर्वक यात्रा बड़े ही आनन्द से होसके । पट्टावलीकार लिखते है कि मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी के शुभ दिन मंत्री अर्जुन के संघपतित्व में संघ प्रस्थान कर तीनदिन तक संघ नगरी के बहार ठहर गया पूजा भावना स्वामि वात्सल्य वगैरह संघपति की ओर से होता रहा और भी बहुत से लोग सघ में शामिल होगथे तत्पश्चात आचार्य देवगुप्तसूरि के नायकत्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया रास्तों के मन्दिरों के दर्शन जैसे मथुरा शौरीपुर हस्तनापुर सिंहपुरादि तीर्थों की यात्रा पूजा कर संघने वीसतीथङ्करों को निर्वाण भूमि की स्पर्शना एवं दर्शन कर पूर्व संचित कइ भवों के पातक का प्रक्षालन कर दिया । तीर्थ पर ध्वजा अष्टान्दिका महोत्सव पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि धर्म कार्यों में संघपति ने खूब खुल्ले दिल से द्रव्य व्यय कर पुन्योपार्जन किया । बाद वहाँ से चम्पापुरी पावापुरी राजगृह वगैरह पूर्व के सब तीर्थों की यात्राकर संघ वापिस लौटकर पद्मावती आया और मंत्रीश्वर ने सवासेर लड्डु के अन्दर पंच पांच सुवर्णमुद्रिकाएँ तथा वस्त्रादि की संघकों पहरामणिदी तथा याचको को दान दिया बाद संघ विसर्जन हुआ-- अहाहा उस जमाने में जनता के हृदय में धर्म का कितना उत्साह धर्म पर कितनी श्रद्दा भक्ति थी वे जो कुच्छ समझते वे धर्म को ही ममते थे। कई मुनि तो संघ के साथ वापिस लौट आये थे परन्तु आचार्य देवगुप्त सूरि अपने पारसौ मुनियों के साथ पूर्व में धर्मप्रचार के निमित रह गये थे उन्होंने पूर्व में श्रीसम्मेत शेखर के आसपास की भूमि में विकार कर जनता को धर्मोपदेश दिया और जैन श्रावको की संख्या को खूब बढ़ाई जो आज सराक जाति के नाम से प्रसिद्ध है वहाँ से बंगल की ओर विहार कर हेमाचल के मदिरों के दर्शन किया तत्पश्चात् आप विहार करते हुए कलिंग की ओर पधारे और खण्डगिरि उदयगिरि तीर्थ जो शत्रुञ्जय गिरनार अवतारके नाम से खूब . [ आचार्य देवगुप्तसरि का पूर्व में विहार ........................ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० [सं० ४८० - ५२० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मशहूर थे भगवान् पार्श्वनाथ और आपकी सन्तान परम्परा के श्राचार्यों ने वहां पर अनेक वार पधार कर धर्म का प्रचार किया था। वहां से विहार करते हुए भगवान् पार्श्वनाथ के कल्याणक भूमि की स्पर्शना करते हुए करू- पंचाल और कुनाल प्रदेश में पधारे वहां पहले से ही उपकेश गच्छ के बहुत से मुनि गण विहार करते थे आपश्री ने उनके धर्म प्रचार पर खूब प्रसन्नता प्रगट की और कई असें तक वहां विहार कर जैन धर्म को खूब बढ़ाया वहां पर आप श्री ने कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्टा करवाई कई जैनों को जैन बनाये और कई महानुभावों को दीक्षा भी दी। बाद वहां से आप ने सिन्ध भूमि की स्पर्शना की तो सिन्ध की जनता के हर्ष एवं आनन्द का पार नहीं रहा उस समय सिन्ध में उपकेश वंशियों की घनी बस्ती थी बहुत से साधु साध्वियां विहार कर उपकेश रूपी बगीचे को धर्मोपदेश रूपी जल का सींचन भी करते थे सूरिजी के पधारने से सर्वत्र श्रानन्द का समुद्र ही उमड़ उठा था जहां जहां आपके कुंकुम मय चरण होते थे वहां वहां दर्शनार्थियों का खूब जमघट लग जाता था सब लोग यही चाहते थे एवं प्रार्थना करते थे कि गुरुदेव पहले हमारे नगर को पावन बनावें इत्यादि । सूरिजी ने सिन्धधरा में कई अर्से तक भ्रमण कर कई मन्दिरों की प्रतिष्टाए करवाई, कई भावकों को दीक्षा दी कई मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित कर उनका उद्धार करते हुए जैनों की संख्या में खूब गहरी वृद्धि की । वहाँ से आचार्य देव कच्छ भूमि की ओर पधारे वहां भी श्रापश्री के आज्ञावर्ती बहुत से मुनि विहार कर रहे थे प्रायः वहाँ की जनता उपकेशगच्छोपासक ही थी क्योंकि इन प्रान्तों में जैनधर्म के बीज उपगच्छाचार्यो ने ही बोया था इतना ही क्यों पर उपकेशगच्छाचार्य एवं मुनियों ने इन प्रान्तों में वार बार विहार कर धर्मोपदेशरूपी जल से सिंचन कर खूब हराभरा गुलचमन बना दिया कि जैनधर्म रूपी वगीचा सदैव फलाफूला रहता था आचार्यश्री ने अपनी सुधा वारि से वहाँ की जनता को खूब जागृत कर दी थी। कई अर्से तक आपने कच्छ भूमि में विहार कर के जनता पर खूब उपकार किया बाद वहाँ से आपके चरण कमल सौराष्ट्र भूमि में हुए सर्वत्र उपदेश करते हुए आपने तीर्थाधिराज श्री शत्रु जय तीर्थ के दर्शन एवं यात्रा कर खूब लाभ कमाया । कहने की श्रावश्यकता नहीं है कि उन परमोपकारी पूज्य आचार्य देव का जैन समाज पर कहाँ तक उपकार हुआ है कि जिसको न तो हम जिह्वा द्वारा वर्णन कर सकते हैं और न इस छोहे की तुच्छ लेखनी से लिख भी सकते हैं अर्थात् आपका उपकार अकथनीय हैं । श्राचार्य देवगुप्तसूर के शासन के समय जैन श्रमणों में एकादशांग के अलावा पूर्वी का भी ज्ञान विद्यमान था । स्वयं आचार्य देवगुप्तसूरि सार्थ दो पूर्व के पाठी एवं मर्मज्ञ थे अतः आपकी सेवा में स्वगच्छ एवं परगच्छ के अनेक ज्ञानपीपासु ज्ञानाध्ययन करने के लिये आया करते थे उनमें आर्य देव वाचक भी पक थे आपकी विनय शीलता और प्रज्ञा से सूरिजी सदैव प्रसन्न रहते थे । सूरिजी की इच्छा थी कि मैं मेरा सब ज्ञान आर्य देववाचक को दे जाऊं पर कुदरत इससे सहमत नहीं पर प्रतिकूल ही थी जब आर्य देववाचक डेढ पूर्व सार्थ पढ़ चुके तो उनको थकावट आगई । प्रमाद ने घेर लिया उन्होंने श्राचार्य श्री से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! अब शेष ज्ञान कितना रहा है । इस पर सूरिजी ने कहा कि वाचकजी आप पढ़ते रहें क्योंकि इस ज्ञान के लिये एक आप ही पात्र हैं इत्यादि पर वाचकजी अपने धैर्य को काबू में रख नहीं सके जिसका श्राचार्यश्री को बड़ा ही दुःख हुआ कि परम्परा से आया दृष्टिवाद एवं चतुर्दश पूर्व का ज्ञान ८८९ आचार्य देववाचक को दो पूर्व का ज्ञान ] ११२ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन । [ ओसवाल संवत् ८८०-९२० पात्र के प्रभाव से आचार्य अपने साथ ले गये और शेष दो पूर्व का ज्ञान रहा है इसको लेने में भी एक देववाचक के अलावा कोई दीखता नहीं है तब देववाचक का भी यह हाल है तो मैं क्या कर सकता हूँ। इस हालत में आपके हस्तदीक्षित एक मंगलकुम्भ नाम का बड़ा ही प्रभावशाली मुनि था उनको श्राप एक पूर्व मूल ज्ञान पढ़ा चुके थे पुनः उन मंगलकुम्भ को उसका अर्थ, पढ़ाना प्रारम्भ किया तो देववाचक की आत्मा में ज्ञान की विशेष जिज्ञासा पैदा हुई अतः देववाचक को देडपूर्व सार्थ और श्राधापूर्व मूल एवं दो पूर्व का अध्ययन करवाया । बाद सूरिजी महाराज बिहार करते हुए भरोंच नगर में पधारे तो आपके उपदेश से वहां के श्रीसंघ ने वहां पर एक श्रमण सभा की जिसमें बहुत दूर दूर से श्रमण संघ तथा श्राद्ध वर्ग भरोंच नगर में एकत्रित हुए पाये ठीक समय पर सभा हुई प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने आये हुए चतुर्विध श्रीसंघ को शासन हित धर्मप्रचार एवं ज्ञान वृद्धि के लिये खूब ही श्रोजस्वी वाणी से उपदेश दिया और पूर्वाचार्यों का इतिहास सुनाकर उपस्थित जनता पर अच्छा प्रभाव डाला । तदनन्तर चतुर्विध श्रीसंघ की समक्ष मुनि मंगलकुम्मादि ११ मुनियों को उपाध्याय पद, मुनिदेववाचकादि तीन मुनियों को गणिपद के साथ क्षमाश्रमण पद, मुनि देवसुन्दरादि १५ मुनियों को पण्डितपद मुनि श्रानंदकलसादी १५ मुनियों को गणि एवं गणविच्छेद क पद मुनिसुमतितिलकादि १५ मुनियों को वाचनाचार्य पद से विभूषित कर उनकी योग्यता की कदर कर उत्साह को विशेष बढ़ाया इत्यादि इस सभा से जैन धर्म की उन्नति श्रमण संघ में जागृति और स्वधर्म की रक्षा एवं प्रचार कार्य में अच्छी सफलता मिली तत्पश्चात् भरोंच श्रीसंघ ने सम्मानपूर्वक श्रीसंघ को विसर्जित किया और सूरिजी के आदेशानुसार पदवीधरों ने भी प्रत्येक प्रान्तों की और विहार कर दिया और भरोंच संघ की श्राग्रह पूर्ण विनंती से प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने भरोंच नगर में चातुर्मास करने का निश्चय क लिया। जब सूरिजी ने भरोंच नगर में चतुर्भास किया तो अन्य साधुओं को आस पास के ग्रामनगरों में चतुर्मास की आज्ञादेदी अतः उस प्रान्त में सर्वत्र जैनधर्म का बिजय डंका बजने लग गयो। सूरिजी के विराजने से केवल एक भरोंचनगर की जैन जनता को ही लाभ नहीं हुआ पर जैनेतर लोगों को भी बड़ा भारी लाभ मिला श्रापश्री के मुखारविन्द से तात्विक दार्शनिक अध्यात्म योग समाधि वगैरह अनेक विषयों पर हमेशा व्याख्यान होता था कि जिसको श्रवण कर वहां के राजा एवं प्रजा अपना अहोभाग्य समझते थे और जैनधर्म की मुक्तकण्ठ से भूरि भूरि प्रशंसा करते थे जिस समय आप भरोंच में विराजते थे उस समय वहाँ बोद्धों के भी कई भिक्षु ठहरे हुए थे पर सूरिजी के सूर्य सदृश तप तेज के सामने वे चूं तक भी नहीं करते थे इतना ही क्यों पर एक विद्वान बौद्ध साधु ने सूरिजी के पास जैन दीक्षा भी स्वीकार करली थी जिससे बौद्धों में ठीक हलचल मच गई थी। सूरिजी ने जैनधर्म का प्रचार करते हुए भरोंच से बिहार कर श्रावंति प्रदेश में पदार्पण किया तो वहाँ की जनता के हर्ष का पार नहीं रहा उज्जैन माण्डवगढ़, मध्यमिका,महेंद्रपुर, खीलचीपुर, दशपुर होते हुए मेद पाट में पधारे वहां पर भी चित्रकोट नगरी अघाट देवपट्टनादि नगरों में धूमते हुए आप मरूधर में पधारे और अनुक्रमे उपकेशपुर पधार रहे थे उस समय मरूधर बासियों के उत्साह का पार नहीं था उपकेशपुर के श्रीसंघ ने सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया सुरिजी ने भगवान महावीर एवं प्राचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा कर अपना अहो भाग्य समझा देवी सच्चायिका परोक्षपने आपकी सेवा में हाजर हो वन्दन किया करती थी श्रीसंघ की आग्रह भरी विनती से वह चतुर्मास सूरिजी ने उपकेशपुर में कर दिया जिससे जनता को बड़ा भारी लाभ मिला और धा Jain Edul Oternational For Private & Personal of आचार्य श्री का उपकेशपर में वतर्मास org Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४८०-५२० वर्ष । भगवान् पार्श्वनाथ की परमरा का इतिहास का भी अच्छा उद्योत हुआ। एक समय सूरिजी ने अपने आयुष्य के लिये देवी को पूछा तो देवी ने कहा पूज्यवर ! कहते हुए बड़ा ही दुःख होता है कि श्राप की आयुष्य पाँच मास और तेरह दिन की रही है आप अपने शिष्य उपाध्याय मंगलकुम्भ को पट्टधर वना कर अन्तिम सलेखना में लग जाइये । सूरिजी ने देवी के षचन को 'तथाऽस्तु' कह कर उपाध्याय मंगलकुम्भ को पद प्रतिष्ठित करने का श्री संघ को सूचित कर दिया कि श्रीसंघ के आदेश से कुमहगोत्रीय शाह वरधा ने सूरिपद के महोत्सव में पाँच लक्ष द्रव्य खर्च कर उच्छव किया और आवार्यश्री ने चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय मंगलकुम्भ को अपने पट्टपर प्राचार्य बना कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया तथा उस अवसर पर और भी योग्य मुनियों को पदवियां प्रदान की । बाद चातुर्मास के वहाँ से बिहार कर आप खटकूप नगर पधार रहे थे वहाँ के श्रीसंघ ने आपका सुन्दर स्वागत किया । विशेषता यह थी कि यह आपके जन्मभूमि का नगर था जनता में बहुत हर्ष एवं उत्साह था सूरिजी अन्तिम सँलेखना तो पहले से ही कर रहे थे पर जब देवी के कथना. नुसार आपके आयुष्य के शेष ३२ दिन रहे तो सूरिजी ने चतुर्विध श्री संघ के सामने अनशन करने का कहा जिसको सुन कर संघ के हृदय को बड़ा ही आघात पहुँचा पर काल के सामने वे कर क्या सकते थे भाखिर सूरिजी महाराज ने आलोचना पूर्वक अनशन कर लिया और समाधि पूर्वक ३२ दिनों के अन्त में पांच परमेष्टी के स्मरण पूर्वक स्वर्ग धाम पधार गये । उस समय सकल श्री संघ ही नहीं पर नगर भर में शोक के काले बादल छा गये थे श्री संघ ने निरानन्द होते हुए भी सूरिजी के शरीर का संस्कार किया जिस समय श्रापके शरीर का अग्नि संस्कार प्रारम्भ हुआ उस समय आकाश से केसर के रंग का थोड़ा थोड़ा बरसाद हुआ था तथा चिता पर कुछ पुष्प भी गिरे जिसकी सौरम वायु से मिश्रित हो चारों और फैल गई थी श्री संघ के दुःख निवारणार्थ अदृश्य रहकर देवी ने कहा कि आचार्य देवगुप्त सूरि महान् प्रभावशाली हुए हैं आप सौधर्म देवलोक के सुदर्शन विमान में पधारे और एकाव करके मोक्ष पधार जायँगे। जिसको सुनकर भीसंघ में बड़ा ही आनन्द मनाया गया और आपके अग्निसंस्कार के स्थान एक सुन्दर बहुमूल्य स्तम्भ बनाया गया जो आपके गुणों की स्मृति करवा रहा था--- सूरीश्वरजी के शासन मे भावुको की दीक्षाएँ १-खटकूपनगर के बाप्पनाग गौ० शाह भाला ने सूरि० २-राहोप के श्रेष्टि गौ० रामा ने ३-रोडीग्राम के भूरि गौ० काना ने ५-सिन्धोड़ी ___ के भूरि गौ० कल्हण ने ५-मुग्धपुर के कुमट गौ० ६-गिलणी के कनोजिये। चतराने ७-मुकनपुर के चोरड़िया० चुड़ा मे ८-नागपुर के नाहटा गौ. जैता ने ९-नेताड़ी के गोलेचा० जसा ने १०-पद्मावती के तप्तभट्ट गौ० , गेंदा ने सरिजी के शासन में भावुकों की दीक्षाए चुनड़ ने Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] ११ - राजोली १२ —रूणावती १३ - मेदनीपुर १४ - जोगणीपुर १५ - विराटपुर १६ - गोवीन्दपुर १७- चन्द्रावती १८ - शिवपुरी १९ - पाल्हिका २०- स्तम्भनपुर २१- भरोंच २२- वर्द्धमानपुर २३- राजपुर २४-करणावती २५- सोपारपट्टन २६--भद्रपुर २७ - भोजपुर २८ - खरखोट २९ त्रीपुर ३० -- हापी ३१ - डामरेल ३२- नरवर ३३- मारोटकेट के बाप्पनाग के के के ४- डिडूपुर ५ - फलवृद्धि Jain Educ८९२emational के के के चोरड़िया० के के के के के के सुचंति गौ विरहट गौ० श्रेष्ट गौ० के के कुलभद्र गौ० श्री श्रीमाल आदित्यनाग० भाद्र गौ करणाट गौ० लुंग गौ० लुंग गौ० मल्ल गौ० सुघड़ गौ० लघुश्रेष्टि डिडू गौ प्राग्वदवंशी "3 99 ว " 93 "" 95 के श्रीमाल वंशी के के 99 93 श्रीश्रीमाल गौ० १ - माडव्यपुर से डिहूगोत्री शाह २ - मेदनीपुर से करणाटगौत्री शाह ३ - रुणावती से चिंचटगौत्री शाह उपकेशवंश एवं महाजन संघ के अलावा भी पास पुरुष एवं स्त्रियों ने गहरी तादाद में दीक्षा ली थी साध्वियों अनेक प्रान्तों में विहार कर रहे थे । शाह से बलाहगोत्री शाह से चाड़गौत्री शाह 39 33 39 35 39 19 19 91 33 99 "" 99 35 19 99 39 39 "" 99 39 19 रावल ने रामा ने रांगा ने सारंग ने गुणपाल ने सुलना ने नारा ने सरवण ने संगणने साश ने मोटा ने मेकरण ने माल्ला ने लाखण ने लाला ने करमण ने धन्ना ने [ ओसवाल संवत् ८८० - ९२० दीक्षा सूरि "" 39 39 99 "3 99 "1 33 "1 " "9 63 "" 13 19 "" सालग ने धंधल ने धूरड़ ने डाबर ने बाल्हण ने फागुं ने श्राखा ने वागा ने 19 "" 39 भूता ने कई प्रान्तों में सूरिजी एवं आपके शिष्य समुदाय के यही कारण है कि आपके शासन में हजारों साधु "" 33 $3 " "" "" "" 39 "1 79 19 19 39 33 99 99 19 19 19 39 "" "" आचार्य देव के शासन में तीर्थों के संघादिसद कार्य कालिया ने श्रीजय का संघ निकाला पुनड़ने "" "" 13 93 39 "" 33 19 " 39 " 99 [ सूरिजी के शासन में तीर्थों के संघ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ४८० – ५२० वर्षे ] ६ - देवपट्टन सेलुंगगोत्री ७ - श्राघाट नगर से श्रेष्टिगौत्री से बालनाग० ८-दशपुर ९ - चन्देरी १० -हासारी ११ - वीरपुर १२ - कीटकूप से १३ - सोपारपट्टन से १४ - मथुरा से १५-सजनपुर १६ - गगनपुर १७ - सोनपुरा १८ - उपकेशपुर १९ - हर्षपुर २० - क्षत्रीपुर से बलादगौ० से सुचंती गौ से से से शाह शाह शाद से शाह शाह मोरक्ष गौ० शाह प्राग्वट वंशी प्राग्वट वंशी श्रीमाल वंशी शाह से भाद्र गौत्रीय शाह कुमट गौ० शाह सुचंती गौ० शाह श्रीश्रीमाल गौ० शाह शाह शाह १ - शाकम्भरी नगरी के डिङ्गौत्री २ - हंसावली नगरी के बाप्पनाग० १३- पदमावती नगरी के श्रेष्टि गौ० ४ - रूपनेर के आदित्यनाग गौ० ५ - हरनाई के चरड गौत्रीय ६- घोलापुर के लुंग गोत्रीय ७ - चन्द्रपुर के बाप्पनाग गौ० 33 मंत्री कानड़ 99 धरमण ने फूवा ने शाह खुमाण राजसी 39 लाखण ने भीमदेव ने पूर्ण ने मुकुन्द ने नागदेव ने खेतसी ने [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्री शत्रुंजय का संघ निकाला सहरण ने गोकल ने खीमसी ने नाथा ने नारायणने " सूरिजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ गोपाल के शांखला के 99 " त्रिभुवन के " 39 99 99 95 "" लाला युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई "3 39 39 "3 "3 " " का कुलचन्द्रगौत्री मंत्री का श्रेष्ठि गौत्री का मल्ल गौत्री शाह राधो २१- राजपुर २२ -- चन्द्रावती का प्राग्वट वंशी २३ – उपकेशपुर का बलाह गोत्री २४ - नारदपुरी का प्राग्वटवंशी शाह जुजार २५- शिवगढ़ का श्रेष्ठ गौत्री सलखण २६-नागपुर का अदित्य नाग--मंत्री दूधा की स्त्री रेवती ने तलाब खुदाया २७ - विजयपुर का सुचंति शाह वीरम की विधवा पुत्री ने तलाब खुदाया "" 39 इत्यादि जनोपयोगी कार्यों में जैन श्रावकों ने लाखों करोड़ों रूपये खर्च कर देश सेवा की जिनका उपकार कभी भूला नहीं जा सकता है । 99 "" 39 "" " 33 19 श्राचार्य श्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा एं शाह रूधा के बनाये मन्दिर की प्रतिष्ठा माल्ला के महावीर खेमा के देश के 33 39 "" 99 39 99 पार्श्व " " 39 "" "" ג " 19 "" 39 99 39 " " 99 99 "9 33 " "" === " 39 "" 19 29 "" 33 29 35 "" 99 39 " "2 करवाई "" "2 19 39 "" 19 ८६३ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्त सूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८८०-१२० पाव ८-लासोड़ी के नाहटा जाति शाह पाता के बनाये । मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई ९-रूणावती के गोलेचा जाति , पेथा के श्रादि. १०-दादोती के रांका जाति ,, ठाकुरसी के शान्ति ११-पोतनपुर के भद्रगोत्रीय खीवसी के नेमिनाथ १२-खीखोड़ी के भूरिगोत्रीय राजड़ा के महावीर १३-उच्चकोट के कुमटगोत्रीय ___ भादू के १४-चोट के करणाट गौर जिनदेव के १५-कालोड़ी के सुचंति गौ० नानग के १६-नागपुर के डिडू गौत्री० पोलाक के चन्द्रप्रभ १७-उपकेशपुर के श्रेष्ठिगौत्री० हरपाल के वासुपूज्य १८ - देवपट्टन के भाद्रगोत्रीय भाद के अजित १९-प्राघाट के तप्तभट्ट गो. ऊकार के महावीर २०-श्रीनगर के प्राग्वट गौ० पारस के २१- शालीपुर के प्राग्वट गौत्री आनन्द के २२-जागोड़ा के श्री श्रीमाल गौर , आखा के , श्री सीमंधर ,, २३-चेनापुर के श्रीष्टिगोत्री , चिंचगदेव , नन्दीश्वर पर , २४-पोलीसा के पोकरणा जाति , फूलाणी के , महावीर , इत्यादि यह तो केवल नाममात्र वंशावलियों पट्टावलियों से ही लिखा है पर उस जमाने के जैनियों की मन्दिर मूर्तियों पर इतनी श्रद्धा भक्ति और पूज्य भाव था कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिन्दगी में छोटा बड़ा एक दो मन्दिर बना कर दर्शन पद की आराधना अवश्य किया करता था यही कारण था कि उस समय उच्च २ शेखर और सुवर्णमय दंड कलस वाले मन्दिरों से भारत की भूमि सदैव स्वर्ग सदृश चमक रही थी। प्राचार्य देवगुप्तसूरि एक महान् युगप्रवर्तक युगप्रधान आचार्य हुए हैं इन्होंने ४० वर्ष के शासन में जो शासन के कार्य किये हैं उनको वृहस्पति भी कहने में समर्थ नहीं है। यह कहना भी अतिशय युक्ति पूर्ण न होगा कि उस विकट परिस्थिति में जैनाचार्यों ने जैन धर्म को जीवित रखा था कि आज हम मुख-पूर्वक जैन धर्म की आराधना कर रहे हैं ऐसे महान् उपकारी आचायों का जितना हम उपकार माने थोड़ा है मैं तो ऐसे महापुरुषों को हार्दिक कोटि कोटि वार धन्यवाद देता हूँ एवं वन्दन करता हूँ। चौंतीसवे पट्टधर देवगुप्तसरि, सूरि सूरिगुण भूरि थे। पूर्वधर थे ज्ञान दान में कीर्ति कुवेर सम पूरि थे । देववाचक को दो पूर्व दे पद क्षमाश्रमण प्रदान किया। करके आगम पुस्तकारूढ़, जैन धर्म को जीवन दिया । इतिश्री भगवान पार्श्वनाथ के ३४वें पट्ट पर आचार्य देवगुप्त सूरि महा प्रभावी प्राचार्य हुए । Jain Education Engional For Private & Personal use only [ आचार्य देवगुप्त सूरि का स्वर्ग PARAMPARAN Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०–५५८ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३५-प्राचार्यश्री सिध्दसूरीश्वरजी (षष्टम्) सिद्धाचार्य इहाभवद्विरहटे गौत्रे सुशोभायुत : । सम्मेतं विदधौ धनेन शिखिरं संघं तु कोट्यासुधीः । निर्वाणालय नाके चम विहितो दीक्षायुतो यःस्वयं । नित्यं जैनमतं प्रचार्य बहुधा रव्यातोऽसको जातवान् । ADS OD . (SEDIO चार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज एक प्रभावोत्पादक सिद्धपुरुष आचार्य थे आपश्री ..अपने कार्य में बड़ेही सिद्धहस्त एवं जैनधर्म के प्रखर प्रचारक थे । आपश्री या वर्तमान जैन साहित्य एवं व्याकरण न्याय तर्क छन्द काव्य अलङ्कार ज्योतिष गणित और अष्टमहानिमित के पारगत थे आसन योग समाधी एवं स्वरोदय तथा @@ अनेक विद्या लब्धियों को आपने हस्तामलक की तरह कर रक्खी थी । आपश्रीजी HW जैसे ज्ञानके समुद्र थे वैसे ही ज्ञानदान करने में धन कुबेर भी थे यही कारण था कि स्वगच्छ परगच्छ के अलावे बहुत से जैनेतर विद्वान भी आपश्री की सेवा में रहकर रूचि पूर्वक ज्ञाना ध्ययन किया करते थे। शास्त्रार्थ में तो आपश्रीजी इतने निपुण थे कि कई राजा महागजाओं की सभाओं में वादियों को परास्त कर ऐसी धाक जमादीथी कि वे सिद्धसूरि का नाम श्रवणमात्र से दूरदूर भागते थे। आपके पूर्वजों से स्थापित की हुई शुद्धि की मशीन चलाने में तो आप चतुर ड्राइवर का ही काम करते थे, आपश्री का विहार क्षेत्र इतना विशाल था कि प्रत्येक प्रान्त में आपका विहार हुआ करता था श्रापने अनेक भावुकों को दीक्षा दी लाखों मांसमदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित किये और भविष्य की प्रजा के लिये कई प्रन्थों की रचनाएं भी आपश्री ने की आचार्य सिद्धसूरि अपने समय के एक युगप्रवर्तक आचार्य हुए है आपका पुनीत जीवन पूर्णरहस्यमय एवं जनकल्याणार्थ ही हुआ था पट्टावलीकारों ने श्रापश्री का जीवन खूष विस्तार से लिखा है पर प्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैं यहां पर केवल आपश्री के जीवन का संक्षिप्त दिग्दर्शन करवा देता हूँ। भारत के विभूति रूप वीरप्रसूत मेदपाट भूमि के भूषण चित्रकोट नामका रम्य एवं विशाल नगर था कवियों ने तो यहां तक ओपमा दे डाली है कि चित्रकोट सदैव स्वर्ग की ही स्पर्धा करता था परन्तु जहाँ अनेक प्रकार का रसवती-खादापदार्थ पैदाहोता हो व्यापार का केन्द्र हो और जहाँ के निवासी पर द्रव्यग्रहण करने में पंगु, पर रमणी देखने में प्रज्ञाचक्षु, पर निंदा करने में मूक और पर अपवाद सुनने में बेहरे हो वहाँ स्वर्ग क्या अधिकताइ रखता है कारण स्वर्ग में इन सब बातों का आस्तित्व विद्यमान है अतः चित्रकोट की वगवरी स्वर्ग स्यातही करसके ? वहां के प्रजाजन अच्छे लिखेपढ़े उद्योगी एवं परिश्रम जीवी अपना जीवन सुखशान्ति से व्यतीत कर रहे थे चित्रकोट की जनता के कल्याण के लिये उच्च २ शिखर व सोने के दंडकलस वाले जिनमन्दिर थे उनकी सेवा पूजा भक्ति करने वाले हजारों लाखोंभक्तलोग तनधन से सम्रद्धशाली बसते थे वे कई गजके मंत्री महामंत्री सैनापति वगैरह पद प्रतिष्ठित भी थे और अधिक लोग व्यापारी थे उनकाव्यापार केवल आचार्य श्री सिद्ध सरिका जीवन ] ८९५ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ अपने पिच्छे रहे हुए धन दिलाया और कहाकि 'जो भारत में ही नहीं पर पाश्चात्य प्रदेशों में यथ्याबद्ध चलता था और उसमें वे पुष्कलद्रव्योपार्जन करते थे यही कारण है कि वे एक एक धर्म कार्य में लाखों करोड़ों द्रव्य लगाकर जैनधर्म की वृद्धि एवं प्रभावना किया करते थे उन व्यापारियों में विरहट गौत्री दिवाकर शाहा ऊमा भी एक था आपका व्यवसाय वहुत विशाल था श्राप के १२ पुत्र र ८ पुत्रियां तथा और भी बहुतसा कुटम्ब परिवार था आपका व्यापार भारत के अलावा पाश्चात्य प्रदेशों में भी था कई द्वीपोंमें तो आपकी दुकानें भी थी अर्थात शाह ऊमा एक प्रसिद्ध पुरुष था शाह ऊमाके गृहदेवी का नाम था नाथी शाहऊमाके १२ पुत्रों में एक सारंग नाम का पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली एवं होनहा था सारंग व्यापारार्थ कई वार विदेशों की मुसाफरी कर आया था और उसने करोड़ों रुपये व्यापार में पैदा भी किये था एकबार सारंगने जहाजों में करोड़ों रुपयों का माल लेकर विदेशमें जाने के लिये प्रस्थान कर दिया जब उनकी जहाज समुद्र के बीचआई तो एक दम समुद्र तूफान पर आ गया सारंगने सोचाकी वायु वगैरह का कोई भी कारण नहीं फिर यह उपद्रव क्यो हो रहा है ? सारंग अपने धर्म में खूबदृढ़ श्रद्धावाला था देव गुरु धर्म पर उसका पूर्ण विश्वास था देवी सच्चायिका का श्रापको इष्ट भी था जहाजों के सब लोग घबराने लगे और वे चल कर सारंग के पास आये सारंग ने उन अधीर लोगों कों धैर्य दिलाते हुए कहा महानुभावों ! आप जानते हो कि “जं जं भगवयाद्दीद्वा तं तं पणमिसन्ति” इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो जो भगवान भाव देखा है वह तो हुए विगर नहीं रहेगा फिर सोच किक्र करने से क्या होने वाला है व्यर्थ श्रार्तध्यानकर कर्म क्यों बांधा जाय । जहाज के लोगों ने अपने कुटम्ब की चिन्ता का हाल सारंग को सुनाया। सारंग ने उन सब को पुनः धैर्य होता है वह अच्छे के लिये होता है" किसी ने कहा सेठ साहिब श्रापका कहना भले ठीक हो परन्तु केवल निश्चय पर बैठ जाने से ही काम नहीं चलता है पर साथ में उद्यम भी तो करना चाहिये । सारंग ने कहा कि उद्यम भी तो निश्चय के पीछे ही होता है मैं ठीक कहता हूँ कि "जो होता है वह अच्छे के लिये ही होता है" लीजिये मैं आपको एक उदाहरण सुनाता हूँ बसंतपुर नगर के राजा जयशत्रु की किसी समय हाथ की एक अंगुली कटगई जिसके लिये राज सभा के लोगों ने बहुत फिक्र किया परन्तु राजाके एक शुभचिन्तक मंत्री के मुंहसे सहसा निकल या "जो होता है वह अच्छे के लिये" सौ सज्जनों में एक दो दुर्जन भी मिल जाते है अतः एक दुर्जन ने राजा से कहा कि आपकी अंगुली कटजाने का सबको दुःख है पर आपके शुभचिन्तक मंत्री को थोड़ा भी दुःख नहीं हुआ है इतना ही क्योंपर मंत्री तो श्रापकी अंगुली कटने को अच्छा बतलाता है इस पर राजा मंत्री पर नाराज हो गया किन्तु राजा के हृदय में मंत्री के लिये इतना स्थान अवश्य था कि मंत्री ज्ञानी है शास्त्रों का जानकार एवं धर्मीष्ट है अतः वह मंत्री को कुच्छ भी नही कहसका । एक समय राजा एवं मंत्री जंगल की ओर हवा खोरी के लिये गये पर वे एक उजाड़ में जा पड़े तो राजाको प्यास लगी मंत्री राजा को एक माड़ की शीतल छाया में बैठाकर आप पानी लेने को गया । भाग्यवशात् उस ही दिन देवी की कमल पूजा थी शूद्र लोग एक बतीस लक्षण वाले पुरुष की खोज में घूम रहे थे वे चलते चलते राजा के पास आये और राजा की सूरत देख निश्चय कर लिया कि यह बतीस लक्षण वाला पुरुष देवी को बलि देने योग्य है वस घातकी लोग राजा को पकड़ कर देवी के मन्दिर पर ले आये उस जंगल में सैकड़ों निर्दय दैत्यों के सामने राजा कर भी तो क्या सकता था ? परन्तु पिच्छे से मंत्री ने आकर देखा तो राजा नहीं उसने उत्पातिक बुद्धि से सब हाल जान लिया उसने दूर से ही वेश छोड़ कर एक भीलसा रूप बना कर देवी के मन्दिर में चला गया और Jain Educa९६mational For Private & Personal use [ सारंग की प्रतिज्ञा और देव का उपसर्ग Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२० - ५५८ वर्ष 1 [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उन घातकी लोगों के साथ मिल गया । जब देवी के सामने राजा की बलि देने की तैयारी हुई तो मैना के वेश वाले मंत्री ने कहा कि जिसकी बलि दी जाती है उस के सब गोपाग तो देख लिये हैं या नहीं ? यदि कोई अंगोपांग खण्डित हुआ तो देवी कोप कर सव मार डालेगी। बस इतना सुनकर राजा का शरीर देखने लगे तो उसकी एक अंगुली कटी हुई पाई तब सबने कहा कि इस खण्डित पुरुष की बलि देवीको नहीं दी जा सकती है इसको जल्दी से निकाल दो । बस फिर तो क्या देरी थी राजा को शीघ्र ही हटा दिया । जब राजा अपनी जान बचाने की गरज से देवी के मन्दिर से चूपचाप चल पड़ा तथा अवसर का जान मंत्री भी किसी बहाने से as से निकल गया और आगे चल कर वे दोनों मिल गये । राजाने कहा मंत्री तू ने आज मेरी जान बचाई है। मंत्री ने कहा नहीं हजूर 'जो होता है वह अच्छे के लिये ही होता है' राजाकी अकल ठीकाने गई और नगर में आकर मंत्री को एकलक्ष सुवर्णमुद्रिका इनाम में दी । ठीक है दुखी लोगों का समय ऐसी बातों में ही व्यतीत होता है । सारंग ने कहा महानुभावों ! आप ठीक समझ लीजिये कि 'जो होता है वह अच्छा के लिये है' इस पर आप विश्वास रक्खें यह आपकी कसौटी परीक्षा का समय है । जहाज के सब लोगों ने सारंग के कहने पर विश्वास कर लिया और यह देखने की उत्कण्ठा लगने लगी कि देखें क्या होता है ? - थोड़ी देर हुई कि उपद्रव ने और भी जोर पकड़ा अब तो लोग विशेष घबराये । सारंग ने सोचा कि धन्य है संसार त्यागियों साधुओं को कि जो संसार की तृष्णा त्यागकर व दीक्षा लेकर अपना कल्याण कर रहे है। यदि मैं भी दीक्षा ले लेता तो इस प्रकार का अनुभव मुझे क्यों करना पड़ता यद्यपि मुझे तो इस उपद्रव से कोई नुकसान नहीं है कारण यदि इस उपद्रव में धन या शरीर का नाश हो भी जाय तो यह मेरी निजी वस्तु नहीं है तथा इनका एक दिन नाश होना ही है परन्तु विचारे जहाज के लोग जो मेरे विश्वास पर आये हैं; आर्तध्यान कर कमोंपार्जन कर रहे है यद्यपि इस प्रकार के आर्तध्यान से होना करना कुच्छ भी नहीं है पर अभी इनको इतना ज्ञान नहीं है। खैर मेरा कर्तव्य है कि मैं इनकों ठीक समझाऊँ । अतः सारंग ने उन लोगों को संसार की असारता एवं उपद्रव के समय मजबूती रखने के बारे में बहुत समझाया पर विपत्ति में धैर्य रखना भी तो बड़ा ही मुश्किल का काम है इतना ही क्यों पर इस विकटावस्था को देख सूर्यनारायण भी अस्ताचल की ओर शीघ्र पलायन करगया जब एक ओर तो रात्रि के समय अन्धकार ने अपना साम्राज्य चारों ओर फैला दिया तब दूसरी ओर जहाजों का कम्पना एवं चारों ओर गोता लगाना तीसरी ओर किसी धार्मिक देव का अट्टहास्य करना इत्यादि की भयंकरता से सबके कलेजे काम्पने लग गये जब लोगों ने प्रार्थना की कि यदि कोई देव दानव हो तो हम उनके हुक्म उठाने को तैयार हैं ? इस पर देव ने कहा कि तुम लोगों ने जहाजों को चलाया परन्तु प्रस्थान के समय हमारे बल बाकुल नहीं दिया है अत: तुम्हारी किसी की कुशल नहीं है अब तो सब लोग सारंग के पास आये और बलि देने की प्रार्थना की इस पर सारंग ने कहा हम अनेक बार जहाज को लाये और लेगये पर बलि कभी नहीं दी और अब भी नहीं दी जायगी हाँ जिसको बलि की आवश्यकता हो वह हमारे शरीर की बलि ले सकता है देव ने कहा तुम अनेक वार जहाजों को लाये होंगे पर इस रास्ते से जो कोई जहाजों को लाता या लेजाता है वह विना बलि दिये कुशल नहीं जाता है अतः अब भी समय है यदि तुम कुशल रहना चाहते हो तो बलि चढ़ा दो । जहाज के लोगों ने कहा सारंग ! यदि एक जीव की बलि के कारण सब जहाज के लोग सुखी होते हों तो आपको हट नहीं करना चाहिये और इस कार्य में आप लोगों को पाप लगने का भय हो तो 1. समुद्र में सारंग की कसोटी का समय ] Jain Education Intonal ८६७ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२० - ९५८ वह सब पाप हमको लगेगा आप बलि देकर हम सबको सुखी बनाइये । सारंग ने कहा कि आपको अभी न तो तात्विक ज्ञान है और न पाप पुन्य का भी भान है । आपतो केवल अपना स्वार्थ करना ही जानते हैं भला मैं आपसे ही पूछता हूँ कि आपके अन्दर से अपने प्राणों की बलि देने को कौन २ तय्यार हैं ? बस सबने मुंह मोड़ लिया । सारंग ने कहा देखिये जैसे आपको अपने प्राण प्रिय हैं वैसे ही सब जीवों के प्राण उनको भी प्रिय है भला केवल अपने स्वल्प स्वार्थ के लिये दूसरों के प्राण नष्ट कर देना कितना अन्याय है इस प्रकार बातें हो रही थी इतने में तो देव हाथ में तलवार लेकर सारंग के पास आया और कहा कि - अरे मेरी आज्ञा का भंग करने वाला सारंग ! बोल तेरा कितना खण्ड करू ? और तेरे जहाज को अभी समुद्र में डुबा दूंगा, इत्यादि भयंकर शब्दों से सारंग पर जोरों से आक्रमण किया । सारंग ने कहा कि मेरा खंडखंड करदे इसका तो मुझे तनिक भी रंज नहीं है पर देव ! आपकी मुझे बड़ी दया श्रा रही है कि पूर्व जन्म में तो बहुत जीवों को आराम पहुँचाया है कि जिस पुन्य से तुमने देवयोनि को प्राप्त की है और इस देवयोनि में इस प्रकार क्रूर कर्म करते हो तो इससे न जाने आपकी क्या गति होगी ? मैं जानता हूँ कि देव दानव इस प्रकार न तो बलि लेते हैं और न ऐसे घृणित पदार्थ देवताओं के काम ही आते हैं फिर समझ में नहीं आता है कि यह निरर्थक कर्म क्यों बान्धा जाता है इत्यादि मार्मिक शब्दों में ऐसा उपदेश दिया कि जिससे देव का भ्रम दूर हो गया और उसने कहा सारंग ! आज प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब मैं किसी जीव की बलि नहीं लूंगा और आज से मैं आपको अपना गुरु समरंगा | कृपा कर आप मुझे ऐसा कार्य फरमावें मैं उसको करके आपके उपकार रूपी ऋण को थोड़ा हलका कर दूं । सारंग ने कहा देव ! आप स्वयं ज्ञानवान हैं फिर भी आप ने बलि न लेने की प्रतिज्ञा की है यह हमारा बड़ा से बड़ा काम किया है दूसरा तो मेरे निज के लिये कुच्छ भी ऐसा काम नहीं है कि श्राप से करवाया जाय । तथापि देवता ने कृतार्थ बनने के लिये एक दिव्य हार सारंग को दे दिया और कहा खारंग इस हार के प्रभाव से जहाज समुद्र में डुवेगा नहीं, चोर पास में श्रावेगा नहीं, और संग्राम में कभी पराजित होगा नहीं बाद देवता सारंग को नमस्कार कर के चला गया । जहाज वाले सब लोग सारंग की दृढ़ता से उसकी विजय को देख मुग्ध बन गये और सारंग के चरणों में नमन कर के उनकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । सारंग ने कहा कि आप लोग भी अपने धर्म पर इसी प्रकार दृढ़ता रखा करो कारण सब पदार्थ मिलते हैं पर एक धर्म मिलना मुश्किल है इत्यादि उपसर्ग शान्त होने के बाद जहाजें चली सब लोग इच्छित स्थान पर पहुँच गये उन जहाजों के माल विक्रय से सारंग एवं अन्य व्यापारियों को बहुत मुनाफा रहा और सकुशल सब लोग अपने नगर को पहुँच गये - एवं सुख से रहने लगे । आचार्य देव गुप्तसूरि धर्मोपदेश करते हुए एक समय चित्रकोट की ओर पधार रहे थे वहां के श्री संघ को खबर मिली तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा क्रमशः श्रीसंघ ओर से सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव किया गया सूरिजी ने मंगलाचरण के बाद थोड़ी पर सार गर्भित देशना दी शाह ऊमा एवं सारंग वगैरह में तो सूरिजी की सेवा में रह कर अपना कल्याण सम्पादन करने लगे एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान संसार की असारता लक्ष्मी की चंचलता कुटम्ब की स्वार्थता आयुष्य की अस्थिरता और शरीर की क्षण भंगुरता पर बड़ा ही प्रभावोत्पादक व्याख्यान दिया । साथ में यह भी बतलाया कि महानुभावों ! श्राम कल्याण के लिये जो इस समय सामग्री मिली है वह बार बार मिलनी बहुत कठिन है। यदि उत्तम सामग्री ८६८ Jain Education international [ सारंग का उपदेश और हार की प्राप्ति Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्षे ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के होते हुए भी आत्महित न किया जाय तो लोहाबनियं की भांति पश्चाताप करना पड़ेगा अतः समय जा रहा है जिस किसी को चेतना हो चेत लो हम लोग पुकार पुकार के कह रहे हैं इत्यादि । यों तो सूरिजी के उपदेश का बहुत भावुकों पर असर हुआ पर विशेष शाह ऊमा के पुत्र सारंग पर तो इतना प्रभाव पड़ा कि संसार से विरक्त हो सूरिजी के चरणों में दीक्षा लेने का उसने निश्चय कर लिया । इधर शाह ऊमा को भी वैराग्य हो आया पर जब उसने कुटुम्ब की ओर दृष्टि डाली तो उसको मोह राजा के दूतों ने धार लिया। खैर व्याख्यान समाप्त होने पर सब लोग चले गये । सारंग भी अपने घर पर आया और अपने मातापिता से कहा कि मेरी इच्छा सूरिजी के पास दीक्षा लेने की है यह देवदत्त हार वगैरह सब संभाले । ऊमा की श्रात्मा में पुनः वैराग्य की ज्योति जाग उठी और उसने कहा सारंग ! मैं दीक्षा लूगा तूं घर में रह कर कुटुम्ब का पालन कर ? सारंग ने कहा पूज्य पिताजी ! बहुत खुशी की बात है कि आप दीक्षा ले रहे है पर मेरा भी तो कर्तव्य है कि मैं आपकी सेवा में रहूँ । तथा आप कुटुंब का फिक्र क्यों करते हो सब जीव अपने-अपने पुन्य साथ में लेकर ही आये हैं इनके लिये आपका मोह व्यर्थ है आप तो दीक्षा लेकर अपना कल्याण करे । बस शाह ऊमा और सारंग ने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया इस बात की खबर कुटुम्ब बालों को मिली तो वे कब चाहते थे कि शाह ऊमा एवं सारंग जैसे हमको तथा हमारे सव कार्यों को छोड़ कर दीक्षा लेलें । सेठानीजी ने अपने पति एवं पुत्र को समझाने की बहुत कोशिश की पर जिन्होंने ज्ञान दृष्टि से संसार को काराग्रह जान लिया हो वे कब इस संसार रूपी जाल में फंस कर अपना अहित कर सकते हैं, आखिर शाह ऊमा के चार पुत्र और स्त्री दीक्षा लेने को तैयार हो गये इतना ही क्यों पर कई ३७ नर-नारी और भी दीक्षा के लिये उम्मेदवार बन गये शाह ऊमा के पुत्र ने लाखों का द्रव्य व्यय कर दीक्षा का बड़ा ही समारोह से महोत्सव किया और शुभ मुहूर्त एवं स्थिर लग्न में सारंगादि ४२ नरनारी को भगवती जैन दीक्षा देकर उन सबका उद्धार किया और सारंग का नाम मुनि शेखरप्रभ रख दिया इस प्रभावशाली कार्य से जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई और इस प्रभावना का प्रभाव कई जैनेत्तर जनता पर भी हुआ कि बहुत से लोगों ने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया उन सबको महाजन संघ में सम्मिलित कर दिया । अहा-हा वह कैसा जमाना था कि जैनाचार्य जिस प्रान्त में पदार्पण करते उसी प्रान्त में जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत होता था जैनेतरों को जैन वनाना तो उनके गुरु परम्परा ही से चला आ रहा था यही कारण है कि महाजन संघ की संख्या लाखों की थीं वह करोड़ों तक पहुँच गई थी और श्रमण संघ की संख्या भी बढ़ती गई कि कोई भी प्रॉत ऐसा नहीं रहा कि जहाँ जैनश्रमणों का बिहार नहीं होता हो क्या आज के सूरीश्वर इस बात को समझेंगे ? जिस समय शाह ऊमा और सारंग गृहस्थ वास में थे उस समय उनकी इच्छा श्रीसम्मेतशिखरजी का संघ निकाल यात्रा करने की थी परन्तु सूरिजी के उपदेश से उन्होंने वैराग्य की धून में दीक्षा ले ली फिरभी आपके दिल में यात्रा करने की उत्कृष्टता ज्यों की त्यों वृद्धि पा रही थी शाह ऊमा ने दीक्षा ली तो उसका नाम उत्तमविजय रखा गया था उसने अपने पुत्र पुनड़ को उपदेश दिया और उसने बड़ी खुशी के साथ सम्मेत शिखरजी का संघ निकालना अपना अहोभाग्य समझ कर स्वीकार कर लिया बस फिर तो कहना ही क्या था ? शाह पुनड़ बड़ा ही उदार दिल वाला था उसने श्राचार्य देवगुप्तसूरि की सम्मति लेकर संघ आमन्त्रण की पत्रिकाए खूब दूर-दूर भिजवादी पट्टावलीकार लिखते हैं कि शाह पुनड़ के संघ सारंग का वैराग्य और पिता के साथ दीक्षा ] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-६५८ में करीब डेढ़ लक्ष यात्री, एकबीस हस्ती, तीन राजा, और चार हजार साधु-साध्वियें थीं शाह पुनड़ ने इस संघ के निमित्त एक करोड़ द्रव्य व्यय कर जैनधर्म की उन्नति के साथ आत्म कल्याण किया संघ सानंद यात्रा कर वापिस लौट आया और आचार्य देवगुप्तसूरि ने श्री सम्मेतशिखर की यात्रा कर अपने मुनियों के साथ पूर्व बंगाल कलिंग में कई अर्से तक बिहार किया जिससे जैनधर्म का प्रचार हुआ और कई बौद्धों को जैनधर्म की दीक्षा भी दी। मुनि शेखरप्रभ ने सूरिजी की सेवा में रहकर वर्तमान साहित्य का गहरा अध्ययन कर लिया इतना ही क्यों पर आप सर्वगुण सम्पन्न हो गये यही कारण है कि आचार्य देवगुप्तसूरि भू भ्रमण करते हुए मथुरा में पधारे और वहां देवी सच्चायिका की सम्मति से एवं वहां के श्रीसंघ के प्रति अाग्रह से मुनि शेखरप्रभ को सूरि मंत्र की आराधना करवा कर सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया । __ श्राचार्य सिद्धसूरि एक महान् प्रतिभाशाली श्राचार्य हुए आपके शासन समय में जैनधर्म अच्छी उन्नति पर था जैनों की संख्या भी करोड़ों की थी विशेषता यह थी कि आपके आज्ञावर्ती हजारों साधुसाध्वियें अनेक प्राम्तो में बिहार कर धर्म-प्रचार बढ़ा रहे थे ऐसा प्रान्त शायद ही बचा हो कि जहाँ जैन साधु साध्वियों का विहार न होता हो । दूसरा उस समय के आचार्यों एवं साधुओं में गच्छभेद मतभेद क्रियाभेद भी नहीं था और किसी का लक्ष भेदभाव की ओर भी नहीं था वे आपस में मिल-मुल कर धर्म प्रचार को बढ़ा रहे थे वादियों को परास्त करने में वे सबके सब एक ही थे यही कारण है कि ऐसी बिकट परिस्थिति में भी जैनधर्म जीवित रहकर गर्जना कर रहा था उस समय उपकेशगच्छाचायों का विहार क्षेत्र बहुत विस्तृत था मरुधर लाट सौराष्ट्र कच्छ सिन्ध पंजाब शूरसेन पंचाल मत्स्य बुलंदखण्ड श्रावंती और मेदपाट तक उपकेशगच्छीय साधुओं का विहार होता था कभी-कभी महाराष्ट्र तिलंग बिदर्भ श्रीर पूर्व तक भी उपके शगच्छा. चार्य विहार किया करते थे तब वीर सन्तानियों का विहार श्रावंती सौराष्ट्र मेदपाट मरुधर वगैरह प्रदेशों में होता था और कोरंटगच्छाचार्यों का विहार आबू के आस-पास का प्रदेश और कभी कभी मथुरा तक भी होता था बहुत बार इन साधुओं की आपस में भेंट होती और परस्पर शामिल भी रहते थे परन्तु जनता यह नहीं जान पाती कि ये पृथक २ समुदाय के साधु हैं कारण उनके बारह ही संभोग शामिल थे विनय भक्ति का व्यवहार तो इतना उत्तम था कि पृथक पृथक् प्राचार्यों के शिष्य होने पर भी वे एक गुरु के शिष्य ही दीख पड़ते थे ठीक है जिस गच्छ समुदाय व्यक्ति के उदय के दिन प्राते हैं तब ऐसा ही सम्प ऐक्यता रहती है । प्राचार्य सिद्धसूरिजी महाराज धर्मप्रचार करते हुए एक समय चन्द्रावती की और पधार रहे थे यह संवाद वहां के श्रीसंघ को मिला तो उनके उत्साह का पार नहीं रहा अतः उन्होंने सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़े ही समारोह से महोत्सव किया सूरिजी ने मन्दिरों के दर्शन कर सारगर्भित देशनादी जिसका जनता पर काफी प्रभाव हुआ इस प्रकार सूरिजी का व्याव्यान हमेशा होता था चन्द्रावती नगरी में एक सालग नामका अपार सम्पति का मालिक व्यापारी सेठ रहता था वह था वैदिकधर्मानुयायी । उसको ऐसी शिक्षा मिलती थी कि जैन धर्म नास्तिक धर्म है वैदिकधर्म की जड़ उखाड़ने में कट्टर है अतः जैनों की संगत करना भी नरक का मेहमान बनना है इत्यादि सेठ सालग भद्रिक था उन उपदेशकों की भ्रान्ति में आकर वह जैनों से बहुत नफरत करता था। जब सिद्धसूरि नगरी में पधारे और उनकी प्रशंसा सर्वत्र फैल गईथी तब कइ जैन व्यापारियों ने सेठ सालग को कहा कि एक दिन चलकर व्याख्यान तो सुनो ? अतः उनकी लिहाज से सेठ सालग व्याख्यान में आया [ मथुरा में मुनिशेखर को सरिपद wwruinne................. 800 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्षे ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उसदिन सूरिजी खास तौर पर धर्मों के लिये ही व्याख्यान देरहे थे कि इस भरतक्षेत्र में धर्म की नाव चलाने वाले सबसे पहले भगवान ऋषभदेव हुए हैं और उनकी शिक्षा को ग्रहनकर चक्रवर्ती भरत ने चारवेदों का निर्माण किया था और उन वेदोंका अधिकार निलोभी निरहंकारी परोपकार परायण ब्राह्मणों को इस गरजसे दिया कि तुम इन वेदों की शिक्षा द्वारा जनता का कल्याण करो। जबतक ब्राह्मणों के हृदय के अन्दर निस्पृहता और उपकार बुद्धि रही वहां तक तो उन वेदों द्वारा जनता का उपकार होता रहा पर जबसे ब्राह्मणों के मन मन्दिर में लोभ रूपी पिशाच घुसा उन दिनों से ही ब्राह्मणों ने उन पवित्र वेदों की श्रुतियों को रहबदल कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दुनिया को लूटना शुरू करदिया इतना ही क्यों पर पूज्य परमात्मा के नाम से वेदों में यज्ञादि का ऐसा क्रियाकाण्ड रच लिया कि विचारे निरापराधी मूक प्राणियों के मांस से अपनी उदर पूर्ति करना शुरू कर दिया परन्तु यह बात एक सादी और सरल है कि क्या परमात्मा ऐसा निष्ठुर हुक्म कभी देसकते है कि तुम इन प्राणधारी प्राणियों के मांस से तुम्हारी उदरपूर्ति करो? नहीं;जब कोई दयावान् उन प्राणियों पर दया लाकर उन घातकी वृति का निषेध करते है तो अपनी आजीविका के द्वारबन्ध न होजाय इस हेतु से वे ब्राह्मण उन सत्यवक्ताओं को नास्तिक पापी पाखंडी कह कर अपने भद्रिक भक्तों के हृदय में भय उत्पन्न कर देते हैं कि तुम जैनों की संगत ही मत करो। यही कारण है कि वह भद्रिक ऐसे पापाचारों में शामिल हो कर अथवा उन यज्ञकर्ता हिंसकों को मददकर अपना अहित कर डालते हैं पर जिनको परभव का डर है सत्य असत्य का निर्णय कर सत्य स्वीकार करना है वे पराधीन नहीं पर स्वतंत्र निर्णय कर आत्मा का कल्याण करने में समर्थ है अतः उनकों उसी धर्म को स्वीकार करलेना चाहिये जिससे अपना कल्याण हो ? प्यारे सज्जनों । सत्यधर्म स्वीकार करने में न तो परम्परा की परवाह रखनी चाहिये और न लोकापवाद का भय ही रखना चाहिये । चरम चक्षुवाला प्रत्यक्ष में देख सकता है कि आज जनता का अधिक भाग अहिंसा धर्म का उपासक बन चुका है और जहाँ देखो अहिंसा का ही प्रचार होरहा है और वे भी साधारण लोग नहीं पर चारवेद पाठरह पुराण के पूर्णाभ्यासी बडेबडे विद्वान ब्राह्मण एवं राजा महाराजा हैं दूर क्यों जातेहो आपके श्रीमालनगर का राजा जयसेन एवं इसी चन्द्रावती नगरी को आबाद करनेवाला राजा चन्द्रसेनादि लाखो मनुष्यों ने धर्मका ठीक निर्णय कर अहिंसा भगबती के घरनों में सिरमुका दिया था अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वे आत्म कल्याणार्थ धर्मका निर्णय अवश्य करें इत्यादि सूरिजी ने वेद पुराण श्रुति स्मृति उपनिषदों की युक्तियों और आगमों के सबल प्रमाणों द्वारा उपस्थित जनता पर अहिंसा एवं जैनधर्म का खूबही प्रभाव डाला सूरिजी की ओजस्वी वाणी में न जाने जादू सा ही प्रभाव था कि श्रवण करने वालों को घृणित हिंसा के प्रति अरुचि होगई और अहिंसा के प्रति उनकी अधिक रुचि बड़ गई अस्तु । सेठ सालग ने सूरिजी का व्याख्यान खूब ध्यान लगाकर सुना और अपने दिल में विचार किया कि शायद आजका व्याख्यान सूरिजी ने खास तौर पर मेरे लिये ही दिया होगा खैर कुच्छ भी हो पर महात्माजी का कहना तो सौलह आना सत्य है कि दयालु ईश्वर ने जिन जीवों को उत्पन्न किया है वे सब ईश्वर के पुत्रतुल्य हैं उनकी हिंसा कर हम ईश्वर को कैसे खुशकर सकते हैं और इस कार्य से ईश्वर कैसे प्रसन्न हो सकता है । खैर जब कभी समय मिलेगा तब महात्माजी के पास आकर निर्णय करेंगे। सभा विसर्जन हुई और सेठ सालग भी अपने घर पर चला गया पर उसके दिलमें सूरि के व्याख्यान ने बड़ी हलचल मचा दी सेठ सालग पर सूरिजी का प्रभाव ] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १२०-६५८ सेठ सालग ब्राह्मणों के उपदेश से उस समय एक वृहद् यज्ञ करने वाला था ब्राह्मण लोगों को बड़ी वड़ी आशाएं थी पर जब ब्राह्मणों ने सुना की सेठ सालग आज जैनों के व्याख्यान में गया है तो उनके दिल में कई प्रकार की शंकाएं उद्भव होने लगी कि सेठ जैनों के वहां जाकर कहीं नास्तिक न बन जाय अतः वे चल कर सेठ के वहाँ आये और आशीर्वाद देकर कहने लगे क्यों सेठजी ? आप आज जैनों के वहाँ व्याख्यान सुनने गये थे ? सेठजी-हाँ महाराज ! मैं आज बहुत लोगों के आग्रह से वहाँ गया था--- ब्राह्मण--भला ! आप हमारे धर्म के अग्रेसर होकर उन नास्तिक जैनों के व्याख्यान में चले गये तब साधारण लोग वहाँ जावें इसमें तो कहना ही क्या है ? और वहाँ सिवाय वेदधर्म एवं यज्ञ की निंदाके अलावा है क्या ? जैन एक नास्तिक धर्म है अतः आप जैसे श्रहासम्पन्न अग्रसरों को नास्तिकों के पास जाना उचित नहीं है। सेठजी--मैंने करीब दो घंटे तक महात्माजी का व्याख्यान सुना पर ऐसा एक भी शब्द नहीं सुनाकि जिसको निंदा कही जासके । ब्राह्मण-यज्ञ में दी जाने वाली बलि को हिंसा वतलाकर उनका निषेध तो किया ही होगा १ वह वेद धर्म की निंदा नही तो और क्या है ? इसको ही आप जैसे श्रद्धासम्पन्न ने कानों से सुनी। सेठजी -प्राणियों की हिंसा का तो वेद पुराण भी निषेध करता है और 'अहिंसापरमोधर्म' सब धर्मों का मुख्य सिद्धान्त है इसमें क्या वेद धर्म क्या जैनधर्म सब एकमत हैं। ब्राह्मण- अहिंसा परमोधर्म के लिये कोई इन्कार नहीं करता है पर यज्ञ करना वेदे विहित होने से उसमें जो बलि दी जाती है वह हिंसा नही परन्तु अहिंसा ही कही जाती है। सेठजी--क्या यज्ञ में बलि दिये जाने वाले पशुओंको दुःख नही होता होगा ? तब ही तो उन जीवों की बलि देने पर भी हिंसा नही किन्तु अहिंसा ही कही जाती है ? ब्राह्मण-ऐसी तर्के करने का आप लोगों को अधिकार नहीं है जैसे वेद पाठी ब्राह्मण कहे वैसा आप लोगों को स्वीकार करलेना चाहिये । वतलाइये आपा विचार अश्वमेध यज्ञ करने का था उसके लिये अब क्या देरी है समय जा रहा है जल्दी कीजिये सेठजी-महाराज अभी तो मैंने निश्चय नहीं किया है और भी विचार करूंगा-- ब्राह्मणों को जो पहिले से शंका थी वह प्रायः सत्यसी होगई अतः उन्होंने कहा कि सेठजी श्राप कहते थे कि मैं एक करोड़ रूपये यज्ञ में खर्च करूंगा फिर आप फरमाते हैं कि निश्चय नहीं तथा बिचार करूंगा तो क्या आपको नास्तिक जैनाचार्य से सलाह लेनी है ? सेठजी-क्या जैनाचार्य की सलाह लेना लाच्छन की बात है कि आप ताना दे रहे हैं जैनाचार्य को राजा महाराजा और लाखो करोड़ों मनुष्य पूज्यदृष्टि से देखते हैं और मान रहे हैं। ब्राह्मण -- पर इससे क्या हुआ वे है तो वेद निंदक एवं यज्ञ विध्वंसक; उनकी सलाह लेने पर वे कब कहेंगे कि तुम यज्ञ करवाओ। यदि आपको यज्ञ करवाना हो तो विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं हमारे कहने मुताबिक यज्ञ का कार्य प्रारंभ कर देना चाहिये। १०२ . [ सेठ सालग और ब्राह्मणों का संवाद Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सेठजी-ठीक है महाराज ! इसके लिये मैं विचार कर आपको जवाब दूंगा। ब्राह्मण-निराश होकर वहाँ से चले गये सेठजी-समय पा कर सूरिजी के पास गये और नमस्कार कर पूछा कि महात्माजी ! आत्मकल्याण के लिये धर्म दुनियां में एक है या अनेक-? सूरिजी-महानुभाव ! आत्म कल्याण के लिये धर्म एक ही होता है अनेक नही । हाँ एक धर्म की आराधना के कारण अनेक हुआ करते हैं। ___ सेठजी-फिर आज संसार में अनेक धर्म, दृष्टि गोचर हो रहे हैं जिसमें भी प्रत्येक धर्म वाले अपने धर्म को सच्चा और दूसरे धर्म को झूठा वतलाते हैं फिर हम किस धर्म पर विश्वास रख कर अपना कल्याण करें? सूरिजी-अनेक धर्म एक धर्म की शाखारूप है और अपने अपने स्वार्थ के लिये शुरु से तो थोड़ा थोड़ा भेद डाल कर अलग अखाड़े जमाये पर बाद में कई लोगों ने बिलकुल उल्टा रस्ता पकड लिया और धर्म के नामपर अधर्म और पाखण्ड चलादिये जैसे वाममार्गियों का एवं यज्ञ हवनादि । खैर दूसरी तरह से कहा जाय तो इसमें आप जैसों की कसोटी भी है कहा है कि "बुद्धि फलं तत्व विचारणंच" आप स्वयं विचार कर सकते है कि अनेक धर्मों में से कौनसा धर्म कल्याण करने में समर्थ है खैर जैन धर्म के विषय में आप जानते ही होंगे नही तो मैं संक्षिप्त में परिचय करवा देता हूँ ! जैन साधुओं में सब से विशेषता तो त्याग वैराग्य की है वे कनक और कामिनी से बिलकुल मुक्त है कंकर पत्थर उनके काम आ सकते है पर रुपया पैसा उनके काम में नही आते हैं छमास की लड़की को भी वे नहीं छूते हैं किसी भी जीवकों वे कष्ट नहीं पहुंचाते हैं अर्थात् आप स्वयं कठिनाइयों को सहन जो करलेते हैं पर दूसरे चराचर जीवों को कष्ट नहीं पहुँचाते हैं अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अकिंचन धर्म को वे मन वचन काया से करण करावण और अनुमोदन एवं नौकोटी परिविशुद्ध पालन करते हैं तप तपने में वे वडे ही शुरवीर होते हैं परोपकार के लिये तो वे अपना जीवन अर्पण कर चुके हैं। संसार की उपाधि से वे सर्वथा मुक्त है अपने कर्तव्य पालन में वे किसी प्रकार का मान अपमान एवं सुख दुःख का खयाल नहीं करते हैं किसी पदार्थ का संचय एवं प्रतिबन्ध नहीं रखते हैं उनके पास राजा रंक कोई भी आवे धर्मोपदेश देने में थोड़ा भी भेद भाव नहीं रखते हैं इत्यादि यह तो उनका आचार व्यवहार है । तत्वज्ञान में उनका स्याद्वाद नयबाद प्रमाणवाद कर्मवाद आत्माबाद क्रियावाद सृष्टिवाद परमाणुवाद योग भासन समाधि वगैरह सर्वोत्कृष्ट है कि दूसरे कहीं पर वैसे नहीं मिल सकेंगे अतः आत्म कल्याण के लिये जैनधर्म की आराधना करना ही सर्व श्रेष्ठ है । महानुभाव ! जैनधर्म किसी साधारण व्यक्ति का चलाया हुआ धर्म नहीं है पर यह धर्म अनादि अनन्त है । इस धर्म के प्रवारक बड़े बड़े तीर्थकर हुए हैं एक समय जैनधर्म एक विश्व धर्म था और आज भी यह सर्व प्रान्तों में प्रसारित है हाँ जिस प्रान्त में जैन मुनियों का बिहार एवं उपदेश नहीं हुआ है वहाँ स्वार्थी लोगों ने अपने स्वल्प स्वार्थ के लिये विचारे भद्रिक लोगों को धर्म के नाम उल्टे रास्ते लगा दिये हैं भाप स्वयं सोच सकते हैं कि एक यज्ञ करने में ब्राह्मणों का थोड़ा सा स्वार्थ है पर लाखों प्राणियों की निर्दयता पूर्वक बलि चढ़ाकर हजारों लाखों जीवों के कर्म बन्धका कारण कर मालते हैं इत्यादिसूरिजी ने सेठ को अच्छी तरह समझाया । सेठजी-महात्माजी ! आपका कहना बहुत ठीक एवं अपक्षपात पूर्ण भी है पर मेरे वंश परम्परा से सेठ सालग और लोहा बनिया का उ० ] ६.३ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६२० - ६५८ चले आये धर्म का त्याग कैसे किया जाय इससे मेरी मान प्रतिष्ठा का भी भंग होता है ? फिर भी मैं म कल्याण तो करना चाहता हूँ ? सूरिजी -- सेठजी ! मुझे यह उम्मेद नहीं है कि आप जैसे विचरज्ञ पुरुष केवल मान प्रतिष्ठा एवं वंश परम्परा की दाक्षिण्यता से अपना हित करने को तैयार है जैसे शास्त्रों में लोहा बनिया का उदाहरण लाया है वह भी सुन ' लीजिये - एक नगर से कई व्यापारियों ने किराणे के गाडे भर कर व्यापारार्थ अन्य दिसावर के लिये प्रस्थान किया वे सब चलते जा रहे थे कि रास्ते में बढ़िया लोहे की खानें श्रई तो सब व्यापारियों ने लाभ जान कर किराणा वहां डाल दिया और लोहे से गाडे भर लिये फिर आंगे चाँदी की खाने आई तो एक बनिये के अलावा सब ने लोहा डाल कर चांदी लेली । जिस एक बनिये ने लोहा नहीं डाळा उसको सबने कहा भाई लोहा कम मूल्य वाला है अतः इसको यहां डाल कर बहुमूल्य चांदी ले ले | हम सबने ली है तू हमारे साथ आया है अतः तेरे हित के लिये ही हम कहते हैं लोहाबनिया ने जवाब दिया कि मैं आपके जैसा अस्थिर भाव वाला नहीं कि बार बार बदलता रहूँ। मैंने तो जो लिया वह ले लिया खैर आगे चलने पर सुवर्ण की खाने आई तो सबने चांदी डाल कर सुवर्ण ले लिया । लोहा बनिये को और भी समझाया गया पर वह तो था वंश परम्परा वादी उसने एक की भी नहीं सुनी फिर आगे चलने पर हीरेपन्ने की ख. ने देखी तो सब गाडे वालों ने सोने को डाल कर हीरे पन्ने भर लिये! और लोहा बनिया को बहुत समझाया कि अभी तक तो कुछ नहीं बिगड़ा है अब भी आप इस तुच्छ लोहे को डाल दो और इन हीरे पन्ने को लेलो कि अपन सव एक से होजाय वरना तुमको बहुत पश्चाताप करना पड़ेगा । पर लोहा बनिया ने एक की भी नहीं सुनी और जिस लोहा को पहले प्रहन किया उसको ही पकड़ रखा खैर सब व्यापारी चल कर अपने बास स्थान पर आये सबने रत्न बेच कर अच्छे मकान और सब सामग्री खरीद कर देवताओं के सदृश आनन्द से सुख भोगने लगे तत्र लोहाबनिया उसी हालत में रहा कि जैसी पहिले थी ब दूसरे व्यापारियों के वे अलौकिक सुख देख कर पश्चाताप करने लगा और अपनी की हुई शुरु से भूल पर रोने लगा पर अब क्या हो सकता ? सेठजी कभी आपको भी लोहा बनिया की भाँति पश्चाप न करना पड़े ? सेठ सालग तो सूरिजी के पहिले ही व्याख्यान मैं समझ गया था पर सूरिजी के उपदेश एवं उदाहरण ने तो इतना प्रभाव डाला कि वह जैनधर्म स्वीकार करने को तैयार हो गया और कहा पूष्य गुरुदेव ! मैं मेरे सब कुटुम्ब वाले को लेकर कल व्याख्यान में आकर आम पब्लिक में जैन धर्म स्वीकार करूँगा कि मेरे कुटुम्ब में दो मत न हो सके ? सूरिजी ने कहा " जहा सुखम् " सेठजी अपने मकान पर आये और रात्रि के समय अपने सव कुटुम्ब वालों को एकत्रित किया और उनको यह समझाया कि मनुष्यभव और ऋद्धि तो अनेक बार मिली और मिलेगी ही पर धर्म की आराधना बिना जीव का कल्याण नहीं होता है अतः मैंने धर्म का अच्छी तरह से निर्णय कर के जैनधर्म को पसंद किया है और कल सुबह जैन धर्म स्वीकार करने का अतः आप लोगों का क्या बिचार है ? इस पर बहुत लोगों ने तो सेठजी का लोग परम्परा धर्म को कैसे छोड़ा जाय भी कहा पर सेठजी ने हेतु युक्ति से उनको समझा बुझा कर अपने सहमत कर लिया और सुबह होते ही बड़े ही समारोह से सकुटुम्ब सेठजी चल कर आचार्य श्री की सेवा में उपस्थित हो गये ३घर नगर भी निश्चय कर लिया है अनुकरण किया पर कई ६०४ [ सेठ सालग के जैनधर्म स्वीकार का निर्णय Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष [ भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा का इतिहास भर में बड़ी भारी हलचल मच गई हजारों नहीं बल्कि लाखों मनुष्य सेठजी को देखने के लिये उपस्थित हो गये । कारण एक कोट्याधीश सेठ अपने विशाल परिवार के साथ एक धर्म छोड़ कर दूसरे धर्म को स्वीकार करता है यह कोई साधारण बात नहीं थी ब्राह्मणों के तो पैरों तले से भूमि खिसक रही थी उनके आसन चलायमान होगये उन्होंने दौड़ धूप करने में कुछ भी उठा नहीं रखा पर कहा कि सौ वर्ष का गुमास्ता और बारह वर्ष का घर धणी । आखिर सूरिजी महाराज ने उस विशाल समुदाय में अपने मंत्रों द्वारा उन विशाल कुटुम्ब के साथ सेठ सालग को जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बना लिये इस प्रकार सेठजी के धर्म परिवर्तन को देख अन्य भी बहुत से लोगों ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया उन सबकी संख्या पट्टावलीकारों ने ५००० नरनारी की बतलाई है वहां के उपकेशवंशी संघ ने सेठ सालगादि सबको अपने साथ मिला लिया और उनके साथ उसी दिन से रोटी बेटी व्यवहार शुरू कर दिया। __ जिस दिन से सेठ सालगादि को जैनधर्म की दिक्षादी उस दिन से ही ब्राह्मणों का जैनों के प्रति अधिक द्वेष भभक उठा था पर इससे होना करना क्या था जैनों की शान्ति ने और भी ब्राह्मण धर्म पर प्रभाव डाला था कि और लोग और भी जैनधर्म स्वीकार करते गये इस कार्य में विशेष प्रेरणा सेठ सालग की ही थी। सेठ सालग था भी बड़ा भारी व्यापारी एवं कोटीधज इनका व्यापार भारत और भारत के बाहर पाश्चात्य सब देशों के साथ था । एक बड़े आदमी का इस प्रकार प्रभाव पड़ता हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यों तो आचार्य सिद्धसूरि बड़े ही प्रभावशाली थे ही पर इस घटना से आपका प्रभाव और भी बढ़ गया चन्द्रावती और उसके आसपास के प्रदेश में जैनधर्म का बड़ा भारी प्रचार हुआ। एक समय परम भक्त सालग ने सूरिजी की सेवा में अर्ज की कि गुरुदेव! मैंने यज्ञ के लिये एक करोड़ द्रव्य व्यय करने का संकल्प किया था पर आपकी कृपा से मैं उस अनर्थ से तो बच गया पर अब वह संकल्प किया हुआ द्रव्य किस कार्य में लगाना चाहिये । कारण कि संकल्प किया हुआ द्रव्य मैं मेरे काम में तो लगा ही नहीं सकता हूँ अतः आप आज्ञा फरमा उसी कार्य में लगाकर संकल्प के विकल्प से मुक्त हो सकू। सूरिजी ने कहा सालग तू बड़ा ही भाग्यशाली है तेरे शुभ कर्मों का उदय है संकल्प किये हुये द्रव्य के लिये या तो त्रिलोक पूज्य तीर्थङ्करदेव का मन्दिर बनाने में या तीर्थयात्रार्थ संघ निकालने में या श्रागमवाचना आगम लिखाने एवं विद्या प्रचार करने में लगाना ही कल्याण का कारण हो सकता है जैनधर्म का प्रचार बढ़ाना स्वधर्मी भाइयों को सहायता पहुँचाना भी शासन के कार्य का एक अंग है पर संकल्प किया हुआ द्रव्य पुनः गृहस्थ के काम नहीं आता है अब जिस कार्य में तुम्हारी रुची हो उसमें ही द्रव्य व्यय करके लाभ उठाना चाहिये इत्यादि ____सालग ने सोचा कि सूरिजी कितने निर्लोभी, कितने परोपकारी है कि करोड़ रुपयों से एक पैसा भी अपने काम या अपने शिष्यों के लिये नहीं बतलाया क्या पुस्तक पन्ने या वस्त्र पात्र की इनको जरूरत नहीं होगी पर परोपकारी महात्माओं का यह खास तौर से लक्षण हुआ करते है कि “परोपकारायसतां विभूतयः"। यदि सूरिजी महाराज यहां चतुर्मास करदें तो मैं तीनों कार्य कर सकता हूँ अतः शाह सालागादि सकल श्री संघ ने साग्रह सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्येश्वर ! अापके विराजने से शासन का अच्छा उद्योत हुआ है पर कृपाकर यह चतुर्मास यहां करावे कि शाह सालगादि कई लोग लाभ उठा सकें। सूरिजी [ सेठ सालग को जैनधर्म की दीक्षा Jain Education Integegnal Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२० - ९५८ ने लाभालाभ का कारण जान चतुर्मास की स्वीकृति देदी बस फिर तो कहना ही क्या था सब का उत्साह खूब बढ़ गया । शाह सालग ने चतुर शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलाकर भगवान महावीर का बावन देहरी वाला आलीशान मन्दिर बनाना शुरु कर दिया दूसरी तरफ लिपीकारों को बुलाकर श्रागम लिखाना प्रारम्भ कर दिया और चतुर्मास की आदि में महा महोत्सव पूर्वक पंचमांग श्री भगवती सूत्र व्याख्यान में बंचवाना शुरू करवा दिया। सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं आत्मिक कल्याण पर ही होता था जिससे जनता को बड़ा भारी आन्नद आया करता था शाह सालग तो सूरिजी का इतना भक्त बन गया कि उनका मन भ्रमरा सूरिजी के चरणों से एक क्षण भर भी पृथक रहना नहीं चाहता था उसके लिये केवल एक तीर्थों का संघ निकालना ही शेष कार्य रह गया तो एक दिन सालग ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! हमारे दो काम तो हो रहे हैं पर कृपाकर संघ के लिये बतलाइये क्या किया जाय सूरिजी ने कहा सालग " श्रेयांस बहु विघ्नानि" अच्छे कार्य में कई विघ्न आया करते हैं इसलिये शास्त्रकारों ने कहा कि " धर्मस्य त्वरितागतिः” धर्म कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिये अतः पहिले यह विचार करले कि संघ शत्रु - जय का निकलना है या सम्मेत शिखरजी का, इसपर सालग ने कहा यदि दोनों तीथों की यात्रा हो जाय तो अच्छा है सूरिजी ने कहा सालग एक साथ दोनों तीथों की यात्रा होना तो संभव है कारण इन दोनों तीर्थों में अन्तर विशेष होने से साधु लोग पहुँच नहीं सकते हैं हाँ एक बार एक तीर्थ की ओर दूसरी बार दूसरे तीर्थ की यात्रा हो सकती है फिलहाल एक तीर्थ की यात्रा का निर्णय करलें? सालग ने कहा कि पहिले सम्मेत शिखर की यात्रा करनी ठीक होगी सूरिजी ने अपनी सम्मति दे दी और सालग ने अपने १९ पुत्रों को बुलाकर संघ सामग्री एकत्रित करने का आदेश दे दिया और चातुर्मास समाप्त होने के पूर्व ही सब प्रान्तों में आमन्त्रण भेज दिया साधु साध्वियों की भी विनती करली जब चातुर्मास समाप्त हुआ तो मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी को साग को संघपति पदार्पण कर श्राचार्य सिद्धसूरि के अध्यक्षत्व में संघने प्रस्थान कर दिया संघ बड़ा ही विशाल था कई पांच हजार साधु साध्वियों एक लक्ष से अधिक नरनारी ८४ देरासर चौदह हस्ती ११ आचार्य तीनसौ दिगम्बर साधु ७०० अन्य मत्त के साधु इत्यादि क्रमशः रास्ते के तीर्थों की यात्रा करता हुआ संघ सम्मेतशिखर जी पहुँचा वहाँ की यात्रा कर सबको बड़ा ही आनन्द हुआ। एक समय सूरिजी ने कहा सालग अब अवसर श्रागया है यह बीस तीर्थकरों की निर्वाण भूमि है चेतना हो तो चेतलो जो समय गया वापिस नहीं आता है बस । सालग की आत्मा पहिले से ही निर्मल थी उस पर भी सूरिजी का संकेत, फिर तो कहना ही क्या; सालग ने अपने सब पुत्रों को बुलाकर कह दिया कि मेरा विचार तो दीक्षा लेने का है पुत्रों ने बहुत कहा कि आपको दीक्षा ही लेना है तो पुनः संघ सहित चन्द्रावती पधारें वहां दीक्षा रावें पर सालग का आग्रह तीर्थ पर ही था सालग के बड़े पुत्र संगण को सब घर का भार एवं संघपति की माला देकर शाह सलिग ने सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा स्वीकार करली अहाहा - के शुभ कर्मों का उदय होता है तब किस प्रकार कल्याण हो जाता है, एक यज्ञ करने वाला इतना बड़ा सेठ जिसकी भावना बदल जाने से कितने के कल्याण का कारण बना है । से साध्वियों के पास अध्यक्षत्व में पूर्व के तीथों की यात्रा करते हुए बहुत साधु संघ लौटकर पुनः मरूधर एवं चन्द्रावती आया और सांगण ने स्वामिवात्सल्य करके संघ को प्रत्येक लादू में पांच-पांच सुवर्ण मुद्रिका और बढ़िया वस्त्रों की प्रभावना देकर विसर्जन किया । मनुष्य संघपति सांगण Jain Educal सेठ सांगण की और से तीर्थों का संघ ]late & Personal Use Only ९०६ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२० – ५५८ वर्षे ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य सिद्धसूरि अपने ५०० शिष्यों के साथ जिसमें नूतन मुनिराज शेखर हंस ( सालग ) भी शामिल थे; पूर्व प्रान्त में रहकर वहाँ की जनता को धर्मोपदेश देने लगे तीर्थ श्री सम्मेतशिखरजी के आसपास के प्रदेश में बहुत जैनों की बसती थी आपके पूर्वजो ने कई बार वहाँ घूम घूम कर उन लोगों को धर्म में स्थिर किये थे उन लोगो ने कई जैन मंदिर बनाये जिसकी प्रतिष्ठाएं आचार्य सिद्ध सूरिने करवाई कइबार संघ निकाल कर बीस तीर्थंकरो के निर्वाण भूमि की यात्रा की । इत्यादि जिस समय सूरि जी का बिहार पूर्वप्रान्त में हो रहा था उस समय बोद्धोंका प्रचार भी हो रहा था पर सूरिजी के प्रचार कार्य के सामने बौद्धों की कुछ भी चल नही सकती थी आप श्री ने तीन चातुर्मास पूर्व में करके जैनधर्म के प्रभाव को खूब बढ़ाया था बाद कलिंग की कुमार कुमारी तीर्थों की यात्रा करते हुए पुनः भगवान् पार्श्वनाथ के कल्याणक भूमि काशी पधार कर वहाँ तथा उनके आस पास के तीथों की यात्रा की और वह चातुर्मास बनारस नगरी में किया आपके विराजने से जैनधर्म की अच्छी उन्नति एवं प्रभावना हुई इनता ही क्यों पर वहां दो ब्राह्मण और ५ श्रावकों को दीक्षा भी दी जिसका महोत्सव श्रेष्टिगौत्रीय शाह सलखाने सवालक्ष रुपये व्यय करके इस प्रकार किया कि जिसका प्रभाव वहाँ की जनता पर काफी हुआ था । वहाँ से सूरिजी महाराज बिहार कर पंजाब की और पधारे आपके मुनिगण पहले से ही वहाँ बिहार करते थे जब उन्होंने सुनाकि आचार्य सिद्धसूरिजी महाराज पंजाब में पधार रहे है तो उनका दीलहर्ष के मारा उमड़ उठा बस सूरिजी महाराज जहाँ पधारते वह चतुर्विध श्रीसंघका का एक खासा मेला हो लगजाता था क्रमशः आप लोहाकोट पधारे वहाँ के श्री संघ के श्राग्रह से सूरिजी ने वहाँ चतुर्मास भी कर दिया बाद चतुर्मास के वहाँ एक संघ सभा की गई जिसमें उसके बहुत से साधु साध्वियों तथा श्राद्ध वर्ग उपस्थित हुए। सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाण से जैनधर्म की परिस्थिति और प्रचार के विषय में बडा ही जोशीला व्याख्यान दिया कि जिसने उपस्थित जनता के हृदय में धर्म प्रचार की एक नयी बिजली पैदा हो गई यों तो पंजाब पहिले से ही वीर प्रसूत भूमि थी फिर सूरिजी जैसे धर्म प्रचारक के वीरता का उपदेश तत्र तो कहना ही क्या था ? वीरों की सन्तान वीर हुआ ही करती हैं मुनियों ने सूरिजी के उपदेश को शिरोधार्य कर कर्तव्यमार्ग में क टेबद्ध होगये सूरिजीने वहाँ से बिहार करने वाले योग्य मुनियों को पदवियां प्रदान कर उनके उत्साह મેં और भी वृद्धि कर दी तत्पश्चात संघ बिसर्जन हुआ सूरिजी महाराज दो वर्ष पंजाब में घूमकर सिव की ओर पधारे सिन्ध में आपके बहुत से मुनि विहार कर रहे थे एक चतुर्मास डामरेल नगर में किया वहाँ भी धर्म की अच्छी प्रभावना हुई । ७ नर नारियों को दीक्षा दी ओर कई अजैनों को जैन बनाये बाद आपके चरण कमल nor भूमि में हुए वहाँ भद्रेश्वरतीर्थ की यात्रा कर वहाँ की जनता को धर्मोपदेश दिया वहाँ भी आपके कई मुनि विहार करते थे उनकी सार संभाल की बाद सरौष्ट्र प्रदेश में पदार्पण कर तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय की यात्रा की तदानन्तर सौराष्ट्र में भ्रमन करते हुए भरोंच नगर में पधार कर वह चतुर्मास वहीं किया जिससे वहाँ कि जनता में धर्म की खूब ही जागृति हुई बाद चतुर्मास के अर्बुदाचल की स्पर्शना की इस बात की खबर चन्द्रावती, पद्मावती, शिवपुरी में मिलते ही हजारों लोग देवगुरू के दर्शनार्थ अर्बुदाचल पर आये और अपने अपने नगर की ओर पधारने की बिनती की सूरिजी वहाँ से विहार कर संघ के साथ एक मकान जलकुण्ड पर किया कि जहाँ आचार्य कक्कसूरिजी द्वारा संघ के प्राणों की रक्षा हुइ थी वहाँ पर एक महाबीर देव का मंदिर बनाया गया था आचार्य श्री जब चन्द्रावती नगरी की और पधार रहे थे तो वहाँ के श्रीसंघ ६०७ [ आचार्य सिद्धसूरि का पूर्व में विहार Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १२०-९५८ में इतना उत्साह एवं हर्ष छा गया था कि जिसका तुच्छ लेखनी द्वारा वर्णन ही नहीं किया जा सकता कारण एक तो सूरिजी का पधारना दूसरा मुनि शेखरहंस साथ में जोकि चन्द्रावती नगरी का कोट्याधीश सेठ सालग के नाम से मशहूर था । चन्द्रावती नगरी के श्रीसंघ और विशेष में सेठ सांगण ने नगर-प्रबेश का इस कदर से महोत्सव किया कि जिसमें उन्होंने सवालक्षद्रव्य व्यय कर डाला । इससे पाठक समझ सकते है कि उस समय की जनता के हृदय में धर्म भावना कहाँ तक बड़ी हुई थी। आचार्य सिद्धसूरि का धारावाही व्याख्यान हमेशा होता था, जिसमें दार्शनिक तात्विक आध्यात्मिक विषय के साथ में अधिक जोर त्याग वैराग्य पर दिया जाता था जिसका प्रभाव जनता पर इस कदर पड़ता था कि वे क्षणिक संसार से विरक्त बन सूरिजी के चरणों में दीक्षा ले अपना कल्याण करने की भावना किया करते थे सूरिजी के व्याख्यान का लाभ केवल साधारण जनता ही नहीं लेती थी पर वहां के राजा एवं राजकर्मचारीगण भी उपस्थित होते थे और वे सूरिजी के व्याख्यान की सदैव भूरि भूरि प्रशंसा भी किया करते थे। ___ सेठ सालग के द्वारा प्रारंभ किया गया बावन देहरी वाला विशाल मन्दिर तैयार होने आया अतः सेठ सांगण ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! पूज्य पिताजी का प्रारम्भ किया मन्दिर तैयार हो गया है अतः इसकी प्रतिष्ठा करवा कर हम लोगों को कृतार्थ बनावें हमें विशेष हर्ष इस बात का है कि इस समय हमारे पूज्य पिताजी (शेखर हंस मुनि) आपकी सेवा में यहां विद्यमान हैं और यह हमारा अहोभाग्य है कि इनके हाथों से प्रारम्भ किये हुए मन्दिर की इनके ही हाथों से प्रतिष्ठा हो जाय ? सूरिजी ने कहां सांगण तुम्हारे पिता तो भाग्यशाली हैं ही पर तू भी बड़ा ही पुण्यशाली है कि पिता का आरम्भ किया कार्य बड़े ही उदार दिल से सम्पूर्ण करवा कर प्रतिष्ठा करवा रहा है । सांगण ! मन्दिर बनाना यह साधारण कार्य नहीं है यह एक विशेष कार्य है शास्त्रकारों ने कहा है कि मंदिर बनाने वाला बारहवां स्वर्ग तक पहुँच कर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है कारण एक महानुभाव के बनाये मन्दिर से अनेक भव्य अपना कल्याण कर सकते हैं जैसे एक मनुष्य कूप बनाता है उस समय उसको कई प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं पर जब कूप में पानी निकल पाता है तब उसका सब कष्ट दूर हो जाता है, थकावट उतर जाती है और उस कूवे का पानी हजारों लोग पीकर अपनी तृषा रूपी आत्मा को शांत करते हैं, इतना ही क्यों पर कुवा बनाने वाले को आशीर्वाद भी दिया करते हैं इसी प्रकार मंदिर को भी समझ लीजिये कि मन्दिर बनाने में जल पत्थर चूना वगैरह लगते हैं पर जब भगवान की मूर्ति तख्त निशान होती है तब वे सब आरम्भ एक क्षण की भावना से विशुद्ध बना देते हैं और जहां तक वह मंदिर विद्यमान रहता है हजारों लाखों और करोड़ों भावुक उस मन्दिर से भी अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है इसलिये मंदिर बनाने वाला शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर सकता है यदि तुम्हारी भावना है तो धर्मकार्य में विलम्ब नहीं करना। संठ सांगण ने कहा पूज्यवर ! आप इस कार्य के लिये शुभ मुहूर्त दिरावे इतना ही विलम्ब है शेष सब कार्य तैयार हैं सूरिजी ने माघ शुक्ला पंचमी का मुहूर्त दे दिया जिसको सेठ सांगण ने बड़े ही हर्ष के साथ बधा कर ले लिया और करने लगा प्रतिष्ठा की तैयारियां सेठ सांगण को बड़ा ही उत्साह था उसने नजदीक और दूर दूर प्रदेशों में आमंत्रण पत्रिकाएं भिजवा दी। उस समय का चन्द्रावती एक समृद्धशाली नगरी थी । राजा प्रजा प्रायः जैनधर्मोपासक थे आस पास के प्रदेशों में भी जैनों का ही साम्राज्य था और सेठ सालग के प्र० मन्दिर की प्रतिष्ठा ६०८ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०–५५८ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सिद्धसूरि जैसे प्रभावशाली प्राचार्य के अध्यक्षत्व में प्रतिष्ठा का होना जिसमें भी विशेषता यह कि एक कोट्याधीश जैनेतर जैन बन कर तत्काल ही जैन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाना फिर तो कहना ही क्या था। मुनि शेखरहंस के उपदेश से सेठ सांगण ने एक घर देरासर भी बनवाया था। उनके लिये माणक की पार्श्वमूर्ति तथा नगर मन्दिर के लिये १२० अंगुल प्रमाण सुवर्ण की महावीर मूर्ति बनाई इस मूर्ति के नेत्रों के स्थान दो बढ़िया मणियां लगवाई वे गत्रिको भी दिन बना देती थी शेष सर्व धातु एवं पाषण की मूर्तियां भी तैयार करवा ली थी इस प्रतिष्टा एवं स्वधर्मी भाइयों को पहरामणि में सेठ सांगणने एककोटि द्रव्य व्ययकर खूब पुन्यानुबन्धी पुन्योपार्जन किया प्रतिष्टा बड़े ही धाम धूम के साथ हो गई जिससे जैनधर्म का बड़ा भारी उद्योत हुआ सूरिजी चन्द्रावती से बिहार कर शिवपुरी कोरंटपुर, भिन्नमाल, सत्यपुर, शिवगढ़, पाल्हिक, धोलगढ़ चरपट माडव्यपुर होते हुए जब उपकेशपुर पधार रहे थे तब इस खबर को सुन उपकेशपुर संघ के हर्ष का पार नहीं रहा। आदित्य नाग गौत्रीय गुलेच्छा शाखा के शाह पुरा ने तीनलाख द्रब्य व्ययकर सूरिजी के नगर प्रवेश का महोत्सव किया । "आधुनिक श्रद्धा बिहीन साधुओं के सामने प्राधा मील भी नहीं जाने वाले यह सवाल कर बैठते हैं कि एक नगर प्रवेश के महोत्सव में एक दो और तीन लक्ष रूपैये क्यों और किसमें खर्च किया होगा। यदि इतना ही द्रव्य किसी अन्य कार्य एवं साधर्मी भाइयों की सहायता में लगाया होता तो कितना उपकार होता ? इत्यादि। ___ "इस निर्धनता के युग में ऐसा सवाल उत्पन्न होना स्वाभाविक है पर उस समय का इतिहास पढ़ने से मालुम होगा कि उस समय ऐसा कोई क्षेत्र ही नहीं था कि जिसके लिये किसी से याचना की जाय तथा ऐसा कोई सानी भाई भी नही था कि वह दूसरों को आशा पर अपना जीवन गुजारता हो और न कोई साधर्मी भाईयों को इस प्रकार मंगता बनाना ही चाहता था यदि कोई किसी निर्बल साधर्मी भाई को देखते तो उसको धंधे रूजगार में लगा कर अपनी बराबरी का बना लेते थे। मन्दिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार एक एक व्यक्ति करवा देता था विद्या एवं ज्ञान प्रचार भी एक एक भावुक करता था तीर्थों की यात्रार्थ एक एक धर्म प्रेमी बड़े बड़े संघनिकाल कर यात्रा करवा देता था कालदुकाल में भी एक एक धनाढ्य करोड़ों द्रव्य व्यय कर देते थे फिर ऐसा कौनसा क्षेत्र रह जाता कि जिसमें वे अपना द्रव्य का सदुपयोग करें । आचार्यों के नगर प्रवेश महोत्सव में दो तीन लक्ष द्रव्य व्यय करना तो उनके लिये एक मामूली बात थी पर इस प्रकार की उदारता से उस समय के धर्मज्ञों के अंदर रही हुई देवगुरु धर्म पर श्रद्धा का पता चल सकता है कि उनकी देवगुरु धर्म पर कितनी श्रद्धा थी कि मामूली बात में वे लाखों रुपये व्यय कर देते थे-यही कारण था कि इस प्रकार शुभ भावना से उनके घरों में लक्ष्मी दासी बन कर रहती थी व अपने विदेशी व्यापार में इतना द्रव्य पैदा करते थे । इस प्रकार धन व्यय करते हुए भी उनके खजाने भरे हुए रहते थे उन लोगों के पुन्य कितने जबर्दस्त थे आप पिछले प्रकरणों में पढ़ आये हो कि किसी को पारस मिला तो किसी को चित्रावली मिली किसी को तेजमतुरी मिली तो किसी को सुवर्ण रस मिला किसी को देवताने निधान वतलाया तो किसी को देवी ने अखूट थेली देदी। इसपर भी वे कितने निस्पृही थे कि अपना जीवन सादा और सरल रखते थे ९०९ [ मार्मिक प्रश्न का उचित उत्तर Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन | [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ जितना द्रव्य देव गुरुधर्म की भक्ति में खरचते उतने को ही वे अपना समझते थे वे पिछले कुटम्ब के लिये न तो इतना फिक्र करते थे और न इतना संचय ही करते थे कारण उनको यह विश्वास था कि जीव सब अपने २ पुन्य लेकर आते है 'पूत सपूतो क्या धनसंचय पूत कपूतो क्यों धनसं चे ? इस सिद्धान्त पर उनकी अटल श्रद्धा थी इतना ही क्या पर उस जमाने के पुत्रादि कुटम्ब भी निश्चय वाले थे वे अपने पूर्वजों की सम्पति पर ममत्व या आशा तक नहीं रखते थे पर अपने तकदीर पर विश्वास रखते थे । हमने सैकड़ों दानेश्वरियों के जीवन पढ़े है पर एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिला कि किसी दानेश्वर पिता को अपना द्रव्य शुभकार्य में व्यय करते समय पुत्र ने इन्कार किया हो इतना ही क्यों पर ऐसे बहुत से पुत्र थे कि आपने पिता को दान करने में उत्साहित करते थे इत्यादि वह जमाना ही ऐसा था कि जनता अपने कल्याण की ओर अधिक लक्ष दिया करती थी ।" आचार्य श्री ने चतुर्विध श्री संघ के साथ भगवान महावीर और आचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा कर थोड़ी पर सारगर्भित देशनादी जिसका उपस्थित जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ जिस समय सूरिजी उपशपुर नगर में पधारे थे उस समय उपकेशपुर के शासन करता महाराजा उत्पलदेव की सन्तान पर - स्परा में राव हुल्ला राजा था रावहुल्ला के पिता दोहड़ जैनधर्म का उपासक था पर वाममार्गियों के संसर्ग से राहुल्ला वाममार्गियों की उपासना कर मांस मदिरा एवं व्यभिचार सेवी बन गया था बहुत से लोगों ने समझाया पर उसने किसकी भी नहीं सुनी एक जवानी दूसरी राज सत्ता तीसरा सदैव बाममार्गियों का परिचय | उपकेशपुर के श्रमेश्वर लोगों ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! उपकेशपुर का राजघराना शुरू से जैन धर्मोपा क था और इससे यहां के जैनों को जैनधर्म की आराधना में बड़ी ही सुविधा थी पर राव हुल्ता वामनागियों के अधिक परिचय में आकर मांस मदिरा सेवी बन गया अभी तो यह जैनधर्म से विशेष खिलाफ नहीं है पर भविष्य में न जाने इनकी संतान जैनधर्म के साथ कैसा बर्ताव रखेगी अतः पराव हुल्ला को कभी एकान्त में उपदेश दीवें इत्यादि । सूरिजी ने कहा ठीक है कभी रावजी वेंगे तो मैं अवश्य उपदेश करूंगा । पर वाममार्गी इस बात को ठीक समझते थे कि रावजी जैनाचार्य के पास जावेंगे तो न जाने वे जादूगर रावजी पर जादूकर अपना बना बनाया काम मिट्टी में न मिला दे ? अतः उन्होंने रावजी पर ऐसा पहरा रखा कि उनको क्षण भर अकेला नहीं छोड़ते कभी रमत गम्मत तो कभी सिकार कभी खेल तमाशे में साथ ही साथ में रखते यथा राजा तथा प्रजा । राव हुल्ला का थोड़ा थोड़ा प्रभाव जनता पर भी पड़ने लगा राजा के मुख्य कार्यकर्त्ता (दीवान) बापनाग गौत्रीय शाह मालदेव था और भी राजकर्मचारी सब महाजन ही थे पर वे रावजी को समझा नहीं सकते थे । एक समय किसी म्लेच्छ लोगों की सेना देश में लूट मार करती हुई उपकेशपुर की ओर आ रही थी, जिसकों सुन कर रावजी घबराये वाममार्गियों से परामर्श किया तो उन्होंने समय पाकर कहा, रावजी आप शाकभाजी के खाने वाले महाजनों के भरोसे पर राज को छोड़ दिया है पर सिवाय कलम चलाने के के ये लोग क्या कर सकते हैं आपको राज्य की रक्षा के लिये मांस भोगी वीरों को अच्छे पदों पर उपशपुर का राहुल्ला को जैन धर्म की दिक्षा ९१० Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०-५२०-५५८ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नियुक्त करना चाहिये तब ही राज्य की रक्षा हो सकेगी। बस राजा कानों के कच्चे तो होते ही हैं उन वाममार्गियों के कहने से तमाम महाजनों को हटा कर मांस भोगी अर्थात् वाममार्गियों को उच्च उच्च पदो पर नियुक्त कर दिये बस वाममार्गियों के मनोरथ सफल हो गये। पर महाजनों को इस बात का तनिक भी दुःख नहीं हुआ वे सूरिजी की सेवा में अधिक अवकाश मिलने से अपना अहोभाग्य समझने लगे। म्लेच्छों की सेना ने नजदीक आकर उपकेशपुर पर धावा बोल दिया इधर रावहुल्ला की ओर से भी सेना तैयार कर म्लेच्छों का सामना किया गया पर वे उसमें सफल न हो सके क्योंकि पहला तो उनमें शिक्षा का अभाव था दूसरे सेना का संचालन करने वाला भी इतना बुद्धिमान नहीं था पहिला दिन तो ज्यों त्यों कर बिताया पर रावहल्ला घबरा गया और उसको विजय की भाशा भी नहीं रही अतः वह हताश होकर विचारने लगा कि अब क्या करना चाहिये जब रावजी ने वाममार्गियों से परामर्श किया तो वे विचारे क्या करने वाले थे फिर भी उनके कहने से उत्साहित हो दूसरे दिन स्वयं रावजी सेना के संचालक बन म्लेच्छों से लड़ने लगे पर उसमें भी म्लेच्छों की पराजय नही हुई जब रावजी रतवास में गये तो उनके चेहरे पर गहरी उदासीनता थी। रानियों ने पूछा तो रावजी ने सब हाल सुनाया इस पर एक रानी जो 'जैनधर्मोपासिका थी उसने कहा कि आपने महाजनों को रजा देकर बड़ी भारी भूल की है जिसका ही परिणाम है कि आज आपको हताश होना पड़ा है मेरा तो खयाल है कि अब भी आप महाजनों को बुलवाकर यह कार्य उनके सुपर्द कर दीजिये ? रावजी ने कहा कि महाजन लोग शाकबाजी के खाने वाले युद्ध में क्या कर सकेंगे वे केवल हुकूमत की बातें कर जानते हैं । रानी ने कहा खावन्दों ! यह तो आप का व्यर्थ भ्रम है महाजन लोग खास तो गजपूत ही हैं साथ में कार्य कुशल भी हैं दूसरे मांस भोजियों में ताकत होना और शाकमोजियों में न होना यह भी भ्रम ही है। समय पर बल काम नहीं देता है उतना काम अकल बुद्धि दे सकती है अतः श्राप महाजनों को बुलाकर यह कार्य उनको सौंप दीजिये इत्यादि । रावजी ने रानी के कहने पर ध्यान देकर महाजनों को बुलाकर कहा कि नगर पर आफत आ पड़ी है इसमें आप लोग क्या मदद कर सकते हो ? महाजनों ने कहा कि हमारी नशों में जैसे राजपूती का खून भरा है वैसे राज का अन्नजल भी हमारी नशों में भरा हुआ है आपने तो हम लोगो को बुलाकर कहा है पर हम लोगों ने कल के लिये तैयारियां कर रखी हैं इत्यादि महाजनों के कथन को सुनकर रावजी को बड़ी खुशी हुई और वामियों के कहने से महाजनों को रजा देने का बड़ा पश्चाताप करना पड़ा खैर रावजी ने कहा आप स्वामी धर्मी है श्राप पर हमारे परम्परा गत पूर्वजों का पूर्ण विश्वास भी था और कईबार आपके पूर्वजों ने रण भूमि में वीरता पूर्वक विजय भी प्राप्त की थी अब आप अपने २ आसन को संभालो और यह राज आपके ही भरोसे है इत्यादि सन्मान पूर्वक महाजनों को पुनः अधिकार सुपुर्द किया। बस फिर तो था ही क्या महाजन मुत्सहियों ने अपनी सेना को सज-धज कर मोरचा बांधा और आप उसके संचालन बन गये सूर्योदय होते ही एक ओर मन्दिरों में रावजी की ओर से स्नात्र महोत्सव शुरू करवा दिया और दूसरी ओर अमल की गीरणिये चढ़ा दी बस सैनिक लोग खूब अमल पान कर केशरिया जामा पहन कर रणभूमि में इस प्रकार टूट पड़े पड़े कि जैसे बाज के ऊपर तीतर टूट पड़ता है इधर रणभेरी और युद्ध के झूमाओं बाजा बाज रहे और उधर चारण भाट जोशीले शब्दों में विरूदावली बोल रहे थे महाजनों के हाथों से जैसी कलम जोर से चलती थी आज रणभूमि में तलवार एवं बाण चल रहे थे बस देखते देखते में दुश्मनों के पैर छुड़ा दिये कितनेक भाग [ उपकेशपुर पर म्लेच्छों का आक्रमण Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ छूटे तब कितनेक को जकड़ कर बांध लिया उनका सब सराजाम छीन लिया बस चारों ओर से विजय भेरी बाजने लगी जिसको देखकर रावजी को बहुत हर्ष हुआ और यह विश्वास हो गया कि जितनी वीरता एवं कार्य कुशलता महाजनों में है उतनी क्षत्रियों में नहीं है जिन म्लेच्छों को पकड़ लिये थे वे दांतों में तृण लेकर हिन्दुओं की गऊ बन गये कि उनको बन्धन मुक्त कर छोड़ दिये । तत्पश्चात महाजनों की वीरता के उपलक्ष में रावहुल्ला ने कईएकों को जागीरियों और कईएकों को इनाम देकर उनको जो पद पहले थे उन पर नियुक्त कर दिये। ___ एक समय रावहुल्ला पाचार्य सिद्धसूरि के ब्याख्यान में आया था सूरिजी बड़े ही समयज्ञ थे आपने महाराजा उत्पलदेव मंत्री ऊहडादि का इतिहास सुनाते हुए उन की परम्परा के भूपतियों मंत्रियों द्वारा की हुई जैनधर्म की सेवा का खूब जोशीली वाणी द्वारा वर्णन किया और साथ में यह भी फरमाया कि जैनधर्म वीरों का धर्म है और वीर ही मोहनीय कर्म रूपी पिशाच का पराजय कर मोक्ष रूपी अक्षय स्थान को प्राप्त कर सकते हैं इत्यादि रावहुल्ला समझ गया कि मेरी भूल हुई है मैंने वाममार्गियों के धोखे में आकर अपना ही अहित किया है खैर जो हुआ सो हुआ पर अब तो उस भूल को सुधार लेनी चाहिये उसी व्याख्यान में उठ कर रावहृल्ला ने सूरिजी के सामने नम्रतापूर्वक प्रार्थना की कि पूज्य गुरुदेव श्राप श्री का फरमाना सत्त्य है कि संगत से जीव सुधरता है और संगत से जीव बिगड़ता है उसमें मैं भी एक हूँ आपके पर्वजों ने हमारे पूर्वजों को सत्यमार्ग की राह पर लगाये पर मेरे जैसे मोहित ने उस राह को छोड़ अन्य पन्थ का फावलम्बन कर सचमुच ही भूल की है खैर फिर भी आप जैसे परोपकार परायण महात्मा जगत के और विशेष मेरे भले के लिये ही यहाँ पधारे यह मे। अहोभाग्य है । कृपा कर मुझको घोर नरक में पड़ते हुए को श्राप बचा लीजिये, अर्थात् मुझे जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा दीजिये । सरिजी ने कहा कि शास्त्रकार फरमाते हैं कि "वत्थु सहावोधर्मो" वस्तु के स्वभाव को ही धर्म कहा जाता है थोड़ी देर के लिये उसमें भले विकार हो जाय पर आखिर वस्तु अपने धर्म को प्राप्त किये बिना नहीं रहती है आप भी उन वीरों की सन्तान हो कि जिन्होंने पूर्ण शोध खोज के पश्चात् आत्मकल्याण के लिये न रखी परम्परा की परवाह नरखी लोकापवाद की दाक्षिन्यता और न रखा, पाखण्डियों का लिहाज उन्होंने तोनिडाता के साथ जैनधर्म को स्वीकार कर लियाथा इतना ही क्योंपर उन्होंने तो चारों ओर डंके की चोट जैन धर्म का प्रचार भी किया था जिसका ही फल है कि आज मरुधर सदाचार एवं सुख शान्ति और अहिंसामें पूर्ण बन गया है इतना ही क्यों पर मरुधर के आस पास के प्रदेशों में भी मरुधरों का काफी प्रचार हा है मैं आपको धन्यवाद देता हूँ कि आप बिना कुच्छ कोशिश के अपने प्रात्मा का कल्याण करने को निर्डरता पूर्वक तैयार हो रहा हूँ। रावजी ! पूज्यवर! इसमें कोशिश की तो जरूरत ही क्या है दूसरा आपका उपदेश ही इतना प्रभावो. पादक है कि सुनने वाला का बन जसा हृदय हो तो भी पिगले बिना नहीं रहता है यदि कोई सहृदय व्यक्ति तुलनात्मिक दृष्टि से देखे तो उसको भी भू श्रासमान सा अन्तर मालूम होगा कि वहाँ अहिंसा प्रधान धर्म और कहां मांस मदिरा एवं व्यभिचार रूप घृणित धर्म अतः ऐसा कौन मूर्ख होगा कि अमूल्य रत्न मिलने पर भी कंकर को पकड़ रखता हो ? अतः आपश्री कृपा कर मेरे जैसे पामरप्राणी का उद्धार करावे । जैन वीरों की वीरता] ९१२ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी ने उस आम सभा के अन्दर रावहुल्ला और उनके कई साथियों को पूर्व सेवित मिथ्यात्व की बालोचना करवा कर देवगुरुधर्म का स्वरूप बतला कर वासक्षेप के विधि विधान से जैन धर्म की दीक्षा दे दी। इससे जैनधर्म का बड़ा भारी उद्योत हुआ और जो पाखण्डियों का प्रचार बढ़ता जा रहा था वह रुक गया। इतना ही क्यों पर रावहुल्ला ने तो अपने राज में कोई जीव की हिंसा न करे ऐसा अमर पडहा भी पिटवा दिया । अहा-हा कए सेताधीश को प्रतिबोध करने से कितने जीवों का कल्याण हो सकता है जिसके लिये रावहुल्ला का उदाहरण हमारे सामने विद्यमान है। रावहुल्ला सूरिजी का परम भक्त बन गया एक समय श्रीसंघ के साथ रावहुल्ला ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! अब आप की वृद्धावस्था है कृपा कर यह चतुर्मास यही करावें और बाद भी आप यही स्थिरवास करावें कि आप के विराजने से हम लोगों को बड़ा भारी लाभ होगा ? इस पर सूरिजी ने फरमाया कि आपकी इतनी आग्रह है तो इस चर्तुमास की स्वीकृति मैं दे सकता हूँ आगे के लिये जैसी क्षेत्र स्पर्शना । स्त्रैर अभी तो श्रीसंघ ने इतने से ही संतोष कर लिया । सूरिजी का चतुर्मास उपकेशपुर में मुकर्रर होने से यों तो सकल श्रीसंघ को बड़ा ही हर्ष था पर राव. हुल्ला के तो हर्ष एवं उत्साह का पार तक नहीं था और वे हर प्रकार से जैनधर्म की उन्नति एवं प्रचार के लिये कोशिस कर रहे थे। पर कुदरत कुछ और ही घटना घड़ रही थी जिसकी सूचना देने के लिये देवी सञ्चायिका ने एक समय सूरिजी की सेवा में आकर परोक्षपने वन्दना के साथ अर्ज की कि प्रभो! श्राप शासन के बड़े ही प्रभाविक श्राचार्य है। आपने अपने परोपकारी जीवन में बहुत उपकार किया है विशेष इस उपकेशपुर पर सो श्रापका महान उपकार हुआ है परन्तु कहते हुए दुःख होता है कि अब आपका आयुष्य केवल एक मास और १३ दिन का है अतः आप अपने पट्टधर बना दीजिये। देवी के वचन सुन कर सूरिजी ने कहा देवीजी आप ने मुझे सावचेत कर बड़ा ही उपकार किया है मेरे शिष्यों में उपाध्याय विनय सुन्दर इस पद के योग्य है और उसको ही मैं मेरे पद पर सूरि बनाना चाहता हूँ इसमें आपकी क्या राय है ? देवी ने कहा पूज्यवर ! आपने जो निश्चय किया वह बहुत ही अच्छा है उ. विनय सुन्दर सर्वगुण सम्पन्न एवं इस पद की जुम्मेवारी संभालने के लिये समर्थ भी है कृपा कर आप तो इनको ही सूरि बना दीजिये । बस दूसरे दिन सूरिजी ने श्रीसंघ को सूचित कर दिया कि मेरी इच्छा विनय सुंदर को सूरि बनाने की है । श्रीसंघ इतना तो जानता ही था कि इस गच्छ में आचार्य बनाया जाता है वह प्रायः देवी की सम्मति से ही बनाया जाता है पर देवी ने इस चतुर्मास के अन्दर यह सम्मति क्यों दी होगी अतः संघ ने प्रार्थना की कि गुरुदेव ! उ० विनयसुन्दर को आचार्य पद दिया जाय इसमें तो श्रीसंघ को बहुत खुशी है पर इस प्रकार चतुर्मास के अन्दर इतनी जल्दी से कार्य होना कुछ विचारणीय है अतः चतुर्मास के पश्चात् किया जाय तो हम लोगों को विशेष लाभ मिलेगा ? सूरिजी ने फरमा दिया कि मेरा अायुष्य नजदीक है अतः यह कार्य मेरे हाथों से शीघ्र ही हो जाना चाहिये । श्रीसंघ और रावहुल्ला बहुत उदास हो गये पर इसका उपाय भी तो क्या था श्रीसंघ ने जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सवादि जो इस कार्य में किया जाय यह सब विधान किया और श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन में उ, विनयसुन्दर को आचार्य पद तथा अन्यमुनियों को उपाध्याय गणि वाचक पण्डित वगैरह पदवियें प्रदान की। उ० विनयसुन्दर का नाम कक्क हरिजी का चतु० उपकेशपुर ] ९१३ Jain Education Inte? Anal Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-६५८ सूरि रखा गया तत्पश्चात् सूरिजी ने सलेखना एवं अनशन व्रत धारण कर लिया और वि० सं० ५५८ की भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन नाशवान शरीर का त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया सूरिजी के स्वर्गबास से उपकेशपुर में सर्वत्र शोक के काले बादल छा गये थे श्रीसंघ निरानन्द हो गया था वहुल्ला की ओर से सूरिजी के शरीर को विमान में बैठा कर शानदार जुलूस निकाला तथा केवल चन्दन एवं अगर तगर के काष्ठ से आग्निसंस्कार किया और उच्छला वगैरह में पांचलक्ष द्रव्य व्यय किया था सूरिजी के शरीर के अग्नि संस्कार के समय सर्वत्र केशर की बरसात हुई और जलती हुई चिता पर पंच वर्णं के पुष्पों की वर्षा भी हुई थी देवी सच्चायिका द्वारा श्रीसंघ को यह भी ज्ञात हो गया कि सूरीश्वरजी का जी सौधर्म देवलोक में महाऋद्धिवान् दो सागरोपम की स्थिति वाला देवता हुआ है। जब आचार्य श्री के मृत शरीर का अग्नि संस्कार कर सकल श्रीसंघ श्राचार्य कक्कसूरि के पास आये उस समय आचार्य कक्कसूरि बड़े ही उदासावस्था में बैठे हुए थे कि उनको संघके आने की खबर तक न रही। साधु यद्यपि निरागी एवं निस्नेही होते हैं पर छदमस्थों का स्वभाव होता है कि वे गुरु विरह को सहन नहीं करते हैं मुनि सिंहा को महावीर के बीमारी की खबर मिलते ही वह रोने लग गया गौतम स्वामी को महावीर निर्वाण समय कई प्रकार के विलापात करना पड़ा कालकाचार्य; साध्वी सरस्वती के कारण पागल से बन गये प्रकार आचार्य ककसूरि का अपने गुरु के विरह से उदासीन बन जाना स्वभाविक ही था पहले तो श्रीसंघ आचार्य ककसूर को कहा गुरु महाराज श्राज हम शासन का एक जगमगाता सितारा खो बैठे हैं जिसका महान् दुःख है और वही दुःख आपको भी है परन्तु यह बात निजोर है इसमें किसी की भी चल नहीं सकती है तीर्थंकर महावीर और आचार्य रत्नप्रभसूरि जैसे महापुरुष भी चले गये काल ऐसा निर्दय है कि इसको किसी की भी दया नहीं आती है इत्यादि श्रीसंघ के शब्द सुन सूरिजी सावधान होकर श्रीसंघ को धैर्य एवं शान्ति का उपदेश देकर अन्त में मंगलीक सुनाया और संघ उदास अपने अपने स्थान पर चला गया । आचार्य सूरीश्वरजी महारान के शासन में एक निधानकुशल नामक प्रभाविक उपाध्याय थे श्राचार्य देवगुप्त सूरि ने आपको उपाध्याय पदार्पण किया था आपके शिष्य समुदाय में वीरकुशल और राजकुशल नाम के दो धुरंधर विद्वान और विद्याबली मुनिथे आपकी योग्यता पर मुग्ध होकर श्राचार्य सिद्धसूरिने श्राप दोनों को पण्डित पद से भूषित किये थे श्रापका विहार क्षेत्र प्रायः सिन्ध भूमि था इस प्रांत में आपका जबर्दस्त प्रभाव भी था क्या राजा और क्या प्रजा आपको अपना गुरु मान कर अच्छा सत्कार किया करते थे बात भी ठीक है चमत्कार को सर्वत्र नमस्कार हुआ ही करता है । इन युगल मुनिवरों ने सिन्ध धरा में भ्रमन कर अनेक मांस मदिरा सेवियों को उपदेश एवं चमत्कारों से जैन धर्म के उपासक बना कर जैनों की संख्या में वृद्धि की । जिस समय पण्डितजी रेणुकोट नगर में विराजते थे उस समय महाराष्ट्र प्रान्त का वादी कुन्जर केसरी विरुद धारक एक वादी विजय पताका के चिन्ह को लेकर सिन्ध धरा में पहुँचा और घूमता घूमता रेणुकोट में आया उसके साथ में खास आडम्बर भी था राजा ने आपका अच्छा स्वागत किया । वादी ने राजा से कहा कि आपके नगर में यदि कोई बादी हो तो लाइये उसके साथ वाद विनोद करे जिससे आपको महाराष्ट्र के सार्वभौम्य वादियों का ज्ञान हो जाय । राजा ने अपने गुरु वीर कुशल व राजकुशल से प्रार्थना ६१४ [ सूरिजी का स्वर्गवास और रेणु कोट Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०–५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भी की पण्डितजी ने कहा-नरेश ! हम शास्त्रार्थ करने को तैय्यार हैं पर याद रहे कि वाद का विषय धर्म से सम्बन्ध रखने वाला हो कारण इससे उभयपक्ष को तत्व निर्णय ही का समय मिलता है और सब तरह से हितावही सिद्ध होता है । राजा ने कहा- ठीक है, मैं जाकर उनसे निर्णय कर लूँगा। राजा वहाँ से उठकर वादी के यहां आया और कहने लगा-यहां पर वाद करने बाले पण्डितजी तैयार हैं, पर वे, शुष्कवाद न करके धार्मिक वाद की करेंगे। वादी ने पहिले तो कुछ आनाकानी की पर आखिर उन्होंने धर्मवाद करना स्वीकार कर लिया। इस शास्त्रार्थ निर्णय के लिये कई योग्य पुरुषों को मध्यस्थ मुकर्रर किये गये । राजा ने दोनों ओर सम्मान पूर्वक आमन्त्रण पत्र भेज दिया । इधर वादी, प्रतिवादी, के आने के पूर्व ही नागरिकों एवं दर्शकों से सभा खचाखच भर गई कारण, जनता को वादियों की विद्वत्ता एवं वाद विवाद की कुशलता देखने की पूर्ण उत्कण्ठा थी। इधर तो पं० वीरकुशल, गज कुशल अपने शिष्यों एवं भक्तों के साथ और उधर वादी ने अपने आडम्बर के साथ राज सभा में प्रवेश किया और पूर्व निर्दिष्ट स्थानों पर अपने २ श्रासन लगाकर बैठ गये । वादी ने मंगलाचरण में ही शुष्कवाद करना प्रारम्भ किया, इस पर पं० राजकुशल ने कहा-ऐसे शुष्कवाद से आपका क्या प्रयोजन और क्या लाभ सिद्ध होने वाला है ? वाद ऐसा कीजिये जिससे जनता को तत्त्ववाद का ज्ञान हो एवं सब ओर से लाभ पहुँचे । अतः शास्त्रार्थ में इस विषय की चर्चा की जाय कि आत्मा से परमात्मा कैसे हो सकते हैं ? वादी ने कहा-आत्मा है या नहीं हम इस विषय का शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते हैं हम तो केवल चमस्कार वाद ही करना चाहते हैं । या तो आप इसको स्वीकार करो या अपनी पराजय मान लो । पं० राजकुशल ने कहा कि हम पहिले ही बता चुके हैं कि धार्मिक विषय के विवाद से जन समाज सत्य धर्म की ओर प्रवृत्त होता है जिससे जनता का कल्याण और धर्म का मान बढ़ता है। इन्द्रजालियों की भांति भौतिक चमत्कार बतला कर जनता को खुश करना उनसे मानपत्र लेना या कौतुक बता कर द्रव्य एकत्रित करना, इनमें आत्मिक क्या लाभ है ? वादी-यह तो आपकी कमजोरी है। मालूम होता है आप जनता के लिये भारभूत ही हैं, यदि ऐसा ही है तो आप स्पष्ट शब्दों में क्यों नहीं कह देते हो कि हम वाद विवाद करने को तैय्यार नहीं है। शायद आप अपनी पराजय स्वीकार करने में शरमाते हैं । पं० राजकुशल-हम कमजोर नहीं हैं, हमारे पास सब कुछ है पर हमें आप पर दया पाती है । कारण, आज तक छल, प्रपञ्च द्वारा जनता को धोखा देकर जिस द्रव्य को लूटा है व भौतिक चमत्कारों से जो प्रतिष्ठा प्राप्त की है, उस श्राजीविका का भंग हो जाने से कहीं दुःखी न हो लामो इसका हमें भय है । वादी ने कहा-ऐसा वितण्डावाद करना विद्वानों के लिये उचित नहीं है। यह तो केवल धर्म की भाड़ में भद्रिक जनता को अपनी जाल में फंसाने का एक मात्र सरल उपाय है। हम तो दावे के साथ कहते हैं कि न तो आत्मा है और न श्रात्मा से परमास्मा ही बनता है। दूसरी बात, इस विय के विषवाद से जनता को लाभ ही क्या है ? यह तो भिन्न भिन्न मत वालों ने अपनी २ दुकानदारी जमाने के लिये शास्त्रार्थ की चर्चा ] ६१५ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ भिन्न भिन्न कल्पना कर डाली है। यदि आपके अन्दर थोड़ी भी योग्यता हो तो जनता के सामने कुछ चमत्कार बतलाइये | पं० राजकुशल ने कहा- बड़ा ही अफसोस है कि आप जैसे विद्वानों की ऐसी मान्यता किन आत्मा है और न श्रात्मा से परमात्मा ही बनता है फिर आत्मा को स्वीकार किये बिना चमत्कार की आशा रखना आकाश कुसुम वत ही समझना चाहिये । कारण 'मूलं नास्ति कुतः शाखा' चमत्कार आत्मा से पेदा होता है, जब आत्मा ही नहीं तो चमत्कार कैसे हो सकता है ? महात्माजी ! या तो आपको आत्मा के विषय में पर्याप्त ज्ञान नहीं है या जान बूझ कर धोखा खा रहे हैं। यदि ऐसे शब्द किसी मूर्ख एवं अज्ञानी के मुंह से निकल जाते तो क्षतव्य थे पर आप जैसे विजयाकांक्षी विद्वानों के मुंह से ऐसे शब्द शोभा नहीं देते हैं । इस प्रकार पण्डितजी के निडरता पूर्वक वचनों को सुनकर सब लोग पण्डितजी के सामने टकटकी लगाकर देखने लगे । इतना ही क्या ? वादी स्वयं विचार सागर में निर्मग्न हो गया । शायद वादी के लिये यह एक भीषण समस्या बन गई होगी कि इसका क्या उत्तर दिया जाय ? कुछ समय के पश्चात् मौन ल्याग कर वादी ने कहा- मुझे दुःख इस बात का है कि स्वयं विवाद के लिये अयोग्य होते हुए भी दूसरों की मीमांसा करने जा रहे हैं। महात्माजी ! केवल वाग्युद्ध से ही मनुष्य को विजय नहीं मिलती है पर संसार में कुछ करके बतलाने से ही दुनियां को विश्वास होता है । यदि आप में कुछ योग्यता हो तो लीजिये मैं वाद का प्रथम प्रयोग करता हूँ । आप इसका प्रतिकार कीजिये | ऐसा कहकर वादी ने सभा में जितना अवकाश था उतने स्थान पर बिच्छुओं का ढेर कर दिया । इसको देखकर सभा आश्चर्य के साथ भय भ्रान्त हो गई । पण्डितजी ने अपनी विद्या से मयूर बनाये कि बिच्छू को पकड़ २ कर आकाश में ले गये जिसको देख बादी को कोप हुआ उसने सर्प बनाये पण्डितजी ने नकुल बनाये कि सर्पों का संहार कर दिया । बादी मूषक बनाये पण्डितजी ने मंझार बनाये । बादी ने व्याघ्र बनाये पण्डितजी ने सिंह बनाये इत्यादि बादी जिसने प्रयोग किये पण्डितजी ने उन सब का प्रतिकार कर दिया जिसको देख वादी का मान गल गया और राजा प्रजा को गुरुमहाराज के लिये बड़ी खुशी हुई कि हमारे देश में एवं हमारे धर्म में ऐसे-ऐसे विद्वान विद्यमान हैं कि विदेशी वादियों का पराजय कर सकते हैं । बस ! सभा का समय आ गया पण्डितजी की विजय घोषणा के साथ सभा विसर्जन हुई । बादी के दिल में कुच्छ भी हो पर ऊपर से पण्डितजी का सत्कार करने के लिये पण्डितजी के उपाश्रय तक पहुँचाने को गया पण्डित वीरकुशल ने वादी का सत्कार किया और साथ में श्रात्म कल्याण के लिये उपदेश भी दिया कि इस प्रकार की विद्याओं से जन मन रंजन के अलावा कुच्छ भी लाभ नहीं है यदि जितना परिश्रम इन कार्यों में किया जाता है उतना आत्म कल्याण के लिये किया जाय तो जीव सदैव के लिये पूर्ण सुखी बन जाता है इत्यादि । बादी कई अर्सा तक रेणुकोट में ठहर कर पण्डितजी के पास से आत्मीय ज्ञान हाँसिल कर आखिर अपने छात्रों के साथ पण्डितजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्ष स्वीकार कर ली जिसका नाम सत्यकुशल रखा तदानन्तर पण्डितजी को लेकर महाराष्ट्रीय प्रान्त में गये १६ [ शास्त्रार्थ में पंडितजी की विजय Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नारा ने और अपनी विद्या एवं जैनधर्म के सिद्धान्त का उपदेश कर अनेक भव्यों को जैन धर्म की दीक्षा दी सूरिजी के शासन में ऐसे अनेक मुनि रत्न थे वे सदैव शासोन्नति किया करते थे। आचार्य सिद्धसूरि ने अपने ३८ वर्ष के शासन में जैनधर्म की कीमती सेवा की उन्होंने पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक विहार कर जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया अनेक भावुकों को दीक्षा दी कई अजैनों को जैन बनाये जिसमें सेठ सालग और राबहुल्ला का वर्णन पाठक पढ़ चुके हैं फिर साधारण जनता की तो संख्या ही कितनी होगी। तथा कई बार यात्रार्थ तीयों के संघ और अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई इन सब बातों का पट्टावली श्रादि प्रन्थों के विस्तार से वर्णन मिलता है उनके अन्दर से मैं यहाँ कतिपय नामोल्लेख कर देता हूँ जिससे पाठक आसानी से समझ सकेंगे कि पूर्वाचार्य के मन मन्दिर में जैनधर्म का प्रचार एवं उन्नति करने की कितनी लग्न थी क्या वर्तमान के सूरीश्वर उनका थोड़ा भी अनुकरण करेंगे ? प्राचार्य श्री के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ । १-उपकेशपुर के श्रष्टिगोत्र शाह जेहल ने सूरिजी. दीक्षा २-माडव्यपुर के विरहटगौ० , खुमाण ने , ३-क्षत्रीपुरा के भूरिगौ० , देशल ४-आसिकादुर्ग के श्रेष्टिगो० , ५-खटकुंप नगर के आदित्यनाग शाह नारद ने ६-मुग्धपुर बाप्पनाग रावल ने ७-नागपुर के चोरलिया. पुग ८-पद्मावती __ के सुचंतिगी० खूमा ने ९-हर्षपुर के मल्लगी० देदा ने १०- कुर्चरपुर चरडगी. नाथा ने ११-शाकम्भरी के बलहागौ० १२-मेदनीपुर के सुघड़ गौ० चोला ने १३-फल वृद्धि के रांका जाति १४-विराटनगर के तप्तभट्टगौ० लाला ने १५-मथुरापुरी के करणादृगौ० कुभा ने १६-बनारस के पोकरणा जाति , काल्हण ने १७-ताकोली के कुलभद्रगो. नागदेव ने १८-जावोसी के श्रीश्रीमाल चाम्पा ने १९-लोहाकोट के श्रेष्टिगौ० , वीरदेव ने २०-शालीपुर के भाद्र गौत्र , कानड़ ने २१-डामरेल के चिचटगी० , नागड़ ने सरिजी के शासन में भावुकों की दीक्षाएं ] ६१७ दुधा ने हीरा ने Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धम्ररि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ पुनड़ ने गेंदा ने पाता ने २२-बीरपुर के भूरि गौ० , २३-उचकोट के कनोजिया पोमा ने २४-हाप्पा के डिडुगौत्र लाखण ने २५-शिवनगर के लघुष्टि रणदेव ने २६-भुजपुर के कुमट गौ० पोलाक ने २७-नागणा के करणादृगौ. अरुणदेव ने २८-शत्रुजय के बलाहा गौ० , हर्षदेव ने २९-- बर्द्धमानपुर के मोरक्ष गौ० , चुड़ा ने ३०-खोखल के चोरलिया. , ३१-~भरोंच के बाप्य नाग गोत्र ,, गोल्ह ने ३२-सोपार के रांका जाति , पीरोज ने ३३-लोहारा । के श्रेष्टि गौ० , फूवा ने ३४-मोखली के अदित्यनाग० , ३५-कुलोरा के सुचंतीगौ० जेकरण ने ३६ -- उज्जैन के बोहराजाति नायक ने ३७-माण्डवदुर्ग के श्रीमाल वंश , जाकण ने ३८-चन्द्रावती के प्राग्वट वंश शाह बोदु ने ३९-चंदेरी के प्राग्वट वंश , ४०-चापड़ के क्षत्री वंश वीर खेतसी ने ४१-कोरंटपुर के ब्राह्मण शिवदास ने ४२-सत्यपुर के श्रीवंश जाति शाह करमण ने ४३-पालिहका के सुचंति गौत्र , भैंसा ने ४४-चरपट के कुलभद्र गौ० , सांजण ने इनके अलावा पूर्व एवं दक्षिण में भी सूरिजी के चरण कमलों में बहुतसी दीक्षाएँ हुई थी तथापि यहाँ पर तो प्रायः उपकेश वंशियों की जो वंशावलियों में नामावली दी है उनके थोड़े से नामोल्लेख किये है: प्राचार्यश्री के शासन में तीर्थों के संघादि सद्कार्य:१--पाहिक नगरी से सुचंति गौ० शाह देदेने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला २-कोरंट पुर से प्राग्वट नेना ने ३-चन्द्रावती से सेठ सालग ने श्री सम्मेत शिखरजी का , " ४-पद्मावती से श्रेष्टि गौ० मेहराज ने श्री शत्रुञ्जय तीर्थ का , , ५-नागपुर से आदित्यनाग. शाह धन्ना ने ६-मेदनीपुर से कुमट गौ० जैतसी ने ६१८ [सरिजी के शासन में तीर्थों का संघ राजा ने Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] ७ -- उज्जैन नगरी से बाप्पनाग गौ० गोकल ने ८- आघाट नगर से विंचट गौ० पेथा ने ९ - कीटकुंप से श्रेष्ट गौ० शाह सुंघा ने १० - खटकुप से सुचंती गौ० शाह चैना ने ११- वीरपुर नगर से भाद्र गौ० शाह सांकला ने [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास " 27 "" "" " "" "" "" " "" " " " 35 "1 19 11 १२ -- स्तम्मनपुर से श्रीमाल शाह पूरण ने 15 37 १३ – उपकेशपुर के श्रेष्ट गौत्रीय रावनारायण ने दुकाल में शत्रुकार दिया १४ -- चन्द्रावती का प्राग्वट काना दुकाल में शत्रुकार दिया १५ - सत्यपुर के भूरि गौ भावडा ने दुकाल में शत्रुकार दिया 7 उसकी स्त्री १६ - भिन्नमाल के श्रीमाल केरा की पुत्री हाला ने एक तालाब खुदाया १७- नागपुर के आदित्यनाग चाहड की स्त्री चहाडी ने एक तालाब बनाया १८ - उपकेशपुर के बाप्पनाग ऊमा युद्ध में काम आया १९ - माडव्यपुर के डिडू गौ देपाल संग्राम में काम आया २० - मुग्धपुर के सुचंती गौ० मंत्री मोकल २१ - कोरंटपुर के प्राग्वट० टावा २२ - भिन्नमाल के चरड़ गौ० लाढ़क २३- चन्द्रावती के भाद्र गौ० जैता २४ - चित्रकोट के कुमट गौ ० भूकार २५ - श्राघाट नगर के बलाह गौ० शाह भादू २६ - जावलीपुर के श्रेष्ठ गौ: शाह नोंधण २७- नारदपुरी के प्राग्वट मंत्री जिनदास 35 इत्यादि पट्टावलीकारो ने अनेक उदार नररत्नों की उदारता और वीर योद्धों की वीरता का पूर्ण परिचय करवाया है इससे पाठक समझ सकेंगे कि पूर्व जमाने का जैनसमाज वर्तमान जैनसमाज के जैसा नही था पर वे जिस काम को हाथ में लेते थे उसको सर्वांग सुन्दर बना देते थे धन में तो वे कुबेरही कहलाते थे तब युद्ध राम लक्ष्मण का कार्य कर बतलाते थे व्यापार में तो वे इतने सिद्ध हस्त थे कि उनकी बराबरी करने वाला संसार भर में खोजने पर भी शायद ही मिला सकता था ? यही कारण है कि उस व्यापार में न्यायोपार्जित द्रव्य को वे सद्कार्य में खुल्ले दिल से व्यय किया करते थे उस समय धर्म कार्यो में मन्दिर बनाना, संघ निकालना, दुकाल आदि में देश वासी भाइयों की सहायता करना ही विशेष समझा जाता था श्रव यहां पर उन उदार पुरुषों की उदारता का थोडा परिचय करवा दिया जाता है । 19 19 " "" 27 "" 27 " "3 "" 39 33 " 29 19 17 "" "" " " 33 प्राचार्य श्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएँ १ - शाकम्भरी के भाद्रगौत्रीय २ - पोसनपुर के श्रेष्टिगो ० शाह श्रमर के के " सुरजन सूरिजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठा ] " "" " 39 "" 29 22 सती हुई "" "" " 19 33 "1 ラン 39 35 बनाये महावीर की प्रतिष्ठा करवाई बनाये पार्श्व० "" १९ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] श्रदित्यना ३ - मेदनीपुर के ४ -- जोगनीपुर के सुचंती गौ ५ - नारदपुरी के सुघड़गौत्री ६ -- कंटक के श्रदित्यानगागौ० ७ - बोलाकी श्रेष्टिगौ ८ - श्ररहणी ९ - मादरी १६ - मानपुर १७- रत्नपुर १८ - रावोली १९ - कण्डनेर के १० - जोवासा ११ - वल्लभीपुरी के १२ - राजवाड़ी के १३ – उचकोट के १४- मारोटकोट के १५--- धौलौना के के के के के के के के २० २५- भावनीपुर के २६ -- सत्यपुर के २७- - कोरंटनगर के 2 भूरिंगो भाद्रगौ० कुमटगौ कनोजिया डिडू गौ० बाप्पनाग० चोरलिया जाति 2 २० - दान्तिपुर के बलाहगौ ० मोरक्षगौ० १२ - विशोणी के २२ - विराटनगर के भूरिगो० २३- नागपुर के विरहटगौ २४ - पतोलिया के फुलभद्रगो रांकारजाति पोकररणा जाति लघुश्रेष्टि तप्तभट्टगौ० बाप्पनागगौ० "" ,, खुमाण दुर्गा मांदा के सांगण के :" ,, सहजपाल के यशोदित्य के "" ,, यशपाल के ” मुकन्द "" 19 ,, मथुरा रामदेव राजसी के "1 59 " चतरा के के 29 "" ऊमा अर्जुन सोमा " ” शादूला " पन्ना " मन्ना धीरा कमला "1 " आइदान के " आसा बनाये ,, कृ.प्पा " जसा " "" "" "" "" 33 33 39 33 99 "" "" 33 "" [ ओसवाल संवत् ६२०-६५८ "" महावीर ० महावीर ० 39 13 "" "" आदीश्वर "3 महावीर "3 99 "9 19 "" 10. पाश्वनाथ "" "" बिमल "" महाबीर 12 19 " " "" "" 99 " 19 19 "" 99 59 59 39 33 19 "" " 99 27 "" 33 "" "3 19 " 91 "9 17 19 " 19 39 ") 19 19 11 "" 97 35 "" 19 प्राग्वटवंशी प्राग्बटवंशी श्रीमालवंशी " काल के इनके अलावा और भी कई प्रान्तों में कइ मुनियों द्वारा विशाल मन्दिरों की एवं घर देरासर की प्रतिष्टाएँ हुई थी क्योंकि वह जमाना ही ऐसा था कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में छोटा बडा एक मन्दिर बनाना अवश्य चाहता थाः--- पट्ट पैतीसवे सिद्धसुरोश्वर, विरहटगौत्र वर भूषणये । चन्द्र स्पर्द्धा कर नहीं पाता, क्योकि उसमें दूषण ॥ साल सेठ और वीर हुल्लाकी, जैनधर्म में दीक्षित किये । क्रान्तीकारी उद्योत किया गुरु, युगप्रधान बहुलाम लिये || इति भगवान् पार्श्वनाथ के ३५ वे पट्टधर आचार्य सिद्धसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुए। "" "" " 11 "" "" " "" [ सूरिजी का स्वर्गवास Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन भगवान महावीर की परम्परा २१ आचार्य मानतुंग सूरि के पट्ट पर श्राचार्य वीर सूरि हुए। आप श्री के जीवन के विषय का विशेष विवरण पट्टावलियों एवं प्रबंधों में नहीं मिलता। हां, इतना अवश्य उल्लेख है कि आचार्य वीर सूरि ने नागपुर में भगवान् नेमिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवा कर अपनी धवल यश चन्द्रिका को चतुर्दिक में विस्तृत की । इस घटना का समय वीर वंशावली में विक्रम सं० ३०० का लिखा है । नागपुरे नमिभवने -प्रतिष्ठया महित पाणि सौभाग्यः अभवद्वीराचार्य स्त्रीभिः शतैः साधिके राज्ञः ॥ १ ॥ इस प्रतिष्ठा के समय आपके द्वारा बहुत से अजैनों को जैन बना कर उपकेश वंश में मिलाने का भी उल्लेख है, इससे पाया जाता है कि, आचार्य वीरसूरि जैन धर्म के प्रचारक महाप्रभाविक श्राचार्य हुए थे I २२ आचार्य वीर सूरि के पट्ट पर आचार्य जयदेवसूरि हुए। आप श्री बड़े ही प्रतिभाशाली एवं जैन धर्म के प्रखर प्रचारक थे । श्राचार्य श्री ने रणथंभोर नगर के उत्तुंगगिरि पर भगवान् पद्मप्रभ तीर्थंकर के मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई, तथा देवी पद्मावती की मूर्ति की भी स्थापना की। आपका विहार क्षेत्र प्रायः मरुधर ही था । श्रपश्री ने अपने प्रभावशाली उपदेशामृत से बहुत से क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर उपकेशवंश में सम्मिलित किये । उस समय जैसे उपकेशगच्छाचार्य एवं कोरंटगच्छाचार्य अजैनों की शुद्धि कर, जैन धर्म की दीक्षा देकर उपकेश वंश की संख्या बढ़ा रहे थे वैसे ही, वीर संतानिये भी उनमें सतत प्रयत्नों द्वारा हाथ बटा रहे थे ऐसा, उपरोक्त श्राचार्यों के संक्षिप्त जीवन से स्पष्ट ज्ञात होजाता है । २३ आचार्य जयदेव सूरि के पट्टधर आचार्य देवानंद सूरि हुए। आप श्री अतिशय प्रभावशाली थे | आपके चरण कमलों की सेवा कई राजा महाराजा ही नहीं अपितु कई देवी देवता भी किया करते I 1 आपश्री ने देव ( की ) पट्टन में श्रीसंघ के आग्रह से भगवान् पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई साथ ही ही कच्छ सुथरी प्राम के जैन मंदिर की प्रतिष्ठा भी बड़े ही समारोह के साथ करवाई। इन सुअवसरों पर बहुत से क्षत्रिय वगैरह को जैन बना कर उपकेशवंश में सम्मिलित किये। २४ आचार्य देवानंद सूरि के पट्ट पर आचार्य विक्रम सूरि हुए। आप धर्म प्रचार करने में विक्रमशाली अर्थात् मिध्यात्व, अज्ञान और कुरूढ़ियों का उन्मूलन करने में बड़े ही वीर थे। आप श्री का विहार क्षेत्र मरुधर, मेदपाट, आवंती, लाट और सौराष्ट्र था । एक समय आप गुर्जर प्रान्त में विहार करते हुए स्वरसाड़ी ग्राम जो सरस्वती नदी के किनारे था; पधारे। वहां अच्छे निर्वृति के स्थान में रह कर सरस्वती देवी का आराधन प्रारम्भ किया । उक्त आराधन काल में आप श्री ने पानी रहित चौविहार तप पूरे दो मास तक किया । जिससे देवी सरस्वती ने प्रसन्न हो आचार्य श्री के चरणों में नमस्कार किया और कहा श्राचार्य देव ! आपकी भक्ति पूर्ण आराधना से मैं बहुत प्रसन्न हुई हूँ और श्रापको वरदान देती हूँ कि ज्ञान में आपकी सदैव विजय होगी । आचार्य श्री ने देवी के वरदान को तथास्तु कह कर स्वीकार कर लिया । आचार्य श्री के तपः प्रभाव से समीपस्थ पीपल का वृक्ष जो कई असें से शुष्क प्राय था हरा भरा नव पल्लवित होगया । इससे जन समाज में श्राचार्य श्री के चमत्कार की खूब प्रशंसा एवं कीर्ति फैल गई। तत्पश्चात् श्राचार्य श्री ने धजधार गोल आदि कई स्थानों में विहार कर, अनेक जैनेतरों को जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा भ० महावीर की परम्परा ] Jain Education In ११६onal [ भोसवाल संवत् ६२० - ९५८ a ९२१ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास देकर, उपकेशवंश ( महाजन संघ ) में मिला कर जैनियों की संख्या में खूब वृद्धि की। आप श्री ने अपने ज्ञान रूपी किरणों का प्रकाश चारों ओर फैलाते हुए, श्रज्ञानांधकार का नाश कर धर्म के प्रचार क्षेत्र को विशाल बनाया | आप श्री के इतने प्रभावशाली होने पर भी आपके जीवन के विषय के साहित्य का तो भाव ही है। इस ( साहित्याभाव ) का कारण ( मुसलमानों की धर्मान्धता रूप ) हम ऊपर लिख आये हैं । २५ आचार्य विक्रम सूरि के पट्ट पर प्राचार्य नरसिंह सूरि धुरंधर आचार्य हुए। श्राप श्री ने कई प्रान्तों में विचर कर जैन धर्म का खूब प्रचार किया। एक समय आप नरसिंहपुर नगर में पधारे। यहां पर एक मिथ्यात्व यक्ष भैंसे बकरों की बलि लिया करता था । और तद्ग्रामवासी भी मरणमय से भयभीत हो इस प्रकार की जीव हिंसा किया करते थे । अस्तु, आचार्य नरसिंहसूरि एक समय यज्ञायतन में रात्र पर्यन्त रहे जिससे यक्ष कुपित हो सूरिजी को उपसर्ग करने के लिये उद्यत हुआ । पर आचार्य श्री ने यक्ष को इस प्रकार उपदेश दिया कि उसने अपने ज्ञान से सोचकर जीवहिंसा छोड़ दी । ततः प्रभृति वह यक्ष श्राचार्य श्री का अनुचर होकर उपकार कार्य में सहायता पहुँचाने लगा । इस चमत्कार को देख बहुत से क्षत्रिय वगैरह जैन लोग सूरिजी के भक्त बन गये। सूरिजी ने भी इन सबको जैनधर्म की दीक्षा देकर उपके वंश में मिला दिये । इसके सिवाय भी सूरिजी ने अनेक स्थानों में विहार कर क्षत्रियों को जैन बनाये | उनमें, खुमाण कुल के क्षत्रीय भी थे। इतना ही क्यों पर उसी राज्य कुलीय समुद्रनाम के क्षत्रिय को होनहार समझ अपना शिष्य बनाया और अपने पट्टपर आचार्य बनाकर अपना सर्वाधिकार उसके सुपर्द किया । आचार्य नरसिंहसूरि ने 'यथा नाम तथा गुण' बाली कहावत को चरितार्थ कर अपना नाम सार्थक कर दिया । २६ आचार्य नरसिंह सूरि के पट्ट पर आचार्य समुद्र सूरि बड़े ही चमत्कारी श्राचार्य हुए। आप एक तो क्षत्रिय कुल के थे दूसरे कठोर तपके करने वाले । तपस्या से अनेक लब्धियां प्राप्त होती है। तथा देवी देव प्रसन्न हो तपस्वी महात्मा की सेवा में रहने में अपना अहोभाग्य समझते हैं । तपस्वी का प्रभाव साधारण जनता पर ही नहीं पर बड़े २ राजा महाराजाओं पर भी पड़ता है | आचार्य समुद्रसूरि जैसे तपस्वी थे बैसे साहित्य के व ज्ञान के समुद्र भी थे । आपश्री ने अनेक ग्राम नगरों में बिहार कर जैनधर्म का अच्छा उद्योत किया। भैंसे और बकरे की बलि लेने वाली चामुण्डा देवी को प्रतिबोध देकर मूक प्राणियों को अभयदान दिलाया । जिस समय श्राचार्य समुद्रसूरि का शासन था उस समय दिगम्बरों का भी थोड़ा २ जोर बढ़ गया था पर आचार्य समुद्रसूरि ने तो कई स्थानों पर शास्त्रार्थ कर, दिगम्बरों को पराजित कर श्वेताम्बर संघ के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया। इतना ही क्यों पर श्वेताम्बरों के नागृहद नाम के तीर्थ - जिसको कि दिगम्बरों ने दवा लिया था; श्राचार्य समुद्रसूरि ने पुनः ( उस तीर्थ को ) श्वेताम्बरों के कब्जे में करवा दिया। श्राचार्य समुद्रसूरि ने अपने शासन समय में जैनधर्म की अच्छी उन्नति की । "खोमाण राजकुलजोsपि समुद्रसूरि गच्छे, शशांककल्पः प्रवणः प्रमाणी । जित्वा तदा क्षपणकान् स्ववंश वितेने नागहृदे भुजगनाथ नमस्तीर्थे ।" २७ आचार्य समुद्रसूरि के पट्टधर आचार्य मानदेवसूरि (द्वितीय) हुए। आप श्री बड़े ह ९२२ [ आचार्य विक्रमसू Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ प्रतिभाशाली थे | आपने श्रनेक ग्राम नगरों में विहार कर जैन धर्म की खूब प्रभावना की । आपके शासन समय का हाल जानने के लिये भी साहित्य का अभाव ही दृष्टिगोचर होता है । केवल पटावलियों में थोड़ा सा उल्लेख मिलता है तदनुसार--आप अपने शरीर की अस्वस्थता के कारण सूरि मंत्र को विस्मृत कर चुके थे। पर जब आपका स्वास्थ्य अच्छा हुआ तो आपको बड़ा ही पश्चाताप हुआ । श्रतः पुनः सूरि मंत्र प्राप्ति के लिये आप श्री ने गिरनार तीर्थ पर जाकर चौविहार तपश्चर्या करना प्रारम्भ किया। पूरे दो मास त होने के पश्चात् आप श्री के तपः प्रभाव से वहां की अधिष्ठात्री देवी अम्बिका ने आपकी प्रशंसा की व सूरि मंत्र की पुनः स्मृति करवादी । वीर शासन परम्परा में आप प्रभाविक आचार्य हुए हैं । भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा एवं उपकेशगच्छाचायों के साथ सम्बन्ध रखने वाले वीर परम्परा के २७ अचार्यों के जीवन क्रमशः लिखे हैं । पर इससे पाठक यह न समझ लें कि महावीर की परम्परा में केवल ये सत्तावीस ही पट्टधर आचार्य हुए हैं । कारण, हम ऊपर लिख आये हैं कि, गणधर सौधर्म से श्रार्य भद्रबाहु तक तो ठीक एक ही गच्छ चला आया था पर श्रार्यभद्रबाहु के शासन समय से पृथक २ गच्छ निकलने प्रारम्भ हो गये । तथापि - आर्य संभूति विजय और भद्रबाहु के पट्टधर स्थूलभद्राचार्य हुए पर उसी समय आर्य भद्रबाहु के एक शिष्य गौदास से गौदास नामक एक गच्छ पृथक निकला था अतः उस गच्छ की शाखा कहां तक चली यह तो अभी अज्ञात ही है । आगे चलकर श्रार्य स्थूलभद्र के पट्टधर भी दो आचार्य हुए ( १ ) महागिरी ( २ ) सुहस्ती । महागिरि शाखा के आचार्य बलिरसह हुए। इनकी परम्परा हम आगे चलकर लिखेंगे। दूसरे आर्य सुहस्ती - इनके शिष्यों की संख्या बहुत अधिक थी अतः इनके शाखारूप पृथक २ गच्छ भी निकले जो आप श्री के जीवन के साथ ऊपर लिखे जा चुके हैं। आर्य सुस्ती पट्टधर दो मुख्य आचार्य हुए ( १ ) आर्य सुस्थी (२) श्रार्य सुप्रतिबुद्ध । एवं क्रमशः आर्य वज्रसेन के चार शिष्यों से चार शाखाएं निकली और बाद चंद्रादि चार शिष्यों से चंद्रादि चार कुल स्थापित हुए । इसमें ऊपर जो २७ पट्टधरों का जीवन हम लिख आये हैं वे केवल एक चंद्रकुल की परम्परा के ही हैं । इनके अलावा नागेन्द्र, निर्वृत्ति, विद्याधर ये तीन कुल तो वज्रसेन के शिष्यों के ही थे तथा श्रार्य सुम्थी की जो गच्छ शाखाएं निकली उनका परिवार तथा आर्य महागिरि एवं गौदास गच्छ का परिवार कितना होगा; इसके जानने के लिये जितना चाहिये उतना साधन नहीं मिलता है। खैर, मेरी शोध खोज से एतद्विषक जितना साहित्य मुझे हस्तगत हुआ वह यहां संग्रहित कर लिखा जा चुका है। आर्य देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणः - श्राप आगमों को पुस्तकारूढ़ करने वाले के नाम से जैन संसार में मशहूर है । आप श्री ने नंदीसूत्र और नंदीसूत्र की स्थविरावली की रचना भी की थी। उक्त स्थविरावली के घर पर कई लेखकों ने आपको आर्य दुष्य गणि के शिष्य लिखा है तब कई लोगों ने आपको लोहित्याचार्य के शिष्य बताये हैं। पर वास्तव में आप श्रार्य संडिल्य के शिष्य थे ऐसा कल्ल सूत्र की स्थविरावली से प्रतीत होता है । इस प्रकार की विभिन्नता का खास कारण हमारी पट्टावलियां स्थविरावलियां ही है। कारण, ये परम्परा को लक्ष्य मैं रखकर लिखी गई हैं । जैसे ( १ ) गुरु शिष्य परम्परा (२) युगप्रधान परम्परा | गुरु शिष्य परम्परा में क्रमशः गण कुल शाखा और गुरु शिष्य का ही नियम है तव युगप्रधान स्थविरावली में गणकुल एवं गुरु शिष्य का नियम नहीं है किन्तु जिस किसी गण कुल शाखा में युग प्रवर्तक प्रभाविक आचार्य हुए हों उनकी ही क्रमशः नामावली आती है। नन्दी सूत्र की स्थविरावली गुरुक्रम बहुत के भ० महावीर की परम्परा ] ९२३ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की नहीं पर युग प्रधान क्रम की स्थविरावली हैं । इसमें एक शाखा के नहीं पर कई शाखाएँ के आचार्यों के नाम हैं। यही कारण है कि नंदी स्थविरावली में दुष्य गणि के बाद देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण का नाम आता है। यह यग प्रधान क्रम की गणना से ही है। कल्प स्थविरावली में आपको संडिल्याचार्य के शिष्य कहा है। दूसरे आचार्य मलयागिरि वगैरह ने तो आर्य देवर्द्धिगणि क्षमण जी को आर्य महागिरि की परम्परा के स्थविर बतलाये हैं पर, आप थे आर्य सुहस्ती की परम्परा के । श्रापश्री से करीब १५० वर्ष पूर्व भागम वाचना हुई थी एक मथुरा में आर्य स्कांदिल के अध्यक्षत्व में दूसरी वल्लभी नगरी में आर्य नागार्जुन के नाय. कत्व में । आर्य स्कांदिल आर्य सुहस्ती की परम्परा में थे तब आर्य नागार्जुन, आर्य महागिरि की परम्परा के प्राचार्य थे । इन दोनों स्थविरों ने दो स्थानों पर श्रागभवाचना की पर छदस्थावस्था के कारण कहीं २ अंतर रह गया वाद न तो वे दोनों प्राचार्य आपस में मिल सके और न उसका समाधान हो सका अतः उन पाठान्तरों के सामाधान के लिये ही पुनः बल्लभी नगरी में संघ सभा की गई और सभा में दोनों ओर के श्रमणों को एकत्रित किये गये । श्रार्य सुहस्ती एवं स्कांदिलाचार्य की संतान के मुख्य स्थविर थे आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण और आर्य महागिरि एवं आर्य नागार्जुन की परम्परा के श्रमणों में मुख्य आर्य कालकाचार्य थे । इन दोनों परम्पराओं में आगम वाचना के अन्तर के सिवाय एक दूसरा भी अन्तर था वह, भगवान महावीर के निर्वाण के समय का । आर्य देवद्धिगणि की परम्परा में अपने समय ( आर्य देवर्द्धि गणि के समय ) तक महावीर निर्वाण को ९८० वर्ष हुए ऐसी मान्यता थी तब, कालकाचार्य की मान्यता ९९३ वर्ष की थी । अतः ये दोनों स्थविर पृथक् पृथक् शाखा के ही थे। तीसरा-आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ने अपनी स्थविराक्ली में आर्य देवर्द्धिगणि को आर्य महागिरि की परम्परा के स्थविर कहकर वीगत् सत्तावीसवें पट्टधर लिखा है । जैसे-- "सरि बलिस्सह साई सामज्जो संडिलोय जीयधरो' अज्ज समुद्दो मंगु नंदिल्लो नागहत्थि य रेवइसिंहो खंदिल हिमवं नागज्जुणा य गोविंदा सिरिभूइदिन-लोहिच्च दूसगणिणोयं देवडढ़ो।" असौ च श्री वीरादनुसप्तविंशत्तमः पुरुषो देवर्द्धिगणिः सिद्धान्तान् अव्यवच्छेदाय पुस्तकाधिरूढानकार्षीत् । -मेरुतुगीय स्थाविरावली टीका ५ अर्थात्--(सौधर्म१, जम्बु२, प्रभव३, शय्यंभव४, यशोभद्र'५, संभूति , स्थूलभद्र, महागिरि८, बलिस्सह९, स्वाति १०, श्यामाचार्य ११, संडिल्य १२, जीतधर १३ समुद्र १४, मंगू१५, नंदिल १६, नागहास्ति ७, रेवति १८, सिंह१९, स्कंदिल २०, हेमवंत२१, नागार्जुन २२, गोविंद२३, भूतदिन्न२४, लोहित२५, दुष्यगणि२६ और देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण २७ । आर्य देवर्द्धिगणि ने नंदी स्थविरावली लिखी उसमें दुष्यगणि को ३१ वा पट्टधर लिखा है इससे देवद्धि ३२ वें स्थविर थे । तथाहि (१) आर्य सुधर्मा, (२) जम्बु, (३) प्रभव, (४) शय्यंभव, (५) यशोभद्र, (६) संभृतविजय, (७) भद्रघाहु, (८) स्थूलभद्र, (९) महागिरि, (१०) सुहस्ति, (११) बलिस्सह, (१२) स्वाति, (१३) श्यामाचार्य, (१४) सांडिल्य, (१५) समुद्र. (१६) मंगु, (१७) आर्य धर्म, (१८) भद्रगुप्त (१९) व (२०) रक्षित (२१) आनंदिल ९२४ [ आर्य देवऋद्धिगणि Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ९२०-९५८ (२२) नागहस्ति (२३) रेवति नक्षत्र (२४) ब्रह्मद्वीप सिंह (२५) स्कंदिलाचार्य (२६) हिमवंत (२७) नागार्जुन (२८) गोविंद (२९) भूतदिन्न (३०) लौहित्य (३ ) दुष्य गणि (३२) देवद्धिगणि । ___ इन दोनों स्थपिरावलिबों में गुरु शिष्य की नामावली नहीं पर युग प्रधान पट्टक्रम है। यही कारण है कि, उपरोक्त स्थविरावलियों में आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति नामक दोनों परम्परा के जो युग प्रधान स्थाविर हुए हैं। उन्हीं का समावेश दृष्टिगोचर होता है । जैसे नंदी स्थाविरावली में आर्य नागहस्ति का नाम आया है पर वे विद्याधर शाखा के प्राचार्य थे-यथाहिआसीत्कालिक सूरिः श्री श्रुताम्भोनिधि पारगः । गच्छे विद्याधराख्थे आर्य नागहस्ति सूरयः ॥ प्रभावक चरित्र पादलिप्त प्रबंध ४८ विद्याधर शाखा आर्य सुहस्ति के परम्परा की है जो आर्य विद्याधर गोपाल से प्रचलित हुई थी। दूसरा आर्य आनंदिल का नाम भी उपरोक्त नंदीसूत्र स्थविरावली में आता है वे भी सुहस्ति की परम्परा के आचार्य थे"आर्य रक्षित वंशीयः स श्रीमानार्यनंदिलः । संसारारण्य निर्वाह सार्थवाहः पुनातु वः ॥ 'प्रभावक चरित्र आगे नं० २५ में ब्रह्मद्वीपी सिंह का नाम आया है । ब्रह्माद्वीपी शाखा आर्य सुहस्ति की परम्परा के श्री सिंहगिरि के शिष्य समिति से निकली थी। अतः श्राप भी सुहस्ति की परम्परा के आचार्य (स्थविर) थे ! इसी प्रकार आर्य स्कंदिल और भूतदिन्न भी आर्य सुहस्ति की परम्परा के प्राचार्य थे। ___ उपरोक्त परम्प ा से नंदी सूत्र की स्थविगवली न तो आर्य महागिरि के परम्परा की स्थविरावली है और न आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण आर्य महागिरि की परम्परा के स्थबिर ही थे। नंदीसूत्र की स्थविरावली तो युगप्रधान आचार्यों की स्थविरावली है ! स्वयं क्षमाश्रमणजी ने नंदी सूत्र में अपनी गुरु परम्परा का नहीं किन्तु अनुयोगधर युगप्रधान परम्परा का ही वर्णन किया है । देखिये स्थविरावली के अंतिम शब्दजे अन्न भगवन्ते कालिप सुअ अणुयोगधरा धीरे। ते पणिमिऊण सिरसा नाणस्स परूवणं वोच्छं।। इस गाथा से पाया जाता है कि आपने अनुयोगधारक युगप्रधानों को नमस्कार करने के लिये ही स्थविरावली लिखी है। ___ श्राय देवद्धि ,णि क्षमाश्रमण आर्य सुहस्ति की परम्परा के आर्यवज्र के तीसरे शिष्य आर्यरथ से निकली हुई जयंती शाखा के आचार्य थे। इसका उल्लेख स्वयं क्षमाश्रमणजी ने कल्पसूत्र की स्थविरावली में किया है । यद्यपि उस स्थविरावली में क्षमाश्रमणजी का नाम निर्देश नहीं है पर उस गद्य के अन्त की एक गाया किसी क्षमाश्रमणजी के शिष्य या अनुयायी की लिखी हुई पाई जाती है । जैसे"सुतत्थरयणभरिए, खमदमभद्दवगुणेहिं संपन्ने । देवड़िढ खमासमणे कासवगुत्त पणिवयामि ॥ इस (कल्पसूत्र) स्थविगवली से क्षमाश्रमभजी भगवान् महाबीर के २७ वें पट्टधर नहीं किन्तु ३४ वें साबित होते हैं । जैसे (१) आर्य सुधर्मा (२) जम्बू (३) प्रभव (४) शय्यंभव (५) यशोभद्र (६) सभूति विजय-भद्रबाहु (७) स्थुलभद्र (८) सुहस्ति (९) आर्य सुस्थित सुप्रति बुद्ध (१०) इन्द्रदिन्न (११) दिन्न (१२) सिंहगिरि (१३) भ० महावीर की परम्परा ] ९२५ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० ५२०-५५८ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बज्र (१४) रथ (१५) पुष्पगिरि (१६) फल्गुमित्र (१७) धनगिरि (१८) शिवभूति (१९) भद्र (२०) नक्षत्र (२१) रक्ष (२२) नाग (२३) जेहिल (२४) विष्णु (२५) कालक (२६) संघपलित भद्र (२७) वृद्ध (२८) संघपालित (२९) हस्ति (३०) धर्म (३१) सिंह (३२) धर्म (३३) सांडिल्य (३४) दवद्धिगणि । इस गुरु क्रमावली के अनुसार देवद्धि गणि ३४ वे पुरुष थे और आर्य सांडिल्य के शिष्य थे । श्री क्षमाश्रमणजी और कालकाचार्य के आपस में मतभेद था। जब क्षमाश्रमणजी आर्य सुहरित एवं स्कांदिलाचार्य की परम्परा के थे तो कालकाचार्य किसी दूसरी परम्परा के होने चाहिये। पट्टावलियों से पाया जाता है कि कालकाचार्य आर्य महागिरि एवं नागार्जुन की परम्परा के प्राचार्य थे। पट्टावली निम्नलिखित है (१) आर्य सुधर्मा ( २ ) जम्बू ( ३) प्रभव (४) शय्यंभव ( ५ ) यशोभद्र (६) संभूतविजय (७) भद्रबाहु (८) स्थूलभद्र (९) महागिरि (१०) सुहस्ति ( ११ ) गुण सुंदर ( १२) कालकाचाय (१३) स्कांदिलाचार्य ( १४ ) रेवतिमित्र (१५) आर्यमंगु (१६) धर्म ( १७ ) भद्रगुप्त ( १८ ) वज्र ( १९) रक्षित (२०) पुष्यमित्र ( २१ ) व पेन ( २२ ) नागहस्ति ( २३ ) रेवतिमित्र (२४) सिंहसूरि (२५) नागार्जुन ( २६) भूतदिन्न (२७ ) कालकाचार्य । ___कालकाचार्य भगवान् महावीर के २७ वें पट्टधर होने से आपके समकालीन क्षमाश्रमणजी को भी सत्तावीसवां पट्टधर, लिख दिया गया है । पर ऊपर की तालिका से क्षमाश्रमणजी और कालकाचार्य के समकालीन होने पर भी श्रमणजी चौंतीसवें और कालकाचार्य सत्तावीसवें पट्टधर थे। क्षमाश्रमणजी और कालकाचार्य के परस्पर ऊपर बतायी हुई मुख्य दो बातों का ही मतभेद था। एक आगम वाचना में रहा हुआ अंतर, दूसरा भगवान महावीर के निर्वाण समय ( ९८०-९९३ ) में । उक्त दोनों विषयों में परस्पर पर्याप्त वाद विवाद भी हुआ होगा कारण, अपनी २ परम्परा से चली आई मान्यताओं को सहसा छोड़ देना जरा अटपटासा ज्ञात होता है । जब वर्तमान में भी छोटी २ निर्जीवी बातों के लिये वाद नहीं पर वितंडा वाद मच जाता है और सच्ची बात के समममें आने पर भी मत दुरा. प्रह के कारण पकड़ी हुई बात को नहीं छोड़ी जा सकती है तो उस समय के उक्त दोनों प्रश्र तो अत्यन्त पेचीले एवं विकट महत्पूर्ण समस्या को लिये हुए खड़े थे। अतः बिना वाद विवाद के सहज में ही प्रश्नों का हल होना माना जाना जरा अप्रासंगिक सा ही ज्ञात होता है तथापि उस समय के स्थविरों का हृदय अत्यन्त निर्मल एवं शासन हित की महत्वपूर्ण आकांक्षाओं से भरा हुआ होता था । यही कारण है कि वे अपनी बात को पकड़ने या छोड़ने के पहिले शासन के हित का गम्भीरता पूर्वक विचार करते थे। दो व्यक्तियों के पारस्परिक मतभेद के समाधान के लिये एक तीसरे मध्यस्य पुरुष की भी आव. श्यकता रहती है । तदनुसार हमारे युगल नायकों के लिये गन्धर्ववादी वैताल शान्तिसूरि का मध्यस्थ बन कर समाधान करवाने का उल्लेख मिलता है । जैसे : "वालब्भसंघकज्जे, उज्जमिअं जुगप्पहाण तुल्लेहिं । गन्धबवाइवेयाल संतिसूरीहिं लहीए ।" ९२६ [ आर्यदेव ऋद्धिगणि Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ९२०-९५८ इसका भाव यह है कि युग प्रधान तुल्य गन्धर्ववादी वेताल शांतिसूरि ने वालभ्य संघ के कार्य के लिये वल्लभी नगरी में उद्यम किया। गन्धर्व वादी शान्तिसूरि ने किस तरह समाधान करवाया इस विषय का तो कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं मिलता है परन्तु अनुमान से पाया जाता है कि इस मतभेद में क्षमाश्रमणजी का पक्ष बलवान रहा था। यही कारण है कि, दोनों वाचना को एक करने में मुख्यता माथुरी वाचना की रक्खी गई। जो वल्ल्भी वाचना में माथुरी वाचना से पृथक् पाठ थे उनमें जो-जो समाधान होने काबिल थे उनको तो माथुरी वाचना में मिला दिये और शेष विशेष पाठ थे उनको वाचनान्तर के नाम से टीका में और कहीं मूल में रख दिये। इसके कुछ उदाहरण मैंने इसी प्रन्थ के पृष्ठ ४५८ पर उद्धृत कर दिये हैं। इससे वाचना सम्बन्धी दोनों पक्षों का समाधान हो गया । श्री वीर निर्वाण के समय के मतभेद का समाधान तो नहीं किया जा सका फिर क्षमाश्रमणजी का पक्ष बलवान होने से ९८० को मूल सूत्र में और ९९३ को वाचनान्तर में लिखकर इसका भी समाधान कर दिया गया । जैसे: "समणस्सभगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खपहीणस्स नववाससायइं वइक्कंताई, दसमस्स वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ।" इति मूल पाठः। "वायणांतरे पुणं तेणउए संवच्छरे काले गच्छद।" इस प्रकार वीर निर्वाण सम्बन्धी मतभेद का समाधान कर शासन में शान्ति का साम्राज्य स्थापित कर दिया । बस, उस समय से ही माथुरी वाचना को अग्रस्थान मिला। यही कारण है कि क्षमाश्रमणजी ने अपने नन्दी सूत्र की स्था विरावली में माथुरी वाचना के नायक स्कंदिलाचार्य को नमस्कार करते हुए लिखा है कि आज उनकी वाचना के आगम अर्ध भारत में प्रसरित हैं: यथा "जेसि इमो अणुओगो पयरइ अज्जवि अड्डभारहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे ते वंदे खंदिलायरिए॥" -"निमित्त वेत्ता आचार्य भद्रबाह स्वामीः और वराहमिहिर" चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहुके वर्णन में हम लिख आये हैं कि कई लोगों ने वराहमिहिर के लघुभ्राता निमित्तवेत्ता आचार्य भद्रबाहु को ही श्रुत केवली भद्रबाहु स्वीकार कर लिया है पर श्रुत केवली और निमित्त वेत्ता दोनों पृथक २ भद्रबाहु नाम के आचार्य हुए । श्रुतकेवली भद्रबाहु का अस्तित्व वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी का है तब वराह मिहिर के लघु भ्राता भद्रबाहु का समय विक्रम की छट्ठी शताब्दी का है अतः यहां मैं वराहमिहिर और भद्रबाहु के विषय में उल्लेख कर देता हूँ --- प्रतिष्ठितपुर नामक नगर के रहने वाले विप्रवंशीय वराहमिहिर व भद्रबाहु नामक दो सहोदरों ने आर्य यशोभद्र के उपदेश से प्रतिपोध पाकर भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की थी। ये युगल बन्धु वेद, वेदांग पुराण, ज्योतिषादि विप्रधर्मीय शास्त्रों के तो पहिले से ही परम विचक्षण ज्ञाता थे। जैन दीक्षा अङ्गीकार करने के पश्चात् जैन शास्त्रों का अभ्यास भी बहुत मनन पूर्वक करने लगे अतः कुछ ही समय में जैन दर्शन के भी अनन्य विद्वान् हो गये। इतना होने पर भी वराहमिहिर की प्रकृति चंचल, अधीर एवं अभिमान पूर्ण थी और भद्रबाहु की शान्त, धैर्य, गम्भीर्य, दूरदर्शिता गुणों से युक्त थी अतः गुरु महाराज ने वय में लघु किन्तु गुणों में वृद्ध भद्रबाहु मुनि को ही आचार्य पद दिया। यह बात अभिमान के पुतले वराहमिहिर भ० महावीर की परम्परा] ९२७ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्वनाथ की परम्परा का इतिहास मुनि को कब सहन होने वाली थी ? वे तो क्रोध एवं अभिमान के वश में भविष्य का भी भान भूल गये । जैन दीक्षा का त्याग कर पुनः पूर्वावस्था को प्राप्त हो अपने महान् उपकारी गुरु एवं भद्रबाहुसूरि की भलती निन्दा करने लगे एवं आचार्य श्री को द्वेष बुद्धि पूर्वक नुकसान पहुँचाने का साहस करने लगे पर आचार्य श्री की प्रतिभा के सामने उनकी निन्दा ने जन समाज पर उतना असर नहीं डाला । क्रमशः उदर पूर्त्यर्थ व सांसारिक प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिये वराहमिहिर ने एक वराही संहिता नामक ज्योतिष विषयक अन्य बनाया। इस तरह निमित्त विद्या बल से उदर पूर्ति व कुछ प्रतिष्ठा के पात्र भी बन गये । वराहमिहिर के ज्योतिष विषयक अगाध पाण्डित्य को देख कर कई लोग उनसे पूछते भट्टजी ! आपने ज्योतिष का इतना ज्ञान किस तरह से प्राप्त किया है उत्तर में भट्टजी एक ऐसी कल्पित बात कहते कि एक दिन मैं नगर के बाहिर गया। वहां भूमि पर मैंने एक कुडली को लिखी। पर नगर में आते समय उस कुण्डली को मिटाना मैं भूल गया। जब मुझे उस कुण्डली को नहीं मिटाने की स्मृति आई तो मैं तत्काल वहां गया। वहां जाते ही सिंह लग्न पर साक्षात् सिंह को खड़ा देखा । मैंने भी निडरता पूर्वक या भक्तिवश सिंह के पास जाकर सिंह के नीचे की कुण्डली को मिटा दिया। इससे प्रसन्न हो सिंह के स्वामी सूर्य ने मुझे कहा-मैं तेरी कुशलता पर बहुत ही सन्तुष्ट हूँ तेरी इच्छा के अनुसार तू कुछ भी मांग, मैं तेरे मन की अभिलाषा को पूर्ण करूंगा। मैंने कहा मुझे आपके ज्योतिष मण्डल की गति-चाल देखनी है । बस, सूर्य देव मुझे अपने ज्योतिष मंडल में ले गये । और क्रमशः सब प्रह नक्षत्रों को मुझे बतला दिये । इसलिये अब मैं तीनों कालों की बातों को हस्तामलक वत् स्पष्ट रूपेण जानता हूँ। विचारे भद्रिक लोग वराहमिहिर की बात पर विश्वास कर पूजा करने लगे। यह बात क्रमशः फैलती हुई नगर के राजा के पास भी पहुंच गई और राजा भो उसका अच्छी तरह से सत्कार करने लगा। एक समय आचार्य भद्रबाहु स्वामी फिरते हुए उसी नगर में पधार गये जहां पर वराहमिहर रहता था । श्रावक समुदाय ने बड़े ही उत्साह से नगर प्रवेश महोत्सव किया। इसको देख वराहमिहर की इर्षाग्नि पुनः भभक उठी। भद्रबाहु स्वामी को अपमानित करने की इच्छा से वह एक दिन राजा के पास जाकर कहने लगा-राजन् ! आज से पांचवें दिन पूर्व दिशा से वर्षा आवेगी। तीसरे प्रहर में वर्षा का प्रारम्भ होगा। इसके साथ मैं यहां कुण्डली करता हूँ इसमें ५२ पल का एक मन्छ भी पड़ेगा मेरे इस निमित्त को श्राप ध्यान में रखने की कृपा करें। इतना कह कर वराह मिहिर स्वस्थान चला गया जब यही बात क्रमशः आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी के कर्ण गोचर हुई तो आपने स्पष्ट फरमाया कि वराहमिहर का कथन सर्वथा सत्य नहीं है कारण, वर्षा पूर्व दिशा से नहीं पर इशान कोने से श्रावेगी। तीसरे प्रहर नहीं पर तीन मुहूर्त दिन शेष रहेगा तब बरसेगी। मच्छा ५२ पल का नहों पर ५॥ पल का गिरेगा । बस, श्रारकों ने भद्रबाहु स्वामी के भविष्य को व वराहमिहर व आपके निमित्त के पारस्परिक अन्तर को तन्नगराधीश के पास में जाकर सुना दिया । राजा ने भी परीक्षार्थ दोनों के भविष्य को अपने पास में लिखवा लिया । क्रमशः पांचवां दिन आया तो आर्य भद्रबाहु स्वामी का सब कथन यथावत् सत्य हो गया और वराहमिहर का निमित्त झूठा निकल गया । इससे नगर भर में वराहमिहर की भर्त्सना एवं निन्दा होने लगी। राजा के हृदय में भी वराहमिहर के प्रति उतना सन्मान का स्थान नहीं रहा । आर्य भद्रबाहु की जग विश्रुत सत्य ताने वराहमिहर के प्रतिष्ठा मार्ग को एक दम अवरुद्ध कर दिया। वास्तव में बात भी ठीक ही है सूर्य ९२८ [ आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ पर थूकने वाले का थूक उसी के मुंह पर गिरता है; बुरा करने वाले का ही बुरा होता है । जो दूसरों के लिये कूप खोदता है उसके लिये खाई अपने आप तैय्यार मिलती है । जब राजा के पुत्र हुआ तो वराहमिहर ने नवजात शिशु की जन्म-पत्रिका बना कर उसका श्रायुष्य सौ वर्ष का बतलाया इससे राजा को बहुत ही प्रसन्नता हुई । इधर राजा के पुत्र होने से नागरिक लोग भेंट लेकर राजा के पास गये; ब्राह्मणादि आशीर्वाद देने गये पर आर्य भद्रबाहु स्वामी जैन शास्त्र के नियमानुसार कहीं पर भी नहीं गये। वराहमिहर तो इर्ष्या के कारण पहले से ही छिद्रान्वेषण कर रहा था अतः उस को यह अच्छा मौका हाथ लग गया। उसने एकान्त में राजा को विशेष भ्रम में डालते हुए कहा-राजन् । श्राप श्री के पुत्र जन्मोत्सव की सब नागरिकों को खुशी है पर एक जैन साधु भद्रबाहुस्वामी को प्रसन्नता नहीं है । वह आप के नगर में रहता हुश्रा भी अभिमान के वश शुभाशीर्वाद देने के लिये राज सभा में नहीं आया। राजा ने भी वराहमिहिर की बात सुनली पर कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया। जब यह बात क्रमशः श्रावकों के द्वारा भद्रबाहु स्वामी को ज्ञात हुई तो आर्य भद्रबाहु ने कहा-राजकुमार का आयुष्य सात दिन का है । सातवें दिन वह बिल्ली ( मंजारी) से मर जायगा। इसलिये मैं राजा के पास नहीं गया। श्रावकों ने इस बात को भी राजा के कानों तक पहुँचा दी अतः राजा को इस विषय की बहुत ही चिन्ता होने लगी। राजा ने कुमार को सुरक्षित रखने के लिये सब मार्जारों को शहर से बाहिर कर दिया और राजकुमार को ऐसे सुरक्षित मकान में रख दिया कि मंजारी आ ही नहीं सके। मकान के बाहिर पहिरेदारों को बैठा दिये जिससे मंजारी के आने का किञ्चिन्मात्र भी भय नहीं रहा । पर भावी प्रबल है; ज्ञानियों का निमित्त कभी झूठा नहीं होता अतः भद्रबाहु स्वामी के कथनानुसार ही सातवें दिन दरवाजे के किवाड़ की अर्गल नूतन राजकुमार के मस्तक पर पड़ी और वह तत्काल मर गया। इस पर वराहमिहर ने कहा-मेरी बात सच्ची नहीं है पर भद्रबाहु की बात भी तो सच्ची नहीं है कारण उसने भी कहा था कि कुवर बिलाड़ी ( मंजारी) के योग से मरेगा-पर ऐसा तो हुआ नहीं। तब भद्रबाहु ने कहा-जिस लकड़ी के योग से कुवर की मृत्यु हुई है उस पर बिलाड़ी का मुंह खुदा हुआ है देख कर निर्णय कर लीजिये। बस, भद्रबाहु स्वामी का कहना सत्य होगया । बेचारा वराहमिहिर लज्जित हो वहां से चला गया । बाद में तापस हो, कठोर तपश्चर्या करके नियाणे सहित मर कर वराहमिहर व्यन्तर देव हुआ पर संस्कार तो भवान्तर में भी साथ ही चलता है अतः अपने दुष्ट स्वभावानुसार व्यन्तर देव के रूप में भी वराह मिहर ने जैन संघ पर द्वेष कर सर्वत्र मरकी का रोग फैला दिया । संघ ने जाकर भद्रबाहु स्वामी से प्रार्थना की तो श्राचार्य श्री ने रोग निवारणार्थ "उवसग्गहर" छ गाथा (कहीं पर सात गाथा भी लिखी है) का एक स्तोत्र बनाया जिसको पढ़ने से सब उपद्रव शान्त हो गया । पर थोड़े समय के पश्चात तो जन समुदाय ने उसका दुरुप-योग करना प्रारम्भ कर दिया । जब किसी को छोटा बड़ा जरासा काम पड़ा-मट स्वसग्गहरं को स्मरण कर अपना काम निकालने लग गया। किसी की गाय ने दूध नहीं दिया कि पढ़ा उवसग्गहरं स्त्रोत्र । किसी को जंगल में काष्ट का भारा उठाने वाला नहीं मिला कि-पढ़ा उत्सग्गहरं स्त्रोत्र । ऐसे अनेक काम श्री धरणेन्द्र देवता से करवाने लग गये । स्त्रोत्र के वास्तविक उच्चतम महत्व को स्मृति से विस्मृत कर धरणेन्द्र देवता को बुलाने में शिशु कीड़ावत् बालकौतूहल करने लग गये । एक समय की बात है एक स्त्री रसोई बना रही थी। इतने में उसका छोटा बच्चा टट्टी गया और - भ० महावीर की परम्परा ] ___९२९ ११७ www.janelibrary.org Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रोने लगा । स्त्री ने सोचा-यदि इस समय मैं जाऊँगी तो रोटी जल जायगी अतः उसने बैठे बैठे ही उवसग्गहरं स्तोत्र पढ़ना प्रारम्भ किया । स्तोत्र के समाप्त होते ही धरणेन्द्र देवता अपनी प्रतिज्ञानुसार तत्काल वहाँ पर उपस्थित हुये और कहने लगे--कहो क्या काम है ! स्त्री ने कहा-क्या तुझे दीखता नहीं है-मेरा बच्चा रो रहा है। इन्द्र ने बच्चे को शौच क्रिया से निवृत्त कर उसके रोने को बन्द किया। पश्चात् धरणेन्द्र देव प्राचार्य श्री के पास में आकर निवेदन करने लगे-प्रभो ! अब तो मैं बहुत ही तंग हो चुका हूँ। इस स्तोत्र के वास्तविक महत्व का दुरुपयोग कर जन समाज जघन्य से जघन्य कार्य को करवाने के लिये इस मंत्र का स्मरण करती है अतः मैं न तो एक मिनिट ही देव भवन में ठहर सकता हूँ और न मन्त्र की महत्ता ही रहती है । मनुष्यों के तुच्छ से तुच्छ कार्य भी मुझे करने पड़ते हैं । इन्द्र की उक्त वास्तविक बात को स्मरण कर आचार्य श्री ने उवसग्गहरं स्त्रोत को जलशरण करने को कहा पर इन्द्र ने कहा-पूर्व की पांच गाथा तो रहने दीजिये सिर्फ एक छट्टी गाथा ही भण्डार कर दीजिये कि -- जिससे जरूरी काम होने पर मैं समयानुकूल उपस्थित हो सकूगा । भद्रबाह स्वामी ने भी ऐसा ही किया । ___ इस प्रकार आर्य भद्रबाहु स्वामी जैन संसार में परम प्रभावक निमित्त वेत्ता आचार्य हुए। आपका समय विक्रम की छट्टी शताब्दी का कहा जाता है । इस प्रन्थ में जिन २ प्रभाविक श्राचार्यों का जीवन चरित्र लिखा गया है उनमें कई एक ऐसे भी प्राचार्य हैं कि जिन के नाम के कई श्राचार्य हो गये हैं । इस सबों के समय में पृथकता होने पर भी पूर्व लेखकों ने जो आचार्य विशेष प्रसिद्ध थे उनके नाम पर अन्याचार्यो ( तन्नाम राशियों) की घटनाएं घटित करदी हैं । जैसे:--भद्रबाहु नाम के तीन आचार्य हुए । एक वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में, दूसरे दिगम्बर मतानुसार विक्रम की दूसरी शताब्दी में, तीसरे भद्रबाहु विक्रम की छट्टी शताब्दी में हुए। किन्तु पिछले लेखकों ने इन तीनों भद्रबाहु की पृथक २ घटना को एक ही भद्रबाहु के साथ घटित करदी । इसी प्रकार पादलिप्त मानदेव, माननुङ्ग, मल्लवादी, वगैरह प्राचार्यों की विद्यमानता का समय निर्णय एक बड़ी विकट समस्या सा दृष्टि गोचर होता है । मैंने पूर्वोक्त आचार्यों के जीवन लिखते समय जिन आचार्यों का ठीक निर्णय था उनका समय तो उसी समय लिख दिया। किन्तु, जिनके विषय में विशेष शोध खोज करने की जरूरत थी, उनको छोड़ दिया था । कारण, उस समय न तो इतना समय था और न थे इतने साधन ही अतः शेष रहे हुए श्राचार्यों का समय यहां लिख दिया जाता है। सबसे पहिले तो हम युगप्रधान प्राचार्यों का समय जो, दुषमकाल श्रमण संघादि नामक पुस्तक में लिखा मिलता है, यंत्र द्वारा लिख देते हैं । जिससे, शेष आचार्यों के समय निर्णय में सुविधा हो जाय Jain Educatio nal [ आर्य देवऋद्धि गणि Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ "सिरि दुसमा काल समण संघ थुर्य" (दुषमा काल श्री श्रमण संघ स्तोत्रम् ) [कर्ता-श्री धर्मघोष सूरिः] वीरजिण भुवण विस्सुअ पवयण गयणिकदिणमणि समाणो । वन्त सुअनिहाणे थुणामि सूरि जुगप्पहाणे ॥ १ ॥ वीस तिवीस टनवई अडसयरी पञ्चसयरी गुण नवई। सउ सगसी पणनउइ सगसी छयस्सरी अडसयरी२ चउनवइ अठ तिअ सग चउ पन्नुरुत्तरसयं । तित्तिससयं सउ पणनउई नवनवई चत्त तेवीसुदय मरी॥३ अह उदयाणं पढमे,जुगपवरे पणिवयामि तेवीसं। सिरिसुहम्म वयर पडिवय हरिस्सयं नंदिमित्तं च ॥४॥ सिरि सूरसेण रविमित्त सिरिपहं मणिरहं च जसमित्तं। धणसिंहं सच्चमित्त धम्मिल्लं सिरिविजयाणंदं५ वंदामि सुमंगल धम्मसिंह जयदेवसरि सूरदिन्नं । वइसाहं कोडिलं माहुर वणिपुत्त सिरिदत्तं ॥६॥ उदयांतिम मूरी पुसमित्त मरहमित्त वइसाहं । वंदे सुकीत्ति थावर रहसुअ जयमंगलमुणिदं ॥७॥ सिद्धत्थं ईसाणं रहमित्त भरणिमित्तं ददमित्त । सिरिसंगयमित्त सिरिधरं च मागह ममरसूगि८॥ सिरि रेवइमित्त कित्तिमित्त सुरमित्त फग्गुमित्त चाकल्लाण देवमित्तं णमामि दुप्पसह मुणिवसहह वंदे सुहम्मं जंबू पभवं सिज्जंभवं च जसभदं । संभूय विजय सिरिभद्द-बाहु सिरिथूलभद्दच १० महगिरि सुहत्थि गुणसुंदरं च सामज्ज खंदिलायरिउ। रेवइमित्त धम्मं च भइगुत्त सिरिगुत्त॥११॥ सिरिवयरमजरक्खि अमरिं पणामामि पूसमित्त च। इअ सत्तकोडिनामे पढ़ममुदए वीस जुग पवरे॥१२॥ बीए तिवीस वइरं च नागहत्थि च रेवइमित्त । सीहं नागज्जुणं भूइदिन्नियं कालय वंदे ॥१३॥ सिरिसच्चमित हारिलं जिणभदं वंदिमो उमासाई ! पुसमित्त संभूई मादर संभृइ थम्मरिसिं ॥१४॥ जिग फग्गुमित्तं धम्मधोसंच विणयमितं च। सिरि सीलमितरेवइमित्तं सूरि सुमिणमित्तंहरिमित्तं१५ इय सब्बोदय जुगपवर सूरिणो चरणसंजूए वंदे । चउतर दुसहस्सा दुप्पसहते सुहम्माइ ॥ १६ ॥ इय सुहम्म जंबू तब्भवसिद्धा एगावयारिणो सेसा । सड्ढ्दुजोअणमझे जयंतु दुभिक्खडमरहरा ॥१७ जुगपवर सरिस सूरी दुरीकय भबियमोह तमपसरे । वंदामि सोल सुत्तर इगदस लक्खे सहस्सेय ॥१८॥ पंचमअरम्मि पणवन्नलक्ख पणनन्न सहस कोडीणं । पंचसयकोडिपन्ना नमामि सुचरण सयलसूरी१९ तह सतरिकोडिलक्खा नवकोडिसय बारकोडियं । छप्पन लक्ख बत्तीस सहस्स एगूण दुन्निसया॥२०॥ तहसोल कोडिलक्खा,तियकोडिसहस्सा तिन्निकोडिसया। सतरस कोडिचुलसी लक्खा सुसावगाणं तु २१ पणतीसकोडिलक्खा सुसाविया कोडिसहस्स बाणउई । पणकोडिसया बतीस कोडि तह बारम्भहिया२२ एवं देविंदनयं सिरिविजयाणंद धन्मकीतिपयं । बीरजिण पवयण ठिई दूसमसंघ णमह निच ॥२३॥ ॥ इय दुसमा काल सिरि समण संघ थुयं ॥ दुषभ काल श्री श्रमणसंघ स्तोत्र ] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० स० ५२०-५५८) । भगवान पाश्वनाथ का परम्परा का हातहास त्रयोविंशत्युदययुगप्रधान काल यंत्रम् युग प्रधानाः उदयवर्ष प्रमाण संख्या । मास दिन २७+ २३ २९ ९ १३८० १५००+ १५४५ १९०० १ १०१० 8५ ८८० Error wr 2 v u eAAM.32222 ८७ ८५० ७८ ४४५ 223 vro 0 crorm o 9 ru our or MP4 १०८ ५९२ १०३ ९६५ ७१० १०५ ४९० ३५६ ++ ५७० ४४० युग प्रधान २००४ मध्यम गुणसूरि ३३०४४९१ युगप्रधान सामना १११६००० * १३६० व १३४६ भी है + १४६४ भी है : ४८९ भी है + १७ भी है * ७ भी है ९३२ [ युगप्रधानाचार्यों का सम Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाय सिद्धनार का जावन । [ आसवाल स० ९२०-९५८ 'उदयादिम २३ युगप्रधान-यंत्र' गृहवास व्रतपर्याय युगप्रधान काल सर्वायुः ४२ M आयसूरिनामानि सुधर्मा स्वामी . वयर सेन पाडिवय हरिस्सह नंदिमित्र सूरसेन रविमित्र श्रीप्रभ मणिरथ यशोमित्र धणसिंह सत्यमित्र धम्मिल विजयानन्द uM22. vvv 22 सुमगंल . धर्मसिंह जयदेव सुरदिन्न वैशाख कौडिल्य माथुर वाणिपुत्त श्री दत्त * * १५ * ๕ २५ x ११ भी है * २७ भी है * ११ भी है + १८ भ० महावीर की परम्परा ] ९३३ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १३ * * * * उदयान्तिम युगप्रधान २३-यंत्रम् सूरि नामानि गृह वास । व्रत पर्यायः युग प्रधान काल सर्वायुः दुर्बलिका पुष्यमित्र अरह मित्र वैशाख सत्कीर्ति थावर रहसुत जय मंगल सिद्धार्थ ईशान स्थमित्र भरणिमित्र दृढ़ मित्र संगत मित्र श्रीधर मागध अमर रेवति मित्र कीर्ति मित्र सिंह मित्र फल्गु मित्र कल्याण मित्र देव मित्र दुप्पसह सूरि २० १२० भी है, २ ४५ भी है, 3 १० भी है, ४ २० भी है, ५२९ भी है, ६ ६७ भी है, * ८१ भी है, ८ ४० भी है, ९ ५६ भी हैं, १० ६९ भी है। IFIonr Mor ur 9 vu2MAm22222 AMAR * * * * * * * * * * * * * * १३४ [युग प्रधान आचार्यों का समय Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] उदय १ ३ ४ ५ ९ १० ११ १२ १३ १४ प्रथमोदय युग प्रधान ६ ७ ८ स्थूलभद्र महागिरि सुहस्ति १५ १६ १७ १८ १९ २० सुधर्मा स्वामी जंबुस्वामी प्रभव 11 शयंभव सूरि यशोभद्र संभूति विजय भद्रबाहु गुणसुंदरसूरि श्यामाचार्य स्कंदिल रेवतिमित्र धर्म भद्रगुप्त श्रीगुप्त वज्रस्वामी आर्य रक्षित दुर्वालका पुष्पमित्र १ ६४ भी है १२ १०५ भी है ३ म० महावीर की परम्परा ] प्रथमोदय युगप्रधान - यंत्रम् भी है ८ १०८ भी है ९ १८ भी है १० है १४ ६७ भी है ! गृहवास वतप्रर्याय युग प्रधान ५० ८ १६ ३० २८ २२ ४२ ४५ ३० ३० ३०३ २४ २० २२ ५ १४ १४९ २१ ३५ ८ २२ ११ १७ ४२ २० ४४ १ ११ १४ ४० १७ २४ ४० २४ ४ ३२ ३५ ४८ ६ ४८ ४०१० ४५ ५० ४४ ४० १२ ३० ४४ ११ २३ ५० [ ओसवाल सं० ९२० - ९५८ ८ १४ ४५ ३० ४६ ४४ ४१ ३६ ७ ३६ ४४ ३९ १५ ३६ १३ १३ १३ सर्वायुः १०० ८० 3 & ८५१२ ६२ ८६ ७६ ९९ १०० १०० १०० ९६ १०६ ८ ९८ १०२ १०५ १०० ८८ ७५ ६० १४ मास | दिन ३ mr S MY 201 ३ ७ or এ or or ১০ এ १ १ १ २४ भी है ४ ३० भी है ५ १२ भी है ६ ५८ भी है ७ ३८ ४४ भी है ११, ११ भी है १२ ५१ भी है १३ २० भी ६३५ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास द्वितीयोदय युगप्रधान-यंत्रम् उदय गृहवास युगप्रधान orrr-sur 2014 २७% द्वितीयोदय युग प्रधान वयरसेन नागहस्ति रेवतीमित्र सिंहसूरि (ब्रह्मदीपक) नागार्जुन भूति दिन्न कालिकाचार्य सत्य मित्र हारिल जिनभद्रगणितमाश्रमण उमास्वाति वाचक पुष्ष मित्र संभूति मादर सभूति गुप्त धर्म ऋषि ( रक्षित) ज्येष्ठांगगणि फल्गुमित्र धर्मघोष विनय मित्र शीलमित्र रेवति मित्र सुमिणमित्र हरि मित्र mor:09ur or ० 1 ५४ । ११२+ १०४ ११० ०१० mrrrrr Dr ur r ० 0 r9999 ० ० ० ६० ४९ ७८x १०० m 9999 ० ० ० ७८ * १७ भी है + ३० भी है + १५० भी है x ७९ भी है + १०१ भी है। ९३६ Jain Education international [युगपधान आचार्यों का समर www.janelibrary.org Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ युगप्रधान समय समय कहां से कहां तक १४८ १४८ १५६ युग प्रधान गौतम श्री सुधर्मा स्वामी , जम्बु , प्रभवाचार्य ,, शय्यंभवाचार्य ,, यशोभदाचार्य ,, संभूतिविजय ,, भद्रबाहु , स्थूलभद्र , महागिरि , सुहस्ति ,, गुणसुन्दर ,, श्योमाचार्य स्कंदिलाचार्य , रेवतीमित्र १५६ २१५ १५ २४५ २४५ २९१ २९१ ३३५ ३३५ ३७६ ४१४ ४५० ३७६ ४१४ ४९४ ४६४ ,, धर्माचार्य ,, भद्रगुप्ताचार्य , गुप्ताचार्य , बज्राचार्य ५३३ ५४८ ५३३ ५४८ ५८४ ५९७ , आर्यरक्षित |, दुबंलिकापुण्य ५९७ ६१७ युगप्रधान समय निर्णय ] ११८ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहार युगप्रधान समय २० 07 เ % ६२० ६८९ ७४८ ७४८ ८२६ ९०४ ९८३ ะ 9 : เ ९०४ ९८३ ९९४ १८०१ ९९४ १८०१ १०५५ १११५ श्री वज्रसेन , नागहस्ति रेवतीमित्र , सिंहसूरि नागार्जुन भूतदिन कालकाचार्य सत्यमित्र हरिलाचार्य .. जिनभद्राच ये , उमास्वाति ., पुष्पमित्र , संभूति , संभूतिगुप्त , धर्मसूरि ज्येष्ठागण फल्गुमित्र धर्ममूरि .. विनयाचार्य शीलाचार्य रेवती सुमिण हरिलाचार्य १११५ ११९० १२५० १३०० ११९० १२५० १३६० १३६० १४०० ง แ 3 แs 5 5 5 5 5 5 5 5 5 १४७१ १५२० १५९८ १४०० १४७१ १५२० १५९८ १६८४ १७६३ १८४१ १९१९ १७६३ १८४१ १९१६ १९६४ भ० महावीर की परम्प ९३८ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ प्राचार्य उमास्वाति-नाम के दो प्राचार्य हुए हैं। एक आर्य महागिरि के शिष्य बलिस्पह और बलिस्सह के शिष्य उमास्वाति । दूसरे युगप्रधान पट्टावली के दूसरे उदय के आठवें आचार्य उमास्वाति जो आर्य जिनभद्र के बाद और पुष्पमित्र के पहिले हुए हैं। यहां पर तो बलिस्सह के शिष्य उमास्वाति के लिए ही लिखा गया है । पट्टावली में आपका समय नहीं बताया गया है तथापि, आर्थ महागिरि का समय वीरात् २१५ से.४५ तक का है तब आपके शिष्य श्यामाचार्य का समय वोरात् ३३५ से ३७६ का लिखा है । २४५ से ३३६ के बीच ९० वर्ष का अन्तर है। और इसी बीच बलिस्सह एवं उपास्वाति नाम के दो आचार्य हुए हैं। यदि ४५ बर्ष का समय बलिस्सह का मान लिया जाय तो २९० बजिस्सह और ३३५ तक उमास्वाति का समय माना जा सकता है। यह तो केवल मेरा अनुमान है पर इतना तो निश्चय है कि वीर नि० २४५ से ३३५ तक में दो आचार्य हुए हैं। श्यामाचार्य:---श्राप आचार्य गुण सुन्दर के बाद और स्कांदिलाचार्य के पूर्व युगप्रधानाचार्य हुए । आपका समय वीर नि. ३३५ से ३७६ तक का है । श्रापका अपर नाम कालकाचार्य भी है। आचार्य विमलमूरि- आपने विक्रम सं० ६० में "पउम चरिय" पदम चरित्र की रचना की थी। आचार्य सुस्थी और सुप्रतिवुद्ध ---आप दोनों प्राचार्य आर्य सुइस्ति के पट्टधर थे । आपका समय भी पट्टावलीकारों ने नहीं लिखा है किन्तु कलिंगपति राजा खारवल के जीवन में लिखा है कि उसने अपने राज्य के बारहव वर्ष में मगध पर आक्रमण किया व कलिंग से नन्द राजा के द्वारा ले जाई गई जिनप्रतिमा को पुनः लाकार आर्य सुप्रतिबद्ध के द्वारा प्रतिष्ठा करवाई। अस्तु गजा,खारवल का समय वीर नि० ३३० से ३६७ तक का है इससे यह कहा जा सकता है कि वीर नि० ३६७ में आर्य सुप्रतिबुद्ध विद्यमान थे । आर्य सुहस्ति का समय वीर नि० २९१ का है इससे, आर्य सुस्थी का समय वीर नि. २९२ से प्रारम्भ होता है । जैसे स्थुलभद्र के पट्टधर दो श्राचार्य हुए और सुस्थी के गच्छ नायक हो जाने के बाद सुप्रतिबुद्ध नायक हुए इन्होंने ३६६ में मूर्ति की प्रातिष्ठा करवाई हो तो आर्य सुस्थी और सुप्रतिबुद्ध का समय बीर नि० २९२ से ३६६ तक का माना युक्तियुक्त ही है । आचार्य इन्द्रदिन्न-श्राप आर्य सुस्थी और सुप्रतिबुद्ध के पट्टधर थे। आर्यदिन्न-श्राप आर्य दिन के पट्टधर थे। आर्य सिंहगिरिः-आप आर्य दिन्न के पट्टधर थे। आर्य वज्र-आप आर्य सिंहगिरि के पट्टधर थे और आपका समय वीर निर्वाण सं० ५४८ से ५८४ तक बतलाया जाता है। __आचार्य बन के पूर्व और आर्य सुप्रतिबृद्ध के बाद में १८२ वर्षों में उक्त तीन आचार्य हुए पर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि कौन से आचार्य कितने वर्षों तक आचार्य पद पर रहे। ___ आर्य समिति और धनगिरि-इन दोनों का समय आर्य सिंहगिरि और आर्य वन के समय के अंतर्गत ही है। आचार्यों का समय निर्णय ] ९३९ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ... आर्य कालकः-कालकाचार्य नाम के पांच आचार्य हुए हैं जिनमें - १-राजा दत्त को यज्ञ फल कहने वाले कालकाचार्य का समय वी० नि. ३००-३३५ । २-निगोद की व्याख्या करने वाले कालकाचार्य का समय वी०नि० ३३५.३७६ । ३-गर्दभल्लिविच्छेदक कालकाचार्य का समय वी० नि० ४५३-४६५ । ४-रत्न संचय की गाथानुसार कालका वार्य का समय वी०नि० ७२० । ५--वल्लभी में आगमवाचना में सम्मिलित होने वाले कालकाचार्य का समय वी० ९९३ । श्री खपटाचार्यः-श्रापका समय वी० नि० ४८४ का बतलाया जाता है। श्री महेन्द्रोपाध्याय-श्राप खपटाचार्य के शिष्य थे और खपटाचार्य की विद्यमानता में ही आपने कई चमत्कार बतला कर बहुतसी जनता को ( राजा प्रजा को ) जैन बनाये थे। प्राचार्य खपट के स्वर्ग वास के पश्चात् आप उनके पट्टधर हुए अतः आपके सूरि पद का समय वीर नि० ४८४ से प्रारम्भ होता है। आचार्य रुद्रदेव और श्रमणसिंह कब हुए इसका पता नहीं पर प्राचार्य पादलिप्त सूरि के जीवन में इनका उल्लेख होने से अनुमान किया जा सकता है कि खपटाचार्य और पादलिप्त के बीच में ये दोनों आचार्य हुए होंगे। __ आचार्यपादलिप्तमरि-आप आर्य नागहस्ति के शिष्य थे और आर्य नागहस्ति थे कालकाचार्य की संतान परम्परा के आचार्य । फिर भी पट्टावलियों में आपके लिये पृथक् २ उल्लेख मिलते हैं-- (१) माथुरी पट्टावलीमें आर्यानंदिलकेबादऔर रेवतिमित्रके पूर्व आपको २२ वें पट्टधर लिखा है। (२) नंदीसूत्रकी स्थविररावलीमें श्रानंदिल के बाद और रेवतिमित्र के पूर्व १७ वा स्थविरमाना है । (३) आर्य महागिरि की स्थविरावली में १७ वां पट्टधर माना है।। (४) वल्लभीस्थविरावलीमें आपकोवज्रसेनकेबाद औररेवतिमित्र के पूर्व २२सवें स्थविर माना है। (५) युगप्रधान पट्टावली में आपको आर्य वज्रसेनकेबादऔर रेवतिमित्र के पूर्व २२ ३०।। उक्त पट्रकम में २२-१८-१७ जो फरक है इसका कारण केवल पृथक २ पदावलियों का लिखना ही है । जैसे कई पट्टावलियों में आर्य यशोभद्र के पट्टपर संभूतिविजय ओर भद्रबाहु का एक नम्बर ही लिखा है, तब कई पट्टावलियों में (यु० प्र०) संभूतिविजय के पट्ट पर भद्रबाहु को लिख दिया । इसी प्रकार भार्य स्थूलभद्र के पट्टपर आर्य महागिरि और आय सहस्ती के लिये लिखा है तब अन्य पट्टावलियों में इन दोनों को अलग २ पट्टधर लिखा है । अस्तु उक्त कारण को लेकर पट्टक्रम नम्बर में फरक पाता है पर वास्तव में वह फरक नहीं है । दूसरी कई प टावलियों आय आनंदिल के बाद तो कई में आर्य वनसेन के बाद नाग हस्ति का नम्बर आया है पर, इन दोनों श्राचार्यों का समकालीन होना ही पाया जाता है । कारण, आर्य आनंदिलो को ॥ पूर्वधर कहा तब आर्य वज्रसेन के गुरु आर्य वज्रसूरि को दश पूर्वधर । अतः वनसेन के समय दश पूर्व या नव पूर्व का ज्ञान अवश्य था ही । अस्तु, उक्त भाधार से आर्य नागहस्ति का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी माना जा सकता है पादलिप्त सूरि का समय नागहस्ति के बाद का है पर, कई चूर्णियों एवं भाष्यों में पादलिप्तसूरि को आर्य खपट के समकालीन होना लिया है । यही नहीं, खपटाचार्य की सेवा में रह पादलिप्त को अनेक चमत्कारी विद्यार्थ ६४० [ भ० महावीर की परम्परा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ के प्राप्त होने का भी पट्टावलियों में उल्लेख मिलता है तब खपटाचार्य का स्वर्गवास तो वीर निर्वाण ४८४ में ही हो गया था | इस कारण यह अनुमान किया जा सकता है कि खपटाचार्य से विद्या हासिल करने वाले पादलिप्रसूरि पहले हुए हैं और नागहस्ति के शिष्य पादलिप्त बाद में हुए । एक ही नामके अनेक आचायों के होने से उन आचार्यों के नामों के साम्य को लक्ष्य में रख पिछले लेखकों ने दोनों पादलिप्तसूरि को एक ही लिख दिया हो जैसे कि भद्रबाहु के लिये हुआ है ठीक है नागहस्तिसूरि के पट्टधर पादलिप्तसूरि का समय विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी मानना ही । कारण, खपटाचार्य के समय पादलिप्त के गुरु नागहस्ति का भी अस्तित्व नहीं था तो पादलिप्त का तो माना ही कैसे जाय ? नागार्जुन -- ये पादलिप्तसूरि के गृहस्थ शिष्य थे । जब पादलिप्तसूरिवि की तीसरी शताब्दी के आचार्य थे तो नागार्जुन के लिये स्वतः सिद्ध है कि वे भी तीसरी शताब्दी के एक सिद्ध पुरुष थे । आचार्य वृद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर वृद्धवादी के गुरु आर्यस्कंदिल थे और आप पादलिप्तसूर की परम्परा में विद्याधर शाखा के थे । इससे पाया जाता है कि आप पादलिप्तसूरि के बाद के आचार्य हैं । स्कंदिल नाम के भी तीन आचार्य हुए हैं जिनमें सब से पहिले के स्कंदलाचार्य युगप्रधान के प्रथमोदय के २० आचार्यों में १३ वें युगप्रधान माने जाते हैं । ये श्यामाचार्य के बाद और रेवतिमित्र के पूर्व के आचार्य हैं अतः इनकः समय ३७६ से ४१४ का है । दूसरे स्कंदिलाचार्य का उल्लेख हेमवंत पट्टावली में है । इनका स्वर्गवाल वि० २०२ में होना लिखा है अतः ये भी वृद्धवादी के गुरु नहीं हो सकते हैं कारण, स्कंदिल पादलिप्त के पूर्व हो गये थे । माथुरी वाचना के नायक तीसरे स्कंदिलाचार्य का समय वि ३५७ से ३७० तक का है । ये विद्याघर शाखा तथा पादलिप्तसूरि की परम्परा में थे । इन स्कंदिलाचार्य को ही वृद्धवादी के गुरु मान लिया जाय तो और तो सब व्यवस्था ठीक हो जाती है पर हमारी पट्टा वलियों, चरित्रों, प्रबन्धों तथा खासकर वृद्धवादी के जीवन पर जिसको कि विक्रम के समकालीन होना लिखा है- कुछ आघात पहुँचता है । साथ ही परम्परा से चले आया उल्लेख में “पंचसय वरिसंसि सिद्धसेणो दिवायरो जाओ" अर्थात् - वीर नि० सं० पांचसौ में सिद्धसेन दिवाकर हुए- अवश्य विचारणीय बन जाता है । इन सबका समाधान तब ही हो सकता है जब कि हम राजा विक्रम के स्थान दूसरे विक्रम की चौथी शताब्दी में होना मान लें तदनुसार गुप्तवंशीय राजा चंद्रगुप्त बड़ा पराक्रमी राजा हुआ और उसको विक्रम की उपाधि भी प्राप्त थी अतः इस समय में ( चंद्रगुप्त विक्रम के वक्त में ) सिद्धसेन दिवाकर को समझ लिया जाय तो उक्त विरोध का प्रतिकार सुगमतया हो सकता है । सम्वत्सर प्रवर्तक राजा विक्रम के लिए देखा जाय तो - इतिहासकारों का मत है कि उस समय न कोई विक्रम नाम का राजा ही हुआ और न विक्रम ने संवत ही चलाया। इसका विशद उल्लेख हमने इसी पृष्ठ ४६७ में किया है । प्रन्थ आचायों का समय निर्णय ] ९४१ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शायद सिद्ध सेन नाम के और भी कई आर्य हुए हैं अतः साम्य नामधारी प्राचार्यों की घटनाएं और वृद्धवादी के विषय सिद्धसेनदिवाकर की घटनाओं का एकीकरण कर दिया गया हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं । कारण, भरोंच और उज्जैन नगरी में बलमित्र भानुमित्र नाम के बड़े ही वीर पराक्रमी विक्रम राजा हुए ये कालिकाचार्य के भानेज और कट्टर जैन थे। आर्य खपट एवं अन्य बहुत से आचार्य भरोंच उज्जैन नगर में रहते थे। बौद्धाचार्यों की पराजय भी उन्हीं के राज्य में हुई थी। उस समय भी कोई सिद्धसेनाचार्य हुए हों जिन्होंने कि, बलमित्र, भानुमित्र को उपदेश देकर शत्रु'जय संघ का निकलवाया हो और धर्म की उन्नति करवाई हो। परन्तु इस विषय का कोई ठोस साहित्य हरगत न हो जाय वहां तक जोर देकर कुछ नहीं कहा जा सकता है। उपरोक्त प्रमाण से यह तो निश्चित ही है कि प्राचार्य वृद्धवादी एवं सिद्धसेन दिवाकर विक्रम की चौथी शताब्दी के आचार्य माने जा सकते हैं । जीवदेवमूरि-प्रबन्धकार लिखते है कि राजा विक्रम के मंत्री लिम्बा शाह ने वायट नगर के महावीर मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था और वि० सं० ७ में जीवदेवसूरि ने उस मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई। इससे पाया जाता है कि जीवदेवपूरि विक्रम के समकालीन हुए होंगे। जीवदेवसूरि की प्राथमिक दीक्षा क्षपण ( दिगम्बगचार्य ) के पास हुई थी और उस समय आपका नाम सुवर्णकीर्ति रक्खा गया था। जब हम देखते हैं कि दिगम्बर मत की उत्पत्ति ही विक्रम की दूसरी शताब्दी में हुई तो जीवदेव की दीक्षा इस समय के बाद ही हुई होगी । इतना ही क्यों पर दिगम्बर समुदाय में श्रुतकीर्ति या सुवर्ण कीर्ति जैसे नाम भी पिछले समय में रक्खे जाने लगे थे। दूसरा यह भी कारण है सि प्रबन्धकार के लेखा. नुसार जीवदेवसूरि के समय यज्ञोपवीत धारण कर अभिषेक की विधि से श्राचार्य पद दिया जाता था। इससे पाया जाता है कि उस समय जैन श्रमणों में शिथिलाचार का प्रवेश हो गया था। इस प्रकार शिथिलाचार का समय विक्रम की चौथी पांचवी शताब्दी से प्रारम्भ होता है । इन सब बातों का विचार करते हुए हम इस निर्णय पर आसकते हैं कि श्राचार्य जीवदेवसूरि का समय विक्रम की चौथी पांचवी शताब्दी का होना चाहिये । विक्रम के समय मन्दिर की प्रतिष्ठा करने वाले जीवदेवसूर अन्य जीवदेवसूरि होंगे। श्री वनसेन सूरि का समय बीर निर्वाण से ६२० का है। श्री चंद्रसूरि का समय वीर निर्वाण ६२८-६४३ तक का है । श्री सामंतभद्र ,, , ६४३-६७५ तक का है। श्री प्रद्योतन सूरि ,, , ६७५-७२८ तक का है। लघुशांतिकर्ता श्रीमानदेवसूरि का समय वीर निर्वाण से ७२८-७५० तक का है। भक्तामर कर्ता मानतुगसूरि का , , , ८२६ तक का है। मल्लवादी सूरिः-आचार्य मल्लवादी का समय मैंने विक्रम की छी शताब्दी लिखा है पर सम्बन्ध देखने या अन्य ग्रन्थों के अवलोकन से पाया ज ता है कि मल्लवादी का समय ठीक विक्रम की पांचवी शताब्दी का ही था। कारण, प्राचार्य विजयसिह सूरि प्रबन्ध में इसका उल्लेख मिलता है किश्री वीरवत्सरादथ शताष्ट के चतुरशीति संयुक्ते । जिग्ये समल्लवादी बोद्धस्तद् व्यंतरांश्चापि ॥ इसस स्पष्ट हो जाता है कि प्राचार्य मल्लवादी ने वीर निर्वाण सं० ८८४ में शास्त्रार्थ कर बोंद्धो को Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ पराजित किया था। अतः आपका समय वीर निर्वाण की नवमी शताब्दी और विक्रम की पांचवी शताब्दी मानना युक्ति संगत है । प्रस्तुत मल्लवादी सूरि ने ही न्यचक्र प्रन्थ की रचना की थी। यद्यपि वह प्रन्थ वर्तमान में कहीं नहीं मिलता है पर उस पर लिखी हुई टीका तो आज भी मिलती है । प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने भी अपने प्रन्थों में मल्लवादी का नामोल्लेख किया है। एक मल्लवादी विक्रम की दसवीं शताब्दी में हुए । उन्होंने बौद्ध प्रन्थ धम्मोत्तर पर टीका रची थी। शायद बाद में और भी मल्लवादी नाम के प्राचार्य हुए होंगे पर यहां पर तो पहिले मल्लवादी का समय लिखना है अतः अोपका समय विक्रम की पांचवी शताब्दी है। शेष के लिये आगे-~ जैनागमों को पुस्तकों पर लिखनापूर्व जमाने में आगमों को पुस्तक पर लिखने की परिपाटी के विषय में हमने आगम वाचना प्रकरण में बहुत कुछ स्पष्टीकरण कर दिया है पर वे जितने भागम लिखे गये थे; एक तरफ की वाचना के अनुसार ही लिखे गये थे । जब श्री क्षमाश्रमणजी एवं कालकाचार्य के श्रापस के मतभेद का समाधान हो गया तो उन दोनों वाचना को एक करके पुनः आगमों को पुस्तक रूप में लिखवा दिये गये। यह बृहद कार्य कितने समय पर्यन्त चला होगा इसके लिए निश्चयात्मक तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता पर अनुमानतः कई वर्षों तक चला होगा। यह कार्य केवल श्रमणों द्वारा ही नहीं पर वैतनी लहियों के द्वारा भी करवाया गया होगा । पर दुःख है कि उस समय का लिखा हुआ एक आगम या एक पत्र भी आज उपलब्ध नहीं होता है । इसका एक मात्र कारण यही हो सकता है कि मुसलमानों ने धर्मान्धता के कारण भारत का अमूल्य साहित्य नष्टभ्रष्ठ कर डाला। इससे भी अधिक दुःख तो इस बात का है कि कितना हमारा उपयोगी प्राचीन साहित्य हम लोगों की बेपरवाही के कारण ज्ञान भण्डारों में ही सड़ गया। जो कुछ हुआ सो तो हो गया पर अब भी रहे हुए साहित्य की सम्भाल रखें तो हमारे लिये इतना ही पर्याप्त होगा। ___"णमो सुयदेव या भगवईए" अहाहा ! उन शासन शुभचिन्तकों की कितनी दीर्घ दृष्टि थी कि सैकड़ों वर्षों से चले आये जटिल मतभेद को मिटा कर पृथक २ हुए दो पक्षों को मिनटों में एक कर दिये । यों तो हम दोनों अधिनायकों का हृदय से अभिनंदन करते हैं। पर विशेष ये पूज्य कालकाचार्य की क्षमावृत्ति को कोटि २ वंदन करते हैं । यदि इसी तरह के उदार क्षमाभावों का हमारे पामरप्राणियों के हृदय में थोड़ा भी संचार हो जाय तो शासन का कितना हित हो सके ? जो आज हम थोड़ी २ बातों में मतभेद दिखाकर शासन के टुकड़े २ करने में अपना गौरव समझ बैठे हैं शासन देव कभी हमको भी सद्बुद्धि प्रदान कर उन महापुरुषों के चरण रज का स्थान बक्सीस करें-यही आन्तरिक मनोभावना है।। __"जैन श्रमणों ने पुस्तकें रखना कब से प्रारम्भ किया" यों तो श्रागम वाचना प्रकरण में इस विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है पर कुछ जानने योग्य ऐसी बातें भी शेष रह गई हैं कि पाठकों की जानकारी के लिये नीचे लिखी जाती है। जैन निप्रन्थ निस्पृही एवं निर्मोही होते हैं; अतः न तो उनको पुस्तकें रखने की आवश्यकता ही थी जैन श्रमणों के पुस्तककाल ] ६४३ - ~ - ~ ~ ~ - ~ ~ - ~ - .. ....... ... Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और न लिखने की। कारण पुस्तकों को लिखने के लिये उनके साधनों की याचाना करना, उन्हें सम्भाल कर सुरक्षित रखना, पुस्तकों को बांधना छोड़ना यह सब उन निर्ग्रन्थों के लिये संयम का पलिमंथु अर्थात् चारित्र गुण विधतक कहा जा सकता है । उक्त विषय का स्पष्टीकरण करते हुए शास्त्रकार फरमाते हैं :-- ___ "पोत्थग जिण दिट्टतो वग्गुर लेव जाल चेक्क य" निशीर्ण चूर्णी अर्थात्-शिकारियों के जाल में फंसा हुआ मृग, मच्छ, तथा घृत तैलादि द्रव्यों में पड़ी हुई मक्षिका तो येन केन पायेन निकल सकती है किन्तु पुस्तक रखने रूप पाश में फंसा हुआ जीव कदापि विमुक्त नहीं हो सकता है । इससे शायद शास्त्रकारों का अभिप्राय यह हो कि मृग, मच्छ एवं मक्षिकादि जीव तो अपने २ प्राण बचाने के लिये पाश के संकट से बच सकते हैं किन्तु पुस्तक रखने वाले श्रमणों को ऐसा दुःख एवं संकट नहीं हैं अतः वे अधिक से अधिक ममत्व के कीचड़ में फंसते जाते हैं * इस प्रकार मनाई होने पर भी यदि कोई साधु पुस्तकें रक्खे तो शास्त्रकारों ने उसके लिये सख्त दण्ड का विधान किया है :-- 'जत्तिय मेता वारा मुंचति बन्धति व जत्तिय वारा । जति अक्खराणि व लिहति तति लहुगा जं च आवज्जे ॥' निशीथ चूर्णी इससे स्पष्ट है कि साधु पुस्तकें रक्खे या जितनी बार बांधे छोड़े उतनी बार साधु को लघु प्रायश्चित आता है । आगे देखिये। "पोत्थएम घेप्पंतएसु असंजमो भवई" दशवकालिक चूर्णी अर्थात्--पुस्तकें रखने से असंयम होता है । जब पुस्तकें रखने या लिखने की सख्त मनाई है तो क्या सब ही साधु प्रज्ञावन विद्वान ही होते थे कि शास्त्रीय सबज्ञान वे कण्ठस्थ रख सकते थे ? ___ सब जीवों के कर्मों का क्षयोपशम एकसा नहीं होता है पर उसमें बुद्धि भेद से तारतम्य रहता ही है। फिर भी छठे गुण स्थान को स्पर्श करने वाले को दीक्षा क्या वस्तु है ? इतना ज्ञान तो होता ही है। जिसको दीक्षा का स्वरूप ही मालूम नहीं उसको दीक्षा देना शास्त्र विरुद्ध है । हम देखते हैं कि उस समय साधु तो क्या पर साध्विय भी एका दशांग पढ़ती थी : जैसे-देवानन्दादि साध्या के लिये - ___“समाइमाइ एक्कारस्सांग अहिजइ" श्री भगवतीस्त्र" जब साध्विय ही एकादशांग पढ़ती थी तब साधुओं का तो कहना ही क्या था ? वे तो एकादशांग के अलावा चौदह पूर्व का अध्ययन भी करते थे । इनके अलावा अष्ट प्रवचन पढ़ने के लिये आराधिक होते थे पर यह सब ज्ञान कण्ठस्थ ही रखते थे। यदि उस समय किसी अल्पज्ञ को भी दीक्षा दी जाती तो वह अकेला नहीं रह सकता था। जैन श्रमणों के लिये गण कुल, संघ की व्यवस्था भी इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर की गई थी। इनके अग्रगण्य पुरुष आचार्य कहलाते थे जैसे गणचार्य, कुलाचार्य, वाचनाचार्य ® त्रिकाल दर्शी शास्त्रकारों का कथन भाज सोलह आना सत्य हो रहा है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि केवर मंदबुद्धि एवं वाचना से ज्ञानवृद्धि के हेतु पुस्तकें रखना स्वीकार करने वालों की संतानों के पास लाखों रूपयों की पुस्त मौजूद हैं जिनका न तो आप उपयोग करते हैं और न किसी को पढ़ने के लिये ही देते हैं। पर उन पुस्तकों के भन्द असंख्य कीड़ों का कल्याण (1) अवश्य होता है६४४ [भ० महावीर की परम्पर Jain Education international Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ इन सब के ऊपर एक संघचार्य होते थे । उन आचार्यों की श्राज्ञा से कुछ साधुओं को लेकर पृथक् विहार करने वाले गणावच्छेदक कहे जाते थे । गणावच्छेदक पद भी किसी गीतार्थ साधुको ही दिया जाता था और वे कम से कम दो साधुओं के साथ विहार करते थे और साथ में रहने वाले साधु को ज्ञान पढ़ा सकते थे । दूसरा कारण यह भी था कि दीक्षा जैसी पवित्र वस्तु की जिम्मेवारी किसी चलते फिरते व्यक्ति को नहीं दी जाती थी किन्तु आत्मकल्याण की उत्कृष्ट भावना वाले एवं साधुत्वावस्था के लिये आवश्यक ज्ञान को करने वाले व्यक्ति को ही दीक्षा दी जाती थी । अतः उनको पुस्तकें लिखने या रखने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती थी । आर्य भद्रबाहु के समय द्वादश वर्षीय दुष्कालान्तर पाटलीपुत्र में एक श्रमण सभा की गई जिससे, श्रागत मुनियों के अवशिष्ट कंठस्थ ज्ञान का संग्रह कर एकादशांग की संकलना की गई। दिष्टिवाद नामक बारहवां अंग किसी को कंठस्थ नहीं था अतः साधुओं के एक सिंघाड़े को नेपाल भेज भद्रबाहु स्वामी को बुलाया गया । * आर्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को दश पूर्व सार्थ एवं चार पूर्व मूल ऐसे चौदह पूर्व का . अभ्यास करवाया। यहां तक तो जैन साधुओं को सब ज्ञान कण्ठस्थ ही रहता था अतः पुस्तकादिक साधनों की जरूरत ही नहीं थी । आगे चलकर आर्य महागिरि एवं सुहस्ति के समय तथा उनके बाद आर्य वज्रसूरि + एवं वज्रसेन के समय ऊपरोपरि दुष्काल पड़ने से साधुओं को भिक्षा मिलनी भी दुष्कर हो गई थी तो उस हालत में शास्त्रों का पठन पाठन बंद हो जाना तो स्वाभाविक बात ही थी। इतना ही नहीं पर बहुत से गीतार्थ एवं अनुयोग घर भी इस कराल दुष्काल- काल के कवल बन गये थे । तथापि दुष्कालों के अन्त में सुकाल के समय आगमों की वाचना बराबर होती रही। श्री आर्य रक्षित ने अवशिष्ट श्रागमों को चार विभागों में विभक्त किये, † तथाहि - १ द्रव्यानुयोग २ गणितानुयोग ३ चरण करणानुयोग ४ धर्मकथानुयोग । इनके पूर्व एक ही सूत्र के अर्थ में चारों अनुयोगों का अर्थ हो सकता था पर अल्पज्ञों की प्रज्ञा मंदता को ध्यान में रख श्रमणों की अर्थ सुलभता के लिये चारों अनुयोग पृथक २ कर दिये जो अद्यावधि विद्यमान हैं | युगप्रधान पट्टावली के अनुसार आपका समय वीरात् ५८४ से ५९७ का है । श्री के पूर्व भी कहीं २ पर आगम लिखने का उल्लेख मिलता है । जैसे श्राचार्य यदेवसूरि के समय आगम वाचना और पुस्तक लिखने का उल्लेख मिलता है। यही नहीं पट्टावलियों के लेखानुसार + वीर स्वामिनो मोक्षंगतस्य दुष्कालो महान् संवृतः । ततः सर्वोऽपि साधुवर्गः एकत्र मिलितः । भणितं च परस्परं कस्य किमागच्छति सूत्रं ? यावन्न कस्यापि पूर्वाणि समागच्छान्ति । ततः श्रावकै र्विज्ञाते भणितं तैः यथा कुत्र साम्प्रतं पूर्वाणि संति ? तैर्भणितम् - भद्रव हु स्वामिनि । ततः सर्व संव समुदायेन पर्यालोच्य प्रेषितः तत्सभीपे साधु संवादकः इत्यादि ॥ " जीवानुशासन गाथा ८४ की टीकासं पृष्ठ ४५ + इतोय वरसामी दक्खिणावहे विहरति । दुब्भिक्खंच जायं बारस वरिसगं । सव्वतो समंताछिन्नपंथा । निराधारं जातं । ताहे वइरसामी विज्जाए आहंड पिंडं तद्दिवसं आणोति । आवश्यक चूर्णी भाग १ ला * ततश्चतुर्विधेः कार्योऽनुयोगोऽतः परंमय । त तोंगे पांग मूढाख्य ग्रंथच्छेद कृतागमः ॥ जैन श्रमणों और पुस्तककाल ] Jain Education Interna&00 ९४५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आर्य पादलिप्त सूरि एवं सिद्धसेनदिवाकर को प्राय रक्षित के पूर्व माना जाय तो इनके समय में लिखी हुई पुस्तकें मिलने का प्रमाण मिल सकता है जैसे सिद्धन दिवाकर जब चित्तौड़ गये तब वहां के एक स्तम्भ में आपने बहुतसी पुस्तकें देखी। उसके अन्दर से एक पुस्तक आपने पढ़ी तथा आयपादलिप्तसूरि की तरंग लोल नाम की कथा का थोड़ा २ भाग कवि पंचाल ने राजा को सुनाया इसका उल्लेख पादलिप्त के जीवन से मिलता है। इससे पाया जाता है कि उस समय पुस्तकों पर लिखना प्रारम्भ हो गया था। हेमवंत पट्टावली के अनुसार प्राय स्कंदिल के उपदेश से ओसवंशीय पोलाक नामक श्रावक ने गंध हस्ति विवरण सहित आगमों की प्रतिय लिखकर जैन श्रमणों को भेंट की। इसका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी है, अतः यह ठीक है तो मानना चाहिये कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में जैनागमों को पुस्तक रूप में लिखना प्रारम्भ हो गया था। अन्तिम द्वादश वर्षीय दुष्काल विक्रम की चौथी शताब्दी में पड़ा था। जब दुष्काल के अंत में सुकाल हुआ तो आर्ष स्कंदिल सूरि ने मथुग में और आर्य नागार्जुन ने वल्लभी में श्रमणों को आगमों की वाचना दी। उस समय भी आगमों को पुस्तकों पर लिखा गया था। ___ आर्य देवद्धि गणि क्षमाक्षमणजी और कालिकाचार्य के समय पुनः वल्लभी नगरी में माथुरी और वल्लभी वाचना के अंदर जो-जो पाठान्तर रह गये थे; उनको ठीक व्यवस्थित करने के लिये सभा की गई। ___एक समथ वह था जब कि जैन श्रमण पुस्तकों को लिखने एवं रखने में संयम विराधना रूप पाप समझते थे परन्तु समय ने पलटा खाया और क्रमशः बुद्धि की मंदता होने लगी । अतः ज्ञानि को स्थिर रखने के लिये पुस्तक लिखना एवं रखना अनिवार्य समजाने लगा। इतना ही क्यों पर पुस्तकें संयम की रक्षा के अंग बन गये थे । ३। __ जब पुस्तकें लिखने रखने की आवश्यका प्रतीत हुई और इन्हें ज्ञान का साधन व संयम का अंग समझ लिया तब यह सवाल पैदा हुआ कि पुस्तके किस लिपि में किन साधनों द्वारा लिखी गई ? साथ ही इस विषय का शास्त्रों में कहां २ उल्लेख है ? १, अस्थि महुराउरीए सुय समिद्धो खंदिलों नाम सूरि तहा बलहि नयरीए नगज्जुणो नाम सूरि । तेहिय जाए बारस वरिसिए दुक्काले निव्व उभावों विफुटि (1) पाऊण पंसिया दिसो दिसि साहवो । गमिउंच कह विदुस्थते पुणो मिलिया सुगाले । जाव सःझायंति तात्र खंडुखुरु डीहूयं पूच्चाहीयं । ततोमा सुय वोच्छित्ति होउत्ते पारदो सूरीहिं सिद्धतुद्धारो । तत्थ विजं न विसरियेतं तहेव संठवियं । पम्हट्ठाणं उण पुवावरावदंतु सुत्तत्त्थाणुसारओं कया संघडणा, कहावली लिखित प्रति' २-वल्लहि पुरम्मिनयरे देविड्डी पमुह सयळ संधैर्हि । पुत्थेआगम लिहिओ नवसय असियाओ वीराभो ॥ ३ (क) घेप्पति पोरस्थग पणगं, कालिगणिज त्ति कोसटठा ॥ निशीथ भाष्य-३.१२ (ख) मेहा ओगहण धारणादि परिहाणि जाणिठण कालियसूयणिज्जु त्तिणिमित्तं वा पोत्थग पणगं घेप्पति । कोसो त्तिसमुदाभो ॥ निशीथ चूर्णी. (ग) कालं पुण पडुच्च चरण करणठा अवोच्छित्ति निमितंच गेण्ह माणस्स पोत्थए संजमों भवइ । दशवै कालिक चूर्णी. [भ० महावीर की परम्पर Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमुरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ tionasiamanantara..MAAR इसके लिये सबसे रहले हम श्रीराजप्रश्नीयसूत्र को देखते हैं । उसमें सूर्याभदेव के अधिकार में पुस्तक रत्न और उनके साधन निम्न बतलाये हैं। "तस्सेणं पोत्थरयणस्स इमेया रूवे वण्ण वासे पण्णत्ते तंजहा रयणामयाइंपत्तगाई, रिट्टामइओकविआओ, तवणिज्जमएदोरे, नाणामणिमएगंठी, वेरुलियमणिलिप्पासणे, रिट्टामए छंदणे; तवणिज्जमइसंकला, रिट्टामइमसी, वइरामइलेहणी, रिट्टामयाईअक्खराई धम्मिए सत्थे "श्रीराज प्रश्नी सूत्र" प्रस्तुत उल्लेख से लेखन कला के साथ सम्बन्ध रखने वाले साधनों में से पत्र कम्बिका ( कांबी ) डोरा, गांठ, दवात, घात का ढक्कन, सांकल, स्याही, लेखनी आदि प्रमुख साधन बतलाये हैं। इन्ही साधनों को जैनश्रमणों ने पुस्तक लिखने के उपयोग में लिये। जैसे आज मुद्रित पुस्तकों की साइज रोयल सुपरवाइल, डेमीइल, क्राउन है वैसे ही हस्त लिखित पुस्तकों की साइज के लिये निम्न पाट है:-- "पोत्थगपणगं-दीहोबाहल्लपुहजेण तुल्लो चउरंसो गंडीपोत्थगो अंतेसुतणुओ मज्झे पिहुलो, अप्पबाहल्लो कच्छ भी, चउरंगुलो दीहोवावत्ता कति मुट्टि पोत्थगो, अहवा चउरंगल दीहो चउरंसो मुट्टिपोत्थगो । दुमादि फलगा संपुउगं । दीहो हस्सो वा पिहुलो अप्पबाहुल्लो छिवाड़ी, अहवातणु पतेहि उस्सिओ छिवाड़ी" गंडी पुस्तक-जो पुस्तक जाड़ाई और चौड़ाई में सरीखी अर्थात चौखंडी लम्बी हो वह गंडी पुस्तक । कच्छपी पुस्तक-जो पुस्तक दो बाजू से संकड़ी और बीच में चौड़ी हो वह कच्छपी पुस्तक । मुष्टि पुस्तकः-जो पुस्तक चार अंगुल लम्बी होकर गोल हो चौड़ी वह मुष्टि पुस्तक । संपुट फलकः-लकड़ी के पटियों पर लिखी हुई पुस्तक का नाम संपुट फल है । छेदपाटी:-जिस पुस्तक के पत्र थोड़े हों ऊचे भी थोड़े हों वह छेदपाटी पुस्तक है । इन पांचों के अलावे भी कई प्रकार के साइज में पुस्तकें लिखी गई थी। पुस्तकों की लिपि-ऐसे तो अक्षर लिखने की बहुत सी लिपियां हैं परन्तु जैन शास्त्र लिखने में प्रायः ब्राह्मी लिपि ही काम में ली गई थी। यही कारण है कि श्रीभगवतीसूत्र के आदि में ग्रन्थ कर्ता ने 'नमो बंभीए लिबीए" अर्थात् ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है। श्री समवायांगजी सूत्र में ब्राह्मी लिपि के १. भेद बतलाये हैं । यथा :-- "बंभण्णं लिवीए अट्ठारस विहेलेख विहाणे पं० तंबंभी, जवणालिया ( जवणाणिया ), दोसाउरिया, खरोट्टिआ, पुक्खरसारिआ, पराहइया ( पहाराइया), उच्चतरिया, अक्खरपुट्टिया, भोगवयता, वेणतिया, णिण्हइया, अंकालवी, गणिअलिबी, गंधव्य लवी, भ्रअलिवी आदंसलिवी, माहेसरी लिवी, दामिलीलिवी पोलिंदीलिवी " “समवायाग १८ समवायें " इस सूत्र की टीका में प्राचार्य अभयदेवसूरि ने ब्राह्मी लिपि का अर्थ निम्न प्रकारेण किया है :जैन श्रमणों और पुस्तक काल] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 'तथा भित्ति-ब्राह्मी आदिदेवस्य भगवतो दुहिता ब्राह्मी वा संस्कृतादिभेदा वाणी, तामाश्रित्य तेनेवया दर्शिता अक्षर लेखन प्रक्रिया सा ब्राह्मी लिपिः ।' ___ उक्त लेख से सिद्ध होताहै कि जैन शास्त्र ब्राह्मी लिपि में ही लिखे गये थे। जैन शास्त्र किस पर लिखे गये ? इसके लिये भोजपत्र, ताड़पत्र, कागज, कपड़ा, काष्ट फलक, पत्थर आदि पर लिखे ज.ने के प्रमाण मिलते हैं । सथाहि: भोजपत्र:-इसका उपयोग अधिकतर यन्त्र मन्त्रादि में ही हुआ परन्तु शास्त्र लिखा हुआ कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता है । हां, हेमवन्त पट्टावली में उल्लेख मिलता है कि कलिंगाधिपति महाराजा खारवेल ने भोजपत्र पर शास्त्र लिखवाये थे। ताड़पत्रः -इसके दो प्रकार होते हैं ( १ ) खरताड़ ( २ ) श्री ताड़ । खरताड़ पुस्तकादि लेखन कार्य में नहीं पाता है क्योंकि यह बरड़ होने से जल्दी टूट जाता है । दूसरा श्रीताड़ नरम और टिकाऊ होता है इसको संकुचित करने में ( मरोड़ने में ) भी टूटता नहीं है अतः यह ही पुस्तक लिखने में काम में आता है * ताड़पत्र पर लिखना कब से प्रारम्भ हुआ ? इसके लिये निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता है और न कोई प्राचीन लिखी हुई ही प्रति ही हस्तगत होती है। परन्तु जब पुस्तक लिखना विक्रम की १-२ शताब्दी से प्रारम्भ होता है तो वह ताड़ पत्र पर ही लिखा गया होगा। भारतीय प्राचीन लिपिमाला के कर्ता श्रीमान् श्रोमाजी लिखते हैं कि-'ताड़पत्र पर लिखी हुई एक त्रुटक नाटक की प्रति मिली है वह ईस्वी सन् दूसरी शताब्दी के पास पास की है।" भारत की प्राचीन लिपि माला में श्रीमान् ओझाजी लिखते हैं कि भोजपत्र पर लिखा हुश्रा 'धम्मपद व संयुक्ता गम' नामक बोध ग्रंथ मिले हैं वे क्रमशः इ० सं० को दूसरी तीसरी और तीसरी चोथी शताब्दी के है ताड़ पत्र एक प्रकार का माड़ के पत्ते होते हैं। वे लम्बाई में खूब लम्बे होते हैं पर चोड़ाई में बहुत कम होते हैं । वर्तमान जैन ज्ञान भंडारों में कई ताड़ पत्र पर लिखी हुई जातियां हैं उनमें कई कई तो ३७ इंच लम्बी और ५ इंच चौड़ी है पर ऐसी बहुत कम संख्या में मिलती हैं। छोटी से छोटी चार पांच इन्च लम्बी और तीन इन्च चौड़ी पुरतक भी मिलती है । ताड़पत्र पर बहुत गहरी संख्या में पुस्तकें लिखी जाती थी चीनी यात्री फाहियान इ० सं० चौथी सद्दी में भारत की यात्रा के लिये आया था । वह १५२० प्रतियाँ ताड़पत्र पर लिखी हुई भारत से चीन जाते समय ले गया तथा । इ. सं० की सातवी सही में चीनी यात्री रायसेन भी १५०. प्रतियें ताड़पत्र की भारत से लेगया इनके अलावा जर्मनी एवं यूरोप के विद्या प्रेमी हजारों ताड़पत्र पर एवं कागजों पर लिखी हुई प्रतियां ले गये थे और वह प्रतियां अद्यावधि उन देशों में विद्यमान हैं। ताड़ पत्र लिखने का समय विक्रम की बाहरवीं शताब्दी तक तो अच्छी तरह रहा किन्तु बाद में कागजों की बहुलता से ताड़पत्र पर लिखना कम होगया। फिर भी थोड़ा बहुत लिखना पन्द्रहवी शताब्दी तक ६ वइरिसं इमं तालिमादिपत्त लिहितं ते चेध तालिमादिपत्ता पोत्थगता तेसु लिहितं वन्थे वा लिहितं । अ० चू० (ख) इह पत्रकाणी तलताल्यादि सम्बन्धीनि तत्संधात निष्पन्नास्तु पुस्तका वस्त्राणिप्फण्णे इत्यन्ये । अनुयोगद्वार सूत्र हारिभद्रो टीका ९४८ [भ० महावीर की परम्परा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ९२०-९५८ रहा था | पाटण ज्ञान भन्डार में चौदहवीं शताब्दी का एक टूटा हुआ ताड़पत्र का पाना है जिसमें ताड़पत्र का हिसाब लिखा है उस समय एक ताड़पत्र के पाने पर छ आने का खर्च लगता था । यही कारण है कि साड़पत्र का लिखना कम होगया। पाटण, खम्बात, लिम्बड़ी, अहमदाबाद, जैसलमेर आदि के जैन ज्ञान भण्डारों में ताड़पत्र की प्रतियें हैं, उन में विक्रम की बारहवीं शताब्दी से प्राचीन कोई प्रति नहीं मिलती हे । इसका कारण शायद मुसलमानों की धर्मांधता ही होनी चाहिये । आचार्य मल्लवादी ने जो विक्रम की पांचवीं शताब्दी में हुए; नयचक्र प्रन्थ बनाया था । उस प्रन्थ को हस्ति पर स्थापन कर जुलूस के साथ नगर प्रवेश करवाया, इसका उल्लेख प्रभाविक चरित्रादि मेंमिलता है इससे पाया जाता है कि उस समय या उसके पूर्व भी प्रन्थ लेखन कार्य प्रारम्भ हो गया था । कागजः — इस विषय में निर्कस, और मेगस्थनिस वे इंडिया नामक प्रत्येक पुस्तक में लिखते हैं कि भारत में ईसा से तीन सो वर्ष पूर्व रूई और पुराने कपड़ों को ( चिथड़ों को ) कूट कूट कर कागज बनाना प्रारम्भ हो गया था। दूसरा जब अरबों ने ईश्वी सन् ७०४ में समरकंद नगर विजय किया तब रूई और चिथदों से कागज बनाना सीखा । परन्तु इसका प्रचार सर्वत्र न होने से जैनों ने पुस्तक लिखने में इसका उपयोग नहीं किया । कागज पर लिखता जैनियों में विक्रम की बाहरवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ परन्तु उक्त समय की तो कोई भी पुस्तक ज्ञान भण्डार में उपलब्ध नहीं होती है। हां चौदहवीं शताब्दी की कई २ प्रतियें मिलती हैं । प्राचीन भारतीय लिपि के कर्ता श्रीमान् ओमाजी लिखते हैं कि - डा० बेबर को कागज पर लिखी हुई ४ प्रतियें मिली वे ईसा की पांचवीशताब्दी की लिखी हुई हैं । परन्तु जैन ग्रन्थों के लिये श्रीजिन मण्डन गणि कृत कुमारपाल प्रबन्ध जो सं० १४९२ में उल्लेख मिलता कि आचार्य हेमचंद सूरि ने कागजों पर प्रन्थ लिखाये थे । जैसे कि - 'एकदा प्रातरून सर्व साधूचं वंदित्वा लेखक शालाविलोकनाय गतः लेखकाः कागद पत्राणि लिखतो दृष्टाः । ततो गुरु पार्श्वे पृच्छा - गुरुभिरूचे श्री चौलुक्यदेव ! सम्प्रति श्री ताड़पत्राणां त्रुटिरहित ज्ञान कोशे, अतः कागद पत्रेषु ग्रन्थ लेखन मिति । इसी प्रकार श्री रत्नमन्दिर गणि ने उपदेश तरङ्गिनी ग्रन्थ में वस्तुपाल तेजपाल के लिये लिखा है कि उन्होंने कागज पर शास्त्र लिखवाये । तथाहि : " श्री वस्तुपाल मन्त्रिणा सौवर्णमसिमयाक्षरा एका सिद्धान्त प्रतिर्लेखित : अपरास्तु श्री ताड़ कागद पत्रेषु मषीवर्णाञ्चिताः ६ प्रतयः । एवं सप्त कोटिद्रव्य व्ययने सप्त सरस्वती कोशाः लेखिताः ।' " उ० त० पत्र १४२” कपड़ा : -- यद्यपि शास्त्र लिखने के कार्य में इसका विशेष उपयोग नहीं हुआ तथापि निशीथ सूत्र उद्देशा ११ की चूर्णी में लिखा है कि "पुस्तकेषु वस्त्रेषु वा पोत्थं" इससे पाया जाता है कि कभी २ वस्त्रों पर भी पुस्तक लेखन कार्य किया जाता था । सम्प्रति, पाटण में वख्ताजी की शेरी में जो जैन ज्ञान भण्डार है उसमें " धर्मविधिप्रकरण” वृत्त सहित, कच्छुली रास और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (आठवां पर्व) ये तीन पुस्तकें विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी की कपड़े पर लिखी हुई पायी जाती हैं जिनका साइज २५x५ इंच की है। प्रत्येक पाने में सौलह २ लकीरे हैं । इनके सिवाय कपड़े पर अढ़ाईद्वीप, जम्बुद्वीप, नंदीश्वर जैन श्रमणों और पुस्तक काल ] ९४९ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास द्वीप, नवपद ह्रींकार, घण्टाकर्ण, एवं जंत्र, मंत्र, चित्रपट वगैरह भी लिखे गये हैं; जो कई ज्ञान भण्डारों में मिलते हैं। काष्ट फलकः - काष्ट फलक अर्थात् लकड़े की पाटी पर प्रन्थ लिखा है यह तो असम्भव है फिर भी निशीथ सूत्र की चूर्णो में "दुम्मादि फलगा संपुडग" का उल्लेख मिलता है; इससे पाया जाता है कि कभी कभी साधारण कार्यों में--यत्र मंत्र चित्रादिकों में लकड़े की पाटियां काम में ली गई हैं। पाषाणः-पूर्व जमाने में बड़ी २ शिलाओं पर प्रन्य लिखे जाते थे। जैसे चित्तौड़ के महावीर मंदिर के द्वार पर दोनों बाजू जिनवल्लभसूरि ने संघ पट्टक व धर्मशिक्षा नाम के ग्रंथ पत्थरों पर खुद वाये थे । इनके सिवाय शिलालेख, तप पट्टक, कल्याणक भी पत्थरों पर खुदे हुए मिलते हैं । इसके प्रारंभ काल के लिये कहा जा सकता है कि सम्राट सम्प्रति एवं स्वारबेल के समय के शिलालेख इसके आदिकाल हैं । इनके सिवाय ताम्रपत्र रौप्यपत्र, स्वर्णपत्र भी लिखने के काम में लिये जाते थे। जैसे वसुदेव हिंड प्रथम खण्ड में ताम्र पत्र पर लिखने का उल्लेख मिलता है:-"इयरेण तंपत्तेसु तणुगेसु रायलक्खणं रएऊण तिहलारसेण तिम्मेऊण तंष भायणे पोत्थभो पवित्रत्तो, निक्खित्तो, न परवाहिं दुब्वामेढ़ मज्झे ." __ प्रभास पाटन में खुदाई का काम करते समय भूगर्भ से एक ताम्र पत्र मिला है वह ईस्वी सन पूर्व छ शताब्दी का बतलाया जाता है । उसकी लिपि इतनी दुर्गम्य है कि साधारण विद्वान व्यक्ति तो ठीक तौर से पढ़ ही नहीं सकते तथापि हिन्दू विश्व विद्यालय के अध्यापक प्रखर भाषा शास्त्री श्रीमान् प्राणनाथजी ने बड़े ही परिश्रम पूर्वक पढ़ कर यह बतलाया है कि रेवा नगर के राज्य का स्वामी सु०.....'जाति के देव, ने बुसदनेझर हुए वे यदुराज (कृष्ण ) के स्थान ( द्वारिका ) आया। उसने एक मंदिर सूर्व · देव नेमि' जो स्वर्ग समान रेवत पर्वत का देव है। उसने मन्दिर बनाकर सदैव के लिए अर्पण किया ? इसके सिवाय रौप्य स्वर्ण पत्र प्रायः यंत्र मंत्र लिखने के काम में आते थे । स्याही-वर्तमान में ब्ल्यू स्याही के सिवाय दीपमालिका पर काली स्याही बनाई जाती है, वह न तो बहुत चमकदार ही होती है और न टिकाऊ ही। इतना क्यों पर वह थोड़े वर्षों के बाद फीकी भी पढ़ जाती है ! तब छ सात सौ वर्ष पूर्व की ताड़ पत्रादि पर लिखी हुई स्याही बहुत चमकदार एवं काली दिखाई पड़ती है अतः यह जानने की जिज्ञासा अवश्य होती है कि पूर्व जमाने में स्याही किन २ पदार्थों से बनाई जाती होगी ? इसके लिए प्राचीन प्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि(क) “निर्यासात् पिचुमंदजाद् द्विगुणितो बोलस्ततः कज्जलं, संजातं तिलतैलतो हुतवहे तीब्रातपे मर्दितम् ॥ पात्रे शूल्वमये तथा शन ( ? ) जलैलाक्षार सैर्भावितः ! सद्भल्लातक भृङ्ग राजरसयुक् सम्यग् रसोऽयं मषी ।। (ख) मध्यर्थे क्षिप सद्गुदं गुन्दाधे बोलमेव च । लाक्षावीयारसेनोचैर्मदयेत् ताम्रभाजने ॥ (ग) जितना काजल उतना बोल, तेथी दूना गूंद झकोल । जो रस भांगरानो पड़े, तो अक्षरे अक्षरे दीवा बले ॥ [ भ० महावीर की परम्परा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आचार्य सिद्धरि का जीवन (घ) बीआबोल अनई लक्खारस कज्जल वज्जल (१) नई अंबारस । 'भोजराज ' मिसी निपाई, पानऊ फाटई मिसी न विजाई । (ङ) लाख टांक बीस मेल स्वाग टांक पांच मेल, नीर टांक दो सो लेई हांडी में चढ़ाइये । ज्यों लों आग दीजे त्योंलो ओर खार सब लीजे, लोदर खार बाल वाल, पीस के रखाइये || मीठा तेल दीप जाल काजल सो ले उतार, नोकी विधि पिछानी के ऐसे ही बनाइये ॥ चाहक चतुर नर, लिख के अनूप ग्रन्थ, बांब बांच बांच रिझ, रिझ भोज पाइये || (च) बोलस्य द्विगुणो गुन्दो गुदस्य द्विगुणा मषी । मदयेद् यात्रयुग्मंतु मषी वज्रसभाभवेत् ॥ "सोनेरी ( सुनहली ) रूपेरी स्याही " [ ओसवाल संवत् ६२० - ९५८ सोने की अथवा चांदी की स्याही बनाने के लिये सोनेरी रूपेरी बरक लेकर खरल में डालने चाहिये | फिर उसमें अत्यन्त स्वच्छ बिना धूल-कचरे का धव के गोंद का पानी डालकर खूब घोटना चाहिये जिससे बरक बंटाकर के चूर्णबत हो जावे । इस प्रकर हुए भूके में शक्कर का पानी डालकर खूब हिलाना चाहिये । जब भूका बराबर ठहर कर नीचे बैठ जावे तब ऊपर के पानी को धीरे २ बाहर फेंक देना चाहिये किन्तु पानी फेंकते हुए यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि पानी के साथ सोने चांदी का भूका न निकल जाय । इस प्रकार तीन चार बार करने से गोंदा धोया जाकर सोना चांदी का भूका रह जावे उसे क्रमश: सोनेरी रूपेरी स्याही समझना । किसी को अनुभव के लिये थोड़ी सोनेरी रूपेरी ग्याही बनानी हो तो काच की रकाबी में धवके गोंद का पानी चोपड़ कर उस पर छूटे वरक डाल अंगुली से घोट कर उक्त प्रकारेण धोने से सोनेरी रूपेरी स्याही हो जायगी । लाल स्याही - अच्छे से अच्छा हिंगलू, जो गांगड़े जैसा हो और जिसमें पारे का अंश रहा हुआ हो उसको खरल में डाल कर शक्कर के पानी के साथ खूब घोटना चाहिये। पीछे हिंगलू के ठहर जाने पर जो पीला पड़ा हुआ पानी ऊपर तैर कर प्रजावे उसको शनैः शनैः बाहर फेंकना चाहिये। यहां भी पानी फेंकते हुए यह ध्यान रखना चाहिये कि पानी के साथ हिंगलू का अंश नहीं चला जावे । उसके बाद उसमें फिर से शक्कर का पानी डालकर घोटना और ठहरने के बाद ऊपर आये हुए पीले पानी को पूर्ववत् बाहिर फेंक देना । इस प्रकार जबतक पीलापन दृष्टिगोचर होता रहे तब करते रहना चाहिये । दस पंद्रह बार ऐसा करने से शुद्ध लाल सूर्ख दिंगल तैयार हो जायगा । फिर उक्त स्वच्छ हिंगल में शक्कर और गोंद का पानी डालते जाना और घोटते जाना चाहिये । बराबर एकरस होने के पश्चात् हिंगल तैयार हो जाता है । अष्टगंध: - १ अगर २ तगर ३ गोरोचन ४ कस्तरी ५ रक्त चंदन ६ चंदन ७ सिंदूर ८ केशर । इन आठ द्रव्यों के सम्मिश्रण से यह अष्टगंध स्याही बनती है । अथवा, कपूर २ कस्तूरी ३ गोरोचन ४ संघरफ ५ केसर ६ चंदन ७ अगर और ८ गेहूला इन आठ द्रव्यों के सम्मिश्रण भी श्रष्टगंध बते हैं । जैन श्रमणों और पुस्तक काल ] ९५१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यक्ष कर्दम:--चंदन १ केसर २ अगर ३ बरास ४ कस्तूरी ५ मरचककोसु ६ गोरोचन ७ हिंगलोक ८ रतजणी ९ सोनेरी वरक १० और अंबर ११ इन ग्यारह सुगंधी द्रव्यों के मिश्रण से यक्षकर्दम स्याही बनती है । इन स्याहियों के सिवाय चित्र कार्यों में पीली स्याही के लिये हड़ताल सफेद के लिये सफेदश तथा हरा रंग भी बनाया जाता था। वर्तमान में कल्पसूत्र आदि में उक्त स्याही के चित्र पाये जाते हैं । दवातः - स्याही रखने के भाजन (मसि पात्र ) दवात ( खड़िया ) के नाम से प्रसिद्ध है । पहले के जमाने में मसि भाजन पीतल, ताम्र और मिट्टी के होते थे। कोई २ डिबियों में भी स्याही रखते थे । इस मसिभाजन के एक ढक्कन भी होता है तथा दवात के अन्दर एक सांकल भी डाली जाती है कि इधरउधर लाने ले जाने में और ऊपर लटकाने में सुविधा रहे । लेखनी: -- लिखने के लिये लेखनी बस (नेजा) बंश-दालचीनी, दाड़म श्रादि की बनाई जाती थी । किन्तु इसमें भी लेखनी कैसी होनी ? कितनी लम्बी होनी ? और किस प्रकार से लिखना ? इसमें भी शुभा शुभपना रहा हुआ है। तथा हि : । 1 ब्राह्मणी श्वेतवर्णा च रक्तवर्णा च क्षत्रिणी । वैश्यणी पीतवर्णा च असुरी श्याम लेखनी ॥१॥ श्वेते सुखं विजानीयात् रतै दरिद्रता भवेत् । पीते च पुष्कला लक्ष्मीः असुरी क्षय कारिणी ॥२॥ चित्ता हरते पुत्रं मधोमुखी हरते धनम् । वामे च हरते विद्यं दक्षिणा लेखनी लिखेत् ||३|| अग्रग्रन्थिहरेदायुर्मध्यग्रान्थिहरेद्धनम् । पृष्टग्रन्थिर्हरेत् सर्व निग्रन्थिलेखनी लिखेत् ॥४॥ नवल मिता श्रेष्ठ अष्टौ वा यदि वाधिका । लेखिनी लेखयेन्नित्यं धनधान्य समागमः ||५|| इनके अलावा जुजवल, प्राकार और कम्बिक भी होती थी कि जो फांटिया पाड़ने में या चित्र करने में काम आते थे । डोरा : : - ताड़ पत्र की पुस्तकों के बीच छिद्र कर दोनों और लकड़े की पट्टी लगा कर एक डोरा जिससे वे पत्र पृथक न हो सकें और क्रमशः बराबर रहें । इनके अलावा पुस्तक लिखने वाले लहिये के पास निम्न सामग्री भी रहती थी-कुपी १ कज्जल २ केश ३ कम्बल महो ४ मध्येच शुभ्रकुशं ५ । काम्बी ६ कल्म ७ कृपाणिका ८ कतरणी ९ काष्ठं १० तथा कागलं ११ कीकी १२ कोटरि १३ कलमदान १४ क्रमणे १५ कट्टि १६ स्तथा कांक १७, एते रम्यक काक्षरैश्च सहितः शास्त्रं च नित्यं लिखेत् ॥ ये सतरह ककार लेखक के पास रहने से लिखने में अच्छी सुविधा रहती है । ९५२ [ भ० महावीर की परम्परा Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ लिपि और लेखक के आदर्श गुणः-- अक्षराणि समशीर्षाणि वर्तुलानि धनानिच । परस्पर मलग्नानि यो लिखेत् सहि लेखकः ॥१॥ समानि शमशीर्षाणि वर्तुलानि धनानि च । मात्रासु प्रति बद्धानि यो जानाति स लेखकः ॥२॥ शीर्षोपेतान् सुसंपूर्णान शुभश्रोणिगतान् समान। अक्षरान् वै लिखेद् यस्तु लेखकः स वरः स्मृतः ॥ ३ ॥ सर्वदेशाक्षराभिज्ञः सर्व भाषार्विविशारदः । लेखकः कथितो राज्ञः सर्वाधिकरणेषु वै ॥ ४ ॥ मेधावी वाकाटु/रो लघुहस्तो जितेन्द्रियः । परशास्त्र परिज्ञाता एष लेखक उच्यते ॥५॥ लेखक के दोषः-- इलिया य मसिमग्गा य लेहिणी खरडियं चतलव । धिद्धित्ति कूड लेहय ! अज्ज विलेहत्तणे तण्हा,, पिहुलं मसि भायणयं अत्थि मसी वित्थयं सितलवट्ट । अम्हारिसाण कज्जे तए लेहय ! लेहिणी भग्गा" मसिगहिऊण न जाणसि लेहणगहणेण मुद्ध ! कलिओसि ओसरसु कूडलेहय ! सुललिये पत्त विणासेसि,, ____ जो लेखक स्याही ढोलता हो, लेखनी तोड़ता हो, आसपास की जमीन बिगाड़ता हो, खड़िया का बड़ा मुंह होने पर भी जो उसमें डालते हुए लेखनी को तोड़ डालता हो, कलम पकड़ना व दवात में पद्धति. सर डालना न जानता हो फिर भी, लेखनी लेकर लिखने बैठ जाते हो तो उसे कूट लेखक अर्थात् अपलक्षण वाला लेखक जानना । वह लेखक तो केवल सुंदर पानों को बिगाड़ने वाला ही है। लिपि लेखन प्रकारः लिपि दो प्रकार से लिखी जाती है १ अप्र मात्रा २ पड़ी मात्रा । श्रम मात्रा-परमेश्वर । पड़ी मात्रा-पगमश्वर । लेखक-जैप जैन श्रमणों ने पुस्तकें लिखी है वैसे कायस्थ, ब्राह्मण, वगैरह वेतनदारों ने भी लिखी है। उनका वेतन श्रावकों ने देकर अपना नाम अमर किया है । यथाः-- श्री कायस्थ विशालवंश गगनादित्योऽत्र जानामिधः । संजातः सचिवाग्रणीगुरुयशाः श्रीस्तम्भनतीर्थे पुरे ॥ तत्सनुर्लिखन क्रियैककुशलो भीमाभिधो मंत्रीराट् । तेनायं लिखितो बुधावलिमनः प्रीतिप्रदः पुस्तकः ॥ श्रीसूयघडांग प्रशस्ति. अणहिल पाटक नगरे, सौर्णिक नेमिचन्द्र सत्कायाम् । बर पौषध शालायाँ राजे जयसिंह भूपस्य" ( पाक्षिक सूत्र टीका यशोदेवीय ११८० वर्षेकृत ) "अणहिल पाटक नगरे, श्रीमज्जयसिंहदेव नृप राज्ये । आशधर सौवर्णि वसतौ विहित" (बन्ध स्वामित्व हरिभद्रीय कृतिः) "अलि वाडपुरम्मी, सिरि कन्न नराहिबम्मि विजयन्ते । दोहट्टिकारियाए वसहीए संठिए पांच" ( महावीर चरित्र प्राकृत ११४१ वर्षकृतम् ) । "श्रीमदणहिल पाटक नगरे, केशीय वीर जिन भुवने। रचियतमदः, श्री जयसिंह देव नृपतेश्च सौगज्जे" ( नवतत्व भाष्य विवरण यशोदेवीय ११७४ वर्षे ) जैन श्रमणों के प्रस्तक लेखन काल ] ६५३ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास माणे" " अणहिल बडापतने, तयणु जिणवीर मन्दिरे । सिरि सिद्धराय जयसिंह देव राज्ये विजय ( चन्द्रप्रभ चरित्र प्राकृत यशोदेवीय १९७८ वर्षे ) "अहिल पाटक नगरे, दोहट्टि सच्छेष्टि सत्कवसतौच । संतिष्ठता कृतेयं नव कर हरवत्सरे ११२६ वर्षे कृतम्” (उत्तरा० लघु टीका नेमि चन्द्रीय ) श्रीमज्जयसिंहदेवनृप राज्ये । आशापुर वसत्यां वृति स्तेनय " अणहिल्ल पाटकपुरे, ( श्रागमिक वस्तुविचार सार प्रकरण हरिभद्रीय ११७२ वर्षे ) अणहिल पाटक नगरे, कृतेय मच्छुप्त ( भगवती कृति : अभय देवीय ) ( ख ) कासहृदीयगच्छे, वंशे विद्याधरे समुत्पन्नः सद्गुण । विग्रह युक्तः सूरिः श्री सुमति विख्यातः ॥ तस्यास्ति पादसेवी सुसाधुजन सेषितो विनीतश्च । धीमानुपाधियुक्तः सद्वृत्तः पण्डितो वीरः ॥ कर्मचयस्य हेतोः, तस्यच्छिवी (१) मता विनीतेन । मदनाग श्रावणैषा लिखिता चारुपुस्तिका ॥ मारचित" "अष्टाविंशति युक्त, वर्ष सहस्त्रे शतेनचाभ्यधिके । धनि वसतौ " कर्मस्तव कर्मविपाक टीका । (घ) विदुषाजल्हणेनेदं जिनपादाम्बुजालिना । प्रस्पष्टं लिखितं शास्त्रं वंद्यं कर्मक्षय प्रदम् 11 गणधर सार्धं शतकवृत्ति । लेखक की निर्दोषताः - अदृष्ट दोषान्मति विभ्रमाद् वा यदर्थहीनं लिखितं मयाऽत्र । तत्सर्वमायैः परिशोधनीयं कोपं न कुर्यात् खलु लेखकस्य ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदिशुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ भग्नपृष्टि कटि ग्रीवा वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिख्यते शास्त्रं यतनेन परिपालयेत् || बद्धमुष्टि कटिग्रीवा मंददृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिख्यते शास्त्र यत्नेन परिपालयेत् ॥ लेखनी पुस्तकं रामा परहस्ते गता गता । कदाचित् पुनरायाता कष्टा भृष्टा च चुम्बिता ॥ लघु दीर्घ पद ही, वंजणहीण लखाणुहुइ । अजाण पणइ मूढपणइ, पंडित हुइ ते सुधकर भणज्यो । इसके सिवाय भी लेखन कला के विषय में बहुतसी जानने योग्य बाते हैं वे भारतीय जैन श्रम संस्कृति और लेखनकला नामक पुस्तक जो, प्रखर विद्वान पुरातत्ववेत्ता मुनिराज श्री पुन्यविजयजी म सा० के द्वारा सम्पादित है - विस्तार से जान सकते हैं । यह लेख भी उक्त पुस्तक के आधार पर। लिखा गया है। ९५४ [ जैन श्रमणों का पुस्तक लेखन का Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२० ९५८ wmawwwimwwwarunawwarwwwwwor ज्य--प्रकरण इस प्रन्थ के पूर्व प्रकरणों में शिशुनागवंशीय, नन्दवंशीय, मौर्यवंशीय, चेटकवंशीय चेदीवंशीय राजाओं का वर्णन कर आया हूँ । उनके जीवन वृत्तान्त व घटनाओं को पढ़ने से यह सुण्ठ प्रकारेण ज्ञात हो जाता है कि वे सबके सब अहिंसा धर्म के परमोपासक व जैन धर्म के प्रखर प्रचारक थे । उन्होंने केवल भारत में ही नहीं अपितु पात्रात्य प्रदेशों में भी जैनधर्म का पर्याप्त प्रवार किया थापाश्चात्य प्रदेशों में भूगर्भ से प्राप्त मन्दिर मूर्तियों के खण्डहर आज भी पुकार २ कर इस बात की साक्षी दे रहे हैं कि वे जिन धर्मानुयाई परम भक्त के कारवाये हुए और एक समय वहां जैनों की कापी वसति थी। जब मौर्यवंशीय राजा वृहद्रथ के सेनापति सुंगुवंशीय पुष्यमित्र ने अपने स्वामी को धोके से मार कर राजसिंहासन ले लिया तब से ही जैन और बौद्धों पर घोर अत्याचार प्रारम्भ होने लगा। राजा पुण्यमित्र वेदानुयायी था। उसने धर्मान्ता के कारण अन्य धर्मावलम्वियों पर जुल्म ढोना शुरु कर दिया । अपने सम्पूर्ण राज्य में यह घोषणा करवा दी कि " जैन गौर बौद्ध श्रमणों के सिर को काट कर लाने वाले बहादुर (!) व्यक्ति को एक मस्तक के पीछे १०० सौ-स्वर्ण दीनारें प्रदान की जायगी" इस निर्दयता पूर्ण घोषणा ने या रुपयों के क्षणिक लोभ ने कई निर्दोष जैन, बौद्ध भिक्षुओं को मस्तक विहीन कर दिये । क्रमशः इस अत्याचार का पता महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल को मिला तो उन्होंने मगध पर चढ़ाई कर पुष्पमित्र के दारुण पापो का बदला बहुत जोरों से चुकाया। उसे नतमस्तक बना कर माफी मंगवाई । इससे पुष्य मित्र खारवेल की शक्ति के सन्मुख कुछ समय तक तो मौन अवश्य रहा पर उसके मानस में उक्त दोनो धर्मों के प्रति रहे ए द्वेष कोवर त्याग नहीं सका । उसका क्रोध अन्दर ही अन्दर प्रज्जवलित होता रहता पर चक्रवर्ती खारवेल की सैन्यशक्ति को स्मृति हो पुनः उसके क्रोध को एक दम दबा देती। क्रमशः द्वेषाग्नि की भयङ्कर ज्वाला ज्यादा समय तक दबी न रह सकी ओर पुष्यमित्र ने अपना पूर्व का कार्य क्रम पुनः प्रारम्भ कर दिया · महामेधवाहन चक्रवर्ति महाराजा खारवेल ने भी दूसरी वार फिर मगध पर आक्रमण किया ! गजा पुष्यमित्र को पराजित कर मगव प्रान्त को खूब लूटा । राजानन्द द्वारा कलिङ्ग से लाई हुई जिन प्रतिमा को उठाकर वह वह पनः कलिङ्ग में लाया। इस आक्रमण के पश्चात् राजा खारवेल एक वर्ष से ज्या। जीवित नहीं रह सका यही कारण था कि पुष्पमित्र का अत्याचार अब तो निर्भयता पूर्वक होने लग गया । इस अत्याचार की भयङ्करता एवं निर्दयता के कारण जैन एवं बौद्ध भिक्षुओं को विवश, पूर्व प्रदेश का त्याग करना पड़ा। पश्चिम उत्तर ओर दक्षिण में पहिले से ही जैनधर्म का पर्याप्त प्रचार था। हजारों जैन श्रमण उन प्रान्तों में विचरण कर जैनधर्म की नींव को दृढ़ भी बना रहे थे । राजपुताना-मरुभूमि में प्राचार्य स्वयं प्रभसूरि और रत्नप्रभ सूरि ने जैनधर्म की नींव डाल कर इसका खूब प्रगर किया था। महाराष्ट्र प्रान्त में लोहिल्याचार्य ने जैतधर्म के बीजारोपण कर ही दिये थे। सम्राट सम्प्रति और खारवेल के समय भारत के अधि। शि-या सबके सब प्रदेश प्रायः जैन धर्मानुयायी थे अतः पूर्व प्रान्तीय मुनिवर्ग, पुष्पमित्र के यमगज को कंपाने वाले अत्याचारों से --जहां अनुकूलता दृष्टिगोचर हुई; चले गय । यद्यपि उन्होंने पूर्व प्रदेश का राज्य-पकरण] ९५५ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास auraniuminarmawin त्याग अवश्य किया था पर इस त्याग से पूर्व प्रांत में जैनश्रमणों का प्रभाव नहीं हुआ। हां, उतनी संख्या में व उतनी निर्भयतापूर्वक वे उस प्रान्त में जिनधर्म का प्रचार नहीं कर सके । जैन तीर्थंकरों की प्रायः जन्म और निर्वाणभूमि पूर्व प्रान्त ही था अतः जैनधर्म का उस प्रान्त में ज्या प्रचार होना भी स्वाभाविक ही था । यही कारण था कि पुष्पमित्र के राक्षसीय अत्याचार भी जैनियों के अस्तित्व को सर्वथा मिटाने में असफल ही रहे। पुष्पमित्र का राज्य भी २६ वर्ष पर्यन्न ही रहा अतः उसकी मृत्यु के पश्चात् तो जैनश्रमणों को पूर्व प्रान्त में विचरण करने में इतना विघ्न का सामना नहीं करना पड़ा। जिन श्रमणों ने पुष्पमित्र के उपद्रव से पूर्व प्रान्त का त्याग कर अन्य प्रान्नों की ओर विहार किया था वे जिन जिन प्रान्तों में गये वहां जैनधर्म का प्रचार कर अपना विहार क्षेत्र बना लिया वहां के राजा प्रजा पर धर्म का प्रभाव डाल उनको जैनधर्म के उपासक बना दिये इधर मरुधरादि प्रांतों में पहले से ही भगवान पार्श्वनाथ के सन्तानिये विहार करते थे वहां भी लाखों की संख्या में जैन विद्यमान थे इससे पूर्व से आने वाले श्रमणों को सब तरह की सुविधा भी थी। जब पुष्पमित्र का देहान्त हो गया और साथ ही में उपद्रव की भी शति हो गई । इस हालत में कई श्रमण बड़े-बड़े संब निकलवा कर पूर्व के तीर्थों की यात्रा करने को पुनः पूर्व में गया और •ई निग्रंथों ने पूर्ववत् पूर्व प्रदेशों को स्थायी रूप से अपना विहार एवं धर्म प्रचार का कार्य करने लग गये इत्यादि पाठक सोच सकते हैं कि धर्म रक्षा के लिये जैन मुनयों ने कैसे-कैसे संकटों का सामना किया था- ? पट्टावलीकार लिखते हैं कि प्राचीन जमाने में मरुभूमि के गजा कई विभागों में विभक्त थे जैसे--भिन्नभाल, उपके शपुर, कोरंटपुर, नागपुर, चन्द्रावती, नारदपुरी. शिवपुरी, माण्डव्यपुर, शंखपुर वगैरह स्थानों में पृथक २ राजाओं का राज्य था । इन सब राजाओं पर जैनाचार्यों का पर्याप्त प्रभाव था। उक्त जिन धर्मानु यायी नरेशों में से कई तो जिनधर्म के उपा क ही नहीं पर कट्टर प्रचारक भी थे । उस समय में जैनधर्म का चतुर्दिक में इतना विस्तृत प्रचार होने का एकमात्र कारण जैनधर्म के सिद्धान्तों की पवित्रता अहिंसा, स्याद्वाद कर्मवादादि अकाटय सिद्धान्तों की प्रामाणिकता ही था। वाममार्गियों के अत्याचार एवं यज्ञ की गहिंद हिंसा से सब ही घृणा करने लगे थे। मांस, मदिग, व्यभिचार आदि पाप रूप वाममार्गियों के धार्मिक सिद्धान्तों को अधर्म समझ जनसमाज उससे घृणा करने लग गया था । धर्म की आड़ में पाप का पोषण उन्हें अरुचिकर प्रतीत हुआ, यही कारण था कि जैनियों की पवित्रता एवं उच्चता ने उनका प्रचार मार्ग एक दम अवरुद्ध कर दिया । वाममागियों की जुगुप्सनीय प्रवृत्ति के एकदम विपरीत जैन श्रमणों की कठोर त्याग परायणता, आचार व्यवहार एवं नियमों की दृढ़ता, शास्त्र ज्ञान अन्य विषय प्रतिपादन शैली की अपूर्वत ने जैनधर्म के प्रति सबके हृदय को आकर्षित करने में चुम्बक का काम किया। बस एक बार जैनियों का विक्रय डंका सारे भारतवर्ष में ही नहीं अपितु प्राश्चात्य प्रदेशों में भी बज गया। जैनियों की संख्या में दिन प्रति दिन अभिवृद्धि होती गई। इन राजांओं में से कई तो ऐसे भी थे जिनकी कई पीढ़ियों पर्यन्त जैन धर्ती का पालन बराबर चलता आया । इनमें उपकेशपुर, चद्रावली, शंखपुर, विजयपुर शिवपुरी, कोरंटपुर, डामरेल, वीरपुर आदि ६५६ [ राज्य-प्रकरण Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल ९० ९२७.९५८ की वंश परम्परा विशेष उल्लेखनीय है । इनपान्तों में जैनश्रमणों का विहार भी अधिक था और जैनधर्म के पवित्र सिद्धान्तों का उपदेश भी बराबर मिलता रहता था अतः इन प्रान्तों में जैनधर्म क राज धर्म बनचुका था। खेद है कि एतद्विषयक जितने ऐतिहासिक पुष्ट प्रमाण चाहिये थे उतने सम्प्रति, उध्ध नहीं हो सके तथापि जो कुछ हमें प्राप्त ए हैं उन्हीं के आधार पर यत्कञ्चित रूप में यह लिखा ला रहा है । हमारी वंशाव लयों एवं पदावलियों में यत्र तत्र कुछ प्रमाण अवश्य मिलते है पर ये शेिष प्राचीन नहीं किन्तु अवीन समय के होने कारण उन पर इसना भार नहीं दिया जा सकता है। वे विद्वानों की दृष्टि से कम विश्वासनीय है फिर भी वंशालियां पट्टावलियां सर्वथा निराधार भी नहीं है । उसों पूर्व परम्पग, गुरु कथन और धारण. से जो कण्ठस्थ ज्ञान चला आया था वह ही लिपिबद्ध किया गया है अतः ये सर्व । सत्य से पराङमुख या युक्ति शून्य भी नहीं है। वतमान में गवर्न एट सरकार के पुरातत्व शोध-खोज विभाग ने भूमि को खोद कर प्राचीन ऐतिहासिक वस्तुओं को प्राप्त करने का एक परमावश्यक कार्य प्रारम्भ किया है । इस खोद काम को प्रामा. णिकता एवं सफलता र रूप भूगर्भ से अनेक ताम्रपत्र, दानपत्र, सिक्के, मूर्तियां, खण्डहर तथा कई प्राचीन नगर भी मिले हैं । इस सूक्ष्म अन्वेषण कार्य से ऐतिहासिक क्षेत्र एवं प्राीना को शोध निकालने के कार्य में बड़ी ही सहायता मिली है । इतनाही नहीं हमारी वंशावलियों एवं पट्टाव लयों पर भी प्रामाणिकता की खासी छाप पड़गई है । जिनपट्टावलियों के प्रमाणिक थन पर अर्वाचीनता के कारण संदेह करते थे; आज वे प्रायः निस्सदेह बन गये। उदाहरणार्थ दिखिये। ( १ ) हमारी पट्टावणियों में कलिङ्ग पति भिक्षुराज का वर्णन विस्तार से मिलता है प विद्वानों का उस पर ( भिक्षुराज के जीवन वृत्त पर ) उतना ही विश्वास था जितना कि उनका इन पट्टावनियों पर था अर्थात् लन्हें ऐतिहासिक मनीषी प्रायः अप्रामाणिक एवं युक्ति शुन्य समझते थे पर जब कलिङ्ग की उदयगिरि, खण्डगिरी पहाड़ियां पर महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल (भिक्षुराज ) का शिलाख जो १५ फीट लम्बा ५ फीट चौड़ा है --प्राप्त हुआ तो उसमें वहीं ब त पाई गई जो हमारी गुरु परम्परा से आई पट्टावलियों में वर्तमान है। (२) हमारी पट्टालियों वतला रही थी कि मथुरा में सैकड़ों जैन मन्दिर एवं जैन स्तूप थे अनेक वार जैनाचार्यों ने मथुग में चतुर्मास किये थे इतनाही क्यों पर जैनागमों की वाचना भी मथुरा नगर। में हुई थी पर वर्तमान में कोई भी चिन्ह नही पाने से वंशावनियों में शंभ की जाति थी परन्तु मथुरा के कंकाली टीले के खोद काम से वहां अनेक प्रतिमाएं एवं अयग पट्टादि निकले इसस सिद्ध हुआ कि मथुरा और उसके आस पास के प्रदेशों में जैनधर्म का पर्याप्त प्रचार था। (३ : अजमेर के पास बी नामक ग्राम में भगवान महावीर के निर्वाण के ८५ वर्ष के पश्चात् का शिला लेख मिला है। इससे पाया जाता है कि, वीगत् ८४ वर्ष में इस प्रदेश में जैनधर्म का बहुत प्रचार था । हमारी पट्टावलियां भी बताती है कि वीरात् ७० वर्ष में आचार्य रमप्रभ सूरिने मरुधर में जैनधर्म की नींव डाली और वीरात् ८४ वें वर्ष में आचार्य श्री का स्वर्गवास हुआ। शायद् उनकी स्मृति का ही यह शिलालेख हो।। राज्य-प्रकरण] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (४) सौराष्ट्र प्रान्त के प्रभास पट्टन में खुदाई का काम करते हुए एक ताम्र पत्र मिला है जिसमें लिखा है कि राजा ने बुसदनेमर ने एक मन्दिर बनवा कर गिरनार मण्डन नेमिनाथ भगवान् को अर्पण किया। इसका समय विक्रम पूर्व पांच, छ शताब्दी का है इससे पाया जाता है कि इसके पूर्व भी वहां जैनधर्म का प्रचार था हमारी पट्टावलियां भी इसी बात को पुकार पुकार का कह रही है कि लोहित्याचार्य ने पश्चिम से दक्षिण तकके प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार किया था। (५) महाराष्ट्र प्रान्त में बहुत से ताम्रपात्र दान पत्र भूगर्भ से मिले हैं, तब हमारी पट्टावलिये कहती हैं कि विक्रम की छट्टी, सातवीं शताब्दी पूर्व लोहित्याचार्य ने महाराष्ट्र प्रान्त में जैनधर्म आ प्रचार किया था। (६) तक्ष शिला के खोद काम से वहां अनेक जैन मूर्तियें एवं जैन मन्दिरों के खण्डहर मिले हैं तब जैन पट्टावलियां बताती है कि एक समय तक्षशिला में ५ . जैन मन्दिर थे । (७) केवल आर्यावर्त में ही नहीं; पाश्चात्य प्रदेशों में भी जैन प्रतिमाओं एवं खण्डहरों के अखण्ड चिन्ह मिले हैं। अभी ही आस्ट्रिया प्रान्त के बुढ़ प्रस्त प्राम के एक कृषक के खेत में भगवान महावीर की अखण्ड मूर्ति उपलब्ध हुई है। अमरिका में सिद्धचक्र का ताम्र मय घट्टा व मंगोलिया प्रदेश में अनेक जैन मन्दिरों के खण्डहर प्राप्त हुए हैं। इसी बात को हमारे पट्टावली निर्माताओं ने लिखा है कि सम्राट् सम्प्रति ने पाश्चात्य प्रदेशों में जैनधर्म का विस्तृत प्रचार करवाया था। इत्यादि ।। अम्वेषण के ऐसे सैकड़ों ऐतिहासिक साधन हमारी पट्टाव लयों एवं वंशावलियों की सत्यता को अब भी सिद्ध कर रहे हैं। न जाने ऐसे कितने ही साधन भू गर्भ में अब भी गुप्त पड़े होंगे ? पर ज्यों-ज्यों शोध-खोज एवं अन्वेषण कार्य तीव्रता से बढ़ता जा रहा है त्यों २ प्राचीन एवं ऐतिहासिक पुण्य साधन भी उपलब्ध होते जा रहे हैं । इन प्राचीन सत्य प्रमाणों के आधार पर हमारी पदावलियों की प्रामाणिकता एवं सत्यता अपने आप ही सिद्ध होती जा रही है । अतः हमारा कर्तव्य है कि, हम हमारी वंशावलियों में विश्वास रखते हुए ऐतिहासिक साधनों के द्वारा पट्टावलियों की प्रामाणिकता को जनता के सन्मुख रखने का प्रयत्न करते रहें। हमारी पट्टावलियों, वंशावलियों की सत्यता में संदेह रखने का कारण-वे घटना समय के सैंकड़ों वर्षों के पश्चात् लिपिबद्ध की गई हैं । दुसरा-इतने दीर्घ समय के बीच एक ही नाम के अनेक राजा एवं आचार्य हो गये हैं अतः पीछे के लेखकों ने नामकी समानता के कारण एक दूसरे प्राचार्यों की घटना एक दूसरे समान नाम वाले श्राचार्यों के साथ जोड़ दी है। एक राजा की घटना दूसरे राजा के साथ सम्बन्धित करदी है । उदाहरणार्थ देखिये (१) उत्पलदेव नाम के कई राजा हुए हैं अतः भाटों चारणों ने बाबू के परमार राजा उत्पलदेव के साथ ओसियां बसाने बाले राजा उत्पलदेव की घटना को जोड़ दी है की वास्तव में ओसियों को श्राबाद करने वाले तो भिन्नमाल के सूर्यवंशी राजा उस्पल देव थे। श्राबू के उत्पल देव विक्रम की दशवीं सताब्दों में हुए तब भिन्नमाल के सूर्यवंशीय उत्पलदेव विक्रम के चार सौ वर्ष पूर्व हुए हैं। (२) जैन संसार में पन्चमी की सम्वत्सरी को चतुर्थी के दिन करने वाले कालिकाचार्य हुए हैं पर कालकाचार्य नाम के कई प्राचार्यों के हो जाने से पंचमी की सम्वत्सरी को चतुर्थी के दिन करने वाले Amature राज्य-प्रकरण] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ कालकाचार्य की घटना दूसरे कालकाचार्य के साथ जोड़ दी है । वास्तव में तो चतुर्थी को सम्वत्सरी करने वाले कालकाचार्य विक्रम के समकालीन हुए हैं पर पीछे के लेखकों ने धीरात् ९९३ वर्ष में हुए कालकाचार्य के साथ उक्त घटना को जोड़ दी है तथा आचार्य मानतुंग मल्लवादी जीवदेव हरिभद्रादि के समय में भी बहुत सा अन्तर है। इस प्रकार नामों की समानता से घटनाओं की सत्यता एक दूसरे नाम वालों के साथ अवश्य जोड़ दी गई है पर घटनाए सर्वथा असत्य नहीं है । नाम के साम्य के कारण इस प्रकार की उलझन में पड़ जाना नैसर्गिक ही था अतः ऐसी त्रुटियों के आधार पर पट्टावलियों के महान् उपयोगी साहित्य का अनादर व अवहेलना कर, अप्रमाणिक कह देना तो कर्तव्य पराड़ मुख होना ही है । पर हमारा यह फर्ज है कि ऐसी त्रुटियों के लिए अन्यान्य साधनों द्वारा घटनाओं का सम्वत निश्चित कर एतद्विषबक ठीक संशोधन करें न कि इतिहास के एक प्रामाणिक पुष्ट अंग को ही काट दें। मेरा तो यहां तक खयाल है कि पट्टावली आदि साहित्य को अप्रामाणिक कह कर उसको अलग रख दिया जायगा तो हमारा इतिहास सदैव के लिये अधूरा ही रह जायगा । जब ऐतिहासिक समय में या विशिष्ट घटनाओं में झमेला पड़ता है तब उन उलझनों को सुलझाने के लिये हमको उन पटावलियों एवं वंशावलियों की ही शरण लेनी पड़ती है । अभी तक जैन समाज के प्राचीन इतिहास या भारतवर्ष के इतिहास को ढूंढ़ने के खिये जितने प्रबल साधनों की आवश्यकता है उनमें से एक शतांश भी उपलब्ध नहीं हुए हैं जो कुछ प्राप्त हुए हैं वे भी सिलसिले वार-- क्रमानुकूल नहीं है अतः इन त्रुटियों की पूर्ति तो पटावलियां ही कर सकती हैं। अब जरा इतिहास की ओर भी आँख उठा कर देखिये । पहावलियों के समान इतिहासों में भी पर्याप्त मतभेद है । एक ऐतिहासिक व्यक्ति बड़ी शोध खोज के साथ इतिहास लिखा है तब, दूसरा उसके सामने विरोध के रूप में खड़ा हो ही जाता है। उदाहरणार्थ-मौर्यवंशी सम्राटचन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के विषय में जो समय का मतभेद है वह अभी तक मिट नहीं सका है। इसी तरह अशोक के शिलालेखों एवं धर्मलों के विषय में भी मतभेद है-कोई इन धर्मलेणों को सम्राट अशोक के बतलाते हैं तो कोई सम्राट सम्प्रति के एवमेव इरानी बादशाह ने जिस समय भारत पर आक्रमण करके पाटलीपुत्र के पास अपनी छावनी डाली उस समय गत्रि के बक्त एक युवक छावनी में जाकर इरानी बादशाह से मिला था। मिलने वाला युवक चन्द्रगुप्त था तब कोई इतिहास कार कहते हैं कि वह अशोक था। ऐसे एक दो ही नहीं पर परस्पर विरोध प्रदर्शक हजारों उदाहरण विद्यमान हैं। उक्त उदाहरणों को लिखने से मेरा यह तात्पर्य नहीं कि-ऐतिहासिक साधन एकदम निरुपयोगी ही हैं । प्राप्त साधन भारत के लिये बड़े उपयोगी एवं गौरव के हैं, पर ऐतिहासिक साधनों में रही हुई त्रुटियां जैसे अन्य साधनों से सुधारी जाती है उसी तरह प्रमाणों के आधार पर पट्टावली साहित्य में रही हुई त्रुटियां भी सुधारते रहना चाहिये । देखिये पुरातत्व मर्मज्ञ रा० ब० पं: गौरीशंकरजी श्रोमा कहते हैं कि___"इतिहासाव काव्यों के अतिरिक्त वंशावलियों की कई पुस्तकें मिलती हैं xx तथा जैनों की कई एक पट्टावलियां आदि मिलती है, ये भी इतिहास के साधन हैं।" राजपूताने का इतिहास पृ.१. राज्य-प्रकरण] ९५९ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्रीमान् ओमाजी के मतानुसार इ िहास लिखने के अन्यान्य साधनों में जैन पट्टावलियों एवं वंशावलियां भी एक प्रमुख साधन हैं। जैनाचार्यों ने अनेक प्रान्तों में बिहार कर कई छोटे बड़े राजाओं को उपदेश देकर असा परमोधर्म एवं जैन धर्म के परमोपासक एवं जैनधर्म के प्रचारक बनाये इसी प्रकार यथा राजास्तथा प्रजा इस न्याय से जहां राजा धर्मीष्ट होते हैं वहां प्रजा भी उसी श्रम की विशेषम आ धिना करती है और यह बात संभव भी है कि जिस धर्म के उपासक र जा हैं वह धर्म प्र । में खूब फैल जाता है । यही कारण था कि उस समय जैनधर्म की आराधना करने वालों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी इ को मुख्य कारण राजाओं ने जैनधर्म को खूब अपनाया एवं चार बढ़ाया था जब मे राजाओं ने जैनधर्म से किनारा लिया तब से ही जैनों की संख्या कम होने लगी और क्रमशः आज बहुन अल्प संख्या रह गई । हमारी पट्टावलियों वशावलियों में ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं कि पूर्व जमाने में अनेक राजा महाराजा जैनधर्म के उपासक एवं प्रचारक थे इतना ही क्यों पर कई राजाओं की संतान परम्परा तक भी जैनधम पालन किया है जिन्हों का चरित्र तोहुत विस्तृत है पर मैं यहां पर संक्षिप्त से ही लिख देता हूँ। १-राजा उत्पलदेव-आप सूर्यवंशी महाराजा भीमसेन के पुत्र एवं उपवेशपुर आबाद आपने ही किया था आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपदेश देकर आपके साथ लाखों क्षत्रियों एवं जारों ब्राह्मणों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा दी थी और आपके नायकत्व में ही महाजन संघ की स्थापना की थी। राजा उत्पलदेव ने जैन धर्म का प्रचार करने में खूब मदद की थी। अपने मरूधर प्रान्त से सव से पहला तीर्थ श्री शत्रुजय का विराट संघ निकाल तीर्थयात्रा का मार्ग खोल दिया था शहर के नजदीक पहाड़ी पर भगवान् पाश्वनाथ का उतंग जिनालय बना कर उसको प्रतिष्ठा बड़े ही म धूम से करवा कर जनता में भक्ति भाव उत्पन्न किया था इतना ही क्यों पर प्राचार्य जी यक्षदेवसूरि जिस समय सिन्ध धरा म पधारने का विचार किया उस समय भी अपने ही सलाह एवं सहायता दी थी इत्यादि आप अपना शेष जीवन जैन धर्म का प्रचार करने में व्यतीत किया था ___ महागजा उत्पलदेव के प्रधान मंत्री चन्द्रवंशीय ऊहड़ थे राजा के धर्म प्रचार कार्य में आपकी विशेष मदद थी आपका जीवन राजा के जीवन के साथ लिखा गया है आपके जीवन में विशेष घटना यह बनी थी कि केशर की 'नता पर श्रीमाल के ब्राह्मणों के लागन-दापा का जबर्दस्त टेक्स था उसको हटा कर उपकेशपुर के लोगो को उस जुल्मी टेक्स से शुक्त कर दिया जो आज पर्यन्त उपकेश वंशी ( ओसवाल जाति ) स्वतंत्र एवं सुब से जीवन व्यतित कर रहा है मंत्री ऊहड देव ने भी जैन धर्म का प्रचार कार्य में पूज्याचार्य देव एवं राजा का हाथ बेटाया था मंत्रेश्वर ने उपके !पुर में भगवान महावीर पा मन्दिर बनवा कर एवं आचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवा कर अपनी धवल कीर्ति को अमर बना दी जिस मन्दिर की पात्र सेवा पूज्य कर अनेक भावुक अपना कल्याण कर रहे है। जिनका विस्तृत वर्णन पिछले पृष्ठों में हम कर आये हैं मंत्री ऊहड़ के पुत्रों से जिस समय एक पुत्र ने आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास दीक्षा ली थी उस समय 'वेश्वर ने उस को मना नहीं कर लाखों रुपये व्यय कर दीक्षा का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया था यही कारण था कि मंत्रेश्वर को धर्म का सच्चा रंग था। ९६० [राज्य-प्रकरण Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ (अनुसंधान इसी प्रन्थ के पृष्ट ७३५ (ख ) से आया है) नं० । राज का नाम समय कहां से कहां तक राजकाल ६० विक्रमादित्य धर्मादित्य इ० सं० पूर्व-५७ से इ. सं०३ ३ ,, ४३ ४३ , ५४ ५४ , ६८ ॥ ४० ११ वंशावली का समय त्रि० ले० शाह के पुस्तकानु सार दिया है। भाइल नाइल नाइड श्रावती प्रदेश पर विक्रमवंशी राजाओं के पश्चात चष्टानवंशी राजाओं का समय आता है चष्टानवंशी राजात्रों को क्षत्रप महाक्षत्रप की उपाधि थी और तक्षशिला मथुरा और उज्जैन में इनका राज रहा था यद्यपि जितना चाहिये उतना इतिहास इन वंश का नहीं मिलता है तथापि इन राजाओं का कतिपय शिलालेख और कई सिक्के जरूर मिलते हैं जिससे पाया जाता है कि इस जाति के लोग बाहर से भारत में आये थे और अपने मुजवल से भारत में राज किया था इनके सिक्काओं पर बहुत से ऐसे चिन्ह पाया गया कि जिससे बे जैनधर्म पालन करना साबित हो सकते हैं डाक्टर सर केनिंगहोम ने भी उन चिन्हों को बौद्धों का होने में शंका अवश्य की है तथापि कई विद्वानों की यह भी राथ है कि चष्टानवंशी राजा बौद्ध धर्मी थे इसका कारण कई पाश्चात्य विद्वान बौद्ध धर्म और जैनधर्म को एक ही समझते तथा कई लोग जैनों को एक बौद्धों की शाखा ही सममली थी यद्यपि बहुत विद्वानों का यह भ्रम दूर हो गया है और वे निःशंक मानने लग गये हैं कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र एवं बहुत प्राचीनधर्म है तथापि अभी ऐसे लोगों का भी प्रभाव नहीं है कि उन पुराणी लकीर के फकीर बन बैठे है इस विषय में सिक्का प्रकरण में खुलासा किया जायगा यहाँ तो सिर्फ इतना ही लिखा जाता है कि मथुरा का स्तूप को विद्वानों से जैनधर्म का स्तूप होने की उद्घोषना की है उस स्तूप की प्रतिष्ठा महाक्षत्रप राजा राजुबुल की पट्टराणी ने करवाई थी और उसमें महाक्षत्रप भूमक नहपाण वगैरह सब शामिल होकर प्रतिष्ठा महोत्सव किया था यदि क्षत्रिप महाक्षत्रिप बौद्ध हं ते तो इतना विशाल जैन स्तूप बना कर वे प्रतिष्ठा कब करवाते ? दूसरा एनके सिक्कों पर भी जो चिन्ह है वे सब जैनधर्म से ही सम्बन्ध रखते हैं न कि बौद्ध धर्म के साथ । अतः यहां पर उन चष्टान वंशी क्षत्रिप महाक्षत्रिप राजाओं की वंशावली देदी जाती है । आवंती देश के नरेश ९६१ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वर्ष २६३ २६५ १८५ नं० राजा समय ई० सं० वर्ष नं० राजा समय ई० सं० १ षमिति ११७ १४ । ९ दामसेन २४८ २६३ २ चष्टान ११७ १५२ ३५ | १० यशोदमन २६५ ३ रुद्रदमन १५२ १८५ ३३ / ११ विजयसेन २७५ ४ दामजाद श्री २१ । १२ दामजाद श्री २७५ २८० ५ रुद्रसिंह २०६ २२२ १६ | १३ रुद्रसेन (२) २८० ३०१ २१ ६ जीवदमन २२५ ३ | १४ विश्वसिंह ३०१ ३०४ ७ रुद्रसेन २२५ २४७ २२, १५ भर्तृदामन ३०४ ३२० १६ ८ संघदमन २४७ २४८ १ -त्रि० ले० शाह के पुस्तकानुसार पश्चिम के क्षत्रिपो की वंशावली १-नहापन १५-विजयसेन २३९-२४९ २-चसथान १३०-१४० | १६-दमजादी २५०-२५५ ३-जयदमन १४०-१४३ १७-रुद्रसेन २५६-२७२ ४-रूद्रदमन १४३-१५८ १८-विश्वसिंह २७२-२७८ ५-दामजादश्री १५८-१६८ १९-मत दमन २७८-२९४ ६-जीवदामन १६८-१८१ २०-विश्वसेन २९४ -३०० ७- रूदृसिंह (२) १८१-१९६ २१- रूद्रसिंह ०००-३११ ८.-रूद्रसेन २०३-२२० २२-यशदमन ८०६-३२० ९-तृथ्वीसेन २२-२२३ २३-दामश्री ३२० १०-संघदमन २२२-२२६ २४-रूद्रसेन ३४८-३७६ ११-दामसेन २२६-२३६ २५-रूद्रसेन ३७८-३८८ १२- दामजादश्री २३६ २६-सिंहसेन १३-वीरदमन २३६-२३८ २७-रकन्द १४- यशःदमन २३८-२३९ | "बंबाई प्र. जै० स्मारक पृ. १८२ पर से मैंने इस विषय की कई वशावलियों देखो पर उसमें समय का अन्तर सर्वत्र पाया जाता है। + श्री विश्वेश्वरनाथ रेऊ लिखित 'भारत का राजवंश' नामक पुस्तक में चष्टानवंशी राजाओं की वंशावली दै है पर ऊपर लिखे समय से कुछ अन्तर है इसका मुख्य कारण उस समय के इतिहास का अभाव है। चष्टानवंशी क्षत्रिप महाक्षत्रिप के पश्चात श्रावती की गादी पर गुप्तवंशी राजाओं ने भी राज किया है इन गुप्तवंशी राजाओं के भी बहुत से सिक्के मिले हैं जिसको हम सिका प्रकरण में नल्लेख करेंगे कि गुप्तवंशी राजाओं में भी जैनधर्म को अच्छ। स्थान मिला था उन राजाओं की वंशावलियां निम्न लिखित है९६२ क्षत्रपों की वंशावली Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ RAAMAYAsmrushArAARMAnnar ३२० ४५५ ० राजाओं के नाम ई० सं० समम १ श्री गुप्तराजा २ घटोत्कच्छ २. इस समयावली के साथ श्रीमान् ३ चन्द्रगुप्त ३२० ३३० १० | पं० गौरीशंकरजी श्रोमा की दी हुई ४ समुद्रगुप्त ३३० ३७५ ४५ | समयावलि का मिलान करने में बहुत ५ चन्द्रगुप्त (२) ६७५ ४१३ ३८ | अन्तर पाता है शायद शाह ने अनुमान ६ कुमार गुप्त ४१३ ४२ | से समयावलि लिखी होगी विद्वान वर्ग ७ रकन्द गुप्त ४५५ ४८० २५ | इस पर विचार करेगा। ८ कुमार गुप्त (२) ४८० ४९० ९ बुद्ध गुप्त १. भानु गुप्त गुप्तों के बाद आवंती प्रदेश पर हूणों ने भी राज किया था। १-हूण राजा तोरमाण ई० स० ४९० ५२० २-,, मिहिरकुल , ५२० ५३० हूणों के पश्चात आवंती पर प्रदेशियों की हुकूमत बिलकुल उठ गई और परमार जाति के राजपूतों ने सिंहासन को संभाला वे वर्तमान समय तक राज करते ही आये हैं जिन्हों की वंशावली फिर आगे के पृष्ठों पर दी जायगी। -गुप्तवंशी राजाओं ने अपना संवत् भी चलया था विद्वानों का मत है कि ई० सं० ३१९.२० में गुप्तों ने अपना संवत् चलाया डा० बुलार कहना है कि गुप्तवंश के राजाओं के तीन लेख मिला है किसमें एक शिलालेख अथुरा को जैनमूर्ति पर है जिसका भावार्थ यह है कि "जय हो कोटियगण विद्याधर शाखा के इत्तिलाचार्य के उपदेश से वर्ष ३ महान शासक विख्यात चक्रवर्ती राजा कुमारगुप्त के राजकाल के बीसवें दिन कार्तिक मास के दिन भट्टी भवानो की पुत्री और खारवा गृह मित्र हालीत की पत्नि समाडचा ने यह प्रतिमा पधराई थी" दूसरे लेखों की स्थिति ऐसी नहीं कि वह साफ पढ़ा जाय सथापि उसमें मन्दिर बनाने का तथा जीर्णोद्धार करने का उल्लेख है। -गुप्तवंश के राजा हरिगुप्त मौर देवगुप्त के सिक्के मिले हैं हरिगुप्त-देवगपत मे जैमधर्म की श्रमण दीक्षा ली थी और हरिगुप्तसूरि के उपदेश से हूण तोरमण जैनधर्म का अनुरागी बना था तथा दैवगुप्ताचार्य एक बड़ा भारी विद्वान एवं कवि था इनके लिये कुवलयमाला कथा में उल्लेख मिलता है ४-अंगदेश इस देश की राजधानी चम्पा नगरी कही जाती है जहां बारहवें तीर्थकर भ० वासपूज्य का निर्वाण कल्याणक हुआ था पर वर्तमान में कई लोगों ने मगद देश की चम्पा नगरी को ही अंग देश की चम्पा नगरी मानली है वास्तव में मगद देश की चम्पा नगरी अलग है और अंग देश की चम्पा नगी अलग है अत: यह कल्पना की गई है और इस प्रकार अपनी सुविधा के लिये स्थापना नगरिया मानली जाती है वरना अंग देश मगद से पृथक एबं मगद के पड़ोस में पाया हुआ है और अंग देश की चम्पा नगरी के स्थान वर्तमान में भारहूत नाम का एक छोटा सा प्राम है जहां पर जैनों के बहुत से स्तूप वर्तमान में भी विद्यमान है कई लोगों का मत है कि भारहूत स्तूप बौद्ध धर्म का है पर श्रीमान् शाह ने गुप्तवंशी राजाओं की वंशावली Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ourn. .. . .m orem.m wear-wrr www.www.www.wmmmmmon बहुत प्रमाणों से उस स्तूप को जैन स्तूप साबित किया है इतना ही क्यों पर शाह ने तो यहां तक बतलाया है कि भ० महावीर को केवल ज्ञान इसी स्थान पर उत्पन्न हुआ था और उसकी स्मृति के लिये ही भक्त भावुकों ने यह स्तूप बनाया था राज प्रसेनजित और सम्राट कूणिक ने वहां पर स्तम्भ बना कर शिला लेख खुदवाया था वह आज भी विद्यमान है अतः उस स्तूप को जैन स्तूप मानने में किसी प्रकार की शंका नही रह जाती है इस स्तूप के विषय में हम आगे चलकर स्तूप प्रकरण में विशेष उल्लेख करेंगे। राजा श्रोणिक ने अपनी राजधानी राजगृह नगर में स्थापन की थी जब राजा. कूणिक मगद पति बना सब उसने अपनी राजधानी चम्पा नगरी में ले आया था इसका कारण राजा कूणिक के जरिये राजा श्रोणिक की मृत्यु बहुत बुरी हालत में हुई थी अतः कूणिक का दिल राजगृह नगर में नहीं लगता था दूसरा चम्पा नगरी एक तीर्थ रूप भी था कारण भ० वासुपूज्य का निर्वाण कल्याणक तो था ही पर नजदीक के समय में भ० महावीर का केवल कल्याणक भी वही हुआ था अतः उसने अपनी राजधानी के लिये चम्पा नगरी को ही पसन्द की पर उस समय चम्पा नगरी एक भग्न नगर के खण्डहर के रूप में थी इसका कारण यह था कि चन्पा नगरी में राजा दधिवाहन राज करता था उसका विवाह भी वैशाला नगरी के राजा चेटक की पुत्री पद्मावती के साथ हुआ था जब रानी पद्मावती गर्भवती हुई तो उसको दोहला उत्पन्न हुआ कि मैं राजा के साथ हस्ती को अंबाडी पर बैठ कर जंगल की सैर करूं । जब राणी ने अपने दोहला का हाल राजा को कहा तो राजा ने सब तरह से तैयारी करवा कर रानी के साथ हस्ती पर बैठ कर जंगल की सैर करने को गये पर न जाने क्या भवितव्यता थी कि हस्ती मद में श्राकर जंगल में इस प्रकार दौड़ना शुरू किया कि उसने महावत के अंकुश की भी परवाह नहीं की और खूब जोरों से दौड़ने लगा जब एक वृक्ष आया तो राजा ने उसकी शाखा पकड़ कर हरती से उतर गया पर रानी तो हस्ती की अंबाडी में बैठी हो रही और हस्ती ज्यों का त्यों मद में दौड़ता ही रहा __ जब अंग देश की सीमा को उल्लंघ हस्ती वंशदेश की सीमा में पहुँच गया तो थकावट के मारा हस्ती स्वयं खड़ा रह गया रानी उतर कर नीचे आई तो भयंकर जंगल ही जंगल दीखने लगा थोड़ी दूर गई तो तापसों के आश्रम आये रानी तापसों के पास जाकर अपनी सब हालत सुनाई इस पर तापसों ने रानी को नेक सलाह दी कि माता तुम यहां से वंश देश की राजधानी दान्तीपुर नगर चले जाओ वहां से अंगदेश जाने में आपको सुविधा रहेगी। रानी तापसों के कहने पर उसी रास्ते रवाना हो गई भाग्यवसात रास्ते में साग्वियां मिली रानी ने उनको भक्ति के साथ वन्दन किया बाद रानी को योग्य घराने की जान साध्वी ने उपदेश दिया जिसमें संसार का असारत्व और दीक्षा की उपादयत्व बतलाया जिसका प्रभाव गनी की आत्मा पर इस कदर हुआ कि उसने उसी समय साध्वियों के पास जैन दीक्षा स्वीकार करली और साध्वियों के साथ बिहार कर दिया पर कुछ समय से साध्वी पद्मावती के शरीर में गर्भ के चिन्ह प्रकट होने लगे तब गुरुणी ने उसे पूछा साध्वी ने अपनी सब हिस्ट्री कह सुनाई इस पर गुरुणी ने कहा कि बहिन ! ऐसा ही था तो हमको पहले कहना था ? पद्मावती ने कहा कि यदि मैं पहले कह देती तो श्राप मुझे दीक्षा कब दे देते यदि मुझे दीक्षा नहीं देते तो मेरे जैसी निराधार रूप सम्पन्न युवा स्त्री का क्या हाल होता इत्यादि । खैर गुरुणी अच्छी समयज्ञ थी कि किसी योग्य गृहस्थ को सूचित कर उसका प्रबन्ध करवा ९६४ चम्पा नगरी का राजा करकंड Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमुरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १२०-१५८ दिया जब पद्मावती ने गर्भ के दिन पूरा होने से पुत्र को जन्म दिया तथा उसका कुछ पालन कर उसके साथ कुछ चिन्ह रख उसको श्मशान में रख दिया और पद्मावती ने पुनः दीक्षा ले ली और अन्यत्र विहार कर दिया। इधर जब स्मशानरक्षक स्मशान में आकर देखा तो महान क्रान्ति वाला देव कुंवर सदृश बच्चा उसकी नजर आया वह भी बड़ी खुशी से उसे उठा कर अपनी ओरत को सौंप दिया चण्डाल अपुत्रियां होने से उस नवजात पुत्र को अपना पुत्र समझ कर पालनपोषण किया और उसका नाम करकंडु रख दिया जब वह बड़ा हुआ तो एक समय जंगल में अन्य बालकों के साथ खेल रहा था उस समय दो विद्वान भविष्यवेत्ता उस रास्ते से निकल आये उन्होंने लड़कों को कहा कि इस वंश जाल को छेदने वाला भविष्य में राजा होगा ? बस राज की आकांक्षा से वे लड़के वंश जाल छेदने की कोशिश की जिसमें करकंडु ने वंश जाल छेदन करदी पर दूसरे भी सब लड़के बोल उठे कि वंश जाल मैंने छेदी २ इससे आपस में लड़ाइयां होने लगी यहां तक कि उन लड़कों के वारस भी लड़ने लग गये मामला राजा के पास गया तो राजा ने फैसला दिया कि यदि करकंडु राजा हो तो एक प्राम ब्राह्मणों के लड़के को दें। ब्राह्मणों के लड़के करकंडु चंडाल के लड़के से ग्राम मांगने लगे करकंडु ने कहा कि मुझे राज मिलेगा तब मैं तुमको ग्राम दूंगा १ पर अन्य लड़के तो प्राम का तकाजा करते ही रहे इस कारण चण्डाल सकुटुम्ब दन्तिपुर का त्याग कर अन्यत्र वास करने को रवाना हो गये चलते २ कांचनपुर के पास आये वहाँ कांचनपुर में अपुत्रिया राजा मर गया जिसके पीछे राजा बनाने के लिये एक हस्तिनी की सूड में वर माला डाल घम रहे थे भाग्यवसात हस्तिनी ने आता हुआ करकंडु के गले में वर माला डाल उसको सूंड में उठा कर अपनी पीठ पर बैठा लिया बस फिर तो था ही क्या राज कर्मचारी और नागरिक मिल कर करकंडु का रााभिषेक कर दिया अब तो कर. कंडु कांचनपुर का राजा होकर राज करने लगा। इस बात की खबर जब दान्तिपुर के ब्राह्मणों को मिली तब पहिले तो उन्होंने कांचनपुर के लोगों को कहलाया कि करकंडु जाति का चाण्डाल है जिससे नगर में काफी चर्चा फैल गई पर देवता ने आकाश में रह कर कहा अरे नगर के लोगों तुम व्यर्थ ही क्यों चर्चा करते हो करकंडु राज के सर्व गुण सम्पन्न है इत्यादि जिससे लोगों को संतोष हो गया। फिर दान्तिपुर के ब्राह्मण गजा कर कंडु के पास पाकर ग्राम की याचना की उस समय राजा करकंडू ने ब्राह्मणों को कहा कि तुम चम्पा नगरी में जाकर राजा दधिबाहन को मेरा नाम लेकर कहो जिससे तुमको एक प्राम देदेगा। ब्राह्मण चम्पा नगरी में जाकर राजा से प्राम मांगा इस पर राजा दधिवाहन को बहुत गुस्सा आया और कहने लगा कि एक चाण्डाल का लड़का चलता फिरता राज बन कर मेरे पर हुक्म चलाता है जाश्रो ब्राह्मणों तुम उस चाण्डाल को कह देना कि प्राम लेना हो तो संग्राम करने को तैयार हो जाना ? ब्राह्मण कांचनपुर पाकर सब हाल राजा करकंडु को कह दिया जिससे करकंडु क्रोधित हो अपनी सेना लेकर चम्पा नगरी पर धावा बोल दिया। उधर से दधिबाहन राजा भी सेना लेक सामने आ गया साध्वी पद्मावती ने दोनों राजाओं की बातें सुन कर सोचा कि बिना ही कारण पिता पुत्र युद्ध कर लाखों के प्राण गवा देगा अतः साध्वी गुरुणीजी से आज्ञा लेकर पहले करकंडु के पास गई और उनको अपना सब हाल कह सुनाया और कहा कि तुम कि पके साथ युद्ध करने को तैयार हुए हो ? करकंडु साध्वी एवं अपनी माता के वचन सुन कर पश्चाताप करने लगा और कहा कि मैं पिता से मिले पर साध्वी ने कहा करकंडुकों कलिंग का राज ९६५ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५२०-५५८ ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कि आप ठहर जाइये पहले मैं जाकर राजा से मिलू । साध्वी चल कर राजा दधिवाहन के पास आई और राजा से भी सब हाल कहा राना अपनी गणो को पहचान भी ली । बस । फिर तो था ही क्या दोनों राजा अर्थात् पिता पुत्र का मिलाप हुआ जिससे दोनों को बड़ा ही हर्ष हुआ दोनों ओर के सैनिकों एवं नागरिकों का भय दूर हुश्रा और हर्ष का पार नहीं रहा तत्पश्चात सब लोग चम्पा नगरी में गये। राजा ने अपने राज का उत्तराधिकारी करकंडु को बना दिया कारण दूसग पुत्र राजा के था नहीं खैर कुछ अर्सा ठहर कर करकंडु कांचनपुर आ गया। समयान्तर कोसंबी नगरी का राजा संतानिक चंपा पर चढ़ आया दोनों गजाओं में घोर युद्ध हुआ दधिबाहन राजा मारा गया नगर को ध्वंस किया और धन माल खब लूटा । साथ में रानी धारणी और उसकी पुत्री वसुमती को भी पकडली रानी धारणी तो अपनी शील को रक्षा के लिए जबान निकाल कर प्राणों की आहुती दे दी और वसुमति को कोसुंबी नगरी में ले गाये और उसको बाजार में पशु की भाँती बेच दी जिसको एक धन्ना सेठ ने खरीद की और अपने घर पर लाकर पुत्री की तरह रखी। पर धन्ना सेठ के मू ला नाम की भार्या थी उसने कुंवारी कन्या वसुमति का रुप लावण्य देखकर विचार किया कि सेठजी इसको अपनी श्रद्धौगनी बना लेगा तो मेरा मानपान नहीं रहेगा इस गरज से एक दिन सेठ जी किसी कारण वसात बाहर ग्राम गये थे पिछे संठानी ने वसुमति का सिरमंडवा काछोटा पहना हाथों पावों में बेड़ियाँ डाल कर एक गुप्त घर में बंदकर आप अपने पीहर चली गई जिसको तीन दिन व्यतीत हो गए जब सेठजी प्राम से श्राए तो घर में सेठानी नहीं व वसुमति नहीं पाई इस हालत में इधर उधर देखा तो एक बंद मकान में वसुमति के रुदन का शब्द सुना बस सेठजी ने मकान का कपाट खोल वसुमति को बाहर निकाल कर हाल पूछा तो उसने कहा मैं तीन दिन की भूखी प्यासी हूँ मुझे कुछ खाने को दो फिर पूछना सेठजी ने उधर इधर देखा पर खाने के लिए कुछ भी नहीं मिला सिर्फ तत्काल के किये उड़दों के बाकुल देखे पर परुषने को कोई बर• तन नही था सेठजी ने सूपड़ा में उड़दों के बाकुले डाल वसुमति को दिया कि बेटी । तूं इसे खा मैं तेरी बेड़ियाँ काटने के लिए लुहार को ले पाता हूँ । सेठजी लुहार को लाने के लिए गए पिछे व सुमति ने सोचा कि मैंने पूर्वभव में कुछ सुकृत नहीं किया अतः आज कोई महात्मा आ जाय तो मैं उसे दान देकर ही भोजन करूँ । इसलिए दरवाजे के एक पैर अन्दर एक पैर बाहर खड़ी रह कर महात्मा की प्रतीक्षा करने लगी इधर भ० महावीर ने ऐसा अभिग्रह किया था कि जिसको पाँच दिन कम छ मास व्यतीत हो गया सफल नहीं हुआ वह अभिप्रद ऐसा था कि जिसका मैं आहार लेऊ कि -१ सुबह की टाइम हो २ राजकन्या हो ३ तीन दिन की भूखी प्यासी हो ४ सिर मुंडा हो ५ कालोटा पहना हुआ हो ६ हाथों में हथकड़ी हो ७ पैरों में बेड़ियाँ हो ८ छाज का कोना में ९ उड़दों के बाकुल हो १० एक पैर दरवाजे के अंदर हो ११ दूसरा पैर दरवाजे के बाहर हो १२ एक आँख में हर्ष हो १३ दूसरी आँख में रूदन के आँसू पड़ते हो ऐसी हालत में मैं आहार ले सकता हूँ। वसुमति के नसीव ने न जाने भ० महावीर को खेंच लाए भ० महावीर के उपरोक्त अभिग्रह के १२ बोल तो मिल गए पर एक आँख में आँसू नहीं पाये कारण वह बहुत दुःखो होने पर भ० महावीर के आने की खुशी थी जब अभिग्रह पूरा नहीं देखा तो भ० महावीर वापिस लौट गर जिससे वसुमति को इतना दुःख हुआ कि आँखों में आँसू पड़ने लगे फिर भी वसुमति रूदन करती बोली अरे प्रभु आये हुए खाली क्यों जाते हो एक बार मेरी ओर देखो तो सही भगवान फिर के वसुमति की ओर देखा तो __भगवान महावीर और चन्दनवाला Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ एक आँख में आँसू गिर रहे दूसरी आँख में हर्ष थाजो भगवान पुनः पधारे बस भगवान ने वसुमति से उड़दों के बाकुले ले लिया कवि ने अपनी युक्ति लगाई कि वसूमति कन्या होने पर भी कितनी हुशियार निकली कि भगवान ने तो सादा बारह बर्ष घोर उपसर्ग सहन किया तब मोक्ष मिली तब वसुमति ने एक मुट्ठी भर उड़दों के बाकुले देकर भगवान से मुक्ति ले ली। खैर भगवान तो बाकुला लेकर चल दिया पर पास ही में रहने वाले देवताओं ने साढ़ा बारह करोड़ सोनइयों की तथा पंच वर्ण पुष्प और सुगन्धी जल वस्त्रों की वृष्टी की और आकाश में उदघोषना कर दान और बसुमति के यश गान गाये। इतने में इधर तो सेठजी श्राये उधर से मूला को तथा राजा प्रजा को खबर हुई कि सेठ धन्ना के यहाँ सोनइयों वगैरह की वृष्टि हुई सब लोग श्राकर देखा तो बड़ा ही आश्चर्य हुआ देवताओं ने कहा अरे लोगों ? यह वसुमति सती है दीर्घ तपस्वी भ० महावीर को दान दिया है यह वसुमति चंदनबाला भगवान की पहले शिष्यनी होगी यह सोनइया इनके दीक्षा के महोत्सव में लगाना इत्यादि नगर भर में अति मंगल हो गए। __ जब भगवान महावीर को कैवल्य ज्ञान हुआ तो उधर तो इन्द्रभूति श्रादि ११ गणघर और ४४०० ब्राह्मणों को दीक्षा दी और इधर चंदनबालादि को दीक्षा दी तथा श्रावक श्राविका मिल कर चतुर्विधसंघ की स्थापना की उस चंदनबाला साध्वी के मृगावत्यादि ३६००० शिष्यरिणयाँ हुई जिसमें १४०० लावियाँ तो उसी भव में मोक्ष हो गई थी। इस प्रकार राजा दधिबाहन की चंगनगरी का ध्वस हुआ था बाद जब मगद का राजमुकाट कूणिक के सिर चमकने लगा तब राजा कूणिक ने पुनः चंपानगरी को आबाद कर अपनी राजधानी का नगर बनाया जैन शास्त्रों में चंपानगरी का बार बार वर्णन आता है । इसके कई कारण हैं अबल तो भगवान वासुपूज्य के निर्वाण कल्याण हुआ दूसरा भगवान महावीर को यहाँ देवल ज्ञान होने से वहाँ एक विशाल स्तूप बनाया था और राजा प्रसेनजित - अजात शत्रु वगैरह वह रथ यात्रादि महोत्सव करते थे तथा उन्होंने अपनी ओर से स्तम्भ वगैरह बनाये थे तथा भगवान महावीर भी यहाँ अनेक बार पधार कर उस भूमि को अपने चरण कमल से पवित्र बनाई थी और राजा श्रेणिक की कालि आदि रानियों ने इसी नगरी में भ० महावीर के पास दीक्षा ली थी इत्यादि कारणों से चंपानगरी जनों के लिए एक धाम तीर्थ माना जाता था। ५- वत्सदेश-इस देश की राजधानी कौसुबी नगरी में थी इस देश पर भी जैन राजाओं ने राज किया था जिसमें राजा सहस्रानिक, संतानिक और उदाइ राजा जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है। राजा संतानिक का विवाह विशाल के राजा चेटक की पुत्री मृगावती के साथ हुआ था राजा संतानिक को वहिन का नाम जयंती था और वह जैन श्रमणों की परम उपासिक भी थी उसने अपना एक मकान श्रमणों के ठहरने के लिए ही रख छोड़ा था यही कारण है कि जैन शास्त्रों में जयंती को प्रथम सेज्जातरी अर्थात् साधुओं को पहला मकान देने वाली बतलाया है वाई जयंती विधवा थी और अच्छी धर्म तत्व जानकर विदुषी श्राविका भी थी भगवान महावीर देव के पास जाकर कई प्रकार के प्रश्न पूछा करती थी और अन्त में उसने भगवान महावीर के पास श्रमण दीक्षा भी ले ली थी। राजा संतानिक की राणी भृगावती बड़ो सती साध्वी थी उसका रूप लावण्य पर उज्जैन का राजा चण्डप्रद्योतन मोहित हो उसको प्राप्त करने के लिए कई षट्यंत्र रचा था पर उसमें वह सफल नहीं हुवा। मृगावती का पति राजा संतानिक का देहान्त हुआ था उस समय उसका पुत्र बदाइ बालक ही था अतः राज का सष प्रबन्ध राणी मृगावती ही किया करती थी। राजा संतानिक अपनी वत्सदेश--काशुबी नगरी ९६७ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मौजुदगी में एक बार चंपा नगरी पर चढ़ाई की थी और चंपा नगर को बहुत बुरी तरह से ध्वंस करके उसको खूब लूटी थी उनके अत्याचारों से राणी धारणी ने अपघात कर प्राण छोड़ दिया था ओर उसकी पुत्री वसुमती को कोसुबी लेजा कर बाजार में बेच दी थी जिसका वर्णन हम अंग देश का वर्णन करते समय लिख पाये हैं रानी मृगावती ने अपनी अन्तिमावस्था में भ० महावीर के पास दीक्षा ली थी इत्यादि इन राज का जैन शास्त्रों में विस्तृत वर्णन मिलता है पर मैं तो यहाँ पर केवल राजाओं की नामावली ही लिख देता हूँ। - नं० | राजाओं के नाम समय सुतीर्थ इ०सं पू.७९६ ७३६ ""७३६ ६९६ चित्रक्ष इन राजाओं की समयावली मैंने शाह के पुस्तक से लिखी है। सुखीलल ""६११ सहस्रानिक संतानिक "" ५६६ ५४३ उदाइ "" ५४३ मणिप्रभ , ४८५ ४६२ श्रीमान् शाह ने अपने प्राचीन भारत वर्ष में राजा उदाइ के लिए लिखा है कि जैन शास्त्रों में शिशु नागवंशी राजा उदाइ की मृत्यु एक दुष्ट के षड़यंत्र से खून के तोर पर हुई और वह अपुत्रिया मग था पर शाह कहता है कि-यह ठीक नहीं है पर मेरे मतानुसार राजा उदाइ शिशुनाग बंशी नहीं पर उपर बतलाया वत्सपति ही था और षडयंत्र की घटना इसके ही साथ हुई थी दूसरा मगद का उदाइ राजा अपुत्रिया भी नहीं था उसके अनुरूद्ध और मुदा एवं दो पुत्र थे अपुत्रिया कहा जाय तो वत्सपति ही था जो इन के बाद मणिप्रभ का नाम आया है यह राजा उदाइ का पुत्र नहीं पर दतक लिया हुआ पुत्र था अतः मेरा अनुमान ठीक है ऐसा शाह लिखता है पर जैन परम्परा में षड़यंत्र से खन मगद के राजा उदाइ का होना ही लिखा है फिर तो प्रमाणिक हो वही मानना चाहिए। ६- कौशलदेश-इस देश की राजधानी कुस्थल नगर में थी और इस देश के राजाओं में राजा प्रसेनजित का अधिकार जैन शास्त्रों में मिलता है कि वह म० पार्श्वनाथ के चतुर्थ पट्ट पर आचार्य केशी भमण का भक्त राजा था राजा प्रसेनजित के पूर्व के राजा किस धर्म को मानने वाले थे इसके लिए निश्चा कोशल देश का राजवंश Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ स्मिक कुछ भी नहीं कहा जाता है पर यह अनुमान किया जा सकता है कि जिसके पाड़ोस में काशी देश का राजकुमार पार्श्वनाथ ने दीक्षा लेकर तीर्थङ्कर पद को प्राप्त किया था तो उनके उपदेश का प्रभाव कौशल राजा ओं पर अवश्य हुआ होगा अत: वे भी जैन धर्मोपासक ही होगा कौशल नरेशों की वंशावली निम्नलिखित है राजावली समय इ० सं० पूर्व | वर्ष ० राजावृत-बंक ७९० "रत्नजय ६९० , दिवसेन ६९० ६४० ,, संजय ६४० ५८५ , प्रसेनजित ५८५ ५२६ कौशल देश एक समय जैनों के तीर्थ धाम कहलाता था और खूष दूर दूर से लोग यात्रार्थ आया करते थे दूसरा व्यापार के लिए भी यह देश बहुत प्रसिद्ध था अतः जैन साहित्य में कौशल का भी अच्छा स्थान है। , विदुरथ ५२६ , कुसुलिक "सुरथ , सुमित्र ४७० ४६० ४६० ४५० प्रस्तुत कौशलदेश की राजधानी के समय समयान्तर का नाम रहे हैं कुस्थल के अलावा अयोध्या अवस्ति नाम भी रहे हैं वर्तमान में सहेट महेट का किल्ला के नाम से प्रसिद्ध है इसका इतिहास यत्र तत्र का स्थानों पर छापा गया है पर उन सबको एक स्थान संकलित करने की आवश्यकता है। वहाँ की भूमि खोद काम से कई स्मारक चिन्ह प्राप्त हुए हैं जिसमें कई ई० सं० पूर्व के हैं तथा अभी कई शताब्दियों की मूर्तियाँ भी मिली हैं उसमें पाँव मूर्तियों पर शिलालेख है जिसमें निम्न लिखित संवत् है:जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ जैन राजाओं के नाम १ म० विमलनाथ की मृति सं० ११२३ १ मयूरध्वज सं० ९०० २ म० , ११८२ २ हंसध्वज सं० ९२५ ३ म० नेमिनाथ की मूर्ति सं० ११२५ ३ मकरध्वज सं० ९५० ४ स्पष्ट नहीं मालुम हुआ सं० १११२ ४ सुधानध्वज सं० ९७५ ५ भ० ऋषभदेव की मूर्ति सं० ११२४ ५ सुहरीलध्वज सं० १००० ... यह नामावली जैन सत्य प्रकाश वर्ष ७ अंक ४ से लिखी गई है। भूगर्भ से मिली हुई मूर्तियां ९६९ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ७-सिन्धु सौवीर देश-इस देश की राजधानी वीतमय पाटण में थी और राजा उदाई वहाँ पर राज करता था राजा उदाई का विवाह भी विशाला नगरी के राजा चेटक की पुत्री प्रभावती के साथ हुआ था राणी प्रभावती बालपने से ही जैनधर्म की उपासना करने में सदैव तल्लीन रहती थी राणी प्रभावती के अन्तेवर गृह में एक जैन मन्दिर था जिसके अन्दर देवकृत भगवान महावीर की गोसीस चन्दन मयमूर्ति थी इस मूर्ति के विषय एक चमत्कारी कथा लिखी है वह अन्यत्र लिखी गई है यहाँ तो इतना ही कह दिया जाता है कि राजा उदाइ और राणी प्रभावती उस महावीर मूर्ति की त्रिकाल सेवा पूजा किया करते थे कभी कभी राणी नृत्य करती और राजा बीना बजाया करता था रानी प्रभावती के एक कुब्जा दासी थी जिसका रुप तो ऐसा सुन्दर नहीं था पर उसके अन्दर गुण अच्छे सुन्दर थे विशेष में कुब्जा दासी जिन तिभा की भक्ति तन मन से करती थी भाग्यवसात् एक श्रावक ने साधर्मीपने के नाते उस दासी को देव चमत्कृत ऐसी गुटका ( गोलियाँ) दी कि जिसके खाने से दासी का रूप देवांगना जैसा हो गया था। राजा उदाइ और राणी प्रभावती के एक अभीच नाम का कुँवर था तथा राजा उदाइ के बहिन का पुत्र केशीकुवार नाम का भानेज भी था । जब रानी प्रभावती ने भगवान महावीर के पास जैन दीक्षा स्वीकार करली तघ महावीर मूर्ति की सेवा पूजा कुब्जा दासी किया करती थी जब उसका रूप सुंदर हो गया तो उसका नाम बदल कर सुवर्णगुलेका रख दिया था उज्जैन का राजा चण्ड प्रद्योतन ने सुवर्ण गुलिका दासी के रूप की बहुत प्रशंसा सुनी तो उसका दिल दासी को अपने वहाँ बुलाने का हुआ राजा ने किसी दूती के साथ कहलाया तो दासी ने कहा कि राजा स्वयं यहाँ आवे तो मैं उससे वार्तालाप करूँ। खैर गर्जवान् दर्जवान् क्या क्या नहीं करता है। राज चण्ड प्रद्योत हस्ती पर सवार हो गुप्त रूप से वीतभय पट्टन गया और संकेत किया स्थान पर दासी से मिल राजा ने दासी का रूप देख विशेष मोहित हो गया और उससे उज्जैन चलने के लिये प्रार्थना की दासी राजा की बात तो स्वीकार करली कारण राजा उदाई को तो दासी भपने पिता तुल्य समझती थी जब चण्ड प्रद्योतन जैसा राजा प्रार्थना करे दासी को ऐसा गज। कब मिलने का था फिर भी दासी ने कहा मैं आपर्य साथ चलने को तैयार हूँ पर मैं भगवान महावीर की मूर्ति की पूजा करती हूँ और मुझे अटल नियम भी। अतः मैं मूर्ति को छोड़ कर कैसे चल सकूँ ? इस पर राजा ने कहा कि मूर्ति को भी साथ में लेलो। मरि साथ में लेने से तत्काल ही राजा उदाई को मालूम हो जायगा अतः इस मूर्ति के सदृश दूसरी मूर्ति बनवाद जाय कि इस असली मूर्ति के स्थान नकली मर्ति रखदी जाय गजा ने दासी का कहना स्वीकार कर बापिर उज्जैन पाया और चन्दन मय महावीर मूर्ति बना कर हस्ती पर लेकर पुनः वीतवयपट्टण पाया असत मूर्ति के स्थान नकली भूर्ति रख दासी और मूर्ति को लेकर उज्जैन आ गये । पीछे दूसरे दिन राजा दश करने को गया तो मूर्ति के कण्ठ में पुष्पों की माला कुमलाई हुई देखी तो उसे मालूम हुआ कि यह मू असली नहीं है जब दासी को बुलाया तो वह भी न मिली राजा उदाई ने सोचा कि सिवाय चण्ठप्रद्योत राजा के दासी एवं मूर्ति को लेजा नहीं सके खैर राजा उदाई ने इसको खबर मंगाई तो उसकी धारणा सा ही निकली राजा उदाई अपनी सेना तथा दस मुकटबन्ध राजा जो अपने अधिकार में थे उनके साथ भाव प्रदेश पर चढ़ाई करदी । राजा चण्ड को खबर हुई तो वह भी अपनी सैना लेकर सामना किया वे ९७० सिन्धु देश का राजा उद Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ राजाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ आखिर राजा उदाई के योद्धों ने राजा चण्ड को जीवित पकड़ लिया बाद मूर्ति और दासी को लेकर वापिस अपने देश को आ रहे थे पर वर्षा ऋतु होने के कारण रास्ते में जीवों की उत्पत्ति बहुत हो गई तथा वर्षा भी बरस रही थी जहाँ पर आज मन्दसौर नगर है यहाँ श्राये कि राजाने चलना बन्द कर जंगल में पड़ाव कर दिया दश राजाओं ने पृथक् २ अपनी छावनियां डालदी और वर्षाकाल वही व्यतीत करने लगे । जब वार्षिक पर्व संवत्सरी का दिन आया तो राजा वगैरह सब लोगों ने सवत्सरी का उपवास किया हालत में रसोइया ने राजा चण्ड जो नजर कैद में था को जाकर पूछा कि आपके लिये आज क्या भोजन इस बनाऊ ं ? राजा ने पूछा कि इतने दिनों में कभी नहीं पूछा श्राज ही क्यों पूछा जा रहा है ? रसोईया ने कहा कि श्राज हमारे सवत्सरिक पर्व है सबके उपवास व्रत हैं केवल आप ही भोजन करने वाले हैं इससे आपको पूछा है इस पर राजा ने सोचा कि हमेशा राजा उदाई के साथ बैठकर भोजन करते थे अतः किसी प्रकार का अविश्वास नहीं था पर आज तो केवल मेरे ही लिए भोजन बनेगा शायद रसोइया भोजन में कुछ विषादिन मिलादे इत्यादि विचार कर राजा चण्ड ने कहा कि जब सबके पर्व का व्रत है तो मैं भी व्रत कर लूंगा मेरे लिये रसोई बनाने की जरूरत नहीं है । रसोइया ने जाकर राजा उदाइ को समाचार कह दिया जब सावत्सरिक प्रतिक्रमण का समय हुआ तो राजा चण्ड को भी बुलाया और क्षमापना के समय राजा उदाइ राजा चण्ड को क्षमापना करने को कहा पर उसने कहा मैं आपसे क्षमापना नहीं करूंगा । यदि श्राप दासी और मूर्ति देकर मुझे छोड़दे तो मैं क्षमापना कर सकता हूँ । राजा उदाइ ने साचा कि यदि राजा चण्ड क्षमापना न करेगा तो इसका पाप तो मुझे नहीं लगेगा पर राजा चण्ड आज पर्व का व्रत किया है जिससे यह मेरा साधर्मी भाई बन गया है केवल मेरे ही कारण इसके कर्म बन्धन का कारण होता है तो मुझे दासी और मूर्ति देकर इसको बन्धन मुक्त करके भी क्षमापना करवा लेना चाहिये - दुसरा राजा उदाई ने निमितिया से यह भी सुन रखा था कि पट्टन दट्टन होने वाली है, फिर उस हालत में मूर्ति कैसे सुरक्षित रह सकेगा । तीसरा जब दासी अपनी इच्छा राजा चण्ड के साथ आई है । यह बात पाठक पहले पढ आये हैं कि राजा उदाइ और चण्ड दोनों राजा, राजा चेटक की पुत्रियों के साथ लग्न किया । अतः वे आपस में सादु भी लगते थे । इत्यादि कारणों में विशेष साधर्मी भाई के कारण को लक्ष में रख बड़ा युद्ध कर दासी और मूर्ति को लाया था पर अपनी उदारता से राजा घण्ड को देकर क्षमापना करवाया । 'पण मोटो साधर्मीतो' इस कहवत को राजा उशइ ने ठीक चरितार्थ कर बतलाया । राजा चण्ड दासी और मूर्ति को लेकर उज्जैन गया और राजा उदाइ अपने नगर आया । राज उदाइ संसार से उदास रहता हुआ धर्म कार्य साधन की ओर विशेष लक्ष दिया करता था । एक बार राजा उदाइ श्रष्टम तप कर पौषध किया था, उसमें राजा की भावना ऐसी हुई कि यदि भगवान् महावीर यहाँ पधार जाय तो मैं दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करूं । भगवान महावीर ने अपने केवल ज्ञान से राजा उदाइ के भावों को जानकर एक रात्रि में पन्द्रह योजन का विहार कर सुबह वीतभयपट्टन के उद्यान पधार गये । राजा उदाइ को खबर मिली तो उसने पारणा नहीं किया और भगवान को वन्दन करने को आया । भगवान महावीर ऐसी देशना दी कि जिससे राजा की भावना कार्य रूप में परिणित होगई और दीक्षा लेने का अटल निश्चय कर लिया। जब राजा भगवान को वन्दन कर वापिस नगर में श्रा रहा था, सावत्सरिक पर्व का क्षमापना ९७१ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तो उसको विचार हुआ कि अभीच कुँवर मेरे एक ही पुत्र है, यदि इसको राज दे दिया जाय तो यह भोग विलास एवं राज में मूच्छित होकर संसार में परिभ्रमण करेगा, इससे तो उचित है कि मेरे भानेज केशीकुमार को राज देकर मैं भगवान महावीर के पास दीक्षा ले लूं। यदि इस बात का खुलाम कर देता तब तो कुछ भी नहीं था पर बिना किसी को कहे अपने स्थान पर केशीकुमार को राज देकर राजा उदाई बड़े ही समारोह से मगवान महावीर के कर कमलों से भगवती जैन दीक्षा स्वीकार कर ली । यह बात राजकुमार अभीच को सहन न हुई । कारण जब राजा का पुत्र हक्कदार तो बैठा रहे और जिसका राज के लिए कुछ भी हक नहीं वह राजा बन जाय | पर अभीचकुमार विनयवान पुत्र था, उस समय कुछ भी नहीं कहा । बाद में भी जब उससे देखा नहीं गया तो वह अपना कुटुम्बादि सबको लेकर अंग देश की चम्पा नगरी जहां अपनी मासी का बेटा राजा ऋणिक राज कर रहा था, वहां चला गया । ऋणिक ने अभीच कुमार का अच्छा स्वागत किया और आदर सत्कार के साथ अपने पास रख लिया। अभीचकुमार ऋणिक के पास आनन्द में रहता था, जैनधर्म में उसकी अटल श्रद्धा थी पर राजर्षि उदाइ के साथ उनका थोडा भी सद्भाव नहीं रहा । यों भी कहा जाता है कि अभीचकुमार जब नवकार मन्त्र का जाप करता था तब कहता था कि "नमोलोए सव्व साहूँण" उदाइ साधु को वर्ज कर सब साधुओं को नमस्कार हो । चौथा आरा में भी पंचम श्रारा की प्रभा पड़ गई थी कि उपकार के बदले में अपकार से पेश आया। आगे राजर्षि उदाइ सिद्ध होगये तो भी अभीच का उनके प्रति द्वेष कम नहीं हुश्रा। यह सिद्धों को नमस्कार करते समय भी उदाइ सिद्ध को वर्ज कर हो सब सिद्धों को नमस्कार करता था । यही कारण था कि अभीच कुमार को अभोगी देव का भव करना पड़ा । बाद में वह महाविदह क्षेत्र में मोक्ष को जायगा। राजर्षि उदाई दीक्षा लेकर अन्यत्र बिहार कर दिया कितनेक समय के बाद राजा उदाई के शरीर में बीमारी हो गई और वह चल कर पुनः वीतमय पट्टण में आकर एक कुम्भकार के मकान में ठहरा राजा केशी आदि बन्दन करने को आये और प्रार्थना की कि आप राज मकान में पधार जाइये आपके बीमारी का भी इलाज करवाया जायगा वैद्य हकीमों को भी ले गया वैद्यों ने राजा की बीमारी देख कर दही का प्रयोग बतलाया पर कई धर्म द्वषो लोगों ने राजर्षि उदाई को मरवा देने का दुष्टविचार कर के राजा केशी के पास आकर कहा कि राजर्षि दुष्कार संयम पालन करने से पराङ्मुख हो वापिस राज लेने के लिये आये हैं अतः इनको मरवा देना ही अच्छा है ? इस पर राजा केशी ने कहा कि ऐसा हो नहीं सकता है इस पर भी यदि राज लेना चाहे तो यह राज उनका ही है खुशी से ले पर मुनि हित्या करना तो क्या पर कानों में सुनने से भी पाप लगता है अतः ऐसी बात मेरे सामने कभी नहीं करना तथापि उन द्वेषियों ने दही के अन्दर विष दिला देने की नीचता कर डाली जब राजर्षि उदाई दही लाकर खाया तो उसके सब शरीर में विष व्यापक हो गया उस समय देवता ने आकर राजर्षि को कहा कि आप इसके लिये प्रयोग करे कि विष अपना असर नहीं करे पर राजर्षि ने इसको स्वीकार न कर अपने कर्म भोगने के लिये उस परिसह को सम्यक् प्रकार सहन कर शेष कमों की निर्जरा करते हुए नाशमान शरीर को छोड़ मोक्ष में पधार गये-- इस अकृत्य कार्य से देवता कुपित हो ऐसी धूल की वृष्टि की कि एक कुम्भकार का घर छोड़ कर सब नगर धूल के नीचे दब गया जिसको पट्टन दट्टन कहते हैं । जब पट्टन ट्टन हो गई तो सिन्धु सौवीर का राज राजा कूणिक ने अपने मगद साम्राज्य में मिला लिया। ९७२ देवकोप से पट्टन दट्टन Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२०-९५८ ___ कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्र सूरि के समय राजा कुमारपाल सिन्धु सौ वीर के भूमि गर्भ से एक मूर्ति प्राप्त की थी जिसको हेमचन्द्र सूरि ने राजा उदाई के मन्दिर की महावीर मूर्ति बतलाई थी। तथा वर्तमान सरकार के पुरातत्व विभाग की ओर से भूमि का खोद काम हुआ जिसमें सिन्धु सौवार की भूमि से एक नगर निकला है । जिसका नाम मोहनजादरा एवं दूसरा नगर का नाव 'हराप्पा' रखा है यह वही नगर है जो राजा उदाइ के बाद देवताओं की धूल वृष्टि से भमि में दख गये थे विद्वानों ने उन नगरों को ई० सं० पूर्व कई पाँच हजार पूर्व जितने प्राचीन बतलाये हैं। उन नगरों के अन्दर से निकलते हुए प्राचीन अनेक पदार्थों ने भारत की सभ्यता पर अच्छा प्रकाश डाला है विशेष में उन नगरों का हाल पढ़ने की सूचना कर इस लेख को समाप्त कर देता हूँ। ८--शूरसेन देश-इस देश की राजधानी मथुग नगरी में थी मथुग भी एक समय जैनों का बड़ा भारी केन्द्र था कई जैनाचार्यों ने मथुरा में चतुर्मास किये थे और मथुरा नगरी में जैन मन्दिर एवं स्तूप सैकड़ों की संख्या में थे जिनकी यात्रार्थ कई आचार्य बड़े २ संघ लेकर आते थे। मथुरा नगरी में एक समय बौद्धों के भी बहुत से संघाराम थे और सैकड़ों बौद्ध साधु वहाँ रहते थे कई बार जैनों और बौद्धों के बीच शास्त्रार्थ होना भी जैन पट्टावलियों में उल्लेख मिलते हैं दिगम्बर जैनों में एक माथुर नाम का संघ है और श्वेताम्बर समाज में मथुरा नाम का गच्छ भी है जैन श्वेताम्बर में आगम वाचना मथुरा में हुई थी और आज भी मह माथुरी वाचना के नाम से मशहूर है । मथुरा में क्षत्रप और महाक्षत्रप राजाओं ने भी राज किया था उनके बनाया हुआ जैन स्तूप आज भी विद्यमान है और उन राजाओं के कई सिक्के भी मिले हैं उन पर भी जैन चिन्ह विद्यमान है जिसको हम स्तूप एवं सिक्का प्रकरण में लिखेंगे । मथुरा पर गुप्तबशियों का भी राज रहा है उनका शिलालेख एक जैन मूर्ति पर मिला है । मथुरा पर कुशान वंशियों का भी शामन रहा है उनके शिलालेख एवं सिक्के भी मिले हैं उनके सिक्कों पर भी जैन चिन्ह खुदे हुए पाये जाते हैं पर खेद है कि कई विद्वानों ने जैन और बौद्धों को एक ही समझ कर उन स्तूप एवं सिक्कों को बौद्धों के ठहरा दिये हैं पर वास्तव में उनके चिन्हों से वे जैनों के ही सिद्ध होते हैं मथुरापति महाक्षत्रप राजुबुल की पदरानी में जैन स्तप की बड़ा ही समारोह से प्रतिष्ठा करवाई थी जिसमें भूमिक महाक्षत्रिप को भी श्रा. मंत्रण किया था और नहपाण वगैरह भी उस प्रतिष्ठा में शामिल हुए थे फिर समझ में नहीं आता है कि यह सूर्य जैसा प्रकाश होते हुये भी उन जैन स्तूप एवं सिकों को बौद्धों का कैसे बनाये जाते हैं खैर इस विषय में हम अगले पृष्ठों पर लिखेंगे यहाँ पर तो केवल मथुरा के कुशानवंशियों की वंशावली ही देदी जाती है। नं० | राजाओं के नाम | समय ई० सं० वर्ष | नं0 | राजाओं के नाम | समय ई. सं० | वर्ष कडफसीम (१) ३१ से ७१ ४० ५ दुनिष्क १३२ से १४३ / ११ कडफसीम (२) ७१ से १०३ ६ / कनिष्क (२) १४३ से १९६ ! ५३ कनिष्क १०३ से १२६ वासुदेव ९६ से २३४ | ३८ ४ वसिष्क १५६ से १३२ ८ सात गजों का | २३४ से २८० । ४६ श्रीमान् त्रि० ले० शाह के प्राचीन भारतवर्ष पुस्तक के आधार पर । शूरसेन-मथुरा नगरी ९७३ ३२ २३ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ९ कलिंगदेश - इसकी राजधानी प्राचीन समय कांचनपुर नगर में थी इस कलिंगदेश की सीमा सदैव एक सी नही रही थी किसी समय इस देश के साथ अंगदेश बंशदेश और कलिंगदेश एवं तीन देश एक समा के नीचे रहने से कलिंग को त्रिकलिंग भी कहा है । इस देश को चेदी के नाम से ही ओलखाया है अतः इस देश पर राज करने वाले चेदी बंशी भी कहलाते हैं इस बंसकी स्थापना करने वाला महामेघवाहन राजा करकंडु था, जिसका चरित्र श्रंगदेश का वर्णन में लिख दिया गया था कि राज करकंडु अंगदेश की चंपानगरी का राजा दधिवाहन की रानी पद्मावती का पुत्र था । और एक भविष्यवेता मुनि का भविष्य वाणी से ही आप कलिंगदेश के सिंहासन को प्राप्त किया था। इस बंश में श्रागे चलकर महामेघबाहन चक्रवर्ती राजा बेल बड़ा ही नामी राजा हुआ था जिसका खुदवाया विशाद शिलालेख उडीसा प्रान्त की खएडगिरि पहाड़ी के हस्ती गुफा से मिला था जिसके लिये विद्वानों ने करीब एक शताब्दी के कठिन परिश्रम से पता लगाया कि यह शिलालेख राजा खारवेल का है और राजा खारवेल जैन राजा था इस विषय में हमने इस पुस्तक के पृष्ट ३५७ पर विस्तृत वर्णन कर दिया है पर वर्तमान विद्धानों के निश्चित किया समय और श्रीमान् शाह के दिये हुए समय में बड़ा भारी अंतर है विद्धानों का निर्णय किया हुआ समय तो हम ऊपर लिख आये हैं पर श्रीमान शाह का समय वंशावली के साथ यहाँ दे दिया जाता है जिससे पाठक नान सेकेंगे कि इन दोनों में कितना अंतर है । नं० राजाओं के नाम इ० सं० पूर्व समय १. २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ कर कंडु सुरथ शोभनराय चण्डराज खेमराज बुद्धराज खारवेल विकराय मलिया केतु 99 ९७४ 39 " :9 93 "+ 39 " "" ;, :" 93 "" " 33 19 39 "" ५५८ ५३७ ५०९ ४९२ ४७५ ४३९ ४२९ ३९३ ३७२ ५३७ ५०९ ४९२ ४७५ ४३९ ४२९ ३९३ ३७२ ३६२ वर्ष २१ २८ १७ १७ ३६ १० ३६ २१ १० १० श्रांध देश - यह भारत का दक्षिण विभाग का देश है कारण विन्द्याचल पर्वत से भारत के दो विभाग होजाते हैं एक उत्तर भारत दूसरा दक्षिण भारत जिसमें उत्तर भारत के श्रावंती देश से मगद एवं काश्मीर गन्धार तक के देशों का हाल संक्षिप्त से हम ऊपर लिख आये हैं अब दक्षिण की ओर के देशों के लिए लिखा जारहा हैं जिसमें अधिक प्रसिद्ध माँ देश है इस प्रदेश पर सब से पहला राजा श्रीमुख का नाम श्राता है जो नन्दवंशी राजा महापद्मानन्द की शूद्राणी का पुत्र था उसने दक्षिण में जाकर अपना राज्य स्थापित किया था इनके वंशज इतवाहन एवं शतकरणी राजाओं के नाम से प्रसिद्ध थे राजा खारबेल महाराज करकंडु को महामेघ बाहान की उपाधि थी और उसने कांचनपुर नगर में भ० पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनाया था । कलिंग देश का राजवंश Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ समय शिलालेख में भो आँध्र के राजा शतकरणी का उल्लेख पाता है इनके अलावा आँध्र देश के राजाओं के शिला लेख तथा सिक्के भी मिले हैं जिसके कुछ ब्लॉक यह दे दिये गये हैं इस देश का आदि राजा श्रीमुख नन्दवंशी था जब नन्दवंशी रामा जैन थे तो राजा श्रीमुख जैन होने में किसी प्रकार की शंका को स्थान ही नहीं मिलता है और उनकी वंश परम्परा में भी जैन धर्म चला ही आरहा था जो उनके शिलालेखों और सिक्कों से पाया जाता है दूसरा दक्षिण देश में राजा श्रीमुख से पूर्व कई शताब्दियों से जैन धर्म का प्रचार हो चुका था जिसके प्रचारक भ० पारर्वनाथ के परम्परा में लोहित्याचार्य थे। इन आँध्र वंशी राजाओं के पश्चात् भी दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार बहुत लम्बा समय तक चला पाया था वहाँ के राजवंश जैसे कदम वंश कलचूरीवंश गंगवंश, पल्लववंश पाड्यवंश राष्ट्रकूटवंश वगैरह भी जैन धर्म पालन करने वाले थे जो उनके शिला लेखों दान पत्रों एवं सिक्कों से स्पष्ट पाये जाते हैं जिनकी नामावली आगे के पृष्ठों पर दी जायगी यहाँ पर तो पहले आँध्न वंश के राजाओं की वंशावली दी जाती है:नं० रामा समय (ई. सं० तूर्व) वर्ष । नं० राजा १ श्रीमुख ४२:४१४ १३ १७ बरिष्ट कर्ण ७२-४७ २ गोत्रमीपुत्र यज्ञश्री ४१४.३८३ ३१ । १८ हाल सालिवाहन ४७-१८ ३ कृष्ण-वशिष्ठ पुत्र ३८२-३७३ ९ । १९ मंतलक १८-२५ ४ मल्लिकभी ३५३-३१७ ५६ । २० पुरिद्रसेन २६-३२ ५ पूर्णोत्संग ३१७-२९९ २१ सुन्दर ३२.३२॥ ६ स्कन्द स्तंभ २९९.२८१ २२ चकोर ७ वस्टिपुत्र २८१-२२५ 1 २३ शिवस्वाति ३५-७८ (शतकरणी) २४ गोतमीपुत्र ७८९९ ८ लम्बोदर २२५.२०७ । (शतकरणी) ९ श्रापिलिक २०७-१९५ २५ चत्रपण ९९-१२२ १० आवि १९५-१८३ | २६ पुलुमावी १२२.१५३ ११ मेघस्वाति १८३-१४५ २७ शिवश्री १५३-१८० १२ सौदास-संघस्वाति १४५-११५ २८ शिव स्कन्द १८०-१८७ १३ मेष स्वाति (२) ११५-११३ | २९ यज्ञश्री १८७-२१७ १४ मृगेन्द्र ११३. ९२ २१ । ३० ) तीन राजा २१७-२५२ १५ स्वाति कर्ण ९२-७५ ३१ अंतिम राजा को क्षत्रिय सरदार आंमिर ईश्व १६ महेन्द्र ७५-७२ | ३२ ) दत्त ने हरा कर दक्षिण की ओर निकाल | दिया उसने विजयनगर में अपनी सत्ता जमाई । ११ वस्लभी नगरी के राजाओं की वंशावली-बल्लभी नगरी के राजाओं का जैनधर्म के साथ अच्छा सम्बन्ध रहा है, जैनधर्म के कई महत्वपूर्ण कार्य इसी वल्लभी नगरी में हुए हैं। वस्लभी नगरी तीर्थधिराज भी शत्रुजन के बहुत निकट भाई हुई है। किसी समय वल्लभी नगरी शत्रुजय की तलेटी भी मानी जाती आंध्र देश का राजवंश ९७५ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास थी । श्राचार्य सिद्धसूरि ने वल्लभी के राजा शिलादित्य को प्रतिबोध कर जैनधर्म का श्रद्धासम्पन्न श्राव बनाया था और उसने शत्रुंजय तीर्थ की भक्तिपूर्वक यात्रा की तथा वहां का जीर्णोद्धार भी करवाया। वल्लभी नगरी के शासन कर्ता शिलादित्य नाम के कई राजा हुए थे । श्राचार्य धनेश्वरसूरि ने भी शिला दित्य राजा को प्रतिबोध कर शत्रुंजय तीर्थ का उद्धार करवाया था तथा श्राचार्यश्री ने वल्लभी नगरी में रह कर शत्रुंजय महात्म प्रन्थ का निर्माण भी किया था जो इस समय विद्यमान है । राजा शिलादित्य की बहिन दुर्लभा देवी के पुत्र जिनायश, यक्ष और मल्ल इन तीनों पुत्रों ने जैनाचार्य जिनानन्दसूरि के पास जैन दीक्षा प्रहण की थी और ये तीन मुनि बड़े ही विद्वान हुए, जिसमें भी श्राचार्य मल्लवादी सूरि का नाम तो बहुत प्रख्यात है । आचार्य मल्लवादीसूरि ने बौद्धो के साथ शास्त्रार्थ कर उनको पराजय किया और शत्रु जय तीर्थ बौद्धों की दाड़ों में गया हुआ पुन: जैनों के अधिकार में करवा दिया। आचार्य नागार्जुन की श्रागम वाचना इसी वल्लभी मगरी में हुई थी । जिस समय आचार्य नागार्जुन ने वल्लभी में श्रमण संघ को आगम वाचन | थी उसी समय खन्दिल सूरि ने मथुरा में आगम वाचना की थी अर्थात् ये दोनों वाचना समकालीन हुई थी । तदान्तर आर्य देवधिगणि क्षमाश्रमणजी और काल-काचार्य ने इसी वल्लभीनगरी में एक संघ सभा कर पूर्वोक्त दोनों वाचनायें में रहा हुआ अन्तर एवं पाठान्तर का समाधान कर आगमों को पुस्तकों पर लिखवाये गये । उपकेशगच्छाचायों ने इस वल्लभी को कई बार अपने चरण-कमलों से पावन बनाई और कई बार चातुर्मास भी किये तथा कई भावुको को दीक्षा भी दी। इसी प्रकार और भी अनेक महात्माओं ने लभ नगरी को पवित्र बनाई थी उस समय सौराष्ट्र एवं लाट देश मेंजैनधर्म का अच्छा प्रचार था राजा प्रजा जैनधर्म का ही पालन करते थे । यही कारण है कि ब्राह्मण-धर्मानुयायों ने इस देश को न्लेच्छों का वासस्थान बतलाकर अपने धर्म के अनुयायियों को वहां जाने आने की मनाई करदी थी । इस विषय में एक स्थान पर ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि "हिन्दू धर्म शास्त्रों में गुजराज को म्लेच्छ देश लिखा है और मना किया है कि गुजरात में न जाना चाहिये (देखो - महाभारत अनुशासन पर्व २९५८-५९ व अ० सात ७२ व विष्णु पुराण अ० द्वितीय ३७) भारत के पश्चिम में यवनों का निवास बताया है। J. R. A. S. S. IV 468 ) । प्रबन्ध चन्द्रोदय का ८७वाँ श्लोक कहता है कि जो कोई यात्रा के सिवा अंग, बंग, कलिंग सौराष्ट्र था मगध मेंत जायगा उसको प्रायश्चित लेकर शुद्ध होना होगा । x x ऐसा समझ में आता है कि इन देशों में जैनराजा थे व जैनधर्म का बहुत प्रभाव था इसलिये ब्राह्मणों ने मना किया होगा । बंबई प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक पृष्ठ १७७ । बल्लभी नरेशों के ताम्रपत्रों से उनके राज्य प्रबन्ध और वंसावली का पता मिलता है जिसका विवरण उपरोक्त पुस्तक में किया गया है पाठकों की जानकारी के लिपे उसके अन्दर से विशेष ज्ञातव्य विवरण यहाँ उद्धृत कर दिया जाता है: १ श्रायुक्तिक या विनियुक्तिक- मुख्य अधिकारी २ इंगिक- नगर का अधिकारी १३ महत्तरी - ग्रामपति ९७६ भी नगरी का राजवंश Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ anwwwwwwwwwimm ४ चटभट-पुलिस सिपाही ५ ध्रुव-प्राम का हिसाब रखना वाला नवंशज अधिकारी वलटीया कुलकरणी के समान ६ अधिकरणिक-मुख्य जज ७ डंड पासिक-मुख्य पुलिस सआफिर ८ चौरद्धर्णिक-चोर पकड़ने वाला ९ राजस्थानिय-विदेशी राजमंत्री १० अमात्य-राज मंत्री ११ अनुत्पन्ना समुद्राहक-पिच्छला कर वसूल करने वाला १२ शौकिक-चुंगी श्राफिसर १३ भोगिक या भोगोर्णिक-आमदनी या कर वसूल करने वाला १४ वर्मपाल-मार्ग निरीक्षक सवार १५ प्रतिसरक-क्षेत्र या प्रामों के निरीक्षक १६ विषयपति-प्रान्त का आफिसर १७ राष्ट्र पति-निला का अफसर १८ प्रामकूट-ग्राम का मुखिया इससे अनुभव लगाया जा सकता है कि उस समय राज व्यवस्था कितनी अच्छी थी। वल्लभी राजवंश की नामावलीइन राजाओं का चिन्ह वृषभ का है तथा ई० सं० ३१९ से बल्लभी संवत् भी चलाया था। १ सेनापति भट्टारक ई० सं० ५०९-५२० (छः वर्ष का पता नहीं) २ ध्रुवसेन (१) ५२६-५३५ (चार वर्ष का पता नहीं) ३ प्रहसेन ५३९-५६९ ४ धारसेन ५६९-५८९ नं. ३ का पुत्र ५ शिलादित्य (१) ५९०-६०९ नं. ४ का पुत्र ६ खरग्रह ६१०.६१५ नं. ५ का भाई ७ धारसेन ६१५.६२० नं० ६ का पुत्र ८ ध्रुवसेन (२) ६२०-६४० नं० ७ का भाई ९ धारसेन (४) ६४०-६४९ नं. ८ का पुत्र १० ध्रुवसेन ६५०-६५६ देरा भट्ट का पुत्र ११ खरग्रह (२) ६५६-६६५ नं० १० का भाई १२ शिलादित्य (३) नं० ११ का भाई १३ शिलादित्य (४) ६७५.६९१ नं० १२ का पुत्र १४ शिलादित्य (५) ६९१.७२२ नं० १३ का पुत्र वल्लभी का राजवंश ९७७ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास mirmananasnaamanarrrrrromentummanman.. १५ शिलादित्य (६) , ७२२-७६० मं०१४ का पुत्र १६ शिलादित्व (७) , ७६०-७६६ नं० १५ का पुत्र __ मरुधर देश के जैन नरेशमरुधर प्रदेश में प्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज ने पदार्पण कर जैन धर्म की नींव डाली तक से ही वहाँ के नरेशों पर जैन धर्म का बाच्छा प्रभाव पड़ा सब से पहला उपकेशपुर के राजा उत्पलदेव ने जैन धर्म को स्वीकार किया बाद तो क्रमशः अन्य नरेश भी जैन धम को अपनाते गये और समयान्तर सिन्ध कच्छ सौराष्ट्र लाट मेदपाट श्रावंती शूरसेन और पांचालादि देशों में भी उन प्राचार्यों ने घूम घम कर सर्वत्र जैन के प्रचार को खूब बढ़ाया जिसका उल्लेख वंशावलियों एवं पट्टावलियों में विस्तार से मिलता है उपकेशपुर के राजाओं की नामावली १-राव उत्पलदेव-श्राप श्रीमाल नगर के राजा भीमसेन के पुत्र थे आपने ही उपकेशपुर के आवाद किया था आचार्य रत्नप्रभसूरि ने सब से पहला आप को ही वासक्षेप के विधि विधान से जैन बनाये थे और जैन धर्म के प्रचार में भी आप का ही सहयोग था श्रापने उपकेशपुर की पहाड़ी पर भ० पार्श्वनार का विशाल एवं उतंग मन्दिर बनाया तथा मरुभूमि से सबसे पहला तीर्थ श्रीशत्रु जय का संघ भी निकाला थ इत्यादि मरुधर में यह सबसे पहला जैन नरेश हुआ। २-राव सोमदेव-आप राव उत्पलदेव के पांच पुत्रों में बड़ा पुत्र है इसने भी जैन धर्म की उन्नति एवं प्रचार के लिये बड़ा ही भागीरथ प्रयत्न किया था। ३-राव कल्हणदेव-यह राव सोमदेव का पुत्र है आपने जैन धर्म की प्रभावना बढ़ाते हुए उप केशपुर में भ० ऋषभदेव का मन्दिर बनाया था। ___ ४र-व विजयदेव-यह राव कल्हण का लघु पुत्र है इसने उपकेशपुर से एक विराट् संघ तीर्थ की यात्रार्थ निकाल कर शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा की थी। ५-राव सारंगदेव-यह राव विजयदेव का पुत्र है इसके शासन काल में उपके शपुर में एक श्रमण एवं संघ सभा हुई थी जिसमें जैन धर्म का प्रचार के लिये खूब जोरों से उपदेश एवं प्रयत्न किया गया था ६-राव धर्मदेव-यह राव सारंग का छोटा भाई था और बड़ा ही वीर था जैन धर्म का प्रचार के लिये श्राचार्य एवं श्रमणों का खूब हाथ बटाया था। ७-राव खेतसी-श्राप राव धर्मदेव के पुत्र हैं इसने भी जैन धर्म की उन्नति के लिये तन मन और धन से खूब कोशिश की थी अंत में आप अपने लौतासा पुत्र के साथ प्राचार्य ककसूरि के पास जैन दीक्ष स्वीकार की थी। ८-राव जेतसी-श्राप राव खेलसी के पुत्र थे आपने अपने पिता का प्रारंभ किया भ० महावी के मन्दिर को पूरा करवा कर प्रतिष्ठा करवाई थी। ९-राव मोहणसी-आप राव जेतसी के पुत्र हैं आपके शासन समय एक जन संहार दुकाल पर था रावजी के प्रयत्न से उपकेशपुर के महाजनों ने एक एक दिन का खर्चा देकर देशवासी भाइयों की पशुओं का पालन किया। उपकेशपुर का राजवं Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ १०-राव रत्नसी-श्राप राव मोहणसी के पुत्र हैं आपके शासनकाल में कई विदेशियों के आक्र. मण हुए थे आपके सेनापति श्रादित्यनाग गौत्रीय वीर भादू था और उनकी वीरता से ही पाप विजयी हुये थे। ११-राव नाइसी-श्राप राव रत्नसी के लघु पुत्र हैं आपके शासन समय जैन धर्म अच्छी उन्नति पर था आप के एक पुत्र दो पुत्रियों ने जैन दीक्षा ली थी। १२-राव हुल्ला -यह राव नाउक्षी के पुत्र हैं आपके परम्परासे चला आया धर्म में आशंका करके पाखंडियों के अधिक परिचय के कारण जैन धर्म से परांमुख होगये थे पर आचार्य सिद्धसूरि के सद् उपदेश से पुनः जैन धर्म में स्थिर हो जैन धर्म की खूब प्रभावना की आपके एक पुत्र ने जैन दीक्षा भी ली थी। १३-राव लाखो-आप राव हल्ला के पुत्र और बड़े ही प्रतापी राजा थे । १४-राव-धून-आप राव लाखा के पुत्र हैं आपके समय एक देशव्यापी दुःकाल पड़ा था जिसमें आपने बहुत द्रव्य व्ययकर अपनी प्रजा के प्राण बचाये थे और बहुत लोगों को जैनधर्म में स्थिर रखे । १५-राव केतु-आप राव धूम के पुत्र हैं आप बड़े ही धर्मात्मा थे जैन श्रमणों की उपासना में आप हमेशा उपस्थित रहते थे आपने तीर्थ थी शत्रुजय का संघ निकाल कर यात्रा की तथा वहाँ पर एक जैन मन्दिर बनवाया और सधर्मी भाइयों को एक एक लड्डू में पांच पांच सोना मुहरों को प्रभावना दी थी १६-राजा मूलदेव-आप राव केतु के पुत्र हैं आपने जैनधर्म का प्रचारार्थ उपकेशपुर में एक श्रमण सभा बुलाकर बड़ा ही स्वागत किया था एवं परामणी दी थी। १५-राजा करणदेव-आप मूलदेव के लघु बान्धव थे आपके प्रधान मंत्री श्रेष्टि गौत्रीय वीर रानसी था और सेनापति बाप्पनाग गौत्रीय शाह सुरजन थे इनके प्रयत्नों से आप अपने गज की सीमा बहुत बढ़ायी और जैनधर्म का भी काफी प्रचार बढ़ाया था। १८-राजा जिनदेव-पाप करणदेव के पुत्र थे आपका शासन बड़ा ही शान्तमय था। आपका लक्ष राजकी अपेक्षा धर्म की ओर अधिक मुका हुआ था। १९-राज भीमदेव-श्राप जिनदेव के पुत्र थे । आपने संघ के साथ शर्बुजय गिरनार की यात्रा की और बारहप्राम तीर्थ खर्च के लिये भेंट किये थे। २०–राव भोपाल-अाप भीमदेव के पुत्र थे । आपके शासन समय विदेशियों के देश पर हमले होते थे एक जत्था उपकेशपुर पर भी आक्रमण किया किन्तु राव भोपाल उसका सामना कर भगा दिया था जैसे राव भोपाल वीर था वैसे ही उसकी सेना भी बड़ी लड़ाकू थी सेना में अधिक सिपाही उपकेसवंश के ही थे। इसना ही क्यों पर सेनापति वगैरह भी उपकेशवंश के वीर रहे थे। २१- राव त्रिभुवनपाल-आप राव भोपाल के पुत्र थे आप भी जैनधर्म के प्रचारक थे आपने भाचार्यदेव को बहुत अाग्रह से उपकेशपुर में चतुर्मास करवाया था और आपने खूब मन तन और धन से लाभ उठाया आपका सधर्मी भाइयों की ओर बहुत अधिक लक्ष था। २५ - राव रेखो-आप राव त्रिभुवनपाल के पुत्र थे। आपकी माता वाममार्गियों की उपासका थी जिससे आप पर भी थोड़ा बहुत असर होगया था पर उपकेशपुर के राजा प्रजा का प्रायः धर्म एक उपकेशपुर का राजवंश ९७९ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जैनधर्म ही था वे कब चाहते कि हमारे राजा वामगार्मी हो पर राजा के सामने चलती भी किसकी थो एक बार विहार करते आचार्य रत्नप्रभ सूरि का पधारना उपकेशपुर में हुआ और लोगों ने राजा के लिये अर्ज भी की । इधर वाममार्गियों का भी उपकेशपुर में श्राना होगया । बस फिर तो था ही क्या उन्होंने राजाश्रम लेकर अपना प्रचार बढ़ाने का प्रयत्न करना प्रारंभ किया इस वाद विवाद ने इतना जोर पकड़ा कि जिसका निर्णय राजा की राजसभा में होना निर्धारित हुआ राजा ने भो दोनों पक्ष के अग्रेश्वर नेताओं को आमंत्रण बुलाया और और उन दोनों का आपसी शास्त्रार्थ करवाया जिसमें विजय माला जैनों के ही कण्ठ में शोभायमान हुई और रावजी अपना लघु पुत्र - ऋषभसेन के साथजैन धर्म को स्वीकार किया फिर तो था ही क्या राजा ने जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया । कर सभा २३ - राव सिहो- श्राप राव रेखा के पुत्र थे आपभी बड़े ही धर्मात्मा राजा हुए आपने उपकेशपुर एक शान्तिनाथ का मन्दिर बनाकर सालमाम पूजा के लिये भेंट देते थे और आपको जिनदेव की पूजा का अटल नियम था । २४ - राव मृलीदेव ( २ ). श्राप सिंहसेन के पुत्र थे आपके सात पुत्रियां होने पर भी कोई पुत्र नई था | आपके सच्चाधिका देवी का पूर्ण इष्ट था पुत्र चिन्ता के कारण श्राप देवी के सामने प्राणों का बलि दान देने को तैयार हो गये अतः देवी अपने ज्ञान बल से जानकर वरदान दिया कि हे भक्त ! तेरे एक ई क्यों पर सात पुत्र होंगे पर कोई दीक्षा ले तो रुकावट न करना फिर तो था ही क्या राजा के क्रमशः सात पुत्र होगये जिसमें पांच पुत्रों ने जैन दीक्षा ले ली थी राजा मूलदेव ने पांच लक्ष द्रव्य व्यय कर अपने पांच पुत्रों को जैन दीक्षा दिलादी थी । २५ – राव भीमदेव ( २ ) आप राजा मूलदेव के सात पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र थे आप दीक्षा रंग में रंगे हुये थे | भोगावली कर्म शेष रह जाने के कारण आप दीक्षा तो नहीं ले सके पर वे राज करते हुए भी जैन धर्म के अभ्युदय के लिये ठीक प्रयत्न किया आपने श्राचार्य ककसूरि का उपकेशपु में चतुर्मास करवाकर एक विराट् श्री संघ सभा करवाई जिससे जैन धर्म की बहुत बड़ी उन्नत हुई । २६ - राव अरुणदेव- - आप राव भीमदेव के पुत्र थे आप बड़े ही शान्ति प्रिय थे । २७ - राव - खमाण - आप अरुणदेव के पुत्र थे आपकी वीरता की आपने कई युद्धों में अपनी वीरता का परिचय दिया था दानेश्वरी तो आप आगे पिच्छे का कोई विचार नहीं करते थे । २८ - राव मालो - यह राव खुमाण के पुत्र थे श्राप जैन धर्म पालन एवं प्रचार करने में अपने जीवन का अधिक हिस्सा दिया था । वंशावलियों में श्राचार्य सिद्धसूरि के समय तक उपकेशपुर के राजाओं की वंशावली राव माला तक ही है जिसको हमने यहाँ दर्ज कर दी है हाँ वंशावलियों में इन राजाओं का विस्तार से वर्णन लिखा है प्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैंने यह संक्षिप्त में नामावली ही लिखा है । चन्द्रावती के राजाओं की वंशावली -- १- राजा चन्द्रसेन - आप राजा जयसेन के पुत्र थे पाठक ! पूर्व प्रकरणों में पढ़ आये हैं कि आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालनगर के राजा जयसेन को प्रतिवाद देकर जैन धर्मी बनाया राजा जयसेन के दो पुत्र ९८० बड़ी भारी धाक जमी हुई थी इतने थे कि दान देते समय चन्द्रावती नगरी का राजवंश Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२० - ९५८ थे भीमसेन - चन्द्रसेन भीमसेन ने श्रीमाल का राज किया और चन्द्रसेन ने चन्द्रावती नगरी बसा कर वहाँ का राज किया इन नया राज आबाद करने का कारण आपस में धर्म भेद हो था राजा चन्द्रसेन जैन धर्म का उपासक था तब भीमसेन ब्राह्मण धर्मी एवं वाममार्गी था भीमसेन जैनों पर अत्याचार करने के कारण चन्द्रसेन ने जैनों के लिये नया नगर को आबाद कर उसका नाम चन्द्रावती रख वहां का राज किया चन्द्रावती में उस समय राजा प्रजा जैन ही थे और बाद में भी जैनों का ही अग्रेश्वर बना रहा था राजा चन्द्रसेन ने जैन धर्म का प्रचार के लिये खूब भागीरथ प्रयत्न किया अपने नूतन नगर के साथ भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर भी बनवाया इतना ही क्यों पर उस नगर के जितने वास - मुहल बसाया प्रत्येक वास में रहने वाले सेठ साहुकारों की ओर से एक एक जैन मन्दिर बना दिया था । २ - धर्मसेन - आप राजा चन्द्रसेन के पुत्र थे - आपने अपने पिता की तरह जैन धर्म की खूब सेवा की इस धर्म भावना के ही कारण आपका नाम धर्मसेन पड़ा है । ३ - अर्जुन सेन -- आप राजा धर्मसेन के पुत्र थे श्रपने चन्द्रावती से शत्रुंजय की यात्रार्थ एक विराट् संघ निकाला था और साधर्मी भाइयों को सुवर्ण मुद्रकाएं की परामणी तथा वस्त्रों की लेन दी थी ४—ऋषभसेन–श्राप राजा अर्जुनसेन के पुत्र थे ५ रुपसेन - आप राजा ऋषभसेन के पुत्र थे ६ - आनन्द सेन - श्राप राजा रूपसेन के पुत्र थे आपने चन्द्रावती के पास एक तालाब खुदाया था जिसका नाम श्रानन्द सागर था ७ - वीरसेन - श्रप राजा श्रानन्दसेन के पुत्र थे ८- भीमसेन - श्राप राजा वीरसेन के पुत्र थे श्रापने यात्रार्थ तीर्थों का संघ निकाल कर साधर्भी भाइयों का सुवर्ण मुद्रिकाओं से सत्कार किया था । ९ - विजयसेन -- आप राजा भीमसेन के पुत्र थे । अपने आबू पर्वत पर भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर बना कर प्रतिष्ठा करवाई १० - जिनसेन - श्राप राजा विजय सेन के पुत्र थे अपने श्राबु के मन्दिर के लिये चार ग्राम दान में दिया तथा कुछ व्यापार पर भी लगान लगाया था ११ - सज्जनसेन - आप राजा जिनसेन के पुत्र थे अपने तीथों की यात्रार्थ संघ निकाला और प्रत्येक यात्री को पांच पांच तोला की कटोरी भावना में दी थी १२ देव सेन – आप राजा सज्जनसेन के पुत्र थे १३ - केतुसेन -- आप राजा देवसेन के पुत्र थे आपके प्रयत्न से संघ सभा हुई थी १४ -- मदनसेन - आप राजा केतुसेन के पुत्र थे आपने एक मन्दिर बनवाया था थे श्राप बड़े ही दानेश्वरी थे १५ - भीमसेन ( २ ) आप राजा मदनसेन के पुत्र १६ -- कनकसेन - आप राजा भीमसेन के पुत्र आपने तीर्थ यात्रार्थ एक विराट संघ निकला जिसमें कई पांच लाख गृहस्थ थे १५२ देरासर १००० साधु श्राचार्थदि संघ बड़ा ठाठ से निकला साधर्मी भाइयों को सुवर्ण मुद्रिकाए की परामणी दी आपने और भी जैन धर्म के चोखे और अनोखे कार्य किये थे चन्द्रावती नगरी का राजवंश ९८१ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५२०-५५८ ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १७-गुणसेन-आप राजा कनकसेन के पुत्र थे आपके दो पुत्र प्राचार्य के पास दीक्षा ली जिसके महोत्सव में श्रापने नीलक्ष द्रव्य व्यय कर जैन धर्म की अच्छी प्रभावन की थी १८- दुर्लभसेन-आप राजा गुणसेन के पुत्र थे आपके शासन समय में एक अकाल पडा था जिसमें छापने लाखों रूपये व्यय किये और प्रजा का पालन किया १९-छत्रसेन-श्राप दुर्लभसेन के पुत्र और वीर प्रकृति के थे २०-राजसेन-श्राप राजा छत्रसेन के पुत्र थे २१-पृथुसेन-आप राजा राजसेन के पुत्र थे २२-अजितसेन-श्राप राजा पृथुसेन के पुत्र थे २३-देवसेन-(२) आप गजा अजितसेन के पुत्र थे २४-भूलसेन- श्राप राजा देवसेन के पुत्र थे । २५-राव नोढा-आप राजा मूलसेन के पुत्र थे २६-राव नोरा-आप रावनोढा के पुत्र थे २७-रावनारायण-आप रावनोरा के पुत्र थे २८-राव सुरजण-श्राप रावनारायण के पुत्र थे ___ मांडव्यपुर की राज वंशावली श्रीमाल का राजकुमार उत्पलदेव ने उपकेशपुर को श्राबाद किया था उस समय मांडलपुर (मंडावर) में राव मांडा का राज था और राव मांडा ने उत्पलदेव को श्रापकी पुत्री परणाई थी जिससे उसके आपस में सम्बन्ध होगया था राव मांडा ने उत्पलदेव को अच्छी मदद दी और कुछ भूमि मी दी थी जिससे राव उत्पलदेव अपना नया राज जमाने में अच्छी सफलता प्राप्त करली थी मांडव्यपुर के राजघराना पर भी प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का अच्छा प्रभाव पड़ा था उस समय की जनता एक ओर तो वाममार्गियों के अत्याचारों से त्रसित थी दूसरी ओर ऊँच नीचके जहरीले भेद भावों से घृणा करती थी उस समय जैनाचार्यों का उपदेश ने उन पर जल्दी से प्रभाव डाल दिया था कुछ एक दूसरों के सम्बन्ध का भी कारण हुश्रा करता है कुछ भी हो पर उस समय जैम धर्म का प्रभाव जनता पर जबरदस्त पड़ा था। १-राव मांडो-इसने मांडव्यपुर में सब से पहला म० महावीर का मन्दिर बनाया। २-सुहड़-इसने शत्रुजयादि तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाला। ३-चुण्डा४-धरमण- इसने श्राचार्य के नगर प्रवेश महोत्सव में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । ६-पासल्य-यात्रार्थ तीर्थों का संघ निकाला। ७- फागु-यह जैन धर्म का प्रचार करने में तत्पर रहता था। ८-मुरूदेव-इसने तीर्थो को यात्रार्थ संघ निकाला था। ९-मांडण-इसने किला के अन्दर २ मंजिल का मंदिर बनवाया था। १०-रामो-इसका मंत्री श्रेष्टि रायमल्ल था वह बड़ा ही वीर था। ९८२ माडव्य पुर का राजश Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन [ ओसवाल सं० १२०-६५८ ११-हाना-इसके शासन में एक श्रमण सभा हुई थी। १२-करणदेव-इसने भ० पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया था। १३-महीपाल-इसने दुकाल में पुष्कल द्रव्य व्यय कर शत्रुकार दिया था। १४-दे दो-इसने तीर्थों का संघ निकाल यात्रा की थी। १५- कानड़-इसने सूरिजी के प्रवेश महोत्सव में नौ लाख द्रव्य खर्च किया । १६ -- लाखो-राव लाखा के पुत्र पुनड़ ने बड़े ही समारोह से दीक्षा ली थी। १७-धुहड़-इसने बारह व्रत एवं चतुर्थ व्रत प्रहण किया था। १८-राजल-राव राजल बड़ा ही वीर शासक था । १९-मुकन्द-इसने जैन धर्म की अच्छी प्रभावना की थी। भीनमाल के राजाओं की वंशावली १-राजा जयसेन-स्वयं प्रभसूरि के उपदेश से जैन बना । २-राजा भीमसेन - ब्राह्मणों का पक्षकार वाममार्गी रहा । ३-अजितसेन-( युवराजपद के समय इसका नाम श्री पूँज था) ४-शत्रुसेन-इसने शिव मन्दिर बनाया था। ५-कुम्भसेन--यह जैन श्रमणा से द्वष रखता था । ६-शिवसेन-इसने एक वृहद यज्ञ करवाया था। ७-पृथुसेन-इसके शासन में जैन और ब्राह्मणों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था। ८- गंगसेन- इसने आचार्य के उपदेश से जैन धर्म स्वीकार किया। ९-रणमल्ल-इसने शत्रुजय का संघ निकाला। १०-जगमाल - इसने श्रीमाल में भ० महावीर का मन्दिर बनाया। ११-सारंगदेव-इसने पुनः ब्राह्मणों को स्थान दिया था। १२-चणोट-यह राजा कट्टर जैनधर्मी था और जैन धर्म का ख़ब प्रचार किया। १३-जोगड़-इसने तीर्थों का विराट संघ निकाला । १४-कानड़-इसके शासन में विदेशिया का हमला श्रीमालपुर पर हुए १५-रावल-इसने भ० महावीर का मन्दिर बनाया १६-दोहड़-इसने श्राबुदाचल का संघ निकाल यात्रा की थी १७-अजितदेव-इनके समय चन्द्रावती के राजा गुणसेन के साथ लड़ाई हुई १८-मुजल-यह बड़ा ही वीर राजा था और जैनधर्म का कट्टर अनुयायी भी था १९-मालदेव२०-भीमदेव२१-जुंजार-इसके समय गुजरो ने भीलमाल पर आक्रमण कर राज छीन लिया बाद गुजरों ने राज किया wwwimmm मीशमाल का राजवंश ९८३ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बि० सं० ५२०-५५८ वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विजय पट्टण के राजाओं की वंशावली राव उत्पलदेव के पांच पुत्रों से विजयराव ने उपकेशपुर से कई ४० मील की दूरी पर रेगिस्तान भूमि में एक नूतन नगर आबाद किया जिसका नाम विजय नगर रक्खा था जब नगर अच्छा श्राबाद हो गया और व्यापार की एक खासी मंडी बन गई तब लोग उसे विजयपट्टन के नाम से पुकारने लग गये । १ विजयराय यह महाराजा उत्पलदेव का पुत्र था और इसने ही विजयनगर को आवाद किया था पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया और अपने पिता की तरह जैन धर्म का काफी प्रचार कराया । २-- राव सुरजण - आप विजयराव के पुत्र और बड़े ही वीर राजा हुए आपने राज्य की सीमा रेगिस्तान की ओर खूब बढ़ाई थी आप जैनधर्म के प्रचार में जैन श्रमणों के हाथ बटाये तथा श्री शत्रु जयदि तीथों की यात्रार्थ संघ भी निकाला था । ३——राव कुम्भा-आप नं० २ के पुत्र थे आपकी वीरता के सामने अन्य लोग घबराते थे । ४ -- राव मांडो -- श्राप नं ३ के पुत्र थे श्राप बड़े ही धर्मात्मा थे कई बार तीर्थ की यात्रा कर भाप अपने को पवित्र हुए समझते थे । ५ -- शव दाहड़ - श्राप नं० ४ के पुत्र थे ६ -- राव कला- आप नं०१५ के लघु भ्राता थे ७-- राव जल्हण - आप नं० के ६ पुत्र थे ८-- राव देवो- आप नं० ७ के पुत्र थे ९ -- राव वसुराव- आप नं० ८ के पुत्र थे आपके पुत्र न होने से धर्म की ओर अधिक लक्ष दिया करते थे अपने श्री शत्रु जय गिरनारादि तीर्थों की यात्रा में पुष्कल द्रव्य शुभ क्षेत्र में व्यय किया था राव वसु का देहान्त होने के बाद विजयपट्टन का राज उपकेशपुर के श्री रत्नसी ने छीन कर उपकेशपुर के अन्दर मिला लिया अतः उस समय से विजय पट्टन का राज उपकेशपुर के अन्तर्गत समझा जाने लगा । शंखपुर नगर के राजाओं की वंशावली शंखपुर नगर राव उत्पल देव के पुत्र शंख ने आबाद किया था वंशावलियों में इस नगर का नाम शंखपुर लिखा है वर्त्तमान में शंखवाय कहा जाता है राव शंख ने नगर के साथ भ. पार्श्वनाथ का मन्दिर भी बनाया ९८४ WAKAAN VAN कि नया नगर वसावे तो पहला देव स्थान तथा जैनों को उपदेश देकर जैन बनाया वहाँ भी जैन धर्म का स्तंभ है इस निर्मित कारण आरमा था पहले जमाना में यह तो एक पद्धति ही बन चुकी थी नया मकान बना वे तो प्रायः पहला घरमन्दिर तथा जहाँ मन्दिर तत्काल ही बना दिया जाता था कारण मन्दिर एक में हमेशा धर्म की भावना बनी रहती है श्रतः राव उत्पलदेव का पुत्र नया नगर आबाद करे वहाँ मन्दिर का निर्माण करावे इसमें ऐसी कोई विशेषता की बात नहीं कही जा सकती है शंखपुर राजाओं की नामावली वंशावलियों में निम्नलिखित दी है । १- शंख राव इसने शंखपुर में पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया । R - जोघड इसने तीथों की यात्रार्थ संघ निकाला । ३ - नारो -- यह बडा ही वीर राजा था । विजय पडून का राजवंश Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ ४-पुनड़-इसके पुत्र रामाने जैन दीक्षाली थी। ५-घुवद- इसने अपने राज में अमर पडहा की उद्घोषणा की। ६-बाहड़-... ७--कानड-इसने शत्रुजय पर मन्दिर बनाया। ८--कक- इसने शंखपुर में महावीर का मन्दिर बनाया। ९--जहेल-यह बडा ही वीर राजा हुआ था। १०--नाहड ( २) यह राजा विलासी था। राव नाहड़ का राजा उपकेशपुर का राव रत्नसी ने छीन कर उसक उपकेशपुर की सीमा में मिला लिया उस समय से ही शंखपुर के गज की गणना उपकेशपुर में होने लगी-उपकेशपुर का राव रत्नसी बड़ा ही वीर राजा हुआ और वह था भी बड़ा ही विच र दक्ष उसने यह सोचा होगा कि इस समय विदेशियां के आक्रमण भारतपर हुआ करते है अतः आपस में भिन्न भिन्न शक्तियों को एकत्र कर अपना संगठन बल मजबूत करने की आवश्यकता है। वीरपुर के राजाओं की वंशावली-- विक्रम की दूसरी शताब्दी में आचार्य रत्नप्रभसूरि ( सोलहवें पट्टधर ) ने वीरपुर में पदार्पण कर घाम मार्गियों के साथ राज सभा में शास्त्रार्थ करके उनको पराजय कर वहाँ के राजा वीरधवल राजपुत्र वीरसेनादि राजा प्रजा को जैन धर्म की दीक्षा दी थी इस शुभ कार्य में विशेष निमित कारण उपकेशपुर की राज कन्या सोनलदेवी का ही था उसने पहले से ही क्षेत्र साफ कर रखा था कि आचार्यश्री का धर्म वीज तत्काल फल दात बन गया इतना ही क्यों पर राजपुत्र वीरसेन अपने कुटुम्ब के साथ सूरीश्वरजी के चरणाविन्द में जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी राजाओं की नामावली १ राजा वीरधवल-आपके बड़े पुत्र वीरसेन ने जैन दीक्षा ली थी २ देवसेन- इसने वीरपुर में जैन मन्दिर बना कर प्रतिष्ठा करवाई थी ३ केतुसेन-इसके पुत्र हालु ने मुनि वीरसेन के पास दीक्षा ली थी ४ गयसेन-इसने तीर्थों का संघ निकाला था। ५ धर्मसेन-इसने वीरपुर में महावीर का मन्दिर बनवाया या ६ दुर्लभसेन-दुर्लभसेन-ब्राह्मणों का परिचय से जैन धर्म को छोड वाममर्गियों के पक्ष में हो गया था वह भी यहां तक कि बिना ही कारण जैनों को तकलीफ देने में तत्पर हो गया नब इस बात का पता उपफेशपुर के नरेश को मिला तो उसने तत्काल ही बीरपुर पर चढ़ाई कर दी और युद्ध कर गव दुर्लभ को पकड़ कर उपकेशपुर ले आया और वीरपुर पर अपनी हकूमत कायम कर दी नागपुर के राजाओं की वंशावली नागपुर--जिसको आज नागोर कहते हैं मरुधर प्रदेश में एक समय नागपुर भी स्वतंत्र राज का नगर था इस नगर को उपकेशपुर के राजा के सेनापति शिवनाग ने श्रावाद किया था। शिवनाग--श्रादित्यनाग की सन्तान परम्परा में थे श्रापकी रण कौशल्य से प्रसन्न हो राव हुला ने यह प्रदेश शिवनाग को बक्नागपुर का राजवंश ९८५ anAAAAAAp-nanMAAVARANAuuN Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सोस के तौर पर दिया था और उसने देवी सञ्चायिका की सहायता से इस नगर का निर्माण किया था जिसके लिये वंशावलियों में विस्तार से लिखा है इसका समय विक्रम की पहली शताब्दि का है। आदित्यनाग के जैन धर्मी होने के बाद ४१३ वर्ष में तेरहवीं पुश्त में शिवनाग हुए। शिवनाग की वंश परम्परा १२ पुश्त तक नागपुर में राज किया था जिन्होंकी नामावली इस प्रकार है-- १ शिवनाग- इसने नागपुर आबाद किया और भगवान महावीर का मन्दिर बना कर आचार्य कक सूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवाई। २ भोजनाग-इसने तीर्थों की यात्रार्थ नागपुर से संघ निकाला। ३ वभूनाग-यह बड़ा ही वीर शासक हुए और धर्म का भी प्रचारक था। ४ सत्य नाग-प्राचार्य श्री रत्नप्रभ सूरि के स्वागत में एक लक्ष्य द्रव्य व्यय किया था । ५ सहसनाग-इसने भ० आदीश्वर का मन्दिर बना कर प्रतिष्टा करवाई । .६ भूलनाग-यह बडा ही युद्ध कुशल राजा था इसने अपनी राज सीमा को थली में बहुत बढ़ाई। ७ अरुणनाग-इसने श्री शत्रुजय का संघ निकला। ८ भोलानाग-इसके शासन में एक श्रमण सभा हुई। ९ केतुनाग-इसके ११ पुत्र थे जिसमें हल्ला ने सूरिजी के चरणों में दीक्षा ली जिसके महोत्सव में पांच लक्ष्य द्रव्य व्यव हुए। १० दाहडनाग-इसने श्री शत्रुजयादि तीर्थ की यात्रा की। ११ मागुं इसकी-राणी छोगाइ ने एक तलाब खुदाया था। १२ शिवनाग (२)-यह राना विलासी था राज की अपेक्षा भोग विलास में मग्न रहता था और जनता को बडी त्रास देता था अतः उपकेशपुर के राव मूलदेव ने इस पर चढ़ाई कर शिवनाग को पराजय कर नागपुर का राज अपने राज में मिला लिया तब से नागपुर उपकेशपुर के अधिकार में आगया नागपुर में आदित्यनाग गौत्र वालों की बहुत विशाल संख्या थी कहते हैं कि नागवंशी ने नगर बसाया, देवी साचल आशी श्राधा में आदित्यनाग, आधा में पुरबासी । नागपुर की हकीकत में अधिक आदित्यनाग वंशियों की ही मिलती है चोरडिया गुलेच्छा गदाइया पारख यह सब आदित्यनाग वंश की शाखाएँ। हैं पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी नागपुर में आदित्वनाग-चोरडियों के तीन चार हजार घर बड़े ही समृद्ध थे ऐसा वंशावलियों में पाया जाता है इनके अलावा सिंध में राव रुद्राट् उसके पुत्र कक ने आचार्य यक्षदेव सूरि के पास दीक्षा ली और उनके उत्तराधिकारियों ने भी कई पुश्त तक जैन धर्म का वीरता पूर्वक पालन किया तथा कच्छ भद्रावती नगरी के राजपुत्र देवगुप्त ने आचार्य ककसूरि के पास जैन दीक्षा ली थी और भद्रावती का राजघराना जैन धर्म को स्वीकार कर उसका ही प्रचार किया था तथा उस समय के और भी अनेक राजाओं ने जैन धर्म को अपना कर उसका ही पालन एवं प्रचार किया था इतना ही क्यों पर उस समय भारत में पूर्व से पश्चिम एवं उत्तर से दक्षिण तक जैन धर्म का काफी प्रचार था। नागपुर का राजवंश Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धहरि का जीवन ओसवाल सं० ९२०-९५८ सिक्का-प्रकरण जब से अंग्रेज सरकार के पुरात्व विभाग द्वारा शोध खोज एवं खुदाई का कार्य प्रारम्भ हुआ तब से ही भूगर्भ में रहे हुए भारतीय बहुमूल्य साधन एवं विपुल सामग्री उपलब्ध होने लगी है जिसमें प्राचीन मन्दिर मूर्तियों स्तूप स्तम्भ शिलालेख आज्ञालेख खण्डगलेख ताम्रपत्र दानपत्र और प्राचीन सिक्के मुख्य माने जाते हैं और इतिहास के लिये तो ये अपूर्व साधन समझे जाते हैं इन साधनों द्वारा प्राचीन समय की राजनैतिक सामाजिक धार्मिक एवं राष्ट्रीय तथा उस समय के रीति रिवाज हुन्नरोद्योग शिल्प वगैरह २ और किस किस राष्ट्रीय का पतन एवं उत्थान का पत्ता हम सहज ही लगा सकते हैं इन साधनों के अभाव कई कई देशों के राजाओं का नाम निशान तक भी हम नहीं जान सकते थे हम यह भी नहीं जानते थे कि कौन कौन आति या बाहर से आकर अपनी राजसता जमा कर राज किया था। पर उपरोक्त साधनों के आधार पर विद्वानों ने अनेक वंशों के राजाओं के इतिहास की इमारतें खड़ी करदी है । फिर भी वे साधन पर्याप्त न होने के कारण विद्वानों ने अपना भानुभव एवं कई प्रकार के अनुमानों का मिश्रण करके इतिहास लिखक जनता के सामने रक्खा है हाँ उन विद्वान लेखकों के आपस में कहीं कहीं मतभेद भी दृष्टि गोचर होता है इसका मुख्य कारण साधनों की त्रुटी ही समझना च हिये कारण इतना स्वल्प साधनो पर प्राचीन समय का इतिहास लिखना कोई साधारण बात नहीं है खैर विद्वानों के आपस में कितना ही मतभेद हो पर हमारे लिये तो उन्हों का लिखा इतिहास एक पथ प्रदर्शक एवं महान् उपकारिक ही है जिसका हम हार्दिक स्वागत ___उपरोक्त प्राचीन साधनों के अन्दर से हम यहाँ पर प्राचीन सिक्कों के विषय ही कुछ लिखना चाइते हैं जो इतिहास के लिये परमोपयोगी साधन समझा जाता है। प्रथम तो यह कहा जाता है कि सिक्काओं की उत्पत्ति कब से हुई ? इस विषय में विद्वानों का मत है कि सिक्काओं की शुरुआत शिशु ग. वंशी सम्राट् बिंबसार के शासन समय में हुई थी और इस मान्यता की साबूति के लिये यह भी कहा जाता है कि भारत के चारों ओर की शोध खोज करने पर हजारों सिक्के मिले हैं जिसमें इ० सं० की छटी शताब्दी के पूर्व का एक भी सिक्का नहीं मिला है अतः + नुमान करने वालों को कारण मिलता है कि सिक्का की शुरुआत इ० सं० पूर्व की छटी शताब्दी में ही हुई हो साथ में यह भी कहा जाता है कि सम्राट् बिंबसार ने अपने शासन में व्यापार की सुविधा के लिये पृथक २ व्यापार की श्रेणियां बना दी थी-जैसेवणिक, सुनार, लुहार, सुथार, ठठेरा, दर्जी, बनकर तेली, तंबोली, नाई गान्धी वगैरह २ वे श्रेणियां अपना अपना कार्य किया करे इस प्रकार श्रेणियां बनाने के कारण ही राजा बिंबसार का अपर नाम श्रेणिक पड़ गया था और जैनशास्त्रों में तो विशेष इस नाम का ही प्रयोग हुआ दृष्टिगोचर होता है कई पश्चात्य विद्वानों का भी यही मत है कि सबसे पहले सिक्का व्यापारियों ने अपने व्यापार की सुविधा के लिये ही बनाये थे बाद में जब सिक्काओं का प्रचार बढ़ने लगा तब उस पर राज ने अपनी प्रभुत्व जमानी शुरू करदी 'Wealth in those early times being computed in cattle, it was only natural, the ox or cow should be employed for this purpose, In Europe then, and also in India, the cow stood as the higher unit of Barter. ( Barter exchang in kind ). At AnnnnnnwrARNandavimnew सिक्का-प्रकरण ९८७ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास स्वैर ! यह मान लिया जाय कि सिक्काओं का बनाना सम्राट् श्रेणिक के समय से ही प्रारम्भ हुआ था पर एक सवाल यह पैदा होगा कि उस समय के पूर्व वाणिज्य व्यापार तथा माल का लेना वेचना कैसे होता था तथा शास्त्रों में यह भी कहा जाता है अमुक सेठ दश करोड़ की अमुक ५० करोड़ की आसामी था सिक्का बिना यह गिनती कैसे लगाई गई होगी ? इसके लिये कहा जाता है कि सामान माल का लेन देन तो माल के बदले माल ही दिया जाता था जैसे धान देकर गुड़ लेना घृत देकर कपड़ा लेना तथा गाय बछा देकर माल लेना और विशेष व्यापार तथा दूर दूर देशों में थोक वद्ध माल बेचना उसके लिये तेजमतुरी तथा रत्न मोतियों से भी व्यापार किया जाता था और उस सोना रत्न मारएक मोतियों की बजाय से अनुमान किया जाता था कि इस व्यक्ति के पास इतना द्रव्य है और आज भी जहाँ पाश्चात्य विद्या का अधिक प्रचार नहीं है वहाँ के किसान लोग धान गाय बछड़ा देकर माल खरीद किया करते हैं तथा जैन शास्त्रों में धन्ना सेठ जावड़शाह जगडुशाह सज्जन पेथा वगैरह वहुत व्यापारियों के वर्णन में तेजमतुरी का उल्लेख मिलता है कि वे तेजमतुरी देकर लाखों का माल खरीद किया था । इससे पाया जाता है कि सिक्का का चलन सम्राट् श्रेणिक के शासन में ही प्रारम्भ हुआ होगा । दूसरा अभी थोड़े समय में सिन्ध एवं पंजाब देश के बीच में भूगर्भ से दो नगर निकले हैं वे नगर इ० सं० पूर्व कई पांच हजार वर्ष जितने प्राचीन होने बतलाये जाते हैं उन नगरों के अन्दर बहुत प्राचीन पदार्थ निकले हैं पर प्राचीन एक भी सिक्का नहीं निकला यदि प्राचीन काल में सिक्का का चलन होता तो थोड़ी बहुत संख्या में सिक्के अवश्य मिलते १ जब तक कोई प्राचीन सिक्का नहीं मिल जाय तब तक तो विद्वानों की यही धारणा है कि सिक्काओं की शुरुआत इ० सं० पूर्व छटी शताब्दी में हुई थी फिर भी अनुमान वाला निश्चयात्मिक नहीं कह सकता है। समय वर्तमान में जितने सिक्के मिल हैं वे तीन प्रकार के हैं १ - धातु के क्राटे हुए टुकड़े जिस पर ऐरन और हथोड़ा से सिक्का की छाप पड़ी हुई २- धातु को गाल कर भूमि पर छोटे-छोटे सिक्काकार खाड़ा कर उसमें गाला हुआ धातुरस ढाल कर सिक्का बनाना ३-- टकसाल के जरिये सिक्का पड़ना । इन तीन प्रकार के सिक्कों में पहला धातु के काटे हुए टुकड़ों को ऐरन हथोड़ा से छाप लगाना सम्राट बिंबसार के तथा धातु का रस बना कर भूमि पर डाल कर सिक्का बनाना नंदवंश एवं मौर्यवंश के राजा के समय के हैं और सम्राट सम्प्रति के समय सम्राट ने टंकसालों का निर्माण कर उन टकसालों द्वारा सिक्के पाडे गये थे तथा राजा संप्रति के समय के बाद भी जहां पर टकसालें स्थापित नहीं हुई थी वह पर ढाल में सिक्के ही पड़ाये जाते थे । वर्तमान में मिले हुए सिक्काओं में कई सिक्के तो ऐसे हैं कि जिसके एक ओर छाप है और दूसरी ओर साफ चीपटे हैं वे सिक्के सम्राट् श्रेणिक के समय के हैं कारण ऐरन हथोड़ा से सिक्के पाडने में एक ही ओर छाप पड़ सकती है दूसरी ओर साफ ही रहते हैं। कई the lower end of the scale, for smaller purchases stood another unit, which took Various forms among different peoples. Shells, beads, knives and where those matals were discovered. Bars of Copper and iron". (See the Book of "Coins of India" of "the Heritage of India Series" written by C. J. Brown M. A Printed in 1922. P. 13) ९८८ सिक्काओं की शुरुआत Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास કૌશાંબો (ચાલુ) ૨૭ ૨૧ 34 ૨૩ ૨૮ અવંતિપતિ- ક્ષÇાટ ૪૪ ૨૯ ૨૨ ૪ ૩૭ મગધ-દેશ ૪૫ ૩૧ ૩૮ પરચુરણ અનૈતિ भूगर्भ से मिले हुए प्राचीन सिक्के ૨૫ ૩૨ 33 અવંતિપતિ-હ્િદુ ૪૧ ४२ કૌશાંબી, અવંતી,મગધ તથા પરચુરણ. ૩૯ TE. ૨૬ ૩૪ ४० ૪૩ pi cru For Priva('રાશિ ત દ દમ્પની વઙીયા જે સૌમ્ય સે ) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ सिक्के ऐसे भी हैं कि दो सिके साथ में जुड़े हुए हैं वे ढाल में सिके हैं कारण जिस भूमि पर धातु रस ढाले थे उस भूमि में दो सिक्कों के बीच जो थोड़ी सी भूमि रखा गई थी उस भूमि में थोथी-खालमी जमीन रह गई हो कि वे दो सिके साथ में ढल गये और साथ में ही रह गये शेष सिक्के दोनों ओर छाप खुदी हुई और एक-एक जुदा २ है जिसमें टंकसालों और ढाल में दोनों प्रकार के सिक्के हैं । प्राप्त हुए सिक्काओं पर चिन्ह के लिए शायद उस जमाने में आत्माश्लाघा के भय से अपना नाम नहीं चुदवाते होगे ? यही कारण है कि अधिक सिक्काओं पर नरेशों का नाम एवं संवत् नहीं पाया जाता है पर उन सिक्काओं पर सजायों के वंश या धर्म के चिन्ह खुदवाये जाते थे शायद वे लोग अपने नाम की बजाय वंश एवं धर्म का ही अधिक गौरव समझते थे। उदाहरण के तौर पर कतिपय नरेशों के सिक्काओं पर अंकित किये जाने वाले चिन्हों का उल्लेख कर दिया जाता है कि जिससे यह सुविधा हो जायगी कि अमुक चिन्ह वाला सिक्का अमुक देश एवं अमुक वंश के राजाओं का पढाया हुश्रा सिक्का है तथा वे गजा किस धर्म की आराधना करने वाले थे। १ शिशु नागवंशी राजाओं का चिन्ह नाग (सर्प) था तथा नन्दवंशी राजा भी शिशुनाग वंश की एक छोटी शाखा होने से उनका चिन्ह भी नाग का ही था विशेष इतना ही था कि शिशुनाग वंश बड़ी शाखा होने से बड़ा नाग अथवा दो सर्प और नन्दवंशी लघु शाखा होने से छोटा नाग तथा एक नाग का चिन्ह खुदाते थे । इन दोनों शाखाओं के सिक्के मिल गये और उनके ऊपर बतलाये हुए चिन्ह भी हैं । २--मौर्यवंश के राजाओं के सिक्कों पर वीरता सूचक अश्व तथा अश्व के मयूर की कलंगी का भी चिन्ह होता था। ३--सम्राट् सम्प्रति था तो मौर्यवंशी पर आपकी माता को हस्ती का स्वप्न आया था अतः सम्राट ने अपना चिन्ह हस्ती का रखा और ऐसे बहुत से सिक्के मिल भी गये हैं। ४ तक्षशिल के राजाओं का चिन्ह धर्म चक्र का था ऐसे भी सिक्के उपलब्ध हुए हैं । ५ अंगदेश के नरेशों का चिन्ह स्वास्तिक का था। ६ वत्सदेश के राजाओं का चिन्ह छोटा वच्छड़ा का था। ७ आवंति-उज्जैन नगरी के भूपतियों के सिक्के पर एक चिन्ह नहीं कारण इस देश पर अनेक नरेशों ने राज किया और वे अपने अपने चिन्ह खुदाये थे तथापि राजा चण्डप्रद्योतन के सिक्काओं पर --C-J. B. P. 18:-The earliest of there copper coins, some of which may be as early as fifth centuary B. C. were cast P. 19. We find such cast coins being issued at the close of the third centuary by kingdoms of kaushambi, Ayodhya and Mathura. २--C.J. B. P. 18:-The earliest diestruch coins with a device of the coin ünly, have been assigned to the end of the & 4th Century B. C. Some of these with a lion device, were certainly struck at Taxilla where there are .chiefly found P. 19.-The method of striking these carly coins was peculiar, ia that the dits was impressed on the metal when hof So that a deep square incure which contains the device, appears on the coin. सिकाओं पर चिन्ह ९८९ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तलवार का चिन्ह कहा जाता है जो वीरता का चिन्ह था । ८ कोशल देश के राजाओं का चिन्ह वृषभ तथा तावृक्ष का था। ९ पंचाल देश के नरेशों का चिह एक देह के पांच मस्तक कारण इस देश में राज कन्या द्रौपदी ने पांच पाण्डवों को वर किये थे। १० आयुद्धम देश के राजाओं का चिन्ह शूरवीर का था। ११ गर्दभ भीलवंशी का चिन्ह गर्दभी का जो उनको विद्यासिद्ध थी। १२ चष्टानवंशी राजाओं का चिन्ह चैत्य सूर्य चन्द्र या उनके नाम १३ कुशान वंशी नरेशों का चिन्ह चैत्य या हस्ती सिंह का था । १४ गुप्तवंशी राजाओं का चिन्ह स्वस्तिक एवं चैत्य का था । १५ आंघवंशी नरेशों का चिन्ह तीर कबाण का था । इनके अलावा छोटे बड़े राजाओं ने भी अपने सिक्कों पर संकेतिक तथा अपने अपने धर्म का चिन्ह खुदाया करते थे । इससे पाया जाता है कि उस समय के राजाओं को अपने नाम की अपेक्षा अपने धर्म का गौरव विशेष था । जब हम जैनधर्म का इतिहास का अवलोकन करते हैं तो ई. सं. की छठी शताब्दी से ई० सं० की तीसरी चतुर्थी शताब्दी तक थोड़ा सा अपबाद छोड़ के सब के सब राजा जैन धर्म पालन करने वाले ही दृष्टि गोचर होते हैं। और उन नरेशों ने अपने २ सिक्काओं पर जो चिन्ह खुदाये हैं वे सब जैन धर्म से ही सम्बन्ध रखते हैं जैन धर्म के मुख्य चिन्हों के लिये कहा जाय तो वर्तमान का पेक्षा चौबीस तीर्थकर हुए उन तीर्थङ्करों की जंघा पर एक एक शुभ लक्षण होता है जिसकों लंछन एवं चिन्ह कहा जाता है और वर्तमा। में जैनों की मूर्तियों भी पर वे ही चिन्ह अंकित हैं जैसे तीर्थङ्करों के क्रमशः १ वृषभ २ हस्ती ३ अश्वर ४ बंदर ५ कोच पाक्षी ६ पद्मकमल ७ स्वस्तिक ८ चन्द्र ९ मगर १० वत्स ११ गैंडा १२ भेसा १० बराह १४ सिंचानक १५ बन १६ मृग १७ बकरा १८ नन्दावर्तन १९ कलस २० काछप २१ कमल २२ शङ्क २३ सर्प २४ सिंह जिसमें वृषभ हस्ती अश्व स्तिक नाग और सिंह यह बहुत प्रसिद्ध हैं इनके अलावा तीर्थकरदेव की माता को गर्भ समय चौदह स्वप्न के दर्शन भी होते हैं जैसे - वृषभ, सिंह, हस्ती, पुष्पमाल, लक्षमीदेवी, सूर्य, चन्द्र, ध्वज, कलस पदमसरोवर विमान खीरसमुद्र रत्नों की रासी और निधूम अग्नि । अतः जैनधर्म के भक्त राजा उपरोक्त चिन्हों से यथा रुची कोई भी चिन्ह अपने सिक्काओं पर अंकित करवा सकते थे और ऐसा ही उन्होंने किया है। ____ वर्तमान समय जितने सिक्के मिले हैं उनमें से बहुत से सिक्काओं पर ऊपर बतलाये हुए चिन्ह विद्यमान हैं इससे पाया जाता है कि वे नरेश प्रायः जैनधर्म के ही उपासक थे और अपने धर्म गौरव के कारण ही अपने सिक्कों पर धर्म की पहचान के लिये वे चिन्ह खुदाये गए थे। पर दुःख है कि कई विद्वानों ने उन सिक्काओं को बौद्ध धर्मोपासक नरेशों का लिख दिये । इसका मुख्य कारण यह था कि उन्होंने जैनधर्म के साहित्य का पूर्णतय अध्ययन नहा किया था। पर बाद में जब उन विद्वानों ने जैनधर्म के साहित्य का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया तो उनका भ्रम कुछ अंश में दूर हो गया जैसे मथुरा का सिंह स्तम्भ को पहला पाश्प्रत्य विद्वानों ने बोद्धधर्म का ठहरा दिया था पर बाद में उसको जैनधर्म का साबित कर दिया । इस तीर्थंकरों के चिन्ह ९६० Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ प्रकार अनेक गलतियां रह गई हैं जिसको मैं यहां पर युक्ति एवं प्रमाणों द्वारा साबित कर बतलाऊंगा कि वे निर्पक्ष विद्वान किस कारण से भ्रांति में पड़ कर जैनों के लिये इस प्रकार अन्याय किया होगा ? भारतीय धर्मों में केवल दो धर्म ही प्राचीन माने जाते हैं १--जैनधर्म २ वेदान्तिक धर्म । और ३० सं० पूर्व छटी शताब्दी में एक धर्म और उत्पन्न हुआ जिसका न'म बौद्धधर्म था जिसके जन्मदाता थे महात्मा बुद्ध । इन तीनों धर्मों में जैन और बौद्ध धर्म के आपस में तात्विक दृष्टि से तो बहुत अन्तर है पर बाह्य रूप से इन दोनों धर्म का उपदेश मिलता जुलता ही था इन दोनों धर्म के महात्मा ओं ने यज्ञ में दी जाने वाली पशु बली का खूब जोरों से विरोध किया था इतना ही क्यों पर उन दोनों महापुरुषों ने यज्ञ जैसी कुप्रथा को जड़ामूल से उखेड़ देने के लिये भागीरथ परिश्रम किया था और उसमें उनको सफलता भीअच्छी मिली थी यही कारण है कि उन महापुरुषों ने भारत के चारों ओर अहिंसा परमोधर्मः का खूब प्रचार किया अतः वेदान्तिक मत वाले इन दोनों धर्मों जैन-बोद्ध को नास्तिक कह कर पुकारते थे इतना ही क्यों पर उन ब्राह्मणों ने अपने धर्म ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर जैन और बौद्धों को नास्तिक होना भी लिख दिया और अपने धर्मानुयायियों को तो यहां तक आदेश दे दिया कि जहां जहां धर्म का प्रवल्यता है वहाँ ब्राह्मणों को सिवाय यात्रा के जाना ही नहीं चाहिये देखो 'प्रबन्ध चन्द्रोदय का ८७ वाँ श्लोक की उसमें स्पष्ट लिखा है कि अंग बंग कलिंग सौराष्ट्र एवं मगद देश में जाने वाला ब्राह्मग को प्रायश्चित लेकर शुद्ध होना होगा। पद्म पुराण में लिखा है कि कलिंग में जाने वाले ब्राह्मणों को पतित सममा नायगा। महाभारत का अनुशासन पर्व में गुजर ( सौराष्ट्र ) प्रान्तों को म्लेच्छों का निवास स्थान बतलाया है इत्यादि । इससे पाया जाता है कि इन देशों में जैन राजाओं का राज एवं जैन धर्म की ही प्रबल्यता थी। दूसरा एक यह भी कारण था कि ब्राह्मणों ने वर्ण जाति उपजाति आदि उच्च नीच की ऐसी वड़ा बन्धी जमा रक्खी थी जिसमें विचारे शूद्रों की तो घास फूस जितनी भी कीमत नहीं थी धर्म शास्त्र सुनने का तो उनको किसी हालत में अधिकार ही नहीं था यदि कभी भूल चूक के भी धर्म शास्त्र सुनले तो उनको प्राणदंड दिया जाता था और इन बातों का केबल जबानी जमा खर्च ही नहीं रखा था पर सताधारी ब्राह्मणों ने अपने धार्मिक ग्रन्थ में भी लिख दिया था देखिये नमूना । "अथ हास्य वेदमुप शृण्व तस्त्र पुजुतुम्यां श्रोतग्रति पुरण मुदारणे जिह्वाक्छेदो धारणे भेदः "गौतम धर्म सूत्रम् १९५” अर्थात् वेद सुनने वाले शूद्र के कानों में सीसा और लाख भर दिये जाय, तथा वेद का उच वारण करने वाले शूद्र की जबान काट ली जाय और वेदों को याद करने एवं छूने वाला शूद्र का शरीर काट दिया जाय। न शुद्राय मति दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्, नचास्योपदिथेद्धर्म न चास्यव्रतमादिशेत् ॥१४॥ “वाशिप्तधर्म सूत्र" अर्थात् शूद्र को बुद्धि न दें उसे यज्ञ का प्रसाद न दें और उसे धर्म तथा व्रत का उपदेश भी न दें। . इससे क्या अधिक कठोरता हो सकती है इसका अर्थ यह हुआ कि विचारे शू द्र लोग मनुष्य जन्म लेकर भी अपनी आत्मा का थोड़ा भी विकाश नहीं कर सके ? परन्तु भला हो भगवान महावीर एवं पाश्चात्यों के संस्कार ९९१ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८] [ भगवान् पाश्वनाथ को परम्परा का इतिहास महात्मा बुद्ध का कि उन्होंने उच्च नीच वर्ण जातिओं उपजातियों का फैला हुआ विष वृक्ष को जड़ा मूल से उखेड़ कर फेंक दिया और धर्म मोक्ष के लिये सबको सम भावी बनाकर सबके लिये धर्म का द्वार खोल दिया । यह केवल कहने मात्र की ही बात नहीं थी पर उन महात्माओं का प्रभाव उनके भक्तों पर इतना जल्दी एवं जबर्दस्त पड़ा कि सम्राट श्रेणिक ने अपनी शादी एक वैश्य कन्या के साथ की तथा अपनी एक पुत्री को वैश्य के साथ तब दूसरी पुत्री को शूद्र के साथ परणा दी यह प्रथा केवल राजा श्रेणिक के समय प्रचलित होकर बन्ध नहीं हो गई पर बाद में भी जैनों ने खूब जोर से जहारी रक्खी थी जैसे दूसरा नंही राजा ने दो शूद्र कन्या के साथ विवाह किया, मौर्य चन्द्रगुप्त ने यूनानी बादशाह की कन्या के साथ शादी की सम्राट अशोक विदशा नगरी के वैश्य कन्या से विवाह किया आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के क्षत्रियों और ब्राह्मणों को प्रतिबोध कर जैन बनाये उन्होंने भी ब्राह्मणों की अनुचित साता को उन्मूलन कर सबको समभावी बना दिये इसकी नींव डालने वाले भगवान महावीर ही थे और यह कार्य ब्राह्मण धर्म के खिलाफ ही थे अतः वे ब्राह्मण जैन और बौद्धों को नास्तिक माने एवं लिख दें तो इसमें आश्चर्य जैसी बात ही क्या हो सकती है उस समय एक ओर तो ब्राह्मणों की अनुचित सत्ता तथा यज्ञादि क्रिया काण्ड में असंख्य मूक प्राणियो की बली से जनता त्रासित हो उठी थी तब दूसरी और जैन एवं बोद्धों की शान्ति एवं समभाव का उपदेश फिर तो क्या देरी थी केवल साधारण जनता ही नहीं पर बड़े बड़े राजा महाराजा भगवान् महावीर के शान्ति झंडा के नीचे आकर शान्ति का श्वास लिया जिसमें भी महात्मा बुद्ध की बजाय जनता का झुकाव महावीर की ओर अधिक रहा था इसका कारण एक तो जैन धर्म प्राचीन समय से ही चलता आया था भगवान महावीर के पूर्व भ० पार्श्वनाथ के संतानिय केशीश्रमणाचाय ने बहुत सा क्षेत्र साफ कर दिया था तब महात्मा बुद्ध जैन धर्म की दीक्षा छोड़ अपना नया मत निकाला था अतः जनता का सद्भाव उनकी और कम होना स्वाभाविक था खैर कुछ भी हो पर उस समय वेक्षन्दिक धर्म बहुत कमजोर हो चुका था विद्वानों का कहना है कि यदि शृंगवंशी पुष्पमित्र ने जन्म नहीं लिया होता तो संसार में वैदिक धर्म का नाम शेष ही रह जाता यही कारण है कि जितने प्राचीन स्मारक जैन एवं बौद्धों के मिलते हैं वेदान्तियों के नहीं मिलते हैं। मेरे इस लेख का सारांश यह है कि उपरोक्त कथनानुसार श्रामण धर्म वाले जैन और बौद्ध को अपने प्रतिपक्षी एक से ही समझते थे अतः उन्होंने अपने विरोध में जैन और बौद्धों को एक ही समझ कर जहाँ जैनों की घटनाए थी उन सबको बौद्धो के नाम पर चढ़ा दी अर्थात् बौद्ध धर्म के पक्षपात ने जैनों की प्राचीनता को प्रकट करने से रोक दिया फल यह हुआ कि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदान्तियों का अनुकरण कर उन्होंने भी ऐसी ही भूल कर डाली और बहुत से जैनों के स्मारक थे उनको बौद्धों के ठहरा दिये । अब जैन और बौद्धों के विषय में भी जरा ध्यान लगाकर देखें कि जैन एवं बौद्धों का अहिंसा के विषय में उपदेश तो मिलता झूलता ही था पर जैन जैसा अहिंसा का उपदेश देते थे वैसे ही आचरण में पालन भी करते थे पर बौद्धों ने ऐसा नहीं किया बाद में वे अहिंसा का उपदेश करते हुए भी मांसाहारी बन गये यही कारण है कि जिस भारत भूमि पर बुद्ध धर्म का जन्म हुआ था उस भारत को छोड़ बौद्धो को पाश्चात्य प्रदेशों में जाना पड़ा। हाँ बौद्ध धर्म के नियम गृहस्थों के सब तरह से अनुकूल होने से वहाँ के लोनों ने ९९२ पाश्चात्यों के संस्कार Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ उनको शीघ्र ही अपनालिया श्रतः पाश्चात्य देशों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार बढ़ गया । हाँ जैन श्रमण भी पाश्चात्य देशों में अपने धर्म प्रचारार्थ सम्राट् सम्प्रति की सहायता से गये थे और अपने धर्म का प्रचार भी किया था जिसकी साबूति में आज भी वहाँ जैन धर्म के स्मारक रूप मन्दिर मूर्तियों उपलब्ध होती है। पर जैन धर्मं खास त्यागमय धर्म है इस धर्म के नियम बहुत शक्त होने से संसार लुब्ध जीवों से पलने कठिन है । यही कारण है कि पाश्चात्य लोग जितने बौद्ध धर्म से परिचित थे उतने जैन धर्म से नहीं थे इतना ही क्यों पर कई कई विद्वानों ने तो यहाँ तक भूल कर डाली कि जैन धर्म एक बौद्ध की शाखा है तथा जैन धर्म बौद्ध धर्म से निकला हुआ नूतन धर्म है। दूसरा पाश्चात्य विद्वानों को जितना साहित्य बौद्ध धर्म का देखने को मिला उतना जैन धर्म का नहीं मिला था श्रतः भारत में जितने प्राचीन स्तूप सिक्के मिले उनको बौद्धों ही ठहरा दिया। फिर वे स्मारक चाहे बौद्धों के हों चाहे जैनों के हों । और सिक्कों पर खुदे हुए चिन्हों के लिये भी चाहे वे जैन धर्म के साथ सम्बन्ध रखने वाले भी क्यों न हों पर उन विद्वानों के तो पहले से ही संस्कार जमे हुए थे कि वे युक्ति संगति एवं प्रमाण मिले या न मिले। सीधा अर्थ होता हो या इधर उधर की युक्ति लगाकर ही उन सबको बौद्धों का ही ठहराने की चेष्टा १ कर डाली । एक और भी कारण मिल गया है कि इ० सं० की पांचवी शताब्दी से सातवीं आठवीं शताब्दी तक के समय में जितने atrat यात्री भारत में आये और उन्होंने भारत में भ्रमण कर अपनी नोंध डायरी में जो हाल लिखा वे भी इसी प्रकार से काम लिया कि बहुत से जैन स्मारकों को बौद्ध के लिख दिये वे पुस्तकों के रूप में प्रकाशित होने से पाश्वात्य विद्वानों को ओर भी पुष्टी मिल गई। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि पाश्चात्य एवं पौर्वात्य विद्वानों ने यह भूल जान बूझ एवं पक्षपात् से नहीं की थी पर इस भूल में अधिक कारण जैनों का ही है कि उन्होंने अपने साहित्य को भंडारो की चार दीवारों में बान्ध कर रखा था कि उन विद्वानों को देखने का अवसर ही नहीं मिला वस उन्होंने जो इन्साफ दिया वह सब एक तरफो ही था -- जब से कुदरत ने अपना रुख जैनों की ओर बदला और विद्वानों की सूक्ष्म शोध ( खोज ) एवं जैन धर्म का प्राचीन साहित्य की ओर दृष्टिपात हुआ जिससे वे ही विद्वान लोग अपनी भूल का पश्चाताप करते हुए इस निर्णय पर आये कि जैन धर्म न तो बौद्ध धर्म से पैदा हुआ न जैन धर्म बौद्ध धर्म की एक शाखा ही है प्रत्युत जैन धर्म एक स्वतंत्र एवं प्राचीन धर्म है इतना ही क्यों पर बुद्ध धर्म के पूर्व भी जैन धर्म के तेवीसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ होगये थे और महात्मा बुद्धदेव के माता पिता भ० पार्श्वनाथ संतानियों के उपासक अर्थात् जैन धर्म का पालन करते थे विशेषतः महात्मा बुद्ध को वैराग्योत्पन्न होने का कारण ही पार्श्वनाथ संतानिये थे और बुद्ध ने सबसे पहली दीक्षा जैन श्रमणों के पास ही ली थी और करीबन ७ वर्ष आपने जैन दीक्षा पाली थी बाद जब उनका तप करने से मन हट गया तो उन्होंने अपना नया धर्म निकाला अतः बौद्ध धर्म का जन्म जैन धर्म से हुआ कह दिया जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं कही जाती है । इधर उड़ीसा प्रान्त की खण्डगिरि उदयगिरि पहाड़ियों की गुफाओं का शोध कार्य करने पर महामेघ The gains appear to have originated in sixth or seventh century of our era to have become oonspicuous in the eight or ninth century, got the highest prosperity in the eleventh and declined after the twelth." ( Elphistone History of India page 121 ) जैन धर्म प्रति अन्याय ९९३ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५२० - ५५८ ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाहन चक्रवर्ति महाराजा खारबेल का एक विस्तृत शिलालेख का पता लगा जिसको एक शताब्दि के पूरे परिश्रम द्वारा पढ़ा गया तो मालूम हुआ कि कलिंगपति खारवेल राजा जैन धर्मोपासक एवं प्रचारक था साथ में यह भी निर्णय होगया कि मगद के नन्दवंशी राजा भी जैन थे क्योंकि शिलालेख में ऐसा भी उल्लेख है। कि मगद का राजा नन्द कलिंग देश से जिन मूर्ति लेगया था वह मूर्ति पुनः राजा खारवेल कलिंग में ले श्राया था आगे उसी पहाड़ी की एक गुफा में एक पत्थर पर भगवान् पार्श्वनाथ का चरित्र भी खुदा हुआ मिला जिससे यह भी सिद्ध होगया कि भ० महावीर के पूरागामी भ० पार्श्वनाथ हुए थे अतः जैन धर्म बौद्ध धर्म से बहुत प्राचीन एवं स्वतंत्र धर्म है । आगे चल कर हम राजाओं की ओर देखते हैं कि ई० सं० पूर्व की छठी शताब्दि से लगाकर ई० सं० की तीसरी चतुर्थी शताब्दि तक थोड़े से अपवाद को छोड़ कर जितने राजा हुए वे सब सत्र जैन धर्मों ही थे केवल अशोक बौद्ध और शुंगवंशी पुष्पमित्रादि वेदान्ती थे जब राजा जैन धर्मी थे तब उनके बनाये स्मारक एवं सिक्के दूसरे धर्म के कैसे हो सकते हैं ? विद्वानों का तो यहां तक मत है कि क्या मन्दिर मूर्तियाँ, क्या स्तूप - स्तम्भ और क्या सिक्के इन सब की शुरूआत जैनों की ओर से ही हुई है दूसरे धर्म वालों ने तो जैनों की देखा-देखी ही किया है । अतः उपलब्ध सिक्काओं में अधिकांश सिक्के जैन धर्मोपासक राजाओं के बनाये हुए हैं और इस बात की साबूती उन उन सिक्काओं पर के चिन्ह ही दे रहे हैं। पाठकों की जानकारी के लिये कतिपय सिक्कों का ब्लॉक यहाँ पर देदिये जाते हैं जिससे जिज्ञासु पाठक ठीक निर्णय कर सकेगा । स्तूप - प्रकरण पिच्छले प्रकरण में हम सिकाओं के विषय में संक्षिप्त से लिख आये हैं अब इस प्रकरण में प्राचीन स्तूपों के लिये उल्लेख करेंगे । पर पहले यह कह देना ठीक होगा कि पाश्चात्य विद्वानों ने जैन साहित्य के अभाव प्राचीन सिक्काओं के निर्णय करने में भूल की थी इसी प्रकार स्तूपों के विषय भी वे सर्वथा बच नहीं गये हैं और इस भूल का कारण हमें सिक्का प्रकरण में विस्तार से बतला दिया है अतः यहाँ पर पीष्टपेषण करने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी जमाना काम करता ही रहता है बादल कितने ही घन क्यों नहीं हो पर उसमें सूर्य छीपा नहीं रह सकता है इसी प्रकार कितनी ही कल्पना की जाय पर सत्म कदापि छीपा नहीं रह सकता है । वर्तमान की शोध खोज से जैसे श्रन्योन्य प्राचीन स्मारक उपलब्ध हुए है वैसे प्राचीन स्तूप भी मिले हैं पर पाश्चात्य विद्वानों ने उन सब स्तूपों को बौद्ध धर्म के ठहरा दिये हैं किन्तु वास्तव में अधिक स्तूप जैन धर्म के ही थे । हाँ बोद्ध धर्मियों ने भी कई स्तूपों का निर्माण करवाया था पर पाश्चात्य विद्वानों के पास जैन साहित्य का अभाव होने से उन्होंने जितने स्तूप उनकी दृष्टि में आये उन सब को ही बौद्ध धर्म के छाने लिख दिये। यह एक जैनों के लिये बड़ा से बड़ा अन्याय कहा जा सकता है। फिर भी हम इतना कह सकते हैं कि उन विद्वानों ने यह अन्याय जानबूक एवं पक्षपात से नहीं किया था पर जैन धर्म के विषय जितने साधन श्राज उनको मिले हैं उतने उस समय नहीं मिले थे यही कारण है कि श्राज कई विद्वानों ने उसमें हुई भूल का पश्चाताप करते हैं जो जो स्तुप जैनों के हैं उनको स्वीकार भी करते हैं। पाठकों की ९९४ स्तूप - प्रकरण Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६२०-६५८ जानकारी के लिये एवं हिन्दी भाषा भाषियों के लिये कतिपय प्राचीन स्तूपों के लिये यहाँ पर उल्लेख कर दिया जाता है। १-मथुरा का-सिंह स्तूप जिसकों विद्वानों ने 'लाइन केपोटल पीलर' नाम से बोलनाया है पहले तो इस स्तूप को विद्वानों ने बोद्धधर्म का ठहरा दिया था पर बाद में सूक्षम दृष्टि से शोध खोज की तो उनका ध्यान जैनधर्म की ओर पहुँचा और उन्होंने यह उद्घोषना कर दी कि यह प्राचीन स्तूप जैन धर्म का है इतना ही क्यों पर विद्वानों ने यहाँ तक पता लगाया कि इस स्तूप की प्रतिष्ठा मथुरापति महाक्षत्रय राजुबाल की एक पट्टराणी ने बड़े ही समारोह से करवाई थी और उस प्रतिष्टा महोत्सव में क्षत्रय नहपाण और महाक्षत्रय राजा भूमक को भी आमंत्रण दिया था और उस महोत्सव में सभापति का आसन नहपाण ने ग्रहण किया था पाठक समझ सकते हैं कि यदि प्रस्तुत स्तूप बौद्धों का होता या क्षत्रय महाक्षत्रय राजा बौद्ध धर्मी होते तो जैनधर्म का इतना विशाल स्तूप बना कर वे कब प्रतिष्ठा करवाते ? अतः अब इस कथन में किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता कि क्षत्रप-महाक्षत्रप वंश के राजा जैनधर्मोपासक थे और उन्होंने अपने धर्म के गौरव को बढ़ाने के लिये ही स्तूप बना कर बड़े ही महोत्सव के साथ प्रतिष्टा करवाई थी। यहाँ पर मैं एक दो पाश्चात्य विद्वानों के शब्द ज्यों के त्यों उन्धृत कर देता हूँ। डा-फ्लट साब ने कहा है कि The prejudice that all stipes and stone railings, must necessarily be Buddhist has probably prevented the recognition of Jain sfructures as such, and up to the present only two undonbted Juin stupas have been recorded. अर्थात् समस्त स्तूप और पाषाण के कटधरे अवश्य बोद्ध ही होना चाहिये इस पक्षपात ने जैनियों द्वारा निर्मापित स्तूपों आदि को जैनों के नाम से प्रसिद्ध होने से रोका और इसलिये अब तक निःसन्देह रूप में केवल दो ही जैनस्तूपों का उल्लेख किया जा सकता है। पर मथुरा के स्तूप ने निस्संदेह उनके भ्रम को दूर कर दिया है। स्मिथ साहब लिखते हैं । In some cases, monument which are really Jain, have been erroneously deseri ted as Buddhist. By Doctor poorer Sahib * The Stupa was so ancient that at the time when the inscription was incised, its origin had been forgotten. Onthe evidence of the cbaracters, the date of the inscription may be referred with certainty to the Indo Scythian era and is equivalent to A. D.156 * The Stupa must therefore have been built several centuries before the begining of the Christian era, for the name of its builders would assuredly have been known it it had been erected during the period when the Jains of Mathura carefully kept record of their donations" ( Mesum Report 1890-91) जैनधर्म के स्तूप ९९५ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० पू० ५२०-५५८ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अर्थात् कहीं कहीं यथार्थ में जैन स्मारक गलती से बोद्ध वर्णन किये गये हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि विद्वानों ने कई जैनों के स्मारकों को बोद्धों के ठहरा दिये गये थे पर हम लिख आये हैं कि सत्य छीपा नहीं रहता है । मथुरा में यह एक ही स्तूप जैनों का नहीं था पर जैन शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि एक समय मथुरा में जैनों के सैंकड़ों स्तूप एवं जैन मंदिर थे और जैनाचार्य बड़े बड़े संघ लेकर मथुरा की यात्रा करते थे जैनाचायौँ ने मुथरा में कई बार चतुर्मास भी किये थे और कई बार वादियों से शास्त्रार्थ कर विजय भी प्राप्ति की थी। जैनों में आगम वाचना का बड़ा ही गौरव है और एक वाचना मथुरा में भी हुई थी जो वर्तमान में जैनागम है वह मथुरा वाचना के नाम से खुब प्रसिद्ध है जैनों के अनेक गच्छ है उसमें मथुरा गच्छ भी एक है इससे पाया जाता है कि एक समय मथुरा में जैनों की बहुत अच्छी आवादी थी और उस समय मथुरा एक जैनों का केन्द्र समझा जाता था वर्तमान मथुरा का कंकाली टीला का खुदाई काम से बहुत सी प्राचीन मूर्तियाँ स्तूप अयगपट्ट आदि स्मारक चिन्ह-खण्डहर मिले हैं अतः मथुरा से मिला हुश्रा प्राचीन स्तूप जैन धर्मियों के बनाया हुआ अर्थात् जैनों का गौरव प्रकट करने वाला स्तूप है । मथुरा के लिये पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। -सांचीपुर स्तूप-यह स्थान प्रावंती प्रान्त में आया हुआ है । श्रावंति (मालवा) प्रान्त दो विभागों में विभाजित हैं १-पूर्वावंती २-पश्चिमावंती। जिसमें पश्चिम की राजधानी उज्जैन नगरी तब पूर्व की राजधानी विदिशा नगरी थी। विदिशा नगरी उस समय खूब धन्य धान्य समृद्ध एवं व्यापार की मंडी गिनी जाती थी विदिशा के पास में ही सांचीपुरी आ गई है वहाँ पर जैनों के ६०-६२ स्तूप हैं जिसमें बड़ा से वडा स्तूप ८० फिट लम्बा ७० फिट चौड़ा तथा छोटा से छोटा स्तूप ३० फिट लम्बा और २० चौड़ा इतने विशाल संख्या में एवं विशाल स्तूप होने से ही इसका नाम संचयपुरी सांचीपुर हुआ था और एक समय इस सांचीपुरी को जैन अपना धाम तीर्थ भी मानते थे पास में ही विदिशानगरी थी और उस विदिशा नगरी में भ० मह वीर के मौजूद समय की महावीर मूर्ति भी थी जिसकी यात्रार्थ साधारण जैन ही नहीं पर बड़े बड़े प्राचार्य महाराज भी पधार कर यात्रा करते थे इस विषय के जैन श स्त्रों में यत्र तत्र उल्लेख भी मिलते हैं एवं एक समय आर्य महागिरि और आर्य सुहस्तिसूरि विदिश नगरी में उन स्तूप और जीवित भगवान की मूर्ति के दर्शनार्थ पधारे थे जैसे "दो वि जण वतिदिसं गया तत्थ जियपडितमं वंदिता, अज्ज महागिरी एलकच्छ गया, गयग्गपथ वंदिया, तस्स एलकच्छं वामं तं पूब्वं दंसाण्णपुरं नयर आसी,+ ++ ताहे दंसाण्णपुरस्स, एलकच्छ नामजायं तत्थ गयग्गपयगो पब्बओ+++तत्थ महागिरी भतं पच्चक्ख देवतंगया+ x सुहत्थी वि उज्जेणि जियपडिमंबंदिया" "आवश्यक सूत्र चूर्णि" इस लेख से पाया जाता है कि विदिशा एवं सांचीपुरी जैनों का एक धाम तीर्थ था । उज्जैन नगरी से पूर्व दिशा करीब ८०-९० मील के फासले पर विदिशानगरी थी और उज्जनी नगरी से विदिशा का महत्त्व कम नहीं पर किसी अपेक्षा अधिक था यही कारण है कि सम्राट् सम्प्रति का जन्म उज्जैनी में हुआ कई अर्या तक उज्जैन में रहकर राजतंत्र चलाया पर बाद में उसने अपनी राजधानी उज्जैनी से उठा कर विदिशा में . ९९६ सांचीपुर के स्तूप Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास Education International सांची में भगवान् महावीर के मूल स्तूभ का दृश्य सांची में महावीर स्तूभ का मूल सिंह द्वार का दृश्य ( शशिकान्त एण्ड कम्पनी बड़ोदा के सौजन्य से ) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२० - ९५८ गया था और कई जैन शास्त्रों में तो यहां तक भी लिखा मिलते है कि आचार्य सुहस्तिसूरि ने राजा सम्प्रति को जैनधर्म की दीक्षा विदिशा नगरी में ही दी थी जैसे कि " अण्णाय आयरिय वितिदिसं जियपडिमं वंदिया गतः तत्थ रहगुज्जाते रण्णा घरं रहवरि ति संपतिरण अलइय गएण अज्जसुहत्थी दिट्ठों जाइसरण जातं आगच्छे पडितो पच्चट्टिओ विणओणओ भांति भयवं अहंतेहिं दिट्ठों ? सुमरह | आयरिया उपउत अमंदिठो तुमं मम सिसो आसी पूव्व भवो कहीतो आउठो धम्मं पडिवणो अतिव परस्परंणे जातो" " निशीथ चूर्णि” इस लेख से पाया जाता है कि आचार्य सुहस्तिसूरि ने सम्राट् सम्प्रति को सबसे पहला जैनधर्म की दीक्षा विदिशा नगरी में ही दी थी। पर कई-कई स्थानों पर उज्जैनी नगरी भी लिखी मिलती है। इसका कारण यह हो सकता है कि राजा सम्प्रति का वर्णन बहुत करके उज्जैन नगरी के साथ ही आया करता है अतः लेखकों ने उज्जैन नगरी का ही उल्लेख कर दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । अब इस बात को देखना चाहिये कि राजा सम्प्रति उज्जैन नगरी को छोड़ अपनी राजधानी विदिशा क्यों लेगया होगा ? कारण बिना कोई खास कारण के उज्जैनी जैसी प्रसिद्ध नगरी छोड़ी नहीं जा सकती है । जिसमें भी राजा सम्प्रति का जन्म उज्जैनी में तथा उज्जैन में रहकर सौराष्ट्र एवं महाराष्ट्र जैसे देशों पर विजय की और भी भारत का राजतन्त्र चलाने में उज्जैन नगरी सर्व प्रकार से अनुकूल होने पर भी विदिशा नगरी में राजधानी क्यों ले गया था ? इसके लिये कोई जबरदस्त कारण अवश्य होना चाहिये ? इन सब बातों का विशेष कारण सांचीपुरी के स्तूपों का संचय एवं भ० महावीर का सिंह स्तूप ही हो सकता है । इस विषय में डा० त्रिभुवनदास लेहरचन्द शाह बड़ोदा वाला अपना 'प्राचीन भारत वर्ष' नामक पुस्तक में अनेक दलीलों और प्रमाण एवं युक्तियों के साथ लिखा है कि भ० महावीर का निर्वाण इसी स्थान पर हुआ था और आपके शरीर का अग्नि संस्कार के स्थान पर ही यहां भक्त भावुकों ने सिंहस्तूप बनाया था और यह स्तूप स्थल विदिशा नगरी के ठीक पास में आने से विदिशा का एक पूरा एवं वास तरीके समझा जाता था जैसे विदिशानगरी के नाम वेशनगर पुष्पपुरनाम थे वैसे ही सांचीपुर भी एक नाम था और इस धाम तीर्थ की यात्रार्थ बड़े २ जैनाचार्य यात्रार्थ श्राया करते थे जैसे श्रर्थ्य महागिरी और सुहस्तीसूरि श्राये थे इनके अलावा शाह यह भी लिखता है कि सर कनिंगहोम के मतानुसार मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त ने सांचीपुर के स्तूप में दीपकमाल हमेशा होती रहे उसके लिये पचवीस हजार सोना मुहरों का दान दिया था जिसके करीबन पांच लक्ष रुपये हो सकते हैं इस रकम के ब्याज में उस स्तूप में हमेशा दीपक किये जाय इससे पाया जाता है कि वहां कितनी बड़ी संख्या में दीपक होते होंगे ? यही बात हमारे कल्पसूत्र और दीपमालका कल्पादि ग्रंथों में लिखी हुई मिलती है कि भगवान् महावीर का कार्तिक अमावस्या की रात्रि में निर्वाण हुआ था उस समय भक्त लोग ने सोचा कि आज भाव उद्योत चला गया है अतः हम दोपक्रमाला करके द्रव्य उद्योत करेंगे और ऐसा ही उन्होंने किया तथा यह प्रवृति एक दिन के लिए तो अद्यावधि भी चली श्र रही है यदि उस समय भक्त लोगों ने हमेशा के लिये दीपक करते हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है सन्नाट् चन्द्रगुप्त ने इतनी बड़ी रकम सदैव दीपक के लिये ही दी होगी । यदि वर्तमान में मानी जाने बाली मगद देश की पावापुरी में ही भ० महावीर का निर्वाण हुआ होता तो मगद का सम्राट् मगद देश भ० महावीर का निर्वाण ९९७ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्षं ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की पारी को छोड़ अति दूर आवंति प्रदेश में जाकर इतना बड़ा दान केवल दीपक के लिए कभी नहीं देता । दूसरी शाह ने एक बात और भी लिखी है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त ने विदिशा नगरी के पास सांचीपुर में एक राजमहल बनाया था और वर्ष भर में कुछ समय इस निर्वृति स्थान में आकर रहता भी था इससे भी यही सिद्ध होता है कि सांचीपुर के स्तूप जैनों के लिये एक तीर्थधाम अवश्य माना जाता था कारण मगद जैसे दूर देश में रह कर भारत का राजतंत्र चलाने वाला एक सम्राट् राजमहल बना कर निर्वृति स्थान में रहे वह विशेष तीर्थ धाम अवश्य होना चाहिये इतिहास से यह भी पता मिलता है कि सम्राट् अशोक भी सांचीपूर की यात्रार्थ आया था उस समय विदिशा नगरी धन धान्य से समृद्ध एवं व्यापार की बड़ी मंडी थी इतना ही क्यों पर विदिशा के एक व्यापारी सेठ की कन्या के साथ सम्राट् अशोक ने विवाह भी किया था शायद कोई व्यक्ति यह सवाल करे कि अशोक बौद्ध धर्मी था वह जैन तीर्थ की यात्रार्थ कैसे आया होगा ? उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सम्राट् अशोक के पिता बिन्दुसार और पितामाह सम्राट् चन्द्रगुप्त कट्टर जैन धर्मोपासक थे अतः उनके घर में जन्म लेने वाला पुत्र जैन हो इसमें नई बात नहीं समझी जाती है हाँ बाद में अशोक बौद्ध धर्म का स्वीकार किया था यदि बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पूर्ण अशोक सांचीपुरी यात्रार्थ गया हो तब तो कोई सवाल ही नहीं है यदि बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद भी गये हो तो भी उनके पिता पितमाहा का धर्म तीर्थ पर जाय इसमें कोई विरोध की बात नहीं तथा अशोक बौद्ध होने पर भी जैन श्रमणों का अच्छा आदर सत्कार करता था अतः अशोक का सांचीपुर यात्रार्थ जाना यथार्थ ही था । देखिये - प्रोफेसर कर्न लिखते हैं । "His (Asoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agree much more closely with the ideas of heretical gains than those of the Buddhist. १ -- कल्हण कवि जो ग्यारवीं शताब्दी का विद्वान अपनी संस्कृत भाषा की राजतरंगिण नामक ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में लिखा है कि अशोक ने कश्मीर में जैन धर्म का अच्छा प्रचार किया "य: शान्तवृजिनो राजा प्रपन्नोजिनशासनम्, शुष्कलेऽत्र वितस्ताचो तस्तर स्तूप पण्डले " The Bhilsa topes. P. 154 :-- His (Chandragupta's gift to the Sanehi tope for its regular illumination and for the perpetual service of the sharamans or ascetices was no less a sum then twenty-five thousand Dinnars ( £ 25000 is equal to two lacs and a half rupees ) Chandragupta was a member of the Jain community (from R. A. S. 1887 P. 175 Ín:--- आगे चल कर यह भी कहा गया है कि 'जगचिन्तामणि' चैत्यवन्दन में 'जय उवीर सच्च उरि मण्डया' ऐसा उल्लेख आया है जगचिन्तामणि' का चेत्यवन्दन गणधर गौतम स्वामी ने अष्टापद की यात्रा के समय निर्माण किया था शायद् 'जयउसामि' वाला पाठ पिच्छे भी मिलाया हो तो भी उसके प्राचीन होने में तो किसी प्रकार का सन्देह नहीं हो सकता है इस चैत्यवन्दन में सच्चाउरि मण्डण महावीर का तीर्थ को नम - स्कार किया है उस संचउरि को मारवाड़ का साचौर ही समझा जाता था । कारण वहाँ महावीर का मंदिर है और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य जिनप्रभसूरि ने अपने विविध तीर्थ कल्प में मारवाड़ के साचौर का ९९८ सम्राट अशोक को जैन Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ चमत्कारिक वर्णन भी किया है पर पट्टावलियादि ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि साचौर में महावीर का मन्दिर कोरंटपुर का मंत्री नाहड़ ने वीर की छटी शताब्दी में बनाया था और जिस समय यह मन्दिर बनाया था उस समय तो यह एक ग्राम का मन्दिर ही कहा जाता था यदि साचौर का मन्दिर को ही तीर्थ रूप समझा जाय तो उससे भी प्राचीन समय में ओसियां और कोरंटपुर के महावीर मन्दिर चमत्कार से बने हुए थे उनको भी तीर्थों की गनती में गि ते श्रतः जग चिन्तामणि का चैत्यवन्दन में 'जयवीर 'चउरि ' मण्डण वाला स्थान मारवाड़ का साचौर नहीं पर विदिशानगरी का सांचीपुर ही होना चाहिये और इसके लिये उपर बतलाये हुए प्रमाणों में श्रा महागिरी और सुहस्तीसूरि का यात्रार्थ जाना, सम्राट चन्द्रगुप्त का वहाँ दीपक के लिये बड़ा भारी दान देना तथा वहाँ राज महल बना कर कुच्छ समय निर्वृति से रहना । सम्राट् अशोक का भी यात्रार्थ जाना, सम्राट् सम्प्रति का उज्जैन को छोड़ अपनी राजधानी विदिशा में ले जाना इत्यादि ऐसे कारण है कि विदिशा एवं सांचीपुर को सहज ही में एक धाम तीर्थ होना साबित करते हैं । धारानगरी का महा कवि धनपाल एक जैनधर्म का परम भक्त श्रावक था जब धनपाल और घरा पति राजा भोज के आपस में मनमल्यनता हो गई तो धनपाल धारा का त्याग कर सांचौर - सत्यपुर में जाकर महावीर की भक्ति की और वहाँ पर इस विषय के प्रन्थ भी बनाया। इसके लिये भी बहुत लोगों की ही मान्यता है कि धनपाल मारवाड़ के साचौर में रहा था पर अब इस बात में भी विद्वानों को शंका होने लगी है कारण धनपाल मालवा का रहने वाला और मालवा में सांचीपुरी भ० महावीर का एक प्रसिद्ध तीर्थ जिसको छोड़ वह मारवाड़ के साचौर में जाय यह संभव नहीं होता है जब कि मगद देश में राज करने वाला सम्राट् चन्द्रगुप्त निर्वृति के लिया सांचीपुरी आया था तब पं० धनपाल के तो पास ही में सांचीपुरी थो वह वीर तीर्थ सांचीपुरी को छोड़कर मारवाड़ के सांचौर में कैसे जा सकते । इस समय रेल्वा तथा पोस्ट वगैरह के साधनों से मारवाड़ का साचौर भले प्रसिद्ध हो पर पहले जमाना में तो इसकी प्रसिद्धि भी शायद ही मालवा प्रान्त तक हो खैर कुच्छ भी हो पर पं० धनपाल मारवाड़ की अपेक्षा मालवा की सांचीपुरी जाना विशेष प्रमाणित हो सकता है । विशेष में एक यह भी बतलाया गया है कि भारत में कई विदेशी लोग यात्रार्थये करते थे जिसमें चीनी लोगों के लिये अधिक प्रमाण मिलते हैं क्योंकि १ - त्रीनी फहियन ( इ० सं० ४११ ) २ – सँगयुन ( इ० सं० ५१८ ) ३ - इत्संग ( इ० सं० ६७१) ४ - हुयंत्सग ( इ सं० ६७५ ) में भारत में श्राये थे और ये चारों चीनी बोद्ध धर्म को मानने वाले थे और इनका आना भी बोद्ध धर्म के प्राचीन स्मारकों की शोध खोज करने का ही था और उन्होंने अपने २ समय भारत में भ्रमन कर जो कुछ बोद्ध धर्म सम्बन्धी उनको जानने योग्य मिला उनकी उन्होंने अपनी डायरी में नोंध करली थी और बाद अपने देश में जाकर उन लब्धपदार्थों को एक स्थान लिपिबद्ध करने को पुस्तक के रूप में लिख ली थी और वे पुस्तकें वर्तमान में मुद्रित भी होगई उनकी पुस्तकों में बहुत कुछ वर्णन मिलता है, पर सांची स्तूप के लिये थोड़ा भी ईशारा नहीं मिलता हैं कि सांची में बोद्ध धर्म का कोई भी स्तूप है। यदि सांची के स्तूप बोद्ध धर्म के होते तो वे चीनी मुशाफिर अपनी डायरी में नोट करने से कभी नहीं चूकते ? शायद कोई सज्जन यह सवाल करें कि वे चीनी यात्रु सांची एवं मालवा में भ्रमन नहीं किया हो ? भला चीनी यात्री भारत में ९९९ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यह कब हो सकता है तथा मालवा कोई भारत के एक कोने में छिपा हुआ प्रान्त नहीं है तथा सांची में कोई एक दो छोटा बड़ा स्तूप नहीं कि उनके कानों या नजरों से छिपा रह सके दूसरा उनको पुस्तकों में मालवा प्रान्त के बोद्ध स्तूपों का उल्लेख भी मिलता है पर सांची स्तूप के लिये थोड़ी भी जिक्र नहीं मिलती है इससे स्पष्ट हो जाता है कि बोद्ध धर्म को मानने वाले मालवा प्रान्त में गये थे पर सांची के स्तूपों को उन्होंने बोद्धधर्म के नहीं पर जैनधर्म के समझ कर अपनी डायरी में नौंध नहीं की थी इससे सांची के स्तूप जैनधर्म के होने ही स्पष्ट सिद्ध होते हैं। इनके अलावा सांची स्तूप में कई कटघरों पर 'महाकाश्यप' नाम भी खुदे दृष्टि गोचर होते हैं यह भ० महावीर के बंश की स्मृति करवा रहे हैं भ० महावीर का काश्यपगोत्र था जब समान पुरुषों के लिये काश्यप शब्द काम में लिया जाता तब महापुरुषों के लिये महा काश्यप लिखा हो तो यह यथार्थ ही कहा जा सकता है। इत्यादि प्रमाणों एवं सबल युक्तियां द्वारा प्रामान् शाह ने अपनी मान्यता को परिपुष्ट कर बतलाई है । और आपका विश्वास है कि भ० महावीर का निर्वाण इसी प्रदेश में हुआ था और आपके मृत शरीर का अग्नि संस्कार के स्थान भक्त लोगों ने जो स्तूप बनाया था वही मूल स्तूप सिंह स्तूप के नाम से श्रोल स्नाया जाता है। श्रीमान् शाह के कथन में कई लोग यह सवाल पैदा करते है कि यदि भ० महावीर का निर्माण विदिशा नगरी में हुआ माना जाय तो फिर बर्तमान जैन समाज की मान्यता पूर्वदेश की पावापुरी की है यह क्यों और कब से हुई ? जब कि कल्पसूत्र जैसे प्राचीन ग्रंथों में लिखा मिलता है कि पावा परी के हस्तपाल राजा की रथशाला में भगवान महावीर ने अन्तिम चतुर्मास किया और वहीं पर आपका निर्वाण हुआ तथा विक्रमीय सोलहवी शताब्दी के विद्वानों ने भी यही कहा कि "पूर्वदिशी पावापुरी, ऋद्धि भरीरे, मुक्ति गये महावीर, तीर्थ ते नमूरे" इत्यादि इस सवाल के उत्तर में शाह समाधान करता है कि पूर्व दिशा का मतलब पूर्व देश से नहीं पर उज्जैन नगरी से है कारण विदिशा नगरी उज्जैन से पूर्व दिशा में है और भगवान महावीर जैसे महान पुरुष के देह का दाहन होने से उस नगरी को पापापुरी कही है (शायद उस समय वहाँ हस्तपाल नाम का कोई राजा राज करता हो) अब वर्तमान की मान्यता के लिये यह समझना कठिन नहीं है कि भारत में कई बार ऐसे ऐसे महा भयंकर जम संहारक दुकाल पड़े थे कि कई नगर स्मशान बन गये थे और बाद में कई नये नगरों का निर्माण हो गये थे और यात्रु लोगों की सुविधा के लिये कई स्थापना नगरियों भी मान ली गईथी जैसे भ० वासपूज्य का निर्वाण अंगदेश को चम्पानगरी में हुआ था पर वर्तमान में मगद देश की चम्पानगरी को बारहवें वासपूज्य तीर्थकर की कल्याण भूमि समझ कर यात्रा करते हैं जब कल्याणक भूमि का तीर्थ था अंगदेश की चम्पानगरी में परन्तु यात्रु लोगों की सुविधा के लिये मगद देश की चम्पा को ही अंगदेश की चम्पानगरी मान ली है इसी प्रकार भ० ऋषभदेव का जन्म कल्याणक अयोद्या नगरी में हुआ था और उस अयोद्या के पास अष्टापद् तीर्थ होना शास्त्र में लिखा है तब वर्तमान में पूर्व देश की अयोद्या को ही ऋषभदेव के जन्म कल्याणक मान लिया गया है इसी प्रकार नाम की साम्यता के कारण विदिशा की पावापुरी के स्थान पूर्वदिशा की पवापुरी को भ० महावीर का निर्वाण कल्याणक भूमि मान ली हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है. और सोहलवीं शताब्दी में रची गई कवितो में उस समय का प्रचलित स्थान को ही तीर्थ लिखा हो तो यह भी संभव भ० महावीर की निर्वाण भूमि Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, Jateducation International भगवान महावीर के भक्त कौशलपति RYPNOT HERETTER cint 4011 HON PLE a SAMA । Frrul IN unt LORTUAL PANथा FREEEEEEEEEEEEEE राजा प्रसेनजित सम्राट् अजातशत्रु का बनाया स्तम्भ ' राजा प्रसेनजित का बनाया स्तम्भ ( शशि कान्त एण्ड कम्पनी बड़ोदा के सौजन्य से) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ हो सकता है अत: उस पर इतना जोर नहीं दिया जा सकता है पर ऐतिहासिक प्रमागों की ओर देखा जाय तो भ० महाबीर की निवार्ण भूमि के लिये जितने प्रमाण विदिशा एवं सांची नगरी के लिये मिलते हैं उतने पूर्व दिशा की पावापुरी के लिये नहीं मिलते हैं। श्रीमान् शाह की उपरोक्त मान्यता अभी तक जैन समाज में सर्वमान्य नहीं हुई इतना ही क्यों पर कई लोग उपरोक्त मान्यता का विरोध भी करते हैं और ऐसा होना किसी अपेक्षा से ठीक भी है कारण चिरकाल से चली आई मान्यता एवं जमे हुए संस्कारों को एकदम बदल देना कोई साधारण बात नहीं है पर शाह की शोध खोज ने इतिहास क्षेत्र पर एक जबर्दस्त प्रकाश डाला है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है फिर भी इस बात को में भ० महावीर के अन्तिम बिहार पर ही छोड़ देता हूँ कि वे अपने अन्तिम वर्ष का बिहार किस ओर किया था जिससे पता लग जायगा कि आपका अंतिम चतुर्मास तथा निर्वाण पूर्व देश की पावापुरी में हुआ था या आवंती प्रदेश की विदिशा नगरी की पावापुर में ? सांची स्तूप-के विषय चाहे भ० महावीर का निर्माण विदिशा की पावापुरी में हुआ हो चाहे. पूर्व देश की पावापुरी में हुआ हो पर वे स्तूप भ० महावीर के नाम पर बनाये गये हैं इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है कारण एक पूज्य पुरुष की स्मृति के लिये एक स्थान पर ही नहीं पर अनेक स्थानों पर स्मारक खडे कराये जा सकते हैं। ३-भारहूत स्तूप-यह स्तूप अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी के पास इस समय खडा है परन्तु चम्पा नगरी के स्थान इस समय भारहूत नाम का छोटा सा प्राम ही रह गया है इस कारण से उस स्तूप का नाम भारहूत रखा गया है और इस स्तुप के लिये डॉ-सर कनिंगहोम ने एक पुस्तक लिखकर खुब विस्तार से अच्छा प्रकाश डाला है पर सर कनिंगहोम ने भारहूत स्तूप को भी बोद्ध धर्म का स्तूप होना लिख दिया है जो वास्तव में वह स्तूप जैन धर्म का है । इसके लिये यह प्रश्न होना स्वभाविक ही है कि जब स्तूप जैन धर्म का है सब निर्पक्ष पाश्चात्यों ने उस स्तूप को बौद्धों का होना क्यों लिख दिया होगा ? इसके लिये मैंने सिक्का-प्रकरण में ठीक विस्तार से खुल्लासा कर दिया है कि पाश्चात्य विद्वानों की इस भूल का खास कारण उनके पास उस समयजैनधर्म के साहित्य का अभाव ही था और बोद्धधर्म केलिये उनके मनमन्दिर में पहले से ही सजड़ संस्कार जमे हुए थे अतः उन्होंने एक भारहूत स्तूप ही क्यों पर जितने प्राचीन स्तूपादि जो कुछ स्मारक मिला उन संवकों बोद्धों के ही ठराय दिये-पर खयाल करके देखा जाय तो प्रस्तुत स्तूर के साथ बौद्धों का थोड़ा भो सम्बन्ध नहीं था पर जैनधर्म का घनीष्ट सम्बन्ध पाया जाता है जैसे प्रथम तो चम्पानगरी जैनों के बारहवाँ तीर्थङ्कर की निर्वाण कल्याणक भूमि एक धाम तीर्थ रूप है जैसे मष्टापद शिखर गिरनार पावापुरी यात्रा के धाम है वैसे चम्पानगरो भी है । दूसरा श्रीमान् शाह के कथनानुसार भ० महावीर को केवल ज्ञान भी इसी प्रदेश में हुआ था यही कारण है कि सम्राट् अजातशत्रु आपनी राजधानी मगर देश से उठाकर चम्पानगरी में लाया था इनना ही क्यों पर इतिहास से यह भी पता मिलता है कि कौशल पति राजा प्रसेनजित चम्पानगरी में आकर भ० महावीर की रथयात्रा का महोत्सव किया था जिसमें भ० महावीर की सवारी निकाली उस समय रथ के अश्व एवं बलद न जोत कर भक्ति से श्राप स्वयं रथ को खेंचा था और राजा ने अपनी ओर से एक स्तम्भ भी बनाया था सत्राट कूणिक ने भी इस धाम तीर्थ की भक्ति भावना कर वहां पर एक स्तम्भ आपने भी बनाया जिस पर अपने नाम का शिलालेख भी खुदवाया जो भाज भी "भगवान वंदे. अजातशत्रुः विद्यमान है अतः चम्पानगरी जैनों का एक धाम तीर्थ हाने में मारहुत स्तप Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता है जब उपरोक्त ऐतिहासिक प्रमानों से चम्पानगरी जैन तीर्थ सिद्ध हो गया तो वहाँ का स्नूप किसका हो सकता है ? पाठक! स्वयं विचार कर सकते हैं जब बोद्ध साहित्य में चम्पा नगरी के प्रति कोई भी ऐसा सम्बन्ध नहीं पाया जाता है कि जिसके जरिये भारहूत स्तूप का बौद्ध स्तूप ठहराया जा सके ? इत्यादि कारणों से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि चम्पापुरी जैनों का एकधाम तीर्थ है और जैन लोग प्राचीन समय से अद्यावधि चम्पानगरी को तीर्थों की गणना में गिनते भी है जैसे जैन लोग हमेशा तीर्थों का वन्दन करते हैं जिसमें बोलते हैं कि "अष्टापद श्री आदि जिनवर, वीर पावापुरी वरो, वासपूज्य चम्पानगरी सिद्धा, नेम रेवा गिरित्ररो सम्मेत शिखरे वीस जिनवर, मोक्ष पहुत मुनिवरो, चौवीस जिनवर नित्यवन्दू सकल संघे सुख करो" इस कथनानुसार चम्पापुरी तीर्थ होने से जैन स्तूप ही हो सकता है । चम्पापुरी भ० महावीर की केवल कल्याणक की भूमि होने में श्रीमान् शाह का कथन सर्वमान्य नहीं हुआ है पर इसमें किसी का भी मतभेद नहीं है कि चम्पापुरी जैनधर्म का एक तीर्थ है यदि शाह का कथन प्रमाणों द्वारा सिद्ध हो जायगा तो एक विशेषता समझी जायगी। कुछ भी हो पर चम्पानगरी के पास आया हुआ भारहूतादि स्तूप जैनो के होने में किसी प्रकार की शंका नहीं है । ४-अमरावती स्तप-यह स्तुप बड़ा ही विशाल है और महाराष्ट्र प्रान्त अर्थात दक्षिण भारत में आया हुआ है जहां बेनाकटक की राजधानी अमरावती थी और सम्राट महामेघवाहन चक्रवर्ती राजा खारबेल ने अपनी दक्षिण विजय के उपलक्ष में अड़तीस लक्ष द्रव्य व्यय करके विजय महा चैत्य बनवाया था इस विषय का उल्लेख सम्राट का खुदाया हुश्रा विस्तृत शिलालेख में भी मिलता है जो उड़ीशप्रान्त की खण्डगिरि पहाड़ी की हस्ती गुफा से प्राप्त हुआ था सम्राट खारबेल के जैन होने में तो अब किसी विद्वानों में दो मत नहीं हैं वे एक ही स्वर से स्वीकार करते हैं कि सम्राट् खारवेल जैन नरेश था उसका बनाया हुआ महाविजय चैत्य (स्तूप) दूसरा धर्म का हो ही नहीं सकता है तथापि कई विद्वानों ने इस स्तूप को भी बोद्धधर्म का होना लिख मारा है इसका मूल कारण हम सिक्का प्रकरण में लिख आये हैं कि उन विद्वानों के पास जैनधर्म सम्बन्धी साहित्य का ही अभाव था और उन्होंने वेदान्तियों के अलावा जितने स्मारक मिले उन सबको एक बौद्धों का ठहरा देने का अपना ध्येय ही बना लिया था फिर वे दूसरे धर्म की शोध-खोज ही क्यों करे जबकि वे उस समय जैनधर्म का स्वतंत्र अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते थे तब जनधर्म के स्मारकों का होना तो मान ही कैसे सकते । खैर, वर्तमान में तो सूर्य के सहश प्रकाश हो चुका है कि एक समय भारत के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक जैनधर्मी राजाओं का ही राज था तब उनके बनाये स्तूप एवं उनके पडाये सिक्के जैनधर्म का गौरव बढ़ाने वाला हो तो इससे थोड़ा भी आश्चर्य करने की क्या बात है। ___ इस प्रकार भारत में जैन धर्मी राजाओं के कराये बहुत से स्तूप एवं मन्दिर मूर्तियों अयगपट्ट स्तम्भो एवं सिक्काओं वगैरह बहुत प्राचीन साधन उपलब्ध हुए हैं पर स्थानाभाव हम सब का उल्लेख कर नहीं सकते हैं पर यहाँ पर तो केवल नमूना के तौर पर केवल चार स्तूप के विषय में ही संक्षिप्त से उल्लेख कर दिया है अतः पाठक अपना अभ्यास बढा कर इस प्रकार ऐतिहासिक पदार्थों की शोध खोज कर जैनधर्म के गौरव को बढ़ावें-इत्यादि। वर्तमान समय में इतिहास युग है विद्वान वर्ग इस कार्य के लिये तन मन और धन का व्यय कर पूरे अमरावती स्तूप - Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, सम्राट् सम्प्रतिका बनाया हुआ सिंह स्तम्भ Education International Sahya सम्राट खारबेल का बनाया हुआ अमरावतो का महाविजय चैत्यं ( शशिकान्त एण्ड कम्पनी बड़ोदा के सौजन्य से ) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ जोश के साथ इतिहास का कार्य कर रहे हैं और इतिहास के साधनों से उन्होंने अनेक नयी नयी बातों को जानी है पर जैन समाज का इतिहास की ओर बहुत कम लक्ष है और इस कार्य में बहुत कम सज्जन दिलचस्पी रखते हैं अधिक लोग प्राचीन समय से चली आई परम्पार एवं रूढ़ीवाद को ही मानने वाला है यदि ऐतिहासिक प्रमाण भी मिल जाय तो भी अपनी मान्यता में थोड़ा भी परिवर्तन करना नहीं चाहते हैं श्रीमान् शाह ने अभी 'प्राचीन भारतवर्ष नामक ग्रन्थ के ५ भाग लिखे हैं जिसमें अपने कई वर्ष से बहुत परिश्रम किया है अन्य मत आलंम्बियों ने आपके इस परिश्रमों की बहुत बहुत तारीफ एवं प्रशंसा की है । पर जैन समाज में कई लोग ऐसे ही महंमद एठ असाहणुत रखनेवालेहैं कि आपके कार्य का अनुमोदन करना तो दर किनारे रहा पर उसमें रोड़ा डालने को तैयार हो जाते हैं। हाँ इतिहास का काम ही ऐसा है कि पहले पहल लिखने मैं अनेक त्रुटियाँ रह जाती हैं पर ऐसी त्रुटियों को सामने रख लेखक का उत्साह भंग कर देना कितना अनुचित है ? यदि त्रुटियों के सामने रखने वाला इतिहास विषय का प्रन्थ लिख कर देखें कि इतिहास लिखने में कितनी मगजमारी करनी पड़ती है एक छोटा सा इतिहास लिखने में कितने प्रन्थों का अवलोकन करना पड़ता है और उस देखी हुई विषय को किस तरह से सिलसिलेवार व्यवस्थित करनी पड़ती है पर इन बातों पा लक्ष देता है कौन ? आज तो यह एक रोजगार बन गया है कि इधर-उधर के पांच पचीस स्तवन या प्रतिक्रमण के पाठ रख एक दो किताब छपवा दी कि वह लेखक बन जाता है मेरे खयाल से तो जैन समाज में श्राज वही काम कर सकता है कि अपने हृदय को बन समान बनाले और किसी के कहने की तनक भी परवाह न रखे और अपना काम करता रहे । मैंने तो श्रीमान शाह का ग्रंथ पढ़ कर बहुत खुशी मनाई है और आपके ग्रंथों से बहुत सी बातें जानने काबिल भी मिली है इन प्रकरणों का अधिक मसाला शाह की पुस्तकों से ही लिया गया है अतः ऐसे ग्रंथों का स्वागत करना मैं मेरा कतव्य समझता हूँ। गुफा-प्रकरण भारतीय श्रमण संस्कृति का अस्तित्व इतिहास काल का प्रारम्भ से पूर्व भी विद्यमान था यही कारण है कि आज विद्वान वर्ग की अटल मान्यता है कि भारत की संस्कृति श्राग्यात्मता का केन्द्र है और यह प्राचीन समय से ही चली आ रही है। पूर्व जमाने में भारतीय किसी धर्म के श्रमण क्यों न हो पर वे सब के सब जंगलों में रहकर अध्यात्म विद्या का अभ्यास किया करते थे और इसी अध्यात्मता से उनकी आत्मा का सर्व विकाश भी हो जाता था । कारण जंगलों में रहने वाले श्रमणों को प्रथम तो गृहस्थों के परिचय का सर्वथा अभाव ही रहता था दूसरा जंगलों की श्राबहवा स्वच्छ जिसमें ज्ञान-ध्यान तत्व चिन्तन पठन-पाठन मनन निधिध्यासन करने में मन का एकाग्रहपना रहता है श्रासन समाधि और योगाभ्यास करने में सब साधन अनुकूल रहते थे और पूर्व संचित कमों की निर्जरा करने को कर्मों की उदिरण करने में शीतकाल में माड़ा-ठाड सहन करना ग्रिष्मकाल में अातापनादि कई प्रकार के परिसहों को जान बूझकर सहन करने का सुअवसर हाथ लग जाता तथा इन कार्यों में बाद पहुँचने का कोई कारण जंगलों में उपस्थित नहीं होता था इत्यादि जंगलों में रहने वाले श्रमणों से अनेक प्रकार के आत्मिक लब्धियां एवं विविध प्रकार के चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त हो सकती थी इतना सब कुछ होने पर भी बरसात के समय उनको अच्छादित स्थान की अपेक्षा अवश्य रहती थी इसके लिये वृक्षों का ही आश्रय लिया जाता था पर संख्या की अधिकता के श्रमण संस्कृति Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कारण सत्र साधुओं का निर्वाह वृक्षों के नीचे नहीं होता था अतः कोई कोई श्रमण पर्वत की गुफाओं का भी श्राश्रय लिया करते थे पर वह केवल उस बरसात के पानी से बचने के ही लिये । जब जंगल में रहने वाले श्रमण की संख्या बढ़ने लगी तो उनके भक्त राजा महाराजा एवं सेठ साहूकार लोग उन पर्वतों के अन्दर पत्थरों को खुदा खुदाकर गुफाएं भी बनाने लगे और श्रमण वर्ग उन गुफाओं के सहारे से निर्विघ्नतय ज्ञान ध्यान एवं सप संयम की आराधना करने लगे पर आत्मा हमेशां निभित वासी है समयान्तर एक दूसरे की स्पर्धा में मूल उद्देश को भूलकर एक दूसरे से आगे बढ़ने में लग जाते हैं यही हाल गुफाओं के विषय में हुए कई राजा महाराजाओं ने पुष्कल द्रव्य व्यय कर बड़ी नक्शीदार शिल्प का बहुत बढ़िया काम करवाने लगे किसी किसी स्थान पर तो दो दो तीन तीन मंजिल की गुफाएं भी बनाई गई और कहीं कही उन गुफाओं में दर्शनार्थ मन्दिर भी बनवा दिये गये । कहीं कहीं बढ़िया चित्र काम भी करवाये गये और पर्वतीय चटाणों पर शिलालेख भी अंकित करवा दिये कि यह गुफा अमुक श्रमण के लिये अमुक नरपति ने अमुक संवत् मिती में बनवाई थी । ज्यों ज्यों साधन बढ़ते गये त्यों-त्यों जंगल में रहने वाले श्रमणों की संख्या भी बढ़ती गई इससे जंगलों में हजारों गुफाएं भी बन गई जिससे अब जंगलों में रहने वाले श्रमणों को इतना कष्ट नहीं रहा कि जितना पहले था कारण पहले शीतोष्ण काल में वे कमों की उदिरणा के लिए जो कष्ट सहन करते थे वे अब सुख से गुफाओं में रहने लगे-जब गुफाओं में देव मन्दिर और देव मूर्तियों की भी स्थापना हो गई तथा पर्वत में खोद कर निकाली हुई भींतों पर भी देवों की मूर्तियां खुदा दी गई अब तो मूर्तियों के दर्शन करने वाले संघ भी प्रसंगोपात आने जाने लगा इत्यादि वे सब कारण श्रमणों के ध्यान के साधक नहीं पर बाधक ही सिद्ध हुए फिर भी जंगलों में एवं गुफामों में रहने वालों को निवृति के लिए काफी समय मिलता था वे गुफाएं किसी एक ही धर्म के श्रमणों के लिये नहीं थी पर सब धर्म के श्रमणों के भक्तों ने अपने २ गुरुओं के लिये बनाई थी जो वर्तमान शिलालेखों से सिद्ध होता है गुफाओं का प्रारम्भ का काल तो बहुत पुराना है पर विक्रम की आठवीं नौवीं और दसवीं शताब्दी तक तो गुफाओं का बनना जारी रहा था और उस समय तक बहुत से साधु गुफाओं में रहते भी थे। इतिहास से यह भी पता लगता है कि भारत में कई जन संहारक महा भयंकर दुष्काल भी पड़े थे वे भी एक दो वर्ष नहीं पर बारह २ वर्ष तक लगातार पड़ते ही रहे उस समय गृहस्थ लोगों को मोतियों के बराबर ज्वार के दाने मिलना मुश्किल हो गया था कहीं कही तो ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि कोई गृहस्थ अपने घर से भोजन कर तत्काल घर बाहर निकल जाय तो भुखमरे मंगते उसका उदर चीर कर उसके अन्दर से भोजन निकाल कर खा जाते थे हां ! भूखे मरते क्या नहीं करें ? भूख सबसे बुरी वस्तु है' मला जब गृहस्थों का यह हाल था तो जंगल में रहने वालों को भिक्षा मिलना तो कितना कठिन काम था आखिर अपने प्राणों की रक्षा के लिए उन जंगलव सी साधुओं को नगर का आश्रय लेना पड़ा पर इसका यह अर्थ नहीं है कि जंगल में रहने वाले सबके सब साधु नगरों में आ गये थे ? नहीं जिन्हों का गुजारा जंगलों में होता रहा वे जंगलों में ही रहे और ऐसे भी हजारों साधु थे पर उस श्रापत्तिकाल में उनके श्राचार-विचारों में अवश्य परिवर्तन हो गया था जब कि दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तब भी नगरों में रहने वाले श्रमण पुनः गुफाओं में रहने को नहीं गये कारण जंगलों की अपेक्षा अब नगरों में उनको १००४ भारतीय-गुफाए' Jain Education themational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९२०-९५८ अधिक सुविधा रहने लगी मैं उपर लिख आया हूँ कि आत्मा निमित बासी हुश्रा करता है जैसे आत्मा को निमित मिलता रहता है वैसे ही उनको मानस उसमें लिप्त हो जाता है । अतः उनके रहने की गुफाएं पशु पक्षियों के काम आने लगी और उन गुफाओं की किसी ने सार संभाल तक भी नहीं की यही कारण है कि कई गुफाएं तो भूत्राश्रित हो गई कई टूट-फूट कर खण्डहर का रूप धारण किया हुआ आज भी दृष्टिगोचर होता हैं। __वर्तमान पुरात्व की शीघ्र खोज करने वालों का लक्ष इन प्राचीन गुफाओं की ओर भी पहुँचा और उन लोगों ने भारत की चारों ओर शोध-खोज की तो हजारों गुफाओं का पता लगा है उन गुफाओं के अन्दर मन्दिर मूर्तियां तथा चित्रकाल शिल्पकाला तथा बहुत से प्राचीन समय के शिलालेख भी मिले हैं ने इतिहास के लिये बड़े ही अमूल्य साधन माना जा रहा है उदाहरण के तौर पर उडीसा प्रान्त की उदयगिरि खण्डगिरि पहाड़ियों के अन्दर जैन श्रमणों के ध्यान के लिये सहस्त्रों गुफायें बनाई थी जिसके अन्दर से सैकडों गुफाएं आज भी विद्यमान है कई कई गुफायें तो नष्ट भी हो गई हैं पर कई कई अभी अच्छी स्थिति में हैं तथा कई कई गुफायें दो दो मंजिल की भी है और उन गुफायों से बहुत से शिलालेख भी मिले हैं जिसमें दो शिलालेख तो इतिहास के लिये बहुत ही उपयोगी हैं १-महामेघवाहन चक्रवर्ति राजा खारवेन का २--भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन विषय का । इनके अलावा भी बहुत से शिलालेख मिले हैं इस विषय में हमने कलिंग देश के इतिहास में विस्तृत वर्णन लिख दिया है अतः यह पोष्टपेषण करना उचित नहीं समझा गया है वहाँ पर वो शेष कतिपय गुफा का ही संक्षिप्त से उल्लेख किया जायगा कारण भारतीय गुफाओं के लिये बड़े बड़े विद्वानों ने कई ग्रन्थ लिख निर्माण करवा दिये हैं तथा कई हिन्दी भाषा भाषियों के लिये मेरा यह संक्षिप्त लेख भी उपकारी होगा ? १-उडीसा प्रान्त की खण्डगिरि उदयगिरि एक समय कुमार एवं कुमारी पर्वत के नाम से तथा वही पहाड़ियाँ जैन संसार में शत्रुजय गिरनावतार के नाम से मशहूर थी वर्तमान की शोध खोज से कई ७०० छोटी बड़ी गुफाओं का पता लगा है इस विषय इसी अन्य के पिछले पृष्ठों में कलिंग देश के इतिहास में विस्तार से लिख पाये हैं अतः पुनावृति करना उचित नहीं समझा गया है पाठक वहाँ से देखें। २-बिहार प्रदेश ( पूर्व में ) मैं बरबरा पहाड़ की कंदराओं में नागार्जुन के नाम से प्रसिद्ध है वहाँ भी बहुत सी गुफाए हैं जिस में अधिक गुफाएं जैनों की हैं और वहाँ जैन श्रमण रह कर आत्म कल्याण साधन किया करते थे इन गुफाओं का विस्तृत वर्णन 'जैन सत्य प्रकाश मासिक पत्र के वर्ष ३ अंक ३-४-५ में किया है अतः स्थानाभाव यहाँ मात्र नाम निर्देश ही कर दिया है। ३-पांच पाण्डवों की गुफाएं-यह गुफाएं आवंती (मालवा) प्रदेश में आई हुई है गुफाएं बहुत विस्तार में हैं शिल्प एवं चित्र का बहुत ही सुन्दर काम किया हुआ है इन गुफाओं का वर्णन भी प्रस्तुत जैन सत्य प्रकाश मासिक वर्ष ४ अंक ३ में विस्तार से किया है। ४-गिरनार की गुफाए-गिरनार जैनियों के तीर्थक्करों की निर्वाण भूमियों में एक ई यहां पर अनेक महात्माओं ने ज्ञान ध्यान योग समाधि आसनादि की साधना करके मोक्ष रूपी अक्षय धाम सिघाये थे । एक गुफा में मुनि रहनेमि ध्यान किया था उसी गुफा में सती राजमति वरसाद के कारण विश्राम लेकर अपने चीर सुखा रही थी इत्यादि जैन शास्त्रों में गिरनार पर्वत की बहुत सी गुफाओं का वर्णन आता है। उडीशा प्रान्त की गुफाए १००५ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि० सं० ५२०-५५८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ५ - श्री शत्रुंजय पर्वत की केदरा में भी बहुत गुफाएं थी और वहाँ पर श्रमण वर्ग तपश्चर्यादि विविध साधनों से आत्म कल्याण किये करते थे। पूजादि की पुस्तकों में भी अधिकार आता है६- इसी प्रकार वदर्भ देश की पर्वत श्रेणियों में भी बहुतसी गुफाए थी वर्तमान शोध खोज से बहुतसी गुफाए का पत्ता भी लगा है जैसे -- भामेर तालुक कि पीपलनेर जो एक समय बड़ा नगर था कि पास बहुतसी श्रम गुफाए विद्यमान है तथा पातलखेड़ा - चालीस गांव के पास भी पीतलखोर तथा चावड़ी नाम की गुफाएं हैं । ७- अजन्टा की गुफाएं - यहाँ की गुफाएं बहुत प्रसिद्ध है और इन गुफाएं के लिये कई विद्वानों ने बड़ी बड़ी पुस्तकें एवं लेख भी लिखे हैं वहाँ की गुफाओं में कई तो इ० सं० पूर्व एक दो शताब्दी की है शिल्प कला तथा चित्र कला बड़ी सुन्दर है इन गुफाओं ने इतिहास क्षेत्र पर अच्छा प्रकाश डाला है गुफाओं की संख्या ३०-३५ की कही जाति है । ८ - अंजनेरी की गुफाएं - यह स्थान नासिक से १४ मील तथा त्रिम्बक से भी १४ मील है यहाँ एक पहाड़ी भूमि से ४२९५ फुट ऊंची है वहाँ एक छोटी गुफा है जिसमें एक पद्मासन मूर्ति एवं नीचे की चट्टान में एक दूसरी गुफा है जिसके द्वार पर भ० पार्श्वनाथ की, खड़ी मूर्ति है । ९ – काइ की गुफाएं - यह स्थान तालुका ऐबला में है यहाँ दो पहाडियां साथ साथ मिली हुई है। भूमि से ३१४२ फुट ऊंची है तंकाइ की दक्षिण दिशा में जैनों की ७ गुफाएं है जिसमें बहुत उमदा नकशी का काम हुआ है । ( १ ) एक गुफा दो मंजिल की है स्तम्भ के नीचे द्वार पाल बने ( २ ) दूसरी गुफा भी दो मंजिल की है नीचे के खण्ड में बरमदा २६ - १२ का है द्वार पर छोटी छोटी जैन मूर्तियाँ है शिल्प कला की सुन्दरता दर्शनीय है ( ३ ) तीसरी गुफा एक मंजिल की है तथा कई जैन मूर्तियाँ भी है ( ४ ) चौथी गुफा भी एक मंजिल की है इसके स्तम्भ ३०-३० फूट के हैं (५) पांचवी गुफा में भी स्तम्भ है और जैन मूर्तियाँ भी है ( ६ ) छट्ठी गुफा भी एक मंजिल की है इसमें भी कई जैन मूर्तियाँ है ( ७ ) सातवीं गुफा छोटी है भन खण्ड हर के रूप में है खण्डित मूर्तियाँ भी है १० - चांदोड - की गुफाएं - यह स्थान नासिक से ३० मील तथा लसन गांव स्टेशन से चौदह मील हुए हैं है नगर पहाड़ी के नीचे बसा है पहाड़ी भूमि से ४५०० फूट उच्ची है पहाड़ी पर रेणुका देवी का मन्दिर है व कई जैन गुफाएं भी है नगर के किल्ला की चट्टान में जैन गुफाओं में जैन मूर्तियाँ भी है जिसमें मुख्य मूर्ति चन्द्रप्रभ जिनकी है । ११ - त्रिगल वाड़ी की गुफाएं - तालुका इगतपुरी से ६ मील पहाड़ी पर गांव बसा हुआ है यहाँ भी गुफाएं है जिसमें एक गुफा में कई जैन मूर्तियाँ है. १२ - नासिक शहर - यहाँ की पंचवटी से एक मील तपोवन हैं जहाँ एक गुफा है जिसमें भ० रामचन्द्र का मन्दिर है पश्चिम की ओर ६ मील पर गौवर्धन या गंगापुर को प्राचीन वस्ती है वहाँ जैन चमार लेन गुफा है दूसरी एक बौद्धों की भी गुफा है तथा पाडुसेन में नं० ११ की गुफा है जिसमें निलवर्ण भ० १००६ जैन गुफाएँ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धार का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९२०-९५८ ऋषभदेव की मूर्ति है वहाँ पर दिगम्बर जैनों का किसी समय प्रभुत्व रहा होगा इस नासिक नगर का नाम पुराने जमाने में पद्मपुर नाम था यहाँ रामचन्द्र और सुर्पनखा का मिलाप हुआ था १३-चमारलेन-यहां की पहाड़ी ६०० फुट ऊंची है यहां पर एक प्राचीन जैन गुफा है यहां दिगम्बर जैनों का गजपथ नामक तीर्थ था। १४-मागी तुंगी-यह भी दिगम्बर जैनों का सिद्धक्षेत्र नाम का तीर्थ है मनमाड़ स्टेशन से कई ५० मील दूर है यहां दो पहाड़ियां साथ में मिली हुई हैं और ५-६ गुफार भी हैं। १५-~-पूना शहर के आसपास में भी कई पहाड़ियां और जैन गुफाएं हैं जैसे वेडला के पास सुपाइ पहाड़ी भूमि से ३००० फुट ऊंची है वहां दो गुफाए हैं उनमें कई शिलालेख भी हैं। भाजणावा को पहाड़ी के आसपास बौद्धों की १८ गुफाएं हैं उरमें कई गुफाएं तो जैनों की हैं । करली ग्राम के पास भी कई जैन गुफाए हैं तथा एक वामचन्द्र गुफा भी जैनों की गुफा है । १६ - सितारा जिला में भी कई पहाड़ियां और कई गुफाएं आ गई हैं जैसे कराद नगर के आसपास ५४ गुफाएं हैं जिसमें कई बौद्धों की और कई जैनों को हैं तथा लोहारी ग्राम के पास भी बहुत सी गुफाएं आई हुई हैं संशोधन करने की खास जरूर । १७-धूमलवाडी-यह स्थान सितारा स्टेशन से नजदीक कोरेगांव तालुका यहां एक गुफा है जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है और कई गुफाए धूल से भर गई हैं। "इस सितारा जिला के लिए 'कम्पीरियल गजटियर बम्बई प्रान्त भाग' (सन् १९०९) सफा ५३९ पर लिखा है कि "The gains in satıra dist represent a survical of early gainish which was ance the religion of the rulers of the kingdom of Cargatec १७-ऐवल्ली ( गहोली ) यहाँ की पहाड़ियों में बहुत सी जैन गुफायें हैं वे गुहायें बहुत प्राचीन हैं उनके अन्दर बहुत सुन्दर नकशी का काम हुआ पाया जाता है तथा कई गुफाओं में जैन मूर्तियां भी हैं इन सबों को देखते विद्वानों ने यही अनुमान लगाया है कि किसी समय इस प्रान्त में जैन धर्म की बड़ी भारी जाहुजलाली थी और हजारों जैन श्रमण इन गुफाओं में रह कर तप संयम की आराधना करते होंगे एवं यहाँ के राजा प्रजा सब के सब जैन ही होंगे। १८-बादामी की गुफायें-यहाँ की प्राचीन गुफायें बहुत प्रसिद्ध हैं इस बादामी की गुफाओं के लिये बहुत विद्वानों ने कई लेख भी लिखे थे वहाँ की गुफा बहुत करके जैनों की ही है कारण इन गुफाओं में वर्तमान भी जैन तीर्थकर पार्वनाथ और महावीर की मूर्तियां विराजमान हैं बहुत से यूरोपियन विद्वानों ने यहाँ की गुफा का निरीक्षण करके यही अभिप्राय वक्त किये थे कि शिल्प कला के लिये तो वह गुफायें अपनी शान ही रखती हैं कहा जाता है कि विक्रमीय छटी सातवीं शताब्दी में यहाँ के जैन राजा जिन गज की भक्ति से प्रेरित हो जैन श्रमणों के लिये गुफायें एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई होगी। १९-हेनुसंग-यहां भी एक पहाड़ी और जैन गुफा जिसमें जैनमूर्ति है । २०-जोलावा यहां भी एक प्राचीन गुफा और दो खण्डित मुतियां हैं। २९-धारासिव-वर्तमान में इसका नाम उस्मानाबाद है और बारसी रेलवे लाइन का एडसी स्टेशन जैन गुफाएँ Jain Education international Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५२०-५५८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा काइतिहास १४ मोल के फैसले पर धारासिव है और वहां से २-३ मील जाने पर जैनों की सात गुफाएं आती हैं। जिसमें एक गुफा बहुत बड़ी है उसमें बहुत अच्छा नकशी का काम हुआ है और भ० पार्श्वनाथ की सप्त फण वाली मत्ति विराजमान है वह भ० पार्श्वनाथ के शरीर प्रमाण श्याम वर्ण की है इनके अलावा छोटो बड़ी सब गुफाओं में तीर्थकरों की मूर्तियां है २२ --- एल्लुरा की गुफाएं यह स्थान दोलताबाद से १२ मील की दूरी पर आया हुआ है। जहाँ की पहाड़ी पर जैनों की ३२-३३ गुफाएं आई हुई हैं जिसमें पांच गुफाएं बहुत ही बडी है पुराणे जमाने की शिल्प कला वडी ही दर्शनीक है इन गुफाए के विषय बहुत से पौवत्यि पाश्चात्य विद्वानों ने लेख लिख प्रसिद्ध कर चूके हैं। अतः यहाँ स्थानाभाव अधिक नहीं लिखा गया है । २३--सोतावा यहाँ पर एक पहाडी भूमि से २३४९ फूट उच्ची है और तीन बड़ी गुफाएं है जिसमें एक तो दो मंजिल की है जिसके ऊपर के भाग में भ० महावीर की मूर्ति है नीचे की दो गुफाओं में एक में पार्श्वनाथ की दूसरी में एक देवी की खण्डित मूर्ति है । २४ - चुनावा यहाँ जैनों की एक गुफा है जिसमें एक खण्डित जैन मूर्ति है । २५- राजगृह के पांच पहाड़ों में भी जैनों की दो बड़ी गुफाएं है जिसमें एक का नाम सप्ता दूसरी का सोनभद्रा इन गुफाओं के विषय डॉ० सरकनिंगहोम ने विस्तृत लेख लिखा था तथा इन गुफाओं में एक शिलालेख भी मिला है जिससे पाया जाता है कि प्रस्तुत गुफाएं ईसा की दूसरी शताब्दी में मुनि देव के लिये बनवाई गई थी । इनके अलावा भी भारत के अन्योन्य प्रान्तो से सेकड़ों नहीं पर हजारों गुफाएं इस समय भी विद्य मान हैं जो शोध खोज करने से पत्ता मिल सकता है हाँ उन गुफाओं में इस समय साधु तो शायद ही रहता हो पर इतिहास के लिये बड़ी काम की एंव उपयोगी है इन गुफाएं का निरीक्षण करने से यह पत्ता लग जाता है कि एक समय भारतीय सब धर्मों के साधु जंगलों की गुफाओं में रह कर अपना जीवन परम शांन्ति एवं अध्यात्म चिन्तन करने में व्यतित करते थे और इन एकाग्रता के कारण उन्हों को अनेक चमत्कारिक विद्याए एवं लब्धियों भी प्राप्त हो जाति थी और उन लब्धियों द्वारा वे संसार का कल्याण कर सकते थे क्या कभी फिर भी ऐसा जमाना श्रावेगा कि हमारे भारतीय श्रमण जंगलों में रह कर उन विद्याओं को हासिल कर संसार का कल्याण करेगा । १००८ जैन गुफाएँ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९५८-१००१ ३६-प्राचार्य भी कक्कलरिजी महाराज (सप्तम) श्रेष्ठ्याख्यान्वयसंभवः सुविदितः श्रीककमरिर्महान् । विद्याज्ञान् समुन्द्र एष नृपतिं चित्रागदं वै सुधीः ॥ जैन दीक्षितवान् तथा च कृतवान् श्रीकान्यकुब्जेपुरे । मूर्ति स्वर्णमयीं विधाय भवने देवस्य संपूजकम् ॥ प्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज महाप्रभाविक एवं प्रखर धर्मप्रचारक आचार्य हुए हैं । श्राप Bhad श्री ने पूर्व परम्परागत अजैनों को जैन बनाकर शुद्धि करने की मशीन से व अपने पीयूष रस प्लावित अमूल्योपदेशामृत से अनेक हिंसानुयायी वाममार्गियों को व मांसाहारी क्षत्रिP यादिकों को पवित्र जैनधर्म के पावन संस्कार से सुसंस्कृत कर उन्हें उपकेश वंश (महाजन संघ) में सम्मिलित कर उपकेश वंश की आशातीत वृद्धि की । आप श्री की कठोर तपश्चर्या एवं सच्चरित्रतादि सविशेष गुणों से आकर्षित हो साधारण जनता ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजा भी आपकी सेवा का लाभ लेने में अपना अहोभाग्य-धन्य दिवस समझते थे । शास्त्रीय मर्म के प्रकाण्ड पण्डित श्रीआचार्यदेव शास्त्रार्थ में तो इतने सिद्धहस्त कुशल थे कि कई राज सभाओं के वादी कई बार आपसे पराजित हो चुके थे । वादी मानमर्दक श्रीसूरीश्वरजी ने कई वादियों को पवित्र जैनधर्म की दीक्षा से दीक्षित कर उन्हें सत्पथानुगामी बनाया । भ्रम से भूल कर अज्ञानता के निबिड़ तिमिरमय मार्ग की ओर प्रवत्ति करने वाले अज्ञानियों के लिये सत्पथप्रदर्शक बन सूरिजी ने उनको कण्टकाकीर्ण मार्ग से बिलग कर, चार पथ के पथिक बनाये । इस तरह चतुर्दिक में पवित्र जैनधर्म की उत्तुंग पताका को फहरा कर श्राचार्यश्री ने शब्दतोऽवर्णनीय यशः सम्पादन किया। ___ दुष्काल के बुरे असर से जो श्रमणों में शिथिलता आगई थी उसको जगह २ श्रमण सभागों से मिटाकर सूरीश्वरजी ने शिथिलाचारी मुनियों को उपबिहारी बनाये । श्रमणों के आवागमन के अभाव से जो क्षेत्र सद्धर्मा-पराङ्मुख बन गये थे, उन क्षेत्रों में श्राचार्यश्री ने स्वयं विहार कर पुनः धर्माकुर अङ्कुरित किया । अतः यदि यह कह दिया जाय कि आपका जीवन ही जैनधर्म की प्रभावना के लिये हुआ तो, कोई अत्युक्ति न होगी। पाठकों की जानकारी के लिये आपश्री का जीवन सक्षिप्त रूपमें लिख दिया जाता है । मरुधर भूमि के लिये अलंकार स्वरूप, अमरपुर से स्पर्धा करने वाला अनेक उपवन, वाटिका, कूप, सरोवर व विविध पादपों के विचित्र सौंदर्य को धारण किये हुए अत्यन्त रमणीय उत्तम नमस्पर्शी अट्टालिकाओं समन्वित सुवर्ण कलस ध्वज दंड वाले अनेक जिनालय व धर्मशालाए से सुशोभित मेदिनीपुर नामक नगर था । यह नगर उपकेश वंश की विशेष आबादी (विशेष संख्या) से भरा हुआ था । उपकेश वंशीय जन समाज-जैसे राज्य कार्य को चलाने में राज्यनीति निष्णगत था वैसे ही व्यापारिक श्रेणी में भी सबसे आगे कदम बढ़ाया हुआ था । इन उपदेश वंशियों का व्यापार क्षेत्र भारत के परिमित संकुचित क्षेत्र के ही लिये हुए नहीं था अपितु इनके ब्यापार क्षेत्र का सम्बन्ध भारत से बहुत दूर पाश्चात्य प्रदेशों से भी था । ये लोग मेदनीपुर नगर १००९ Jain Education Internal Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६.१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जलमार्ग एवं स्थल मार्ग दोनों ही मार्ग से व्यापार किया करते थे । इन्ही व्यापारियों में श्रेष्टिगौत्रीय शाह करमण नाम के एक नामाङ्कित व्यापारी थे । आप पर लक्ष्मी की अपार कृपा होने से आप धन कुबेर के नाम से भी जग विश्रत थे। शाह करमण के पुन्य पावनी, पतिव्रत धर्म परायण, परम सुशीला मैना नामकी स्त्री थी। इसी देवी ने अपनी रत्न कुक्षि से ११ पुत्र और सात पुत्रियों को जन्म देकर, अपने जीवन को कृतार्थ बनाया था। माता मैना, इतने विशाल कुटुम्ब वाली होने परभी अपने धर्म कार्य सम्पादन करने में सदैव तत्पर रहती थी। उस जमाने में एक तो जीव लघुकर्मी ही होते थे दूसरा निस्पृही निर्ग्रन्थों का उपदेश ही ऐसा मिलता था कि वे एक मात्र धर्म को ही उभयतः श्रेयस्कर श्रादरणीय, एवं उपादेय समझते थे । माता मैना के कई पुत्र पुत्रियों की शादियां भी हो गई थी । उनमें से श्री विमल नाम का पुत्र भी एक था। विमल, व्यापार कला का विशे. षज्ञ एवं धर्म कार्य का परम अनुरागी, दृढ़ श्रद्धालु था। प्रत्येक कार्य के लिए शा. करमण विमल से परामर्श किया करते थे। एक समय विमल किसी कार्यवशात् नागपुर गया था ।वहां पर उपाध्याय श्रीसोमप्रभ के उपदेश से सुचंतिवंशभूषण शा. नोढ़ा ने शत्रुजय का संघ निकालने का निश्रय किया एवं संघ निकालनेके शुभ मुहुर्त का भी निश्चय हो चुका था अतः उक्त अवसर पर सम्मिलित होने के लिये शा. नोढ़ाने शा.विमल से प्रार्थना की कि कृपा कर संघ में पधार कर सेवा का लाभ मुझे प्रदान करें। इस पर विमल ने उत्तर दिया कि श्राप बड़े ही भाग्यशाली हैं कि संघ निकालने रूप बृहद् पुण्योपार्जन कर रहे हैं किन्तु यदि पांच दिन मुहूर्त को आगे रखें तो हम सकुटुम्ब साथ चल कर यात्रा के अपूर्व लाभ एवं अतुल पुण्य को सम्पादन कर सकेंगें । इन पांच दिनों मैं तो हमारे जरूरी काम होने से यकायक पाना नहीं बन सकता है । इस पर शाह नोढ़ा ने तो कुछ भी जबाब नहीं दिया पर पास में ही बैठे हुए नोढ़ा के पुत्र देवा ने कहा कि निर्धारित मुहूर्त में कुछ भी रहोबदल नहीं हो सकता है यदि आपके जरूरी कार्य होने से इस संघ में न पधारे तो भी आप समर्थ है कि आप स्वयं संघ निकाल कर यात्रा कर सकते हैं । शाह देवा ने किसी भी श्राशय से कहा हो पर विमल ने उसको ताना समझ कर उत्तर में कुछ भी नहीं कहा चुप चाप वह यों ही चल पड़ा पर उसकी अन्तरात्मा में संघ निकालने की नवीन उत्कट भावना ने जन्म ले लिया अतः तत्काल वहां से रवाना हो विमल, मेदिनीपुर आया और अपने सब कुटुम्बियों के समक्ष स्वहृदयान्तर्हित नवीन भावना को कह सुनाया। ऐसी परमपुण्यमय सुन्दर योजना को सुन सभी के हृदयों में अपरिमित आनंद का अनुभव होने लगा और उसी दिन से वो संघ निकालने के लिए आवश्यक साधनों को जुटाने में संलग्न वन गये । विमल की इच्छा थी कि अपने माता पिता की मौजूदगी में ही यात्रार्थ संघ निकाल कर यात्रा करे पर कुदरत कुच्छ और ही घाट घड़ रही थी। शाह करमण की अवस्था वृद्ध थी उसने अपने शरीर की हालत देखकर अपने स्थान पर शा० विमलको स्थापन कर घर का सब कारोबार विमल के अधिकार में कर दिया और आप परम निर्वृति में जैन धर्म की आराधना में सलग्न हो गये यही हाल माता मैना का था। आहा-हा उस जमाने के भद्रिक एवं लघुकर्मी लोग आत्मकल्याण करने में किस प्रकार तत्पर रहते थे जिसका यह एक उदाहरण है थोड़ा ही समय में शाह करमण समाधी पूर्वक एवं पंच परमेष्टी का स्मरण के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया। जिससे विमल को बड़ा भारी रंज हुआ वह सोचने लगा कि में हत विमल को ताना और संघ १०१० Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९५८-१००१ भाग्य हूँ कि पिताजी को मौजुदगी में संघ नहीं निकाल सका तथापि विमल के हृदय में संघ निकाल कर तीर्थों की यात्रा करने की भावना बढ़ती ही गई । इधर मेदिनीपुर के प्रबल पुन्योदय से शासन शृंगार धर्मप्राण, श्रद्धेय, पूज्याचार्यश्री सिद्धसूरि का शुभागमन मेदिनीपुर में हुआ । स्वर्गस्थ करमण के विमलादि पुत्रों ने सवालक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया। सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग, वैराग्य एवं आत्म कल्याण के विषय में होता था । अतः सर्व श्रोतागण ऐसे तो सूरिजी के व्याख्यान से लाभ उठाते ही थे किन्तु विमल पर इन व्यायखानों का सविशेष प्रभाव पड़ा। एक दिन विमल ने सूरिजी से प्रार्थना की कि भगवान ! यदि इस वर्ष के चातुर्मास की कृपा हमारे पर हो जाय तो मैं चातुर्मासानंतर शत्रुञ्जय का संघ निकालू प्रत्युतर में सूरीश्वरजी ने फरमाया कि विमल ! तेरी भावना अत्युत्तम है । यात्रा के लिये संघ निकाल कर पुण्य सम्पादन करने रूप कार्य साधारण नहीं किन्तु, अत्यन्त महत्व का है। चातुर्मास के लिये निश्चित तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता; पर जैसी क्षेत्र स्पर्शना होगी वैसा कार्य बनेगा। विमल के दिल में पूरी लगन थी । वह अच्छी तरह से समझता था कि गच्छनायक सूरिजी के विराजने से ही मेरा हृदयान्तर्हित कार्य बड़ी सुगम रीति से सफल हो जायगा इत्यादि खैर । पुनः एक समय मेदिनीपुर श्रीसंघ एकत्र मिडकर सूरिजी से चातुर्मास के लिये आग्रह भरी प्रार्थना की। सूरिजी ने भी भविष्य के लाभालाभ का कारण जानकर मेदिनीपुर के श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार करली । बस फिर तो था ही क्या ? केवल विमल के लिये ही क्यों पर आज तो मेदिनीपुर के घर घर में हर्ष की तरंगे छलने लगी। चातुर्मास में पर्याप्त समय होने से सूरिजी ने इधर उधर के समीपस्थ क्षेत्रों में परिभ्रमण कर अर्ध निद्रित समाज को जागृत किया । चातुर्मास के समय के नजदीक आने पर सूरिजी ने पुनः मेदिनीपुर पधार कर चातुर्मास कर दिया । बस विमल के हृदयान्तर्हित मनोरथ भी सफल होगया। उसने सूरिजी से परा मर्शकर संघ के लिये और भी विशेष सामग्री जुटाना प्रारम्भ कर दिया। इधर चातुर्मास में सूरिजी के व्याख्यान हमेशा तात्विक, दार्शनिक, एवं सामाजिक विषयों पर होते थे। जैन दर्शन के मुख्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए त्याग, वैराग एवं आत्म कल्याण के विषयों का भी समन्वय कर दिया जाता जिससे, श्रोताओं का हृदय संसारावस्था में रहते हुए भी वैराग्य सन्निकट ही रहा करता था । आचार्यश्री के विराजने से इतः उतः सर्वत्र प्रबल परिमाण में धकिान्ति का बीजारोपण हुआ और जनता ने खूब लाभ उठाया। जब चातुर्मास के अवसान का समय सन्निकट आ गया तो विमल ने सूरिजी से प्रार्थना की कि--- पूज्यवर ! कृषा कर संघ प्रस्थान के लिए परम शान्तिमय, कल्याण दायक, सौख्य प्रद शुभ मुहूर्त प्रदान करें जिससे सर्व कार्याराधन निर्विदनतया, परमानन्द पूर्वक हो सके। आचार्यश्री ने माह सुद पञ्चमी के मंगल मय दिवस का शुभ मुहूर्त प्रदान किय जिसको, विमल ने अत्यन्त विनयपूर्वक शिरोधार्य कर बधाया । सूरिप्रदत्त शुभमुहूर्त पर यथा समय उपस्थित होने के लिये स्थान २ पर निमन्त्रण पत्रिकाएं भेजी गई । संदेश वाहकों से शुभ संदेश दिलवाये गये । गुरुदेवों ( साधु, साध्वियों ) की विनती के लिये योग्य पुरुषों व अपने भ्राता एवं पुत्रों को भेजे । wwmmam श्री शत्रुजय का संघ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६०१ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एक खास उल्लेखनीय घटना यह बनी कि शाह विमल नागपुर जा कर शाह नोढा संचेती को संभ में पधारने का आमन्त्रण किया कि उस समय शाह नोढ़ा का पुत्र देवा भी पास में बैठा था उसने कहा विमला शाह आप बड़े ही भाग्यशाली हैं कि इस प्रकार प्रात्मकल्याणार्थ धार्मिक कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग करते हैं । शाह विमल ने कहा यह आप साहिबों की अनुग्रह का ही सुन्दर फल है जैनधर्म में कारण से ही कार्य का होना बतलाया है शाह देवा समझ गया कि मेरा कहना शायद शाह विमल को ताना रूप हुआ हो और उस कारण को लेकर ही आपने संघ की योजना की हो ? पर ऐसा तो ताना ही अच्छा है कि जिसमें हजारों जीवों के पुन्य बन्ध का कारण बन जाता हो खैर शाह देवा ने कहा विमल शाह यदि आप पांच सात दिन मुहुर्त बदल दें तो हम सब कुटुम्ब के साथ आपके संघ में चल कर तीर्थयात्रा करें। विमल ने कहा बहुत खुशी की बात है यदि आपके जैसे भाग्यशाली मेरे पर इस प्रकार कृपा करते हों तो मुझे पांच सात तो क्या पर अधिक समय भी ठहरना पड़े तो भी इन्कार नहीं है। इस पर विमल की विमलता की कसौटी हो गई और उसी मुहूर्त के समय शाह नोढा-देवा संघ में चलने के लिये तैयार हो गये । अहा-हा कैसा निरभिमान का जमाना था और लोगों के दिल कैसे दरियाव सदृश विशाल थे ? जिसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है इससे ही धर्म की प्रभावना एवं उन्नति होती थी ठीक समय पर मेदिनीपुर चतुर्विध श्रीसंघ से भर गया तब सूरीश्वरजी ने शाह विमल को संघपति पद प्रदान किया। इस तरह प्राचार्यदेव के नायकत्व एवं विमल के संघपतित्व में छरी पालक संघ ने शुभ TE से प्रस्थान कर दिया। प्राचार्य देव के साथ में प्रायः सकल संघ पाद बिहारी बन तीर्थ यात्रा के परम सुकृत का लाभ उठाने लगा। चतुर्विध श्रीसंघ से सजा हुआ यह संघ इतनी विशाल संख्या में था कि देखने वालों को माण्डलिक गजा के बृहत् सैनिक समूह का भ्रम हो जाता था। जब क्रमशः शत्रुब्जय तीन मुकाम दूर रहा तो सकल जनता के हृदय में तीर्थ स्पर्शन की पवित्र भावना प्रबल रूप से वृद्धिगत होने लगी। अतः प्रातःकाल संघ ने शीघ्र ही उक्त स्थान से प्रस्थान कर दिया। संघपतिजी तो सूरीश्वरजी के साथ में थे इस लिये सूर्योदय के होने पर प्राचार्य देव के साथ ही रवाना हुए चलते हुए मार्ग में पड़े हुए एक ऐसे बैल को देखा जिसके कि शरीर में कीड़े कलमला रहे थे। स्थान २ से रुधिर धारा प्रदवााहित हो रही थी । पक्षी गण चोंच से टोंच कर मांस निकाल उसे विशेष पीड़ित कर रहे थे । वह इस प्रकार से छट पटा रहा था कि मानों देह त्याग की ही आन्तरिक भावना प्रदर्शित कर रहा था। इस प्रकार वर्णतोऽवर्णनीय दारुण वेदना से दुखित बैल को संघपति ने देखा और उसने सूरिजी से कहा-भगवन् । ये भी किसी पूर्वभव कृत अशुभ कर्मोदय के ही फल होंगे ? सूरिजी ने कहा विमल ! इसके ही क्यों पर अपना यह जीव भी इससे अधिक भीम असह्य नारकीय यात-नाओं को अनेक बार सहन कर पाया है। बैल की पीड़ा के देखने मात्र से ही अपनी दयनीय स्थिति होगई है किन्तु जिसके सामने यह कष्ट नगण्य सा है ऐसा परमाधार्मिककृत उपसर्ग पापात्माओं को बलात् सहन करना पड़ता है। इस तरह सूरिजी ने विमल के नयनों के समक्ष नारकीय दुःखों का भयावना चित्र चित्रित कर दिया तब पाप से डरपोक विमल ने कहा-भगवन् ! ऐसा भी कोई अक्षय उपाय है कि जिससे कभी किसी भी प्रकार के दुःखों को सहन न करना पड़े ? सूरिजी ने कहा-इन दुःखों से छूटने का एक मात्र उपाय जिन गदित यमनियमों (महाव्रतों) को स्वीकार कर योगत्रय से सम्यकप्रकारेण रत्न त्रय १०१२ बेल की असह्य वेदना Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ९५८-१००१ की आराधना करना है । विमल ! साधारण मनुष्य तो क्या ? किन्तु चक्रवर्ती जैसे चतुर्दिशा के स्वामी भी स्वाधीन सुखों पर लात मार कर संयम रूप अमूल्य रत्न को यावज्जीवन सुरक्षित रख अनादिकाल से सम्बन्धित जन्म मरण के दुक्खों से छूट कर आत्मशांति परम सुख का अनुभव करते हैं । विमल ने कहा-पूज्यवर ! दीक्षापालन करना भी तो महादुष्कर एवं लोहे के चने चबाना है ? सूरिजी ने कहा विमल! देख,यह बैल की दारूण यातना असहय है या दीक्षा पालन दुष्कर है ? विमल ने कहा-यहतो परवश होकर भोग रहा है । सूरिजी ने कहा-जब परवश होकर भी वेदना भोगनी पड़ती है तो सबसे अच्छा यही है कि स्वाधीनपने ही वेदना भोगलें जिससे बलादसह्य वेदना न सहन करनी पड़े । विमल ने कहा-- भगवन् मेरी इच्छा सब प्रकार के सांसारिक दुःखों से मुक्त होने की है । सूरिजी ने कहा-विमल ! खूब गहरा विचार करले । देख वैराग्य चार प्रकार के होते हैं। (१) वियोग वैराग्य -- किसी के मृतक शरीर को जलाते हुए देखकर मनुष्य को श्मसानीया वैराग्य श्राता है परन्तु, वह मृत देह को जलाने के पश्चात् स्नान करने के साथ ही साथ धुप जाता है। (२) दुःख वैराग्य -जब कभी असह्य दुःख पापड़ता है तब वैराग्योत्पन्न होजाता है। पर पह, दुःख की स्थिरता तक ही सीमित रहता है।। (३) स्नेह बैराग्य-पिता पुत्रादि के स्नेह से जो वैराग्य होता है वह भी अधिक समय तक स्थायी नहीं रहता। (४) श्रात्म वैराग्य-श्रात्मा के भावों से सांसारिक स्वरूप को समझ कर जन्म मरण के दुःख से मुक्त होने के लिये जो वैराग्य होता है वह सच्चा वैराग्य है। सूरिजी-विमल ! तेरा वैगग्य इन चारमें से कौनसा है। विमल- पूज्यवर ! मेरे वैराग्य में कारण तो इस बैल का दुःख ही है अत- मेरा वैराग्य दुःखजन्य बैराग्य है किन्तु मुझे दृढ़, स्थायी तथा सच्चा वैराग्य है । सूरिजी-तब तेरे दीक्षा लेने के भाव कव हैं ? विमल -आप आज्ञा फरमावे तब ही। सूरिजी-शीघ्रमतः सिद्ध क्षेत्र में ही तेरी दीक्षा हो जाय तो... विमल-बहुत खुशी की बात है गुरुदेव ! मैं भी तैय्यार हूँ। सूरिजी-तुम्हारा शीघ्र ही कल्याण हो। इस प्रकार के महत्वपूर्ण निर्णय के पश्चात् सूरिजी और संघपतिजी क्रमशः संघ में आकर मिलगये। विमल के साथ में उनकी धर्मपत्नी,आठ पुत्र तीन पुत्रियां एवं भाइ आदि बहुत सा परिवार भी यात्रा निमित्त पाया था किन्तु, विमल ने सिद्ध क्षेत्र पहुँच ने के पूर्व अपने मनोगत भांवों की किसको सूचना भी न की और क्रमशः चलता हुआ संघ तीर्थ स्थान पर सकुशल आ गया । सब ने दादा के दर्शन, स्पर्शनकर अपने मनोरथों को सफल बनाने में भाग्यशाली बने । पूजा प्रभावना, स्वामीवात्सल्य' धाजामहोत्सवादि पावन कार्यों में उदार दील से पुष्कल द्रव्य व्यय कर अपूर्व पुण्यमय लाभ उपार्जन किया। जब संघपति सूरिजी को वंदन करनगये तब सूरीजी ने कहा कि पुण्य शाली ! क्या विचार है १ विमल ने कहा-वे ही दीक्षा ग्रहण करने के दृढ़ विचार हैं सूरिजी ने कहा-तब क्या देर है ? विमल-भगवान् ! देर कुछ विमल का वैराग्य और दीक्षा १०१३ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६०१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नहीं, सब कार्य तो कर चुका हूँ, फेवल दीक्षा का काम रहा है सो वह भी कल तक हो जायगा । सूरिजी में कहा-'जहासुहं'। सूरीश्वरजी के चरण कमलों में वंदन करने के पश्चात् विमल अपने निर्दिष्ट स्थान पर आया । अपने सकल परिवार को एव कौटुम्बिक सम्बन्धियों को बुला कर कहने लगा-मेरी भावना कल आचार्यश्री के पास में दीक्षा लेने की है अतः आप सर्व की अनुमति चाहता हूँ । विमल के . हृदय स्पर्धा वचनों को श्रवण कर सब के सब अवाक रहगये । अन्त में विमल की पत्नी ने विनय पूर्वक कहा प्राणेश्वर ! यदि आपको दीक्षा लेना ही है तो कम से कम संघ को लेकर पुनः अपने घर पधार जाइये । वहां मैं भी आपके साथ दीक्षा ग्रहण करूगी । विमल ने कहा-जब दीक्षा लेनी ही है तो ऐसे पावन तीर्थ स्थल को छोड़ कर घर जाकर दीक्षा अङ्गीकार करने में क्या विशेष लाभ है ? कुछ भी हो, मैं तो इसी स्थान पर कल दीक्षा ग्रहण करूगा । इस विषय में विमल के पुत्रों ने भी बहुत कुछ कहा किन्तु विमल, अपने कृत निश्चय पर अडिग रह।। आखिर विमल ने, अपनी पत्नी सहित ११ श्रावक श्राविकाओं के साथ सिद्धाचल के पवित्र आक्षय स्थान में सूरीश्वर जी के कर कमलों से परमवैराग्य पूर्वक दीक्षा स्वीकार की । उस ही दिन से विमल का नाम विनयसुंदर रख दिया गया। ___ संघपति के उत्तर दायित्व की माला विमल के ज्येष्ठ पुत्र श्रीपाल को पहिनाई गई। काशः संघ चलकर पुनः मेदिनीपुर श्राया । संघपति श्रीपाल ने संघ को स्वामी वात्सल्य व सवासेर मोदक में पांच स्वर्ण मुद्रिकाएं डालकर स्वधर्मों भाइयों को पहिरावणी दी । याचकों को प्रचुर परिमाण में दान दे संध को सुष्ठ प्रकारेण विसर्जित किया। श्राचार्यश्री सिद्धसूरिजी ने मरुधर में विहार कर स्थान २ पर जैनधर्म का उद्योत किया। मुनि विनयसुन्दर भी इस समय पूज्य गुरुदेव की सेवा का लाभ लेता हुआ मनन पूर्वक शास्त्रों का अभ्यास करने लगा । विमल ऐसे तो स्वाभावतः ही कुशाग्र बुद्धि वाला था, फिर गुरुदेव का संयोग तो स्वर्ण में सुगंध का सा काम करने लगा। परिणाम स्वरूप थोड़े ही समय में विनयसुंदर न्याय, व्याकरण तर्क, छन्द, काव्य, अलंकार, निमित्तादि शास्त्रों का अभ्यास कर उद्भट-अजोड़ विद्वान होगया। विद्वात्ता के साथ ही साथ उस समय के लिये परमावश्यक वाद विवाद की शक्ति संचय में भी अनवरत गति से वृद्धि करने लगे। इतना ही नहीं, कई राज सभाओं के दिग्गज वादियों को नत मस्तक कर उन्हें जिनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुयायी बनाये । इसतरह सर्वत्र जैनधर्म की विजयपताका फहराते रहे । अन्त में योग विद्या से अपना मृत्यु समय नजदीक जान सिद्धसूरि ने अपने अन्तिम सत्य नागपुर के चातुर्मास के बाद देवी सच्चायिका के परमर्शानुसार, भाद्र गौत्रीय शाः गोल्ह के महा मत्सा पूर्वक विनय सुंदर मुनि को सूरि पद से विभूषित किया । परम्परानुसार आपका नाम कक्क सूरि रखदिया गया। श्रीसिद्ध सूरिजी तो उसही दिन से अपनी अन्तिम संलेखना में संलग्न हो गये उपकेशगच्छाचार्यों में क्रमशः रत्नप्रभसूरि, यक्षदेवसूरि, कक्कसूरि, देवगुसूरि, सिद्धसूरि; इन पांच नामों की परम्परा चली आ रही थी किन्तु काल दोष से किंवा देवी के कथन में राप्रभसूरि और यक्षदेवसूगि, ये दोनाम भण्डार (बंद) कर देने पड़े । अतः अब से कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि ये तीन नाम ही क्रमशः रक्खे जाने लगे। इसी के अनुसार सिद्धसूरि के पट्ट पर प्राचार्य कक्कसूरि हुए । १०१४ विनयसुन्दर को सूरिपद Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९५८-१००१ आचार्य काकसूरि एक महान् प्रतिभाशाली, तेजस्वी प्राचार्य हुए । आपके आज्ञानुवर्ती हजारों साधु साध्वी पृथक् २ क्षेत्रों में विचर कर जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे किन्तु काल दोष से कुच्छ श्रमण मण्डली में साधु वृत्ति विषयक राम नियमों में कुछ शिथिलता श्राचुकी थी। श्री सूरिजी से संयम वृत्ति विघातक शिथिलता सहन न हो खसी । उन्हें इसका प्रारम्भिक चिकित्सोपचार ही हितकर ज्ञात हुआ। वे विचारने लगे कि जिन सुविहितों चैत्यवास करते हुए भी शासन की महती प्रभावना की उन्हीं में आज कलिकाल की करता से चरित्र विराधा वृत्ति ने आश्रय कर लिया है अतः इसका प्रथम स्टेप में अन्तकर देना भविष्य के लिये विशेष अयस्कर है अन्यथा यही शिथिलता भयंकर रूप धारण कर परिष्कृत मार्ग को भी अवरुद्ध कर देगी। बस, उ. विचारधारानुमार वे शीघ्र ही जावलीपुर पधार गये। वहां के श्रीसंघ को उपदेश से जागृत कर, प्राविष्ट होती हुई शिथिलता को रोकने के लिये, निकट भविष्य में ही श्रमण सभा करने के लिये प्रेरित किया। श्रीसंबने भी धर्महास की दीर्घदृष्टि का विचार कर प्राचार्यश्री के वचनों को शिरोधार्य किया तत्काल एक सुन्दर योजना बनाकर आचार्यश्री की सेवा में रखदी गई। उक्त निश्चय नुसार बहुत दूर दूर के प्रदेशों में श्रामंत्रण पत्रिकाएं भेजी गई । सर्व साधुओं को जाबलीपुर में एकत्रित होतो के लिये प्रार्थना की गई । आमन्त्रण पत्रिकाओं को प्राप्त कर धर्म प्रेम के पावन रस में लीन हुए, उसके शगच्छीय, कोरंटगच्छीय, और वीर परम्परागत मुनिवर्ग, एवं श्राद्ध समुदाय ठीक दिन जाबलीपुर में एपित हुए । निर्धारित समयानुसार सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ । सर्व प्रथम श्रमण सभायोजना के उद्देश्यों का जन समाज के समक्ष सविशद दिग्दर्शन कराया गया। तत्पश्चात् श्राचार्यश्रीककसूरिजी ने ओजस्वी बाणी द्वारा सकल जन समुदाय को अपनी ओर चुम्बक वत् आकर्षित करते हुए प्रेम, संगठर, आचार व्यवहार, समयोचित कर्तव्यादि के अनुकूल विषयों पर संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित उपदेश देना प्रारम्भ किया । सूरिजी ने फरमाया कि महानुभावों ! अाज हम सब किसी एक विशेष शासन के कार्य के लिये एकत्रित हुए हैं। हा सबों में पारस्परिक गच्छ-समुदाय का भेद होने पर भी वीतराग देवोपासक बार व्यवहारों की समानता से जैनत्व का दृढ़ रंग सभी में सरीखा ही है हम सब एक पथ के पथिक हैं। भगवान महावीर के शासन की रक्षा एवं वृद्धि करना ही सब का परम ध्येय है। किन्तु, वर्तमान में हमारे शासन की क्या दशा होगई है ? यह किसी समयज्ञ से प्रच्छन्न नहीं है । जब कि एक और अन्य लोग अपना प्रचार कार्य अन्नरस गति पूर्वक बढ़ा रहे हैं तब दूसरी ओर हमारे में कही कही शिथिलता ने प्रवेश का दिया है। मृत तुल्य वाममार्गियों में पुनः जीवन आ रहा है । वेदान्तियों में हिंसा जनक विधानों के यज्ञ कार्य प्राय: लुह सा होगया तथापि देवदेवियों के नाम पर उत्तेजना मिल रही है तब, हमारे में नये नये गच्छ, मतमतान्तर एवं समुदायों का प्रादुर्भाव होकर संगठित शक्ति का ह्रास किया जा रहा है। श्रमण वर्ग भी साधुत्व वृत्ति साधक श्राचार व्यवहार की ओर विशेष ध्यान नहीं देते है । बन्धुओं ! अपने पूर्वजों ने जैनेतरों पर जैनधर्म का जो स्थायी प्रभाव डाला था, उसमें मुख्य उनके प्राचार विचार विषयक उत्कृष्टता, भनेकान्त सिद्धान्त ज्ञान की गम्भीरता ही कारण हैं जैन श्रमणों के प्राचार का तुलनात्मक दृष्टि से इतर कोई दर्शन साम्य नहीं कर सकता है। साधारण जनता में जो साधुओं के प्रति, एवं धर्म के प्रति श्रद्धा है उसमें अपने क्रिया काण्डों की दुष्क तावं श्रात्म कल्याण की अभीप्सित भावनाओं की सुगमता ही प्रधान हेतु है । अतः अपने आचार विचारों में, या नियमों में, शास्त्रीय विधानों में किञ्चिन्मात्र भी शिथिलता ने प्रवेश किया नहीं कि जावलीपुर में संघ सभा १०१५ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६०१] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भविष्य का उन्नति मार्ग दो प्रकार से अवरुद्ध होजायगा । एक तो स्वयं भी आत्मकल्याण की उत्कृष्ट भावनाओं से, मुक्ति एवं परम निर्वृत्तिमय धाम से सैकड़ों कोस दूर हो जायेंगे और दूसरा भद्रिक जनता के लिये स्वाभाविक अश्रद्धा के कारण बन जावेंगे। प्यारे श्रमणवर्ग ! वीरों की सन्तान वीर होती है न कि कायर । जो कायर हैं वे वीर पुत्र कहलाने के अधिकारी नहीं । हमारा इस अवस्था में साधुवृत्ति में रहते हुए) क्या कर्तव्य है, यह आप लोगों से प्रच्छन नहीं कारण, हमने सांसारिक एवं पौद्गलिक अस्थिर, क्षणभुङ्गुर सुखों पर लात मार कर, मुक्ति मार्ग की आराधना को चरम लक्ष्य बना, परम कल्याण मय चारित्र पथ स्वीकृत किया है। अतः अपने अन्तिम लक्ष्य को विस्मृत न करते हुए शासनोन्नति करने के साथ ही साथ आत्मोन्नति ध्येय को भी अपनी उन्नति का मुख्य अङ्ग मानकर तन मन से शासन कार्य में जुट जाना चाहिये । इसी में स्वपरोन्नति सन्निहित है। __ मैं जानता हूँ कि सिंह थोड़ी देर के लिये तंद्रावश हो निर्जीववत् गिरिकंदरा में सो जाता है तो क्षुद्र मक्षिकाएं भी उसके मुखपर बैठजाती हैं किन्तु जब वह दूसरे ही क्षण हाथ उठाकर गगन भेदी गर्जना करता है तब मक्षिकाएं तो क्या पर, झरते हुए मद से मदोन्मत्त बनी हुई गजराशि भी शक्ति विहीन निस्तेज होजाती है। उदाहरणार्थ-जब उपाध्य देवचंद्र मुनि ने चैत्यव्यवस्था के कार्य में अपने वास्तविक यमनियम को विस्मृत कर दिया तब, सर्वदेव सूरि की सिंह गर्जना ने उन्हे पुनः जागृतकर उपबिहारी बना दिया। श्रमणों ! आज मैं अपने बन्धुओं में कुछ शिथिलता का अंश देख रहा हूँ। अत: इसको निवारण करने के लिये ही श्रमण सभा का आयोजन किया गया है । मुझे यही कहना है कि हम लोग आई हुई शिथिलता को दूर कर शीघ्र ही शासनोन्नति के कार्यों में सलंग्न हो जावें । कारण शिथिलता एक चेपी रोग है; इसके फैलने में देर नहीं लगती है। अतः इसके स्पर्श को नहीं होने देने में ही अपना गौरव है। दूसरा शिथिलता का एक कारण यह भी है कि - हमारे अन्दर शिष्य पिपासा बढ़ गई है दीक्षेच्छुकों के त्याग वैराग्य की भी परीक्षा नहीं करते हैं, न उनकी योग्यता को दीक्षा की कसौटी पर ही कसते हैं। बस शिष्य लालसा की पिणसा की धुन में शासन हित की महत्व पूर्ण जिम्मेवारी को भूल, नहीं करने योग्य कार्य को भी कर्तव्य रूप बना लेते हैं । अन्त में परिणाम स्वरूप शासन के भारभूत वे अयोग्य दीक्षित रसगृही, लोलुपी, इन्द्रिय पोषक, सुखशलिये बनकर अपने साथ में अनेकों का अहित कर शासन को भारी हानि पहुँचाते हैं । पहिले जो दीक्षाएं दी या ली जाती थीं वे सब कल्याण की उन्नत भावनाओं से प्रेरित होकर के ही किन्तु, सम्प्रति कही कही इससे विरुद्ध सा ही दृष्टि गोचर हो रहा है । हम लोग अपनी जमात बढ़ाने के लिये योग्यायोग्य का विचार किये बिना प्रत्येक को-चाहे वैराग्य के रंग से रंगा हुआ न भी हो-दीक्षा देते जा रहे हैं। इस प्रकार जबर्दस्ती शिष्य बढ़ाने की अभिलाषा भी तब ही उत्पन्न होती है जबकि हम अपने गुरु को छोड़ बड़े बन अलग होने का प्रयत्न करते हैं। यदि गुरुकुलवास में रहने में ही गौरव समझा जाता हो तो न तो अलग बाड़ा बंदी की जरूरत है और न अयोग्य को दीक्षा देने की आवश्यकता है । प्यारे श्रमणो! आप दीर्घ दृष्टि से सोच लीजिये कि न इस कुप्रकृत्ति से शासन का हित है और न आत्म कल्याण ही। प्रिय आत्म बन्धुओं ! शासन का उद्धार एवं प्रचार आप जैसे भमण वीरों ने किया और भविष्य में भी श्राप जैसे साहसी ही कर सकेंगे । अतः श्राचार विचार विषयक शैथिल्य को छोडकर शासन प्रभावना प १०१६ शासन दशा का चित्र Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य ककसरि का जीवन ] | ओसवाल सं० ९५८ से १००१ वहित (श्रात्म कल्याण ) के लिये कटिबद्ध हो जाइये । अपने पूर्वजों ने तो हजारों लाखों दुस्सह यातसानों एवं कठिनाइयों को सहन कर 'महाजनसंघ' रूप एक बृहद् संस्था संस्थापन की है तो क्या हम (तने गये बीते हैं कि-पूर्वाचार्यों के बनाये महाजनसंघ की वृद्धि न कर सकें तो-रक्षा भी न कर सकें ? हा, कदापि नहीं । मुझे दृढ़ विश्वास है कि अत्रागत श्रमण वर्ग अवश्य ही अपने कर्तव्य को पहिचान कर शासनोन्नति के कार्य में सलग्न हो जायेंगे। ___ साथ ही दो शब्द श्राद्ध वर्ग के लिये प्रसङ्गोपेत कह देना भी अनुचित न होगा । कारण, तीर्थङ्कर भगवान् ने चतुर्विध श्रीसंघ में आपका भी बराबरी का श्रासन रक्खा है । पूर्वाचार्यों ने इत उत सर्वत्र देश विदेशों में जो जैनधर्म का प्रचार किया है उसमें, आपके पूर्वजों का भी तन, मन, एवं धन से यथानुकूल सहयोग पर्याप्त मात्रा में था । आपका कर्तव्य मार्ग तो इतना विशाल है कि यदि कभी साधु अपनी साधुत्व वृत्ति से विचलित हो जाय तो आप उसे पुनः भक्ति से कर्तव्य मार्गारूढ़ बनाकर शासनोन्नति में परम सहायक बन सकते हैं। श्रमण संघ में जो शिथिलता आती है वह भी, श्राद्ध वर्ग की उपेक्षा वृत्ति से ही। जब तीर्थकर, गणघरों ने साधुओं के लिये शीतोष्ण काल में एक मास और चातुर्मास में चार मास की मर्यादा का समय बांध दिया है तथा वस्त्र, पात्र वगैरह हर एक उपकरणों के कल्पाकल्प का नियम बना दिया है तो क्यों कर भाद्ध वर्ग उक्त नियम विघातक साधुओं को उत्तेजना देकर शिथिलता फैलाते हैं ? इन नियमों का अतिक्रमण कर स्वच्छंद विचरने वाले साधु को श्रावक, हरएक तरह से सन्मार्ग पर ले आने के लिए स्वतंत्र है । यों तो आवक, साधुओं के-संयम वृत्ति निर्वाहकों को पूज्य भाव से वंदन करता है पर फिरभी शास्त्रकारों ने इन्हें माता पिता की उपमादी है । रत्नों की माला में साधु, श्रावक को एकसा ही बतलाया है अर्थात्-साधु, श्रावक भगवान् के पुत्र तुल्य हैं । उदाहरणार्थ एक पिता के दो पुत्रों में एक भाई के घर में नुक्सान हो तो क्या दूसरा भाई इसकी अवहेलना कर खड़े खड़े देखा करे ? नहीं कदापि नहीं; तो यही बात साधु श्रावकके लिये समक कीजिये। सूरिजी के उक्त प्रभावोत्पादक वक्तृत्व ने श्रमण एवं श्राद्धवर्ग की सुप्त आत्माओंमें अपूर्व शक्ति संचा. जन करदी । वे सब प्रोत्साहित हो सूरिजी से अर्ज करने लगे--भगवन् ! श्रापका कहना सोलह आना सत्य है । आप शासन के शुभ चिंतक हैं । आपकी आज्ञा हम शिरोधार्य करते हैं । हम आज से ही अपना कर्तव्य अदा करने में सदा कटिबद्ध रहेंगे । यों तो पूज्य गुरुदेवों ने आत्म कल्याण के लिये पौद्गलिक सुखों का त्याग करके ही संयम वृत्ति को स्वीकार की है तो फिर वे अपना या शासन का अहित कैसे करेंगे ? फिर भी कोई शिथिल होगा तो हम मर्ज कर के या संघ सत्ता से उसे उपविहारी बनाने का प्रयत्न करेंगे। इस तरह सूरिजी महाराज का परमोपकार मानते हुए वीर जय ध्वनि के साथ सभा विसर्जित हुई। श्राज स्या श्रावकों में और क्या साधुओं में-जहां देखो वहां ही सूरिजी के व्याख्यान की प्रशंसा हो रही थी । विशेष प्रसन्नता तो जाबलीपुर के श्रीसंघ को थी कि सर्व कार्य निर्विघ्नतया, सानंद, सोत्साह सम्पन्न होगया। दूसरे दिन एक श्रमण सभा हुई । इसमें आये हुए साधुओं के खास खास आचार्यों को एकत्रित कर जैनधर्म का व्यापक प्रचार करने एवं वादियों से शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की सुयशःपताका चतुर्दिक फहराने की सूरिश्वरजी का उपदेश १०१७ Jain Education Intomational 900 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६०१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नवीन स्कीम (योजना) बनाई गई । योग्य मुनियों को पदवी प्रदान कर उनके उत्साह को बढ़ाया गया। प्रत्येक प्रान्त में सुयोग्य पदवीधरों को अलग २ विचरने की आज्ञा प्रदान की गई। अहा हा, उन पूर्वाचार्यों के हृदय में शासन के प्रति कितनी उन्नत एवं उत्तम भावनाएं थी। शासन का थोड़ा भी अहित, अपनी आंखों से नहीं देख सकते थे। जहां कहीं भी जरासी गफलत दृष्टिगोचर होती-तुरत उसे रोकने का हर तरह से प्रयत्न किया जाता । विशेषता तो यह थी कि उस समय भी कई गच्छ, शाखा कुल एवं गण विद्यमान थे परन्तु नामादिक भेद होने पर भी शासन के हित कार्य में वे सब एक थे । एक दूसरे को हर तरह से सहायता देकर शासन के विशेष महात्म्य को बढ़ाने के लिये उनके हृदय में अपूर्व क्रान्ति की लहर विद्यमान थी। वे आपसी मतभेद खेंचातानी एवं मैं मैं, तूं तू, में अपनी संयम पोषक-शक्ति का अपव्यय नहीं करते थे । यही कारण था कि उस समय करोड़ों की संख्या में विद्यमान जैन जनता संगठन के एक हद सूत्र में बंधी हुई थी। चारों और जैन धर्म का ही पवित्र मंडा फहराता हुआ दिखाई देता था। ये सब हमारे पूर्वाचार्यों की कार्य कुशलता के सुंदर परिणाम थे।। प्राचार्य कक्कसूरिजी जाबलीपुर से विहार करने वाले थे पर जाबलीपुर का संघ इस बात के लिये कब सहमत था १ वह घर आई पवित्र गङ्गा को पूर्ण लाभ लिये बिना कैसे जाने देता ? अतः सकल श्री संपने परमोत्साह पूर्वक चातुर्मास की विनती की। श्रीसूरिजी ने भी भविष्य के लाभालाभ का कारण जान कर भीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार करली । अब तो श्रीसंघ का उत्साह और भी बढ़ गया। घर घर में पानंद को अपूर्व रेखा फैल गई। सूरिजी ने चातुर्मास के पूर्व का समय सत्यपुर, भिन्न मालादि क्षेत्रों में धर्म प्रचार करने में बिताया। पुनः चातुर्मास के ठीक समय पर जाबलीपुर में पधार कर चातुर्मास कर दिया। प्राचार्यश्री के चातुर्मास में श्रीसंघ को जो जो आशाएं थी वे सब सानंद पूर्ण हुई, सूरिजी का व्याख्यान हमेशा तात्विक, दार्शनिक, आध्यात्मिक त्याग वैराग्य पर हुआ करता था। विशेष लक्ष्य प्रारम कल्याण की ओर दिया जाता था। यही कारण था कि चातुर्मास समाप्त होते ही सात पुरुषों और ग्यारह बहिनों ने सूरिजी के कर कमलों से भगवती जैन दीक्षा स्वीकार कर पात्म श्रेय सम्पादन किया। चातुर्मा सानंतर सूरिजी ने विहार कर कोरंटपुर महावीर की यात्रा की और क्रमशः पाल्हिका को पावन बनाया। पाल्हिका में कुछ समय तक स्थिरता कर जनता को धर्मोपदेश द्वारा जागृत करते रहे। जब उपके शपुर के श्रीसंघ. को उक्त शुभ समाचार ज्ञात हुए कि- आचार्यश्री कक्क सूरिजी म० पाल्हिका में विराजमान हैं तो वहां का भीसंघ अविलम्ब भाचार्य देव के दर्शनार्थ आया और उपकेशपुर पधारने की साग्रह प्रार्थना की। सूरिजी जानते थे कि उपकेशपुर जाने पर तो चातुर्मास वहां करना ही पड़ेगा अतः चातुर्मास के पूर्व, सौजाली, वैराटपुर, शाकम्भरी, हंसावली, पद्मावती, मेदिनीपुर, फलवृद्धि, नागपुर, मुग्धपुर, खटकुप नगर, हर्षपुर वगैरह छोटे बड़े प्रामों में परिभ्रमनकर धर्म जागृति द्वारा जैन जनता में नवीन स्फूर्ति का प्रादुर्भाव करना विशेष श्रेयस्कर होगा । अतः श्रागत श्रीसंघ को तो जैसी क्षेत्र स्पर्शना-कहकर विदा किया, इधर आचार्य भी उक्त ग्राम शहरों में होते हुए जब माण्डव्यपुर पधारे तब तो उपकेशपुर श्रीसंघ ने, माण्डव्यपुर और उपकेशपुर के बीच चातुर्मास की प्रार्थना के लिये आने जाने का तांता सा बांध दिया। उपकेशपुरीय श्रीसंघ की र्थिना को मान दे सूरीश्वरजी जब उपकेशपुर पधारे तो श्रीसंघ ने आपका बड़ा ही शानदार स्वागत १०१८ जाबलीपुर में चातुर्मास Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन । | ओसवाल सं० १५८ से १००१ unMAanama किया । कुमट गौत्रीय शा. भोजा ने सवालक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव कराया । स्वधर्मी भाइयों को प्रभावना और याचकों को उदार वृत्ति से सन्तोष पूर्ण दान दिया। भगवान् महावीर और प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के दर्शन कर सूरिजी ने संक्षिप्त किन्तु, सारगर्भित देशना दी । सर्व श्रोतावर्गानन्दोद्रेकसे ओत प्रोत हो गये । क्रमशः सभा विसर्जन हुई पर धर्म के परम अनुरागियों के हृदय में नवीन क्रान्ति एवं स्फूर्ति दृष्टि गोचर होने लगी। संघ ने विशेष लाभ प्राप्त करने की इच्छा से भाचार्यश्री की सेवा में चातुर्मास की जोरदार विनती की। सूरिजी ने भी लाभ का कारण जान उक्त प्रार्थना को स्वीकार करली । बस फिर तो था ही क्या ? लोगों का उत्साह एवं धर्मानुराग खूब ही बढ़ गया। सूरिजी के इस चातुर्मास से उपकेशपुर और आस पास के लोगों को भी बहुत लाभ हुआ। ___ उपकेश पुर में चरड़ गोत्रीय कांकरिया शाखा के शा. थेरु के पुत्र लिंबा की विधवा नानी बहिन अपने पर में एकाएक थी । सूरिजीके वैराग्योत्पाद व्याख्यान से उसे असार संसारसे अरुचि होगई । उसने सूरिजी की सेवा में अपने मनोगत भावों को प्रदर्शित किया और नम्रता पूर्वक अर्ज की कि-भगवान् ! मेरे पास जो अवशिष्ट द्रव्य है उसके सदुपयोग का भी कोई उत्तम मार्ग बतावें । सूरिजी ने फरमाया-बहिन शास्त्रों में अत्यन्त पुन्योपार्जन साधन एवं कर्म निर्जरा के हेतुभत सात क्षेत्र दान के लिए उत्तम बताये हैं इन क्षेत्रों में जहां आवश्यकता ज्ञात हो वहां इस द्रव्य का सदुपयोग कर पुण्य सम्पादन किया जा सकता है । पर मेरे ध्यान से खो यह कार्य प्रामाणिक संघ के अप्रेश्वर को सौंप दिया जाय तो सभीचीन होगा। नानी बाई को भी सूरिजी का कहना यथार्थ प्रतीत हुआ और तरक्षण ही आदित्यनागगोत्रिय सलक्खण, श्रेष्टिगोत्रीय नागदेव, चरड़ गौत्रीय पुनड़ और सुचंति गौत्रीय निम्बा इन चार संघ के अप्रगण्य व्यक्तियों को बुलाकर करीब एक करोड रूपयों का स्टेट सुपुर्द कर किया गया। सुपुर्द करते हुए नानी बाई ने कहा कि-इन रूपयों का आपको जैसा सचित ज्ञात हो उस तरह से सदुपयोग करें। मुझे तो अब दीक्षा लेने की है। उन चारों शुभचिन्तकों ने सूरि जी से परामर्श कर उपकेशपुर में एक ज्ञान भण्डार की स्थापना करदी और वर्तमान में मौजूद आगमों को लिखाना प्रारम्भ कर दिया । कुछ द्रव्य दीक्षा महोत्सव पूजा-प्रभावना-स्वामीवात्सल्यादि कार्यों में भी व्यय किया गया। अवशिष्ट द्रव्य के सदुपयोग की सन्तोष पूर्ण व्यवस्था कर दी। नानी बाई के साथ आठ बहिनें और तीन पुरुष भी दीक्षा लेने को 'यार हो गये । चातुर्मास के पश्चात् सूरिजी ने शुभ मुहूर्त और स्थिर लग्न में उन दीक्षा के उम्मेदवारों को दीक्षा देदो । कुम्मट गौत्रीय शाह मेधा के बनवाये हुए भगवान पार्श्वनाथ के मन्दिर की भी प्रतिष्ठा करवाई । कुछ समय के पश्चात् वहां से विहार कर सूरिजी महाराज मेदपाट, अवन्ति, चेदी, बुदेलखण्ड, शौरसेन, कुरु पञ्चाल, कुनाल सिंध कच्छादि प्रदेशों में परिभ्रमण करते हुए सौराष्ट्र प्रान्त में पदार्पण कर तीर्थश्वर श्री शत्रुन्जय की यात्रा की । इस विहार के अन्तर्गत आपने कई भावुकों को दीक्षा दी, कई म स, मदिरा सेवियों को जैनधर्म की शिक्षा देकर अहिंसा धर्म के परमोपासक बनाये । महाजन संघ में सम्मिलित कर महाजन संघ की वृद्धि की । कई मन्दिर, मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन धर्म की नींव को सुदृढ़तम की। इस तरह आपश्री ने जैनधर्म की खूब ही प्रभावना एवं उन्नति की। जब आप स्तम्भनपुर का चातुर्मास समाप्त करके क्रमशः मरुधर में पर्यटन करते हुए चंद्रावती में पधारे उस समय आपकी वृद्धावस्था हो चुकी थी। अतः यहां के श्रीसंघ ने प्रार्थना की कि--पूज्यवर ! नानी बहिन के द्रव्य की व्यवस्था Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६०१] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भाप अपने पट्ट पर किसी योग्य मुनि को सूरिपद प्रदान करें, कारण आपकी अवस्था पर्याप्त हो चुकी है। पड़ी कृपा होगी कि यह लाभ यहां के श्रीसंघ को प्रदान करें। श्रीसूरिजी ने भी संघ की प्रार्थना को समयोचित समझ कर स्वीकार करली । प्राग्वट्ट वंशीय शा. कुम्भाने सूरिपद का महोत्सव बड़े ही समारोह से किया । श्री आचार्यदेव ने भी अपने सुयोग्य शिष्य उपाध्याय मेरुप्रभ को भगवान महावीर के मंदिर में सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया । शा. कुम्भा ने भी इस महोत्सव निमित्त पूजा-प्रभावना, स्वामी वात्सल्य और आये हुए स्वधर्मी भाइयों को पहिरावणी वगैरह देकर पांचलक्ष्य द्रव्य व्यय से जैन शासन की खूब उन्नति एवं प्रभावना की। प्राचार्य कक्कसूरिजी ने अपने गच्छ के सम्पूर्ण उत्तरदायित्व को देवगुप्तसूरिके सुपुर्दकर श्राप अंतिम मैलेखना में संलग्न होगये। यह चातुर्मास भी श्रीसंघ के आग्रह से चंद्रावती में कर दिया गया। जब आप श्री ने अपने ज्ञान वल से अपने देहोत्सर्ग के समय को नजदीक जान लिया तो श्रीसंघ के समक्ष आलो. चना कर समाधिपूर्वक २४ दिन तक अनशन व्रत की आराधना कर पंच परमेष्टि के स्मरणपूर्वक स्वर्गधाम पचार गये। प्राचार्य कक्कसूरिजी महाराज महान् प्रभाविक प्राचार्य हुए हैं आपने अपने ४३ वर्ष के शासन में अनेक प्रान्तों में विहार कर जैनधर्म की आशातीत सेवा की। पूर्वाचार्यों के द्वारा संस्थापित महाजन Jश एवं भमण संघ में खूब ही वृद्धि को। श्राप द्वारा किये हुए शासन कार्यों का वंशावलियों एवं पट्टावलियों में सविस्तार वर्णन है पर प्रन्थ बढ़जाने के भय से यहां संक्षिप्त नामावली मात्र लिख देता हूँ पूज्याचार्य देवके ४३ वर्षों के शासन में भावुकों की दीक्षाए १- कवलियां के भूरि गौत्रीय शाह देदो सूरिजी के पास दीक्षा ली २-खेटकपुर के बाप्पनाग , , मेधो ३-गोदाणी के चरड़ , लाडुक ४-विजापुर के भाद्र , नारायण ५-हर्षपुर के प्राग्वट वंश , , नाथो ६-बीजोड़ा के , ,, ,, चोरवो ७-भवानीपुर के श्रादित्य , साहराणा ८-माडव्यपुर के , " " फागु ९-- पद्मावती के श्रीमालवंश , , नोदो १०-चंदेरी के बोहरा , , चांपी ११-वदनपुर के बलाहारांका , , चतरो १२ -श्राघाटनगरके सुचंति , , दुर्गों १३-नागपुर के कुमट , , राणो १४-~-मुग्धपुर के कनौजिया , , रायपाल सूरिश्वरजी के शासन में दीक्षाएं १०२० Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन । [ओसवाल सं. ९५८ से १००१ , पेथो " दोलो , खीवसी , जोगो " देखो १५-गोधाणी के चिंचट गौत्रीय शाह भैरो सूरिजी के पास दोक्षा ली १६ -वाचुला के डिडु , , हरदेव १७-हथुड़ी के प्राग्वट , , पातो १८-माकोली के श्रीश्रीमाल , , फूत्रो १९-रूणावती के मोरख ,, जैतसी २०-चौराणी के भटेवग , " मुकनो २१-दान्तिपुर के तप्तभट , २२-डागाणी के प्राग्वट । ,, जागो २३-शाकम्भरी के प्राग्वट , सुरजण २४-एहतवाड़ के करणाट , २५-वीरपुर के चोरलिया , २६-डामरेल के पल्लीवाल , २७-कथोली के कुलहट २८-बुलोल के श्रीमाल ". " धरमण २९-टोली के नाहटा , , नाथो ३०-जेतपुर के भूरि , , काल्हण २१-गुड़की के श्रीमाल , , सेल्हो ३२-घरगाव के प्राग्वट ". "मुंधण ३३-टेलीग्राम के वीरहट , , मीमण ३४-मादलपुर के प्राग्वट , रोड़ो इनके अलावा भी कइ इनके साथियों ने तथा महिलाए ने भी दीक्षा ली परन्तु प्रन्थ बढ़ जाने के भय से उपलब्ध नामों से थोडे नाम यहां पर लिख दिये है। इससे पाठक ! समझ सकते हैं कि वह जमाना कैसे संस्कारी था कि वे बात की बात में आत्मकल्याणार्थ घर का त्याग कर निकल जाते थे । आचार्य श्री के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाए १-नागपुर के श्रादित्य भीमाशाह ने भगवान् पार्श्व० मन्दिर की प्रतिष्ठा २-भावाणी , श्रीष्टि० करमण ने , महावीर , ३-श्राजोड़ी , भाद्र० पैराशाहने , " ४-मुग्धपुर , सुचंति० नानग ने ५-खटकूप , बप्प नाग० सांगा ने " पाश्वनाथ ६-चोणाट , चौरलिया चतराने ७-आसिका , दिडु० गोमाने ८-अघाट , चिंचट० नारायण ने सूरिश्वरजी के शासन में मन्दिरों की " श्रादिनाथ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६०१ ] ९- अर्जुनपुरी के वीरहट० भोमाने १०० - विराटू " भूरि० देवाने ११ - सोनाणी १२ - मादड़ी १३ - मोकाणा १४ - शिवगढ़ १५--- चन्द्रावती १६ - पद्मावती १७ -- पांचाड़ी १८ - पद्मावती १९ - कलावणी २०--करणावती २१ - विजापुर २२ - चारोणी २३ - सोजाली २४ - रहतगढ़ २५ - श्राभापुरी २६ - थंभोर २७- पासाली २८ - कोठरो,, २९- अरहट ३० - नागपुर 39 " प्रग्विट सबलाने ,” 33 १०२२ " 19 19 19 प्राग्वट नागदेव ने 99 " कुलइट नारायणने प्राग्वट० रामा ने 99 39 " प्राग्वट जसा ने भष्टि० गांगाने "" सप्तभट्ट० लालाने का० पद्मा ने ਜੋ 97 प्राग्वट० पुरा प्राग्वट देसल ने श्रीमाल ० कु पा ने पल्लोवाल फागुने मंत्री मेहराने श्रष्टगुणाढ्ने वीरहट गोल्हा ने "} " भाद्र० पुनड़ने भूरि० केटराने कनोजिया कल्हण १ - डमरेल का मंत्री राजसी ने २ - सोपारपतन का सुचंति शाह टीलाने ३ – चन्द्रावती का प्राग्वट खुमाण ने ४ - चित्रकोट के मंत्री सुरजराने ५- आघाट नगर के चिंचट नारायण ६ - मथुरा का श्रेष्टि शाह सहजपाल ने ७ - कोरटपुरका श्रीमाल देव ने ने ८ - माढव्यपुर के मंत्री लालाने ९ - भरोंच से श्रीमाल धारसी ने "" "" " [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भ० शान्तिनाथ मन्दिर की प्रतीष्ठा 33 39 99 भ० महावीर 99 "" 79 99 33 " 99 99 "" "" 33 33 "" " " 33 29 19 पार्श्वनाथ 39 नेमिनाथ विमलनाथ पार्श्वनाथ "" 37 39 महावीर "" "" 39 99 "" बीस बिहरमान 33 "" "" " श्रादीश्वर " महावीर "" 59 33 सम्मेत शिखरका जा "" 37 37 33 "" 57 "1 "" " लघु ष्टि० चोखाने " प्राग्वट रावल ने 19 पूज्याचार्य श्री के ४३ वर्ष के शासन में संघा दि सद्कार्य शत्रुंजय का संघ निकला 39 29 99 39 9 99 39 39 "" 93 "" "" "" 99 39 " " "9 39 99 31 "9 39 39 59 99 " 33 99 19 33 " " 72 13 " 39 19 99 29 "9 39 19 99 39 39 सूरिजी के शासन में संघादि सद्कार्य Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरी का जीवन ] १० - नागपुर से अदित्य नाग० नोंधण ने शत्रुंजय का संघ निकाला ११ - भद्रेसर से श्रीमाल हाप्पाने 99 "" 59 १२ - धोलपुर के प्राग्वट पोमा की विधवा स्त्री ने गाव के पूर्व दिशा में तलाब खुदायो १३ - पद्मावती के प्राग्वट जैता की पुत्री रूकमणी ने पग वाव खुदाई १४ - शंखपुर में श्रेष्टि साचा की पुत्री धनी ने एक तलाब खुदायो १५ - कोरंटपुर का प्राग्वट जैमल युद्ध में काम श्राया उसकी स्त्री सती हुई १६ - रामसेणा में भरि अर्जुन की विधवा पुत्री तालाब खुदायो काम आया १७ - शिवगढ़ में श्रेष्टि नागदेव युद्ध में काम प्रायो उसकी स्त्री सती हुई १८ - उपकेशपुर का वीर वीरम युद्ध के १९ - भोजपुर का भाद्र गौत्रीय संगण २०- नागपुरका मंत्री भोजा 19 27 "" "" 19 २१ - मेदनीपुर का डिडू० काल्हण उस जमाना में जैन लोग सर्व जनिक उपयोगी कार्य तालाब कुवा वापियों भी खुदाते थे तथा उस जमाने में छोटे छोटे राज थे ओर थोड़े थोड़े कारण से आपस में युद्ध करने लग जाते थे उनके सेनापति वगैरह भी उपकेश व ंशीय ही होते थे । और वे युद्ध में वीरता के साथ युद्ध कर देवत्व को प्राप्त हो जाते थे तो उनकी स्त्रियां अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त उनके पीछे सतीयो वन जाती थी जिन्हों के स्मृति के किये चौतरे वगैरह भी बनाये जाते थे कई स्थानों पर तो अभी तक चौतरे विद्यमान भी है और वहुत से समयाधिकता के कारण नष्ट भी हो गये है । सतियों का होना खास कर तो अंग्रेजों का भारत में राज होने के बाद इस प्रथा का अन्त हो गया यद्यपि ऐसा मरण प्रायः बाल मरण ही कहा जाता प्रशंसा करने योग्य नहीं है पर उस समय की वंशावलियों में इस वाने को उल्लेख किया है अतः मैंने भी यहाँ दर्ज कर दिया है इससे यह ज्ञान हो जायगा कि किस समय तक यह प्रथा चलती रही थी । १ - उपकेशपुर २ --- नागपुर ३- शाकम्भरी ४ - पल्हिका ५ - नारदपुरी ६ - वीरपुर ७ - चन्द्रावती ८- डमरेल से मे से से से से से से ९-मालपुरा से १० - सोपार पट्टन से सूरिजी के शासन में सद्कार्य 29 59 प्राग्वट० हाप्पा ने श्रीमाल० दुर्गा ने भूरिगौ० राजा ने पूज्याचार्यदेव के शासन में यात्रार्थ संघ एवं शुभ कार्य श्रेष्टि० रावल ने शत्रुंजय का संघ निकाला श्रदित्य ० चांपा ने पल्ली ० जैता ने 99 " " 13 "" "" " समडिया सहसकरण,, श्रेष्टि० देपाल ने बाप नग० रूपण ने सुचंति घरमण ने " 19 99 "" " 39 19 "" 19 99 71 "" "9 "" [ ओसवाल सं० ६५८ से १००१ 33 "" 29 19 19 99 "" 29 "" 59 "3 19 99 "" 99 19 १०२३ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६०१ ) ११ - स्तम्मनपुर से से १२ – लुनावपुर से १३ – मथुरा १४ - मेदनीपुर से से १०२४ श्रीमाल० सहारण ने शत्रुंजय का संघ निकाला प्राग्वट नोढ़ा ने 33 "" 93 मोरख० नारायणने सम्मेत शिखर का " कुमट० सहदेव ने शत्रुंजय का देसरडा० नाथा ने श्रेष्टि० नारायण ने [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 22 १५—–रत्नपुरा १६ - माडव्यपुर से इनके अलावा भी बहुत से तोर्थों के संघ निकाले १ - वि० सं० ५६४ में जन संहार दुष्काल २ - वि० सं० ५७२ में सर्व देशी दुष्काल० मारवाड़ के महाजन संघ ने ३ - वि० सं० ५८१ में मारवाड़ में दुकाल पढ़ा उपकेशपुर के महाजनों ने 35 33 39 ४ - वि० सं० ५९३ में बड़ा भारी कहत पड़ा महाजनों ने असंख्य द्रव्य व्यय किये ५ - वि० सं० ५९९ में भयंकर दुकाल पड़ा 99 "3 ६ - उपकेशपुर का श्रेष्टि पृथ्वीधर युद्ध में काम आया उनकी स्त्री सतीहुई ७- नागपुर का आदित्य • मंत्री जेहल युद्ध में ८ - चन्द्रवती प्राग्वट सोभो युद्ध में काम आयो ९ - मावती का प्राग्वट मंत्री कोक्क १०- - सोजाली का डिडु० होनो ११ - भाद्रगौत्र सलखरण की विधवा पुत्री क्षत्रीपुर में बावड़ी बनाइ १२ - बलाहगौत्र रामा की विधवा स्त्री राजपुर में तालाव खोदाया 39 "3 १३ - वीरपुर के सुचंति नारायण की स्त्री ने एक कुवा खोदायो १४ - जैतपुर के चरड़ कांकरिया पेथाने तलाव खुदायो "" "" 99 "" 39 "" "" "" "3 19 पड़ा महाजन संघ ने असंख्य द्रव्य व्यय "" "" 12 "" "" 35 59 "2 15 19 39 पट्ट छतीसवें ककसूरि हुए, श्रेष्टिगौत्र के भूषण थे करे कौन स्पर्द्धा उनकी, समुद्र में भी दूषण थे प्रभाव आपका था अति भारी, भूपति शिश झुकाते थे तप संयम उत्कृष्ट क्रिया, सुरनर मिल गुण गाते थे इति भगवान् पार्श्वनाथ के छतीसवें पट्ट पर आचार्य कक्कसूरि महान् प्रभाविक हुए "" १५ - खेतड़ी के तप्तभट्ट० नागदेवी की स्त्री जोजी ने तलवा खोदाया इनके अलावा भी महाजनों ने अनेक जनोपयोगी कार्य कर देश भाइयों की सेवा कर अपनी उदार तिका परिचय करवाया इति आचार्य 59 97 "3 • Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९५८-१००१ जैनधर्म पर विधर्मियों के आक्रमण विक्रम की छटी शत्ता में हूण जाति का वीर विजयी राजा तोरमण भारत में आया और पंजाब में विजय कर अपनी राजधानी कायम की। जैनाचार्य हरिगुप्त सूरि ने नोरमण को उपदेश देकर जैनधर्म का अनुरागी बनाया तथा तोरमण ने अपनी ओर से भ० ऋषभदेव का मन्दिर ना कर अपनी भक्ति का परिचय दिया इस विषय का उल्लेख कुवलयमाल कथा में मिलता है।। तोरमण के उत्तराधिकारी उस पुत्र मिहिरकुल हुअा मिहिरकुल कहर शिवधर्मी था और साथ में बौद्ध व जैनधर्म के साथ द्वेष भी रखता था अतः मिहिरकुल के हाथ में राजसत्ता आते ही जैन एवं बौद्धों के देन बदल गये । मिहिरकुल ने जैनों एवं बौद्धों पर इस प्रकार करतापूर्वक अत्याचार गुजारना शुरू किया के मरूधर के जैनों को अपने प्राणों एवं जनमाल की रक्षार्थ जननी जन्म भूमि का परित्याग कर अन्यत्र लाटा सौराष्ट्र) की और जाकर अपने प्राण बचाने पड़े। उपकेशवंशियों की उत्पत्ति का मूल स्थान मरूधर भूमि ही है पर बाद में कई लोग अपनी व्यापार सुविधा के लिये तथा कई लोग विधर्मियों के अत्याचार के कारण अन्योन्य प्रान्तों में जाकर अपना निवास स्थान बनालिया और अद्यावधि घे लोग उन्हीं प्रान्तों में बसते हैं। विक्रम की सातवी पाठवी शताब्दी में कुमारेल भट्ट नामक आचार्य हुए वे शुरू से जैन एवं बौद्धाचार्यों के पास ज्ञानाभ्यास किया था पर बाद में जैन एवं पोद्धों से खिलाप होकर उनके धर्म का खण्डन भी किया था पर जब आपको जैनाचार्य का समागम हुआ और उपकारी पुरुषों का बदला किस प्रकार दिया जाय इस विषय में कृतज्ञ और कृतघ्नीत्व के स्वरूप को समझाया गया तो आपको अपनी भूल पर बहुत पश्चा. ताप हुआ। आखिर आपको अपनी भूल का प्रायश्चित करना पड़ा । श्रीमान् शंकराचार्य भी आपके समकालीन ही हुए थे। जब शंकराचार्य को मालूम हुआ कि कुमारेल भट्ट इस प्रकार का प्रायश्चित कर रहे हैं तब शंकराचार्य चल कर कुमारेल भट्ट के पास आये और उनको बहुत समझाये पर भट्टजी ने अपनी आत्मा की शुद्धि के लिये अपने किया हुआ निश्चय से विचलीत नहीं हुए। श्री शंकराचार्य और कुमारेल भट्ट के समय जैन एवं बोद्धों का सतारा तेज था इन दोनों धर्मों का कापी प्रचार था महाराष्ट्र प्रान्त में तो जैन धर्म राष्ट्र धर्म ही माना जाता था किन्तु शंकराचार्य से यह कब सहन हो सकता था उन्होंने जैन एवं बोद्धों के खिलाप भरसक प्रयत्न किया । यद्यपि वे अपनी मौजुदगी में जैन धर्म को इतना नुकसान नहीं पहुंचा सके तथापि वे अपने कार्य में सर्वथा निष्फल भी नहीं हुए उन्होंने जो बीज बोये थे आगे चल कर जैनों के लिये अहित कारी ही सिद्ध हुए । शंकराचार्य बड़े ही समयज्ञ थे जिस वेदों की हिंसा एवं हिंसामय यज्ञादि क्रिया काण्ड से जनता घृणा करती थी नये भाष्यादि रचकर उसका रूप बदल दिया था और कलिकालकी श्राड लेकर कई विधानों का निषेध भी कर दिया था जैसे कि"अग्नि होत्रंगवालम्मं सन्यासं पल पैतृकम् । देवराच्चसुतोत्पति : कलौ पश्च विवर्जयेत् ॥" ऐसी ऐसी बहुत युक्तियों से जनता को अपनी ओर आकर्षित कर मृत प्राय धर्म में पुनः जान गलने का सफल प्रयत्न किया । यद्यपि उस समय जैनाचार्य एवं विशेषतः उपकेशगच्छाचार्य खड़े कदम थे उन्होंने जैनधर्म को विशेष हानी नहीं पहुँचने दी यदि किसी प्रान्त में जैनों की संख्या कम होती तो भी उनकी पू. ५ श्रीकल्याण विजयश्री के म० कपमानुसार । जैनो पर अत्याचार १०२५ Jain Education Intentaronal Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ५५८ से ६०१ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शुद्धि मशीन चलती ही रहती थी वे दूसरे प्रान्त में नये जैन बना कर उस क्षति की पूर्ति कर ही डालते थे । फिर भी जैनों के लिए वह समय बड़ा ही विकट समय था क्योंकि एक ओर तो जैन श्रमणों में श्राचार शिथिलता एवं चैत्यवास के नाम पर ग्रामोग्राम श्रमणों का स्थिरवास और दूसरी और विधर्मियों का संगठन आक्रमण तथापि शुभचिन्तक सुविहित एवं उपबिहारी आचार्यों शासन की रक्षा करने को कटीबद्ध रहते थे पाठक उन श्राचार्यों का जीवन पढ़कर अवगत होगये होंगे कि वे अपनी विद्वतापूर्ण एवं कार्य कुशलता से धर्म की रक्षा किया करते थे । बिक्रम की सातवीं शताब्दी में पांड्य देश में सुन्दर नामक पांड्यवंश का राजा राज करता था और वह कट्टर जैनधर्मोपासक था किन्तु उसकी रानी और मंत्री शिवधर्मी थे उन्होंने पांड्य देश में शिव धर्म का प्रभुत्व स्थापन करने का निश्चय किया और ज्ञानसम्बदर नामक शिव साधु को बुलाकर राज सभा में कुछ चमत्कार बतलाकर जैनों को परास्त कर राजा को शिवधर्मी बना लिया । बस, फिर तो कहना ही क्या था कई प्रकार के प्रपंच रच कर कोई आठ हजार जैन मुनियों को मौत के घाट उतार दिये । इसी प्रकार पल्लव देश राजा महेन्द्रवर्मा को शित्रसाधु द्वारा जैनधर्म छोडा कर शिवधर्मी बनाया गया और जैनमर्म को इतनी ही क्षति पहुचाई गई कि जितनी पांड्य राजा ने पहुचाई थी जिसका वर्णन ' पेरिया प्रराणम्” ग्रंथ में है । इसी समय वैष्णव लोगों ने अपना धर्म प्रचार करना प्रारम्भ किया और जैन धर्म को वढी भार हानि पहुँचाई । मदुरा मीनक्षी मन्दिर के मण्डप की दीवाल की चित्रकारी में जैनियों पर शिव और वैष्णवं द्वारा किये गये अत्याचारों की कथा अंकित है जिसको पढ़ने से अतंत्य दुःख होता है । तीर नगर के पुस्तकालय में जैनियों को कष्ट पहुचने के दो चीत्र है जिसमें एक चित्र में अनेक जैनों के शूली पर लटका कर मारने का दश्य है तब दूसरे चित्र में शूली पर चढ़ा कर लोहा के शिलाये से पूर हालत में मारने का दृश्य दिखाया गया है 1 लिंगायत मत का स्थापक वासवदत ने विज्जल की सहायता से दश हजार श्रमणों को शूली चढ़ कर उसकी लाशों काग और कूतों को खिलाइ गइ इसका रामोच कारी वर्णन हलस्य महात्म्य नाम का प्र में हैं । राजा गणपत देव ब्राह्मणों की चूगल में आकर निरापराध जैनों को तेल का कोल्हुओं में दबा क बुरी तरह मरवाये - तथा किसी समय जैनो और ब्राह्मणो के आपस में शास्त्रार्थ हुआ जिसमें ब्राह्मणों मंत्री द्वारा जैनियों को परास्तकर- जैनों की कत्ल करवादी इत्यादि अनेक उदाहरण विद्यमान है। इनके अलावा भी शिव वैष्णव और रामानुजादि धर्म वालों ने जैनधर्म पर बड़े २ अत्याचार कर बहुर क्षति पहुँचाई पर जैनधर्म अपनी सच्चाई के नाते जीवित रहा और रहेगा | जैनधर्म की यह एक बढ़ भारी विशेषता है कि अपने उत्कर्ष के समय किसी दूसरे धर्म पर अत्याचार नहीं किया था यदि जैन चाहते तो सम्राट् सम्प्रति के समय सम्पूर्ण भारत को जैन बना सकते तथा राजा कुमारपाल के समय १८ देशों के जैनधर्मी बना सकते थे पर न तो जैनों ने कभी बलजबरी से किसी को जैन बनाया और न जैनधर्म ऐस शिक्षा ही देते हैं । जैनों ने जो कुछ किया है । वह अपने धर्म के मौलिक तत्वों का उपदेश देकर ही किय है खैर प्रसंगोपात हूण राजाओं के साथ इतना लिख दिया है । १०२६ जैनो पर अत्याचार Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ ३७--प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरि (सप्तम) श्रेष्ठयाख्यान्वय एष राजसचिवः श्रीदेवगुप्ताविधी भव्यः स्वापरधर्मपारगतयाऽनेकान् जनान् निममे । जैनान ग्रन्थगणं स वै विहितवान् रम्याश्च देवालयान् धीरोऽभीष्टफलपदो विजयतामाचार्य चूडामणिः । रमोपकारी, पूज्यपाद प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर जी महाराज विश्व विश्रुत, संसारोपकारी, hind प्रखर धर्म प्रचारक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं । आपका शासन समय जैनधर्म के लिए एक 8 विकट सभय था तथापि, आप जैसे शासन शुभचिंतक आचार्य के विद्यमान होने से शासन के हित साधन विरुद्ध किञ्चिन्मात्र भी क्षति नहीं पहुँच सको । आपका जीवन अनेक चमकार पूर्ण घटनाओं से ओतप्रोत है । पट्टावलीकारों ने आपके जीवन की प्रत्येक घटना को बड़े ही विस्तार पूर्वक लिखी है किन्तु, मैं अपने उद्देश्यानुसार यहां पर आपके जीवन का संक्षिप्त दिग्दर्शन करवा देता हूँ । परमपवित्र, अनेक भावों की पातक राशि को प्रक्षालन करने में समर्थ, श्री अर्बुवाचल तीर्थ की पवित्र छाया का श्राश्रय लेने वाली अमरापुरी से भी स्पर्धा करने वाली, गगनचुम्बी जिनालयों से सुशोभित चंद्रावती नाम की नगरी थी। पाठक, इस नगरी के विषय में पहले भी पढ़ चुके हैं कि श्रीमाल नगर के राजा जयसेन के पुत्र चंद्रसेन ने इस नगरी को आबाद की थी। यहां का रहने वाला प्रायः सकल जनवर्ग (राजा और प्रजा) जैन धर्म का ही उपासक था। यहां के राजघराने ने तो जैनधर्म के प्रचार में तन, मन, धन, एवं देहिक, मानसिक शक्ति से पूर्ण सहयोग दिया था। यही कारण था कि उस समय जहां कहीं भी दृष्टि डाली जाती थी सर्वत्र जैनधर्म ही जैनधर्म दीख पड़ता था । जैसे चंद्रावती नरेश जैन था वैसे ही वहां के सकल कार्यकर्ता भी जैनधर्म के परमानुयायी, परम प्रचारक थे। - चंद्रावती नगरी उस समय लक्ष्मी का निवास स्थान ही बन चुकी थी। 'उपकेशे बहुलं ,व्य' यह कहा वत चंद्रावती के लिये भी सदैव चरितार्थ होती थी । लक्ष्मी के स्थिरवास में-'व्यापारे वसति लक्ष्मीः' की लोकोक्तिअनुसार चंद्रावती के व्यापारिक क्षेत्र की उन्नति ही मुख्य कारण था। वहां के व्यापारियों का व्यापारिक सम्बन्ध अासपास के क्षेत्रों तक या भारत पर्यंत ही सीमित नहीं था अपितु पाश्चा य देशों के साथ भी था । कई व्यापारियों की विदेशों में पेढ़िया (दुकानें) थी जल एवं स्थल-दोनों ही मार्ग जापारियों के व्यापार के केन्द्र बन गये थे। उस समय चंद्रावती में कोट्याधीश ही नहीं किन्तु बहुत से अब्जपति भी निवास करते थे । बेचारे लक्षाधीश तो साधारण गृहस्थ की गिनती में ही गिने जाते थे। चन्द्रावती नगरी में साधर्मी भाइयों का वात्प्तल्यता खूब दूर दूर मशहूर था कारण कोई भी नया साधर्मी भाई चन्द्रावती में व्यापारार्थ आता था तब चन्द्रावती के धनाढ्य साधर्मी उस आया हुश्रा साधर्म भाई को एक एक मुद्रिका और एक एक इंट उपहार में दिया करता था कि आने वाला सहज ही में धनवान चन्द्रावती नगरी की उदारता १०२७ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६०१-६३१ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बन कर व्यापार करने लग जाता था तथा मकान भी बनालेता था यही कारण है कि अन्योन्य स्थानों के जैन भाई चन्द्रावती में श्राकर वास एवं व्यापार करते थे । एक यह बात भी बहुत प्रसिद्ध है कि चन्द्रावती नगरी में ३६० अर्वपति जैन बसते थे और उनकी ओर से एक एक दिन स्वामि वात्सल्य भी हुआ करता था जिससे चन्द्रावती के जैनों को घरपर रसोई बनाने की जरूरत ही नहीं रहती थी। जैनों की इस प्रकार उमारता ने अन्य लोगों पर खूब ही प्रभाव डाला था और इस प्रकार सुविधा के कारण अन्य लोग बड़ी खुशी के साथ जैन धर्म स्वीकार कर स्व-पर आत्मा का कल्याण करने में भाग्यशाली बनते थे। यही कारण है कि एक समय भारत और भारत के बहार जैनों की संख्या चालीस करोड़ की कही जाति थी । कोई भी धर्म क्यों न हो पर उसमें उपदेश के साथ सहायता एवं सुविध मिलती हो वह जल्दी बढ़ जाता है अर्थात् उप धर्म का प्रचुरता से प्रचार हो सकता है। प्रस्तुत चंद्रावती नगरी में प्राग्वटवंशावतंस, श्रावकवत नियम निष्ठ, न्यायनीति निपुण शा. पशोवीर नाम के धन जन सम्पन्न ष्टिवर्य सकुटम्ब निवासकरते थे। आपकी राज्य नीति कुशलता से आश्च र्यान्वित हो चंद्रावती के अधीश राव श्रीसज्जनसेनजी ने आपको अपने राज्य में अमात्य पद से विभूषित किया था । षोडश कला से परिपूर्ण कलानिधि की शुभ्र ज्योत्स्ना के समान मंत्री यशोवीर की कार्य दक्षता एवौं उदारता की यशोगाथा भी सर्वत्र विस्तृत थी। आपकी कार्य शैली ने राजा और प्रजा सब को मंत्र मुग्ध सा बनालिया था । सर्वत्र शान्ति एवं आनंद की अपूर्व लहरें ही दृष्टि गोचर होती थी । श्रीयशोवीर की गृहदेवी का नाम रामा था । रामा भी सरल स्वभावी धर्म प्रेमी कर्तव्य निष्ठ श्राविका थी। इसने सात पुत्रियों और तीन पुत्रों को जन्म देकर अपना जीवन कृतार्थ कर लिया था। तीनों पुत्रों के नाम क्रमशः शा. मण्डन, खेता और खीवसी थे। मंत्री यशोवीर का घराना परम्परा से ही जैन धर्म का परमोपासक था । श्राचार्य श्री स्वयंप्रभसूरिने पद्मावती नगरी के राजा प्रजा को जैन धर्म में दीक्षित (संस्कारित) किये थे अतः श्राप पद्मावती प्राग्वट्टवशीय कहलाते थे। मंत्री यशोवीर बढ़ा ही समयज्ञ एवं नीतिज्ञ था । अतः उसने अपते ज्येष्ठ पुत्र मण्डन को तो राष्ट्रीय राजकीय नीति विद्या में परम निष्णात बनाया और खेता खेषसी के लिये लम्बा चौड़ाग्यापारिक क्षेत्र स्वतंत्र कर दिया। श्रीयशोवीर, इतने बड़े पद का अधिकारी होने पर भी धर्म कार्य में अत्यन्त ही श्रद्धा रखने वाला था । प्रभुपूजा और सामायिक वगैरह श्रावक के नियमों में अत्यन्त दृढ़ था। कभी भी बनते प्रयत्न अपने नियमों को भंग नहीं होने देता था । यदि राजकीय जटिल समस्याओं के कारण कभी युद्ध वगैरह में जाना पड़ता तो प्रमु पूजा और प्रतिक्रमणादि कार्यों को तो वह छोड़ताभी नहीं था। तथा सेठानी रामा बड़े कुटम्ब वाली थी पर उसने कौटुम्बिक सुखों में भी अपने नित्य नियमों को नहीं भूला । वह अटूट श्रद्धा एवं सावधानी पूर्वक अपना नित्य कर्म किया ही करती थी । पूर्व जमाने के व्यक्ति इस असार संसार में धर्म को हो सारचूत तात्विक वस्तु समझते थे। वे गार्हस्थ्य जीवन में रहते हुए भी संसार से प्रायः विरक्त से ही रहते थे। जैनाचार्यों का उपदेश भी वैराग्यवर्धक ही होता था अतः उनका बैराग्य; आचार्यश्री के व्याख्यान श्रवण से द्विगुणित हो माता था। मंत्रीवीर यशोवीर Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन [ ओसवाल सं० १००१.१०३१ मंत्री यशोवीर ने अपने पुत्रों के लिये क्रमशः राजकीय एवं व्यापारिक शिक्षा का प्रबन्ध कर रक्खा था अतः अपनी विद्यमानता में ही अपने ज्येष्ट पुत्र मंडन को अपपद (मंत्रीपद) पर और खेता खेवसी को पारिक क्षेत्रमें लगादिये । इस तरह अपने पद का उत्तर दायित्व अपने पुत्रों को सौंप कर यशोवीर भात्मकल्याण के मार्ग में संलग्न हो गया। मंत्री यशोवीर ने चंद्रावती नगरी के बाहिर विविध पादपलसानों से समन्वित, नाना प्रकार के पुष्पों की मन मोहक सौरभ से सौरभशील, नयनाभिराम एक उपवन लगवाया था । उक्त उपवन में भगवान् महावीर का अत्यन्त कमनीय, जिनालय बनवा प्राचार्यश्री ककसूरिजी म. के कर कमलों से प्रतिष्ठा कर. काई थी। उसी समय से आपने चतुर्थव्रत ( ब्रह्मचर्य व्रत ) ले लिया था। सांसारिक प्रवृत्तियों में रहते हुए भी जल कमल वत् निर्लेप हो साधु वृत्ति के अनुरूप ही शान्तिमय जीवन व्यतित करता था। बस उपवन के एकान्त निर्विघ्न स्थान में शान्तिपूर्वक अवशिष्ट आयुष्य को धर्माराधन में गा दिया। वास्तव में उस समय के जीव बहुत ही लघुकर्मी होते थे। सासारिक कार्यों में आत्म कल्याण के परम निवृत्ति मार्ग को नहीं भूलते थे। मंत्री मंडन की वय पचास वर्ष की हो चुकी थी। आपके इ. समय में सात पुत्र और दो पुत्रियां भी विद्यमान थीं । एक समय मण्डन अपने घर में सोश हुआ था कि पास ही के किसी घर में एक युवक की मृत्यु होजाने से उसकी वृद्धा माता और तरुण पत्नी का करुण दन उसके दानों में सुनाई पड़ा । इस उदन को सुन पहले तो उसे बहुत ही कर्ण कटु एवं सुख में खलल पहुँचाने वाला विधः भूतसा लगा पर जब उसने गहरे मननपूर्वक अपनी आत्मा की ओर देखा तो उसे निश्चय होगया कि संसार में जन्म लेने बालों को इसी तरह मृत्यु के मुख में जाना ही पड़ता है। जब उक्त युवक के मर जाने से इनके कुटुम्बियों को इतने दुख का अनुभव करना पड़ रहा है तो मरने वाले को तो मृत्यु के समय कैसा भीषण दुःख सहना पड़ता होगा ? अरे ये कौटुबिक लोग तो अपने स्वार्थ के लिये रो रहे हैं पर इस मृत ज व ने तो न मालूम कैसे निकाचित कर्म बांधे हैं और न जाने किस गति का अनुभव किया है । अच्छा है कि मेरे माता पिता सांसारिक, कौटुम्बिक मिथ्या मोह-प्रपञ्च से विरक्त हों एकान्त में धर्माराधन पूर्वक आत्म कल्याण-सम्पादन कर रहे हैं । वे इस जन्म मरण के अनादि सम्बन्धित दुःखों को मिटाने के लिये ही ऐसा करते होगें पर धर्म कृत्याराधन-विहीन मेरे जीवन की कथा हकीकत होगी ? अरे ! तो रात दिन राजकीय प्रपञ्चों में इलमा हश्रा उसी को सुलझाने में अपने कर्तव्य की इति श्री समझ रहा हूँ पर मृत्यु के पश्चात न मालूम किन २ यतनाओं का अनुभव करना होगा ? मेरी तो इसमें केवल उदरपूर्ति का स्वार्थ के सिवाय अन्य कोई भी स्वार्थ ( पात्म ) सिद्धि नहीं होने का है। अहो ! मेरे जैसा इस संसार में कौन मूर्ख शिरोमणि होगा कि एक तुच्छ, निस्सार पदार्थ के लिये अमूल्य, सुरदुर्लभ मानव देह को मिट्टी में मिला रहा हूँ। बस मण्डन ने शेष रात्रि आत्म विचारों में ही व्यतीत करदी । प्रातःकाल नियमानुसार उठकर नित्य क्रिया से निवृत्ति पा मन्दिर गया और सेवा, पूजाकर समीपस्थ उपाश्रय में विराजमान गुरु महाराज को वंदन कर उनके अभिमुख शान्त चिन्त, विचार मग्न हो बैठ गया। गुरु महाराज ने मण्डन को स्थिरता पूर्वक बैठा हुआ देख विचार किया कि जिस मण्डन को राजकीय कार्यों से मिनिट भर भी फुरसत नहीं मिलती, आज वही मन इस प्रकार स्थिरता पूर्वक क्यों मंत्री मण्डन का वैराग्यमय विचार १०२९ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६०१-६३१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बैठा हुआ है ? इसके चेहरे पर भी उदासीनता की स्पष्ट रेखा फलक रही है, अतः इसका कोई न कोई गम्भीर कारण अवश्य ही होना चाहिये । चिन्तित मण्डन को चिन्तामन देख गुरु महाराज ने आज क्या ध्यान लगा रहे हो ? कहा:- मण्डन ! मण्डनः ---- गुरुदेव ! आप बड़े ही सुखी हैं । गुरु- हाँ, संगमी तो सदैव ही सुखी रहते हैं। वे इस लोक में ही नहीं किन्तु पर लोक में भी सदा सुखी रहते हैं। क्या तू भी सुखी होना चाहता है ? मण्डन- गुरुदेव ! सुखी होना कौन नहीं चाहता ? गुरु- तब तो निर्वृत्ति मार्ग के लिये सत्वर तत्पर होजाइये | मण्डन - भगवन् ! मैं तो तैयार ही बैठा हूँ । गुरु - क्या अपने राजा और माता पिता की अनुमति ले आया है ? मण्डन- राजा की अनुमति की तो आवश्यकता ही क्या है ? माता पिता तो स्वयंमेव श्रात्म कल्याण में संलग्न हैं, वे मुझे क्यों कर रोकेंगे ? गुरु- आचर्य करते हुए कहा मण्डन अनुमति की आवश्यकता तो रहती है । मण्डन- अच्छा - गुरुदेव मैं अनुमति ले आता हूँ । उक्त वचन कह मण्डन ने गुरु महाराज को सविधि वंदन किया और गुरु महाराज ने भी उसके बबले में परम कल्याणकारी धर्मलाभ-शुभाशीर्वाद दिया । मण्डन घर चला गया । आचार्य कक्कसूरिजी म स्थण्डिल पधार कर वापिस आये तो सकल साधुओं ने अपने आसन से उठकर आचार्यश्री का अभिनंदन किया । कई एकों ने आचार्यश्री के पादप्रभार्जन किये । क्रमशः सूरिजी भी इरियावी का पाठ करते हुए पट्ट पर विराजमान हुए तदन्तर अपने सकल शिष्य समुदाय को मंत्री मण्डन के दीक्षा की बात कही तो सब को आश्चयत्पन्न हुआ कि - यकायक राजा का मंत्री दीक्षा लेने को कैसे तैय्यार होगया ? सूरिजी ने कहा - श्रमण वर्ग इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? कर्म विचित्र प्रकार के होते हैं। क्या नृत्य करते हुए ऐलापुत्र को केवल ज्ञान नहीं हुआ ? माता मरुदेवी, और चक्रवर्तीभरत कुर्मा पुत्र पृथ्वीचंद्र गुणसागरादिकों को गृहस्थ वेष में केवल ज्ञान नहीं हुआ ? तो फिर मण्डन की दीक्षा की बात में आश्चर्य ही क्या ? ! संसार के पौद्गलिक सुखों में फंसे हुए मनुष्य की दीक्षा विषयक आत्म कल्याण भावना को श्रवण कर भ्रमण समुदाय में भी खुशी हो रहीथी । वास्तव में - " पर कल्याणे संतुष्टाः साधवः ' "" इधर मंत्री मण्डन अपने मातापिता के पास श्राकर दीक्षा की अनुमति मांगने लगा । पर माता पिताओं को भी अचानक दीक्षा का नाम श्रवण कर श्रचय व कौतूहल होने लगा। जब कि सारा ही सांसारिक भार, राजकीय समस्याएं कुटुम्ब पालन का कार्य मण्डन को सौंप दिया गया तो फिर वह यकायक इन पाशविक पाशों से मुक्त होकर दीक्षा के लिये किन कारणों से उद्यत हुआ ? यह गम्भीर समस्या सबको गहरे विचारों मैं गर्क करने वाली और असमंजस में डालने वाली हुई । कुछ ही क्षणों के पश्चात् मण्डन के मुख से ही मण्डन के वैराग्य का कारण व पौद्गलिक पदार्थों की क्षण भङ्गुरता के विषय को श्रवण किया तो माता पिताओं का वैराग्य भी द्विगुनित होगया । वे अपनी वृद्धावस्था में भी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । जब १०३० Jain Education international मंत्री मंडन और सूरीश्वरजी Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ राजा ने सुना कि मंत्री यशोवीर और मण्डन दीक्षा के लिये उद्यत हो गये हैं; तो वह भी स्वधर्मी पना के नाते चल कर मंत्री के घर श्राया और उनकी हरएक तरह परीक्षा की । परीक्षा में वे सबके सब सौंटंच का स्वर्ण की भांति उत्तीर्ण होगये । राजा ने मंत्री मण्डन के ज्येष्ठ पुत्र रावल को मंत्री पद अर्पण कर स्वयं ने उन सबों की दीक्षा का शानदार महोत्सव किया । श्राचार्य कक्कसूरि ने मंत्री यशोवीर, सेठानी रामा और मण्डन व उन के साथ संसार से विरक्त हुए १७श्रन्य नर नारियों को भगवती दीक्षा देकर मण्डन का नाम मेरुप्रभ रख दिया । सूरिजी चरण कमलों की सेवा करते हुए मुनि मेरुप्रभ ने थोड़े ही समय में वर्तमान जैन साहित्य का, एवं श्रागमों का लक्षण विद्याओं का अध्ययन कर लिया। सूरिजी ने भी जाबलीपुर में मेरुप्रभमुनि को उपाध्याय पद और चन्द्रावती में सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया । आचार्य देव प्रसूरि महान् प्रभाविक, तेजस्वी आचार्य हुए हैं ! आपकी विद्वत्ता का प्रकाश सूर्य की सर्व विस्तृत था । श्राप जैसे मंत्री पद पर रह कर पर चक्रियों को परास्त करने में प्रवीण थे वैसे ही षट्दर्शन के मर्मज्ञ होने से परदर्शनियों का पराजय करने में भी प्रखर पण्डित थे । चंद्रावती चातुर्मास के समाप्त होने पर वहां से विहार कर आसपास के प्रदेशों में परिभ्रमन करते हुए आप श्री ने क्रमशः लाट देश में पदार्पण किया । जिस समय आचार्यश्री स्तम्भनपुर में विराजते थे उस समय भरोंच में बौद्ध भिक्षु अपने धर्म प्रचार के स्वप्न देख रहे थे। जब भरोंच के अप्रेसरों ने सुना कि वादी चक्रवर्ती श्राचार्यश्री देवगुप्तसूरि स्तम्भनपुर में विराजते हैं तो वे तुरत एक डेपुटेशन लेकर आचार्यश्री की सेवा में आये । भरोंच नगर की वर्तमान परिस्थिति का वर्णन करते हुए संघ ने श्राचार्य श्री को पधारने के लिये जोर दार प्रार्थना की। सूरीश्वरजी ने भी भावी अभ्युदय का कारण जान, धर्म प्रभावना से प्रेरित हो तुरत भरोंच की ओर विहार कर दिया | श्रीसंघ ने बड़े उत्साह से सुरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया । बस, सूरिजी के पधारने मात्र से बहां की जैन समाज में नवीन शक्ति का प्रादुर्भाव एवं नव क्रान्ति का अङ्कुर अङ्कुरित हुआ । सूरिजी का व्याख्यान प्रायः दार्शनिक एवं तात्विक (स्याद्वाद, कर्मवाद, साम्यवादादि) विषयों पर होता था । षट्दर्शनों के परम ज्ञाता होने से दार्शनिक विषयों का स्पष्टीकरण तो इतना रुचिकर होता था कि श्रोतावर्ग मंत्रमुग्ध हो वहां से उठने की इच्छा ही नहीं करता । बौद्धों के दिलों में उम्मेद थी कि जैनाचार्यों के अभाव में हम लोग अपने प्रचार कार्य में पूर्ण सफल होगे किन्तु श्राचार्यश्री का पदार्पण सुनते ही उनके हृदय में सफलता विफलता का विचित्र द्वन्द्व मच गया । नवीनर शंकाओं ने नव २ स्थान बनालिये पर इससे वे एकदम हतोत्साह नहीं हुए। वे बड़े चालाक एवं कपट विद्या निपुण थे । एक समय उन्होंने शास्त्रार्थ के लिये जैनों को आइलन किया जिसको सूरिजी महाराज ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया । बस भरोंच पत्तन के राजसभा के मध्यस्थों के बीच जैन और बौद्धों का शास्त्रार्थ हुआ पर, स्याद्वाद सिद्धान्त के सामने बेचारे क्षणिक वादी कितने समय तक स्थिर रह सकते १ जैसे सिंह की गर्जना को सुन कर किंवा प्रत्यक्षाटोकन कर मदोन्मत्त हाथी हताश हो पलायन कर जाते हैं; वैसा ही हाल आचार्यश्री के सामने बौद्धों का हुआ । भरौंच में बौद्धों की यह पहली ही पराजय नहीं थीं किन्तु इसके पूर्व भी कई बार वे जैनाचार्यों से पराजित हो चुके थे । उपकेशगच्छाचार्यों के हाथों से तो वे स्थान २ पर पराजित ही होते रहे कारण, उस समय एक तो उपकेशगच्छाचार्यों के पास साधुओं की संख्या अधिक थी दूसरा उनमें कई ऐसे भी बादी भरोंच नगर में चतुर्मास १०३१ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६.१-६३१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रहते थे कि जिनको शुरु से ऐसी शिक्षा दी जाति थी तीसा उनका विहार क्षेत्र भी अत्यन्त विशाल था। बौद्धों का भ्रमन भी उन्ही क्षेत्रों में अधिक था अतः जहाँ जहाँ शास्त्रार्थ का चांस हाथ आया वहां २ उन्हें पराजित होना पड़ता था कई एकों को जैन दीक्षा से दीक्षित किया। उनकी उन्नति की नींव को एकदम कमजोर एवं खोखली यनादी । श्रतः बौद्ध भिक्षु आचार्यश्री का नाम श्रवण प रते ही एक स्थान से दूसरे स्थानपर पलायन करते रहते थे। ___जब भरोंच में बौद्धों का पराजय हुआ तो वे वहां से शीघ्र ही भाग गये इससे भरोंच श्रीसंघ का उत्साह और भी बढ़ गया और वे आचार्यश्री की सेवा में अत्यन्त श्राग्रह पूर्वक चातुर्मास के लिये प्रार्थना करने लगे। आचार्य देव गुप्तसूर ने भी लाभ का कारण जान वह चातुर्मास भरोंच नगर में ही कर दिया। बस, आचार्यश्री के चातुर्मास निश्चय के शुभ समाचार श्रवण कर सर्वत्र अानंद रसका समुद्र ही उमड़ने लगा। चातुर्माप्त की दीर्घ अवधि में सूरिजी का व्याख्यान क्रमशः दार्शनिक तात्वि: अध्यात्म, योग, समाधि, एवं त्याग वैराग्य पर हुआ करता था। प्राचार्यश्री के व्याख्यान का लाभ जैन जैनेतर विशाल संख्या में लेते थे। कई वादो प्रतिवादी जिज्ञासा दृष्टि से किवां शंका समाधान की प्रवृत्ति से व्याख्यान के बीच व्याख्यानोद्भूत शंका विषयक प्रश्न पूछते थे जिनका समाधान सूरिजी शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा इस प्रकार करते थे कि, सकल जनसमुदाय एकदम उनकी ओर आकर्षित होजाला । सब निनिमेष रष्टि पूर्वक अवलोकन करते हुए श्रावार्य श्री की शान्ति सुधा का परम शान्तिपूर्वक पान किया करते थे। गुरुदेव के चातुर्मास से जैन जनता को लाभ पहुंचना तो स्वाभाविक प्रकृति सिद्ध था ही किन्तु, जैनेतर समाज पर जो इसका अक्षय प्रभाव पड़ा वह तो वर्णतोऽवर्णनीय है । कई सज्जन तो सूरीश्वरजी के भक्त बन गये । सूरिजी, भरोंचपत्तन का चातुर्मास समाप्त कर सोपारपट्टन की ओर पधारे। वहां आपने कई दिनों तक स्थिरता की । इसी दीर्घ स्थिरता के बीच एक जैन व्यापारी के द्वारा अपने सुना कि-महाराष्ट्र प्रान्त में इस समय विधर्मियों की प्रबलता बढ़ती जारही है । जैनियों को हर तरह से दवाया जा रहा है। साधुओं के विहार के अभाव में वहां धर्म के प्रति पर्याप्त शिथिलता श्रागई है- बस उक्त हृदय विदारक समाचारों को श्रवण कर आचार्यश्री एकदम चौंक ठे। वास्तव में जिनकी नशों में जैनधर्म के प्रति भप्र. पित अनुराग है, उसको जैनधर्म के हानि विषयक किञ्चित् समाचार भी असह्य से होजाते हैं। धर्म प्रभावना के परम इच्छुक आचार्य देवका भी नही हाल हुआ उन्होंने अपने शिष्य समुदाय को बुलाकर अत्यन्त दर्दनाक शब्दों में महाराष्ट्र प्रान्तकी धार्मिक अवस्था का वर्णन किया और उधर विहार कर धर्मप्रचार करने की उन्नत भावना को वर्ण रूप में व्यक्त की। श्राचार्यश्री के कथन को सुनकर शिष्य समुदाय ने अत्यन्त हर्ष पूर्वक कहा--भगवन् । श्राप के आदेशानुसार हम सब आपकी सेवा के लिये हैय्यार हैं। आप खुशी से विहार करें। इसका कारण एकतो सब साधु गुरूआज्ञा के पालक थे दूसरा सब ही नये २ प्रदेशों में विहार करने के इच्छुक थे । वास्तव में भगवान् की आज्ञाराधना पूर्वक सतत विचरते रहने से ही चारित्र की विशुद्धता, धर्मका प्रचार तीर्थों की यात्रा और ज्ञानका विकास होता है। यदि साधु अपनी सुविधा देख एकाध प्रान्त मे ही अपनी जीवः यात्रा समाप्त करदे तो उसे साधुत्व के कर्तव्य से बहुत दूर समझना चाहिये । इस प्रकार प्रान्तीय मोह से वह न तो जैनधर्म को जागृत कर सकता है और न अपने चारित्र गुण को भी शुद्ध रख सकता है। यही नहीं उसी प्रान्त में बार २ विहार करते १०३२ सूरिश्वरजी का दक्षिण में विहार Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ रहने से साधुओं के प्रति श्रद्धा में भी कुछ अन्तर होजाता है। वास्तव में नीति का यह निन्न कपनभतिपरिचयादवज्ञा सततगमनादनादरोभवति । मलये मिल्लपुरंध्री चंदनतरुकाष्ठानिन्धनं कुरुते ॥ सत्य ही है यदि प्रान्तीय मोह का त्याग कर साधु-विहीन क्षेत्रों में साधु, धर्म प्रचार करते रहे तो इससे शीघ्र ही धर्मो मति होसकती है और चारित्र भी निर्मल रीति से पाला जा सकता है । किन्तु, चाहिये इसके लिये प्रान्तीय व्यामोह का त्याग और जिनशासन की उन्नति की उच्चत्तम-उत्कर्षभावना। शास्त्रकारों ने ऐसे शिथिलाचारियों को, ग्रामपंडोलिये, नगरपंडोलिये, देशपंडोलिये कह कर पासत्थों की गिनती में गिना है। हम ऊपर पढ़ आये हैं कि उपकेशगच्छ में एक भी ऐसे प्राचार्य नहीं हुए जो कि, सूरि होने के बाद एकाध प्रान्त में ही विचरते रहे हो। उन्होंने अपने जीवन का विहार क्रम भी इस प्रकार बना लिया कि वे अपने क्रमानुसार प्रत्येक प्रान्त को सम्भालते ही रहे । कम से कम एक बार तो प्रत्येक प्रान्त में विचर कर जैन समाज की सच्ची परिस्थिति का अनुभव कर ही लेते थे । यही कारण था कि उस समय का जैनधर्म एवं जैनसमाज धन, जन, संख्यादि सर्व बातों में उन्नति के उच्च शिखर पर आरूढ़ था। प्राचार्य देव व अन्य श्रमण वर्ग भी, पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित महाजनसंघ की वृद्धि एव जैनधर्म की उन्नति, जैन धर्म का प्रचार चतुर्दिक पर्यटन करते हुए-किया करते थे। ___जब व्यापारी वर्ग व्यापार निमित्त इतर प्रान्तों में अपना व्यापारिक क्षेत्र कायम करते थे तब श्रमण समुदाय भी यदाकदा उन प्रान्तों में विचर कर उन श्रावकों की धर्मभावना को जागृत कर अन्यधर्मावलम्बियों को प्रतिबोध देकर जैनधर्मावलम्बी बनने का श्रेय सम्पादन करते रहते थे। यही कारण था कि प्रत्येक प्रान्त में जैनियों की विशाल संख्या होगई थी। पिछले श्राचार्यों ने तो सर्वत्र विहार करना-अपना कर्तव्य ही बना लिया था। इसी विहार कर्तव्य के कारण वे लाखों की संख्या में स्थित महाजनसंघ को करोड़ों की संख्या में ले आये थे। अस्तु प्राचार्य देवगुप्त सूरिने अपने शिष्यों के साथ महाराष्ट्र प्रान्त की ओर विहार कर दिया। प्राप क्रमशः छोटे बड़े प्रामों को स्पर्शते हुए सर्वत्र धर्मोपदेश द्वारा नव जागृति का बीज बोते हुए आगे बढ़ते रहे। ऐसी दीघ अपरिचित क्षेत्रों की यात्रा में मुनियों को थोड़ी बहुत तकलीफ का अनुभव तो अवश्य हो करना पड़ा होगा पर, जिन्होंने अपना जीवन ही शासन सेवा के लिये अर्पण कर दिया उनके लिये कठिनाइयां क्या बिघ्न उपस्थित कर सकती हैं ? वास्तव में-- "मनस्वी कार्यार्थी गणयति न दुक्खं न च सुखम्" वे तो अपना धर्म प्रचार रूप पावन कर्तव्य को अपने जीवन का अङ्ग बनाते हुए परिषहों की परवाह किये बिना शासन को उन्नत बनाने के लिये अपने क्षणविनाशो देह को अर्पण करने को उद्यत थे। उनके नशों में जैन धर्म के प्रति बाह्य या कृत्रिम अनुराग नहीं था किन्तु उन्होंने जैन धर्म की उन्नति में ही अपनी उन्नति सममली थी। महाराष्ट्र प्रान्त में स्वनामधन्य, पूज्यपाद, लोहित्याचार्य के द्वारा सर्व प्रथम धर्म की नींव डाली गई यी। अतः उस समय से ही महाराष्ट्र प्रान्त में आपके साधु समुदाय का विहार होता रहता था । समय २ आचार्यश्री का महाराष्ट्र में विहार १०३३ Jain Education Integral Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६०१ से-६३१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पर प्राचार्यों का विहार तो श्रमण मण्डली के धर्म प्रचार में भी उत्साह वर्धक सिद्ध होता इनके सिवाय महाराष्ट्र प्रान्त में यत्र तत्र दिगम्बराचार्यों का भी भ्रमन प्रारम्भ हो चुका था। यह लिखना भी अस्युक्ति पूर्ण न होगा कि दिगम्बरों के लिये भी महाराष्ट्र प्रान्त एक विहार क्षेत्र बन गया था। संख्या में दिगम्बर साधु नग्नवाद के कारण बहुत कम थे और जो थे वे भी प्रायः महाराष्ट्र प्रान्त में ही विचारते थे। ___आचार्य देवगुप्तसूरि दो वर्ष तक महाराष्ट्र प्रान्तों में सर्वत्र अनवरत गति से, धर्म प्रचार की तीब्रोछा पूर्वक भ्रमण करते रहे । परिणाम स्वरूप आपकी प्रखर प्रत्तिभा सम्पन्न विद्वता द्वारा वादी इतने फीके पड़ गये जैसे कि-सहस्त्र रश्मिधारक सूर्य की दीप्ति के समक्ष खद्योत । जैनियों की क्षीण शक्तियों में पुनः सजीवनाता का प्रादुर्भाव हुआ। सर्वत्र (जिधर दृष्टि फैलाये उधर) जैनधर्म की विजय पताका फहराने लग गई । एक समय जैन समाज पुनः चमक उठा । वास्तव में इन कर्म वीरों ने अपनी कार्य कुशलता से संसार में जो जैन धर्म की प्रभावना की है वह; जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों से सदा ही अंकित रहेगी। श्राचार्य देवगुप्त सूरिने श्रमण समुदाय एवं श्राद्धवर्ग (उभय पक्ष) को सविशेष प्रोत्साहित करने के लिये मदुरा में एक श्रमण सभा करने का आयोजन किया । स्थान २ पर संदेशे एवं पत्रिकाएं भेजी जाने लगी । महाराष्ट्र (दक्षिण) प्रान्त में विचरते मुनियों में से अप्रगण्य मुनिवर्ग जिनकी कि खास आवश्यकता प्रतीत हुई-निमंत्रण द्वारा बुलाये गये । जब निर्धारित समय पर उभयपक्ष (साधु, श्रावकसमुदाय) की विशाल संख्या उपस्थित होगई तो प्राचार्यश्री के अध्यक्ष त्व में सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ। श्राचार्य देवने, वर्तमान में श्रमण सभा करने की आवश्यकता का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराते हुए, महाराष्ट्र प्रान्त में विहार कर धर्म प्रचार करने का शुभ श्रेय सम्पादन करने वाले मुनियों को यथा योग्य सम्मान से सम्मानित किया। उनकी-कार्यक्षेत्र में विशेष उत्साह बढ़ानेवाली सच्ची प्रशंसा की। भविष्य के लिये जोरदार शब्दों में प्राचीन श्राचार्यों के ऐतिहासिक उदाहरणों से उन्हें प्रोत्साहित किया । योग्यतानुकूल उन्हें पदवियां प्रदान की। यावत् अपने साधुओं में से बहुत से साधुओं को धर्म प्रचार के लिये महाराष्ट्र प्रान्त में विचरने की आज्ञा दे दी । इस प्रकार श्रमण सभा के कार्य को सफलता पूर्वक समाप्त करने के पश्चात् कालान्तर में प्राचार्यश्री ने वहाँ से विहार कर आवन्तिप्रदेश की ओर पदार्पण किया। मांडवगढ़ के श्रीसंघ के विशेष अाग्रह से वह चातुर्मास भी सूरीश्वर जी ने माण्डवगढ़ में कर दिया । आपश्री के विराजने से चातुमास में अच्छा धर्मोद्योत हुआ । क्रमशः वहां से बुदेलखण्ड होते हुए शूरसेन की ओर पधारे । जब आप मथुरा के नजदीक पहुँचे तो वहां के श्रीसंघ के हर्ष का पारावार नहीं रहा । उन्होंने श्राचार्यदेव का स्वागत एवौं नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही समारोह पूर्वक किया। उस समय मथुरा में जैनों के सैंकड़ों मन्दिर एव स्तूप विद्यमान थे। श्रापश्री का व्याख्यान हमेशा ही होता था । व्याख्यान श्रवण का लाभ जैन व जैनेतर समाज बड़े ही हर्ष पूर्वक लेती थी कारण एकतो आपकी विषय प्रतिपादन शैली इतनी सरस थी कि विद्वान् व अनपढ़ व्यक्ति भी इसका आनंद अच्छी तरह से उठा सकते थे दूसरा बोलने की पद्धति जादू की तरह जन समाज को सहसा अपनी और आकर्षित कर लेती थी। अत: जिस व्यक्ति ने एक बार भी प्राचार्यश्री का व्याख्यान भवण किया वह प्रतिदिन ही दीर्घ उत्कण्ठा पूर्वक व्याख्यान श्रवण का लाभ लेता। उस समय जैसे मथुरा में जैनियों का जोर था उसी तरह से बौद्धों का भी पर्याप्त प्रभाव था। मदुरामें संघ सभा · Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ के भी सैकड़ों साधु मथुरा में धर्मप्रचारार्थ स्थिरवास कर, रहते थे। पर श्राचार्य देवगुप्तसूरि एवं अन्य जैनाचार्यों का भी उन पर इतना प्रभाव पड़ा हुआ था कि वे बनते प्रयत्न उनके सामने सिर उठाने का दुस्साइसही नहीं करते | महाराष्ट्र प्रान्त में बौद्धों के धर्म प्रचार का मार्ग अवरुद्ध होजाने का कारण एक मात्र पूज्यपाद, आचार्य देवगुप्त सूरि ही थे । बौद्ध श्रमणसमुदाय आचार्यश्री की विद्वत्ता से अनभिज्ञ नहीं थे । अतः वे मौन रहने में ही अपना मान समझने लगे । मथुरा के श्रीसंघ के अत्याग्रह होने से यह चातुर्मास आचार्यश्री ने मथुरा में ही करने का निश्चय कर लिया इससे जैन जनता में अच्छी जागृति और धर्म की खूब प्रभावना हुई । आपश्री के त्याग वैराग्य के व्याख्यानों का जनता पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा और चातुर्मास के उतरते ही पांच पुरुष और तीन बहिनों ने असार संसार से विरक्त होकर महा महोत्सव पूर्वक आचार्यश्री के पास में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करली । उक्त दीक्षाओं का महोत्सव श्रेष्टिगोत्रीय शाः हरदेव ने किया जिसमें सवालक्ष द्रव्य व्यय किया गया । इस अवधि के बीच आप श्री ने बध्पनाग गोत्रीय शा. चांचग के बनवाये हुए पार्श्वनाथ भगवान् के मंदिर की प्रतिष्ठा भी महा महोत्सव पूर्वक करवाई। बाद में आपने भगवान् पाश्र्वनाथ की कल्याण भूमि की स्पर्शना के लिये काशी की और विहार किया । कुछ समय तक काशी एवं काशी के आस पास के तीर्थों की यात्रा करते हुए धर्मोपदेश देते रहे । काशी की तीर्थ यात्रा के पश्चात् आपश्री का विहार कुनाल और पंजाब प्रांत की ओर हुआ । उक्त प्रान्तों में आपके श्राज्ञानुयायी कई मुनि पहले से ही आपश्री के आदेश से धर्म प्रचार करही रहे थे जब उक्त प्रचारक श्रमण मण्डली ने आचार्यश्री का आगमन सुना तबतो दूने वेग से एवं दूनी रफ्तार से उन्होंने अपने प्रचार कार्य को बढ़ाया । श्राचार्यश्री भी स्थान २ पर उनको सन्मान देते हुए, प्रशंसा करते हुए उनके उत्साह में खूब वृद्धि करते रहे। उस समय पन्जाब प्रान्त का जैन समाज तो बहुत ही उन्नत हो चुका था । हमारे उन पूर्वाचार्यों ने धर्मविहीन इस पन्जाब क्षेत्र में क्षुधा पिपासा व ताड़ना, तर्जनादि वाममार्गियों के परिषहों को सहन करते हुए अत्यन्त लगन पूर्वक धर्म प्रचार किया था । इधर सिंध प्रान्त में विचरने की आवश्यकता ज्ञात होने से आचार्यश्री ने पन्जाब प्रातीय श्रमण मण्डली को उसके क्षेत्रावश्यक संकेत करते हुए शीघ्र ही सिंध प्रान्त की ओर पदार्पण कर दिया। सिंध प्रान्त में वे दो वर्ष पर्यन्त लगातार भ्रमन करते रहे । स्थान २ पर सुप्त समाज को जागृति कर उन्हें धर्म के श्रभिमुख बनाया । उक्त प्रान्त में बिचरने वाले मुनियों की एक सभा की जिससे तत्प्रान्तीय सकल साधु समुदाय को एकत्रित कर उनके धर्म प्रचार के कार्य को प्रोत्साहन दिया गया। योग्य मुनियों को उपाध्याय वाचक, गणि, गणावच्छेदक पदवियों से विभूषित किया गया । श्राचार्य श्री के आगमन से एवं सहयोम से मुनियों में भी धर्म प्रचार करने का अलौकिक साहस उत्पन्न हो गया । उन्होंने अपने पूर्व के कार्य को और भी उत्साहपूर्वक तीव्र गति करना प्रारम्भ किया | वास्तव में पूर्वाचार्यों के आदर्श को अभिमुख रखकर जैनजाति को उन्नत करने के लिये वर्तमान कालीन आचार्यो उपाध्याय श्रमणवर्ग प्रान्तीय विभागनुसार धर्म प्रचार के कार्य के लिये कमर कसलें तो अब भी पूर्वाचार्यों का वह स्वर्ण समय हम से दूर नहीं है । पर इसके लिये चाहिये धर्म प्रचार की उत्कट अभिलाषा, स्वार्थ का बलिदान, मान पिपासा की होली, सूरीश्वरजी का सिन्ध में विहार १०३५ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०६०१-६३१ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास धर्मानुराग की सच्ची लगन, श्रमण कर्तव्य की अभिज्ञता, जीवन का उचच्चतम ध्येय, संयम जीवन की निर्भलता। इस तरह सिंध प्रान्त में जागृति की बिजली लगाते हुए श्राचार्यश्री कच्छ भूमि की ओर पधारे । वास्तव में उस समय के आचार्यों से एक प्रान्त को ही धर्म प्रचार का अङ्ग नही बना लिया था वे तो अपने योग्य मुनियों को धर्म प्रचारार्थ विविध प्रान्तों में समयानुकूल भेजते ही रहे । उनको विशेष उत्साहित करने के लिये स्वयं श्राचार्यश्री भी क्रमशः विविधप्रान्तों में पर्यटन कर उनके कार्यों में सहयोग दे उनके नवीन शक्ति का प्राहुर्भाव करते रहते थे । यह ही श्रादर्श पाठकों ने हरएक प्राचार्य के जीवन में देखा व सम्प्रति श्रीदेवगुप्तसूरिजी के जीवन में भी देख रहे हैं। प्राचार्यश्री ने कच्छभूमि में एक वर्ष पर्यंत रह कर अपने मधुर एवं रोचक उपदेश के द्वारा जैन जनता में भाशातीत शक्ति का संचालन किया। इस तरह अनुक्रम से शिष्य समुदाय को प्रोत्साहित करते हुए आपश्री के चरण कमल सौराष्ट्र प्रान्त की ओर हुए। छोटे बड़े ग्रामों में विहार करते हुए आप परमपावन तीर्थाधिराज श्री शत्रुब्जय की यात्रा कर परमानंद को प्राप्त हुए । कुछ समय तक आत्म शांति का अनुभव करने के लिये श्रापश्री शत्रुञ्जय सीर्थ की छत्रछाया में स्थित रहे । यहां पर आप ध्यान मग्न हो परम निवृत्ति मार्ग का (श्रात्म-म्यान का) आराधन करते रहे । कुछ समय की निवृत्ति सेवन के पश्चात् लाट होते हुए आपने पुनः मरुधर की ओर पदार्पण किया जब मरुधर वासियों ने प्राचार्यश्री देव गुप्त सूरिका आगमन सुना तो उनके हर्ष का पारावार नहीं रहा । वे अत्यन्त आशा पूर्वक आचार्यश्री के पधारने की उत्कष्ठा पूर्वक प्रतीक्षा करने लगे। श्राचार्यश्री ने इस दीर्घ विहार में अपने पूर्वजों के कर्तव्यों के अनुसार कई मांस मदिरा रसिकों को मिथ्यात्व, पोषक पापवर्धक वस्तुओं का त्याग करवा कर; उन्हें पूर्वाचायों द्वारा संस्थापित विशाल महाजन संघ में सम्मिलित कर; महाजन संघ की वृद्धि की । धर्म को स्थिर रखने वाले, ऐतिहासिक साहित्य का स्मरण कराने के लिये परमोपयोगी, जन कल्याण में कारण रूप, साध्य की प्राप्ति के लिये साधन रूप कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन ऐतिहासिक नीव को दृढ़ किया । आत्म कल्याण की भावना के इच्छुक; सांसारिक प्रपञ्चों एवं पौद्गलिक सुखों से एक दम विरक्त, दृढ़ वैरागी भावुकों को भगवती दीक्षा दें उन्हें मोक्षमार्ग के आराधक बनाये । इस तरह शव्दतों अवर्णनीय, शासन सेवा का लाभ लिया ।। इस समय सूरिजी महाराज की वृद्धावस्था हो चुकी थी पर आपका उत्साह एवं कार्य करने की लगन युवकों को भी शर्माने वाली थी। जब आप क्रमशः विहार करते हुए पद्मावती में पधार गये तो आपश्री के दर्शन का दीर्घ काल से पिपासु शिवपुरी वगैरह का संघ सत्वर ही दर्शनार्थ पद्मावती श्राया उन्होंने शिवपुरी पधारने और चातुर्मास का लाभ देने की अत्यन्त श्राग्रह पूर्ण प्रार्थना की किन्तु पद्मावती का श्रीसंघ इस अलम्य अवसर का या यकायक घर आई गङ्गा का सहुपयोग किये विना यों ही कैसे जाने देने वाला था ? पद्मावती संघ की विनती तो शिवपुरी के श्रीसंघ से भी अधिक आग्रह पूर्ण थी अतः आचार्यश्री को भी पद्मावती की विनती को मान देना ही पड़ा । परिणाम स्वरूप वह चातुर्मास पद्मावती में कर दिया गया। सूरिजी के विराजने से ऐसे तो यहाँ धर्म का खूब ही सद्योत हुआ, पर विशेष में वहां के प्राग्वट वंशीय मंत्री मुन्मा के माला पुत्र ने एक मास की विवाहित पत्नी एवं करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति का त्याग कर श्रीशकुञ्जय तीर्थ की यात्रा Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ) [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ अत्यन्त समारोह पूर्वक सूरिजी के पास दीक्षा ली। डिंडू गौत्रीय शा. नोढ़ा के बनाये महावीर मंदिर की भी प्रतिष्ठा इसी बीच हुई । चातुर्मासानंतर वहां से विहार कर चन्द्रावती शिवपुरी वगैरह छोटे बड़े प्रामों में होते हुए श्राचार्यश्री कोरंटपुर पधारे। उस समय वहां कोरंटगच्छीय आचार्यश्री सर्वदेवसूरिजी विराज मान थे । उन्होंने जब आचार्यश्री देवगुप्तसूरि का शुभ श्रागमन सुना तो वे अपने शिष्यों सहितसूरिजी का सत्कार करने के लिये उनके समुखगये । श्रीसंघ ने भी बड़ े ही समारोह से सूरिजी का नगर प्रवशमहोसव किया। इसमें श्रीमाल - वंशीय शाह खुमाण ने सवालक्ष द्रव्य व्यय किया । सूरिजी ने चतुर्विध श्रीसंघ के साथ भगवान् महावीर की यात्रा की। बाद में दोनों श्राचार्य देवों ने एक तख्त पर विराजमन होकर थोड़ी किन्तु समयानुकूल सारगर्भित देशना दी। जनता पर इसका पर्याप्त प्रभाव पड़ा । करंटपुर में बिराजते हुए सूरीश्वरजी का एक दिन यकायक स्वास्थ्य खराब होगया । शत्रि को सोते हुए उन्होंने विचार किया कि - मेरी वृद्धावस्था हो चुकी है और स्वास्थ्य भी अनुकूल नहीं है । हो न हो मेरा मृत्युकाल ही नजदीक हो अतः इस समय किसी गच्छ के योग्य मुनि को पट्टभार दे देना ही समीचीन होगा । वे इसी विचारधारा में प्रवाहित हो रहे थे कि देवी सच्चायिका ने भी यकायक वहां परोक्षपने प्रवेश कर सूरिजी को वंदन किया। सूरिजी ने देवी को धर्मलाभ दिया । धर्मलाभ आशीष को प्राप्त करने के पश्चात् देवी ने प्रार्थना की कि भगवन् ! आप किसी तरह की चिन्ता न करें। अभी तो श्राप आठ वर्ष पर्यंत और जनकल्याण करेंगे । प्रभो, एतद्विषयक विशेष विचार की आवश्यकता नहीं फिर भी यदि आपको जल्दी पट्टधर बनाना ही है तो कृपया उक्त कार्य को उपकेशपुर पधार कर ही करें। पूज्यवर ! इससे मुझे भी पकी परोक्ष सेवा का यत्किच्चित लाभ भी हस्तगत होगा । सूरिजी ने भी क्षेत्र स्पर्शनानुसार देवी के बचनों को स्वीकृत किया और देवी भी सूरिजी को वंदन कर यथास्थान चली गई । देवी के कथनानुसार आचार्यश्री के स्वास्थ में थोड़े ही समय में सन्तोष जनक सुधार हो गया । श्रतः शरीर के पूर्ण स्वस्थ होने पर आचार्यश्री ने तुरंत ही कोरंटपुर से विहार कर दिया । क्रमशः सूरिजी सत्यपुर, भिन्नभाल, जाबलीपुर, श्रीनगर आदि प्रामों में विचरते हुए माण्डव्यपुर पधारे माण्डव्यपुर श्रीसंघ ने श्रापका वड़ा ही शानदार स्वागत किया । जब उपकेशपुर श्रीसंघ को ज्ञात हुआ कि आचार्यश्री मांडव्यपुर पर्यन्त पधार गये हैं तो उपकेशपुर और मांढव्यपुर के बीच श्राने जाने का तातांसा लगा दिया। वे लोग उपकेशपुर पधारने की श्रमहपूर्ण प्रार्थना करने लगे। पर मांडव्यपुर के भक्तगण सूरिजी को कब बिहार करने देने वाले थे । उस समय मांडव्यपुर, उपकेशपुर की सत्ता के नीचे था । उपकेशपुर के रावगोपाल ने श्रेष्टिगोत्रीय राव शोभा को बहां के प्रबन्ध एवं समुचित व्यवस्था लिये नियुक्त किया था। उसने सूरिजी से बहुत पूर्ण प्रार्थना की कि, पूज्यगुरुदेव ! आपके विराजने से और भावुकों को तो लाभ होगा ही पर मेरी आत्मा का कल्याण तो अवश्य ही होगा । भगवन्! मैं एक मात्र अपना आत्म कल्याण चाहता हूँ । आप जैसे पूज्य पुरुषों के निमित्त (कृपा) की आवश्यकता थी वह भी गुरुदेव की कृपा से सहज ही हस्तगत होगया है | अतः आप यहां पर ही चातुर्मास करने की कृपा करें । इधर उपकेशपुर का रावगोपाल, श्रीसंघ को साथ में लेकर सूरिजी की प्रार्थना के लिये माण्डव्यपुर में कोरंटपुर में दो सूरियों का समागम १०३७ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६०१-६३१] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आया। सूरीश्वरजी की सेवा में उपकेशपुर पधारने की अत्यन्त आग्रहपूर्ण प्रार्थना करने लगा पर आखिर माण्डव्यपुर का श्रीसंघ ही भाग्यशाली रहा । सूरिजी ने माण्डव्यपुर श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार कर, माण्डव्यपुर में चातुर्मास कर दिया। उप केशपुराधीश रावगोपाल ने माण्डव्य पुर के श्रीसंघ और विशेष करके राव शोभा को धन्यबाद दिया । सब के समक्ष अपने हृदय के शुभ उद्गार प्रगट किये कि माण्डव्यपुर श्रीसंघ अत्यन्त पुण्यशाली है, यही कारण है कि सकल मनोकामना को पूर्ण करने सदृश कल्पवृक्ष समान, अध्यात्म योगी प्राचार्यश्री ने माण्डव्यपुर श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार कर यहां पर च तुर्मास करने का निश्चय कर लिया है । इसके प्रत्युत्तर में आचार्यश्री का कृपापूर्ण उपकार मानते हुए सहर्ष हृदय से राव शोभा ने कहा कि-राजन् ! प्राचार्य देवके साथ ही साथ श्रापश्रीमानों की परम कृपा का ही यह मधुर फल है। इस प्रकार से थोड़े समय तक स्नेहवर्धक वार्तालाप होता रहा । अह उस समय का जमाना कैसी धर्मभावना वाला था। पारस्परिक स्नेह का कैसा आदर्श प्रादर्श था ? वे लोग अखूट लक्ष्मी के स्वामी होने पर भी कितनी निरभिमानता एवं भद्रिक परिणामी थे । वे पातक से भीरू एवं धर्म के परमश्रद्धा सम्पन्न नियम निष्ठ श्रावक थे। बस, धर्मभावना के अधिक्य से ही उस समय का समाज धन, जन, एवं कौटुम्बिक सुखों से सुखी था । आत्म कल्याण के निवृत्तिमय मार्ग का अाराधक था। माण्डव्यपुर में सूरिजी के चातुर्मास होने से श्राध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवल क्रान्ति मची। सबके हृदय, धर्म भावनाओं से ओतप्रोत होगये माण्डव्यपुर के अष्टि गौत्रीय रोव शोभा ने सवालक्ष्य द्रव्य व्यय कर श्री भगवतीजी सूत्र का महोत्सव किया श्रीगौतमस्वामी द्वारा पूछे गये प्रत्येक प्रश्न की सुवर्ण मुद्रिका आदि से पूजा की । उस द्रव्य से जैनागम लिखवा कर स्थान २ पर ज्ञान भण्डार स्थापित किये एवं जैनसाहित्य को स्थिर बनाया इस तरह राव शोभा इस स्वर्णोपम अवसर का तन, मन एवं धन से लाभ लेता रहा। श्रीआचार्यदेव की वृद्धावस्था जन्य अशक्तता के कारण कभी २ व्याख्यान उपाध्याय पद विभूषित मुनिश्री ज्ञानकलशजी फरमाया करते थे। आपश्री की व्याख्यान शैली भी अत्यन्त रुचिकर एवं चित्ताकर्षक थी। जनता जल तृषित व्यक्ति की तरह आप श्री के मुखारविंद से शास्त्रीय पीयूष धारा का श्रमरहित पान किया करती थी। इधर श्री राव शोभा की वय५६ वर्य की हो चुकी थी। इस समय आपके ११(ग्यारह) पुत्र और पौत्रादि का, विशाल परिवार था । आपकी गनती कोट्याधीशों में की जाती थी। श्रापके ज्येष्ष्ठ पुत्र का नाम धन्नाथा । आप जैसे राज्य संचालन करने में नीति दक्ष थे वैसे ही व्यापार निपुण भी थे तथा शान्त, उदारता गम्भीरता, शूरवीरता श्रादि गुणों से भी बलिष्ठ थे । राजकीय सत्ता के उच्चाधिकारी पद पर आसीन होते हुए भी अपने निजी गुणों से अमर ख्याति प्राप्त करली थी। माण्डव्यपुर निवासियों को आपके शान्तिपूर्ण शासन संचालन बृत्ति से पूर्ण संतोष था । आपश्री की धर्म पत्नी का देहावसान होने के पश्चात आप एक दम संसार से विरक्त हो गये थे । इतने में ही पुण्य की प्रबलता से किंवा पूर्व कृत शुभ पुन्य के साञ्चित होने से, भवजलनिधीतारक पोत रूप प्राचार्यदेव का भी संयोग होगया । अतः वैराग्योत्पादक व्याख्यान श्रवण से हृदय में अङ्कर, अङ्कुरित आचार्य देव के उपदेश रूप जाल से तीव्र गति पूर्वक वृद्धिंगत होने लगा। ऐसे तो आपकी आत्मकल्याण की कई समय से भावना थी ही किन्तु आचार्यश्री के संयोग ने उन भावनाओं को एक दम ताजी एवं दृढ़ बना दी। माडव्यपुर और उपकेशपुर १०३८ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ प्रसङ्गानुसार एक दिन सूरीश्वरजी की सेवा में श्राकर राव शोभा ने अर्जकी कि-भगवान् ! अष मुझे ऐसा मार्ग बदलावें कि जिससे, शीघ्र ही आत्म कल्याण हो जाय । सूरिजीने कहा-शोभा ! कल्याण का एक दम निर्विघ्न, सुखदायक मार्ग संसार का त्याग करना ही है कारण, संसारिक अवस्था में रहते हुए मनुष्य को धन कुटुम्ब का सर्वथा मोह छूटना अशक्य है । वह अनिच्छा पूर्वक भी एक बार कौटाम्बिक पाश में फंस जाता है तो पुनः उससे मुक्त होना महादुष्कर सा ज्ञात हो जाता है । फिर तुम्हरा तो यह आत्म. कल्याण का ही समय है तुमने सांसारिक करने योग्य सर्व कार्यों को शांतिपूर्वक कर लिये हैं अतः निवृत्ति मार्ग में विलम्ब करना तुम जैसे मेधावी के लिये जरा विचारणीय है। __शोभा-गुरुदेव ! मेरे पास करोड़ो रुपयों का द्रव्य है । यदि उसमें से आधा द्रव्य सुकृत में लगाएं तो आत्मकल्याण नहीं हो सकेगा ? सूरिजी-शोभा ! सप्तक्षेत्रों में द्रव्य का सदुपयोग कर अनंत पुण्योपार्जन करना श्रात्मकल्याण के मार्ग का एक अंग अवश्य है पर तुम जिस आत्मकल्याण को चाहते हो वह उससे बहुत दूर है । कारण, द्रव्य का शुभ कार्यों में सदुपयोग करना भिन्न बात है और आत्मकल्याण का एकान्त निवृत्तिमय मार्ग अद्वीकार करना एक दूसरी बात है। द्रव्य व्यय करने में तो कई प्रकार की आकांक्षाएं एवं भावनाएं होती है किन्तु निवृत्ति मार्ग के अनुयायी बनने में एक मात्र आत्मोन्नति का ही उच्चतम ध्येय रहता है ।। प्रवृत्ति कायों से (द्रव्य व्यय वगैरह से ) शुभ कर्म सञ्चय होता है जो भविष्य के कल्याण के लिये सहायक बन जाता है पर प्रवृत्ति मार्ग कारण है तब, निवृत्ति मार्ग कार्य है । प्रवृत्ति से आगे बढ़ कर निवृत्ति मार्ग को स्वीकार करना ही पड़ता है । शोभा ! चक्रवर्तियों के तो हीरे, पन्ने माणिक, मोती, सोने, चांदी की खाने थी पर आत्मकल्याण के लिये तो उनको भी उक्त सर्व वस्तुओं का त्याग कर बिशुद्ध चरित्र का शरण लेना पड़ा। यदि वे चाहते तो अपने पास स्थित अक्षय धन राशि का शास्त्रीय सप्तक्षेत्रों में सदुपयोग कर पुण्य राशि का संचय कर सकते थे किन्तु, एकान्त आत्मकल्याण की परम भावना वाले उन व्यक्तियों ने इस प्रवृत्ति कार्य के साथ ही साथ निवृत्ति कार्य को आत्म कल्याण के लिये विशेषावश्यक सगम स्वीकृत किया और उसी भव में मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी बने । अतः कल्याण के लिये निवृत्ति सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । चाहे आज इस मव में या परभव में प्रात्मकल्याण की भावना वाले को दीक्षा अङ्गीकार करनी होगी । पर यह सोच लेना चाहिये कि पूर्व जन्मोपार्जित पुण्यराशि के अक्षय प्रभाव से जो आज हमको अनुकूल साधन मिले हैं वे परभव में मिल सकेंगे या नहीं ? परभव की श्राशा से हस्तागत स्वर्णावसर को त्याग देना बडी भारी भूल है । अरे शोभा ! जरा मानव भव की दुर्लभता एवं सांसारिक सुरवों की अस्थिरता का तो विचार करो ,, पूर्वजन्म कृत सुकृतं सहस्त्रों जब होते हैं एकीतीर ! पाता है तब मनुझ मनोहर मानव का यह रुचिर शरीर ॥,, यही नहीं शास्त्रकारो ने फरमाया है चत्तारि परमङ्गाणि दुल्लहाणि य जन्तुणो । माणुस सुइ सद्धा संजमम्भिय वीरियं ॥, शाह शोभा का सद्विचार Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६०१-६३१ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अरे ! मनुष्य जीवन के साथ तदनुकूल सुयोग्यसामग्री, सद्धर्मश्रवण लाभ एव शास्त्रीय वचनों को कार्यान्वित करना इस जीव के लिये महादुष्कर है । श्रनादि के मिथ्यात्व, अज्ञान, राग, द्वेष, के प्रवाह में प्रवाहित जीव इन पौद्गलिक वस्तुओं को उभययतः (इस लोक और परलोक के लिये) श्रेयस्कर समझ कर अत्यन्त कटु परिणाम वाले कर्मों का उपार्जन करता रहता है पर सम्मार्ग प्रवृत्ति की ओर उसकी अभिरुचि ही नहीं होती । पर अन्त में परिणाम स्वरूप मृत्यु के समय किंवा नारकीय यातनाओं को सहन करते हुए अपने कृत कर्तव्यों पर खेद होता है, किन्तु उस परिणाम शून्य किंवा गोलमाल रहता है क्योंकि" पाये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत " सूरिजी के पीयूष रस समन्वित वैराग्योत्पादक उपदेश को श्रवण कर राव शोभा का वैराग्यद्विगुणित होगया एवं दीक्षा के लिये कटिवद्ध होगया, तत्काल सूरिजी को वंदन कर कुटुम्बवर्ग की समिति प्राप्त करने के लिये घर पर गया । कौटाम्बिक सकल समुदाय को एकत्रित कर राव शोभा ने कहा- मैं मेरा श्रात्मकल्याण करना चाहता हूँ ? कुटुम्बवर्ग-श्रा - आप प्रसन्नतापूर्वक श्रात्मकल्याण करावे | शौभा- मैं कुछ द्रव्य का सप्त क्षेत्रों में सदुपयोग करना चाहता हूँ ? कुटुम्बवर्ग - श्रापकी इच्छा हो इस तरह आप द्रव्य का सदुपयोग कर सकते हैं ऐसे पुण्य के कार्यों में द्रव्य व्यय करना तो अपने सब का कर्तव्य है फिर आपके द्वारा उपार्जित द्रव्य पर तो हमारा अधिकार ही क्या ? कि हमे पुच्छने की आवश्यकता हो शोभा मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ । कुटुम्ब वर्ग -- आपकी अवस्था दीक्षा स्वीकार करने योग्य नहीं हैं । आप घर में रह कर ही निवृत्ति में (आत्म कल्याण साधक मार्ग में) प्रवृत्ति करें, हम सब आपकी सेवा का लाभ लेने के लिये उत्सुक हैं। शोभा -- श्राचार्यश्री फरमाते हैं कि घर में रह कर आरम्भ परिग्रह एवं मोह से सर्वथा विमुक्त होना, जरा अशक्य है । अतः मेरी इच्छा दीक्षा लेने की है । कुटुम्ब वर्ग - आचार्य महाराज के तो यही काम है क्या लाखों करोड़ों मनुष्य दीक्षा लेकर ही आत्म कल्याण करते होंगे ? क्या घर में रह कर श्रात्म कल्याण नहीं कर सकते हैं ? शोभा - यह कहना आप लोगों की भूल है। करोड़ों मनुष्यों में कल्याण करने की भावना वाले बहुत थोड़े मनुष्य होते हैं । उनमें भी दीक्षा को स्वीकार करने वाले तो विरले ही होते हैं । इत्यादि प्रश्नोत्तर के पश्चात् पचास लक्ष रुपयों से माण्डव्यपुर के किल्ले में एक मंदिर तथा पास में उपाश्रय बनाने का निश्चय कर अपने मनोगत भावों को अपने पुत्रों के समक्ष प्रगट किये पिताश्राज्ञापालक पुत्रों भी पिताश्री के आदेशानुसार काम करवाना प्रारम्भ कर दिया । इधर चातुर्मास के समाप्त होते ही सात भावुकों के साथ में राव शोभा ने, सूरिजी के चरण कमलों में भगवती, आत्मसाधिका दीक्षा स्वीकार करली बाद में श्रीश्राचार्यदेव भी वहां से क्रमशः विहार करते हुए, उपकेशपुर पधार गये । वहां के श्रीसंघने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया । श्रीमान् सूरिजी ने भी भगवान् महावीर एवं आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिकी यात्रा कर श्रीसंघ को धर्मोपदेश सुनाया । एक दिन रावगोपाल तथा, वहां के सकल श्रीसंघने प्रार्थना की कि भगवन् ! श्रपश्री ने सर्वत्र विहार १०४० राब शोभा की जैन दीक्षा Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देव गुप्तसूर का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ कर जैनधर्म का जो उद्योत किया वह, अनुपम है। इसके लिये अखिल जैन समाज आपका चिरऋऋणी है । हमें बड़ा गौरव एवं अभिमान है कि हमारे धर्म के अधिपति श्री श्राचार्यदेव वर्तमान साधु समाज में अनन्य हैं आपकी विद्वता का पार मनुष्य तो क्या पर वृहस्पति भी पाने में असमर्थ हैं। आप का चमत्कार एवं धर्म प्रचार का उत्साह अतुल है । किन्तु, गुरु देव अब आपकी वृद्धावस्था हो चुकी है। यदि आप यहीं पर स्थिरवास करने का लाभ उपकेशपुर श्रीसंघ को प्रदान करेंगे तो हम अवर्णनीय कृपा के भागी बनेंगे । आपश्री के चरणों की सेवा भक्ति कर हम लोग भी आपश्री के किये असीम उपकारों का कुछ ऋण अदा करने में समर्थ होंगे। सूरिजी शान्त एवं स्थिर चित्त से श्रीसंघ की प्रार्थना को श्रवण करते रहे । क्षेत्र स्पर्शना का सन्तोषजनक प्रत्युत्तर दे सूरिजी ने संघ को विदा किया। इधर रात्रि में सूरिजी के पास परोक्ष रूप से देवीसच्चायिका ने आकर सूरिजी को वंदन किया। सूरिजी ने देवी को धर्मलाभ दिया । देवी ने प्रथना की कि भगवान् ! आप अपने पट्टपर उपाध्याय ज्ञानकलश को स्थापित कर यहीं पर स्थिरवास कर लीजिए । सूरिजी ने भी देवी की प्रार्थना को स्वीकार कर ली । प्रातः काल श्राचार्यश्री ने सकलसंघ के समक्ष अपने हृदय की इच्छा जाहिर की बस श्रीसंघ तो पहले से ही लाभ लेने को उत्सुक था ही श्रतः संघको आचार्यश्री के श्रानन्ददायक वचनों से बहुत ही श्रानन्द हुआ श्रादिश्यनाग गौत्रीय चोरलियाशाखा के शा. रावल ने सूरिपद के योग्य महोत्सव किया। सूरिजीने भ० महावीर के मंदिर में चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय ज्ञानकलश को सूरिपद से विभूषित कर दिया । सूरिपद के साथ ही साथ अन्य योग्य मुनियों को भी योग्य पदवियां प्रदान की। नूतनाचार्य का नाम परपरानुसार सिद्धसूरि रख दिया तदान्तर वृद्धसूरिजी ने कहा कि मैं तो वृद्धावस्था जन्य कमजोरी के कारण यहाँ पर ही स्थिरवास करूंगा और भाप शिष्य मण्डली के साथ विहार कर धर्म प्रचार करें श्रीसिद्ध सूरिजी ने श्रर्ज की कि- पूज्य गुरुदेव ! मैं क्षण भर भी आपके चरणों की सेवा को छोड़ना नहीं चाहता हूँ । इस वृद्धावस्था में भी श्रापभी की सेवा का लाभ न लूं तो मुझे श्रापश्री की सेवा का सौभाग्य प्राप्त ही कब होगा ? अतः दोनों सूरीश्वरों । यह चातुर्मास उपकेशपुर में ही स्थिर कर दिया व्याख्यान नूतनाचार्य सिद्धसूरि ही देते थे । वृद्ध सूरिजी तो अपनी अन्तिम संलेखना एवं आराधना में संलग्न थे । प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने शेष समय उपकेशपुर में ही व्यतीत किया । अन्त में समाधिपूर्वक १७ दिन के अनशन की भाराधना कर परम पवित्र पञ्चपरमेष्टि के स्मरण पूर्वक स्वर्ण धाम पधारगये । आचार्य देवगुप्तसूरि एक महान् प्रभावशाली आचार्य हुए। आपने अपने ३० वर्ष के शासन में अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर जैनधर्म की श्रमूल्य सेवा की । आपश्री की घबलकीर्ति का इतिहास जैन साहित्य में स्वर्णाक्षरों में अति है। एसे महापुरुषों का जितना सम्मान करें उतना ही थोड़ा है। आचार्य आचार्यश्री ने अपना सारा ही समय धर्म प्रचार के महत्व पूर्ण कार्य में व्यतीत किया श्रतः श्राचार्यश्री कृत सम्पूर्ण कार्यों का दिग्दर्शन कराने के लिये तो एक पृथक खासा इतिहास तैयार किया जासकता है किन्तु में अपने उद्देश्यनुसार कतिपय उदाहरणों को उद्धृत कर देता हूँ: - चित्रकोट का किल्ला के विषय में वंशावलीकार लिखते हैं कि चित्रकोट का महामंत्री श्रेष्टिषर्य सारंग शाह थे आप एक समय घुडसवार हो जंगल से फिर कर शाम के समय वापिस लौट कर नगर में आ रहे थे उस समय एक कटहारा भारी लेकर आगे चल रहा था उसके कंधे पर कुहाडा था जिसकी सूरीश्वरजी का स्थिरवास 930 १०४१ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०६०१-६३१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अप्रधारा सोना की थी जिसको देखकर महामंत्री ने सोचा की यह गरीब आदमी काष्ट की भारी लकर गुजारा करता है इसके सुवर्ण का कुहाडा क्या ? शायद कही पारस का स्पर्श तो नहीं हुआ हो ? मंत्रेश्वर ने करहारा को धमकाकर पुच्छा कि तु कष्ट की भारी कहाँ से लाया है। कटारे ने महामंत्री के शब्द सुनकर कम्पाता २ वोला अन्नदाता में गरीष श्रादमी हूँ जंगल से लकड़ी काट कर लाता हूँ उसको वेच कर धान लाता हु और बाल बच्चों का पोषण करता हूँ। इसपर मंत्रेश्वर ने कहाँ कि चल वह स्थान बतला कि जहाँ से तुं लकड़ियां काट कर लाया है ? सता के सामने विचारा वह गरीब क्या कर सकता था। उसने चल कर उस जगह को बतलाइ कि जहाँ से लकरिया काट कर लाया था मंत्रेश्वरने कटहारा को जाने की इजोजत दे दी और आप उस भूमी को ठीक तरह देखने लगा तो आपकों वहाँ पारस मिलगया जिसको लेकर अपने मकान पर आ गये और विचार करने लगा कि देव गुरु धर्म की कृपा से मुझे सहज में ही पारस मिलाया है तो मैं इसकों किसी धार्मिक एवं जनोपयोगी कार्य में लगा कर सदुपयोंग करू । मंत्रेश्वर ने उस पारस के जरियों पुष्कल लोहा का सोना बनाकर खुब धन रासी एकत्र करली बाद उन्होंने उस द्रव्य से तीर्थों की यात्रार्थ बड़े बड़े संघ निकाले चित्रकोट में भगवान महावीर का मन्दि बनाकर सुवर्णमय मूर्ति स्थापन की और साधर्मी भाइयों को खुल्ले दीलसे सहायता दी तथा गरीब निराधार मनुष्यों को गुप्त सहायता दी और चित्रकोट नगर के चारों और विशाल किल्ला बनवाया जो भारत में अपनी शान का एक ही किल्ला है और इस प्रकार अक्षय निधान ( पारस ) मिल जाने से ही ऐसा वृहद् कार्य बन सकता है न कि कमाया हुआ द्रव्य से । इस पुनित कार्य से यह भी पाया जाता है कि जैन गृहस्थ लोग प्राप्त लक्ष्मी का इस प्रकार सार्वजनिक कार्यों में सदुपयोम करते थे धन्य है उन उदारवृत्ति के नररत्न को । इत्यादि बटुप्त सद् कार्य किये पर वे सब सद्कार्य मंत्रेश्वर के ही तकदीर में लिखे थे मंत्रेश्वर परलोक गमन के साथ पारस भी परश्य हो गया था पूज्याचार्यदेव ने ३० वर्षों के शासन में मुमुक्षुओं को दीक्षाएं दी १-पानन्दपुर के भेष्टि गौत्रीय जैताने दीक्षा --उपकेशपुर के रांका नौंधणाने ३-चूडाणी "चरड़ धना ने ४-क्षत्री पुरा बपनाग साहजाने ५-मुग्धपुर भादाने ६-माडव्यपुर , चिंचट श्राबाने ७ -- पद्मावती सांगणने ८-खटकूप , आदित्य अर्जुन ने ९-रूणावती , विरहट आसलने १०-तारापुर " कुलहट रोड़ा ने ११-कोरंटपुर , चोरडिया पाहड़ ने १२-रत्नपुरा , कनोजिया रूपण ने १०४२ सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएं " भाद्र Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ "सुचंति "पल्लीवाल घरण ने वंश रासा ने , लुंग " दूधड़ माना ने चतराने DILDO11101111111111 " प्राग्वट , प्राग्वट १३-- जेतपुरा राहूल ने १४-दान्तिपुर गोमाने १५-मारसोडी " बलाह गोल्हाने १६ --इत्थुड़ी "करणावट १७-चंन्द्रावती ,, श्री श्रीमाल , रावल ने १८-दुर्गपुर ,, प्राग्वट चोलाने १९-जाकोड़ी "प्राग्वट नारद ने २०-शालीपुर ,, श्रीमाल २१-धोलपुरा काना ने २२-चोराप्राम खुमाण ने २३-करणावती ,,श्रीमाल २४-खेट इ.पुर २५-भरोंच ,, लघुश्रेष्टि पुनडा ने २६-स्तमनपुर पाताने २७-सोपार " कुम्मट खेमा ने २८--सेसली रघुवीर ने २९-आघाट सांडा ने ३०-कापसी ,, अग्रवाल केहराने ३१-दशपुर ,, मोरख राजसी ने ३२-नागदा ., प्राग्वट राणा ने ३३-रेणी , प्राग्यट मोकल ने ३४-उज्जैन , श्रीमाली देपाल ने ३५---मान्डव ,, श्रीमाल जैसल ने सूरीश्वरजी ने अपने ३० वर्षों के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्टाए १-- डामरेल के नागवंशी भूपाल ने भा० पार्श्वनाथ का मन्दिर २-नरवर के बप्प० गौत्रीय वीसाने " " ३-हाडोली के भरी गौत्रीय नोढ़ाने ४ - सोजाली के चरड गौत्रीय हाप्पाने श्रादीश्वर ५-बारटी के लुंग गौत्रीय चांपसीने ६-विजापुर के अग्रवाल वंशीय फागुने महावीर ७-नादुजी के भाद्र गौत्रीय मारणनेणा ८-जंगाल के चिंचट गौत्रीय महीधरने सूरीश्ववरजी के शासन में प्रतिष्ठाए १०४३ ,, पल्लीवाल " अग्रवाल Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०६०१-६३१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ९-शंखपुर के लघुश्रेष्टि गौत्रीय करमणने १०-देवपण के डिडू गौत्रीय भांणाने ११-आलोर के ब्राह्मण शिवशंकरने नेमिनाथ ११-रत्नपुर के प्राग्वट वंशीय चांडाने १३-सीदडी के पल्लीवाल वंशीय जेसलने , शान्तिनाथ १४-सोपार के , " दुर्गाने , पाश्वनाथ १५-कांकली के अप्रवाळ वंशीय हानाने १६-दांतण के श्रीमाल वंशीय लालनने १७-हंसावली के , " संखलाने महावीर १८-मालपुर के , " मोकल के १९--खंडेला के श्रेष्टि गौत्रीय अजड़ने २०-मथुरा के श्री श्रीमल गौत्रीय वीरमने नेमीनाथ २१-देवल के चोरडिया गौत्रीय नारायणने विमलनाथ २२-लोहाकोट के चरड़ गोत्रीय सोमा ने मल्लीनाथ २३ -सावाथी के रांका गौत्रीय खेताने २४-मारसी के क्षत्रिय सारणने २५-चन्द्रपुर के करणावट गोत्रीय सलखणने महावीर २६ सत्यपुरी के मोरख गौत्रीय जावड़ने २७ चरोटी के सुचंति गौ० सुखाने २८-खेड़ीपुर के डिडु गौ० करपाने पार्श्वनाथ २९-शिवपटी के प्राग्वट वंशीय देवाने ३०-अधाट के प्राग्वट , मादाने ३१ रूपनगर के श्रीमल , रासाने चंदाप्रभु ३२-थंभोरा के लघुष्टि गौ० मालाने वास पूज्य ३३-कंटोजा के संघची , भोला ने अजितनाथ प्राचार्य श्री के ३० वर्षों के शासन में संघादि सद्कार्य१-नागपुर के अदित्य गौत्री भैराने शत्रुजय का संघ० २-उपकेशपुर के बप्पनाग लादाने ३- चन्द्रावती के प्राग्वट " सादाने ४-सोजाली के डिडू राजसीने ५-खटकूँप के मोरख ६-~पाल्हिका के श्री भीमाल १०४४ सूरीश्ववरजी के शाशन में शुभकार्य नागदेवने , " मुंजाने Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ " भाद्र सुचंति ७-वीरपुर के चरड़ दोलाने ८-नाणापुर के प्राग्वट पदमाने ९-मांडव्यपुर के मोकलने सम्मेत शिखर का १०-सोपारपट्टन के करणापट लुबाने शत्रुजय का संप ११--चित्रकोट के करमणने १२-धोलपुरा के लुंग आमदेवने १३-पद्मावती के प्राग्वट लालाने १४-मथाणी कनोजिया वीरम की पत्नी ने तलाव खोदाया १५-पासोडी के प्राग्वट खुमाण की पुत्री भूरीने एक वापी खुदाई १६-शिवपुर के प्राग्वट देदा की विधवा पुत्री सुखीने तलाव खुदाया १७-चन्द्रावती के पोरवाल वीर अजड़ युद्ध में काम पाया० सती हुई १८-हत्थुड़ी के श्रीमाल ओटो युद्ध में काम आया , १९-पद्मावती के प्राग्वट , मंत्रीवीरम युद्ध में काम ,, , २०-वि० सं० ६१२ मारवाड़ में भयंकर दुकाल पड़ा था जिसके लिये उपकेशपुर के श्रेष्टिवय्यों ने चन्दा कर करोड़ों द्रव्य से देशवासी भाइयों एवं पशुओं के लिए अन्न एवं धास देकर प्राण बचाये । २१ वि० सं० ६२३ में भारत में एक जबर्दस्त दुष्काल पड़ा जिसके लिये चन्द्रावती आदि नगरों के धनाड्य लोगों ने कई नगरों में फिर कर महाजन संघ से चन्दा एकत्र कर उस दुकाल को भी सुकाल बना दिया था जहाँ मिला वहाँ से धान घास मंगवा कर देशवासी भाइयों के एवं मुक् पशुओं के प्राण बचाये २२-वि० सं० ६२९ में भी एक साधारण दुकाल पड़ा था जिसमें नागपुर के आदित्यनाग गौत्रीय शाह गोसल ने एक करड़ो रूपये व्ययकर मनुष्यों को अन्न जोर पशुओं को घास उदार दील से दियाथा इत्यादि महाजन संघ ने अपनी उदारता से अनेक ऐसे २ चोखे और अनोखे काम किये थे कि जिन्हों की उज्वल कीर्ति और धवल यशः आज भी अमर है। पट्ट सेतीसवें हुए सूरीश्वर, श्रेष्टिकुल शृंगार थे । देवगुप्त था नाम आपका, क्षमादि गुण भण्डार थे । प्रतिबोध करके सद् जीवों का, उद्धार हमेशों करते थे । सुनकर महिमा गुरुवर की, पाखण्डी नित्य जरते थे ।। इति भगवान् पार्श्वनाथ के सेतीसवे पट्ट पर देवगुप्त सूरि नामक महा प्रभाविक प्राचार्य हुए आचार्य देवगुप्तसूरि का स्वर्गवास १०४५ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१ से ६६० [ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास ३८-प्राचार्य श्रीसिद्धसरि (सप्तम) श्रीमन्मान्यवरेण्यसिद्धमुनिराट् श्रीपप्पनागाभिधे ॥ गोत्रेलब्धजनिः सदानिजयते शीतांशु बिम्बाननः लन्धो येन पुराऽक्षयो धननिधिर्धम्ये विधौ योजितो। दीक्षा प्राप्य तपःस्थितो जिनमतोद्धारे मुदा तत्परः।। ANGA ज्यपाद, प्रख्यात विद्वान्, चारित्र चूड़ामणि, विविध वाङ्गमय विदग्ध, तपस्ते जपुनधारी, ज्ञान दिवाकर, उत्कृष्ट क्रिया कर्ता आचार्य श्री सिद्धसूरिजी महागज एक सिद्ध पुरुष की 9 भांति सर्वत्र पादपूजित थे। आप जैसे वर्तमान साहित्य व्याकरण, न्याय, काव्य, लक्षण न आदि शास्त्रों के अनन्य - अजोड़ विद्वान थे उसी तरह कठोर तपश्चर्याकर श्रात्म दमन करने में भी परम शूरवीर थे । आपश्री की तपश्चर्या अभिग्रह के साथ में प्रारम्भ होती थी अतः कभी २ तो एक मास तक की कठोर तपश्चर्या होने पर भी अभिग्रह पूर्ण नहीं होता था। इस तरह आपने अपने जीवन का तपश्रर्या भी एक अंग बना लिया। इस कठोर तपश्चर्या के प्रभाव से साधारण जनता ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजा भी आपश्री के तपस्तेज एवं ज्ञान क्रिया निधान से प्रभावित होकर आपश्री के चरण कमलों की सेवा का लाभ लेने में अपने को परम सौभाग्यशाली समझते थे । आपश्री का जीवन अनेक चमत्कार पूर्ण घटनाओं से ओतप्रोत है जिस को मैं संक्षिप्त रूप में पाठकों की सेवा में इसी गरज से रख देता हूँ कि वाचकवृंद, प्राचार्य देवका जीवन चरित्र मनन पूर्वक पढ़ कर व श्रवण कर सूरीश्वरजी के जीवन का अनुसरण करें। सिंध की उन्नत भूमि पर मालपुर नामका नगर था। वहां पर उस समय राव रुद्राट के वंश पर. म्परा के राव कानद राज्य करते थे । यद्यपि वेदान्तियों के अधिक संसर्ग में आने के कारण, मालपुर नरेश, बाह्मण धर्मोपासक थे, परन्तु जैन श्रमणों के त्याग, वैराग्य, शांति, क्षमा, सरलता आदि गुणों का उनके हृदय पर अच्छा प्रभाव था । वे जैन श्रमणों की चारित्र विषयक विशुद्धता से प्रभावित हो उनके सत्संग के लिए सदाही उत्कंठित एवं लालायित रहते थे । परम्परागत श्राभिनिवेशिक मिथ्यात्वका यद्यपि वे (मालपुर नरेश) त्याग नहीं कर सके परन्तु जैनश्रमणों की पवित्रता एवं यम नियम की दुष्करता के कारण वे उनकी ओर चुम्बक की तरह आकर्षित थे। जैनश्रमणों के आगमन से एवं व्याख्यान श्रवण से मालपुर नरेश का मन भी शान्ति का अनुभव करता था। हृदय सागर में श्राध्यात्मिक भावनात्रों की उत्तुंग मियां छलने लगती । लिखने का तात्पर्य यही है कि-यह वाममार्गी होने पर भी जैन ही था। मालपुर में जैन एवं उपकेशवंशियों की अच्छी श्राबादी थी। परम समृद्धि शाली मालपुर नगर में क्रयविक्रयादि वाणिज्य (व्यापार ) कला कुशल, धर्मानुरागी, श्रावकत्रतानुष्ठान कर्ता बप्पनागगौत्रीय शा. देवा नाम के एक जग विश्रुत व्यापारी रहते थे। आपकी गृह देवी का नाम दाड़म दे था । दम्पत्ति बड़े ही धर्मशील एवं भद्रिक परिणामी थे । धर्म करनी में सदा उद्यमपन्त-तत्पर थे । शाह देवा के यों तो पुत्र wwaranawrimary wnwaran AAAAAAAAMA सिन्ध धरा का मालपुरा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०३१ से १०६० पौत्रादिक विशाल फुटुम्ब था पर, घर के कार्य को सम्भालने के लिये स्तम्भवत् प्राधार भूत, चक्षु अवलम्बन देने वाला आसल नामका पुत्र था। शाह देवा ने व्यापारिक क्षेत्र में प्रवृत्ति कर बहुत द्रव्योपार्जन किया था और समयानुकूल उस द्रव्य का शास्त्रवर्णित सप्तक्षेत्रों में सदुपयोग कर पुण्य सम्पादन भी किया था । मालपुर में चरमतीर्थकर, शासननायक भगवान महावीर स्वामी के मन्दिर का निर्माण कर आचार्यश्री के हाथों से मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई सम्मेत शिखरादि पूर्व, तथा शत्रुञ्जय गिरनारादि दक्षिण के तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल कर, संघपति के पदपर आसीन हो तीर्थ यात्रा का अनन्त पुण्य सम्पादन क ने के लिये भी भाग्यशाली बना था। पूजा, प्रभावना स्वामीवात्सल्यादि धार्मिक क्रियाएं तो आपकी साधारण क्रियाओं के अन्तर्गत थी । जब शाह देदा का देहान्त हुआ तब आप अखूट लक्ष्मी अपने पुत्र श्रासल के लिये जमा छोड़ गये । पर--- ___पूतसपूत तो क्यों धन संचय, पूतकपूत तो क्यों धन सञ्चय" लक्ष्मी की भी अवधि होती है । इसका स्वभाव चंचल एवं कच्चे रंग की तरह क्षणभङ्गुर है जब तक पुण्य राशि की प्रबलता रहती है तब तक सर्व प्रकार के सुखोपभोग के पौद्गलिक साधन अपना अस्तित्व कायम रखते हुए मनुष्य के स्वभाव एवं रहन सहन में अलौकिक विचित्रता का प्रादुर्भाव कर देते हैं किन्तु, पुण्य सामग्री के समाप्त होते ही पुण्य के साथ ही साथ सब उपलब्ध साधन भी अदृश्य-लुप्त हो जाते हैं । बस यही हाल देदा के सुपुत्र श्रासल का भी हुआ। शा. देदा के द्वारा संचित किया हुश्रा द्रव्य आसल के तकदीर में नहीं था । शा. देदा के बाद लक्ष्मी भी न जाने आसल से क्यों अप्रसन्न होगई ? देखते २ लक्ष्मी ने अपना किनारा लेना प्रारम्भ कर दिया। जिस लक्ष्मी को एकत्रित करने में कई वर्ष व्यतीत हुए थे वही लक्ष्मी आज क्षणभर में श्रासल के घर से बिदा होगई । बास्तव में इसकी अनित्यता को जानकर के ही तीर्थकों ने शाश्वत सुख प्राप्ति के लिये धर्म को ही मुख्य एवं श्रेयस्कर साधन बताया है । इस तरह पुण्यं के प्रभाव से आसल क्रमशः घर खर्च चलाने में भी असमर्थ बनगया। जैसे तैसे बड़ी ही मुश्किल से बिचाग घर का गुजारा चलाने लगा। जिसके घरों से संघ जैसे वृहद् कार्य व मन्दिर जैसे परम पवित्र कार्य हुए आज बही कोटाधीश पूर्व जन्मोपार्जित पापकर्म के उदय से लक्षाधीश के बदले रक्षाधीश बनगया । दरिद्रता के इतने विकट प्रवाह में प्रवाहित होते हुए भी आसल ने अपनी धर्मक्रिया में किचित् भी न्यूनता न आने दी। वह तो इस दारूण परिस्थिति में और भी अधिक मनन पूर्वक परमात्मा का नाम स्मरण करने लगा। ज्यों २ व्यापारिक स्थिति की कमजोरी के कारण, समय मिलता गया त्यों २ वह अपने नित्य नियमादि-नित्यनैमेत्तिक-कृत्यों में भी वृद्धि करता गया । श्रासल जैन दर्शन के कर्मवाद सिद्धान्त का अच्छा ज्ञानी था । वह जानता था कि ये सब पौद्गलिक पदार्थ तहन निस्सार एवं क्षण विनाशी हैं। संसार, शुभाशुभ संचित कर्मों का नाटक है । जब तक मेरे पुण्य का उदय था मैं परम सुखी था । आज पाप के उदय से ही मुझे धनाभाव जन्य कष्ट का मुकाबिला करना पड़ रहा है । आज दुःख है तो, पुण्योदय से पुःन सुख का दिवस भी उपलब्ध होगा। इस तरह कर्म के विचित्र इतिहास का एवं कर्म की करता से प्राप्त हुए अनेक महापुरुषों के जीवन के कष्टों का स्मरण करते हुए वह इस दुःखमय जीवन को भी क्षण मात्र लिये सुखमय बना रहा था । वास्तव में शाह आसल का असह्य समय १०४७ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१ से ६६१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास wwwwwwwwwwwwwwwwwww "कर्म तारी कला न्यारी हजारो नाच नचावे छ । घड़ी मां तू हंसावे ने घड़ी मां तू रडावे छे ॥" आज उक्त पद का श्रासल सक्रिय अनुभव कर रहा था। रह रह कर उसे अपने पिता के समय की स्मृति हो रही थी। वे आनंद के दिन उससे भूले नहीं गये थे किन्तु, धर्म का दृढ़ श्रद्धालु प्रासल, इस दुःख काल में भी अत्यन्त गम्भीरता पूर्वक अपनी जीवन यात्रा-यापन कर रहा था। ठीक उसी समय सिंधधरा को पावन बनाते हुए श्राचार्य देवगुप्तसूरिजी क्रमशः मालपुर में पधार गये । श्रीसंघने आचार्य देव का यथा योग्य नगर प्रवेशादि महोत्सवों से शानदार स्वागत किया। श्रीसूरीश्वरजी के पधारने से प्रासल की प्रसन्नता का तो पारावार ही नहीं रहा । वह जानता था कि प्राचार्यमा के पधारने से मेरा भवशिष्ठ समय जो सांसारिक दुःखमय द्वन्द्वों के विचारने में व्यतीत होता है-शान्ति से धर्माराधन कार्यों में व्यतीत होता रहेगा। दूसरी बात उत्कृष्ट संयम के पालक त्यागी वैरागी योगियों के दर्शनोका लाभ भी पूर्व संचित सुकृत के उदय से प्राप्त होता रहेगा । साधु लोग दीनोद्धारक करुण निधान, एवं दया के साक्षात् अवतार स्वरूप होते हैं अतः, उनके चरणों की सेवा से पूर्वजन्मोपार्जित दुष्कर्मों का भी प्रक्षालन होता रहेगा। बस इन सब बातों का विचार करते ही उसके हृदय में सहसा नवीन प्रतिभा जन्य अलोकिक शक्ति का प्रादुर्भाव होगया। इस तरह अनेक विचार करता हुआ आसल आचार्यश्री के नगर प्रवेश महोत्सव में सम्मिलित हुआ और प्राचार्यश्री के चरण रज का स्पर्श कर आसल ने अपने जीवन को कृत कृत्य किया। . आचार्यश्री का अमृत मय व्याख्यान हमेशा होता था। एक दिन भाचार्यश्री ने संसार की विचित्रता एवं मनुष्य जन्म की दुर्लभता बतलाते हुए फरमाया कि "समावन्नाण संसारे, नाणागोत्तासु जाइसु । कम्मानाणा विहाकट्ट, पुढो विस्संभयापया ॥१॥ एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया । एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छई ॥२॥ एगया खत्तिओ होई, तओ चण्डालयोकसो । तओकीड पयंगोय, तओ कुन्थु पिवीलिया ॥३॥ एवमावडजोणीसु, पाणिणो कम्माकिदिवसा । ननिविजंतिसंसारे, सवठेसुय खात्तिया ॥४॥ कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणु सासुजोणिसु, विणिहम्मान्ति पाणिणो ॥५॥ कम्माणंतु पहाणाए, आणुपूचि कयइवि । जीवासोहिमणुपत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥६॥ ____ इस प्रकार अत्यन्त दुर्लभता से मिले हुए सुर दुर्लभ मानव देह को कौटुम्बिक प्रपञ्चों में, सांसारिक पौद्गलिक मोहक पदार्थों में, पारस्परिक स्वभावविभेद जन्य कलह में व्यतीत कर देना मेधावियों के लिये शोभास्पद नहीं है याद रक्खो इस समय का सदुपयोग किये बिना हमको भविष्य में बहुत ही पछताना पड़ेगा। जैसे एक मूर्ख को यकायक रत्न की प्राप्ति हुई किन्तु उसके महत्व व मूल्य से अनभिज्ञ उस पागल ने उस रत्न को खेत के धान्य को खाने के लिये पाये हुए पक्षियों को उड़ाने में कक्कर की तरह उपयोग किया है उसके मूल्य की वास्तविकता को जानने पर उसे जैसा पश्चाताप हुआ उससे भी अनन्त गुना ज्यादा शोक निर्दय-कराल काल के मुख में पड़े हुए जीव को होता है अतः प्राप्त समय का सदुपयोग कर जब तक इन्द्रियों की शक्तियां नष्ट न होवे तब तक धर्म का आचरण करके अपने जीवन को सार्थक बना लेना मनीषियों की बुद्धिमता है । "जाव इंदिया न हायंति ताव धम्म समायरे। १०४८ सूरिजी का मालपुरा में व्याख्यान Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०३१-१०६० कहा है – “धर्मरहित चक्रवर्ती की समृद्धियां भी निकम्मी है और धर्म सहित निर्धनता जन्य आपत्तियां भी अच्छी है ।" इस लोकोक्तिमें शब्द तो अगम्य रहस्य भरा हुआ है । कारण, धर्म रहित मनुष्य को पूर्व सुकृतोदय से धन जनादि पदार्थ प्राप्त होगये तो वह उनका उपयोग कर्मबन्धन मागों में ही करेगा । एशआराम व पोद्गलिक सुखों तक प्रयत्न कराने में सहायक होगा । द्रव्य का क्षणिक भोग विलासों में दुरुपयोग कर नाचितकर्मों का बंधन करेगा अतः धर्म रहित मनुष्य की समृद्धियां भी भविष्य के लिए खतरनाक दुर्गति दायक होती है । इसके विपरित धार्मिक भावना से ओतप्रोत निर्धन धनाभाव के कारण दरिद्र व्यक्ति का जीवन धर्म भावनाओं की प्रबलता से पूर्वोपार्जित दुष्कमों की निर्जरा का हेतु और भविष्य के पातक बंधन का बाधक होगा । वह कर्म फिलोसॉफी का अभ्यासी जीव निर्धनताजन्य दुःखों में भी कर्मों की विचित्रता का स्मर कर शान्ति का अनन्योपासक रहेगा । यावत् उसकी निर्धनता भी कर्म निर्जरा का कारण बन जायगी । अतः मनुष्य के जीवन की मुख्य सामग्री धन नहीं किन्तु - घर्म है । इसकी आराधना से ही जीव इस लोक और परलोक में परम सुखी हुआ है और होगा । इस प्रकार सूरिजी ने कर्मों कि विचित्रता एवं धर्म की महत्ता के विषय में लम्बा चौड़ा सारगर्मित, उपदेशप्रद प्रभावोत्पादक वक्तृत्त्व दिया। इसका उपस्थित जन समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा । व्याख्यान में शा . श्रासन भी विद्यमान था । उसने सूरीश्वरजी के एक एक वाक्य को यावत् अक्षर को बहुत ही एकाचित्त से श्रवण किया उसको ऐसा श्राभास होने लगा कि मनो आचार्यश्री ने खास मेरे लिये ही कर्म की फिलोसॉफी को प्रकाशित की है। क्षण भर लिये आसल के नेत्रों के सामने बाल्य काल से लगाकर के आज तक के इतिहास का चित्र, सुख दुःख का स्मरण धन की अधिकता एवं निर्धनता की क्रूरता की त्यों अंकित हो गई। सूरिजी का कथन उसे, सौलह आना सत्य ज्ञात होने लगा । वह विचारने लगा कि अवश्य ही मैंने पूर्व जन्म में धर्म के प्रति उदासिनता - उपेक्षा दृष्टि रक्खी। धर्म मय जीवन बिताने वालों को कष्ट दिया। उन्हें तरह तरह की अंतराय देकर ऐसे निकाचित कर्मों का बंध किया है कि आज प्रत्यक्ष हो उसके कटु फलों का मैं आस्वादन कर रहा हूँ। निर्धनता जन्य दुखों को भोग रहा हुँ । अस्तु, एक समय शा. आसल सूरीजी की सेवा में हाजिर हुआ और वंदन करके बैठ गया । सूरिजी जानते थे कि श्रासन के पिता परम धर्म परायण व्यक्ति थे । उन्होंने लाखों रुपया व्यय करके धर्म कार्यों कर पुराय सम्पादन किया । धार्मिक पिता का पुत्र आसल भी धर्म के रंग में रंगा हुआ ही होना चाहिये श्रतः श्राचार्य श्री, असल को अमृतमय वाणी द्वारा संसार की असारता के विषय उपदेश दिया जिसकों सुनकर श्रासल ने कहा- भगवान् ! मेरा दिल संसार से तो सर्वथा विरक्त हैं । यदि मैं, मेरे निर्धारित कार्य को करलूं तो जनता मेरी निर्धनता के साथ धर्म की भी अवहेलना करने लग जायगी । धर्म व साधुत्व वृत्ति उनके लिये साधारण व्यक्तियों का आश्रय स्थान बन जायगी । । सब लोगों के हृदय में भावनाएं जागृत होजायेंगी कि दारिद्रयजन्य कष्टों से पीड़ित हौ कमाने में असमर्थ असल ने साधुत्व वृत्तिको स्वीकार कर अपने आपको निर्धनता के दुःख से मुक्त किया । भगवन् ! इन अपवाद मय शब्दों में धर्मावहेलना का भी रहस्य प्रच्छन्न है जिसका स्मरण कर दीक्षा के लिये उद्यत मेरा मन मुझे पुनः आगे बढ़ाने के बजाय पीछे कीर खेंच रहा है । पूज्यवर ! यदि मैं पुन पूर्ववत् स्थिति को प्राप्त होजाऊं तो शीघ्र ही संसार को तिलाञ्जली देकर प्रापके करकमलों में एवं आपकी सेवा में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करलूं । आचार्यश्री का व्याख्यान 935 १०४९ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१-६६०] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी ने कहा-श्रासल ! एक ही भव में कमों की विचित्रता के कारण मनुष्य अनेक परिस्थितियों का अनुभव करता है । कभी सुकृतपुब्ज से यकायक राजा बन जाता है तो दूसरे ही क्षण पापोदय से घर २ के टुकड़े की याचना करने वाला याचक बन जाता है । राजा हरिश्चंद्र, मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र जैसे नरेशों एवं महावीर जैसे तीर्थंकरों को भी इस कर्म ने नहीं छोड़ा तो हम तुम जैसे साधारण व्यक्तियों के लिये तो कहना ही क्या ? ये तो अपने हाथों के किये हुए ही शुभाशुभ कर्म हैं। इसमें किंचित मात्र भी आर्तध्यान न करते हुए धर्म मार्ग की आराधना करते रहना ही श्रेयस्कर है। अब रही आत्म कल्याण की बात सो श्रात्म कल्याण, संसारावस्थ को त्याग कर साधुत्व वृत्ति को स्वीकार करने में ही नहीं पर गृहस्थावस्था में रहते हुए भी हो सकता है । हाँ दीक्षा की उत्कृष्ट भावना रखनी एवं समयानुकूल दीक्षा को अङ्गीकृत कर शीघ्र श्रात्म कल्याण करना तो श्रावश्यक है ही पर दीक्षा की भावना को भावते हुए सांसारिक अवस्था में भी बनते प्रयत्न निवृत्ति मार्ग का अश्रय लेते रहना चाहिये । आसल ! कई एक व्यक्ति तो ऐसे भी देखे गये कि वे निर्धनावस्था में जितना धर्माराधन कर आत्म श्रेय सम्पादन कर सकते हैं, उतना धनिकावस्था में नहीं कर सकते हैं। उनके पीछे उस समय इतनी उपाधियां लग जाती हैं कि वे धर्म कर्म को सर्वथा विसर जाते हैं । निर्धनावस्था में की हुई प्रतिज्ञाओं का पालन उनके लिये विचारणीय हो जाता है उदाहरणार्थ-एक निर्धन मनुष्य थोड़े बहुत परिश्रम से अपना गुजारा करते हुए पाठ घंटा हमेशा धर्म सम्पादन करने में व्यतीत करता था । किसी समय पुण्योदय से एक सिद्ध पुरुष उसको मिलगया। निर्धन ने उस सिद्ध पुरुष की तन, मन, एवं शक्यनुकूल धन से बहुत ही सेवा भक्ति की । उसकी भक्ति से प्रसन्न हो सिद्ध पुरुष ने पूछा-भक्त ! तेरे पास कितना द्रव्य है ? उसको कहते हुए शरम आई अतः हाथ पर १) आंक लिख कर सिद्ध पुरुष के सामने रक्खा । सिद्ध पुरुष को भक्त की निर्धनता पर बहुत ही करुणा उत्पन्न हुई उसने १) पर बिंदी लगादी जिससे कुछ ही दिनों में निधन के पास इस रुपये हो गये । जब वह निर्धन एक रुपये का किराणा लाकर बाजार में बेचने जाता था उस समय उसको पूजा, सामायिका दि धार्मिक कृत्य करने के लिये बहुत समय मिलता था अब दश रुपयों का माल लेकर आस पास के प्रामों में बेचने को जाने लगा तो उसे आठ घंटे के बजाय छ घंटे ही धर्म-कार्य के लिये मिलने लगे । पर जो परिणामों को स्थिरता एवं पवित्रता आठ घंटे धर्म ध्यान करते समय थीं वह इन छ घंटों के अल्प समय में न रह सकी। उसके हृदय में लोभ ने प्रवेश कर लिया। वह विचारने लगा कि यदि सिद्ध पुरुष एक शून्य की और कृपा कर दे तो प्रामों में बेचने जाने की तकलीफ का अनुभव नहीं करना पड़े और यहां पर ही छोटी मोटी दुकान करके बैठ जाउं । बस उक्त विचार से प्रेरित हो वह पुनः सिद्ध पुरुष के पास गया। सिद्ध पुरुष ने भी दयावश एक शून्य और लगा दी निर्धन के पास अब १००) होगये । क्रमशः निर्धन ने दुकान कर ली पर इसका नतीजा यह हुआ कि दुकान पर बैठते हुए ग्राहक की राह देखने में धर्म ध्यान निमित्त रक्खे हुए छ घंटो में से दो घंटे और भी कम हो गये । इसकी इसको बहुत चिंता हुई अतः समय पाकर पुनः सिद्ध पुरुष के पास गया और प्रार्थना की कि भगवन् ! एक विंदी और लगादें तो घड़ीहो कपा होगी । दयालु सिद्ध पुरुषने भी एक बिन्दी और लगा दी जिससे सेठ के पास १०००) होगये । अब तो सेठ ने एक नौकर और रख लिया । व्यापार, धंधा बड़े जोर से चलने लग गया । देशावरों से माल मंगाना बेचना प्रारम्भ कर दिया पर इससे धर्म के कार्य के चार घंटे में से दो घंटा का समय भी मुश्किल से मिलने लगा। उस धर्म कार्य के समय को बढ़ाने के लिये सेठ ने बहुत से उपाय सोचे पर, सबके सब उपाय सिद्ध पुरुष की बिंदिया १०५० Jain Education hternational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०३१-१०६० उसको उसकी दृष्टि में निष्फल ज्ञात हुए । वह चल कर पुनः सिद्ध पुरुष के पास आया। उसकी करुणा पूर्ण प्रार्थना पर सिद्ध पुरुष ने एक नहीं पर दो विंदू और लगा दिये अब तो वह लक्षाधिपति बनगया। इस लक्षाधिपति की अवस्था में अवशिष्ठ रहे धर्म कार्य के दो घंटे भी रफूकर हो गये धन के मद में लोलुप बन गया । धर्म के प्रति उपेक्षा करने लगा। इतना ही नहीं पर उपकारी सिद्ध पुरुष के दर्शन करना भी सर्वथा भूल गया। एक दिन वह सिद्ध पुरुष बाहर परिभ्रमन करने के लिये उस गांव से रवाना हुआ इस समय नगर के सब लोग उसे पहुँचाने के लिये आये किन्तु वह भक्त जिसको लक्षाधिपति बनाया था कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ। सिद्ध पुरुष इधर उधर घूमकर पुनः उस नगर में आया । स्वागत के लिये सब नगर निवासी सम्मुख गये पर बिन्दु बढ़ाने वाले सेठ का उस समय भी पता नहीं था । क्रमशः सिद्ध पुरुष अपने आश्रम में पहुँच गये । कई दिवस व्यतीत होगये पर उस नवीन लक्षाधिपति के दर्शन भी दुर्लभ होगये इससे सिद्ध पुरुष आश्चर्य चकित हुश्रा अवश्य किन्तु धन के अहमत्व का विचार कर सिद्ध पुरुष को विशेष नवीनता नहीं लगी। एक समय सिद्ध पुरुष भिक्षार्थ उस नगर की छोटी सी गली से गुजर रहा था कि सेठ की अकस्मात भेट होगई । धन के घमण्डी सेठ ने अपने मुंह पर कपड़ा डाल दिया और एक शब्द बोले बिना ही अपने चलने का क्रम प्रारम्भ रक्खा । सिद्ध पुरुष उसे अच्छी तरह से पहिचान गया अतः व्यंगमय शब्दों में बोला किसेठजी ! और बिन्दी की जरूत हो तो आश्रम में आजाना । सेठ तो धर्म कर्म को तिलाञ्जली देर तृष्णा का दास बन गया था अतः कार्य से निवृत्ति पाकर तुरत सिद्ध पुरुष के आश्रम में चला गया । सिद्ध पुरुष ने कहा-सेठजी । इस समय तुम्हारे पास कितना द्रव्य है । सेठने १०००: ० बड़े २ अंक लिख दिये । अंकों को इतने बड़े अक्षरों में लिखे कि नवीन शून्य लिखने के लिये भी हाथ में स्थान न रहा । सिद्ध ने कहा-~~सेठजी ! क्या किया जाय ? अब बिन्दी लिखने का भी हाथ में स्थान नहीं है । सेठ ने कहा-यदि आगे स्थान नहीं तो क्या हुआ ? पृष्ठ भाग में तोजगह है उधर ही बिन्दी लगा दीजिये । उसके विशेषाग्रह से सिद्ध पुरुष ने पीछे बिंदी लगादी । बस, फिर तो था ही क्या ? स्वप्न की माया स्वप्नवत ही नष्ट होने लगी। थोड़े ही समय में सेठ अपनी मूल स्थिति पर आगया । केवल उसके पास उसकी मूल पुजी १) ही रही । अब उस पर हो अपना निर्वाह करने लगा । इधर इतने प्रपञ्चों एवं उपाधियों से मुक्त होने के कारण आठ घंटा समय धर्म कार्य के लिये भी मिलने लग गया । अब सिद्ध पुरुष के पास जाकर सेठ ने अर्ज की कि गुरुदेव । संसार को डुबाने एवं तारने की चाबी आपके पास में हैं पर जैप मेरे पर दया भाव लाकर बिंदिय लगाकर मेरे धर्म कर्म को छुड़वाया वैसे दूसरे का नियम न छुड़वाना । मुझे इस हात में ही आनंद है । आठ घंटे धर्म कार्य के लिये तो मिलते हैं । इस बीच ही आसल ने प्रश्न किया-गुरुदेव । सिद्ध पुरुष इस प्रकार किसी को द्रव्य दे सकता है ? गुरु महाराज ---आसल ! जैनधर्म एकान्तवाद को अपनाये हुए नहीं है। वह तो अनेकान्त वाद का परम अनुयायी है । यदि एकान्त ऐसा मान लिया जाय तो संसार में कोई दुखो एवं निर्धन रह ही नहीं सके और इसके साथ ही साथ सुकृत (पुण्य) दुष्कृत (पाप) के शुभाशुभ का फल भी नष्ट होजाय । पर ऐसा सबके लिये सम्भव नहीं है । सिद्ध पुरुषों का संयोग व ऐसे कोई दूसरे साधन तो पूर्वजन्म के सम्बन्ध से किंवा पुण्योदय से मनुष्यों के लिये निमित्त बन जाते हैं । जैन शास्त्रों में कारण, दो प्रकार के कहे हैं- एक धन पीपासुओं का धर्म Jain Education Internationa Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१-६६० [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उपादान कारण दूसरा निमित्त कारण । जब उपादान कारण सुधरा हुआ होता है तो निमित्त कारण सफल बन जाता है । पर मूल उपादान कारण ही अच्छा न हो तो निमित्त कारण उसमें कुछ नहीं कर सकता है । इतना ही नहीं उनका फल भी एक दम विपरीत हो जाता है। जैसे-दो मनुष्यों को एक प्रकार का रोग है । वैद्य ने उनको एक ही दवाई दी जिससे एक रोगी का रोग तो मिट गया पर दूसरे का रोग उसी दवाई से बढ़ गया । इसमें वैद्य तो निमित्त कारण है पर उपादान कारण तो उन रोगियों का ही था। ___ आसल ! मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि वह, उपादान कारण को सुधारने का प्रयत्न करे । उपादान कारण अच्छा होगा तो निमित्त कारण अपने श्राप ही श्रा मिलेगा । मैंने जो उदाहरण सुनाया है उसको लक्ष में रखना कि आज इस अवस्था में तेरी जो भावना है बह, दूसरी अवस्था में सेठ की तरह परिवर्तित न होजाय। श्रासल-गुरुदेव ! मेरी उक्त विरक्त भावना दुखःसुख के कारणों से पैदा नहीं हुई जो सुख के साधनों में विलुप्त हो सके । मेरी भावना तो आत्मिक भावों से प्रादुर्भूत हुई है। निश्चय में तो अभी मेरे अन्तराय कर्म का उदय है ही किन्तु व्यवहार में लोकापवाद एवं धर्म पर आक्षेप होने के भय से मैंने अपने घर में रह कर स्वशक्त्यनुकूल धर्माराधन करना ही समीचीन समझा है। प्रतिलेखन का समय हो जाने से श्रासल ने, प्राचार्य देव के चरण कमलों में वंदना की गुरुदेव ने आसल को धर्मलाभ देते हुए कहा--आसल तेरे दीर्घ दृष्टि के विचार अच्छे हैं। धर्मभावना में उत्तरोत्तर वृद्धि करते रहना। सूरिजी महाराज ने समयानुकूल मालपुर से विहार कर दिया और श्रासल गुरुदेव के वचनानुसार धर्म क्रिया को बढ़ाता हुआ, संतोष वृत्ति को धारण किये हुए कर्मों के साथ भीषण संग्राम करने लग गया। इस समय आसल की वय चालीस वर्ष को अतिक्रमण कर चकी थी। कर्मों की करता से हतोत्साहित होकर उसने अपने नित्य नियम में धर्म कार्य में किश्चत् भी शिथिलता नहीं आने दी। परिणाम स्वरुप पुण्योदय से एक दिन गायें बांधने के स्थान को खोदते हुए अकस्मात एक अक्षय निधान निकल गया । अपने भाग्योदय के समय को आया हुआ जानकर उसने आचार्य देव के वचनों का स्मरण किया। गुरुदेव का अनुपमेय उपकार मानते हुये ज्यों ज्यों निधान को खोदता गया त्यों त्यों वह अक्षय ही होता गया अब तो श्रासल-वह आसल नहीं रहा जो एक घंटे पूर्व था। अब तो वह अनन्य धनकुबेर-श्रीमन्त हो गया। आसल ने धीरे धीरे शुभ कार्यों में द्रव्य का सदुपयोग करना प्रारम्भ कर दिया । चतुर, शिल्पकला निष्णातशिल्पज्ञ कारीगरों को बुलवाकर एक मंदिर बनवाना भी शुरु किया। पर इससे शा. आसल की प्रकृति में किश्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं पड़ा । वह अपनो पूर्वावस्था को भूला नहीं धनाभाव में गृहस्थाश्रम चलाना कैसा विकट एवं भयंकर होता है उसका चित्र उसके सामने सजीवित् अङ्कित होगया। उसके हृदय में ये भावनाएं दृढ़तम होती गई कि यदि हमारे स्वधर्मी भाइयों में से कोई मेरी पूर्वावस्था के समान दारिद्रय दुःख का अनुभव करता हो या उसके लिये उसका जीवन विकट समस्या मय बन गया हो तो उसे येन केन प्रकारेण सुखी बनाऊ । कारण, दरिद्रता के दुःख का आसल ने कई वर्षों तक अनुभव किया था अतः उसके हृदय में ऐसी पवित्र भावनाओं का प्रादुर्भाव होना सहज-स्वाभाविक था। उपरोक्त विचारों को वह विचारों के रूप में ही विलीन न करता गया किन्तु, उक्त विचार धारा को सक्रिय रूप देते हुए उसने कई दुःखी जीवों को दुःख मुक्त कर सुखी बनाये। आसल ने उक्त कार्यों को प्रशंसा किंवा आडम्बर के ध्येय शाह आसल का भाग्य Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०३१.१०६० से नहीं किये किन्तु, अपना पवित्र कर्तव्य समझ कर मानवता के ध्येय हृदयङ्गम कर उक्त कार्यों में भाग लिया। शा. श्रासल आज पूर्ण समृद्ध एवं सुखी था। लक्ष्मी श्राज उसकी चरण सेविका पन चुकी थी पर धन के थोथे मद में वह मदोन्मत्त नहीं हुआ । उसे अपने पहिले की जीवन की दुःख मय कथा याद थी। आचार्यश्री के समक्ष की हुई प्रतिज्ञा की उसके हृदय पर छाप थी । उसकी यही मनोगत भावना थी कि मैं पूज्यआचार्य देव को बुलाकर अपनी मनोकामना को सफल बनाऊं । बस, उक्त भावना से प्रेरित हो उसने श्राचार्यश्री की खबर मंगवाई तो मालूम हुआ कि प्राचार्यदेव इस समय डामरेल में विराजमान हैं। सूरीश्वरजी के विराजने के निश्चित समाचारों से उसके हृदय में नवीन स्फूर्ति एवं क्रान्ति की जागृति हुई। वह तत्काल कई भावुकों को लेकर प्रार्थना के लिये डामरेल गया । सूरीश्वरजी की कृपा पूर्ण दृष्टि की कृतज्ञता को प्रगट करते हुए आसल, उनके चरण कमलों में गिर पड़ा । मालपुर पधारने की श्राग्रह पूर्ण प्रार्थना करने लगा । सूरिजी को अब तक यह मालूम नहीं था कि निर्धन आसल आज श्रीमंत शिरोमणि बना हुआ है किन्तु जब साथके मनुष्यों से आसल के अथ से इति तक वृत्तान्त सुने तो सूरिजी को भी पूरा संतोष एवं आनंद हुआ। सूरिजी ने आसल के सामने देखते हुए कहा कैसे हो भाग्यशाली ! आसल-गुरुदेव ! आपकी कृपा एवं अनुग्रह पूर्ण दृष्टि से पहला भी आनन्द था, अभी भी आनंद है और भविष्य में भी आनंद ही आनंद रहगा। प्रभो । कृपाकर अब शीघ्र ही मालपुर पधार कर मेरी प्रतिज्ञा को सफल बनावें । श्रासल के इस कथन से तो सूरिजी की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । उनके हृदय में यह कल्पना थी कि आसल धनावेश में अपने कर्तव्य को विस्मृत कर चुका होगा पर आसल को इस अवस्था में कर्तव्य पराङ्मुख होने के बदले कर्तव्याभिमुख देख कर उन्हें बहुत संतोष हुश्रा। - सूरिजी ने श्रासल की प्रार्थना को स्वीकृत कर डामरेल नगर से विहार कर दिया । क्रमशः छोटे बड़े प्रामों में होते हुए आचार्य देव मालपुर पधार गये । शा. श्रासल ने नव लक्ष रुपया व्यय कर आचार्य देव का शानदार नगर प्रवेश महोत्सव करवाया। ऐसा अवसर एवं ऐसा उत्सव आज मालपुर के लिये सर्व प्रथम ही था । साधर्मी भाइयों को पहरामणी एवं बाचकों को पुष्कल दान दिया। एक समय आसल सूरिजी के पास गया और वंदन करके अर्ज करने लगा-भगवन् ! आपके सामने की हुई प्रतिज्ञा को मैं विस्मृत नहा कर सकता हूँ पर, मेरी यह आन्तरिक इच्छा है कि आपश्री का चातुर्मास मालपुर में होजाय तो मैं कुछ द्रव्य का शुभ कार्यों में व्यय कर हस्तागत द्रव्य का सदुपयोग करू श्री शत्रुजय तीर्थश का एक संघ निकाल कर, यात्रा करूं। प्रारम्भ करवाये हुए जिनालय की प्रतिष्ठा करवा कर गृहस्थ धर्म की आराधना करते हुए पूज्यश्री के चरण कमलों में भगवती दीक्षा को प्रहण कर अपनी की हुई प्रतिज्ञा को सफल बनाऊं । सूरिजी ने कहा-आसल ! तू बड़ा ही भाग्यशाली है । तेरी ये योजनाएं भी अच्छी हैं। शासन की उन्नति एवं प्रभावना करना, यह भी आत्मोन्नति का एक मुख्य अङ्ग है। धर्म प्रभावना करना एवं वीतराग प्रणीत धर्म में अटूट श्रद्धा रखना तीर्थङ्कर नाम गोत्रोपार्जन के कारण हैं अतः तेरे उक्त विचार समयानुकूल श्रादरणीय हैं। सूरिजी का व्याख्यान नित्यनियमानुसार हमेशा होता ही था । व्याख्यान श्रवण से जनता पर उसका शाह आसल के अद्भुत कार्य १०५३ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१-६६०] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पर्याप्त प्रभाव पड़ा वे सोबन लगे कि यदि किसी तरह से चातुर्मास का अवसर हाथ लग जाय तो हम अपनी व्याख्यान श्रवण ने अतृप्त प्यास को आगम श्रवण जल से शांत कर सकें। अस्तु, समयानुसार एक दिन राव कानड़ादि सकल श्रीसंघ ने सूरीश्वरजी की सेवा में च तुर्मास की आग्रह पूर्ण प्रार्थना की । आचार्यश्री ने भी भविष्य के लाभ का कारण को सोचकर श्रीसंघकृत प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार करली । सर्वत्र हर्ष के वादित्र बजने लगे । जो कोई आचार्यश्री के चातुर्मास के निश्चय को सुनता हर्षोन्मत्त होजाता । शा. श्रासल की प्रसन्नता तो अवर्णनीय थी । उसको तो अपनी भावना सफल करने का अच्छा अवसर ही हस्तगत हुश्रा था। जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव, स्नान पूजा, प्रभावनादि कार्य भी बड़े उत्साह पूर्वक प्रारम्भ कर दिये गये। शाह आसल, महा प्रभावक पञ्चमाङ्ग श्रीभगवती सूत्र बड़े ही समारोह पूर्वक अपने घर लेगया। पूजा, प्रभावना, स्वामी वात्सल्यादि उत्सवों को करते हुए सूत्र को हस्ति पर आरुढ़ कर बड़े ही जुलूस के साथ सवारी चढ़ाकर श्रीश्राचार्यदेव को अर्पण किया। शाह श्रासल एवं मालपुर के सकल संघ ने हीरा पन्ना, माणिक, मुक्ताफलादि से ज्ञान पूजा की । इस ज्ञान पूजा में एक करोड़ रुपयों का द्रव्य जमा हुआ था । इस द्रव्य में गुरु गौतम स्वामी के द्वारा पूछे गये प्रत्येक प्रश्न की स्वर्ण मुद्रिका से पूजा की गई वह भी शामिल था । इसप्रकार ज्ञान खाते के एकत्रित द्रव्य का सदुपयोग करने के लिये वर्तमान जैन साहित्य एवं आगमों को लिखवाकर मालपुर में ज्ञान भण्डार स्थापित कर देने का निश्चय किया गया। सूरिजी के व्याख्यान की छटा और तत्व समझाने की शैनी इतनी रोवक, सरस एवं उत्तम थी कि साधारण जनता भी सुनकर बोध को प्राप्त हो जाती । राव कानड़ तो सूरिजी का इतना भक्त होगया कि वह एक दिन भी व्याख्यान श्रवण से वञ्चित न रह सका । वह तो आचार्य देव की व्याख्यान शैली से इतना प्रभावित हुआ कि उसे बाममार्गियों के अत्याचार एवं आचार व्यवहार की पोपलीला से घृणा श्राने लगी। शुद्ध, पवित्र एवं आत्मकल्याण में साधकतम जैन धर्म ही उसे सारभूत तत्व मालूम होने लगा। यावत जैनधर्म को स्वीकार कर उसके प्रचार में वह यथासाध्य प्रयत्न शील भी हुआ 'यथा राजा तथा प्रजा' की लोकक्त्यनुसार बहुत से लोगों ने मिथ्या मतों का त्याग कर जैनधर्म स्वीकार किया। इस तरह सूरिजी महाराज के विराजने से मालपुर में जैनधर्म की आशातीत प्रभावना हुई। इधर अक्षय निधि के स्वामी शाह श्रासल की ओर से द्रव्य व्यय की खुल्ले हाथों से छूट थी। श्रासल की ओर से ही पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्यादि विशेष परिमाण में होरहे थे । इधर मन्दिर का कार्य भी अविरत गति से प्रारम्भ था । कारीगरों एवं मजदूरों की संख्या में कार्य शीघ्रता के लिये पर्याप्त वृद्धि कर दीगई कारण, आसल को जल्दी ही गृहस्थ धर्माराधना पूर्वक संसार का त्याग करना था । अब सिर्फ एक संघ निकालने का कार्य ही रहा था। इसके लिये भी सूरिजी से परामर्श कर एक सुंदर योजना तैय्यार करली । चातुर्मास वसनानंनतर तत्काल श्रीसंघ से अनुमति लेली और बहुत दूर दूर तक आमंत्रण भेजकर विशाल संख्या में चतुर्विध संघ को मालपुरा में बुलवा कर उनका पूजा सत्कार किया एवं विशाल संख्या में आचार्य देव के नेतृत्व एवं शा. आसल के संघपतित्व में शत्रुजय गिरनारादि तीथों की यात्रा के लिये संघ रवाना हुआ। क्रमशः यात्राओं को करके संघ पुनः मालपुर आगया। संघ के स्वस्थान श्राते ही तत्क्षण मन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया । मन्दिर की प्रतिष्ठानंतर स्वामीवात्सल्य १०५४ सूरिजी का मालपुर में व्याख्यान Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०३१-१०६० एवं स्वधर्मी भाइयों में पुरुषों को सुवर्ण माला और बहिनों को सुवर्ण चूड़ा तथा मुद्रिकाएं की परामणी एवं याचकों को पुष्कल द्रव्य का दान दिया तथा सात क्षेत्रों में भी बहुत धन देकर कल्याण कारी पुन्योपार्जन किया । जिससे आसल की धवल कीर्ति दिगान्त व्यापक होगई । इन सब कामों में आसल ने तीन करोड़ रुपये व्यय कर दिये । अन्त में अपने पुत्र पोलाक को घर का भार सौंप कर श्राचार्य श्री देवगुप्तसूरिजी के पास ४२ नर नागियों के साथ शाह श्रासल ने भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करली । सूरिजी ने श्रसल का नाम ज्ञान कलश रख दिया। मुनि ज्ञानकलश आचार्य देव की सेवा में रहते हुए ज्ञान सम्पादन करने में संलग्न हो गया । आपके संसार में जैसे द्रव्य की अन्तराय टूट गई थी वैसे दीक्षा के पश्चात् ज्ञानान्तराय एवं तपस्या करने की भी अन्तराय टूटी हुई थी । बस; कुशान बुद्धि की प्रबलता के कारण, मुनि ज्ञानकलश थोड़े ही समय में विविध भाषा विशारद, नाना शास्त्रविचक्षण- अजोड़ विद्वान बन गये । जैन साहित्य के अनन्य विद्वान होने पर आपने, कठोर तपस्या करना प्रारम्भ किया । तप कर्म की दुष्करता के साथ ही श्राभिप्रह भी ऐसे धारण करते रहे कि आपको कई दिनों तक पारणा करने का अवसर ही नहीं मिला। पट्टावली निर्माताओं ने आपके अभिप्रह के बहुत से उदाहरण बताये हैं- तथाहि--- एक समय मुनि श्री ज्ञानकलशजी ने श्रभिग्रह किया कि लाल वस्त्र धारण करने वाली कोई सौभायती स्त्री मुझे तिरस्कार करती हुई भिक्षा देवे तो ही पारण करना । भला ऐसे तपस्वी, ज्ञानी एवं किया पात्र मुनि का तिरस्कार करने का दुस्साहस किस प्रातकी का होता ? फिर इनकी किर्ति भी इतनी फैली हुई थी कि उनका तिरस्कार किसी के द्वारा होना सम्भव ही नहीं था । मुनीश्री हमेशा भिक्षार्थ अटन करते और विहार भी करते जाते किन्तु तिरस्कार के बदले सर्वत्र प्रशंसा ही के वाक्य सुनते बस भिक्षार्थ गये हुए मुनि व्यों के त्यों पुनः लौट आते । इस तरह चौबीस दिन व्यतीत हो गये । एक दिन नित्य क्रमानुसार मुनीश्री एक ग्राम में भिक्षा के लिये गये । सौभाग्य वश किसी जैनेतर के घर पर श्रा निकले । पहिले तो घर की लाल वस्त्र धारण की हुई सौभाग्यवती बाई ने मुनीश्री का तिरस्कार किया किन्तु मुनिश्री को शान्त एवं स्थिर चित्त से वहीं खड़ा हुआ देखा तो उसने भावना पूर्वक भिक्षा प्रदान की। मुनि ने भी भिक्षा को स्वीकार कर परणा किया। एक समय अभिह किया कि कोई राजा श्राकर श्रामन्त्रण करे तो पारण करू इस श्रभिग्रह के करीब ४५ दिन व्यतीत होगये पर कोई राजा के निमन्त्रण करने का अवसर ही हस्तगत नहीं हुआ | आप भी उपवास का क्रम चालू रखते हुए आचार्य देव के साथ परिभ्रमण करते रहे एक दिन मार्ग में मुनिजी ने एक तालाब के किनारे पर कुछ घोड़ों को खड़े हुए देखे । पास ही कुछ मुसाफिर भोजन के लिये बैठे हुए ज्ञात हुए । उक्त अवसर को देख मुनिश्री जीने पास जाकर पूछा कि आप कौन हैं। पास में बैठे हुए व्यक्तियों ने कहा - हम हमारे राजा के साथ में आये हुए आदमी हैं । हमारे स्वामी भी यहीं पर बैठे हुए हैं। राजा ने यह आवाज सुनी और मुनिराज को अपने यहां श्राया हुआ देखा तो उसको बहुत खुशी हुई उसने तुरतआहार पानी के लाभ की भावना भाई । मुनिश्री ने भी अपने अभिग्रह को पूरा होतें देख भिक्षा ग्रहण की एव ं पारणा कर लिया । कुछ ही क्षणों के पश्चात् राजा को मालूम हुआ कि मुनिश्री के तपस्या का आज ४५ वां दिन था। उनके श्रभिग्रह था कि कोई राजा अपने हाथों से आहार पानी देवे तो पारणा करना शाइ आसल की दीक्षा एवं तपस्या १०५५ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१-६६० ] [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अन्यथा नहीं। इस पर आपको अलभ्य लाभ का भागी समझ राजा की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। वह तत्काल मुनियों के पास में आया और वंदन करके बैठ गया । श्राचार्यश्री ने अहिंसा परमोधर्मः का मार्मिक उपदेश दिया जिससे राजा ने शिकार करने एवं मांस, मदिरा का उपयोग करने का त्याग कर लिये। ___ एक समय मुनिजी ने अभिप्रह किया कि, लग्न के समय वरवधू प्रन्थि बंधन सहित भिक्षा देवें तो पारणा करूं। इस अभिग्रह के पश्चात् भी १६ दिन व्यतीत होगये । एक दिन अचानक ऐसा संयोग्य मिल जाने से मुनि श्री ने पारण किया। इस प्रकार की तपस्या के प्रभाव से जया विजयादि कई देवियां आपके दर्शनार्थ आया करती थी। क्यों नहीं ? तप का महात्म्य ही ऐसा है । आचार्य देवगुप्त सूरि ने अपने शिष्य मण्डल में सूरिपद के लिये मुनिश्री ज्ञानकलशजी को ही योग्य समझा और अपनी वृद्धावस्था के अन्तिम निश्चयानुसार उपकेशपुर में सकल श्रीसंघ के समक्ष बलाह गोत्रीय शाहलाला के महामहोत्सव पूर्वक भगवान महावीर के मन्दिर में मुनि ज्ञानकलश को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया। आचार्य श्रीसिद्धसूरिजी महान् प्रतिभा सम्पन्न प्राचार्य हुए । श्राप के ज्ञान एवं तपस्या का प्रभाव था कि वादी प्रतिवादी श्रापका नाम श्रवण करते ही इधर उधर लुप्त हो जाते । आपका समय भले चैत्यवास का समय था किन्तु, उस समय के कई चैत्यवासी प्रायः चारों ओर जैन धर्म का रक्षण एवं प्रचार करने में तत्पर थे । वे आचार व्यवहार के नियमों में दृढ़ थे । यदि उनका जीवन नियमित न होता तो उस संघर्ष काल में जब कि-वेदान्तियों का, बोद्धों का एवं अनार्य मलेच्छोंका आधिक्य था,-जैन धर्म जीवित नहीं रह सकता । जैन धर्म जो अविच्छिन्न गति से बराबर चलता रहा है यह सब उस समय के उन सुविहित चैत्यवासियों का ही प्रताप है। उक्त बात जैन साहित्य का अन्वेषण एवं इतिहास का मनन पूर्वक अध्ययन करने से सुष्ठप्रकारेण ज्ञात होजाती है। "चैत्यवासी यद्यपि शिथिलाचारी थे पर इससे यह नहीं समझा जाय कि सब चैत्यवासी ऐसे ही थे कारण उस समय में भी बहुत से सुविहित उग्र विहारी एवं जैन धर्म की महान प्रभावना करने वाले विद्यमान थे और उस समय उनका प्रभाव केवल समाज पर ही नहीं पर बड़े २ राजामहाराजाओं पर भी था और वे सुविहिताचार्य समय २ संघ सभाएं कर शिथिलाचारियों को उपदेश कर उप्र बिहारी बनाने की कोशीश भी किया करते थे जो पूर्व पृष्टों पर पाठक पढ़ आये हैं और चैत्यवासियों के लिये हम एक प्रकरण पृथक् ही लिखेंगे जिससे पाठक जान जायंगे कि चैत्यावासियों ने जैन धर्म पर कितना जबर्दस्त उपकार कर जैनधर्म को जीवित रखा है। प्राचार्य श्रीसिद्धसूरिजी ने उपकेशपुर से विहार कर मरूभूमि के छोड़े बड़े ग्रामों में पर्यटन करते हुए जैनधर्म रूपी उपवन को उपदेश रूपी जल से सिन्चित कर फल पुष्प लता समन्वित नयनाभिराम कर्षक, हराभरा पल्लवित-गुलजार बना दिया। सूरिजी म.ने अपने पूर्वाचार्यों के श्रादर्श को सोचते हुए यह निश्चय कर लिया था कि साधुओं का विहार क्षेत्र जितना विशाल होवेगा-धर्म प्रचार उतने ही वेग से उतने ही परिमाण में वृद्धिंगत होता रहेगा । अतः आपश्री ने अपने आज्ञावर्ती साधुओं को खब दूर २ विचरने की आज्ञा देदी । और आपभी अपनी शिष्य मण्डली सहित मेटपाद, आवंतिका, लाट कोकण, सौराष्ट्र, कच्छ १.५६ मुनि ज्ञानकलश का मरिपद Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] | ओसवाल सं० १०३१-१०६० Purwww.xxx सिंध, पन्जाब, कुनाल, करु, शूरसेन, मत्स्य आदि प्रान्तों में परिभ्रमण करते रहे । समयानुकूल शेषे काल एवं चातुर्मास के योग्य क्षेत्रो में ज्यादा ठहरते हुए व अवशिष्ट स्थानों में तत् स्थान योग्य निवास करते हुए श्राचार्यश्री ने धर्म प्रचारार्थ अपना परिभ्रमन प्रारम्भ रक्खा । आपके पूर्वजों द्वारा संस्थापित शुद्धिकी मशीन को आपने द्रुतगति से चलाना प्रारम्भ किया । और पूर्वाचयों के आदर्श का अनुसरण करते हुए अनेक मांस भक्षियों को मांस त्याग का सच्चा पाठ पढ़ाया । हम पढ़ चुके हैं कि पूज्य आचार्यदेव न तो देहिक कष्टों की परवाह करते थे और न सुख दुखः काही विचार करते थे । वे तो जैन धर्म की प्रभावना एवं महाजन संघ को रक्षा एवं वृद्धि करने में संलगन थे । उनकी नस नस में जैन धर्म के प्रति अनुराग भरा हुआ था और इसीसे प्रेरित हो आपश्री ने अपने विहार में अनेकों को जैनानुयायी वनाये । ईस गच्छ के आचार्य शुरु से ही अजैनों को जैन बना कर महाजनसंघ की वृद्धि करने में सलग्न थे उन प्राचार्यों के भक्त राजा महाराजा एवं सेठ साहूकारों को भी यही शिक्षा मिलती थी कि नूतन जैनों के साथ प्रेम रखे उनको सव प्रकार की सहायता पहुँचावे और जैनेत्तरों से जैन वनते ही उनके साथ विना किसी भेद भाव के रोंटी और बेटी व्यवहार करलें और ऐसा ही वे करते थे तथा इस उदारता से ही महाजनसंघ करोड़ों की संख्या तक पहुच गया था। __उस समय के पूज्याचार्यों की व्यबहार दक्षता कार्य कुशलता हृदय की उदारता एवं विहार की विशा. लता ने जैन एवं जैनेतर समाज पर पर्याप्त प्रभाव डाला था। तथा जैन श्रमणो का त्याग वैराग्य निस्पृ. हिता एवं आचार व्यवहार की जटिलता ने भी जैनेत्तर लोगों को अपनी और अकर्षित कर लिये थे । करण उनके गुरुत्रों में प्रायः इस प्रकार कठोर प्राचार का अभाव ही था अतः उनकों नतमस्तक होना प्रकृति सिद्ध ही था। फिर भी कई लोग जैनधर्म को उपादाय समझते हुए भी स्वीकार नहीं कर सकते थे इसका कारण संसार लुब्ध जीवों से जैनधर्म के कठोर नियम पालन करना दुःसाध्य थे साथ में इतर धर्म के कहलाने वाले गुरु स्वयं त्याग मार्ग से परडमुख होकर अपने भक्तों को किसी तरह की रोक टोक न कर सब तरह की चूट देकर भी धर्म बतलाते थे अतः पुदगलानंदी जीव धर्म के नाम पर अपनी इन्द्रियों का पोषण करने में स्वच्छन्दाचारी बने रहते थे तथापि उस समय सत्य धर्म को कसोटी पर कस कर आत्म दर्शियों की भी कमी नहीं थी जैनाचार्य श्राप जनता में एवं राजसभाओं में निर्डरता पूर्व सत्योपदेश कर सहस्रों एवं लक्षो जीवों का उद्धार कर जैन धर्म की वृद्धि करने में सदैव कटी बद्ध रहते थे और उन्होंने अपने कार्य में सफलता भी प्राप्त प्रमाण में करली थी। जैनाचार्य और आपके आज्ञा बृति श्रमणगण सिवाय चतुर्मास के भ्रमन करते रहते थे जहां थोड़ी बहुत जैनों की बस्ती हो उस प्रदेश को श्रमणों से वंचित नहीं रखते थे अर्थात् जिस बगीचा को हमेशा जल संचन मिलता रहता हो बह हराबरा गुलमार रहे यह एक स्वाभाविक बात है। उस समय जैन शासन में गच्छों एवं समुदायों का प्रादुर्भाव हो चुका था पृथक् र गच्छ होने पर भी जैन धर्म का प्रचार के लिये वे सब एक हो थे एक दूसरे के कार्य में मदद करते थे जैन धर्म की उन्नति में ही वे अपनी उन्नति समझते थे वे लोग गच्छ समुदायों के भेद से धर्म का हास करना नहीं चाहते थे आपसी बाद विवाद एवं वितण्डबाद में अपना अमूल्य समय नष्ट नहीं करते थे। इतना ही क्यों पर उस समय चैत्यवास के नाम पर कई श्रमण शिथिलचारी भी बन बैठते थे और बहुत से उग्र बिहारी भी थे पर वे आपस सूरीश्वरजो का सद् विचार १०५७ Jain Education Internal Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१-६६० ] [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास में निंदा अबहिलना करना नहीं जानते थे किसी ने किसी के विरोध में अवाज नहीं उठाई थी किसी के प्रति श्रश्रद्ध भी नहीं करवाते थे फूट कुमम्प का विष नहीं उंगला जाता था अर्थात् वे कर्म सिद्धान्त के अनु भवी थे। जिन जिन जीत्रों के जितना २ क्षयोपसम होता है वे उतना उतना ही पालन कर सकते हैं तथापि सुविहित आचार्य शिथिलाचारियों को सुविदित बनाने की कोशीश करते रहते थे । यदि किसी व्यक्ति को जबर्दस्त विवश किया जाय तो वे लोग छीप छुपकर माया कपटाइ करके अधिक कर्म बन्ध करेंगे । छातः परस्पर मिल भुल कर ही शासन सेवा करना करवाना श्रेयस्कर समझते थे यदि वे आज के साधुओं की तरह मत्सरता भाव से एक दूसरे को नीचा दीखाने की प्रवृत्ति कर डालते तो उनको उतनी सफलता मिलनी असंभव थी कि जितनी उन्होंने प्राप्त की थी इत्यादि उस समय के महामंत्र को आज हम समझले तो उन्नति हमारे से दूर नहीं है । श्राचार्य सिद्धसूरिजी म. मरुधर में भ्रमन करते हुए एक समय नारदपुरी में पधारे वहां के श्री संघ आपका अच्छा स्वागत किया एवं नगर प्रवेश का महोत्सव में पल्लीवाल ज्ञातिय शाह मेकरण ने सवालक्ष द्रव्य व्यय किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेश होता था जिसको श्रवण कर जनता बहुत श्रानन्द का अनुभव करती थी । एक समय शाह में करण पल्लीवाल ने सूरिजी से प्रार्थना की कि गुरुवर्य्य मैंने स्वर्गीय श्राचार्य देवगुप्तसूर के समीप द्वादशव्रत लिये थे जिसमें परिग्रह का प्रमाण किया था जिससे आज मेरे पास बहुत अधिक द्रव्य जमा हो गया है अब मैं उस द्रव्य को किस काम में लगाउँ कृपा कर रास्ता बतलावे ? सूरिजी ने कहा करण तु भाग्यशाली है अपने व्रतों की रक्षा के निमित द्रव्य का मोह छोड़ रहा है । इसके लिये शास्त्रकारों ने सात क्षेत्रों का निर्देश किया है पर विशेषता यह है कि जिस समय जिस क्षेत्र में अधिक जरूरत हो उस क्षेत्र में द्रव्य व्यय करना बिशेष लाभ का कारण होता है मेरा अनुभव से तो तुं तीर्थों की यात्रा संघ निकाल कर चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा करवाने का लाभ ले इत्यादि । सूरिजी के वचनों को करण ने तथास्तु कह कर शिराधार्य कर लिया बाद सूरिजी को वन्दन कर अपने घर पर आया और अपने पुत्रों पौत्रों को एकत्र कर सब हाल कहा कि मैं मेरे प्रमाण से अधिक द्रव्य को सूरिजी के कथनानुसार तीर्थ यात्रा संघ निकालने में लगाना चाहता हूँ इसमें तुमारी क्या इच्छा है ? पुत्रों ने कहाँ पूज्य पिताजी आपके उपार्जन किया द्रव्य श्राप अपनी इच्छानुसार व्यय करें इसमें हमारा क्या अधिकार है कि हम इस्त क्षेप करे ? हम लोग तो बड़े ही खुश है हम से बनेगा वह कार्य कर पुन्योपार्जन करेंगे आपतो अवश्य अपना निर्धारित कार्य कर पुन्य हाँसिल करावे । अहाहा कैसा जमाना था कि साधारण रकम नहीं पर लाखों करोड़ों द्रव्य पिता शुभ कार्य में लगाना चाहे जिसमें पुत्र चू तक भी न करे और उल्टा अनुमोदन करते है यह कितनी अल्पेच्छा ! कितना भव भी रुपना !! कितना निस्पृहीत्व !!! बस मैंकरण ने अपने आज्ञा कारी पुत्रों को संघ सामग्री एकत्र करने का आदेश दे दिया और संघ के लिये श्रामन्त्रण पत्रिकाए देश विदेश में तथा मुनियों के लिये भी योग्य पुरुषों को स्थान स्थान पर भेजवा दिये । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का शुभमुहूर्त निश्चय किया ठीक समय पर सेकड़ों हजारों मुनि - साध्वियों एवं लाखों श्रावक श्राविकाएँ नारदपुरी में जमा हो जाने से नारदपुरी एक यात्रा का धाम ही बन गया शाह मैं करण को संघपति पद प्रदान कर आचार्यश्री की नायकत्व में संघ प्रस्थान कर दिया रास्ता के १०५८ सरीश्वरजी का विहार Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन } [ ओसवाल सं० १.३१-१०६० मन्दिरों के दर्शन करते हुए या स्थान स्थान के संघों से सम्मान पाते हुए जीर्णोद्धार एवं जीव दया के लिये संघपति मैंकरण खुल्ले हाथों से पुष्कल द्रव्य व्यय करता हुआ संघ तीर्थ धिराज श्रीशत्रुजय पर पहुँचे भावुकों ने परम प्रभु ऋषभदेव के दर्शन स्पर्शन या पूजा कर अपने जीवन को सफल बनाया आठ दिन तक तीर्थ पर रह कर अष्टान्हिक महोत्सव धजारोहणादि शुभ कार्य किये बाद रेवता चलादि तीर्थों की यात्रा कर संघ पुनः नारदपुरी में आया शाह मेकरण ने पुरुषों के लिये सोना की कंठियों और स्त्रियों के लिये सोना के कांकण ( चुड़ियों ) तथा उमंदा वस्त्र एवं लडओं की प्रभावना देकर संघ को विसर्जन किया इन सब कार्यो में शा मकरण ने तीन करोड़ रुपये व्यय किया जो उनको करणा ही था यह एक उदाहरण बतलाया है पर उस समय ऐसे तो बहुत से धर्मज्ञ भावुक भक्त थे और उनको पुन्य के उदय से लक्ष्मी भी उनके घर पर दाशी होकर रहती थी ज्यों ज्यों शुभ कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग करते थे त्यों त्यो अधिक से अधिक लक्ष्मी बढ़ती जाती थी उस समय के भद्रिक लोगों की देव गुरु धर्म पर अटल श्रद्धा एवं विश्वास था छल प्रपंच माया कपटाइ में तो ये लोग प्रायः समझते ही नहीं थे गुरु वचन पर उनको पूर्ण श्रद्धा थी येही उनके पन्य-बढ़ने के मुख्य कारण थे । वंशावलियाँ पट्टावलियों में अनेक उदार नर पुंगवों के उल्लेख किया गया है पर प्रन्थ वडजाने से मैंने केवल नमूना के तौर पर एक शाह मैंकरण का ही उल्लेख किया है और शेष हमारे लेखन पद्धति के अनुसार नामावली आगे देदी जायगी जिससे पाठक ठीक अवगत हो सकेंगे। प्राचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज अपने २९ वर्ष के शासन समय में जैनधर्म की महिति सेवा की और जैनधर्म का उत्कर्ष को खुब जोरों से बढ़ाया आपके शासन में हजारों मुनि आर्याए प्रत्येक प्रान्त में विहार कर अपने संयम को शोभाय मान कर भव्य जीवों पर महान् उपकार करते थे कोरंट गच्छ कुंकुं. न्द शाखा एवं वीर परम्परा के अनेक गण कुल शाखाए के हजारों मुनि आपस में भातृ भाव एवं मेल मिलाप के साथ जैनधर्म का प्रचार वढ़ा रहे थे उस समय आचार्य सिद्धसूरि सर्वोपरी धर्म प्रचारक आचार्य समझे जाते थे और श्रापका प्रभाव सब पर एकसा पड़ता था अतः ऐसे महान् प्रभाविक आचार्य के चरण कमलों में मैं कोटी कोटी नमस्कार कर अपने जीवन को सफल हुआ समझता हूँ: श्राचार्य भगवान् के २६ वर्ष के शासन में भावुकों की दीक्षाए १-धारोजा के ब्राह्मण सीताराम ने दीक्षली २-कुपल के चंडालिया गौत्रीय माला ने ३-क्षत्रीपुरा , चोरडिया , भादू ने ४-हापड़ " लुग कालण ने ५-खटोली , दूधड़ ६-पृथ्वीपुरा, श्रेष्टि ७-गोधाण , बोहरा ८-नागपुर , सुचंति नारायण ने ९-उतरसाणी , प्राग्वट , संखला ने घरीश्ववरजी के शासन में दीक्षाए १०५९ धनाने पुनड़ ने पन्ना ने minuman Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१-६६० [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १०-सरोजा , श्री श्रीमाली , शादुला ने ११ -सत्यपुर , भूरि तोलाने १२-वडपी , कुम्मट वाला ने १३-स्तम्मनपुर,, प्राग्वट नाहार ने १४- पद्मावती,, प्राग्वट माला ने १५-मेदनीपुर , प्राग्वट देवा ने १६-मादडी , प्राग्वट गोमा ने १७-नारदपुरी ,, श्रीमाल भोणा ने १८-चंदलिया,, चिंचट आइ दाना ने १९---मुत्ताड़ी , श्रीमाल रामा ने २०-वैराटपुर ,, डिडु करत्था ने २१-रोयाटी , लघुश्रेष्टि जैसल ने २२.- वीरपुर , कनोजिया देसल ने २३-मालपुर , क्षत्री ठाकुर ने २४-जोटाणी, मोरख मोकल ने २५-चोराट , बलाहा देदा ने २६-चर्पट , वीरहट दाहड़ ने २७-खेटकपुर,, कुलहट भोजा ने २८-करोलिया,, करणावट नेता ने २९-नंद प्राम , प्राग्वट , बाला ने ३०-मुसिया ,, प्राग्वट , जोगा ने प्राचार्य श्री के २६ वर्ष के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्टाए १-हसावली के श्रेष्टि गोत्रीय मंत्री नाराने पार्श्वनाथ का म.प्र. २-शाकम्मरी , मंत्री , माला ३-सुगोली , अदित्य० ॥ जैतसी ४- पद्मावती , ५-पालोट चिंचट पाताने ६- नागपुर कुम्मट खेताने ७-जेतपुर लघुश्रेष्टि खीवसीने ८-माणकपुर , भोलाने भ० ऋषभदेव ९-वीरपुर श्रादूने १०-इन्दरोटी प्राग्वट अजड़ने सूरीश्ववरजी के शासन में प्रतिष्ठाए ३ भूरि दुर्गोने कनोजिया भोरख " Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरी का जीवन ] [ ओसवाल मं० १००१-१०३१ " श्री माल मोहज " शान्तिनाथ __ " महावीर हाप्पो ११-जैसाली प्राग्वट अज्जने ___ भ० महावीर १२-ब्रह्मपुर वीरहट रावलने १३-लौद्रवापुर , श्री श्री माल , सादरने १४-भवराणी नोदाने पाश्वनाथ १५-भोजपुर प्राग्वट लुबो १६-देवाटी प्राग्वट लाला १७-गुडगीरी प्राग्वट हरदेव नेमिनाथ १८-तोलसी श्रीमाल सहजपाल १९-करजण रांका शान्तिनाथ २०-भीमाली चोरलिया देसल २१-आलोट चरड भासल २२-डामरेल दूघड नॉघण २३-राटी तप्ताभट्ट खेमो २४-मथुरा वाप्पनाग २५--सोजाली प्राग्वट , देदो २६-दादोली " अप्रवाल शंकर पार्षनाथ " सूरीश्वरजी के २६ वर्षों के शासन में संघादि शुभ कार्य१-कोरंटपुर के श्रीमाल नंदा ने शत्रुजय का संघ निकाला २-चन्द्रावती के प्राग्वट भोलाने ३-डामरेल के श्रेष्टि गौ० नारायण ने ४-लोहाकोट के मंत्री ठाकुरसी ने सम्मेन शिखर का संघ ५-मथुरा के बप्पनाग टीलाने शत्रुजय का संघ ६-आघट के सुचंति लाखणने उपकेशपुर का संघ ७-उज्जैन के श्री श्रीमाल मालाने शत्रुजय का संघ ८-भद्रेसर के श्रीमाल अजसी ने ९-उपकेशपुर के भद्र नरसीने १०-शाकम्मरी के पल्लीवाल कुम्बाने ११-मालपुर के पल्लीवाल हंसाने १२-सोपार के लघुप्रेष्टि थेराने । १३-चर्पट के चरड़ दुर्गा की पत्नी ने तलाब खुदाया १४-शंखपुर के दूधड़ अज्ज की विधवापुत्री राखीने तलवा १५-क्षत्रीपुर के चोरडिया रणदेव युद्ध में काम आय......सती पाचार्य श्री के शासन में यात्रार्थ संघ १०६१ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६३१ से ६६० ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १६-देवपट्टन के भूरि जोग की स्त्री सतीहुई १७-वेनापुर के आदित्य सोढ़ा की स्त्री सती हुई १८-जाबलीपुर के श्रेष्टि धर्मशी की विधवा पुत्री पेमी ने नजदीक में एक सालाब बनवाया १९-वि० सं० ६३५ में एक भयंकर दुकाल पड़ा जिसमें उपझेशपुर के महाजन संघ ने अपने नगर से करीब तीन करोड़ का चन्दा किया और शेष अन्य स्थानों से सात करोड़ का चन्दा करके मनुष्यों को अन्न और पशुओं को घास पानी वगैरह की सहायता कर उस जन संहारक दुकाल कों सुकाल बना दिया यही कारण है कि साधारण जनता महजनों को मां बाप कह कर उपकार मानती है और महाजनों की इसी उदारता के कारण राजा महाराजा भी उनको मान और सम्मान किया करते थे। इसी प्रकार और भी कई छोटे बड़े दुकाल पड़ा जिसको एक एक ग्राम के महाजनों ने ही देश निकाल देकर भगा दिया था। अड़तीसवें वे पद विराजे, सिद्धसूरि अतिशय धारी थे शुद्ध संयमी और कठिन तपस्वी, आप बड़े उपकारी थे प्रचारक थे अहिंसा के, शिष्यों की संख्या बडाइ थी सिद्ध हस्त थे अपने कामों मे, अतुल सफलता पाई थी इति भगवान् पीनाथ के ३८ वें पट्ट पर प्राचार्य सिद्धसूरि बड़े ही प्रभाविक श्राचार्य हुए । १०६२ सूरीश्वरजी का स्वर्गवास Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०६०-१०८० ३६ प्राचार्य श्री कक्कसरि (अष्टम) धन्यः कक्कमुनीश्वरो बुधवरो यो दीक्षितः शैशवे निष्ठां प्राप्य च ब्रह्मचर्य चरणे वाक् सिद्धिविद्योतितः । लव्धीनां परमास्पदं समुदितः श्रीतत्पभट्टान्वये अन्यान् जैनमतावलम्बितजनानस्थापयच्छ्रेयसे । नाचार्य श्री कक्कसूरिजी महाराज बड़े ही क्रान्तिकारी एवं जबरदस्त प्रचारक आचार्य हुए। HTRP आपके मौलिक गुणों का वर्णन करने में साधारण व्यक्ति तो क्या, पर बृहस्पति भी असpa मर्थ है भारत भर में चारों ओर आपका ही लोहा थी। जैसे आपका विहार क्षेत्र विशाल ७ था वैसे आपकी श्राज्ञावर्ती श्रमण मण्डल भी विशाल था। श्रापका समय विकट परीक्षा का समय था । भयंकर दुष्काल के कर आक्रमण ने जनता त्राहि २ मचादी थी। धर्म में चारों और शिथिलता दृष्टि गोचर होने लगी थी पर, आचार्य श्रीकक्कसूरिजी महाराज की विद्यमानता में वह अपना ज्यादा प्रभाव न डाल सकी। आपके जीवन को पट्टावली निर्माताओं ने खूब विस्तार पूर्वक लिखा है । आपके जीवन वृत्त के साथ ही साथ उस समय के जैनियों की गौरव गाथा का भी स्थान २ पर उल्लेख किया है । पाठकों की जानकारी के लिये यहां आपश्री का संक्षिप्त जीवन लिख दिया जाता है। अर्बुदाचल की शीतल छाया में पद्मावती नाम की सुरम्य नगरी थी। उस समय पद्मावती एक समृद्धिशाली व्यापारिक केन्द्र स्थान को प्राप्त किये हुए सर्व प्रकार से उन्त थी । प्राचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि के उपदेश से प्राग्वट वंश की उत्पत्ति इसी पद्मावती नगरी से हुई थी। पद्मावती उस समय चंद्रावती के अधिकार में थी और चंद्रावती के सूर्यवंशीय राजा कल्हण देव की ओर से एक भीम नामक वीर क्षत्री पद्मावती में प्रबन्ध कर्ता हाकिम के पद के तौर पर रहते थे । राव भीम परम्परा से जैन धर्म के उगसक, श्रद्धालु भावक थे। पद्मावती नगरी में तप्तभट्ट गोत्रीय शा० सलखण नाम के एक प्रतिष्ठित और लोकमान्य व्यापारी रहते थे। श्रापकी पत्नी का नाम सरजू था। सेठजी पर लक्ष्मी की पूर्ण कृपा होने पर आपके पुत्र भी नहीं था। सेठानी सरजू पुत्र के विना महान् दुखी थी। वह अपने जीवन को पुत्र के अभाव में शून्य समझती थी। संसार के सकल सुखोपभोग के साधन उसे आनंद दायक प्रतीत नहीं होते थे वास्तव में नीतिका यह कथन अपुत्रस्य गृहं शून्य' युक्ति युक्त ज्ञात हो रहा था । सेठानी हमेशा उदास रहती थी। अत: कालान्तर से सेठजी ने सेठानी को उदास रहने का कारण पूछा । सेठजी के बहुत श्राग्रह करने से सेठानी ने अपने पतिदेव को सच्ची हकीकत कह सुनाई । सेठानी की दुःखद स्थिति से सेठजी अज्ञात थे अतः कुछ हंस कर कहा- क्या आपने नहीं सुना है कि -देवताओं के पुत्र नहीं होने से वे परम सुखी रहते हैं यही नहीं मैंने तो यहां तक सुना है कि-महाविदेह क्षेत्र में कोई मनुष्य किसी का नुक्सान कर देता है तो नुक्सान करने वाले को जिसका नुक्सान हुआ वह, यह गाली देता है कि रे शठ ! तुम भारत क्षेत्र में उत्पन्न होकर बहुत परिवार वाला और बहुत धनवान होना । महाविदेह क्षेत्र वाले तो आपस में एक दूसरे का अहित इस तरह इच्छते हैं । अर्थात् पद्मावती नगरी का सलखण १०६३ www.ainelibrary.org Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं ० ६६० से ८६० ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भाव में वह अपने श्राप चतुर्गति दृष्टि से भी भरत क्षेत्र में बहुत पुत्र मनाना चाहिये की जिससे हम धर्म उनके आपस में इसी तरह की गाली देने का तात्पर्य यही कि मनुष्य बहुत धनी किंवा विशाल परिवार वाला होने पर कुछ भी धर्माराधन नहीं कर सकेगा अतः धर्म मय जीवन के रूप संसार में परिभ्रमण करता रहेगा । जब महाविदेह क्षेत्रवालों की वाला होना श्रारूप है तो पुत्र अभाव में अपने को तो परम आनंद ध्यान करने में एक दम स्वतंत्र हैं सेठानी जी ! आपका इस तरह उदास रहना सर्वथा वास्तविक है अपने को तो अनवरत गतिपूर्वक धर्म ध्यान में उद्यमवंत होना चाहिये । पतिदेव के उक्त टकवत् हृदय विदारक एवं साक्षात् उपेक्षा वृत्ति प्रदर्शक वचनों को सुनकर सेठानीजी के दुख में और भी वृद्धि हुई । सेठजी ने कई उपायों से समझाने का प्रयत्न किया किन्तु सेठानीजी को किसी भी तरह से संतोष नही हुआ इस तरह सेठजी के अनेकानेक उपाय निष्फल ही होते रहे। एक दिन विवश हो अष्टम तप कर सेठानीजी ने अपनी कुल देवी सच्चायिका का ध्यान किया। तीसरे दिन देवी ने स्वप्न में सेठानी को कहा – तुम्हारे पुत्र तो होगा पर वह १५ वर्ष की वय में दीक्षित हो जायगा । तुम उसे किसी तरह से रोकना नहीं इतना कह कर देवी श्र श्य हो गई । अब सेठानी की आँखें खुल पई । वह अपने पति के पास आकर स्वप्न का सारा वृत्तान्त यथातू कह सुनाये | देवी कथित वचनों को श्रवण कर प्रसन्न हो सेठ जी बोले- सेठानीजी ! आप बड़े भाग्य शाली हो की देवकी आप पर पूरी कृपा दृष्टि है । सेठानी ने कहा- पूज्यवर ! देवी की कृपा तो है पर, पुत्र होकर १५ वर्ष की अल्प वय 'ही दीक्षा लेलेगा तब मैं क्या करूंगी ? सेठजी - तुम्हारी कुक्षि से पैदा हुआ पुत्र दीक्षित होकर अपनी आत्मा के साथ अन्य अनेक श्रात्माओं को तारे यह तो आपके लिये अत्यन्त गौरव की बात है । इससे तो उसकी आत्मा का भी उद्धार होगा और कुल का नाम भी उज्ज्वल होगा । यदि इतने पर भी पुत्र पर ज्यादा प्रेम हो तो तुम भी साथ में दीक्षा ले लेना । इससे दोनों की ही आत्मा का कल्याण हो जायगा । सेठानी - मैं दीक्षा लूंगी तब आप क्या करेंगे ? सेठजी- मैं भी दीक्षा ले लूंगा । सेठानीजी - फिर घर को कौन सम्भालेगा ? सेठजी - घर है किसका ? सेठानीजी - क्या आप नहीं जानते कि घर अपना है । सेठजी - अरे अपना तो शरीर ही नहीं है फिर घर कैसे अपना हो सकता है ? इस तरह सेठ, सेठानी के परस्पर विनोद की बातें चलती रही । कालान्तर से सेठानी ने गर्भ धारण किया और गर्भ के प्रभाव से सेठानी को अच्छे २ दोहले ( गर्भ के जीव के प्रभाव माता के हृदय के मनोरथ ) उत्पन्न होने लगे । पूजा, प्रभावना, स्वामी वात्सल्य, जिन दर्शन, सुपात्रदान जिन महोत्सव, धर्मशास्त्र श्रवण इत्यादि कार्य गर्भ के प्रभाव से उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होते रहे । सेठजी भी पुत्र जन्म की भावी खुशी से सर्व मनोरथ सत्वर पूर्ण करते थे । सेठजी ऐसे भी उदार दिल के व्यक्ति थे और लक्ष्मी की भी कमी नहीं थी अतः धार्मिक कार्यों में द्रव्य को व्यय कर पुण्य सम्पादन करना उन्हें रुचिकर प्रतीत होता था । सेठानी ने पूरेमास होने के पश्चात् पुत्र रत्न को जन्म दिया । श्रनेक महोत्सवों के करते हुए पुत्र का नाम खेमा रख दिया । जब खेमा ७ वर्ष का हुआ तब ही से उसकी माता सेठानी, गुरुणीजी के उपा १०६४ सेठानी पर देवी की कृपा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०६०-१०८० भय में प्रतिक्रमण करने को जाया करती थी। खेमा भी साथ जाता था एक दिन खेमा दरवाजे पर बैठा था इधर महिला समुदायकों गुरुणीजी अत्यन्त उच्च स्वर से प्रतिक्रमण करवा रही थी। साथ्वीजी का सच्चारण स्पष्ट और मधुर था। साध्वी के प्रत्येक शब्द खेमा को बहुत ही कर्ण प्रिय लगे । ज्यों ज्यों साध्वी भी प्रतिक्रमण करवाती गई त्यो त्यों वह ७ वर्ष की अल्पवय में एक वक्त के श्रवण मात्र से खेमा कण्ठस्थ कर लेता गया। बाद में वह भी अपनी माता के साथ में प्रतिक्रमण के समान होने पर पुनः अपने घर लौट आया। दूसरे दिन प्रतिक्रमण के समय कुछ २ वर्षा प्रारम्भ होगई थी फिर भी नित्य नियम में निष्ठ सेठानी ने अपने पुत्र खेमा को कहा-खेमा ! प्रतिक्रमण करने उपाश्रय में चलना है ? खेमा ने कहा मां इस वर्षा में उपाश्रय में जाकर क्या करोगी? लो मैं यहां पर ही श्रापको प्रतिक्रमण करवा देता हूँ। माता ने खेमा की बाल चालता को देख कर उसकी बात को यों ही हंसी में उड़ादी और हंसते २ कहने लगी जा जल्दी गुरणीजी को सूचना देया कि आज वर्षा आ रही है मा नहीं आवेगी क्यों कि गुरुणीजी मेरी गह देखते होंगे। पर वर्ष के कारण मेरे प्रक्रिमण तो श्राज यों ही रह जायगा । खेमा ने फिर से कहा मां ! आप निश्चिन्त रहो मैं सत्य कहता हूँ कि आपको यह पर ही निर्विघ्न प्रतिक्रमण क्रिया सहित करवा दूंगा। माता को नेमा की बोली पर व स्वाभाविक वाचालता पर कुछ हंसी तो आगई पर पुत्र के आग्रह से वह सामायिक लेकर पैठ गई । सातवर्ष के बच्चे खेमा ने गुरुणीजी के मुख से जैसा प्रतिक्रमण सुना था वैसा का वैसा माता को करवा दिया । माता के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । उसने बड़ी प्रसन्नता से पूछा-खेमा ! तूं ने यह प्रति. क्रमण कहां कब व किससे सीखा ? खेमाने कहा-मां! कल मैं तेरे साथ उपाश्रय में गया था और गुरुणी जी ने प्रतिक्रमण करवाया बस मैं ने भी याद कर लिया । माता सरजू भद्रिक परिमाणी वाचाल बालक पर तुष्ट होती हुई देवी के वचनों का स्मरण करने लगी की खेमा कहीं दीक्षा न ले ले १ इसके लिये मुझे पहले से ही ठीक प्रबन्ध कर लेना चाहिये। सेठानी दूसरे दिन वंदन करने उपाश्रय में गई। गुरुणीजी ने उसे उपालम्भ दिया-सरज ! हमने तेरी कितनी राह देखी । कल तू ने प्रतिक्रमण नहीं किया ? सरजू ने कहा-गुरुणीजी ! कल वर्षा आरही थी अतः मैंने घर पर ही प्रतिक्रमण कर लिया। गुरुणी जी --परन्तु घर पर प्रतिक्रमण तुमको करवाया किसने । सेठानी - खेगा ने ! गुरूर्ण जी-क्या कहते हो ? खेमा जैसे नादान बालक को प्रतिक्रमण आता है ? स्ठानी-हां आता है ! कल ही आपश्री के मुखारविंद सुना था। गुरुणीजी-वह कैसे ! सेठानी-आपने कल हम सब को उच्चस्वर में बोलते हुए प्रतिक्रमण करवाया था बस खेमा तो आपश्री के मुख से सुनता २ ही कण्ठस्थ करता गया । साध्वी सरजू की बात को सुन कर श्राश्चर्य विभोर हो गई। बस वहां से जल्दी ही उपाध्याय श्री राजकुशल जी म. के उपाश्रय में आकर साध्वी ने अथ से इति तक खेमा का साग वृत्तान्त एवं बुद्धिकुशलता उपाध्यायजी को कह सुनायी। साधीजी के जाने के बाद शाह सलखण, अपने पुत्र खेमा को लेकर उपाध्यायजी को वंदन करने के लिये उपाश्रय में पाये । वंदन करने के पश्चात् उपाध्यायजी ने पूछा-खेमा ! तुझे प्रतिक्रमण प्राता है ? नेमा के बोलने के पहले ही सलखण बोल उठे - नहीं गुरुमहाराज, अभी तक खेमा को प्रतिक्रमण नहीं करवाया । उपाण्यायजी ने कहा-नहीं मैं तो खेमा को पूछता हूँ । खेमा ने कहा-हां गुरुदेव आरकी कृपा से मुझे प्रतिक्रमण आता है। गुरुजी-क्या कल त ने तेरी मां को प्रतिक्रमण करवाया ? खेमा-जी हां ! पालक खेमा की स्मरण शक्ति १०६५ Jain Education Inter nal Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६६० से ६८० ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सलनण सुन कर मुग्ध होगये। उनकों मालूम नहीं था कि खेमा केवल गुरुजी के शब्दोच्चारण मात्र एवं एक बार सुनने मात्र से ही प्रतिक्रमण सीख चुका है। गुरु-सलखण ! यदि खेमा दीक्षा अङ्गीकार करेगा तो जैनधर्म का बहुत ही उद्योत करेगा। सलखण गुरुदेव ! खेमा को आपके चरणों में अर्पण करने का निश्चय इसके जन्म के पहले ही किया जा चुका है । खेमा हमारा नहीं पर श्रापका है। सलखण के इन वचनों को सुन कर उपाध्यायजी को बहुत आनंद हुआ। सलखण घर पर पाया और खेमा के लिये अपनी स्त्री को कई बातें कही । सेठानी ने कहा-पति देव! खेमा का विवाह जल्दी ही कर देना चाहिये । सेठानी की इच्छा खेमा को मोह पाश में जकड़ कर घर में रखने की थी। उसने भविष्य का विचार किया कि यदि खेमा शादी के बंधन में बंध गया तो सांसारिक भोग विलासों से मुक्त होना उसके लिये कठिन सा होजायगा अतः जितना जल्दी विवाह होजावे इतना ही वह अच्छा समझती थी। सेठजी -- क्या इस प्रकार के विचारों से देवी के बचनों को असत्य करना चाहती हो ? मैंने तो गुरु महाराज को भी कह दिया कि-खेमा को आपश्री के चरणों में अर्पण करूंगा। सेठानी-आपतो मेरे हृदय की महत्वाकांक्षाओं को मिट्टी में मिलाना चाहते पर खेमा दीक्षा के लिये तैय्यार होवे तब न ? __सेठजी-प्रिये ! दीक्षा, कोई जबर्दस्ती का सौदा नहीं है। यह तो अात्मिक-अान्तरिक भावनाओं का परिणाम है । मैंने तो देवी के बचनों पर विश्वास करके ही गुरु महाराज को कहा था । हो, सादी के लिये खेमा १५ वर्ष का हो जायगा फिर इसकी शादी कर दूंगा। सेठानी-क्या १२ वर्ष की वय में विवाह नहीं किया जा सकता है ? सेठजी-खेमा को पूछ लिया जायगा । यदि उसकी इच्छा विवाह करने की होगी तो १२ वर्ष की अवस्था में ही विवाह कर दिया जायगा अभी तो खेमा सात वर्ष का है । अतः इस विषय के विचारों में अभी से उलमने से क्या लाभ ? इस प्रकार दम्पति में परस्पर वार्तालाप हो रहा था। खेमा भी इधर उधर खेलता हुआ सुन रहा था पर वह कुछ भी नहीं बोला । खेमा की बाल चेष्टाए भावि की बधाई दे रही थी। वि. सं. ६२९ में एक साधारण दुष्काल पड़ा। कई लोगों के पास धान एवं घास का संचय था, अतः गरीब लोगों के निर्वाह के लिये उन याद्र व्यक्तियों ने स्थान २ पर दानशालाऐं वगैरह खोल दी। इससे उस दुष्काल का जन समाज पर इतना बुरा प्रभाव नहीं पड़ा । नये वर्ष की आशा पर लोगों ने जैसे तैसे उस दुष्काल के समय को व्यतीत किया किन्तु दुर्भाग्यवशात् ६३० में तो सार्वभौमिक अकाल पड़ा। जनता में त्राहि त्राहि मच गई । अन्न, जल एवं घास के अभाव में मनुष्य एवं पशुओं को पग पग पर प्राण छोड़ते हुए देख खेमा का दिल दया से उमड़ने लगा। उसने अपने पिता के पास आकर कहा-पूज्यपिताजी अपना यह द्रव्य यदि इस विकट परिस्थिति में भी जन समाज के लिये उपयोगी न हो तो इस द्रव्य का सद्भाव एवं अभाव दोनों समान ही हैं। अपना तो अहिंसा परमोधर्मः सर्वोत्कृष्ट सिद्धान्त है फिर देशका पैसा देशवासी भाइयों की सेवा में काम न पावे तो उस द्रव्य की सफलता ही क्या है ? पिताजी ! मेरी तो सेठजी और सेठानी का सम्बाद Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०६०-१०८० यही आन्तरिक इच्छा है कि इस भयंकर समय में उदारता से स्वोपार्जित द्रव्य का उपयोग करें । पुत्र के ऐसे वचनों को सुन कर सलखण को भी अलौकिक हर्ष का अनुभव हुआ कारण वे प्रारम्भ से ही सहृदयी, दानी एवं दयालु पुरुष थे । पुत्र के कथनानुसार सलखण ने अपने योग्य मनुष्यों के द्वारा स्थानर पर अन्न एवं घास का ऐसा प्रबंध करवा दिया कि--बिना किसी भेद भाव के खुल्ले दिल से जन समाज को अन्न एवं पशुओं के लिये पास दिया जाने लगा। जहां जिस भाव मिले वहां से-उस भाव अन्न एवं घास मंगवा कर देश वासी भाइयों के प्राण बचाना उन्होंने अपना कर्तव्य बना लिया। यह कार्य कोई साधारण कार्य नहीं था। इसमें पुष्कल द्रव्य का व्यय, उत्कृष्ट उदारता, और कुशल कार्यकर्ताओंको श्रावश्यकता थी। शा० सलखण के पास तो सब ही साधन विद्यमान थे फिर वे पुन्योपार्जन करने में कब चूकने वाले थे ? साथ ही खेमा जैसे दयावान पुत्र की जबर्दस्त प्रेरणा-फिर तो कहना ही क्या ? सलखण ने लाखों नहीं पर करोड़ों रुपयों को व्यय करके महाभयंकर, दारुण, जन संहारक दुष्काल को सुकाल बना दिया । मनुष्य एवं पशु भी अन्तःकरण पूर्वक सलखण एवं खेमा को श्राशीर्वाद देने लगे। राजा एवं प्रजा, सलखण और खेमा की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगी और उनको नगर सेठादि कई उपाधियाँ भी प्रदान की। कहावत है-'समय चला जाता है पर बात रह जाती है ।' लक्ष्मी का स्वभाव चंचल है; वह किसी के साथ न चली है और न चलने वाली ही है जिन महानुभावों ने साधनों के होते हुए इस प्रकार देश सेवा कर अमर यश कमाया है उन्हीं की धवलकीर्ति कोटि कल्प लौं अमर बन जाती है। इन्हीं महापुरुषों में ये हमारे चरित्र नायक शा. सलखण और खेमा एक हैं । इनका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं । इस महाजन संघ में एक सलखण ही क्या पर ऐसे अनेकों नर रत्न होगये हैं कि जिन्होंने समय२ पर इस प्रकार देश सेवा करने का अमर यश सम्पादन किया है। इन्हीं कारणों से प्रेरित हो तत्तद्देशीय राजा, महाराजा एवं नागरिकों ने ऐसे नरपुङ्गवों को नगरसेठ, पंच चोवटिया एवं टीकायत आदि पद प्रदान किये । ये सब पद तो उनके साधारण जीवन के दैनिक कृत्यों के ही सूचक थे पर इन सब कार्यों से भी कई गुने महत्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा किये गये कि उनके द्वारा प्राप्त वे पद आज भी उनकी संतान के लिये यथावत् विद्यमान हैं। खेमा ज्यों ज्यों बढ़ा होता जाता था । त्यों२ सेठानी सरजू के ह्रदय का अधैर्य बढ़ता जाता था। कभी २ मोह के वश अधैर्य हो वह सेठजी को कहदेती कि -- क्या खेमा की शादी नहीं करनी है ? सेठानी के इन वचनों का उत्तर सेठजी इन्हीं शब्दों में देते कि खेमा की शादी १५ वर्ष की वय के पश्चात् की जायगी। सेठानीजी ! क्यादेवी के मन को आप भूल गये हैं ! देवी के बचनों का स्मरण करते ही सेठानी कांप उठती। उसके हृदय में नाना प्रकार की तर्क वितर्कणाएं प्रादुर्भूत होती । आशा निराशा का भयंकर द्वन्द्व मच जाता । उसके हृदय क्षेत्र में दो अलौकिक शक्तियों का तुमुल संग्राम प्रारम्भ होता । वह अपने विचारों को स्थिर नहीं कर पाती । फिर भी दबे हुए शब्दों में कहती- भले ही खेमा का विवाह सोलह वर्ष की वय में करना पर खेमा अब बड़ा हो गया है अतः वाग्दान- सम्बन्ध ( सगाई ) तो कर लीजिये । इससे पुत्र वधु के मुंह देख नव मास के थाके ले को दूर करू । सेठानी की इन सब बातों को सुनते हुए भी वे इन मोह पोषक बातों से सर्वथा उदासीन थे । उनको देवी कथित वचन सदा स्मृति में ताजे ही रहते थे। वे स्वयं संसार से निर्लेप एवं विरक्त थे। देवी के वचनों पर अटल विश्वासी थे। जन संहार दुकाल में खेमा की उदारता १०६७ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. ६६०.६८.] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एक समय धर्मप्रचार करते हुए धर्मप्राण भाचार्य श्रीसिद्धसूरि के चरण कमल, पद्मावती की ओर हुए । इस बात की खबर मिलते ही जनता के हर्ष का पार नहीं रहा । शा० सलखण ने सवालक्ष द्रव्य व्ययकर सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया । सूरिजी ने मङ्गाचरण के पश्चात् थोड़ी पर सोरगर्मित देशना दी । जनता पर इसका पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इस प्रकार सूरिजी का व्याख्यान क्रम प्रारम्भ ही था। इधर खेमा को भी पन्द्रवा वर्ष पूर्ण होने वाला ही था अतः ठानी ने खेमा को सूरिजी के यहां आ जाने की सख्त मनाई कर दी थी। पर खेमा को तो आचार्यदेव के पास आना, जाना, व्याख्यान श्रवण करना बहुत ही रुचिकर प्रतीत होता था अतः माता के मना करने पर भी उसने अपने आने जाने का क्रम बंद नहीं किया । सूरिजी ने भी खेमा की भाग्य रेखा को देखकर यह अनुमान कर लिया था कि-खेमा, बड़ा ही होनहार, भाग्यशाली एवं दीक्षा लेने पर शासन का उद्योत करने वाला होगा । एक समय सूरिश्वरजीने वैराग्य की धून में संसार परिभ्रमन एवं नारकीय दुखों का वर्णन करते हुए फरमाया कि-जिन लोगों ने सांसारिक पौद्गलिक सुखों में सुख माना है; वे लोग स्वल्पकालीन सुखों में मोहित हो दीर्घकालीन दुःखों को खरीद कर लेते हैं । महानुभावों ! मनुष्य एवं तिर्यञ्च के दुःस्त्रों को तो हम प्रत्यक्ष में देख ही रहे हैं पर इससे भी अनंत गुणें दुःख नरक में प्राप्त हुए जीव को सहन करने पड़ते हैं। उन दुःखों के वर्णन का साक्षात् चित्र तो केवल ज्ञानो भगवान् किंवा अतिशय ज्ञानधारी महात्मा ही खेंच सकते हैं । हां उनके कथानानुसार अल्पज्ञ व्यक्ति भी स्वमत्यनुकूल यत्किञ्चित रूप में उन भावों को कथन कर सकते हैं परन्तु वे साक्षात ज्ञानियों के समान उसका वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ ही हैं । देखिये अनुभवी पुरुषों ने अपने उद्गार किस प्रकार व्यक्त किये हैं:जरामरणकन्तारे चाउरन्ते भयागरे । मएसोढाणिभीमाणि, जम्माणिमरणाणिं य ॥ १ ॥ जहाइहं अगणी उण्हो, एत्तोऽयंत गुणेतहिं । नरएसुवेयणा उण्हा, अस्सायावेइयामए ॥ २ ॥ जहाइहं इमं सीयं एत्तोऽणन्तगुणेतहिं । नरएसुवेयणा सीया अस्सायावेइयामए ॥३॥ कंदन्तो कुंदुकुम्भीसु उढपाओ अहोसिरो। हुयासणेजलंतम्भि पक्कपुव्वोअणन्तसो ॥४॥ महा दवग्गि संकसे, मरुम्मि वइरवालुए। कलम्बवालुयाए य दट्टपुट्यो अणंतसो ॥५॥ रसन्तो कुन्दुकुम्भीसु उड्ढबद्धोअबंधयो । करवतकरकयाइहि छिन पुवोअणंतसो ॥६॥ अइतिक्खकंटगाइण्णे तुंगे सिंबलिपायवे । खेवियं पासबद्धणं कड्ढोकढ्ढाहिं दुक्कर ॥७॥ महाजन्तसु उच्छ्वा आरसन्तो सुभेरवं । पीडितोमिसकम्मेहिं पावकम्मो अणंतसो ॥८॥ कुवंतो कोलसुणएहिं सामेहिं सवलेहिं य । पाडिओ फालिओ छिन्नो विप्फुरन्तो अणेगसो॥९॥ असीहिं यअसीवण्णेहिं भल्लीहिं पट्टिसेहिंय । छिन्नो भिन्नो विभिन्नोय ओइण्णो पावकम्मुणा ॥१०॥ अवसो लोह रहे जुत्तो, जलन्ते समिलाजुए । चोइओनुत्तजुनेहिं रोझोवा जह पाडिओ ॥११॥ हुयामणे जलंतम्मि चियासु महिसो विव । दढ्ढो पक्को य अवसो, पावकम्मेहिं पाविओ ॥१२॥ वला संडासतुण्डेहिं लोहतुण्डेहिं पक्खीहिं । विलत्तो विलबंतहं ढंकगिद्धोहिं ऽणन्तसो ॥१३॥ १०६८ सरिजी का प्रभावोत्पादकव्याख्यान Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाय ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०६० से १०८० तण्हा किलन्तो धावन्तो पत्तोवेयरणीनई। जलं पाहित्तिचिन्तन्तो खुरधाराहि विवाइओ ॥१४॥ उण्हाभित्तत्तो संपत्तो असिपत्त महारण, असिपत्तोहिं पडन्तेहिं छिन्नपुवो अणेगमो ॥१५॥ मुग्गरेहिं सुसतीहिं सुलेहिं मुसलेहिय । गयासंभग्ग गत्तहिं पत्त दुक्खं अणंतसो ॥१६॥ खुरेहिं तिक्खधारेहि, रियाहि कप्पणीहिय । कप्पिओ फालि पोछिन्नो उक्कितोयअणेगसो॥१७॥ पासेहिं कूडजालेहि मिओवा अवसो अहं । वाहिओ बद्धरुद्धोवा, बहुसो चेव विवाइओं ॥१८॥ गलेहिं मगर जालेहि, मच्छोवा अवसो अहं । उल्लिओफालिओहिओ मारिओयअणंतसो ॥१९॥ वीदंसएहिं जालेहि लेप्पाहि सउणोविव । गहि ओ लग्गोबद्धोय मारिओय अणंतसो ॥१०॥ कुहाडफरसुमाइहिं बढईहिं डमो विव । कुट्टिओ फालिओ छिन्नो, तच्छिीय अणंतसो ॥२१॥ ___ उक्त रोमाञ्चकारी नारकीय वर्णन को श्रवण कर उपस्थित जन समाज के रोंगटे खड़े हो गये । एकदम सहसा सब के सब कुछ क्षणों के लिये वैराग्य के प्रवाह में प्रवाहित हो गये । श्राचायश्री ने इसका रौद्र एवं विभत्स रस परिपूर्ण सजीवचित्र उपस्थित श्री वर्ग के वक्षस्थलपर अंकित करते हुआ फरमाया किमहानुभावो ! जब हम दीक्षा का उपदेश देते हैं तब दीक्षा के बावीसपरिषहों की दुष्करता को स्मरण करके साधारण जन समाज भयभीत हो जाता है किन्तु, विचारने की बात है कि-नारकीय दुःखों के सामने परिषह जन्य यातनाएं नगण्य सी है । बन्धुओं ! हमने अनंतबार ऐसी २ दारुण तकलीफें सहन की है तो फिर चारित्र में नरक से ज्यादा क्या कष्ट हैं १ यदि सम्यग्दृष्टि पूर्वक विचार किया जाय तो दीक्षा के जैसा निवृत्ति मय सुख तीनों लोक में कहीं पर भी नहीं है । शास्त्रकार फरमाते हैं कि मनुष्य की उत्कृष्ट मद्धि से देवताओं के सुख अनंत गुणे हैं तथापि १ जितना सुख १५ दिन की दीक्षा वाले को है उतना व्यंतर देवों को नहीं । २ , " एक मास , , ,, नागादि नवनिकायों के देवों को नहीं " " ", असुर कुमार देवों को नहीं। " , , , ज्योतिषी , , , ,, पहले दूसरे देवलोक के देवों को नहीं । तीसरे चौथे देव लोक के देवों को नहीं । पांचवे, छ? " " , , सात, आठवे , , " "आठ , , , , नववे, दसधे , , , "" ग्यारहवें, बारहवें , , ११ , , दस , ,, , , , नवप्रेवेयक , " " १२ " "ग्यारह" " " "" चार अनुत्तरविमान के " " १३ , ,बारह , , , , , सर्वार्थ सिद्धविमानके देवोंको, , पौद्गलीक सुखों में देवता जैसा और उसमें भी अनुत्तर विमान निवासी देवों जैसा सुख दो अन्य है ही नहीं। पर संयमाराम में विचरण करने वाले मुनियों के सामने वह सुख भी शास्त्रकारों ने नगण्य सा संयमसुख व देव सुख की तुलना Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६६०-६८.] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बतलाया है । अतः एहिक, पारलोकिक, आत्मिक सुखों के अभिलाषियों को सुख प्राप्त करने के लिये निर्मल चारीत्र की आराधना करना चाहिये । यह तो आत्मिक सुखों की बात कही पर वाम भावों से दीक्षा पालन करने वाले जीव भी संसारी जीवों की अपेक्षा हजार गुने सुखी है । देखिये १ संसार में किसी के एक, दो, या दश. बीस पुत्र होते हैं। इतने पर भी गृहस्थी को उन पुत्रों से शायद ही सुख हो कारण, गार्हस्थ्य सम्बन्धी चिन्ताएं एवं पुत्र का कपूत पना उसे सदा ही सन्तापित करता रहता है पर साधु अवस्था में सैकड़ों पुत्र प्रामोग्राम प्राप्त हो जाते हैं, वे भी विनयी और आज्ञा पालक ।। २ संसार में दो चार शाक किंवा किसी दिन विशिष्टि भोजन की प्राप्ति हो जाति है पर मुनिवृत्ति में तो सेकड़ो धरों की गौचरौ और सैकड़ों ही विशिष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं। आये हुए श्राहार को अमृत माने है । ३ संसार में रहते हुए संसारी जीव अपना जीवन एकही प्राम किंवा एक घर में समाप्त कर देते हैं किन्तु साधुत्व जीवन में सैकड़ों ग्राम नगर में पर्यटन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। नवीन २ मनुष्यों के एवं नवीन २ शहरों के संसर्ग में अनेक नवीन अनुभव प्राप्त होते हैं। ४ संसारावस्था में रहते हुए तो कोई किसी का हुक्म माने या न माने पर चारित्र वृत्ति की आराधना करते हुए तो हजारों, लाखों भक्त लोग खमा-खमा कर के सहर्ष मुनियों के आदेश को शिरोधार्य करते हैं। ५ संसार में तो राजा आदि हर एक व्यक्ति की गुलामी में पराधिन रहना पड़ता है पर संयमित जीवन में तो राजाओं के भी गुरु कहलाते हुए निवृत्ति मार्ग में सदा स्वतंत्र रहते हैं। ६ संसार में धनाभाव के कारण उसकी प्राप्ति एवं रक्षा के लिये सदा चिंतन रहना पड़ता हैं; कहा है-"पुव्वावि दंडा पछावि दण्डा" तब इसके विपरीत दीक्षा में निर्मिक एवं संतोष पूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ता है। ७ संसार में ध्येय होता है-कुटुम्बादि का पालन पोषण करके कर्मापार्जन करने का तब, दीक्षा में हजारों जीवों का आत्म कल्याण करने के साथ अपनी प्रास्मा का उद्धार करने का प्रमुख लक्ष्य होता है। बन्धुओं ! अब आप स्वयं समझलें कि सुख संसार में है या दीक्षा में । इस तरह सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा विस्तार से उपदेश दिया। इसका असर उपस्थित जनता पर तो हुश्रा ही किन्तु खेमा पर इसका विचित्र ही प्रभाव पड़ा वह निद्रा में से जागृत होते हुए व्यक्ति के समान एक दम सचेतन होगया। व्याख्यान समाप्त होते ही खेमा ने घर आकर अपने माता पिताओं को कहा-कृपा कर मुझे आशा प्रदान करें कि मैं सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेकर अपना आत्म कल्याण करू । पुत्र के वैराग्य मय शब्दों को सुनकर माता मूर्छित हो भमि पर गिर पड़ी जब जल और यु के उपचार से उसे सचैतन्य किया तब देवी के कहे हुए बचन रह २ कर उसके दुःख के वेग को बढ़ाने लगे। उसने खेमा को समझाने का बहुत ही प्रयत्न किया किन्तु कृतयत्न सब निष्फल रहा। खेमा तो आज्ञा के प्रश्न को और भी वेग पूर्वक आगे बढ़ाने लगा। माता देवी के वचनों के द्वारा जानती थी किन्तु मोहनी कर्म रह २ कर उसे, खेमा को संसार में रखवाने के लिये बाधित करने लगा। इधर से सेठजी भी वहां आगये । अपनी स्त्री को पुत्र के भावी वियोग के कारण विलाप करते हुए देख उन्होंने भी खेमा को बहुत समझाया वे कहने लगे-बेटा! अभी तो तेरा विवाह करना है । अभी से दीक्षा लेने में कुछ लाभ नहीं है । फिर मुक्त भोगी हो कर दीक्षा लेना तो, तेरे साथ ही साथ हम भी अपना संयम सुख और संसार के सुख Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० २०६०-१०८० आत्म कल्याण कर सकेंगे। पर जिसको वैराग्य का दृढ़ रंग लग गया उसको ऐसी बातें कैसे रुचिकर हों ? खेमा की भी यही हालत हुई। उसने सेठजी के एक वचन को भी स्वीकार नहीं किया अनन्योपाय, सेठ जी ने अपनी पत्नी ' कहा -- प्रिये । क्या देवी के कहे हुए वचनों को भूल गई हो ? सेठानी ने कहा- नहीं । सेठ ने कहा फिर रोने की क्या बात है ? यदि पुत्र मोह छूटता नहीं है तो तुम भी पुत्र के साथ दीक्षित होकर आत्मकल्याण करो। मैं भी दीक्षा के लिए तैय्यार ही हूँ । बस बातों ही बातों में सेठजी व सेठानीनी पुत्र के साथ दीक्षा लेने के लिये उद्यत होगये । जब यह बात नगरी में हवा के साथ फैलती गई तो सकल नगर निवासियों को अत्यन्त श्राश्वर्य एव ं हर्ष हुआ कई लोगों ने सेठजी को धन्यवाद दिया और कई लोग तो सूरिजी के व्याख्यान एवं सेठ जी के त्याग से प्रभावित हो दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गये । सेठ सत्लखण ने अपने द्रव्य से नव लक्ष रुपये अपनी दीक्षा महोत्सव के लिये रखकर श्रावाशिष्ट द्रव्य को स्वधर्मी भाईयों की सेवा तथा सात क्षेत्रों में जहाँ आवश्यकता देखी वहाँ सदुपयोग किया । शुभ मुहूर्त में सेठ, सेठानी, खेमा और दूसरे भी २७ नर नारियों ने आचार्यदेव के कर कमलों भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की । सूरिजी ने उन मुमुक्षुत्रों को दीक्षित कर खेगा का नाम मुनिदयारत्न रख दिया। मुनि दयारत्र पर सरस्वती देवी की तो पहिले से ही कृपा थी । पूर्व जन्म में ज्ञान की अच्छी आराधना भी की होगी यही कारण था कि-मुनि दयारत्न ने कुछ ही समय में जैनागमों का श्रद्धा मध्ययन कर लिया । वे जैन साहित्य के प्रकाण्ड - अनन्य विद्वान् हो गये । जैनागमों के अध्ययन के साथ ही न्याय, व्याकरण, काव्य, छंद, अलंकारादि वाङ्गभय साहित्य का भी गहरा अभ्यास करते रहे श्रवः नाना शास्त्र विचक्षण होने में कुछ भी देर न लगी । विद्वत्ता के साथ ही साथ आपके मुखमण्डल पर ब्रह्मचर्य का भी अपूर्व तेज दीखने लगा । बाल ब्रह्मचारी होने से आपके अखण्ड ब्रह्मचर्य की कांति एवं तपस्तेज की भव्यप्रभा सूर्य के किरणों की तरह प्रकाशमान होने लगी। बही कारण है कि श्राचार्य सिद्धसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में मुनि दयारत्न को आचार्यपद से सुशोभित कर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया । आचार्य कक्कसूरिजी महान् विद्वान् प्रौढ़ प्रतापी ए धर्मवीर श्राचार्य हुए हैं। आपकी प्रतिभा सम्पन्न विद्वता की छाप सर्वत्र विस्तृत था । आपका विहार क्षेत्र अत्यन्त विशाल था । एक समय सूरीश्वरजी ने नागपुर से विहार कर सपादलक्ष प्रदेश में पर्यटन कर, सर्वत्र धर्मोपदेश करते हुए क्रमशः शाकम्भरी नगरी की र पदार्पण किया जब शाकम्भरी श्रीसंघ को ये शुभ समाचार मिले कि आचार्य देव, शाकम्भरी पधार रहे रहे हैं तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा । श्रेष्टि गोत्रीय शा. गोपाल ने एक लक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया । सूरिजी ने मंदिरों के दर्शन कर धर्मशाला में पधारे वहां श्रागत जन समाज को संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित देशना दी। उपस्थित जनता पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ा । इसी तरह प्रतिदिन आचार्य देव के व्याख्यान का क्रम प्रारम्भ रहा । सर्वत्र आपके व्याख्यान शैली की प्रशंसा फैल गई कारण, आपके व्याख्यान बांचने का ढंग इतना सरस, अलौकिक, एवं प्रभावोत्पादक था कि साधारण समाज व विद्वद् समाज समान रूप से उसका लाभ उठा सकती । जैन व जैनेतर आपके ब्याख्यान को श्रवण कर मन्त्र मुग्ध हो रहजाते थे । एक दिन वहां के शासन कर्ता राव गेंदा, अपने मन्त्री जैसल से सूरिजी के उपदेश की तारीफ सुनकर - व्याख्यान सुनने की प्रबल इच्छा से सूरीश्वरजी की सेवा में उपस्थित हुए । सूरिजी बड़े समयज्ञ थे मादि २७ भावुकों को दीक्षा १०७१ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६६०-६८० [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अतः आपने षट् दर्शन की तुलनात्मक आलोचना करते हुए जैन दर्शन के तत्वों एवं प्राचार व्यवहार के विषयों का खण्डन मण्डनात्मक दृष्टि से नहीं किन्तु, विषय प्रतिपादन शैली की दृष्टि से इस तरह प्रति. पादन किया कि-भोतावर्ग की आत्माओं पर गम्भीर असर हुए बिना नहीं रहा । आगे सूरीश्वरजी ने 'जैन दर्शन महात्म्य' विषय का दिग्दर्शन कराते हुए कहा कि कितनेक जैन दर्शन के वास्तरिक सिद्धान्तों से अनभिज्ञ व्यक्ति जैनधर्म को नास्तिक एवं अनीश्वर वादी कह कर भद्रिक लोगों को अपने भ्रम की पास में जकड़ लेते हैं किन्तु जैन दर्शन का सूक्ष्म, गम्भीरता पूर्वक अवलोकन करने वाले इस बात को भली प्रकार से जानते हैं कि जैनधर्म न तो नास्तिक धर्म है और न अनीश्वर वादी हो है । मेधावी व्यक्ति स्वयं समझ सकते हैं कि जैनधर्म ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने वालों में आरेश्वर है यदि जैन ईश्वर को ही नहीं मानता तो प्रत्येक्ष में लाखों करोड़ों रुपयों का व्यय कर भारत भूमि पर आलोसांन मन्दिरों का निर्माण कर ईश्वर की मूर्तियों स्थापन कर प्रतिदिन श्रद्धा एवं नियम से ईश्वर की सेवा पूजा क्यों करते ? मैं तो यहाँ तक कहने का दावा करता हूँ कि जैसा जैनों ने ईश्वर को माना है वैसा शायद ही किसी दर्शन कारो ने माना है तग द्वेष मोह अज्ञान काम क्रोध से बिल्कुल मुक्त सच्चिदानन्द अनंत ज्ञान दर्शन संयुक्त ईश्वर को जैन ईश्वर मानते है हाँ कइ मत्तानुयायी ईश्वर को सृष्टि का कर्ता हर्ता एवं जीवों को पुन्य पाप के मुक्तनेवाला माना है जैन ऐसे ईश्वर को ईश्वर नहीं मानते है कारण ईश्वर को सृष्टि के कर्ता हर्ता एवं पुन्प पाप के फल भुक्ताने वाला मानने से अनेक आपतियाँ पाती है और ईश्वर पर अन्यायी अज्ञानी अल्पज्ञादि कई दोष लागु हो जाते है अतः जैन अनेश्वर वादी नहीं पर कट्टर ईश्वर वादी है नास्तिकों की मान्यता है कि स्वर्ग नर्क पुन्य पापादि कोई पदार्थ नहीं है और न वे स्वीकार ही करते है जब जैन स्वर्ग नर्क पुन्य पाप और भनिष्य में पुन्य पापों का फलों को भी मानते है फिर समझ में नहीं आता है कि ईश्वर वादी अस्ति जैनों को नास्ति क्यों कहा जाता है । यह तो पक्षपात की अग्नि में जलने वाले व्यक्तियों का व्यर्थ प्रलाप है कि जैन तत्वों की वास्तविकता से अनभिज्ञ वे लोग यत्र तत्र अपने अज्ञानता पूर्ण पागल पन का परिचय देते रहते हैं । मैं तो दावे के साथ कहता हूँ कि आस्तिकता का दम भरने वाले अन्य धर्मोकीपेक्षा जैनधर्म सर्वोत्कृष्ट आत्म कल्याण साधक धर्म है । जैनधर्म के वास्तविक सिद्धान्तों का यथोचित स्वरूप बताने मात्र से आपको अपने आप उपरोक्त बातों का स्पष्टि करण हो जायगा अस्तु १ सृष्टिवादः-जैन दर्शन सृष्टि को अनादि काल से शाश्वत् मानता है । वह स्वर्ग, नरक और मृत्यु लोक के आस्तित्व को स्वीकार करता है। स्वर्ग में देवों के निवास स्थान या नरक में नारकी के जीवों के रहने का और मृत्यु लोक में मनुष्द तिर्यञ्च का वास है इन सबका अनेक आगम प्रत्यक्ष परोक्ष अनुमानादि प्रमाण से स्पष्टीकरण होता है । जब दुनिया में पाप का आधिस्य एवं पुण्य का क्षय होता जाता है तब संसार अपकर्षावस्था को प्राप्त होता है । इसके विपरित पुण्य की प्रबलता एवं पाप भी कभी से जगत की उत्कर्षता एवं वृद्धि को प्राप्त होता है। इस तरह यह अनादिकाल का चक्र अनंत काल पर्यन्त चलता ही रहता है। जैन दर्शन ने इस तरह के काल विभाग को दो विभागों में विभक्त किया है एक उत्सर्पिणी काल-इसको उन्नतिकाल कहा है और दूसरा अवसर्पिणी काल इसको अवनति काल कहा है। उत्सर्पिणी काल में धन जन, कुटुम्ब, धर्मादि सकल कार्यों की म्नति होती जाती है और अवसर्पिणी काल में इन सबका अपकर्ष होना प्रारम्भ होता है । अवसर्पिणी काल के छ विभाग है जिसको छ श्रारा भी कहते हैं जैसे १०७२ तात्विक विषय पर सूरिजी का व्याख्यान Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०६०-१०८० १ सुषमासुषमा-पारा चार क्रोडा कोड़ सागरोपम २ सुषमा-पारा तीन " ३ सुषम दुःखम-पारा दो , , ४ दुःखम सुषमा-पारा एक , में ४२००० वर्ष कम ५-दुखम-पारा २१००० वर्षों का ६-दुःखमादुःखम-आरा २१००० वर्षों का उत्सर्पिण काल के भी छ अारा है १-दुःखम दुःखमा पारा २१००० वर्षों का २--दुःखम आरा २१००० वर्षों का ३-दुःखम सुषम पारा एक कोड़ा कोड़ सागरोपम ४२००० वर्ष कम ४-सुषम दुःखम आरा दो कोड़ा कोड़ सागरोपम का ५-सुषम पारा तीन " " " ६-सुषम सुषम आरा चार , " " अवसर्पिण काल का पहला दूसरा और उत्सर्पिण काल का पांचवा छटा आर के मनुष्य भोगभूमि (युगल मनुष्य ) होते हैं । श्रवसर्पिण का तीसरा आरा के पिच्छला भाग में और उत्सर्पिण का चतुर्थ पारा के प्रारम्भ भाग में भोगभूमि मनुष्य काल दोष से कर्मभूमि बन जाते हैं तथा अवसर्पिण का चतुर्थ पंचम और छटा भाग तथा उत्सर्पिण का तीसरा दूसरा और पहला पारा के मनुष्य कर्मभूमि होते हैं भोगभूमि मनुष्य-इनके अन्दर असी मीसी कसी कर्म नहीं होता है इन मनुष्यों का शरीर लम्बा और आयुष्य दीर्घ होती है उनके आवश्यकता के सब पदार्थ कल्पवृक्षों द्वारा मिलते हैं अपनी जिन्दगी के अन्त समय एक बार स्त्री संभोग कर एक युगल पैदा कर पहला या छटा पारा में ४९ दिन दूसरा या पांचवा भारा में ६४ दिन तीसरा या चोथा आरा में ८१ दिन की प्रति पालना कर वे स्वर्ग चले जाते हैं। कर्मभूमि मनुष्य-इनके अन्दर असी ( तलवार-क्षत्री) मीसी ( साही-वैश्य ) कसी (किसान) हुन्नर उद्योग कला कौशल वगैरह सब कुच्छ होते हैं इनके शरीर आयुष्य क्रमशः कम होते जाते हैं धर्म कर्म करते हुए चार गति या मोक्ष भी जाते हैं तीर्थंकर चक्रवर्ति वासुदेव बलदेव वगैरह उत्तम पुरुष या साधु साध्वियों वगैरह इन कर्मभूमि में ही होते हैं इस प्रकार उत्सर्पिण अवसर्पिण के बारह आरा को एक काल चक्र कहते हैं और ऐसे अनन्त काल चक्रकों एक पुद्गल परावर्तन कहते हैं ऐसे अनन्त पुद्गल परावर्तन भूत काल में हो गया है और भविष्य में भी अंत पुद्गल परावर्तन होगा जिसका श्रादि व अन्त कोई पतला ही नहीं सकता है कारण काल का एवं सृष्टि का आदि अनंत है ही नहीं। किसी ने सवाल किया कि आप फरमाते हो कि केवली सर्वज्ञ होते हैं और वे भूत भविष्य और वर्तमान एवं तीनों काल को हस्तामल की तरह जानते हैं तो क्या केवली-सर्वज्ञ भी काल की एवं सृष्टि की आदि अन्त नहीं वतला सकते हैं? केवली-~~-अस्ति पदार्थ को अस्ति कहते हैं और नास्ति पदार्थ को नास्ति कहते हैं पर नास्ति पदार्थ सूरीश्वरजी का तात्वीक व्याख्यान १०७३ Jain Education Internal Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६६० से ६८.] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को अस्ति और अस्ति पदार्थ को नास्ति नहीं कहते हैं। जैसे कि सर्वोपरी विद्वान को एक चूडी दे कर पुच्छे कि इसका सांध ( अन्त ) कहां है ? इस पर वह विद्वान यही कहगा कि इस चूड़ी की सांध नहीं है इसपर कोई अल्पज्ञ कहदे कि आप कहां के विद्वान जबकि हमारी चूड़ी का अन्त ही नहीं बता सके ? विद्वान ने कहा कि मैं अच्छी तरह से जान गया हूँ कि इस चूड़ी का अन्त है ही नहीं। इससे आप लोग अच्छी तरह से समझ गये होंगे कि काल और सृष्टि की न तो श्रादि है और न अन्त ही है। (२) श्रात्मवादः-जीवात्मा सच्चिदानन्द की अपेक्षा तो सब सदृश्य ही है पर अवस्थापेक्ष्य दो प्रकार के हैं- एक कर्ममुक्त-जो ईश्वर परमात्मा कहलाते हैं। उक्तमुक्त जीवों ने तप, संयम से आत्मा के साथ में लगे हुए अनादि काल से कर्म पुद्गलों का नाश कर जन्म मरण के भयंकर चक्र रहित श्रात्मीयानंद की चरमसीमा रूप मोक्षगति को प्राप्त करके ईश्वरीय सत्ता को प्राप्त की है। संसार में परिभ्रमन कराने के मूल कारण कर्म रूप बीज को वे जला डालते हैं अतः जले हुए बीज के समान वे संसार में जन्म मरण नहीं करते हैं । उसको कर्ममुक्त मोक्ष आत्मा कहते हैं । दसरे संसारी जीव हैं वे नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव, ऐसे चतुर्गति रूप संसार की चौरासी लक्ष जीवयोनि में स्वकृत कर्मानुसार परिभ्रमन करते रहते हैं । आत्म कल्याण की अनुकूल सामग्री तो उक्त चार गतियों में से एक मनुष्य गति में ही प्राप्त हो सकती है। यदि साधनों की अनुकूलता का सद्भाव होने पर भी उसका मनुष्य, सदुपयोग नहीं करे तो अन्त में उसको एतद्विषयक परिताप होता ही है किन्तु पापोदय से व निकाचित कर्म बंधन के तीव्र आवरण से कितनेक जीव, इन्द्रियों के वशीभूत हो शिकार, मांस, मदिरादि हेय पदार्थों का उपयोग कर व्यभिचारादि अनेक दोषों का सेवन करते हैं । और अन्त में कर्जदार की भांति पाप का भार लाद कर नरक तिर्यश्च के असह्य दुःखों का अनुभव करते हैं । यद्यपि पूर्व कृत पुण्याधिक्य से कितनेक पुण्यशाली जीवों को इस भव में उनके किये हुए कर्मों का कुछ भी कटुफल नहीं मिलता है किन्तु उनको उस समय ऐसा सोचा चाहिये कि--संसार में जो इतने धन जन व्याधि वगैरह अनेक प्रकार के दुख से संतापित मनुष्य दृष्टिगोचर होते हैं वे भी अवश्य ही उनके किये हुए दुष्कर्मों का परिणाम है अतः पाप करने वाले पापी जीव को तथा अन्य दुःखी जीवों से पाप नहीं करने की शिक्षा लेनी चारिये । पापी जीव को इस भवपरभव सर्वत्र दुःख ही दुःख है । धर्म मार्ग का अनुसरण करने वाले को सदा आनंद ही आनंद हैं । ___ कर्मवादः-संसार के चराचर जीव कर्मों की पाश में बंधे हुए हैं। अनादि काल से सम्बन्धित कर्म उनको जन्म मरण के भयंकर चक्र में चक्रवत फिराते रहते हैं। अच्छे कर्म करने वाले को भव भव में सुख एव श्राराम प्राप्त होता है और इसके विपरीत बुरे कर्म उभय लोक में सन्ताप के कारण बनते हैं । अतः कर्मोपार्जन से भीरू बनकर जीव को धर्म मार्ग में प्रवृत्ति करने के लिये कटिबद्ध रहना चाहिये । इस विषय को तो सूरिजी ने खूब ही विस्तार पूर्वक वर्णन किया। ४. क्रियावाद-अशुभ क्रिया से अलग रहते हुए शुभ क्रिया में यथावत् प्रवृत्ति करना मनुष्य मात्र का परम कर्तव्य है । इसके भी कई भेदानुभेद बताये । और खूब ही सूक्ष्म क्रिया बाद का निरुषण किया। ५. धर्मवाद--मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि वह खूब बारीकी से परीक्षा करे । कारण-"बुद्धिफलं तत्व विचारणं च” परन्तु आज कल धर्म के विषय में भिन्न २ लोगों की भिन्न २ धारणाएं होगई है । कोई तो कुल-प्रवृत्ति को ही धर्ममान बैठे हैं और कई परम्परा से चले आये धर्म को ही धर्म मार्ग, स्वीकृत किये १०७४ सरीश्वरजी का तात्वीक व्याख्यान Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरी का जीवन ] [ओसवाल सं० १०६०-१०८० हुए हैं। किसी ने अपने गृहण किये हुए धर्म को धर्म माना है तो किसी ने किसी दूसरे को । यह सब ठीक नहीं क्योंकि इन सबों को स्वीकार करते हुए श्रात्मीय हिताहित का पूर्ण एवं सुक्ष्म विचार नहीं करते हैं। धर्म के मुख्य लक्षणों में अहिंसा का सर्वप्रथम एव सर्वोत्कृष्ट स्थान होना चाहिये । धर्म के नाम पर हिंसा विधायक विधानों का विधान कर उनसे स्वर्ग प्राप्ति की आशा रखना सत्य से नितान्त पराङ मुख होना है । धर्म-धर्म है उसे अधर्म का रूप देकर धर्म मानना निरी अज्ञानता है। धर्म सुखमय एवं मङ्गलमय है । अतः धर्म के नाम पर असंख्य मूक प्राणियों का खन करके उसे सद्धर्म का अङ्ग मानना कहां तक युक्ति युक्त है ? बुद्धिमान मनुष्य स्थिर चित्त से विचार करें कि यह धर्म है या अधर्म है । जब अपने शरीर में एक कटक भी प्रविष्ट हो जाता है तो असह्य पीड़ा का अनुभव होने लगता है फिर उन मूक प्राणियों को जीवन से पृथक कर धर्म का ढ़ोंग मचाना साक्षात् अन्याय है महानभावों । सद्धर्म को स्वीकार करो इससे ही सर्वत्र जय है । दुनियां में जो इतनी विचित्रताएं दृष्टिगोचर होती है वे सब धर्म एवं अधर्म के आधार पर ही स्थित है। रंक का राजा और राजा का रंक होना तो दुनियां में चला ही पाया है पर किसी भी अवस्था में क्यों न हो परन्तु कृतकर्म का वदला चुकाना तो सबके लिये आवश्यक ही होता है । अत बुद्धिमानों को चाहिये कि धर्म के तत्वों का ठीक २ निर्णयकर उसका ही उपासक बने । इस तरह सूरिजी ने जैन दर्शन के विशिष्ट तत्व को अन्यान्य दर्शनों के साथ तुलना करते हुए निर्भीकता पूर्वक मार्मिक शब्दों में समझाया कि श्रोतागण एक दम स्तब्ध रहगये । रावगेंदा तो सीधे सादे सरल स्वभावी धर्म के तत्वों को जिज्ञासा दृष्टि से निर्णय करने के इच्छुक थे। उनकी अन्तरात्मा पर सूरीश्वरजी के व्याख्यान का पर्याप्त प्रभाव पड़ा । ऐसे तो वे हिंसा-जीव वध से पहले से ही घृणा करते थे किन्तु हिंसकों के संसर्ग से कभी २ अनुचित प्रवृत्ति भी हो जाया करती थी । कारण "काजल की कोठरी मां कैसो हु सयानो जाय, काजल की एकलीक लागी है पे लागी है ॥" ____ अाज आचार्य देव के प्राभावोत्पादक वक्तत्व से उनके हृदय में पुनः हिंसा के विरुद्ध नवीन आंदोलन मचाया। उनकी अन्तरात्मा ने उन्हें आचार्य देव व परमात्मा की साक्षी पूर्वक निरपराध प्राणियों के वध की शपथ करने के लिये प्रेरित किया। वे समझने लग गये कि-जिन जीवों की शिकार करके हम मांस भक्षण करते हैं उनका इसी तरह से या उससे भी ज्यादा बुरीतरह से बदला देकर मुक्त होना पड़ेगा । अतः इस तरह की इसमव परभव में यातना सहने के बदले एतद्विषयक शपथ कर लेना ही उभय लोक के लिये श्रेयस्कर है । बस, उक्त विचारों के निश्चित निश्चयानुसार उन्होंने सभा में खड़े होकर कहा-महात्मन ! श्राज मैं ईश्वर की साक्षी पूर्वक आप सबके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि मेरी अवशिष्ट जिन्दगी में न तो शिकार खेलूगा और न मांस मदिरा का भक्षण ही करूंगा। रावजी की उक्त प्रतिज्ञा को सुन सूरिजी ही नहीं अपितु आगत सकल श्रोतागण एक दम चकित हो गये । सब लोग रावजी के इस कर्तव्य के लिये उन्हें धन्यवाद देने लगे। विशेष में सूरिजी ने उनके उत्साह को बढ़ते हुए कहा-रावजी ! आप बड़े ही भाग्यशाली हो । यह अहिंसा धर्म तो आपके पूर्वजों का ही है। जब तक क्षत्रियवर्ग अहिंसा के उपासक एवं प्रचारक रहे वहां तक जनसमाज में अपर्व शांति का अखण्ड साम्राज्य रहा। पर कुसंग के बुरे असर ने जीवों के रक्षक क्षात्रियों को जीव भक्षक बना दिये । संसार के पतन का श्रीगणेश भी इसी तरह के हिंसा जन्य पाप से होने लगा मैं तो चाहता हूँ कि क्षत्रियवर्ग आज भी अपनी पूर्व स्थिति को, तीर्थकर प्रणीत पूरीश्ववरजी के व्याख्यान का प्रभाव १०७५ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं ० ६६० से ६८० ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अहिंसा तत्व को पहिचान कर सच्चे हृदय से अहिंसा का अभिनंदन करने वाले - पालक एवं प्रचारक बन तो वर्तमान में पैदा हुई उच्च्छ्र खलता, स्वच्छंदता का नाश हो देश पुनः ऋद्धि समृद्धियुत श्रवाद बन जाय । क्षत्रियोचित सचे कर्तव्य को जैसे आपने पहिचाना है उसी तरह से हमारे दूसरे मांसाहारी भाई भी समझने का प्रयत्न करें वो देशोत्थान में किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं रहे । इस तरह उत्साहवर्धक बचनों से श्राचार्य देव ने रावजी की प्रशंसा की एव उनकी कर्तव्य परायणता पर संतोष प्रगट किया। बाद में वीर जयनाद से सभा विसर्जित हुई । रावजी को तो सूरीश्वरजी की एक दिन सत्संग से ही ऐसा रस लगा कि वे आवश्यक कार्यों को छोड़कर के भी उनका उपदेशश्रवण करने के लिये निर्धारित व्याख्यान के समय पर उपस्थित हो जाया ही करते थे । यथा राजा तथा प्रजा की लोक युक्ति अनुसासार प्रजाने भी सूरिजी के व्याख्यान श्रवण का लाभ तथा कई प्रकार के व्रत नियमों से श्रात्म हितसाधन किया । जब सूरिजी ने वहां से विहार करने का विचार किया और यह खबर राव गेंदा को मिली तो वे तत्काल संघ के प्रसर व्यक्तियों को साथ में लेकर श्राचार्यदेव की सेवा में आये सबके साथ रावजी ने अत्यन्त मह पूर्वक चातुर्मास का अलभ्य लाभ प्रदान करने के लिए प्रार्थना की। विचार के न होने पर भी श्रीसंघ की आह भरी प्रार्थना को वे ठुकरा न सके । उन्हों ने भविष्य के लाभ की आशा से चातुर्मास का आश्वासन दे रावजी व संघ को विदा किया । बस फिर तो था ही क्या ? शाकम्भरी की जनता हर्ष सागर की उतुंग तरंगों से तरंगित होने लगी । शवजी की प्रसन्नता का तो पार ही न रहा । चातुर्मास के लिये अभी समय था अतः सूरिजी ने चातुर्मास के पूर्व श्रास पास के ग्रामों में विचर धर्म विचार करना अत्यन्त श्रेयस्कर समझा । उक्त विचारानुसार छोटे बड़े प्रामों में धर्मोपदेश देते हुए चातुर्मास के अवसर पर शाकम्भरी में अत्यन्त समारोह पूर्वक चातुर्मास कर दिया । डिडू गौत्रीय शा सालग ने परम प्रभाविक जय कुंजर पञ्चमाङ्ग श्रीभगवती सूत्र का महा महोत्सव किया। इस में शाह ने पञ्चलक्ष द्रव्य व्ययकर शासन की खूब प्रभावना की । राव गेंदा पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा । जैसे श्रावकों ने हीरा, पन्ना, माणिक मुक्ताफल एवं सुवर्ण के पुण्यों से ज्ञान पूजा की वैसे रावजी एवं अन्य नागरिक *यदि कोई शंका करे कि उस समय की जनता के पास इतना धन कहां से आया । कि एक २ आचार्य के नगर प्रवेश एवं ज्ञानपूजा में लाखों रुपये सहज हीं में व्यय किये ? यह प्रश्न तो ऐसा है कि -एक व्यक्ति ने अपने जीवन भर में एक दाना भी खेत में नहीं बोया और दूसरे के खेतों में हजारों मन धान्य आते देखकर आश्चर्य से प्रश्न किया कि इस खेत में इतना धान्य कहाँ से आया समाधान । पर अब इनका निर्णय किया जाय तो यह ज्ञात होगा कि हजारों मन धान्य वाली जमीन के मालिक ने वर्षा के समय उत्तम उत्तम भूमि में अधिक से अधिक बीज बोये और उसका सुन्दर परिणाम उसको इस तरह से प्राप्त हुआ । यही समाधान उक्त प्रश्न का है । उस समय के लोग द्रव्योपार्जन भी भाज करू की तरह अनीति पूर्वक नहीं पर न्याय पूर्वक करते थे । वे लोग धर्म कार्य में द्रव्य का सदुपयोग करने से संकोच किंवा कृपण वृत्ति का आश्रय मह लेते थे । अतः धर्म के प्रताप से उनके यहां सब तरह को समृद्धियां रहती थी। उनका व्यापारिक क्षेत्र विस्तृत था । वे बदले जवाहिरात वगैरह उत्तम अमूल्य पदार्थं काया करते थे । उनका वे बीज बोने से उनके पुण्य भी बढ़ते ही जाते थे । उक्त पुण्य ही निमित्त करता था। इस प्रकार की धर्ममय प्रवृत्ति के कारण उन लोगों की देव, विदेशों में माल भर कर ले जाते और उसके सप्तक्षेत्र में सदुपयोग करते अतः शुभ कार्य में कारण बन उनकी इस तरह के शुभ फल प्रदान १०७६ द्रव्य व्यय करने का कारण Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं. १०६०-१०८० लोगों ने भी ज्ञानार्चना का लाभ लेकर अतुल पुण्य सम्पादन किया । उक्त द्रव्य से आगम व जैनसाहित्य के अमूल्य प्रन्थों को लिखवा कर ज्ञान भण्डार में स्थापित किया । इस प्रकार ज्ञान के महात्म्य को देख जनता वेद पुराणों के महोत्सव को भूल गई थी। व्याख्यान में श्रीभगवतीसूत्र प्रारम्भ हुआ । श्रोतागण बड़ी रुचि के साथ वीरवाणी के अमृत रस का आस्वादन करने में अतृप्त की भांति उत्कंठित एवं लालायित रहते थे । आचार्यदेव ने श्रीभगवतीजी के श्रादि सूत्र 'चलमाणे चलिए' का उच्चारण किया और उसी के विवेचन में चातुर्मास समाप्त कर दिया पर 'चलमाणे चलिए' का अर्थ पूरा नहीं हो सका । कारण सूरिजी कर्म सिद्धान्त के प्रौढ़ विद्वान एवं मर्मज्ञ थे अतः वस्तुत्व का निरुपण करने में परम कुशल या सिद्धहस्त थे। आपश्री ने कर्म की व्याख्या करते हुए कर्म के परमाणु और उसके अन्दर रहे हुए वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श की मंदता, तीव्रता, कमों की वर्गणा, कंडक, स्पर्द्ध, निसर्ग, कर्म बंधके हेतु कारण, परिणामों की शुभाशुभ धारा, लेश्या, के अध्यवसाय से रस व स्थिति, निधंस, निकाचित अबाधाकाल, कमों का उदय (विपाकोदय-प्रदेशोदय) कमों का उदवर्तन, अपवर्तन, कर्मों को उदीरणा, कमों का वेदना (भोगना), परिणामों की विशुद्धता, आत्म प्रदेशों से कर्मों का चलना, इसकी अकाम वेदना सकाम निर्जरा होना, उर्ध्वमुखी, अर्धामुखी अकाम तथा देश या सर्व सकाम निर्जरा वगैरह का इसकदर वर्णन किया कि शाकम्भरी नरेश को ही नही अपितु व्याख्यान का लाभ लेने वाली सकल जन मण्डली को जैन दर्शन के एक मुख्य सिद्धान्त कर्मवाद का अपूर्व ज्ञान हासिल हो गया जैनधर्म के कर्म सिद्धान्त की उनके ऊपर स्थायी एवं अमिट छाप पड़ गई । वास्तव में बात भी ठीक है कि जब तक कर्मों का स्वरूप एवं उसके साथ संबन्ध रखने वाली सकल बातों का सविशद ज्ञान न हो जाय बहां तक कर्म बन्धन से डरने एवं पूर्व वृत कर्मों की निर्जरा करने के भावों का प्रादुर्भाव होना नितान्त असम्भव है । अस्तु, आचार्यश्री ने चातुर्मास की इस दीर्घ अवधि में कर्म सिद्धान्त का ऐसा मार्मिक विवेचन किया कि उपस्थित लोगों के हृदय में एकदम वैराग्य का सञ्चय हो गया । उन्होंने तत्क्षण ही आचार्यश्री से स्वशत्यनुकूल त्याग-प्रत्याख्यान किये । शास्त्रों में श्रद्धा मूल ज्ञान बतलाया है, यह ठीक एवं यथार्थ ही है । केवल चरित्रानुवाद ( कथानक या किसी का चरित्र ) सुन लेने से जैन दर्शन के तात्विक सिद्धान्तों का ज्ञान नहीं होता है, उसके लिये तो आवश्यकता है गहरे अभ्यास, मनन एवं चिन्तवन की । अतः जब तक ज्ञान का सद्भाव नहीं तब तक श्रद्धा का अंकुर नहीं और श्रद्धा के अभाव में जन्म मरण से छूटना भी असम्भव अतः सबसे पहले आवश्यकता है ज्ञान की प्रौढ़ताकी, कारण-शास्त्रकार भी फरमाते हैं कि"पढ़मं नाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सब संजए । अन्नाणी किं काही किंवा नाही सेय पावगं ॥" ___ ज्ञानाभाव में कर्तव्याकर्तव्य का दीर्घ विचार अज्ञानी जीव कर ही नहीं सकता है अतः ज्ञानाराधन करके ही दर्शनाराधना की जा सकती है । इस तरह के व्याख्यान प्रवाह में प्रवाहित जनता में से कितनेक सत्यग्रहण पटुव्यक्तियों ने एवं गव गेंदा वगैरह श्रात्म कल्याण इच्छुक भावुकों ने जैनधर्म को स्वीकार कर अपने आपको कृतकृत्य किया । सूरिजी के तो ये सबके सब परम भक बन गये । गुरु, धर्म पर अटूट श्रद्धा थी इसका पता भी सहज ही में लग जाता है वे बात ही बात में देव, गुरु, धर्म ले निमित्त लाखों रुपये नहीं अपना सर्वस्व होमर्पण कर देते थे। आज तो उन पुण्यात्माओं के कार्यों का अनुमोदन करने मात्र से ही अनुमोदन कर्ता की आत्मा का कल्याण हो जाता है। - आचार्य श्री के व्याख्यान की शैली १०७७ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६६०-६८० ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चातुर्मास समाप्त होते ही सूरिजी ने विहार कर दिया । यद्यपि शाकम्भरी निवासियों के लिये आचार्य देव का विहार असम्भव अवश्य था किन्तु, निस्पृहो, निर्मन्थों के आचार व्यवहार विषयक विशुद्ध नियमों में खलल पहुँचा कर जबर्दस्ती रोकना भी कर्तव्य विमुख था अतः भक्ति से प्रेरित हो कितनेक मनुष्यों ने बहुत दूर तक आचार्यश्री की साथ रह कर अपूर्व सेवा का अपूर्व लाभ लिया । पट्टावली कारों ने प्राचार्यदेव के प्रत्येक चतुर्मास का इसी तरह विशद विवेचन किया है किन्तु ग्रंथ कलेवर की वृद्धि के भय से हम इतना विस्तृत विवेचन नहीं करते हुए इतना लिख देना ही पर्याप्त समते हैं कि आप का बिहार मरुधर से गुर्जर, सौराष्ट्र, कच्छ, सिंध, पंजाब, कुरु, शूरसेन, मत्स, बुंदेल खंड, मालवा और मेदपाट होता था । आप क्रमशः हर एक प्रान्तों में बिहार करते हुए प्रचार के लिये प्रान्त २ में भेजे हुए शिष्यों को प्रोत्साहित करते रहते थे। जगह जगह पर श्रापश्री के चमत्कारिक जीवन का प्रभाव जैन, जैनेतर समाज पर बहुत ही पड़ता था । बाल ब्रह्मचारी होने से अखण्ड ब्रह्मचर्य के तेज के साथ ही साथ तप, संयम ज्ञान की प्रखर दीप्ति वादियों के नेत्रों में चकाचौंध सी पैदा कर देती थी । वादी श्राचार्य श्री के श्रागमन को सुनते ही हतोत्साहित हो इत उत पलायन कर देते थे । आपकी इस प्रखर प्रतिभा सम्पन्न प्रौढ़ विद्वत्ता ने कई राजा महाराजाओं को आकर्षित किया। उन लोगों ने भी सूरीश्वरजी के व्याख्यान श्रवण मात्र से प्रभावित हो, जैनधर्म के रहस्य को समझ जैनधर्म को स्वीकार कर लिया । इस तरह सूरिजी ने जैनधर्म का खूब विस्तृत प्रचार किया । आपने अपने बीस वर्ष के शासनकाल में ३०० से भी अधिक नर नारियों को श्रमण दीक्षा दे आत्म कल्याण के निवृत्तिमय पथ के पथिक बनाये । लाखों मांस मदिरा सेवियों का उद्धार कर जैनियों की एवं महाजन संघ की संस्था में वृद्धि की। कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवा कर जैनधर्म की नींव को ढ़ एवं जैन इतिहास को अमर किया । आपश्री के जीवन की विशेषता यह थी कि उस समय के चैत्यवासियों के साम्राज्य में भी आपने अपने श्रमण संघ में श्राचार विचार विषयक किसी भी प्रकार की शिथिलता रूप चोर का प्रवेश नहीं होने दिया । नियम विघातक वृद्धि को न आने में खास कारण आपश्री के विहार क्षेत्र की विशालता एवं मुनियों को मुनित्व जीवन के कर्तव्य की ओर हमेशा आकर्षित करते रहने की कुशलता ही थी । विहार की उम्रता से साधु समाज के चरित्र में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं हुई और कोई क्षेत्र भी मुनियों के व्याख्यान श्रवण के लाभ से वंचित नहीं रहा । आचार्यश्री समय २ पर मुनियों को इधर उधर प्रान्तों में प्रचारार्थ परिवर्तित कर देते कि जिससे उनको प्रान्तीय मोह व साम्प्र|दायिकता की इच्छा जागृत न हो सकती थी । आपके इस कठोर निरीक्षण ने मुनियों के जीवन को एक दम आदर्श बना दिया था | I आचार्यश्री कक्कसूरिजी म० युगप्रधान एवं युगप्रवर्तक आचार्य थे। उस समय आपश्री के पास जितनी श्रमण संख्या थी उतनी विशाल संख्या किसी दूसरे गच्छ या सम्प्रदाय में नहीं थी । जितना दीर्घ विहार आपका और आपके आज्ञानुयायी साधुओं का था उतना विशाल विहार क्षेत्र व उप्रविहार दूसरों का नहीं था । जन समाज पर जितना प्रभाव आप का पड़ता था उतना अन्य का नहीं । ज्ञात होता है कि 'श्रमणों की उदय उदय पूजा न होगी' यह वीर परम्परा के श्रमणों पर पूरा २ प्रभाव डाल चुकी थी परन्तु श्राचार्य कक्कसूरि तो थे भग जब हम कल्पसूत्र के भस्मगृह की ओर देखते हैं १०७८ सूरीश्वरजी के शासनकी बि Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०६०-१०८० वान् पार्श्वनाय की परम्परा के प्राचार्य श्रतः भस्मग्रह का किञ्चित मात्र भी प्रभाव उन पर न पड़ सका। पाठक ! वृन्द अभी तक बराबर पढ़ते ही श्रारहे हैं कि रत्नप्रभ सूरिसे, उपकेशगच्छाचार्यों ने शासन की उत्तरोत्तर वृद्धि ही की है। जितने इस परम्परा के आचार्यों ने जैनेतरों को जैन बनाने का श्रेय सम्पादन किया है। उतना अन्य किसी भी गच्छ के आचार्यों ने नहीं किया। इतना होने पर भी विशेषता तो यह थी कि ये लोग कभी भी वर्तमान साधु समाज के समान अहमत्व का दम नहीं भरते थे । पार्श्वनाथ सन्तानियों एवं वीर सन्तानियों में नाम मात्र की विभिन्नता तो अवश्य थी पर पारस्परिक दोनों सम्प्रदायों का प्रेम सराहनीय श्रादरणीय एवं स्तुत्य था। जिस किसी भी स्थान पर आपस में एक दूसरे का समागम होता वहां पार्श्वनाथ संतानिये वीरसंतानियों का श्रादर, सत्कार एवं विनय व्यवहार करते थे और वीरसंतानिये पार्श्वनाथ सन्तानियों को सम्मान वंदनादि शास्त्रीय व्यवहारों से अादर करते थे। कारण एकतो पार्श्वनाथ संतानिये परम्परानुसार वीर संतानियों से वृद्ध थे दूसरा वे चारों और भ्रमन कर नये जैनों को बनाकर जैन संख्या में वृद्धि करने में अग्रसर थे अतः पाव सन्तानियों का वीर सन्तानिये २ बहुत ही सत्कार वगैरह करते थे। उदा. हरणार्थ उत्तराध्ययनजी के तेवीसवें अध्ययन में वर्णित है--कि श्रीगौतमस्वामी श्रीकेशीश्रमण को बड़ा जानकर बंदन करने के लिये केशीश्रमण के उद्यान में गये और श्रीकेशीश्रमण भी श्रीगौतमस्वामी का स्वागत करने के लिये सम्मुख गये यह प्रवृत्ति भगवान महावीर के समय से अक्षुण रूप से चली आ रही थी प्रसङ्गोपात यह लिख देना भी अनुपयुक्त न होगा कि-हमारे चारित्र नायक आचार्य कक्कसूरिजी के समय ही क्या पर आज पर्यन्त के इतिहास में हम देखते आये हैं कि हमें एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है कि किसी भी स्थान पर किसी भी समय में पार्श्वसंतानियों एवं वीर संतानियों के परस्पर मतभेद खड़ा हुआ हो जैसे कि श्वेताम्बर, दिगम्बर तथा अन्यगच्छों के आपस में हुआ था । उस समय के लिये यह बात भी नहीं कही जासकती है कि-उपकेशगच्छ में साधु साध्वियों की संख्या कम थी । विक्रम की तैरहवीं चौदहवीं शताब्दी तक तो इस गग्छ के हजारों साधुसाध्वी विद्यमान थे । उदाहरणार्थ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में केवल एक सिंध प्रान्त में ही उपकेशगच्छ के ५०० मंदिर थे । चौदहवीं शताब्दी में गुरुचक्रवर्ती प्राचार्यश्रीसिद्धसूरि के अध्यक्षत्त्व में शाह देसल व शाह समरसिंह ने, अलाउद्दीन से उच्छेद किये हुए श्रीशत्रुक्षय तीर्थ का उद्धार करवाकर श्राचार्यश्री सिद्धसूरिजी के कर कमलों से प्रतिष्टा करवाई थी। उस समय अन्य गच्छों के अनेक आचार्य भी वहां उपस्थित थे । पन्द्रहवीं शताब्दी में पाटण में उपकेशगच्छीयाचार्य देवगुप्रसूरि के अध्यक्षस्व में जो श्रमण सभा हुई उसमें ३००० साधुसाध्वी विद्यमान थे । इससे सिद्ध होता है कि भस्मगृह की विद्यमानता में भी उपकेशगच्छ के प्राचार्यों की उदय उदय पूजा होती थी। उपकेशगच्छीय श्राचार्यों का तो जैन समाज पर अवर्णनीय उपकार है। आप महापुरुषों ने तो दारुण परिषहों का विजयी सुभट की भांति सामना कर लाखों नहीं पर करोड़ों अजैनों को जैन बनाये । पर दुःख है कि कइ मत्तधारियों ने आपस में अलग २ गच्छ, मत, पन्थ सम्प्रदाय को स्थापित कर सुसंगठित शक्ति का एक दम हास कर दिया । इस विषय के स्पष्टी करण की आवश्यकता नहीं यह तो सर्वप्रत्यक्ष ही है । गृहस्थ लोगों में व्यवहार है कि बड़े ही परिश्रम पूर्वक अपने हाथों से कमाये हुए द्रव्य में से किञ्चित भी व्यर्थ चला जाय तो बहुत दुःख होता है परन्तु दूसरे का धन यों ही चला जाता हो तो उन्हें परवाह ही नहीं रहती यही हाल हमारे मतधारियों का हुआ । बिना ही परिश्रम किये उनके हाथ महाजन संघ लग गया पाश्वंसंतानियों व वीर संतानिये १०७९ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६६०-६८.] [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास फिर आपसी फूट, कुसम्प एवं कदाग्रह से इसका कितना ही हस हो तो उनको दुःख ही क्या ? यदि उन्हें इस विषय का दुःख होता तो नये२ मत्त पन्थ निकाल कर संघ में फूट डाल आपस में कलह से शासन की लघुता नहीं करते और पार्श्वनाथ सन्तानियों की तरह चारों ओर विहार कर विद्यमान जैनों की रक्षा एवं अजैनों को जैन बनाने का श्रेय सम्पादन करते । खैर ! पसङ्गोपात सम्बन्ध श्रागया जिससे निरङ्कुश कलम काधू में न रह सकी । श्रतः दुःखित श्रात्मासे थोड़ी आवाज निकल ही गई । अतः आपसी प्रेम में जब तक प्राधिक्य रहा तब तक जैन शासन की गति अविच्छिन्न रूप से चली आई । जैन समाज में सर्वत्र आनंद एवं सुख का साम्राज्य था । अस्तु, अनेकानेक प्रान्तों में घूमते हुए और अपने शिष्य समुदाय को प्रोत्साहित कर धर्म प्रचार के कार्य में आगे बढ़ते हुए कालान्तर में आचार्यश्रीकक्कसूरिजी म. क्रमशः उपकेशपुर में पधार गये । दुर्देवचशात श्राप के शरीर में अकस्मात असह्य वेदना का प्रादुर्भाव हुआ। आपश्री के मुख से ही अचानक निकल गया कि-मैं इस उग्र वेदना से बच नहीं सकूगा । बस यह सुनते ही सर्वत्र उदासीनता का वातावरण पैदा हो गया पर कर्मों की गति की विचित्रता के सामने किसकी क्या चल सकती थी ? अतः आचार्यश्री के आदेशानुसार चारेलिया जाति के शा० भेरा के महोत्सव पूर्वक पट्ट योग्य मुनि विमल प्रभ को सूरि पद अर्पण कर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया । आचार्यश्रीकक्कसूरिजी भी ७ दिन के अनशन के साथ समाधि पूर्वक स्वर्गधाम पधार गये। भापश्री के द्वारा किये हुए शासन के कार्यों का अब कुछ दिग्दर्शन करा दिया जाता है: श्राचार्य देव के २० वर्ष के शासन में मुमुक्षुत्रों की दीक्षाए १-शाकम्मरी के कनोजिया गौत्रीय रावल ने दीक्षाली २-मेदनीपुर , अदित्य० , वाला ने , ३-हंसावली , श्रेष्टि , मेघा ने , ४-मुग्धपुर , सुचंति भीमा ने ५-खटकुम्प , श्री श्रीमाल गोखाने ६-शंखपुर , चरद फूश्रा ने ७-हर्षपुर , लुंग ८-आनंदपुर , दूधड़ देदा ने ९-निंबली , बप्पनण १०-सत्यपुरी , भाद्र तीला ने ११-विजापुर , कुम्मट जोगा ने १२-मादडी , भूरि १३-हथुड़ी , मोरख ऊहड ने १४-कोरंटपुर , चोरडिया रोडा ने १५-नारदपुरी , बोहरा आइदान ने १०८० सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएं पेथा ने थेरू ने चाहड ने Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ] १६ - चन्द्रावती १७ - शिवपुरी १८ - सोनारी १९- क्षत्रीपुर २० -- धोलपुर २१ -- अर्जुनपुरी २२ -- रत्नपुरा २३ - भुजपुर २४ -करणावती २५- मालपुर २६--- धीरपुर २७ - रेणुकोट २८-मारोट " १ ---चंदेरी २ -- बुचाणी ३ - देवपट्टन ४ - पुरणो ५ - कीराट कूंप ६-अरइट 29 "" 93 "" "" 23 "9 " 33 ब्राह्मण क्षत्रिय बलाहा वंश श्रेष्ठि २९ --कराटकुंप श्रीमाल "" "" "" प्राग्वट प्राग्वट प्राग्वट प्राग्वट प्राग्वट श्रीमाल श्रीमाल श्रीमाल श्रीमाल 39 के श्रेष्टि के बप्पनाग के बाबलिया के चरद के मोरख के सुचंति के बोहरा के तप्तभट ७ -- श्रासलपुर ८-उन्न नगर ९- कालेजड़ा १० - डोकर ११ - सुसाटी १२ - गोलुगाव के गुदिया १३ - जाबलीपुर के चौधरी १४ टाकांणी के भूरि १५ - ढेढियाप्राम के भाद्र १६ - दान्तिपुर १७ - वायर के वलाह के प्राग्वट के कुम्मट के कामदार के लघुष्ट सूरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाए ," " 13 " "" "" "" 39 "" 97 "1 33 "" "" गौत्रीय रामा ने देवलने हीराने 19 "" " खुमाण अजने 99 " 19 "" "1 श्राचार्य श्री के २० वर्षों के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं 13 " " गोमा ने गणपत ने हंसा ने संगरण ने रावण ने यशोदित्य ने धोकलाने पेथा ने रोड़ा सादाने 22 " दादाने चाडा ने सदासुख ने जैता ने रामा ने काला ने वरदा ने 39 "9 19 गोसलने श्रासलने " मुरारने भाखरने "2 जैसींगने दुर्गा कालाने पर्वत [ ओसवाल सं० १०६०-१०८० दीक्षाली भीमाने "} "" "" " " ,, 39 " 99 "" " "" भ० महावीर मन्दिर की प्र० 37 "" " "" 17 "" ") "1 "" "" " महावीर "" 19 19 "" 95 "" "" 19 पार्श्वनाथ 30 "" "" 19 आदिनाथ 13 39 अजिनाथ नेमिनाथ शान्तिनाथ पार्श्वनाथ 19 29 99 19 "" "1 21 29 11 "" " 19 "" 19 11 32 १०८१ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६६० से ६८० ] १८ - घंघोलिया १९ - नाहूली २०- नाणापुर के केसरिया के चोरड़िया २१ – बड़नेर २२ -- आसलपुर के गान्धी २३ - जेतलवाड़ा के मोरख २४ - श्रानन्दपुर के चिंचट २५- पाल्हिका के प्राग्वद २६ - पाटडी २७ - चन्द्रावती २८ - रत्नपुर २९- खोखर १- विजयपट्टन २ - वर्द्धननगर ३ - विक्रमपुर ४ -- सत्यपुर ५- सोनाली ६ - सारंगपुर ७ - चन्द्रावती ८- भिन्नमाल ९- मेर १० - विराट्पुर ११ - अर्जुनपुरी १२ - - नाकुली डु के पल्लीवाल १३ - मेदनीपुर १४ – बुरडी १५-- नागापुर १६- राजपुर १७- योगनीपुर १८ - गोपगिरी १९ - थंभोर १०८२ के प्राग्वट के प्राग्वट के प्राग्वट के श्रीमाल " "3 "" "" "" "" "" "" 99 "" 33 "" "" "" "" "" "" "" तप्तभट्ट श्रेष्टि 31 कुमट चिंचट "" वागडिया पोकरणा "" "" "" "" 33 "" 39 "" 39 19 [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास. श्रमराने भ० पार्श्वनाथ नदिर की प्र० वागा अर्जुन पनाने कचराने लुढ़ाने कानडाने थेरुने कुलधर ते महराने सूरीश्वरजी के २० वर्ष का शासन में संघादि शुभ कार्य बप्पनाग गौत्रीय भंड जय पद्मने पर्वत चाहडने नेतसीने कल्हण ने सोढ़ाने सालगने देवाने जैतसीने पारसने चाडाने बीरहट बंदोलिया श्री श्रीमाल श्रीमाल प्राग्वट चोरडिया गोलेच्छा प्राग्वट प्राग्वट बलाह- रांका वीरहट कुलइट पुनडाने सांगाने " 33 "" " "" 55 23 99 "" "2 27 33 "3 "2 "" "" "" 27 "" "" "1 " 93 "" "" "" 11 " "" 22 महावीर 35 95 99 "3 धर्मनाथ मल्लिनाथ विमलनाथ महावीर पार्श्वनाथ लाखणने भारमलने वोरीदासने जिनदासने कालाने पासाने नाराने 99 "" " 95 37 11 "" "3 "" "" "" "" "" "" " " "" "" 91 19 "" " सम्मेत शिखर का संघ जय का संघ 39 39 29 ;9 का संघ 23 55 19 "" "" " " " "" " 23 "9 19 "" 19 सूरीश्वरजी के शासन में संपादि Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०६०-१०८० १ कोइ भाइ यह खयाल न करे कि २० वर्षों के शासन में १९ वार तीर्थों के संघ निकलवाये तो क्या यही काम किया करते थे ? नहीं यह संघों की संख्या केवल आचार्यश्री के नायकत्व की नहीं पर आपके शासन समय में उपाध्यायजी पंण्डित वाचनाचार्य एवं मुनियों ने भी संघ निकलवा कर यात्रा की उनकी संख्या भी शामिल है यह इनके लिये ही नही पर सर्वत्र समझ लेना चाहिए । कितनेक जैनशास्त्रों एवं इतिहास के अनभिज्ञ लोग जनता में मिथ्या भ्रमना फैला देते है कि-जैन धर्मावलम्बी लोग तलाव कुवे बनाने में पाप बतला कर मनाई करते हैं अतः जैन तलाबादि नहीं बनाते हैं इस पर ज्ञाता सूत्र के अन्दर आया हुआ नन्दन मिनीयार का उदाहरण भी देते हैं कि जिसने तलाव कुत्रे एवं बगेचा बनाने से देड़का (मीडक) हुआ था। इत्यादि । पर यह बात ऐसी नहीं है जैन गृहस्थों के लिये जनोपयोगी कार्य करने की न तो मनाई है और न ऐसे जनोपयोगी कार्यों में एकान्त पाप ही बतलाया है हाँ कोई भ्यक्ति इन कार्यों के लिये मुनियों से आदेश लेना चाहे तो वे आदेश के समय मौन रखे पर निषेध एवं मनाई तो मुनि भी नहीं कर सके । इससे पाठक समझ सकते हैं, कि तलावादि कार्य एकान्त पाप के ही कार्य होते तो मुनि निषेध अवश्य कर सकते थे हाँ इस कार्य में जीवहिंसा होने से मुनि आदेश नहीं देते हैं पर जब मुनि नौ प्रकार के पुण्य का उपदेश करते हैं तब अन्न देने से पुन्य, पाणी पीलाने से पुन्य इत्यादि कह सकते हैं तथा आवश्यक निर्युति में आचार्य भद्रबाहु ने मन्दिर बनाने वाले के लिए कुंवा का दृष्टान्त दिया है जैसे कुवां खोदने वाला का शरीर मिट्टी से लिप्त होजाता है पर जब कुवां खोदने पर पानी निकलता है तब वह मिट्टी वगैरह उसी पानी से साफ होजाती है और विशेषता यह कि वह कप का पानी जहां तक रहेगा वहां तक अनेक प्राणधारी जीव उस पानी को पीकर अपने तप्त हृद्य को शान्त किया करेंगे । इसी प्रकार मन्दिर बनाने में श्रारंभ सारंभ होता है, पर जब उस मन्दिर में देव मूर्ति की प्राण प्रतिष्टा होजाती है तब उस भावना से आरंभ सारंभ का सब मैला साफ होकर जब तक वह मन्दिर रहेगा तब तक अनेक संसारी जीव क्रोधादि से अपना तप्त हृदय को उत्तम भावना से शान्त कर सकेगा इस उदाहरण से पाठक ! समझ सकते हैं कि कुवा तलाव खुदाने में जो आरंभादि होता है पर अनेक तप्त हृदय वाले उसका पानी पी कर शान्ति भी प्राप्त कर सकेगा उसका पुन्य भी तो होगा। अब रही नमन मिनियार की बात इसके लिये शास्त्र में यह नहीं कहा है कि वह कुवादि बनाने से दंडक योनिको प्राप्त हुआ पर वहाँ तो स्पष्ट लिखा है कि उसने रात्रि समय आर्तध्यान में ही देडक योनिका आयुष्य बन्धा था यदि भारंभादि के कारण ही तलाव कुवां की मनाई की जाती हो तब तो पशुओं को घास पानी दुकाल में अन्नादि बहुत से कार्य ऐसे हैं कि जिसमें भी आरंभ होता है और मुनिजन ऐसे कार्यों का आदेश भी नहीं देते हैं फिर भी गृहस्थ लोग पुन्य होने की गर्ज से वे सव कार्य करते हैं और मुनिजन उसका निषेध भी नहीं करते हैं तब एक तलावादि के लिये ऐसा क्यों कहा जाता है कि जैन श्रावक तलाब कुवे नही खुदाते हैं ? यदि यह कहा जाय कि पन्द्रह कर्मादान में भूमि खुदाना भी कर्मादान है इस व्रत की रक्षा के लिये भावक तलाबादि नहीं खुदा सकते है ? यह भी अनभिज्ञता ही है कारण कर्मादान का अर्थ अपने स्वार्थ एवं आजीविका के निमित उक्त १५ प्रकार के व्यापार श्रावक नहीं कर सकते हैं पर अपने जरूरी काम की मनाई नहीं है जैसे श्रावक अपने रहने को मकान बनाता है उसमें भी दो दो तीन तीन गज नीवें खुदानी जैन कुवा तालाब बना सकते हैं ? १०८३ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६६०. ६८० ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पड़ती है तथा वाग वगेवा बनाते हैं उसके अन्दर कुवा होज वगैरह भी बनवाते हैं इससे उसको कर्मादान का व्रत अतिक्रमण नहीं होता हैं इतिहास से ज्ञात होता है कि पूर्व जमाना में बहुत से जैन उदार नर रत्नों ने असंख्य द्रव्य व्यय कर जन उपयोगी बहुत से कार्य एवं देश की सेवा कर यशः कमाया था पर श्राज उनकी संतान द्वारा उस पर पर्दा डाला जाता है इससे बड़ कर दुःख की बात ही क्या हो सकती है । हम जिस इतिहास को लिख रहे है इसके अन्दर बहुत जैन उदार गृहस्थों के जरिये तलाव कुवा बावडियों बनाने का एवं दुष्कालादि श्रापत्त के समय असंख्य द्रव्य व्यय कर मनुष्यों कों अन्न और पशुओं को घास पानी प्रदान कर उनके प्राण बचाये एवं अपनी उदारता का परिचय दिया । यही कारण है कि उस समय के राजा महाराजा तथा नागरिकों ने उन परमोपकारी महाजनों को जगत्सेठ नगरसेठ टीकायत, चोवटिया, शाह, पंचादि पदवियों प्रदान की गई थी जो वर्तमान में भी उनकी सन्तान के साथ मौजूद हैं वंशावलियों में उल्लेख मिलता है कि १ - नागपुर में श्रेष्टि गुणाढ़ की पत्नी ने एक कुवा बनाया २- खटकूप में श्री श्रीमल देवा ने एक पग वापि बनाई ३ - किराटकूप में देसरडा काना की विधवा पुत्री ने एक तलाब बनाया ४ - गागोली में बलाह- शंका माना की पत्नी सेणी ने तलाब बनाया ५ - राजपुर में जैन ब्राह्मण शंकर ने एक लक्ष द्रव्य व्यय कर एक बावड़ी बनाई ६ - चन्द्रावती का प्राग्वट नेनों युद्ध में काम श्राया उसकी स्त्री सति हुइ ( छत्री ) ७ - शिवपुरो का श्रेष्टि देहल ८ - उपकेशपुर का भाद्र० सारंग," ९ - नागपुर का अदित्य० कुम्मो, १० -- क्षत्रीपुर का राव भैरो १०८४ 33 33 99 33 " "" करुणा सागर ककसूरिजी, नौ वाड़ करते भूप चरण की सेवा, अनेक विद्याओं से थे वे भूषित, देव सेव 99 "" वे "" "" "" 17 " "" 33 "1 शुद्ध ब्रह्मचारी थे । जैन धर्म प्रचारी थे | "" 27 नित्य करते थे हितकारी थे सकल संघ को, वे आज्ञा शिर पर धरते थे | इति भगवान् पार्श्वनाथ के उनचालीस वे पटधर ककसूरिजी महा प्रभाविक श्राचार्य हुए 1 सूरीश्वरजी के शासन में शुभ कार्य Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाय देवगुप्तसूरि का जीवन] [ ओसवाल सं० १०८० से ११२४ ४० प्राचार्यश्री देवगुप्त सूरि (अष्टम् ) धर्माचारविचारकः कुलहटे श्रीदेवगुप्तो व्रती वादिव्रातपराजयस्य करणे यःकोऽपि कोपेऽभवत् । तस्यैवायमिहे हितः सुदमने माने मदे नो रतः जाति स्वां शिथिला समीक्ष्य विदधे भव्यां तदीयोनतिम् ।। errery रमपूज्य आचार्यश्री देवगुप्त सूरीश्वरजी म. बाल ब्रह्मचारी, प्रखर विद्वान , महान तपस्वी, कर्तव्यनिष्ठ, कार्यकुशल, मध्यान्ह के सूर्य के समान मिथ्यात्वान्धकारको विध्वंस करने में LPG समर्थ, धर्म प्रचारक, युगप्रवर्तक श्राचार्य हुए। श्राप मरुभूमि के चमकते सितारे थे । उस विकट समय में भी जैनधर्म को यथावत् सुरक्षित रख, अनेकानेक अचिन्तनीय उपायों के प्रयत्नों से अनेक कठिनाईयों, परिषहों को सहन कर शासन की उत्कृष्ट मान मर्यादा बढ़ाने का अक्षय यशः एवं अदम्य उत्साह श्राप जैसे उत्कृष्ट क्रिया पालक आचार्य देव को ही प्राप्त था। इस विषय में श्राप श्री का व आपके पूर्वाचार्यों का जितना उपकार मानें उतना ही कम है। हम किसी भी प्रकार से आपके ऋण से उऋण नहीं हो सकते । आपश्री का जीवन शान्ति, क्षमा, परोपकार श्रादि गुणों से श्रोत प्रोत था। प्राचीनप्रन्थों, वंशावलियों, पट्टावलियों तथा गुरु परम्परा से सुनते हुए संग्रह करने वाले संग्रहकर्ताओं के द्वारा निर्मित एतद्विषयक प्रन्थों से आपश्री के जीवन का जो कुछ यत्किञ्चित् श्राभास मिलता है उसी को पाठकों के कल्याणार्थ यहां लिख दिया जाता है। मरुधरभूमि के वक्षस्थल पर अतीव रमणीय, प्राकार परियुक्त, धनधान्य सम्पन्न, नानातरुलतो. पवनवाटिका सर कूप परिशोभित, नभस्पर्शी, श्वेत वर्ण वर्णित धवल क्रांति संयुक्त जिनप्रासाद श्रेणि से कमनीय, चित्ताकर्षक, व्यापारिक केन्द्र स्थान रूप मरुभूमि भूषण नारदपुरी नामक अवर्णनीय शोभा समन्धित नगरी थी। परम्परागत चली आई कथाओं से ज्ञात होता है कि इस नगरी को महर्षि नारदजी ने बसाई थी अतः इससे तो इस नगरी की प्राचीनता एवं सुंदरता और भी अधिक अभिवृद्धि को प्राप्त होती है । सम्राट् सम्प्रति ने भगवान पद्मप्रभस्वामी का जिनालय बनवाकर तो इस नगरी की शोभा में और भी वृद्धि कर दी। इस नगरी को अनेक महापुरुषों को पैदा करने का परम यशः सौभाग्य प्राप्त होचुका है यह पिछले प्रकरणों को मनन पूर्वक पढ़ने से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। इन्हीं नरपुंगव नररत्नों ने जैनधर्म की जो अमूल्य सेवाएं की हैं वे इतिहासज्ञ मनीषियों से प्रच्छन्न नहीं है । जैन इतिहास में इन महापुरुषों के शासनोन्नति विषयक विशेष कार्य स्वर्णाक्षरों में अङ्कित करने योग्य हैं । "रत्नों की खान से रत्न ही निकलते हैं “इस लोक्त्य. नुसार उपकेशवंश सुचन्ति गौत्रीय, धनजन सम्पन्न, ऋद्धि समृद्धि समन्वित, क्रय विक्रय आदि वाणिज्य कला दक्ष बीजा नामके महर्द्धिवन्त श्रेष्ठिवर्य रहते थे। श्रापकी धर्मपरायणा, परमसुशीला, गृहिणी का नाम वरजू नारदपुरी का नर रत्न पुनड़ १०८५ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८०-७२४] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहा था । यों तो माता वरजू ने छ पुत्र और सात पुत्रियों को जन्म देकर अपने जीवन को कृतकृत्य बनाया था पर उन सब सन्ततियों में एक पुनड़ नामका लड़का अत्यन्त भाग्यशाली वर्चस्वी तेजस्वी, एवं होनहार था। उसकी जन्म पत्रिका एवं जन्म नक्षत्र मुख व तेज, बाल्यकालजन्य स्वाभाविक चपलता, धर्म कार्यकुशलता, धर्मानुराग उसके भावी जीवन के अभ्युदय का सूचन करते हुए हर एक दर्शक को एक बार उस की ओर चुम्बक की तरह आकर्षित कर रहे थे पुनड़ की भाग्य रेखा रह रह कर यह याद करवा रही थी कि--पुनड़, निकट भविष्य में ही अपने युग का अनन्य महापुरुष होगा । संसार में अपने जीवन के साथ ही साथ अन्य अनेक प्राणियों की आत्मा का उद्धार करने वाला, अपने कुल एवं माता पिता के नाम को उज्वल कर नारदपुरी का ही नहीं प्रत्युत् मरुभूमि मात्र का मान बढ़ाने वाला होगा। "होनहार विखान के होत चिकने पात" की कहावत के अनुसार पुनड़ के प्रत्येक कार्य चमत्कार पूर्ण, अश्चर्योत्पादक, आनंद प्रदायक होने लगे। क्रमशः पुनड़ जब आठ वर्ष का हुआ तब विद्योपार्जन करने के लिये उसे स्कूल में प्रविष्ट किया गया । पूर्व जन्म की ज्ञानागधना की प्रबलता से पुनड़ अपने सहपाठियों से पढ़ने में कितने ही कदम आगे रहता था । परिणाम स्वरूप उसने बारह वर्ष की अल्पवय में ही व्यवहारिक, व्यापारिक एवं धार्मिक ज्ञान सम्पादित कर लिया। बाद पुनड़ व्यापार क्षेत्र में प्रवेश होने लगा और अपने पिता के बोझ को हलका कर दिया अब तो पुनद की शादी के लिये भी रह रह कर प्रस्ताव आने लगे पर पुनड़ की वय १६ वर्ष की ही थी अतः इतनी अल्पवय में विवाह करना शा. बीजा को उचित नहीं ज्ञात हुआ। शा. बीजा का निश्चय अनुसार तो पुनड़ की बीस वर्ष की परिपक्व वय में पाणि पीडनादि गाह-जीवन सम्बन्धी भार उसके सिर पर डालने का था पर माता वरजू को इतना विलम्ब कैसे सह्य हो सकता ? स्त्रियां स्वाभाविक ही अधीर एवं किसी भी कार्य को जल्दी करने के दुराग्रह वाली होती हैं अतः वह प्रतिदिन अपने पतिदेव को इस विषय में कोसती । पुनड़ के विवाह को जल्दी करने के लिये प्रेरित करती किन्तु गम्भीर हृदय के स्वामी शा. बीजा हां, ना में समय व्यतीत करते ही जाते । उनको अपने पुत्र के भविष्य का पूर्ण ध्यान था अतः प्रकृतिसिद्ध स्त्रियों की चपलता. नुसार एकदम गृहस्थाश्रम का भार बालक को सोंप देना उचित नहीं ज्ञात हुआ । इधर तो पति पत्नी पुनड़ के विवाह के सुख स्वप्न देख रहे थे और उधर पुनड़ अपना विलक्षण ही मनोरथ कर रहा था । इतनी विवाह सम्बन्धी हलचल होने पर भी उसने शिशु जन्य चाञ्चल्य गुण से अपनी मनो भावनाओं को अभी से प्रद शित कर माता पिता के भविष्य के इरादों को निर्मूल कर संतापित करना उचित नहीं समझा इस तरह करीब दो वर्ष व्यतीत हो गये। एक समय धर्म प्राण, श्रद्धेय, पूज्याचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज का शुभागमन नारदपुरी की ओर हो रहा था । जब नारदपुरी के श्रीसंघ को प्राचार्यदेव के पदार्पण के शुभ समाचार ज्ञात हुए तो हर्ष के मारे उन लोगों के रोम रोम फूल उठे। धर्मानुराग की सुखमय भावनाएं उनके हृदय में नवीन कौतुहल का प्रादु. र्भाव करने लगी । गुरु आगमन की खुशी में उन लोगों का हृदय सागर धर्म भावना की उर्मियों से ओत प्रोत हो गया । क्रमशः सूरीश्वरजी के पधारते ही श्रेष्टि-गोत्रीय शा. देवल ने एक लक्ष द्रव्य व्यय कर आचार्य देव के नगर प्रवेश का शानदार महोत्सव किया । सूरिजी ने नगर प्रवेश करते ही मंदिरों के दर्शन किये और उपाश्रय में आकर श्रागत जन मण्डली को थोड़ी सी धर्म देशना दी। आचार्यश्री की देशना श्रवण कर १०८६ सूरीश्वरजी का शुभागमन Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०८०-११२४ श्रोताओं ने अपना अहोभाग्य समझा । इस तरह सूरिजी का व्याख्यान हमेशा ही होने लगा । आचार्य देव की विचित्र एवं सरस व्याख्यान शैली से चुम्बक की तरह आकर्षित हो क्या जैन और क्या जैनेतर ? क्या राजा क्या प्रजा ? व्याख्यान में स्त्री पुरुषों का ठाठ रहने लगा सूरिजी साहित्य, दर्शन, न्याय, योग आदि अनेक शास्त्रों के अनन्य विद्वान थे अतः कभी दार्शनिक, कभी तात्विक, कभी योग, आसन समाधिस्वरोदय तो कभी आचार व्यवहार कभी साधुत्व जीवन का तो भी गृहस्थाश्रम के आचार विचारों का इस तरह भिन्न २ विषयों का व्याख्यान दिया करते थे । इन सभी विषयों का विवेचन करते हुए 'त्याग, वैराग्य एवं आत्म कल्याण के विषयों का प्रतिपादन करना नहीं भूलते । इन सभी तात्विक, दार्शनिक विवेचनों में वैराग्य की भावनाएं अोतप्रोत रहती थी; कारण उस समय के महात्माओं का जीवन ही दृढ़ वैराग्य मय होता था । अतः श्रापश्री के व्याख्यान पुष्पों की जनानंद कारी सौरभ, जन मण्डली की प्रशंसा वायु से शहर की इस छोर से उस छोर तक विस्तृत होगई थी । आचार्य देव की देशना सौरभ से प्रभावित हो मधुकर की भौति श्रोतावर्ग अपने आप ही सुवास को प्रहण करने के लिये सूरिजी के व्याख्यान का लाभ लेता । क्योंकि यस्य येच गुणाः सन्ति विक सन्त्येव ते स्वयम् । नहि कस्तूरिकामोहः शयथेन निवायते । अस्तु, जन समाज, विशाल संख्या में आचार्यदेव के व्याख्यान को श्रवण कर अपने आपको कृत कृत्य बना रहा था । एक दिन सूरिजी ने खासकर त्याग वैराग्य के विषय का विशद विवेचन करते हुए मानव जीवन की महत्ता एवं प्राप्त अलभ्य मानव देह से धर्माराधन नहीं करने वाले मनुष्यों के मानव जीवन की निरर्थकता का दिग्दर्शन कराते हुए मानव मण्डली को उपदेश दिया कि जो मनुष्य सुर दुर्लभ मानव देह को प्राप्त करके किञ्चत् भी धर्म साधन नहीं करते वे मानों इच्छापूरक कल्पवृक्ष को काट कर धतूरे का वृक्ष बो रहे हैं । एरावत हाथी को बेच कर रासम (गर्दिभ) की खरीदी कर रहे हैं। चिन्तामणि रत्न को फेंक कर कंकरों को जोड़ रहे हैं । कारण मोक्ष रूप लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये भी एक मात्र कर्म भूमि में प्राप्त मानव देह ही समर्थ हैं। धर्म नहीं करने वाले को मनुष्य गति में भी अनेक दुःखों का अनुभव करना पड़ता है-१-माता की कुक्षि में जन्म लेना और उंधा लटकना, संकुचित स्थान में रहना, माता का मल मूत्र शरीर पर से बहना, प्रसूत समय की महावेदना, बाल्यावस्था के अनेक कष्ट, यौवनावस्था जन्य विषय तृष्णा का प्रादुर्भाव होना, उसकी पूर्ति के लिये सैकड़ों कष्टों को सहन कर द्रव्योपार्जन करना और वृद्धावस्था में व्याधियों का घर बन जाना शारीरिक शक्तियों का ह्रास होना, इन्द्रियों की निर्बलता, कुटुम्ब की ओर से अनादर, मृत्यु के समय असह्म अनंत वेदना का अनुभव करने रूप दुःख मय जीवन को व्यतीत करने के पश्चात् पुनः मनुष्य का जन्म मिलना कितना दुर्लभ है ? अतः यकायक प्राप्त हुए अवसर का सदुपयोग करना ही बुद्धिमता है । मनुष्य भव की प्राप्ति के लिये निम्न कारणों की खास आवश्यकता है स्थाहि-प्रकृति का भद्रिकपना, प्रकृति की नम्रता। अमात्सर्य और दया के विशिष्ट परिणामादि अनेक आवश्यक उपादान और निमित कारणों के एकी करण होने के पश्चात् ही हमें कहीं मानव देह की प्राप्ति होना सम्भव है । अतः महानुभावों! अपने हृदय पर हाथ रख कर आप ही सोचें कि उक्त मनुष्य भव योग्य सामग्री के लिये आवश्यक गुणों में से सम्प्रति, आपके पास कितने गुण वर्तमान हैं कि जिससे पुनः मनुष्य भव प्राप्त करने की आशा रक्खी जाय । महानुभावों ! यह अलभ्य मानव योनि बहुत ही कठिनाइयों से प्राप्त हुई है । इसके द्वारा मोक्षाराधना सूरीश्वरजी का व्याख्यान १०८७ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८५-७२४] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहा mmun waman minimuantumu.se की जा सकती है। मानव देह के सिवाय अन्य देव, नरक, तिर्यञ्च आदि गतियों में मोक्ष भव याग्य धर्म सा. धन नहीं किया जा सकता है । पर इसकी अमूल्यता को सोचे बिना कितने ही अज्ञानी जीव अज्ञानता वश इसे व्यर्थ में खोते हुए, संसारिक पौद्गलिक भोगों में लुब्ध हो इसमें अपने को भाग्यशाली समझते हैं पर, वे ये नहीं सोचते हैं कि सोने की थाल में मिट्टी भर कर सोने की थाल का मूल्य कम कर रहे हैं, उसका नितान्त दुरुपयोग कर रहे हैं । असाध्य अमृत रस से पैरों को धोकर मूर्खता का परिचय दे रहे हैं। हाथी जैसी उत्तम सवारी पर लकड़े का भार डाल कर जनहित कार्य कर रहे हैं। चिन्तामणि रत्न को कंकर की तरह फेंक रहे हैं। उन मनुष्यों की इससे अधिक और अज्ञानता हो ही क्या सकती है ? इस प्रकार भोग विलास एवं प्रमाद में मनुष्य भवको खोदेना कहां तक युक्तियुक्त है । देखिये मनुष्य जन्म की दुर्लभता के लिये शास्त्रकारों ने एक उदाहरण भी दिया है कि बसन्तपुर में राजा अजितशत्रु राज्य कर रहा था। उसके एक शत्रुबल नामक पुत्र था। पिता की मौजदगी में ही राज्य प्राप्त करने की गर्हित अभिलाषा ने उसके मन में जन्म लिया। उसने निश्चय कर लिया कि जब तक पिताजी मौजूद हैं तब तक मुझे राज्य मिलना असम्भव नहीं तो दुष्कर ता अवश्य ही है अतः राज्य पिपासा की बढ़ती हुई कुत्सित इच्छाने उसके हृदय में अपने पिता को मार कर राज्य गादी पर श्रासीन होने की नवीन जननिन्दित अनादरणीय भावना को जन्म दिया । वह अपने पिता-राजा को मारने के लिये विद्र थावत् अवसर को देखता हुआ विचरने लगा। पर पाप छिपाया ना छिपे, छिपे तो मोटो भाग, दाबी दूबी ना रहे, रुई लपेटी आग के अनुसार राजा को गुप्ता चरों के द्वारा पुत्र की कुत्सित इच्छा की जानकारी होगई। बस उसने तुरत अपने अनुभवी वृद्ध अमात्य को बुलाकर पुत्र की आन्तरिक इच्छा को बतलाते हुए अपने हृदय के उद्: गार प्रगट किये कि-मैं पुत्र को राज्य देना नहीं चाहता हूँ ओर अपने जीवन वपुत्र को भी एक दम सुरक्षित रखना चाहता हूँ अतः इस विषय में आप अपनी अगाध बुद्धि से ऐसा सफल उपाय सोंचें कि मेरी अभीष्ट सिद्धि हो सके । मंत्री ने कहा-आप कल एक सार्वजनिक सभा करे और सब के समक्ष यह कहें कि-मैं अब जरा जर्जरित (वृद्ध) होगया हूँ । मैं मेरा राज्य कार्य अपने पुत्र को देकर निवृत्ति पाना चाहता हूँ अतः इस विषय का कोई उचित विधि विधान किया जाय । बस आपके द्वारा इतना कहने पर ऐसा विधान बतलाऊगा आप का राज्य भी आपके हाथ ही में रहेगा और जीवन रक्षण में भी किसी तरह के खतरे विधन की सम्भापना भी न होगी। राजा ने मंत्री के कथनानुसार नगर भर में घोषण करवा दी कि मैं मेरा राज्य पुत्र को देना चाहता हूँ । अतः कल की सभा में सभी नागरिक उचित समय पर सभा स्थान में हाजिर हो जावें। जब-पुत्र राजकुमार ने यह समाचार सुना तो उसको अपने किये हुए विचारों के लिये बहुत ही पश्चाताप होने लगा। वह सोचने लगा कि-अहो ! मेरा पिताश्रीजी तो राज्य का मोहत्याग कर मुझे राज्य देना चाहते हैं और मैं ऐसे कुल कलंक निपजा कि पिता जैसे पूजनीय पिता की विनय भक्ति करने के बदले हनन करने का विचार किया। दूसरे दिन सभा हुई जिसमें नागरिक, ब्राह्मण, मुत्सद्दी, राजकुमार, मन्त्री वगैरह सब लोग एकत्रित हुए । राजा ने उपस्थित प्रजा के सामने कहा कि - मेरी वृद्धावस्था है अतः मैं मेरे पद पर पुत्र को नियुक्त १०८८ मनुष्य जन्म की दुर्लभता Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०८०-११२४ कर निवृत्ति पाना चाहता हूँ पर इसका विधिविधान शास्त्रानुकुल हो कि जिससे भविष्य में राज्य में सब प्रकार से सुख शांति वर्तती रहे। परिश्तों एवं ब्राह्मणों ने कहा-देव ! राजा के स्वर्गवास के बाद तो पुत्र को राज्य देने की विधि हमारे शास्त्रों में है किन्तु जीवित राजा अपने पुत्र को राज्य दे, इसकी विधि न तो हमारे शास्त्रों में है और न हम जानते ही हैं । इस पर राजा ने वृद्ध मंत्री के सामने देखा कर कहा --- मंत्री जी! आप तो वृद्ध एवं अनुभवी हैं अतः आपकी दृष्टि में जो योग्य विधि हो, वह बतलाइये । मन्त्री ने कहा-राजन् ! मैंने मेरे पूर्वजों से सुना है कि १०८ स्तम्भ का महल बनाया जावे और एक २ स्तम्भ के १०८ पहलु हो और एक २ स्तम्भ के पास राजा और राजकुमार बैठ कर शत्तरंज खेले । स्मरण रहे कि-१०७ स्तम्भ के खेल में कुंवर जीत गया हो और एक खेल में भी राजा जीत जाय तो खेल पुनः प्रारम्भ कर दिया जावे । जब सब स्थानों पर कुंधर जीतता चला जाय तो उसी दिन कुंवर के राज तिलक कर दिया जाय । मंत्री की बुद्धिमत्ता पूर्ण यह विधि उपस्थित नागरिकों को पसंद आगई और सबकी सम्मति से राजा ने तुरत महल बनवाने का आदेश दिया। ___ श्रोतागण ! आप सोच सकते हैं कि इस विधि से क्या कुवर, राजा को कभी जीत सकता है ? कारण १०८ को १०८ से गुणा करने से ११६६४ की बाजी में क्या एक बार भी राजा न जीत सके ? यदि एक पार भी जीत जाय तो खेल पुनः प्रारम्भ हो जाय । अतः न तो ऐसा हो और न कुंवर को राज्य ही मिले फिर भी ऐसा होना तो कदाचित् देवयोग से सम्भव भी है पर हारा हुआ मनुष्य जन्म मिलना तो देवयोग से ही असम्भव है । अस्तु, दुर्लभता से मिले हुए मनुष्य भव को मोक्ष मार्ग की आराधना कर सफल बनाना पाहिये। सूरिजी के व्याख्यान का जनता पर खूब प्रभाव पड़ा पर पुनह पर तो न मालूम आचार्यश्री ने उपदेश रूपी जादू ही डाल दिया ! उसने व्याख्यानान्तर्गत ही निश्चय कर लिया कि मैं सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेकर मनुष्य भव को अवश्य सफल बनाऊंगा । हाथ में श्राये हुए स्वर्णावसर को खोकर पश्चाताप करना निरी अज्ञानता है। सांसारिक सर्व मोह जन्य अनुरागान्वित सम्बन्ध निकाचिंत कर्मों के बन्ध के कारण भत हैं अतः मोह में मोहित होकर आत्म स्वरूप का विचार नहीं करना बुद्धिमन्ता नहीं । इत्यादि विचारों के उत्कर्ष में प्राचार्यदेव का व्याख्यान भी भगवान महावीर स्वामी की जयध्वनि के साथ समाप्त हुआ । क्रमशः व्याख्यान से प्रागत मण्डली भी स्वस्थान गई। पुनड़ अपने घर पर गया और अपने माता पिताओं को स्पष्ट शब्दों में कहने लगा-मैं गुरूमहारान के पास में दीक्षित होकर श्रात्म कल्याण करूंगा-आप, आज्ञा प्रदान करें । पुनड़ की शादी का विचारमय स्वप्न देखने वाली माता पुनड़ के मुख से वैराग्य के और तत्काल की दीक्षा के शब्द कब सुन सकती थी ? वह तत्काल अचेतनावस्था को प्राप्त हुई जब जल हवा के उपचार पुनः से चैतन्यता को प्राप्त हुई। ____ जब जल व हवा के उपचार से चैतन्य दशा को प्राप्त हुई तो पुनड़ को अनुकूल व प्रतिकूल शब्दों से बहुत समझाने लगी परन्तु मातके सर्व प्रयत्न पानी में लकीर खेंचने के समान एक दम निष्फल हुए । पुनड़ के पिता ने पुनड़ को समझाने में कमी नहीं रक्खी किन्तु पुनड़ के वैराग्य का रंग कोई हल्दी के रंग के समान मास्थिर नहीं था कि धोते ही एक दम उतर जाय । उसके हृदय में सूरीश्वरजी का व्याख्यान अच्छी तरह आचार्यश्री का व्याख्यान Jain Education Inter३७jal Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०६८०-७२४ ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास navana रमण करवा रहा था। उसने तो अपने माता पिताओं को भी आचार्यदेवका सुना हुआ व्याख्यान पुनः सुनाना प्रारम्भ कर दिया। माता ने कहा पुनड़ ! तेरा व्याख्यान तेरे पास ही रहने दे । हमने तो बड़े २ आचार्यों का व्याख्यान सुना है । पुनड़ ने कहा-बहुत से प्राचार्यों का व्याख्यान सुना होगा यह सत्य है, किन्तु उन व्याख्यानों से लाभ क्या उठाया ? आप स्वयं मुक्त भोगी होने पर भी अात्म कल्याण करना नहीं चाहते हैं और जो दूसरा उसके लिये उद्यत होता है तो आप स्वयं उसके मार्ग में कंटक रूप-विन भत होजाते हैं। क्या दूसरे के निवृत्ति मार्ग में अन्तराय डालना ही आपके व्याख्यान श्रवण का सच्चा लाभ है ? इस तरह मां बेटे और पिता पुत्र में बहुत प्रश्नोत्तर होते रहे पर पुनड़ तो अपने निश्चय में सुमेरुवत अचल रहा। विवश, हो माता पिताओं को अाखिर दीक्षा की आज्ञा देनी पड़ी। शा. बीजा ने अपने पुत्र की दीक्षा का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया और आचार्यश्री ने भी शुभमुहूर्त और स्थिरलग्न में १६ नर नारियों के साथ पुनड़ को भगवती जैन दीक्षा देकर पुनड़ का नाम मुनि विमल प्रम रख दिया। विमल भ में नाम के अनुरूप ही गुण, तपस्तेज की अलौकिकता बुद्धि की कुशाग्रता, गम्भीरता, क्षमतादि गुण भी वर्तमान थे। मुनि विमलप्रभ पर प्राचार्यदेव की अनुग्रह पूर्ण कृपादृष्टि थी मुनि विमलप्रभ भी गुरुकुल वास में रह कर विनय, भक्ति, वैयावृत से सूरीश्वरजी को सदा संतुष्ट रखने वाला था। गुरु देव की विनय भक्ति पूर्वक वह आगमों का अध्ययन करने में संलग्न हो गया। मुनि विमलम तो पहले से ही योग्य व बुद्धिमान था ही किन्तु, गुरुकृपा ही ऐसी होती है कि----"पाहण ने पल्लव आणे” अर्थात्-पत्थर पर भी कमल पैदा कर देती है । मूर्ख शिरोमणि को पण्डिताधिराज बना देती है। अस्तु, इधर तो गुरुदेव की कृपा और इधर विनय पूर्ण व्यवहार की अधिकता से मुनि विमलप्पम को थोड़े हा समय में आगम मर्मज्ञ बना दिया। आगमों के विशिष्ट पाण्डित्य के साथ ही साथ व्याकरण, न्याय, काव्य, तर्क छंद, अलंकार, ज्योतिष, अष्टांग महानिमित्त आदि शास्त्रों की कुशलता - दक्षता को प्राप्त करने में भी किसी प्रकार की कसर नहीं रहने दी। मुनि विमलप्रभ ने अनवरत परिश्रम, कर वर्तमान साल शास्त्रों भाषाओं एवं विद्याओं में निर्मल श्राकाश में शोभायमान षोडश कला से परिपूर्ण कलानिधि के समान पूर्णता प्राप्त करली । १४ वर्ष के गुरुकुल वास में ही वह अनन्य अजोड़ विद्वान हो गया यही कारण है कि आचार्य का कसूरिजीने उपकेशपुर में मुनि विमलप्रभ को सूरि मंत्र की आराधना करवा कर अपने पट्टपर विभूषित किया। सूरि पद महोत्सव में डिडु गौ०शा० नारायण ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय किये । पश्चात् आपका नाम परम्परागत क्रमानुसार श्री देवगुप्त सूरि रख दिया । आचार्यश्री देवगुप्तसूरि सूर्य के भांति तेजस्वी एवं चंद्र की भांति शीतल व सौम्य गुण युक्त थे । सुरिपद के समय की ३२ वर्ष की वय-जो तरुणावस्था कही जा सकती है-अलौकिक दीप्ति से देदीप्यमान थी अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन की तीव्र आभा व उसमें मिली हुई तपस्वेज की प्रखरता उनके सूरि पद को और भी अधिक शौभायमान कर रही थी। उस समय की आचार्यदेव की प्रभा सहस्त्र रशिधारक प्रभा कर की प्रभा को भी लजित कर रही थी। आपी के उपदेश शैली की सरसता रोचकता जनता की अन्तरात्मा को स्पर्श करने वाली व श्रोताओं के मनको हर्षित करने वाली थी। षट् द्रव्य एवं षट् दर्शन के तो श्राप परम ज्ञाता थे । आपके व्याख्यान में साधारण जनता ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजा एवं जैनेतर पण्डित भी उपस्थित होते थे। सब प्राचार्यदेव के व्याख्यान की मुक्तकण्ठ से भूरि २ प्रशंसा करते थे। भाचार्य देवगुप्तसूरि मरुधर में विहार करते हुए और जैन जनता में धर्मप्रेम की नवीन, अलौकिक मुनि विमलप्रभ की दीक्षा-सूरिपद Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १०८०-११२४ विचित्र क्रान्ति पैदा करते हुए माण्डव्यपुर, शंखपुर, अखिकादुर्ग, खटकूप, मुग्धपुर, नागपुर, कुर्चपुर, मेदिनीपुर, बलीपुर, पाल्हिकापुर नारदपुरी, शिवपुरी, होते हुए चंद्रावती पधारे। सर्व स्थानों पर प्रापश्री का श्रीसंघ द्वारा अच्छा सत्कार हुआ। आपश्री ने भी क्षेत्रानुकूल कुछ २ दिनों की स्थिरता कर धर्म से शिथिल बने हुए व्यक्तियों को पुनः कर्तव्य मार्ग पर आरुढ़ किया । नवीन जैन बनाने के प्रयत्नों में पूर्ण सफलता प्राप्त की । धर्म प्रचारार्थ विचरते हुए अन्य शिष्यों के उत्साह में वृद्धि की । इस तरह धर्म क्रान्ति की चिनगारियां बिखरते हुए जब चंद्रावती में पधारे तो वहां के जन समाज के हर्ष का पारावार नहीं रहा । सबके मुख पर हर्ष की नवीन ज्योति चमकने लगी । श्रीसंघ ने अत्यन्त समारोह पूर्वक श्राचार्यदेव का नगर प्रवेश महोत्सव किया । अन्त में श्रीसंघ के अत्याग्रह से चातुर्मास भी चंद्रावती में ही करने का निश्चय किया। इस चातुर्मास के लम्बेवसर । चन्द्रावती धर्मपुरी बनगई । एक दिन प्राचार्यश्री ने अपने व्याख्यान में शत्रुजय तीर्थ के महात्म्य का व तीर्थयात्रा के लिये निकाले हुए संघ से प्राप्त हुर पुण्य का बहुत ही प्रभावोत्पादक वर्णन किया । अतः प्राग्वट्ट वंशीय शा. रोड़ा ने शब्जय का संघ निकालने के लिये उद्यत हो गया और व्याख्यान में ही चतुर्विध श्रीसंघ से संघ निकालने के लिये आदेश मांगने लगा। संघ ने सहर्ष श्रादेश प्रदान किया और चातुर्मास के बाद श्राचार्यदेव के नेतृत्व और शा. रोड़ा के संघपतित्व में शत्रुन्जय की यात्रा के लिये शुभमुहूर्त में संघ ने प्रस्थान कर दिया । क्रमशः तीर्थयात्रा के अक्षय पुण्य को सम्पादन करके संघ पुनः स्वस्थान लौट आया और सूरीश्वरजी वहां से विहार कर सौराष्ट्र प्रान्त में होते हुए कच्छ में पधार गये । वहां की जनता को जागृत करते हुए क्रमशः आपने सिंच प्रान्त में प्रवेश किया। सिंधधारा में तो आपके श्रागमन के पूर्व भी बहुत से आपश्री के शिष्य धर्म प्रचार कर रहे थे अतः यकायक श्राचार्य श्री के आगमन के शुभ समाचार श्रवण कर तास्थ शिष्य मण्डली के उत्साह एवं हर्ष का पारावार नहीं रहा। वे लोग अपने प्रचार कार्य को और भी उत्साह एवं साहस के साथ सम्पन्न करने लगे। एक समय सूरिजी महाराज जंगल की उन्नत भूमि पर अपनी शिक्षा मण्डली के साथ विहार करते हुए जारहे थे। मार्ग में एक शेर के साथ एक बकरे दो बड़ो वीरता से सामना करते हुए देखा । इसको देख सूरिजी ने विचार किया कि-यह कैसी वीर भूमि है कि शेर जैसे विकराल, हिंसक पशु के साथ इस भूमि पर बकरा भी सामना करने में किञ्चित भी हिचकिचात्ता नहीं। बस सूरिजी भी वहां पर बैठ कर कुछ समय विश्रान्ति लेने लगे। उसी समय सामने से कुछ घुड़ सवार प्राते हुए दिखाई दिये । वे संख्या में इतने थे कि उनके घोड़ो की रज से सूर्य का तेज भी प्रच्छन्न हो गया था। दिशाएं रज रञ्जित हो गई। उनके पीछे कितने मनुष्य थे इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता था। जब घुड़सवार सूरिजी के नजदीक आये तो मुख्य सवार के मुख पर अलौकिक तेज पुक्ष चमकता हुआ दिखाई दिया । नृपोचित राजतेज ने सूरिजी के हृदय में अपने आप इन भावनाओं का प्रादुर्भाव कर दिया कि ये अवश्य ही किसी प्रान्त के नरेश हैं । इधर उस आचार्यदेव को देख कर अश्व से उतर कर नमस्कार किया : सूरीश्वर जी ने उच्च स्वर से उन्हे अायं शब्द से संबोधन कर धर्मलाभ दिया। सवार को स्थिरता से खड़ा हुआ देख पर सूरजीने धर्मोपदेश सुनने का इच्छुक समझ कर कहा-महानुभाभाव आर्य ! आप कुछ धर्मोपदेशक सुनना चाहते हो । सवार ने कहा-जी हां ! बाद ज्यों ज्यों सवार गाते गये त्यों त्यों मुख्य पुरुष का अनुकरण कर उनके पास बैठते गये इस प्रकार १००० पुरुष सूरिजी के सामने होगये । और सब यथा स्थान बैठ गये। प्राग्वट वंशीय शाह रोड़ा का संघ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८०-७२४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी बड़े ही समयज्ञ थे। उस समय पंजाब में म्लेच्छों का आना जाना एवं आक्रमण वगैरह प्रारम्भ था अतः आचार्यदेव ने अपना धर्मोपदेश मानव जन्म की दुर्लभता से प्रारम्भ करते हुए कहा किमहानुभाव ! इस चक्रवाल रूप संसार में जितने जीव दृष्टि गोचर होते हैं वे सब अपने २ किये हुए पुन्य पाप के फल स्वरूप उनका संवेदन करने के लिये अनेक योनियों में परिभ्रमन करते रहते हैं । इन सब ८४ लक्ष जीव योनियों में एक मनुष्य योनि हो ऐसी है कि जिसमें कुछ आत्म साधन करने योग्य धर्म कार्य किया जा सकता है । मनुष्य योनि में भी दो प्रकार के मनुष्य हैं एक आर्य दूसरा अनाय । इनमें आर्य जातियों के रहन सहन, खान पान, आचार विचार, इष्ट नियम, धर्म, कर्म अच्छे होते हैं। उनमें हिताहित सोचने की बुद्धि होती है वे दयावान होते हैं । बिना अपराध किसी भी जीव को तकलीफ नहीं देते हैं। दुःखी जीवों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं। उदाहरणार्थ- यदुवंसावतंस भगवान् नेमिनाथजी-जो श्रीकृष्ण के लघुभ्राता थे-अपने विवाह के कारण एकत्र किये हुए पशुओं को दुःखी देख उनको दुख मुक्त करने के लिये बिना विवाह किये ही तोरन पर से पुनः लौट गये । वीर क्षत्रियों की दया के विषय में इसके सिवाय भी अनेकोनेक उदाहरण विद्यमान है । तब अनार्य इनसे विपरीत होते हैं । उनके हृदय में दया को जरा भी स्थान नहीं होता धन की तृष्णा में मनुष्य को-मनुष्य नहीं समझते हैं। मनुष्य को क्या पर रोते हुए बच्चों एवं श्रानंदन करती हुई औरतें जो हिन्दुओं के लिये शास्त्र दृष्टि से अवद्ध्य कहे गये हैं। यवन निर्दयता से बिना किसी संकोच के मार डालते हैं उनके सतीत्व को लूट लेते हैं अस्तु, म्लेच्छों जैसा मनुष्यत्व प्राप्त करना तो पशुओं से भी हलके दर्जे का है । अर्थात् - उन अनार्य पुरुषों की अपेक्षा तो पशु भी अच्छे है कि जिनके हृदय में कुछ दया होती है । अनार्य का नाम सुनते ही सवार का चेहरा तमतमा गया। उसके भुख पर क्षत्रियोचित स्वभाविक श्रावेश के भाव दृष्टगोचर होने लगे। उसमें कुछ वीरत्व उमड़ आया। निर्दय अनार्यों के प्रति एक घृणा एवं द्वेष की स्पष्ट मल क, झलकने लगी। म्लेच्छों की निष्ठुरता उसके नैनों के सामने प्रति बिम्बित होगई। यह व्याख्यानों के बीच में ही आवेश में बोल उठा-गुरुदेव ! श्रापका फरमाना सर्वथा सत्य है अनार्य निर्दय निष्ठुर, कूर, पापी, विश्वासघाती, स्त्रियों के सतीत्व के हर्ता ही होते हैं। मनुष्य कहलाते हुए भी मानवीय कर्तव्यों से पराङ्मुख अधर्म के कर्ता होते हैं। महात्मन् ! उनकी उसी निर्दयता के कारण हम लोग इधर उधर भटक रहे हैं। हम पंजाब से आये और आत्मरक्षा के लिये आगे बढ़ रहे हैं। प्रभो! हमारा भविष्य में क्या होगा ? आप महात्मा हैं अतः आशीर्वाद दें जिससेकि हम सुखी बनें । इस तरह वह सूरीश्वरजी की सेवा में आपने मनोगत भावों का वर्णन एवं आशीर्वाद की प्रार्थना करने लगा। तत्क्षण ही पास में बैठे हुए दूसरे आदमियों ने मुख्य सवार का परिचय कराते हुए कहा कि-महास्मन ! ये यदुवंशी राव गोशल हैं और म्लेच्छों के भय से हम सब इधर आये हैं। हमारा अहोभाग्य है। कि आप जैसे महात्माओं के दर्शन हो गये । महात्माओं के लिये पलक दरियाव है। महात्मा रेख पर मेख मार सकते हैं। अतः श्राप आशीर्वाद दीजिये कि सब तरह का आनंद मंगल हो जाय । विघ्न की शाँति हो माय अर्थात् विघ्न शांति हो दुःख सुख में परिवर्तित हो जाय ।। सूरिजी-आप घबराते क्यों हो ? धर्म के प्रभाव से सब अच्छा ही होगा आर्य तो आर्य ही रहेंगे। राजा राज्य ही करेंगे । महानुभावों ! आप तो शुद्ध सनातन अहिंसामय धर्म की शरण लो ! धर्म एक ऐसी राव गोशल को धर्मोपदेश १०९२ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०८०-११२४ है कि जिसकी श्राराधना एवं उपासना से इस लोक और परलोक में जीव को सुख शान्ति एवं आनंद मिलता है । नीति कारों का कथन है कि वस्तु चला लक्ष्मीवलाः प्राणाश्चले जीवित मन्दिरे । चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ॥ है | प्राण, जीवन और घर भी अस्थिर है । इस विनश्वर एवं क्षणभंगुर संसार में धर्म ही एक निश्चल है । धर्मः शर्म पर वह च नृणां धर्मोन्धकारे रविः । सर्वापत्तिशमक्षमः सुमनसां धर्माभिधानोनिधिः ॥ धर्मो बन्धुबान्धवः पृथुपथे धर्मः सुहन्निवलः । संसारोरुमरूस्थले सुरतरुर्नास्त्येव धर्मात्परः || मनुष्यों को धर्म ही इस लोक और परलोक में ( उभयलोक में ) सुख देने वाला है । धर्म ही अज्ञानान्धकार के लिये सूर्य के समान है । धर्म नामक वृहन्निधि सज्जनों की सर्व आपत्तियों को शमन करने में समर्थ है धर्म ही दीर्घ अरण्यमय मार्ग में बन्धुरूप है और धर्म ही निश्चल मित्र है । संसार रूपी मारवाड़ की भूमि के लिये धर्म के सिवाय अन्य कोई कल्पवृक्ष नहीं । धर्म ही कल्पवृक्ष है 1 धर्मो दुःख दवानलस्य जलदः सौख्येक चिन्तामणिः । धर्मं शोक महोरगस्य गरुडो धर्मो विपत्त्रायकः । धर्मः प्रौढ़ पदप्रदर्शन पटुर्धर्मोऽद्वितीयः सख्य । धर्मो जन्मजरा भृतिक्षय करो, धर्मो हि मोक्ष प्रदः । अर्थात- धर्म ही दुःख रूप दावानल को शान्त करने में मेघ के समान है । धर्म प्राणियों को सुख देने में चिन्तामणि रत्न के समान है । धर्म शोक रूप महासर्प के लिये गरुड़ के समान है । धर्म विपत्ति से रक्षण करने वाला अर्थात् विपत्ति का नाश करने वाला है । धर्म उच्च स्थान को दिखलाने में कुशल है । धर्म श्रद्वितीय मित्र समान है । धर्म जन्म, जरा और मृत्यु को क्षय करने वाला है तथा धर्म ही मोक्ष को देने वाला है । अस्तु, राजन् ! धर्म की शरण ही उत्तम एवं माङ्गलिक रूप है । महाभारत जैसे शास्त्रों में भी धर्म के विषय में कहा है कि- न तत्परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः । एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ जो कार्य अपनी आत्मा से प्रति कूल हो अर्थात्-जिन कार्यों से अपनी श्रात्मा को दुःख पहुँचता हो वे कार्य दूसरे प्राणियों के लिये भी उसी प्रकार दुःखोत्पादक होते हैं ऐसा सोच कर वैसे कार्य नहीं करना ही संक्षेप में धर्म का श्र ेष्ठ स्वरूप है । इसके सिवाय दूसरे धर्म तो अपनी २ इच्छा से प्रवर्तीये हुए हैं । धर्म का संक्षिप्त से सार समझाया -- सूरिजी ने बड़े ही मधुर वचनों से धर्म का महत्व बतलाया और कहा कि प्रकृतितः मनुष्य को श्रात्म कल्याण की अपेक्षा भौतिक सुखों की पिपासा अधिक रहती है किन्तु ये पौद्गलिक पदार्थ अस्थिर एवं सड़न, पड़न, गलन, विध्वंसन स्वभाव वाले हैं अतः इनसे मोह जोड़ना अपनी आत्मा को अपने आप धोखा देना है। सूरिजी की इस व्याख्यान शैली एवं समय सूचकता ने उनको इतना प्रभावित किया कि उन्होंने तत्काल ही अपने सब साथियों के साथ श्राचार्यदेव के पास में जैनधर्म अर्थात अहिंसाधर्म को स्वीकार कर लिया । एवं सूरिजी ने वर्द्धमान विद्या से सिद्ध किया ऋद्धि सिद्धि संयुक्त वासक्षेप दे कर उन वीर क्षत्रियों का उद्धार किया । तत्पश्चात् सूरिजी ने राव गौशलादि से पूछा कि महानुभावों अब आप किस श्रोर जागे । वीर क्षत्रियों ने कहा पूज्यवर ! हमको तो आज चिन्तामणि से भी अधिक गुरुदेव का शरणा मिल धर्म का माहत्म्य १०९३ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८०-१२४] [ भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास गया है हम सब आपके चरणार्विन्द में निर्भय हैं आप भक्तवत्सल हैं ऐसी कृपा करावे कि हम हमारी पूर्वावस्था को पाकर सुखी बनें ? इस पर सूरिजी ने अपनी आंखों से देखी हुई भूमि की और संकेत किया और कहा कि रावजी यदि इस भूमि को आप अपना लें तो आपका अभ्युदय होगा । बस फिरतो कहना ही क्या था राव गोसल ने उस वीर भूमि पर नगर बसाने के लिये छड़ी रोप दी एवं दृढ़ संकल्प कर के कार्य प्रारम्भ कर दिया सूरिजी ने राव गोसल से कहा रावजी आप अपने इष्ट को सदैव स्मरण में रखना रावजी ने सूरि जी का आशीर्वाद रूप वचन को तथाऽस्तु कह कर शिरोधार्य कर लिया इधर तो सूरिजी अपने शिष्यों के साथ रवाने हुए और उधर रावजी ने अपने वीर क्षत्रियों को नया नगर निर्माण करने का आदेश दे दिया साथ में यह भी कह दिया कि सबसे पहले भगवान् पार्श्वनाथ के मंदिर की नींव खोदनी चाहिये बस ! उन लोगों ने ऐसा ही किया फल स्वरूप मन्दिर की नींव खोदते समय भूमि से अक्षय निधान निकल आया जिसको देख कर राव गौसलादि सब के हर्ष का पार नहीं रहा और आचार्य देवगुप्त सूरिजी पर उन सबकी इतनी श्रद्धा होगई कि एक सिद्ध पुरुष पर होजाती है बस फिर तो कहना ही क्या था बहुत ही शीघ्रता के साथ नगर बसाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया । कई सवारों को पुनः पंजाब भेजकर अपने सब कुटुम्ब को वहां बुला लिया क्रमशः उप्त नगर का नाम गोसलपुर रख दिया ! गोसलपुर का राजा रावगोशल को ही बनाया गया। राव गोशल सूरिजी महाराज के वचनों को एक सिद्ध पुरुष की भांति याद करने लगे। इस तरह समय के जाते हुए वह नगर इधर उधर को दसरी आबादी से हर एक बातों में अग्रगण्य, समृद्धिशाली एवं सम्पन्न हो गया। पकेशवंशियों के साथ रावजी की जाति 'आर्य' कहलाने लगी क्योंकि प्राचार्य देव ने उन सबों को पहले आयें शब्द से सम्बोधित किया था। तथा उपकेश वंशियां के साथ रोटी बेटी व्यवहार भी प्रारम्भ होगया। अभी तक क्षत्रियों से नवीन ही निकले हुए होने के कारण उनके उपकेशवंशियों के सिवाय राजपूतों से भी खान पान, शादी वगैरह व्यवहार चालू थे । पूर्वाचार्यों की शुरू से भी यही मान्यता थी कि किसी क्षेत्र को संकुरित करना पत्तन का कारण है-उन लोगों को मांस मदिरादि सात व्यसनों के त्याग शुरूसे करवा दिया था । ___राव गोसल के १४ पुत्र पंजाब में रहे और पाठ पुत्र उनके पास गोसलपुर में रहे। गोसलपुर में रहने वाले पत्रों के नाम पट्टावली कारों ने निम्न लिखे हैं- १ आसल, २ पासल, ३ दशल, ४ खुमान, ५ रामपाल, ६ भीम, ७ सांगण, और ८ खेंगार । आचार्य देवगुप्तसूरि एक बार विहार करते हुए गोसलपुर पघारे । गवगोसल ने सूरिजी का बड़े ही उत्साह से स्वागत किया । सूरिजी ने रावजी को धर्मोपदेश दिया। रावजी ने सूरिजी का परमोपकार माना। अत्यन्त गद्गद् स्वर में प्रार्थना की-भगवन् ! आपके उपकार से मैं इस भव में तो क्या ? पर भव २ में भी उऋण नहीं होसकूँगा फिर भी कृपा कर मेरे लायक कुछ कार्य फरमावें । सूरिजी ने कहा-राजन् ! हम निस्पृही निम्रन्थों के काम ही क्या हो सकता है ? हम उपदेशक हैं, हमारा काम तो संसारी जीवों को सद्बोध देकर उनका उद्धार करने का है। पावलियों एवं वंशावलियों में पाया जाता है कि राव गोसल का बेटी व्यवहार उपकेशवंशियों के अलावा १२ पुश्त तक राजपूतों के साथ भी रहा पर १२ पीडी के बाद में किसी विशेष कारण से राजपूतों के साथ उनका बेटी व्यवहार वंद होगया तथापि वे विक्रम की बारहवीं शताब्दी पर्यत वीरता के साथ राजतंत्र चलाते रहे। १०६४ राव गोशल की प्रार्थना Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसबाल सं२ १०८०-११२४ राजा ने बड़ी नम्रता के अर्ज की कि-भगवन् ! आपने मुझ निराश्रित को आशीर्वाद देकर राजा बनाया यह तो आपका परमोपकार है ही पर मुझे अज्ञान से बचाकर धर्म की राह में लगादिया इस उपकार को वर्णों से व्यक्त करना अशक्य हैं। मैं भव भव में आपका इस उपकार के लिए ऋणी रहूँगा। प्रभो ! केवल मैं ही नहीं पर मेरी सन्तान परम्परा भी आपके उपकार को समझेगी एव मानती रहेगी। - पूज्य गुरुदेव ! भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर तैयार हो गया है। अतः इसकी प्रतिष्ठा करवा का हम लोगों को कृतार्थ करें । विषेश में आपनो यहां चातुर्मास कर हमारे सबके मनोरथों को सफल करें । यद्यपि गोसलपुर की नींव डाले को अभी पूरे पांच वर्ष भी नहीं हुये किन्तु कई प्रकार सुविधाओं के कारण बहुत से मनुष्य भाकर उक्त नूतन नगर में बस गये थे अतः देवगुप्तसूरि के चातुर्मास करने योग्य नगर बनगया था । जिस समय सूरिजी गोसलपुर में पधारे थे उस समय गोसलपुर में न तो आलीशान उपाश्रय थे और न सुंदर धर्मशालाएं ही थी । घास एवं बांस से बने हुए झोपड़ों की हरमाल दृष्टिगोचर हो रही थी इन सब घरों की संख्या करीब करीब ४.५ हजार की थी । यद्यपि एक नूतनता के कारण, चाहिये उतने साधन उपलब्ध न हो सके फिर भी गौसलपुर की जनता की श्रद्धा भरी भक्ती ने सूरिजी को इतना शाकर्षित किया कि उन्हें; वह चातुर्मास गोसलपुर में करना ही पड़ा । गोसलपुर के चातुर्मास निश्चय के पश्चात् श्रापार्य देवने अपने अन्य साधुओं को तो आस पास के क्षेत्रों में विहार करने एवं धर्म प्रचार करते हुए योग्य स्थलों पर योग्य मुनियों के साथ चातुर्मास करने के लिये भेज दिये और आप स्वयं १०० तपस्वी साधुओं के साथ गोसलपुर में ठहर गये । बस सूरिजी के विराजने से जंगल में भी मंगल हो गया सर्वत्र आनंद की एक अलौकिक एवं अपूर्व रेखा दृष्टिगोचर होने लगी । आसपास के क्षेत्र वालों ने जब प्राचार्यश्री का गोसलपुर चातुर्मास करने के निश्चय को सुना तो उनमें से बहुतसों ने चातुर्मास में आचार्यश्री की सेवा का लाभ लेने के लिय गोसलपुर में श्राकर चातुर्मास पर्यन्त स्थिर वास कर लिया। गोसल पर राज्य की सुव्यवस्था, एवं गोसलपुर नरेश की दयालुत्ता तथा सर्व प्रकार की सुविधाओं से आकर्षित हो बहुत से मनुष्यों ने तो अपना सर्वदा के लिये सर्वथा स्थायी निवास बना लिया। सारांश यह कि-दिन प्रतिदिन गोसलपुर गाम्यावस्था को त्याग कर भव्य शहर का रूप धारण कर रहा था। ऐसे तो गोसलपुर का प्राकृतिक दृश्य ---पहाड़ी स्थान होने से एकदम चित्ताकर्षक था ही किन्तु आसपास की इस नवीन एवं घनी आबादी ने उन स्थानों पर यत्र तत्र मापड़े बनाकर प्रकृतिक सौन्दर्य गुण में कृत्रिम सुन्दरता की अभिवृद्धि की । चारों तरफ हरी २ हरियाली की अधिकता, विविध प्रकार के वृक्षों की आडीटेड़ी एवं सम श्रेणियां लताओं की विस्तृतता, विचित्र २ पुष्पों की सौरभ एवं वहां पर निवास करने पाले मनुष्यों के भद्रिक हृदय एकबार तो जन-मनको स्वभाविक श्राकर्षित करलेते । प्राचार्यदेव के विराजने से नूतन नगर वनस्थली-धर्मपुरी बनगई । जंगली पन का गुण धर्मरूप में परिणित हो गया। नवीन प्रागन्तुकों वृद्धि ने गोसलपुर की शोभा एवं वहां के निवासियों के उत्साह में वृद्धि करदी। सूरीश्वरजी के विगजने से ऐसे तो सबको ही लाभ मिला पर, रावगोसल को कुछ विशेष धर्मलाभ प्राप्त हुआ। जैनधर्म का प्रचार के करना तो उन महात्माओं के नसों में ही नहीं अपितु रोम रोम में जैन धर्म का प्रचार करना यह कोई साधारण शिशुकीड़ा किंवा गुड़ियाओं का खेल मह है। इसके लिये प्रयारकों के हृदय में भास्मसमर्पण की उदार भावनाएं होनी चाहिये । उनको अपनी सुविधा, असुविधा, सुख दुःख, प्रशंसा, पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्टा १०६५ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८५-७२४] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भरा हुभा था । वे धर्म की प्रभावना एवं उन्नति में अपनी व मुनि समाज की सुचारित्रवृत्ति की उन्नति ही समझते थे । यही कारण था कि गोसलपुर की नवीन आबादी को जैनधर्म का असली एवं स्थायी पाठ पढ़ाने के लिये प्राचार्यदेव ने अपने भौतिक सुखों की परवाह किये बिना ही वहां पर चातुर्मास कर दिया। एक ओर तो सूरीश्वरजी का व्याख्यान हमेशा होता था और दूसरी ओर शेष मुनि गोसलपुर की जनता को श्रावकों की नित्य क्रया एवं प्राचार विचार की शिक्षा देकर जैनधर्म में दृढ़ श्रद्धावान् बना रहे थे। इस तरह चातुर्मास सानंद धर्माराधना पूर्वक समाप्त होगया। चातुर्मास के समाप्त होते ही भगवान् पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े ही धूमधाम से करवाई गई । राव गोसल के लिये मन्दिर बनवा कर प्रतिष्ठा करवाने का जैनधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् पहिला ही मौका था अतः उनके उत्साह एवं लगन का पारावार नहीं रहा । उन्होंने पुष्कल द्रव्य का व्यय कर आये हुए स्वधर्मी भाइयों को पहिरावणी में एक एक सुवर्ण मुद्रिका और सवा सेर का मोदक दिया। याचकों को तो प्रचुर परिणाम में दान दिया गया। उन्होंने आर्य जाति के यशोगान से गगन गुंजा दिया। इस तरह आचार्यदेव की परम कृपा से जिनालय की प्रतिष्ठा का कार्य होते ही राव गोसल ने अत्यन्त नम्रता पूर्वक सूरीश्वरजी के चरण कमलों में अर्ज की कि-भगवन् ! कृपा कर और भी मेरे करने योग्य धर्म कार्याराधन के लिये फरमावे । सूरिजी ने कहा-गोसल ! गृहस्थों के करने योग्य कार्यों में मंदिर बनवा कर दर्शन साधना करना और तीर्थयात्रा के लिये संध निकाल कर अक्षय पुण्य सम्पादन करना गृहस्थों के करने योग्य धर्म कार्यों में प्रमुख कार्य है । उक्त कार्यों में से मन्दिर का निर्माण करवा प्रतिष्ठा करवाने का कार्य तो सानंद सम्पन्न हो गया । अब रहा एक संघ निकालने का कार्य सो भी समय की अनुकूलता होने पर कभी कर लेना । गोसल ने कहा-पूज्यवर ! आपकी कृपा से सब अनुकूलता ही है। मेरे लिये श्रापभी के विराजने एवं आपके अध्यक्ष त्व में संघ निकालने का अलभ्य अवसर न मालूम कब प्राप्त होगा। अतः आपकी उपस्थिति में ही यह काम निर्विघ्न हो जाय तो अपने आपको कृतकृत्य हुआ समझ । आयुष्य एवं शरीर का किश्चित भी विश्वास नहीं इसलिये आप जैसे महापुरुषों के समागम का सौभाग्य प्राप्त होने पर भी यदि धर्म कार्य में शिथिलता की जाय शक्ति के होने पर भी निशक्तता प्रगट की जाय तो उसके जैसा दुर्भाग्यशाली ही दुनियां में कौन होगा प्रभो ! श्राप कुछ समय की स्थिरता कर इस दास को कृतकृत्य करें। आपके इन उपकार ऋण से उऋण होने की तो मेरे में किञ्चित् भी शक्ति नहीं किन्तु दयानिधान ! आपका तो सद्बाध रूपी दान देना का अपूर्व गुण ही है । इस अनभिज्ञ क्षेत्र में कुछ समय तक और विराजने से हम लोगों को धर्मलाभ का सुअवसर प्राप्त होगा एवं आपकी कृपा से संघ निकालने में भाग्य शाली बन सकूँगा । श्राचायश्री ने गोसल की प्रार्थना को स्वीकार करली । गोसल ने भी अपने आठों पुत्रों अबहेलना की दरकार किये बिना धर्म प्रचार के रणक्षेत्र में निर्मोही की तरह कूद करके ताइना, तर्जनादि शस्त्र जन्य घावों को साते हुए विजयी पोद्धा की तरह अपने मार्ग में बढ़ते ही रहना चाहिये । अपने प्रचार कार्य में दिन दूनी और रात चौगुनी वृद्धि करना चाहिये पर दुःख है कि आज उन्हीं की सन्तान हम लोग ऐसे सपूत हैं कि हमारे द्वारा नये जैन बनाये जाना तो दर किनारे रहा पर हमारे आचार्यों के द्वारा बनाये गये जैनों का रक्षण करने में भी हम समर्थ नहीं । मूल पुजी सम्भालकर रखने जितनी भी हममें ताकत नहीं यही कारण है कि हमारी संख्या दिन पर दिन घट रही है और हम कुम्भकर्णी मिद्रा में सोये हुए हैं। सूरिजी का चतुर्मास और तीर्थों का संघ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १०८०-११२४ को बुला कर आदेश दे दिया। पित्ताज्ञा पालक वे पुत्र भी उनकी प्रादेशनानुसार संघ के लिये आवश्यक सामग्री को एकत्रित करने में संलग्न बन गये । सब कार्य के लिये ठीक प्रबन्ध होने पर राव गोसल ने चारों ओर आमंत्रण पत्रिकाएं भेज दी । शुभमुहूर्त पर संघ गोसलपुर में विशाल संख्या में एकत्रित हो गया । आचार्यश्री ने भी समय पर राव गोसल को वासक्षेप एवं मंत्रों द्वारा संघपति बना दिया। शुभमुहूर्त में आचार्यश्री के नायकत्व और राव गोसल के संघपतित्व में संघ ने तीर्थश्री शत्रुजय की यात्रा के लिये प्रस्थान किया । क्रमशः संघ ने तीर्थश्री शत्रुञ्जय का दर्शन स्पर्शन पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्यादि शुभकार्य कर अपने को भाग्य शाली बनाया । अष्टान्हिका महोत्सव एवं ध्वजारोहणादि उत्सव करके अपने जीवन को सफल बनाया ।राव गोसल प्रभृति नूतनश्रावकों ने तो श्रीशत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर खूब ही आनन्द मनाया । कई साधुओं के साथ यात्रा कर श्रीसंघ, वापिस स्वस्थान लौट आया और श्राचार्यदेव अपने शिष्यों के साथकई दिनों के लिये तीर्थ की शीतल एवं पवित्र छाया में ठहर गये । वहां पर कुछ दिनों के पश्चात् कई वीर सन्तानिये मुनिवर्ग पृथक् २ स्थानों से संघ के साथ तीर्थ यात्रा के लिये आये जब उनको आचार्यश्री देवगुप्तसूरिजी के शत्रुञ्जय तीर्थ पर विराजने के समाचार ज्ञात हुए तो वे तत्काल सूरीश्वरजी की सेवा में वन्दनार्थ आये । उन्होंने आचार्य श्री की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा कि-पूज्यवर ! आपश्री के पूर्वाचार्य ने तथा आपने अनेक उपसगों एवं परिषहों को सहन कर जो जैन शासन की सेवा की एवं कर रहे है; उसके लिये समाज आपका चिरऋणी है । ऐसे तो जै नेतरों को जैन बनाकर महाजन संघ की सतत वृद्धि करते रहने का श्रेय आपश्री के पूर्वाचार्यों ने सम्पादन किया ही हैं किन्तु, महापुरुषों के अनुपम आदर्श का अनुसरण कर आपश्री ने जैनधर्म की प्रभावना करने में कुछ भी कसर नहीं रक्खी । एतदर्थ आपका जितना आभार माना जाय उतना ही थोड़ा है। जितना धन्यवाद दिया जाय उतना ही अल्प है। इसके प्रत्युत्तर में सूरीश्वरजी ने फरमाया----बन्धुओं ! इसमें धन्यवाद की एवं आभार स्वीकार करने की जरूरत ही क्या है ? यह तो मुनित्व जीवन को अपनाने के पश्चात् मुनियों के लिये खास कर्तव्य रूप हो जाता है । सुखोपभोग की अभिलाषाओं को तिलाञ्जली देकर पौदगलिक सुखों पर लात मार सम्पन्न घर को छोड़ आत्म कल्याण के लिये निकलने वाले मुनिवर्ग यदि अपने उक्त कर्तव्य को विस्मृत कर पुनः सांसारिक प्रपञ्चों के समान मुनित्व जीवन में नवीन प्रपञ्च उपस्थित करने में ही अपने कर्तव्य की इति श्री समझते हैं तो वे साधुत्ववृत्ति के नियमों एवं कर्तव्यों से कोसों दूर हैं श्रमण बन्धुओं ! अपनी तो शक्ति ही क्या है ? किन्तु अपने से पूर्व पार्श्वनाथ परम्परा के आचार्यों एक भगवान महावीर के प्राचार्यों ने जो जैनधर्म की अमूल्य सेवा की है उसका हम वों से वर्णन करने में भी असमर्थ हैं। उन महापुरुषों ने लाखों ही नहीं पर करोड़ो जैनेतरों को सद्धर्म का बोध देकर जैन बनाया । अनेकों का श्रात्मकल्याण किया । अनेक शासन प्रभावक अलौकिक कार्य किये किन्तु उन्होंने इन सब महत्व पूर्ण कार्यों में मान का एवं महत्व का छत्र प्राप्त करने की किञ्चत् भी भावना नहीं रक्खी । यदि वे प्रशसा एवं सम्मान के ही भखे होते तो इतना कार्य कभी नहीं कर सकते । कार्य करने की विशालता आत्मा के आन्तरिक भावों की उत्कर्षता पर अवलम्बित है । एवं प्रशंसा प्राप्ति की कुत्सित इच्छा उन्नति मार्ग की बाधिका है। अतः मानापमान, सुख, दुःख की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य मार्ग में संलग्न रहना साधुत्व जीवन को उन्नत बनाना है । जितना कार्य मनुष्य सादगी को अपना कर कर सकता है उतना कार्य बनावटी आडम्बरों एवं मान महत्व के गुलामों से नहीं हो सकता है । श्राचार्यश्री स्वयंप्रभ शत्रुजय पर वीर संतानियों का समागम १०९७ ............wwwwwwwwww.ne, Anurm..... 9 .. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८० से ७२४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरि आचार्यरत्नप्रभसूरि, यतदेवसूरि, आर्यश्रीहस्तिसूरि और सुस्थीसूरि आदि महापुरुष अपने कार्य की मोटाई कहां लेने गये थे ? अरे ! गुण कभी छिपे नहीं रहते । कुसुमों की भीनी सौरभ अपने आप मधु. करों को आकर्षित कर लेती है। रत्न अपने मुंह से अपनी लाख रुपये की कीमत नहीं कहता किन्तु उनके गुणों से आकर्षित हो दुनियां अपने आप उनके गुणों को अपना लेती है । अतः मान एवं थोथी प्रशंसा के लोभ को तिलाञ्जली देकर कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर होते रहने की परमावश्यकता है । आर्यो ! आजका समय बड़ा ही विकट समय हैं । एक और तो देश पर अनार्यों के जनसंहारक भयंकर अक्रमण हो रहे हैं और दूसरी ओर बौद्धों, वेदान्तियों एवं बामपार्गियों के दारुण अाघात जैन धर्म को विचित्र परिस्थिति में उपस्थित कर रहे हैं । इस बिकट संघर्ष काल में यदि जैनश्रमण एकाध प्रांतमें अपनी प्रतिण्ठाजमाने के लिये बने बनाये श्रावकों को भिक्षा पर तथा उनके सामने उसी गोरख धंधा में लगे रहे तो जैन 'समाज का अस्तित्व अधिक समय तक स्थिर रहना अशक्य है अतः अपना कर्तव्य है कि सुख दुःख की किन्चित भी परवाह नहीं करते हुए अपने कर्तव्य पथ में हम सब लोग कटिबद्ध होकर आगे बढ़ें । यदि पूर्वाचार्यों के समान मून पूजी को ( श्रावक संख्या को ) बढ़ाने की हममें शक्ति नहीं है तो भी कम से कम मूल पुज्जी को खो देने जितनी योग्यता भी तो नहीं होनी चाहिये । मूल पन्जी को बढाना तो जागरूकता का लक्षण है किन्तु खोना अज्ञानता का सूचक है । बन्धुओं ! क्या जनकोपार्जित सम्पत्ति का रक्षण कर व्यापारादि स्वकीय कार्य कुशलता से उससे वृद्धि करना पुत्र का कर्तव्य नहीं है ? यदि है तो अपने को भी स्वल्प क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा जमाने के लिये बैठक अपनी प्रतिष्ठा खोना कहां तक समीचीन है ? क्या उन्हीं तेजस्वी आचार्यों की सन्तान उनके ( पूर्वाचार्यों ) द्वारा उपार्जित किये हुए द्रव्य का रक्षण करने में समर्थ नहीं है ? समय डंका की चोट कह रहा है कि अब तो हमें इससंघर्ष युग में अपने कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर होते हुए जैनत्व की विशालता को विश्वभर में विस्तृत्त करने की दृढ़ भावना करनी चाहिये । प्यारे श्रमण गण ! आप और हम अलग २ नहीं हैं पर भगवान महावीर की छत्रछाया में विचरने वाले और उनके द्वारा निर्धारित पताका को सर्वत्र फहराने वाले----नामों की विभिन्नता से भी एक ही है । अपना परम कर्तव्य है कि पारस्यरिक स्नेहभाव को बढ़ाते हुए शासन की खूब प्रभावना एवं सेवा करें। एक दूसरे के कार्य में मददगार बनें । श्रीसंघ का संगठन बल बढ़ाने । मुनियों के विहार क्षेत्र को विशाल बना । गृहस्थों के हृदय को उदार बना गच्छ समुदाय की बाढ़ा बन्दी आदि की दुर्गधे को जड़मून से निकाल दें। नये पुराने श्रावकों के भेदभाव की दुर्वासना की हवा न लगने दें। चाहे किसी भी वर्ण एवं जाति का क्यों न हो ! पर जिसने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया उसको वीर पुत्र अर्थात् अपने भाई के समान या श्रीसंघ के व्यक्ति के अधिकार के समान सा अधिकार रक्खें । बन्धुओं ! एक गृहस्थ के दस रुपये मासिक खर्च है और पंद्रह रुपये की आमदनी है तो दस रुपयों का खर्च असह्य किंवा रलमन में डालने वाला नहीं हो सकता है इसी प्रकार कमी जेन संख्या में किसी कारण से कभी हो पर अजैनों को जैन बनाकर उस घाटे की पूर्ति करदी जाय तो कभी घाटे का अनुभव नहीं हो सकता है पर दस की आय और पन्द्रह रुपये के व्यय का उदाहरण हमारे सामने आ जाय तब तो अत्यात विचारणीय एवं आश्चर्यो दायक ही है ? अरु इन सब कार्यों की जुम्मेवारी आप हम सब श्रमणों पर रखी हुई है इत्यादि । आचार्यदेव ने आये हुए वीर परम्परा के श्रमणों को अपने कर्तव्य मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए शासन हित उपदेश १०९८ Jain Educson Hernational ww.jainelibrary.org Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० २०८०-११२४ ऐसा प्रभावोत्पादक उपदेश दिया कि उनकी आत्मा में भी नवीन चेतन्य स्फुरित होने लगा । धर्म प्रचार की बिजयी भभक उठी । वे सब आचार्यदेव का आभार मानते हुए कहने लगे - भगवान् ! आपका कहना अक्षरश: सत्य है | जिधर दृष्टि डाले उधर ही जैनधर्म पर भयंकर आक्रमण हो रहे हैं। इधर श्रमण संघ भी अपने कर्तव्य मार्ग से कुछ स्खलित होता जा रहा है । शिथिलता हमारे में चोरों की भांति प्रविष्ट हो रही है । आपसी फूट एवं कुसम्प ने वाड़ामंदी की ओर अपना पग पसारा है । गच्छ की मर्यादा एवं अपने कर्तव्य को हम विस्मृत कर चुके हैं पर धन्य है आप जेमे शासक शुभ चिन्तकों को जिनकी कार्य कुशलता, विहार पद्धति की विशालता और नये जैन बनाने की प्रवृत्ति ने जैन संस्था को ऐसे भयंकर मृत्युकाल में भी घाटे में नहीं आने दी। इसके लिये हम आपके इस असीम उपकार को भूल नहीं सकते और आपको धन्यवाद दिये बिना रह नहीं सकते । पूज्यवर ! आपके हिकारी उपदेश से हमने निश्चय कर लिया है कि जैन शासन के उन्नति के कार्य में यथा साधन प्रयत्न करते रहेंगे । इस प्रकार उनकी आचार्यश्री साथ वर्तालाप करके वीर सन्तानियों को अपरिमित आनन्द का अनुभव होने लगा । दूसरे दिन सब श्रमणों ने सूरिजी के में शत्रुजय पहाड़ पर जाकर आदीश्वर भगवान् की यात्रा की । साथ कालान्तर में सूरिजी सौराष्ट्र की और विहार करते हुए आगे कोकंण में पधार गये और वह चातुर्मास देवपट्टनपुर में कर दिया | आपके विराजने से जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई । चातुर्मास के पश्चात् श्री के उपदेश से बनाये गये तीन भक्तों के तीन मन्दिरों को प्रतिष्ठाएं की। करीब १३ नरनारियों ने परम वैराग्य से आचार्यदेव के पास दीक्षा श्रङ्गीकार करके श्रम कल्याण किया । कई जेनेतरों ने जैन धर्म को स्वीकार कर सत्यत्त्व का परिचय दिया । तत्पश्चात् सूरिजीने आगे दक्षिण की और विहार किया ! सर्वत्र धर्मोपदेश क ते हुए विदर्भ देश को बालपुर नगर में चातुर्मास किया । आपके पधारने से उस प्रान्त में भी खूब धर्म जागृति हुई। वहां भी आपने ११ भावुकों को दीक्षा दी । ठीक है; व्यापारी लोगों को लाभ होता है तब वे आगे बढ़ते ही जाते हैं इसी प्रकार हमारे आचार्यदेव ने भी महाराष्ट्र ग्रान्व के इस शेर में उल बोर पर्यन्त अपना विहार क्षेत्र विशाल बना दिया । जब महाराष्ट्र प्रान्तीय साधुओं को शुभ समाचार मिले कि आचार्यदेवगुप्तसूरि जी म० इधर ही पधार रहे । तब उनके हर्ष का पार नहीं रहा । वे दर्शनों के लिये उत्कण्ठित बन गये कई वर्षों से सूरीश्वरजी म० के दर्शनों का लाभ हस्तगत नहीं होने के कारण आचार्यश्री के दर्शनों के लिये चकोर बन गये । आसपास के क्षेत्रों में धर्म प्रचार का कार्य अत्यन्त उत्साह करते हुए सूरीश्वरजी के स्वागत के लिये सम्मुख जाने लगे । क्रमशः मदुरा नगरी में सूरीश्वरजी के दर्शन हुए जिससे पण वर्ग को अत्यन्त आनंद हुआ । आगन्तुक श्रमणों से आचार्यश्री ने महाराष्ट्र प्रान्त की ठीक हालत जानली । तत्पश्चात् महाराष्ट्र प्रान्त में विहार कर जैनधर्म का प्रचार करने वाले साधुओं को यथा योग्य सत्कार एवं पदविया प्रदान कर उनके उत्साह को afa fear | उक्त श्रममण्डली में से अधिक साधु महाराष्ट्र प्रान्त के ही जन्मे हुए थे अतः महाराष्ट्र प्रान्तीय भाषा की जानकारी के कारण लोग धर्म प्रचार के महत्व पूर्व कार्य में स्थूल परिमाण में सफल हुए । सूरिजी महाराज ने तीन चातुर्मास महाराष्ट्र प्रान्त के भिन्न २ नगरों में करके धर्म का अच्छा उद्योत किया | महाराष्ट्र प्रान्त में आचार्यश्री के आगमन से साधु समाज एवं श्राद्धवर्ग में धर्मानुराग की प्रबल वृद्धि हुई । नायक की उपस्थिति में सैनिकों का उत्साह बढ़ना प्रकृति सिद्ध ही है अतः उस प्रान्त में धर्म प्रचार के सूरीश्वरजी का दक्षिण में बिहार १०९९ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८० से ७२४] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कार्य में आशातीत सफलता हस्तगत हुई । यद्यपि इस दीर्घ अवधि के बीच कई दिगम्बर भाईयों ने इर्ष्या के वशीभूत हो शास्त्रार्थ किया किन्तु उसमें वे सफलता प्राप्त नहीं कर सके उनटा उन्हें पराजित होना पड़ा। आचार्यश्री जैसे विद्वान थे वैसे समयज्ञ भी थे । अतः समय सूचकता के साथ विद्वत्ता ही की कुशलता ने आपको चारों ओर विजयी बनाया। महाराष्ट्र प्रान्त में आपका अखण्ड विजय डंका बजने लगा आपने महाराष्ट्र प्रान्त के छोटे बड़े प्रामों एवं नगरों में परिभ्रमन कर धर्म का नवाङ्कर अङ्करित कर दिया । करीब २८ नर नारियों को दीक्षा देकर उन्हें मोक्ष मार्गाराधक बनाये । कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवाकर जैनेतरों को जैन बनाने की संस्कृति को दृढ़ किया । इन सभी महत्व पूर्ण कार्यों के साथ ही साथ पाच दिगम्वर मुनियों को भी श्वेताम्बर आनम्ना की दीक्षा दी । एक समय आप मानखेटनगर में विराजते थे। प्रतिदिन के व्याख्यानानुसार एक दिन आपने श्रीशत्रुब्जय तीर्थ के महात्म्य एवं तीर्थ यात्रा से सम्पादन करने योग्य पुण्यों का तथा गृहस्थों के करने योग्य कार्यों में से अावश्यक कार्यों का दिग्दर्शन कराते हुए शत्रुजय तीर्थ का बहुत ही विशद एवं प्रभावो. त्पादक वर्णन किया । शत्रुजय तीर्थ के इतिहास ने आगत श्रोतावर्ग पर पर्याप्त प्रभाव डाला । उस नगर के मंत्री रघुवीर पर तो उस व्याख्यान का आशातीत असर हुआ। फलस्वरूप व्याख्यान में ही शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा के लिये संघ निकालने का चतुर्विध श्रीसंघ से आदेश मांगने के लिये एक दम खड़े हो गये और अर्ज करने लगे कि-यदि आप लोग श्राज्ञा प्रदान करें तो मैं तीर्थ यात्रा के लिये संघ निकालने का लाभ प्राप्त कर सकू । श्रीसंघ ने सहर्ष आदेश प्रदान किया और आचार्यश्री ने भी--'जहासुहं' कह कर उनके उत्साह वर्धक वाक्य कहे । बस ! फिर तो था ही क्या ? स्थान २ पर संघ में पधारने के लिये आमन्त्रण पत्रिकाएं भेज दी गई । साधु साध्वियों की प्रार्थना करने के लिये योग्य पुरुष भेजे गये । क्रमशः निश्चित दिन इस संघ में ३०० श्वेताम्बारमुनि १२५ दिगम्बर साधु, और २५००० गृहस्थ सम्मिलित हुए । सूरीश्वरजी ने मंत्री रघुवीर को संघपति पद अर्पित किया । क्रमशः आचार्यश्री के नेतृत्व और मंत्री रघुवीर के संघपतित्व में संघ ने शुभशकुनों के साथ शुभशुहूर्त मे शत्रुजय की ओर प्रस्थान किया। मार्ग के मन्दिरों एवं छोटे बड़े तीर्थों की यात्रा करते हुए शत्रुजय पहुँचे । तीर्थ के दूर से दर्शन होते ही मुक्ताफल से बधाया और चैत्य वंदनादि क्रिया कर क्रमशः तीर्थ पर पहुँच गये । भगवान् आदीश्वर के चरण कमलों का स्पर्शन और द्रव्य एवं भाव पूजन कर संघ में श्रागत मानवों ने अपने पापों का प्रक्षालन किया । महा राष्ट्र प्रान्त में संघ कम निकलते थे अतः इस अपूर्व अवसर का सदुपयोग कर सब ने अपना अहोभाग्य मनाया । महाराष्ट्रीय नवीन श्रमणों एवं नये जैनों ने तो यह पहिली ही तीर्थ यात्रा की अतः सबके हृदयों में हर्ष एवं आनन्द कीअलौकिक लहरें लहराने लगी । दक्षिण विहारी साधुओं के साथ संघ, तीर्थ यात्रा करके पुनः स्वस्थान लौट आया । सूरिजी तीर्थ यात्रा करके खेटकपुर, करणावती, वटपर, स्तम्भन तीर्थ, भरोंच आदि विविध क्षेत्रों में विहार करते हुए श्री संघ के अत्याग्रह से भरोंच नगर में चातुर्मास कर दिया। चातुर्मास की दीर्घ अवधि में अच्छा धर्मोद्योत एवं धर्म प्रचार हुआ। चातुर्मास के पश्चात् श्रापश्री का विहार आवंतिका प्रदेश की ओर हुश्रा । उज्जैन, मांडवगढ़, मध्यायिका, महीरपुर, रतनपुर और दशपुर होते हुए आप चित्रकूट पधार गये | वहां की जनता ने आपका शानदार स्वागत एवं अभिनंदन किया। श्रीसंघ के अत्याग्रह से वह चातुर्मास चित्रकूट में ही करने का निश्चय किया । चित्रकूट में जैनों की घनी आबादी-विशाल संख्या थी दक्षिण का संघ शत्रुजय Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं १०८०-११२४ और वे सब भी प्रायः उपकेशवंशीय श्रावक ही थे । पूर्वाचार्यों के जीवन चरित्रों में अभी तक पाठक वृन्द बराबर पढ़ते आये हैं कि उपकेश गच्छीय आचार्यों का व उनके आज्ञानुयायी मुनियों का विहार क्षेत्र बहुत ही लम्बा चौड़ा था अतः उपकेशवंशीय श्राद्धवर्ग की संख्या विशाल हो इसमें आश्चर्य ही क्या ? इसीके अनुसार चित्रकूट भी उपकेशवंशियों का प्राचीन क्षेत्र था । उपकेश गच्छीय मुनियों का आवागमन प्रायः प्रारम्भ ही था अत: चित्रकूटस्थ श्रावक समाज का धर्मानुराग अत्यन्त सराहनीय और स्तुत्य था। सूरीश्वरजी के आगमन से व यकायक चातुर्मास के अप्राप्य अवसर के हस्तगत होने से तो श्रावक समाज के धर्म प्रेम में सविशेष अभिवृद्धि हुई। मोक्षमार्ग की आराधना के लिये सूरीश्वरजी का आगमन निमित्त बढ़िया से बढ़िया निमित्त कारण होगया । बलाह गौत्रीय रांका शाखा के श्रावक शिरोमणि, देवगुरु -भक्ति कारक, पञ्चपरमेष्टि महामंत्र स्मारक, श्राद्धगुण सम्पन्न, निम्रन्थ प्रवचनोपासक सुश्रावक शाह दुर्गा ने परम पवित्र, जयकुञ्जर, पातक राशिप्रक्षालन समर्थ, पञ्चमाङ्ग श्रीभगवतीजीसूत्र का महोत्सव किया जिसमें पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य, प्रभु सवारी और स्वधर्मी भाइयों की पहिरावणी श्रादि धार्मिक कार्यों में नव लक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी से श्रीभगवतीसूत्र बंचवाया । ज्ञान की पूजा माणिक, मुक्ताफल, हीरा, पन्ना एवं स्वर्ण पुष्य से की । इतना ही नहीं प्रत्येक दिन गहुली पर एक सुवर्ण मुद्रिका रखने तथा श्रीगौतमस्वामी के द्वारा पूछे गये प्रत्येक प्रश्न का सुवर्ण मुद्रिका से पूजन करने का निश्चय किया। यह बात तो प्रकृतितः सिद्ध है कि जितनी बहुमूल्य वस्तु होती है उतना ही उस पर अधिक भाव बढ़ता है । श्रीभगवतीजीसूत्र का इतना बड़ा महोत्सव करने में मुख्य दो कारण थे । एक तो जन समाज के उत्साह को बढ़ाना; और श्रोताओं की अभिरुचि श्रुताराधना और ज्ञानश्रवण की ओर करना दूसरा उस समय श्रागम लिखवाकर ज्ञानभण्डार स्थापित करने की श्रावश्यकता को पूर्ण कर जैन साहित्य को अमर करना । हम पहले के प्रकरणों में इस बात को स्पष्ट कर आये हैं कि उस समय प्रेस वगैरह के सुयोग्य साधन वर्तमान वत् वर्तमान नहीं थे अतः ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिये उन्हें श्रागम लिखवाने एवं ज्ञान पूजा के द्रव्य का सदुपयोग करने के लिये ज्ञानभण्डार स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत होती थी । बस, उक्त कारणों से प्रेरित हो उस समय के श्राद्धवर्ग दोनों कार्यों का भार बड़ी सुगमता से अपने सिर पर उठा लेते । इससे उन्हें अनेक तरह के लाभ होते और शासन सेवा का भी अपूर्व अवसर प्राप्त होता । जैन समाज के स्थानीय उत्सवों के महात्म्य को देख इतर समाज भी सहसा हमारी ओर आकर्षित होजाती इससे शासन की प्रभावना एवं जैनियों की महत्ता बढ़ती थी। इसके सिवाय उस समय के जैनों के पुण्योदय ही ऐसा था कि वे न्याय, नीति और सत्य से द्रव्योपार्जन कर ऐसे शुभकार्यों में द्रव्य का सदुपयोग करने में अपने को परम भाग्यशाली समझते थे । श्रावकों की इतनी उदारता, श्रद्धा एवं प्रेम पूर्ण भक्ति का कारण जैन श्रमणों का निर्मल चरित्र एवं विशुद्ध निर्गन्थपना ही था उस समय के त्यागी वर्ग के पास में न तो अपने अधिकार के उपाश्रय थे और न ज्ञान कोष ही थे । न जमाबंदिये थी और न गृहस्थों से भी ज्यादा प्रपञ्च था । वे तो एकान्त निस्पृही, परम मुमुक्षु, विशुद्ध चारित्राराधक एवं श्रीसंघ के बनवाये हुए चैत्य, पौसाल, धर्मशाला या उपाश्रय में मर्यादित समय पर्यन्त स्थिरता कर विश्राम करने वाले थे। उनके हाथों में आज के सेठियों से हजारो गुने अधिक श्रीमन्त भक्त थे वे चाहते तो भाज के साधुओं से भी अपने पास अधिक आडम्बर रख सकते थे परन्तु उन महापुरुषों ने इसमें एकान्त शासन आचार्यश्री का चित्रकोट में चतुर्मास ११०१ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८० - ७२४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्रभावना होने के बदले हानि ही समझी - लाखों रुपयों की सम्पत्ति एवं पौद्गलिक सुखों का त्याग कर श्रात्म कल्याण के लिये स्वीकृत की हुई मोक्षाराधक चारित्र वृत्ति का विघातक ही समझा है । सूरिजी महाराज के विराजने से केवल एक शाह दुर्गों को ही लाभ मिला ऐसी बात नहीं पर अन्य बहुत से श्रावकों ने भी अपनी २ शक्तयनुकूल लाभ लिया। जैन लोग हस्तगत स्वर्णवसर का लाभ उठावें इसमें तो कोई विशेष आश्चर्य नहीं पर जैनेतर लोग भी सूरीश्वर जी के व्याख्यान में जैनागमों को सुनकर जैन धर्म के परम अनुरागी बन गये । इस प्रकार इस चातुर्मास में उपकार वर्णतोऽवर्णनीय हुआ । I चातुर्मास समाप्त होते ही ७ मुमुक्षुओं को दीक्षा देकर मेदपाट प्रान्त के छोटे बड़े प्रामों में जैनधर्म का उद्योत करते हुए श्राघाट, वदनेर, देवपट्टनादि, क्षेत्रों की स्पर्शना करके क्रमशः सूरीश्वरजी ने मरुभूमि की ओर पदार्पण किया । श्राचार्यश्री के आगमन के कर्ण सुखद एवं मनाह्लादकारी समाचारों को श्रवण कर मरुभूमिवासियों के हर्ष का पार नहीं रहा । आचार्यश्री शाकम्भरी पद्मावती, हंसावली होते हुए नागपुर पधारे। आपके दर्शन एवं स्वागत के लिये जनता उमड़ पड़ी। सपादलक्ष प्रान्त में खासी चहल पहल मचगई | आपके श्रागमन महोत्सव ने सर्वत्र धूम मचादी । मरुधरवासी आनंद सागर में निमग्न होगये । सब हृदय में धर्म प्रेम की पवित्र लहरें लहराने लगी । वास्तव में उस समय देव गुरुधर्म पर जनता की की कितनी भक्ति थी, यह तो सूरिजी के जीवन चरित्र पढ़ने से सहज ही ज्ञात होजाता है। आज का नास्तिक वाद कुछ भी कहे पर हमतो अनुभव करते हुए आये हैं कि - जहां धर्म पर श्रद्धा, भक्ति, विश्वास अधिक होता है वहां सर्वत्र सुख और आनंद ही फैला हुआ होता है । 'यतो धर्मस्ततो जयः' गीता के इस वाक्यानुसार भी उभयलोक की सुख प्राप्ति के लिये किंवा मोक्ष का अक्षय आत्मिकानंद प्राप्त करने के लिये धर्म ही साधकतम कारण है । जब उन लोगों की धर्म में अटूट श्रद्धा थी तब वे लोग परम सुखी एवं संसार में हु भी निस्पृही थे और आज इसके सर्वथा विपरित ही दृष्टिगोचर होता है अस्तु, सुख प्राप्ति के जीवन का प्रमुखलक्ष धर्म ही होना चाहिये । धर्म ही परम मङ्गल रूप है । नागपुर में सूरिजी के पधारने की खुशियां घर २ मनाई जा रही थी । नागपुर में जैनियों की विशाल संख्या थी और वह इस लाभ को यों ही खोना नहीं चाहती थीः अतः सबने मिलकर श्राचार्यश्री के पास में चातुर्मास के लिए जोरदार प्रार्थना की। सूरीश्वरजी ने भी धर्म प्रभावना का कारण जानकर तुरन्त स्वीकार करली। पूर्व जमाने में न तो इतनी लम्बी चौड़ी विनतियों की जरूरत थी और न श्राचार्य देव चातुर्मास की विनती के साथ किसी भी गृहस्थ के ऊपर व्यर्थ के भार लादने रूप शर्तें ही रखते थे । न वे किसी धनाढ्य अप्रेश्वर की चापलूसी- खुशामद करते थे और न वे किसी प्रकार के आत्मगुण विघातक बाह्य श्राड - म्बरो में अपने मान की महत्ता ही समझते थे । वे तो थे एकान्त निस्पृही निप्रन्थ । त्याग का अपूर्वपाठ पढ़ाने वाले संसार के अपूर्व शिक्षक । सब प्रकार की आधि-व्याधि एवं उपाधि से विमुक्त आत्मिक सुख का सुखमय जीवन व्यतीत करने वाले सच्चे श्रमण। वे अपने लिए तो किसी प्रकार का खर्चा करवाते ही नहीं वे जो कुछ उपदेश देकर कार्य करवाते वे एक दम पारमार्थिक किंवा चतुर्विध संघ के हितको उद्देश्य में रखकर ही । इसमें इनका किञ्चित् भी स्वार्थ किंवा शासन को हानि पहुँचाने का लक्ष्य ही नहीं था । वे तो आपसी विवाद एवं कलह को भी दूर करके शासनोन्नति में ही अपने श्रमण जीवन की सार्थकता समझते । संघ के कार्य के लिये वे उपदेश अवश्य करते थे । किन्तु किसी के ऊपर भार डालकर जबर्दस्ती श्राप्रह ११०२ सूरीश्वरजी का नागपुर में प्रवेश Pww.jainelibrary.org Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० २०८०-११२४ नहीं करते थे । उस समय के श्रावक लोग भी इतने भावुक थे कि यदि आचार्य श्री शासन के कार्य के लिये थोड़ा सा भी इशारा करते तो वे अपना अहोभाग्य समझते । शासन की अलभ्य सेवा का लाभ समझ चतुविधश्रीसंघ के हित के लिये वे भी अपना तन, मन एवं धन अर्पित कर देते । श्रच र्यश्री के उपदेश से शासन के एक कार्य को दस, बीस भावुक श्रावक करने को तयार हो जाते हैं। कहा भी है कि "ले लो करतां लेवे नहीं और मांग्या न आपेजी कोय" ठीक है जितना हर्ष एवं उत्साह से कार्य किया जाता है उतना ही लाभ है । चतुर्विध संघ तो पच्चीसवां तीर्थङ्कर रूपही है अतः संघ के हित की रक्षा एवं उन्नति करना, शासन की प्रभावना कर इतर धर्मावलम्बियों के हृदय में श्रद्धा के बीज अङ्कुरित करना श्रावक समाज का भी परम कर्तव्य हो जाता 1 इस पर सूरिजी तो बड़े ही समयज्ञ एवं काल मर्मज्ञ 1 आचार्यश्री का बहुत वर्षों के पश्चात् पुनः मरुधर में पधारना, और पहला चातुर्मास नागपुर में होना वहां की जनता को और भी धर्म मार्ग की और प्रोत्साहित कर रहा था । चातुर्मास के दीर्घ समय में सूरिजी का व्याख्यान हमेशा ही होता था । व्याख्यान में जैनों के शिवाय जैनेतर - ब्रह्मण, क्षत्रियदि भी उपस्थित होकर ज्ञान का लाभ उठाने में अपने को भाग्यशाली समझते थे । आचार्यश्री एक निर्भीक वक्ता एवं तेजस्वी उपदेशक थे । दर्शन और आचार विषय का तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रकार विवेचन करते कि सुनने बालों को व्याख्यान बड़ा ही रूचिकर लगता था । जो लोग जैनों को नास्तिक कहते थे । और उससे घृणा करते थे वे ही लोग श्राचार्य श्री की ओर प्रभावित हो जैनधर्म को भूरि २ प्रशंसा करने लगे । करीब ४०० ब्राह्मणों ने तो मिध्यात्व का वमन कर जैनधर्म को स्वीकार किया। सूरिजीने कहा भूदेव ! केवल आपने पहले पहल ही जैनधर्म को स्वीकार नहीं किया है। किन्तु श्राप लोगों के पूर्व भी श्री गोतमादि ४४०० और शय्यंभव, यशोभद्र, भद्रबाहु आर्य रक्षित, वृद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर — जो संसार में अनन्य - श्र जोड़ धुरंधर विद्वान थे, चारवेद, अष्टांग निमित्त, अष्टादश पुराणादि अपने धर्म के शास्त्रों के पारङ्गत थे तुलनाare froपक्षपात दृष्टि से विचार किया तो आत्मकल्याण के लिये उन्हें भी जैनधर्म ही उपादेय मालूम हुआ अतः मिध्या कदाहको छोड़ वे तत्काल जैनधर्म में दीक्षित होगये । उन्होंने अपनी कार्य दक्षता से यज्ञों में एवं देव देवियां के नामपर हजारों मूक पशुवों का बलिदान करने वाले याजकों को हिसा धर्मानुयायी जैनधर्मो बनाये । उनका इतिहास आज भी हमारे हृदय में नवीव रोशनी एवं कान्ति को स्फुरित करने वाला है । सुरिजी द्वारा दिये गये उक्त उदाहरणों से उनकी श्रद्धा और भी अधिक दृढ़ होगई । सूरिजी महाराज का श्रात्म कल्याण की ओर अधिक लक्ष्य था अतः जब आप उपदेश देते तब त्याग वैराग्य के विषय को सुनकर श्रोताओं की इच्छा संसार को तिलाञ्जली देने की होजाती किन्तु चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम नहीं होने के कारण सब तो ऐसा करने में असमर्थ रहते फिरभी बहुत से भावुक दीक्षा के उम्मेदवार हो ही जाते । इसी के अनुसार चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् उन दिक्षार्थियों को दीक्षा दे श्राचार्य श्री वहां से विहार कर - -मुग्धपुर, हर्षपुर, खटकुंपपुर आदि छोटे बड़े प्रामों में परिभ्रमन करते हुए उपकेशपुर पधार गये। वहां के श्रीसंघ ने बड़े ही हर्ष से आपका स्वागत किया । श्राचार्यश्री ने भगवान् महावीर और आचार्यश्री रत्नप्रभसूरीश्वर जी की यात्रा कर स्वागतार्थ श्रागत श्रावक मण्डली को किञ्चित् धर्मोपदेश दिया । सूरीश्वरजी उपकेशपुर में ११०३ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८० - ७२४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी के श्रागमन से पूर्व संघ में कुछ मनों मालिन्य किंवा आपसी वैमनस्य पैदा हो गया था पर श्राचार्यश्री के एक व्याख्यान से ही वह चोरों की भांति सर्वदा के लिये पलायन कर गया । श्रीसंघ में शांति, प्रेम एवं संगठन का अपूर्व उत्साह प्रादुर्भूत हो गया । इससे पायाजाता है कि उस समय संघ में आचार्यों का बड़ा ही प्रभाव था। संघ के अत्याग्रह से वह चातुर्मास सूरिजी ने उपकेशपुर में ही कर दिया । उपकेशपुर की जनता पहिले से ही धर्म का गौरव था, कल्याण की भावना थी, स्वधर्मी भाइयों के प्रति पूर्व वात्सल्य तथा जैन श्रमणों के प्रति अपूर्व श्रद्धा एव भक्ति थी फिर आचार्यश्री के चातुर्मास होने से तो ये सबके सब द्विगुणित होगये । सूरिजी का व्याख्यान नित्य नियमानुसार प्रारम्भ ही था। जैन व जैनेतर महानुभाव बड़ी ही भक्ति पूर्वक उसका श्रवण कर कल्याण साधन में संलग्न थे। सूरिजी के विराजने से धर्मोद्योत प्रबल परिमार्ण में हुआ | आपके व्याख्यान का प्रभाव जनता पर आशातीत हुआ । चोरलिया जाति के मंत्री अर्जुन का पुत्र करण जो कोट्याधीश था - छ मास की विवाहित पत्नी का त्याग कर आचार्यश्री के पास में भगवती दीक्षा स्वीकार करने के लिए उद्यत हुआ । उसका अनुकरण कर चार पुरुष और सात बहिनों ने भी चातुर्मास समाप्त होते ही करण के साथ दीक्षा ले ली । दीक्षा का कार्य सानंद सम्पन्न होने के पश्चात् श्राचार्यश्री ने कुमुट गौत्रीयशा देवा के बनाये पार्श्वनाथ भगवान् के मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े ही समारोह से की। कालान्तर में वहां से बिहार कर माण्डव्यपुर, पल्हिकादि ग्रामों में होते हुए आचार्यश्री नारदपुरी पधारे। नारदपुरी ऐसे तो भावुकों से भरी हुई ही थी पर आपका जन्म स्थान नारदपुरी ही होने से वहां की जनता उत्साह में कुछ विलक्षणता, एवं विशेषता के साथ अलौकिकता दृष्टिगोचर होती थी। कोई आचार्य शब्द से सम्बोधित कर आपके गुणगानों से अपनी जिव्हा को पावन करने लगा तो कोई प्रेमवश जन्म के पुनड़ नाम से ही आपकी सच्ची प्रशंसा कर अपने जीवन का सच्चा लाभ लेने लगा । कोई कहता कि धन्य है ऐसी माता को जिस ने अपनी कुक्षि से ऐसा पुत्र रत्न उत्पन्न किया कि इसमें नारदपुरी को ही नहीं अपितु सारी मरुभूमि को उज्वल मुखी बना दिया। इस प्रकार जितने मुंह उतनी बातें करते हुए श्राचार्यश्री के गुणगान किये जा रहे थे । इस प्रकार की निर्मल भक्ति पूर्ण प्रशंसा से नारदपुरी की जनता अपने को गौरवान्वित बना रही थी । श्रस्तु सूरिजी के आगमन के साथ ही सूरिजी का खूब सजावट के साथ स्वा गत किया गया । नगर प्रवेश के पश्चात् मंगल रूप में दी गई सर्व प्रथम देशना को श्रमण करके जनता दंग रह गई । अखिल जन समाज अपने भाग्य को सराहने लग गया । आचार्यश्री का नारदपुरी जन्म स्थान होने से वहां के लोगों ने श्रमह पूर्ण प्रार्थना करते हुए कहा - प्रभो ! इस नारदपुरी में तो आपने जन्म लेकर हम सब को कृतार्थ किया ही है किन्तु एक चातुर्मास करके और हमें उपकृत करें तो हम आपके चिरऋणी रहेंगे । एक चातुर्मास का लाभ तो हमें अवश्य मिलना ही चाहिए। सूरिजी ने संघकी प्रार्थना को स्वीकार कर वह चातुर्मास नारदपुरी में ही करना निश्चित कर लिया । चातुर्मास में अभी कुछ अवकाश था अतः चातुर्मास के पूर्व २ श्रपश्री कोरंटपुर, सत्यपुर, भिन्नमालादि प्रदेश में परिभ्रमन कर धर्मप्रचार करने लगे । चातुर्मास के ठीक समय पर नारदपुरी में पधार कर चातुर्मास कर दिया । इस तरह आचार्य श्री ने अपनी अवशिष्ट आयु मरुधर के उद्धार में ही व्यतीत की । आपने अपने ४४ वर्ष के उन्नत शासन काल में प्रत्येक प्रान्त में बिहार पर जैनधर्म के उत्कर्ष को ११०४ सूरीश्वरजी नारदपुरी में Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०८०-११२४ खेमने खूब जोरों से बढ़ाया। अनेक महानुभावों को श्रमण दीक्षा दी। लाखों मांसाहारियों को जैनधर्म में संस्कारित किया। अनेक मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवाई। आपका समय चैत्यवासियों की शिथिलता का समय होने से आपने कई स्थानों पर श्रमण सभा कर शिथिलता को मिटाने का खूब प्रयत्न किया। इसमें आपको पर्याप्त सफलता भी हस्तगत हुई। वादी, प्रतिवादी तो आपका नाम सुनते ही घबग रठते थे। आपके व्याख्यानों की छाप बड़े२ गजा महाराजाओं पर पड़ती थी अतः कई बार आपका व्याख्यान राजाओं की सभा में हुआ करता था । आप जीवन इस तरह ज कल्याण के कार्यों में व्यतीत हुआ। अन्त में श्रापश्री ने शत्रुन्जय तीर्थ पर देवी सच्चायिका की सम्मति और नारदपुरी के प्राग्वट वंशीय शा. डावर के महा महोत्सव पूर्वक उपाध्याय चन्द्रशेखर को सूरिपद प्रदान किया । श्राप तब ही से अपनी अन्तिम संलेखना में लग गये । चंद्रशेखर मुनि का नाम परम्परागत क्रमानुसार सिद्धसूरि रख दिया श्रीदेवगुप्तसूरि ने ११ दिन के अनशन के पश्चात् समाधि पूर्वक पञ्च परमेष्टी का स्मरण करते हुए स्वर्ग पुरी की भोर पदार्पण किया जैन धर्म की उन्नति करने वाले ऐसे महापुरुषों के चरण कमलों में कोटिशः वंदन ! आफ्के समय में हुए तीर्थादि कार्यों की संक्षिप्त नामावली निम्न प्रकारेण है। श्राचार्य भगवान् के ४४ वर्ष के शासन में भावुकों की दीक्षाए १-चन्द्रावती के प्राग्वट गोत्रीय लुम्बाने दीक्षाली २-शिवपुरी , भाद्र " चांदणने ३-नादुली प्राग्वट ४-पाहिका , श्रीमाल नाथोंने ५ कोरटपुर ,, गुलेच्छा गोमोने ६-आशिका देदाने ७-हर्षपुर कोटारिया पेथाने ८-भावणी कुम्मट सेणाने ९--देवाड़ी ,, लघुष्टि जोजाने १० - क्षत्रिपुरा डावरने ११-कोसण ,, पल्लीवाल १२-बुगाड़ी , पावेचा वीराने १३-लालोडी देवाने १४-जाबलीपुर , चौहान चुनाने १५-बालापुर ,, चोरडिया जेकरणने १६ -शिवगढ़ , तप्तम कुंबाने १७-देवाली , बप्पनाग १८-सत्यपुरी , पोकरणा करनाने १९-टेलीप्राम , प्राग्वट सांगणने सूरीश्ववरजी के शासने दीक्षाए ११०५ Jain Education In Sonal :, पाटणी , सुचेति फूत्राने , समदड़िया बोटसने Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८० से ७२४] [भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास लालनने हणुमनने , श्रेष्टि गौत्र " क्षत्री २०-हाजारी के प्राग्वट गोत्रिय समराने दीक्षाली २१-माण्डव पल्लीवाल २२-उजैन श्रीमाल नागदेवने २३-मध्धमा श्रेष्टि नारायणने २४-चंदेरी , श्री श्रीमाघ २५-मारोट लाखणने २६-देरावल " अदित्यनाग० पदमाने २७-मालपुर , श्री माल भोजाने २८-वीदपुर ,, भूरि सरवणने २९-रेणुकीट भोलाने ३०-गोसलपुर , आर्य० वागाने ३१-सीनापुर , मोरख वीजाने ३२-डामदेल , विनायकिया पारसने ३३-पाराकर , ब्राह्मण सोमदेवने ३४-ताजोरी , ठाकुरसीने , प्राचार्य श्री के ४४ वर्षों के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं १-कीराटकुंप के श्रेष्टि गोत्रीय हरदेव ने भ० महावीर भ० म० २-भालासणी , चोरलिया, स्सादो ने " " ३-जोगनीपुर , बलाहा , चोखाशाह , पार्श्वनाथ ४-विजापुर , मोरख , भाणा ने , " ५-नरबर , वीरहट , रावल ने , ६-जावलीपुर , कुम्मट , लादा ने ७-चंदपुरी देदेशाहा ने , महावीर ८-मेलवाड़ा गाग्वट , मुलाने ९-नन्दीपुर जैताने १०-पुनाड़ी कुलाघर ने १९-देवपटण लुंबा ने ,, आदीश्वर १२-मुशाणी , पल्लीवाल सिंहा ने १३--धाकोटी कोकाने नेमिनाथ १४-लालपुर , गान्धी महादेव १५-धोलागढ़ , बोहरा , हाल्ला ने शान्तिनाथ १६-गडवाडी , मंत्री मेहताने ११.६ सूरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाए " डिडु Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० १०८०-११२४ मुजारने सवलाने १७-तारापुर के समदढ़िया गोत्रिय काना ने भ० महावीर म० १८-पेसियाली , श्री श्रीमाल, जेकरण ने , ,, १९-मोतीसरा , श्रीमाल , देपाल ने , २०-कोठरा , श्रीमाल , मोकल ने वासपूज्य २१-गोविंदपुर , श्रीमाल , सेनीने विमलनाथ २२-भालुगाव , चिंचट। ब्रह्मदेवने नेमीनाथ २३-राजपुरा , कुमट , सेजपालने मल्लीनाथ २४-राणकपुर , रांका , अवड़ने महावीर २५-तल्लोग , करणावट, सालगने २६-विदांमी , प्राग्वट , रामाने , पार्श्वनाथ २७-त्रिभुवनषुरा , प्राग्वट " २८-खेड़ीपुर , श्रीमाल " २९-पुलासिया , ब्राह्मण , जगदेव ३०-रायनगर , तप्तभट बोस्टने अजित ३१-खुखाली , मोरख ।, धनाने नेमिनाथ ३२- कलालीपुर , श्रीमाल , वाघाने , महावीर ३३-रायटी , श्रीमाल , राणाने ३४-पतजड़ी , सुचंति , रामाने , पार्श्वनाथ , सूरीश्वरजी के ४४ वर्षों के शासन में संघादि शुभ कार्य १-जाबलीपुर के तोडियाणी गो० जिनदासने शत्रुजयका संघ २-वाघ्रपुर , कोठारी , धन्ना ने ३-नंदावती चोरडिया संघदास ने ४-सत्यपुरी वलाह-रांका नेतसी ने ५-उपकेशपुर सुचंति मोहण ने ६-मालीवाड़ा फूओ ने ७-दान्तिपुर श्री श्रीमल जैतसी ने ८-श्राशिका राजसी ने ९-खाखांणी श्रीमाल १०-मारोटकोट भाद्र डावर ने ११--त्रिभुवनगढ़ , श्रेष्टि १२- दर्शनपुर श्रीमल १३-नारदपुरी , पल्लीवाल परीश्ववरजी के शासन में संघादि प्राग्वट गुणाढ़ ने माला ने दुर्गा ने Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६८० से ७२४ ] १४- र -- रत्नपुरा १५ - उपशपुर १६ - नागपुर १७- चन्द्रावती 19 "" कुम्मट अदित्या० चिंचट ११०८ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गो० टीलाने नरसी ने सोमा ने " 95 प्राग्वट 33 "3 करण ने 19 १८ - उपकेशपुर के कुम्मट रावल युद्ध में काम श्राया उसकी पत्नी सती हुई । १९ - मेदनीपुर के श्रेष्ट हरदेव २० - शिवगढ़ के श्रीमाल अर्जुन २१- मुग्धपुर के प्राग्वट नारायण २२ - चरपटप्रामें बप्पनग देदा की पत्नी ने एक लक्ष द्रव्य से बावड़ी कराई । २३- क्षत्रीपुर के श्रेष्टि गोमा की पुत्री रामी ने तलाब बनाया | 39 37 "" २४ - भोजपुर के प्राग्वट कुम्मा की धर्म पत्नी ने एक कुंवा बनाया । ६५ - पारिका के पल्लीवाल काना ने दुकाल में एक कोटी द्रव्य किया । 97 95 39 " -39 जय 99 99 दुकाल - श्राचार्य देव के शासन में महाजन संघ बड़ा ही उन्नत दशा को भोग रहा था धन धान्य एवं पुत्रादि परिवार से समृद्धशाली था वे लोग अच्छी तरह से समझते थे कि इस समृद्धशाली होने का मुख्य कारण देव गुरु और धर्म पर अटूट श्रद्धाही है अतः वे लोग गुरु महाराज के उपदेश एवं आदेश को देव वाक्य की तरह शिरोधार्य करते थे गुरु उपदेश से एक एक धर्म कार्य में लाखों करोड़ों द्रव्यं बात की बात में व्यय कर डालते थे इतना ही क्यों पर वे जनोपयोगी कार्य में भी पीछे नहीं हटते थे आचार्य श्री के शासन समय तीन बार दुकाल पड़ा था जिसमें भी महाजन संघ ने करोड़ों द्रव्य खर्च किये । उपकेशवंशकी उदारता - नागपुर के अदित्यनाग देदा के पुत्र खींवसी की जान सत्यपुरी के सुचंती रामा के वहाँ जारही थी रास्ता में भोजन के लिये शकर (खांड) की १५० बोरियां साथ में थी, जान ने एक ग्राम बाहर बावड़ी पर डेरा डाल कर रसोई बनाई जब भोजन करने को तैयारी हुई तो जान वालों को मालूम हुआ कि बावड़ी का पानी कुछ खारा है तो सब लोग कहने लगे कि क्या देदाशाह हमें खारा पानी पिलावेगा ? इस पर देदाशाह ने नौकरों को हुक्म दिया कि अपने साथ में जितनी खांड है वह सब बावड़ी दो | बस वे १५० बोरियों खोल कर सब खांड बावड़ी में डालदी और जान वालों को कहा कि आप सब सरदार मीठा पानी अरोंगो । श्रद्धा हा, लोगों ने देदाशाह की उदारता की बहुत प्रशंसा की तथा ग्राम वालों भी मिठा पानी पिया और एक कवि ने देदाशाह की उदारता का कवित्त भी बनाया । चालीसवें पट्ट देवगुप्त हुए, जिनको महिमा भारी थी । 22 आत्मबल अरू तप संयम से कीर्ति खूब विस्तारीं थी । शिथिलाचारी दूर निवारी, आप उग्र बिहारी थे । गुण गाते सुर गुरु भी था, शासन धर्म प्रचारी थे ॥ इति भगवान् पार्श्वनाथ के चालीसवे पट्टपर आचार्य देवगुप्त सूरि परमप्रभाविक श्राचार्य हुए | सूरीश्वरजी का स्वर्गवास । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवसिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२४-११७८ ४१-प्राचार्य श्री सिद्धसरि ( अष्टम् ) सिद्धाचार्य इति स्तुतो मुनिवरश्चादित्यनागान्वये । शाखां पारखनामधेयविदिर्ता भूषासमोऽभूषयत् ॥ शत्रोर्मानविमर्दको धृतवलो जैनान् विधातुं क्षमः । देवस्थानविधानतो जिनमतस्थैर्य चकारात्मनो ॥ रम पूज्य, आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज बाल ब्रह्मचारी, महान तपस्वी, सकल शास्त्र पारङ्गत, युगप्रधान कल्प, प्रत्यूषप्रार्थ्य, महा शासन प्रभावक, शास्त्रार्थ निष्णात उपविहारी, तपोधनी, सुविहित शिरोमणि, धर्मप्रचारक, धर्मोपदेशक, श्रमणाचित साक्षात् in सिद्ध पुरुष के अनुरूप अनेक गुणालंकारालंकृत प्राचार्य प्रवर हुए । श्रापश्री के ब्रह्मचर्य र का व कठोर तपश्चर्या का अखण्ड तफ्तेज और पूर्ण प्रभाव भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तृत था। श्रापश्री के परोपकारमय जीवन का पट्टावलियों, वंशावलियों में सविशद वर्णन है किन्तु ग्रंथ विस्तार के भय से हम उतना विस्तृत न बनाते हुए हमारे उद्देश्यानुसार संक्षेप में आपके जीवन की मुख्य २ घटनाओं का उल्लेख करेंगे जिससे पाठकों को अच्छी तरह से ज्ञात हो जायगा कि पूर्वाचार्यों का जैन समाज पर कितना उपकार है ? उन महापुरुषों ने कितनी तरह की तकलीफें सहन करके भी अपने कर्तव्य पथ को नहीं छोड़ा। उन्होने किस तरह की कार्यकुशलता से जैनधर्म का इतना सुदूर प्रांतों तक प्रचार किया ? और उस उपकार ऋण से उऋण होने के लिये हमारा उनके प्रति क्या कर्तव्य है ? अस्तु, ... जैसे मेघादि की कलंकमय कालिमा विहीन, निर्मल एवं शुभ्र आकाश में प्रह, नक्षत्र, तारादि परिवारों की समृद्धि से समृद्धिशाली, षोडश कला परिपूर्ण कलानिधि शोभित होता है उसी तरह इस भूमण्डल पर व्यापारादि समृद्धिवर्धक साधनों की प्रबलता से, श्वेत वर्णीय प्रासाद शिखरों की उत्तंगता से, एवं महावीर भन्दिर की उच्चेशिखर के ध्वज दंड और सुपर्ण कलश सुशोभित तथा नानोपवन कूपवाटिकादि प्राकृतिक सौंदर्य से शोभायमान महाजन संघ का श्राद्योत्पादक क्षेत्र श्री उपकेशपुर नाम का चित्ताकर्षक, मनोरंजक, पाल्हादकारी, रमणीय नगर था । यों तो यह नगर छत्तीस प्रकार की कौम का श्राश्रय स्थान था किन्तु मुख्यता में उपकेशवंशियों की विशालता थी । देवी सञ्चायिका के वरदानानुसार 'उपकेशे बहुलंद्रव्यं' उपकेशपुरीय महाजन संघ जैसे तन से एवं जन से कुटुम्ब परिवार से परिपूर्ण था वैसे धन में भी कुबेर से स्पर्धा करने वाला था । उपकेशवंशियों की जैसे राज्य कर्मचारियों के मंत्री, लेनापति श्रादि पदों से विशेष सत्ता थी वैसे नागरिकों में भी नगरसेठ, पंच चौधरी आदि मानवर्धक, सम्मान बोधक पदों से प्रतिष्ठा थी। उपकेशवंशियों में आदित्यनाग नाम का प्रसिद्ध गौत्र है जो, एक आदित्यनाग नाम के महापुरुष के स्मृतिरूप ही है । इसी श्रादित्यनाग गौत्र की शाखा प्रशाखादि के रूप में इतनी वृद्धि हुई कि भारत के अधिक प्रान्तों में आदित्यनाग गौत्रीय शाखाएं ही दृष्टिगोचर होने लगी थी। इनकी शाखाओं मुख्य २ चोरलिया, गोलेचा उपकेशपुर नगर का वर्णन Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४-७७८) [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पारख वगैरह हैं। पूर्वकाल के महाजनों को इधर से उधर, और उधर से इधर स्थान परिवर्तन करते रहने के मुख्य दो कारण थे। एक व्यापार के लिये और दूसरा राज्य विप्लव की भयंकरता के कारण । उदाहर. णार्थ-वर्तमान में भी बम्बई, कलकत्ता, करांची, ब्यावर, राणी, समीरपुर आदि शहर-जो बड़े २ शहरों के रूप में दृष्टि गोचर हो रहे हैं केवल व्यापारिक क्षेत्र की प्रबलता एवं विशालता के कारण से ही हैं। इसके विपरीत, कलिंगा, वल्लभी, सिंध और पजाब के लोगो ने राज्य कष्टों एवं आक्रमण की अधिकता के कारण इधर उधर-जिधर सुरक्षित स्थान मिले-जाकर अपने सुरक्षित स्थान बना लिये। इसके सिवाय भी कई वख्त राजा लोग अपने नये राज्य का निर्माण कर, महाजनों को सम्मान पूर्वक आमन्त्रित कर उन्हें कई प्रकार की सुगमता प्रदान कर अपने नये राज्य में ले गये । श्रतः महाजन लोगों का एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाकर रहना या वहां स्थिरवास करना स्वभाविक सा ही होगया था। इसका पुण्य एवं प्रबल प्रमाण आज भी हमारी आंखों के सामने हैं कि बरार, खानदेश, यू०पी०, सी० पी० बिहार, पजाब महा. राष्ट्रादि प्रान्तों में हमारे स्वधर्मी भाइयों की पेदियें यथावत प्रचलित हैं। हजारों लाखों की तादाद में उन प्रान्तों में व्यापार निमित्त मारवाड़ से गये हुए मारवाड़ी भाइयों के दर्शन हो सकेगे । अस्तु, उपकेशपुर में श्रादित्यनाग गौत्र की पारख शाखा के धनकुबेर, श्रावक व्रत नियमनिष्ठ, परम धार्मिक उदारवृत्तिवाले श्रीअर्जुन नाम के सेठ रहते थे। श्राप तीन बार संघ निकाल कर तमाम तीर्थो की यात्रा कर स्वधर्मी भाइयों को स्वर्ण मुद्रिका एवं वस्त्रों की पहरावणी देकर संघपति पद को प्राप्त करने में भाग्यशाली बने थे। तीन बार तीर्थयात्रा के लिए संघ निकालने के परमपुण्य को सम्पादन करने के पश्चात् दर्शन पद की वि. भागधना के लिए उपकेशपुर में भगवान श्रादिनाथ का एक आलीशान मंदिर बन. वाया था। आपके चार पुत्र ओर सात पुत्रियें थीं जिनमें एक करण नामका पुत्र बड़ा ही तेजस्वी था। वह बचपन से ही धर्मक्रिया की ओर अभिरुचि रखने वाला व आत्मकल्याण की भावनाओं से अोतप्रोत था। मुनि, महात्माओं की सत्संगति एवं उनकी सेवा के लिए सदा तत्पर रहता था। उसके जीवन में विलक्ष. णता थी, अलौकिकता थी, अद्भुतता थी। महात्माओं की भक्ति एवं धर्म कार्य में विशेष प्रेम उसके भावी जीवन के अभ्युदय के सूचक थे। अवस्था के बढ़ने के साथ ही साथ सेठ अर्जुन अपने पुत्र का विवाह करने के लिये उत्कण्ठित बन उठे तो इसके विपरीत करण उनका सख्त विरोध करने लगा। क्रमशः इसी उलझन में २५ वर्ष व्यतीत हो गये । अन्त में करण की इच्छा न होने पर भी कुटुम्ब वालों के अत्याग्रह से शा० अर्जुन ने करण की सगाई कर ही दी । समय पर विवाह करने के लिये उस पर बहुत अधिक दबाव डाला गया पर करण तो आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत पालने की प्रतिज्ञा ले चुका था अतः विवाह के प्रस्ताव को सुन कर वह एक दम पेशोपेश में पड़ गया। उसके सामने बड़ी विकट समस्या उपस्थित हो गई कि वह शादी के प्रस्ताव को स्वीकार करे या अपनी कृत प्रतिज्ञा पर स्थिर रहे । अन्त में उसने निश्चय किया कि मेरे निमित्त से एक जीव का और भी कल्याण होने वाला हो तो क्या मालूम अतः परिवार वालों की प्रसन्नता के निमित्त और अपनी इच्छा व प्रतिज्ञा के विरुद्ध भी शादी कर लेना समीचीन होगा । उक्त विचार के साथ में ही उसके नयनों के सामने विजयकुंवर, विजयकुघरी के एक शैय्या पर सोने पर भी भाई, बहिन के समान अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन करने का दृश्य चित्रवत् उपस्थित हो गया। बस, करण ने शादी करली। विवाह कार्य के सम्पन्न होने के पश्चात वह अपनी पत्नी के शयन १११० सूरीश्वरजी का नागपुर में प्रवेश Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवसिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२४-११७: गृह में गया और उसके साथ एक ही शैय्या पर सो गया किन्तु विजयकुवर, विजयकुवरी के दृष्टान्त को स्मरण में रख उसने अपनी प्रतिज्ञा में किश्चित् भी बाधा नहीं उपस्थित होने दी। करण की पत्नी ने भी प्रथम संयोग में लज्जावश कुछभी नहीं कहाकि थोड़े दिनों के पश्चात् वह अपने पित्गृह को में चली गई। जब चार मास के पश्चात् वह पुनः अपने सुसराल में आई और करण की आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालने की कठोर, हृदय विदारक प्रतिज्ञा को सुनी तो उसने अपने पतिदेव से प्रार्थना की कि-पूज्यवर ! यदि आपकी प्रारम्भ से ही ब्रह्मचर्य व्रत पालने की इच्छा थी तब शादी ही क्यों की ? ___ करण-मेरी इच्छा तो बिलकुल ही नहीं थी परन्तु कुटुम्ब वालों ने जबर्दस्ती शादी करवादी पत्नी-कुटुम्ब वालों ने तो जरूर ऐसा किया होगा पर जब आप स्वयं दृढ़ निश्चय कर चुके थे फिर शादी करने का क्या कारण था ? करण-मेरी इच्छा यह भी थी कि यदि मेरे कारण किसी दूसरे जीव का उद्धार होने का हो तो कौन कह सकता है ? पत्नी-दूसरा जीव तो मैं ही हूँ न ? करण-हां आप ही हैं। पत्नी--तो क्या आप मेरा कल्याण करना चाहते हैं ? करण-तब ही तो संयोग मिला है । क्या आपने विजयकुवर विजयकुवरी का व्याख्यान नहीं सुन है कि उन दोनों ने एक ही शैय्या पर सोकर के भी अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत पाला था ? पत्नी-तो क्या आप विजयकुंवर बनना चाहते हैं ? करण-विजयकुंवर तो महापुरुष थे। उनके समय संहनन, शक्ति वगैरह कुछ और ही थी और आज के समय की संहनन शक्ति कुछ और ही है । पत्नी -जब संहनन वगैरह वे नहीं हैं तो आप मुझे विजयकुंवरी कैसे बना सकेंगे ? मेरी इच्छा रुक नहीं सकेगी तो आप मुझे ऐसा कौनसा सुखमय मार्ग बतलाओगे ? करण-यह मुझे स्वप्न में भी उम्मेद नहीं है कि मैं ब्रह्मचर्य व्रत पालूं और आप किसी दूसरे मार्ग का मन से भी अनुसरण करें । प्रत्येक प्राणी में अपने खानदान का खून और श्रात्मीय गौरव हुआ करता है अतः मुझे विश्वास है कि मेरे साथ आप भी ब्रह्मचर्य पालेंगी ही। पत्नी-पर काम देव तो एक दुर्जय पिशाच है मेरी जैसी अबला उसको कैसे जीत सकेगी ? श्राप जरा विचार तो करिये ? करण-पुरुषों की अपेक्षा इस कार्य में अबला-अबला नहीं किन्तु सबला होती हैं । द्रोपदी, मदन रेखा का चरित्र आपने नहीं सुना है ? वे भी आपके जैसी अबलाएं ही थी पर मौका श्राने पर उन सतियों ने अबला जन्य निर्बलता को तिलान्जली दे पुरुषों को भी लजित करने वाले सबलाओं के कार्य किये । आपने सुना होगा कि शास्त्रकारों ने काम भोग को मलमूत्र की उपमा देकर काम भोगों को तिर. स्कार किया है । इसको सर्वथा हेय बता कर इसके भोगने वाले को अनंत संसारी बताया है । विचारने जैसी बात है कि इस मनुष्य भव की अल्प आयु में या किन्चित विषय सुख में देवतासम्बन्धी या मोक्ष के अक्षय सुख को हार जाना हमारी अज्ञानता नहीं तो और क्या है ? यदि इस क्षणिक अवस्था को हमने धर्माराधन में ब्रह्मचर्य के विषय दम्पतिका संवाद ११११ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४-७७८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लगादी तो निश्चय ही हमारे लिये देवताओं के भोग किंवा मोक्ष का अक्षय सुख तैयार है किन्तु इसके विपरीत भविष्य का विचार न करके थोड़े से सुखों के लिये बहुत की हानि की तो मधुलिप्त खड़ग को चाटने वाले जिह्वालोलुपी की जिह्वा कटने के दुःख के समान हमको भी अनन्त नरक, तिर्यश्च, निगोद के दुःखों को सहन करना पड़ेगा जहां से कि अपना पुनरुद्धार होना असम्भव नहीं तो दुर्लभ अवश्य ही हो जायगा। शास्त्रों में कहा है सल्लं कामा विसंकामा कामा आसी विसोवमा । कामे य पत्थेमाणा अकामा जन्ति दुग्गई ॥ जहा किम्पाग फलाणं परिणामो न सुंदरो । एवं भुताण भोगाणं परिणामो न सुंदरों ॥ अर्थात्-ये काम भोग शल्य-कंटक स्वरूप हैं। साक्षात् विष से भी भयंकर है श्राशीविष सर्प से भी उप एवं हानिप्रद हैं। यह जीव इन पौदलगिक सुखों में मोहित हो उनकी प्राप्ति के प्रयत्न करता रहता है और काम भोग को भोगने की तीव्र इच्छा वाला होकर के भी अन्तराय कर्म के तीब्रोदय से वैसा नहीं करता हुआ इच्छा से ही दुर्गति को प्राप्त हो जाता है। कहां तक कहें । इन काम भोगों की शास्त्रकारों ने किम्पा. कफल की उपमा दी है जैसे किम्पाक फल खाने में अत्यन्त स्वादु एवं मन को श्रानन्द उपजाने वाला होता है किन्तु कुछ ही क्षणों के पश्चात् वह श्रानन्द मृत्यु के ही रूप में परिणत हो जाता है उसी तरह ये काम भोग भी भोगते हुए कुछ क्षणों के लिये सुखप्रद अवश्य हैं । ये कामभोग तो हमारे बाह्यशत्रुओं को अपेक्षा भी अधिक हानि पहुँचाने वाले शत्र हैं। कारण अपना प्रतिपक्षी-द्वेषी, सिंह, हाथी, सर्प वगैरह तो शत्रुता के आवेश में आकार अधिक से अधिक एक भव के नाशवान शरीर का ही नाश कर सकते हैं किन्तु ये कामभोग भव भव के आत्मिक गुणों का एक क्षण में ही विनाश कर देते हैं। अतः किञ्चित्काल के क्षणिक विष संयुक्तभोगों को भोगकर चिरकाल के दुःखों को मोल लेना-"खणमात सुक्खा बहुकाल दुक्खा" कहां की समझदारी है ! अत: आप भी दृढ़ता पूर्वक ब्रह्मचर्यव्रत की आराधना करें इसी में श्रात्मा का कल्याण है । पत्नी-जब मनुष्य के सामने खाने योग्य पदार्थ रहते हैं तब वह कदाचित किन्हीं कठोर प्रतिबन्धों के कारण न भी खाता हो किन्तु उसकी इच्छा तो सदा खाने की रहती है अतः उस पदार्थ से सदैव दूर रहना ही अच्छा है जिससे कभी अभिलाषा जन्य पाप के भागी तो न हो सकें। करण-तो क्या आपकी इच्छा उस पदार्थ से सदैव के लिये दूर रहने की है ! यदि ऐसा ही है तो एक बार पुनः दृढ़ निश्चय कर लें। पत्नी-अन्य तो उपाय हो क्या है। ___ करण-यदि ऐसा ही है तो बड़ी खुशी की बात है कि श्राप और हम एक पथ के पथिक बनकर आत्मकल्याण के परमसौभाग्य को प्राप्त करेंगे। ___ बस, उन पवित्र आत्माओं ने रात्रि में आपस में वार्तालाप से ही दृढ़ निश्चय कर लिया कि, समय आने पर अपन दोनों एक साथ में दीक्षा ग्रहण कर निवृत्ति मार्ग के अनुसा बनेंगे । समय की प्रतीक्षा में दोनों, विजयकुवर, विजयकुवरी के समान एक शैय्या पर सोते हुए भी अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत को पालन करने लगे। इधरसंयोगप्रबल पुण्योदय से जाल्युद्धारक, जिनगदित यम नियम निष्ठ,शासनदीपक,जंगम तीर्थ स्वरुप, धर्मप्राण आवार्यदेवगुप्तसूरि का उपकेशपुर में पदार्पण हुश्रा । पूर्व प्रकरण से पाठकों को अच्छी तरह से १११२ दम्पति का दीक्षा लेने का निश्चय Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२४-११७८ विदित ही है कि आचार्यश्री बाल ब्रह्मचारी, तेजस्त्री — तपस्वी थे अतः आप अपने व्याख्यान में ब्रह्मचर्य की महत्ता का विशेष वर्णन करते थे । एक दिन प्रसङ्गानुसार श्रापने फरमाया कि देव दाव गंधव्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा । बंभयारी नमसंति, दुकरं जे करेन्ति ने ॥ अर्थात् — जो निष्ठ अखण्ड ब्रह्मचर्य पालते हैं उनको देवता, दानव, गन्धर्व यक्ष, भूत पिशाच, राक्षस किन्नरादि देव भी नमस्कार करते हैं । उन महा पुरुषों की सेवा करने में वे अपने आपको, भाग्यशाली समझते हैं । श्रतः ब्रह्मचर्य में किसी भी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं होने देने के लिये किंवा निरतिचार ब्रह्मचर्य व्रत को पालन करने के लिये श्रमण जीवन ही उत्तम साधन है। इसके बिना शुद्ध ब्रह्मचर्य पालना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है कारण, मन की दुर्बलता से कभी न कभी अपनी प्रतिज्ञा में भांगा लगने की संभावना रहती है | आचार्यश्री के उक्त व्याख्यान को करण और करण की पत्नी ने ध्यान पूर्वक सुना । व्याख्यानानंतर अपने मकान पर आकर माता पिता (सासू, श्वसुर ) से दोनों जने दीक्षा के लिये एक साथ अक्षा मांगने लगे । वे कहने लगे कि हम जल्दी ही आचार्यदेव के पास में दीक्षित होना चाहते हैं अतः कृपा कर श्राप अविलम्ब आज्ञा प्रदान करें । उदाहरण सेठ अर्जुन और आपकी पत्नी फागु को यह मालूम नहीं था कि पुत्र और पुत्र वधु दोनों आजपर्यन्त बालब्रह्मचारी हैं । अत उन्होंने करण को घर में रखने के लिये खूब प्रपथ्व एवं प्रयत्न किया पर जब इस बात की खबर पड़ी कि करण और करण की पत्नी अखण्ड ब्रह्मचारी हैं और दोनों ही दीक्षा के इच्छुक हैं तो उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा शनैः २ यह बात नगर वासियों के कानों तक पहुँची तो सब ही उक्त से विजयकुंवर विजयकुळवरी को स्मृति करने लगे । सब नगर निवासी उनके आदर्श त्याग की प्रशंसा करने लगे और कोटिशः धन्यवाद देने लगे । नगर में थोड़े समय के लिये इस विषय की बड़ी भारी क्रान्ति मच गई । विषयाभिलाषियों को भी विषयों से वैराग्य होने लगा । इधर सूरिजी महाराज के त्यागमय उपदेश ने जनता पर इतना प्रभाव डाला कि १३ पुरुष और १८ महिलाएं दीक्षा के लिये और तैयार हो गये । शा. अर्जुन ने सात लक्ष द्रव्य व्ययकर दीक्षा का महोत्सव किया और सूरिजी ने करण और शेष उम्मेदवारों को शुभमुहूर्त और स्थिरलग्न में भगवती दीक्षा देदी। करण का नाम मुनि चन्द्रशेखर रख दिया । वर्तमान काल में प्रकृतितः मनुष्य पाप के कार्यों की देखा देखी करते हैं वैसे पूर्व जमाने में धर्म के कार्य की देखादेखी भी करते थे । इसका ज्वलत उदाहरण आप हर एक श्राचार्य के जीवन में पढ़ते ही श्रा रहे हैं । वास्तव में उस समय के जीव ही लघुकर्मी और धार्मिक होते थे । उनके लिये मोक्ष बहुत ही नजदीक था अतः उनका सारा ही जीवन सीधा सादा, सरल एवं सांसारिक स्पृहा रहित था । जैसे मनुष्यों को मरने में देर नहीं लगती है वैसे उन लोगों को घर छोड़ने में भी देर नहीं लगती थी । वे लोग तो अपने जीवन का ध्येय आत्म कल्याण ही समझते थे । मुनि चन्द्रशेखर बड़े ही प्रज्ञावान् थे । शायद उन्होंने पूर्व जन्म में ज्ञान पद की बहुत ही श्राराधना एवं ज्ञान दान की परम उदारता की होगी । यही कारण था कि, अन्य साधुओं की अपेक्षा आप हर एक विषय का शीघ्र ही पाठ कर लेते । अभ्यासक्रम की उक्त विलक्षणता ने उन्हें अल्प समय में ही एकादशांगी तथा उपांगादि शास्त्रों के विचक्षण ज्ञाता बना दिये । शास्त्रीय पाण्डित्य के साथ ही साथ तत्समयोपयोगी न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्दादि शास्त्रों में भी असाधारण विद्वत्ता प्राप्त कर । १४ वर्ष के गुरुकुल सूरीश्ववरजी ने ब्रह्मचर्य का व्याख्यान १११३ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४ से ७७८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वास में उन्होंने जो ज्ञानोपार्जन किया था वह आश्चर्योत्पादक ही था । अस्तु, उक्त विद्वत्ता से प्रभावित हो आचार्यदेव गुप्तसूर ने मुनि चंद्रशेखर को पहिले तो उपाध्याय पद से विभूषित किया और पश्चात् श्रपने पट्ट योग्य समझ सिद्धाचल के पवित्र स्थान पर सूरि पदासीन कर परम्परागतान्नायानुसार आपश्री का नाम भी श्रीसिद्धसूरि रख दिया । आचार्यश्री सिद्धसूरिजी एक महान् प्रतापी आचार्य हुए हैं। आप श्रीशत्रुजय से विहार कर सौराष्ट्र, गुर्जर, एव ं लाट प्रान्त में धर्म प्रचार करते हुए भरोंच नगर की और पधार रहे थे । आपका श्रागमन सुन कर श्रीसंघ पहिले से ही स्वागतार्थ सामग्री जुटाने में संलग्न हो गया था अतः भरोंच पत्तन के पास आचार्यश्री का पदार्पण होते ही श्रीसंघने बड़े सानदार जुलूस के साथ आपको बधाया और परमो - साह पूर्वक सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया । उस समय के साज पूर्ण अलौकिक दृश्य को देख कर विधर्मी भी दांतों तले अंगुली दबाने लगे। इससे जैनधर्म की तो इतनी महिमा और प्रभावना बढ़ी कि उसका वर्णन सतोऽवर्णनीय ही है । जैनेतरों के हृदय में भी इस उत्साह ने कुछ नवीन क्रान्ति पैदा करदी | वे भी जैनियों के वैभव, महात्म्य एवं धर्म प्रेम अनुपम उत्साह को देखकर आश्चर्य सागर में गोते खाने लगे | उनके हृदय में भी जैनधर्म के तत्वों को समझने की नवीन अभिरुचि का प्रादुर्भाव हुआ । इस तरह विधर्मियों को आश्चर्यान्वित करने वाले जुलूस एवं वीरजय ध्वनि के अपूर्व उत्साह के साथ श्राचार्यश्री का समारोह पूर्वक नगर में पदार्पण हुआ । सर्व प्रथम सूरिजी ने संघ के साथ तीर्थकर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की यात्रा कर माङ्गलिक धर्मोपदेश आगत मण्डली को सुनाया। जनता पर इस देशना का पर्याप्त प्रभाव पड़ा आचार्यश्री ने भी व्याख्यान श्रवण करवा कर वीर वाणी का जनता को लाभ देने का क्रम प्रारम्भ ही रक्खा । भच भारत के प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्रों में से एक था। यहां पर जैनियों की विशाल संख्या वर्त मान थी और प्रायः सब के सब नहीं तो यहां के अधिकांश निवासी वर्ग तो व्यापारी ही थे । इन सब व्यापारियों का व्यापार देश विदेश में बहुत बड़े प्रमाण में चलता था अतः यहां के निवासी प्रायः धनाढ्य ही थे । जैनियों के अलावा इतर जातियां भी व्यापार करने में परम कुशल थी अतः भरोंच का व्यापार क्षेत्र बहुत ही विशाल बन गया था । भरोंच उस समय बड़ा ही समृद्धिशाली, कोट्याधीशों का आश्रय स्थान, प्राकृतिक सौंदर्य में अनुपम, श्रमर पुरी से स्पर्धा करने वाला बड़ा शहर था । भरोंच नगर में एक मुकुंद नामक कोट्याधीश, व्यापार कुशल, व्यापारी रहता था । धनधान्यादि की अधिकता के कारण उन्हें पौद्गलिक-सांसारिक सुखों की किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी । वे अपना जीवन परमानन्द पूर्वक व्यतीत कर रहे थे किन्तु एक चिन्ता उनके हृदय में जागृत होकर शत्रुवत् उनके सुख म जीवन को दुःखमय बना रही थी- ऐसा सेठजी के चेहरे से म्पष्ट झलक रहा था । उनका सारा सांसारिक सुख रूप जीवन इस चिन्ता के आगमन या स्मृति के साथ ही विचित्र दुख रूप हो जाता था । सम्पत्ति उन्हें शूल सी चूबने लग जाती । पौलिक मन मोहक पदार्थ फीके मालूम होते । घर दास दासियों से भरा हुआ भी वन वत् भयङ्कर मालूम होता । इस प्रकार यह चिन्ता उनके सांसारिक जीवन में करकट रूप हो गई थी । अक्षय निधि के होने पर भी सन्तति का प्रभाव एवं मृत्यु पुत्रों का होना उन्हें भयंकर दुविधा में डाल रहा था । सांसारिक सम्पूर्ण मनाइलादकारी पदार्थों को पुत्राभाव में उन्हें तरसाते हुए से ज्ञात होते थे । सेठजी ने इस दुःख से विमुक्त होने के लिए जिस किसी पुरुष एवं महात्माने जैसी राय दी उसके अनुसार कार्य 1 १११४ चन्द्रशेखर को सूरिपद Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरी का जीवन ] [ओसवाल सं० ११२४-११७८ किये । व्रत, नियम लिये, भेरु, चण्डिकादि देवी देवताओं की मानताए मनाई, बाबा, योगी सन्यासियों, को जादू, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र इत्यादि सैंकडों अनुकूल उपाय किये किन्तु प्रकृति एवं कर्मों की प्रतिकूलता के कारण वे सब अनुकूल यत्न भी प्रतिकूल शत्रु के समान दुःखदायी ही प्रतीत होने लगे। इस तरह सेठजी एक दम पुत्र की आशा से निराश बन गये थे और यह निराशाही उनके कोमल हृदय को कण्टक की तरह भेद रही थी । सम्पूर्ण आनन्द को किरकिरा कर रही थी। एक दिन सेठजी ने सुना कि शहर में एक जैनाचार्य महात्मा आये हैं वे बड़े ही तपस्वी, योगों एवं सिद्ध महापुरुष हैं । सूरीश्वरजी की उक्त प्रशंसा सुनकर सेठजी तुरत अपनी मनोकामना को पूर्ण करने मंत्र यंत्रादि की अाशा से आचार्यश्री के पास में आये और अपने गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी सम्पूर्ण हालत को अथ से इति पर्यन्त सुनाना प्रारम्भ किया । अन्त में मृत्युपुत्रों के होने रूप मनोगत दुःख को निवेदन कर सेठजी आंखों में अशुले आये । सूरिजी ने सोचा कि यह बेचारा कर्म सिद्धान्त से अज्ञात है अवश्य, पर हृदय का अत्यन्त सरल एवं भद्रिक स्वभावी है । यदि इसको उपदेश दिया जाय तो अवश्य ही एक आत्मा का सहज ही में कल्याण हो सकता है । इसी आदर्श एवं उच्चतम भावना को लक्ष्य में रख कर आचार्यश्री ने सेठ मुकुन्द को कम सिद्धान्त का तात्विक एवं मार्मिक उपदेश देना प्रारम्भ किया। वे कहने लगे-महानुभाव ! प्रत्येक जीव अपने शुभाशुभ कर्मों का फल इसभव में या परभवमें अनुभव करता ही रहता है । शास्त्रीयकथनाननुसार "कडाण कम्माण न मोक्ख अन्थि" अर्थात् पूर्व जन्मोपार्जित शुभ-सुखरूप और अशुभ-दुःख रूप कर्मों के फल को आस्वादन किये बिना उनसे मुक्त होना अशक्य है । पूर्वकृत कमों के दुःख को जब अभी भी इस तरह के अश्रुपात के रूप में उसको प्रकाशित कर रहे हो तो भविष्य के लिये तो अवश्य ही इस प्रकार का उपाय करना चाहिये कि जिससे किसी भी प्रकार के दुःख का अनुभव न करना पड़े। यह तो अपने ही पहले के जन्म के पापोदय हैं ऐसा समझकर पुत्र के लिये आर्तध्यान करना छोड़ दो। इसकी चिन्ता ही चिन्ता में नवीन कर्मों का बंधन कर भविष्य के जीवन को दुःखमय बनाना और वर्तमान में प्राप्त नरदेह को यो ही खो देना कहां की बुद्धिमत्ता है आपको तो इस नरदेह की अमूल्यता पर विचार करके श्रार्तध्यान को छोड़ आत्मकल्याण के एकान्त सुखमय मार्ग के लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिये । इस मार्ग में किसी भी प्रकार के दुःख एवं विघ्न की आशंका ही नहीं है । यह इस भव और परभवउभयभव में आनन्द दायी है । सेठजी ! जरा शान्त चित्त से विचार करो-यदि किसी के एक, दो यावत सौ पुत्र भी होजाय तो क्या ये पुत्र वगैरह परिवार एवं धन वगैरह पौद्गगलिक पदार्थ परभव में किसी भी प्रकार के सहायक हो सकते हैं ! या किसी तरह के नरक तिर्यञ्च के दुःखों से मुक्त करा सकते हैं ? नहीं तो फिर भ्यर्थ ही इस प्रकार चिन्ताओं में गल कर एवं आर्तध्यान के वशीभूत हो कर कर्म बंधन करना कहां तक युक्तियुक्त है ? इस पर श्राप और भी गहरी दृष्टि से विचार करें। देवानुप्रिय ! धर्म एक ऐसा कल्पवृक्ष है कि इसके अराधन से जीव को मनोमान्छित पदार्थ की प्राप्ति हो सकती है । जीव, धर्मानुमार्ग का अनुसरण करके इसलोक परलोक में सुखी होता है और ईश्वरी सता को क्रमशः प्राप्त करके जन्म, जरा, मरण के भयङकर दुःखों से मुक्त हो जाता है । इसके लिये धर्म पर अटूट श्रद्धा एवं भक्ति होनी चाहिये । देखो, परम्परागत एक ऐसी कथा सुनने में आती है कि किसी नगर में हरदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके पास द्रव्य की अधिकता एक पोद्गलिक पदार्थों की विशिष्ट भगेच में मुकन्द सेठ की पूरिजी की भेट १११५ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४ से ७७८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विशिष्टताओं के होने पर भी सन्त त्यभाव रूप क्षीण चिन्ता उसे रात दिन नवीन संताप से सतप्त करती रहती । उसने अपने सार्थक जीवन को एक दम निरर्थक मूल्य शून्य समझ लिया। एक दिन पुण्य संयोग से उसकी भेंट एक जैन मुनि के साथ होगई तब उसने अपने गृह दुःख का सम्पूर्ण हाल मुनि को कहा और उक्त दुःख से विमुक्त होने का मुनि से कोई उपाय मांगने लगा । मुनि ने संसार एवं कुटुम्ब की अनित्यता बतला कर धर्माराधन करने का उपदेश दिया । हरदेव ने भी सपत्नी मुनि के कथनानुसार जैनधर्म को स्वीकार कर लिया । कुछ समय के पश्चात् संसार के स्वरूप एवं कर्मों की विचित्रता का विचार करते हुए हरदेव इतना संतोषी बन गया कि सन्तति की चिन्ता भी इसके हृदय से निकल गई। कहा है-“संतोष ही परम सुख है" वास्तव में यह प्रकृति एवं अनुभव सिद्ध बात है कि जिस पदार्थ पर जितनी अधिक तृष्णा एवं मोह बुद्धि होती है वह पदार्थ अपने से स्तना ही दूर भागता जाता है और जिस पदार्थ की हृदय में इच्छा नहीं, कल्पना नहीं वह अनायास ही अपने आप उपलब्ध हो जाता है । प्रकृति के इस अटल एनं निराबाध नियमानुसार संतति इच्छा से विरक्त हरदेव ब्राह्मण के कुछ समय के पश्चात एक पुत्र होगया। इधर जैनेतर ब्राह्मण उपसे घृणा करने लगे । वे हरदेव की भर्त्सना करते हुए कहने लगे-हरदेव-ब्रह्म धर्म से और विशुद्ध वेदिक धर्म से पतित होकर जैनी बन गया है अतः उसके साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार करना ठीक नहीं । वह जाति से ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणों का शत्रु है, धार्मिक एवं शास्त्रोत्थापक नास्तिक है । निंदनीय है और भर्त्सना करने योग्य है । उसके साथ किसी भी प्रकार का जातीय व्यवहार करना अपने आपको सद्धर्म से पतित करना है । इस प्रकार के अपने लिये निंदनीय वचनों को सुनकर बोलने में चतुर ब्राह्मण की पत्नी ने कहा-ब्राह्मणत्व का दम भरने वाले ब्राह्मणों ! जरा ब्रह्म शब्द की सूक्ष्मता एवं धर्म की गम्भीरता पर विचार करो। आपके इन बाह्याडम्बरों एवं शाब्दिक वाक्प्रपञ्चों की जटिलता से किसी प्रकार की अर्थ सिद्धि नहीं होने की है । प्रत्येक धर्म का मूल पाया अहिंसापरमधर्म की मुख्यता को लिये हुए है अतः यज्ञादि हिंसा प्रतिपादक, क्रिया काण्डोंरूप पातको जुगुप्सनीय कर्मों को करते हुए भी “वैदिक हिंसा हिंसा न भवति" का झूठा दम भरना कहां तक न्याय संगत है ? यदि हमने हिंसाधर्म को छोड़कर विशुद्ध अहिंसामयधर्म स्व कार किया तो इसमें क्या बुरा किया ? हमने ही क्यों ? पर हमारे पूर्वजों ने हजारों, लाखों की तादाद में इस पवित्र, आत्मकल्याण करने में समर्थ धर्म का पालन कर संसार भर में प्रचार किया । जब शिवराजर्षि, पोगल, स्कंधक सन्यासी एवं गौतमादि हजारों चतुर्वेदाष्टादशपुराणपारगंत विद्वान ब्राह्मणों ने भी ज्ञान दृष्टि से यज्ञादि क्रिया काण्ड को आत्मगुण विघातक समझ ब्राह्मण धर्म का त्यागकर श्रेष्ठ जैनत्व को अंगीकार किया तो हमारी निरर्थक निंदा करने से आप लोगों को क्या लाभ मिलेगा ? मैं तो अनुभव सिद्ध एवं शास्त्रानुकूल आप लोगों को भी राय देती हूँ कि आप लोग भी श्राभिनिवेशिक मिथ्यात्व का त्याग कर, शुद्ध, श्रात्मकल्याण कारक जैनधर्म को स्वीकार करें। सेठजी ! उक्त उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि धर्म सचमुच कल्पवृक्ष ही है अतः आप भी अपनी मिथ्यातृष्णा का त्याग कर शुद्ध, सनातन एवं पुनीत जैनधर्म को स्वीकार कर आत्म कल्याण कर । श्राचार्यश्री के इस निष्पक्ष, मार्मिक उपदेश ने सेठजी के हृदय पर गहरा प्रभाव डाला । उन्होंने उसी समय जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और अपनी धर्मपत्नी को भी जैन धर्मोपासिका एवं परमाश्रविका बना दी। अब तो सेठ मुकुंद सूरिजी के परमभक्त बन गये। हमेशा व्याख्यान श्रवण करना उन्हें बहुत ही रुचिकर मालूम ब्राह्मणों का मुकन को ताना मारना Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२४-११७८ होने लगा अतः व्याख्यान के समय तथा उन व्याख्यान के सिबाय अन्य समय में भी जैन धर्मके उत्कृष्ठ तत्वों को समझने के लिये वे सूरीश्वरजी के पास आने जाने लगे। ___कहा है पत्रावलियों से सघन, बने हुए बड़े वृक्ष की छाया भी वृक्ष के आकार के अनुरूप विस्तृत ही होती है । उसके विस्तृत एवं उदार श्राश्रय में सैकड़ों जीव सुखपूर्वक श्राश्रय ले सकते हैं । तदनुसार सेठ मुकुन्द भी भरोंच शहर के एक नामाङ्कित कोट्याधी !! पुरुष थे । उनके आश्रित हजारों और भी व्यक्ति थे जो व्यापार आदि कार्यों में सेठजो की सहायता से अपना, स्वार्थ साधन करते थे। उन्होंने भी अपने श्राश्रयदाता सेठश्रीमुकुन्द के मार्ग का अनुसरण कर जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। जिस दिन से सेठ मुकुन्द ने जैनधर्म स्वीकार किया उस दिन से ही ब्राह्मणों के मानस में चूहे कूदने लगे। वे सेठजी को बार २ यही व्यङ्ग करते कि--पुत्राभाव के कारण व पुत्र प्राप्ति की आशा से सेठजी ने जैनधर्म स्वीकार किया है किन्तु हम देखते हैं कि जैनाचार्य सेठजी को कितने पुत्र देते हैं ? सेठजी इसका स्पष्टो करण करते हुए स्पष्ट कहते - जब तक मुझे कर्म सिद्धान्त का ज्ञान नहीं था, मैं पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा रखता था और अनेकों से इस विषय में परामर्श कर मनस्तुष्टि करना चाहता था पर किसी ने भी मुझे मन संतोषकारक जबाब नहीं दियो पर, जब मैंने जैनाचार्यों से कर्म सिद्धान्त के मर्म को सुना तो मुझे विश्वास होगया कि एक पुत्र ही क्या पर संसार में जो कुछ भी दृष्टि गोचर होरहा है वह सब कर्मों की विचित्रता के कारण से ही है । कोई सुखी हैं तो कोई दुःखी हैं। कोई राजमहलों के अनुपम सुखों का उपभोग कर रहे हैं तो कोई दर २ के याचक बने हुये हैं ये सब पूर्व कृत कमों के ही प्रत्यक्ष फल हैं । इसमें संदेह करना आत्मवंचना है । फिर मेरा जैनधर्म स्वीकार करना भी तो कर्मों के क्षयोपशम का ही कारण है अतः आप लोगों की स्वार्थ विधातक निंदा मेरी अभीष्ट सिद्ध में किञ्चित् भी बाधक नहीं हो सकती। श्राप लोगों के द्वारा की गई निंदा, मेरी उत्तरोत्तर श्रद्धावृद्धि का ही कारण बनेगी । एवं कर्मों का नाश करने में परम सहायक बनेगी मैं तो आप लोगों के एकान्त आत्म कल्याण के लिये श्राप लोगों को भी सम्मति देताहूँ आप, जैनाचार्यों के पास में आकर जैनधर्म के सूक्ष्म एवं गम्भीर स्वरूप को सूक्ष्मता पूर्वक सममें । जैनधर्म ब्राह्मण धर्म से पृथक नहीं है किन्तु ब्राह्मण धर्म के उपदेशकों में-साधुओं में आचार विचार एवं मान्यताओं के विषय की सविशेष विकृति होजाने के कारण, उन के लोभी, लालची, सारम्भी, सपरिग्रही, लोलुपी होजाने से धर्म का दृढ़ अंग भी पन होगया है । बहुत अन्वेषण करने पर भी उसकी वास्तविकता का अनुसंधान करना असक्य होगया है । मांसप्रेमियों से परिचालित इस विभत्स यज्ञ परिपाटी ने ब्राह्मणों को सनातन अहिंसा धर्म से एक दम पराङ्मुख बना दिया है । उक्त कारणों से धर्म का इसमें सत्यत्व का अंश मिलना दुर्लभ होगया है । बन्धुओं ! इसी ऊपरी बनावटी मिलावट ने ब्राह्मण धर्म का नाम मात्र शेष रख दिया है इसके विपरीत जैनधर्म व बौद्धधर्म भारत के ही नहीं अपितु संसार भर के आदरणीय धर्म बनते जारहे हैं । अहिंसादि सात्विक तत्वों की प्रधानता ने इन धर्मों को मनुष्य मात्र के श्रात्म कल्याण के लिये परमो. पयोगी बना दिया है । यद्यपि बौद्ध क्षणिकवादी होने के कारण जैनधर्म की समानता नहीं कर सकता है पर अहिंसादि के सिद्धान्तों की प्रबलता के कारण ब्राह्मण धर्म की अपेक्षा आज दुनिया में इसका बहुत कुछ महत्व है । जैनधर्म तो अहिंसा के साथ ही साथ वस्तुतत्व के प्राकृतिक गुण 'उत्पाद व्यय घ्रोव्ययुक्तसत्' का एनं अनेकान्तवाद का परमानुयायी होने के कारण जन समाज के लिये विशेष हितकारक एवं आत्म कल्याण के सेठ मुकुन्द ने जैनधर्म स्वीकार किया १११७ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४-७७८] [ भगवान पानाथ की परम्परा का इतिहास लिये परमोत्कृष्ट साधन है । इस तरह वे ब्राह्मणों की शंकाओं का समाधान किया करते थे। आचार्यश्री सिद्धसूरिने कुछ समय के पश्चात् अपने शास्त्रीय कल्पानुसार भरोंच नगर से विहार कर धर्म प्रचार करते हुए क्रमशः मरुधर प्रान्त एवं चंद्रावती में पदार्पण किया । इधर कालान्तर में पुन्योदय के प्रभाव से सेठजी के देव प्रभा जैसा सुदर एवं मनको मुदित करने वाला एकपुन हुआ। सेठ जी को पुत्रोत्पत्तिका जितना हर्ष नहीं हु प्रा उतना जैनधर्म की महिमा एवं प्रभावना का आनंद हुआ। कारण सेठजी कर्म सिद्ध न्त के मर्म को जानगये थे ब्राह्मणों को लज्जित करने का एवं सत्य धर्म की सत्यता का यह प्रत्यक्ष उदाहरणथा अतः उनके हृदय में धर्म के प्रति जो अनुराग था वह और भी दृढ़ होता गया। ब्राह्मणा सबलज्जाभार से नतमस्तक हो गये कारण वे यदा कदा समयानुकूल सदा ही सेठजी को व्यंग करते थे कि-"हमारे प्रयत्नों से तो सेठजी के सन्तान नहीं हुई पर जैनधर्म स्वीकार कर लेने के कारण अब जैनाचार्य इनको पुत्र ही पुत्र दे देंगे।" आज उक्त ब्यंग करने वाले ये ही ब्राह्मण ठण्डेगार बन गये । सेठजी के यहां तो पुत्रोत्पत्तिका हर्ष, ब्राह्मणों को लज्जित करने का आनन्द एवं धर्म की प्रभावना क अनुपमेय मोद रूप हर्ष का त्रिवेणी सङ्गा हो गया । आचार्यश्री के इस असीम उपकार की वे रह रह कर प्रशंसा एवं स्तुति करने लगे। उनको नीति का यह वाक्य-"परोपकाराय सतां विभूतयः" याद आने लगा। वे आचर्यश्री का हृदय से आभार मानने लगे। इतने से ही उनको सन्तोष नहीं रहा। सेठ मुकुन्द की तो इतनी भावना बढ़ गई कि एकबार सूरीश्वरजी को पुनः भरोंच में लाना चाहिये जिससे मेरे समान बहुत से दूसरे जीवों का भी आत्म कल्याण हो सके । बस, उक्त भावना से प्रेरित हो उन्होंने अपने श्रादमियों को भेज कर यह खबर करवाई कि- वर्तमान में आचार्यश्री कहां पर विराजते हैं ? यह तो पहिले से ही मालूम था कि सिद्धसूरिजी का चातुर्मास चंद्रावती में निश्चित हो चुका है अतः वे वर्तमान में भी चंद्रावती के आस पास ही विराजित होने चाहिये । उक्त निश्चयानुसार उन्होंने अपने आदमियों को मरुधर भेजे और कोरंट पुर में उन लोगों को आचार्यश्री के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । आये हुए आदमियों ने सेठजी की ओर से वंदन कर के भरोंच की ओर पधारने की प्रार्थना की। इस पर आचार्यश्री ने फरमाया कि-अभी तो कुछ समय तक हमाग विचार मरुभूमि में ही धर्म प्रचार करने का है और चातुर्मास के पश्चात् उपकेशपुर की यात्रार्थ जाने का है फिर तो जैसी क्षेत्र स्पर्शना हो-कौन कह सकता है ? श्रादमियों ने भरोंच जाकर सेठजी को सूरिजी के धर्मलाभ के साथ सब हाल सुना दिये । प्राचार्य श्री के आगमन के भाव में सेठजी को स्वयं ही उपकेशपुर की यात्रार्थ जाना उचित ज्ञात हुआ और उन्होंने अपने उक्त विचारानुकूल उपाध्यायश्री श्री मेरुप्रभजी के अध्यक्षत्व में भरोंच से उपकेशपुर की यात्रार्थ एक संघ निकाला । इस संघ में सेठ, सेठानी नवजात शिशु बगैरह सेठजी का कौटुम्बिक परिवार, एक हजार साधु साध्वी, और बीस हजार अन्य गृहस्थ सम्मलित थे। उ. श्रीमेकप्रभादि मुनियों ने शुभ मुहूर्त में सेठ मुकुन्द को संघपति पद प्रधान किया व शुभ शकुनों को लेकर संघ ने उपकेशपुर की यात्रार्थ प्रस्थान किया मार्ग के मन्दिरों के दर्शन, अष्ठान्हिाका महोत्सव, ध्वजारोहण स्वामीवासल्यादि धर्म प्रभावना के कार्यों को करते हुए संघ क्रमशः उपो शपुर पहुँचा। श्रीसिद्धसूरीश्वरजी म. उपकेशपुर में पहिले से ही विगजित थे। उपकेशपुर के संघ ने भरोंच से आये हुए संघ का श्राचार्यश्री के स्वागत के समान शानदार स्वागत किया । सेठ मुकुन्द ने सूरिजी को वंदन किया और भगवान महावीर की यात्रा कर अपने को अहोभाग्य समझा । १११८ सेठ मुकन्द का भाग्योदय Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य गुप्तसिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२४-११७८ सेठ मुकुन्द सूरिजी के परमोपकार को कृतज्ञतापूर्वक मानते हुए आचार्यश्री की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगा और कहने लगा-प्रभो ! आपने मुझे संसार में डूबते हुए बचाया है। आपके इस असीम उपकार रूपी ऋण से इस भव में तो क्या पर भवोभव में उऋण होना असम्भव है । गुरुदेव ! मेरे योग्य ୯ कुछ धर्म कार्य फरमाकर इस दास को कृतार्थ करें। सूरिजी ने कहा- महानुभाव ! प्रत्येक प्राणी को धर्मोपदेश देकर सत्य मार्ग के अनुगामी बनाना तो हमारा कर्तव्य ही है । इसमें कोई नवीन या विशेष बात तो है ही नहीं । दूसरा हम निर्मन्थों की क्या आज्ञा हो सकती है ? आपको पूर्व पुण्य के संयोग से मनुष्य भव योग्य सम्पन्न सामग्री प्रान हुई है तो इसका जैन शासन की सेवा एवं प्रभावना जन कल्याणार्थ में सदुपयोग कर अपना जीवन सफल बनाओ। श्रावकों के करने योग्य ये ही कार्य है कि जहां अपनी खासी आबादी हो वहाँ आवश्यकतानुकूल जिन मन्दिर का निर्माण करवा कर दर्शन पदाराधन का सुयोग्य पुण्य सम्पादन करना, तीर्थयात्रार्थ संघ निकालना, जैना गमों को लिखवा कर ज्ञान भण्डार की स्थापना करना तथा ज्ञान प्रचार के पुण्यमय कार्यों में सहयोग देना, स्वधर्मी भाइयों की हर तरह से सहायता करना, नये जैन बना करके जैनधर्म का विस्तृत प्रचार करना इत्यादि । इन्हीं कार्यों से आपकी भी आत्मशुद्धि होगी व जिन शासन की सच्ची सेवा का लाभ भी मिज़ सकेगा । सेठजी ने सूरीश्वरजी के उक्त उपदेश को शिरोधार्य कर लिया । वे अत्यन्त आश्चर्य पड़े हुए विचारने लगे कि - धन्य है ऐसे महापुरुषों को जिनके उपदेश में भी परमार्थ के सिवाय स्वार्थ की किञ्चित भी गन्ध नहीं । श्रहा कितना पवित्र जीवन ? कितना उच्चतम आदर्श ? कैसा अपूर्व त्याग ? व जन कल्याण की कैसी आदर्श भावना ? अरे आचार्यश्री के सैकड़ों शिष्य वर्तमान हैं उनमें से बहुतसों के कम्बल, वस्त्र, पात्र, पुस्तकादि श्रमण जीवन योग्य भण्डोपकरण की आवश्यकता होगी पर वे तो इसके लिये भी प्रेरित नहीं करते !! अहा कैसा सादगी पूर्ण त्याग मय जीवन है । इस प्रकार की आचार्यश्री के प्रति उच्चभावनाओं को भावते हुए सेठजी ने पुनः विनय पूर्वक प्रार्थना की भगवन् ! मेरे योग्य आपको सेवा का उचित आदेश फरमाने की कृपा करें। इस पर सूरिजी ने कहा श्रेष्टिवर्य । जैनमुनि निर्ग्रन्थ एवं निस्पृही होते हैं। किसी भी वस्तु का शास्त्र मर्यादा से अधिक संग्रह करना उनके श्रमण वृत्ति का विघातक है । वे अपनी संयम यात्रा के निर्वाह के लिये शास्त्रानुकूल स्वल्प उपकरण रखते हैं और आवश्यकता होने पर गृहस्थियों के घरों से याचना करके ले आते हैं । उनके लिये खास करके बनाई हुई या मोल लाई हुई वस्तु का वे लोग उपयोग नहीं करते हैं । इस प्रकार की वस्तुओं का उपयोग करने वाले तो श्रमण होने पर भी गृहस्थ ही हैं। वर्तमान में हमारे मुनियों के लिये किसी भी प्रकार की वस्तु की आवश्यकता नहीं है फिर भी आपकी भावनाएं अत्यन्त उत्तम हैं । गृहस्थों को सदा ही ऐसे उच्च विचार रखने चाहिये ये भावनाएं मेरे ऊपर रक्खो - ऐसा नहीं किन्तु जो कोई भी पञ्च महाव्रतधारी वीरधर्मोपासक श्रमण निर्मन्थ हो - सबके लिये रखनी चाहिये । सेठ मुकुंद को आचार्य देव की निस्पृहता देख कर पहले के ब्राह्मण और गुरुओं की याद आगई । वे दोनों की तुलनात्मक दृष्टि से तुलना करने लगे-कहां तो वे लोभी, लालची और लोलुपी गुरु जो रात दिन लाभो -- लाओ करते हुए थकते ही नहीं हैं और कहां ये निर्ग्रन्थ महात्मा जो, मेरे बार २ प्रार्थना करने पर भी अपनी पारमार्थिक वृत्ति का ही परिचय दे रहे हैं। विशेष में सेठजी ने निश्चय कर लिया कि संसार में यदि कोई तारक साधु हैं तो, जैन निर्मन्थ मुनि ही । सेमुकन्द ने उपकेशपुर का संघ १११९ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४-७७८] ] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सेठ मुकंद ने आठ दिन तक उपफेशपुर में स्थिरता कर अष्टान्हिका महोत्सव, ध्वजारोहण, पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्यादि धार्मिक कृत्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । पश्चात् सूरिजी को भरोंच पधारने की प्रार्थना कर संघ को वापिस लेकर भरोंच लौट आये । इस प्रकार आचार्य श्री ने अनेक भव्यों को धर्म मार्ग में प्रारूढ़ कर जैनधर्म का गौरव बढ़ाया ।। उपकेशपुरीय श्रीसंघ के अत्याग्रह से सूरीश्वरजो ने वह चातुर्मास उपकेशपुर में करना निश्चित किया । इस चातुर्मास से उपकेशपुर में पर्याप्त धर्म प्रभावना हुई । पश्चात् आचार्यश्री मरुधर के छोटे बड़े प्रामों में धर्मोद्योत करते हुए मेदपाट की ओर पधारे । पट्टावलीकार लिखते हैं कि-देवपट्टन के आस पास दस हजार क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर उन नूतन श्रावकों के लिए आपने पहला चातुर्मास देवपट्टन में किया। इससे उन क्षत्रियों की भावनाएं - जो अभी नवीन जैन हुए थे दृढ़ हो गई। दूसरा चित्रकूट नगर में चातुर्मास किया जिससे जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई । नूतन क्षत्रिय जैन भी, जैनधर्म के पक्के रंग में रंग गये । तत्पश्चात् आवन्तिका प्रदेश की ओर विहार कर आपने एक चातुर्मास उज्जैन में किया और क्रमश: बुन्देलखण्ड और चन्देरीनगरी के चातुर्मासों को समाप्त करके मथुरा की ओर पदार्पण किया । मथुरा में बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया और श्रीसंघ के प्राग्रह से वह चातुर्मास भी मथुग में ही कर दिया । चातुर्मासानंतर वहां से विहार कर भगवान् पार्श्वनाथ के कल्याणभूमि की स्पर्शना करनी थी अतः बनारस की ओर पदार्पण किया। आस पास के तीर्थों की यात्रा करके वह चातुर्मास बनारस में ही कर दिया। आपके विराजने से वहां जैनधर्म की अच्छी जागृति हुई । चातुर्मासानंतर वहां के इर्षा युक्त ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में परास्त कर ११ स्त्री पुरुषों को भगवती जैन दीक्षा दी। फिर आपने पंजाब की और प्रवेश किया। पजाब प्रान्त में आपके बहुत से साधु पहिले से हो धर्म प्रचार करते थे अतः उनको श्राचार्यश्री के आगमन के हर्ष पूर्ण समाचारों से बहुत ही प्रसन्नता हुई । इधर आचार्यश्री ने भी श्रावस्ती नगरी में पदार्पण कर पञ्जाब प्रान्त में विचरण करने वाले सब साधुओं की श्रमण सभा की । उक्त सभा में पंजाब प्रान्तीय श्रमण वर्ग एकत्रित हुआ और आचार्यश्री ने आये हुए साधुओं के धर्मप्रचार की प्रशंसा करते हुए उनके उत्साह वर्धन के लिये योग्य मुनियों को योग्य पदवियां प्रदान की । इस प्रकार उनके उत्साह को विशेष बढ़ाने के लिये स्वयं प्राचार्यश्री ने भी दो चातुर्मास पन्जाब प्रान्त में ही कर दिये । एक तो श्रावस्ती और दूसरा शालीपुर । इस प्रकार पाञ्चाल प्रान्त में दो चातुर्मास करके आचार्यश्री सिंध की ओर पधारे। सिंध प्रान्त में भी आपके शिष्य समुदाय धर्मप्रचार कर रहे थे अतः आचार्यश्री के आगमन के समाचारों से उनके हृदय में नवीन क्रान्ति एवं स्फूर्ति पैदा होगई। क्रमशः विहार करते हुए सूरीश्वरजी जब गोशलपुर पधारे तो वहाँ की जनता के हर्ष का पार नहीं रहा। राव गोसल के पुत्र राव अासलादि ने सूरीश्वरजी का बड़े ही समारोह पूर्वक स्वागत किया। राव आसल बड़ा ही कृतज्ञ था, वह जानता था कि आज हम जो इस उच्च स्थिति पर पहुँचे हैं वह सब स्वर्गीय आचार्यश्री देवगुप्तसूरि का ही प्रताप है । अतः राव अासल ने अत्यन्त कृतज्ञता एवं विनय पूर्ण शब्दों में प्रार्थना की-प्रभो ! एक चातुर्मास का लाभ हम अज्ञानियों को देकर कृतार्थ करें ? आचार्यश्री ने स्वीकार करके वहाँ विराजने से गोसलपुरीय जन समाज में धर्म प्रेम की अपूर्व लगन लग गई। कई भावुक मुमुक्षु तो आचार्यश्री के पास में दीक्षा लेने को तैयार होगये । चातुर्मासानंतर सब दीक्षार्थियों को श्राचार्यश्री ने भगवती दीक्षा दी। उक्त दीक्षार्थियों में एक ११२० दश हजार अजैनों को जैन Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमवाल में० ११२१ से १९७६ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन) कज्जल नाम का भावुक, अत्यन्त होनहार एवं तेजस्वी था। सूरीश्वरजी ने दीक्षानंतर कज्जल का नाम मूर्तिविशाल रख दिया। कालान्तर वहां से विहार कर एक चतुर्मास डमरेलपुर, दूसरा वीरपुर तीसरी उच्चकोट; इस प्रकार कुल चार चातुर्मास सिंध प्रान्त में करके प्राचार्यश्री ने सिंध की जनता में धर्म का खूब उत्साह फैलाया। इस प्रान्त में विहार करने वाले मुनियों की सराहना करते हुए उनको धर्मप्रचार के कार्यों में और भी अधिक प्रोत्साहित किया। योग्य मुनियों को योग्य पदवियों से सम्मानित कर उन की कदर की । पश्चात् आपने कच्छधरा में प्रवेश किया। एक चातुर्मास भद्रावती में सानन्द सम्पन्न करके आपने सौराष्ट्र प्रान्त की ओर पदार्पण किया क्रमशः विहार एवं धर्मोपदेश करते हुए तीर्थाधिराज श्रीशत्रुजय को तीर्थयात्रा की। और आत्म शान्ति के परम निर्वृत्तिमय परमानंद का अनुभव करने के लिये प्राचार्यश्री ने कुछ समय तक यहां पर स्थिरता थी। पश्चात गुर्जर भूमि को पावन करते हुए क्रमशः भरोंच नगर की ओर पदार्पण करना प्रारम्भ किया। भरोंच पट्टन में आचार्यश्री के पदार्पण के शुभ समाचारों ने श्रीसंघ के हृदयों में धर्मोत्साह की पावरफुल बिजली का प्रादुर्भाव कर दिया । सेठ मुकुन्द तो श्राचार्यश्री के दर्शन के लिये बहुत ही उत्कण्ठित एवं लालायित था अतः सूरिजी के नगर प्रवेश महोत्सव में ही नव लक्ष द्रव्य व्यय कर शासन की प्रभावना का वास्तविक लाभ उठाया। पश्चात् सेठ मुकुन्दजी अपनी पत्नी एवं पांच पुत्रों को साथ में लेकर सूरीश्वरजी की सेवा में उपस्थित हुए । आचार्यश्री के अतुल उपकार को व्यक्त करते हुए सेठजी ने कहा-प्रभो! यह आपका लघु श्रावक है। इन्होंने व्यवहारिक एवं धार्मिक विद्या का भी आपकी कृपासे अभ्यास शुरू कर दिया है है।धर्म कार्यों में मेरे साथ अत्यन्त प्रेम पूर्वक भाग लेता है। प्रभु पूजा किये बिना तो इसकी मां भी अन्न, जल महण नहीं करती है । पूज्य गुरुदेव ! आपकी इस अनुग्रह पूर्ण दृष्टि से ही यह चरण सेवक धन, जन, पुत्र परिवारादि से पूर्ण सुखी है । भगवान् ! आपने हमें अन्धकारमय मार्ग से पृथक कर सुखमय सड़क के मार्ग पर लगाया । अापके इस असीम उपकार का बदला हम कैसे दे सकेंगे ! यदि हम इस ऋण से कुछ अंशों में भी उऋण हो सकें तो अपने जीवन को सार्थक सममेंगे । सूरिजीने कहा-महानुभाव ! आप बड़े हो भाग्यशाली हैं। ये सब पूर्वभव के संचय किये हुए पुण्य के पुद्गलों का ही उदय कालीन प्रभाव है । वे प्दय तो होने वाले ही थे पर जैनधर्म की पवित्र शरण में आने के पश्चात ही । श्रेष्टिवयं ! इस प्रवल पुण्यो. दय से जो पुण्यानुबन्धी पुण्य का सञ्चय हो रहा है उसमें मैं तो केवल निमित्त कारण ही हूँ। उपादान कारण तो आपके ही उर्जित किये हुए पुण्य हैं फिर भी आपके इन कृतज्ञता सूचक भावों से आपको धन्यवाद देता हूँ और शास्त्रानुकूल सप्त क्षेत्रों में द्रव्य का सदुपयोग कर लाभ लेते रहने के लिये प्रेरित करता हूँ । पुण्यात्मन् ! यदि यही पुण्य राशि अन्य अवस्था में उदय होती तो पुण्योपार्जन के बदले मिथ्यात्व सन्चय का कारण बनकर आपको अनंत संसारी बना देती किन्तु मुक्ति-मोक्ष नजदीक होने से अपने श्राप जैनधर्म ग्रहण करने की पवित्र भावनाओं का उदय किया और आपके जीवन को एकदम आदर्श बना दिया । मुकुन्द ! मैंने आपको उपदेशपुर में जो उपदेश दिया था-याद है ! मुकन्द ने कहा-पूज्यवर आपके उपदेश को भी कभी भूला जा सकता है ? मन्दिर तो मैंने कवका ही तैय्यार करवा दिया है । जिनायल की प्रतिष्ठा के लिये आपश्री की बहुत ही प्रतीक्षा की किन्तु श्राप तो परोपकारी महात्मा ठहरे अतः धर्म प्रचार में संलग्न आपश्री के दर्शनों का लाभ बहुत प्रतीक्षा के पश्चात् भी न मिल सकने के कारण उपाध्याय. पूरीश्वरजी भरोंच नगर में Jain Educatie Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४-७७८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्री जयकुशल से मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ का संघ निकाल कर यात्रा की पैंतालीस भागमों को लिखवा कर ज्ञान भण्डार की स्थापना की। पूज्य गुरुदेव ! अब आपश्री के पधारने से भी मेरे मन के मनोरथ सफल ही होंगे । सूरिजी - बतलाइये, आपकी क्या मनो भावना है । मुकुद - प्रभो ! एकतो मैंने सम्मेतशिखर की यात्रा का संघ निकालने के लिये एक करोड़ रूपये निकाल रक्स्चें हैं उनका सदुपयोग होना और दूसरा मेरे इन पांच पुत्रों में से किसी एक की आत्मा का कल्याणा करना । सूरिजी - तो क्या पुत्र को दीक्षा दिलाना चाहते और श्राप स्वयं नहीं लेना चाहते । मुकुन्द - पूज्यवर ! मैं वृद्ध हो गया हूँ अतः श्रन्तराय कर्मोदय से किंवा वृद्धवस्था जन्य अशक्तता से दीक्षा का सचा लाभ उठाने में असमर्थ 1 सूरिजी - दीक्षा में कौनसा सिर पर भार लावना है ? दीक्षा का एक मात्र ध्येय तो आत्मकल्याण करने का ही है और वह आपसे इस अवस्था में भी हो सकेगा । कारण, कहा है कि पच्छावि ते पयाया खिप्य ं गच्छन्ति अमर भवणाई । जेसि पिओ तवो संजभो रवंति अ बम्भनेरं च ॥" जब वृद्ध हुए हो तो एक दिन मरना तो अवश्य ही है फिर चारित्रावस्था में मरना तो श्रात्मा के लिये विशेष हितकर ही है । शास्त्रकार तो यहाँ तक फरमाते हैं कि जिनको तप, संयय, क्षमा, ब्रह्मचर्यादि गुणप्रिय हों ऐसे व्यक्ति वृद्धावस्था में भी दीक्षित हों तो देवलोक तो सहज ही में प्राप्त कर सकते हैं। मुकुन्द ! पूर्व जमाने में भी एक मुकुन्द नाम ब्राह्मण ने अपनी वृद्धावस्था में जैन दीक्षा ली थी और वे वृद्धवादीसूरि के नाम से जैन संसार में विश्रुत हुए । उन्होंने अनेक राज सभा त्रों में वादियों को परास्त करने से ही वादी कहलाये । जब उन्होंने अपनी इस अवस्था में भी पठन पाठन का क्रम प्रारम्भ रखा तो एक मुनि ने उपहास जनक शब्दों में उन्हें व्यङ्ग किया --- " इस वृद्धावस्था में पढ़ करके क्या तुम मूशल फूला - वेंगे ?" इस अपमान जनक शब्दों से अपमानित हो उन्होंने सरस्वती का श्राराधन प्रारम्भ किया और काला न्तर में मूशल को नवीन पल्लवों से पल्लवीत कर उन्हें ( तानामारनेवाले मुनियोंको ) प्रत्यक्ष में लज्जित कर दिया | अतः वृद्धावस्था का विचार करके आत्मकल्याण के मार्ग से वंचित रहना श्रात्म गुण विधातक है । मुकुन्द ! मुकुन्द, इस शब्द में ही बड़ा चमत्कार भरा हुआ है अतः अपने मुकुन्द नाम को सार्थक कर आत्मकल्याण वास्तविक श्रेय को सम्पादन करें । मुकुन्द - ठीक है गुरुदेव ! इस पर तो में गम्भीरता पूर्वक विचार करूंगा ही किन्तु पहले मेरे उक्त दोनों मनोरथों को तो सार्थक कर दीजिये । पास ही मुकुन्द की पत्नी एवं पांचों पुत्र बैठे हुए सेठजी के एवं आचार्यश्री के वार्तालाप को स्थिर चित्त से सुन रहे थे। सब शांत, निश्चल एवं मौन थे किन्तु उन सबों के चेहरे पर अलौकिल प्रभा की प्रत्यक्ष रेखा उनके मानसिक आनन्द की सूचना कर रही थी । सूरिजी ने सेठजी के उक्त वाक्य का "जहा सुहं" शब्द से प्रत्युत्तर दिया । मुकुन्द श्रादि आचार्यश्री के चरण कमलों में वंदना कर अपने घर चले आये । कुछ दिनों के पश्चात् सेठ मुकुन्द एवं भरोंच नगर के श्रीसंघ ने चातुर्मास की प्रार्थना की । श्राचार्य भी ने भी अनुकूलता एवं लाभ का कारण देख कर श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार कर ली । बस सबकी ११२२ मुकन्द सकुटम् दीक्षा के उम्दीदवार Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं. ११२४-११०८ प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । बड़े उत्साह पूर्वक सब धर्म कार्य में भाग लेने लगे । सूरीश्वरजी के व्याख्यान का ठाठ तो अपूर्व था । हो सकता है आज के भांति उस समय विशेष आडम्बर वगैरह उतना नहीं होता होगा पर जनता के हृदय पटल पर आत्मकल्याण का तो जबर्दस्त प्रभाव पड़ता । वे लोग संसार में रहते हुए संसार के माया जन्य, प्रपञ्चों से विरक्त के समान काल क्षेप करते थे । द्रव्यादि की अधिकता होने पर भी सांसारिक उदासीनता का एक मात्र कारण हमारे पूर्वाचार्यों को प्रादर्श त्याग, संयम और सदाचार था। उनका उपदेश भी सदा ज्ञान दर्शन की शुद्धि एवं विषय कषाय की निवृत्ति के लिये ही हुआ करता था अतः श्रोताओं के हृदय पर भी उसका गहरा असर पड़ता वे सांसारिक प्रपञ्चों में प्रवृत्ति करने के बजाय निर्वृत्ति प्राप्त करने में ही एक दम संलग्न रहते । एक दिन प्रङ्गानुसार आचार्यश्री ने बीस तीर्थङ्करों की कल्याण भूगि श्रीसम्मेतशिखरजी का, व्याख्यान में इस प्रकार महत्त्व बताया कि उपस्थित श्रोताजनों की भावना उक्त कथित तीर्थ की यात्रा कर पुण्य सम्पादन करने की होगई। इधर सेठ मुकुन्द भी अपना मनोरथ सफल होते हुए देख आचार्यश्री को हृदय से धन्यवाद देते हुए अत्यन्त कृतज्ञता सूचक शब्दों में संघ से आदेश मांगने के लिये खड़े हुए। संघने भी सेठजी को धन्यवाद के साथ सहर्ष आदेश दे दिया। श्रीसंघ से आदेश प्राप्त करके कृतार्थ हुए सेठजी व श्राप के पुत्रों ने तीर्थ यात्रार्थ संघ के लिये समुचित सामग्री का प्रबन्ध करना प्रारम्भ किया। सुदूर प्रान्तों में संघ में सम्मिलित होने के लिये आमन्त्रण पत्रिकाएं भेजी गई । मुनि महात्माओं की प्रार्थना के लिये योग्य पुरुष भेजे गये । इस प्रकार मिगसर वद एकादशी के निर्धारित दिवस को यात्रा का इच्छुक सकल जनसमुदाय भरोंच में एकत्रित होगया। आचार्यश्री ने सेठ मुकुंद को संघपति पद अर्पित किया । क्रमशः सूरीश्वरजी के अध्यक्षत्व और सेठ मुकुद के संघपतित्व में शुभ शकुनों के साथ सम्मेतशिखर की यात्रा के लिये संघने भरोंच से प्रस्थान किया। प्रारम्भ में तो करीब २००० साधु और २५००० गृहस्थ ही थे किन्तु मार्ग में उक्त संख्या में बहुत ही वृद्धि होगई : पट्टावलि कार लिखते हैं-इस संघ में सम्मिलित हो कर ५००० साधु साध्वियों और लक्ष भावुको ने तीर्थयात्रा का लाभ लिया। रास्ते के तीर्थों की यात्रा एवं अष्टान्हिका, पूजा, प्रभाव नादि महोत्सवों को करते हुए संघ ठीक समय पर सम्मेतशिखरजी पहुँचा सम्मेतशिखरजी की यात्रा का पुण्य सम्पादन करने में संघने किसी भी प्रकार को कसर नहीं रक्खी । संघपतिजी ने खूष उदार वृत्ति से द्रव्य व्यय कः संघ यात्रा का सच्चा लाभ लिया। सूरीजी ने संघपति मुकुन्द को कहा--गृहस्थोचित सकल धार्मिक कृत्य तो हो चुके हैं, अब केवल प्रात्म कल्याण का निवृत्ति मार्ग स्वीकार करना ही अवशिष्टरहा है अतः पुण्यात्मन् ! यदि आत्मोद्धार करने की सच्ची इच्छा है तो सावधान होजावें संघपतिजी आचार्यश्री के शब्दों के भावों को ताड़ गये । उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्रों को बुलाकर एतद्विषयक परामर्श किया तो सबके सब दीक्षार्थ तैय्यार होगये । सेठानीजी कहने लगी मेंने तो इस विषय में उस ही दिन से निश्चय कर लिया था पुत्र बोलने लगे-पिताजी! हम आपकी सेवा में तैय्यार है । सेठजी समझ गये कि मेरे पुत्र विनयवान है और मेरी लाज से ही ये दीक्षा के लिये भी तैयार होगये हैं अतः इनकी श्रान्तरिक इच्छा के बिना दीक्षा देना सर्वथा अनुचित है ऐसा सोचकर लल्ल और कल्ल नामक दो पुत्रों को उत्कृष्ट वैराग्य वाला देख अपने साथ में ले लिया और शेष को गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी भार सौंप दिया । अपने ज्येष्ठ पुत्र नाकुल को संघ पतित्व की माला सम्मेतशिखर तीर्थ का संघ मुकन्द की दीक्षा ११२३ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४-७७८] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पहना दी और आपने अपनी पत्नी, दो पुत्र तथा १० दूसरे स्त्री पुरुषों के साथ में परम वैराग्य पूर्वक दीक्षा स्वीकार करली । इन सब भावुकों की दीक्षा के पश्चात् शुभमुहूर्त में संघ पुनः नाकुल के संघपतित्व में लौट गया। मथुरा तक तो आचार्यश्री भी स्वयं संघ के साथ में रहे पर बाद में आप मथुरा में ही ठहर गये । संघ अन्य मुनियों के साथ सकुशल निर्विन भरोंच नगर आगया । संघपति नाकुल ने स्वधर्मों भाइयों को एक एक स्वर्णमुद्रा एवं वस्त्रों की पहिरावणी देकर संघ को विसर्जित किया। सेठ मुकुन्द ने इस संघ के लिये एक कोटि द्रव्य का संकल्प किया था वह व्यय होगया। अहा हा...! आत्मकल्याण के लिये वह जमाना कितना उत्तम था ? था-तो उस समय भी पांचवां आग ही किन्तु जैनाचार्यों के त्याग वैराग्यमय उच्च जीवन ने उसे चौथा आरा बना दिया। ___ आचार्यश्रीसिद्धसरिने अपना शेष जीवन जैनधर्म के अभ्युदय एवं शासन प्रभावना के ही कार्यों में व्यतीत किया । श्राप जैनधर्म के सुदृढ़स्तम्भ, जैनसमाज के परम शुभचिंतक, महाजनसंघ के रक्षक, पोषक एवं वृद्धिकर्ता, वादी विजयी, प्रसिद्धवक्ता, धर्म प्रचारक, वीराचार्य थे । आपने ५४ वर्ष के शासन में अधिक से अधिक धर्मप्रचार किया। आपके वका वीरपरम्पर के बहुत से प्राचार्यवर्तमान थे किन्तु आपका उन सभी आचार्यों के साथ भातृभाव एवं वात्सल्यता थी। सबके साथ हिलमिल कर संगठित अक्षीण शक्ति से शासन सेवा करने का आपका प्रमुख गुण था। आपने जैनश्रमण संख्या में उत्तरोत्तर घृद्धि की उसी तरह महाजनसंघ की भी आशातीत उन्नति की । अन्त में आपने मरुधर के मेदिनीपुर नगर के श्रेष्टिगोत्रीय शा. लीम्बा के महामहोत्सव पूर्वक उपाध्याय मूर्तिविशाल को सूरिपद से विभूषित कर परम्परानुसार आपका नाम ककसूरि रख दिया । पश्चात् परम निवृत्ति में संलग्न हो गये । २७ दिन के अनशन के साथ समाधि पूर्वक स्वर्ग सिधार गये। ऐसे प्रभाविक श्राचार्यों के चरणकमलों में कोटिशः वंदन हो श्रापश्री के द्वारा किये गये शासन के मुख्य २ कार्यों की नामावली निम्न प्रकारेण है: पूज्याचार्य देव के ५४ वर्ष का शासन में मुमुक्षुओं की दीक्षाएं १-उपकेशपुर के श्रेष्टि गौत्रीय सहदेव ने दीक्षाली २-पण्डितपुरा , कालाणी , जालडा ने ३--क्षत्रिपुरी ,, पल्लीवाल , नारायण ने ४-कानाणी संधवी जसाने ५-सालीपुर ,प्राग्वट रांणाने ६-मरोड़ी "प्रावट देदाने ७-नाराणी श्री श्रीमाल करमण ८-भवानीपुर अग्रवाल भोमा ने ९-रूणावती बीरम ने १०-नारवाडी राजसी ने ११- मेदनीपुर पल्लीवाल विमल ने ११२४ सूरिजी के शासन में दीक्षाए "प्राग्वट " भूरि Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] १२ - हर्षपुरा १३ – गोदाणी १४ - पाटली १५ - वैराटपुर १६ - पालिका १७ - चर्प १८- राजपुर १९ - वीरमी २० – गुदिया २१ -लौद्रवापुर २२ - इथीयाणा २३ - देवपट्टण २४ ---त्रासासर २५- चारोट २६ - सोपार २७ - संथुणा २८ - मोहली २९- खेड़कपुर ३० ३१ - नागांणी ३२- टीबाणी ३३- करोली ३४ - मंत्रोरा ३५ - सोजाली करणावाती ३- अचलपुर ४- उच्चाडी ५- उन्नतनगर ६ - उच्चकोट ७ कांटोली we ,, भाद्र 22 " कुम्मट " " प्राग्वट " प्राग्वट श्रीमाल सुचंति 19 75 "" " राका ब्राह्मण चिंचट " " "" " "" " "" ," तप्तभट्ट 19 कन्नोजिया "" 39 "" " कुलहट " लघुश्रेष्ट " प्राग्वट " आदित्य ० आचार्य श्री के ५४ वर्षों देसरडा पोकरणा १- श्रासलपुर के मंत्री २ -- ईठरिया प्राग्वट गोलेचा वप्पनाग श्रर्थ्य विरहट " " भाद्र गो चिंचट श्रेष्टि " प्राग्वट श्रीमाल तप्त भट्ट भूरि मोरख सूरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाए 39 93 गोत्रीय 51 93 " 39 "" 27 17 19 19 19 29 79 19 11 13 99 39 13 " 71 "" 99 99 का [ ओसवाल सं० १९२४-११७८ दीक्षाली छाजू ने जेता मुना रेखाने मुजल ने चाहाड ने खेमा ने सजन ने हरपाल ने नागदेव ने ईसर ने रासा ने पुनड़ ने पदमा ने सांगण ने लोकमण ने तेजाने डावर ने हरजी ने सारंग ने भाणा ने सोमा ने नरवद ने कक्क ने श्रजड़ ने अज्ज ने बोरीदास ने पार्श्वनाथ की म० प्र० जेइलने दाने लाडने भावोने 99 "" महावीर 31 पाश्वनाथ 95 " "} 33 33 "" 33 99 39 77 19 "" 39 99 99 "" "" 33 "" शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं 11 59 "" " 19 "" 17 12 97 53 95 55 39 99 "1 99 19 ११२५ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७२४ से ७७८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास साद्धाने "सुचंति चापाने गान्धी कर्माने ८-कोठरा के संधी भधरने पार्श्वनाथ म०प्र० ९-काबी गोलेचा नेमिनाथ १०-देदोलिया विरहट मालाने श्रादीश्वर ११-पाटडीगांव महावीर १२-भट्टनगर ,, बलाहरांका खुमाणने , १३-भारोटिया श्री श्रीमाल सांगाने १४-लौद्रवपुर , कुलहट कोकाने १५-भंभुलिया , प्राग्वट रणधीरने पार्श्वनाथ १६-नागपुर प्राग्वट हरपालने " १७-छीन्नाई प्राग्वट शाहमाढ़ाने , १८-श्राघाटनगर विमलने मल्लिनाथ १९-माण्डवगढ़ आदित्य शान्तिनाथ २०-उज्जैन बपनाग मालाने धर्मनाथ २१-हालापी नाहटा देवाने पार्श्वनाथ २२-मानपुरा , कुमट खीवसीने , २३-चन्द्रावती " बोहरा रामाने महावीर २०-सारंगपुर वीरमने २५-लावाणी , कनोजिया भोजाने २६-विजयपट्टण , देसरड़ा मालाने २७-हाथाणी , वैनाला रामाने भाविजिन २८-बलीपुर , श्रेष्टि पार्श्वनाथ २९-शिवनगर रावतने ३०-मालपुरा ३१-नारायणपुर श्रीमाल पोमाने ३२-हसावली पोलाने महावीर ३३-- दयालपुरा , डिडु पुनडने सीमंधर ३४-भीमासर , तप्तभट्ट धरमणने महावीर , , सूरीश्वरजी के ५४ वर्षों का शासन में संघादि शुभ कार्य १-शिवपुरी के प्राग्वट राघाने शत्रुजय का संघ २-नाडुली राडाने ३ -- उपकेशपुर , आदित्य गौ० मोणाने ४-नागपुर "बप्पनाग सांगण ने 111uill11111111111111111 " लघुश्रेष्टि वालाने , मोरख श्रीमाल लुबाने प्राग्वट "प्राग्वट के शासन में समानary.org ११२६ Jain Edua e rnational सूरीश्वरजी के शासन में संपादि For Private & Personal use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११२४-११७८ ५-मेदनीपुर के श्रेष्टि गो० कुम्बाने शत्रुजय का संघ ६-मथुरा ,, भूरि गो० कोग्पाल ने ७-लोहाकोट , श्री श्रीमाल गौ० भैरूशाह ने सम्मेत शिखर का संघ, ८-गोसलपुर , आर्य गौ० शाहरांणा ने शत्रुजय का संघ ९- भरोंच ,, प्राग्वट" साढाशाह ने १०-सोपार ,, श्रीमाल बालाशाह ने ११-उज्जैन ,, सुचंति गो० देसल ने १२-कीराटकूप , श्रेष्टि गौ० रघुवीर ने १३-सत्यपुरी ,, भाद्र गौत्रीय मंत्री आभुने १४-चंदेरी ,, वीरहट गौ० शाह अजड़ ने १५-आभानगरी ,, आदित्य गो० शाहभौरा ने १६-हंसावली , चिंचट गो० शाही पुराने १७-शंकम्भरी ,, कुलहट गो. शाह नीबाने १८-लोद्रवपुर ,, डिडु गौत्र शाह हाप्पा ने १९ - नारदपुरी के पल्लीवाल कैसाने एक लक्ष द्रव्य व्यय कर तलाव खोदाया २०-रत्नपुर के अग्रवाल नेता ने दुष्कान में एक करोड़ द्रव्य व्यय किये २१-जंगाल के गांधी दुर्गों युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई (छत्री) इनके अलावा भी वंशावलियों में महाजन संघ के वीर उदार नर रत्नों के अनेक देश समाज के लिये शुभ कार्यों के उल्लेख मिलते हैं पर स्थानाभाव केवल नमूना के तौर पर ही कतिपय नामोल्लेख करदिये हैं। एकचालीसवें पट्ट पारख पुरे, सिद्धसूरि संघ नायक थे। उज्जल गुण छत्तीस विराजे, सूरि पद के वे लायक थे । घूम घूम कर जैनधर्म का विजय डंका बजवाया था। जिन मन्दिरों की करी प्रतिष्ठा, संघ सकल हरखाया था । इति एक चालीसवें पट्ट पर सिद्धसूरिजी म. महान् अतिशय धारी प्राचार्य हुए। जैन कुवा तालाब भी बना सकते हैं ? ११२७ Jain Educ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७४-८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ४२-प्राचार्य श्री कक्कसूरि (नवम्) जातस्त्वार्यकुले दिवाकरनिभः श्रीककसरीः सुधीः दीक्षाभावगतः कुमारवयसि ग्रामस्थलारण्यगः । लोके जैनमतं प्रचार्य बहुधाऽनेकान् जनान् दोक्षया कीर्त्याऽद्यापि विराजते बहुमतो मान्योऽमरो भूतले ।। & AR ज्यपाद, परम त्यागी, उत्कृष्ट वैरागी, शान्त, दान्त, तपस्वी, चन्द्रवत् निर्मल तथा सौम्य, सूर्यवरोजस्वी, समुद्र के समान गम्भीर, कनकाचलवत् अकम्प, पृथ्वीवत् क्षमावान्, धैर्यवान् कांसी पात्रवत् निर्लेप, शंखवत् निरंगण, चंदन समान शीतल, भारण्ड पक्षीवत् अप्र. मत्त, कमलवत् निर्लेप, वृषभवत् धौरी, सिंहवत पराक्रमी, गजवत् अजय, वृक्षवत परोपकार निमग्न, सतरह प्रकार के संयम के धारक, बारह प्रकार के तपके आराधक, दश प्रकार के _ यति धर्म के साधक, अष्टप्रवचन माता के पालक व प्ररूपक, सूरी की आठ सम्पदाय एवं छत्तीस गुण के धारक आचार्यश्री ककसूरीश्वरजी महागज एक महान प्रभावक, युग प्रवर्तक, धर्म प्रचारक प्राचार्य हुए हैं। आपका जीवन चरित्र पट्टावलियों में बहुत विशद रूप में वर्णित है परन्तु हमारा उद्देश्य एवं पाठकों की जानकारी के लिये यहां संक्षेप में ही लिख दिया जाता है । पाठक वृंद चालीसवें पट्टधर आचार्यश्री देवगुप्तसूरिके जीवन में पढ़ पाये हैं कि स्वर्गीय देवगुप्त सूरि ने यदुवंशावतंस आर्य गोशल को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इसो राव गोशल ने सिंध धरा में गोशलपुर की स्थापना की थी। प्राचार्यश्री ने भी गोशलपुर नरेश की प्रार्थना से एक चातुर्मास करके पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा भी करवाई। इसी गोसलपुर में यदुवंशीय भीमदेव नाम के आर्य जाति के एक श्रावक रहते थे । भीमदेव के जैन धर्म स्वीकार करने के पश्चात् उनकी शादी श्रेष्टि वंशावतंस जोधा की पुत्री सेणी के साथ हुई थी। भीमदेव बड़े ही पराक्रमी क्षत्रिय थे। उन्होंने कई बार म्लेच्छों के साथ युद्ध में टक्कर ली और उन्हें परास्त किये । भीमदेव के छ पुत्रियों के पश्चात् एक पुत्र हुआ। वह दीखने में देव कुमार के समान बहुत ही रूपवान् गुणवान् एवं धार्मिक था । दृष्टिपात न होने के कारण उसका नाम कज्जन रख दिया था । आर्य भीमदेव के प्रभुपूजा का अटल नियम था वे संग्राम में जाते तब भी प्रभु प्रतिमा को साथ में रखते । बिना अर्चना, पूजन किये मुंह में अन्न जलभी नहीं लेते । मातेश्वरी सेणी का लक्ष्य भी इसी तरह धर्म कार्यों में था। वह अपने षट् कर्म में नित्य नियमानुसार सदैव तत्पर रहती। कभी भी अपने नियम व दिनचर्या में किसी भी तरह का स्खलन-विघ्न नहीं होने देती। जब माता पिता धर्मज्ञ होते हैं तो उनके बाल बच्चों पर भी धर्म के उसी तरह के स्थायी संस्कार जम जाते है । प्रकृति के इस प्राकृतिक नियमानुसार कज्जल का ध्यान भी धर्मकार्य की ओर विशेष था । वह भी अपने बाल्यावस्थानुकूल बहुत कुछ नियमों को रखता था। विद्याध्ययन में तो आप अपने सब सहपाठियों में हमेशा अप्रसर रहता ११२८ गोसलपुर में सूरिजी का चतुर्मास Jain Education international ww.jainelibrary.org Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ था। कज्जल इतना भाग्यशाली एवं पुण्यवंत जीव था कि इसके होने के पश्चात् उसकी माता सेणी ने चार पुत्रों को और जन्म दिया। जब कब्जल की वय २२ वर्ष की हुई तो भीमदेव ने उसका वाग्दानसम्बन्ध कर दिया था । विवाह होने में अभी दो तीन वर्ष की देरी थी तथापि सबने बड़ी २ आशाएं बांध रक्खी थी। इधर यकायक पुण्योदय से आचार्यश्री सिद्धसुरिजी महाराज का पधारना गोसलपुर में हुआ तब राव आसल वगैरह श्रीसंघ की प्रार्थना से सूरिजी ने गोसलपुर में चातुर्मास कर दिया । चातुर्मास की इस दीर्घ अवधि में आचार्यश्री के व्याख्यानों ने जन समाज पर बहुत ही गहरा प्रभाव डाला। आप अपने व्याख्यानों में त्याग वैराग्य तथा आत्मकल्याण के विषयों पर अधिक जोर देते थे अतः कईभावुकों का मन संसार से उद्विघ्न एवं विरक्त हो गया था। कज्जल भी उन्हीं विरक्त एवं उदासीन मनुष्यों में से एक था । सूरीश्वरजी के वैराग्यमय उपदेश ने कज्जल के युवावस्था जन्य मद को वैराग्य के रूप में परिणत कर दिया । वह दीर्घ दृष्टि से विचार करने लगा कि-जितना परिश्रम संसारावस्था में रह कर उदर पूर्ति के लिये किया जाता है उतना ही मुनिवृत्ति की अवस्था में रह कर श्रात्मकल्याण के लिये किया जाय तो सांसारिक जन्म जन्मान्तर के प्रपञ्च ही नष्ट हो जाय एवं अक्षय सुख मिल जाय मेरी इस युवावस्था का उपयोग संसार वर्धक विषय कषायों में न कर तप, संयम एवं चारित्र की आराधना में किया जाय तो कितना उत्तम हो? ऐसा कौन मुर्ख होगा कि जो पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हस्ति का दुरुपयोग लकड़े के भार को लादकर करे, सोने की थाल में मिट्टी व कचरा भरे, स्वर्ण रस से पैर धौवे, चिन्तामणि रत्न को कौवे उड़ाने में इस इधर उधर फेंक दें ? अतः मुझे प्राप्त हुई इस मानव भव योग्य उत्तम सामग्री का सदुपयोग आत्मकल्याण मार्ग में प्रवृत्ति करके करना चाहिये । इस प्रकार का मन में दृढ़ निश्चय कर कज्जल समय पाकरसूरिजी की सेवा में उपस्थित हुआ और वंदन करने के पश्चात् विनयपूर्ण शब्दों में अपने मनोगत भावों को प्रदर्शित करते हुए कहा-भगवन् ! मुझे आत्मकल्याण करना है । मुझे संसार से सर्वथा अरुचि एवं घृणा होने लगी है । गुरुदेव मुझे संसार के दुखों से भय लगता है इस क्षणभंगुर जीवन के लिये रोरव नरक का पापोपार्जन करके अपनी श्रात्मा कलुषित नहीं बनाना चाहता हूँ। प्रभो! मेरा शीघ्र ही उद्धार कीजिये । इस प्रकार कज्जल के वैराग्य मय वचनों को श्रवण कर सूरीश्वरजी ने उसके वैराग्य को और दृढ़ करते हुए कहा-कज्जल ! तेरे विचार अत्युतम एवं आदरणीय हैं कारण, संसार असार है; कौटुम्बिक मोह स्वार्थ जन्य प्रेम परिपूर्ण है, यौवन हस्ति कर्णवत् चंचल है, भोग विलास एवं पौद्गलिक सुखमय साधन भुजंग सदृश विषव्यापक, क्षण विनाशी एवं दुःखमय ही है । सम्पत्ति--आकाश के गन्धर्वनगर की भांति अस्थिर है, आयुष्य अन्जलीगतनीरवत् अनित्य है । शरीरक्षणभङ्गुर है और अनेक आधिव्याधि उपाधि का स्थान है अतःमनुष्यभव और उत्तमसामग्री का एकमात्र सार आत्मकल्याण करना ही है । कज्जल ! तू तो एक साधारण गृहस्थ ही है पर, बड़े २ चक्रवर्तियों ने चक्रवर्तीऋद्धि एवं ऐश्वर्य का त्याग कर भगवती दीक्षा की शरण स्वीकार की है कारण उक्त सब ठाठ दुःख मिश्रित क्षणिक सुखरूप है तब चारित्रवृत्ति एकान्त सुखावह है, इस भव और परभव दोनों में ही कल्याणकारी है। इसके विपरीत जिन चक्रवर्तियों ने संसार में रह कर सांसारिक भोगों को ही उभयतः श्रेयस्कर जाना है वे आज भी सातवीं नरक की असह्य यातनाओं को भोग रहे हैं । कज्जल ! वर्तमान में तो तेरे पास ब्रह्मचर्य रूप अखण्ड रत्न वर्तमान है अतः इसके साथ तप संयम या ज्ञान दर्शन चारित्ररूप रत्नत्रिय का समागम हो जायगा तो सोने में सुंगध की लोकोपस्यनुसार तू अक्षय ऋद्धि का स्वामी हो जायगा कारण, सर्व गुणों में ब्रह्मचर्य ही उत्तम एवं प्रधान गुण है। आचार्यश्री का व्याख्यान ११२९ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इस प्रकार समयज्ञ सूरिजी ने दो शब्द और उसके वैराग्य को विशेष पुष्ट एवं दृढ़ करने के लिये कहे । कज्जल-पूज्यवर ! मेरी तो एकाकी दीक्षा स्वीकार करने की ही इच्छा है; किन्तु मेरे माता पितामेरी शादी कर मुझे सांसारिक स्वार्थ मय प्रपञ्चों में एवं मोहपाश में बद्ध करना चाहते हैं अतः मुझे दीक्षा के लिये सहर्ष वे आदेश दे देवेंगे इसमें बहुत कुछ शंका है । तो क्या उनके आदेश बिना भी अन्य किसी स्थान पर--जहां आप विराजित होंगे--- मेरे आने पर मुझे दीक्षा दे सकेंगे ? सुरिजी-काजल ! इससे तेरी भावनाओं की दृढ़ता तो अवश्य ही ज्ञात होती है किन्तु माता पिता की आज्ञा बिना दीक्षा देना हमारे कल्प विरुद्ध है । इससे हमारे तीसरे महाव्रत में दोष लगता है। श्रमण वृत्ति एवं चारित्र धर्म कलंकित होता है । हमारे पर चोरी का कलंक लगता है। यदि हम भी ऐसी तस्कर वृत्ति करें तो फिर हमारे और चोरों में फरक ही क्या रहेगा ? दूसरा तेरे लिये भी यह एक दम व्यवहार विरुद्ध अनीति का ही मार्ग है कारण आज तू माता पिता की आज्ञा का अनादर करता है तो, कल हमारी आज्ञा का भी उल्लंघन करेगा। इससे तुम्हारा और हमारा आत्मकल्याण कैसे हो सकेगा ? तुम्हारा तो कर्तव्य है कि हरएक तरह से नम्रता पूर्वक माता पिताओं को समझा बुझाकर उनकी आज्ञा प्राप्त करके ही दीक्षा स्वीकार करो। इससे तुम्हें आत्म वंचना का दोष भी नहीं लगेगा और हमारे साधुत्ववृत्ति में भी किसी भी प्रकार का भांगा उपस्थित नहीं हो सकेगा बिना आदेश के तस्करवृत्ति को अपनाना तो चारित्रवृत्ति को दृषित ही करना है अतः किसी भी कार्य में अपने पवित्र कर्तव्यों का विस्मरण करना अज्ञानता है। कजल ! तेरे पिता के तो तेरे सिवाय चार पुत्र और भी है और अभी तक तेरा विवाह भी नहीं हुआ है। पर पूर्वकालीन महापुरुषों को आदर्श त्याग का तो विचार कर । देख-थाबच्चापुत्र मेघकुमार, धन्नाकुवर, जमाली कुमार शालिभद्र, और अमन्त कुमार वगैरह तो अपनी २ माता की इकलोतीसी सन्तान थे। इनके पीछे क्रमशः आठ एवं बत्तीस २ विवाहित स्त्रियां थी फिर भी ये सब महापुरुष अपने २ माता पिताओं को हर एक तरह से समझा बुझाकर ही दीक्षित हुए तो क्या तू इतना ही नहीं कर सकता है। अभी तो तू गार्हस्थ्य सम्बन्धी प्रत्येक झंझट से मुक्त स्वतंत्र है। वैवाहिक बंधन पाश से अलग है अतः हर एक कार्य को श्रासानी से सम्पन्न कर सकता है। काजल ! जैनधर्भ न्याय एवं नीतिमय है । यदि धर्म में अनीति का जरा सा भी स्पर्श हो तो संसार से पार होना ही मुश्किल है अतः धर्म व्यवहार से भी माता पिता की आज्ञा बिना न तो तुझे दीक्षा लेनी चाहिये और न मुझे देनी ही चाहिये । कन्जल --गुरुदेव ! जब मेरी तीव्र इच्छा दीक्षा लेने की है तो इसमें माता पिता के आदेश की जरूरत ही क्या है ? वे तो अपने स्वार्थ के कारण आज्ञा प्रदान करें या न करे आपको तो लाभ ही है। श्राप मेरी इच्छा से मुझे दीक्षा दे रहे हैं अतः मेरी आत्मा का कल्याण होगा तो फिर आपको क्या हानि सहन करनी पड़ेगी? सूरिजी-काजल ! तेरी दीक्षा लेने की भावना है यह एक दम निर्विवाद सत्य है और दीक्षा लेने से तेरी आगा का कल्याण होगा इसमें भी किसी तरह का संदेह नहीं है पर व्यवहार को तिलान्जली देकर निश्चय को ही स्वीकार कर लेना स्वाद्वाद सिद्धान्त के विपरीत है । व्यवहार ऐसा बलवान है कि निश्चय के साथ उसको भी समान मान देना ही पड़ता है । दूसरा जैन सिद्धान्त 'तिन्नाणं तारियाणं' अर्थात्- आप स्वयं संसार से तिरे और दूसरों को भी संसार समुद्र से तार कर पार उतारे-ऐसा है न कि श्राप डूबे और विना आज्ञा दीक्षा की चर्चा ११३० Jain Educatio te national Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ दूसरों को तारे ऐसा है। जब तुम को बिना आज्ञा दीक्षा देकर हम हमारे व्रत का खण्डन करें तो इससे तुम तो तिरे पर हम तो संसार के पात्र ही बने । इससे तो हमारा शिष्य मोह और मारा कपट दोष जो मिथ्यात्व के पाये हैं -बढ़ते रहेंगे। परिणाम स्वरूप जिस आशा एवं विश्वास पर पौद्गलिक पदार्थों का त्याग कर चारित्र वृत्ति की शरण ली है वह तो हमारे लिये निरर्थक ही सिद्ध होगी। संसारावस्था को छाड़ कर के भी संसारिक प्रवृत्ति के अनुरूप ही हमारा चारित्र रहेगा । कज्जल ! जरा गम्भीरता पूर्वक जैन दर्शन के सिद्धान्तों का मनन करो। यदि कदाचित तुम्हारे अत्याग्रह से माता पिता की बिना आज्ञा हमने तुमको दीक्षा दे भी दी तो आगे तुम भी इसी तरह की प्रवृत्ति का प्रदुर्भाव कर देंगे जिससे संसार से तैरने का रास्ता तो एक दम बंद हो जायगा और मोह, माया, कपट, मिथ्यात्व एवं तृष्णा का अधिक्य ही वृद्धिगत होता रहेगा अतः अपने किम्वित् स्वार्थ के लिये धर्म पर कुठाराघात करना निरी अज्ञानता है । कज्जल ! तुम्हारा यह भ्रममात्र है कि तुम्हारे कहने पर भी माता पिता तुम्हें आज्ञा न दें। भला-जाते और मरते हुए को दुनियां में कौन रोक सकता है ? पर इसके लिये चाहिये दिल की दृढ़ भावना, सच्चा वैराग्य, श्रात्म विश्वास विचारों की दृढ़ता एवं मन का परिपक्वपना । कज्जल ! देख; हम और हमारे इतने साधु हैं। क्या हमारे और इनके माता पिता नहीं थे ? या हम से किसी के माता पिता ने उसे निर्मोही की तरह श्राज्ञा दे दिया ? यदि नहीं तो माता पिताओं को समझना और उन्हें निवृत्ति पथ के पथिक बनाना तुम जैसे मेधावियों का काम है । आज हमारे पास वर्तमान इन साधुओं के माता पिता जब अपने पुत्र को ज्ञान, ध्यान, चारित्र आदि में उत्कृष्ट वृतिकों देखते हैं तो उनके हर्ष का पारावार नहीं रहता है। वे अपना अहोभाग्य समझ कर उन साधुओं के चरणों में मुहुर्मुहु वंदन करते हैं अतः यदि तुम्हारी दीक्षा लेने की सच्ची भावना है वो तुम्हें माता पिताओं की सर्व प्रथम आज्ञा प्राप्त करनी ही होगी। तब ही हम दीक्षा देंगे ? ___ कजल-पूज्यपाद गुरुदेव ! श्रापको कोटिशः नमस्कार हो । आप जैसे निस्पृही एवं विरक्त महास्मा संसार में विरलेही होंगे। धन्य है इस परमपवित्र जैनधर्म को कि जिसके संचाल : तीर्थङ्कर देवों ने धर्म के ऐसे दृढ़ एवं आदरणीय नियम बनाये हैं । वास्तव में इन्हीं नियमों की कठोरता के कारण ही जैनधर्म का अन्यधर्मों की अपेक्षा दुनियां में विशेष स्थान है । जैनश्रमणों का चारित्र, आचार व्यवहार अन्य साधुनामधारियों की अपेक्षा सहस्रगुना उत्कृष्ट है इससे नतो जैनधर्म की निंदा होती है और न जैनधर्म कि धुरा को धारण करने वाले श्रमणों पर अविश्वास ही । न अनीति को मदद मिल सकती है और न मिथ्यात्व का पोषण हो सकता है । वास्तव में संसार में वर्तमान धर्मों में जैनधर्म ही वास्तविक 'तिन्नाणं तारयाणं' है । गुरुदेव ! आपकी आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाता हूं। प्रभो मातापिता की आज्ञा लेकर दीक्षा स्वीकार करुंगा ! सूरिजी-कज्जल ! इसमें तेरा और हमारा दोनों का ही कल्याण सन्निहित है। धर्म की मान मर्यादा भी इसी में ही है। ____ कज्जल -- जी हां ! कह कर सूरिजी के चरणकमलों में वंदन किया और माता-पिता से आदेश प्राप्त करने के लिये अपने घर पर चालकर आया । घर पर आते ही मातापिताओं के सम्मुख दीक्षा के लिये आग्रह करने लगा व सूरिजी के साथ में हुई वार्तालाप का सकलवृत्तान्त कहने लगा। माता पिताओं को बहुत ही आश्चर्य एवं दुःख हुआ कारण, वे काजल को अपने से विमुक्त नहीं देखना चाहते थे पर कज्जल का निश्चय तो अचल था। बहुत अनुकूल, प्रतिकूल कथनों से समझाने पर भी जब कज्जल ने अपना कजल का वैराग्य ११३१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास निश्चय नहीं छोड़ा तो माता पिताओं को दीक्षा के लिये श्राज्ञा देनी ही पड़ी । श्राखिर कज्जल ने अपने ७ साथियों के साथ सूरीश्वर जी म. सा. के पास दीक्षा ग्रहण कर ही ली। दीक्षानंतर श्रापका नाम मूर्ति विशाल रख दिया । मुर्ति मूर्तिविशाल सिंघप्रांत के सुपुत्र थे अतः उन्होंने चारित्रवृत्ति को जिन श्रादर्शभावनाओं से प्रेरित हो अङ्गीकार की उनका निर्वाह करने के लिये वे स्थाविरों को विनय, भक्ति वैयावृत्य व उपासना करते हुए ज्ञान सम्पादन करने में संलग्न हो गये । वह गुरुकुल वास का जमाना से पवित्र एवं आदर्श था कि उस समय श्राज के जैसे स्वेच्छाचारियों व मुनिवृत्तिविघातक मुनियों का अस्तित्व ही नहीं रहने पाता था । वे गुरु पास में रद्द कर ज्ञान दर्शन चारित्र की वृद्धि करने में संसार त्याग की महत्ता समझते थे । इसमें मुख्य कारण तो उनके विनय व वैराग्य की दृढ़ता थी । श्राज के जैसे ऐरे गेरे को वे मुण्डित नहीं करते थे क्योंकि शासन की लघुता में तो वे अपनी लघुता समझते थे । उनके हृदय में इस बात का गौरव था कि हम संसार का त्याग आत्मकल्याण के लिये किया है फिर आत्मगुण विघातक वृत्तियों का पोषण एवं रक्षण कर आत्मवश्वना का बड़ा पाप सिर पर कैसे लादें ? इन्हीं सब कारणों से दीक्षा के पश्चात् ज्ञानाराधना करने को वे अपने जीवन का एक मुख्य अंग ही बना लेते थे । ज्ञावरणीय कर्म के क्षयोपशामानुसार वे गुरुदेव की सेवा करते हुए अतृप्त की भांति ज्ञानाध्ययन किया ही करते थे । यद्यपि उस समय चैत्यवासियों के आचार, विचार एवं व्यवहार में यत् किञ्चित् शिथिलता का प्रवेश हो गया था तथापि, गुरु की श्राज्ञा का पालन करना और ज्ञान पढ़ना तो उनमें भी मुख्य समझा गया था । मूर्तिविशाल ने श्राचार्यश्री की सेवा में १९ वर्ष पर्यंत रह कर अनवरत परिश्रम पूर्वक वर्तमान जैन साहित्य का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया । शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही साथ उस समय के लिए आवश्यक न्याय, व्याकरण, छंद तर्कादि शास्त्रों का भी खूब सूक्ष्मता पूर्वक मनन किया था। इन विद्याओं के सिवाय गुरु परम्परा से विद्या, आम्नाय, सूरि मंत्र की साधना वगैरह२ सूरिपद के योग्य सर्व योग्यताएं हांसिल कर ली । यही कारण है कि आचार्य श्रीसिद्धसूरिजी अपने अन्तिम समय में मेदनीपुर नगर में आदित्यनाग गौत्र की गोले चाशाखा के धर्म वीर शाह श्रादू के महामहोत्सव जिसमें पूजाप्रभावना स्वामिवात्सल्य और साधर्मी नर नारियों को पेहरावरणी आदि में सात लक्ष द्रव्य शुभ कार्यों में एवं याचकों को पुष्कल दान देने में व्यय किया और सूरिजी महाराजने मुनिमूर्त्तिविशाल को बड़े ही समारोह के साथ सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम परम्परानुसार कक्कसूरि रख दिया । श्राचार्य श्रीकक्कसूरिजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली आचार्य थे । श्रापका तपतेज एवं ब्रह्मचर्य का प्रचण्ड प्रताप मध्यान्ह के सूर्य के भांति सर्वत्र प्रकाशमान था । एक और तो जैनधर्म से कट्टरता रखने वाले बादियों के संगठित हमले रह २ कर जैनधर्म पर वस्त्र प्रहार कर रहे थे । और दूसरी ओर चैत्यवासियों के आचार विचार एवं नियमों की कुछ शिथिलता समाज की जड़ को खोखली कर रही थी श्रतः श्रापश्री को शासन का गौरव बढ़ाने के लिये दिग्गज विद्वानों का सामने शास्त्रार्थ करना पड़ता और जैनश्रमणों के जीवन को पवित्र एवं निर्दोष रखने के लिये पुनः पुनः उन्हें प्रोत्साहित करना पड़ता । ऐसे विकट समय में जैनशासन की आपश्री ने किस तरह रक्षा एवं वृद्धि की यह सचमुच आश्चर्योत्पादक ही है। यह तो हम पहिले ही लिख ये हैं कि कालदोष से कई चैत्यवासियों के आचार विचार एवं व्यबहार में कुछ शिथिलता अवश्य आगई थी पर उनके गेम २ में जैनधर्म के प्रतिदृढ़ अनुराग भरा हुआ ११३२ चैत्यवासिया का आचार Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककरि का जीवन ! [ ओसवाल सं० १९०८-१२३० थावे शासन की उन्नति में ही अपनी उन्नति एवं गौरव समझते थे । यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से वे चारित्र को निर्दोष नहीं पाल सके तथापि जैनशासन की हर तरह से उन्नति एवं प्रभावना करने में उन्होंने कुछ भी पार नहीं रक्खी ! उस समय जैनधर्म की धवल यशः पताका यत्र तत्र सर्वत्र फहरा रही मसूर और शीलगुणसूरि जैसे जैनधर्म के स्तम्भ उस समय विद्यमान थे। इनका विशद जीवन चरित्र वीर परम्परा के प्रकरण में लिखा जायगा । प्राचार्यश्री सूरिने सर्व प्रथम घर की बिगड़ी हालत को सुधारने का प्रयत्न किया कारण, उन्होंने सोचा कि अमणवर्ग की शिथिलता दूर होकर उनमें उत्साह एवं धर्मप्रेम की नवीन स्फूर्ति का सञ्चार होजाय तो जैनधर्म का विस्तृत प्रचार उनके जरिए स्थानों २ पर कराया जा सकता है । बस, उक्त भावनाओं से प्रेरित हो श्रापश्री ने स्थान २ पर श्रमण सभाएं करवाई उनमें से एक सभा चंद्रावती में भर वाई जिसमें अगत भगण मण्डली का तिरस्कार करने के बजाय उनके कर्तव्य की स्मृति करवाते हुए प्रत्य न्त मधुर उपालम्भ देते हुए समझाया कि - श्रमण बन्धुओं । भगवान महावीर ने अपने शासन की डोर आप लोगों के हाथ में दी है। यदि इसका सञ्चालन एवं रक्षण अपना कर्तव्य समझते अपन नकरें तो सचमुच इग लोग अपनी श्रवृत्ति के पवित्र जीवन से कोसों दूर हैं। शासन के प्रति विश्वासघात करके निकाचित कमों के बंध कर्ता है। भला सोचने की बात है कि -- वीरभगवान् के बाद भी दीर्घदर्शी पूर्वाचार्यों ने हमारी सहूलियत के लिये नगे जैन बनाकर महाजनसंघ रूप एक सुदृढ़ संस्था की स्थापना का हमारे ऊपर कितना उपकार किया है ? उन पूर्वाचार्यों ने जिन कष्टों एवं परिषहों को सहन करके सुदूर प्रान्तों में धर्म प्रचार किया उनमें से हमको जो किन्चित भी धर्म प्रचार में संकट सहन नहीं करने पड़ते कारण उन्होंने कण्टकाकीर्ण मार्ग को सुसंस्कृत एवं परिष्कृत कर दिया फिर भी यदि हम लोग शास्त्रीय नियमों की पर वाह किये बिना कर्तव्य पराङ्मुख बन जानें तो हमारे जैसे कृतघ्न एवं शासन द्रोही और कौन होसकते हैं ? हमारे उन आदर्श पूर्वाचार्यों के समय तो द्वादशवर्षीय जनसंहारक महा भीषण दुष्काल पड़े फिर भी उन्होंने ऐसे विकट समय में जैन संस्कृति की अपनी सम्पूर्ण शक्ति सत्ता से रक्षा की तो क्या उनके द्वारा बनाये हुए करोड़ों की तादाद आज अपने भरोसे पर है तो अपने कर्तव्य का आप लोग अपने ही आप विचार करलें । जैसे एक पिता अपने पुत्रों के विश्वास पर करोड़ों की सम्पत्ति को छोड़ जाता है तो पुत्रों का कर्तव्य जनकोपार्जित लक्ष्मी की न्याय पूर्वक वृद्धि करने का ही होजाता है । यदि बढ़ाने जितनी योग्याता उनमें नहीं है तो कम से कम रक्षण करना तो उसका परम कर्तव्य ही होजाता है । अस्तु, उक्त कर्तव्य की स्मृति पूर्वक जब तक वह इस द्रव्य को उतने ही परिमाण में रहने देता है तब तक तो संसार में उसकी कुछ मान मदा एवं प्रतिष्ठा रहती है परन्तु पुत्रों के प्रमाद, बे परवाही एवं विलासी जीवन का लाभ उठाकर कोई दूसरे प्रतिपक्षी उ वन को हड़प कर लेवे और समर्थ पुत्र अपनी आंखों से उसको देखता रहे तो इसमें न तो पुत्र की शोभा ही रहती है और न संसार में मान मर्य्यादा ही बढ़ती है । न वह अपना सांसारिक जीवन सुखमय व्यतीत कर सकता है और न किसी योग्य कार्य के काविल ही रहता है । इतना ही क्या पर प्रतिपक्षियों की प्रबलता के कारण उसका अस्तित्व रहना भी कालान्तर में दुष्कर होजाता है। यही हाल आज अपने शासन का होरहा है। यदि आप लोग शासन की रक्षा के लिये कमर कसकर तैय्यार न होवेंगे तो निश्चित् ही एक समय ऐसा आवेगा कि जैनधर्म का नाम संसार में पुस्तकों की शोभा रूप ही हो जायगा । चन्द्रावती में श्रमण सभा - ११३३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्रिय आत्मबन्धुओं ! जिन सुविहित शिरोमणियों ने चैत्यवास प्रारम्भ किया था— उन्होंने आधाकर्भी मकान के पाप के भय से ही किया था । उनको तो स्पप्न मात्र में भी यह कल्पना नहीं थी कि आज के हमारे चैत्यवास का परिणाम भविष्य में इतना भयङ्कर होगा । उन्होंने तो पातकभय से, व जिनालय की रक्षा निमित्त ही चैत्यवास को स्वीकृत किया था । उनके हृदय में यह कल्पना तक नहीं थी कि हमारे पीछे हमारी सन्तान इस चैत्यवास के कारण शिथिल होकर मठवासियों की तरह पहिचानी जायगी यदि उन्हें भयङ्करता के विषमय विषम परिणाम की कल्पना होती तो उस समय के लिये परमोपयोगी चैत्यवास का प्रारम्भ ही नहीं करते । बन्धुओं ! जिस समय हम लोग संसारावस्था को त्याग कर चरित्र वृत्ति लेते हैं उस समय हमारे हृदय में शासन के प्रति एवं चारित्र के प्रति कितनी उत्कृष्ट भावनाएं रहती हैं ? यदि भावनाओं की उच्चता एवं विचारों की आदर्शता चरम समय पर्यन्त तद्रूप न रहे तो निश्चित ही साधु वृत्तिस्वादुवृत्ति के नाम से निर्दिष्ट हो जायगी । यदि साधुवृत्ति के पवित्र जीवन में भी गृहस्थ जीवन के समान aar गृह की निर्माण भावना रहती हो, पौद्गलिक मन मोहक पदार्थों में मोह रहता हो तो हमारा संसार छोड़ना और न छोड़ना दोनों ही समान है । मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि इस प्रकार के शिथिल एवं श्राचार विहीन साधुओं से तो गृहस्थों का गार्हस्थ्य जीवन ही सुखमय है जो अपने थोड़े बहुत नियमों को यावज्जीवन पर्यन्त सुख से निभाते हैं । बन्धुओं इस प्रकार की शास्त्रमर्यादा का अतिक्रमण करने से अपने दोनों ही भवबिगड़ जायेंगे । कृतघ्नता एवं विश्वासघात के वस्त्र पाप से भी अपने आप को सुरक्षित नहीं रख सकेंगे । कारण, इस समय जो अपने को मुनिवृत्ति निर्वाहक साधनोपकरण उपलब्ध होते हैं । वे सब भगवान महावीर के नाम पर ही । अतः इसके बदले में हम शासन की सेवा रक्षा एवं अपने आचार विचार में पवित्रता न रक्खें तो निश्चित ही हम शासन द्रोही कलंकित हैं। जनता का आपके ऊपर पूर्ण विश्वास है । वे समझते हैं कि हमारे गुरुत्रों का जीवन अत्यन्त निर्मल एवं त्यागमय है अतः उनकी हर तरह की सेवा का लाभ लेना हमार कर्तव्य है अस्तु | अपनी जीवनचर्या में इस प्रकार की शिथिलता रख कर तो उनके साथ भी विश्वासघात ही करना है कारण वे अपने को त्यागी समझ कर अपने साथ शासन मर्यादा बराबर निभाते आ रहे हैं तो अपना कर्तव्य भी उनके मंतव्यानुसार आचार विचार को पवित्र रखना होजाता है । इसी में अपनी जीवन की उन्नति श्रम कल्याण की पराकाष्ठा, एवं मोक्षसाधन की उत्तम क्रिया अन्तर्हित है। शासन की प्रभावना एवं सेवा भी इसमें शामिल है । इत्यादि । इस प्रकार आचार्यश्री ने परम निर्भीकता पूर्वक सचोट, दुःखी हृदय का दर्द श्रमण सभा में स्पष्टवक्ता के समान स्पष्ट प्रगट कर दिया । अन्त में आपने फरमाया की मैंने मेरे दग्ध हृदय से कुछ कटु ए अनुचित शब्द भी आप लोगों के लिये कहे हैं पर क्या किया जाय ? शासन का पतन देखा नहीं जाता है। अपने लोगों की शिथिलता समाज की जड़ को खोखली बनाकर समाज को मृत प्राय बना रही है अतः अपने जीवन की पवित्रता शासनोत्थान के लिये सर्व प्रथम श्रावश्यक है । मुझे उम्मेद है कि वीर की सन्तान वीर ही हुआ करती है अतः आप लोग भी भगवान् महावीर की सन्तान होने का दावा करते हैं तो शीघ्र ही वीर पताका को पुनः चतुर्दिक में लहरा दीजिये । सिंह भले ही थोड़ी देर के लिये प्रमादावस्था में पड़ा रहे पर सिंह शृंगोल नहीं हो सकता सिंहोचित स्वाभाविक प्रतिमा तो उसके मुख पर सदा झलकता ही रहती है | देखिये-— शास्त्रों में एक उदाहरण बतलाया है । ११३४ आचार्यश्री का श्रमणों कों उपदेश www.jainenbrary.org Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसबाल सं२ ११७८-१२३७ एक वृद्ध किसान का नदी के किनारे पर गेहूँ का खेत था । किसान की सम्भाल से खेत में प्राशा. तीत गेहूँ की उत्पत्ति हुई। सारा ही खेत गेहूँ से हग भरा दीखने लगा । जब धान्य पक गया किसान मजदूरों से गेहूँ कटवाने लगा पर किसान को सूर्यास्त होने के बाद दीखता नहीं था कारण वह रातान्ध था; अतः उसने मजदूरों से कहा-भाई ! तुम दिन अस्त होने के पूर्व ही अपना काम निपटा कर चले जाओ। मजदूरों ने इसका कारण पूछा तो किसान ने उच्च स्वर से पुकार कर कहा-मुझे सज्जा (सूर्यास्त के समय) का बड़ा भारी भय लगता है । सब मजरों को सुनाने के लिये उसने इसी बात को दो तीन बार कहा । कि मुझे जितनासिंह से भय नहीं उत्तना संज्जा से भय लगता है। इधर नदी की एक ओर खोखाल में एक सिंह पड़ा हुआ था। उसने किसान के शब्दों को सुनकर सोचा कि सज्जा भी कोई मेरे से अधिक शक्तिशाली जानवर होगा इसी। इन लोनों को मेरे नाम का जितना भय नहीं उतना सज्जा के नाम का भय मालूम पड़ रहा है। इप्स ताह सिंह के हृदय में भी सज्जा विषयक संशय-भय होगया । उसी गांव में एक वृद्ध धोबी भी रहता था; वह नागरिकों के कपड़े धोकर अपना गुजारा करता था। ग्राम से दो माईल की दूरी पर कपड़े धोने का एक घाट था अतः कपड़े ले जाने के लिये एक मोटा माता गधा रख लेना पड़ा था । गधा शरीर में खूब मोटा, तगड़ा एवं तन्दुरुस्त था । एक दिन सूर्यास्त होने पर भी गधा नहीं आया तो धोबी मारे गुस्से के हाथ में लठ्ठ लेकर उसे खोजने को गया। भाग्यवशात् धोबी को भी रात्रि में कम दीखता था अतः जब वह दंढते २ नदी पर आया तो नदी के किनारे पर एक सिंह पड़ा हुआ देखा । कम दीखने के कारण उसको सिंह में ही गधे की भ्रान्ति होगई और क्रोध के आवेश में पांच सात लट्ठ सिंह के जमा दिये । इधर सिंह ने सोचा कि-सज्जा नाम के जो मैंने मेरे से बलवान प्राणी के विषय में सुना था-हो-न हो वह यही सज्जा है । बस इसी भय और शंका के कारण उसने धोबी के सामने चूं तक भी नहीं किया । धोबी भी उसे गधा समझ उसके गले में रस्सा डाल अपने घर पर ले आया । गत्रि में भी सज्जा के भय से सिंह चुपचाप ही रहा । जब अाधा घंटा रात. शेष रही तब धोबी ने प्राम के सब कपड़े सिंह पर लाद कर घाट पर जाने के लिये प्रस्थान किया । मार्ग में सूर्योदय होते ही पहाड़ पर से एक सिंह का बच्चा पाया । उस अपने जातीय वृद्ध सिंह की इस प्रकार की दुर्दशा देखी नहीं गई। उसे बड़ा ही पश्चापात हुआ कि सिंह जैसा पराक्रमी पशु गधे के रूप में कपड़े लादने रूप भार का वहन करने वाला कैसे दृष्टिगोचर हो रहा है ? उसने पास में आकर वृद्ध सिंह को पूछा-बाबा यह क्या हालत है ? वृद्ध शेर ने कहा-तू अभी वच्चा है मत बोल, देख-यह सज्जा नाम का अपने से भी पराक्रमी जीव है । इसने मुझे तो ऐमा पीटा है कि-मेरी .मर ही टूट गई हैं । अगर तू भी चुप रहने के बदले कुछ बोलना प्रारम्भ करेगा तो तुझे भी इसी तरह पीटेगा- मारेगा अतः जैसे आया वैसे चले जाना ही अच्छा है। यह सुन शेर का बच्चा सोचने लगा- संसार में सिंह से शक्ति शाली तो दूसरा कोई जोव वर्तमान नहीं फिर सज्जा का नाम भी कभी सुनने में भी नहीं आया अतः अवश्य ही बाबा के हृदय में एक तरह भय प्रविष्ट हो गया है। बस इस संशय को निकालने के लिये मुझे किसी न किसी तरह प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिये । यद्यपि मैं बच्चा हूँ,-बाबा को शिक्षा या उपदेश देने का अधिकारी नहीं पर मौका ऐसा ही आ गया है अतः अपनी जातीय गौरव खोना युक्ति युक्त नहीं। इस तरह मन में संकल्प विकल्प कर सिंह को कहा बाबा ! सज्जा तो कोई जानवर ही नहीं है । आप व्यर्थ ही भ्रम में पड़े हुए हैं । यदि मेरे कहने पर आपको विश्वास न हो तो आप एक किसान का उदाहरण ११३५ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ -८३० ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बार गर्जना करके देख लेवें । शिशु सिंह के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर भी वृद्ध सिंह की गर्जना करने की या सज्जा का सामना करने की हिम्मत नहीं हुई पर, बच्चे श्रत्याग्रह से वृद्ध शेर हाथल पटक सिंहोचित गर्जन शुरु किया । विचारा धोबी नयी आफत आ जाने से घबरा गया। कपड़े सब ही गिर गये वृद्ध सिंह ने अपना असली स्वरूप पहिचानने में उस बच्चे का उपकार और अहसान माना । और धोबी के पब्जे में से छूट कर निडरता पूर्वक पहाड़ों की कंदरा में स्वतन्त्र होकर विचरने लगा ! सूरिजी के उदाहरण ने तो मुनियों के हृदय पर गहरी छाप डाली । आगत श्रमण मण्डली में नवीन चैतन्य स्फुरति होने लगी । धर्म प्रचार का पूर्वोत्साह जागृत हो गया। वे समझ गये कि हम सच्चे शेर ही हैं पर प्रमाद रूपी धोबी ने हमारे मानस में व्यर्थ ही संशय भर दिया है। परिषहों के भय से हम कायर एवं अकर्मण्य बने बैठे हैं । श्रमण जीवन रूप सिहत्व की पवित्र पराक्रमशील रूप अवस्था को प्राप्त करके भी दुनियां भरके शिथिलता रूप मैल को हमने सिर पर लाद रक्खा है। आचार्यश्री कक्कसूरि जी म. यद्यपि लघु श्राचार्य हैं पर शेर के बच्चे की तरह अपने को हाथल पटक कर गर्जना करने की सलाह दे रहे हैं। अपने को सत्कर्तव्य का भान करवा रहे हैं। श्रमण जीवन की पवित्रता जिम्मेवारियों की र अपने को श्रभिमुख कर जीवन के वास्तविक ध्येय की एवं गृह त्याग के कर्तव्य की अपने को स्मृति करवा रहे हैं । वास्तव में आचार्यश्री के कथनानुसार व मुनिवृत्ति के पवित्र आचारविचारानुसार हम हमारे जीवन में आचार विचार विषयक विचित्र परिवर्तन न किया तो निश्चत ही हम शासन द्रोही ए विश्वासघाती नाम से निर्दिष्ट किये जावेंगे । शनैः २ संसार में अन्यधर्मियों के साधु के समान हमारी भ कीमत नहीं रहेगी । अतः हमारे पवित्र जीवन का हमें ही खयाल करना चाहिये। आचार्यश्री के उपदेश श्रागत श्रमण मण्डली की भावनाओं में इतना विचित्र परिवर्तन कर दिया कि एक बार वे पुनः धर्म प्रचार के के लिये कमर कसकर तैय्यार हो गये । आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने जहां २ शिथिलता देखी वहां २ इस प्रकार की श्रमण सभाएं करवाक श्रमण जीवन में नवीन शक्ति का सञ्चार करने का आशातीत प्रयत्न किया । मुनियों को प्रोत्साहित कर उनके कर्तव्य का भान करवाया । धर्म प्रचार की ओर उन्हें प्रेरित कर शासन का गौरव बढ़ाया । यद्यपि उस समय का चैत्यवास सर्वत्र विस्तृत होगया था और दुष्कालादि की भयंकर भयङ्करता ने उनके आचार विचारों स्वाभाविक शिथिलता लादी थी तथापि सूरिजी के प्रयत्न ने इस विषय में बहुत कुछ सफलता प्राप्त की वर्षों से शिथिलता के कीचड़ में फंसे हुए श्रमणों का एक दम रुक जाना या उनमें आचार विचार की दृढ़त रूप निर्मलता श्राजाना असम्भव नहीं तो दुष्कर तो अवश्य ही था पर सूरिजी का प्रयत्न सर्वथा निष्फल नई हुआ। उन्हें बहुत अंशो में सफलता हस्तगत हुई और तदनुसार मुनिगण भी अपने कर्तव्य की ओर असर हुए यह ध्यान रखने की बात है कि उस समय के सब ही चैत्यवासी शिथिल नहीं थे पर उनमें बहुत सुविहित, क्रियापात्र, उपविहारी, तपस्त्री एवं ज्ञानी भी थे। जो शिथिलाचारी थे उनमें भी ऐसे कई असा धारण गुण विद्यमान थे कि उक्त गुणों से समाज पर उनकी अच्छी सत्ता एवं द्वाप थी । समाज उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति गौरव व मान था । वे शासन की लघुता को अपनी आंखों से नहीं देख सकते थे । यही कारण था कि शिथिलता के शिकारी होने पर भी जैनधर्म के गौरव जग जहार करने के लिये उन चैत्यवासियों ने जो २ कार्य किये वे श्राज क्रिया उद्धारकों से एवं आचार विचार की पवित्रता का दम भरने वाले ११३६ चैत्यवासियों में भी उग्र विहारी Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८ से १२३७ साधुओं से नहीं किया जा सकते हैं । काम पड़ने पर वे धर्म के उत्कर्ष के लिये अपने प्राणों का बलिदान करने में भी हिचकिचाहट नहीं करते थे । यद्यपि वे राजशाही शान शौकत से रहते होंगे तथापि माया कपट रूप मिथ्यात्व के मूल कारणों का तो स्वप्न में भी स्पर्श नहीं करते। जो कुछ वे करते लोक प्रत्यक्ष ही करते लुक छिप कर मुनिगुरण विघातक कृत्यकर समाज के सामने पवित्रता का दम भरना उन्हें पसंद नहीं था । यदि वे चाहते तो आज के साधु समाज के समान बाह्य पवित्रता को रख कर समाज को अपनी पवित्रता का खा देते ही रहते परन्तु ऐसा करना उन्हें मिथ्यात्व का पोषण करना ही प्रतीत हुआ । दूसरे वे शिथिल थे वो जैनधर्म के सख्त नियमों की अपेक्षा से ही न कि दूसरे मतावलम्बी साधु सन्यासियों की अपेक्षा से । इन साधु नाम धारियों की अपेक्षा तो उनका त्याग सहस्रगुना उत्कृष्ट एवं उत्तम था । उनके पूर्वाचार्यों का तो जैन समाज पर अपार उपकार था श्रतः उनकी परम्परानुसार व उनके गुणों की उत्कर्षता के कारण चैवासियों का उस समय तक अच्छा मान था । उस समय की यह तो एक अलौकिक विशेषता ही थी कि सुविहित एवं शिथिलाचारी दोनों श्रमणों के विद्यमान होने पर भी परस्पर एक दूसरे के साथ द्वेष रखने, निंदाकरने, खण्डनमण्डन करने, उत्सूत्र प्ररूपित कर नया पन्थ निकालने या एक दूसरे को हीन बताकर समाज में फूट एवं कलह के बीज बोने के स्वप्न भी किसी को नहीं आते थे । उप्रविहारी श्रमण - शिथिलाचारियों को मार्ग स्खलित बन्धु ही समझते थे । यही कारण था कि, यदा कदा समयानुकूल सदा ही वे उन्हें आचार विचार की दृढ़ता के विषय में प्रेरित करते रहते पर समाज के एक आवश्यक अङ्ग को काटने का साहस नहीं करते; जैसा कि श्राज मोड़े बहुत मतभेदों में भी प्रत्येक्ष देखने में आता है । वे लोग स्थान २ पर श्रमण सभाएं कर उनको उनके कर्तव्य की ओर अभिमुख करते जिसको चैत्यवासी ( शिथिलाचारी ) भी हितकारक ही समझते । इन सभी कारणों से ही शासन की अपूर्व संगठित शक्ति विधर्मी वादियों से छिन्न भिन्न नहीं की जा सकी । श्राचार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी म. के शासन के समय जैन की संख्या करोड़ों की थी। छोटे, बड़े, सब रामनगरों में सर्वत्र चैत्यवासियों का ही साम्राज्य था। क्या सुविहित और क्या शिथिलाचारी ? प्रायः तब चैश्य में ही ठहरते थे । यदि किसी चैत्य में अनुकूल सुविधा न होने के कारण पौषधशाला या उपाश्रय में श्री ठहरते तो भी किसी प्रकार का आपस में विरोध नहीं था । इस प्रकार के ऐक्य के ही कारण वे समाज कारक्षण, पोषण एवं वर्धन कर सके थे । वादी, प्रतिवादियों को पराजित कर विजयी बने थे । राजा महा[जाओं पर अपना प्रभाव जमा कर जैनधर्म की सुयशः पताका को सर्वत्र फहरा सके थे । यदि ऐसा नहीं रके वर्तमान साधु समाज के समान अपने गौरव एवं महत्व के लिये आपस में ही लड़ मरते तो समाज की आज न मालूम क्या श्रवस्था होती ? 1 श्राचार्य भी ककसूरिजी म. बालब्रह्मचारी थे । आपकी कठोर तपश्चर्या एवं श्रखण्ड ब्रह्मचर्य के भाव से जया, विजया, सच्चायिका, सिद्धायिका, अम्बिका, पद्यावती, लक्ष्मी और सरस्वती देवियां प्रभावित होश्रपश्री की उपासना एवं सेवा करने में अपना अहोभाग्य समझती थी । इस तरह आपका प्रभाव चतुर्दक में चन्द्र चन्द्रिका वत् विस्तृत होगया था। साधारण जनता ही क्या ? बड़े २ राजा महाराजा भी आपके रणों की सेवा लाभ ले अपने को भाग्यशाली समझते थे । आपका विहार क्षेत्र बहुत विशाल था । मरुधर मेदपाट, श्रावन्तिका बुदेलखण्ड, मत्स्य, शूरसेन, सुविहित और शिथिलाचारी 903 ११३७ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास व कुरु, पाञ्चाल, कुनाल, सिन्ध कच्छ, सौराष्ट्र लाट, कोकण, और कभी २ इधर दक्षिण ओर उधर पूर्व तक भी आपने विहार किया ऐसा श्रापके जीवन चरित्र से स्पष्ट मलकता है। आपके श्राज्ञानुयायी श्रमणों की संख्या भी अधिक होने से प्रत्येक प्रान्त में धर्म प्रचार करने के लिये योग्य २ पद्विधरों के साथ योग्य २ साधुओं को भेज दिये गये जिससे मुनियों के अभाव में वे क्षेत्र धर्म से वंचित न रह सकें । यह तो हम पहले ही लिख श्राये हैं कि व्यापार निमित्त महाजनसंघने सुदूर प्रान्तों तक अपना निवास बना लिया था मतः साधुत्रों को भी धर्म की दृढ़ता के लिये व नये जैन बनाने के लिये उन प्रान्तों में विचरना उतना ही आवश्यक था जितना महाजनों को व्यापार निमित्त परदेश में रहना । ऐसा करने से ही धर्म का अस्तित्व, एवं श्रद्धा का मार्ग स्थायी रह सकता था अतः आचार्यश्री ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिये ऐसे नियमों का निर्माण किया कि जिनके श्राधार पर जैनधर्म का सुगमता पूर्वक प्रचार हो सके। विविध २ प्रान्तों में मुनियों को भेजकर श्रावश्यकतानुकूल उनमें परिवर्तन करते रहना समयानुकूल सर्वत्र विहार कर धर्म प्रचारक मुनियों को प्रोत्साहित कर उनके प्रचार में उत्साह वर्धन करते रहना यह आचार्यश्री ने अपना कर्तव्य बना लिया । इससे कई लाभ होने लगे-एक तो उस प्रान्त के निवासियों पर धर्मके स्थायी संस्कार जमाने लगे, दूसरा मुनियों में आचार विचार विषयक पवित्रता आने लगी। तीसरा श्राचार्यश्री के परिभ्रमन में उनके प्रचार कार्य में नवीन उत्साह व श्राचार्यश्री के सहयोग का अपूर्व लाभ प्राप्त होने लगा इस तरह की नवीन २ स्कीमों से श्राचार्यश्री ने शिथिलता व्याधि विनाशक नूतन २ उपचार चिकित्सा प्रारम्भ की। आचार्यश्रीकककसूरिजी म. एक समय विहार करते हुए कान्यकुब्ज प्रान्त की ओर पधारे। उस समय गोपगिरि में श्राचार्यबप्पभट्टसूरिजी विराजमान थे । आपश्री ने जब सुना कि श्राचार्य श्रीकक्कसूरि मी म. पधार रहे हैं तो वहां के राजा श्रम एवं सकल श्रीसंघ को उपदेश दिया कि आचार्यश्री कक्कसूरिज म. महान् प्रतिभाशाली श्राचार्य हैं। अपने भाग्योदय से ही आपका इधर पधारना हो गया है अपना कर्तव्य हो जाता है कि आचार्यश्री का बड़े ही समारोह एवं धामधूम पूर्वक स्वागत करे । श्राचार्यश्रीबप्पभट्टसूरि के उक्त कथन को श्रवण कर क्या राजा और क्या प्रजा, क्या जैन और क्या जैनेतर - सबके सब स्वागत के लिये परमोत्साह पूर्वक तत्पर हो गये । सबने मिल कर प्राचार्यश्री का शानदार जुलूस पूर्वक नगर प्रवेश महोत्सव किया । श्राचार्यश्री बप्पभट्टसूरि स्वयं अपने शिष्य मण्डली सहित सूरिजी के सम्मुख आये । और कक्कसूरीश्वरजी ने भी आपको समुचित सम्मान एवं बहुमान से सम्मानित किया। दोनों श्राचार्यों ने साथ ही में नगर में प्रवेश किया और दोनों ही श्राचार्य स्थानीय मन्दिरों के दर्शन कर एक ही पट्ट पर विराजमान हुए । उक्त दोनों तेजस्वी श्राचार्यों के मुख मण्डल के प्रतिभापुब्ज को देख यही ज्ञात होता था कि नभ मण्डल से सूर्य और चंद्र उतर कर मृत्युलोक में आगये हैं । धर्म देशना के लिये भी आपस में विनय प्रार्थना करने के पश्चात् श्राचार्यश्री कक्कसूरिजी ने मङ्गलमय धर्म देशना देनी प्रारम्भ की। समय के अधिक होजाने के कारण विषय को विशद नहीं करते हुए श्राचर्यश्री ने संक्षिप्त किन्तु हृदय प्राही उपदेश दिया जिसका उपस्थित जनता पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा । आचार्यश्री बभट्टसूरिजो म० जैन संसार के एक असाधारण विद्वान थे पर आचार्यश्री कक्कसूरि प्रदत्त व्याख्यान को श्रवण कर कुछ समय के लिये आप भी विस्मय में पड़ गये । वे विचारने लगे कि--इतने दिवस पर्यन्त तो श्राचार्यश्री ककसूरिजी की महिमा केवल कानों से ही सुनता था पर श्राजके प्रत्यक्ष मिलाप ने तो कानों से सुनी हुई प्रशंसापेक्षा आचार्य ११३८ भट्टसूरि की मेट Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११५८-१२३७ प्राचार्य श्री के कई गुने अधिक गुण प्रकाशित कर दिये । वास्तव में कक्कसूरीश्वरजी जैनसमाज के आधार तम्भ है । शासन के चमकते हुए सूर्य हैं। जिन शासन हितैषी एवं शासनोद्धारक हैं । इस प्रकार प्राचार्य श्री की प्राचार्य बप्पभट्टसूरि ने भी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की पश्चात् महावीर जयध्वनि के साथ सभा विसर्जित हुई । गोपाचल के घर घर में आचार्यश्रीकक्कसूरिजी म. की खूब हो प्रशंसा होने लगी सब के हृदय में भनुपम भक्ति की अद्भुत भावनाओं का प्रादुभाव हुआ। श्रमणसंध में परस्पर इतनी वत्सल्यता, विनय, भक्ति प्रेम एक धर्म स्नेह था कि पार्श्वनाथ परम्परा एवं वीरपरम्परा नामक दो विभिन्न गच्छों के मुनि होने पर भी किसी के हृदय में पारस्परिक विभिन्नता जन्य मावों का जन्म ही नहीं हुआ एक दूसरे का आपसी अनुरागान्वित व्यवहार देखकर किसी के हृदय में यह कल्पना भी नहीं होती थी कि अत्रस्थ श्रमण वर्ग में पृथक २ दो गच्छों के साधु वर्तमान है । स्थानीय अमण वर्ग ने तो आगन्तुक निर्ग्रन्थों की आहार पानी आदि से खब ही यावच्च की । वास्तव में इसी प्रेम ने ही जैनसमाज को उस समय उन्नति के उन्नत शिखर पर आरूढ़ कर रखा था। दोपहर को आचार्यश्रीकक्कसूरि, एवं आचार्य बप्पभट्टसूरि ने अपने विद्वान शिष्यों के साथ एकान्त में बैठ कर वर्तमान शासनोन्नति के विषय में बहुत ही वार्तालाप किया। दोनों प्राचार्यों की प्रत्येक बात में शासन के हित एवं उद्धार की ध्वनि मलक रही थी। धर्मोत्कर्ष के उपाय चिन्तवन किये जा रहे थे । साधु समजा में आई हुई शिथिलता के निवारण के लिये नियम निर्माण किये जा रहे थे। उस समय के प्राचार्यों को शासन की उन्नति के सिवाय वर्तमान कालीन साधुओं के समान आपसी कलह, कदाग्रह एवं वितण्डाबाद में समय गुजारना आता ही नहीं था । उनके रोम २ में शासन के प्रति गौरव, मान एवं प्रेम था अतः धर्म की लघुता; वे किसी भी प्रकार से सहन कर नहीं सकते थे। ___ आचार्यश्रीकक्कसूरि ने चैत्यवासियों की शिथिलता के विषय में सवाल किया उस पर श्रीषपभट्ट सूरि ने फरमाया-सूरिजी ! आप और हम सब चैत्यवासी ही हैं। अपने पूर्वज भी सदियों से चैत्यवास के रूप में चले आरहे हैं। चैत्यवास कोई बुरी या अनादरणीय बस्तु नहीं है। भगवान महावीर के निर्वाण को करीब तैरह सौ वर्ष होगये हैं पर आज पर्यन्त किसी ने भी इस विषय का कुछ भी सवाल नहीं उठाया । जिसकी इच्छा चैत्य में ठहरने की हो वह चैत्य में ठहरे और जिसकी इच्छा पौषधशाला या उपाश्रय में रहने की हो वह पौषधशाला या उपाश्रय का आश्रय ले । इस विषय में विशेष तनातनी-खेंचातानी करना एकदम अयुक्त है कारण, वर्तमान में हम क्रान्ति मचा कर किन्ही प्रयत्नों से मुनियों का चैत्यवास छुड़वा भी दें तो अपने खातिर गृहस्थों को नये २ मकान बंधवाने पड़ेंगे। फलस्वरूप समाज के लाखोंरुपये यों ही पानी की तरह बरबाद होजायेंगे । दूसरी बात आरंभ, समारम्भ के भय व करना, करवाना और अनुभोदना के पाप से बचने के लिये तो उन्होंने चैत्यवास का आश्रय लिया या पर आज उसी को छुड़वाने में हमें उन्ही पापों का श्राश्रय लना पड़ेगा। इतनी चारित्र वृत्ति में बाधा पहुँचाने के पश्चात भी अगर भविष्य को लक्ष्य में रख कर हमने चैत्यवास को छुड़वाने का अनुचित साहस किया तो निश्चित ही आपसी खेंचातानी में दो पक्ष होजावेंगे। एक चैत्यवास का जोरदार समर्थक और एक पैत्यवास की जड़ामूल से जड़ काटनेवाला विरोधी दल । इस प्रकार के आपसी विरोधी मण्डलों के स्थापन होने से शासन की संगठित शक्ति का ह्मस हो जायगा । स्वधर्मी भाइयों का पारस्परिक प्रेम सूत्र छिनभिन्न दोनों सूरीश्वरों के आपस में वार्तालाप Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-७७८ ( भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास होजायगा । जिन विचार धाराओं को लक्ष्य में रख कर हमचैत्यवास का विच्छेद करना चाहते हैं वे भावनाएं तो एक और धरी रह जावेंगी किन्तु संघ में कलह एंव द्वेष के अंकुर, अंकुरित होने लग जयगे। भविष्य के परिणाम को जो ज्ञानी महाराज ही जानते हैं पर अभी ही इस का ऐसा कटुफल हमको सहन करना पड़ेगा कि हमें हमारे किये कृत्य का घोर पश्चात्ताप करना होगा। सूरीश्वरजीम० श्राप स्वयं विचारज्ञ, समयज्ञ,धर्मज्ञ, एवं भनीषी हैं। श्राप स्वयं विचार कर सकते हैं कि साधुओं के चैत्य में रहने से ही अनार्यो, मलेच्छो एव' धर्मान्ध विधर्मियों के भीषण अाक्रमणों से चैत्य की भलीभांती रक्षा हो सकती है । यदि श्रमणवर्ग चैत्य में रहना छोड़दे तो गृहस्थों से चैत्य की रक्षा होना असम्भव है कारण गृहस्थों को अपने घर के गोरखधन्धों से भी फुरसत नहीं मिलती है तो वे चैत्य की रक्षा किस तरह कर सकते हैं अतः मेरे दृष्टि कोण से तो चैत्यवास में भी जैन समाज का हित ही अन्तर्हित है। श्राचार्य ककसूरी ने श्रीबप्पभट्टसूरि की अान्तरिक, हृदयप्राहो चैत्यवास विषयकभावनाओं को श्रमण करने के पश्चात् आचार्यश्रीकक्कसूरिजी ने कहा - सूरिजी ! मेरे कहने का अभिप्राय चैत्यवास को तोड़ने का सबक नहीं है पर चैत्यावास में प्राप्त शिथिलता को दूर करने के उपायों के विषय में स्पष्टीकरण करने का है। वर्तमान में मब ही शिथिला एका क्रियाहीन नहीं है; आप जैसे उप्र,विहारी, शासनोद्धारकों की भी समाजमें कभी नहीं है पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर बिहार नहीं करने वाले चैत्यवासी मुनियों की भी अल्पता नहीं है। पप्पभट्टसूरि-सूरिजी ! आपका कहना सर्वाश में सत्य है। वास्तव में जैसे निर्मल बदन एवं स्वच्छ वस्त्रा. भूषणों से ही शरीर की शोभा है वैसे ही प्राचार विचार की निर्मलता एवं क्रिया की पवित्रता ही साधुत्व जीवन का श्रृंगार है । पर इसके साथ ही साथ यह ध्यान रखने योग्य बात है कि साहुकार की बड़ी दुकान में सब तरह का माल रहता ही है । दूकान दार किसी अल्प मूल्य वाले माल को या उस समय के लिये निरुपयोगी मालूम होने योग्य वस्तु को यों ही नहीं फेंक देता है वह समझता है आज हलके से हलकी ज्ञात होने वाली वस्तु भी कालांतर में कीमती हो सकती है अतः सब वस्तुओं को पूर्ण सम्भाल के साथ अपने पास रखना ही श्रेयस्कर है। इन्हीं विचारों से वह अपनी दुकान को सदा ही भरीपूरी रखता है । इसी तरह सूरीश्वरजी ! चारित्र पालन करना या आचार, व्यवहार विषयक नियमों में दृढ़ता रखना भी जीवों के कर्माधीन है। जिन जीवों के जितना चारित्र मोहनी कर्मों का क्षयोपशम हुआ है उतना ही बह निर्मल चारित्र पाल सकता है । चारित्र के पर्याय अनंत और संयम के स्थान असंख्य कहे हैं। एक छेदोपस्थापनीय चारित्र और दूसरे छेदापस्थापनीय चारित्र के पर्याय में षट्गुणी हानी वृद्धि होती है । शास्त्रकारों ने पांच प्रकार के पासत्ये बतलाये हैं पर उनमें भी चारित्र का सर्वथा अभाव नहीं कहा है । हां, जहां शिथिलाचार एवं क्रिया हीनता दृष्टि गोचर हो वहां हितकारी मधुर वचनों व प्रेम पूर्ण व्यवहार का उपयोग कर उन्हें उपविहारी व कर्तव्यामि मुखी बनाना अपना परम कर्तव्य है पर उनको समाज बहिष्कृत कर समाज के एक पुष्ट अङ्ग को काटना सर्वथा *नुचित है । सूरीश्वजी ! मैंने एतद्विषयमें आपश्री की श्रमण सभा करवा करवा कर शिथिलाचार को मिटाने की पद्धति को सुना; वह मुझे बहुत ही हितकर एवं श्रेयस्कर ज्ञात हुई । आपकी इस कार्य शैली की मैं हृदय से सराहना करता हूँ। मैं भी बनते प्रयत्न आपके इस शासनोत्कर्ष के कार्य में सहयोग देकर शासन सेवा का लाभ लेने के लिये कटिबद्ध हूँ । वास्तव में जितना उपकार इस प्रकार के प्रेम, स्नेह, सद्भाव, एवं एक्य से हो सकता है उतना द्वेष निंदा एवं अपने प्राचार की उत्कृष्टता सिद्ध करके दूसरे की लघुता बताने ११४० .. श्रमण संघ में शिथिलता पर Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ से नहीं हो सकता है । इस से तो शासन में द्वेष एवं कलह की अपूर्व अग्नि ही प्रज्वलित होती है जिसमें धर्मोचित सर्वगुण नष्ट हो जाते हैं । अतः इस विषय का सफल उपाय जो अभी आप उपयोग में ला रहे हैं-सर्वथा उपयुक्त है । इस प्रकार शासन हित की बातें होने के पश्चात् वादी कुञ्जर केशरी प्राचार्य बप्प भट्टसूरि ने कहा-सूरिजी महाराज ! जैन समाज पर आपके पूर्वजों का श्रापका महान उपकार है । आज प्रत्येक प्रान्त में जो महाजनसंघ दृष्टि गोचर हो रहा है वह सब उन्ही पूज्याचार्य स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि जैसे धुरंधर, युगप्रवर्तक, समयज्ञ श्राचार्यों की कृपा का फल है। उनके पश्चात् उपकेशगच्छ के जितने प्राचार्य हुए उन सबों ने भी प्रत्येक प्रान्त में परिभ्रमन कर महाजनसंघ का रक्षण, पोषण एवं वर्धन किया है । इस प्रदेश में भी आचार्यश्रीदेवगुप्तसूरि का ही महान् उपकार हुआ है। यहां के राजा चित्रांगंद को उन्होंने जैन बनाकर जैनधर्म का इस प्रान्त में खूब ही प्रचार करवाया था। सूरीश्वरजी के उपदेश से ही राजा चित्रांगद ने एक विशाल जैनमन्दिर बनवा कर सुवर्णमय प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी। प्रतिमाजी के नेत्रों के स्थान पर बहुमूल्य दो ऐसे मणि लगवाये गये कि वे अपनी चमक से रात को भी दिन बना रहे हैं वह मन्दिर आज भी श्राचार्यश्री के गुणों की रह २ कर स्मृति करवा रहा है। सूरीश्वरजी के उपदेश से प्रभावित हो राजा ने ही जैनधर्म स्वीकार कर लिया तब प्रजा उसके मार्ग का अनुसरण करे इसमें आश्चर्य ही क्या। इस के प्रत्युत्तर में आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने कहा- आपका कहना सर्वथा सत्य है। पूर्वापार्यों के उपकार ऋण से उऋण होने जितनी शक्ति तो हम में है ही नहीं । उनके कार्यों की स्मृति आज भी हमारे हृदय में नवीन उत्साह एवं नूतन क्रान्ति को पैदा कर देती है। उन्होंने शासनोत्कर्ष के लिये जो कुछ कार्य किया वह इस जिह्वा से सर्वथा अवर्णनीय ही है । आप जैसे प्रभाविक तो आज भी पूर्वाचार्यों के मार्ग का अनुसरण कर जैन शासन की प्रभावना कर रहे हैं। क्या आपने राजा श्राम को प्रतिबोध देकर जैनधर्म के विशाल प्रचार में सहयोग नहीं दिया ? श्राचार्य प्रवर ! आपके नाम को श्रवण करके तो आज भी वादी लोग धूजते हैं । यदि श्राप जैसे वादी कुब्जर केशरी जिन शासन स्तम्भ का आविर्भाव नहीं हुआ होता तो विधर्मी लोग जैन शासन की नाव को कमजोर बना देते । श्रापश्री ने इन्हीं सब वादियों के सम्मुख जिन शासन की उन्नत सुयश पताका को उन्नत रक्खी। इस प्रकार आचार्य देव परस्पर गुणों का अनुमोदन करते हुए शासन के हित की विचारणा किया करते थे जैसे प्राचार्यश्री कक्कसूरिजी म. प्रभाविक थे वैसा बप्पभट्टसूरिजी भी प्रतिभाशाली थे। दोनों प्राचार्यों का एक स्थान पर मिलाप होने से वहां के राजा एवं जन समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने गोपगिरि में एक मास की स्थिरता की इस अवधि में प्राचार्यश्री बप्पभट्ट सूरि के सत्संग समागम से उनका काल बहुत ही अानंद पूर्वक व्यतीत हुआ आचार्यश्रीकक्कसूरिजी को यह निश्चय होगया कि वर्तमान जैनाचार्यों में आचार्य बप्पभट्टसूरि वादियों का सामना करने में अनन्य ही हैं । यदि मैं अन्य प्रान्तों में विचार करूं तो भी इधर के प्रान्तों के लिये कोई भी विचारणीय प्रश्न नहीं कारण श्राचार्यषष्पभट्टसूरि स्वयं विचक्षण, उत्साही एवं समयज्ञ हैं । इस प्रकार गोपगिरि आने से आपके हृदय में परम संतोष एवं श्रानंद हुआ। इधर आचार्यबप्पभट्टसूरि को भी अत्यन्त हर्ष हुश्रा। बादी कुरूजर केशरी सूरीश्वरजी के हृदय दोनों आचार्यों में आपसी सद्भाव १९४१ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मैं भी आचार्य कक्कसूरि के प्रति नवीन स्थान होगया । वे विचारने लगे कि जैसा मैं श्रीकक्कसूरिजी के लिये सुनता था वह सोलह आना सत्य ही निकला । श्राचार्यश्रीकक्कसूरिजी म० शासन के दृढ़ स्तम्भ हैं । ये जैसे विद्वान हैं वैसे ही प्रचार करने में शुरवीर हैं। शासन के हित की भावना से तो श्रापका रोम २ श्रोत प्रोत है यही कारण है कि आप अत्र तत्र सर्वत्र ही वादियों की दाल को नहीं गलने देते हैं । इस प्रकार पारस्परिक गुणप्रामों को करते हुए कई दिनों तक दोनों श्राचार्य श्री साथ में ही रहे । कालान्तर के पश्चात् आचार्यश्री ककसूरीश्वरजी ने सुना कि वादियों का जोर पूर्व की ओर बढ़ रहा है, अतः आचार्य बप्पभट्ट सूरि से समयानुकूल परामर्श कर अपने अपने विद्वान शिष्यों के साथ पूर्व की ओर प्रस्थान कर दिया | उद्योगी एवं कर्मशील पुरुषों के लिये कौनसा कार्य दुष्कर होता है ? वे जहाँ जहाँ जाते हैं वहीं ही अपनी प्रखर प्रतिभा के बल से नवीन सृष्टि का निर्माण कर देते हैं । मनस्वी, कार्यार्थी के लिये संसार में कोई भी मार्ग दुरुह नहीं है । वे तो अपनी कार्य शक्ति की प्रबलता से हर एक मार्ग को 1 सुगम एवं रमणीय बना देते हैं । तदनुसार हमारे आचार्यश्री जिस मार्गजन्य नाना परिषदों एवं यातनाओं को सहन करते हुए धर्म प्रचार की उच्चतम अभीप्सित भावनाओं से प्रेरित हो क्रमशः लक्षणावती के नजदीक पहुँचे । उस समय लक्षणावती में राजा धर्मपाल राज्य करता था । लक्षणावती नरेश को भी वादी कुज्जरकेशरी श्राचार्यश्रीबप्पभट्टसूरि ही ने प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। राजा धर्मपाल ने कक्कसूरीश्वरजी का भागमन सुनकर बहुत प्रसन्नता प्रकट की । आचार्यश्री की नैसर्गिक प्रशंसा को राजा धर्मपाल कई समय से सुनता आ रहा था अतः श्राज उनके प्रत्यक्ष दर्शन एवं चरण सेवा का लाभ लेकर अपने को कृतकृत्य बनाने के लिये वह उत्कण्ठित हो गया । जब श्राचार्यश्री लक्षणावती के बिल्कुल समीप में पधार गये तब राजा धर्मपाल अपनी सामग्री लेकर श्रीसंघ के साथ सूरीश्वरजी के स्वागतार्थ सम्मुख गया । क्रमश आचार्यश्री का नगर प्रवेश महोत्सव भी लक्षणावती नरेश ने बड़े ही शानदार जुलूस के साथ में किया। मगर प्रवेशानंतर स्थानीय मन्दिरों के दर्शन का लाभ लेकर श्राचार्यश्री उपाश्रय में पधारे। स्वागतार्थ श्रागत मण्डली को प्रथम माङ्गलिक बाद हृदय स्पर्शिनी देशना दी। सूरीश्वरजी के उपदेश एवं बोलने की सविशेष पटुता का श्रोताओं के हृदय पर जादू सा प्रभाव पड़ा । श्राचार्यश्री की प्रतिभायुक्त बाणी से प्रभावित हो राजा धर्मपाल एवं लक्षणावती श्रीसंघ ने चातुर्मास का परम लाभ प्रदान करने के लिये सूरिजी की सेवा में श्रामह भरी प्रार्थना की । श्राचार्यश्री ने भी उनका अधिक आग्रह देख धर्मोन्नति रूप लाभ को लक्ष्य में रख वह चातुर्मास लक्षणावती में ही कर दिया। इस चातुर्मास के निश्चय से श्रीसंघ की भावना में और भी दृढ़ता गई। राजा धर्मपाल तो सूरीश्वरजी के सत्संग से जैन-धर्म के रंग में रंग गया। उसको जैनधर्म के सिवाय अन्य धर्म नीरस एवं सारहीन प्रतीत होने लगे । जैनधर्म का स्याद्वाद सिद्धान्त तो उन्हें बहुत ही रुचिकर व्यवस्थित एवं उपयोगी ज्ञात होने लगा । इस प्रकार राजा के संस्कारों को जैन धर्म में सविशेष स्थायी एवं द करके श्रीसंघ के धर्मोत्साह में भी उपदेश के द्वारा आशातीत वृद्धि की । चातुर्मास के सुदीर्घकाल में अष्टान्हिका महोत्सव, मासक्षमण, पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य, सामायिक, प्रतिक्रमणादि धार्मिक कृत्यों के प्राधिक्य से प्राचार्यश्री ने लक्षणावती को धर्मपुरी बना दिया । इस प्रकार धर्मोद्योत करते हुए चातुर्मासानंतर आचार्यश्री विहार करते हुए क्रमशः वैशाली राजगृह वगैरह प्रदेशों में घूमते हुए पाटलीपुत्र पधारे। आपके आगमन समाचार प्राय: पहले ही पहुँच चुके थे श्रतः श्राचार्यश्री के नाम श्रवण मात्र से वादियों ११४२ आचार्य श्री का पूर्व प्रान्त में बिहार Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ की मुखाकृति कान्ति विहीन निस्तेज हो गई। जैन मुनियों के आगमन के अभाव में जो उन्होंने अपना मिथ्या गौरव इत उत थोड़े बहुत रूप में प्रसारित किया था उसके नष्ट होने के समय को नजदीक आया समझ उनके हृदय में नवीन खलबली मच गई। जैसा सहस्ररश्मि प्रचण्ड ताप को धारण करने वाले मार्तढोदय मात्र निबिडतम तिमिर राशि अपना-साम मुँह बनाये भगजाती है वैसे वादी लोग सूरीश्वरजी के आगमन के समाचारों से इत उत पलायन करने लग गये । पाटलीपुत्र आते ही सूरिजी म० ने स्पष्ट रूप में हिंसा की उपादेयता एवं हिंसा जन्य कटु फलों की कटुता के कारण देव देवियों को दी जाने वाली पशुबली व यज्ञयागादि कृत्यों की निरर्थकता का प्रतिपादन किया किन्तु किसी भी वादी की हिम्मत आचार्यश्री का सामना करने की न हो सकी । अपने मत का खंडन सुनते हुए भी अपनी स्वाभाविक कमजोरी के कारण वे आचार्यश्री से वाद विवाद करने में सर्वथा हिच - किचाहट ही करते रहे । श्राचार्यश्री ने भी दो वर्ष पर्यन्त पूर्व के प्रान्तों में परिभ्रमण कर वाम- मार्गियों की नींव को एक दम खोखली कर डाली। पश्चात् बीस तीर्थङ्करों की परम पवित्र निर्वाण भूमि श्री सम्मेत शिखर आदि पूर्व के तीर्थों की यात्रा के बाद आपश्री ने कलिंग की ओर पदार्पण किया । कलिङ्ग प्रान्त के खण्डगिरी- उदयगिरी जो कुंवार कुमारी पर्वत या शत्रुल्जय गिरनार अवतार नामक जैन तीर्थों के नाम प्रसिद्ध थे - आचार्यश्री ने यात्रा की । कलिङ्गवासियों को उपदेश सब्जीवनी जड़ी से धर्म कार्य में चैतन्य शील किया इस प्रकार कलिङ्ग के सफल चातुर्मास के पश्चात् विकट प्रदेशों में परिभ्रमण करते हुए दक्षिण प्रान्त से क्रमशः महाराष्ट्र प्रान्त की ओर सूरीश्वरजी ने पदार्पण किया । श्राचार्यश्री के विहार की विशालता, धर्म प्रचार की उत्कट भावनाओं की आदर्शता एवं क्रिया की पवित्रता श्राचार्यश्री के परिभ्रमन, कार्य ढंग एवं आचार विचार की दृढ़ता से जानी जा सकती है । अस्तु, महाराष्ट्र प्रान्त में आचार्य श्री के शिष्य समुदाय पहिले से ही धर्म प्रचार कर रहे थे । इम पहिले ही लिख आये हैं कि महाराष्ट्र प्रति वेतांबर दिगम्बर दोनों साधुओं का केन्द्र स्थान था और समय २ पर बाह्य सिद्धान्तों के साधारण मतभेद के कारण कुछ मनोमालिन्य भी आपस में चलता था-ठीक यही हाल इस समय भी वर्तमान था । इधर श्वेताम्बर दिगम्बर साधुओं में कुछ आपसी मलीनता थी और उधर शिवोपासक पडितों ने जैन शासन को बहुत धक्का पहुँचा दिया था ठीक उसी समय पुण्य योग से प्राचार्यश्री का विहार भी महाराष्ट्र प्रान्त में हो गया। आचार्यश्री ने पहिले दिगम्बर श्रमण बन्धुओं को समझाया - बन्धुओं ! घर के आपसी क्लेश में हम अपने शासन मात्र को निर्जीव बना देंगे । श्रभी तो हमारा कर्तव्य है कि हम श्वेतम्बर और दिगम्बर एक पिता के पुत्र होने के कारण आपस में मिलकर वादियों के द्वारा शासन पर होते हुए सफल आक्रमणों को रोकें और जैन शासन की रक्षा करें। भाइयों ! आपसी कलह में न आपको लाभ होने बाला है और न हमको ही। बीच में तीसरे विधर्मी ही अपना महाराष्ट्र प्रान्त में डंका बजा देवेंगे । इससे जैन शासनमात्र की लघुता होगी और हमारी अज्ञानता एवं अकर्मण्यतां विश्व विश्रुत होजायगी । इस समय तो शासन की रक्षा के लिये आपसी बाह्य मतभेद को तिलान्जली दे अपने को एक हो जाना चाहिये । श्राचार्यश्री का उक्त कथन दिगम्बर श्रमणों को भी शासन के लिये हितकारक एवं मन को रुचि कर प्रतीत हुआ । वे भी आपसी कलह का त्याग कर जैनत्व का प्रचार करने में कटिबद्ध होगये । 1 इधर आचार्यश्री ने उन शिव धर्मियों का पीछा किया। वे जहां २ जाकर जैनधर्म का खण्डन और सूरिजी का पाटलीपुत्र में पदार्पण ११४३ www.jainélibrary.org Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास स्व धर्म का प्रचार करते थे आचार्यश्री तत्काल वहां जाकर शास्त्रीय युक्तियों के युक्तियुक्त प्रमाणों से वहां का जन समाज को पुनः अपनी ओर आकर्षित कर लेते । इस प्रकार होते रहने के कारण शिव पण्डित के हृदय में जो २ आशाएं थी वे सब शनैः शनैः निराशा के रूप में परिवर्तित होने लगी। अन्त में परिभ्रमन करते हुए सूरिजी और शिवै दोनों का एक स्थान पर मिलाप होगया। प्राचार्य ने शिव पण्डित को शास्त्रार्थ करने के लिये चेलेज दिया । उसने पण्डित के अभिमान में उसे स्वीकृत का राज सभा में वाद विवाद करने का निश्चय किया। निर्धारित किये हुए दिन को राज सभा में दोनों का यज्ञ-समर्थन एवं यज्ञोत्थापन विषय में शास्त्रार्थ हुआ। अन्त में पण्डितजी को अहिंसा देवी की पवित्र गोद का श्राश्रय लेना ही पड़ा। उनके हृदय में स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रति अपूर्ण गौरव पैदा हो गया। अपने किये हुए खण्डन का उन्हें रह २ कर पश्चाताप होना लगा । आचार्य श्री कक्कसूरिजी प्रतिमा के सामने उन्हें भी एकदम नतमस्तक होना पड़ा। इससे सूरीश्वरजी की प्रतिष्ठा महाराष्ट्र प्रान्त में बहुत दूर तक फैल गई । इस प्रकार दक्षिण में पधारने से शासन रक्षा रूप महालाभ प्राचार्यश्री को प्राप्त हुश्रा । आपने तीन चातुर्मासे महाराष्ट्र प्रान्त में किये । इस दीर्घ अवधि के बीच आपश्री ने कई महानुभावों को दीक्षा देकर उनकी आत्माओं का कल्याण किया । कई मंदिरों की प्रतिष्ठाएं करवा कर जैनधर्म को दृढ़ एवं स्थिर किया। मांसाहारियों को अहिंसा धर्मानुयायी बना जैन धर्म की खूब ही प्रभावना की। तत्पश्चात् वहां से विहार कर क्रमशः विदर्भ प्रान्त में परिभ्रमन करते हुए आचार्य श्री ने कोकण को पावन किया। वहां की जनता को जैनधर्म का उपदेश देकर जैनधर्म का आशातीत उद्योत किया । सोपार पट्टन में चातुर्मास करके धर्म की नींव को दृढ़ एवं स्थायी बना दिया। चातुर्मास के बाद लाट प्रान्त में सूरीश्वरजी पधारे भरोच, स्तम्भपुर, वटपुर करणावती, खेटकपुरादि नगरों में परिभ्रमन करते हुए सौराष्ट्र प्रान्त में पधार कर आपश्री ने परम पावन सिद्धगिरि की यात्रा की। आत्म शान्ति का अनुपम आनंद प्राप्त करने के लिये आपने कुछ समय तक वहां पर विश्रान्ति ली । इस अवधि के बीच मरुधर प्रान्त से सिद्धागेरि की यात्रा के लिये एक संघ आया और एक और कच्छ के भावुक भी यात्रार्थ संघ लेकर आये । दोनों प्रान्तों के श्रीसंघों ने आचार्यश्री को अपने २ प्रान्तों में पधारने के लिये आग्रह भरी प्रार्थना की इस। हालत में सूरीश्वरजी असमंजस में पड़ गये कि कच्छ की और विहार करूं या मरूभूमि की और १ इसी विचार में निमग्न बने हुए आचार्यश्री के पास में रात्रि को देवी सच्चायिका ने आकर परोक्ष रहकर वंदन किया। प्राचार्यश्री ने धर्म लाभ देकर अपने विहार के लिये देवी से उचित सलाह मांगी। देवी ने कहा प्राचार्य देव ! मरूभूमि में पधारने से हम तो कृतार्थ अवश्य होवेंगे पर आपको ज्यादा लाभ कच्छ भूमि की भोर पधारने से ही प्राप्त होवेगा । सूरिजी ने भी देवी के परामर्शानुसार कच्छ प्रान्त की और विहार करने का निर्णय कर लिया । बस, दूसरे दिन कच्छ संध की विनती को स्वीकार प्राचार्यश्री ने उधर ही बिहार कर दिया । क्रमशः सौराष्ट्र में भ्रमन करते हुए श्राप कच्छ में पधारे । उस प्रदेश में परिभ्रमन कर आप भदेश्वर में पधारे । अापका चातुर्मास भी वहीं पर हुश्रा । आपके त्याग वैराग्य मय व्याख्यान से प्रभावित हो कई महानुभाव संसार से विरक्त हो गये । उक्तवैरागियों में एक श्रेष्ठि गोत्रीय शा. लादूक के पुत्र देवसी जो कोट्याधीश था-वल दो मास की विवाहित पत्नी का त्याग कर दीक्षा के लिये उद्यत हो गया। चातुर्मास के बाद शा.देवसी श्रादि दश नर नारियों ने दीक्षा लेकर सूरीश्वरजी के पास में आत्म कल्याण किया । बाद ११४४ सूरिजी का दक्षिण में बिहार Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कथरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १९७८-१२३७ में श्राप सिंध प्रदेश में पधारे । दो चातुर्मास सिंध में करके सर्वत्र आपने धर्म प्रचार को बढ़ाया बाद में पंजाब को पावन बना कर दो चातुर्मास पजाब में भी कर दिये । पश्चात् श्राप कुरु की ओर पधारे । हस्तनापुर की स्पर्शना कर वह चातुर्मास आपने माथुरा में श्राकर किया। उस समय मथुरा में जैसे जैनियों की चनी श्राबादी थी वैसे बौद्धों की भी बहुत से मन्दिर, संधाराम और मठ थे। उक्त मठों में सैंकड़ों बौद्ध. भिक्षु वर्तमान रहते थे। प्राचार्यश्री कक्कसूरि ने मथुरा में चातुर्मास कर जैनधर्म की विजय वैजन्ती सर्वत्र फहरादी। सूरिश्वरजी ने वहां शा. करमण के बनवाये हुए महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कर बाई । १३ नर नारियों को जैन धर्म में दीक्षित कर करके जैन धर्म की खब प्रभावना की। ___ तत्पश्चात् सूरीश्वरजी म. मथुरा से बिहार कर क्रमशः प्राम नगरों में होते हुए अजयपुर नगर में पधारे । वहां के श्रीसंध ने आपका अच्छा सत्कार किया। वहां से अपने मरुभूमि की ओर पदार्पण किया । शाकम्भरी, मेदिनीपुर हंसावली, पद्मावती, नागपुर, मुग्धपुर होते हुए श्राप रुनावती नगरी में पधारे । वहां सुचन्ति गौत्रीय शा. गोल्हा के पुत्र नारा को दीक्षा दी । वहां से आप खटकुम्प नगर पधारे। वहां के श्री संघ ने आपका शानदार जुलूस के साथ स्वागत किया । संघ के सत्याग्रह से चातुर्मास भी आपने वहीं पर कर दिया । खटकुम्प नगर के चातुर्मास में धर्म का खूब उद्योत हुआ। बाद आप बिहार कर माण्डव्य पुर होते हुए उपकेशपुर पधारे । सूरिजी महाराज को इस भ्रमन में करीब बीस वर्ष लग चुके थे। इस भ्रमन काल में आपने जैन धर्म की आशातीत प्रभावना की। आपने अपने जीवन काल में अनेक दिग्गज वादियों से भेंट कर उन पर अमिट प्रभाव जमा दिया। इनता ही क्या पर जिस अहिंसा का प्रचार अनेक उपदेशकों से होना मुश्किल था उसी अहिंसा का प्रचार हिंसा के कट्टर हिमायतियों के हाथ से हो जाना क्या कम महत्व की बात है ? इसका सम्पूर्ण श्रेय हमारे आचार्य श्री कवकसूरीश्वरजी म. को ही है। __आचार्यश्री कक्कसूरि जिस समय कोकण में विहार कर रहे थे उस समय सौपारपट्टन में एक यक्ष का महान् उपद्रव हो रहा था। इस उपद्रव के कारण नगर भर में त्राहि २ मच गई वहां के राजा जयकेतु ने एक सभा की और कहा-सुख शान्ति के समय तो प्रत्येक धर्म वाले, धर्म गुरु जाप जप करवाते हैं, वरणी बैठाते हैं, शान्ति करवाते हैं तब इस प्रकार की अशान्ति के समय वे धर्म और धर्म गुरु कहां चले गये हैं ? शान्ति पाठ व जाप जप कहां चले गये हैं ? मैं तो यह सब धर्म का ढोंग ही समझता हूँ । यदि किसी धर्म में सच्चाई एवं चमत्कार हो तो इस उपद्रव के समय में वह बतावे-मैं उसी धर्म को स्वीकार कर उस धर्म का परमोपासक बन कर उसी धर्म का प्रचार वडाऊँगा।। बस, प्रत्येक धर्म वाले अपने २ महात्माओं को बुलवा कर धर्मानुष्ठान करवाने लगे। जैन लोग इस दौड धूप में कब पीछे रहने वाले थे; उन्होंने भी अपने महान् प्रतापी आचार्यश्री कसूरि को बुलाया कक्क सूरीश्वरजी का बड़े ही समारोह पूर्वक नगर प्रवेश महोत्सव किया । जब ब्राह्मणादि वर्गों के जप, जाप, यज्ञानुष्ठान वगैरह कार्य समाप्त हुए तब जैनियों की ओर से भी अष्टान्हिका महोत्सव के अन्त में बृहत् शान्ति स्नात्र पढ़ाई गई ! इसका जुलूस इतना जोरदार निकाला गया कि सब लोग आश्चार्यान्वित होगये । राजा जयकेतु वगैरह भी इस उत्सव में सम्मिलित हुए । सूरिजी के यशः कर्म का उदय था अतः इधर शान्ति स्नात्र पढ़ाई और उधर रात्रि में यक्ष, आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होकर कहने लगा---पूज्य आचार्यश्री का व्याख्यान ११४५ Jain Education in xxonal Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गुरुदेव ! इस नगर के राजा बड़े ही अज्ञानी हैं । बिना इन्साफ किये ही मुझे भृत्यु दण्ड दिया अतः अन्त समय में एक मुनि के सिखाये हुए नवकार मन्त्र का ध्यान करने से मैं मरकर यक्षयोनि में पैदा हुआ। देव योनि में पैदा होने के पश्चात् मुझे बहुत ही क्रोध आया और उसी का बदला मैंने इस रूप में लिया । आपश्री ने हम सब देवों का सत्कार किया है इसलिये मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुश्रा हूँ। यह देव योनि भी आप महात्माओं की कृपा से मिली है अब आप आज्ञा फरमा-मैं क्या करूँ ? सूरिजी ने कहा-देव ! नवकार मंत्र का ऐसा ही प्रभाव है । जो इस पर श्रद्धा विश्वास रक्खे तो देवयोनि ही क्या ? मोक्ष का अक्षय सुख भी सम्पादन किया जा सकता है । दूसरा किसी व्यक्ति ने अज्ञानता से किसी का बुरा भी किया हो तो उसका बदला लेने में गौरव नहीं अपितु उसको क्षमा करने में ही गौरव है । तीसरा-एक व्यक्ति के अज्ञानता पूर्ण अपराध के लिये सारे नगर के नागरिकों को कष्ट देना कितना जबर्दस्त अन्याय है ? खैर, अब आप शान्त होकर उपद्रव को शान्त करें। यदि आप अपनी देवयोनि का सदुपयोग करना चाहते हो तो कई स्थानों पर होने वाले देव देवियों के नाम पर हजारों जीवों के वध को रोकें । उन जीवों के शुभाशीर्वाद एवं दया. मय धर्म के प्रभाव से आपका भवान्तर में भी आपका कल्याण हो । सूरिजी का उक्त हितकर उपदेश यक्ष को बहुत ही रूचिकर ज्ञात हुआ। उसने आचार्यश्री के उपदेश को शिरोधार्य कर आगे से ऐसे आकार्य नहीं करने का सूरिजी को विश्वास दिलाया । पश्चात् यक्ष सूरिजी को वन्दन कर स्व स्थान चला गया। और कह गये कि जब आप याद करेंगे सेवा में हाजिर हूँगा । - प्रातःकाल सूरीश्वरजी ने अपने व्याख्यान की विस्तृत परिषदा में राजा प्रजा को इस प्रकार कहा-इस उपद्रव का मुख्य कारण राजा का प्रमाद ही है कारण, वे बिना परीक्षा किये हुए अपने अनुचरों के विश्वास पर कभी २ निर्देषी को दोषी बना कर प्राण दण्ड जैसे भयङ्कर दण्ड भी दे देते हैं । आपके यहां के उपद्रव का भी यही कारण है इस लिये भविष्य के लिये न्याय होना चाहिये। मैं आप लोगों को विश्वास दिलावा हूँ कि आज से ही यह उपद्रय शान्त हो जायगा । बस, सूरीश्वरजी के उक्त शान्ति प्रदायक वचनों को सुन कर सब के, हृदय में शान्ति का अपूर्व प्रवाह, प्रवाहित होने लगा। राजाने भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सूरीश्वरजी के चरण कमलों में जैन धर्म को स्वीकार कर लिया 'यथा राजा तथा प्रजा' की पुक्तयनुसार और भी कई भद्रिकों ने श्रात्मकल्याण की ऊचतम अभिलाषा से जैनधर्म को अङ्गीकार किया। इस तरह श्राचार्य श्री के अपूर्व प्रभाव से जैनधर्म की अपूर्व प्रभावना हुई। ___एक दिन राजा जयकेतु ने सूरिजी की सेवा में आकर निवेदन किया-पूज्य गुरुदेव ! आपने जो सभा में फरमाया था कि उपद्रव का कारण निर्दोषी को दोषी समझ कर दण्ड देने का है-सो ठीक है। मुझे उस अपराध की अब यथावत् स्मृति हो गई है पर मेरे इस जीवन में इस प्रकार की कितनी ही भूलें हुई होंगी। प्रभो ! अब उसके लिये ऐसा कोई सफल उपाय बताइये जिससे, मैं इन पापों से बच सक् । वास्तव में राज्येश्वरी नरकेश्वरी ही है ! इस पर सूरिजी ने कहा-राजेश्वरी होना बुरा नहीं है पर उसमें सावधानी रखना नितान्त आवश्यक है। यदि राजा चाहें तो अपनी अत्मा के साथ अनेक अन्यआत्माओं का भी कल्याण कर सकता है । पूर्वकालीन अनेक ऐसे राजा हुए है कि जिन्होंने राज्यतन्त्र चलाते हुए अपनी आत्मा के साथ अनेक दूसरों की आत्माओं का भी कल्याण किया है । अब आपके लिये भी यही उपाय है कि आप जनता को भलाई और धर्म की प्रभवना के लिये जी जान से प्रयत्न करें । राजा प्रजा का पालन करने वाले ११४६ सोपार पट्टन में यक्ष का उपद्रव Jain Education international Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ माता पिता कहलाते है अतः आप भी दुःखी एवं दीन प्राणियों को सुखी बनावें अन्याय पूर्वक जनता से कर न ले विना अपराध किसी को दण्ड न दे अपुत्रियों का द्रव्य वगैरह हरण नहीं करें । सर्व साधारण के हितार्थ भव्य मन्दिर बनवावें । तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाबें । अमरी पढहा फिरावें जिससे इस भव और परभव में आपका कल्याण हो । राजा ने सूरिजी के हितकारी वचन सुनकर यह प्रतिज्ञा करली की - मैं जान बुक कर किसी पर भी अन्याय नहीं करूंगा । अपुत्रियों का द्रव्य नहीं लूंगा । इस प्रतिज्ञा के साथ ही साथ मन्दिर बनवाने व तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालने का भी निश्चय कर लिया । श्रीसंघ व राजा के अत्याग्रह से सूरिजी ने वह चातुर्मास सौपारपट्टन में ही कर दिया। इससे राजा की धर्म भावना और भी बढ़ गई । राजाने चौरासी देहरी वाला मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया। श्री शत्रुजय यात्रार्थ संघ निकालने के लिये भी तैय्यारियां करना शुरू कर दिया । चातुर्मास समाप्त होते ही राजा जयकेतु के संघपतित्व में संघ ने शत्रुब्जय तीर्थ की यात्रा की । पश्वात् मन्दिर के तैयार होजाने पर जिना लय की प्रतिष्ठा भी सूरिजी से करवाई । श्राचार्य कक्कसूरि महा प्रभावशाली आचार्य हुए। इस प्रकार आपका प्रभाव कई राजाओं पर हुआ । इससे जैन शासन की अधिकाधिक उन्नति एवं प्रभावना हुई । एक समय आचार्य कक्क सूरि विहार करते हुए जंगल से पधार रहे थे । मार्ग में उन्हें कई अश्वारूढ़ व्यक्ति मिले । उनके कमरों में तलवारें लटक रही थी। हाथों में तीर कमान थे । एक दो व्यक्तियों ने बन्दूकें भी हाथों में वे रक्खी थी। उनके चेहरे पर भव्याकृति के साथ ही साथ कुछ क्रूरता फलक रही थी । घोड़ों के पीछे २ कई शीघ्र गामी ऊंट भी आरहे थे । क्रमशः वे सवार सूरिजी के नजदीक आ गये तो उनकी क्रूरता से भयभीत हो क्षुद्र वनचर जीव शृगाल, हिरन वगैरह इधर उधर अपने प्राणों की रक्षा लिये लुकते छिपते हुए दौड़ कर रहे थे सूरीश्वरजी हृदय में अश्वारूढ़ सवारों की अज्ञानता व निर्दयता पूर्ण व्यवहारों पर व भगते हुए शृगाल, कुरंगादि वनचर जीवों की प्राण रक्षा निमित्त विशेष दया के अंकुर अंकुरित हो गये । उन्होंने तुरन्त ही आगत अश्वारूढ़ सवारों को उद्देश्य कर कहा - महानुभावों ! ठहरिये । सवारों ने सूरीश्वरजी की और दृष्टि करके कहा- हमें ठहराने का आपका क्या प्रयोजन है ? आप हमें क्या कहना चाहते हैं, शीघ्र कह दीजिये । हमारा शिकार हमारे हाथों से जारहा है अतः किञ्चिमात्र भी विलम्ब मत कीजिये । सूरिजी - आपके चेहरे की भव्यता व मुखाकृति की अनुपम सुन्दरता से अनुमान किया जाता है कि श्रवश्य ही आप लोग अच्छे खानदान के हैं । उच्च खानदान व कुलीन घराने के होकर के भी शृगाल, कुरंगादि दयनीय जीवों को मारने रूप जघन्य कार्य को करने के लिये आप लोग कैसे उद्यत हुए हो, समझ में नहीं आता ? देखिये आप लोगों की निर्दयता जन्य क्रूर प्रकृति के कारण ये वनचर प्राणी कितने भय भ्रान्त हो रहे हैं ? श्रापका क्षत्रियोचित कर्तव्य तो यही है कि आप लोग दया करने योग्य इन दीन जोवों पर दया करके इनके रक्षण रूप स्वकर्तव्य का पालन करें। जरा धर्म शास्त्र तत्वों का मनन पूर्वक मन्थन कीजिये, आपको सहज ही ज्ञात होजाय कि निरपराधी जीवों को तो पहुँचाना भी भयंकर पाप है । अभी आप इस प्रकार के कुत्सित कार्य को करके भव में इस का बदला तो इससे भी भयङ्कर रूप में आपको देना पड़ेगा । " कडारा कम्माण न मोक्ख अस्थि " अपने किये - शुभ-सुखरूप, अशुभ- दुक्ख रूप कमों के फल का भोगे बिना कर्मों से छुटकारा नहीं मिलता सूक्ष्म मारना क्या पर थोड़ा कष्ट आनन्दानुभव करें पर पर राजा जयकेतु आदि ने जैनधर्म स्वीकार किया ११४७ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है। चाहे पुण्य के विशेषोदय से आपको अपने दुष्कों की कटुता का विशेषानुभव अभी नहीं होता होगा पर सांसारिक जीवों को अनेक दुःखों से दुखी व पोद्गलिक-सांसारिक सुखों से सुखी देख कर यह अनुमान तो सहज ही में लगाया जा सकता है ये सब उनके पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों के ही परिणाम हैं । इस प्रकार की सासारिक विचित्रता को देख कर आप शान्ति पूर्वक अपने मन में विचार कीजिये कि आपका यह शिकार रूप कार्य कहां तक आदरणीय है ? सूरीश्वरजी के द्वारा कहे हुए इन मार्मिक शब्दों का उन दयाहीन मनुष्यों पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा कारण उनकी परम्परागत प्रवृति ही ऐसी थी कि वे कर्म बंधक इस जघन्य कार्य को भी धर्मबर्धक वीर त्व सूचक कार्य समझते थे। अस्तु, षे सब एक साथ बोल उठे-महात्मन् ! शिकार करना तो हम क्षत्रिय लोगों का परम्परागत धर्म है । और हमारे गुरु भी हमें यही शिखाते हैं अतः इसमें विचार करने जैसी बात ही क्या है ? सूरिजी--यह कर्त्तव्य श्रापको किसने बतलाया ? यदि किसी स्वार्थ लोलुप व्यक्ति ने इसे श्रापका धर्म कर्तव्य बताया है तो निश्चित ही वह मनुष्य आपका सत्पथ प्रदर्शक नहीं अपितु शत्रुत् सन्मार्ग से स्खलित करने वाला, कुगति योग्य कार्यों को करवाने वाला शत्रु से भी भयङ्कर शत्रु है। इस व्यक्ति ने ते अपने तुच्छ स्वार्थ की सिद्धि के लिये आप लोगों को सीधा नरक का असह्य यातनाभय दुष्ट मार्ग बतलाय है। धर्म शास्त्रों ने तो हिंसा को कर्म नहीं किन्तु दुर्गति प्रदायक पाप कहा है। शास्त्रों में उल्लेख है किमहारम्भी (बहुत आरम्भ समारभ करने वाला ) महा परिग्रही ( महा ममत्वी) पश्चिन्द्रिय घातक और मांसाहारी--उक्त चार कार्यों को करने वाला मनुष्य अवश्य ही नरक का पात्र होता है। फिर आप इस प्रकार जुगुप्सनीय पाप कार्य को करके नारकीय जीवन से कैसे बच सकेंगे ? महानुभावों ! नरक में ऐसी घोर वेदना भोगनी पड़ती है की साधारण मनुष्य तो कहने में ही असमर्थ है पर ज्ञानी पुरुषों ने कहा है कि श्रवण लवनं नेत्रोद्धारं करक्रमपाटनं, हृदय दहनं नासाच्छेदं प्रतिक्षण दारुणम् । कटविदहनं तीक्ष्णपातत्रिशूल विभेदनं, दहन वदनैः कोरेः समन्तविभक्षणम् ॥ अर्थात्-कान के टुकड़े करना, आंखों को खेंच खेंच कर बाहिर निकालना, हाथ पैरों को चीरना, हृदय को जलाना, पल पल में नाक को काटना, कमर को जलाना, तीक्ष्ण धार वाले त्रिशूल से बींधना । अग्नि जैसे मुख वाले अति भयंकर कंक पक्षियों से चारों बाजु को खिलवाना, ( यह सब नरक के भयंकर "तीक्ष्णैरसिभिर्दीप्तः कुन्तै विषमैः परश्वधैश्चकैः । परशुत्रिशूल मुद्गरतोमरवासी गुपण्डोमिः ॥ ___ अर्थात्-तीक्ष्ण धारवाली, चमकती हुई तलवारों से भयंकर बरछियों से, परशुओं से, चक्रों से, त्रिशूलों से, कुठारों से, मुग्दरों से, भालाओं से, फरषिों से ( नरक के जीवों को दुःख देते हैं ) "सम्भिन्नतालु शिरसाच्छिन्न भुजाश्चिछन्न कर्णनासौष्ठाः । भिन्न हृदयोदरान्त्रा भिन्नाक्षिपुटाः सदुःखार्ताः ।।" अर्थात्-जिनके ताल और मस्तक विदीर्ण हो गये हैं जिनके हाथ टूट गये हैं जिनके कान, नाक और होठ ( औष्ठ ) छेदित हो गये हैं जिनके हृदय और प्रान्तड़ियें टूट गई हैं जिनके अक्षपुट भी शस्त्रों से ११४८ जंगल में शिकारी की भेट उपदेश Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ औसवाल सं० १७१८-१२३७ भेदित हो गये हैं- ऐसे दुःखी नारकी के जीवों को होते हैं। छिद्यन्ते कृपणाः कृतान्त परशोस्तीक्ष्णेन धारासिना । क्रन्दन्तो विषवीचिभिः परिवृत्ताः सम्भक्षण व्यावृत्तः ।। पाट्यन्ते क्रकचेन दारुवदसिन प्रच्छन्न बाहुद्वभा । कुम्भीषु त्रपुपान दग्ध तनवो भूषासु चान्तर्गताः ॥ अर्थात्-गरीब बेचारे नारकी के जीव भयंकर कुल्हाड़ियों से छेदे जाते हैं । तीक्षणधार वाली तलवारों को देखकर बूम मारते हैं-चिल्लाते हैं । खाजाने के लिये उद्यत बने हुए सौ से आक्रान्त करते हैं। दोनों हाथ ढका गये हों वैसे लकड़े के मुआफ्रिक करवत से काटे जाते हैं। कुम्भी तथा सोना वगैरह गलाने की कुलड़ी में गरम किये हुए सीसे के रस को रह २ कर पीलाने से नरक के जीवों का शरीर जला हुआ होता है। इसके सिवाय विष्णु पुराण में नरक में विषय में उल्लेख करते हुए लिखा है- कि "नरके यानि दुःखानि पाप हेतुभवानि वै। प्राप्यन्ते नारकैविप्र! तेपी संख्या न विद्यते ॥" अर्थात् -- हे ब्राह्मण ! नरक में पाप की अधिकता के कारण उत्पन्न हुए नरक के जीवों को जो दुःख प्राप्त होते हैं उसकी संख्या नहीं कही जा सकती है । सूरीश्वरजी के उक्त हृदय भेदी मामक शब्दों के उपदेश ने उनके हृदय पर पर्याप्त प्रभाव डाला। उनके मानस क्षेत्र में सत्वर दया के अंकुर अंकुरित हो गये। वे लोग आचार्यश्री की विद्वत्ता एवं समझाने को अपूर्व शैली की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे। कुछ क्षणों के मौन के पश्चात उन सवारों के मुख्य पुरुष ने कृतज्ञता पूर्ण शब्दों में कहा-महात्मन् ! आपने हमारे ऊपर बड़ा ही उपकार किया है। हम लोगों ने अज्ञानता से अज्ञानियों के बताये हुए दुर्गति प्रदायक मार्ग को पकड़ रक्खा था पर आपने आज हमारे ऊपर अपरिमित कृपा करके हमको चारुपथ के पथिक बना दिये हैं। इस प्रकार मुख्य पुरुषों के शब्दों के समाप्त होते ही पास में बैठे हुए एक सैनिक सवार ने कहा-महात्मन् ! आप माण्डव्यपुर के नरेश महाबली हैं। इस प्रकार पारस्परिक परिचय की घनिष्टता होने पर माण्डव्यपुर के राजा महाबली आचार्य श्री को साथ में लेकर अपने नगर में आये। वहां के श्रीसंघ ने भी सूरीश्वरजी का समारोह पूर्वक स्वागत किया। सूरीश्वरजी ने भी उन लोगों पर स्थायी प्रभाव डालने के लिये अपना व्याख्यान क्रम यथावत् प्रारम्भ रक्खा। राजा महाबली वगैरह क्षत्रिय सैनिक वर्ग भी आचार्यश्री के व्याख्यान का लाभ हमेशा लेने लग गये। क्रमशः जैनधर्म के सम्पूर्ण तत्वों को सूक्ष्मता पूर्वक समम कर के राजा वगैरह क्षत्रियों ने मिथ्यात्व का त्याग कर आचार्यश्री के पास में शुद्ध पवित्र जैन धर्म को स्वीकार कर लिया। माण्डव्यपुर नरेश श्रीमहाबली के मन्त्री, डिडू गौत्रीय शा-उदा ने सूरिजी से अर्ज की-गुरुदेव ! आपने राजा को जैन धर्मानुयायी बनाकर हम लोगों पर बड़ा ही उपकार किया। इसका वर्णन हम लोग अपनी तुच्छ जबान से करने में सर्वथा असमर्थ हैं किन्तु एक चातुर्मास आप यहीं पर करने की कृपा करेंगे तो राजा वगैरह नये बने हुए जैनियों की श्रद्धा भी जैनधर्म में दृढ़-अमिट हो जावेगी। इतना ही क्या पर राजा के पुत्रादि भी जैनधर्म को स्वीकार कर जैनधर्म के विस्तृत प्रचार में विशेष सहायक बनेंगे। सरिजी का उपदेश ११४९ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राज घराने के जैन हो जाने के पश्चात तो नागरिक लोगों को जैन बनाने में विशेष सुगमता रहेगी । पूज्यवर ! स्वयं राजा के मुंह से मैंने आपकी बहुत ही प्रशंसा सुनी । उनकी भी यही इच्छा है कि गुरुदेव का यह चातुयहीं होना चाहिये । इस प्रकार मंत्री उदा की प्रार्थना को सुनकर सूरिजीने कहा — जैसी - क्षेत्र स्पर्शना । राजा के जैन धर्म स्वीकार करने के बाद वाममर्गियों ने बहुत कुछ उपद्रव मचाया पर राजा ने तो जान बूझ कर मांस, मदिरा और व्यभिचार का त्याग किया था और तत्वों को समझ करके जैनधर्म को स्वीकार किया था अतः राजा पर उन पाखण्डियों का ज्यादा असर नहीं हो सका । राजा के सात पुत्र थे और वे भी अपने पिता के मार्ग का अनुसरण करने वाले विनयवान् ही थे पाखण्डियों ने अपना जाल कई पुत्रों को फंसाने के लिये फैलाया पर राजा की धार्मिक कट्टरता के कारण उनके पुत्रों पर भी पाखण्डियों का विशेष प्रभाव नहीं पड़ सका जब राजा को पाखण्डियों के विषय में मालूम हुआ तो उन्होंने अपने सातों पुत्रों को बुलाकर कहा- मैंने जो जैनधर्म स्वीकार किया है वह न अज्ञानता से किया है और । फिर भी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही । मैंने तो दोनों धर्मों के तत्वों को समझ कर अच्छी तरह कसौटी पर कस कर जैनधर्म को पवित्र व कल्याण कारी समझ कर के ही स्वीकार किया है । यदि तुम को मेरे पर विश्वास हो तो ठीक नहीं तो तुम लोग भी सूरीश्वर जी के पास जाकर इसके तत्वों को समझो । श्रन्यथा तुम को फुलबाने वाले ब्राह्मणों से कहो कि वे आचार्यश्री के साथ धर्म विषयक शास्त्रार्थ करें। अपने घर में दो पृथक २ धर्मों का होना व पारस्परिक धार्मिक समस्या के कारण मनोमालिन्य रहना भविष्य के लिये हानिकर है। राजा के पुत्र भी समझ गये कि हमारे पिताश्री जी की प्रकृति में जैनधर्म स्वीकार करने के पश्चात् पर्याप्त फरक पड़ा है और यह सब धर्म का ही प्रभाव है अतः उन्होंने अपने पिता से विनय पूर्वक कहापिताजी ! आप हमारी ओर से सर्वथा निश्चिन्त रहे । हमें आप पर और जिनधर्म पर दृढ़ विश्वास है। हम तन, मन, धन से जैनधर्म का पालन व प्रचार करने के लिये कटिबद्ध है । राजा, राजा की राणी, राजा के पुत्र वगैरह सब सूरीजी के व्याख्यान में नियमानुसार हाजिर हो ध्यान पूर्वक व्याख्यान श्रवण का लाभ उठाते । व्याख्यान श्रवण एवं मुनि सत्संग में उन्हें इतना रस आया कि उन्होंने चातुर्मास के लिये श्रमह पूर्वक सूरीश्वर जी की सेवा में प्रार्थना की । श्राचार्यश्री ने भी धर्म विषयक संस्कारों को विशेष स्थायी बनाने के लिये वही चातुर्मास कर दिया । अब तो राजा का सकल परिवार जैनधर्म का परम उपासक बन गया । इनके साथ ही इनको अनुसरण कर सैंकड़ों नर नारी जैन धर्म के भक्त बन गये । इससे शासन की पर्याप्त प्रभावना हुई। राजा ने मांडव्यपुर में चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्वामी का एक मन्दिर बनवाया। उसके तैयार हो जाने पर जिनालयजी की प्रतिष्ठा भी सूरीश्वरजी के कर कमलों से ही करवाई थी । वंशावलीकारों ने राजा का परिवार इस प्रकार लिखा है: - Jain Educ national राव महाबजी ने जैन धर्म स्वीकारकर लिया Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं२ ११७८-१२३७ राव महाबली (जैनमन्विर वनाया) मालो खुमाण कल्हण बागो भूतो वीरम भाखर संगण चूड़ा धीगो आम्र मलुका पासड पास (शत्रुञ्जय का संघ निकला) जगदेव झंझण हाप्पो खीवा (बोहरगत करने से बोहरा कहलाये देदो गांगो नागदेव भोजदेव राणो । । । । । । । जेतो भैरो सालग कालो रावल मोकल जोघड जुजार हरदेव गोसल ( मन्दिर बनवाया) (संघ निकाला) (इस प्रकार विस्तार से वंशावली लिखी हुई है।) आचार्यश्री कक्कसूरि ने अपना शेष जीवन वृद्वावस्था के कारण मरुभूमि और मरुभूमि के आस पास के प्रदेशों में विताना ही उचित ज्ञात हुआ । तदनुसार आप मरुभूमि में ही बिहार करते रहे । आचार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी म. ने अपने ५९ वर्ष के शासन में अनेक प्रान्तों में परिभ्रमण कर जैन धर्म का विस्तृत प्रचार किया। भारत में शायद ही ऐसा कोई प्रांत रह गया हो जहां पूज्याचार्यदेव के कुकुम्ममय चरण न हुए हों ? आपने अपने जीवन में २०० पुरुष ३०० बाइयों को दीक्षा दी। लाखों मांसा. हारियों को जैन बनाये । सैकड़ों मन्दिरों की प्रतिष्ठाए करवाई । कई संघ निकलवा कर तीर्थों की यात्रा की। विशेष में आपने उस समय के बैत्यवास के विकार में बहुत सुधार किया । अनेक वादियों के संगठित आक्रमणों से शासन की रक्षा की और उन्हीं के द्वारा अहिंसा का प्रचार करवाया अस्तु आपश्री का जैनसमाज पर ही नहीं अपितु भारतवर्ष पर महा उपकार है। __ आपश्री जी ने कई अर्से तक उपकेशपुर में ही स्थिरवास कर दिया । जब देवी सच्चायिका के द्वारा आपको अपने आयुष्य की अल्पता ज्ञात हुई तो आपने अपने योग्य शिष्य उपाध्याय ध्यानसुन्दर को सूरि मंत्र की आराधना करवा कर; भाद्र गौत्रीय शाह लुणा के महामहोत्सव पूर्वक श्रीसंध के समक्ष महावीरचैत्य में उपाध्याय ध्यानसुन्दर को सूरि पद से विभूषित कर दिया और परम्पग के क्रमानुसार आप का नाम श्री देव गुप्तसूरि रख दिया और आपश्री अन्तिम सलेखना में सलग्न हो गये ............................wwwwruncarnition राव महाबली की बंशावली ११५१ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अन्त में आपने अपने अन्तिम समय में ३२ दिवस का अनशन किया । क्रमशः समाधि पूर्वक पांच परमेष्टी का स्मरण करते हुए स्वर्ग सिधार गये । आपश्री की कार्यावली का संप्तिप्त दिग्दर्शन निम्नप्रकारेण है । श्राचार्यदेव के ५६ वर्षों के शासन में मुमुक्षुत्रों की दीक्षाएं के गोलेच्छागौ० दीक्षाली " तप्तभट्ट " भूरि श्रेष्टि बप्पनाग १- मालपुरा २ - थंभोरी ३ उचकोट ४ - आलोर ५ -- खडोपुर ६ - रेणुकोट ७- भद्रेसर ८- भोजपुर ९ -- नंद १० - खाखोर ११ मधुपुरी १२ -- वर्द्धमानपुर १३ नागरण १४- थारापद्र १५ - सारंगपुर १६ - क कोलिया १७- खोखुला १८- सांदोली १९ - उताणी २०- दादावती २१ करणावती २२----गंधार २३ – स्तम्भननपुर २४ --- चन्द्रावती २५ - शिवपुरी २६- जोजावाड़ी २७ २८-६ "" Jain Educational "5 " भद्र " वलहा "" पारख प्रागवट प्राग्वट श्रीमाल चिंचट प्राग्वट प्राग्वट प्राग्वट श्रीमाल 15 29 "" "" " "" "" 35 ” डिडु ") "" "1 11 प्राग्वट श्री श्रीमाल प्राग्वट पाखर प्राग्वट विरहट "; - बसूदी -थुड़ी " पोकरणा " 21 लघुश्रेष्ट प्राग्वट श्रीमाल चोरडिया 333 के 19 "" 99 ,, घरमण ने सुरजण ने "1 सहरण ने धरण ने कानो ने "" 31 " जंबु ने लुबाने "" 11 काल्हरण देदा ने 35 ,, श्रदू ने 35 "" 33 12 19 "" 33 " हडपा ने गेंदो ने दोलालो ने "" भादा ने नागड ने 13 जाने पोलाक ने पेथा ने "" " 93 नारायण ने सोमाने बोत्था ने गोल्हा ने रूपा ने नोधण ने नागदेव से जावड़ ने समरा ने केहरा ने 33 "3 "" 33 19 17 31 23 55 99 34 "} " " " "} "" 33 32 17 35 "3 "" "; 19 97 19 सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएँ (y.org Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं०११७८-१२३७ , खेमे ने " अजड़ ने ., पोकरण २९-मादड़ी , कुलहट ३०-वल्लभी , सुचंति लाला ने ३१-कोरंटपुर , श्रीमाल ३२-मधुमति , श्री श्रीमाल सांगण ने ३३-राजपुरा , भाद्र । ,, सारंग ने ३४-मेदनीपुर , कुम्मट , माधो ने आचार्यश्री के ५६ वर्षों के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं। १-जोगनीपुर को जंघड़ा गौत्रीय पीरा ने-महावीर मं० श्र० २-भारोटिया भीमसी ने-, ३-सरसा रोडाशाह ने-, ४-दान्तीपुर विरहट लालाशाह ने-, ५-थंभोर श्रेष्टि पोमाशाह ने-पार्श्व० म० अ० ६-जाबलीपुर प्राग्वट हरपाल ७-वडियार "प्राग्वट लाखणशाह ने ~~ ८-भीनमाल "कुलट नागपाल ने-शान्तिनाथ ९-सीलार , श्रीमाल संगण ने१०-गोसलपुर ,, आर्य इन्दाशाह ने-आदीश्वर ११-शिवपुर , श्रेष्टि सोनाल शाह ने-महावीर १२-गगरकोट , भाद्र सम. चोकाशाह ने- , १३-कोटीपुर , श्रीश्रीमाल ऊभाशाह ने- " १४-चुड़ी " सुचंति पांवाशाह १५-अागला ,, श्रीमाल लछमण ने पार्श्वनाथ १६-उगराणी , श्रीमाल नोंधाशाह ने-, १७-वल्लभी श्रीमाल गोमा शाह ने-, १८-करणावती ,, प्राग्वट ठाकरशाह ने- , १९-मांडव ,, बलाह राजाशाह ने-- , २०-दसपुर ,, मोरख निंबाशाह ने-सीमंधर २१-चंदेरी , कुम्मट सावंतशाह ने-पार्श्वनाथ २२-चन्द्रावती कनोजिया गंगाशाह ने-विमलनाथ २३-सादंगपुर विमलशाह ने-नेमिनाथ २४-राजपुर , डिडु कोकलशाह ने-महावीर २५-धोलपुर , तोडियाणी हाथीशाह ने- , सूरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्टाएँ , लघु श्रेष्टि १४५ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास " नाहड ने जाल्हण ने श्रीमाल २६-राटीप्राम , पोकरणा पुज्जाशाह ने- , २७---मनुकली , महाराष्ट्रीय लादाशाह ने पार्श्वनाश २८-जागिया आचार्य देव के ५६ वर्षों का शासन में संघादि शुभकार्य १-नागपुर के चोरलिया गौत्रीय शाह अर्जुन ने शत्रुजय का संघ २ - मुग्धपुर , कुम्मट " देपाल ने ३-खटकूप , श्रेष्टि ४- हंसावली , भूरि गोगड़ ने ५-मेदनीपुर , भाद्र , पलखण ने ६-उपकेशपुर , जंघड़ा ७-चन्द्रावती , प्राग्वट शंकर ने ८-नारदपुरी , भुरा ने ९-सत्यपुरी , रांका करणा ने १०-असलपुर , देसरड़ा नेजपाल ने ११-दान्तिपुर , श्रीश्रीमाल बोटस ने १२-कोरंटपुर , श्रीमाल वीरम ने १३ - चन्द्रावती , , जिनदासने १४-भरोच , प्राग्वट भगाने १५-मालपुरा , श्रीमाल , राजसी ने १६-सोपार " १७-पीलाणी , प्राग्वट बाला की पति ने तलाब खोदाया १८-सानणी , श्रेष्टि गौ० कोकाकी पुत्री वरजू ने तलाब बनायो १९-चन्द्रावती , प्राग्वट रामो युद्ध में काम आया उसकी पत्नी संतीहुई २०-उपकेशपुर , भाद्रगो० नाथो युद्ध , २१-वैराट , डिडू गौ० मालो,, , , दो चालीस पट्ट कक सूरिने, आर्य गौत्र उजारा था किशोर व्यय में दीक्षा लेकर, स्याद्वाद प्रचारा था दीक्षा शिक्षा दी शिष्यों को संख्या खुब बढ़ाई थी भू भ्रमन कर जैन धर्म की, शिखर धजा चड़ाई थी इती-भगवान पार्श्वनाथ के बेचालीस पट्टपर ककसूरिजी महान् धूरंधर प्राचार्य हुए श्रेष्टि " घरमसीने 99. Jain Educationleman ..सूरीश्वरजी के शासन में संघादि शुभ कार्य Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ कुल वर्ण-वंश-गौत्र और जातियां इस भारतभूमि पर दो प्रकार का काल अनादिकाल से चला आ रहा है । एक उत्सर्पिणी काल, दूसरा अवसर्पिणी काल । उत्सर्पिणी काल का अर्थ है अवनीति की चरम सीमा तक पहुँची हुई जनता को क्रमशः उन्नति के ऊंचे शिखर पर पहुँचा देना और अवसर्पिणी का मतलब है उन्नति की चरम सीमा से क्रमशः अवनति के गहरे गर्त में डाल देना । इन उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के विभाग रूप छः छः आरे हैं और बारह भारों का एक कालचक्र होता है और एक कालचक्र का मान बीस कोड़ाकोड़ सागरोपम का बतलाया है, जिसमें कुछ न्यून अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल में तो केवल भोगभूमि मनुष्य ही होते हैं वे भद्रिक, परिणामी, अल्पकषायी, या अल्पममत्व वाले होते हैं उनको युगलिया भी कहते हैं कारण वे स्त्री पुरुष एक साथ में पैदा होते एवं मरते हैं उनका शरीर बहुत लम्बा दृढ़ सहनन और आयु बहुत दीर्घ होती है। उनके जीवन संबंधी तमाम पदार्थ कल्पवृक्ष पूर्ण करते हैं। उन मनुष्यों में असी, मसी, कसी, रूप कर्म-व्यापार नहीं होते हैं । जिन्दगी भर में अपनी अन्तिम अवस्था में एकबार ही स्त्री संग करते हैं जिससे उनके एक युगल संतति पैदा होती है, उसकी ४९, ६४, ८१ दिन-पालन पोषण कर दोनों एक साथ ही देहत्याग कर स्वर्ग में अवतीर्ण हो जाते हैं, जो युगल संतति पैदा होती है । वह भी अपनी अंतिम अवस्था में आपस में दम्पत्ति रूप में एकबार विषय सेवन कर एक युगल संतति पैदा कर स्वर्ग चले जाते हैं । इस प्रकार असंख्य काल व्यतीत कर देते हैं, तदन्तर कर्म भूमि का समय आता है, साधिक दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम कर्म भूमि का व्यवहार चलता है पुनः भोगभूमि का समय आता है इस प्रकार घटमाल की तरह अनंत कालचक्र व्यतीत हो गया है, जिसकी न तो आदि है और न अन्त है । न केवलज्ञानी ही बतला सकते हैं। अर्थात् आदि अन्त है ही नहीं। बर्तमान काल अवसर्पिणी काल है इसका स्वभाव उन्नति से गिराकर अवनति तक पहुँचा देने का है । समय-समय वर्ण गंध, रस, स्पर्श, आयुः बल संहननादि पदार्थों में अनंति २ हानि पहुँचाने का है। पहले यहां भी भोगभूमि मनुष्य थे पर भगवान ऋषभदेव के समय से वे कर्मभूमि बन गए, जो वर्तमान समय में भी विद्यमान हैं । यही कारण है कि भगवान् ऋषभदेव को जैन लोग आदि तीर्थङ्कर एवं आदिनाथ मानते हैं । वेदक मतावलंबियों ने भी भगवान् ऋषभदेव को अपने अवतारों में स्थान दिया है तथा मुसलामान भी आदिमबाबा के नाम से उन्हीं भगवान् ऋषभदेव को मानते हैं । भगवान् ऋषभवदेव के अस्तित्व का समय जैनों ने जितना प्राचीन माना है उतना न तो वेदान्तियों ने माना है और न इस्लाम धर्म वालों ने ही माना है इससे सिद्ध होता है कि वेदान्तियों एवं मुसलमानों ने जैनों का ही अनुकरण किया है । जैनों में भगवान् ऋषभदेव की मूर्तियां बहुत प्राचीन काल से ही मानी गई हैं । तब वेदान्तिकमत के प्राचीन ग्रंथ वेदों में भगवान् ऋषभदेव को अवतार होना कहीं पर नहीं लिखा है, केवल अर्वाचीन प्रयों के लेखक ने ही भगवान् ऋषवदेव का चरित्र लिखा एवं उनको अवतार माना है। खैर, कुछ भी हो आज तो भगवान ऋषभदेव को प्रायः समस्त भारतीय लोग पूज्य भाव से मानते हैं । इस विषय में शास्त्रकार फरमाते हैं किः पहले आरे में ४९ दिन, दूसरे आरे में ६४, और तीसरे आरे में ८१ दिन वर्ण व्यवस्था कैसे हुई ११५५ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कुछ काल के बुरे प्रभाव से जब भोगभूमि मनुष्यों को कल्पवृक्षों से फलादि साधन कम मिलने लगे तब वे लोग आपस में क्लेश करने लगे इस हालत में उन क्लेश पीडित मनुष्यों को समझाने एवं इन्साफ देने वालों की आवश्यकता होने लगी । अतः कुलकरों की स्थापना हुई। और उन कुलकरों ने क्रमशः हकार मक्कार और धिक्कार दंडनीति कायम की। पर काल के सामने किसकी चल सके युगल मनुष्यों में वैमनस्य बढ़ता ही गया । इस हालत में अन्तिम कुलकार नाभी के मरुदेवी पत्नि की कुक्षीसे ऋषभ नामक पुत्र का जन्म हुआ जिसका जन्म महोत्सव देव देबीन्द्रों ने किया था । जव ऋषभ माता के गर्भ में आया था तो तीन ज्ञान स्व से साथ में ही लेकर आया था जिनसे भूत, भविष्य और वर्तमान को ठीक हस्तामल की भाँति जाने एवं देख सकते थे । योग्याबस्था में आने पर नाभी कुलकर ने युगल मनुष्यों के लिये ऋषभ को राजा मुकर्रर कर दिया । ऋषभ देव ने काल का स्वरूप जानकर उन दुःख पीड़ित युगल मनुष्य को असी (क्षत्रिय कर्म) मसी (वैश्य कर्म) कभी (कृषी कर्म) हुन्नरोद्योग, कला-कौशल अर्थात् पुरुषों को ७२ कलाओं का और महीलाओं को ६४ कलाओं का बोध करवाया, जिससे युगल मनुष्य अपने श्रावश्यकता के सब पदार्थ स्वयं पैदा कर अपना जीवन सुख सेव्यतीत कर सके और ऐसा ही वे करने लगें । इधर इन्द्र के श्रादेश से देवताओं ने एक, वारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी अमरापुरी सहर atta नगरीका निर्माण किया और शुभ मुहुर्त में ऋषभ का राज्याभिषेक भी कर दिया। ऋषभ के विवाह के लिये एक कन्या आपके साथ युगल रूप में ही उत्पन्न हुई थी । तब दूसरा एक नूतन जन्मा हुआ युगल भा एक तालवृक्ष के नीचे खड़े थे । काल के क्रूर प्रभाव से ताड़ का फल अकस्मात टूट कर युगल मनुष्य के कोमल अंग पर पड़ा जिसकी चोट से वह युगल मनुष्य मर गया । तब उसकी बहिन अकेली रह गई अन्य युगलियों ने उसे लाकर नाभी के सुपुर्द को और नाभी ने कहा कि - यह कन्या हमारे ऋषभकी पत्नि होगी बस इन्द्रने सुनन्दा और सुमंगला इन दोनों युगल कन्याओं का विवाह ऋषभ के साथ कर दिया। यह पहिला ई विधि संयुक्त विवाह था जिसमें वर पक्ष का सब कार्यविधान इन्द्रने किया और वधूपक्ष का कार्य इन्द्राणी ने किया त से उन मनुष्यों में विवाह पद्धति प्रचलित हुई । इस प्रकार युगल धर्म को वे मनुष्य भूलते गये और कर्मभूर्म की प्रवृत्ति सर्वत्र प्रचलित होती गई। ऐसी दशा में ऋषभदेव ने उन मनुष्यों की सुविधा के लिये चार कु स्थापनकर उस समय के मनुष्यों को चार विभागों में विभाजित कर दिये जैसे कि:-- १ - उम्रकुल - जिन मनुष्यों की उप्रप्रकृति और जनता का रक्षण करने में समर्थ थे वे उपकुली । २ - भोगकुल- जिन मनुष्यों में शांन्ति, तुष्टि, पुष्टि और विद्या प्रचार करने की योग्यता थी वे भोगकुल २ --- राजन कुत-जिन मनुष्यों में राज करने की योग्यता थी (खास ऋषभ का घराना) वे राजन् कुली ४ - क्षत्रीयकुल- शेष जितने मनुष्य रहे उन सब का क्षत्रिय कुल स्थापन कर दिया । इस प्रकार चार कुनों की व्यवस्था होने से उस समय के मनुष्यों की उत्तरोत्तर उन्नति होती गई इस प्रकार संसार सुधार के लिये भ० ऋषभदेवने अपने जीवन का अधिक समय लगादिया अर्थात् भगवान् ऋषभदेव का ८४ लक्ष पूर्व का सब आयुष्य था जिसमें २० लक्षपूर्व कुमारपद ६३ लक्षपूर्व राजपदपर रह कर संसार सुधार किया | आपके भारत बाहुवलादी १०० पुत्र और ब्रह्मी सुन्दरी पुत्रियाँ हुई तत्पश्चात् भ० ऋषभदेवने दीक्षा लेकर ज्ञान प्राप्त कर मोक्षमार्ग का उपदेश दिया । इस प्रकार ऋषभदेव से चार कुलों की स्थापना हुई ! ३ -- वर्ण - भगवान् ऋषभदेवने जनकल्याणार्थ धर्मोपदेश दिया जिसका सारांश भाव संग्रह कर भरत ११५६ भ० ऋषभदेव द्वारा चार कुल Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन j [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ नरेश ने चार वेदों का निर्माण किया । जिनकेनाम १ संसारदर्शनवेद, २ संस्थापनपरामर्शवेद ३ तत्वावबांध और ४ विद्याप्रबोध । इन चारों वेदों को वृद्ध एवं अनुभवी श्रावकों को दे दिया और यह भी कह दिया कि मैं जब राजकार्य में लगा रहता हूँ तब मेरे मकानके द्वार पर बैठ कर ये वेद मुझे सुनाया करो, जिससे भगवान ऋषभदेव के उपदेश का असर मेरे ऊपर होता रहे और इनके अलावा जितना समय मिले उसमें आम जनता में इन वेदों के उपदेशों का प्रचार किया करो । भगवान् ऋषभदेव के उपदेश रूपी ज्ञान वेदों द्वारा वृद्ध श्रावक सुनाने लगे। इस गर्ज से भरतराजा उनका आदर सत्कार एवं पूजा बहुमान करने लगे । 'यथाराजा स्तथा प्रजा' जो कार्य राजा करता है उसका अनुकरण रूप में प्रजा भी किया करती है । कारण एक तो वे वृद्ध श्रावक पहले से ही पूजन कि । दूसरा भगवान् ऋषभदेव के उपदेश को सुनावे इससे तो विशेष पूजनिक बन गये । इन उपदेशक श्रावकों की पहचान के लिये चक्रवर्ती भरतने कंकनीरत्न से उनके हृदयपटल पर तीन लकीर खेंच दीकि भरत नरेश के रसोड़े में भोजन करले और उन वृद्ध श्रावकों को दूसरी भी कोई भी आवश्यकता होतो राजाके खजाने से द्रव्य ले आया करे । इस प्रकार भरत राजा की शुभ योजना से जनता में धर्म प्रचार एवं आत्म कल्याण की भावना उत्तरोत्तर वृद्धि पाने लगी और वृद्ध श्रावकों की प्रतिष्ठा भी वढ़ने लगी इतना ही क्यों पर उन वृद्ध श्रावकों का नाम 'महाण' भी होगया जो उनके महाण महारण उपदेश का ही द्योतक था । उसके पास कंकनीरत्न न होने से उसने उन महारणों को (रूपा) की और कई एक ने सूत की दी । अतः महाण भरतराजा के बाद दंडवीर्य राजा हुआ । सुवर्ण की जनेऊ दी बाद में कई राजाओं ने रजत अपनी पहचान के लिए जनेऊ अवश्य रखते थे । इस प्रकार असंख्य काल तक उन महाणों प्रभाव से इधर अपना नाम ब्राह्मण रख कर द्वारा जनता का महान् उपकार हुआ पर काल के बुरे तो भ० सुबुद्धिनाथ का शासन विच्छेद हो गया और ऊधर उन महाणों के मगज में स्वार्थ का कीड़ा घुसा। उन्होंने वेदों के उपदेशों में रद्दोबदल करना शुरू कर दिया । परामर्थ के स्थान में स्वार्थ का राज्य स्थापित कर दिया । यहाँ तक कि आप अपने को ब्रह्म का रूप कहलाकर जगत् के गुरू होने का दावा करने लग गये । भगवान् ऋषभदेव ने उग्र भोग राजन कुल के अलावा सब संसारको क्षत्रिय कुल में स्थापन किया था जिसमें नीच ऊंच एवं हलके भारी की थोड़ी सी भावना नहीं रखी थी। पर ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के वश किसी को ऊंचा और किसी को नीचा बना कर ऐसे जहरीले बीज बो दिये कि संसार क्लेश का झोंपड़ा बन गया । विधि विधान एवं अनेक क्रिया कांड रच कर जनता को अपने पैरों के तले दबा रखी थी जिसके फल स्वरूप उन भूदेवों के सामने कोई चूं तक भी नहीं कर सके । कारण राज्यसत्ता एवं अप्रगण्य नेतातो उनके बाएं हाथ की कठपुतलियों बन चुकी थी। इस प्रकारउन स्वार्थ प्रिय ब्राह्मणोंने संसारभर में त्राहि त्राहि मचा दी। पर जब दशवें भगवान् शीतलनाथ के शासनका उदय हुआ तब उन स्वार्थी ब्राह्मणों की पोल खुलने लगी। इतना ही क्यों पर, उनके खिलाफ में एक पार्टी ऐसी खड़ी होगई कि वह प्रायः ब्राह्मणों के स्वार्थ का हमेशा विरोध करती थी । पर, प्रकृति उनके अनुकूल नहीं थी। भगवान शीतलनाथ का शासन भी कुछ समय चल कर विच्छेद होता गया और ब्राह्मणों की अनुचित सत्ता प्रबल वडती गई । सर्वत्र दुनियां में त्राहि त्राहि मच गई चित्कार कारुणनाद सर्वत्र सुनाई देने लगा । ऊंच नीचके भेद भाव की सर्वत्र भट्टियां धधकने लगी इत्यादि । खैर कैसी भी परिस्थिति क्योंन हो अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाती है तब उनका उद्धार होना भी अनिवार्य होजाता है । जैसे अन्धकार में प्रतिपदा से अमावस्या आजाती है, फिर तो जहर भारत नरेश द्वारा चार वेदों का निर्माण ११५७ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शुक्लपक्ष का आगमन एवं उजाला होने वाला ही समझा जाता है । यही हाल संसार का हुआ जनता एक एसे सुधारक की प्रतीक्षा कर रही थी कि जो अशांति को मिटा कर शांति स्थापनकरें। ठीक उसी समय कई शुभचिन्तकों की शीतल दृष्टि दुःख से पीड़ित संसार की ओर पड़ी और उन्होंने किसी भी प्रकार से संसार का सुधार करने का निश्चय किया पर उस समय ब्राह्मणों के विरोध में खड़ा होना एक टेडी खीर थी। अतः उन शुभचिन्तकों ने ब्राह्मणों को साथ में रख कर तथा इनका मान महत्व कायम रख कर संसार को पुनः चार विभागों में विभाजित करना उचित समझा। और उन्होंने ऐसाही किया जिनको लोग वर्णव्यवस्था भी कहते हैं। जैसे कि: १-ब्राह्मण वर्ण-तुष्टि, पुष्टि और शांति एवं विद्या प्रचार से संसार की सेवा करने वाला २-क्षत्रिय वर्ण-जनता के सदाचार एवं जानमाल की वीरता पूर्वक रक्षा करने वाला क्षत्रिय वर्ण। ३-वैश्य वर्ण-क्रय विक्रय एवं अर्थ से संसार की सेवा करने वाला वैश्य वर्ण । ४-शूद्र वर्ण-शारीरिक श्रम द्वारा संसार की सेवा करने वाला शूद्र वर्ण । इस प्रकार वर्ण व्यवस्था कर पुनः शांति स्थापना को । परन्तु इस वर्ण व्यवस्था में ऊंच नीच एवं हलका भारी को थोड़ा भी स्थान नहीं दिया था। मुख्य उपदेश तो सेवा भाव का ही था अपने अपने निर्देश किए हुए कार्यों द्वारा संसार की सेवा की जाय, उस वक्त हुकूमत की अपेक्षा सेवा की ही विशेष कीमत थी। फिर भी उन चारों वर्ण वालों के लिए पारितोषिक रूप में ब्राह्मणों को पूजा, बहुमान, क्षत्रियों को हुकूमत वैश्यों को विलास और शूद्रों को निश्चिन्तता प्रदान की गई थी। इससे कार्य एवं सेवा करने वाले का उत्साह बढ़ता रहे । इस प्रकार संसारभरमें पुनः शान्ति स्थापना करदी पर यह शान्ति चिरस्थायी नहीं रह सकी। कारण ब्राह्मणों का दिल साफ नहीं था । यही कारण था कि आगे चल कर ब्राह्मणों ने चारों वणों की ऐसी भही कल्पना कर डाली कि ईश्वर के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं । अतः संसार में जो कुछ है वह हम ही हैं हमारे मुंह से निकले हुए शब्दों को तीनों वर्ण वाले शिरोधार्य करें । “त्रियवर्णा ब्राह्मणस्य वशवर्तेरत् ।" अर्थात् तोनों वर्णके लोग हमारे ही आधिन रहें हमारी सेवा करें। एवं हमारी आज्ञाका पालन करें । बसफिरतो ब्राह्मण अपनी मनमानी करने में कमी रखते ही क्यों ? यज्ञ, यागादि के नाम पर आप स्वयं मांस भक्षण करना और क्षत्रियों को शिकार खेलना, मांस भक्षण करना तो उनके लिये साधारण कर्त्तव्य ही बन दिया गया, थोड़े कामों में ब्राह्मणोंने लाखों मूक प्राणियोंके कोमलकंठ पर छुरा चला कर अहिंसा प्रधान देश में खून की नदी बहाने लग गये और इस हिंसा कर्म से संसार में सुख शांति राजा का तप, तेज और पशुओं की मुक्ति एवं स्वर्ग पहुँचाने का रास्ता बतलाया। यह भी केवल जबानी जमाखर्च नहीं, वरन् इनबातों के लिये शास्त्रों में श्रुतियां भी रच दीइतना ही क्यों पर भरतराजा के वेदोंके नामभी बदलदिये गये । और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थवेद नाम रख कर कह दिया की ये चारों वेद ईश्वर कृत हैं। १-यजनं याजानं दान तथैवाध्यायन क्रिया प्रतिग्रहश्व ध्यायनं विप्र कर्माणी निशात् । २-क्षत्रियस्य विशेषण प्रजाना परिपालनम् । ३-कृषि गौरक्षा वाणिज्यं वेश्यस्यश्च परि कीर्तितम् । ४-शुद्रश्च द्विज शुश्रुषासर्व शिल्पानी नाय्यथा । “कांख स्मृति" ११५८ चार वर्णों की व्यवस्था Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ इनको न मानने वाला नास्तिक, पापी, अधर्मी और नरक गामी होगा । बस फिर तो कहना ही क्या था, क्षत्रियों धर्म के नामपर मांसमदिरा की छूट मिल गई । वे अपने धर्म को बिलकुल भूल गये । वैश्य वर्ण के लिये ब्राह्मणों इतने कर्म कांड एवं मंत्र, तंत्र और मुहूर्त रच हाले कि थोड़ा सा भी काम वेबिना ब्राह्मणों के स्वतंत्र रूप से कर ही नहीं सकते और यदि वे ब्राह्मणों के बिना कोई काम कर डाले तो उनको न्याति जाति तो क्या पर, संसार मंडल से अलग कर देने की धमकी दी जाती थी। वे किसी हालत में ब्राह्मणों से बच ही नहीं सकते थे । जब दोनों वर्ण ब्राह्मणों के पूरे २ आज्ञा पालक बने गये तो शुद्रों पर होने वाले ब्राह्मणों के अत्याचार के लिये तो कहना ही क्या था । शुद्रों को न तो धर्म करने का अधिकार था न शास्त्र श्रवण करने का और न यज्ञादि का प्रसाद२ पाने का । यदि उपरोक्त अनुशासन में भूल चूक हो जाय तो उनको प्राण दंड दिया जाता था इत्यादि । उस समय विचारे शूद्रों की तो घास फूस के बराबर भी कीमत नहीं थी श्रौ उनको अछूत ठहरा दिये गये थे, वे पग-पग पर ठुकराये जाने लगे । यही कारण है कि जब ब्राह्मणों की अनीति बहुत बढ़ गई और जनता उन्हों से घृणा करने लग गई तब उन ब्राह्मणों के खिलाप में भी साहित्य सृष्टि का सरजन होने लगा । धर्म ग्रन्थों में यह भी कहा गया कि संसार के चराचर प्राणि एक ही वर्ण६ के समझने चाहिये । पर कर्म की अपेक्षा से चार वर्ण बनाये गये हैं । जिनमें सब से उच्चा नंबर क्षत्रियां का और सबसे नीचा नंबर शूद्रों का रखा गया है । पर यदि शूद्र लोग गुणवान् क्रियावान शीलवान् परोपकारी सेवा भावी आदि शुभ कार्य करने वाले हो तो उनको शूद्र क्यों पर ब्राह्मण७ वर्ण में समझ कर उनकी पूजा सत्कार किया जाय और ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेकर नीच एवं चाण्डाल कर्म करता हो वे शूद्रों की ही गिनती में गिने जाते हैं । यदि कोई ब्राह्मण व्यसनरूप चार वेदों को पढ़ लिया पर ब्रह्म८ कर्म एवं शुकु धर्म को नहीं करता है तब तो केवल उनके लिये वेद भार भूत ही हैं और वे मूर्ख शिरोमणि ब्राह्मण संसार मण्डल में गर्दभ रूप ही समझना चाहिये । इत्यादि जनता ठीक समझने लग गई कि कल्याण केवल जातिकुल या वर्ण से ही नहीं है पर कल्याण होता है गुणों से अतः किसी भी वर्ण जाति का क्यों न हो पर कई गुणी है तो वे सर्वत्र पूज्यमान है । इत्यादि - यज्ञ सिदद्यर्थं मनथन्ब्राह्मणान्मुखतोऽसृजन् असृजक्षत्रियान्बाहो । वैश्यनप्यूरु देशात् शूद्रांश्वपाद योसृष्टा तेषां वैवानुपूर्वशः ॥ “ ६० सृ० ॥६३॥ १- अथ हास्य वेदनुपशृण्व तत्र पुजु तुल्यं, श्रोत प्रति पुरण मुदा हरणे, जिह्वा पच्छेदो धारणे भेद | " गोतम सूत्र १९५ ॥ २ - न शुद्रस्य मति दद्यान्नोच्छिष्ठं नह विष्कृतम् । न चास्योपदिथेद्धर्म न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ वशिष्ट सूत्र ॥ ४ - यजुर्वेद में अश्वमेघ, गजमेव, नरमेघ, मातृ-पितृ मेघ, अजामेघादि यज्ञों के नाम लिखे हैं । ५ - नियुक्तस्तु यदा श्राद्ध देवे थ मांस मृत् सृजेत् । यावत् पशु रोमाणि तावन्नरक मृच्छन्ति ॥ ( वशिष्ट स्मृति ) ६ - एक वर्ण मिंद सर्व, पूर्वमासी द्य ुधिष्टिरं । क्रियकर्म विभागेन चातुर्वर्णं व्यवस्थितम् ॥ ७ - शुद्रोऽपि शीलसम्पन्नो गुणवान्ब्राह्मणो वेत् । ब्राह्मण ऽपि क्रिया भ्रष्टः शूद्राऽपत्य समोभबेत् ॥ ८ - चतुर्वेदोऽपियो विप्रः शुक्कु धर्म न सेवते । वेदभारधरोमूर्खः स वै ब्राह्मण गर्दभः ॥ शूद्राप्रेष्य कारिण, ब्राह्मणस्य युधिष्टर । भूमावन्नं प्रदातव्यं यथा श्वान स्तथैव स ॥ जातिर्दश्यते राजन् । गुणाः कल्याण कारकाः । वृत्तस्थमपि चाण्डलं तमेव ब्राह्मणं 1 "वेद अंकुश ग्रन्थ से " चारों वर्णों पर ब्राह्मणों की सत्ता ११५९ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] ] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इसी प्रकार आपस में संघर्ष बढ़ने से पुनः संसार क्लेशमय बन गया । फूट कुसभ्य, की भट्टियें सर्वत्र धक-धक करने लगी । इस विप्लव काल में ब्राह्मणों ने कई गौत्र जाति, उपजातियाँ और वर्णशंकर जातियां भी बना डाली | जिससे जनता का संगठन चूर-चूर हो गया और जन समाज में छोटे-छोटे समुदाय बन गये । प्रेम सम्प का स्थान शत्रुता ने धारण कर लिया । मनुष्य मनुष्य के बीच में वैमनस्य दृष्टिगोचर होने लगा | क्या राजनीति, क्या सामाजिक, क्या धार्मिक अर्थात् सर्वत्र विशृंखना हो टूटी कड़ियों के समान व्यवस्था होगई थी । संसार पतन के पथ पर अग्रसर हो रहा था । जनता शान्ति प्राप्ति के लिए पुनः किसी एक ऐसी शक्ति की प्रतिक्षा कर रही थी कि पुनः संसार में सुख और शान्ति का साम्राज्य स्थापित करे । इस प्रकार वर्ण व्यवस्था का संक्षिप्त हाल लिख दिया है । आगे क्या हुआ वह आगे पढ़े ! ३ - वंश -- वंशों की उत्पत्ति नामङ्कित महापुरुषों से हुई है जैसे भगवान् ऋषभदेव से इक्ष्वाकवंश भरत के पुत्र सूर्ययश से सूर्यवंश, बहुबल पुत्र चन्द्रश से चन्द्रवंश, हरिवासयुगलक्षेत्र के राजा हरिसेन से हरिवंश, कौरवों से कुरुवंश, पांडवों से पांडुवंश, यदुराजा से यादववंश, शिशुनाग राजा से शिशुनाग वंश, नन्दराजाओं से नन्दवंश, मौर्य राजाओं से मौर्यवंश विक्रम राजा से विक्रम वंश इत्यादि अनेक नामङ्कित पुरुष हुए और उन्होंने जनता की भलाई करने से उनकी संतान उसी पुरुष के नाम पर श्रीलखाने लगी और आगे चलकर वही उनका वंश बन गया। इस समय के बाद भो बहुत से वंश अस्तित्व में आये । ४ - गौत्र -- गौत्रों की उत्पत्ति ऋषियों के क्रियाकांड से हुई थी। जिन-जिन लोगों के संस्कार विधि एवं क्रियाकांड जिन-जिन ब्राह्मणों ने एवं ऋषियों ने करवाये उन उन लोगों पर उन ऋषियों की छाप लग गई और उन उन ऋषियों के नाम पर उनके गौत्र बन गये। बाद में परम्परा से उन गौत्रवालों की संतान पर उनऋषियों की संतान परम्परा का हक्क कायम हो गया । इस प्रकार गौत्रों की सृष्टि उत्पत्ति हुई उन संख्या के लिये कहा जाता है कि जितने ऋषि ब्राह्मण क्रियाकांड करवाने वाले हुए हैं उतने ही गौत्र बन गए जो आज भी ब्राह्मणों के स्वार्थ पूर्ण रजिस्टरों में दर्ज है और कतिपय गौत्रों के नाम जैनधर्म के प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलते हैं जैसे कल्पसूत्र में उल्लेख मिलता है कि काश्यपगोत्र भारद्वाजगोत्र, अग्निवैश्यगोत्र, वाशिष्टगौत्र, गौतमगोत्र, हरितगौत्र, कौडन्यगौत्र, कात्याणगौत्र, बच्छगोत्र, तुगियान गौत्र, मदरगौत्र, प्राचीनगौत्र, एलापाraits, व्याघ्र गौत्र, कौशिकगौत्र, उत्कौशिकगौत्र, बाहुल्यगोत्र इत्यादि । यदि यह सवाल किया जाय कि जैन गौत्रों को नहीं मानते हैं फिर उनके शास्त्रों में गौत्रों के नाम क्यों आए ? इसका कारण यह है कि ऋषियों के गौत्रों वालों ने जैनधर्म स्वीकार कर जैनश्रमरण दीक्षा स्त्रीकार करली थी उनकी पहचान के लिए जैनशास्त्रकारों उनके गौत्रों का उल्लेख जैनशास्त्रों में किया है। दूसरा जैनधर्म वाड़ाबंधन के गौत्र मानने को तैयार नहीं है । पर यह भी नहीं है कि जैन गौत्रों को बिल्कुल नहीं मानते हैं कारण जैनागमों में गौत्र नामका एक कर्म हैं वह भी उच्चगौत्र नीचगौत्र दो प्रकार से है इनके अलावा जाईसम्पन्न कुल सम्पन्ने, उच्चगोत्र, नीचगौत्र इत्यादि । जैनों ने क्या वर्ण क्या गौत्र और क्या कुछ सब कुछ माना है पर उच्चनीच के भेद भावों से नहीं किन्तु पूर्व संचित कर्मानुसार ही माना है जैसे कहा है किकम्णा वम्मणोहो, कम्मुणा होई खत्तिओ । वसो कम्मुणोहोइ, सुद्दो हवइ कम्मुखो || उत्तरा० सू० अ० २५ ॥ ११६० वंश और गौत्रों की मान्यता Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककारि का जीवन ] (ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ___ तथा जाति मदादि करने से नीचगौत्र और मदादि न करने से उच्चगौत्र में उत्पन्न होता है। और व्यवहारों में भी गौत्र मानने से जैन इन्कार नहीं करते हैं पर संगठन के टुकड़े टुकड़े करने वाड़ाबन्दी के गौत्र मानने को जैन तैयार नहीं है जोकि ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए बनाए थे। ५--जानियाँ - जातियों की स्पष्टि भी हमारे ऋषियों के मस्तिष्क की उपज है जब कि ब्राह्मण देवों को वर्ण, गौत्रों में पूर्ण संतोष नहीं हुआ तब उन्होंने जातियों की सृष्टि की रचना प्रारम्भ कर दी तो इतनी जातियों रच डली के जनता के लिये एक बड़ी जाल ही सिद्ध हुई और मकड़ी की तरह जनता उन जातियों के जाल में बुरी तरह प.स गई कि कभी उस जाल से मुक्त हो ही नहीं सकती । पाठक ! एक औसनार्षि की 'श्रीसनस्मृ' को उठा कर देखिये कि उसमें जातियों की उत्पत्ति किस भाँति बतलाई है, नमूने के बतौर पर कुछ दाहरण नीचे दिये जाते हैं:--- १....क्षनी से ब्राहा कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह सूत जाति कहलाती है। २- सू से ब्राह्मण कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह वेणुक जाति कहलाती है। ३-सूत मे क्षत्रीय कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह चमार जाति कहलाती है । ४-क्षत्री चौरीसे ब्राह्मण कन्याका विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्नहो वह रथकार सुतार जाति कहलाती है। ५-वैश्य से ब्राह्मण कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वा भाट जाति हिलाती है। ६- शूद्र से ब्राह्मण कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न वह चाण्डाल जाति कहलाती है। ७--चाण्डाल से वैश्य का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह श्वापच जाति कहलाती है। ८--वैश्य से क्षत्री कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह जुलाहा जाति कहलाती है । --जुलाहा से ब्राह्मण कन्या का विवाहहो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह ठठेरा जाति कहलाती है। १०.--जुलाहा से क्षत्री की कन्या का विवाह हो उससे प्रजा उत्पन्न हो वह सुनार जाति कहलाती है । ११-सुनार से क्षत्री की कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न वह उद्वधक जाति कहलाती है । १.-वैश्य जार से क्षत्री कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो व पुलंद जाति कहलाती है। १३-शुद्र से क्षत्री कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह कलाल जाति कहलाती है। १ -पुलंद से वैश्या कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह रज 5 जाति कहलाती है। १५-शुद्र जार से क्षत्री कन्या का विवाह हो उससे प्रजा उत्पन्न हो वह रंगरेज जाति कहलाती है। १६-रजक से वैश्य की कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह नट जाति कहलाति है। १७-शुद्र से वैश्य कन्या का विबाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वा गडरिया जाति कहलाती है । १८-- गडरिये से ब्राह्मण कन्या का विवाह हो जिसो प्रजा उत्पन्न हो चमोपजीवी जाति कहलाती है। १९-गहरिये से क्षत्रिय कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह दरजी जाति कहलाती है। २०-गुद्र जार से वैश्य कन्य का विवाह हो प्रजा उत्पन्न हो वह तेली जाति कहलाती है। २१-ब्राह्मणा विधीसे क्षत्रीय कन्याका विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह सेनापति जाति कहलाती है। २२ --ब्राह्मण जार क्षत्रिय कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह भेषज जाति कहलाति है। २३. ब्राह्मण विधि० क्षत्रिय कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह नृप जाति कहलाती है। २४-राजा से क्षत्री कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो वह गूढ़ जाति कहलाती है । जातियों की उत्पति Jain Education 8 tional Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २५- ब्राह्मण विध० वैश्य कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो यह भंवष्ट जाति कहलाती है । २६ - ब्राह्मण जार से बैश्य कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न वह कुम्हार जाति कहलाती है । इनके अलावा नाई, कायस्थ, पारधी, निषाध, मिना, कहार, धीवर ( कटकार) इत्यादि । अनेक जातियों की उत्पत्ति कही है जिसमें भी औसनर्षि फरमाते हैं कि मैंने जातियों का वर्णन संक्षेप में किया है मगर वे विस्तृत रूप से कहते तो न जाने कितनी जातियों के हाल कह डालते । इसी प्रकार अन्योन्य ऋषियों की जातियां लिखी जायं तो एक स्वतंत्र ग्रंथ ही बन जाय । ग्रंथ बढ़ जाने के भय से स्मृति के मूल श्लोक नहीं लिखे जिज्ञासुओं को स्मृति मंगवा कर पढ़ लेना चाहिये । इस समय मेरे पास मौजूद है । नीतिकार फरमाते हैं कि "अति सर्वत्र वर्तयेत् । " कोई भी वस्तु क्यों न हो पर वह अपनी मर्यादा का उलंघन कर जाती है तब अप्रिय लगने लग जाती है और उसका विनाश अनिवार्य बन जाता है जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अन्धकार प्रारम्भ होता है वह क्रमशः अमावस्या तक बढ़ता ही जाता है पर यह अन्धकार की चरम सीमा है । अतः अन्धकार के विनाश के लिए शुक्लपक्ष का आगमन अवश्य होता है । यही हाल संसार का हुआ कि वर्ण गौत्र, जातियों द्वारा संसार का इतना पतन हो गया कि अब इसका उद्धार होना भी अनिवार्य हो गया । हम ऊपर लिख श्राए हैं कि जनता एक ऐसे महापुरुष की प्रतिक्षा कर रही थी कि इस farst को सुधार कर तप्त जनता को शांति प्रदान कर सके ठीक उसी समय जगद्उद्धारक भगवान् महावीर का शांति मय शासन प्रवृत्तमान हुआ । भगवान् महावीर ने सब से पहले संसार को परमशांति का उपदेश दिया और संसार के चराचर सर्व प्राणियों को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है । अतः किसी को यह अधिकार नहीं है कि अपने स्वार्थ के लिये किसी जीव को दुःख पहुँचावे अतः इस उपदेश का सबसे पहले प्रभाव यज्ञयगादि पर इस प्रकार हुआ कि पहले ही दिन के उपदेश से इन्द्रभूति आदि एकादश यज्ञाध्यक्ष तथा उनके ४४०० साथियों ने भगवान् महावीर के पास श्रमरण दीक्षा स्वीकार करली फिर तो कहना ही क्या था लाखों निरपराध मूक प्राणियों को अभयदान मिला इतना ही क्यों पर प्रायः सर्वत्र इस घृणित कार्य से जनता को नफरत होने लगी इधर भगवान्ने वर्ण, गौत्र और जातियों के ऊंच नीच रूपी जहरीले भेद भाव को मिटाकर सबको सदाचारी एवं समभावी बनाते हुए कहा कि जीवात्मा कोई ऊंच नीच नहीं है पूर्व संचित कर्मों से ही वे अपने किए कर्मों द्वारा सुख दुःख का अनुभव करते हैं । श्रतः मनुष्य को कर्म करने में ही सावधानी रखनी चाहिए इत्यादि भगवान् के उपदेश का प्रभाव केवल साधारण जनता पर ही नहीं वरन् बड़े बड़े राजा महाराजाओं और खास कर ब्राह्मणों पर भी हुआ। और वे पापवृत्तियों को छोड़कर भगवान् महावीर के शांतिनय झंडे के नीचे लाकर शान्ति का श्वास लेने में भाग्यशाली बने । जिसमें शिशुनागवंशी, सम्राट् बिंबसार, श्रजातशत्रु राजाबेन, चण्डप्रयोतन, उदाई, चटेक, संतानिक, दधीबाहन, काशी कौशल के अठारह गण राज, मल्लवी, लच्छवी, वंश के नृपति गण और भूपति प्रदेशी आदि भूपाल थे । 'यथाराजास्तथाप्रजा' इस युक्ति अनुसार जब राजा महाराजा भगवान् महवीर के उपासक बन गये तब साधारण प्रजा तो पहले से ही शांति के लिये उत्सुक थी । भगवान् महावीर धराध के लिए क्या ब्राह्मण, क्या शुद्र, क्या क्षत्री, क्या वैश्य सबके लिए धर्म के दरवाजे खोल दिये । सम्राद् बिंबसार व राजाबेन ने वर्ण व्यवस्था तोड़ दी और वर्णान्तर विवाह करना शुरु कर दिया । राजा श्रेणिक ने स्वयं एक वैश्य कन्या के साथ विवाह किया तथा उन्होंने अपनी एक पुत्री सेठ धन्ना को और दूसरी ११६२ भगवान् का शासन Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ पुत्री अंतज्य-शूद्र मैतार्य को पराई थी। फिर तो यह प्रथा आम जनता में प्रयाः सर्वत्र प्रचलित हो गई । साधारण जनता के आर्थिक संकट दूर करने के लिए एवं व्यापार के विकास के लिए भी बिंबसार राजा ने व्यापार की श्रेणियां बनादी यही कारण था कि आपका अपरनाम श्रेणिक प्रसिद्ध हु श्रा । तथा लेने देने के लिये सिक्का का चलन शुरू कर दिया कि जिससे जनता को अच्छी सुविधा हो गई । उस समय भगवान् महावीर के अलावा महात्मा बुद्ध ने भी अहिंसा का प्रचार करने में प्रयत्न किया था। महात्मा बुद्ध का घराना शुरू से ही भगवान् पार्श्वनाथ के परम्परा शिष्यों का उपासक था । और बुद्ध को वैराग्य का कारण भी पार्श्वसंतानियों के उपदेश और अधिक संसर्ग का ही कारण था । बुद्ध ने सब से पहली दीक्षा भी उन ही निर्मन्थों के पास ली थी और कुछ ज्ञान भी प्राप्त किया था । पर बाद में कई कारणों से वे निर्मन्थों से अलग हो अपने नाम पर बुद्धधर्म चलाया । पर, आपके हृदय में श्रहिंसादेवी का प्रभाव तो शुरु से जैन अवरस्था से ही प्रसारित था और उसका ही आपने प्रचार किया, बस इन दोनों महारथियों ने संसार का उद्धार कर सर्वत्र शांति की स्थापना करदी जिसके सामने ब्राह्मणों की सत्ता मृत्यु कलेवर सी रह गई। इतना ही क्यों पर बहुत से ब्राह्मण तो भगवान् महावीर के अनुयायी बन गये थे इतना ही नहीं बल्कि भगवान् महावीर के धर्म के अनुयायी चारों वर्ण वाले थे । जैसे कि १- क्षत्रिय वर्ण - राजा श्रेणिक, उदाई, संतानिक, प्रदेशी वगैरह २ । २ --- ब्राह्मण वर्ण- इन्द्रभूति, ऋषभदत्त, भृगुपुरोहितादि । ३ - वैश्य वर्ण- श्रानंद, कामदेव, शक्ख, पोक्खलं', ऋषभद्रादि । ४ - शूद्रवर्ण - मैतार्थ, हरकेशी, चाण्डाल, -- सकडाल कुम्हारादि । भगवान् महावीर के धर्म का प्रचार बहुत प्रान्तों में हो गया था तथापि विशाल भारत में कई ऐसी भी प्रान्त रह गई थी कि अभी तक वहां महावीर का संदेश नहीं पहुँच सका था । पर भगवान् महावीर निर्वाण के पश्चात् थोड़े ही समय में प्रभु पार्श्वनाथ के पांचवे पट्टधर आचार्य स्ववंप्रभसूरि ने पूर्व प्रान्त से विहार कर सिद्धिगिरी की यात्रा की और वाद में अपने पांच सौ शिष्यों के साथ अर्बुदाचल की यात्रा कर देवी चक्रेश्वरी की प्रेरणा से श्रीमालनगर में पधारे। उस समय वहां एक वृहद् यज्ञ का आयोजन हो रहा था, जिसमें बलीदान के लिए लाखों मूक पशु एकत्र किये गये थे। पर, उन दया के दरिवाय सूरीश्वरजी को इस बात की खबर मिलते वे राज सभा में जाकर ऐसा सचोट उपदेश दिया कि वहां का राजा जयसेनादि ९०००० घर वालों ने हिंसा से घृणा कर जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और उन निरपराध मूक प्राणियों को अभयदान दिया और नूतन श्रावकों के आत्म कल्याण के लिये भगवान् ऋषभदेव का उतंग मंदिर बना कर समय पर उस की प्रतिष्ठा भी करवाई | बाद में ऐसा ही एक मामला पद्यावती नगरी में भी बना वहां भी आचार्यश्री पधारे और यज्ञ वली दी जाने वाले लाखों मूक प्राणियों को निर्भय करके ४५००० घर वालों (राजा प्रजा) को जैन धर्म मंदिर की प्रतिष्ठा भी करवाई । श्राचार्यस्वयंप्रभसूरि ग कर सके। उन्हों को ठीक ऐसा ही मशीनगिरी शिक्षा दीक्षा दी तथा वहां भगवान् शांतिनाथ के एक ऐसे मशीनगिर की तपास में थे कि मेरा अधूरा कार्य मिल भी गया जो विद्याधरवंश में अवतार धारण कर राजऋद्धि का त्याग कर स्वयंप्रभसूरि के पास दीक्षा ली थी जिनको वीराब्द ५२ वर्ष आचार्य पदार्पण किया जिनका नाम था रत्नप्रभसूरि देवी चक्रेश्वरी की प्रेरणा से आप अपने ५०० शिष्यों के साथ आगे बढ़कर मरुधर भूमि में पधारे। पर वहां जाना किसी साधारण व्यक्ति भगवान् महावीर के शासन में चारों वर्ण ११६३ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] । भगवान् पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास का काम नहीं था । कारण पाखण्डियों के अखाड़े प्रामों प्राम वज्र किले की भांति मजबूत जपे हुये थे उनके खिलाफ में खड़ा होना टेड़ी खीर थी पर आचार्यश्री ने जन सेवा के लिये अपना जीवन अर्पण कर चुके थे वे अनेक परिषह और सैकड़ों कटिनाइयों की तनिक भी परवाह नहीं रखते हुए दो-दो चार-चार मास भूखे प्यासे रह कर उन अनार्यों के तड़ना तर्जना को सहन करते हुए आखिर क्रमशः बिधार करते हुए उकेशपुर नगर में पहुँच गये पर कहां तो स्वागत सम्मेलन और कहां ठहरने को मकान । कहां दो-दो चार-चार मास के भूखे प्यासे के लिये पारणा एवं आहार पानी । फिर भी वे न लाथा दानपना और न किया पश्चाताप । वे सिंह की तरह निरावलंबन नगर के समीप हौंणाद्री पहाड़ी पर ध्यान लगा दिया। उन परोपकारी आत्माओं के तप, तेज, ब्रह्मचर्य और सद्भावना का जनता पर ऐसा प्रभाव पड़ा की साधरण कारण से राजा प्रजा को क्या पर हजारोंजीवों की बलि लेने वाली चामुंडा देवी को जैन धर्म की दीक्षा देकर एवं पृथक् २ मत पंथ के लोगों को समभावी बनाकर अपने दिव्यज्ञान द्वारा भविष्य का लाभ जानकर 'महाजनसंघ' नामक एक सुदृढ़ संस्था स्थापन कर दी जिसके अंदर लाखों वीर क्षत्री तथा अनेक ब्रह्मण वैश्य एकत्र हो गये। जब आचार्य रत्नप्रभसूरि को अपने निर्धारित कार्य में सफलता मिल गई तो श्रापका तथा आपके वीर साधुओं का उत्साह खूब ही बढ़ गया। उन्होंने तथा उन्हों की परम्परा के आचार्यों ने एक ही प्रान्त एवं एक ही मरुधर में बैठकर टुकड़े खाना स्वीकार नहीं किया था पर वे सिन्ध, कच्छ, सौराष्ट्र, लाट, अावंती, मेदपाट, शूर सेन, मच्छ, करु, पांचलादि प्रान्तों में भ्रमण कर सर्वत्र जैन धर्म एवं अहिंसा का झंडा फहराया था । शुरू से जिन महाजनों की संख्या लाखों थी उनको बढ़ाकर करोड़ों तक पहुँचादी लोक युक्ति में कहा करते हैं कि 'श्रम विना लाभ नहीं ।' 'दुःख बिना सुख नहीं' इत्यादि । यदि वे महा पुरुष इतन कष्ट नहीं उटाते तो उनको इतना लाभ भी कहां से होता दूसरा वह समय भी उनके खूब ही अनुकूल था। । इतिहास से पता चलता है कि इ० सं० के पांच छः शताब्दियों पूर्व से इ०सं की तीसरी शताब्दी तक भारत के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक थोड़ा-सा अपवाद छोड़ कर सर्वत्र जैन राजाओं का ही राजा था केवल सम्राट अशोक पहले जैन था पर बाद में बौद्ध धर्म का प्रचार,किया और शुगवंशी पुष्पमित्रादि वेदानुयायी होकर वेद धर्म को जीवित रखा। शेष सर्वत्र जैन राजाओं की ही हुकुमत चलती थी उस समय जैनाचार्य भी चुपचाप नहीं बैठ गये थे पर वे अनुकूल समय में अपने धर्म के प्रचार में सलग्न थे और उन्होंने भारत में ही नहीं पर सम्राट बिंबसार, चन्द्रगुप्त और सम्प्रति की सहायता से भारत के बाहर पाश्चात्य देशों में भी जैनधर्म का प्रचार किया था। जिसके स्मृति चिन्ह आज भी अधिक संख्या में उपलब्ध होते हैं । इहने का तात्पर्य यह है कि जैनधर्म का आर्य अनार्य देशों में भी प्रचार था और जैनधर्म के अनुयायी करोड़ों की संख्मा में थे और उन सब का रोटी बेटी व्यवहार प्रायः शामिल था। किसी भाई को ऊंच नीच नहीं समझा जाता था निर्वलों को सहायता पहुंचा कर छपने बराबरी का बना लेने में अपना गोरव समजते थे। व्यापारादि में सब से पहला स्थान स्वाधर्मी भाइयों को ही दिया जाता था। इत्यादि सुविधाओं के कारण ही जैनेतर लोग जैन धर्म खुशी से अपना लेते थे । और जब तक जैनों में साधर्मियों के प्रति सद्भावनाएं रही वहां तक तो जैन धर्न की उन्नति व जैन अनुयायियों की वृद्धि होती रही थी यही कारण है कि उस समय जैन धर्मियों की जन संख्या ४००० ०००० चालीस करोड़ थी । इस बात के लिये आज भी इतिहास के कई विद्वान लेखक स्वीकार करते हैं ! ११६४ आचार्य रत्नप्रभसरि द्वारा संघ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १७१८-१२३७ जैनधर्म की यह एक विशेषता है कि वे अपने उन्नति के समय में एवं सर्वत्र जैन राजाओं की हुकुमत में भी किसी अन्य धर्मियों पर किसी प्रकार जोर जुल्म नहीं किया था। वलात्कार से न तो किसी को जैन बनाया था और न किसी की जायदाद ही छीन थी। पर अन्य धर्मियों में यह समभाव नहीं था। उन्होंने अपनी सत्ता में जैनों को बहुत सताया। यहां तक की पुष्पमित्र ने हुक्म नामा निकाला कि जैन- बौद्ध साधुओं का शिर काट कर लावेगा १०० मोहरें उसको पुरस्कार स्वरूप दी जावेगी । दहाड़ राजा ने हुक्म निकाला कि त्यागी साधु-सारंभी ब्राह्मणों को नमस्कार करे । महाराष्ट्र प्रांत में हजारों जैन साधुओं को मौत के घाट उतार, दिये, वह भी एक बार ही नहीं, पर दो तीन बार । कलिंग में भी जैनों पर अत्याचार कर कलिंग को जैनों से निर्वासित कर दिया। श्वेतदूत राजा तोरमण आचार्यश्री हरिगुप्तसूरि के उपदेश से जैनधर्म का अनुरागी बन गया था और उसने भ० ऋषभदेव का जैनमंदिर भी बनवाया था पर उसका ही पुत्र मिहिरकुल शिव धर्म को अपनाकर जैनो पर इतना अत्याचार किया कि कई जैनों को अननी जन्म भूमि (मरुभूमि) का त्याग कर अन्य न्तों में जाकर बसना पड़ा इत्यादि । अनेक उदाहरण विदामान है और जैलों के मंदिर तो सैकड़ों की संख्या में जैनोत्तरों ने इजम कर लिये जो आज भी विद्यमान हैं। खैर, प्रसंगोपात इतना लिख कर अब हम मूल विषय पर आते हैं। जैाचार्यों ने जिस वर्ण, जाति, गौत्रादि, ऊंच नीच रूपी जहरीले भेदभाव एवं वाड़ाबन्धी को समू। नष्ट कर तथा मांसाहारी एवं व्याभिचारी जैसी राक्षसी वृत्ति बाले मनुष्यों की शुद्धि कर सदाचारी एवं सयभावी बनाए थे और उनके श्राप में रोटी बेटी का व्यवहार स्त्र खुले दिन से होता था। इस सहृदयता ने जैनों की संख्या को बढ़ा कर उन्नति के उंचे शिखर पर पहुँचा दिया । जैन केवल स्वार्थी ही नहीं थे पर वे परमार्थी भो थे उन्होने देशवासी भायों के लिये काल, दुकाल एवं राज संकट के समय प्राण प्रण से एवं असंख्य द्रव्य व्यग करके अपने स्वार्थ त्याग द्वारा जन समाज की बी २ सेवाएं की थी। समाज और धर्म के लिये तो कहना ही क्या था। आज भी इतिहास पुकार-पुकार कर कहता है कि जैनों ने देश से बाकी है शायद ही दूसरे किसी ने की हो । प्रत्यक्ष एमाण भी भारत में जगतसेठ, नगरसेठ, टीकायत, चौबटिया, पंच, बो ग, साहुकार, शाह आदि ऊचे पदों पर जैन को ही सन्मान मिला था। इससे भी पाठक ! अनुमान कर सकते हैं। जैनो की वह उन्नति स्थायी रूप में नहीं टिक सकी जब से जैनों में आपस का प्रेम गया, पर उपकार की बुद्धि गई, सारियों की बात्सल्यता गयी, धर्म का गौरव गया और स्वार्थ जैनों पर छापा मारा इधर ब्राह्मणों के संसर्ग पुन: जातियों की सृष्टि शुरू हुई छोटे छोटे बाड़े बंधने लगे जाति च्छर्ता का भत जैनों पर सवार हुअा। ऊंच नीच भागना ने हृदय में जन्म लिया, जाति पच्छरता ने अहंपद पैदा किया । गत, पन्य गच्छों की बाड़े बन्दी होने लगी, शद्धि की मिशन के कष्ट आकर बेकार बन गई। राज्य सत्ता ने जैन से नार लिया बम, जैनों की वनति ने उनकी गहरे गर्त में डाल दिया जिसको आज हम अपनी आंखों से देख रहे हैं। एक ही सहावीर , उपासकों में सबसे पहले श्वेताम्बा और दिगम्मबर दो पार्टियां बनीं। फिर दिगम्बरों में संघ भेद होकर अनेक टुकड़े हो गए और श्वेताम्बरियों में चैत्यवास, वस्तीवास, दो बड़ी पार्टियां हो गई तदन्तर गच्छों के भेद हुए जिनमें ८४ गच्छ तो केवल कहने मात्र के हैं पर नामावली लिखी जाय तो ऊँच नीच के भेदों को मिटा कर Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तीन सौ से अधिक गच्छों की संख्या आती है इसमें बहुत से गच्छ तो सम समाचारी वाले हैं और कई क्रिया भेद के गच्छ भी हैं और वे सब अपनी-अपनी पार्टी की रक्षा में एवं वृद्धि में अपनी सव शक्ति को खर्च करने में ही अपना गौरव सममा । पर इससे जैन धर्म को क्या लाभ होता, इस बात को भगवान् महावीर की आज्ञा को शिरोधार्य करने वाले भूल गर। आगे चल कर कई मत पैदा हुए जिन्होंने जैन धर्म के संगठन को चूर चूर कर डाला और समाज को फूट व कुसम्प का झोपड़ा बना डाला और कई क्रियाएं भी ऐसी कर डाली कि जिससे जैन धर्म दुनियां की नजर में गीर भी गया कारण साधारण जनता तत्त्व पर लक्ष्य कम देकर वर्तमान बाह्य क्रिया पर ही अपना मत बांध लेती है जैसे जैनों की अहिंसा ने जगद् उद्धार किया था और सर्वत्र इसके गुण गाए जाते थे। पर उसके आचरण में इतना परिवर्तन कर दिया कि आज अबोध जन उसकी हंसी करने लग गये । ऐसी ही वेश परिवर्तन का कारण हुा । जैनों ने देश, समाज और सर्व साधारण के हित के लिए अरबों खरबों द्रव्य व्यय किया पर कई असमझ लोग मनुष्य को अन्न जल, पशुओं को घास डालने में भी पाप समझने लगे तथा मरते हुए जीव को बचाने में भी पाप की कल्पना करने लग गए । जो अज्ञानी लोग केवल ऐसे मनुष्यों के परिचय में आते हैं वे जैन धर्म के प्रति कैसे भाव रखते हैं पाठक ! स्वयं समझ सकते हैं। ___ अब जातियों की संख्या को भी सुन लीजिये । भगवान महावीर और प्राचार्य रत्नप्रभसूरी ने पृथक २ वर्ण, गौत्र, जातियों के भेदभाव मिटाकर सब को समभावी जैन बनाए थे। कालान्तर में उनके तीन नाम निर्माण हुए। श्रीमालनगरवालोंका श्रीमाल, प्राग्वटनगरवालोंका प्राग्वट और उपकेशनगरवालोंका उपकेश। केवल नाम पृथक हुए पर इनका रोटी बेटी का व्यवहारादि सब शामिल ही थे इतना ही क्यों पर बाद में भी जैनाचार्यों ने मांस, मदिरासेवी क्षत्रियों को जैनधर्म की दीक्षादी। उन नव दीक्षित क्षत्रियोंका रोटी बेटीका व्यवहार उसी समय से शामिल कर लिया गया था पर किसी समय एक जाति वाले के हृदय में अहंपद आया और जहां अपनी चलती थी दूसरे को कह दिया कि जाबो हम तुमको बेटी नहीं देंगे। तो दूसरे स्थान दूसरे की चलती थी वहां उन्होंने कह दिया कि हम तुमको बेटी नहीं देंगे । बस, बेटी व्यवहार वन्द होगया किसी-क्षेत्र को संकीर्ण करना यह पतनका ही कारण है । इसी प्रकारएक नीर्जिव कारणसे लघु सज्जन, बड़े सजनके भेद पड़ गए। अधुनी जैनोंकी एक यहभी खूबी है कि वे तौड़नातो नब जानते हैं पर जोड़ना नहीं जानते जैसे ऊपर बतलाया गया है । कि जैन धर्म के पालन करने वाले श्रीमाल, प्राग्वट, उपकेश वंश एवं लघु वृद्ध-सजनके श्रा समें बेटी व्यवहार था पर वह टूट गया फिर उसको जोड़ नहीं सके इन पार्टियों के अग्रेश्वर नेता अपने दिल में समझते हैं कि इन संकुचित विचारों से हमें हनि पहुंची और पहुंचती जा रही है फिर भी इसके लिए आज तक किसी ने प्रयत्न नहीं किया। इसमें अहंपद के अलावा कुछ नहीं है प्रत्येक पर्टी यही समझती है कि मैं कुछ करुंगा तो कमजोर कहलाऊंगा मेरे क्या गरज पड़ी है कि मैं आगे होकर नम्रत्ता करूं इससे पाया जाता है कि जैनधर्म की हानि लाभ की किसी को परवाह नहीं है केवल अपने २ अहंपद की रक्षा करना सबके दिल में है । इसी प्रकारअग्रवाल, पल्लीबाल, सेठिया, अरणोदिया पीपलोदा पंचा, ठाइया, भावसार, मोड़ गुर्जर, नेमा लाडवादि । बहुत जातियां जैनधर्म पालन करने वाली थी परन्तु उनके अन्दर से किसी एक का भी बेटी व्यव. हार दूसरे के साथ नहीं है इतना ही नहीं पर एक जाति दूसरी जातिकी पहचान तक भी नहीं रखतो । क्षेत्रापेक्षा मारवाड़ के ओसवाल मेवाड़, मालवा, पंजाब, गुजरातादि अन्य प्रान्त वालों ओसवालों को वेटी नहीं नगरों के नाम पर तीन शाखाएँ namanamannaamanamananmanna ammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmunam Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं२ ११७८-१२३७ देते तब अन्य प्रान्त वाले मारवाड़ मालवा वालों को वेटी नहीं देते । यही कारण है कि एक प्रान्त के जैनों का इसरे प्रान्त के जैनों के साथ कुछ भी सम्बन्धनहीं है और धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में एक दूसरे की मदद भी नहीं करते । इतना ही क्यों पर अकेले मारवाड़ के ओसवालों में भी राजवर्गी, मुशदी लोग बाजार का साथ अर्थात् व्यापार करने वालों के यहां वेटी देने में संकोच करते हैं धनवान लोग साधारण स्थिति वालों को अपनी पुत्री देना नहीं चाहते यही कारण है कि आज समाज में कुजोड़ एवं वाल-वृद्ध विवाह और कन्या विक्रय, वर विक्रय का भूत सर्वत्र तांडवनृत्य कर रहा है विधवा विदूर और कुंवारों की दशा इनसे भी शोचनीय है यदि यही परिस्थिति रही तो एक शताब्दी में ही इस समाज की इतिश्नी होने में कोई संदेह नही है । खैर, प्रसंगोपाल इतना कह कर पुनः जातियों के विषय पर आते हैं कि जैनाचार्यों ने वर्ण, जाति, गौत्रादि को एक कर संगठन को मजबूत बनाया था । उसी महाजन संघ की तीन शाखा हुई जिसमें एक उपकेवंश एवं ओसवाल जाति के अन्दर कितने गौत्र एवं जातियां वन गई थी और पृथक् २ जातियां बनने के कारण भी बड़े ही अजब थे जिसको पढ़ कर पाठक आश्चार्य अवश्य करेंगे। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में महाजन संघ की स्थापना की थी वाद उसके अन्दर नामांकित पुरुष हुए । जैसे १ नागवंशी आदित्यनाग नामक पुरुषने सामाजिक एवं धार्मिक ऐसे-ऐले काम किए कि उनकी संतान, आदित्यनाग के नामसे प्रसिद्ध हुई और आगे चल कर यही इनका गौत्र बन गया। तथा चौरड़िया, गुलेच्छा, पारख, गदइया, आदि ८४ जातियों इसी गौत्र से उत्पन्न हो गई इससे हम इतना जरूर समझा सकते हैं कि किसी समय इस जाति की वड़ी भारी उन्नति थी और इस जाति में इतने ही नामांकित पुरुष हुए उन के नाम एवं काम से ही पृथक २ जातियां वन गई । पर उन जातियों के छोटे छोटे बाड़े वन जाने से लाभ के बदले हानि के कारण वन गये थे। इस पतन के समय में भले ही आज वे ८४ जातियां नहीं रही हो पर शावलियों से हम देख सकते हैं कि एक समय एक ही गौत्र की ८५ जातियां बन गई थी २- वप्पनाग नामक महापुरुष की संतान वप्पनाग गौत्र के नाम से मशहूर हुई इनकी भी आगे चल कर ५२ जातियां बन गई थी। ३-महाराजा उत्पलदेव की सन्तान ने समाज में अति श्रेष्ठ कार्य कर वतलाने से वे श्रेष्ठिकहलाये आगे चल उनकी भी कई जातियां वन गई थी। ४-तप्तभट्ट पुरुष की संतान तप्तभट्ट कहलाई। ५-वल्लाह नामक भाग्यशाली की संतान वलाहगौत्र कहलाई। ६- कुम्मट का व्यापार करने वाले कुम्मट कहलाये । ७-कर्णाट से आये हुए लोग कर्णाट कहलाये । ८-कन्नौज से आऐ हुए समूह कन्नोजिये कहलाए । ९.-डिडुनगर से आए हुए लोग डिडु कहलाए । १०-भादा की संतान भाद्र गौत्र के नाम से मशहूर हुई । इत्यादि अनेक गौत्रों की सृष्टि बन गई । यह बात तो स्वयं सिद्ध है कि श्रोसवाल जाति में अधिक लोग राजपूत ही हैं और राजपूतों में 'दारुड़ा पिना और मारूड़ा गाना' इसके साथ हासी मश्करी करने का रिवाजा था। जैनाचार्यों ने उनके मांसमदिरादि सेवन की कुप्रथा छुड़ा कर जैन तो बना दिये गये थे पर उनकी जतियों बनने का कारण ११६७ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हांसी मस्करी की रूढ़ी सर्वथा नहीं छुट गई थी कुछ कुछ नमूना तो आज भी हम देख सकते हैं जैसे श्रोसवालों के यहां जात महमान पाते हैं तब उनके स्वागत में गीत गाते हैं उसमें भी वही शब्द गाया करते हैं अतः आपस की हांसी मस्करी से भी कई जातियां बन गई कई गजका काम करने से, कई व्यापार से, कई नगरों के नाम से, कई धार्मिक कार्य करने से, और कई नामांकित पुरुषों के नाम से नमूने के तौर पर कतिपय जातियों के नाम यहां उद्धृत कर दिये जाते हैं। जिससे पाठक स्वयं समझ सकेगें ? १- हांसी मस्करी से बनी हुई जातियो के नामः--सांद, सियाल, मच्छा, हंसा, वील, काग, मुर्गीपाल, नाहर, गजा, वाघमार, लुंकड़, बुगला, मिन्नी, बाघ वार, गादिया, ऊंठडिया, गरुड़, हीरण, बाधरेचा, बेकड़ियां, चीड़कलिया, ढेलडिया, तोता, कांगड़ा, सोड़ियाणी, घोड़ावत, चकला, चिंचट, बकरम, श्रादि २ । २-व्यापार करने से जातियों के नामः-धीया, तेलिया, केसरिया, कपूरिया, गुगलिया, चापड़ा, कस्तुरिया, धूपिया, खोपरिया, गांधी, लूणिया, पटवा, चामड़, सोनी, मीनारा, जड़िया, जौहरी, नलिरिया, सराफ, बोहरा, मणियारा, गुदिया, पीतलिया, भंडोलिया, हलदिशा, धावड़ा सेवडिया, वजाज, कापड़िया, संगरिया, पारख, कुमट, कंसारिया, लुगड़िया, मोतिया, चौपड़ा, सुतरिया, पूर्णिया, समुदड़िया, हुंडीवाल, मेदीवाल, पोटलिया, मोदी, चिणोटिय, गुलखेड़िया, बजरिया, पोगचिया, दालिय, इत्यादि इत्यादि। ३-नगरों के नाम पर भी कोई जातियां बन गई थी:-जैसे हथुड़िया, साचौरा, जालौरी, नरबरा, रामपुररिया, पीपाड़ा, फलोदिया, सीरोहिया, भीनमाला, मेडतिया, नागौरी, कुचेरिया, हरसोग, रूणीवाल बोरूदिया, रामसेना, भटनेरा, गदेचा, डांगी, जयपुरिया, जैसन भेग, जोधपुरिया, नाणवाल, मंडोवरा जीरा वला, सुरपुरिया, पांचौरा सौजनिया, संभरिया, कबाणा, सौनामा, माथुरा, भुतेड़िया, भरूंचा, पाटणिया, रवींवणदिया, पल्लीवाला, नंदवाणा हापड़ा खांगटिया, रोणीवाल, वागड़िया, ढेढिया, चामड़िया। चंडालिया, दांन्तियां, भोपाला, रमपुरा, संढेरा, खींवसरा, पुंगलिया, श्रोभाल, दुधोड़ा, पोकरणा, समदड़िया, इत्यादि ४ राज का काम करने वालों की भी कई जातियों वन गई जैसेः - भंडारी क ठारी, खजांची, मंत्री, कामदार, फौजदार, चौधरी पटवारी, मेहता, कानुगा, दफ्तरी, शरवा, रणधीरा, पोतदार, भोमिया, वोहग, डोडीदार, चोपदार, नगरसेठ, टीकायत, नौपता, राजसोनी शिशोदिया, राठौर, चौहान, परमार, सोनीगरा । ५-कई जातियां चकार अन्त की भी बन गई जैसे:-- कोटेचा, कांगरेचा, जेगरेचा, ब्रोचा, बाधरेचा, कांकरेचा,मालेचा, पामेचा, पावेचा, नातेचा, डांगरेचा, पालरेचा संखलेचा, संगेवा, मादेचा, नांदेचा, गुंदेचा, गुंगलेचा, काडेचा, मुंगेचा, राजेचा, सखेचा, पुंगेचा, लुणेचा, भादरेचा, जाणेवा, सोनेचा, लुंगेचा, साणेचादि । ६. धार्मिक कार्यों से भी कई जानियां बन गई जैस-संघी, चौसरिया, पोषाबाल, पुजारा, फूल पगर, नवकारसिया, सामीभाई, वात्सलिया नौलखा, दादा, धूपिया, केसरिया, दीवटिया, पीलजातिया, शिखरिया, भावुका, मादलिया, आरतिया । इत्यादि । ७-कई जातियां चिड़ने चिड़ाने से भी बन गई जैसे-टाटिया भूतेड़ा, तुरकिया, फितुरिया, गोगड़ा, वडवड़ा, चिड़कणिया । इत्यादि । ८-कई जातियां अपने पूर्वजों के नाम पर बन गई जैसे-सिंहावत्, वाधावत, पाताबत, जौधावत, मालावत, चाम्पावत, पोमावत, नागावत, धर्मावत, सदावत, नाथावत, लूणावत, भांडावत, पूजावत, सालगोत, दोलोत, कानोत, राजोत, रामावत, सूजावत, खेतावत, गणावत, मूजावत्, भीमावत, जुमावत, लालोत, ११६८ जातियों पनने का कारण Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८ से १२३७ हर्षोत, बालोत, जसोत् , ललाणी सीपाणी, आसाणी, वेगाणी, राखाणी, देदाणी रासाणी जीवाणी, रूपाणी, सानोणी, धमाणी, तेजाणी, दुधाणी, वागाणी जीनाणी, सोनाणी, बोधाणी, कर्माणी, हंसाणी, जैताणी भेराणी, मालाणी, भोमाणी, सलखाणी, सूजाणी, भीदाणी इत्यादि । इस प्रकार से श्रोसवाल जाति की अनेकोनेक जातियां बन गई जिसकी गिनती लगाना मुश्किल है कारण श्रोसवाल जाति भारत के चारों ओर फैली हुई है तथापि वि. सं० १७७० की साल में एक सेवग प्रतिज्ञा करके निकला कि मैं तमाम श्रोसवालों की जातियों को गिन कर ही घर पर आऊंगा । उसने दस वर्ष तक भ्रमण करके ओसवालों की १४४४ जातियां गिन कर दक्षिणा में दस हजार रुपया लेकर घर पर आया तब सेवक की औरत ने सवाल किया, कि आपने अोसवालों की तमाम जातियों के नाम लिख लाए है पर उसमें मेरे पीयर वाले ओसवालों की जाति लिखी है या नहीं ? इस पर सेवक ने पूछा कि तुम्हारे पीयर वाले ओसवालों की क्या जाति है ? औरत ने कहा कि 'दोसी' इस पर सेवक ने निराश होकर कहा कि यह जाति तो मेरे लिखने में नहीं आई है तब औरत ने कहा कि एक दोसी ही क्यों पर और भी अनेक जातियां होसी । सेवग ने कहा कि तुम्हारा कहना ठीक है, ओसवाल, भोपाल एक रत्नाकर हैं उनमें जातियां रूपी इतना रत्न है कि जिसकी गिनती लगाना ही मुश्किल है। इसे पाया जाता है कि एक समय ओसवाल जाति उन्नति के सच्चे शिखर पर थी। ___ मुझे भी जितनी जातियों की उत्पत्ति का इतिहास उपलब्ध हुआ है प्रस्तुत ग्रंथ में यथा स्थान दर्ज कर दिया है । अन्त में इस लघु लेख से पाठक कुल, वर्ण, गोत्र, और जातियों की उत्पत्ति का इतिहास से अवगत हो गये होंगे कि जिन महापुरुषों ने पृथक् २ गोत्र जातियों को समभावी वनाकर एक ही संगठन में प्रन्थित कर उनको उन्नति के उच्चे स्थान पर पहुँचा दी थी पर भवितव्यता बलवान होती है कि उन संगठन का चूर चूर कर पुनः वड़ा वन्धी में टुकड़े टुकड़े कर डाले विशेष आश्चर्य की बात है कि श्राज भ्रातृभाव का जमाना में हम देख रहे हैं कि दूसरे को तो क्या पर एक ही धर्म पालन करनेवाला मानव समाज में भोजन व्यवहार शामिल है वहाँ बेटी व्यवहार नहीं है इसपर जरा सोचा जाय कि जब भोजन व्यवहार कर लिया तब उसके साथ बेटी व्यवहार करने में क्या हर्जा है। यदि हम दूसरों को हलके समझे तब उनके साथ में बैठकर भोजन व्यवहार कैसे कर सके आदि भोजन व्यवहार करते समय हम दूसरे को हलका नहीं समझे तब बेटी व्यवहार करने में क्या संकीर्णता-बस । हमारे पत्तन का मुख्य कारण यही हुआ कि हमारा संगठन छीन्न भिन्न होकर अनेक विभागों में विभाजित हो गया है। दूसरा हम हमारे पूर्वजो के गौरव पूर्ण इतिहास से अनभिज्ञ है । जब तक अपने पूर्वजों का इतिहास का हमको ज्ञान नहीं है वहां तक हमारी नशों में कभी खून उबलेगा ही नहीं जब हमारा खून न उचलेगा तब हम आगे बड ही नहीं सकेंगे यही हमारे पतन के दो मुख्य कारण है। अन्त में हम शासन देव से प्रार्थना करेंगे कि हमारे पूज्य मुनिवरों को सावधान करे कि वे समाज को जोरों से उपदेश कर पुनः उस स्थिति पर ले आवे कि हमारे पूर्वाचार्यों के समय में थी और समाज नेताओं को भी अपने हृदय को विशाल एवं उदार बनाकर संकीर्णता सूचक वाड़ा वन्धी को जड़ मूल से नष्ट कर अपनी समाज का प्रत्येक क्षेत्र को विशाल बनाले कि हम पुनः विशाल बन जावें । इति शुभम् ॥ जातियों के नाम करण कैसे हुए ? । ११६९ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महाजनसंघ रूपी कल्पवृक्ष की एक शाखा महाजनसंघ रुपी कल्पवृक्ष के बीज तो वीराब्द ७० वर्षे प्राचार्यश्री रत्नप्रभसूरि ने मरुधर देश के उपकेशपुर नगर में वोकर कल्पवृक्ष लगा दिया था तत्पश्चात् उन श्राचार्यों ने स्वयं एवं भापके पट्ट परम्परा के आचार्यों ने जल सिंचन करके पोषण किया और अनुकूल जल वायु मिलता रहने से वह कल्पवृक्ष इतना फला फूला कि जिसकी शीतल छाया में लखों नहीं पर करोड़ो मनुष्य-सुख शांति का अनुभव करने लगे। फिर तो ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता गया त्यों त्यों उस कल्पवृक्ष की शाखाएं भी प्रसरित होती गई । जैसे श्रात्मकल्याण के लिये ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी तीन शाखाएं हैं वैसे ही उस कल्पवृक्ष के भी उपकेशवंश, प्राग्वटवंश, श्रीमालवंश नाम की तीन शाखएं हो गई । वाद में भी बहुत से प्राचार्यों ने जैनों को जैन बना कर उनको महाज संघ रूपी वृक्ष की शाखाएं बनाते गये जैसे सेठिया, अरुणोदिया, पीपलोदा, इत्यादि। आगे चल कर उन शाखाओं के प्रतिशाखाएं भी इतनी हो गई कि जिनकी गिनती लगाना अच्छे २ गणित वेत्ताओं के लिये भी अशक्य बन गया। जहां तक इस कल्पवृक्ष और उसकी शाखाएं आपस में प्रेम पूर्वक रही वहां तक दोनों का मान महत्व एवं गौरव से उनका सिर ऊंचा रहा और अपनी खब उन्नति भी की कारण वृक्ष की शोभा शाखाओं से ही है और शाखाओं की शोभा वृक्ष से । यदि वृक्ष बड़ा होने से वह अभिमान के गज पर सवार होकर कह दे कि मैं सब को आश्रय देता हुँ मुझे शाखाओं की क्या जरूरत है और शाखाएं कह दें कि हम भी वृक्ष के सदृश्य विस्तृत हैं फिर हमें वृक्ष की क्या परवाह है इस प्रकार वृक्ष शाखाएं को अलग कर दे या शाखाएं वृक्ष से पृथक् हो जाय । तब उन दोनों का मान महत्व कम हो जाता है यहां तक कि शाखा बिहीन वृक्ष को कष्ट समम सुथार काट कर जला देता है और वह कोलसों के काम में आता है तब वृक्ष से अलग हुई शाखाएं स्वयं सूख जाति है वे कठहरे की भारी वन कर ईधन के काम आती है अर्थात् एक दिन ऐसा आजाता है कि संस्गर में उस वृक्ष एवं शाखाए का नामोनिशान तक भी नहीं रहता है। यही हाल हमारे महाजनसंघ और उसकी शाखाओं का हुआ है जब तक वृक्ष अपनी शाखाओं को संभाल पूर्वक प्रेम के साथ अपना कर रखी एवं शाखाएं भी वृक्ष का वहुमान कर अपने आश्रयदाता समझ उसका साथ दिया वहां तक तो दोनों की वृद्धि होती रही। यहां तक कि वे उन्नति के उच्चे शिखर पर पहुंच गये । पर जब से वृक्ष ने शाखाओं की परवाह नहीं रखी और शाखाए वृक्ष से अलग हो गई उसी दिन से दोनों के पतन का श्रीगणेश होने लगा । क्रमशः वर्तमान का हाल हमारी आंखों के सामने है। महाजनसंघ रूपी कल्पवृक्ष की शाखाओं में सेठिया जाति भी एक शाखा है उसकी उत्पत्ति, व वृक्ष के साथ रहना, तथा वृक्ष से कब और क्यों अलग हुई और उसका क्या नतीजा हुआ इन सब का इतिहास आज मैं पाठकों की सेवा में रख देना चाहता हूँ। ___ मरुधर प्रदेश में बहुत से प्रसिद्ध एवं प्राचीन नगर हैं जिसमें श्रीमालनगर भी पुराण प्रसिद्ध प्राचीन नगर है और इस नगर की प्राचीनता के विषय में यत्र तत्र कई प्रमाण भी मिलते हैं पुनः यह भी कहा जाता है कि इस श्रीमालनगर को देवी महालक्ष्मी ने बसाया था और वहां पर बसने वालों को महालक्ष्मी देवी ने ११७० महाजन संघ की शाखाएं Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ऐसा वरदान भी दिया था कि तुम लोग सदाचारी रहोगे वहां तक धन धान्य एवं कुटुम्ब से सदा समृद्धि शाली रहोगे । तदनुसार श्रीमालनगर के लोग बड़े ही धनाड्य थे उस नगर में कोटाधीश तो साधारण गृहस्थों की गिनती में गिने जाते थे तब लक्षाधिपतियों की तो गिनती ही कहां थी ? फिर भी पूर्व संचित कर्म तो सब के साथ में ही रहते हैं। श्रीमाल नगर में जैनधर्म की नींव तो सब से पहले भ० पार्श्वनाथ के पांचवें पट्टधर प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि ने वीर निर्वाण से करीब चालीस वर्ष में डाली थी। उस समय श्रीमालनगर में सूर्यवंशी राजा जयसेन राज्य करता था उसने ब्राह्मणों के कहने से एक वृहद् यज्ञ का आयोजन किया जिसमें वलि देने के लिये लाखों पशुओं को एकत्र किये थे ठीक उसी समय प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि का पदार्पण श्रीमालनगर में हुआ। और आपने अहिंसा परमोधर्मः का सचोट एवं निडरता पूर्वक उपदेश दिया फलस्वरूप राजा-प्रजा के ९०००० घर वालों को जैन धर्म में दीक्षित कर जैन धर्म की नींव डाली। तत्पश्चात् राजा ने जैनधर्म का बहुत अच्छा प्रचार किया। राजा जयसेन के दो पुत्र थे। १-भीमसेन, जो अपनी माता के पक्ष में रह कर ब्राह्मण धर्म का उपासक बन गया था और दूसरा चंद्रसेन जो २ अपने पिता के पक्ष में रह कर जैन धर्म स्वीकार कर उसका ही प्रचार करने में सलंग्न रहता था । अतः दोनों भाईयों में कभी कभी धर्मवाद भी चलता रहता था। राजा जयसेन के स्वर्गवास होने के बाद, भीमसेन को राजा बनाया गया एवं भीमसेन के हाथ में राज सत्ता आते ही उसने धर्मान्धता के कारण जैनों पर कठोर जुलम गुजारना प्रारम्भ कर दिया । अतः चन्द्रसेन ने धर्मरक्षार्थ श्राबू के पास उन्नत भूमि पर एक नगर आबाद कर श्रीमालनगर के दुःख पीड़ित अपने सब साधर्मी भाइयों को उस नूतन नगर में ले आया और उस नूतन नगरी का नाम चंद्रावती रखा तथा प्रजा ने वहां का शासन कर्त्ता राजा चद्र सेन को मुकर्रर कर दिया। राजा चंद्रसेन की ओर से वहां वसने वालों को सब तरह की सुविधा होने से थोड़े ही समय में नगर खूब अच्छी तरह आबाद हो गया विशेषता यह थी की वहां के निवासी प्रायः सब लोग जैनधर्म को पालन करने वाले ही थे उनके आत्म कल्याण के लिये नूतन नगरी में कई जिनालय एवं उपाश्रय भी बनवा दिये थे। ___ इधर श्रीमलनगर से सब के सब जैन निकल गए बस, पीछे रहा ही क्या ? जब राजा भीमसेन ने अपने नगर को शून्यारण्यवत् देखा तब उनकी आंखें खुली कि मैंने ब्राह्मणों की बहकावट में आकर राजनीति को भूल कर जैनधर्म पालने वालों पर व्यर्थ जुल्म कर अपने ही हाथों से अपना अहित किया है पर अब पश्चाताप करने से क्या होने वाला था । खैर, बिना बिचारे करता है उसको पश्चाताप तो करना ही पड़ताहै । श्रीमालनगर के पहले से ही तीन प्रकोट थे पर नगर टूटने के बाद ऐसा प्रबंध किया कि पहले प्रकोट में कोटाधिश, दूसरे में लक्षाधिश और तीसरे प्रकोट में साधारण जनता इस प्रकार की व्यवस्था कर उस का नाम भीन्नमाल रख दिया जो राजा भीमसेन के नाम की स्मृति करवाता रहे । भीन्न माल में सूर्यवंशी राजाओं के पश्चात् चावड़ावंशी बाद गुर्जर लोगों ने राज किया था शायदकुछ समय के लिये भीन्नमाल हूणों के अधिकार में भी रहा था और बाद में परमारों ने भी वहां का शासन चलाया था। उपरोक्त लेख प्रस्तावना के रूप में लिख कर अब मैं मेरे उद्देश्यानुसार संठिया जाति का इतिहास लिखूगा। जो आज पर्यंत अंधेरे में ही पड़ा था। श्रीमालनगर में जैनधर्म के बीज ११७१ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ } [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विक्रम की आठवी शताब्दी में भी भीन्नमाल नगर अच्छी तरह पाबाद था। वहां के निवासी वन, जन, धन से अच्छे सुखी थे एवं समृद्धशाली थे उस समय वहां पर भाण नामक राजा राज्य करता था, कोई-कोई राजाओं के मूल नाम के साथ उपनाम भी पड़ जाते हैं। इस कारण अच्छे २ विद्वान् भी भ्रम के चक्कर में पड़ कर गोता खाया करते हैं पर सूक्ष्म दृष्टि से शोध खोज करने पर पता मिल भी जाता है। राजा भाण जैन धर्मोपासक राजा था आपके संसार पक्ष के काका श्रीमल्ल ने जैनदीक्षा ली थी जो सोमप्रभाचार्य के नाम से सुप्रसिद्ध थे उस समय भोन्नमाल में आचार्य उदयप्रभसूरि का आना जाना था और राजा पर आपका बहुत अच्छा प्रभाव था। आंचलगच्छपट्टावली से पाया जाता है कि उदयप्रभसूरि ने भी भीन्नमाल के ६२ कोटाधीशों को जैनधर्म की दीक्षा देकर जैन श्रावक बनाये थे इत्यादि भीन्नमाल में जैनों की अच्छी आबादी थी। ___जीवों को दुःख और सुख की प्राप्ति होना पूर्व संचित कर्मानुसार ही है भीन्नमाल में जैसे बहुत से लोग सुखी बसते थे तो वैसे कई दुःखी लोग भी रहते थे । दुख का मूल कारण अज्ञान है और अज्ञानी जीवों के दुःखोदय होने पर भी वे अज्ञान से पुनः दुःखों का ही संचय करते हैं। जब अज्ञानी जीवों को असह्य दुःख हो जाता है तब वे येन केन प्रकारेण प्राण छोड़ कर दुःखों से मुक्त होना चाहते हैं और उन अज्ञानियों को अज्ञानमय मरण होने से उसका फल भी मिल जाता है जैसे उस समय एक तो मृतपति के पीछे धक् धक्ती आग में जल कर सती होना और दूसरी काशी जाकर करवत लेना। भीन्नमाल में कई ब्राह्मण बहुत दुःखी थे उनमें से २४ ब्राह्मणों ने दुःख से मुक्त होने के लिये विचार किया कि काशी में गंगा किनारे के सरघाट पर करीब ५० मण लोहे की एक तीक्षण करवत रखी हुई है लोगे की मान्यता है कि उस करक्तसे मरने वाला सीधा ही स्वर्ग में जाकर देवताओं के सुखों का अनुभव करता है जैसे पति के पीछे उसकी पत्नी जीते जी धधकती हुई अग्नी में जल कर सती होने पर स्वर्ग के सुखों के प्राप्त करती है वे ब्राह्मण भी वहां जाकर करवत से मरने का निश्चय कर लिया और गुपचूप घर से निकल कर काशी के लिये रवाना भी हो गये पर शुभ कर्मों का उदय होनेसे रास्तेमें उन विनों की प्राचार्य श्रीउदयप्रभ सूरि से भेंट हो गई जब सूरिजी ने उन विनों के चित्त पर चिन्ता के चिन्ह देख कर उनसे कहने लगे सूरिजी-विप्रो ! आज आप एकत्र होकर कहां जा रहे हो ? विप्र-ग्लानी लाते हुए दबी जबान से कहने लगे पूज्य गुरुदेव ! संसार भर में केवल आप जैसे निग्रंथ महात्मा ही सुखी हैं आप के त्याग और तपस्या से इस भव और परभव में आप सुखी होंगे पर हमारे जैसे पामर प्राणी तो इस भव में दुःखी हैं और पर भव में भी दुःखी ही रहेंगे। इस असह्य दारुण दुःख से मुक्त होने की गरज से हम काशी जा रहे है वहा जा कर करवत लेकर प्राण मुक्त होंगे जिससे इस भव के दुःखों से मुक्त हो जायंगे और यहां से सीधे ही स्वर्ग में जाकर सुखी बनेंगे ऐसी अभिलाषा है । सूरिजी-इसका क्या सबूत है कि आप अपघात जसा नारकीय कृत्य करने पर भा स्वर्ग में जाकर सुखों का अनुभव करेंगे ? विप्र-हमारी परम्परा एवं शास्त्र ही इस बात के साक्षि हैं और सैंकड़ों मनुष्य ऐसे करते आये हैं पर हमें दुःख है कि आप जैसे महात्मा इस धार्मिक कृत्य को अपघात एवं नरक का कारण बता रहे हैं ११७२ सूरिजी और ब्राह्मणों के सम्वाद Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ सूरिजी-इस प्रकार अज्ञानता के वशीभूत होकर मरना अपघात नहीं तो और क्या है ? विप्र-क्या काशी जाकर करवत ले कर मरना अज्ञान मरण है ? सूरिजी-यदि इस प्रकार मरने से ही स्वर्ग मिल जाता हो तो उस करवत के चलाने वाले स्वर्ग के सुखों से वंचित रह कर यहां दुःख क्यों भोग रहे हैं आपके पूर्व उन लोगों को करवत ले कर स्वर्ग पहुँच जाना था पर वे स्वर्ग न जाकर आप जैसे भद्रिक लोगों को ही स्वर्ग में भेजने की एक जाल रच रखी है । विप्र-महात्माजी ! आपही बतलाइये कि इनके अलावा हम दुःखों से कैसे छुटकारा पा सकते हैं ? सूरिजी--महानुभावो ! दुखों से मुक्त होने में सब से पहले तो मनुष्य जन्म की आवश्यकता रहती है वह तो आपको प्राप्त हो ही गया है अब इसमें सद्धर्म और सदाचार की आवश्यक्ता है जो एक भव तो क्या पर भवोभव के दुःखों से मुक्त कर सकता है । विप्र-महात्माजी आप ही बतलाइये कि कौन से धर्म और किस सदाचार से जीव सुखी होता है ? सूरिजी-विप्रो ! यदि आप अपने दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हो तो पवित्र जैनधर्म की शरण लो और उसके कथानुसार सदाचार की प्रवृत्ति रखो। _ विप्र-महात्माजी ! हम तो जाति के ब्राह्मण हैं अपना धर्म छौड़ कर जैन धर्म का पालन कैसे कर सकते हैं ? हमारी न्याति जाति वाले हमको क्या कहेंगे ? सूरिजी-विप्रो ! धर्म के लिये वर्ण-जाति की रुकावट हो नहीं सकती है केवल श्राप ही क्यों पर पूर्व जमाना में इद्रभति श्रादि ४४०० ब्राह्मणों ने भगवान महावीर के पास जैन श्रमण दीक्षा ली थी उनके पश्चात् भी अार्य, शय्यंभवभट्ट, यशोभद्र, भद्रबाहु, आर्य महागिरी, आर्यसुहस्ति, आर्य्यरक्षत, वृद्धवांदी, सिद्धसेनादि, चार वेद अठारहपुराणों के पारंगत धुरंधर ब्राह्मणों ने जैनधर्म को स्वीकार कर हजारों लाखों जीवों का उद्धार किया है । यह तो दूर की बात है पर आपही के नगर में ६२ कोटीधीश ब्राह्मणों ने जैनधर्म स्वीकार कर उसका ही अच्छी तरह पालन किया या करते हैं फिर श्राप केवल लोकोपवाद के कारण ही जैनधर्म से वंचित रह कर अज्ञान मरण क्यों मरते हो । मैं श्रापको ठीक विश्वास दिला कर कहता हूँ कि जैनधर्म कल्पवृक्ष सदृश मनोकामना पूरण करने वाला धर्म है । आप उसको स्वीकार कर सदैव के लिए सुखी बन जाइये । विप्रों-ठीक है महात्माजी ! आपका कहना सत्य ही होगा और हम जैनधर्म स्वीकार करने के लिए तय्यार भी हैं पर हमें एक बात की शंका है वह भी आप की आज्ञा हो तो पूछ लें ? सूरिजी--विप्रों आप खुशी से पूछ सकते हो, विचारज्ञ पुरुषों का तो यह कर्त्तव्य ही है कि अपने दिल की शंका का समाधान करके ही काम करना चाहिये ताकि पीछे पछताना न पड़े कहिये आपकी क्या शंका है। विप्र-आपके कहने के मुताबिक जेनधर्म स्वीकार करने पर हम सब तरह से सुखी बन जायेंगे। पर हम जैनधर्म पालन करने वालों में भी किसी-किसी को दुःखी देखते हैं फिर वे सुखी क्यों नहीं होते हैं । सूरिजी--विप्रो ! पहले तो आप उन जैनधर्म पालन करने वालों से पूछो कि आप सुखी हैं या दुःखी ? श्रापको जवाब मिलेगा कि हम परम सुखी हैं । शायद आपने धन पुत्रादि को ही सुख समझ रखा हो, पर ज्ञान दृष्टि से देखा जाय तो धन पुत्रादि जैसे सुख के कारण हैं वैसे दुःख के भी कारण है । अर्थात दुख का मूल कारण तृष्णा और सुख का मूल कारण संतोष है यदि कितने ही धन पुत्रादि मिलने पर भी उसके पीछे तृष्णा लगी हुई है तो वह दुःखी है और धन पुत्रादि के अभाव एवं कितने ही निर्धनी क्यों न हो पर काशी जाते हुए ब्राह्मणों को उपदेश ११७३ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जिसको संतोष है वह परम सुखी है जो दुःख है वह पूर्व संचित कर्मों का है जैन है वह उन कर्मों का किसी अवस्था में क्षय करना चाहता है जिसमें भी सम्यग्दृष्टि की अवस्था में कर्मोदय होने में वह भोगवने में बड़े ही आनंद का अनुभव करता है यदि कर्म उदय में नहीं आकर सत्ता में पड़े हैं तब भी सम्यग्दृष्टि तो उसकी उदि रणा करके उदय में लाकर भोगलेना चाहते हैं । विप्रो ! अभी आप जैनधर्म के तात्विक विषयों को जानते न ही है जब आप जैनधर्म के मर्म को समझ लोगे तब जो आप आज दुःख-दुःख करते हो वह आपको सुख के रूप में दिखाई देने लग जायगा। जिस पदार्थ की मनुष्य तीब्र से तीव्र इच्छा करता है वह उतना ही दूर होता चला जायगा। जब आपके हृदय से तृष्णा निकल जायगी तो उतनी ही नजदीक आनन्द का समुद्र लहरायेगा । इत्यादि । सूरिजी ने बड़ी खूबी से समझाये कि विप्रो के ध्यान में आ गया और उन्होंने काशी जाने के विचार को छोड़ दिया इतना ही क्यों पर उस घातिक करवत को ऐसे समुद्र में डलवा दी कि कुप्रथा को सदैव के लिये मिटा दी। फिर समय पाकर-सूरिजी को साथ में लेकर पुनः श्रीमालनगर में आये और अपने अपने कुटुम्ब को सूरिजी के पास लाये और सूरिजी ने सबको धर्मोपदेश दिया और उन सबने बड़ी खुशी से जैनधर्म स्वीकार कर लिया और सूरिजी ने भी अपने पास जो वर्द्धमान विद्या से मंत्रित ऋद्धिसिद्धि प्रदायक वासक्षेप था वह देकर सात दुर्व्यसन का त्याग करवा कर उन सबको जैन बना लिये। बस फिर तो था ही क्या सूरिजी के इशारे पर महाजनसंघ के धनाड्य लोगों ने उन २४ विप्रों के कुटुम्बों को अपना कर अपने शामिल मिला लिये उनकी हर तरह से सहायता एवं वाणिज्य व्यापार में साथ जोड़ दिये उसी समय से उनके साथ रोटी बेटी व्यवहार खुले दिल से करने लग गये । बस, उन विप्रों को जो दुःख था वह रात्रि में चोरों की तरह कहां भागा कि जिसका पता ही नहीं लगा अतः उन सबकी जैनधर्म पर हद श्रद्धा हो गई। जैनधर्म की वृद्धि का मुख्य कारण तो उस समय के आचार्यों एवं महाजनसंघ के हृदय की उदारता ही था उन लोगोंकी यही भावना रहती थी कि हम निर्बलों की तन, मन, धन से सहायता कर हमारे बराबरी का भाई बना लें और प्रत्येक कार्य में उनको संघ का एक व्यक्ति समझ कर उसका सत्कार कर उत्साह को बढ़ावें और इस सुविधा से ही अजैन लोग बड़ी खुशी से जैनधर्म स्वीकार कर लेते थे तब ही तो जैनों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी और वे सब तरह से समृद्धिशाली उन्नति के उच्चे शिखर तक पहुँच गये थे। जब महाजनसंघ के साथ उन नूतन जैनों का रोटी बेटी व्यवहार प्रारम्भ हो गया था तब वह व्यवहार कहां तक चला और बाद में किस समय क्या कारण हुआ कि भोजन ब्यवहार रखते हुए भी बेटी व्यव. हार बन्द कर उनको पतन के मार्ग पर अप्रेश्वर बना दिया कि आज वह पतन की चरम सीमा तक पहुंच चुके हैं। जब भीन्नमाल में २४ ब्राह्मणों ने सकुटुम्ब आत्मघातक जैसा अधर्म छोड़कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया तब शेष ब्राह्मणों से यह सहन कैसे हो सके वे उन ब्राह्मणों की खूब निंदा करने लगे कि हमारी जाति में कैसे नास्तिक जन्मे हैं कि सनातन वैदिक धर्म को छोड़ कर नास्तिक जैनधर्म को स्वीकार कर लिया पर उन्होंने जैन श्रमणों में क्या चमत्कार देखा है कारण वह स्वयं भिक्षा मांग कर अपना गुजारा करते हैं यदि जैनाचार्य में कुछ चमत्कार हो तो वे आम जनता के सामने दिखावे । इत्यादि। इस पर वल्लभजी वगैरह ने पाकर प्राचार्यश्री को अर्ज की कि पूज्य गुरुदेव ! हम लोगों को तो आप पर पूर्ण विश्वास है पर धर्म द्वेषियों को कोई चमत्कार अवश्य बतलाना चाहिये इस पर सूरिजी ने कहा कि ठीक है तुम कल आम मैदान में उपरा ऊपग ८ पट्ट लगा देना जब मैं श्राकर पट्टे पर बैठकर व्याख्यान ११७४ तृष्णा दुःख का मूल और संतोष ही सुख है Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७ -१२३७ दूं तब एक एक पट्टा करके सब पट्टे निकाल लेना । इत्यादि ॥ (कहीं पर १०८ पाट्टे भी लिखा है ) बस, वल्लभजी वगैरह ने इस बात को सब नगर में फैलादी कि कल आचार्यश्रीजी अपना चमत्कार जनता को बतलावेंगे । ठीक समय पर जनता चमत्कार देखने को एकत्र हो गई पहिले से ऊपरा ऊपरी रखे हुए ८ पट्ट पर सूरिजी आकर विराजमान होकर व्याख्यान देनेलगे इधर श्रावकों ने एक एक करके सब पट्टे निकाल लिये तथापि सूरिजी आकाश में अधर रह कर भी व्याख्यान देते रहे इस चमत्कार को देखकर कई लोग आचायश्री के परम भक्त बन जैन धर्म स्वीकार कर लिया। उनके अन्दर सोमदेव, गोविन्द, गोवर्धन, गोकुल, पूर्ण, प्रभाकर, सोमकर्ण, नंदकर्ण, शिव, हरदेव, हरकिशन, रामदास, तथा झवेरजी, धनजी, भावजी, नानाजी, माधवजी, रूपजी, गुणाजी, धरमशीजी, वर्धमानजी, विमलजी, गोविन्दजी, लालजी इत्यादि बहुतों ने जैनधर्म स्वीकार किया। एक समय सोमदेव गोकलादि सूरिजी की सेवा में उपस्थित होकर अर्ज की कि भगवन् अभी तक हमारे साथ महाजनसंघ का बेटी व्यवहार चालु नहीं हुआ है, इसकी कुछ चर्चा चल रही है तो यह कार्य जल्दी से चालू हो जाय कारण अब हम सब आम तौर पर जैनधर्म स्वीकार कर लिया एवं उसका ही पालन करते हैं इस पर सूरिजी ने वहां के नगरसेठ देवीचन्दजी को बुलाकर थोड़ा-सा इशारा किया कि अब ये विश्वास पूर्षक जैनधर्म का पालन कर रहे हैं, बस इतना-सा इशारा करते हो उन सबके साथ बेटी व्यवहार चालू कर दिया उस समय के श्रीसंघ की यही तो विशेषता थी कि वे अपने उदार हृदय से दूसरों को आकर्षित करके अपनी संख्या को बढ़ाया करते थे। और समाज पर प्राचार्यों का कितना प्रभाव था ? कि इशारा मात्र से श्रीसंघ उनका हुक्म उठा लेता था। ___ आचार्य उदयप्रभसूरि की पूर्ण कृपा से सोमदेव के पुण्योदय से इधर तो लक्ष्मी की महरबानी से द्रव्य की पुष्कलता हो गई और उधर राज से भी अच्छा सन्मान प्राप्त हुआ राजा ने सोमदेव को अपना मंत्री ( दीवान ) बना लिया और दूसरों को भी यथासम्भव राज कार्यों में स्थान देकर सम्मानित किया श्रतः राज्य में भी उनकी अच्छी चलती होने लगी। सोमदेव ने आचार्यश्री के उपदेश से भ० आदिनाथ का मंदिर बनवाया और तीर्थधीराज श्रीशत्रुजंय, गिरनारादि, का संघ निकाला, श्राते जाते सर्वत्र लेन पहरामनी भी दी स्वामीवासल्य कर श्रीसंघ के अलावा सब नगर को भोजन करवाया। संघ में प्रत्येक घर में एकेक पोराजा की लेन दी गुरु महाराज के सामने मुक्ताफल की गहुँली और ५०० दीनार गहुँली पर रखी गई इत्यादि करोड़ों रुपये खुले दिल से खर्च किये । धर्म एवं जन हितार्थ सोमदेव ने पुष्कल द्रव्य व्यय किया इससे राजा प्रजा ने मिल कर सोमदेव को सेठ पदवी दी उस दिन से सोमदेव की संतान सेठ कहलाने लगी। भीनमाल गुजरात की सरहद पर आबाद होने से कई बातें एवं भाषा गुजराती भी बोली जाती है जैसे गुजरात में सेठ को सेठिया कहते हैं समयान्तर इस जाति के लिये सेठ के बदले सेठिया नाम प्रचलित हो गया। इत्यादि । इस सेठ जाति की देव गुरू धर्म पर भावना-श्रद्धा और सद्कार्य करने से तन, जन एवं धन की बहुत वृद्धि होती रही। एक भीन्नमाल में पैदा हुई जाति, मारवाड़, मेवाड़, मालवा, मत्स्य, गुजरात, लाट सौराष्ट्र, कच्छ आदि कई देशों में वटवृक्ष की तरह फैल गई इस जाति के सब लोग प्रायः व्यापार ही करते थे पर कुछ लोग राज कार्य भी किया करते थे। इस जाति में सब मिलकर ७२ गौत्र हुए थे पर जाति बढ़ने से एक-एक गौत्र से और भी जातियों का प्रादुर्भाव सूरिजो का चमत्कार और जैनधर्म ११७५ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हुआ। पर विवाह शादी में ७२ बोहतर गौत्र से ही काम लिया जाता था। खैर सब कुछ अच्छा ही हुआ परन्तु यह समय तो पंचमआरा एवं कलिकाल का है किसी की अति चढ़ती कुदरत से देखी नहीं जाती है वह किसी न किसी प्रकार से उन्नति में रोड़ा अटका ही देती है इस जाति का जन्म वि० सं० ७९५ में हुआ था करीब ३०० वर्ष तक तो इस जाति का खूब अभ्युदय होता रहा वे व्यापार एवं राज्य सेवा से खूब बढ़े इधर महाजनसंघ के साथ रोटी बेटी व्यवहार हो जाने से भी इनकी गिनती ओसवाल जाति में एवं महाजनसंघ में हो गई। वि० सं० ११०३ में सेठ जाति के कतिपय राज कर्मचारियों के हृदय में अभिमान ने वास कर लिया कई मान रूपी हस्ती पर सवार होकर हुकूमत के जरिये जनता को बड़ी भारी तकलीफें भी देने लगे। जाति मत्सरता के कारण औरतों को पर्दे में रखना भी शुरू कर दिया तथा न्याति-जाति में अपनी औरतों को भेजना बन्द कर दिया और भी ऐसी-ऐसी अहंपद की बातें करने लग गये कि वे गजवर्गी सेठिये अपनी लड़की भी अपने बराबरी के सेठिये में ही देने लगे इतना अहंपद करने लगे कि जो कुछ हैं सो हम ही हैं दसरे तो कुछ भी चीज नहीं है यही कारण है कि महाजनसंघ ने सेठ जाति के साथ बेटी व्यवहार बन्द कर दिया तथा उस समय दोनों ओर संख्या अधिक होने से किसी को भी तकलीफ नहीं हुई दूसरा एक यह भी कारण है कि महाजनसंघ जैसे तोड़ना जानते हैं वैसे जोड़ना नहीं जानते हैं कारण तोड़ने में जैसे मुख्य अहं. पद है वैसे जोड़ने में मुख्य नम्रता होनी चाहिये उसका तो प्रायः अभाव था। चाहे भविष्य में इससे कितना ही नुकसान क्यों न हो पर वे टूटा हुआ व्यवहार नम्रता से पुनः जोड़ नहीं सकते थे। आगे चल कर वस्तु पाल तेजपाल के कारण समाज में दो पार्टियों बन गई उनके बाद भी हजारों मांस, मदिरा सेवी क्षत्रियों को दर्व्यसन से छडा कर महाजनसंघ में शामिल कर लिये पर अपने सदृश्य व्यवहार वाले भाइयों से टूटे व्यव. हार को वे जोड़ नहीं सके यही कारण है कि एक ही महाजनसंघ के कई टुकड़े हो जाने से उनकी समूह शक्ति का चकनाचूर हो गया और इस प्रकार संगठन टूट जाने से केवल छोटी-छोटी जातियों को ही हानि हुई थी सो नहीं, पर महाजनसंघ को भी कम हानि नहीं हुई उनका संगठन तप, तेज, मान, महत्व, मर्यादा उस रूप में नहीं रह सकी इतना होने पर भी इस ओर अद्यावधि में किसी का भी लक्ष नहीं पहुँचा जैसे: शहर के बाहर एक बाबाजी का मठ था और उसमें एक चनों की कोठी भरी थी। अकस्मात् बाबाजी के मठ में लाय (अग्नि) लग गई जिससे कोठी के चने स्वयं भुन गये। जब यह खबर शहर में हुई कि बाबाजी के मठ में आग लग जाने से बहुत नुकसान हुआ है । तब शहर के लोग हवा खोरी में घूमते हुये बाबाजी के यहाँ पाए वहाँ भुने हुए चने पड़े थे जिनको हाथ में ले फूकें लगा-लगा कर खाने लगे और बाबाजी से कहने लगे कि महात्माजी आपके नुकसान होने से हमें बड़ा ही दुःख हुआ। बाबाजी ने कहा बच्चा नुकसान तो हआ सो हा ही पर अभी तक होता ही जा रहा है। बाबाजी के कहने का मतलब यह था कि श्राग से बचे हुए चना जो भूने गये यदि इतना ही रह गये तो उष्ण काल में थोड़े-थोड़े खाकर पानी पी लिया करेंगे तो हमारे कई दिन निकल जायंगे । पर जो आते हैं वही मुट्टा भर कर चना खाना शुरू कर देते हैं। और फिर पुछते हैं कि बाबाजी के नुकसान हुआ । अरे ! नुकसान तो अभी होता ही जा रहा है। "ठीक वह युक्ति महाजनसंघ के लिये घटित होती है कि नुकसान हुआ और अभी तक होता ही जा रहा है।" ____ सेठिया जाति ने जिस दिन से जैनधर्म स्वीकार किया था उस दिन से आज तक श्रद्धा पूर्वक जैनधर्म बेटी व्यवहार कयों टूटा ? Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ Prewww पालन कर रही है। श्रोसवाल, पोरवाड़, श्रीमाल आदि जातियों में से तो हजारों ममुष्य जैनधर्म को छोड़ अन्य धर्म में भी चले गये पर सेठिया जाति में ऐसा उदाहरण कहीं पर भी पाया नहीं जाता है । सेठिया जाति के बहुत से उदार दानीश्वरों ने आत्म कल्याण व जैनधर्म की प्रभावना के लिए पुष्कल द्रव्य व्यय किया है। जिसका वंशावलियों में विस्तार से उल्लेख मिलते हैं पर स्थानाभाव से मैं यहां पर संक्षिप्त में ही पाठकों को दिगदर्शन करा देता हूँ कि १-सेठ वल्लभजी का कमलगोत्र--कुलदेवी अम्बिकाजी वल्लभजी के पुत्र कमलसीजी हुए उसके पास पांच करोड़ का द्रव्य था सात खण्ड का मकान रहने के लिये था उसने भ० पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया । श्रीशत्रुजय, गिरनागदि तीर्थों का संघ निकाला । साधर्मी भाइयों के अलावा सब नगर को कई बार मिष्टान् भोजन जीमाकर लहाण दी तथा जैनधर्म की प्रभावना में एक करोड़ द्रव्य व्यय किया आपके परिवार में गुलजी तथा विजयचन्दजी भी महान प्रभाविक पुरुष हुए । तीर्थों का संध निकाला तब रास्ते में आते और जाते सब प्रामों में सुवर्ण मुद्रिका की प्रभावना दो थी इत्यादि धर्म के बहुत चोखे और अनोखे काम करके अखण्ड कीर्ति हासिल की थी। २-सेठ राघवजी रत्नगोत्र कुलदेवी-कालिका आपके परिवार में सेठ अमीपालजी बड़े ही नामांकित पुरुष हुए जिन्होंने भ. शांतिनाथ का मन्दिर बनवाया तीर्थों का संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को पहरावणी में पुष्कन द्रव्य दिया। तीन बड़े यज्ञ ( जीमणवार ) करके सब नगर वालों को जीमाये इत्यादि ऐसे कई उदार पुरुष हुये। ३-सेठ लहुजी वत्सगौत्र कुलदेवी चक्रेश्वरी आपकी संतान में सेठ जीवणजी बड़े ही धर्मात्मा पुरुष हुए आपने भ० श्रादिनाथ का मंदिर बनवाया तीर्थों का संघ निकाला जिसमें साधर्मी भाइयों की भक्ति के लिये लाखों रुपये व्यय किये याचकों को इच्छित दान दिया तथा जनोपयोगी कार्यों में भी पुष्कल द्रव्य व्यय किया । वि० सं० ११११ में भीनमाल पर मुगलों का बड़ा ही जोरदार आक्रमण हुआ युद्ध में लाखों मनुष्य मारे गये हजारों मनुष्यों को कैद कर लिया और भीनमाल के महाजनादिकों के धर लूटे जिनमें हीरा पन्ना माणक, मुक्ताफल और सुवर्ण के ऊंट के ऊंट भर कर ले गये उस समय आपकी संतान में सेठ दलाजी जालौर चले गये और सेठ गजपालजी प्रसंग होने से चित्तौड़ चले गये। गजपालजी ने वहां भ० पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया और एक बावड़ी खुदवाई । पांच पकवान कर संघ को भोजन कराया और भी पुष्कल द्रव्य व्यय किया। ४-- सेठ कमलसीजी. पद्म गोत्र कुलदेवी अन्तपूर्णा तथा आपकी संतान परम्परा में सेठ सीमधरजी बड़े ही नामी हुए आप बड़े ही उदार और धर्मात्मा थे आपके परिवार में भाणाजी हुए आपने सिरोही में भ० पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया। तीर्थों का संघ निकाला घर पर आकर उजमणा किया श्रीसंघ को स्वामी वात्सल्य देकर प्रत्येक को एक-एक सुवर्ण मुद्रिका और वस्त्र व लड्डूओं की पहरावणी दी । पुरुषों को पेंचा और स्त्रियों को चूंदड़ियां दी। आचार्यश्री को आगम लिखवाकर अर्पण किए। राजा को खुश कर जीव हिंसा बन्द कराई इत्यादि अनेक सुकृत के कार्य किये सेठ हरखाजी ने दीक्षा भी ली थी। ५- सेठ मवेरजी नंदगोत्र कुलदेवी चामुंडा आपके परिवार में सेठ हटमलजी मुगलों के उत्पात के कारण भीनमाल छोड़ कर पाटण जाकर वास किया। पाटण के राजा ने श्रापका अभूतपूर्व सत्कार जातियों की उत्पति Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास किया । श्रापको सन्मानित एवं उच्चपद पर नियुक्त किया वहां से आप मेहता कहलाए। तथा वहां से आपने तीर्थों का संघ निकाल कर देव, गुरु, धर्म के कार्यों में लाखों रुपये खर्च किए याचकों को दान में पुष्कल द्रव्य दिया। दूसरे सेठ दानजी चित्तौड़ जाकर बस गये वहां पर आपने भ० नेमिनाथ का मंदिर बनवाया तीर्थों का संघ निकाल स्वामीवात्सल्य और पहरामणी दी। प्राचार्यश्री को चातुर्मास कराया। ज्ञान पूजा की ४५ आगम लिखाकर अर्पण किया सेठ रूपजी ने सूरिजी के पास दीक्षाली मवेरजी ने राजा का काम किया जिससे मेहता कहलाए । ६-सेठ धनाजी लक्ष्मीगोत्र और कुलदेवी भी लक्ष्मीदेवी श्राप कोटाधीश थे। आपके परिवार में नन्दकरणजी नामी पुरुष हुए। भ० श्रादिनाथ का मन्दिर बनाया। प्रतिष्ठा करवाई आस पास के सब गाँवों वालों को बुलाये । साधर्मीवासल्य पहरावणी याचकों को दान, आप गरीबों को गुप्त दान दिया करते थे। मुगलों के उत्पात के समय सेठ धन्नाजी भागकर जालौर चले गये वहां के रावजी ने श्रापका सत्कार कर राज्य के उच्च पद पर नियुक्त किये । जालौर में धान की पोटलियों का हांसल लगता था जिससे गरीब लोग दुःखी थे उसको सदैव के लिये बन्द करवा दिया। आपके परिवार में दशरथजी नामी हुए । जालौर के राज भय से निकल कर सिरोही आये वहां भी धर्म कार्य में बहुत द्रव्य व्यय कर अमर नाम किया। ७-सेठ भावजी गौतमगोत्र कुलदेवी हिंगलाजा आपके परिवार में सेठ धनाजी प्रतिष्ठित पुरुष हुए आपने भ० पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया मूर्ति के नीचे पुष्कल द्रव्य रखकर प्रतिष्ठा कराई नगर भोज और साधर्मी वाइयों को पहरावणी दी मुगलोत्पात के समय सेठ चन्द्रभाणजी भीन्नमाल को छोड़ कर सिरोही वहां पर भी बहुत से शुभ कार्य किये बाद में वहां से रूपाजी ने सादड़ी आकर वास किया । इत्यादि । ८- सेठ नानाजी अम्बागोत्र कुलदेवी अम्बिकादेवी आपकी संतान में सेठ रुपाजी नामी पुरुष हुए श्रीशत्रुजय का संघ निकाल कर तीर्थों की यात्रा की वापिस आकर स्वामीवात्सल्य कर साधर्मीभाइयों को एक एक सुवर्ण मुद्रिका की पहरावणो दी लाखों रुपया खर्च किया याचकों को पुष्कल दान, दूसरी बार शत्रुजय की तलेटी के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया मुगलोत्पात के समय भीन्नभाल से वीसाजी ने जालौर जाकर वास किया तेलियों की घाणियां छुड़ाई वहां पर शांतिनाथ का मन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा कराई। सामी वासल्य करके प्रत्येक नर नारी को एक एक सुवर्ण की मुद्रा और वस्त्र की पइरावणी दी याचकों को इच्छित दान दिया। ९-- सेठ अविचलजी चंद्रगौत्र कुलदेवी आशापुरी। एक समय अविचलजी प्रामान्तर जा रहे थे मार्ग में रात्रि हो गई तो एक सिंह ने श्राकर आक्रमण किया उस समय कुलदेवी ने आकर बचाया और एक जोड़ा कुण्डल का दिया जिसका अंधेरे में भी प्रकाश होता था जिसके द्वारा घर पर पहुँच गये | कुडल के प्रभाव से बहुत धन हुआ जिसको सुकृत कार्यों में लगाया । आपके परिवार में सेठ जगन्नाथ जी नामी पुरुष हुए | आपने भ० नेमिनाथ का मन्दिर बनवाया प्रतिष्ठा में पुष्कल द्रव्य खर्च किया आपका लक्ष गरीबों की ओर विशेष था और गुप्त दान दिया करते थे मुगलोत्पात के समय सेठ संग्रामजी भीन्नमाल से निकल कर सिरोही जाकर बस गये । तथा गोकलजी ने वहां भ० महावीर का उतंग मन्दिर बनाया तथा शा० मुलाजी चित्तौड़ जाकर बसे वहां भी उन्होंने मन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा में पुष्कल द्रव्य व्यय कर धर्म का उद्योत किया । १०-सेठ माधवजी निधानगोत्र कुलदेवीअंबिका । माधवजी निधन हो गये थे। सूरीजी से कहा, सेठिया जाति के दानवीर Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ सूरीजी ने नवकार मन्त्र का ध्यान बताया उसके साथ कुलदेवी अम्बाजी का ७ दिन तक ध्यान किया जिससे प्रसन्न हो देवी ने अक्षय निधान बतला दिया। देवी की सुवर्णमय मूर्ति बनाकर स्थापित की। तीर्थों का संघ निकाल पुष्कल द्रव्य व्यय किया। शांतिनाथ का मन्दिर बनवाया साधर्मी भाइयों को व श्रीसंघ को वस्त्र व लड्डूओं के अन्दर सुवर्ण की मुद्रिकाएं डालकर पहरावणी दी इत्यादि सुकृत्य कर्मों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया मुगलोत्पात के समय सेठ चन्द्रभाणजी पाटण में जाकर बस गये वहां भी धर्म कार्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया आपका साधर्मीभाइयों की ओर विशेष लक्ष था। ११-सेठ रूपाजी जाजागोत्र कुलदेवी अंबिकाजी । आपकी संतानों में सेठ गरीबदासजी बड़े ही नामांकित पुरुष हुए । आपने भ० आदिनाथ का मंदिर बनवाया प्रतिष्ठा में पुष्कल द्रव्य व्यय कर धर्मोन्नति की श्रीसंघ को तीन दिन तक पांच पकवान का भोजन कराया । एक दिन सब शहर को जीमाया साधर्मियों को सुवर्ण की मुद्रिकाएं पहरावणी में दी । इत्यादि । जब मुगलोत्पात हुआ तब दूसरे गरीबदासजी भागकर जालौर गये वहां भी आपके बहुत द्रव्य बड़ा । वहां के राव जी को आपने मकान पर बुला कर भोजन कराया और आमला जितने बड़े मोतियों की कंठी अर्पण की जिससे रावजी ने गरीषदास का रुतबा बढ़ाया और जीवहिंसा बंद कराई । इत्यादि । गरीबदासजी लोगों को खब मीठा भोजन कराते थे अतः लोग उनको मीटडिया २ कहने लग गये जिससे उनकी जाति मीठड़िया हो गई। गरीबदासजी ने जालौर से तीर्थों का संघ निकाला बहुत द्रव्य व्यय किया । इनके परिवार में सेठ नायकजी भी उदार पुरुष हुए और जैनधर्म की खूब ही प्रभावना की इत्यादि। १२-सेठ गणधरजी मादरगोत्र कुलदेवी ब्राह्मदेवी । आप बड़े ही धनाढ्य और उदार थे श्रीशत्रुज यादि तीर्थों का संघ निकाला । भ० पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई साधर्मी भाइयों को सुवर्ण मुद्रिकाएं पहरावणी में दी बहुत धन खर्च किया मुगलों के आक्रमण के समय सेठ झवेरजी सकुटुम्ब बाढ़मेर जाकर बसे । वहां भी बहुत द्रव्योपार्जन किया । शत्रुजयादि तीथों का संघ निकाला साधर्मी भाइयों को पहरावणी भी दी इत्यादि। १३-सेठ धरमसी कारसगोत्र कुलदेवी हिंगलाजा। एक समय धर्मसीजी के बदन में रक्त पित्त की बिमारी हो गई । बहुत उपचार किया, बहुत द्रव्य व्यय किया पर आराम नहीं हुआ । गुरु महाराज से कहा उत्तर में कहा कि बिमारी पापोदय से आती है इसका इलाज धर्म करना है तथा प्रत्येक रविवार को बिल तप किया कर और सिद्धचक्र की माला का जाप जप किया कर इत्यादि । नौ रविवार को आंबिल करने से कांचन सी काया हो गई । धमरसी ने शुभ कार्यों में बहुत द्रव्य व्यय किया आपके परिवार में बालाजी हुए उन्होंने भ० पार्श्वनाथ का मंदिर बनाया शत्रुजय का संघ निकाला साधर्मी भाइयों को पहरावणी दी । आचार्यश्री को चातुर्मास कराया । ज्ञानपूजा में मुक्ताफल, सुवर्ण मुद्रिकाएं आई जिससे सूत्र लिखाकर भंडार में रखे। और भी उजमणादि धर्म कार्यों में बहुत द्रव्य व्यय किया। मुगलोत्पात के समय सेठ रतनजी भीन्न. माल का त्याग कर सिरोही चले गये । वहां के रावजी ने इनका सत्कार कर राज कार्य पर नियुक्त किया जिससे वे मेहता कहलाये । रत्नजी के भाई खेमजी कुमलमेर गये वहां भी महावीर का मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा कराई साधर्मीभाइयों को भोजन करवा कर पहरावणी में बहुत द्रव्य व्यय किया। इत्यादि । १४-सेठ वर्धमानजी हरियाणागोत्र कुलदेवी अंबिका । आपके कुल में पद्मसीजी दीपक समान सेठिया जाति के दानवीर ११७९ -raswimminentarimnarsut Mini.. . ann u Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हुए आपने श्रादिनाथ का मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई जिसमें पुष्कल द्रव्य खर्च किया । मुगलोत्पात के समय सेट नारायणजी बाड़मेर गये वहां भी पुष्कल द्रव्य खर्च कर धर्म का उद्योत किया । इत्यादि । १५-सेठ विमलजी भंडशालीगोत्र कुलदेवीचामुंडा आपके परिवार में सेठ गंभीरजी बड़े ही भाग्यशाली हुए आपको जीर्ण मंदिरों के उद्वार करवाने की रुचि बहुत थी । कई ग्रामों का और जीर्ण मंदिरों का उद्धार काराया श्राप जितना दान करते थे वह सारा गुम ही करते थे भ. पार्श्वनाथ का नया मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई साधर्मीभाइयों को मोदक के लडडूओं में एक एक स्वर्ण की मुद्रिका डाल कर प्रभावना इत्यादि दी । मुगलोत्पात के समय सेठ भोपालजी ने सिरोही जाकर वास किया इन्होंने भी बहुत धर्म कार्य किये । इत्यादि। १६-सेठ खींवसीजी लोडियाणगोत्र कुलदेवी लक्ष्मी । खींवसीजी का देव गुरु धर्म और अपनी • कुलदेवी पर पक्का विश्वास था और पूर्ण इष्ट भी रखते थे एक समय खींवसीजी के घर में दरिद्र आ घुसा। चोर, अग्नि और राज ने सब धन क्षय कर दिया फिर भी धर्म इष्ट को नहीं छोड़ा उल्टा धर्म कार्य बढ़ता ही रहा जब अति दुःखी हुये तो कुलदेवी का स्मरण किया धर्मनिष्ठ जानकर लक्ष्मीदेवी रात्रि में आई और खींवसी के इष्ट से प्रसन्न हो एक रत्न जड़ित नैवर प्रदान किया जिससे खींचसीजी का घर धन से भर गया पीछले दिन याद कर उस धन को धर्म कार्य में लगाया। भ० पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया तीर्थ की यात्रार्थ संघ निकाले बहुत द्रव्य खर्च किया। मुगलों के उत्पात के समय सेठ श्रीकरणजी ने जालौर जाकर वास किया वहाँ भी बहुत से धर्म कार्य किए । शत्रुजयादि तीर्थो का संघ निकाला और साधर्मी भाइयों को पहरावणी दी नगर के लोगों को भोजन कराया । इत्यादि । १७ - सेठ गोविंदजी चंडीसरागोत्र कुलदेवी सरस्वतीदेवी आपने तीर्थों का संघ निकाला । साधर्मी भाइयों को भोजन करवा कर पहरावणी दी जिसमें पुष्कल द्रव्य व्यय किया मुगलों के उत्पात के समय सेठ हरखाजी बाड़मेर गये वहाँ भी व्यापार में बहुत सा धन पैदा किया । भ० पार्श्वनाथ का मंदिर बनाया, तीर्थों का संघ निकाला । इत्यादि और भी जन कल्याणार्थ बहुत द्रव्य खर्च कर पुण्योपार्जन किया। १८-सेठ लालजी पापागोत्र कुलदेवी आशापुरी । आप बड़े ही भाग्यशाली हुए भ० आदिनाथ का मंदिर बनाया प्रतिष्ठा में बहुत-सा द्रव्य व्ययकर नांबरी कमाई पूज्य श्राचार्यदेव को चातुर्मास कराया नवअंग की पूजा, की । मोतियों की गहुँली सुवर्ण मुद्रिका से ज्ञान पूजा की उस द्रव्य से पुस्तक लिखवा कर श्राचार्यश्री को अर्पण किये । मुगलों के उत्पात के समय में रतनजी भीनमाल से सिरोहो गये वहाँ भी सुकृत में बहुत द्रव्य खर्च किया गरीब साधर्मीभाइयों को गुप्त सहायता कर पुण्योपार्जन किया करते थे। १९-सेठ रायजी काश्यपगोत्र कुलदेवी श्राशापुरी आपके परिवार में सेठ अगराजी भाग्यशाली हुए । शत्रंअयादि तीर्थों का संघ निकला आते जाते सब गांवों में लेन दी तीर्थ पर जर्ण मंदिरों का उद्धार कराया वापिस आकर साधर्मी भाइयों को भोजन करवा कर वस्त्र लड्डू और सुवर्ण मुद्रिकाएं पहरावणी में दी । लाखों रुपये खर्च किया मुगलों के उत्पात के समय सेठ भोपालजी जालौर गये तथा वहाँ सेठ रावजी कोमलमेर गये वहाँ भी धर्म कार्य में बहुत सा धन व्यय कर नाम हासिल किया। इत्यादि । २० -सेठ गोपालजी पीपलिया गोत्र कुलदेवी लक्ष्मी आपने भीनमाल में भ० अजितनाथ का मंदिर बनावा कर प्रतिष्ठा कराई जिसमें खुल्ले हाथ पुष्कल द्रव्य खर्च किया । मुगलोत्पात के समय सेठ नरबदजी ११८० सेठिया जाति के दानवीर Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ बाढमेर गये वहाँ भी व्यापार में बहुतसा द्रव्योपार्जन किया तथा वहाँ ऋषभदेव का मंदिर बनवा कर प्रतिष्ठा करवाई । साधर्मीभाइयों को स्वामीवात्सल्य देकर पहरवाणी दी । पुष्कल द्रव्य व्यय किया । इत्यादि । २१- सेठ मोतीजी फुफहारा गोत्र, २२ - सेठ दानजी, पीपलिया गौत्र, २३.--सेठ लालजी भारद्वाज गोत्र, २४-सेठ श्री सजी नेण गोत्र इन चारों ने अपनी जिन्दगी में ही जो कुछ किया था और आगे इनके संतान न होने से परम्परा नहीं चली। इन २४ गौत्रों के अलावा ४८ गोत्र ओर भी हैं पर उन गोत्रों की वंशावली हमको नहीं मिली और जो २४ गोत्रों की वंशावली मिली है उनकों भी मैंने स्थानाभाव से संक्षेप में एक-एक गोत्र वालों का एक-एक, दो, दो, उदाहरण नमूने के तौर पर लिख दिये हैं कारण हजार मन वस्तु का नमूना एक मुट्ठी भर से ही पहचाना जासकता है अतः पाठक उपरोक्त संक्षिप्त हाल से ही श्राप सेठिया जाति के उदारवीर नररत्न को पहचान सकेंगे कि उन्होंने देव गुरु धर्म की कृपा से कितना द्रव्योपार्जन किया और उसको पानी की तरह धर्म कार्यों में किस तरह वहा दिया जो उपरोक्त उदाहरणों से पाठकों को ज्ञात हो गया होगा। उस जमाने के लोग बड़े ही भद्रिक होते थे उन को गुरु महाराज जैसा उपदेश देते थे वैसा ही करने में सदैव कटिबद्ध रहते थे। जिस समय का हाल हमने लिखा है उस समय धार्मिक कार्यों में मुख्य एक दो मंदिर बनाना, दूसरा तीर्थों का संघ निकालना, तीसरा आचार्यश्री को चातुर्मास करवा कर अपने घर से महोत्सव कर सूत्र बचाना ज्ञान पूजा कराना, गुरु के सामने गहुली करना । व्रतों के डद्यापन करना निर्बल साधर्मीभाइयों को सहायता देना काल दुकाल में गरीबों की सहायता करना इत्यादि इन शुभ कार्यों में द्रव्य व्यय करके वे अपने को कृतार्थ हुए समझते थे और इन सब बातों का ही उस समय गौरव एवं महत्व था शक्ति के होते हुए उपरोक्त कार्य से कोई भी कार्य क्यों न हो पर अपने जीवन में वे अवश्य करते थे। आज से कुछ वर्षों पहले गोड़वाड़ में ऐसी प्रवृत्ति थी की अपने घर पर कोई भी ऐसा प्रसंग होता तो ५२ गांव, ६४ गांव, ७२ गांव, ८४ गांव, और १२८ गांवों को अपने यहां बुला कर उनको मिष्टान्नादि का भोजन करवा कर पहरावणी दिया करते थे जिनमें कोई तो ताबां पीतल के बर्तन देते कोई वस्त्र, कोई चांदी की चीजे जैसी अपनी शक्ति पर इन कार्यों को करके वे कृतार्थ हुए अवश्य समझते जब बीसवी गई गुजरी शताब्दी में भी उन प्राचीन प्रवृत्ति का नमूना मात्र था तब उस समय जैन समाज उन्नति का उच्चे शिखर पर पहुंची हुई थी वे सुवर्ण मुद्रिकाएं वगैरह दें, उसमें आश्चर्य की बात ही क्या ? हां, वर्तमान में बीस, पच्चीस, या सौ पचास रुपये की सर्विस (नौकरी) करने वाले पूर्व लिखित बातों को कल्पना मात्र मानलें तो कोई आश्चर्य नहीं कारण वे अपनी आजीवीका भी बड़ी मुश्किल से चलाते हैं उनके मगज में इतनी उदारता सुनने का भी स्थान नहीं हो तो यह स्वभाविक ही है । यदि वे मगजमें सुगन्धी तेल की मालिश कर किसी सुंदर बाटिका में बैठ कर शांत चित्त से एक-ऐक शताब्दी में जैन समाज कैसी थी जैसे बीसवी शताब्दी के पूर्व मन्नीसवीं और उन्नीसवीं के पूर्व अठारहवीं, अठारहवीं के पूर्व सतारहवीं शताब्दी में जैन समाज कैसी थी इसी प्रकार एक-एक शताब्दी आगे बढ़ते जायं तो ज्ञात हो सकेगा है कि एक समय जैन समाज तन धन से बड़ी समृद्धिशाली था और एक-एक धार्मिक एवं समाजिक कार्यों में लाखों तो क्या पर करोड़ों का द्रव्य व्यय कर देते थे । उनिसवी शताब्दी में जैसलमेर के पटवों ने संघ निकाल जिसमें पचवीस लक्ष द्रव्य खर्च किये थे। सेठिया जाति के दानमीर ११८१ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अस्तु, यहां पर तो हमने केवल एक सेठिया जाति का ही संक्षिप्त से हाल लिखा है और लिखने का मेरा उद्देश्य खास इतना ही है कि वि० सं ७९५ में प्राचार्य उदयप्रभसूरि ने भीन्नमाल में २४ मुख्य ब्राह्मणों को जैन बनाये थे उसी समय उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार प्रारंभ कर दिया गया था । जो वि० सं० ११०३ तक तो बराबर चलता रहा पर बाद में बेटी व्यवहार बन्द हो गया केवल भोजन व्यवहार ही चालु रहा बेटो व्यवहार किसी कारण से बन्द हुआ हो पर इससे महाजनसंघ को और सेठिया जाति को बड़ा भारी नुकसान हुआ कि सेठिया जाति सर्वत्र फैली हुई लाखों की संख्या में एक समृद्धिशाली जाति थी वह गिरती २ आज अंगुलियों के पैरवों पर गिने जितनी रह गई है इस जाति में आज तो लक्षाधिश तों खोजने पर भी नहीं मिलते हैं यदि है तो बहुत कम लोग हैं । इस जाति के लोग सर्वत्र फैल गये थे अब तो केवल गोडवाड, मारवाड़, मेवाड़ मालवे में तथा थोड़ी संख्या में अन्य प्रान्तों में भी होगा। इस जाति के कई लोग तो व्यापार करते हैं पर कई लोग मिठाई का धन्धा भी करते हैं जैसे जो किसी समय माताजी ( देवी) के प्रसाद बनाये करते थे गुंदोच के, घेवर आज भी भारत में बहुत मशहूर है । श्रोसवाल जैसी विशाल कोम में कन्या दुकाल और कन्याविक्रय का तांडवनृत्य होरहा है वैसा ही इस जाति में भी मौजूद होने से दिन ब दिन संख्या कम होती जा रही है इस जाति की विशेषता यह है कि जिस दिन से इस जाति ने जैनधर्म स्वीकार किया था उस दिन से आज पर्यन्त इस जाति के सब के सब लोग जैनधर्म श्रद्धा पूर्वक पालन करते हैं। अब भी समय है कि ऐसी-ऐसी कम संख्या वाली जातियों को महाजनसंघ अपना के अपने साथ मिला लें तो इनका अस्तित्व टीका रह सकता है और महाजनसंघ की आयु भी बढ़ सकती है यदि संघ कुम्भः कर्णी निंद्रा में खर्राटे खेंचता ही रहेगा तो कुछ समय के बाद इन जातियों के नाम पुस्तकों के पृष्टों में ही दृष्टि गोचर होंगे। समय की बलिहारी है कि हमारे पूर्वाचार्यों ने तो मांस मदिरादि व्यभिचार सेवन करने वालों की शुद्धि कर उनको संघ में शामिल कर लेते थे और संघ उसी दिन से उन नूतन जैनों के साथ रोटी बेटी का व्यवहार बड़े ही उत्साह के साथ कर लेता था । तब भाज हमारा यह दिन है कि हमारे सदृश आचार विचार वाले हमारे बिछुड़े हुए माइयों को भी हम अपने अंदर मिलाने के योग्य भी नहीं रहे हैं। __ आज हमारे संघ में ऐसा कोई प्राभावशाली आचार्य नहीं रहा है कि चिरकाल से बिछुड़े हुए साधर्मी भाइयों को यह समझ कर कि आज हम वासक्षेप के विधि विधान से नये जैन बनाने की भावना से ही उनको शामिल कर सके । यदि हमारे सदृश पवित्र आचार व्यवहार वाले जिनके साथ हमारा बेटी व्यवहार था और आज भोजन व्यवहार है हम एक पंक्ति एवं एक थाली पर बैठ कर भोजन करते हैं उनके लिये ही इतनी संकीर्णता है तब कोई आचार्य पांच पच्चीस जाट माली राजपूतादि को प्रतिबोध देकर जैन बना लिया हो तो उनके साथ तो बेटी व्यवहार करे ही कौन इतना ही क्यों पर भोजन व्यव. हार भी शायद ही कर सकें। फिरतो इस महाजनसंघ के मृत्यु के दिन निकट भविष्य में हो इसमें संदेह ही क्या हो सकता है और इसका कारण भी प्रत्यक्ष है देखिये। १-बाल विवाह से संतान का अभाव व विधवाओं का बढ़ना । २-वृद्ध विवाह से भी विधवाओं की संख्या में वृद्धि होती है । जहां भोजन व्यवहार है वहां बेटी व्यवहार mansoonmmmmmunirnmomvommanmanushramarurnwwwwwwwwwwwnewwwwwwwwwwwwwmarwmummmmmnionrnmmmmmmmmmnner monium For Private & Personal use only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं२ ११७८-१२३७ ३-कुजोड़ विवाह का भी यही परिणाम है । ४-कन्या विक्रय से सुयोग्य युवक अविवाहित रह जाते हैं । ५-विधवा और विधुर एवं कुमारों का मृत्यु से संख्या का कम होना । ६-इस संकीर्णता के कारण बहुत से लोग स्वधर्म छोड़ अन्य धर्म में जाने से भी समाज की संख्या कम होती जा रही है। ७-कई लोग अपनी आजीविका के साधनों के अभाव में भी स्वधर्म का त्याग कर अन्य सामज में जामिलने से भी अपनी संख्या कम होती है । इत्यादि । और भी कई कारण हैं जिससे समाज दिनवदिन कम होती जा रही है तब दूसरी तरफ आमद के दरवाजों पर ताले नहीं पर वनसी सिलाएं ठोक दी गई हैं कि सौ वर्षों में भी कोई एक भी व्यक्ति नहीं बढ़ सकता है ! साधर्मीभाइयों के साथ बेटी व्यवहार नहीं होने के भयंकर परिणाम के लिये आपको दूर जाने की आवश्यक्ता नहीं है केवल एक गुजरात में ही देखिये श्रोसवाल, पोरवाड़, श्रीमाल के अलावा भावसार, पाटीदार, गुजरवनिया, मांढवणिय। नेमा वणिया और लाड़वादि २०-२५ जातियां जैनधर्म पालन करती थी जिनके पूर्वजों के बनाये हुए जैन मन्दिरों के शिलालेख भी आज विद्यमान हैं पर उनके साथ बेटी व्यवहार नहीं होने से इस बींसवी शताब्दी में ही लाखों मनुष्य विधर्मी बन गये हैं वे केवल विधर्मी बन के ही चुपचाप नहीं रह गये पर जैन धर्म की निंदा करके सैकड़ों, हजारों को जैन धर्म से विमुख बना रहे हैं। यह दुःख गाथा केवल मैं ही समाज को नयी नहीं सुना रहा हूँ पर समाज का जन समूह जो थोड़ा बहुत समझदार है वह अच्छी तरह से जानता है पर किसी के घुटने में ताकत नहीं है कि वह कूद कर कार्य क्षेत्र में बाहर आवे । जैन समाज ऐसा अज्ञान पूर्ण समाज नहीं है पर वह व्यापार करने वाला समाज है। प्रतिवर्ष दूकानों के नफे नुकसान के आंकड़े मिलाना जानता है अतः समाज के घाटे नफे के लिये समझाने को अधिक परिश्रम की भी जरूरत नहीं है यदि इस विषय में प्रत्येक व्यक्ति से पूछा जाय या उनकी सलाह ली जाय तो सैकड़ें नबे मनुष्य सलाह देंगे कि क्या सेठिया, क्या अरुणोदिया, क्या दशा, क्या बीसा, जैनधर्म के पालन करने वाले तमाम एक संगठन में प्रन्थित हो जाना चाहिये। सबके लिये नहीं पर समाज में दो चार सो आगेवान तैयार हो जाय कि वे सबसे पहले कहें कि हम बेटी देंगे और लेगें फिर देखिये कितनी देर लगती है पर हमारे यहां तो चक्र ही उलटा चल रहा है । सभा सोसायटीयों में प्रस्ताव पास करने पर भी हमारे बड़ाओं को तो बड़ा बराबरी का ही घर होना चाहिये, जब तक स्वार्थ त्याग नहीं करेंगे वहां तक समाज सुधर नहीं सकता है । यहि एक दो व्यक्ति कर भी ले तो उसको न्याति से बाय काट की सजा मिलती है। खैर, मेरी तो भावना है कि अभी समय है जब तक नब्ज में गति है तब तक तो इलाज किया जाय तो मरीज के जीवित रहने की उम्मेद है । श्वास के छूट जाने पर तो हेमगर्भ की गोलियां भी मिट्टी के समान हो है । अन्त में हम शासनदेव से प्रार्थना करेंगे कि वे हमारे समाज के अप्रेश्वरों को सद्बुद्धि प्रदान करें कि सैकड़ों वर्षों से निर्जीव कारण से हमारे भाई समाज से बिछुड़े हुए हैं वे पुनः शामिल होकर समाज की आयुष्य में वृद्धि करें ॥ ॐ शांति ।। महाजनसंघ की संख्या कम होने का कारण ११८३ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास "भारत के अदभुत चमत्कार" वर्तमान आविष्कार युग है इस युग में पाश्चात्य विद्वानों ने साइन्स (विज्ञान) और शिल्प कलाएं are free नये आविष्कार निर्माण कर संसार को आश्चर्य में मुग्ध बना दिया है। उन नये नये अविष्कारो को देख कर जनता दांतों तले अंगुली दबा कर कहने लगती है कि पाश्चात्य विद्वान मनुष्य है या देवता ? कारण वे जो-जो अविष्कार निर्माण करते हैं वह पूर्व है जिसको न तो नजरों से देखा और न कानों से सुना ही है । इत्यादि । पर जब हम हमारे देश ( भारत ) का प्राचीन साहित्य का अवलोकन करते तब हमें थोड़ा भी आश्चर्य नहीं होता है । क्योंकि आज से हजारों लाखों वर्ष पूर्व भी हमारे पूर्वज इन सब विद्या, विज्ञान, शिल्पादि से पूर्ण - रूपेण परिचित थे । श्रतः पाश्चात्य विद्वानों ने अभी तक नया कुछ भी नहीं किया है इतना ही क्यों पर पाश्चात्य विद्वानों ने यह सब हमारे देश ( भारत ) से ही सीखा है अर्थात् इस प्रकार की विद्याओं के लिए भारत सब देशों का गुरु कह दिया जाय तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगा कारण भारतीय साहित्य में हजारों लाखों वर्षों पूर्व के मनुष्यों को इस विषय का अच्छा ज्ञान था और भी परमाणु, पुद्गलों की ऐसी-ऐसी अचिन्त्य शक्ति का प्रतिपादन किया है कि पाश्चात्य विद्वान अभी तक वहां नहीं पहुँच सके हैं जिस शिल्प कलादि को भारतीय विद्वानों ने अपने हाथों से कर दिखाई थी वह आज के पाश्वात्य विद्वान इलेक्ट्रो सिटी ( Electri city ) से भी नहीं बतला सकते हैं हमारे भारतीय प्राचीन साहित्य में कई ऐसे भी चमत्कार पूर्ण उदाहरण मिलते है कि जिनको सुनकर संसार मंत्र मुग्ध बन जाते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए कतिपय उदाहरण नमूने के तौर पर बतला दिये जाते हैं । १ - श्रीकललसूत्र में ऐसी बात लिखी है कि प्रथम सौधर्म देवलोक में ३२ लक्ष विमान है और प्रत्येक विमान में एक-एक सुघोष घंटा है जब इन्द्रों को प्रत्येक विमान में संदेश पहुँचाना हो तब अपने एक विमान की सुघोषा घंटा में शब्द कह दें एवं भरदे कि वह ३२ लक्ष घंटाओं द्वारा बत्तीस लक्ष विमानों में घोषित हो जाता है । क्या यह प्रयोग वर्तमान के रेडियो से कम है ? कदापि नहीं । ११८४ २ -- श्रीप्रज्ञापना सूत्र के चौतीसवें पद में ऐसा उल्लेख मिलता है कि बारहवें देवलोक में देवता स्थित है तब दूसरे लोक में देवी है बीच पांच दस सहस्र मिल नहीं पर असंख्यात क्रोड़नक्रोड़ योजन का अंतर होने पर भी देव देवांगना का मनोगत भाव मिलता है तब वहां से देवताओं के वीर्य के पुद्गल छुटते हैं. और सीधे देवी के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। क्या यह बिन तार के ( Television ) तार से कुछ कम है । नहीं! पुद्गलों की कैसी शक्ति है और संबंध है कि बीच में कई पृथ्वीखंड मकान वगैरह आते हैं पर वे पुद्गल बिना किसी रुकावट के सीधे देवी के शरीर में अवतीर्ण हो जाते हैं । { ३ - कई राजकुमारों के लग्न के साथ कन्या का पिता दत्त (दायजा ) देते हैं उनमें अध्यायन्य वस्तुओं के साथ बिना वदो की गाड़िया भी दी ऐसा उलेख है क्या यह रेल, मोटर से कम है ? नहीं। रेल, मोटर तो तेल कोयले की अपेक्षा रखती है पर वे गाड़ियाँ तो वटन दबाने से ही चलती थी । ४ - राजकुंवर अमरयशः की कथा में लिखा है कि एक जंगल की जड़ी बूटी उसके हाथ पर बांध दी जिससे वह मर्द के बदले स्त्री बन गया और जड़ी खोलने पर पुनः पुरुष बन गया था । भारत के अद्भुत चमत्कार - Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ ५-जयविजय राज कुवर के चरित्र में उल्लेख है कि एक समुद्र के बीच टापु है वहां एक देवी का मंदिर और एक बगीचा है उस बगीचे में एक वृक्ष ऐसा है कि जिसका पुष्प सुंगने मात्र से मनुष्य गधा बन जाता है तब पुनः दूसरे वृक्ष का पुष्प सुंघते ही गधे से मनुष्य बन जाता है । ६-मदन-चरित्र में एक ऐसी बात मिलती है कि एक राज्य महल में दो ऐसी शीशियाँ है जो चूर्ण से भरकर रखी है उनमें से एक शीशी का चूर्ण मनुष्य की आंख में डालने से वह पशु बन जाता है तब दूसरी शीशी का चूर्ण डालने से पुनः मनुष्य बन जाता है।। ७-श्रीसूत्रकृतांग सूत्र के श्राहार प्रज्ञाध्ययन में लिखा है कि त्रसकाय, अग्निकाय का आहार करे वह कैसा उष्णयोनि वाला त्रस जीव होगा कि अग्निकाय का श्राहार करने पर भी जीवित रह सके । ८-जयविजय कुवर को एक तोते ने दो फल देकर कहा कि एक फल खाने से सात दिन में राज मिले और दूसरा फल खाने से हमेशा पांच सौ दीनार मुंह से निकलती रहे और ऐसा ही हुआ था। ९-योनि प्रभृत नामक शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि अमुक पदार्थ पानी में डालने से अमुक जाति के जीव पैदा हो जाते हैं। १०-प्रभाविक चरित्र में सरसब विद्या से असंख्य अश्व और सवार बना लिये थे और वे युद्ध के काम में आये थे । ऐसे सैकड़ों तरह की घटनाएँ चमत्कार पूर्ण है शायद इसमें विद्या, मन्त्र और देव प्रयोग भी होगा। ११-गजसिंह कुमार के चरित्र में आता है कि एक सुथार ने काष्ट का मयूर बनाया या जिसके एक बटन ऐसा रखा था कि जिसको दबाने से वह मयूर आकाश में गमन कर जाता और उस मयूर पर मनुष्य सवारी भी कर सकता था। यह घटना केवल हाथ प्रयोग से बनाई गई थी। १२-मदन चरित्र में एक उड़न खटोला का उल्लेख मिलता है कि जिस पर चार मनुष्य सवार हो आकाश में गमन कर सकें इसमें भी काष्ट की खीली का ही प्रयोग होता था। १३ -अभी विक्रमीय तेरहवी शताब्दी में एक जैनाचार्य ने मृगपाक्षी नामक ग्रन्थ लिखा है जिसमें ३६ वर्ग और २२५ जानवरों की भाषा का विज्ञान लिखा है। जिसको पढ़ कर अच्छे २ पाश्चात्य विद्वान भी दात्तातले उगुली दवाने लग गये जिस प्रन्य का अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका है जिसकी समालोचना सरस्वती मासिक में छप चुकी है क्या भारत के अलावा ऐसा किसी ने करके बताया है ? १४-उपरोक्त बातें तो परोक्ष हैं पर इस समय अहमदाबाद तथा खेड़ा प्राम में एक-एक काष्ट का वृक्ष है उसकी शाखाओं पर काष्ट की पुतलियाँ हैं जिनके हाथों में मृदंग, सितार, तालादि संगीत के साधन हैं और उस वृक्ष के एक चाबी भी रखी है जब वह चाबी दी जाती है तो वे सब काष्ट पुतलियाँ वाजिंत्र बजाने लग जाति है और नाच भी करती है यह हमारे देश के कलाविज्ञों के हाथ से बनाई हुई कलाए हैं। १५-उपदेशप्रसाद नामक ग्रंथ का प्रथम भाग के पृष्ठ १११ पर एक कथा लिखी है कि "भारत के वक्षस्थल पर धन, धान कुवे, तालाब एवं वन वाटिका से सुशोभित कोकण नामक देश था उसकी राजधानी सोपारपट्टन में थी । वहां के राजाप्रजा जन नीति निपुण एवं समृद्धशाली थे । व्यापार का केन्द्र होने से लक्ष्मी ने भी अपना स्थिर वास कर रखा था । कला कौशल में तो वह नगर इतना बडा चडा था, कि जिसकी कीर्ति रूप सौरभ वहुत दूर दूर फैल गई थी । भ्रम की भांति दूर दूर के व्यापारी लोग व्यापारार्थ भारत के अद्भुत चमत्कार ११८५ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और कला कौशल सीखने वाले लोग श्रा श्राकर अपनी मनोकामना पूर्ण करते थे उस पट्टन में विक्रम नाम का राजा राज्य करता था और जैसे वह दुश्मनों के लिये विक्रम था वैसे ही गुणीजन सज्जनों का सत्कार और पुरुषार्थियों का उत्साह बढ़ाने के लिये भी सदैव तत्पर रहता था । उसी सोपारपट्टन में एक सोमल नाम का रथकार ( सूधार ) रहता था और अपनी कला कौशल में विश्व विख्यात भी था । उसके नये-नये आविष्कार से राजा ने भी संतुष्ट होकर अपने राज में सोमंल को उच्चासन देकर राज्य में उसका अच्छा मान सन्मान बढ़ा रखा था और राज की ओर से उस सुधार को एक सुवर्णपद भी इनायत किया गया था और उसके नित्य नये आविष्कार एवं हस्त कला देख कर प्रजाजन भी उसकी मुक्त कंठ से भूरि भूरि प्रशंसा किया करती थी । उस सोमल रथकार के एक देवल नाम का पुत्र था जब वह बड़ा हुआ तो सोमल अपने पुत्र को पढ़ाने के लिये अच्छा प्रबंध किया तथा अपनी शिल्प कलादि विद्या पढ़ाने का भी उस स्वंय ने बहुत कुछ प्रयत्न किया क्योंकि नीति कारों ने भी कहा है कि "पितृभिस्ताड़िता पुत्रः शिष्यश्च गुरु शिक्षितः । धन हतं सुवर्णं च जायते जन मण्डनम् ||" अर्थात् पिता पुत्र को, गुरु शिष्य को पढ़ाने के लिये ताड़ना, तर्जना भी करते हैं तब ही जाकर पुत्र एवं शिष्य पढ़कर योग्य बनता है जैसे सोना को पीट पीट कर भूषण बनाते हैं तब ही जाकर वे जनता भूषण बनकर शोभा को प्राप्त होते हैं ।" पर साथ में यह भी कहा है कि "बुद्धि कर्मानुसारिणी" देवल ने पूर्व जन्म में न जाने कैसे कठोर कर्मोपार्जन किये होंगे व ज्ञान की अन्तराय कर्म कैसा बन्धा होगा कि पिता की शिक्षा का थोड़ा भी असर देवल पर नहीं हुआ । यही कारण है की न तो वह पढ़ाई कर सका और न शिल्पकला का विज्ञ ही बन सका । अर्थात् देवल मूर्ख एवं अपठित रह गया और नीतिकार अपठित मनुष्य को पशुओं से भी सा है अपठित व्यक्ति का कहीं पर सरकार नहीं होता वरन् वह जहां जाता है वहां पर उसका तिरस्कार ही होता है यही हाल सोमल के पुत्र देवल का हुआ । उस सोमल के एक दासी थी उसका गुप्त व्यवहार एक ब्राह्मण के साथ हो गया था, कारण कर्मों की गति विचित्र होती है जिसके साथ पूर्व भव में जैसा संबंध बंधा हुआ है उतना तो भोगना ही पड़ता है दासी के ब्राह्मण से एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम ( कोकास ) रखा गया था । जब कोकास बाल्यावस्था का अतिक्रमण किया तत्र तो वह विद्याभ्यास करने लगा पर विद्याग्रहण करने में सबसे पहले विनय भक्ति की श्रावश्यकता रहती है और दास में यह गुण स्वाभाविक ही हुआ करता है कोकास ने अध्यापक के दिल को प्रसन्न कर सर्व विद्या पढ़ ली। साथ में वह अपने मालिक सोमल का भी अच्छा विनय और पूर्ण तौर से भक्ति किया करता था जिससे खुश होकर सोमल ने अपनी जितनी शिल्प कलाएं थी वह सब कोकास को सिखादी जिससे कोकास की ख्याति भी सोमल की तरह सर्वत्र प्रसिद्ध हो गई इतना ही क्यों पर राज में कोकास का वही स्थान बन गया कि जितना सोमल का था कहा भी है किगुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते पितृ वंशो निरर्थकः । वासुदेवं नमस्यन्ति, वसुदेवं न ते जनाः ॥ १ ॥ " मनुष्य चाहे विद्वान हो, मूर्ख हो, पण्डित हो, समय तो अपना काम करता ही रहता है। कुछ समय के पश्चात् जब सोमल का देहान्त हो गया तो पीछे उसका पुत्र देवल अपठित एवं मूर्ख था यही कारण था कि १९८६ भारत के अद्भुत चमत्कार - Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ उसके संबंधी एवं राजा मिल कर सोमल के घर का सब भार कोकास के सुपुर्द कर घर का मालिक कोकास को बना दिया। तब जाकर देवल की आंखें खुली और अपने अपठित रहने का पश्चाताप करने लगा पर समय के चले जाने पर परिताप करने से क्या होता है । यह तो सब पूर्व संचित शुभाशुभ कर्मों का ही फल है, कहा है कि 'दासेरोऽपि गृहस्वाम्य मुच्चैः काममावा सतवान् । गृह स्वाम्यऽपि दासेस्य हो, प्राच्य शुभाशुभे ॥" अब तो कोकास सर्वत्र माननीय बन गया कहा भी है कि "यथा राजा तथा प्रजा" कोकास को [जा की ओर से मान पान मिल जाने से वह संतोष मानकर निश्चित नहीं बैठ गया पर अपने अभ्यास को और भी आगे बढ़ाता गया जिससे प्राप्त हुआ सत्कार की रक्षा एवं वृद्धि भी हो सके । एक समय की बात है कि कोकास के मकान पर दो मुनि भिक्षार्थ श्राये जिनको देखकर कोकास को बड़ा ही हर्ष हुआ, मुनियों को भाव सहित वंदन किया और रसोड़े में ले जाकर निर्वद्य आहार पानी दिया मुनिने धर्मलाभ दिया और वापस लौटने लगे तो कोकास ने धर्म का स्वरूप पूछा । मुनियों ने संक्षिप्त से अहिंसा मय धर्म कहा जिससे कोकास ते निर्णय पूर्वक जैनधर्म स्वीकार कर लिया और मुनियों की सेवा उपासना कर क्रियाकांड से जानकार हो तया तथा जैनधर्म के तत्वों का अच्छा बोधप्राप्त कर लिया । उसी समय आवंतीदेश में उज्जैनी नाम की प्रसिद्ध नगरी थी वहां पर बिचारधवल नाम का राजा राज्य करता था । उस राजा के राज में चार रत्न थे वे अपने-अपने काम में इतने चतुर एवं सिद्ध हस्त थे कि जिनकी प्रशंसा सर्वत्र फैल रही थी उन चारों रत्नों के नाम और काम इस प्रकार थे १ - रसोइया रत्न - रसोइया रत्न ऐसी रसोई बनाता था कि भोजन करने वाले को जितने समय में भूख लगनी चाहिये तो ऐसा भोजन करके जीमाता था कि उसको उतने ही समय में भूख लगे । २ - शय्या रत्न - शय्या तैयार करने वाला रत्न शय्यापर सोने वाले को जितनी निन्द्रा लेनी हो तो ऐसी शय्या तैयार करता था कि सोने वाले को उतनी ही निन्द्रा वे पहले नहीं जागे । ३ - कोष्टागार रत्न -- कोठार बनाने वाला रत्न ऐसा कोठार बनावे कि उसमें रखी जाने वाली वस्तु किसी दूसरे को नहीं मिले किन्तु आप ही जान सके तथा ला सके । ४ - मर्दन रत्न- मर्दन करने वाल रत्न --- जितना तैल मालिश करके जिस के शरीर में रमा द उतना ही तैल बिना किसी तकलीफ के शरीर से वापिस निकाल दे । इन चारों रत्नों के कार्यों पर राजा सदैव खुश रहता था। इन रत्नों की महिमा केवल राजा के में ही नहीं पर बहुत दूर २ तक फैल गई थी। राजा विचारधवल बड़ा ही धर्मात्माराजा था आप का देल हमेशा संसार से विरक्त रहता था उसका वैराग्य यहां तक बढ़ गया था कि कोई योग्य पुरुष मिल जाय तो मैं उसको राज देकर संसार का त्याग कर श्रात्मकल्याण में लग जाऊं पर भोगावली कर्मों की स्थिति पूरी न होने से इच्छा के न होने पर भी संसार में रह कर राज्य चलाना पड़ता था । पाटलीपुत्र नगर राजा जयशत्रु ने सुना कि उज्जैन नगरी के राज्य में चार रहन हैं और वे अपने कामों के बड़े भारी विद्वान हैं पर यदि मैं उज्जैनपति से मांगुं तो वे अपने रत्न कैसे दे सकेंगे । अतः मैं चार प्रकार की सेना लेकर उज्जैन नगरी पर धावा बोल दूं और बलात्कार चारों रत्नों को मेरे राज्य में ले आऊं । शत्रु ने ऐसा ही किया और चार प्रकार की सेना लेकर आया और उज्जैननगरी को घेर ली । राजा राजा के चार रत्न ११८७ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विचारधवल इसके लिये विचार कर रहा था पर होनहार ऐसा था कि राजा के शरीर में अकस्मात् ऐसी बिमारी हुई कि थोड़े समय में ही पंचपरमेष्टी का स्मरण करता हुआ समाधि पूर्वक देह छोड़ कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया। जब राजा का देहान्त हो गया तो आने वाला राजा का सामना कौन करे ? मुशही, उमराव वगैरह एकत्र हो विचार किया कि अपने राजा के पुत्र तो है नहीं किसी दूसरे राजा को राज्य देकर आये हुए राजा के साथ युद्ध करने की अपेक्षा तो पाया हुआ राजा को ही राज्य दे कर अपना राजा क्यों नहीं बना दिया जाय ? जिससे स्वयं शांति हो जायगी। ठीक यही किया आये हुए राजाजयशत्रु को उज्जैन का राज्य दे दिया। राजा जयशत्रु चारों रत्नों को बुला कर उनकी परीक्षा की तो वे अपने-अपने कार्यों में निपुर्ण निकले जिससे राजा को बड़ा ही हर्ष हुआ और विशेष में उज्जैन का राज भी अपने हस्तगत हो गया। एक समय राजा जयशत्रु मर्दनरत्न को बुला कर अपने शरीर पर तेल की मालिश करवाई तो मर्दन रत्न ने दश कर्ष ( उस समय का तोल ) तैल को शरीर में रमाय दिया बाद में तैल वापिस निकालने को कहा तो मर्दन रत्न ने एक जंघा से पांच कर्ष तैल निकाल दिया इसपर राजा ने कहा कि एक जघां में तेल रहने दो शायद मेरी सभा में कोई दसरा मर्दन कार हो तो उसकी भी परीक्षा कर ली जाय । ठीक राजा ने राज सभा में बैठे हुए मर्दनकारों से कहा कि इस रत्न ने मेरे मालिश की है श्राधा तेल तो वापस निकाल दिया है और आधा तेल मैंने तुम लोंगों के लिये रखा है यदि तुम्हारे अंदर कुछ योग्यता हो तो मेरे शरीर से तैल निकाल दो ? मर्दनकारों ने राजा के शरीर में रहा हुआ तेल निकालने की बहुत कोशिश की पर किसी एक ने भी तैल नही निकाला इस प्रकार करने से दिन व्यतित हो कर रात्रि पड़ गई गजा सो गया सुबह तेल निकालने के लिये मर्दन रत्न को बुलाया तो उसने कहा राजा आपने भोजन कर लिया पानी पी लिया अब तैल निकालना मुश्किल है हां जिस समय मैंने तेल की मालिश कर आधा तैल निकाला था उस समय या आपने भोजन पान नहीं किया उस समय तक तैल वापिस निकल सकता था परयह तेल आपके शरीर में रह भी जावे तो आपको किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी। खैर, राजाने स्वीकार कर लिया पर वह तैल जंघा में रहने से जंघा का रंग काला काक ( काग) जैसा श्याम पड़ गया इस लिये लोगों ने राजा का नाम काकजंघा रख दिया। दुनिया का रखा हुआ नाम अच्छा हो या बुरा प्रचलित हो ही जाता है । फिर अच्छा के बजाय बुरा नाम शीघ्र फैल जाता है । बस, राजा जयशत्रु को सब लोग 'काकजंघ' के नाम से पुकारने लग गये। एक बार सोपारपट्टन में एक भयंकर जनसंहार दुष्काल पड़ा जिसकी भीषण मारने एक नगर में ही नहीं पर देश भर में त्राहि २ मचा दी जनता अन्न पानी बिना हाहाकार करने लग गई और अपनी मर्यादा से भी पतित होने लग गई कहा है कि मरता क्या नहीं करता जैसे "मांतं मुच्चति गौरवं, परिहरत्य पति दीनात्माताम् । लज्जा मुत्सूजति श्रयत्य दयतां नीचाचं मालंबते ।। भार्या बन्धु सुता सुतेश्वप कृर्ता नविद्याश्वेष्यते । किं किं यत्न करोति निन्दितमपि प्राणि क्षुधा पीड़ितः ॥१॥ इस भयंकर दुष्काल के कारण कोंकास अपने सब कुटुम्ब को साथ लेकर उज्जैननगरी में श्राकर अपना निवास कर दिया । पर यहां के लोगों के साथ कोकास की कोई पहचान नहीं थी कोकास की इच्छा ११८८ational राजा जयशत्र www.jamelibrary.org Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ पी कि छोटे बड़े के साथ मिलने से क्या हो सकता है पर खुदराजा से ही मिलना चाहिये किन्तु बिना किसी की सहायता के राजा से मिलना हो नहीं सकता था अतः कोकास ने एक ऐसा उपाय सोचा कि उसने काष्ट के बहुतसे कबूतर बनाए उन कबूतरों के एक ऐसा वटन लगाया कि वटन दबाने से वे श्राकाश में गमन कर सके और उस वटन के ऐसे नंबर लगाये कि उतनी ही दूर जा सके जहां जावे वे ऐसे गिरे कि वहां का पदार्थ स्वयं वृतर में रखी हुई पोलार में भर जाय उस पोलार की जगह भी ऐसी रखी कि उतना वजन भर जाने पर सरा वटन स्वयं दब जाय जिससे फिर आकाश में उड़ कर सीधा कोकास के पास आजाय ऐसे एक नहीं र अनेक कबूतर बनालिये और उन कबूतरों को गजा के अनाज के कोठारों पर उड़ा दिये कबूतरों के वटनों के नंवर के अनुसार सब कबूतर राजा के अनाज के कोठार पर जा पड़े पड़ते ही उनकी उदर (पोलार) में वयं अनाज भर गया कि कबूतर उड़कर कोकास के पास आगये इस प्रकार हमेशा काष्ट कबूतरों को भेजकर राजा का अनाज मंगवाया करे । ऐसा करते-करते कई दिन बीत गये । तब अनाज के भंडार रक्षको ने सोचा के ये कबूतर किस के हैं एक दिन उन्होंने कबूतरों का पीछा किया तो वे कोकास के पास पहुँच गये । और ओकास को गुन्हगार समम राजा के पास ले आए। जब राजा ने कोकास को पूछा तो उसने काष्ट कबूतरों को तथा राजा से मिलने की सव बात सत्य-सत्य कह सुनाई । पर सत्य का कैसा प्रभाव पड़ता है । "सत्यं मित्रः पियं स्त्रीमिर लीकं मधुरं द्विषा । अनुकुलं च सत्य च वक्तव्यं स्वामिना सह ॥१॥ कोकास की सत्यता एवं कला कौशल से राजा संतुष्ट हो इतना द्रव्य एवं श्राजीविका कर दी कि उस के सव कुटुम्व का अच्छी तरह से निर्वाह हो सके । कहा है किलवण सभोनच्थीरसो, विण्णाण समोअवन्धवो नत्थी| धम्म सभो नत्थी निहि, काहे समोवेरिणो नत्थी। एक दिन राजा ने कोकास से पूछा कि तुम केवल कबूवर ही बनाना जानते हो या अन्य कई और भी शल्पविद्या जानते हो ? कोकास ने कहा हजूर आप जो आज्ञा करेंगे वही में वना दूंगा। राजा ने कहा कि रेसा गरुड़ बनाओ कि जिस पर तीन मनुष्य सवार हों आकाश में गमन कर सके । कोकास ने राजा की आज्ञा वीकार कर गरुड़ वनाना प्रारम्भकिया जो सामग्री चाहती थी वह सब राजा ने मंगवा दी। फिर तो देर ही ग्या थी कोकास ने थोड़े ही समय में एक सुन्दर गरुड़ विमान के आकार वनादिया जिसको देख कर राजा बहुत ही खुश हुत्रा । राजा राणी और कोकास ये तीनों उस गरुड़ पर सवार हो आकाश में गमन करने कों निकल ये चलते चलते जा रहे थे कि नीचे एक सुन्दर नगर श्राया । राजा ने कोकास से पूछा कि-यह कौन सा नगर है। कोकास ने कहा हे राजा ! यह भरोंच नाम का एक प्रसिद्ध नगर है यहां पर वीसवें तीर्थकर मुनि पुव्रत प्रतिष्ठित्पुर नगर से एक रात्री में साठ कोस चल कर आए थे। कारण यहां ब्राह्मणों ने एक अश्व मेघ यज्ञ करना प्रारम्भ किया था जिसमें जिस अश्वका होम (वलि) करने काउन्होंने निश्चय किया था वह अश्व तीर्थकरके पूर्व जन्म का मित्र था उसको बचाने के लिये वे आए थे उस अश्व को बचा दिया बाद वह मर कर देव हुआ उसने यहां पर तीर्थकर मुनिसुव्रत का मंदिर बनवा कर मूर्ति स्थापन की तथा एक अपनी अश्व के रूप की मुर्ति स्थापन कर इस तीर्थ का नाम अश्वबोध तीर्थ रखा था जो अद्यावधि विद्यमान है और भी इस तीर्थ के उद्धार वगैरह संबंधी सब हिस्ट्री राजा को सुनाई । किसी समय पुनः लंका नगरी के ऊपर आये तब राजा ने पुनः पूछा तो कोकास ने राजा रावण का राज सीता का हरण, रामचन्द्रजी का आना वगैरह सब हाल सुनाया तथा रावण के नौवह तो खाट के बन्धे रहते थे । और वे यज्ञ वादियों के यज्ञ का विध्वंस कर डालते थे इस लिये वे कोकास का काष्ट कबूतर बनाना ११८९ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लोग रावण को राक्षसों की गिनती में गिनते थे । राजा रावण और राणी मंदोदरी अष्टापद तीर्थ पर जाकर तीर्थकर देव की ऐसी भक्ति की कि सितार वजाते हुए तांत टूट गई थी उसी समय अपने शरीर की नस निकाल कर सितार में जोड़ दी यही कारण है कि वह भविष्य में तीर्थकर पद धारण करेंगे । इत्यादि । ___ एक दिन फिर पश्चिम की ओर गये तो नीचे पर्वत देख राजा ने कोकास से पूछा तो उसने कहा धरा. धिप । यह पुण्य पवित्र एवं महा प्रभाविक श्रीशत्रुजय तीर्थ है यहां पर तेविस तीर्थकरों के समवसरण हुए । अजी तनाथ प्रभु ने चातुर्मास किया और अनेक महात्मा यहां पर मुक्ति को प्राप्त हुए इत्यादि इसी प्रकार गिरनार तीर्थ के लिये कहा कि यहाँ नेमिनाथ प्रभु के तीन कल्याण हुए। पुनः पूर्व की यात्रा करते हुए सम्मेतशिखर का परिचय कराते हुए कोकास ने कहा यहां वीस तीर्थंकर मोक्ष पधारे हैं। इसी प्रकार कभी पापापुरी, कभी, चम्पापुरी, कभी राजगृह, कभी अष्टापद तीर्थ आदि का हाल सुनाता रहा जिससे राजा की भावना पवित्र जैन धर्म की ओर झुकगई और कोकस के प्रयत्न से राजा ने जैनधर्म स्वीकार करके उसकी ही आराधना करने लगा। एक समय कोकास राजा को आचार्य श्रुतिबोधसूरी के पास ले गया। आचार्यश्री ने राजा को धर्मोपदेश दिया जिसमें साधुधर्म एवं गृहस्थ धर्म का विवरण किया राजा ने गृहस्थ धर्म के द्वादशव्रत धारण किये जिसमें छटा बत में चारों दिशा सौ-सौ योजन भूमि की मर्यादा की शेष यथाशक्ति में व्रतपच्चक्खान कर सूरिजी को वंदन कर अपने स्थान पर चले गये पर उनकी आकाश गमन प्रवृति उसी प्रकार चालु रही। राजा के एक यशोदा नाम की राणी थी और उसी के साथ अधिक स्नेह होने से श्राकाश गमनसमय साथ ले जाता था जिससे दूसरी विजय नाम की रानी ईर्षा करती थी । जब एक समय राजा यशोदारानी को गरुइ पर बैठा कर भाकाश गमन की तैयारी कर रहा था तो विजयारानी एक गुप्ताचर द्वारा उस गरुड़ को लौटाने की खील बदलदी जिसकी किसी को खबर नहीं पडी जब राजा रानी और कोकस गरुड़ विमान पर सवार हो कर आकाश में गमन किया तो उस समय विमान इतना तेज चला कि थोड़े ही समय में सैंकड़ो कोस चला गया इस हालत में राजा को अपने व्रत की स्मृति हुई और कोकास को पूछा, कि कोकास ! अपने नगर से कितने दर पाए हैं ? कोकास ने जबाब दिया कि एक सौ योजन से कुछ अधिक आ गये हैं राजा ने कहा कि कोकास जल्दी से गरुड़ को वापस लौटा दो कारण मेरे सौ योजन की भूमि उपरांत जाने का त्याग किया हुआ है । कोकास ने कहा कि थोड़ी दूर पर जाकर गरुड़ को लौटा दूंगा राजा ने कहा नहीं यहीं से लौटा दो । कोकास ने कहा हुजूर व्रत में अतिचार तो लग ही गया है फिर तकलीफ क्यों उठाई जाय थोड़ी दूर पर जाने से विमान सुविधा से लौटाया जा सकेगा। राजा ने कहा कोकास ! तुम जैनधर्म की जानकारी रखते हुए भी ऐसी अयोग्य बात क्यों कर रहे हो कारण अनजान पणे में भूमि उल्लंघन होने से अतिचार लगता है पर जान बूझ कर आगे जाने में अतिचार नहीं पर व्रत भंग रूप अनाचार लगता है अतः प्राण भी चला जाय पर एक कदम भी आगे बढ़ना ठीक नहीं है कोकास ने कहा राजन् ! यह कलिंग देश की भूमि है और नजदीक कांचनपुर नगर है यहां के राजा के साथ आप का चिरकाल से वैर है यहां विमान उतारने में आप को शायद कष्ट होगा अतः आप व्रत भंग की आलोचना कर प्रायश्चित करलें पर श्राग्रह न कर थोड़ा सो आगे चल कर विमान को लौटाने की आज्ञा दें। राजा ने कहा कि कितना ही कष्ट क्यों न हो पर मैं मेरा व्रत हर्गिज खंडित नहीं करूगा । अतः राजा की दृढ़ता देख कोकास ने गरुड़ को लौटाने के लिये खिली वटन दाबा पर गरुड़ नहीं लौटाया । कोकास ने खिली को देखी तो अपनी खिली नहीं पाई राजा से कहा Jain Edu११९०national For Private & Personal use O राजा के व्रतों की परीक्षा का समय-mary.org Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ गरीबपरवर मेरी खिली किसी ने बदल दी है अतः गरुड़ को पीछे नहीं लौटाया जा सकता है राजा ने कहा तुम विमान को यहीं उतार दो यहां से सब पैदल अपने नगर को चलेजावेंगे। कोकास ने गरुड़ को उतारने की बहुत कोशिश की जब गरुड़ को नीचे उतार रहा था तो उसकी पाखें वन्द हो गई और गरुड़ जाकर समुद्र के पानी पर पड़ गया । जिससे किसी को तकलीफ नहीं हुई। पर वे सब वालवाल बच गये जिससे राजा की जैनधर्म पर विशेष श्रद्धा दृढ़ हो गई। जब कोकास अपने गरुड़ और राजा रानी को समुद्र से पार कर किनारे पर लाया और कहा की आप दोनों गुप्त रूप से यहां विराजें। मैं जाकर नगर से दूसरी खिली बनाकर ले आता हूँ फिर सब गरुड़ पर सवार होकर अपने नगर को चले चलेंगे। पर यह मेरी बात स्मरण में रहे कि इस नगर का राजा श्राप का दुश्मन है आप न तो किसी से वार्तालाप करें और न अपना परिचय किसी से करावे । इतना कह कर कोकास नगर में गया एक सुथार के वहां जाकर औजार मांगा सुथार ने कहा आप यहां ठहरे मैं घर पर जा कर औजार ले आता हूँ। सुथार औजार लेने को गया पीछे उसका एक चक्र अधूरा पड़ा था कोकास ने उसको जितना जल्दी उतना ही सुंदर बना दिया जब सुथार औजार लेकर आया और कोकास को दिया और वह अपनी खिली बनाने लगा इधर सुथार ने अपने चक्र का काम देखा तो उसको बड़ा ही आश्चर्य हुआ उसने सोचा की हो न हो पर यह कारीगर कोकास ही होना चाहिये सुथार किसी बहाने से वहां से चल कर राजा के पास आया और कहा कि मेरी दुकान पर एक कारीगर आया है। मेरे ख्याल से वह उज्जैन के राजा का प्रसिद्ध कारीगर कोकास है । राजा ने तुरन्त सिपाहियों को भेज कर कोकास को जबरन अपने पास बुलाया और पुछा की तुम्हारा गजा काकजंघ कहां है ? कोकास कभी झूठ नहीं बोलता था उसने अपने सत्यव्रत को रक्षा करते हुए वहुत कुछ किया पर आखिर जब कोई उपाय नहीं रहा तब राजा का पता बतलाना पड़ा। बस, फिर तो था ही क्या कांचनपुर का राजा कनकप्रभ ने हाथ में आया हुआ इस अवसर को कब जाने देने वाला था । राजा एवं गनी को पकड़ मंगवाया और कोकास के साथ तीनों को कैद कर दिया इतना ही नहीं बल्कि उन तीनों का खान पान भी बन्द कर दिया जब इस अनुचित कार्य की खबर नागरिकों को मिली तो उन्होंने सोचा कि यह तो राजा का बड़ा अन्याय है जिसमें भी खान पान वन्द कर देना तो और भी विशेष है अतः नागरिक लोगो ने विविध प्रकार के पकवान बना कर आकाश में भ्रमण करने वाले पक्षियों को फैकने के बहाने उछालते २ राजा राणी एवं कोकास जिस मकान में कैद थे वहां भी फेंकने शुरू कर दिया कि उन तीनों का भी गुजाग हो सके इस प्रकार कई दिन गुजर गये । राजा गणी और कोकास बड़े ही दुःख में आपड़े। पर कहा है कि 'को इस सया सुहिओ, कस्स व लच्छी थिराइपिझइ । को मच्चणा न गहिओ, को गिद्धो नेव विसए सु॥ खैर, एक दिन राजा ने कोकास के बैर को याद कर उसको जान से मरवा डालने का विचार कर डाला पर जब इस अनुचित कार्य की खबर नगर में हुई तो कई नागरिक लोग एकत्र हो राजा के पास में जाकर अर्ज की कि "सर्वेषां बहुमाना हैः कलावान् स्वपरोऽपि वा। विशिष्य च महेशस्य मटीयो महिमाप्ति कम् ॥ १ ॥ अर्थात् विद्वान् एवं कलावान अपना हो या दूसरों का हो आदर सत्कार करने योग्य होता है। चन्द्र कोकास की चातुर्य कला Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कलावान् हो ने से ही शंकर ने अपने कपाल पर अंकित किया है । हे राजन् ! कोकास जैसा कलावान् को मार डालना यह आपको योग्य नहीं है कारण इससे एक तो इस अनुचित कार्य से सर्वत्र आपकी अपकीर्ति एवं अपयश होगा। दूसरा एक बड़ा भारी कलावान आपके हाथों से सदा के लिये खोया जायगा । हे भूपति ! मारने की अपेक्षा कोकास जैसा विद्वान आपकेहाथ लगा है तो इससे कोई अच्छा काम लेना चाहिये इसमें ही श्रापकी शोभा है । नागरिकों का कहना मान कर राजाने कोकास को अपने पास बुला कर पूछा कि कोकास तुम एक गरुड़ ही बनाना जानते हो या । दूसरा भी कुछ बना सकते हो? इस पर कोकास ने कहा कि जो हुक्म आप दें वही मैं बना सकता हूँ गजा ने कहा कि एक ऐसा काष्ट विमान बना दो कि जिस पर मैं मेरी रानी और मेरे सौ पुत्र व मेरा प्रधान सव अलगर बैठ कर आकाश में सफर कर सकें। राजा की इस बात को कोकास ने स्वीकार कर ली। और राजा ने कोकास के कहने मुजब सब सामान भी मंगवा दिया । वस, फिर तो क्या देरी थी । कोकास ने इस कार्य को अपने तथा राजा गणी को कागगृह मुक्ति का साधन समझ शुरू कर दिया । राजा राणी को भी खुश समाचार कहला दिया कि अब मैं आपको शीघ्र ही संकट मुक्त करवा दूंगा । इधर उज्जैननगरी को एक गुप्तचर भेज कर गजा काकजंघ के पुत्र रामेश को कहला दिया कि राजा गणी और मेरी यह दशा हुई है। पर आप अमुकतिथि तक ऐसे गुप्त तरीके से सैना लेकर कलिंगदेश की राजधानी कांचनपुर पर चढ़ाई करके यहां आ जाना कि मैं मदद कर आपकी विजय करवा दूंगा इत्यादि । इधर कोकास अपना काम बड़ी ही शीघ्रता से करने लगा कि थोड़े ही समय में एक देव भवन के सदृश्य गरुड़ विमान तैयार कर दिया जिसको देख राजा एवं प्रजा का चित्त प्रसन्न हो गया जब राजा उस विमान पर सवार हुआ तो प्रत्येक २ आसन पर राजा राणी, राजा के सौ पुत्र और प्रधान बैठ गये कोकास ने विमान के एक ऐसी चावी रखी थी कि चाबी के लगाते ही वे सब श्रासन ऐसे बन्द होगये कि वे सब बैठने वाले माता के गर्भ में ही नहीं सो गये हों अर्थात् उन शासनों के पाक्षी की तरह काष्ट की पाखे रखी गई थी कि चाबी लगाते ही वे काष्ट की पाख्ने सब आसनों को आच्छादित कर दे अर्थात् वे सब सवार कारागृह की भांति बन्द हो गये । उधर उज्जैननगरी से सैना लेकर राजपुत्र रामेश श्रा पहुँचा वह राजा नगर पर आक्रमण कर गज लूटना शुरु कर दिया जिसका सामना करने वाले राजा मंत्री या राजा के सौ पुत्र विमान में बन्द हुए पड़े थे। जिन नागरिकों ने राजा गणी, कोकास को खान पान फेंके थे उन सबको सकुशल रख दिये । बाकी राज भवन आदि सब लूट लिये राजा राणी जो कारागृह में थे, उनको छुड़ा लिये। रामेश और कोकास राज को अपने हस्तगत करना चाहते थे पर राजा काकजंघ ने कहा कि मेरे व्रतों की मर्यादा है जिसमें सौ योजन के बाहर की भूमि मेरे काम की नहीं है । अतः यह राज्य मेरे राज से सौ योजन से दूर होने से राज लेने में मेरे अत का भंग होता है । इस लिये राज और द्रव्य यहीं छोड़ कर राजा राणी कोकास और राजपुत्र रामेश तथा उसकी सैना चलकर उज्जैनी नगरी श्रा गये। पीछे लोग एकत्र हो गरुड़ विमान से राजादिकों को निकालने का प्रयत्न किया पर कोकास की ऐसी चाबी लगाई हुई थी कि उनके सब उपाय निष्फल हुए तब सुथार को बुला कर कुलाड़े से काटने लगे पर ज्यों ज्यों कुलाड़ा विमान पर चलाया जाने लगा त्यों त्यों अन्दर रहे हुए राजादि को कष्ट होने लगा इससे अन्दर से राजादि चिल्लाने लगे इस हालत में कई अच्छे आदमी चलकर उज्जैन आये और कोकास से प्रार्थना की कि श्राप हमारे यहाँ पधार कर राजादिकों कष्ट मुक्त कर दें। कोकास ने कहा कि आपका राजा ११९२ कोकास ने अपना काम निकाला wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwranrrrrrr Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८ से १२३७ हमारे राजा की आज्ञा को स्वीकार करे तो मैं चल सकता हूँ। उन लोगों से कोकास का कहना स्वीकार किया। तब राजा काकजंघ की आज्ञा लेकर कोकास कांचनपुर गया और गरुड़ विमान के एक चाबी लगाई जिससे उन आसनों पर के आवरण खुल गये और राजादि नये जन्म पावे जितनी खुशी मनाई । कोकास ने कहा कि यह आपके किये हुए अनुचित कार्य का फल मिला है जब एक राजा अपनी विपदावस्था में आपके यहां आगया तो आपका कर्तव्य था कि आप उनका स्वागत सत्कार करते पर आपने उलटा ही रास्ता पकड़ लिया। पर हमारे राजा की कितनी दयालुता की उन्होंने श्रापका राज न लेकर आपको बन्धन मुक्त करने की मुझे आज्ञा देदी इत्यादि शिक्षा देकर कोकास पुनः उज्जैन नगरी आ गया । राजा काकजंघ और कोकास संसार से विरक्त होकर एक ऐसे महात्मा की प्रतिक्षा कर रहे थे कि उन महात्माजी की सहायता से अपना शीघ्र कल्याण कर सकें। इतने में आचार्यधर्मघोषसूरि अपने शिष्य मंडल के साथ उद्यान में पधार गये । राजा को बधाई मिलने पर बड़े ही समारोह के साथ कोकासादि नागरिकों के साथ राजा सूरिजी महाराज को चंदन करने को गया । आचार्यश्री ने वोधकरी धर्म देशना दी जिसको सुनकर राजा एवं कोकास को वि. वैराग्योत्पन्न हो आया । ठीक उसी समय राजा ने सूरिजी से अपना पूर्व भव पूछ। । इस पर सूरिजी ने अपने अतिशय ज्ञान से उनका पूर्व भव जान कर राजा को कहा कि हे राजन् ! पूर्व जमाने में एक गजपुर नाम का नगरथा वहां पर शेल नाम का राजा राज्य करता था उसके नगर में एकसालग नाम का सुथार भी वसता था उसने राजा की आज्ञा से अनेक जैनमंदिरों का निर्माण किया और करता ही रहता था। उस समय किसी अन्य प्राम से एक जैन सुथार आया वह भी अच्छा कला निपुण था। सालग ने उसका साधर्मी के नाते स्वागत नहीं किया पर वह मंदिर बनाने लग गया तो मेरी आजीविका कम हो जायगा । अतः उसने आगत जैन सुथार पर जाति नीचता का दोषारोपण कर उसको राजा द्वारा कैद करवा दिया पर जब राजा अन्य लोगों द्वारा पूछा ताछ की तो उसको मालूम हुआ कि मैंने अन्याय किया है उस सुथार को कैद से मुक्त कर दिया पर इस पातक की आलोचना न करके तुम दोनों मर कर पहले देवलोक में विराधिक देव हुए और वहां से चलकर गजा का जीव तो तुम राजा हुए हो जो छः घंटे की कैद के बदले तुमको छः मास की कैद में रहना पड़ा और सुथार का जीव कोकास हुआ है जाति नीचता का कलंक लगाने से कोकास को दासी पुत्र होना पड़ा है इत्यादि । सूरिजी ने संसार का असार पना तथा कृत कर्मों को उसी प्रकार भो ने का सचोट उपदेश दिया। राजा तो पहले से ही संसार से उदासीन हो रहा था ऊपर से मिल गया सूरिजी का उपदेश । बस, फिर तो देरी ही क्या थी उसी समय राजाने अपने पुत्र को राज सौंप कर कोकास के साथ सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा लेकर यथा शक्ति तप, संयम की आराधना करते हुए कैवल्य ज्ञान दर्शन हो आया जिससे अनेक भव्चों का उद्धार कर अन्त में आप इस नाशमान शरीर एवं संसार को छोड़ मोक्ष महल में पहुँच कर अनंत एवं अक्षय सुखों का अनुभव करने लगे। ऊपर मैंने जितने उदाहरण लिखे हैं उन सब के इस प्रकार के चरित्र बने हुए हैं पर इस एक नमूने से ही पाठक समझ सकते हैं कि पूर्व जमाने में भारत में कैसे-कैसे शिल्पज्ञ एवं कलाएं थी कि जिनकी बराबरी श्राज का (Scienee) विज्ञान बाद भी नहीं कर सकता है। .... कई सज्जन यह खयाल करे कि यदि आपके साहित्य में इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं तब उन्होंने चिरकाल से इसका प्रयोग करना क्यों छोड़ दिया है ? जैनों के जीवन का मुख्योद्देश्य आत्मकल्याण काकजंघ व कोकास की दीक्ष्य ११९३ Jain Education Intou donal Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास करने का है। हां, संसार व्यवहार निर्वाह ने के लिये वे अवश्य व्यापारादि उद्योग करते हैं उसमें भी पन्द्रह कर्मादानादि अधिक पाप का संभव हो उसे वे करना नहीं चाहते हैं तब नये नये आविष्कारों का निर्माण करने में एक तो समयाधिक चाहिये कि तमाम जिन्दगी ही इन कार्यों में खत्म करनी पड़ती है दूसरी तृष्णा भी इतनी बढ़ जाति है कि आत्मकल्याण प्रायः भूल ही जाते हैं आज हम पाश्चात्यो को देखते हैं कि नये नये आविष्कारों में अनाप सनाप आरंभ सारम्भ होते हैं वहां स्थावर जीव तो क्या पर त्रस जीवों की भी गिनती नहीं रहती है यही कारण है कि वे जानते हुए भी महापापारंभ के कार्य में हाथ नही डालते थे पर इससे यह तो कदापि नहीं समझा जा सकता है कि उन्होंने जिस कार्य को इस्तेमाल में नहीं लिया उसका सर्वथा अभाव ही था अर्थात् आज जितने नये नये आविष्कार निर्माण किए जाते हैं वह भारत में हजारों लाखों वर्ष पूर्व भी थे और भारत के विज्ञ लोग इन सब कार्यों को पहले से ही जानते थे यदि यह कहा जाय कि पाश्चात्य लोगों ने यह शिक्षा भारत से ही पाई है इसमें थोड़ी भी अत्युक्ति नहीं है। बस, इतना कह कर ही मैं मेरे इस लेख को समाप्त कर लेखनी को विश्रान्ति देता हूँ । श्रीमस्तु, कल्याणमस्तु । भगवान महावीर की परम्परा श्रीमान् विजयसिंहसरि मेह पर्वत के शिखर के समान उन्नत दुर्गों से सुशोभित, समस्त नगरों का मुकुट स्वरूप श्रीपुर नामका एक विख्यात नगर था । उसके बाह्य उद्यान में द्वितीय तीर्थङ्कर श्रीअजितनाथ स्वामी का पदार्पण हुआ इससे वह, तीर्थ तरीके प्रसिद्ध हुआ। पुष्कल समय के व्यतीत होने के पश्चात् चंद्रप्रभस्वामी का वहां समवसरण हुआ तब वह चन्द्रपुर के नाम से विख्यात हुआ। कालान्तर में वह पुनः क्षीण हो गया तब भृगु नामक महर्षि ने उस नगर का पुनरुद्धार किया जिससे ऋषि के नामानुरूप यह पुर भृगु पुर नाम से प्रख्यात हुआ । कलिकाल के कलुषित तामस भाव को दूर करने में प्रवीण ऐसा जितशत्रु नामक एक जगविश्रुत समर्थ राजा उस नगर में राज्य करता था। एकदा यज्ञानुयायी ब्राह्मणों के आदेश से जितशत्रु गजा ने तीन कम छ सौ ( ५९७ ) बकरों को यज्ञ में हवन कर दिया । अन्तिम दिवस वे ब्राह्मण एक सुंदर अश्व का होम करने के लिये श्राश्वको वहां लाये । तत्समीपस्थ रेवा नदी के दर्शन से उस अश्व को पूर्व भव का ज्ञान ( जातिस्मरण ) होगया। इतने में उस अश्व को अपने पूर्व भव का मित्र जानकर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी ने एक ही रात्रि में १२० गउ चल कर मार्गस्थ सिद्धपुर में क्षण भर विश्रान्ति ले प्रतिष्ठान नाम के नगर से भृगुपुर में पदार्पण किथा । तीस हजार मुनियों से घेरे हुए प्रभु मुनिसुव्रत ने कोरंटक नाम के बाह्य उद्यान में एक आम्रवृक्ष के नीचे समवसरण किया। उनको सर्वज्ञ समझकर राजा जितशत्रु आदि अश्व सहित वहां आया और प्रभु को यज्ञ का फल पूछा । भगवान ने फरमाया-"राजन ! प्राणियों के वध से तो निश्चित ही नरक की प्राप्ति होती है।" इधर पूर्व भव के स्नेह वश भगवान के दर्शन से अश्व के लोचनों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी उसके पश्चात् जिनेश्वर देवने राजा के समक्ष उनको प्रतिबोध देते हुए फरमाया-हे अश्व ! तेरा पूर्व भव सुन और हे सुज्ञ ! सावधान होकर प्रतिबोध को प्राप्त कर । पहिले इस नगर में समुद्रदत्त नामका एक जैन व्यापारी रहता था। उसने सागरपोत नाम के अपने मिथ्यादृष्टि मित्र को जीवदया प्रधान जैनधर्म का उपदेश देकर प्रतिबोध दिया। इससे वह बारहव्रत धारी आचार्य विजयसिंहसरि ११०७ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] | ओसवाल सं० ११७८-१२३७ -ramanad श्रावक होकर शनैः २ सुकृत का पात्र हुआ। एक समय पूर्व जन्मोपार्जित कर्मों के उदय से उसे क्षय रोग हुआ तब उसके कोटम्बिक लोग कहने लगे कि-"अपने स्वधर्म का त्याग कर अन्य धर्म स्वीकार करने से ही इसको क्षय रोग हुआ है।" यह सुन कर व्याधिप्रस्त सागरपोत के धर्म भावना में शंकाशील होने से पूर्वा पेक्षा श्रद्धा में हानि होने लगी। वास्तव में अपने सम्बन्धियों के वचनों की ओर कौन आकर्षित नहीं होता ? एकदा उत्तरायण पर्व में लिंग-महोत्सव के निमित्त अतिथि, ब्राह्मणों के लिये पुष्कल घृत घट ले जाने में आरहे थे पर असावधानी के कारण बहुत से घृत बिन्दु मार्ग में डाल देने में आये । यह देखकर सागरपोत ने उस धर्म की निदा की जिससे निर्दय ब्राह्मणों ने लकड़ी और मुष्टि प्रहार से उसको मारा । सेवकों ने तो नृशंसतापूर्वक अनेक प्रकार के प्रहारों से आघात शील किया। उसके पश्चात् उस पर दया भाव लाकर अन्य लोगों ने जाने दिया । वहां आर्तध्यान से मृत्यु को प्राप्त होकर सैंकड़ों तिर्यञ्च के भवों में परिभ्रमण कर तू अश्व के रूप में हुआ है। अहो ! अब मेरे पूर्व भव को सुन । पूर्व चन्द्रपुर में बोधिबीज (सम्यक्त्वे की प्राप्ति) होने के पश्चात् सातवें भव में मैं श्रीवर्मा नाम का विख्यात राजा हुा । वे भव इस प्रकार जानने चाहिये प्रथम-शिवकेतु दूसरा-सौधर्म देवलोक में तीसरा कुबेरदत्त, चौथा-सनत्कुमार देव में, पांचवां श्रीवज्रकुण्डल में, छट्ठा ब्रह्म देवलोक में सातवां श्रीवर्मा आठवां प्राणत देवलोक में और नवां यह तीर्थकर का भव, इस प्रकार संक्षेप में अपने नव भवों को बतलाये । ___अब समुद्रदत्त व्यापारिक नगर भृगुपुर से किराने वगैरह की सामग्री लेकर वाहनों से समस्त लक्ष्मी के स्थान रूप चंद्रपुर में आया। वहां के राजा को अमूल्य भेंट देकर संतुष्ट किया । राजाने भी दान सम्मान से संतोष प्रगट किया । पश्चात् राजा की कृपा बढ़ने से और साधु जनों का आदर सत्कार करने से जिनधर्म पर उसका अनुराग बढ़ने लगा और गजा को भी क्रमशः जैनधर्म का बोध हो गया । वहां आये हुए उसके मित्र सागरपोत के साथ भी समान बोध के कारण राजा की मित्रता होगई। अन्त में समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त कर श्री वर्मा राजा प्रणत देवलोक में महाढिवाला देव हुश्रा । वहां से चवकर वह मैं वर्तमान क्षेत्र में तीर्थकर हुआ हूँ। इस तरह भगवान् के मुख से कर्म कथा सुन कर राजाने अश्व को छोड़ देने की अनुमति दी और उसने सात दिन का अनशन किया । समाधि से मृत्यु को प्राप्त होकर सहस्र देवलोक में सत्तर सागरोपम की आयुष्यवाला इन्द्र का सामानिक देव हुआ। वहां दिव्य सुख भोगवता हुआ उसने अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव का स्मरण किया और भृगुपुर में सादा बारह कोटि स्वर्ण की दृष्टि की । इसके साथ ही राजा और नगर के नागरिकों को जिन धर्म का प्रतिबोध दिलवाया। उसी समय सुकृत शाली ऐसे माहमहीने की पूर्णिमा को स्वर्ण रत्न मय श्रीमुनिसुव्रत स्वामी के चैत्च की स्थापना की माघशुक्ला प्रतिपदा के दिन भगवन् अश्वरत्न को बोध करने आये और उसी मास की शुक्ल अष्टमी को वह अश्व देवलोक में गया । इस प्रकार नर्मदा के किनारे पर मृगुकम्छ पत्तन में समस्त तीर्थों में श्रेष्ट ऐसे अश्वाववोध नामका पवित्र तीर्थप्रवर्तमान हुआ । मुनिसुव्रतस्वामी से बारह हजार बारह वर्ष व्यतीत होने पर पद्मचक्रवर्ती ने इसका पुनरुद्धार किया । हरिसेन चक्रवर्ती ने फिर से इस तीर्थका दशवां उद्धार करवाया । इस प्रकार पांच लाख और ग्यारह हजार वर्ष व्यतीत हो गये । ९६ हजार वर्षों में इसके १०० उद्धार हुए । इसके पश्चात् सुदर्शना ने इसका उद्धार करवाया, इसको उत्पत्ति इस प्रकार हैभरोंच में मुनिसुव्रत तीर्थ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७) [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वैतादय पर्वत पर एक रथनुपुर चक्रवाल नामके नगर में विजयरथ नाम का राजा राज्य करता था। विजयमाला नाम की उनके रानी थी । विजया नाम की उनके एक पुत्र थी । वह तीर्थों का वंदन करने चली इतने में आगे उतरता हुआ एक सांप उसके देखने में आया इसके साथ में आने वाला पैदल वर्ग अपशकुन समझ कर उसको मारने लगे। अज्ञानता से इस जीव के वध को नहीं रोकती हुई विजया ने भी इसकी उपेक्षा की। पीछे शान्तिनाथ तीर्थ में जाकर उसने भाव से भगवान को वंदन किया। उसी आयतन में एक परम निष्ठ चारित्र वाली विद्या चारण साध्वीजी को वंदन करके विजया सर्प वध की उपेक्षा का पश्चाताप करने लगी। इससे उसने थोड़े कर्म पुद्गलो का क्षय किया। अन्त में वह अपने गृह एवं धन के मोहसे आर्तध्यान करती हुई मृत्यु की प्राप्त हो शकुनि के रूप में पैदा हुई और वह सर्प मृत्यू को प्राप्त होकर शिकरी हुआ। ___ एकदा भाद्रपद में बहुत दिनों तक वरसाद हुई बाद वह शकुनि ( पक्षिणी ) क्षुधातुर हो अपने . सात बच्चों व स्वयं के लिये खाद्य सामग्री का शोधन करती हुई उस शिकारी के घर गई। वहां से उसने एक मांस का टुकड़ा अपनी चोंच से उठाया । पश्चात् उड़कर आकाश में जाती हुई उसको शिकार ने तीक्ष्ण बाण छोड़ कर घायल किया। इससे वह श्रीमुनिसुव्रतस्वामी के चैत्य के सम्मुख गिर पड़ी लगभग मरने के छोर पर वह आगई । इतने में पुण्य योग से भानु और भूषण नाम के दो साधु वहां आ गये । उन्होंने दया लाकर जल सिन्चन से उसको आश्वासन दिया और पञ्च परमेष्ठी रूप महा मंत्र सुनाया । इस तरह तीर्थ के ध्यान में लीन हुई शकुनि दो प्रहर में मृत्यु को प्राप्त हुई । ___सागर के किनारे पर दक्षिण खंड में सिंहल नामक द्वीप था । वहां कामदेव के समान रूपवान चन्द्र शेखर नाम का राजा राज्य करता था। रूप में रति के समान चंद्रकांता नामक उसके रानी थी। शकुनि मर कर चंद्रकांता रानी की कुक्षि से सुदर्शना नाम की पुत्री हुई। एक दिन मृगुपुर से वाहन लेकर जिनदास नाम का सार्थवाह वहां आया। उसने रत्नादि अमूल्य भेट राजा को अर्पण की । उसमें से सहज ही में चूर्ण उड़ा वह समीपस्थ वाणिक के नाक में गया और उसे स्वा भाविक छीक आगई । तत्काल ही उसने महाप्रभावक पञ्जपरमेष्ठी मन्त्र का उच्चारण किया जिसको सुनकर राजपुत्री को मूर्छा आगई और उसको तत्क्षण पूर्व जन्म का स्मरण होगया । राजा के द्वारा पूछने पर उसने अपने पूर्वभव का वृत्तान्त पिता को कह सुनाया। तदनन्तर तीर्थ वंदन के लिये उत्कंठित हुई राजपुत्री ने अत्याग्रह से पिता की अनुज्ञामांगी पर राजा ने उसको जाने की अनुमति नहीं प्रदान की । इससे उसने अनशन करने की प्रतिज्ञा ले लो । बस. अन्योपाय न होने से अतिवल्लभ होने पर भी अपनी पुत्री को राजा ने जिनदास सार्थवाह के साथ जाने की आज्ञा दे दी । अठारह सखियां, सोलह हजार पैदल सिपाही, मणि, कांच रजत, मोतियों से भरे हुए अठारह वाहन, आठ कंचूकी तथा आठ अंगरक्षकों के परिवार को साथ देकर उसको बिदा किया। उपवास करते हुए जिनदास के साथ वह राज सुता एकमास में उसतीर्थ स्थान पर आई। वहां मुनिसुव्रतस्वामी को वंदन करके महोत्सव किया। तदन्तर अपने उपकारी भानु और भूषण मुनियों को वंदन करके कृतज्ञता के साथ अपने साथ लाया हुआ सब धन उनके सामने रख दिया। निःसंगपने से और भव विरक्त पने से इसका इन्होंने निषेध किया तब कनक और रत्नों के बल से उसने उसजीर्ण तीर्थ का उद्धार किया। तब ही से वह तीर्थ शकुनिका-विहार नाम से प्रसिद्ध हुआ पश्चात् बारह वर्ष तक दुष्कर तप का आचारण कर समाधि पूर्वक अनशन व्रत के साथ काल कर दर्शना नाम की देवी हुई । एक लक्ष देवियों के साथ रहते जिज्ञदास व्यापारी की मेट Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ हुए देवी दर्शना की एक बिद्यादेवी के साथ मित्रता हो गई । पूर्व भव का स्मरण कर वह जिनेन्द्रदेव की पुष्पादि से पूजा करने लगों । उसी नगर में उसकी अठारह सखियां मर कर देवियां हुई अतः सबके साथ महाविदेह जिन एवं नंदीश्वर द्वीप में जिन-प्रतिमा की भावपूर्वक पूजा कर अपने देव भव को सफल बनाने लगी। एक दिन वह देवी भगवान महावीर को वंदन करने आई और भक्तिपूर्ण कई प्रकार का नाटक किये बाद में गणधर सौधर्म ने देवी का पूर्वभव पूछा और भगवान् सम्पूर्ण पूर्व भव कह सुनाया। विशेष में प्रनु ने कहा यह देवी तीसरे भव मोक्ष को प्राप्त करेगी । यह भरोंच नगर जो सकुशल रहा है वह, इस देवी की कृपा से ही रहा है। देवी प्रतिदिन जिन पूजा के लिये तमाम सुगन्धित पुष्य ले आती थी इससे अन्य लोगोंको देवार्चना के लिये पुष्प नहीं मिलता था तब श्रीसंध ने श्रार्य सुहस्तिसूरिके शिष्य कालहससूरि से विज्ञप्ति कर इसका समाधान करवाया। बाद में सम्राट सम्प्रति ने इसका जीर्णोद्धार करवाया उसमें उपद्रव करने वाले व्यन्तर को गुणसुन्दर सूरिके शिष्य काल काचार्य ने रोका । वादमें सिद्धसेन दिवाकर के उपदेश से राजा विक्रम ने भी इसका पुनरुद्धार करवाया। वीरात् ४८४ वर्ष में आर्य खपटसूरि ने व्यंतरों तथा बौद्धों से इस तीर्थ की रक्षा की। वीरात् ८४५ वर्ष में तुर्कों ने वल्लभी का भंग किया बाद में वे भरोंच श्राने लगे तो देवी ने उनको रोका। बाद में ८८४ वर्ष में मल्लवादी ने भी बौद्धों एवं व्यन्तरों से इस तीर्थ की रक्षा की। आपके उपदेश से सत्यवाहन राजने इस तीर्थ की रक्षा की और पादलिप्त सूरिने ध्वजाप्रतिष्ठा की। आर्य खपटसरि के वंश में ही प्रस्तुत प्राचार्य विजयसिंहसूरी हुए जो यमनियमादि उत्तम गुणों से स्वपर आत्मा के कल्याण करने में समर्थ हुए। आचार्य विजयसिंहसूरि ने शत्रुजय गिरनार को यात्रार्थ सौराष्ट्र में विहार किया और धीरे २ गिरनार पर चढ़े वहां तीर्थ रक्षिका अम्बा नाम की देवी थी प्रसङ्गोपात उसका चरित्र यहां लिखा जाता है ? कणाद् मुनि स्थापित कासहृद नाम के नगर में सर्वदेव नाम का एक ब्राह्मम था। सत्य देवी नाम की उसकी पत्नी थी। अम्बादेवी नामक इनके आत्मजा थी युवावस्था के प्राप्त होने पर सोमभट्ट नामक कोटि नगरी निवासी ब्राह्मण के साथ उसका लग्न हुआ था। कालन्तर में इनके विभाकर शुभंकर नाम के दो पुत्र हुए। एक समय भगवान् नेमिनाथ के शिष्य सौधर्मसूरिके आज्ञानुयायी दो मुनि अम्बादेवी के घर पर भिक्षा के लिये आये । अम्बादेवी ने उनको शुद्ध श्राहार पानी प्रदान कर लाभ लिग । यह बात जब सोमभट्ट के कान पर आई तो उसने अम्बादेवी के साथ खूब मारपीट की बस, वह अपने दोनों बच्चों को लेकर गिरनार पर आई और नेमिनाथ को वन्दन कर झपापात कर के मरगई । मरकर वह अम्बिका नाम की देवी होगई । इधर उसके पति का क्रोध शान्त होने पर उसको अपने किये हुए अकृत्वपर बहुत ही पश्चाताप होने लगा बस, वह भी चल कर गिरनार आया और भगवान् नेमिनाथ को वंदन कर एक कुण्ड में मम्पापात करके मर गया। वह अम्बिका देवी की सवारी में सिंह देव पने उत्पन्न हुआ। बिजयसिंह सूरि तीर्थ यात्रा कर प्रभु के ध्यान में संलग्न हो गये। रात्रि में अम्बिका देबी गुरु को वंदन करने आई । गुमने कहा-- तू पूर्व भव में विप्र-पत्नी थी तेरे पति के द्वारा पराभव को प्राप्त हुई तू मर करके देवी हुई और तेरे पति की भी यही दशा हुई है वह मर कर तेरी सवारी के लिये सिंह देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। राजपुत्री सुदर्शन की यात्रा ११९७ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ) [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी के बचन सुनकर देवी ने संतुष्ट होकर प्रार्थना क-प्रभों मुझे कुछ अाज्ञाफरमाकर कृतार्थ कीजिये । सूरिने कहा- हम निस्पृहियों से क्या कार्य हो सकता है ? सूरिजी की इस अनुपम निस्पृहता से प्रसन्न हो देवी ने चिन्तितकार्य को पूर्ण करनेवाली गुटिका देते हुए कहा-भों ! इसको मुंह में रखने से दृष्टि अगोचर; आकाश गमन, रूपान्तर, कविता की लब्धि, विषाय हरण, और अपनी इच्छानुसार लघुता गुरुता को प्राप्त होके रूप गुणों की प्राप्ति होती है । मुंह से निकाल देने पर पुनः उसी रूप में मनुष्य हो जाता है । गुरु की इच्छा न होने पर भी देवी उनको अर्पण करके चली गई। सूरिजी ने गुटिका को मुंह में रख कर सबसे पहिले "नेमिः समाहितधियो" इत्यादि अमर वाक्ये से भ० नेमिनाथ की स्तवना की। बाद में वहां से रवाना हो आप भृगुपुर पधारे। श्रीसंघ ने आपका स्वागतमहोत्सव किया । एक समय अंकुलेश्वर नगर में जलता हुआ वांस भगुपुर में उड़ता हुआ श्राया जिससे एक मुनि सुव्रत के बिम्ब के सिवाय तमाम मूर्तियां, चैत्य और नगर जलकर भस्म होगये तब सूरिजी ने मुंह में गुटिका डाल कर पांच सहस्त्र दीनारे एकत्रित की और पुःन चैत्यों का उद्धार कर वाया। इस प्रकार विजयसिंहसूरिने उस देवदत्त गुटका के महाप्रभाव से जैनशासन के अनेक प्रभाविक कार्य कर के जैनधर्म की महान प्रभावना की अतः जैनधर्म के महान प्रभाविक आचार्यों में श्रापश्री की गणना की जा सकती है और ऐसे ऐसे महाप्रभाविक श्राचार्यों से ही जैन शासन जयवंता वर्त रहा है-। अन्त में अनसन समाधि एवं पञ्च परमेष्टि के स्मरण पूर्वक आप स्वर्ग पधार गये । प्रबन्धकार लिखते हैं कि आपश्री के वंश रूप सरोवर में प्रभावक आचार्य रूप कमल अद्यावधि विद्यमान हैं। प्राचार्य कीरसूरि इतिहास प्रसिद्ध श्रीमाल नामके नगर में परमार वंशीय धूम्रराजा की वंश परम्परा में देवराज नामका विख्यात राजा राज्य करता था। उसी नगर में शिवनाग नाम का एक धन वेश्रमण श्रेष्टी रहता था। उसने श्रीधरणेन्द्र नाम के नाग की आराधना की जिससे सन्तुष्ट हो देव ने उसको एक मन्त्र अर्पण किया जो सर्व कार्य की सिद्धि करने वाला था। शिवनाग के पूर्णलता नाम की स्त्री थी जो गृह कार्य कुराला, सर्व कला कोविदा थी। शिवनाग के वीर नाम का एक बड़ा ही भव्य होनहार एवं तेजस्वी पुत्र था। उसके मनमोहक रूप लावण्य एवं गुणों की राशि से मुग्ध हो सात श्रेष्टियों ने अपनी कन्याओं का विवाह वीर के साथ कर दिया। श्रेष्टी पर लक्ष्मी की पूर्ण कृपा थी। उसके मकान पर कोट्याधीश की निशानी रूप ध्वजाएं फरक रही थी। वीर के पिता की मृत्यु के पश्चात् बीर ने सत्यपुर जाकर पर्व दिनों में श्रीमहावीर प्रभु की यात्रा करने की प्रतिज्ञा की थी। इस बात को कई अर्सा व्यतीत हो गया। एक दिन वीर सत्यपुर जाकर वापिस पारहा था कि मार्ग में उसको चोर मिले । उस समय उसके साथ उसका साला भी था । वह जल्दी ही चोरों से बच*सा निःस्पृहत्व तुरटा. विशेषतस्तानु वाच बहुमानात् । गुटिकां गृहीतविभो ! चिन्तित कार्यस्व सिद्धिकरीम् ॥११५॥ चक्षुरदृश्यो गगने चरश्च रूपान्तराणि कर्ताच । कविता लब्धि प्रकटो विषहृद् वद्धस्य मोक्षकर : ॥१६॥ भवति जनो लगुरुधुता प्रपद्यते स्वेच्छया तथावश्यम् । भनया मुखे निहितया विकृष्टया तदनु सहज तनुः ॥११॥ ११९८ आचार्य वीर सूरि का चसत्कार Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७-१२३७ कर श्रीमाल नगर चला आया। जब वीर की माता ने वीर का वृत्तान्त पूछा तो साले ने कहा-वीर नाम धराने वाले तुम्हारे वीर को चोरों ने मार डाला है । बस, इतना सुनतेही पुत्र वियोग से दुःखी हो माता ने तत्काल प्राण छोड़ दिये बाद में वीर घर पर आया पर अपनी माता की मृत्यु देख उसको वैराग्य पैदा हो गया। एक एक कोटि द्रव्य एक एक स्त्री को देकर अवशिष्ट द्रव्य शुभ क्षेत्र में लगा श्राप निस्पृहीकी भांति सत्यपुरमें जाकर बीर भगवान की भक्ति में सलंग्न हो गये । वहां श्राठ उपवास किये व चार प्रकार के पोषधका प्रामुक भोजन करने लगे। रात्री के समय तो स्मशान में जाकर के ध्यान संलग्न करने में होने लगे। एक दिन सायंकाल के समय वीर, नगर से बाहिर जारहा था कि जंगगकल्पतरू मुनि श्रीविमलगणि से उनकी भेंट हो गई । मुनि वयं श्रीविमलगणि, शत्रुञ्जय जाने के लिये वहां आये थे। वीर ने मुनिराज को सम्मुख देख विनय पूर्वक वंदन किया तब गणिजी ने कहा-महानुभाव ! मैं तुमको अंगविद्या देने की उरण्ठा से ही यहां आया हूँ । गणिजी के उक्त वचनों को सुनकर वीर ने अपना अहोभाग्य समझा और वह गणिजी को अपने उपाश्रय मे ले गया व रातभर उनकी सेवा की। गणिजी ने वीर को दीक्षा देकर तीन दिन अङ्ग की विद्या आम्नाय सिखलाई और कहा थागपद्रनगर के ऋषभप्रसाद में अंगविद्या प्रन्थ है जिसको तू धारण करके सपरात्मा का कल्याण करना । उतना कह वह विमलगणिजी ने शत्रुजय की और पदार्पण किया व कुछ दिनों के पश्चात् अनशन पूर्वक समाधि के साथ स्वर्ग के अतिथि हो गये। मुनि वीर गुर्वादेशानुसार थारा. पद्रनगर में गया और प्रन्थ को प्राप्त कर अंगविद्या का अध्ययन किया । पश्चात् तप तपने में शूरवीर मुनिवीर ने पाटण की और विहार किया । मार्गमें थीगग्राम के वल्लभीनाथ नाम व्यंतर के वहां आप ठहरे । रात्रि के समय व्यंतरने विकराल हस्ति एवं कर सर्पादि के रूप कर मुनिवीर को उपसर्ग किया पर वीर तो वीर ही थे। वे मेरु की भांति सर्वथा अकम्प रहे। इससे सन्तुष्ट होकर मुनिवीर को व्यन्तर ने नमस्कार किया और कहा-आप को कुछ चाहें मेरे से मांग सकते हैं ! मुनिवीर ने जीव रक्षा के लिये कहा जिसको व्यंतर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उस समय पाटण में चामुण्ड राजा राज्य करता था। व्यन्तर ने गजा को बुला कर जीव दया के लिये कहा जिस को राजा ने सहर्ष स्वीकार कर वैसा करने का वचन दे दिया । बाद में मुनि वीर अगाहिल्लपाटण पधारे वहां बहुत से भव्योंको उपदेश देकर उनका उद्धार किया । पाटण में श्रीवर्द्धमानसूरि बिराजमान थे। उन्होंने वीरमुनि की योग्यता देख उनको आचार्य पद प्रेदान किया। इसके पश्चात् वल्लभीनाथ व्यन्तर प्रत्यक्ष बैठकर वीर सूरि का व्याख्यान सुनने लगा पर उसकी क्रीड़ामय प्रवृत्ति रुक न सकी। अपनी स्वाभाविक आदत के अनुसार वह मनुष्यों के शरीर में प्रवेश कर क्रीड़ा करने लगा जिससे जन समुदाय में वैचेनी फैलगई । वीरसूरि ने व्यन्तरको उपदेश देकर उसको इस कार्य से रोका और लोगों को सुखी बनाया' 8 उक्स्वेति कंटिमेंरेका कलत्रेभ्याः प्रदाय सः। गस्वा सत्यपुरे श्रीमद्वीर माराधयन्मुदा ॥ २९॥ चारित्रमिय मूर्तिस्थं मथुराया समागतम् । स वर्षः तदेशीयमपश्यद विमलं गणिम् ॥ ३४ ॥ गणिः प्राहातिथिस्तेऽहम विद्योपदेशत: मिलित्वा ते स्वकालाय यामि शनब्जये गिरौ॥ ३८ ॥ तदार्थ ज्ञापयिष्यामि शीघ्र तत्पुस्तकं पुनः । थारापदपुरे श्रीमान्नाभेयस्य जिनेशितुः ॥ ४५ ॥ चैत्यस्यशुकनासेऽस्तितं गृहीत्वा च वाचयेः । इत्युक्त्वाऽदात् परिवज्यां गुरुवरस्य सादरम् ॥ ४६ ॥ विमल गणी की अंग विद्या ११९९ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एक दिन वीरसूरि ने व्यन्तर से पूछा क्या अष्टापद तीर्थ जाने की तुम्हारी शक्ति है ? व्यन्तन ने कहा- हाँ, अष्टापद जाने की तो मेरी शक्ति है पर वहां के व्यतरों के तप तेज के सम्मुख मैं ज्यादा ठहर नहीं सकता हूँ । यदि मैं आपको श्रष्टापद ले जाऊं तों आप एक प्रहर से अधिक वहां ठहर नहीं सकेंगे। अगर आप अधिक ठहर गये और मैं वहां से लौट आया तो आप वापिस नहीं सकेंगे । वीरसूरि ने व्यन्तर का कहना स्वीकार कर लिया तब व्यन्तर ने एक धवल वृषभ का रूप बना कर वीर सूरि को अपनी पीठ पर बिठाया | वीरसूरि ने अपना मस्तक वस्त्र से अच्छादित कर लिया, पश्चात् वृपभ आकाश में गमन करता हुआ क्षणभर में अष्टापद तीर्थ पर पहुँच गया । चैत्य के द्वार के पास मुनि को नीचे उतार दिया पर वहां के देवों के चमत्कार को सहन नहीं करने वाले वीर सूरि एक पुत्तलिका के पीछे छिप कर बैठ गये । तीन ठाऊं ऊंचे और एक योजन विस्तीर्ण भरतचक्रवर्ती से करवाये हुए मनोहर चारद्वार एवं वर्ण, अवगाहना युक्त वन चैत्यों में वीरसूरि ने नमस्कार स्तुति कर सब प्रतिमाओं को भाव से प्रणाम किया और बाद में शासन की प्रभावना बढ़ाने के उद्देश्य से देवताओं के द्वारा चढ़ाये हुए पांच सात चावल ले लिये और वृषभ की पीठ पर बैठ कर वापिस चले आये। इन सुगन्धमय चांवलों से सूरिजी का उपाश्रय सुगन्धमय हो गया । वह ऐसा मालूम होने लगा जैसे स्वर्ग भवन हो । रात्रि के प्रथम प्रहर में यात्रार्थ गये हुए सूरिजी दूसरे प्रहर की घड़ी रात्रि व्यतीत होने पर वापिस स्वस्थान पर लौट आये । जब उपाश्रय अनुपम सुरभि से सुरभित होगया तो प्रातःकाल शिष्यों ने इसका कारण पूछा । आचार्यश्री ने यात्रा का सब हाल यथावत् कह दिया । क्रमशः फैलते २ यह बात संघ को मालूम हुई और संघ के द्वारा राजा को । इस आश्चर्यकारी घटना को सुन कर राजा ध के साथ सूरिजी के पास श्राया और यात्रा का हाल पूछने लगा । इस पर आचार्यश्री ने कहा बेधला वे सामला बेरतुप्पल वन्न | मरगयवन्ना दुन्नि जिय सोलस कंचन वण्ण ॥ १ ॥ नियनियमाणिहिंकारविय, भरहि जि नयणाणंद | तेमइ भावीहिं वंदिया एचवीस जिणंद || २ || अर्थात् - दो श्वेत, दो श्याम, दो हरे, दो लाल और सौलह स्वर्णमय वर्णवाले अपने २ वर्ण प्रमाण वाले चौबीस तीर्थंकरों को मैंने भाव युक्त वंदन किया है। राजा ने कहा- ये तो आपके इष्ट देव हैं अतः आप इनका सब वृत्तान्त कह सकते हो पर जन १२०० के उद्याच प्रभुरानन्दात् तवसामर्थ्य मस्ति, किम्, अष्टापद चले गन्तुं श्री जैन मनोन्नते ॥ ११४॥ स देवः प्राह शाक्तिर्नो गन्तु नावस्थितौ पुनः, तत्र सन्ति यतः सुरे । व्यन्तेरन्द्रा महाबलाः ॥ ११५ ॥ अवस्थातुं न शक्नोमि तत्तेजः सोदुमक्षमः । याममेकं स्ववस्थास्ये चल चेत् कोतुकं तब ॥ ११६ ॥ X X x X X राजाह स्वेष्ट देवानां स्वरूप कथने वा । नास्ति प्रतितिरस्माक मन्यात् किमपि कथ्यताम् ॥ १३१ ॥ अक्षतान् दर्शयामास निः सामान्य गुणोदयान् । वर्णैः सौरभ विस्तरैर पूर्वान् मानव ब्रजे ॥ १३२ ॥ ते द्वादशागु लायामा अंगुलं विण्ड विस्तरे । अवेष्टयंन्त सुवर्णेन महीपालेन ते ततः ॥१३३॥ पूर्व तुरुष्क भंगस्य तेऽभुवंस्तदुपाश्रये अपूज्यन्त च सङ्घेनष्टापद प्रतिबिंबवत् ॥ १३४ ॥ एवं चातिशयैः सम्यक् सामान्य जन दुस्तरैः । श्रीमान् वीरगणि. सूरिर्विश्व पूज्यस्तदाऽभवत् ॥ १३५॥ आचार्य वीरसूरि की अष्टापद यात्रा Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ समाज के विश्वास योग्य किसी पदार्थ से खातरी करवाइये । इस पर सूरिजी ने वहां से लाये हुए देवताओं के चावलों को जो बारह अंगुल लम्बे और एक अंगुल के जाड़े थे— बतलाये । इससे राजा एवं सकल श्रीसंघ को विश्वास हो गया कि सूरिजी ने अष्टापद तीर्थ की यात्रा अवश्य की है। एक दिन राजाने अपने मन्त्री वीर को कहा - वीर ! मैं न्याय से राज्य चलाता हूँ, पण्डितों को श्राश्रय देता हूँ, और वचन सिद्ध वीर सूरि जैसे तुम्हारे गुरू के होने पर भी एक चिन्ता मुझे सन्तप्तकर रही है । मन्त्री ने कहा- राजन् ! मैं आपका सेवक हूँ, आप जो हो मुझे कहें, मैं उसका उचित उपाय करूंगा । राजा ने कहा- मंत्री ! इतनी रानियों के होने पर भी मेरे पुत्र नहीं, इसी की मुझे चिन्ता है । यह सुन कर मन्त्री ने वीरसूरि को कहा और वीरसूरि ने वासक्षेप दिया जिससे राजा के वल्लभ नाम का पुत्र हुआ । एक समय वीरसूरि अष्टादशसति देश के डांबराणी ग्राम में पधारे। वहां उपाश्रय में ठहर कर सायंकाल को श्मशान में ध्यान के लिये जाने लगे तो एक राजपुत्र ने सूरिजी से कहा - भगवन ! यहां सप का बहुत भय है अतः, आप वहां न पधारें। सूरिजी ने कहा- भव्य ! मुनि तो जंगल में ही ध्यान करते हैं । इस पर राजपुत्र अपने मकान पर जाकर चिन्ता मग्न हो गया । उसी समय राजपुत्र के जम्बुफल की भेंट आई। उसने एक जम्बु खाने के लिये लिया पर उसमें सुक्ष्म जन्तु दृष्टिगोचर हुए। जीवों को देख कर वे विचार करने लगे कि दिन में भी इसमें इतने जीव मालूम होते हैं, तब रात्रि भोजन करने वालों का क्या हाल होता होगा ? वह तत्काल ब्राह्मणों के पास जाकर उसका प्रायश्चित मांगने लगा तो ब्राह्मणों ने कहा- आप स्वर्ण जन्तु बना कर ब्राह्मणों को दान करें जिससे पाप स्वयमेव नष्ट हो जायगा । इस प्रकार सुन कर राजपुत्र ने सोचा कि यह कैसा धर्म और यह कैसा प्रायश्चित ? एक जन्तु तो मर गया फिर दूसरा स्वर्ण जन्तु बना कर इनकी उदर पूर्ति करने से आत्म शुद्ध होना नितान्त असम्भव है । राजपुत्र की श्रद्धा उन लोभी ब्राह्मणों से उतर गई । पश्चात् उसने तत्काल जैन मुनि को अपना सब हाल कहा तो मुनियों ने उसको धर्म का स्वरूप इस तरह समझाया कि उसने तत्काल ही भगवती जैन दीक्षा स्वीकार कर ली । 1 आचार्य वीरसूरि ने जैनशासन की बहुत ही प्रभावना की । अन्त में आपने अपने पट्ट पर श्रीभद्र मुनि को रूढ़ कर वि० सं० ९९१ में अनशन के साथ समाधि पूर्वक स्वर्गारोहण किया । आपश्री का जन्म वि० सं० ९३८ में हुआ और दीक्षा ९८० में, स्वर्गवास वि० सं० ९९१ में हुआ । इस प्रकार जैन शासन के प्रभावक श्राचायों में वीरसूरि भी मन्त्र- प्रभावक श्राचार्य हुए। ऐसे आचार्यश्री के चरण कमलों में बारम्बार नमस्कार हो । प्राचार्य श्रीवीरसूरिः ( २ ) ऊपर आचार्य श्रीसिद्धसूरी की स्पर्धा में वीरसूरि का उ लेख किया गया है । आप भावहड़ा गच्छ के आचार्य थे । आपके पूर्व श्राचार्य भावदेवसूरि के नाम से इस गच्छ का नाम भावहड़ा गच्छ हुआ था । इनके पूर्व के आचार्य पंडिल गच्छ के नाम से मशहूर थे । भावहड़ा गच्छ के संस्थापक तीसरे श्रीभावदेवसूरि ने स्वरचित पार्श्वनाथ चरित्र में अपने को कालकाचार्य की सन्तान बतलाया है । उस प्रन्थ की प्रशस्ती में देवेन्द्रवंद्य कालकाचार्य के वंश में पंडिलगच्छ की उत्पत्ति होने का लिखा है । इस गच्छ के कई आचार्य श्रपने आचार्य वीरः Jain Education Internal १२०१ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को चन्द्रकुलोत्पन्न भी मानते हैं। जब चंद्रकुल कोटिकगण की शाखा में हुआ है तब देवेन्द्रवंद्य शालकाचार्य कोटिक गण से बिलकुल अलग हैं। सुमति नागल की चौपाई में ब्रह्मर्षि नाम के मुनि ने लिखा है कि पंडिलगच्छ के कालकाचार्य वीरात् ९९३ वर्ष में हुए हैं । यदि यह सत्य है तो वीर संवत् ९९३ के कालकाचार्य चंद्रकुल में हुए हैं। अतः पंडिलगच्छ विक्रम की छट्टी शताब्दी जितना पुराना गच्छ कहा जा सकता है। इसी पंडिलगच्छ में भावदेवसूरि हुए और उनके नाम से भावहड़ा गच्छ प्रचलित हुआ। जैसे उपकेशगच्छ, कोरंटगच्छ में पांच नाम, पल्लीवाल गच्छ में सात नाम, वायटगच्छ में तीन नाम से गुरु परम्परावली चली आ रही है वैसे भावहड़ागच्छ में भी भावदेवसूरि, विजयसिंहसूरि वीरसरि और जिनदेवसूर इन चार नाम से गुरु परम्परा चली आ रही है । भावहड़ागच्छ में वीरसूरि नामकेकई प्राचार्यहो गए हैं पर प्रस्तुत वीरसूरि पाटण के राजा सिद्धराज (जयसिंह) के समसामयिक वीरसूरिहुए इनका ही यहाँ वर्णन है । प्रस्तुत वीरसूरि महा प्रतिभाशाली आचार्य हुए थे । योग, समाधि, ध्यान, या मंत्र विद्या तो आपके हस्तामलक की भांति प्रत्यक्ष सिद्ध थी। शास्त्रार्थ में वादियों को पराजित करने में कुशल एवं सिद्धहस्त थे । विजय श्री सदैव आपके ही कण्ठाभरण बनती थी । आप चैत्यवासियों के अप्रगण्य नेता और सिद्धराज जयसिंह की राज सभा के एक सम्मानित पण्डित्त थे और हमेशा राजा के सहवास में रहते थे पर कहा है कि"अति परिचायदवज्ञा सतत गमनादनादरो भवति । मलयेभिल्लपुरंध्री चन्दन तरु कण्ठानिधनंकुरुते ॥" इस नीति के अनुसार राजा जयसिंह ने राज्यमद के स्वाभाविक अहंभाव से या उपहास की अनुचित चञ्चलता के आवेश में मुस्कराहट के साथ कह दिया कि "मित्र सूरिजी ! आपका इतना मान, सन्मान, प्रतिष्टा एवं आदर मेरे राज्याश्रय से ही होता है । यदि आप पाटण को छोड़ कर अन्य प्रान्त में चले जावें तो आपका एक निराधार भिक्षु जितना ही मान होगा" राजा के उक्त व्यङ्गपूर्ण वचनों को श्रवण कर मुख के आवेश को कृत्रिम हंसी में बदलते हुए सूरि जी ने कहा-इतने दिवस पर्यन्त मैं आपकी अनुमति की ही प्रतीक्षा कर रहा था, आज बिना प्रयत्न मुझे अनुमति मिल गई अतः मैं अब शीघ्र ही अन्यत्र प्रस्थान कर दूंगा। राजा को अपना उक्त अान्तरिकाभिप्राय बतलाकर वीरसूरि शीघ्र ही राज सभा से बिदा हो अपने उपाश्रय में आ गये । इधर राजा को अपने मुख से कहे हुए वचनों का रह २ कर पश्चाताप होने लगा। वह सोचने लगा कि-ये अन्य पण्डितों के समान लोभी या मिथ्याभिमान के पूतले नहीं है किन्तु परम निस्पृही महात्मा साधु हैं । मेरे अज्ञानता पूर्ण वचनों की अक्षम्य धृष्टता के कारण रुष्ट हो कर सूरिजी मेरे राज्य को छोड़ कर अन्यत्र चले गये तो अच्छा नहीं होगा अतः राजाने अपने नगर के चारों ओर दरवाजों पर आचार्यश्री को रोकने के लिये योग्य सिपाहियों को बैठा दिये । सूरिजी अपने योग बल से व आकाशगामिनी विद्या की शक्ति से पाटण छोड़ पाली नगर में मारवाड़) चले आये। दूसरे दिन राजा ने सूरिजी की खबर करवाई तो वे नहीं मिले । इधर पाली के ब्राह्मणों द्वारा मय तिथि, वार, नक्षत्र के आचार्यश्री के पाली में पदार्पण करने की सूचना राजा को मिल गई । राजा को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि सूरिजी एक ही दिन में ऐसे कठोर नियन्त्रण से निकल कर पाली जैसे सुदूर मरुधर प्रान्तीय क्षेत्र में कैसे चले गये ? राजा ने अपनी अज्ञानता पर बड़ा 8-अध्यात्म योगतः प्राण निरोधाद् गगना ध्वना । विद्या वलाच्च ते प्रापुः पुरीपल्लीति सज्ञयाः१५ १२०२ __ वीरसूरि को सिद्धराज का ताना Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ही पाश्चाताप किया और अपने प्रधान पुरुषों को सम्मान पूर्वक आचार्यश्री को पुन: पाटण में लाने के लिये भेजे । प्रधान पुरुषों ने वहाँ जाकर राजा की ओर से क्षमा याचना करते हुए पाटण में पधारने की प्रार्थना की तो प्रत्युत्तर में वीरसूरिजी ने संतोष देते हुए कहा-अभी तो मैं किन्हीं कारणों से आ नहीं सकता हूँ पर गुर्जर प्रान्त की ओर बिहार करने पर पाटण की स्पर्शन अवश्य हो करूगा । आचार्यश्री के उक्त प्रत्युत्तर को श्रवण कर प्रधान पुरुष पुनः वापिस लौट कर पाटण आये और गजा को सफल वृत्तांत कह सुनाया। राजा ने अपने गर्व एवं अज्ञानता पूर्ण उपहास का अान्तरिक हृदय से पाश्चाताप किया । श्रीवीरसूरि ने पाली से महाबौद्धपुर की ओर पदार्पण किया और तत्रस्थित बौद्धाचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित कर जिनधर्म की सुयश पताका फहरायी। वहाँ से ग्वालियर स्टेट में आये, वहाँ के राजा ने सूरिजी के प्रकाण्ड पाण्डित्य का बहुत ही सम्मान किया। सूरिजी ने अपनी अपूर्व विद्वता से वहाँ के कई वादियों को परास्त किया जिससे प्रसन्न हो राजा ने छत्र, चामर आदि राजचिन्ह दिये। वहाँ से सूरिजी नागपुर को पधारे । नागपुर श्रीसंघ ने आचार्यश्री का बड़ा ही शानदार स्वागत किया। इधर राजा जयसिंह की राजसभा वीराचार्य के अभाव में एकदम शून्यवत् दृष्टि गोचर होने लगी अतः राजा के अपने प्रधान पुरुषों को नागपुर भेजे और उन्होंने राजा की ओर से प्रार्थना की तो वीरसूरि ने ग्वालियर नरेश से प्राप्त राज चिह्नों को उनके साथ राजा सिद्धराज जयसिंह के पास भिजवा दिये। ( इसका तात्पर्य शायद राजा को यह मालूम कराना होगा कि जैनाचार्य तुम्हारी सभा में ही नहीं अपितु जहाँ जाते हैं वहाँ ही श्रादर पाते हैं ) कालान्तर में वीरसूरिजी ने क्रमशः गुर्जर प्रान्तीय चारूपनगर में पदार्पण किया। राजा जयसिंह भी सूरिजी के दर्शनार्थ चारूप पर्यन्त सम्मुख आया। सूरिजी के चरणों में मस्तक नमाकर अपने अपराध की क्षमा याचना व पाटण पधारने की प्रार्थना करने लगा। आचार्यश्री ने राजा की प्रार्थना को मान देकर पाटण में पदार्पण किया तो राजा ने इन्द्रवत् अपूर्वोत्साह से सूरिजी का पुर प्रवेश महोत्सव किया। पश्चात् राजा अपनेअपराध को विस्मृत करने के लिये प्रार्थना करने लगा-प्रभो ! मैंने तो केवल उपहास मात्र में ही आपश्री को उक्त अकथनीय वचन कहे थे जिसके परिणाम स्वरूप मुझे आपश्री को सेवा से इतने समय तक वञ्चित रहना पड़ा। गुरुदेव ! मैं महा पापी एवं अज्ञानी हूँ। आप उदार हृदय से मेरे इस अपराध के लिये क्षमा प्रदान करें। एकबार बादीहि नाम का सांख्य दार्शनिकवादी पाटण में आया। उसने पाटण में यह उद्घोषणा की कि कोई वादी मेरे साथ शास्त्रार्थ करना चाहे तो मैदान में आकर मेरे से शास्त्रार्थ करे। किसी ने भी वादी के सामने आने का साहस नहीं किया अतः राजा को बहुत अफसोस हुआ। वह तत्काल वेश परिवर्तन कर वीरसूरि के कला गुरु गोविन्दसूरि के पास गया। सांख्याचार्य से धर्म विवाद करने की प्रार्थना की तब गोविन्दसूरि ने कहा ...इसमें क्या ? हमारा वीराचार्य ही उसको परास्त कर देगा। सूरि के संतोष प्रदायक वचनों को सुनकर राजा ने प्रातः काल सांख्यार्य को अपनी राजसभा में आमन्त्रित किया पर गर्व के आवेश में आकर उसने राजा से कहलाया-यदि तुमको हमारा वचन विलास देखना हो तो तुम तुम्हारे पण्डितों - महाबोधपुरे बोद्धान् बादे जित्वा बकूनथ । गोपगिरी मागच्छन् राज्ञा तत्रापि पूजिताः ३१ -:--परप्रवद्विनस्तैश्च जितास्तेषां च भूपतिः । छत्र चामर युग्मादि राज चिन्हान्य दान्मुदा ३१ प्र० च. वीरसरि ने वोवों का पराजय १२०३ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को साथ में लेकर हमारे मकान पर आयो और भूमि पर बैठकर हमारा वचन कौतुक देखो। राजा ने भी उसके मान को गारत करने के लिये उसकी इस अनुचित शर्त को स्वीकार करली । प्रातःकाल शिष्य समुदाय सहित गोविंदाचार्य को साथ में लेकर राजा सांख्याचार्य के मकान पर गया। प्राचार्यश्री अपनी कम्बली बिछाकर मूमि पर बैठ गये । पीछे वीरसूरी का श्रासन रक्खा । राजा स्वयं सम्मुख भूमि पर बैठ गया पर अभिमान का पुतला सांख्याचार्य अपने उच्च आसन पर ही बैठ रहा । अागत श्रमण समुदाय को देख उसने सदर्प पूछा-मेरे साथ विवाद करने को कौन तय्यार है ? गोविंदाचार्य ने कहा --मैं और मेरे बड़े शिष्यों के साथ तो तुम वाद करने काबिल नहीं हो पर मेरा लघु शिष्य ही तुम्हारे लिये पर्याप्त होगा। बस तत्काल धर्म विवाद प्रारम्भ कर दिया। बेचारा सांख्याच र्य वादीगज केशरी वीरसूरि के सम्मुख नहीं ठहर सका । लीला. मात्र में ही वह पराजित हो अपना शाम मुंह करके बैठ गया। राजाने * संख्याचार्य का गला पकड़ कर आसन से नीचे उतार दिया। जब कि वाद करने की योग्यता ही तुममें नहीं तो फिर यह अभिमान का उच्चतम आसन क्यों ? राजाइसे शिक्षा देना चाहता था पर गोविन्दाचार्य ने दयापूर्वक उसे छुड़वा दिया । इसी प्रकार सिद्धराज ने एक बार मालवा पर चढ़ाई की । मार्ग में वीराचार्य का चैत्यआया । राजा ने वंदन किया। वीराचार्य ने पाशीर्वादि के रूप में एक काव्य बना कर दिया। जिससे राजा की विजय हुई। एक बार कमलकीर्ति नामक दिगम्बराचार्य को भी पाटण की राज सभा में परास्त किया इत्यादि । श्रीवीराचार्य का जीवन वृत्त अवर्णनीय है पर यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसे प्रभाविक पुरुष होने पर भी कदी के कार्य में विघ्न क्यों किया ? इसके दो कारण होसकते हैं या तो अपनी मन्त्र शक्ति बतलानी हो या कलिकाल ने इसके लिये प्रेरणा की हो । कुछ भी हो उस समय के चैत्यवासियों में ऐसे अनेक प्रतिभाशाली आचार्य हुए जिन्होंने जैनधर्म को राष्ट्रीय धर्म बनाने का सफल प्रयत्न किया । अपनी प्रखर प्रतिभा से जैनधर्म की सर्वत्र प्रभावता एवं उन्नति की। प्राचार्य वप्पमटि सरि डुवातिथि नामक प्राम में बप्पनामका गृहस्थ ब्राह्मण रहता था। उसके भट्टी नामकी भार्या थी और सूरपाल नामका एक पुत्र था। जब सूरपाल ५-६ वर्ष की वय का हुआ तो एकदिन अपने पिता से रूष्ट होकर घर से निकल कर मोढेर ग्राम में चला गया। उस समय गुर्जर प्रान्त में पाटल पुर नामका एक अच्छा आबाद नगर था वहां पर मोदेर गच्छीय सिद्धसेन नामक आचार्य रहते थे। एक दिन आचार्यश्री ने स्वप्न में महातेजस्वी बालकेशरी को फलॉग मार कर चैत्य शिखर के अग्रभाग पर आरूढ़ होते हुए को देखा । प्रातकाल आपने विचार किया और अन्य मुनियों को अपने स्वप्न का भावीफल सुनाया कि इस स्वप्न से वादी रूप हस्तियों के गण्डस्थल को भेद देने वाले मुनियों में अप्रगण्य शिष्य की प्राप्ति होगी. इत्यादि । जिस दिन सूरपाल मोरे में आया था। उसी दिन सिद्धसेनसूरि भि महावीर प्रभु की यात्रार्थ मोरे में पधारे थे। जिस समय सूरिजी मन्दिर में गये उस समय सूरपाल भी वहीं पर बैठा हुआ था। ___*-- न शक्तोऽ हमिति प्राह वादि सिंहस्ततो नृपः । स्वयं वाहै विश्त्यामुपातयामास भूतले । ६ ॥ १२०४ आचाय बप्पमट्टि सरिः Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] | ओसवाल सं० ११७८-१२३७ सूरिजीने बालक की भव्याकृति को देखकर उसकी इच्छा से उसको अपने पास रख लिया और ज्ञानाभ्यास कावाना प्रारम्भ करवा दिया । सूरपाल की बुद्धि इतनी कुशाग्रह थी कि वह किसी भी श्लोक को एक बार पढ़लेता तो उसको कण्ठस्थ हो जाता था बह एक दिन में एक हजार श्लोक बड़ी ही आसानी से कण्ठस्थ करलेता था । भला ! ऐसे होनहार बालक को शिष्य बनाने की किसकी इच्छा न हो ? तदनुसार प्राचार्यश्री सूरपाल को दीक्षा देने की गर्ज से उसको लेकर उसके प्राम डुवातिथि आये और सूरपाल के माता पिता को उपदेश दिया कि यदि तुम्हारा पुत्र दीक्षा अङ्गीकार करेगा तो निश्चित ही शासन का उद्धार करने वाला एक महाप्रभावक पुरुष होगा। इस पर पहिले तो बप्प और भट्टि ने आनाकानी की पर बाद में इस दीक्षा के साथ अपना नाम चिरस्थायी रखने की शर्त पर वे मजूर हो गये। बस, भाचार्यश्री ने भी सूरपाल के माता पिताओं की अनुमति से मोढेरा में वि० सं० ८०७ में वैशाख शुक्ला तृतीय कों सूरपाल को दीक्षा देकर उसका नाम मुनि भद्रकीर्ति रखदिया पर उपरोक्त शर्तानुसार प्रसिद्ध नाम बप्पभट्टि नाम का ही व्यवहार किया जाता था। दीक्षानन्तर गुरु ने बप्पभट्टि को योग्य समम कर उनको सरस्वती का मन्त्र दिया बप्पभट्ट ने उसका निडरता पूर्वक आराधन किया जिससे देवी सरस्वती ने प्रसन्न होकर बरदान दिया। मुनि बप्पभट्टि एक समय स्थण्डिल भूमिका गये थे। वापिस लौटते समय वर्षा आनेलगी अतः वे एक देवल में ठहर गये। इधर से एक भव्याकृतिवान् नवयुवक श्रा निकला । मुनिवप्पभट्टि को देखकर उसका साहस उनके प्रति अनुराग हो गया । वह वहीं पर ठहर गया। उसकी दृष्टि उस देवल के एक श्याम पत्थर पर खुदी हुई प्रशस्ति पर पड़ी जिसको आगन्तुक ने ध्यान पूर्वक पड़ी और मुनि बप्पभट्टि को उसका अर्थ समझाने के लिये विनय पूर्वक प्रार्थना की। मुनिने उसकी आन्तरिक इच्छा को जान कर उसका स्पष्ट अर्थ समझाया जिससे श्रागन्तुक पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा । बर्षा बन्द होने के पश्चात् दोनों चलकर अपने निर्दिष्ट स्थान पर-मन्दिर में आये । सूरिजी ने मुनि के साथ आये हुए नवयुवक को देखकर उसका नाम पूछा। उसने मुंह से न कह कर वहीं अक्षरों में लिख दिया । नाम को पढ़कर सूरिजी को स्मरण हो गया कि-रामसेन नगर के पास जंगल में पीलुड़ी के माड़ की एक डाल के वस्त्र की मोली में छमास का बच्चा झूल रहा था और बच्चे की माता पीलू चून कर ला रही थी जिसको पूछने पर मालूम हुआ था कि कन्नौज के राजा यशोवर्मा की एक राणी के षड्यन्त्र से दूसरी रानी निकाल दी गई थी और वह ही इत उत परिभ्रमन कर अपने बच्चे का व अपना जीवन निर्वाह कर रही थी जिसका मैंने मोढेरा के एक सद्गृहस्थान के यहां सर्वानुकूल प्रबन्ध करवाया था उसीका बच्चा आम है। कुछ ही समय के पश्चात वहाँ से विहार कर देने के कारण इस व्यय में आचार्यश्री उसे पहले नहीं पहचान सके थे। __ अब तो मुनि बप्पभट्टि के साथ आमकुमार का स्नेह और भी अधिक बढ़ता गया । उसको भी व्याकरण न्याय, धर्म व राजनीति सम्बन्धी विद्याओं का अध्ययन करवाया जाने लगा। इधर पुण्यानुरोग से षड. यन्त्र करने वाली राजा यशोवर्मा की रानी मर गई । राजाने अपने विश्वस्त मन्त्री को भेजकर मोढेरा से रानी और बच्चे को बुलवाया व अपनी मृत्यु के पूर्व ही राजकुमार आम को राज्य दे दिया। जब राज कुमार श्राम को गज्य प्राप्त हुआ तो आपने राज्य के प्रधान पुरुषों को गुर्जर प्रान्त में भेजकर बप्पभट्टि मुनि को कन्नौज में बुलवाया। प्राचार्यसिद्धसेनसूरि ने भी राजा श्राम का अत्याग्रह देख, मुनिबप्पभट्टि को जाने की आज्ञा देदी । क्रमशः मुनिश्री के कन्नौज पधारने से राजा श्राम को अत्यन्त हर्ष मुनि बप्पभट्टि और आम कुँवर का मिलाप १२०५ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हुआ। मुनिश्री के स्वागत के लिये बड़ी २ तैय्यारियां करने लगा । जिसके राज्य में १४०० हस्ति १४०० रथ २००००० अश्व और करोड़ों की संख्या में पैदल सिपाही हों वहां स्वागत समारोह के विषय में कहना ही क्या ? उत्साहित नागरिकों के साथ राजा, बप्पट्टि मुनि के सम्मुख गया और विनय पूर्व नमस्कार कर हस्ति पर आरूढ़ होने के लिये प्रार्थना की । इस पर मुनिजी ने कहा हे राजन् ! संसार त्यागियों के लिये गज सबारी करना उचित नहीं है। इस पर राजाने कहा हे महामतिबन्त ! मैंने पूर्व अापके सम्मुख प्रतिज्ञा की थी कि मुझे राज्य मिलेगा तो मैं आपको अर्पण कर दूंगा । जब रजा का मुख्य चिन्ह इस्ति होता है तो आपको इस पर सवारी कर मेरे मनोरथ को पूर्ण करना चाहिये । इस पर मुनिजी ने बहुत ही आना. कानी की पर राजा ने भक्ति बसात् ' हस्ति पर बैठा ही दिया और कोटिसंख्यक माना मेदिनी के बीच सूरिजी का नगर प्रवेशोत्सव करवाया। उस समय का दृश्य ऐसा मालूम होता था कि मानो मोह शत्रु का पराजय करने के लिये एक महान् पराक्रमी योद्धा छत्र एवं चार चंवरों की फटकारों से उत्साह पूर्वक समराङ्गण में जा रहा हो । जब निदिष्ट स्थान पर पहुँचने के पश्चात् राजसभा में मुनिजी पधारे तब राजा ने मुनि बप्पभट्टि को सिंहासन पर बैठने के लिये आमन्त्रित भिया । मुनिजी ने कहा-जब तक मैं आचार्य नहीं बनू तब तक सिंहासन पर बैठ नहीं सकता हूँ । इस पर राजा ने अपने प्रमुख पुरुषों को मुनिश्री के साथ गुर्जर प्रान्त में भेजे और आचार्यसिद्धसेनसूरि को विज्ञप्ति कर मुनि बप्पभट्टि को वि० सं० ८११ के चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन सूरिपद दिलवाया। सूरिपद अर्पण करते साय सूरिजी ने उपदेश देते हुए कहाबप्पभट्टि ! मैंने तुमको योग्य समझ कर सूरिपद् दिया परन्तु एक तो जवानी दूसरा राज-सन्मान; इससे संयम व्रत की यथावत् रक्षा करते रहना तेरा प्रमुख कर्तव्य है, इस पर बप्पभट्टि ने कहा-मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि भक्त जनों के वहां से कोई भी विगय नहीं लूंगा और आपश्री की शिक्षा को हरदम याद रक्खूगा । सूरिपद् प्राप्त्यनन्तर बप्पभट्टिसूरि ने पुनः कन्नौज में पदार्पण किया । राजाने पुनः गज सवारी और महामहोत्सव पूर्वक नगर प्रवेश करवाया और अपने राजप्रासाद में लेजाकर सिंहासन के ऊपर बिठलाया। ___आचार्य बप्पभट्टिसूरि राजा आम को हमेशा धर्मोपदेश देते रहे । फल स्वरूप मजा आम ने कन्नौज नगर में १०१ हाथ ऊंचा जिनमन्दिर बनवा कर अठारह भार ६ स्वर्ण की प्रतिमा करवाई। प्राचार्य बप्पभट्टिसूरि के हाथों से प्रतिष्ठा करवाकर शुभमुहूर्त में प्रतिमा की स्थापना की। इसके सिवाय ग्वालियर नगर में २३ हाश ऊंचा मन्दिर बनवा कर लेपमय प्रतिमाजी की प्रतिष्ठा करवाई। कहा जाता है कि इस चैत्य के एक मण्डप में एक करोड़ (लक्ष) द्रव्य व्यय हुआ। इस प्रकार प्रामराजा के राज्य में सूरिजी का बढ़ता हुआ प्रभाव देख कर के जैन समाज के श्रानन्द एवं उत्साह का पार नहीं रहा पर विप्र समुदाय को उतनी उद्विग्नता स्पर्धा एवं ईर्ष्या हुई जितना जिनधर्मानुपायायों को हर्ष । बस इर्ष्याग्नि से प्रज्वलित ब्राह्मण वर्ग अपनी ओर से कब कमी रखने वाले थे, उन्होंने येनकेनप्रकारेण राजा का कान भरना शुरु किया जिससे राजा को सूरिजी के प्रति कुछ उदासीनता हो गई। राजा ने अपनी ओर से उनके सन्मान में कमी करदी जिससे स्वर्ण सिंहासन के बजाय साधारण आसन देना प्रारम्भ कर दिया । विचक्षण सूरिजी ने जान लिया कि सब इर्ष्यालु ब्राह्मणों की असहिष्णुता का ही परिणाम है अतः उन्होंने राजा आम को इस प्रकार जोरदार शब्दों में समझाया कि राजा ने अपनी भूल स्वीकार कर सूरिजी का पुनः तथा वत् सन्मान करना प्रारम्भ कर दिया। १२०६ मुनि बप्पट्टि गज सवार Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८ - १२३७ कालान्तर में सूरिजी की करिता में शृंगार रसके आधिक्य को देख कर राजा के दिल में पुनः कुछ मलीनता पैदा हो गई और उसने सूरिजी की ओर पूर्वापेक्षा कुछ उपेक्षा वृत्ति धारण कर ली। राजा की इस अविवेक पूर्ण स्थिति को देख बिना किसी को कहे सूरिजी ने भी बिहार कर दिया । जब निर्दिष्ट समय के अतिक्रमण होने पर भी सूरिजी राज सभा में नहीं आये तो राजा ने तरक्षण उनकी खबर मंगवाई पर कुछ भी उनको पता न लग सका । सूरिजी ने जाते हुए नगर के द्वार पर एक काव्य लिखा था जिसके आधार पर यह अनुमान किया गया था कि वे विहार करके अन्यत्र चले गये हैं । काव्य निम्न थायामः स्वस्तितवास्तु रोहयगिरे मत्त स्थिति प्रच्युता । वर्तिष्यन्त इमेकथं कथमिति स्वप्नेऽपि मैं कृथाः ॥ श्रीमँस्ते मरणयो वयं यदि भवच्छ प्रतिष्ठास्तदा । ते शृङ्गारपरायणाः क्षितिभुजो मौलौ करिष्यन्ति नः ।। " थीत् - इम तो जाते हैं पर रोहणाचल पर्वत के समान हे राजन् ! ते कल्याण हो । ये गेरे से विलग हुए कैसे अपनी तथावत् स्थिति रख सकेंगे ? इसका स्वप्न में भी विचार मत कर । मणि रूप हमने जो तेरे सहबास से प्रतिष्ठा प्राप्त की है तो शृंगार परायण राजा हमको मस्तक पर धारण करेंगे ! इधर सूरिजी विहार करते हुए गौड़देश की लक्ष्मणावती नगरी में पधार गये वहां वाक्पतिराज नामक विद्वान से उनकी भेंट हुई। उसने सूरिजी को परगयोग्य जान करके उस नगरी के राजा धर्म से उनका परिचय करवाया। इस पर राजा धर्म ने कहा कि मेरी ओर से सूरिजी से यह प्रार्थना है कि जब तक राजा श्राम खुद आपकी विनती करने को यहां न आवे तब तक आप किसी भी हालत में कन्नौज नहीं पधारे। इसका दूसरा कारण यह भी था कि कन्नौज के राजा आम और लक्ष्मणावती नरेश धर्म के किसी एक बात के कारण परसर वैमनस्य था अतः राजा धर्म सूरिजी को सम्मान पूर्वक अपने राज्य में रक्खे और आमराजा के बुलाने पर सूरिजी सहसा कन्नौज चले जायं इसमें धर्मराज अपना अपमान समझता था, खैर ! पं० वावपतिराजा ने जाकर सूरिजी से राजा कथित सब वृतान्त निवेदन किया जिसको सूरिजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर तो था ही क्या ? राजाधर्म ने सूरिजी का बहुत सत्कार पूर्वक नगर प्रवेश करवाया सूरिजी ने भी राजादि को राज सभा में हमेशा धर्मोपदेश देकर धर्म की ओर प्रभावित करते रहे । आचार्यश्री का पता न लगने से राजाश्राम बहुत ही विलाप करने लगा । एक दिन बाहिर बगीचे में जाते हुए राजा ने नकुल के द्वारा मारे हुए एक भयंकर सर्प को देखा । वराबर निरीक्षण करते हुए सर्प के मस्तक में एक मणि दृष्टि गोचर हुई । निर्भीकता पूर्वक मुख दबा कर मणि लेकर राजा स्वस्थान आया और विद्वानों के समक्ष एक श्लोक का पूर्वार्द्ध बोला 1 'शस्त्र शास्त्र कृषिविद्या अन्यो यो येन जीवति' " अर्थात् शस्त्र, शास्त्र, कृषि और विद्या तथा अन्य जो जिसके आधार पर जी सके" राजा के इस पूर्वार्द्ध की मनोनुकूल पूर्ति राज सभा के पण्डितों में से कोई भी नहीं कर सका तब राजा को पट्टसूर की विद्वत्ता का स्मरण हो आया । वह विचारने लगा -- चन्द्र के समक्ष खद्योत व हाथी के समक्ष गर्दभ के समान बप्पभट्टिसूरि के समक्ष ये परिहत हैं । बस, राजा ने घोषणा करवादी कि जो मेरे अभिप्रायपूर्वक इस समस्या की पूर्ति करेगा वह एकलक्ष स्वर्णमुद्रा प्राप्ति का अधिकारी होगा । उक्त घोषणा को सुनकर बप्पभट्टिसूरि का पता लगा कर एक जुआरी श्लोकार्द्ध के साथ लक्ष्मणावती नगरी को सूरीश्वरजी और राज धर्मपाल १२०७ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गया। सूरिजी को सब हाल कहा ? आचार्यश्री ने बिना किसी प्रयत्न के तत्काल उसकी पूर्ति करते हुए कहा"सुगृहीतं हि कर्तव्यं कृष्णसपंमुखं यथा " अर्थात:तः - कृष्ण सर्प के मुख के समान सब अच्छी तरह से ग्रहण करना चाहिये । बस, उत्तरार्द्ध लेकर आारी राजा के पास आया । राजा ने उचित इनाम देकर उसे सन्तुष्ट किया और भट्टिसूरि का पता लगने से हर्ष मनाया । एक बार राजा फिरने के लिये बाहिर गया । वहां पर एक मृत मुसाफिर उनके दृष्टि गोचर हुआ | वहां वृक्ष की शाखा पर जल-बिन्दूओं का झलकता हुआ एक जलपात्र भी झलकता था अतः राजाने इस प्रकार पूर्वार्द्ध लिख डाला- 'तइया मह निग्गमणे पियाइ थोरं सुएहिजं रुनं, उस वखत बाहिर निकलते हुए प्रियजन पात्र ) अंसू लकर रोने लगे । पूर्ववत् इस समस्या की पूर्ति भी कोई नहीं करसका तब वह जैारी पुनः बप्पभट्टिसूरि के पास गया और सूरिजी के सामने समस्या रखी । आचार्यश्री ने स्तकाल उत्तरार्द्ध कहा " करवत्ति बिंदुनिवदुणं गिहेण तं अज्ज संभरिअं " अर्थात् - आज जलपात्र के बिन्दुओं को अपना घर याद आया है, इत्यादि । जुआरी पुनः राजा के पास श्राया और राजा ने पुरस्कार देकर उसे बिदा किया । अब तो आम से रहा नहीं गया । पता लगते ही राजा श्राम ने अपने विनंति के लिये प्रधान पुरुषों को सूरिजी के पास भेजे पर सूरिजी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मैं प्रतिज्ञाबद्ध हूं श्रतः जब तक राजाआम स्वयं यहां पर नहीं आवे तब तक मैं भी वहां पर नहीं सकता हूं । प्रधान बहां से लौट कर राजा आम के पास आये और सकल वृत्तान्त कह सुनाया । राजाश्राम को सूरिजी के दर्शनों की इतना उत्कण्ठा लगी कि वह तत्काल ही ऊंट पर सवार होकर लक्षमणावती की ओर रवाना होगया । जब चलते २ गोदावरी के किनारे पर एक ग्राम आया तो राजा ने रात्रि के समय एक देवी के मन्दिर में विश्राम लिया । रात्रि में देवी राजा के पास आई और राजा के रूप पर मुग्ध हो उसके साथ भोग विलास किया । कहा है कि पुन्यवान जीव को मनुष्य तो क्या पर देवता भी मिल जाते हैं। प्रातः काल होते ही राजा देवी को बिना पूछे ही रवाना होगया और क्रमशः चल कर बप्पभट्टिसूरि की चरण सेवा में यथा समय उपस्थित हुआ । गुरुदेव के दर्शन से हर्षित हृदय से राजा श्रम ने धर्म सम्बन्धी वार्तालाप कर रात्रि निर्गमन की । प्रातः काल ठीक समय पर सूरिजी राज सभा में जाने को तैय्यार हुए। राजा आम भी थेगीदार ( पान तम्बोल देने वाले ) का रूप बनाकर सूरिजी के साथ राज सभा में गया। वहां समुचित आसन पर बैठने के पश्चात् सूरिजी ने राजा धर्म को राजा श्रम का प्रार्थना पत्र सुनाया । इस पर राजा धर्म ने दूत से पूछा कि तुम्हारा राजा कैसा है ? इसके उत्तर में दूत ने कहा इस थेगीदार जैसे हमारे राजा को समझ लीजिये । बाद में दूतने हाथ में बीजोरे का फल लिया तो सूरिजी ने कहा- दूत ! तेरे हाथ में क्या है । दूतने कहा -- जराज (बीजोरा । इतने में तुबैर का पत्र बतलाते हुए सूरिजी ने थेगीदार को सामने करते हुए कहाक्या यह तू - बैर पत्र (रिपत्र ) है ? थेगीदार ने कहा - गुरुदेव ने कठिन प्रतिज्ञा की है पर वह पूरी होने पर हमारे साथ पधारें तो हमारा अहोभाग्य है । बाद में बप्पभट्टिसूरि ने एक गाथा कह कर उसके १२०८ राजा आम - सूरिजी के दर्शनार्थं Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] १०८ अर्थ किये पर राजा धर्म ने इन संकेत सूचक बातों की ओर लक्ष्य ही नहीं दिया । राजा आम उस रात्रि में एक वारगंगा के वहां रहा और एक बढ़िया कांकरण उसको देकर उसके यहां से निकला और एक बहुमूल्य कांकण राज द्वार पर रख कर एक उद्यान में जाकर गुप्त पने रहा । दूसरे दिन पुनः ठीक समय पर बप्पभट्टिसूर राज सभा में श्राये और कान्यकुब्ज जाने के लिये राजा से अनुमति मांगने लगे । इस पर राजा ने कहा- यह क्यों ? सूरीश्वरजी ने कहा- राजा श्राम कल यहां सभा आया था। जो थेगीदार था वह वास्तव में राजा श्राम ही था । दूत ने आप से कहा भी था कि तू बर पत्र तथा एक गाथा के अर्थ में मेरा भी यही सङ्केत था । इतने में वाराङ्गण ने कांकरण को राजा के सम्मुख रखते हुए कहा - रात्रि में मेरे मकान पर एक अनजान पुरुष आया था उसने यह कांकण मुझे दिया है। उधर से द्वारपाल श्राया और उसने भी कांकण रखते हुए कहा--प्रभो । न जाने किसने यह कांकण द्वार पर रक्खा है । बस, दोनों कांकणों को देखकर उनका सूक्ष्यता पूर्वक निरीक्षण किया तो छोटे २ अक्षरों में राजा आम का नाम पाया गया । इस पर राजा धर्म बहुत प्रायश्चित किया कि - श्रहो । बैरी राजा मेरे पास आया पर उसका मैंने सत्कार तक नहीं किया दीर्घ काल से चले आये बैर के समाधान का समय हाथ लगा था किन्तु वह भी मेरी अज्ञानता के कारण ने [ ओसवाल सं० १९७८ से १२३७ इत्यारोप बलात् पहकुज्जरे धरणीधरः । जितक्रोधाद्यभिज्ञानघृतच्छत्र चतुष्टयम् ॥ ८७ जातेसूरिपदेऽस्माकं करूप्यं सिहासनासनम् । इति तस्य वचः श्रुत्वा खिन्नोऽन्यासन्य वीविशन् ॥ ९० प्ररूढ़ प्रौढ़ सौहार्दवसुधाधीश संस्तुतः । पुरं पौर पुरस्त्रीभिराकुलादक ततः ॥ १२२ + + + पूर्ण वर्ण सुवर्णाष्टादश भार प्रमाण भूः । श्रीमतो वद्धमानस्य प्रभो र प्रतिमा न भूः ॥ १३७ तथा गोपगिरौ लेप्पमय बिम्बयुतंनृपः । श्री वीर मन्दिर तत्र त्रयोविंशति हस्तकम् ॥ १४० सपादलक्षसौवर्णक निष्पन्न मण्डपम् । व्यधापय निर्जराज्यपमिव सन्मत्त वारणम् ॥ ६४१ इत्युक्त्वाऽतो निरीयागात् संगत्यामनृपेण च । करभी भिर भीपुभिः सुराभिर्यशसा गुरुः ॥ २६५ + + + अमूकार्यं निर्वाह ज्ञानहेतु' ततस्तदा । स्नेहादेव निशिषित् तांपु वेषां तदश्रिये ॥ २८८ सा निलीना क्वचित् भव्यगणे स्वस्थानगे ततः रहः शुश्रूषितु ं सूरि प्रारंभे धैर्यभित्तये ॥ २८९ स्त्रीकर स्पर्शतीज्ञात्वाऽत्रोपसर्गमुपस्थितम् । विमर्श नृपाज्ञानतमसचेष्टितं ध्रुवम् ॥ २९० + + + नाथ ! पाथः पति बाहुदण्डाभ्यां स तरस्थलम् । भिनत्ति च महाशैलं शिरसा तरसा रसात् ॥ ३३३ पदे ( ? ) वद्दिन्मास्कन्देत् सुप्तसिंहञ्च बाधयेत् श्वेतभिक्षुतव गुरुंय एवं हि विकारयेत् ॥ ३२४ असौमही धराधारा देशः पुरमिंद मम । भाग्यशोभाग्यमृद् यत्र बध्यमट्टि प्रभुस्थितिः ॥ ३३७ प्राग्दत्त गुरुभिमंन्त्र परावर्त्तयतः सतः । मध्यरात्रे गिशंदेवी स्वर्गङ्गविगि मध्यतः ॥ ४१२ सामतीताशरूपा च प्रादुरासीद् रहस्तदा । अहो मंत्रस्य माहात्म्यं यद्दे व्यापि विचेतना ॥ ४२० + + + पाश्रयस्थितं भव्य कदम्बक निषेवितम् । राजानमिव सच्छन्न चामरप्रक्रियान्वितम् ॥ ४८६ प्र० च० सिंहासन स्थितं श्रीमन्नन्नसूरिं समैक्षत । उत्तान हरत विस्तार संज्ञयाह किमप्पथ ॥ ४८७ लक्षमणावती की राजसभा में राजा आम Jain Education Internati१९६२ १२०९ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हाथ से निकल गया। अब क्या हो सकता है ? दूसरा गुरु का विरह भी असह्यसा है । इसपर सूरिजी ने कहा-राजन् ! हम हंस की भांति अप्रतिबद्ध विहारी हैं पर श्राप अपना नाम (धर्म) सार्थक करना कि दूसरे भी आपका अनुकरण करें। इस तरह वहां से सहर्ष अनुमति प्राप्तकर सूरिजी चलकर गजाआम के पास आये और सब उँट पर सवार हो वहां से शीघ्र चल पड़े। आगे चलते हुए एक भील को बकरे की भांति तलाब में जल पीते हुए को देखा । राजा श्राम ने इस का कारण पूछा तब सूरिजी ने कहा-इस भीलने अपनी रुष्ट हुई स्त्री के नेत्रों के अांसु को हाथ से पूछा जिसके काजल से हाथ काले होगये अतः पानी हाथ से न पीकर मुंह से पीरहा है । राजा ने भील से एकान्त में पूछा तो वही बात निकली जो सूरिजी ने कही थी। इससे राजा बहुत खुश हुआ । जब नगर पाया तो राजा ने सूरिजी के नगर प्रवेश का आलीशान प्रवेशोत्सव किया जैसा कि इन्द्र का महोत्सव होता है। इधर आचार्य सिद्धसेनसूरि बहुत बीमार हुए तो उन्होंने अपने अन्य मुनियों को बप्पभट्टिसरि के पास यह कहला कर भेजा कि मेरा मुंह देखना हो तो जल्दी आना । बस बप्पट्टि सूरि विहार कर शीघ्र ही मोदेरा में आये । गुरुदर्शन व अन्तिम सेवा कर कृतार्थ हुए । सूरिजी के स्वर्गवास होने पर गच्छनायक बप्पट्टिसूरि हुए। सूरिजी कुछ असें वहां ठहरने के पश्चात् आपने गुरुभ्राता गोविन्द सूरि और नन्नप्रभसूरि को गच्छ की सार सम्भाल सुपुर्द कर श्राप पुनः कन्नौज पधार गये । एक समय सूरिजी पुस्तक की ओर दृष्टि लगाये बैठे थे कि उनकी नजर एक हरे झाड़ की ओर गई। राजाने सोचा कि यह क्या ? क्या महात्माजी रमणी की इच्छा रखते हैं ? राजाने रात्रि के समय एक युवारमणी को पुरुष का वेश पहना कर सूरिजी के मकान पर भेजी जब भक्त श्रावक चले गये तो उस स्त्री ने सूरिजी की व्ययावच्च करने को स्पर्श किया तो सूरिजी जान गये कि यह राजा का ही अज्ञान होना चाहिये जब उस युवति ने बहुत कुछ हाव भाव विषय चेष्टा की यहां तक कि सूरिजी का हाथ उठाकर अपने स्तनों पर भी रख दिया पर बाल ब्रह्मचारी सूरिजी थोड़े भी अंधैर्य न होकर उस स्त्री को कहा कि मैं मेरे गुरु की सेवा शुश्रुषा करता था तब कभी नितांब का स्पर्श हो जाता वही बात तेरे स्तन के लिये याद आती है बाद सुवर्ण की पुतली भृष्टा भर कर ऊपर से चन्दनादि चर्चने का द्रष्टान्त देकर उसको कायल कर दी आखिर में युवा लाचार हो प्रभात को राजा के पास आ कर कहा कि हे राजन् । जो अपने भुजाओं से माहसागर तीर सके अपने मस्तक से पर्वत को भेदे अग्नि में हाथ डाले और और सुत्ता हुआ सिंह को जागृत करने वाला भी तुह्मारे श्वेताम्बर साधु को विकार वाले नहीं कर सकते है अर्थात् बप्पट्टि सूरि का ब्रह्मचर्य को मनुष्य तो क्या पर देव देवांगना भी खण्डित करने को समर्थ नहीं है। इस बात को सुनकर राजा बहुत खुश हुआ और कहने लगा कि यह पवित्र वसुधा मेग देश नगर का अहो भाग्य है कि हमारे यहां बप्पभट्टिसरि जैसे अखण्डित ब्रह्मचर्य पालने वाले विराजते हैं एक कृषक की औरत अपने स्तनों पर एरन्ड के पत्ते लगाये जा रही थी जिसको राजा श्रामने देखा । उसने तत्काल एक गाथा का पूर्वार्द्ध बनाकर गुरु से कहा कि___“वई बिवर निगाय दलो एरण्डो साहइ तरुणीणं ।" सूरीश्वरजी और राजा आम varanwrww-..---- -- -- १२१० Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] । ओसवाल सं० ११८-१२३७ सिद्ध सारस्वत गुरुदेव ने उत्तरार्द्ध में कहा ___"इस्थघरे हलियवहु सद्दहमित्तच्छणी वसई" इस प्रकार मनोऽनुकूल समस्या पूरी होने से राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ । एक समय हाथ में दीपक लेकर टेढ़ा मस्तक किये एक स्त्री जा रही थी जिसका कि पति परदेश गया था। राजा ने उसे देख कर पूर्वार्द्ध गाथा कही पियसंभरण पद्धतंअंसुधारा निवायभीया । गुरु ने उत्तरार्द्ध में कहा दिज्जइ वंक गीवाइ दीउपहि नायए इस प्रकार समस्या पूर्ति हो जाने से राजा परम हर्ष को प्राप्त हुआ । इस प्रकार प्रति दिन के बादविनोद से राजा का समय बड़े ही श्रानन्द से व्यतीत होने लगा। एक समय धर्मराज ने एक दूत को श्राम राजा के पास भेज कर कहलाया कि आप मेरे यहां आये पर मैं अज्ञान पने आपका सत्कार नहीं कर पाया जिसका मुझे बड़ा ही रंज है । खैर, अब भी कुछ नहीं हुश्रा है । आपस में युद्ध कर लाखों मनुष्यों को क्यों मरवाया जाय। हमारे यहां बौद्धाचार्य वर्द्धन कुजर नामक एक उद्भट विद्धान है जिसको लेकर हम सीमान्त आते हैं। आप भी अपने विद्वान् को लेकर सीमान्त में आ जाइये और दोनों पण्डितों का आपस में बाद होने दीजिये । इन पण्डितों को हार जीत में ही अपनी हार जीत समझ लीजिये कि जिससे शान्ति पूर्वक समाधान हो जाय । श्रापके पण्डित जीत जाँय तो हमारी हार और हमारे पण्डित जीत जाँय तो आपकी हार । इसकी मजूरी दीजिये । राजा आमने अपनी ओर से मञ्जूरी देदी कारण, आपको बप्पभट्टिसरि पर पूर्ण विश्वास था । दूत का यथोचित सत्कार कर उसे विसर्जित किया । बस, इधर से राजा धर्म वद्धनकुञ्जर बौद्धाचार्य को और इधर राजा श्राम जैनाचार्य बप्पभट्ठिसूरि व मन्त्री सामन्तादि को लेकर सीमान्त प्रदेश पर निर्दिष्ट दिन उपस्थित हो गये दोनों में परस्पर विवाद प्रारम्भ हुआ । बौद्धाचार्य का पूर्व पक्ष था। उसकी ओर से जो कुछ प्रश्न होता बप्पभट्टिसूरि तुरन्त उसका प्रतिकार कर डालते । इस प्रकार ६ मास पर्यन्त बाद चलता रहा । एक समय राजा आमने पूछा गुरुदेव ! वाद कहाँ तक चलता रहेगा कारण राजकार्यों में इतने सुदीर्घ वादविवाद से हानि होती है । सूरिजी ने कहा गजन् ! मैंने तो आपके विनोद के लिये वाद लम्वा कर दिया है। यदि आपको राज्य कार्यों में हानि होती हो तो लीजिये कल ही बाद समाप्त हो जायगा । इस प्रकार कहने के पश्चात् सूरिजीने सरस्वती का मन्त्र पढ़ा । मन्त्र बल से आकर्षित हो सरस्वती देवी नग्नावस्था में स्नान करती हुई उसी रूप में आ गई । बप्पमट्टिसूरि के ब्रह्मवत की दृढ़ता देख प्रसन्न हो उन्हें मनोऽनुकूल वर दिया। तत्पश्चात् सूरिजी ने पूछा-देवी ! वादी किसके आधार से अस्खलित वाद करता है ! देवी ने कहा--मेरे वरदान से । सरिजी ने देवी को उपालम्ब दिया कि तू सम्यग्दृष्टि होकर भी असत्य को मदद करती है । देवी ने कहा-आप कल की सभा में सब को मुख शौच करवाना। वादी मुख शौच करेगा तो इसके मुंह की गुटिका गिर पड़ेगी बस फिर क्या है ? आपकी विजय अवश्यम्भाबो है। सरिजी ने पं० वाक्पतिराज द्वारा इस ही तरह करवाया जिससे गुटिका मुंह से निकल गई अतः वह वाद करने में पंगु (असमर्थ) हो गया। तत्काल Jan E सूरीश्वरजी और बौद्धाचार्य के आपस में १२११ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८२७ [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वह पराजित हो लज्जा भार नत मस्तक हो गया। इस प्रकार सूरिजी की असाधारण विजय को देख सभा ने आपको वादी कुञ्जर केशरी की उपाधि दी और तब ही से आप बादी कुञ्जर केशरी के नाम से प्रसिद्ध हुए । जब बादी की पराजय में राजा धर्म ने अपनी पराजय स्वीकार करली तव राजा श्रम; धर्म राजा की राज्य सत्ता अपने अधीन करने का विचार करने लगा परन्तु आचार्यश्री के गाम्भीर्य गुण परिपूर्ण उपदेश से राजा आमने धर्मराजा के राज्य को उसके सुपूर्द कर दिया। बाद में वर्द्धन कुब्जर और बप्पभट्टि सूरि बड़े ही प्रेम के साथ एकत्र हो वीर भुवन में गये । भगवान् महावीर की शान्त, वैराग्य मय प्रतिमा को देख कर बौद्धाचार्य को परम शान्ति हुई और उसने एक स्तुति बनाकर प्रभु के गुणगान किये। बाद में सूरिजी ने जैन धर्म के तत्वों के स्वरूप को समझाया जिससे वर्द्धन कुञ्जर के हृदय में अन धर्म के प्रति श्रद्धा होगई। एक रात्रि में श्राचार्य श्री जागृत थे तब वर्द्धन कुञ्जर ने चौथे प्रहर में सूरिजी को चार अक्षरवाली चार समस्याएं पूछी जिसकी सूरिजी ने तत्काल पूर्ति करदी | एको गोत्रे- स भवति पुमान् यः कुटुम्बंविभर्ति | सर्वस्य द्वे - सुगति कुगती पुर्वजन्मानुषद्धे || स्त्रीपुंवच --- प्रभवति यदा तद्वि गेहं विनष्टं । वृद्धोयुना -- सह परिचयात्यज्यते कामिनीभिः ॥ अब तो बौद्धाचार्य श्राचार्यश्री की ओर और भी अधिक प्रभावित हुआ और उसने श्रावक के बारह तभी धारण कर लिये। बाद सूरिजी की आज्ञा लेकर अपने स्थान चला गया और राजा धर्म भी श्राम राजा से अनुमति लेकर अपने राज्य में चला गया । एकरा बौद्धाचार्य ने राजा धर्म से कहा कि बप्पभट्टिसूरि ने मुझे पराजित किया इसका तो कुछ भी रञ्ज नहीं पर वाक्पतिराजा ने मुख शौच करवा कर मेरा पराजय करवाया यह मुझे खटक रहा है | राजा ने वर्द्धन कुञ्जर की बात सुन करके भी वाक्पतिराज से प्रीति कम नहीं की । एक समय धर्मराजा पर यशोवर्माराजा चढ़ आया । उस समय वाक्पति कारागृह में बन्द कर लिया गया था पर अपूर्व काव्य रचना से सन्तुष्ट हो राजा ने उसे बन्धन मुक्त कर दिया | वाक्पतिराज वहां से चलकर कन्नौज में आया और सूरिजी से मिला । पूर्वघनिष्ठता के स्वभाव व सौजन्य के कारण सूरिजी वाक्पति राज को राज सभा में ले गये । वाक्पतिराजा ने राजा आम की ऐसी स्तुति बनाई कि राजा श्रम सन्तुष्ट हो गया राजा श्राम ने राजा धर्म से दुगुना सत्कार सम्मान किया उसकी आजीविका का भी अच्छा प्रबन्ध कर दिया श्रतः पं वाक्पतिराज सूरिजी एवं राजा के सहवास में आनन्दपूर्वक रहने लगे । एक दिन राजा आम सूरिजी की विद्वत्ता की प्रशंसा करता हुआ कहने लगा कि आपके जैसा विद्वान् देवताओं में भी नही है तो मनुष्य में तो हो ही कैसे सकता ? सूरिजी ने कहा- हे राजन् ! पूर्व जमाने में बड़े २ विद्वान हो चुके हैं कि मैं उनके चरण रज के तुल्य भी नहीं हूँ पर वर्तमान में भी हमारे वृद्ध गुरु भ्राता नन्नसूरि ऐसे विद्वान हैं कि मैं उनके सामाने एक मूर्ख ही दीखता हूँ । इस पर राजा वेश परिवर्तित कर नन्नसूरि को देखने के लिये गये तो उस समय नन्नसूरि गुजरात के हस्तजय नगर में विरामते थे । राजा वहां गया तो चामर छत्रं संयुक्त एवं सिंहासन पर बैठे हुए नन्नसूरि को देखा । आचार्यश्री के उक्त वैभव को देख कर राजा आम के हृदय में इस प्रकार की शंका हुई कि त्यागी गुरुओं के यहां इस प्रकार का राज्य वैभव क्यों ? इस विषय में चरित्रकार ने बहुत ही विस्तार से लिखा पर थ १२१२ Jain Education international चार पदों की चार समस्याओं की पूर्ति Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३.५ बढ़ जाने के भय से हम एत द्विषयक सविशेष स्पष्टीकरण न करते हुए इतना ही लिख देना समीचीन समझते कि आचार्यश्री नन्नसूरि की प्रकाण्ड विद्वत्ता के लिये राजा आम को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि जैनों में ऐसे २ विद्वान् विद्यामान है कि जिसकी बराबरी करने वाले किसी दूसरे मत में नहीं मिलते हैं। ___एक दिन एक नट का टोला आया जिसमें एक मातङ्गी बड़ी स्वरूपवान् थी । इसको देख राजा श्राम उस पर मोहित होगया और उससे मिलने का प्रयत्न करने लगा। इस बात का पता जब बप्पट्टिसूरि को लगा तो उनको राजा की इस अविवेकता पर बहुत ही पश्चाताप हुभा । वप्पभट्टि सूरि राजा के निर्दिष्ट स्थान पर जाकर समीपस्थ एक पत्थर पर इस तरह का बोधप्रदायक काव्य लिखा कि जिसको राजा ने पढ़ा तो उसको इतनी लज्जा आई कि वह चिता बना कर अग्नि में जल जाने की तैयारी करने लगा । पुनः सूरिजी को चिता की बात मालूम हुई तो वे चल कर राजा के पास आये और इस प्रकार उपदेश दिया कि वेद श्रुति स्मृति के विद्वानों को एकत्रित कर मातंगी के विषय का मन से लगे हुए पाप का प्रायश्चित पूछा । विद्वानों ने मिल कर कहा कि लोहा की पुतली को तपाकर उसका आलिंगन करने से पाप की शुद्धि होती है । राजा ने लोह की पुतली बनाकर उसको अग्नि में लाल कर आलिङ्गन करने को तैयार हुअा। इतने में पुरोहित तथा आचार्यश्री ने श्रार राजाकी भुजाओं को पकड़ते हुए कहा बस मन का पाप मन से ही स्वच्छ हो गया । इत्यादि । राजा को बचा लेने से नगर में बड़ा ही हर्ष हुश्रा । नागरिकों ने नगर शृङ्गार कर आचार्यश्री को हस्तिपर आरूढ़ करवा कर महामहोत्सब पूर्वक नगर प्रवेश करवाया। एक दिन सूरिजी ने कहा हे राजन ! श्रात्म-कल्याण करना चाहो तो जैनधर्म का शरण लो। इस पर गजा ने कहा--गुरु जी ! पूर्व परम्परा से चला आया धर्म में कैसे छोडू ? यदि आपके पास विद्वता है तो आप मथुरा जाकर वैराग्याभिमुख वाक्पतिराजा को जैनधर्म स्वीकार करावें । राजा ने अपने विद्वानों को एवं मन्त्रियों को तथा सामन्तों को साथ दे दिये अतः आचार्यश्री चल कर मथुरा आये और बाहराजी के मन्दिर में वाक्पतिराज थे उन से मिले । पहिले तो ब्रह्मा विष्णु और महादेव की यथा गुण स्तुति कर वाक्पति राज को समझाया जिससे उसने देव गुरु धर्म का स्वरूप सुनने की इच्छा गट की। आच र्यश्री ने वाक्पति राज को शुद्ध देव गुरु धर्म का सरूप समझाया तत्पश्चात् वाक्पतिराज ने प्रश्न किया हे गुरु ! मनुष्य लोक से जीव मोक्ष में जाते हैं तब कभी सब जीव मोक्ष में चले जावेंगे और मोक्ष में स्थान भी नहीं मिलेगा। गुरु ने कहा- हे भव्य ! ऐसा कभी नहीं होता है । दृष्टान्त स्वरूप स्थल की सब नदियों रेत खेंचती हुई समुद्र में जाती हैं परन्तु आज पर्यन्त न रेती कम हुई है और न समुद्र ही भरा गया है। यही न्याय संसार के जीवों का भी समझ लीजिये । इस प्रकार कहने से वाक्पतिराज को अच्छा सन्तोष हुआ और गुरु के साथ भगवान् पार्श्वनाथ के मन्दिर में जाकर उसने मिथ्यात्व का त्याग किया व शुद्ध सनातन जैनधर्म को स्वीकार किया। अठारह पाप व चार अाहार का त्याग कर अनशन व्रत स्वीकार कर लिया । अहित, सिद्ध, साधु और धर्म का शरण एवं पञ्च परमेष्ठि के ध्यान में १८ दिन तक अनशन व्रत की आराधना की । आचार्य बप्पभट्टिसूरि जैसे सहाय देने वाले थे अतः वाक्पतिराज पण्डित्य मरण मर कर देवयोनि में उत्पन्न हुए। पूर्व जमाने में नंदराजा द्वारा स्थापित शान्तिदेवी है । वहां जिनेश्वरदेव को वन्दनकरने सूरिजी गये और शान्तिदेवी सहित जिनेश्वरदेव कीस्तुति की वह आज भी 'जयति जगद्क्षाकर' के नाम से प्रसिद्ध है । सूरिजी मथुरा से राजपुरुषों के साथ कन्नौज पधारे । राजा ने पहिले ही से अपने अनुचरों से सब राजा आम नटणी से मोहित-प्रायश्चित १२१३ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हाल सुन लिया था अतः नगर के बाहिर राजा सम्मुख आया और महा महोत्सव पूर्व सूरिजी को नगर प्रवेश करवाया । राज सभा में राजा ने कहा-पूज्य गुरुदेव ! आप महान शक्ति शाली हैं कि वाक्पतिराज जैसे को प्रतिबोध किया। सूरिजी ने कहा-जहां तक मैं आपको प्रतिषोध न दूं वहां तक मेरी क्या शक्ति है । राजा ने कहा- मैं प्रतिबोधपागया हूँ। आपके धर्म पर मुझे दृढ़ श्रद्धा है परपूज्य ! मेरे पूर्वजों से चले आये शिवधर्म को छोड़ने में मुझे बड़ा ही दुःख होता है अतः यह पूर्व भव का ही संस्कार मालूम होता है । सूरिजी कहा--राजन् ! तुमने जो पूर्वभव में कष्ट किया उसका स्वरूपफल ही राज्य है। सभाजनों ने कहा--पूज्यवर ! हम लोग राजा का पूर्वभव सुनना चाहते हैं कृपाकर श्राप सुनाइये । श्री चूड़ामणि शास्त्रादि के अनुसार सूरिजी ने कहा- कलंजर के पास शालवृक्ष की शाखा के दोनों पैर बांधकर अधोमुखी होकर पृथ्वी पर जटालटकती इस प्रकार तप कष्ट करने से वहां से तू राजा हुआ है। यदि मेरी बात पर किसी को विश्वास न हो तो उस वृक्ष के नीचे जटा पड़ी है देखलो । राजा ने अपने अनुचरों से जटा मंगाकर देखी जिससे सब लोग सूरिजी की भूरि २ प्रशंसा करने लगे। एक समय राजा अपने मकान पर खड़ा हुआ क्या देखता है कि एक युवा रमणी के यहां एक जैन मुनि भिक्षा के लिये आया। मुनि को देख रमणी ने भोग की प्रार्थना की पर मुनि अस्वीकार कर बाहिर निकलता था कि मकान के द्वार के किवाड़ स्वयं बन्द होगये । इस पर बाला ने एक लात मारी जिससे उसके पैर का नेवर आकर मुनि के चरणों में गिर पड़ा । रमणी ने हाव भाव पूर्वक प्रार्थना की पर मुनि पर उसका कुछ भी असर नहीं पड़ा इस घटना को देख राजा ने प्राकृत में एक पद बनाकर सूरिजी के सामने रक्खा । सूरिजी ने उसके तीन पद बनाकर पूरी गाथा करदी वह इस प्रकार है। कवाडमासज्ज वरंगणाए अब्भच्छिउजुव्वणमत्तियाए। अमनिए मुकपयप्पहारे सनेउरो पव्वइयस्स पाउ । इस प्रकार राजा ने एक गृहणी और भिक्षु को देख एक पाद गुरु के समक्ष रक्खा जिसको भी गुरु ने पूरा कर दिखाया । वहभिक्खयरो पिच्छइ नाहिमण्डलं सावि तस्स मुहकमलं । दुहनंपि कवालं चदृशं काला विलंपति ॥ एक समय एक विद्वान् चित्रकार राज सभा में आया । राजा का चित्र बनाकर राजा को दिखलाया पर राजा का दिल गुरु गुण में लीन था कि चित्र देखने पर भी राजा ने कुछ भी नहीं कहा। इस पर चित्रकार हताश होगया तब किसी ने कहा, कि तू चित्र गुरुराज को दिखला । चित्रकार ने ऐसा ही किया जिससे सूरिजी ने चित्रकार की प्रशंसा की अतः राजा ने एक लक्ष रुपये दिये । बाद में चित्रकार ने चार भगवान् महावीर के सुन्दर चित्र चित्रित कर सूरिजी को अर्पण किये जिससे एक तो कन्नौज, एक मथुरा एक अणहिल्ल पट्टण में और एक सौपारपट्टन में गुरु महाराज के प्रतिष्ठापूर्वक पधराये । पाटण का चित्रपट म्लेच्छों ने पाटण का भंग किया यहां तक विद्यमान था। एक समय श्राम राजा ने राजगृह पर पढ़ाई की पर वहां का किला ले नहीं सका । तब गुरु महाराज को पूछा । गुरुने कहा तेरा पौत्र भोज होगा वह राजगृह विजय करोगा तथापि राजा ने बारह वर्ष तक का घेरा डाल कर फोज वहीं रक्खी । इधर राजा के पुत्र दुदुक २ के पुत्र भोज का जन्म हुआ। सामन्त नवजात भोज को लेकर राजगृह गये और भोज को इस प्रकार सुलाया कि उसकी दृष्टि राजगृह के १२१४ सूरिजी को समस्याएँ पूर्ति Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ किले पर पड़ी बस फिर तो कहना ही क्या किला स्वयं टूट पड़ा और राजा की विजय होगई । राजगृह का राजा समुद्रसेन वहां से चला गया। वहां पर यक्ष था वह भी राजा के अधीन होगया। राज ने अपनी आयुष्य पूछी तो यक्ष ने कहा-जब तुम्हारा छ मास का आयुष्य शेष रहेगा तब मैं कह दूंगा । बाद में अव. सर जान कर यक्ष ने कहा कि हे राजन् गङ्गाजी के अन्दर मगधतीर्थ को जाते हुए जिसकी श्रादि में मकार है ऐसे प्राम में तुम्हारी मृत्यु होगी। साथ में यह भी ध्यान रखना कि उस समय जल से धूम्र निकलेगा इत्यादि । इस पर राजा सावधान हो गुरु के साथ तीर्थ यात्रा को निकल गया । साथ में अपनी सैन्यादि सब सामग्री भी ली। सबने पहिले शत्रञ्जय तीर्थ जाकर युगादीश्वर का पूजन बन्दन किया बाद में वहां से गिरनार गये । वहां दश राजा दश संघ लेकर गिरनार आये पर वे तीर्थ पर अपना हक्क रखते हुए दूसरे को पहिले नहीं चढ़ने देते थे । राजा श्राम संग्राम करने को तैय्यार होगया पर बप्पभट्टिसूरि ने राजा को युक्ति से समझाया और दिगम्बरों से युक्ति र.जर करवाई । एक कन्या को दिगम्बरों के यहां भेजी और कहा कि आप में शक्ति हो तो इस कन्या को बुलावो। इस पर सूरिजी ने अंबादेबी का स्मरण कर कन्या पर हाथ रक्खा कि अम्बादेवी कन्या के मुख में प्रवेश कर बोली जिससे श्वेताम्बरों की विजय हुई श्राकाश में बाजे गाजे हुए । तत्पश्चात् पहिले श्वेताम्बरों ने गिरनार पर चढ़ कर नेमिनाथ की पूजा की और वहां पुष्कल द्रव्य व्यय किया । बाद में द्वारिका प्रभासपाटण वगैरह तीर्थों की यात्रा कर वापिस कन्नौज आगया ! अवसर के जान राजा ने अपने पुत्र दुंदुक को राज्य स्थापन कर श्राप गुरु के साथ मगध तीर्थ की यात्रार्थ चले। नाव में बैठे हुए गंगा नदी उत्तर ने में ही थे कि जल में धूवां देखा कि राजा को यक्ष की वात याद आई और मगरोड़ा प्राम में पहुँचा । । आचार्यश्री ने कहा-राजन् ! समय आगया है अब तू आत्म-कल्याण के लिये जैनधर्म स्वीकार कर । राजा ने देव अरिहत, गुरुनिम्रन्थ और धर्म वीतराग की श्राज्ञा एवं सच्चे दिल से जैनधर्म स्त्री कारकर लिया। बीच में राजा ने कहा-हे गुरु ! आप भी देह त्याग करो कि देव भव में भी हम मित्र बने रहें। सूरिजी ने कहा-राजन् ! यह तुम्हारी अज्ञानता है । जीव सब कर्माधीन है । कौन जाने कौन कहां जायगा मेरी आयुः अभी ५ वर्ष की शेष रही है। वि० सं० ८९० भाद्रशुक्ला पञ्चमी शुक्रवार चित्रा नक्षत्र के दिन राजा श्रामने पञ्च परमेष्टि का ध्यान और आचार्यश्री के चरण का स्मरण करता हुआ देह त्याग किया। बाद में सूरिजी को भी बहुत रंज हुआ आखिर आप कन्नौज चले आये । इधर राजा दुंदुक एक वैश्या से गमन करने के इश्क में पड़ गया इससे वह विवेक हीन की तरह भोज को मरवाने लगा । राणी, राजा के कृत्य को देख अपने पुत्र भोज को पाटलीपुत्र में अपने मुसाल में भेज दिया । एक दिन राजा दुंदुक आचार्यश्री को कहा कि जाओ आप भोज को ले आओ। सूरिजी ने कई अर्सायोग ध्यान में निकाल दिया। जब राजा ने अत्याग्रह किया तो सरिजी ने नगर के बाहिर जाकर विचार करने लगे कि भोज को लाऊं और वैश्या सक्तराजा पुत्र को मार डाले, नहीं लाऊं तो राजा कुपित हो जैनधर्म का बुरा करे अतः अनशन करना ही ठीक सममा । तदनुसारसूरिजी २१ दिन के अनशन की धाराधना कर पण्डित्य मरण से ईशान देवलोक में देव पने उत्पन्न हुए। वि० सं० ८०० भाद्र-शु-तीज रविबार हस्तनक्षत्र में श्रापका जन्म हुआ। ६ वर्ष की वय में दीक्षा। राजा आम की तीर्थयात्रा-जैनधर्म स्वीकार १२१५ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. ७७८-८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ११ वर्ष की उम्र में सूरिपद वि० सं०८९५ के भाद्र शु० अष्टामी को स्वाति नक्षत्र में आपका स्वर्गवास हुआ। उस समय पामराजा का पौत्र भोजकुमार अपने मामा के सामन्तों के साथ कन्नौज आया और सुना कि बप्पभट्टिसरि का स्वर्गवास हुआ है तो बहुत विलाप झिया आखिर चिता बना कर सरिजी के मृत शरीर को चिता में पधराया । उस समय भोजकुमार ने विचार किया कि पिताह का मरण हा श्राज उनके गुरु का भी मरण हुश्रा अब मेरा क्या होगा कारस पिता तो मुझे मारना चाहता है तो मेरे यही मार्ग है कि मैं गुरुदेव के साथ अग्नि में जल जाऊं। इस पर भोजकुमार की माता आई और पुत्र कों बहुत समझाया अतः भोज, माता के वचनों को शिरोधर्य कर सरिजी का अग्नि संस्कार कर चिन्तातुर होता हुआ मामे के यहाँ चला गया। इधर राजा दुदुक धर्म कर्म से पतित हुआ वैश्या में आसक्त था । राज्य की कुछ भी सार सम्भाल नहीं करने से जनता दुःखी हो रही थी। एक समय भोजकुमार कन्नौज में आया और सज्जनों की मनाई होने पर भी राजसभा की ओर जाने लगा। आगे द्वार पर एक माली बीजौरे के ३ फल लिये बैठा था । राजकुमार जान कर उसने उन फलों को भेंट दिया । भोजकुमार राजसभा में जाते ही दुंदुक राजा सिंहा. सन पर बैठा था तो उसकी छाती में तीनों फलों की ऐसी मारी की उः के प्राण पखेरु उड़ गये। बस, फिर क्या था ? उसके मृत देह को एक द्वार से निकाल कर भोजराज सिंहासन पर बैठ गया । गाजा वाजे और विधि से भोज का राज्यभिषेक कर सब मन्त्री उमराव और नागरिक मिल सब भोज को राजा बना उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। एक समय राजा भोज श्राम बिहार मन्दिर) में दर्शन करने को गया था वहां बप्पभट्टिसरि के दो शिष्य अध्ययन कर रहे थे। राजा ने साधुओं का अभ्युत्थानादि नहीं किया और राजा ने सोचा कि ये साधु व्यवहार कुशल नहीं हैं अतः उन्होंने मोढेरा से नन्नप्रभसरि एवं गोविन्दसरि को बुलाये और वे भी सत्वर कन्नोज में आये । राजा भोज ने दोनों ही सरियों का बड़ा ही महोत्सव कर नगर प्रवेश करवाया और उनको गुरु पद पर स्थापन कर नन्नसरि को पुनः गुजरात में जाने की प्राज्ञा दी और गोविन्दसूरि को अपने पास रखा। चरित्रकार फरमाते हैं कि राजा आम ने जैनधर्म की काफी सेवा की पर गजा भोज ने उनसे भी जैनधर्म की विशेष उन्नति की । जैनधर्म के प्रचार को खूब बढ़ाया और मन्दिर मतियों की प्रतिष्ठा करवाई। प्राचार्य बप्पभट्टिसूरि चैत्यवासी होते हुए भी ! जैन संसार में एक महान प्रभाविक आचार्य महापुरुषों का गिनती के प्राचार्य थे। वादी कुन्जरकेशरी, बालब्रह्मचारी, राजपूजित वगैरह अनेक विरूदों से विभूषित थे। आपने अपने दीर्घ जीवन में जैन शासन की उन्नति कर जैनधर्म के उत्कर्ष को खूध बढ़ाया। ऐसे प्रभा. विक पुरुषो से ही जैनधर्म दे दीप्यमान व गजधर्म से गर्जना करता था। राजा आम ने कन्नोज में १०१ हाथ ऊंचा मन्दिर वनवा कर अठारह भार सोने की मूर्ति को प्रतिष्ठा करवाई तथा गिरनार शत्रुञ्जय के तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाल कर तीर्थ यात्रा की । राजा श्राम के एक रानी वैश्य कुल की थी। उनकी सन्तान जैनधर्म पालन करती हुई राज्य के कोठार का काम करने लगी । उनके विवाहादि सब व्यवहार उपकेशवंश के साथ होने लगे इसलिये वे उपकेश वंश में राज कोठारी कहलाये । इस परम्परा में श्रीमान् कर्माशाह हुआ। उसने वि० सं० १५८७ पुनीत तीर्थश्री शत्रुजय का उद्धार सूरिजी का स्वर्गवास और राजाभोज १२१६ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ wrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr-more करवाया ! उस समय के शिलालेख में भी इस बात का उल्लेख किया हुआ मिलता है। उस शिलालेख से कुछ अंश यहां उद्धृत कर दिया जाता है। स्वस्तिश्रीगुर्जरधरित्र्यां पातासाह श्री महिमृद पट्टप्रभाकर पाताशाहश्रीमदाफारसाह पट्टोद्योत कारकपातसाह श्री श्री श्री श्री श्री बाहदर साह विजय राज्ये संवत् १५८७ वर्षे राज्य व्यापार धुरंधरषन श्री मझाद पान व्यापारे श्री शत्रुजय गिरौ श्रीचित्रकूटवास्तव्य दो० करमाकृत सप्तमोद्धारसक्ता प्रशास्तिलिख्यतेस्वस्ति श्री सौख्यदो जीयाद् युगादिजिननायकः। केवलज्ञान विमलो विमलाचलमण्डनः ॥१॥ श्रीमेदपाटे प्रकटप्रभावे भावेन भव्ये भुवनप्रसिद्ध । श्रीचित्रकूटो मुकुटोपमानो विराजमानोऽस्ति समस्त लक्ष्म्या ॥२॥ सन्नन्दनो दात सुरद्रुमश्च तुङ्गः सुवर्णोऽपि विहारसार । जिनेश्वर स्नात्रपवित्रभूमिः श्रीचित्रकूटः सुरशोल तुल्यः ॥ ३ ॥ विशालसाल क्षितिलोचनाभो रम्योनृणां लोचनचित्रकारी । विचित्रकूटो गिरिचित्रकूटो लोकस्तु यत्राखिलकूट मुक्तः ॥ ४ ॥ तत्र श्री कुम्भराजोऽभूत कुम्भोद्भवनिभोनृपः । वैरिवर्गः समद्रोहि येनपीतः क्षणात् क्षितौ ॥ ५ ॥ तत्पुत्रो राजमल्लौऽभद्राज्ञां मल्लइवोत्कटः। सुतः संग्रामसिंहोऽस्य संग्राम विजयी नृपः ॥ ६॥ तत्पभूषणमणिः सिहेन्द्रवत् पराक्रमी। रत्नसिहोऽधुना राजा राज लक्ष्म्माया विराजते ॥ ७ ॥ इतश्च गोपाहगिरौ गरिष्ठः श्रीवप्पभट्टि प्रतियोधितश्च । श्रीआम राजोऽजनि तत्स्य पत्नो काचित्वभूव व्यवहारि पुत्री॥ ८ ।। तत्कुक्षिजाताः किल राजकोष्ठागाराहगौत्रे सुकतैकमात्र । श्री ओशवंशे विशदे विशाले तस्यान्वयेऽमीपुरुषाः मसिद्धा ।। ९ ।। प्राचीन जेन लेख संग्रह भाग दूसरा पृ. ९ यह शिला लेख तीर्थ श्रीशत्रुजय का सोलहवाँ उद्धार कर्ता कर्मशाहका है कर्मशाह गढ़ चित्तोड़ का निवासी था अतः शिलालेख में चित्तोड़ रांणा के उल्लेख के पश्चात् कर्मशाह के पूर्वजों को आचार्य बप्पभट्टि सूरि ने राजा श्राम (नागभट्ट) को जैन धर्म की दीक्षा दी उनके एक राणी व्यवहारी या ( महाजन ) की पुत्री थी उसकी सन्तान को विशाद ओसवंश में शामिल करदी अर्थात् उनकी रोटी बेटो व्यवहार उपकेश वंश के साथ में होने लगा इससे पाया जाता है कि श्राचार्य बप्पभट्टि सूरि के समय उपकेशवंश विशाल संख्या में एवं विशद प्रदेश में फैल चुका था तब ही तो राजा श्राम की सन्तान को उस उपकेशवंश के शामिल कर दी आगे कर्माशाह के पूर्वजों को वंशवृक्ष की नामावली दी है जो इस प्रकार हैं १-~-सरणदेव २ तत्पुत्र रामदेव ३ तत्पुत्र लक्षमण सिंह ४ तत्पुत्र भुवनपाल ५ तत्पुत्र भोजराज ६ तत्पुत्र ठाकुरसिंह ७-तत्पुत्र क्षेत्रसिंह ८ तत्पुत्र नरसिंह ९ तत्पुत्र तोलाशाह १० तत्पुत्र कर्माशाह ११ तत्पुत्र भिखाशाह आचार्य बप्पभट्टिसूरि का समय चैत्यवासिया का साम्राज्य का समय था आचार्य बप्पमट्टिसूरि भी चैत्यवासी ही थे तब ही तो आपने हस्ति एवं ऊंट की सवारी की तथा सिंहासन पर भी विराजते थे आपके शत्रुञ्जय तीर्थ का शिलालेख १२१७ Jain Education Int o nal Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास गुरुभ्राता नन्नसूरि के तो सिंहासन पर छत्र चामर होना भी लिखा था फिर भी आप चैत्यवासी होते हुए भी जैनधर्म का प्रचार करने में प्राण प्रण से कटिबद्ध रहते थे तथा गज सभा में वादियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजय विजयंति सर्वत्र फहराने में एवं जैनधर्म का उद्योत करने में वे सदैव संलग्न रहते थे तब ही तो ग्रन्थ कारने आपश्री को प्रभाविक आचार्यों की गणना में गिन कर प्रभाविक पुरुषों में स्थान दिया है । इधर तो श्राम राजा के परम मानिता आचार्य श्री बप्पभट्टिसूरि थे तब उधर लाटगुजरात और सौराष्ट्र में वनराज चावड़ा के गुरु आचार्य शीलगुणसूरि जैसे अतिशय प्रभावशाली प्राचार्य-जैसे बंबई कल. कुत्ता के दोनों लॉट हो तथा उपकेशगच्छाचार्यों का सर्वत्र भ्रमण एवं प्रचार इन प्रखर विद्वानों के सामने स्वामी शंकराचार्य और कुमारिलभट्ट जैसों की भी दाल नहीं गल सकी थी अतः उस विकट समय में जैनधर्म को सुरक्षित रखने वाले युग प्रवरों का हमको महान् उपकार समझना चाहिये । प्राचार्य श्रीहरिभद्रसरि मेदपाट प्रान्त में भूषण स्वरूप चित्रकूट नामक नगर था जो धन धान्य से और गुणी जनों से समृद्धि शाली स्वर्ग की स्पर्धा करने वाला था । वहां पर जैतारि नाम का राजा राज्य करता था। उसी नगर में चार वेद अठारह पुराण और चौदह विद्या में निपुण हरिभद्र नामक पुरोहित रहता था जो राजा से सम्मानित एवं नगर निवासियों से पूजित था। उसको अपनी विद्वता का इतना गर्व था कि वह पेट पर स्वर्णपट्ट बांधे रहता और हाथ में जम्बु वृक्ष की लता रखता । साथ ही एक कुदाला, जाल और निःश्रेणी भी रक्खा करता था। पूछने पर वह कहता-विद्या से मेरा पेट न फूट जाय इसलिये उदर पर पाटा तथा जम्बुद्वीप में मेरे से कोई वाद करने वाला वादि नहीं इसके लिये जम्बुलता रखता हूँ । वादी यदि पाताल में चला जाय तो कुदाला से खोदकर निकाल लाऊं और आकाश में चला जाय तो निश्रेणी से पैर पकड़ कर ले आऊं। इस प्रकार हरिभद्र पुरोहित गर्व सूचक चिन्ह अपने पास में रखता था । इतना होने पर भी उसने एक भीषण प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि जिस किसी के शास्त्र का अर्थ मैं न समझंगा तो मैं उसका शिष्य हो जाऊंगा क्योंकि हरिभद्र अपने आपको सर्वज्ञ समझता था। एक दिन पं० हरिभद्र अपने छात्रों के साथ बड़े ही आडम्बर से राज मार्ग में जा रहा था। इतने में एक मदोन्मत्त हाथी आ गया । कष्ट के भय से हरिभद्र चल कर जैन मन्दिर के द्वार पर जा पहुँचा । मुँह ऊंचा करते ही त्रिलोक पूज्य तीर्थकर देव को शान्तमुद्रा प्रतिमा उसके देखने में आई पर तत्व के अज्ञात भट्टजी ने तत्काल एक श्लोक बोला वपुरेव तवाचेष्टे स्पष्टं मिष्टान्न भोजनम् । नहि कोटर संस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाद्वलः ॥ इतने में हस्ति अन्यमार्ग से चला गया और हरिभद्र च न कर अपने मकान पर आ गया। बाद कभी एक दिन वह बहुत आडम्बर के साथ बाहिर जा रहा था कि रास्ते में एक साध्वी का उपाश्रय आया। उसमें याकिनी साध्वी एक गाथा उच्च स्वर से याद कर रही थीचक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीणकेसवो चक्की। केसव चक्की केसव दु, चक्की केसीय चक्कीय ॥ __ हरिभद्र ने गाथा सुन कर विचार किया तो उनको अर्थ नहीं जचा कारण एक तो गाथा प्राकृत की दूसरा संकेत सूचक सभास था । अतः उसने साध्वी से कहा माता ! यह चक चक क्या कर रही हो ? १२१८ आचार्य श्रीहरिभद्रसूरीः Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ मैं इसके भाव को समझ नहीं सका । अतः आप समझाइये । साध्वी ने कहा -- जैनागमों का अभ्यास करने की गुरु आज्ञा है पर विवेचन कर पुरुषों को समझाने की आज्ञा नहीं है । यदि आपको समझना हो तो हमारे गुरु महाराज अन्यत्र विराजमान हैं वहाँ जाकर समझ लीजिये। भट्टजी विचार करते हुए अपने मकान पर आये और शेष गत्रि वहीं व्यतीत की। बाद प्रातः काल नित्य क्रिया से निवृत्त हो घर से निकले कि पहिले तो वे जिनमन्दिर में आये। वहां भगवान की प्रतिमा को देख कर हर्ष के साथ प्रभु की स्तुति की "वपुरेव तवाचष्टे भगवन् वीतरागताम् । नहि कोरट संस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाहलः॥ बाद में अपनी जिन्दगी को निरर्थक समझते हुए मण्डप में विराजमान आचार्यश्री को देख उसके दिल में अच्छे भाव उत्पन्न हुए कि ये सभ्यता के सागर अवश्य वंदनीय हैं। पर आप थे ब्राह्मण-बस! सूरिजी के समीप आकर क्षणभर स्तब्ध खड़ा होगये । आचार्यश्री ने भटजी को देख मन में विचार किया कि ये तो वे ही ब्राह्मण हैं जो अपने आपको अभिमान पूर्वक विद्वान कह कर हस्ति के भय से जिनमन्दिर में श्राकर प्रभु की मूर्ति का उपहास किया था। हो सकता है, उस समय इनकी दसरी भावना होगी पर इस समय तो इनके हृदय ने अवश्य ही पलटा खाया है । इसी से इन्होंने अादर पूर्वक जिन स्तुति की है। खैर, देखें आगे क्या होता है ? थोड़े समय पश्चात् सूरिजी ने बड़े ही मधुर शब्दों में कहा-अनुपम बुद्धि निधान महानुभाव ! आप कुशल तो हैं न ? बतलाइये यहां आने का क्या प्रयोजन है ? हरिभद्र ने उत्तर दिया-पूज्यवर ! क्या मैं बुद्धि निधान हूँ ? अरे ! मैं तो एक वृद्ध साध्वी की एक गाथा के अर्थ को भी नहीं समझ सका अतः आप ही कृपा कर उस गाथा का अर्थ समझाइये । सूरिजी ने गाथा का अर्थ समझाते हुए कहा - "प्रथम दो चक्रवर्ती हुए, पीछे पांच वासुदेव, पीछे पांच चक्रवर्ती पीछे एक वासुदेव और चक्री, उसके बाद केशव और चक्रवर्ती, तत्पश्चात् केशव और दो चक्रवर्ती बाद में केशव और अन्तिम चक्रवर्ती हुए" गाथा का सम्पूर्ण अर्थ समझाते हुए आचार्यश्री ने कहा-हे शुभमति । अगर जैनागमों के सम्पूर्ण ज्ञान की अभिलाषा हो तो आप भगवती दोक्षा स्वीकार करो जिससे अपनी आत्मा के साथ दूसरों की आत्मा का कल्याण करने भी समर्थ हो जावो। सूरिजी के थोड़े से ही सारगर्भित उपदेश ने भट्टजी की भाद्रिक आत्मा पर इस कदर प्रभाव डाला कि हरिभद्र ने अपने दुराग्रह एवं परिग्रह का त्याग कर दिया और अपने कुटुम्बियों की अनुमति लेकर आचार्यश्री के चरण कमलों में जैन दीक्षा स्वीकार करली । बस, फिर तो था ही क्या ? मुनि हरिभद्र, पहिले से ही विद्वान थे अतः उनके लिये जैनागमों का अध्ययन करना तो लीला मात्र ही था। वे स्वल्प समय में ही सर्वगुण सम्पन्न होगये । आचार्य श्री ने भी उनको सब तरह से योग्य जान कर सूरिपद दे अपने पट्ट पर स्थापित कर दिया । तत्पश्चात् आचार्यश्री हरिभद्रसूरि अपने चरण कमलों से पृथ्वी मण्डल को पावन बनाते हुए भव्य जीवों का उद्धार करने लगे। एक समय हरिभद्रसूरि ने अपनी बहिन के पुत्र हंस और परमहंस को दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिये । उनको जैनागमों का अभ्यास करवा कर प्रकाण्ड पण्डित बनवा दिया पर उनको इच्छा बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन करने की हुई एतदर्थ उन्होंने गुरु महाराज से आज्ञा मांगो। आचार्यश्री ने भविध्य कालीन अनिष्ट जानकर आज्ञा नहीं दी पर इसका निषेध ही किया और कहा ऐसे विरह को मैं सहन हरिभद्र का गर्व-जिनस्तुति १२१९ Jain Educ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नहीं कर सकता अतः यहां पर भी बहुत से अन्यमत के शास्त्रों के ज्ञाता आचार्य हैं, तुम उन्हीं के पास जाकर पढ़ो। भवितव्यता बलवान है, अतः गुरु के बचनों को स्वीकार नहीं करते हुए शिष्यों ने पुनः पुनः प्रार्थना की। इस पर गुरु ने कहा- मेरी तो इच्छा नहीं है पर तुम्हारा इतना आग्रह है तो जैसा तुमको सुख हो वैसा करो । बस, दोनों शिष्य वेश बदल कर बौद्धों के नगर में आये और खाने पीने का अच्छा प्रबन्ध होने पर वे बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन करने में संलग्न होगये । बौद्धाचार्य जहां २ जैनागमों का खण्डन करते थे वहां २ हंस, परमहंस श्रर्थ युक्ति प्रमाण से बौद्धों का खण्डन अपने हाथों से लिख लेते थे । इस प्रकार बहुत समय तक अभ्यास किया । एक दिन इधर से तो हंस, बौद्धों का खण्डन लिख रहा था और उधर जोरों से मंगवायु चला जिससे अकस्मात् कागज उड़ गया । वह पत्र दूसरे छात्रों के हाथ लगा और उन लोगों ने जाकर बौद्धाचार्य को दे दिया । इसको पढ़ कर बौद्धाचार्य आश्चर्य के साथ दुःखी भी हुआ कि अहो मेरी असावधानी के कारण जैन धर्म के छात्र मेरा ज्ञान ले जा रहे हैं पर इसके सत्यासत्य का निर्णय कैसे हो सकता है ? इसके लिये सोपान पर एक जैन मूर्ति का अवलोकन कर सर्व विद्यार्थियों को ऑर्डर कर दिया कि इस मूर्ति पर पैर रख कर ही नीचे उतरना । इस भीषण हुक्म को सुन कर हंस परमहंस को बड़ा ही विचार हुआ । वे गुरु वचनों को याद करने लगे कारण, उनके लियेयह बड़ा ही विक्ट समय था । यदि मूर्ति पर पैर नही रक्खे जॉय तो जीवितरहना मुश्किल था और तीर्थकरों की मूर्ति पर पैर रखना एक जिनदेव की जान बूझ कर महान् आशातना करना था श्रतः वे विचार विमुग्ध हो गये । इतने में उनको एक उपाय सूम पड़ा और उन्होंने एक खड़ी का टुकड़ा हाथ में लेकर उस मूर्ति के वक्षस्थल पर यज्ञोपवीत की भाँति तीन रेखा खींच दी और उसे बुद्ध की मूर्ति बनादी बस वे भी मूर्ति पर पैर रख कर चले गये इससे सब बौद्धों को मालूम होगया कि ये जरूर ही जैन हैं। बहुत से बौद्ध उन दोनों जैन मुनियों का बदला लेने लगे तब श्राचार्य ने कुछ धैर्य रखने को कहा। जब वे दोनों रात्रि में शयन गृह में सो गये तो बौद्धों ने उनके चारों ओर पहरा लगा दिया। पर जब वे दोनों जागृत हुए तो छतों से नीचे उतर कर पलायन करने लगे । उनको भागते हुए देखकर मारो होगये । इस पर हंस ने परम हंस को कहा कि तू जल्दी से गुरु कहना कि हम लोगों ने श्रापका कथन स्वीकार न कर जो आपका साथ ही मेरा मिच्छामि दुक्कड़ कह कर मेरी ओर से क्षमापना करना । यदि तू वहां तक न पहुँचे तो पास ही में सूरपाल राजा का राज्य है और वह शरणागत प्रतिपालक भी है अतः तू वहां जाकर अपने प्राण बचालेना | परम हंस चला गया और हंस पर हजारों योद्धा टूट पड़े । हंस ने खूब संग्राम किया पर आखिर वह था अकेला ही अतः बौद्धों ने उसको मार डाला । २ करते हुए हजारों बौद्ध योद्धा उनके पीछे महाराज के पास जा और मेरी ओर से विनय किया उसका फल हमें मिल गया है इधर परम हंस चल कर सूरपाल राजा के शरण आया । बौद्ध को भी इस बात का संदेह हुआ अतः उन्होंने राजा को कहा- हमारे अपराधी को हमें सौंप दो । राजा ने कहा- मेरे शरण में आये हुए व्यक्ति नहीं मिल सकते हैं । अन्त में बहुत कुछ कहने सुनने के पश्चात् यह शर्त हुई कि - हम दोनों का आपस वाद विवाद हो । उसमें यदि उसकी जय होगी तो उसको छोड़ दिया जायगा अन्यथा । हमारा अपराधी हमें देना पड़ेगा । पर हम इस जैन अपराधी का मुंह नहीं देखेंगे श्रतः पर्दे में रह कर ही उससे हम बाद करेंगे । पर्दा रखने का कारण यह था कि पर्दे में बौद्धों की इष्ट देवी वादी के साथ बोलती थी । १२२० हंस परमहंस बोद्धों के वहाँ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ वाद बहुत दिनों तक चलता रहा पर बौद्धों की ओर से देवी बोलती थी अतः कई दिनों तक किसी की हारजीत का निर्णय न हो सका। इस पर परमहंस ने अपने गच्छ की अधिष्ठायिका देवी का स्मरण किया। देवी तत्काल उपस्थित होकर कहने लगी पर्दा हटा कर वाद करने में ही तुम्हारी विजय होगी। दूसरे दिन परमहंस ने आग्रह किया कि वाद प्रगट किया जाय । तदनुसार बौद्धों की तत्काल पराजय हो गई राजा ने भी संतुष्ट होकर परमहंस को जाने की रजा दी। जब परमहंस चला तो प्रतिज्ञा भ्रष्ट बौद्ध उनके पीछे हो गये । परम हंस खूब जल्दी चला पर एक सवार उनके समीप आता हुआ दिखाई पड़ा। दौड़ते २ एक धोबी दृष्टिगोचर हुआ तब उसके कपड़े लेकर परमहंस स्वयं धोने लगा और धोबी को आगे भेज दिया। पीछे से सवार आया और उसने कपड़े धोने वाले से पूछा कि-क्या तुमने यहां से किसी को जाते हुए देखा है ? उसने कहा-हाँ वह यहीं दौड़ता हुआ जा रहा है। जब सवार आगे निकल गया तो परमहंस वहां से चलकर सत्वर ही चित्रकूट पहुंच गया और गुरु के चरणों को नमस्कार कर मारे लज्जा के मुंह नीचा कर खड़ा हो गया कारण, गुरुकी आज्ञा बिना जाने का फल उसने देख लिया। ___थोड़ी देर के पश्चात् परमहंस ने गुरुचरणों में नमस्कार करके बीती हुई सारी हकीकत गुरु महाराज से निवेदन की । अपने सुयोग्य शिष्य हंस का बौद्धों के द्वारा मारा जाना सुन कर हरिभद्रसूरि ने शिष्य विरह की बहुत विचारणा की । निरपराध शिष्य को बुरी मौत से मारने के कारण उनको बौद्धों पर क्रोध हो पाया। वे चल कर तुरत सूरपाल राजा के पास आये । राजाने सूरिजी का यथा योग्य सत्कार वंदन किया । सूरिजी ने भी उसको धर्मलाभ रूप शुभाशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् सूरिजी ने राजा प्रति कहा-हे शरणागत प्रतिपालक राजन् ! आपने मेरे शिष्य परमहंस को अपनी शरण में रख कर बचाया, इसकी मैं कहां तक प्रशंसा करूं ? आपके जैसा साहस करने वाला और कौन हो सकता है ? अब मैं प्रमाण लक्षण से बौद्धों का पराजय करना चाहता हूँ और इसलिये मैं आप जैसे सत्य शील न्याय प्रिय राजेश्वर के पास आया हूँ । राजाने कहा-महात्मन ! आपका कहना ठीक है पर एक तो बौद्धों की संख्या अधिक है और दूसरा वे धर्मवाद से नहीं पर बाहुबल से वितण्डावाद विवाद करने वाले हैं अतः उनके लिये कुछ विशेष प्रपञ्च रचना की आवश्यकता होगी इसीलिये मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि आपश्री के पास कोई अलौकिक शक्ति है । हरिभद्र सूरि ने कहा-नरेन्द्र ! मुझे जीतने वाला कौन है ? मेरी सहायता करने वाली अम्बिका देवी है। इस बात को सुन कर राजा ने खुश हो आपने एक चतुर दूत को पठा कर बौद्धों के नगर में भेजा और बौद्धाचार्य को कहलाया कि-श्राप तीन लोक में प्रकाश मान हैं फिर भी बौद्धमत से वाद करने वाला एक वादी मेरे नगर में आया हैं। वे वाद कर बोद्धमत को पराजय करने की उद्घोषणा भी करते हैं। इससे हम को बहुत लज्जा आती है अतः आप यहां पधार कर वादी का पराभव करें जिससे दूसरा कोई भी वादी ऐसा साहस न कर सके । इत्यादि ___ दूत वड़ा ही विचक्षण एवं प्रपञ्च रचने में विज्ञ था । वह राजा के उक्त संदेश को लेकर राजा के पास से बिदा हो वौद्ध नगर में पहुँचा और अपनी वाक पटुता से राजा के संदेश को बौद्धाचर्य के सम्मुख सुना दिया। इस पर बौद्धचार्य ने क्रोधित होकर कहा- अरे दूत ! संसार मात्र में ऐसा कोई वादी मैंने नहीं रक्खा है जो मेरे सामने आकर खड़ा रह सके । हाँ, कोई जैन सिद्धान्त का अनुसरण करने वाला वाचालवादी तुम्हारे यहां आगया हो तो मैं तुम्हारे राजा के सामने क्षणमात्र में उसे परास्त कर सकता हूँ। अरे दूत ! क्या वादी हंस का मृत्यु हरिभद्र सूरपाल की सभा में १२२१ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७) [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को मृत्यु का भय नहीं है ? दूतने कहा-भगवन् ! आपका कहना सर्वथा सत्य है और मेरा भी यही विचार है। मैं मेरी अल्पमति से आपसे यह कह देना चाहता हूँ कि यद्यपि आप सर्व प्रकारेण समर्थ हो पर वाद के पूर्व यह शर्त कर लेना अच्छा होगा कि वाद में पराजित होने वाले को तप्ततेल की कड़ाई में प्रवेश करना होगा। दूत के मुंह से मनोऽनुकूल शब्द सुनकर बौद्धाचार्य ने दूत की खूब प्रशंसा की और कहा तेरा कहना सर्वथा उचित है । मैं इसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ। इप्स पर दूत ने इस बात को विशेष दृढ़ करने के लिये कहा--भगवान ! बहुरत्न वसुंधरा, इस न्याय से कदाचित् जो कि सम्भव नहीं है फिर भी वादी द्वारा आपको पराजित होना पड़े तो अपनी उक्त शत पर आपको भी पूर्ण विचार कर लेना चाहिये । आपके पराजय की मेरी कल्पना श्राकाशपुष्पवत् असम्भव है तथापि पहिले से विचार करलेना जरूरी है। इस पर बौद्धाचार्य ने कहा-अरे दूत ! उस शंका और कल्पना ने तेरे दिल में कैसे स्थान ले लिया है ? क्या तुझे विश्वास है कि इस संसार में वादी एक क्षण भर भी वाद में मेरे सामने खड़ा रह सकेगा ? तू सर्व प्रकारेण निश्चिन्त हो दृढ़ता पूर्वक मेरे भक्त राजा सूरपाल को कहदेना की वाद विवाद के लिये शीघ्र आरहे हैं। दूत ! अब तुम जाओ, मैं तुम्हारे पीछे शीघ्र ही रवाना हो निर्दिष्ट स्थान पर आरहा हूँ। बौद्ध नगर से चलकर दूत अपने राजा के पास आया और बौद्धाचार्य से हुए वार्तालाप को राजा के सन्मुख सविशद सुना दिया । राजाने दूत की बहुत प्रशंसा की व समुचित पुरस्कार दिया और हरिभद्र सूरि भी अपने इच्छित कार्य की सिद्धि के लिये बहुत ही आनन्दित हुए। बस, चार दिनों के पश्चात् बौद्धाचार्य अपने विद्वान शिष्यों को साथ में लेकर सूरपाल राजा की राजसभा में उपस्थित होगये । बौद्धाचार्य ने सोचा कि इस सामान्य कार्य के लिये अपनी सहायिका तारा देवी को बुलाने की क्या जरूरत है ? ऐसे वादियों को तो मैं यों ही क्षण भर में ही परास्त कर दूंगा इस आशा पर उन्होंने देवी को नहीं बुलाई और अपनी योग्यता के बल पर विश्वास रखकर राजसभा में विवाद करने को तैयार होगये। इधर प्राचार्य हरिभद्रसूरि भी इसके लिये समुत्सुक थे अतःराज सभा में दोनों के बीच वाद विवाद प्रारम्भ होगया। बौद्धाचार्य ने कहा-यह सब जगत अनित्य है। सत् शब्द केवल व्याकरण की सिद्धि के लिये ही है । इस पक्ष में यह हेतु है कि संसार के सकल पदार्थ अनित्य एवं अशाश्वत है जैसे जलधर ! हरिभद्रसूरि-यदि सकल पदार्थ क्षणिक हैं, तब स्मरण एवं विचार संतति कैसे चली आरही है ? पदार्थ को एकान्त क्षणिक स्वीकार कर लेने पर यह कैसे कहा जायगा कि हमने इस पदार्थ को पूर्व देखा । बौद्धाचार्य-हमारे मनकी विचार संतति सदातुल्य और सनातन होती है । उस संतति में इस प्रकार का बल होता है । जिप्ससे हमारा व्यवहार उसी प्रकार चल सकता है। . हरिभद्रसूरि - यदि मति तति नाशमान नहीं है तब सत् अर्थात् क्षणिक भी नहीं रही और संतति ध्रुव होने से तुम्हारे वचनों से ही तुम्हारी मान्यता का खण्डन होगया अतः तुमको अपनी मिथ्या मान्यता शीघ्र ही छोड़ देना चाहिये ।। बौद्धाचार्य, हरिभद्र सूरि की तर्क का समाधान नहीं कर सके । लोगों ने बौद्धाचार्य को मौन रहा देखकर यह घोषणा करदी कि बौद्धाचार्य पराजित होगये। बस उनको जबरन पकड़ कर तप्त तेल की कुण्डी में डाल दिया जिससे वे शीघ्र ही प्राणमुक्त हो गये । बौद्धाचार्य की मृत्यु का हाल देख उनका शिष्य समुदाय १२२२ हरिभद्रसूरि का बोद्धों के साथ शास्त्रार्थ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ बहुत ही घबरा गया और इधर उधर पलायन करने लगा । उक्त बौद्धाचार्य के शिष्य वर्ग में एक शिष्य बड़ा ही चालाक, एवं विद्वान था । वह वाद करने को हरिभद्रसूरि के सन्मुख आया पर हरिभद्रसूरि जैसे तर्क वेत्ता के सम्मुख उनकी दाल कहां तक गल सकती थी ? बेचारा क्षत्र मात्र में पराजित हो गया अतः तप्त तेल के कुण्ड का अतिथि बना दिया गया । इस तरह कई शिष्यवाद करने को आये और उन सब का यहो हाल हुआ । हे देवि ! हताश हुए बौद्ध भिक्षु अपनी अधिष्ठायिका तारादेवी को याद कर उपालम्भ देने लगे कि चिरकाल से हम चंदन, केशर, कुंकुम धूप और मिष्टान्न से तेरी पूजा करते हैं पर तू इस संकट समय में भी हमारे काम नहीं आई श्रत: तेरी पूजा हमारे लिये तो निरर्थक ही सिद्ध हुई । इससे तो किसी सामान्य पत्थर की पूजा करते तो अच्छा था । समीप में रही हुई देवी भिक्षुत्रों के दुर्वचनों को सुनकर देवी बोली अरे भिक्षुओं ! तुम लोगों ने कैसा अन्याय किया है ! दूर देश से ज्ञानाभ्यास के लिये आये हुए जैन श्रमणों को जिन प्रतिमा पर पैर रखवाने का प्रपञ्च किया पर वे धर्मनिष्ट श्रमण अपना सर्वथा बचाव कर चले गये फिर भी तुम लोगों ने बिना अपराध उनको मारडाला । इसी अन्याय के फल स्वरूप तुम्हारे गुरु और भिक्षुओं को यम कलेवा बन पड़ा । मैं सब हाल जानती थी पर अपने ही किये कमों का फल समझ कर उपेक्षा कर रही थी। अब भी मैं तुमको कहती हूँ कि तुम लोग अपने स्थान पर चले जाओगे तो मैं पूर्ववत तुम लोगों की रक्षा करती रहूंगी अन्यथा उपेक्षा ही समझना । इतना कहकर देवी अदृश्य होगई, देवी के कहे हुए वचनानुसार बौद्ध लोग भी स्वनिर्दिष्ट स्थान पर चले आये । 1 यहां पर कई लोग यह भी कहते हैं कि महामंत्र के बल से हरिभद्रसूरि बौद्ध भिक्षुओं को जबरन खींच २ कर तप्त तेल कुण्ड में डाल रहे थे तब उनकी धर्म माता याकिनी पञ्चेन्द्रिय जीव मारने का प्रायश्चित लेने की सूरि जी के पास गई तो उनको अपने उक्त कृत्य पर पश्चाताप हुआ और उसे छोड़ दिया । जब यह वृत्तान्त हरिभद्रसूरि के गुरु जिनदत्तसूरि ने सुना तो शिष्य को शान्त करने के हेतु दो शान्त श्रमणों के हाथ समरादित्य के जीवन की तीन गाथा लिखकर दी और उन्हें हरिभद्रसूरि के पास भेजा । वे दोनों श्रमण भी क्रमशः राजा सूरपाल की राज सभा में श्राये और गुरु संदेश सुनाकर हरिभद्र सूरि की सेवा में तीनों गाथाएं रखदी । । गुणसे अगिसम्म सहाणंदा य तह पिया पुता । सिंहजालिणी माइसुआ धण, धणसिरि मोहयपइभा ॥ १ ॥ जय विजया य सहोअर धरणो लच्छी य तहप्पड़ मजा । से विसेणा य पित्तिय उत्ता जम्ममि सत्तिए ||२|| गुणचंद अ वाणमंतर समराइच्च गिरिसेण पाणोय । एगस्स त ओ मोक्खोऽतो अन्नरस संसारो ||३|| अर्थात् प्रथम भव में गुणसेन और अग्निशर्मा, दूसरे भव में सिंह और श्रानंद पिता पुत्र हुए। तीसरे भव में शिखि और जालीनी माता पुत्र हुए। चतुर्थ भव में धन और धनपती पति पत्नी हुए। पांचवे भव में जय और विजय दो सहोदर हुए, छट्टे भव में धरण और लक्ष्मी पति-पत्नी हुए, सांतवें भव में सेन समरादित्य की तीन गाथा से संतोष १२२३ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विषेण पित्र बन्धु हुए, आठवें भव में गुणसेन और बाणव्यंतर हुए और नववें भव में गुणसेन समरादित्य और अग्निशर्मा मतंग पुत्र हुआ समरादित्य संसार से मुक्त हुआ और गिरिसेन अन्न्त संसारी हुआ । इसी प्रकार गाथाओं को पढ़ कर अर्थ विचारने में संलग्न हरिभद्रसूरि सोचने लगे कि एक वनवासी मुनि के पार का भंग होने से नियाणे के परिणाम स्वरूप भव चक्र में इतना परिभ्रमण करना पड़ा तब यहाँ तो क्रोध रूप दावानल की ज्वालाएं प्रसारित कर बौद्धमत के साधुओं को बुरी मौत मरवा डालने के कटु पाप का मुझे कैसे भीषण फल भोगना पड़ेगा ? इस प्रकार पश्चाताप करते हुए बौद्धों के वैर भाव को छोड़ कर गुरुमहाराज का अवर्णनीय उपकार मानते हुए हरिभद्रसरि ने सूरपाल राजा की आज्ञा लेकर तत्काल वहां से विहार कर दिया । क्रमशः गुरु के चरणों में आकर एवंमस्तक नमा कर क्रोध वशकिये हुए नर्थ के लिये क्षमा और प्रायश्चित की याचना करने लगे । गुरु महाराज ने हरिभद्र के मस्तक पर हाथ रखते हुए कहा कि - हरिभद्र ! तू महान् विद्वान एवं प्रभावक है । तेरे जैसों से शासन की शोभा है । इस प्रकार उनकी प्रशंसा करते हुए सूरि जी ने उनको पाप का योग्य प्रायश्चित दिया । इतना सब कुछ होने पर भी हरिभद्रसूरि को शिष्य विरह सदा खटकता रहता था । एक समय अम्बिका देवी सूरिजी के पास आई और वंदन करके उपालम्भ पूर्वक कहने लगी- गुरुदेव ! श्राप जैसे शास्त्रमर्मज्ञों को शिष्य मोह होना निश्चित ही एक आश्चर्य की बात है । कारण, कर्म फल तो सबको भोगना ही पड़ता है, इस पर भी आप स्वयं ज्ञानी हैं। आपको तो तप संयम की आराधना कर गुरु सेवा में रहते हुए आत्म कल्याण सम्पादन अवश्य करना चाहिये । हरिभद्रसूरि ने कहा --- देवी ! शिष्य विरह जितना दुःख नहीं है उतना अनपत्यता का दुःख है । इस पर देवी ने कहा- आपके भाग्य में शिष्य सन्तति का होना नहीं है अतः आपके शिष्य श्राप के निर्माण किये हुए प्रन्थ ही रहेंगे । बस, आज से श्राप इसी कार्य के लिये प्रयत्न शील रहिये । देवी के वचनानुसार आपने अपना कार्य प्रारम्भ किया । सर्व प्रथम तीन गाथाओं से अपने प्रतिबोध पाया था अतः प्रस्तुत तीन गाथा गर्भित समरादित्य चरित्र की रचना की और बाद में क्रमशः १४०० या १४४४ प्रन्थों का निर्माण किया । शिष्य विरह को लक्ष्य में रख विरहपद सहित अपना सर्व घटना युक्त चरित्र बनाया । जब ग्रन्थों का विस्तृत प्रचार करने का श्राप विचार कर रहे थे तब कार्पासिक नामक एक भव्य पुरुष दृष्टिगोचर हुआ । श्रापको अपने निर्माण किये प्रन्थों का प्रचार करने के लिये 'कार्पासिक' नाम का सेठ ही योग्य मालूम हुआ । अतः प्राचीन महापुरुषों एवं भारतादि के चरित्र को सुना उसे जैन धर्म की ओर आकर्षित किया । पञ्चधूर्त व्यान सुना कर उसकी जैन धर्म पर दृढ़ श्रद्धा स्थापित करवाई | दानादि । यथोचित स्वरूप को समझाया। इस पर उसने कहा- गुरु देव ! दान प्राधन जैनधर्म द्रव्य बिना कैसे शोभा देता है ? सूरिजी ने कहा- हे भव्य ! धर्म की आराधना से पुष्कल द्रव्य की प्राप्ति होती है । कार्पासिकने कहा-भगवन् ! यदि ऐसा ही है तो मैं मेरे सब कुटुम्ब के साथ आपकी सेवा करूँगा । सूरि जी - हे भव्य ! सुन, आज से तीसरे दिन विदेशी व्यापारी नगर के बाहर आयेंगे सो तू सब से पहिले जाकर उसका सब माल खरीद लेना जिससे तुझे बहुत ही लाभ होगा । तू धनी बन जायगा पर १२२४ हरिभद्र की संतति ग्रन्थ ही होगी Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८ से १२३७ याद रखना कि उस द्रव्य से मेरे निर्माण किये सब शास्त्र लिखवा कर भण्डारों में रखने, साधुओ को पठन पाठन के लिये भेंट करने एवं प्रचार करने होंगे । बस, महा पुरुषों के वचनों में कभी संदेह हो ही नहीं सकता है, तदनुसार कार्पासिक बड़ा ही धनवान् होगया । इस पर उसने सूरिजी की आज्ञा का सम्यक प्रकारेण पालन किया । सूरज ने अन्यभावुक को उपदेश न देकर एक ही भक्त से ऊच शिखरवाले चौरासी चैत्य बनाये । चिरकाल से जीर्ण शीर्ण हुए और दमक से काटे गये महानिशीथ सूत्र का पुनरुद्धार करवाया। कहा जाता है कि इस कार्य में १ - आयरिय हरिभद्देण २ - सिद्धसेण xx ३ – बुड्ढवाई xx, ४ - जक्खसेण x x ५ - देवगुत्ते xx, ६ – जस्समद्देणं x x ७- खमासमणसीसरवित्त x x ८ - जिणदासगणि" x x । "महानिशीथ सूत्र " xx, " " 3 इन आठ आचार्यों ने महानिशीथ सूत्र का उद्धार कर पुनः लिखा था। जो आज भी विद्यमान इत्यादि श्राचार्य हरिभद्रसूरि ने जैनशास्त्र की महान सेवा एवं प्रभावना की । यदि यह कह दिया जाय कि जैनधर्म के साहित्य निर्माण करने में पहला नम्बर आपका है आप अपनी जिन्दगी में जितने ग्रंथों की रचना की है एक मनुष्य अपनी जिन्दगी में उतने शास्त्र शायद ही पढ़ सके ? अन्त में आचार्य श्री ने श्रुतज्ञान द्वारा अपने आयुष्य की स्थिति बहुत नजदीक जानकर तत्काल अपने गुरू महाराज के चरणों में उपस्थित हुए चिरकालीन शिष्य विरह को त्याग कर आलोचना पूर्वक अनसन व्रत की आराधना कर समाधि पूर्वक स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया। जैनशासन रूपी आकाश में हरिभद्राचार्य रूपी सूर्य ने अपनी किरणों का प्रकाश दिग-दिगान्त तक प्रसरित कर जैनधर्म का बहुत उद्योत किया ऐसे महापुरुषों का विरह समाज को असह्य होना स्वभाविक ही है अतः उन महापुरुष को कोटी कोटी बन्दन नमस्कार हो । पूज्याचार्य हरिभद्रसूरि का चरित्र मैंने प्रभाविक चरित्र के आधार पर संक्षिप्त ही लिखा है पर आचार्य भद्रेश्वरसूरि की कथावली में भी श्राचार्य हरिभद्रसूरि का चरित्र लिखा हुआ मिलता है किन्तु उसके अन्दर सामान्यतय कुच्छ भिन्नता मालुम होती है पाठकों के जानकारी के लिये यहां पर सूचना मात्र करदी जाति है आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्यों के नामचरित्र कारने हंस और परमहंस लिखा है पर कथावली में जिनभद्र और वीरभद्र बतलाया है । शायद शिष्यों के नाम तो जिनभद्र और वीरभद्र ही हो यदि उनके उपनाम हंस और परमहंस हो तो संभव हो सकता है क्योंकि जैन मुनियों के हंस परमहंस नाम कहीं पर लिखा हुआ नहीं मिलता है | दूसरा चरित्र में हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थों का प्रचार के लिये 'कार्पासिक' गृहस्थ को प्रति बोध देकर एवं व्यापार का लाभ बतला एवं कार्पासिक को व्यापार में पुष्कल द्रव्य मिल जाने से उसने हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों को लिखवाकर सर्वत्र प्रचार किया तथा चौरासी देहरियोंवाला जैनमन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई । इत्यादि । तब कथावली में हरिभद्रसूरि ने एक लल्लिंग नामक गृहस्थ जो आपके शिष्य जिनभद्र-वीरभद्र के काका लगता था उसका विचार तो संसार का त्याग कर सूरिजी के पास दीक्षा लेने का था पर श्रुतज्ञान के पारगामी सूरिजी ने उसको दीक्षा न देकर ऐसी सूचना की कि जिससे वह गरीब स्थिति आचार्य हरिभद्रसूरि के जीवन में १२२५ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास से निकल खूब धनाढ्य बन गया और वह सेठ सूरिजी के कार्य में बहुत सहायक बन गया उस लल्लिग सेठ ने सूरिजी के मकान पर एक ऐसा रत्न रख दिया कि सूरिजी रात्रि में भी प्रन्थ रचना कर सके जैसे रात्रि में वे भीत शिला पर लिखते जिसको दिन में लेखक से लिखवा लेते थे । कइ स्थानों पर यह भी लिखा है कि हरिभद्रसूरि के जब आहार करने का समय हो जाता तब वे शंक्ख बजाकर याचकों को एकत्र कर उनकों मनेच्छित भोजन देकर बाद में श्राप भोजन करते थे पर कथाली में लिखा है कि शंक्ख सूरिजी नहीं पर लल्लिंग सेठ बजाता था और याचकों को दान भी वही देता था सूरिजी तो उन याचकों की वन्दना के बदला में भवविरह रूप आर्शीवाद देते थे जिससे सूरिजी का नाम भी भवविरहसूरि पड़ गया था । हरिभद्रसूरि का समय चैत्यवास का समय था और चैत्यवास करने वालों में शिथिलाचारी भी थे और सुविहितभी थे - हरिभद्रसूरि के गुरु जिनदत्तसूरि तथा विद्यागुरु जिनभटसूरि चैत्य में ही ठहरते थे पुरोहित हरिभद्र जिस समय जैनमन्दिर में श्राया था और प्रभु की निंदामय स्तुति की थी उस समय आचार्यजिन दत्तसूरि मन्दिर में विराजते थे तथा दूसरी बार फिर हरिभद्र जैनमन्दिर में श्राया और जिनेन्द्रदेव के गुणों की स्तुति की उस समय भी आचार्यश्री जिनमन्दिर में ही ठहरे हुए थे और हरिभद्र को उपदेश भी वही दिया था इससे पाया जाता है कि हरिभद्रसूरि के गुरु चैत्यवासी थे तब हरिभद्रसूरि भी चैत्यवासी हो तो असंभव जैसी कोई बात नहीं है पर हरिभद्रसूरि ने अपने प्रन्थों में चैत्यवासियों के शिथिलाचार के लिये फटकार कर लिखा भी है इससे कहा जा सकता है कि हरिभद्रसूरि सुविहित थे चैत्यवासी नहीं । हरिभद्रसूरि ने चैत्य के लिये विरोध नहीं किया था पर शिथिलाचार का ही विरोध किया था यह बात में पहले लिख आया हू कि चैत्य में ठहरने वाले सब शिथिलाचारी नहीं थे पर कइ सुविहित भी थे और उनमें कइ चैत्य में ठहरते थे तब कइ उपाश्रय में भी ठहरते थे पर चैत्य में ठहरने का विरोध कोइ नहीं करते थे विक्रम की ग्यारवी शताब्दी के पूर्व चैत्य में ठहरने का किसी ने भी विरोध किया हो मेरी जान में नहीं है । हरिभद्रसूरि ने समरादित्य की कथा में उनके पूर्व भावों का वर्णन में लिखा है कि साध्वियों के उपाश्रय में जिन प्रतिमाएं थी और उस मकान में ठहरी हुइ साध्वी को कैवल्य ज्ञान हुआ था यदि चैत्यवास ही अकल्पनिक होता तो उसमें ठहरने वाली साध्वी को केवल ज्ञान कैसे हो जाता ? जबकि भावनिक्षेप रूप स्वयं तीर्थङ्करों की मौजूदगी में मुनि उनके पास रहते आहार पानी क्रियाकाण्ड सब कुच्छ करते थे तब स्थापना निक्षेप रूप जिन प्रतिमा के पास मुनि ठहरते हो तो इसमें विरोध जैसी कोई बात ही नहीं है । आज हमारी चैत्यवास से रूची है इसका कारण चैत्यवासियों के प्राचार शिथिलता ही है इसके विषय मैंने एक "चैत्यवास" प्रकरही अलग लिखने का निश्चय किया है । हरिभद्रसूरि का समय हरिभद्रसूरि का समय के लिये पट्टावलियांदि पूर्वाचार्यों के प्रन्थों में लिखा हुआ मिलता है कि. १२२६ पंचस पणसी विक्कम काले उक्तत्ति अत्थमिओं । हरिमद्दसूरिसूरो, भवियाणं दिस्तु कल्लाणं ॥” श्रर्थात् विक्रम सम्वत् ५८५ में हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास हुआ था - वर्तमान में विद्वानों की शोध हरिभद्रसूरि का समय Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११०८-१२३७ खोजने हरिभद्रसूरि का सत्ता समय विक्रम की आठवो एवं नौवी शताब्दी के बिच का समय ठहराया है इस विषय पूज्य पन्यासजी श्री कल्याणविजयजी म. ने प्रभाविक चरित्र की पर्यालोचना में विविध प्रमाणों द्वारा चर्चा करते हुए पूर्वाक्त समय निश्चत किया है जिज्ञाषुओं को वहां से जानकारी करनी चाहिये तथा हरिभद्र सूरि समय निर्णय नामक ट्रेक्ट से अवगत होना चाहिये "दिवसगणमनर्थकं स पूर्व स्वकमभिमान कदथ्यंमान मूर्तिः ।। अमनुत स ततश्च मण्डपस्थ, जिनभटसूरि मुनीश्वरं ददर्श ॥ ३० ॥ अथ सुगतपुरं प्रतस्थतुस्ताव गणित - सद्गुरु गौरवोपदेशौ । अतिशय परि गुप्त जैनलिङ्गो न चलति खलु भवितव्यतानियोगः ॥६॥ कतिपय दिवसैरे वा पतुस्तां सुगतमत्तपतिबद्धराजधानीम् । परिकलित कलावधूत वेषावतिपठनार्थितया मठं तमाप्तो ॥ ६१॥ ज़िनपतिमत संस्थिताभिसंधि पति विहितानि च यानि दूषणा नि । निहतमतितयायतेनिरीक्षातिशयवशेन निजागमप्रमाणैः ॥ ६४ ॥ दृढ़मिह परिहृत्य तानि हेतून विशदतरान् जिनतर्क कौशलेन । सुगतमत निषेधाठ्ययुक्तान् समलिखताम परेषु पत्रकेषु ॥ ६५ ॥ इति रहसि च यावदाददाते गुरुपवमानविलोडितं हि तावत् । अपगतममुतः परेश्च लब्धं गुरु पुरतः समनायि पत्र युग्मम् ॥ ६६ ॥ उदमिषदथ बुद्धिरस्य मिथ्याग्रहमकरा कर पूणचन्द्ररोचिः । अवददथ निजान् जिनेश बिम्ब वलजपुरोनिदधध्वमध्वनीह ॥ ७० ॥ नरक फल मिदं न कर्व हे श्रीजिनपति मुद्धेनि पादयोर्निवेशः । परिशटित तेरौ वरं विभिन्नौ निज चरणौ नतु जिन देहलग्नौ ।। ७६ ॥ तदनु च खटिनी कुतोपवीतौ जिनपति विम्ब हृदिप्रकाशसत्तौ । शिरसि च चरणो निधाय या तौ प्रयत तमै रूप लक्षिनो च बौद्धौः ॥७॥ हत हत परिभाषिणस्त योस्तेऽनुपद मिमे प्रययुर्भटास्त दीयाः । अतिसविधमुपागतेषु हंसोऽवदिति तत्र कनिष्टमात्मबन्धुम् ॥९॥ व्रज झगिति गुरोः प्रणाम पूर्ण प्रकथय मामक दुष्कृतं हि मिथ्या अभणित करणान्म मापराधः कुविनयतोविहितः समपंणीयः ॥ ९१॥ इह निवसति सूरपाल नामा सरण समागत वत्सलः क्षितीक्षः । नगरमिदमिहास्य चक्षुरीक्ष्यं निकटतरं ब्रज सन्निधो ततोऽस्य ॥ ९३ ॥ अथ बहुदिन वादतो विषण्णः स परमहंस कृती विषद माधात् । प्रभाविक चरित्र का प्रमाण १२२७ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ } [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास roomnonmannmanwwwwwwwwww विभवति गुरुसंकटे विचित्य निजगण शासनदवता किलाम्बा ॥१०५ ॥ रजक इह स तेन दर्शितोऽस्य त्वरिततरः स च शीघ्रमेव तेन । निज भटनिवहे समापि धृत्वा प्रतिववले चवलं तदीव वाक्यात् ।।११७॥ इति जिनपति शासनेऽपि सूक्तं गुरुतर दोष मनुद्धतं हि शल्यम् । सुगतमत भृतोनिवर्हणीयाः स्वसृसुत निर्मथनोत्थ रोष पोषात् ॥१३३॥ वचनमिति निशम्प तस्य भूपः सुगतपुरे प्रजिघाय दूतमेषः । अपि स लघु जगाम तत्र दूतो वचन विचक्षण अदृत प्रपञ्च ॥१४२॥ लिखत वच इदंपणे जितो यः स विशतु तप्त वरिष्ट तैलकुण्डे । इति भवतु स्ववीप्सया प्रशंसामिह विदधेऽस्य गुरुर्विचार हृष्टः॥१५०॥ इति वचननिरूत्तरी कृतोऽसौ सुगतमत्त प्रभुरचचार मौनम् । जित इति विदिते जनैनिपेते द्रुततरमेष सुतप्ततैलकुण्डे ॥ १६६ ॥ दृढ़मिह निरपत्यता हि दुःखं गुरुकुल मापमलं मयिक्षतं किम् । इति गदति जगाद तत्र देवीशृणु वचनं मम सुनृवतं त्वमेकम् ॥२०२॥ नहि तव कुल वृद्धिपुण्य मास्ते ननु तव शास्त्रसमूह सन्ततिस्त्वम् । इति गदितवती तिरोदधे सा श्रमणपतिः स च शोक मुत्स सजं ॥२०३।। चिर लिखित विशीर्ण वर्णभग्न प्रविदरपत्र समुह पुस्तक स्थम् । कुशलमतिरिहोद्धधार जैनोपनिषदिकं स महानिशीथ शास्त्रम् ॥२१९।। प्र० च कादिवेताल प्राचार्य श्री शान्तिसरि गुर्जरप्रान्त में अणहिल्लपुर नाम का धन्य धान्य से समृद्धि शाली एक प्रख्यात नगर था। वहाँ पर कनक के समान कान्तिवाला महान् पराक्रमी भीम नामाङ्कित राजा राज्य करता था। चंद्रगच्छ रूप सीप के लिये मुक्ता फल समान थारापद्र नाम का प्रख्यात गच्छ था । उस गच्छ में विजय सिंहसूरि इति नामालकृत प्रतिभाशाली आचार्य वर्तमान थे । वे सम्पक चैत्य के समीप वर्ती स्थानों में रहते हुए मय अमृतोपदेश से सदैव भव्य कमल को विकसित करते थे। पाटण के पश्चिम में उन्नायु नाम का एक प्राम था। वहाँ श्रीमालवंशीय धनदेव नामक श्रेष्टी रहता था। धनश्री नाम की आपके धर्मपत्नी व भीम नाम का एक पुत्र था। इधर श्राचार्य श्रीउन्नायु प्राम में पधारे । भीम बालक के शुभ लक्षणों को देखकर आचार्यश्री ने अपने ज्ञान से यह, जान लिया कि-यह बालक यदि दीक्षित होगा तो निश्चित ही शासनोद्धारक होगा। बस, आदिनाथ भगवान के चैत्य में चैत्यवंदन करके वे तत्काल धनदेव सेठ के यहां गये और भीम बालक की याचना की। माता पिता ने आचार्यश्री के वचनों का सन्मान करते हुए कहा-पूज्यवर ! यदि भीम, आपके कार्य में सायक हो तो गुरु देव ! मैं निश्चित ही कृत कृत्य हूँ । इस प्रकार उनकी अनुज्ञा से सूरिजी ने बालक भीम को दिक्षित कर गुणानुरूप उसका श्रीशान्ति १२२८ वादिवैतालशान्तिपरि Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ नाम रख दिया । कुछ ही समय में मुनि शान्ति शास्त्रों का पारगामी होगया। आचार्यश्री ने भी अनुक्रम से उन्हें सूरिपद प्रदान कर श्राप अनशनाराधन में संलग्न होगये । श्रीशान्तिसूरि भी अणहिल्जपुर नरेश भीम राजा की राज-सभा में कवीन्द्र और वादि चक्री रूप में प्रसिद्ध हुए । अर्थात् राजा ने सूरिजी को दो पद्वियों एक ही साथ प्रदान कर दी। सिद्धपारस्वत तरीके प्रसिद्ध, अवंतिका देशवासी धनपाल नाम का एक प्रख्यात कवि था। दो दिन उपरान्त के दहि में जीव बता कर श्री महेंद्रसूरि गुरु ने उसको प्रतिबोध दिया था। उसने तिलक मञ्जरी नामक कथा बनाकर पूज्यगुरुदेव से प्रार्थना की कि इस कथा का संशोधन कौन करेगा ? इस पर प्राचार्यश्री ने कहा-शान्तिसूरि तुम्हारी इस कथा का संशोधन करेगा। बस, धनपाल कवि तत्काल चलकर पाटण आया। उस समय सूरिजी उपाश्रय में सूरि मंत्र का स्मरण करते हुए ध्यान संलग्न बैठे थे। उनकी प्रतिक्षा में बाहिर बैठे हुए धनपाल कवीश्वर ने नूतन अभ्यासी शिष्य के सम्मुख एक अद्भुत श्लोक बोलाखचरागमने खचरोहृष्टः खचरेणांकित पत्र धरः । खचरवरं खचरश्वरति खचरमुखि ! खचरं पश्य ॥ हे मुनि ! आप इसका अर्थ बतला सकते हो तो बतलाओ । इस पर नूतन मुनि ने बिना किसी कष्ट के सुंदर अर्थ कह दिया धन पाल एक दम आश्चर्य विमुढ़ होगया। पश्चात् धनपालने मेघ समान प्रखर ध्वनि से वहां पर सर्वज्ञ और जीव की स्थापना रूप उपन्यास रचा। इतने में गुरु महाराज सिंहासन पर विराजमान हुए और एक प्राथमिक पाठ के पढ़ने वाले शिष्य को कहा कि-हे वत्स ! स्तम्भ के आधार पर बैठकर तुमने क्या किया ? उस शिष्य ने कहा-गुरुदेव ! कवि ने जो कुछ कहा, उसको मैंने धारण कर लिया है। गुरु ने कहा-तो सब कह कर सुना दे। आचार्यश्री के आदेश से उसने कवि कथित वचनों को कह सुनाये इस पर कवि के आश्चर्य का पारा वार नहीं रहा । कवि ने साक्षात् सरस्वती स्वरूप शिप्य को अपने साथ भेजने के लिये आचार्यश्री से प्रार्थना की पर वाचना स्खलना के भय से उन्होंने स्वीकार नहीं किया। तब आचार्यश्री को ही मालव देश में पधारने की विनती की । संघ एवं राजा की अनुमति से भीमराजा के प्रधानों सहित प्राचार्यश्री ने मालव देश की ओर पदार्पण किया। मार्ग में सरस्वती देवी ने प्रसन्नता पूर्वक आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होकर कहा-चतुरंग सभा समक्ष जब आप अपने हाथ ऊंचे करोगे तब दर्शन निष्णात सब वादी पराजित हो जावेंगे । आचार्यश्री ने भी देवी के वचनों को सहर्ष हदयनाम कर लिये । आगे जाते हुए धारानगरी का राजा भोज सूरिजी के सम्मानार्थ पांच कोस सन्मुख आया। उसने यह घोषणा की कि हमारे वादियों को जो कोई जीतेगा उसको प्रत्येक के उपलक्ष में एक लक्ष द्रव्य इनाम में दिया जावेगा । मुझे गुजरात के श्वेताम्बर साधुओं के बल को देखना है। पश्चात वहां राजसभा में प्रत्येक दर्शन के पृथक् ८४ वादीन्द्रों को ऊंचा हाथ कर २ के आचार्यश्री ने जीत लिया। राजाने ८४ लक्षद्रव्य देकर तुरंत सिद्ध सारस्वत कवि को बुलाया । उसके पश्चात भी बहत से वादी आये और पांच सौ वादियों की जीत में ५ करोड़ द्रव्य व्यय होने से राजा भयभीत हुआ। अब वाद विवाद के कार्य को बंद करके राजाने सूरिजी को वादीवैताल का विरुद दिया। धनपाल कृत तिलक मजरी कथा का संशोधन करके उसे शुद्ध किया । इधर गुर्जरेश्वर का विशेषामह होने से कवीश्वर सहित सूरिजी पुनः पाटण में पधारे। वहां पर जिन धारा के पंडित धनपाल १२२९ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास देव सेठ के पुत्र पद्म को सर्प ने काट खाया था । सविशेष मन्त्रोपचार करने पर भी स्वस्थ न होने से स्वजनों ने भविष्य की आशा पर एक खड्डे में उसे रख दिया। कुछ समय के पश्चात् अपने शिष्यों के द्वारा सूरिजी को मालूम होने पर वे स्वयं जिनदेव के घर गये और उसको बतलाने के लिये कहा । जिनदेव भी प्रसन्न हो गुरुदेव के साथ स्मशान में गया और उसे बाहिर निकाला। प्राचार्य ने अमृत तत्व का स्मरण कर उस पर हाथ फेरा जिससे वह जीवित होगया। इससे उन लोगों की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा और वे सब गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। कृतज्ञता सूचक शब्दों से आचार्यदेव की स्तुति कर उनका बहुत आभार माना। __ वादीवैताल शान्तिसूरि धुरंधर विद्वान, महान कवि, चमत्कारी, विद्या से विभूषित जैनशासन की प्रभावना करनेवाले प्राचार्य थे। आपने अपने शिष्यों को स्व पर मत की वाचना देकर विद्वान बनाये थे । वाद विवाद करने में वे सिद्धहस्त या पूर्ण कुशल थे। धर्म नाम के उद्भट विद्वान वादी को तो लीलामात्र में ही परास्त कर दिया जिससे वह तत्काल ही सूरिजी के चरण कमलों में नतमस्तक होगया। एक समय आचार्यश्री के पास द्राविड़ देश का वादी श्राया पर वह वादमें पशु की भांति निरुत्तर हुआ। एक दिन अव्यक्तवादी सूरिजी के पास आया परन्तु वह भी सूरिजी के असाधारण पाण्डित्य के सम्मुख लजित हो वापिस चला गया इससे प्रभावित हो जन-समाज कहने लगा-जब तक शान्तिसूरि रूप सहस्त्ररश्मि धारक सूर्य प्रकाशित है तब तक वादो रूप खद्योत निस्तेज ही रहेंगे। एक समय शान्तिसूरिजी थरापद्र नगर में पधारे। वहां नागिन देवी व्याख्यान के समय नृत्य करने को आई । सूरिजी ने उसके पट्टपर बैठने के लिये वासक्षेप डाला । इस प्रकार के प्रतिदिन के क्रम से आचार्यश्री और देवी के वासक्षेप डालने, लेने की एक प्रवृत्ति पड़ गई। किसी एक दिन सूरिजी वास-क्षेप डालना भूल गये अतः पट्ट पर न बैठ कर देवी आकाश में ही स्थित रही। जब रात्रि को शयन करने का समय आया तो देवी उपालम्भ देने के लिये सूरिजी के स्थान पर आई। देवी के दिव्य रूप को देख कर सूरिजी ने अपने शिष्य से कहा हे मुने ! क्या यहां कोई स्त्री आई है ? शिष्य ने कहा-गुरुदेव ! मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ इतने ही में देवी ने आकर कहा-प्रभो! आपके वासक्षेप के अभाव में मैं खड़ी रहीतो मेरे पैरों में पीड़ा होगई है । आप जैसे प्रज्ञावानों को भी इतनी सी बात विस्मृत हो जाय यह आश्चर्य की बात है । अब आपका आयुष्य केवल ६ मास का ही रहा है अतः परलोक की आराधना और गच्छ की व्यवस्था शीघ्र कीजिये । इतना कह कर देवी अदृश्य होगई । प्रातःकाल होते ही सूरिजी ने गच्छ एवं संघ की अनुमति लेकर अपने ३२-शिष्यों में से तीन मुनियों को श्राचार्य पद अर्पण किया जिनके नाम वीरसूरि, शातीभद्रसूरि और सर्वदेवसूरि हैं । ये तीन आचार्य मानों ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्रति मूर्ति ही हैं। इनमें वीरसूरि की सम्तान अभी नहीं है पर दोनो सूरियों की सन्तान आद्यावधि विद्यमान है । प्राचार्य वादीवैताल शान्तिसूरीश्वर यश श्रावक के पुत्र सोढ़ के साथ चल कर रेवताचल आये और मिनेनाथ भगवान् के ध्यान में संलग्न हो २५ दिन का अनशन स्वीकार कर समाधि के साथ वि० सं० १०९५ ज्येष्ठ शुक्ला नौमि मंगलवार कार्तिका नक्षत्र में आचार्य वादीवैताल शात्ति सूरि स्वर्ग के अतिथि हुए । श्राचार शान्तिसूरि चैत्यवासियों में अप्रगण्य नेताओं की गनती में महान् प्रभाविक जैन धर्म का उद्योत करने वाले वादीवेतालविरुद्ध धारक महा प्रभाविक आचार्य हुए । के आचर्यश्री ने वादियों को परास्त wwwwwwwww.ve १२३० Jain Education international Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] ग्रावार्य सिद्धा सूरि मरुधर की मनोहर भूमि पर श्रीमालनगर जिनचैत्यों से सुशोभित था । ऐतिहासिक क्षेत्रों में इस नगर का आसन सर्वोपरि है। यहां पर वर्मताल नामक राजा राज्य करता था । चार बुद्धि का निधान रूप राज्य नीति परायण सुप्रभ नाम का राजा के प्रधान मन्त्री था जो राज तन्त्र चलाने में सर्व प्रकार से समर्थ था । स्कंध के समान सर्वभार को वहन करने वाले उस मंत्री के दत्त और शुभंकर नाम के दो पुत्र थे । इन में दत्त कोट्याधीश था और उसके माघ नामक पुत्र था । वह प्रसिद्ध पण्डित और विद्वद्जनों की सभा को रंजन करने वाला था । राजा भोज की ओर से उसका अच्छा सत्कार हुआ करता था। दूसरे शुभंकर श्रेष्ठी के लक्ष्मी नाम की प्रिया थी । इनकी उदारता और दानशीलता की प्रशंसा स्वयं इन्द्र महाराज अपने मुंह से करते थे । इच्छित फल को देने में कल्पवृक्ष के समान इनके एक पुत्र था जिसका नाम सिद्ध था । जब सिद्ध कुमार ने युवावस्था में पदार्पण किया तो उसके माता पिता ने उसकी शादी एक सुशीला, सदाचारिणी, सर्वकला कोविदा, सर्वाङ्ग सुंदरी श्रेष्टि पुत्री के साथ कर दी । कर्मों की विचित्र गति के कारण सिद्ध कुमार के घर में अपार लक्ष्मी के होने पर भी कुसंगति के फल-स्वरूप वह जुनारी होगया । यहां तक कि केवल क्षुधाशांति की गर्ज से ही वह घर का मुंह देखता था । रात्रि की परवाह किये बिना श्राधी रात तक भी कभी घर आने का नाम नहीं लेता था । जब आता भी था तो वैरागी योगी की भांति रहता था इससे सिद्ध की स्त्री महान् दुःखी होगई । बिना रोग के ही उसका शरीर कृष होने लगा । एक दिन सासु ने कहा बहू ! क्या तेरे शरीर में कोई गुप्त रोग है ? जिसके विषय में लज्जा के मारे अभी तक तू कुछ भी नहीं कह सकी है। तू स्पष्ट शब्दों में तेरे दिल में जो कुछ भी दर्द हो कह दे, मैं उसका उचित उपाय करूंगी । सासुजी के अत्याग्रह करने पर उसने कहा- पूज्य सासुजी ! मुझे और तो कुछ भी दुख नहीं है पर आपके पुत्र रात्रि में बहुत देर करके आते हैं और आने पर योगी की तरह बिना अपराध ही मेरी उपेक्षा करते रहते हैं अतः मारे चिन्ता एवं उद्विग्नता से मेरी यह हालत हो रही है। इस पर सासु ने कहा- बहु ! तू इस बात का तनिक भी रंज मत कर । मैं पुत्र को अच्छी तरह से समझादूगी । आज तू निश्चय होकर सो जा । उसके आने पर द्वार मैं खोल दूंगी। बस, सासु के वचनों के आधार पर बहु तो सो रात्रि व्यतीत हो गई तो सिद्ध ने आकर किवाड़ खट खटाये और पर माता ने कृत्रिम को बतला कर कहा- बेटा ! इतनी देरी से जागृत हो रहा करें । इस समय जहाँ द्वार खुला हुआ हो वहां चले जाओ, यहां द्वार नहीं खोला जायगा | माता के सरल किन्तु व्यङ्ग पूर्ण वचनों को सुन कर सिद्ध चला गया । इतनी रात्रि के चले जाने पर सित्राय योगी [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ आचार्य सर्प का जीवन गई और माता जागृत रही । जब बहुत किवाड़ खोलने के लिये आवाज दी । इस आता है तो क्या तेरे लिये सारी रात्रि भी * पथि संञ्चरतांतेषां निशि सङ्गत्य भारती आदेशं प्रददे वाचा प्रसादातिशय स्पृशा ४२ स्वस्वदर्शन निष्णाता ऊर्ध्वहस्तेस्वयाकृते । चतुरङ्ग सभाध्यक्ष विद्व विष्यन्ति वादिनः । ४३ सको योजनं धारानगरीतः समागत् । तस्य तत्र गतत्स्य श्रीभोजो हर्पेण संमुखः । ४४ एकैक बादि विजये पर्णसंविदधेतदा । मदीया वादिनः केन जय्य इत्यभि सन्धित्ताः । ४५ लक्षलक्षं प्रदास्यामि विजये वादिनं प्रति । गूर्जरस्य बलं वीक्ष्यं श्वेतभिक्षोंर्मया ध्रुवम् ॥ ४६ शान्ति नम्ना प्रसिद्धोऽस्ति वेतालो वादिदेनाँ पुनः । ततोवादं निपेध्यासौ सम्मान्यतः प्रहीयते । ५२ भुव मुत्खयतस्मिञ्च दर्शिते गुरुवोऽमृतम् । तत्त्वं स्मृत्वाऽस्पृशन् देहंदृष्ट इचासौ समुस्थित । ६६ १२३१ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यतियों के अपना द्वार कौन खुला रक्खे ? बस, सिद्ध भी एक जैन साधुओं के उपाश्रय के द्वार को खुला हुआ देख कर उसके अन्दर गया तो ज्ञान ध्यान में संलग्न बैठे हुए एक आचार्य को देखा । आचार्यश्री की दृष्टि भी सिद्ध के ऊपर पड़ी । उन्होंने सिद्ध को उपदेश देना प्रारम्भ किया - महानुभाव ! संसार आसार है, लक्ष्मी चञ्चल है, कौटुम्बिक सब स्वार्थ मय सम्बन्ध हैं, शरीर अनित्य है और अयुष्य स्थिर है, अतः मनुष्य भव योग्य प्राप्त उत्तम सामग्री का सदुपयोग कर आत्म-कल्याण करना ही बुद्धिमता है। सूरिजी के उपदेश ने सिद्ध की भव्यात्मा पर इस कदर प्रभाव डाला कि उसकी इच्छा संसार का त्याग कर सूरिजी के पास दीक्षा लेने की होगई, इस पर गर्गर्षि ने कहा हम जैन श्रमण हैं। बिना माता पिता की आज्ञा दीक्षा दे नहीं सकते हैं । क्योंकि इससे हमारा तीसरात्रत खण्डित हो हमें अदत्ता दान दोष का भागी होना पड़ता है । वि० [सं० ७७८-८३७ ] 2 इधर प्रभात में सिद्ध के नहीं आने से उसके घर में बड़ी हलचल मच गई । श्रेष्ठी शुभंकर ने स्वयं पुत्र की शोध में समस्त नगर को शोध डाला । इतने में उपशम अमृत की उर्मिराशि में ओत-प्रोत विचित्र स्थिति युक्त पुत्र को साधुओं के उपाश्रय से आते हुए देखकर पिता ने कहा- पुत्र साधुओं को सत्संग से मुझे बहुत संतोष है पर व्यसनी पुरुषों की कुसंगति तो केतुग्रह के समान निश्चचित ही दुःखोत्पादक थी । वत्स ! अब घर चलो, तुम्हारी माता उत्कंठित हो, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है । तुम्हारे बिना वह हर तरह से सन्तापित है। सिद्ध ने विनय पूर्वक कहा - तात ! मेरा हृदय गुरु चरण कमल में भ्रमरवत् कीन हो गया है, अब किसी भी प्रकार की अन्य अभिलाषा न कर जैन दीक्षा स्वीकार करने की मेरी इच्छा है अतः आप सहर्ष आज्ञा प्रदान करें । 'जहां द्वार खुले हों वहां चला जा' माता के इन वचनों का पालन भी तभी हो सकता है । पिताजी ! इन वचनों के सत्य सिद्ध करूंगा तभी मेरी अखण्ड कुलीनता गिनी जाएगी । पुत्र के वचनों को सुन शुभंकर असमंजस में पड़ गया। बह बोला -बेटा ! अपने अपार धन राशि है | दान पुण्य के कार्यों में उसका सदुपयोग कर अपने जीवन को गृहस्थावस्था में रह कर ही सफल बना । तेरी माता के तू इकलौती संतान है और तेरी बहू भी संतान रहित है अतः हम सब का तू ही एक आधार है । वत्स ! मेरे वचनों की श्रवगणना मत कर ! सिद्धू बोला -- पिताजी ! इन लोभ के वचनों से मेरे ऊपर असर होने वाला नहीं है । मेरा मन ब्रह्मचर्य में लीन हो गया है अतः गुरु के पैरों में पड़ कर ऐसा कहो कि गुरुवर्य ! मेरे पुत्र को दीक्षा दो । इसी में मुझेसंतोष एवं आनन्द हो । सिद्धपुत्र का अत्याग्रह देख, शुभंकर सेठ को उसी प्रकार कहना पड़ा । पवित्र मुहूर्त में गुरु महाराजने उसको दीक्षा दे दी । पश्चात् मास प्रमाण तपस्या करवा कर शुभ लग्न में पञ्च महाव्रत के श्रारोपण के समय में गुरु महाराज ने अपनी पूर्व गच्छ परम्परा सुनाते हुए कहा - वत्स ! सुन - पहिले श्री व स्वामी थे । उनके शिष्य श्रीवत्रसेन हुए । वज्रसेनसूरि के निनामेन्द्र, वृत्ति, चंद्र और विद्याधर ये चार शिष्य हुए । निवृत्त गच्छ में बुद्धि निधान सूराचार्य हुए। उन्हीं का शिष्य गर्गर्षि मैं तेरा दीक्षा गुरु हूँ । तुझे निर न्तर अठारह हजार शीलांग धारण करने का है, कारण चारित्र की उज्वलता का यही फल है । I गुरु की शिक्षा को स्वीकार कर सिद्धर्षि ने उप्रतप प्रारम्भ किया। और वर्तमान साहित्य का अभ्यास कर उन्होने उपदेशमाला की बालावबोधिनी वृत्ति बनाई। इस पर कुवलयमाला नामक कथा के रचयिता इनके गुरुभाई दक्षिण- चन्दसूरि ने समारादित्य कथा की विशेषता बताते हुए कहा कि - तुम्हारे जैसे इधर उधर के ग्रंथों १२३२ जहां रात्रि में द्वार खुले हों चले जाओ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ से लेकर के लिख देने से कोई लेखक नहीं गिना जाता है । लेखक तो समरादित्य कथाकार जैसे होने चाहिये । इस पर सिद्धर्षि ने विद्वानों के मस्तक को कम्पाने वाली उपमतिभवप्रपञ्च नामक स्वतंत्र महाकथा की रचना की जिसे प्रसन्न हो संघ ने व्याख्यान योग्य कथा होने से व्याख्यानकार विरुद्ध दिया। स्वयं दाक्षिएयचंन्हसूरि भी मुग्ध हो गये। अब तो इनकी इच्छा और भी अधिक अभ्यास करने की हुई । उन्होंने विचार किया कि मैंने स्व-पर अनेक मत के तर्क ग्रंथों का अभ्यास कर लिया है पर बौद्ध ग्रंथों के लिये तो उनके देश में गये बिना अभ्यास हो नहीं सकता है अतः आतुर बने हुए सिद्धर्षि ने गुरु से निवेदन किया - गुरुदेव ! आज्ञा दीजिये, मैं बौद्ध शास्त्रों का अभ्यास करने कोजाऊं । श्रुतज्ञान व निमित्त को देख कर गुरु ने कहा- वत्स ! तेरा उत्साह स्तुत्य है पर उनके हेत्वाभासों से तेरा चित्त कदाचित भ्रमित् हो जाय तो उपार्जित किये हुए पुण्य को ही खो बैठेगा । यह बात मैं मेरे निमित्त ज्ञान से जानता हूँ अतः तू तेरे विचारों को बदल दे । इस पर भी तेरी जाने की इच्छा हो और वहां हेत्वाभासों से प्रेरित हो चलित हो जाय तो भी एक बार मेरे पास अाना और व्रत के अंगरूप रजोहरण वगैरह मुझे दे देना। सिद्धर्षि ने कहा-गुरुदेव ! मैं कृतघ्न कभी नहीं होंऊंगो फिर भी धतूरे के भ्रम से मन व्यक्षिप्त हो जायगा तो भी आपके आदेश का तो अवश्य ही पालन करूगा । ऐसा कह कर गुरु को प्रणाम किया और अव्यक्त वेष में महाबोध नगर को चला गया। वहां पर सिद्धर्षि ने अपनी कुशाग्र बुद्धि से सब को चकित कर दिया । बौद्धाचार्यों ने अपनी ओर आमर्षित करने के लिये बहुत प्रयत्न किया पर सब निष्फल हुआ । अन्त में चन प्रपंच द्वारा प्रलोभनों से उन्हें फुसलाने का प्रयत्न किया और अतिसंसर्ग-परिचय से वे जैन श्राचार विचार में शिथिल हो गये । कालान्तर में सिद्धर्षि ने बौद्ध दीक्षा भी ग्रहण कर ली। वस! सिद्धर्षि की सविशेष योग्यता से आकर्षित हो उनको गुरु पद पर बौद्ध लोग स्थापित करने लगे तो सिद्धर्षि ने कहाझाते हुए मैंने प्रतिज्ञा ली थी इससे मुझे मेरे पूर्व गुरु के दर्शन, प्रतिज्ञा निर्वाहार्थ अश्य करना है । बौद्धों ने भी उनको उनके पूर्व गुरु के दर्शनार्थ भेज दिया । क्रमशः उराश्रय में गर्षिको सिंहासन पर बैठे हुए देख सिद्धर्षि ने कहा--आप उर्ध्वस्थान पर शोभित होते हों। ऐसा कह कर मौन होगये। गुरु ने भावी समम कर सिद्धर्षि को आसन देते हुए कहा-हम चैत्यवंदन करके आते हैं जितने तुम जरा चैत्यवंदन सूत्र की ललितविस्तार वृत्ति देखो। उक्तग्रंथ को देख कर महामति सिद्धर्षि को अपने किये अकार्य पर रह२ कर पश्चाताप होने लगा । वह विचार ने लगा कि हरिभद्रसूरि ने मुझ पातकी को तारने के लिये ही इस ग्रंथ का निर्माण किया है । धन्य है, मेरे गुरु को जिसने मुझे उक्त प्रतिज्ञा देकर स्खलित होते हुए की रक्षा की है। इस प्रकार गुरुदेव की स्तुति और अपनी आत्मा की गहणा करते हुए पुस्तक बांचन में संलग्न थे कि गुरु ने निस्सीहि शब्द से उपा अय में प्रवेस किया। सिद्धर्षि ने गुरु चरण में मस्तक नमा कर अपराध के लिये बारम्बार क्षमा मांगी। प्राय श्चित के लिये आग्रह किया व गुरु के उचित वचनों को न मानने का पश्चाताप किया। गुरुने, सिद्धर्षि को सान्त्वना प्रदान कर सन्तुष्ट किया और प्रायश्चित देकर शुद्ध किया । कालान्तर में गच्छ का भार सिद्धर्षि को सौंप कर गर्षि आत्म-निवृत्ति के परम मार्ग में संलग्न होगये । व्याख्यान कर सिद्धर्षि ने भी अपने पाण्डित्य से जैन शासन की खूब प्रभावना की । आप भी चैत्यवासी ही थे बोद्धों के शास्त्राभ्यास के लिये १२३३ Parvwwwixwwviwwwvvvwww Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्राचार्य महेन्द्र सूरि अवन्तिका प्रदेश में स्वर्ग सदृश धारानगरी एक समृद्धशाली नगरी थी यहां पर नीतिनिपुण पण्डितमान आश्चयदाता राजाभोजराज्यकरता था । मध्य-प्रान्तीय संकाश्यनगर निवासी देवर्षि नामकब्राह्मणकापुत्र पर्वदेवविप्र भी धारानगरी में ही रहता था। वह ब्राह्मणों के प्राचार विचार में निपुण व वेदवेदांगपुराणादिवैद. कधर्म शास्त्रोंमें पारंगत था । उस सर्वदेव के जय विजय की भांति धनपाल और शोभन नाम के दो पुत्र थे। चन्द्रकुल रूप आकाश में सूर्यवत् वर्चस्वी प्राचार्य श्री महेन्द्रसूरि भू भ्रमन करते हुए एक समय धारा नगरी में पधारे । जब सर्वदेव विप्र ने आचार्यश्री का आगमन सुना तो वह चल कर सूरिजी के पास अाया और बहुमान भक्ति पूर्वक वंदन कर तीन दिन रात्रि पर्यन्त सूरिजी की सेवा में रहा ! तीसरे दिन प्राचार्य श्री ने पूछा हे द्विजोत्तम ! बोल तेरे कुछ काम है ? सर्वदेव ने कहा-भगवन् ! मेरे पिताजी राज्यमान थे । उन्होंने लाखों रुपये एकत्रित किये और वह निधान अद्यावधि मेरे घर में है पर, अज्ञात है। प्रभो ! आप ज्ञानी हैं अतः कपाकर हमें किसी तरह सुखी बनावें । आचार्यश्री ने कहा-यदि हम द्रव्य बतलार्दै तो तू मुझे क्या देगा ? विप्र ने कहा-भगवन् ! जितना द्रव्य मुझको मिलेगा उसका आधा द्रव्य में आपको दूगा सूरिजी ने कहा-केवल द्रव्य ही क्या ? तेरे घर में जो कुछ भी अच्छी वस्तु हो उसका आधा भाग हमको देना । सवदेव विप्र ने सूरिजी के उक्त वचन को सहर्ष स्वीकार कर लिया तथापि इस बात को विशेष दृढ़ करने के लिये कुछ मनुष्यों को साक्षी बना लिये जिससे भविष्य में कोई भी अपने भावों में परिवर्तन कर नहीं सके । श्राचार्य श्रीसर्वदेव के वहां गये और अपने ज्ञान एवं स्वरोदय के बल से उसको निर्दिष्ट स्थान बतादिया जिसको खोदने से तत्काल चालीस लक्ष स्वर्ण मुद्राएं भूमि से निकल आई । विप्रदेव स्व प्रतिज्ञानुसार वीस लक्ष स्वर्ण मुद्राएं प्राचार्यश्री को देने लगा पर सूरिजी ने स्वर्ण मुद्राओं के लिये सर्वथा इन्कार करदिया और कहा-मैं तेरे घर से मेरी इच्छा होगी वही आधी वस्तु ले लूंगा। इस तरह एक वर्ष व्यतीत हो गया। आखिर सर्वदेव ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक मैं सूरिजी के ऋण से मुक्त न होऊंगा तब तक, घर पर नहीं जाऊंगा । इस पर सूरिजी ने कहा-तेरे दो पुत्र हैं उसमें से एक पुत्र मुझे दे दे । सूरिजी के उक्त वचन सुन सर्वदेव विचार मग्न होगया और चिन्तातुर बनकर एक खाट पर जा पड़ा। इतने में धनपाल वहां आगया और अपने पिता को चिन्तातुर देखकर कहने लगा पिताजी ! आपके पास पुष्कल द्रव्य है और हम दोनों भाइयों जैसे आपके पुत्र हैं फिर आपको चिन्ता किस बात की ? पिता ने अपनी चिन्ता का सब हाल कह इस्थमुतेजित स्वान्त स्तेनासौ निर्ममे बुद्ध । अज्ञ दुर्बोध सम्बन्धों प्रस्तावाष्टक सम्भताम् ॥ ९५॥ रम्यामुपमितिभवप्रपञ्चायां महाकथम् । सुबोध कविता विद्वदुतमाङ्ग विधूननीम् ॥ ९६ ॥ भ्रान्तचित्ताकदापि स्याद् हेत्वाभासैस्तदीयकैः। अर्थी तदागम श्रेणेः स्वासिद्धान्त पराडमुखा ॥ १.४॥ उपार्जितस्य पुण्यास्य नाशत्वं प्रापस्यसि ध्रवम् । निमित्तत इदंमन्ये तस्मान्मत्रोद्यमी भव ।। १.५॥ अथचेदवलेपस्ते गमने न निवर्तते । तथापि मम पार्श्वत्वमागा वाचा ममैकदा ॥ १०६॥ रजोहरणा स्माकं व्रताना: समप्पे ये । इत्युक्त्वा मौनस्मतिष्टेद् गुरुश्वित्तव्याथा धरः ॥ ७ ॥ आचार्य हरिभद्रो में धर्म बोध करो गुरुः प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाद्य निवेशिता ॥ १३० भनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दन संभया। मदार्थ नित्तिा । येन वृतिर्ललितविस्तरा ॥ १३१ १२३४ आचार्य महेन्द्रसरि का जीवन Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ कर हा पुत्र ! तू महेन्द्रसूरि के पास दीक्षाले तब ही मैं चिन्ता मुक्त हो सकता हूँ। पिता के वचन सुन कर धनपाल के क्रोध का पारावार नहीं रहा । उसने कहा - पिताजी ! शूद्रो से निन्दित्त प्रतिज्ञा को मैं स्वीकार नहीं कर सकता हूँ । वेद वेदांग को जानने वाला ब्राह्मण नास्तिक जैन धर्म को स्वीकार करने मात्र से हो अपने पूर्वजों सहित नरक में गिर कर दुःखी होजाता है अतः में किसी भी हालत में आपका कहना स्वीकार नहीं कर सकता हूँ फिर आप अपनी इच्छा हो सो करें, इतना कह कर धनपाल चला गया । थोड़ी देर बाद शोभन श्राया । उसने पिताजी को चिन्तातुर देख कर पिताश्री को चिन्ता का कारण पूछा तो सर्वदेवविप्र ने उसको भी सर्व हाल सुना दिया । अपने दीक्षा के समाचारों को सुन कर शोभान को बहुत खुशी हुई। उसने कहा - पिताजी ! मैं आपकी श्राज्ञा को शिरोधार्य करता हूं कारण, एक तो पवित्र जैनधर्म जिससे की आराधना से ही आत्म-कल्याण है और दूसरा पिताश्री का सहर्ष प्रदेश, भला इससे बढ़ कर और क्या सुश्रवसर हाथ लग सकता है ? पुत्र के वचनों को सुन कर सर्वदेव को बड़ा हर्ष हुआ । वह अपने कार्य से निवृत्त हो शोभन को साथ लेकर आचार्यश्री के पास गया । और शोभन को सामने रख कर सूरिजी से प्रार्थना की-- दयानिधान ! मेरे दो पुत्रों में से यह शोभन हाजिर है । इसको दीक्षा देकर मुझे ऋण से उऋण करें। सूरिजी ने शोभन की परीक्षा कर उसी समय स्थिर लग्न में उसे दीक्षा दे दी। बाद में धनपाल के भय से वे वहां से विहार कर क्रमशः पाटण पहुँच गये । जब धनपाल को खबर हुई कि पिताजी ने शामन को जैनदीक्षा दिलवा दी है तो उसके कोप का परावार नहीं रहा । उसने अपने पिताजी को यहां तक कह दिया कि पिताजी ने द्रव्य के लोभ से ही अपने पुत्र को नास्तिक एवं शूद्र जैनों को अर्पण कर दिया है । पश्चात् धनपाल ने सर्वदेव को पृथकू भी कर दिया पर उसका क्रोध शान्त नहीं हुआ। उसने राजा भोज को उलट पुलट समझा कर मालवा एवं धारानगरी में के आवागमन को ही बंद करवा दिया । जैन गुरु कृपा से मुनि शोभन ज्ञानभ्यास कर धुरंधर विद्वान बन गये । कालान्तर में मालव प्रान्तीय संघ पाटण में आया और उसने महेन्द्रसूरि से प्रार्थना की-- भगवन् ! मालवाप्रान्त से जैनश्रमणों के निर्वासित हो जाने के कारण पाखण्डियों का जोर बहुत ही बड़ गया है अतः कृपा कर या तो आप स्वयं पधारे या विद्वान् मुनि को हमारे यहां भेजने की कृपा करें जिससे क्षेत्र पुनः जैनधर्ममय हो जाय । सूरिजीने मालवसंघ का कहना ठीक समझ कर अपने समीपस्य मुनियों की ओर देखा तब मुनि शोभन ने कहा गुरुदेव ! मालवा प्रान्त में धर्म प्रचारार्थ जाने का आदेश मुझे मिलना चाहिये मैं धारा नगरी जाकर मेरे ज्येष्ठ भ्राता धनपाल को प्रतिबोध करूंगा । शोभन के उत्साह पूर्ण वचनों को सुन कर सूरिजी ने कई गीतार्थ मुनियों के साथ मुनि शोभन को मालव प्रान्त की ओर विहार करवा दिया । क्रमशः मुनि शोभन चलकर धारा नगरी में आगये । शोभन मुनि ने अपने दो मुनियों को धनपाल के वहां भिक्षा के लिये भेजे । जिस समय मुनि, भिक्षार्थ धनपाल के घर गये उस समय धनपाल स्नान करने को बैठा था । साधुओंने धर्मलाभ दिया तो धनपाल की स्त्री ने कहा यहां क्या है ? इस पर धनपाल ने कहा- अतिथि अपने घर से खाली हाथ जावें यहठीक नहीं अतः जो कुछ भी हो मुनियों की सेवा में हाजिर कर दो। धनपाल की स्त्री ने उन्हें दग्ध अन्नदिया जिसको मुनियों ने प्रण कर लिया । बाद में दही के लिये कहा तो मुनियोंने पूछा-दही कितने दिन का है ? धनपाल की स्त्री आचार्यश्री और सर्वदेव त्रि १२३५ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ने कहा-क्या दही में भी जीव होते हैं ? तुम लोग तो दया का ढोंग करते हो । लेना हो तो लेलो वरन शीघ्र चले जाओ। इस पर धनपाल ने कहा यदि ऐसा ही हो तो आप प्रत्यक्ष में बतलाइये। मुनियों ने उसी दही में अलतो डलवाया कि सब जीव ऊपर आ गये । कई जीव तो उसको दृष्टीगोचर भी होने लगे अतः इसको देख कर धनपाल के दिल ने पलटा खाया। वह सोचने लगा कि जैनधर्म के ज्ञानियों का ज्ञान बहुत सूक्ष्म एवं विशाल है । दही जैसे पदार्थ में गुप्त जीवों की दया निमित्त भी पहीले से ही नियम बना लेनाकी तीन दिन उपरान्त का दही अभक्ष्य है; कितनी दूर दर्शिता है ? कहां दयामय पवित्र जैनधर्म और कहा पशुहिंसा. मय वैदिक धर्म। कुछ ही क्षणों के पश्चात् धनपालने मुनियों से पूछा- आप कहा से आये और आपके गुरु कौन हैं ? मुनियों ने कहा-हम गुर्जर प्रान्त से आये हैं और आचार्य महेन्द्र सूरि के शिष्य धुरंधर बिद्वान् शोभनमुनि हमारे गुरु हैं। हम चैत्य के पास ही ठहरे हुए हैं, इतना कह कर मुनि चले गये भोजनादि से निवृत्त हो धनपाल शोभन मुनि के यहां गया। अपने ज्येष्ठ भ्राता को आता देख शोभन निने सामने जाकर उनका सत्कार किया और आधे आसन पर उनको बैठाया। धनपाल ने कहा आप धन्य हैं कि पवित्र जैनधर्म के आश्रय से श्रात्म कल्याण कर रहे हैं। मैंने तो राजाभोज द्वारा मालवा प्रान्त में जैनश्रमणों का निहार वंद करवा कर महान अन्तराय कर्मोपार्जन किया है। न मालूम में उस पाप से कैसे मुक्त होऊंगा ? पिताश्री सर्वदेव और श्राप ने हमारे कुल रूप समुद्र में उत्पन्न हो कर हमारे कुल की कीर्ति को उज्वल बनाई है। व अपने कुल में केवल मैं ही ऐसा पापी जन्मा की पशुहिंसा रूप अधर्म में भी धर्म मान कर सत्यधर्म की अवगणना की है । हे महा भाग्यवान् मुनि ! अब आप मुझे ऐसा मार्ग बतलाइये कि मैं कृत पाप से मुक्त हो कुछ आत्म-कल्याण कर सकूँ । शोभन मुनिने धनपाल को अहिसाधर्म तथा देव गुरु धर्म के विषय में उपदेश दिया जि का धनपाल की आत्मा पर गहरा प्रभाव पड़ा। बाद में भगवान महावीर के चैत्य में जाकर धनपाल ने मनोहर शब्दों से भगवान् की स्तुति की तत्पश्चात् धनपाल अपने मकान पर गया । एक समय राजाभोज के साथ धनपाल महाकाल महादेव के मन्दिर में गया । महादेव को देखते ही वह नमस्कार नहीं करता हुआ एक गवाक्ष में जाकर बैठ गया । गजा भोज ने बुलाया तो वह द्वार के पास बैठ गया। राजा ने सविस्मय इसका कारण पूछा तो धनपाल ने कहा कि-महादेव के पास पार्वतीजी बैठी है भतः शर्म के मारे मैं वहां श्रा नहीं सका। जहां दम्पति एकान्त में बैठे हों वहां तीसरे का जाना अच्छा नहीं पर लज्जा ही का कार्य है। राजा भोज-तो इतने दिन शंकर की पूजा करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आई ? धनपाल-बालभाव के कारण लज्जा ज्ञात नहीं हुई। यदि आप अपनी रमणियों के साथ एकान्त में बैठे हों तो क्या हमारे जैसों से वहां आया जा सकता है ? दूसरा अन्य देवों का चरण मस्तक वगैरह पूजा जाता है तब शिवजी का लिंग अतः दोनों तरह से संकोच की ही बात है। - एक श्रृंगी (शंकर के सेवक ) की कृष मूर्ति देखकर राजा ने धनपाल से पूछा कि यह भंगी की मूर्ति दुर्बल क्यों है ? १२३६ तीन दिन के बाद दहीअत्रक्ष Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ धनपाल ने सोचा कि यह सत्य कहने का समय है और ऐसे समय में मुझे सत्य कहना ही चाहिये अतः धनपाल ने कहा दिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा शास्त्रस्य किं भस्मना ? भस्माप्यस्य किमङ्गना यदि च शा कामं परि द्वेष्टि किम् ! इत्यन्योन्य विरुद्वचेष्टितमहो पश्यनिजस्वाभिन ? भुंगी शुष्कशिरावनद्धमधिकं धत्तेऽस्थि शेपं वप्रः? अर्थात् जहां पर दिशारूप वस्त्र हैं वहां धनुष की क्या आवश्यकता ? और सशस्त्रावस्था हो तो भस्म की क्या आवश्यकता ? यदि भस्म शरीर के लगावें तो स्त्री की क्या जरूरत ? यदि रमली है तो काम पर द्वेष क्यों ? ऐसे परस्पर विरुद्ध चिन्हों से दुःखी होने के कारण इसका शरीर कृष होगया है। वहां से निकल कर बाहिर आये तो व्यास याज्ञवल्क्य स्मृति उच्चस्वर से वांच रहा था। राजा स्मृति के सुनने को बैठ गया पर धनपाल को विमुख देख राजा ने कहा-धनपाल ! क्या तेरे दिल में स्मृति के प्रति श्रादर नहीं है। इस पर धनपाल ने कहा-मैं लक्षण रहित अर्थ को समझ नहीं सकता। भला, साक्षात् विरुद्ध बातें सुनने को कौन तैयार है ? मैंने तो सुना है कि स्मृतियों में विष्टा खाने वाली गायका स्पर्श करने पर पाप छूट जाता है । संज्ञा हीन वृक्ष वंदनीय है। बकरे का वध करने से स्वर्ग मिलता है। ब्राह्मणों को दान देने से पूर्वजों को मिलता है, कपटी पुरुष को आप्त देव मानना, अग्नि में होम करने से देवताओं की प्रसन्नता स्वीकार करना इत्यादि श्रुविस्मृतियों में बतलाई आसार लीला को सुनने के लिये कौन बुद्धिमान तैय्यार है ? एक समय यज्ञ के लिये एकत्रित किये गये पशु पुकार कर रहे थे । उक्त पुकार को राजा भोज ने सुना और धनपाल को पूछा कि ये पशु क्यों पुकार करते हैं ? पं. धनपाल ने कहा-मैं पशुओं की भाषा में समझता हूँ ! पशु कह रहे हैं कि सर्व गुण सम्पन्न ब्रह्मा बकरों को कैसे मार सकता है ? दूसरा वे कहते हैं कि हम को स्वर्ग के सुखों की इच्छा नहीं है और न हम ने प्रार्थना ही की। हम तो तृण भक्षण में ही संतुष्ट हैं यदि स्वर्ग का ही इरादा है तो अपने माता पिता पुज स्त्री का बलिदान कर स्वर्ग क्यों नहीं भेजते ? __ धनपाल के विपरीत वचनों को सुनकर राज कोपायमान हुआ और धनपाल को मारडालने का विचार किया । पश्चात् राज भवन की ओर पाते हुए मार्ग में एक ओर एक बालिका के साथ वृद्धस्त्री को खड़ी देखी । बालिका के कहने पर उसने नव बार शिर धुनाया यह देख राजा ने धनपाल से पूछा, इसपर धनपाल ने कहा-हे नरेश ! आप को देख बालिका वृद्ध से पूछती है कि क्या ये-मुरारि, कामदेव, शंकर कुबेर, विद्याधर चन्द्र, सुरपति या विधाता हैं ? उक्त नव प्रश्नों के लिये नव बार शिर धुना कर वृद्धा कहती है कि नहीं, ये तो राजा भोज हैं । धनपाल के इस चातुर्य से गजा का दिल बदल गया और उसने पं० धनपाल को नहीं मारने का निश्चय कर लिया। एक समय राजा भोज शिकार के लिये जाते हुए पं० धनपाल को साथ में ले गये । अन्य शिकारियों ने एक बाण सूअर के ऐसा मारा कि वह अाक्रन्दन करता हुआ भूमिपर गिर पड़ा। उस समय अन्य पण्डितों ने राजा को कहा--स्वामी ! स्वयं सुभट हैं अथवा उनके पास में ऐसे सुभट न हो। इतने ही में राजा की पं० धनपाल और राजा भोज १२३७ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] दृष्टि धनपाल पर पड़ी और कहा कि तुमको भी कुछ कहना है ? इस पर धनपाल ने कहा रसातल यातुयदत्र पौरुषं क्व नीतिरेषा शरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यवालिनापि दुर्बलो ह हा ! महाकष्टमराजकं जगत् ॥ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ऐसा पौरुष पाताल में जाओ। ऐसा कौन सा न्याय है कि अशरण निर्बल प्राणियों को बिना अपराध ही मार डालना । मेरी दृष्टि से तो कोई न्यायी राजा हीं नहीं है । एक समय नवरात्रि में गौत्रदेव की पूजा के लिये सौ बहरो को एक ही घाव में राजा ने मरवा डाले । पास में रहने वाले लोगों ने राजा की प्रशंसा सुनी पर पं० धनपाल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि ऐसे जघन्य कार्य करने वाले अपने लिये नरक के द्वार खुला करते हैं और प्रशंशा करने वाले भी उन्हीं के साथ में । । एक समय महादेव के मन्दिर में पवित्रारोह का महोत्सव चलता था आया । राजा ने कहा—धनपाल ! तुम्हारे देव का कभी महोत्सव न होने से वे धनपाल ने कहा- पवित्र देव तो अपवित्र को पवित्र बना देता है । फिर पवित्र देव के लिये पवि करके उनको पवित्र बनाया का महोत्सव कैसे ? आपके देव अपवित्र हैं अतः पवित्रता का महोत्सव जा रहा है। शिव में अपवित्रता होने के कारण ही उसके लिंग की लोग पूजा करते हैं । वक्षं सब के साथ राजा भी अपवित्र ही मालूम होते हैं। हास्य बदन, रति युक्त, व ताली बजाने के लिये उध्व हस्त कामदेव की मूर्ति देख राजा ने पं० धन पाल को पूछा कि यह कामदेव क्या कह रहा है ? सिद्ध सारस्वत पडित धनपाल ने कहा स एष भुवनत्रय प्रथित सयमः शंकरो, विभर्ति वपुषाऽधुना विरह कातरःकामिनीम् । अनेक किल निर्जिता क्यमिति प्रियायाः करं करेण परिताडयन् जयति जातहतः स्मरः ॥ शंकर का संयम तीन सुवन में प्रसिद्ध है पर वे विरह से कातर बन कर स्त्री को साथ में रखते हैं । इससे हास्य संयुक्त प्रिया के साथ में ताली देते हुए कामदेव जयवंत रहे । एक समय राजा भोज ने पूछा कि ये चार दरबाजे है बतला, मैं इनमें से किस द्वार से निकलूंगा १ धनपाल ने इसका उत्तर एक कागज पर लिख कर बन्द लिफाफा राजा को दे दिया। बाद में जब राजा को जाने का काम पड़ा तो वह ऊपर की छप्पर को तोड़ कर निकल गया दोपहर को जब पं० धनपाल श्राया और कागज को खोल कर पढ़ा तो वही लिखा हुआ निकला कि राजा छप्पर तोड़कर जावेगा । इससे राजा को विश्वास हो गया कि पं० धनपाल अतिशय ज्ञानी है । १२३८ इस प्रकार पं० धनपाल ने राजा भोज के प्रश्नों का तत्काल उत्तर दिया तथा कई समस्याएं पूर्ण की। एक दिन राजा भोज ने कहा कि तुम्हारा जैनधर्म तो सत्य पर अवलम्बि है पर जैन साधु जलाशय से उदासीन क्यों रहते हैं ? पं० ने कहा कि जल स्थानों से अनेक प्राणियों को आराम पहुँचता है पर उसके सूख जाने पर अनन्त जीवों की हानि होती है, इत्यादि । पुनः राजा ने कहा- जैनधर्म अच्छा है पर व्यव हार से कई लोगों को रुचि कर नहीं होता । इस पर धनपाल ने कहा- घृत अच्छा है पर संग्रहणी के रोग महादेव कापवित्र महोत्सव Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन [ओसवाल सं० ११७८-१७३२ वाले को नहीं रुचता है तो इसमें घृत का क्या दोष है ? इत्यादि वाद विनोद होता रहा । अब पं० धनपाल ने अपना द्रव्य सात क्षेत्र में लगना प्रारम्भ कर दिया । इनमें मुख्य क्षेत्र जिन चैत्य होने से उसने भगवान आदिनाथ का विशाल मन्दिर बनाकर महेन्द्रसूरि से प्रतिष्ठा करवाई और 'जयजंतुकाय' नामक पांच सी गाथा बना कर प्रभु की स्तुति की। एक समय राजा भोज ने पं० धनपाल से कहा कि आप मुझे कोई जैनकथा सुनावें । इस पर नवरस संयुक्त तिलक मञ्जरी नामक बारह हजार श्लोक वाला अपूर्व प्रन्थ बनाकर उसको तादिवेताल शाति सूरि से संशोधन करवाया और राजा भोज को सुनाया। राजा ने भी कथा के नीचे स्वर्ण थाल रख कर कथा को आनन्द पूर्वक सुना और धनपाल को कहा कि इस कथा में कुछ रहो बदल करो। जैसे मङ्गलाचरण में आदिनाथ के बदले शिव का नाम, अयोध्या के स्थान पर धारा नगरी, शक्रावतार चैत्य की जगह महा. काल, भगवान् के स्थान शंकर और इन्द्र के स्थान मेरा नाम ( भोज ) रख दो तो तुम्हारी कथा या चन्द्रदिवाकर अमर बन जायगी। पं० धनपाल ने कहा-हे राजन् ! जैसे ब्राह्मण के हाथ में पय पात्र है और उसमें दारू को एक बूंद पड़ने से वह पय पात्र अपवित्र हो जाता है इसी प्रकार आपके कथनानुसार नाम बदलने से ग्राम नगर देश और राजा को हानि पहुँचती है-पुण्य क्षय हो जाता है। पण्डित के वचन सुन कर राजा को बहुत क्रोध आया। उसने कोपावेश में पुस्तक को लेकर अग्नि में डाल दी जिससे वह भस्म हो गई । इससे धनपाल को भी क्रोध आया वह राजा को उपालम्ब देकर अपने घर पर चना आया । देव पूजन व भोजन वगैरह की चिन्ता को छोड़ कर वह एक खाट पर पड़ गया। इतने में उनकी पुत्री ने आकर चिन्ता का कारण पूछा तो पण्डितजी ने सब हाल कह सुनाया। इस पर पंडित की कन्या ने कहा-इसका श्राप फिक्र क्यों करते हैं ? आपकी कथा मेरे कण्ठस्थ है। आप देव पूजन व भोजन कर लीजिये मैं आपको कथा सुना दंगी। कवीश्वर ने सब कार्यों से निवृत्त हो पुत्री से कथा सुनी पर कोई शब्द उसको बाई नहीं थे अतः उनके स्थान में नये शब्द लगा कर कवीश्वर ने उस कथा को जैसे तैसे पूर्ण की धनपाल के न आने से राजाभोज ने उसकी खबर करवाई । अन्त में ज्ञात हुआ कि धनपाल, मेरे अन्याय के कारण चला गया है । इस पर राजा को अपने कार्य का बहुत ही पश्चाताप हुआ पर अब क्या किया जा सकता था ? भरोंच नगर में सूरदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके सावत्री नाम की स्त्री थी तथा धर्म और शमें नामके दो पुत्र थे और एक पुत्री भी थी। एक समष सूरदेव ने धर्म पुत्र को कहा कि कुछ श्राजीविका का साधन कर । इस पर रुष्ट हो धर्म, घर से चला गया। क्रमशः वह जंगले में पहुँचा बहां सरस्वती देवी ने प्रसन्न होकर उसको वरदान दिया। पश्चात् कई असे से वह धारानगरी में आया और राजा को कहा कि-मैंने बहुत से वादियों को पराजित किया है अत; आपकी सभा में भी कोई पण्डित हो तो मेरे सामने लावे मैं उसे बाद में पराजित करूंगा। राजा भोज की सभा में एक भी ऐसा पण्डित नहीं था जो धर्म पण्डित के साथ वाद करने को तैयार हो । उस समय राजा भोज को धनपाल याद आया । राजा भोजने अपने प्रधान पुरुषों को कवीश्वर के पास में भेजा और नम्रता पूर्वक कहलाया कि मेरे अपराध को माफ करो राजा भोज और धारा के पं० धनपाल को तिलक मंत्रकी कथा १२३९ www.www Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पण्डितों की सभा की इज्जत रखने के लिये श्राप शीघ्र पधारें इत्यादि । धनपाल ने राजा का इस प्रकार का संदेश सुनकर कहलाया कि मैं तीर्थ सेश में संलग्न हूँ अतः आने के लिये सर्वथा लाचार हूँ। प्रधान पुरुषों ने राजा भोज को उनके कथित शन्द कह दिये इस पर राना भोज ने धनपाल को पुनः कहलाया-कवीश्वर! मैं जैसे राजा मुज का पुत्र हूँ वैसे आप भी हैं कारण, राजा मुंज श्राप को भी गोद में लेकर बैठता था । उन्होंने प्रारको कुर्चाल सरस्वती का विरुद्ध दिया इससे आप हमारे वृद्ध भ्राग हैं। धारा की हार तुम्हारी हार और धारा की जीत तुम्हारी जी है। मेरे लिये न भी आवें तो धारा की इज्जत के लिये ही प्रावे, अब इससे अधिक और क्या लिख सकता हूँ ? बस, संदेश पहुचते ही वनपाल वहां से रवाना हो था। नगरी आया। राजा भोज ने भी पैदल चल कर धनपाल का स्वागत किया और बड़े ही आदर के साथ उनका नगर प्रवेश करवाया । इससे राजा भोज की मृत सभा में नव जीवन का सच्चार हुआ। दूसरे दिन इधर से तो पण्डित धनपाल का और उधर से पं० धर्म का आपस में वाद विवाद हुआ पर धनपाल के सामने कौन ठहर सकता था ? आखिर पण्डित धर्म ने कहा कि-संसार मात्र में पंडित एक धनपाल ही है । इस पर धनपाल ने कहा बहुरत्नावसुंधरा पाटण में वादिवैताल शान्तिसूरि महान् पण्डित हैं। आप वहां जाओ और उन से कुछ अध्ययन करो । बस, पं० धर्म को जाने का बहाना मिल गया । जब पण्डित धर्म जाने लगा तो राजा भोजने उन्हें एक लक्ष द्रव्य दिया पर पं० धर्म ने स्वीकार नहीं किया। वह चल का पाटण आया पर वादीवैताल शान्तिसूर ने पं० धर्म को एक क्षण में पराजित कर दिया जिससे उसका गर्व गल कर हेमसा हो गया। दूसरे दिन गजा भोज ने धर्म को बुलाया पर मालूम हुआ कि वह बिना पूछे ही रवाना हो गया तो इस पर धनपाल ने कहाधर्मो जयति नाधर्मा इत्यली की कृतं वचः । इदं तु सत्यता नीतं धर्मस्य त्वरीता गतिः॥ धर्म की जय और अधर्म की पराजय यह, दुनियां में कहावत है पर आज यह मिथ्या सिद्ध हुआ कारण अाज धर्म का ही पराजय हुआ है। इससे राजा भोज ने धनपाल की बहुत प्रशंसा की और उनको खूब पुरस्कार दिया। शोभनमुनि गहान् पण्डित और जैनागमों के पारङ्गत थे। उन्होंने यमकालंकार संयुक्त भगवान की स्तुतियां बनाई। वे इस कार्य में इतने संलग्न थे कि एक श्रावक के यहां से तीन बार गौचरी ले आये पर कुछ भी ध्यान न रहा । जब श्रावक ने पूछा तो मुनि ने कहा-मेरा चिन्त विक्षिप्त था। गुरु महाराज को मालूम होने पर उन्होंने मुनि शोभन को चित्त विक्षोभ का कारण पूछा तो मुनिजी ने कहा -मैं स्तुतियां बना ने के ध्यान में था। गुरुदेव से स्तुतियों को पढ़ कर बहुत ही प्रशंशा की पर संध का दुर्भाग्य था कि शोभन मुनीश्वर व्याघि से पीड़ित हो स्वर्गवासी होगये । बाद में पं० धनपाल ने उन जिनस्तुतियों पर टीका निर्माण की। पं० धनपाल ने अपना आयुष्य काल नजदीक जानकर गृहस्थावस्था में रहते हुए ही गुरु महाराज के चरणों में संलेखना पूर्वक समाधि मरण के साथ सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुए। तत्पश्चात प्राचार्य महेन्द्रसूरि भी अनशन पूर्वक समाधि पूर्वक देह त्याग कर स्वर्ग के अतिथि बन गये । ___ इन महापुरुषों के जीवन चरित्र हमारे जैसे प्राणियों के कल्याण साधन के लिये निश्चत ही पथप्रदर्शक का कार्य करते हैं। १२४० राजा भोज का पं० धनपाल को प्रार्थना पत्र Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] श्रीमान् सूराचार्य विश्व-विख्यात और धनधान्य पूर्ण समृद्ध शाली गुर्जर भूमि के अलंकार स्वरूप अहिरल पट्टन राज्य करता था । उस समय के पाटण में चैत्यबासियों का प्रगण्य नेता थे और राजा भीम के संसार पक्ष में भी मामा थे। श्री द्रोणाचार्य के संसार पक्ष में एक संग्रामसिंह नाम का भाई था । संग्रामसिंह के एक पुत्र था जिसका नाम महिपाल था । जब संग्रामसिंह का देहान्त हो गया तब उसकी पत्नी ने अपने पुत्र महिपाल को द्रोणाचार्य के सुपुर्द कर दिया । आचार्यश्री ने भी महिपाल को होनहार व भावी महापुरुष होने वाला समझकर अपने पास में रख लिया और ज्ञानाभ्यास करवाना प्रारम्भ करवा दिया। महिपाल की बुद्धि इतनी तीक्ष्ण थी कि वह दिये हुए पाठ को लीलामात्र में ही कण्ठस्थकर एवं समझ लेता था । इस तरह अपनी बुद्धि व परिश्रम के प्रभाव से वह व्याकरण, न्याय, तर्क छंद अलंकारादि साहित्य में धुरंधर विद्वान बनगया । द्रौणाचार्य ने महिपाल को शुभमुहूर्त में दीक्षा दे दी और स्वल्प समय में सूरि पद अर्पण कर श्रापका नाम सूराचार्य रख दिया । सूराचार्य एक महान् प्रतिभाशाली आचार्य थे । आपकी विद्वत्ता की प्रशंसा सर्वत्र प्रसरित थी । वादी तो आपका नाम सुनकर के घबरा उठते और सुदूर प्रान्तों में पलायन कर जाते थे । नाम का एक प्रसिद्ध नगर था । वहां भीम भूपति साम्राज्य वर्त रहा था चैत्यवासियों में द्रोणाचार्य एक समय की बात है कि धारा नगरी का राजा भोज अपनी पण्डित सभा का बड़ा गौरव समझता था । वह अपने राज्य के पण्डितों के सिवाय दूसरे राजाओं के पण्डितों को कुछ चीज ही नहीं समझता था । एकदिन राजा भोज ने अपने प्रधान पुरुष को एक गाथा देकर पाटण के राजा भीम के पास भेजा। प्रधान पुरुष ने भी पाटण की राज सभा में आकर अपने राजा की गुण स्तुति की व एक गाथा राजा की सेवा उपस्थित की । हेला निद्दलिय गइंदकुंभ - पयडियपयावपसरस्स | सीहस्स भएण समं न बिगहो ने य संघाणं ॥ [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ उक्त गाथा की अवज्ञा करके भी पाटण नरेश ने व्यवहारिक नीत्यनुसार धारा से आये हुए प्रधान पुरुष का उचित सम्मान कर उन्हें राजभवन में ठहरा दिया । और भोजन आदि का सब प्रबन्ध कर दिया । इधर राजा भीम ने अपने प्रधान पुरुषों को कहा कि अपनी सभा एवं नगर के पण्डितों द्वारा इस गाथा के प्रतिकार में एक गाथा तैय्यार करवावो । प्रधानों ने भी राजा की आज्ञानुसार नगर के सब पण्डितों इस बात की सूचना करदी । नगरस्थ सकलपण्डित जन समुदाय ने स्व २ मत्यनुकूल गाथाएं उसके प्रत्युत्तर में बना कर राजा भीम को सुनाई पर राजा का दिल किञ्चित् भी सन्तुष्ट नहीं हुआ असंतुष्ट मन से राजा ने पूछा- क्या पाटण में और विद्वान कवि नहीं है ? इस पर मंत्री वगैरह नगर में निगह करने के लिये चले एवं चलते हुए गोवीन्द्राचार्य के चैत्य में श्राये उस समय चैत्य में महोत्सव हो रहा था जिसमें एक नृतकी ने भक्ति के बस हो नाच किया पर जब उसको श्रम हुआ तो एक स्तम्भ के पास जाकर खड़ी हुई उस समय सूराचार्य ने एक गाथा बनाइ जिसको सुन कर राज पुरुष मंत्रमुग्ध बनकर राजा भीम के पास जाकर अर्ज करदी "आचार्यगोविंदसूर के पास सूराचार्य एक महान् विद्वान मुनि हैं । वे कवित्व शक्ति में अनन्य अनुपमेय हैं। कि धारा की गाथा का उत्तर वे ही श्राचार्य लिख सकेगा । राजा ने कहा कि वे तो अपने राजगुरु ही है बस " उसी समय मंत्रियों को भेज कर राजा ने उनको बुलवाया । सूराचार्य के राज सभा में आने पर राजा ने वन्दन कर उक्त गाथा के प्रतिकार में इसी के अनुरूप या इससे सवाई गाथा बनाने के लिये प्रार्थना सूराचार्य की दीक्षा और सूरिपद १५६ १२४१ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की। सूराचार्य ने भी तत्काल एक सुन्दर गाथा बना कर राजा को देदी । अंधय सुयाणकालो भीमो पुहवीइनिम्मिओ विहिणा। जेण सयं पि न गणियं का गणाणा तुज्स इक्कस्स ॥ इससे राजा भीम बहुत ही सन्तुष्ट होकर कहने लगा--मेरे राज्य में ऐसे २ विद्वान् कवि विद्यमान हैं तो मेरा कौन पराभव कर सकता है ? बस, राजा ने गाथा को एक लिफाफे में बन्द कर राजा भोज के मन्त्री को दे दी और उसे यथोचित सन्मान पूर्वक विदा किया। - गुरु महाराज ने शिष्यों को पढ़ाने के लिये सूराचार्य को नियुक्त किया पर सूराचार्य की प्रकृति बहुत ही तेज थी। वे अध्ययन, अध्यापन के समय ताड़ना तर्जना करने में रजोहरण की एक दण्डी हमेशा तोड़ देते थे। इससे शिष्यों का अभ्यास तो खूब जोरों से चलता था पर मार से वेचारे सप घबरा जाते थे। एक दिन सूरा. चार्य ने आदेश दिया कि मेरे रजोहरण में लोहे की दंडी बना कर डालो, इससे तो शिष्य-समुदाय और भी अधिक घबरा गया। किसी ने आकर गुरुमहाराज से इस विषय में निवेदन किया तो गुरु ने सूराचार्य को उपालम्भ दिया । सूराचार्य ने कहा-मेरी नियत शिष्यों का अहित करने की नहीं पर शीघ्र ज्ञान बढ़ाने की है मेरे पढ़ाये हुए शिष्य षट् दर्शन के बाद में विजयी होंगे। गुरुदेव ने कहा तुमको वाद का गर्व है तो राजा भोज की सभा में विजय प्राप्त कर फिर शिष्यों को शिक्षा देना । गुरुदेव के व्यङ्ग पूर्ण बचनों को सुनकर सूराचार्य ने प्रतिज्ञा करली कि जबतक मैं धारानगरी जाकर भोज की सभामें विजय प्राप्त न करलूं तब तक छ ही विगयका त्याग रक्खूगा । दूसरे दिन शिष्यों की वाचना के लिये अनध्याय (छुट्टी करदी इससे शिष्य समुदाय में महोत्सव जैसा हर्ष मनाया गया। गौचरी के समय विगय आई पर सूगचार्य ने स्पर्श तक भी नहीं किया इस पर गुरु महाराज ने कहा-मैं तुमकों मालवे जाने की अाज्ञा न दूगा पर सूगचार्य ने अपना अाग्रह नहीं छोड़ा। इतना ही नहीं सूराचार्य ने तो यहां तक कह दिया कि यदि आप मुझे ज्यादा विवश करेंगे तो मैं मेरी प्रतिज्ञा को छोडूगा नहीं पर अनशन ही स्वीकार कर लूगा । इस पर प्राचार्यश्री ने कहा वत्स! तेरी युवावस्था है अतः अपने भ्रमण निर्वाहक यमनियम ब्रह्मचर्य की यथावत् रक्षा करते हुए अपनी अभीष्ट सिद्ध हस्तगत करना । सूराचार्य ने गुरुवचन को तथास्तु कह कर राजा भीम के पास गमन किया और उनसे धारानगरी जाने की अनुमति मांगी इस पर राजा ने कहा-पूज्यवर ! एक तो आप हमारे धर्माचार्य हैं और दूसरे सांसारिक सम्बन्ध से सम्बन्धी भी हैं अतः मैं विदेश जाने कि आज्ञा कैसे दे सकता हूँ ? इधर तो पाटण में इस प्रकार सूरिजी एवं राजा के परस्पर बातें हो रही थी कि उधर धारानगरी से राजा के प्रधान पुरुष आगये। उन्होंने राजा भीम से प्रार्थना की-हे नरेन्द्र ! हमारे गजा की गाथा के उत्तर में आपके पंडितों की ओर से जो गाथा भेजी गई थी, उसको पढ़ राजा भोज बहुत ही सन्तुष्ट हुए । राजा भोज उस गाथा रचयिता पण्डितजी के दर्शन करना चाहते हैं अतः कृपा कर पंडितजी को हमारे साथ भेज देवें। राजा भीम ने कहा-ऐसे सुयोग्य विद्वान को विदेश में कैसे भेजा जा सकता है ? आप ही स्वयं विचार कीजिये । राजा के निषेधक वचनों को सुनकर के भी धारा के प्रधान पुरुषों ने बहुत ही आग्रह किया तब राजा भीम ने कहा-यदि आप पण्डितजी को ले जाना ही चाहते हैं वो मैं केवल एक शर्त पर भेज सकता हूँ और वह भी यह कि राजा भोज स्वयं हमारे पण्डितजी के सन्मुख पाकर स्वागत करे । प्रधानों ने इसबात को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इधर पास में बैठे हुए सूराचार्य सोचने लगे कि यह तो बड़ा पुण्योदय है । कारण, मैं स्वयं धारानगरी जाना चाहता था पर राजा भोज के प्रधान पुरुष स्वयं आमन्त्रण करने को आगये। यह तो प्रारम्भ में ही शुभ संकेत रूप मङ्गलाचरण हुआ । सूराचार्य नेशिष्यों को शिक्षा १२४२ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ राजा भीम ने एक हस्ति, पांच सौ अश्व और एक हजार पैदल साथ में दिये और सूरिजो ने भी शुभ मुहूर्त एवं शुभ शकुनों के साथ पाटण से मालवे की ओर विहार कर दिया। भोज के मन्त्रियों ने आगे जाकर राजा भीम की शर्त राजा भोज को सुनादी। राजा भोज सूराचार्य की प्रतीक्षा कर ही रहा था अतः उसने उनके आने के पूर्व ही स्वागत सम्बन्धी सम्पूर्ण साजों को सजवा लिया । उधर से तो सूरिजी धारा के नजदीक पधार रहे थे और इधर से राजा भोज और नागरिक लोग बड़े ही उत्साह के साथ गज, अश्व, रथ और असंख्य पैदल सिपाहियों को साथ में लेकर सूरिजी के आगमन की इन्तजारी कर रहे थे। क्रमशः हस्तिपर आरूढ़ होकर पाटण से आते हुए आचार्यश्री एवं स्वागत के लिये गज सवारी पूर्वक सन्मुख पाते हुए राजा भोज की एक स्थान पर भेंट होगई तब दोनों गज से उतर गये । राजा भोजने सूरिजी का बहुत ही सत्कार किया और नगर में प्रवेश करवा कर एक बहुमूल्य चौकी पर गलीचा बिछवा कर सूरिजी को बैठाया। उस समय सूरिजी का शरीर कम्पने लगा तब राजा ने उसका कारण पूछा । उत्तर में आचार्यश्री ने कहा-राजपत्नी और शस्त्रधारियोंसे हमारा शरीर कम्पता है । इस प्रकार के विनोद के पश्चात् सूरिजी ने राजा को आशीर्वाद रूप धर्मोपदेश दिया। बाद में राजा राजमहल में गये और सूरिजी जिन मन्दिरों के दर्शन कर चूड़ा सरस्वती नामक आचार्य के उपाश्रय में गये। सूरिजी का आचार्यश्री ने सन्मान किया और वे वहां अानन्द पूर्वक रहने लगे। एक समय राजा भोजने षट् दर्शनों के मुख्य २ नेताओं को बुलाकर कहा कि--तुम सब लोग अपना अलग २ मत एवं प्राचार रखकर लोगों को भरमाते हो अतः ऐसा न करके तुम सब लोग एक हो जाओ। प्रधानों ने कहा-आपके पूर्व परमारवंश में कई राजा होगये पर ऐसा कार्य करने में कोई भी समर्थ नहीं हुए । राजा ने कहा-पूर्व राजाओं ने गोडदेश सहित दक्षिण का राज्य थोड़ी लिया था ? राजा ने अपने मन्तव्यानुसार सब दार्शनिकों को एकत्रित करके उनके श्राहार पानी का निरंधन कर एक मकान में बंद कर दिये । तब सबों ने सूराचार्य से प्रार्थना की कि आप गुर्जर देश के विद्वान एवं राजा के मान्य पंडित हैं अतः हम सबको कष्ट से मुक्त करावें । इस पर सूराचार्य ने राज मन्त्रियों के साथ राजा को कहलाया कि-मैं थोड़ी देर के लिये श्रापसे मिलना चाहता हूँ। राजा ने कहा-आप कृपाकर अवश्य ही पधारें । बस, सूराचार्य राजा के पास में गये और दर्शनों के विषय में कहने लगे-राजन् ! अनादि काल से चले आये दर्शन न कभी एक हुए हैं और न होने के ही हैं यदि ऐसा ही है तो आपके नगर में ८४ बाजार अलग २ हैं उनको तो एक कर दीजिये बस राजा के समझ में आगया। उसने सबको मुक्त करके भोजन करवाया। धारा नगरी के विद्यालयों में राजा भोज का बनाया हुआ व्याकरण पढ़ाया जाता था। एक दिन विद्वमण्डली एकत्रित हो रही थी उसमें चूड़ा सरस्वती आचार्यश्री भी जा रहे थे तब सूराचार्य ने कहा- मैं भी चलूंगा आचार्य श्री ने कहा-दर्शन को मुक्त करने के श्रम से अभी तक आप श्रमित होंगे अतः आप यहीं रहे पर सूराचर्य को धारा के पण्डितों को परिचय करवाना था इसलिये आग्रह कर आचार्य के साथ हो ही गये । जब सब लोग निश्चित स्थान पर एकत्रित हो गये तब सूराचार्य ने कहा-छात्रों को कौन सा मन्थ पढ़ाया जाता है । अध्यापक ने उत्तर दिया कि राजा भोज का बनाया हुअाव्याकरण पढ़ाया जाता है । पश्चात् अध्यापक एवं छात्रों ने व्याकरण का श्राद्य मंगलाचरण कहा सूराचार्य का धारा में प्रवेश १२४३ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चतुर्मुखमुखाम्बोज-वन हंसवधूभम । मानसे रमतां नित्य शुद्धवर्णा सरस्वती ॥ सूराचार्य ने मंगलाचरण सुन कर कहा कि इस प्रकार के अद्भुत विद्वान् तो इसी देश में उत्पन्न हुए हैं क्योंकि सब विद्वानों ने तो सरस्वती को कुमारी ए ब्रह्मचारिणी कहा है पर आपके यहां यह वधु मानी जाती है यह एक आश्चर्य की ही बात है । दूसरा जैसे दक्षिण प्रान्त में मामा की पुत्री और सौराष्ट्र में भ्राता की पत्नी देवर से सम्बन्ध कर सकती है वैसे आपके यहां लघु भ्राता के पुत्र की पत्नी गम्य हो सकती होगी। यही कारण है कि वधु शब्द के समीप 'मानसे रमतां मम' शब्द का प्रयोग किया है। हां, देश २ का व्यवहार भिन्न २ होता है । अतः सम्भव है आपके यहां यही रिवाज हो । बेचारे अध्यापक इस का कुछ भी उत्तर न दे सके। सायंकाल के समय अध्यापक ने राजा के पास जाकर सब हाल कह सुनाया। राजा ने अपने सेवकों द्वारा चूड़ा सरस्वती तथा सूराचार्य को बुलवाया। इनके आने के पूर्व एक शिला के बीच छिद्र कर वा कर उसको कद्रव से पूर कर राज भवन के आगमन के प्रांगण में रख दिया। जब दोनों प्राचार्य राज सभा में आ रहे थे तो राजा ने धनुष को कान तक, खेंच कर वाण को शिला के छिद्र पर चलाया जिसको देख सूराचार्य ने एक काव्योच्चारण किया। विद्वाविद्वा शिलेयं भवतु परमतः कामु कक्रीड़ितेन । श्रीमन्पापण भेद व्यसन रसिकतां मुच २ प्रसीद ।। बेधे कौहतूलं चेत् कुलशिखरि कुलं बाणलक्षीकरोपि।ध्वस्ताधाराधरित्री नृपतिलकः तदा याति पाताल मूलम् । ___अहा ! इस शिला को भेद डाली अतः अब धनुष क्रीड़ा हो चुकी । अब प्रसन्न होकर पाषण भेदने की रसिकता को छोड़ दो । जो लक्ष्य भेदन में तुमको कौतूहल है और कुल पर्वत को बाणों के लक्ष बनाते हो तो हे नृप तिलक ! यह निराधार पृथ्वी पाताल को चली जावेगी। इस प्रकार के अद्भुत चमत्कार युक्त वर्णन से राजा संतुष्ट होगया । कवि धनपाल तो सूराचार्य की असाधारण विद्वता पर मुग्ध हो विचार करने लगा-जैनाचार्यों को कौन पराजय कर सकता है ? उसमें भी सूगचार्य जैसा प्रखर विद्वान का पराभव तो सम्भव ही नहीं है । राजा भोज ने सूराचार्य का सम्मान कर उपाश्रय पधारने की आज्ञा दी और सूराचार्य भी अपने स्थान पर आगये । बाद में राजा भोज ने अपनी सभा के पांच सौ पण्डितों को कहा कि तुम सब लोग गुर्जर देश के श्वेताम्बर आचार्य के साथ वाद विवाद करने को तैय्यार हो जाओ पर उन ५०० पण्डितों में से एक ने भी ऊंचा मस्तक कर राजा के कथन को स्वीकार नहीं किया पर निम्न मस्तक कर मौनावलम्बन ही किया। इस पर राजा ने कहा पण्डितों ! तुम गृहशूरा-अर्थात् घर में ही गर्जन करने वाले हो और मेरे से द्रव्य लेकर पण्डिताई के नाम पर अपना गुजराना चलाने वाले हो । इस पर एक चतुर पण्डित बोल उठा राजन् ! 'बहुरत्ना वसुंधरा' कहलाती है। अतः इस गुर्जरेश्वर को जीतने का एक ही उपाय है और वह यह कि किसी विज्ञ एवं चतुर विद्यार्थी को न्याय का अभ्यास करवाकर सब तरह से योग्य बनाइये और वादि के सामने खड़ा कर दीजिये । राजा ने कहा तो यह कार्य आपके ही सुपुर्द किया जाता है । बस, पण्डितों ने स्वीकार कर लिया और वे निपणता पूर्वक अपने कार्य करने में संलग्न होगये । जब निर्धारित कार्य सम्पन्न हो गया तब शुभमुहूर्त में सूराचार्य को वाद के लिये आमन्त्रित किया १२४४ घराचार्य राजा भोज की सभा में प्रवेश how -m ore ------ mainamainamunaamanarmananmanane Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककक्सूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ गया । ठीक समय पर प्राचार्यश्री राज सभा में गये और राजा ने भी सूरिजी का यथा योग्य सत्कार कर उन्हें बदिया आसन बैठने के लिये दिया जिसको रजोहरण से प्रमार्जन कर सूरिजी भी यथा स्थान विराजमान हो गये । बाद में जिस विद्यार्थी को तैय्यार किया था उसको रत्न जड़ित बहुमूल्य भूषण और बढ़िया रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित कर राज सभा में लाये । राजा ने उसको अपने उत्संग में बैठा कर सूरिजी से निवेदन किया कि यह श्रापका प्रतिवादी है । इस पर सूरिजी ने आश्चर्य युक्त शब्दों में कहा-यह बच्चा तो अभी दूध मुंहा है। इसके मुंह में दूध की गन्ध आती होगी। युवकों के वाद में यह कैसे खड़ा हो सकता है ? क्या आपकी सभा में कोई युवक एवं प्रौढ़ पण्डित नहीं है ? इस पर राजाने कहा-आपको भले ही यह बात ऐसी दीखती हो पर यह साक्षात् सरस्वती का प्रतिरूप है। इसके साथ खुशी से वाद कीजिये । हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि इसकी हार में सभा के पण्डितों की हार स्वीकार करेंगे । आचार्य श्री ने कहा-ठीक है; यह बालक है अतः भले ही पूर्व पक्ष स्वीकार करे ! इसपर विद्यार्थी ने जिस प्रकार घोखन पट्टी करके पाठ कण्ठस्थ किया था उसी प्रकार अस्खलित सभा में बोल दिया । तब सूरिजी ने कहा-अरे बन्धु ! तू अशुद्ध क्यों बोलता है ? फिर से शुद्ध बोल । विद्यार्थी ने उतावल करते हुए कहा कि मेरी पाटी पर ऐसा ही लिखा हुआ है यह मुझे निश्चय है अतः अशुद्ध नहीं। इस पर सूराचार्य ने कहा-आपके देश में पाण्डित नहीं पर शिशुत्व है । अब मुझे अपने स्थान जाने की आज्ञा दीजिये । राजा और गजा की सभा के पण्डितों के चेहरे फीके पड़ गये । वे कुछ भी नहीं बोल सके । अतः सूराचार्य चलकर अपने निर्दिष्ट स्थान पर आगये । सूराचार्य राज सभा से चलकर उपाश्रय में आये तो आचार्य चड़ा सरस्वती ने कहा-सूराचार्य ! आपने जैन शासन का जो उद्योत किया है इसके लिये हमें महान् हर्ष है पर साथ में आपकी मृत्यु का महान् दुःख भी हैं। राजा भोज अपनी सभा के पण्डितों का पराजय करने वालों को संसार में जीवित नहीं रहने देता है अतः आपकी मृत्यु उक्त नियमानुसार सन्निकट ही है । सूराचार्य ने कहा-आप किसी भी प्रकार का रंज न करें, मेरा रक्षण करने में मैं सर्व प्रकार से समर्थ हूँ। इधर कविचक्रवर्ती पण्डित धनपाल ने अपने अनुचरों के साथ कहलाया कि पूज्यवर ! हमारे महान् भाग्योदय है; इसीसे आप जैसे विद्वानों का सत्संग प्राप्त हुआ है पर इस भावी विकट परिस्थिति का मुझे बड़ा ही दुःख है अतः कृपा कर सत्वर हमार यहां पधारे जावें। यहां आने पर किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा, मैं आपको सकुशल गुर्जर भूमि में पहुंचा दूंगा । इसप्रकार धनपाल के अनुचर सूराचार्य के पास आकर सब निवेदन कर रहे थे कि राजा की ओर से कई घुड़ सवार वहां आ पहुंचे और चैत्य को चारों ओर से घेर लिया । वे कहने लगे कि राजसभा के पण्डितो को परास्त करने वाले श्रापके अतिथी को राजसभामें भेजिये कि उनका सन्मान किया जाय और जयपत्र दिया जाय । चूड़ा सरस्वती ने कहा- जल्दी न करो वे अपने क्रिया काण्ड से निवृत्त होकर आयेंगे। इतने में सूराचार्य अरणगार के मलीन एवं जीर्ण वस्त्र पहिनकर, वेश परिवर्तित कर पानी लाने को उपाश्रयके बाहिर जारहे थे कि घुड़ सवारों ने उनको रोक दिया और कहाजब तक गुर्जर पण्डित को हम रे अधीन न करेंगे वहां तक कोई भी भिक्षु बाहिर जा नहीं सकेगा । इस पर भिक्षु ने कहा सूरिजी अन्दर विराजमान हैं, उनको लेजाओ मैं तो यहां रहने वाला हुँ । गरमीके मारे तृषातुर बना हुआ पानी के लिये जारहा हूं और तुमलोग मुझे रोकते हो यह ठीक नहीं है। भिक्षुके उक्त वचन से एक सवार को दया आगई और उसने उसे जाना दिया, पर वे थे सूराचार्य हो । सूराचार्य चलकर धनपाल राजा भोजकी सभा के पण्डितों का पराजय १२४५ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास homosomnaman के घरपर आये तो धनपाल बहुत खुश हुआ ओर अपने विशाल भूमिगृह में छिपा दिया । ठीक उसी समय तम्बोली लोग पान के टोकरे लेकर गुर्जर प्रान्त में जा रहे थे । धनपाल ने उनको इच्छानुकूल विपुल द्रव्य देकर कहा-मेरे भाई को सकुशल गुर्जरप्रान्त में पहुँचा देना । तम्बोलियों ने स्वीकार कर लिया । धनपाल ने तम्बोलियों को एक सौ स्वर्ण दीनारें इनायत करदी अतः तम्बोलियों ने सूराचार्य को सुरक्षित रख्न क्रमशः गुर्जर प्रान्त में पहुंचा दिया । जब गुरु द्रोणाचार्य और राजा भीमने सुना कि सूराचार्य भोजराजा की सभा को विजय कर निर्विघ्न तय गुर्जर भूमि में आरहे हैं तो उन्होंने बड़े ही हर्ष के साथ स्वागत करने की तैय्यारियां की। गज, अश्व, रथ पैदल लेकर राजा भीम तथा असंख्य नागरिक स्त्री पुरुष स्वागतार्थ सूराचार्य के समक्ष गये । नगर को शृंगार कर गाजे बाजों की ध्वनि से गगन गुंजादिया। क्रमशः जयध्वनि के साथ सूराचार्य अपने गुरु की सेवा में-चैत्य में आया। राजा और प्रजा ने सूराचार्य के साहस एवं पाण्डित्य की भूरिर प्रशंसा की और कहा-भोजराजा की सभा को जीतकर जीवित चले आना श्राप जैसे विचक्षणो का ही काम है, इस प्रकार गुरु महाराज ने भी सूराचार्य की विद्वत्ता एवं चतुर्यता की शोभा की। पिछे राजा भोजके आदमियोंने उपाश्रयमें जाकर निगाह की तो एक आदमी साधु का वेश पहना हुआ उपाश्रय में बैठा था जब राजपुरुषों ने उस साधु को सूराचार्य के विषय में पूछा तो उसने कहा मैं सूराचार्य को नहीं जानता हूँ मैं तो सदैव से यही रहने वाला साधु हूँ इत्यादि उन आदमियों ने सोचा कि इसमें अपनी ही भूल हुई है कि पानी लाने वाले साधु को जाने दिया वास्तव में वही सूराचार्य थे पर अब क्या हो यदि सत्य बात कही तो अपन ही मारे जायगे । तथापि राजा से अर्ज की कि हे धराधिप ! धनपाल की कार्रवाई से आचार्य उपाश्रय में नही मिला है अतः धनपाल के घर की तपास करना चाहिये । वस । राजा ने धनपाल का तमाम घर, तलघर वगैरह देखा पर धनपाल साफ इन्कार हो गया कि मैंने तो सूराचार्य को राज सभा में ही देखा था न जाने किस के जरिये क्या हुआ हैं। इस बात का राजा भोज ने बडा भारी पश्चाताप किया कि गुर्जर के श्वेताम्बर आचार्य धारा के पण्डित और राज सभा की इज्जत ले गया। खैर कुछ अर्सा से राजा ने सुन लिया कि परम पण्डित और धुरंधर विद्वान सूराचार्य गुर्जर भूमि में पहुच गये हैं फिर तो वे कर ही क्या सकते । राजा भोज को इतना तो ज्ञान हो गया कि मैं मेरी राज सभा के पण्डितों का अभिमान रखता हूँ यह व्यर्थ ही है श्वेताम्बर विद्वानों के सामने हमारी राज सभा कुछ भी गिनती में नहीं है इतना ही क्यों बल्कि कई पण्डितपन का ढोंग रख कर व्यर्थ ही मेरे से द्रव्य ले जाते हैं इत्यादि द्रोणाचार्य के स्वर्गवास के पश्चात् गच्छ का भार सूराचार्य ने सम्भाला । आप सदाचारी उपविहारी और सुविहित शिरोमाणि थे। आपने जैन शासन रूप आकाश में सूर्य के भांति सर्वत्र प्रकाश कर धर्म की बहुत ही प्रभावना की। वादीजन तो आपश्री का नाम सुनते ही घबरा जाते थे। श्रापका शिष्य समुदाय भी बड़ा विद्वान था । जब सूराचार्य ने अपना आयुष्य समय नजदीक जाना तो अपने पट्ट पर योग्य मुनि गर्षि को श्राचार्य पद अर्पण कर आपने २५ दिन के अनशन से समाधि पूर्वक स्वर्गवास किया। इस प्रकार महा. प्रभावक सूराचार्य के चरण कमलों में कोटि २ नमस्कार हो । द्रोणाचार्य उस समय के चैत्यवासियों में अप्रगण्य नेता थे। जिन्हों के पास आचार्य अभयदेव सूरि ने अपने रचित आगमों की टीकाओं का संशोधन करवाया था जिसका समय विक्रम संवत् ११२० से सूराचार्य का पुनःपाटम में प्रवेश Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ११२८ के बीच का माना जाता है। इन द्रोणाचार्य के शिष्य सूराचाय थे जिनकी विद्वत्ता की पाक से वादियों के समूह घबड़ा घबड़ा कर दूर भागते थे । ___ कई लोग यह भी कहते हैं कि प्राचार्य जिनेश्वरसूरि ने वि० सं० १०८० में पाटण का गजा दुर्लभ की राज सभा में सूराचार्य को परास्त किया ? पर उपरोक्त घटनाएँ एवं समय का विचार करने पर पाया जाता है कि वि० सं० १०८० में सूराचार्य को श्राचार्य पद तो क्या पर उनकी दीक्षा भी शायद ही हुई हो। हा राजा भीम के समय सूराचार्य उनकी सभा का एक असाधारण पण्डित था और राजा भीम का राजत्वकाल मि० सं० १०७८ से ११२० का तथा राजा भोज का समय वि० सं० १०७८ से १०९९ का है इससे पाया जाता है कि सं० १०८० में नही पर इस समय के बाद ही सूराचार्य आचार्य पद पर आसढ़ हुआ होगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि न तो जिनेश्वरसूरि और सूराचार्य का राजादुर्लभ की राज सभा में शास्त्रार्थ हुआ न चैत्यवासीयों का किसे ने पराजय किया और न राजा दुर्लभ ने किसी को खरनर विरुदहीं दिया था इस विषय का विशेष खुलासा खरतर मतोत्पति प्रकरण में दिया जायगा । प्राचार्य श्रीनमयदेवसरि मालव प्रान्त में उच्च २ शिखरों व स्वर्णमय दण्ड कलशों से सुशोभित, धन धान्य में समृद्धिशाली स्वर्गपुरी से स्पर्धा करने वाली धारा नाम की एक विख्यात नगरी थी। वहां पर पण्डितों का सहोदर एवं श्राश्रयदाता राजा भोज राज्य करता था। धारानगरी में यों तो सैकड़ो हजारों कोट्याधीश व्यापारी रहते थे पर उनमें लक्ष्मीपति नामका एक विख्यात व्यापारी था जो धन में कुबेर के समान व याचकों के लिये कल्पवृक्ष वत् अाधारभूत तथा धर्म में सदा तत्पर रहने वाला था। ____ एक समय मध्यप्रान्त की ओर से दो ब्राह्मण जो वेद वेदान, श्रुति, स्मृति, पुराण, एवं चौदह विद्याओं में निपुण थे धारानगरी में आये। उन दोनों के नाम क्रमशः श्रीधर और श्रीपति थे। क्रमशः चलते हुए वे लक्ष्मीपति सेठ के यहां भिक्षा के लिये आये और सेठजी ने उनकी भव्याकृति को देखकर सम्मान पूर्वक उन्हें भिक्षा प्रदान की। उस समय लक्ष्मीपति सेठ के यहां एक भीत पर बीस लक्ष टकाओं वाला एक लेख लिखाया जारहा था । अस्तु, वे दोनों ब्राह्मण सेठजी के वहां हमेशा भिक्षार्थ आते और अपनी बुद्धि प्रबलता के कारण उस लेख को पढ़ पढ़ कर याद कर लिया करते । ___एक समय धारानगरी जल जाने से सेठजी के घर के साथ लेख भी जल गया जिससे सेठजी को बहुत ही दुख हुमा । जब प्रतिदिन के क्रमानुसार वे दोनों बाह्मण सेठजी के घर भिक्षार्थ आये तो सेठजी ने उनको अपने दुःख की सारी बात कह सुनाई। इस पर उन ब्राह्मणों ने उस लेख को ज्यों का त्यों लिख दिया इससे सेठजी बहुत संतुष्ट हुए और उन दोनों विप्रों को भी खूब प्रीतिदान देकर संतुष्ट किया। उनकी बुद्धि एवं कुशलता देख कर सेठजी विचारने लगे कि ये दोनों मेरे गुरु के शिष्य हो जावें तो अवश्य ही शासन का उद्योत करने वाले होंगे। मरुधर के सपादलक्ष प्रान्त में कुर्चपुर नामका नगर है। यहां पर अल्ल राजा का पुत्र भुवनपाल राजा राज्य करता था। वहां पर चौरासी चैत्यों के अधिपति श्री वर्धमान सूरि नाम के प्राचार्य थे । वे शास्त्रों का अध्ययन कर चैत्यवासत्याग कर विहार करते हुए धारानगरी में पधारे । सेठ लक्ष्मीपति भी सूरिजी का भागआचार्य अभयदेव मूरि १२४७ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मन सुन कर श्रीधर व श्रीपति नामक दोनों ब्राह्मणों को साथ में ले सूरिजी के पास आये । सूरिजी ने उन ब्राह्मणों को योग्य समझ कर जैन दीक्षा दी और क्रमशः उनको सूरिपद से विभूषित कर जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागरसूरि नाम प्रतिष्ठित कर दिये । बाद में, वर्द्धमान सूरिने उन दोनों सूरियों को विहार की प्राज्ञा देते हुए कहा कि पाटण नगर में चैत्यवासी श्राचार्य सुविहितों को पाटण में रहने नहीं देते हैं किन्तु विघ्न करते हैं अतः तुम वहां जाकर सुविहितों के लिये द्वारोद्धारन करो कारण तुम्हारे जैसे और कोई इस समय प्रज्ञ नहीं हैं। जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि ने गुर्वाज्ञा को शिरोधार्य कर तत्काल ही गुर्जर प्रान्त की ओर बिहार कर दिया । क्रमशः शनै २ सूरि द्वय बिहार करते हुए अणहिल्लपुर पट्टण पधार गये। स्थान के लिये घर २ पर याचना की पर पाटण जैसे लाखों की आबादी वाले विशाल शहर में ठहरने के लिये किसी ने भी मकान नहीं दिया । उभय आचार्यों को अपने गुरु वर्द्धमान सूरि के उक्त वचन सत्य प्रतीत होने लगे कि पाटण में सर्वत्र चैत्यवासियों का ही साम्राज्य है अतः सुविहितों की दाल नहीं गलती है। उस समय पाटण में राजा दुर्लभ राज्य करता था। वह नीति और पराक्रम शिक्षा में वृहस्पति के उपाभ्याय समान सर्व कला कुशल था। उस राजा के सोमेश्वर नाम का पुरोहित था। जिनेश्वर सूरि नगर में परिभ्रमन करते हुए पुरोहित के मकान पर आये और वेदवेदांग का उच्चारण करने लगे। वेदोचारण सुनकर उस पुरोहित ने उन सूरियों को अपने पास में बुलाया। जब सूरिजी पुरोहित के पास में आये तो पुरोहित ने उनका बहुत ही सम्मान किया। सूरिजी भी भूमि प्रमार्जन कर अपना श्रासन बिछाकर बैठ गये । पुरोहित को धर्मलाभ देते हुए वे कहने लगे कि वेदों और जैनागमों के अर्थ को सम्यक् प्रकार से समझ करके ही हमने अहिंसा मय जैन धर्म को स्वीकार किया है। इस पर पुरोहित ने पूछा- महात्मन् ! आप लोग यहां कहां ठहरे हुए हैं ? जिनेश्वरसूरि-यहां चैत्यवासियों का प्राधान्य होने से हमें कहीं भी रहने को स्थान नहीं मिलता है । इस पर पुरोहित ने अपने मकान के ऊपर के भाग में एक चंद्रशाला खोल दी । श्रीजिनेश्वर सूरि भी सपरिवार वहां ठहर गये और शुद्ध आहार पानी लाकर गौचरी करने लगे। तदनन्तर पुरोहित अपने छात्रों को सूरिजी के पास में लाया और सूरिजी ने उनकी परीक्षा ली। इतने ही में चैत्यवासियों के आदमियों ने आकर जिनेश्वरसूरि को कहा कि तुम इस नगर को छोड़ कर चले जावों कारण, इस नगर में चैत्यवासियों की सम्मति बिना किसी भी श्वेताम्बर साधु को ठहर ने का अधिकार नहीं है । इस पर पुरोहित ने कहा कि इसका निर्णय राजा की सभा में राजा के समक्ष कर लिया जायगा । बस उन लोगों ने जाकर चैत्यवासियों से कह दिया तब चैत्यवासी मिल कर राजसभा में आये और उधर से पुरोहित भी राजा के पास आया। पुरोहित ने राजा से कहा कि मेरे घर पर दो मुनि श्राये, उनको ठहरने के लिये मैंने स्थान दिया है, इसमें यदि मेरा कुछ अपराध हुआ हो तो आप मुझे इच्छानुकूल दण्ड प्रदान करें। इस पर हंस कर राजा ने चैत्यवासियों के सामने देख कर पूछा कि देशान्तर से कोई साधु आवे और उसको रहने के लिये स्थान मिले तो इसमें श्राप क्या दोष देखते हैं ? कई पट्टावली कारों का कहना है कि सोमेश्वर पुरोहित संसार सम्बन्ध में जिनेश्वर सूरि के मामा लगता था। १२४८ जिनेश्वरसूरि पारण के घरघर में Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८ से १२३ चैत्यवासी बोले-हे नरेन्द्र ! श्राप पूर्व कालीन इतिहास को ज्यान पूर्वक सुनें पूर्व जमाने में वनरा चावड़ा नामक पाटण का एक विख्यात राजा हो गया है । उसको नागेन्द्र गच्छ के आचार्य देवचंद्रसूरि ने बाल्य वस्था से ही सहायता पहुँचाई तथा पंचासरा के चैत्य में रहते हुए उन्होंने इस नगर की स्थापना करवाइ और कर राज चावड़ा को राजा बनाया। वनराजने वनराजविहार-मन्दिर बनवाया और श्राचार्यश्री को कृतज्ञता पूर्वक असा धारण सम्मान से सम्मानित किया । उस ही समय श्रीसंघ ने राजा के समक्ष ऐसी व्यवस्था की थी कि समुदाय के भेद से समाज में बहुत लघुताभाती है अतः इस पाटण नगर में चैत्यवासियों को बिनासम्मति लिये को मी श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सके, इसमें राजा की भी सम्मति थी अस्तु । पूर्व कालीन नरेश होगये हैं वे राजाके साथ श्रीसंघ की की हुई उक्त मर्यादा का बराबर पालन करते आरा है अतः भपको भी अपने पूर्वजों की मर्यादा का दृढ़तासे पालन करना चाहिये। फिर तो जैसी आपकी इच्छा राजाने कहा-पूर्व नृप कृत नियमों का हम दृढ़ता पूर्वक पालन कर सकते हैं। पर गुणी जनों के पूजा का हम उल्लंघन भी नहीं कर सकते हैं। हां, आप जैसे सदाचार निष्ट महापुरुषों के शुभाशीर्वाद से ही राजा अपने गव्य को आबाद बनाते हैं इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है पर मेरी नम्र प्रार्थन नुसार भी आप इन साधुओं को नगर में रहने देना स्वीकार कर। राजा के अत्याग्रह को भावी भाव समम कर चैत्यवासियों ने स्वीकार कर लिया। सोमेश्वर पुरोहित ने तत्काल राजा से प्रार्थना की कि इन साधुओं के रहने के लिये भूमि प्रदान करें । इसने ही में ज्ञानदेव नामक शिवाचार्य राजसभा में पाया। राजाने उसका सत्कार कर उसे श्रासन पर बैठाया । कुछ समय के पश्चात् शिवाचार्य ने कहा राजन् ! आज मैं आपसे कुछ कहने के लिये आया हूं और वह यह है कि यहां दो जैनमुनि आये हैं उनको ठहरने के लिये स्थान दो और निष्पाप गुणीजनों की पूजा करो । मेरे उपदेश का सार भी यही है कि बाल भाव का त्याग कर परम पद में स्थिर रहने वाला शिव ही जिन है । दर्शन में भेद डालना मिथ्यात्व का लक्षण है इस पर राजा ने बाजार में दो दुकानों के पीच में भूसा डालने के स्थान को साधुओं के लिये पुरोहित को दे दिया। उसी भूमिपर पुरोहित ने जिनेश्वर सूरिके लिये उपाश्रय बनाया और उसी मकान में जिनेश्वरसूरे ने चतुर्मास किया । बस, उसी दिन से बसतिवास की स्थापना हुई । बुद्धिसागरसूरिने पाटण में ही रहकर आठ हजार श्लोक वाले बुद्धिसागर नामके व्याकरण का निर्माण किया। बाद जिनेश्वरसूरि धारा नगरी की ओर विहार कर दिया। कई लोग यह भी कहते है कि जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे वहाँ राजा दुर्लभ की राज सभा में चैत्यावासियों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें जिनेश्वरसूरि की विजय हुई उपलक्ष में राजा दुर्लभ ने जिनेश्वरसूरि को 'खरतर' बिरुद दिया परन्तु उपरोक्त लेख से वह घात कल्पित एवं मिथ्या ठहरती है कारण इस लेख में न तो जिनेश्वरसूरि राज सभा में गए थे न किसी चैत्यावासियों के साथ आपका शास्त्रार्थ ही हुआ । और न राजा दुर्लभ ने किसी को विरुद ही दिया। इस लेख में तो स्पष्ट लिखा है कि राजसभा में पुरोहित सोमेश्वर गया था और राजा दुर्लभने चैत्यवासियों को अच्छे एवं सदाचार निष्ट कह कर आये हुए साधुओं को नगर में ठहरने देने की सम्मति मांगी थी और पुरोहित के कहने पर राजा ने बाजार में भूसा डालने की बेकार भूमि पड़ी थी जिसको ज्ञानदेव शिवाचार्य के उपदेश से भूमिदान दिया जिस पर जिनेश्वरसूरि के ठहरने के लिये पुरोहितने मकान बनाया और जिनेश्वरसूरिने उसी मकान में चतुर्मास कर पाटण में वसतिवास नाम के चैत्यवासी राज सभामें १२४९ wwwwwwwwwwwwwww Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नये मत्त की नींव डारी जिसकी पहलेसे ही नगर निवासियों को शंका थी और इस कारण ही पादण की जनता ने घरघर पर याचना करने पर भी जिनेश्वर को मकान नहीं दिया था । उपरोक्त लेख राजगच्छीय प्रभाचद्रसरि ने अपने प्रभाविक चरित्र में लिखा है पर खास जिनेश्वरसरि के संतान परम्परा में हुए आचार्य ने अपने प्रन्थ में भी इस विषय में लेख लिखा है जिसका भावार्थ निम्न दिया जाता है। x इतः सपादलक्षेऽस्ति नान्ना कूर्चपुरं पुरम् । मषीकूर्चकमाधातुं यदलं शात्रवानने ॥ भल्लभूपाल पौत्रोऽस्ति प्रापोत्रीव धोराधः। श्रीमान् भुवनपालाख्यो विख्यातः सान्वयाभिधः । तत्रासीत प्रशम श्रीभिर्वद्धमान गणोदधिः । श्रीवद्धमान इत्याख्यः सूरिः संसारपारभूः ॥ चतुर्भिरधिकाशीतिश्चैत्यानां येन तस्यजे । सिद्धान्ताभ्यासतः सत्यतत्त्वं विज्ञाय संसृतः ॥ भन्यदा विहरन् धारापुर्या धागधरोपमः । भागाद् वाग्ब्रह्मधाराभिर्जन मुज्जीवयन्नयम् ॥ लक्ष्मीपतिस्तदाम्योकर्ण्य श्रद्धालक्ष्मीपतिस्ततः । ययौप्रद्युम्न-शाम्बाभ्यामिव ताभ्यां गुरोर्नतौ ॥ सर्वाभिगम पूर्व स प्रणम्योपाविशत् प्रभुम् । तौ विधाय निविष्टौ च करसम्पुटयोजनम् ॥ धर्यलक्षणवर्या च दध्यौ विक्ष्य तनु तयोः । गुरुराहानयोमूर्तिः सम्यक स्वपरजिस्वरी ॥ तौ च प्राग्भव सम्बद्धाविवानिमिषकोचनौ । वीक्षमाणौ गुरोरास्यं व्रतयोग्यौ च तेर्मतौ ॥ देशनाभीशुभिर्ध्वस्ततामसौ बोधरङ्गिणी । लक्ष्मीपत्यनुमस्या च दीक्षितौ शिक्षितौ तथा ॥ महाव्रतभरोद्धारधुरीणौ तपसा निधी । अध्यापितौ च सिद्धान्तं योगोद्वहन पूर्वकम् ॥ ज्ञास्वौचित्यं च सूरिस्वे, स्थापितौ गुरुभिश्च तौ । शुद्धवासो हि सौरभ्यवासंसमनुगच्छति ॥ ४२ ॥ जिनेश्वरस्ततःसूरिरपरोबुद्धिसागरः । नामभ्यांविश्रुतौपूज्यैविहारेऽनुमतौ तदा ॥४३ ॥ ददे शिक्षेति तैः, श्रीमत्पत्तने चैत्यसूरिभिः । विघ्नं सुविहितानां, स्यात्तत्रावस्थानवारणात् ॥ ४४ ॥ युवाभ्यामपनेतन्यं, शक्त्या बुद्ध थाच तस्किल । बदिदानीतने काले, नास्ति प्राज्ञोऽभवत्समः ॥ १५॥ अनुशास्ति प्रतीच्छाव, इत्युक्त्वा गूर्जरावनौ । विहरन्तौ शनैः, श्रीमत्पत्तनं प्रापतुर्मुदा ॥ ४६ ॥ सद्गीतार्थ परीवारो, तत्रभ्रान्तौगृहे गृहे । विशुद्धोपाश्रपालामाद्वाचं, सस्मरतुर्गुरोः ॥ ४५ ॥ भीमान दुर्लभराजाण्यस्तत्र चासीद्विशांपतिः । गीष्पतेरप्युपाध्यायो, नीति विक्रमशिक्षणे (णात् ) ॥ ४८ ॥ श्री सोमेश्वरदेवाख्यस्तत्र, चासीत्पुरोहितः । तद्गेहे जग्मतुर्युग्मरूपो, सूर्यसुताविव ॥ ४६ ॥ तद्वारेचक्रतुर्वेदोच्चारं, संकेतसंयुतम् । तीर्थ सत्यापयन्तौ च, ब्राह्म पैञ्यंच दैवतम् ॥ ५० ॥ चतुर्वेदोरहस्यानि, सारिणी शुद्धिपूर्वकम् । व्याकुर्वन्तौसशुश्राव, देवतावसरेततः ॥ ५१ ॥ तद्ध्वानध्याननिर्मग्नचेताः स्तम्मितवत्तदा । समग्रेन्द्रियचैतन्यं, श्रस्योरेवसनीतवान् ॥ ५२ ॥ ततोभक्स्पानिज, बन्धुमाप्यायवचनामृतैः । भव्हानायतयोः, प्रेषीत्प्रेक्षाप्रेक्षीद्विजेश्वरः ॥ ५३ ॥ तौ च दृष्ट्वाऽन्तरायातौ, दध्यावम्भोजभूः किमु ? । द्विधाभूयाद (?) माहत्त, दर्शनंशस्यदर्शनम् ॥ ५४ ॥ हित्वाभद्रासनादीनि, तहत्तान्यासनानि तौ । समुपाविशतांशुद्धस्वकम्बलनिषद्यवोः ॥ ५५ ॥ बेदोपनिषदांजैन, तत्वश्रुसगिराँतथा। वाग्भिः साम्यं प्रकाश्यैतावभ्यधत्तां तदाशिषम् ॥ ५६ ॥ तथाहि-"भपाणिपादो ह्यमनोग्रहीता। पश्यत्यचक्षुःसशृणोत्यकर्णः ॥ सवेत्तिविश्वं, नहितस्यास्तिवेत्ता । शिवोह्यरूपीसजिनोऽवताद्वः ॥ ५७ ॥ उचतुश्चानयोःसम्यगवगम्यार्थसंग्रहम् । दययाऽभ्यधिकंजैन, सत्रावामाद्रियावहे ॥ ५८ ॥ युवामवस्थितौकुत्रेयुक्त, तेनोचतुश्च तौ । न कुत्रापि स्थितिश्चैत्यवासिभ्यो लभ्यते यतः ॥ ५९ ॥ चन्द्रशाला निजां चन्द्रज्योत्सनानिमलमानसः । सतयोगप्पयत्तत्र, तस्थतुस्सपरिच्छदौ ॥ ६ ॥ १२५० पाटण में वसति वास मत का प्रादुर्भाव Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ द्वाचत्वारिंशताभिक्षा, दोषैर्मुक्तमलोलुपौः। नवकोटि विशुद्धचायातं, भैक्ष्यमभुञ्जताम् ॥ ६ ॥ मपाहियाज्ञिकस्मात, दीक्षितानग्निहोत्रिणः । माहूयदर्शितौसत्र, निव्यू ढौतस्परीक्षया ॥ ६२ ॥ यावद्विद्याविनोदोऽयं, विरञ्चेरिवपर्षदि । वर्ततेतावदाजग्मुनियुत्ताश्चैत्यमानुषाः ॥ ६३ ॥ उचुश्च ते झटित्येव, गम्यतांनगराबहिः । अस्मिन्न लभ्यते स्थातुं, चैत्यबाह्यसिताम्बरैः ॥ १४ ॥ पुरोधाःप्राहनिर्णेयमिदंभूपसभान्तरे । इतिगत्वानिजेशानमिदमाख्यातभाषितम् ॥ १५ ॥ इस्याख्याते चतैः सर्वैः समुदायेनभूपतिः । वीक्षितः प्रातरायासीत्तत्र, सौवस्तिकोऽपि सः ॥ ६६ ॥ व्याजहाराथदेवास्मद्गृहेजैनमुनीउभौ । स्वपक्षेस्थानमप्रामुवन्ती, संप्रापतुस्तः ॥ ६७ ॥ मया च गुणागृह्यस्वात्, स्थापितावाश्रये निजे । भट्टपुत्राभमीमिम, प्रहिताश्चैत्यपक्षिभिः ॥ ६८॥ अन्नादिशत मे झूणं, दण्डं चाऽत्रयथार्हतम् । श्रुवेत्याहं स्मितं कृत्वा, भूपालः समदर्शनः ॥ ६९ ॥ मापुरेगुणिनोऽस्माद्द शान्तरतआगताः। वसन्तः केन वार्यन्ते ?, को दोषस्तत्र दृश्यते ? ॥ ७० ॥ भनुयुक्ताश्च ते चैवं, प्राहुः शृणु महिपते !। पुरा श्रीवनराजोऽभूत्, चापोत्कटवरान्वयः ॥ ७ ॥ स बाल्ये वर्द्धितः श्रोम देवचन्द्रेणसूरिण। । नागेन्द्रगच्छभूद्धारप्राग्वराहोपमास्पृशा । ७२ ॥ पंचाश्रयाभिधस्थानस्थितचैत्यनिवासिना । पुरं स च निवेश्येदमत्र, गज्यंदधौनवम् ॥ ३ ॥ वनराजविहारंच, तत्रास्थापयत्तप्रभुं। कृतज्ञस्वादसौतेषां, गुरूणामहणव्यधात् ॥७॥ व्यवस्था तत्र चाकारि, सङ्घन नृपसाक्षिकम् । संप्रदाय विभेदन, लाघवं न यथा भवेत् ॥ ७५ ॥ चैत्यगच्छयतिव्रातसम्मतोवसतान्मुनिः । नगरेमुनिभिर्मात्र, स्वतन्यंतदसम्मतैः ॥ ७६ ॥ राज्ञां व्यवस्था पूर्वेषां, पाल्या पाश्चात्यभूमिपैः । यदादिशसि तस्कार्य, राजन्नेवं स्थिते सति ॥ ७० ॥ राजा प्राइ समाचार, प्राग्भूपानां वयं दृढम् । पालयामोगुणवता, पूर्जातुल्लङ्घयम न ॥ ७ ॥ भवादशांसदाचारनिष्ठानोमाशिषानृपाः । एतेयुष्मदीयंतगाज्यंनानास्तिसंशयः ॥ ७९॥ "उपरोधेन” नोयूयम्मीषांवसनंपुरे । अनुमन्यध्वमेवच, श्रस्वा तेऽत्र तदादधुः ॥ ८॥ सौबस्तिकस्ततः प्राह, स्वामिन्नेषामवस्थितौ । भूमिः काप्याश्रयस्याथ, श्रीमुखेनप्रदीयताम् ॥ १॥ तदासमाययौत, शैवदर्शनिवासवः । ज्ञानदेवाभिधाकर समुद्रविरुदार्हतः ॥ ८२ ॥ अभ्युत्थाय समभ्यय॑, निविष्टं निज आसने । राजा व्यजिज्ञपरिचिदथ विज्ञप्यते प्रभो ! ॥ ३ ॥ प्राप्लानर्षयस्तेषामर्पयध्वमुपाश्रयम् । इस्याकय॑तपस्वीन्द्रः, प्राहप्रहसिताननः ॥ ८॥ गुणिनामर्थनांयूयं, कुरुध्वं विधुसैनसम् । सोऽस्माकमुपदेशानां, फलपाक: श्रियां निधिः ॥ ५॥ शिवएअजिनो, बाह्यत्यागास्परपदस्थितः । दर्शनेषुविभेदोहि, चिह्न मिथ्यामतेरिदम् ॥८६॥ निस्तुषव्रीहिहहानां, मध्येऽत्र पुरुषाश्रिता। भूमिः पुरोधसा ग्राह्योपानयाययथारूचि ॥८॥ विनः स्वपरपक्षेभ्यो, निषेध्यासकलोमया। द्विजस्तच्च प्रतिश्रुत्य, तदाश्रयमकारयत् ॥ ८८ ॥ ततःप्रभृतिसंजज्ञ, वसतीनांपरम्पग । महद्भिः स्थापितं वृद्धिमते नात्र संशयः ॥ ८९ ॥ श्रीबुद्धिसागरसरिश्वकेन्याकरणंनवम्। सहस्त्राष्टकमानंतच्छ्रोबुद्धिसागराभिधम् ॥ ९॥ भन्यदाविहरन्तश्च, श्रीजिमेश्वरसूरयः । पुनारापुरीप्रापुः, सपुण्यप्राप्यदर्शनाम् ॥ ९१ ॥ "प्रभाविक चरित्र पृष्ट २०५७ वच्छा! गच्छह अगहिल्ल पट्टणे संपयं जओ तस्थ । सुविहिअजइप्पवेसं चेइअनुगिणोनिर्वामिति ॥१॥ सत्तीए बुद्धिए सुविहिलसाग तत्थ ये पवेसो। कापवो तुम्ह समो अन्नो न हु अस्थि कोविधिऊ॥१॥ सीसे धरिऊण गुरुणमेयमाणं कर्मण ते पत्ता । गुजरधरावयंसं भर्णाहल्लभिहाणयं नगर ॥ ३॥ गीमस्थमुणिसमेया भमिआ पइमंदिरं धसहिहेऊ । सा तस्थ नेव पत्ता गुरुण तो समरिभ वपणं ॥ ४ ॥ प्रभाविक चरित्र का प्रमाण १२५१ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७) [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास memorromen भावार्थ-वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वरसूरि बुद्धिसागरसूरि को हुक्म दिया कि तुम पाटण जात्रो कारण पाटण में चैत्यवासियों का जोर है कि वे सुविहितों को पाटण में श्राने नहीं देते है अतः तुम जा कर सुविहितों के लिए पाटण का द्वार खोल दो । वस गुरु आज्ञा स्वीकार कर जिनेश्वरसूरि बुद्धिसागरसूरि क्रमशः यिहार कर पाटण पधारे। वहां प्रत्येक घर में याचना करने पर भी उनको ठहरने के लिये स्थान नहीं मिला उस समय उन्होंने गुरु के वचन को याद किया कि वे ठीक ही कहते थे पाटण में चैत्यवासियों का ऐसा ही जोर है खैर उस समय पाटण में राजा दुर्लभ का राज था और उनके पुरोहित सोमेश्वर ब्राह्मण था। दोनों सूरि चल कर पुरोहित के वहाँ गये परिचय होने पर पुरोहित ने कहा कि आप इस नगर में विराजें । इस पर सूरिजी ने कहा कि तुम्हारे नगर में ठहरने को स्थान ही नहीं मिलता फिर हम कहाँ ठहरें ? इस हालत में पुरोहित ने अपनी चन्द्रशाला खोल दी कि वहाँ जिनेश्वरसूरि ठहर गये । यह बितींकार चैत्यवासियों को मालूम हुआ तो वे (प्र० च० उनके श्रादमी) वहाँ जा कर कहा कि तुम नगर से चले जाओ कारण यहां चैत्यवासियों की सम्मति बिना कोई श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकते हैं। इस पर पुरोहित ने कहा कि मैं राजा के पास जा कर इस बात का निर्णय कर लूंगा । बाद पुरोहित ने राजा के पास जा कर सब हाल कह दिया । उधर से सब चैत्य वासी भी राजा के पास गये और अपनी सत्ता का इतिहास सुनाया। आखिर राजा से पुरोहित ने वसति प्राप्त कर वहाँ उपाश्रय बनाया उसमें ही जिनेश्वरसूरि ने चतुर्मास किया उस समय से सुविहित मुनि पाटण में यथा इच्छा विहार करने लगे। इसमें भी राजसभा में जिनेश्वरसूरि नहीं पर पुरोहित ही गया था। जिनेश्वरसूरि धारानगरी में पधारे । वहां पर महीधर सेठ रहता था। उसके धनदेवी नाम की स्त्री और अभयकुवर नामका पुत्र था। अभयकुमार सूरिजी के उपदेश को श्रवण कर संसार से विरक्त हो गया क्रमशः श्राचार्यश्री के पास में ही उन्होंने भगवती दीक्षा ग्रहण करली। सर्वगुण सम्पन्न होने पर वर्द्धमान सूरि की आज्ञा से जिनेश्वरसूरि ने अभयमुनि को सूरिपद अर्पण कर आपका नाम अभयदेवसूरि रख दिया। तस्थ य दुल्लहराभो राया राव सब्व कललिओ । तस्य (स्स) पुरोहिमसारो सोमेसरनामभो आसी ॥ ५ ॥ तस्स घरे संपन्ना (ते पत्ता) सोऽविहु तणयाण वेभमज्झयणं । कारेमाणोदिटोसिहो सूरिप्पहाणेहिं ॥ ६ ॥ सुणु वक्रवाणं वेभस्स एरिसं सारणी परिसुद्ध सोऽवि सुणंतो उप्फुललोअण्णे बिम्हिभी जाओ ॥७॥ किं बम्हा रूवजुयं काऊणं अत्तणा इसउहण्णो । इहंचितसो विप्पो पयपउमं बंदई तेसिं ॥ ८॥ सिवसासणस्स जिणसासनस्स सारकखरे गहेऊणं। इस आसीसा दिन्ना सूरीहि सकजसिद्धिकए ॥९॥ "अपाणि पादो ह्यमनो ग्रहीता, पश्यत्य चक्षुः स शृणोत्य कर्णाः। स वेत्ति विश्वं नहि तस्थ वेत्ता, शिवो यरुपी स जिनोऽवताद्व" ॥१०॥ तो विप्पो ते पद चिट्ठह गट्टी तुमेहिं सह होइ । तुम्ह पसाया वेअस्थपारगा हुति मे अ सुआ। ॥ ठाणाभावमो अाहे चिट्ठामा कस्थ इस्थ तुह नयरे ? चेहभषासि अमुणिणो न दिति सुविहिअजणे वसिड॥ १२॥ तेणवि सचंदसाला उवीर ठावित्त सुद्ध असणेणं । पडिलाभित्र मजमण्हे परिक्खिा सम्वसत्थेषु ॥ १३ ॥ तत्तो चेइयवासी अमुंडा तत्थागया भणंति इमं। नीसरह मयरमझा चेइभबज्झान इह ठंति ॥१५॥ इअ वुत्ततं सोउ रण्णो पुरभो पुरोहिभो भगइ । रापावि सयलचेइभवामीणं साहए पुरभो ॥ १५॥ जइ कोऽवि गुणड्ढाणं इमाण पुरओ विरूधर्य भणिहि । तं निभरजाउ फुढेनासेमि सकिमियभसणुच ॥ १६ ॥ रण्णो आएसेणं वसहि सहि ठिभा चउम्मासि । तत्तो सुविहिभमुणिणो विहरति जहिच्छिभं तत्थ ॥१॥ " इत्यादि रुद्रपल्लीय संघतिलक सूरिकृत दर्शनसप्तति" प्रवचन परीक्षा पृ. १४१ १२५२ जिनेश्वरपरि धारानगरी में Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ बाद में बिहार करते हुए वे आप थरापद्रनगर में पाये और वहां पर वर्धमानसूरि का अनशन एवं समाधिपूर्वक स्वर्गबास होगया। एक समय ऐसा दुष्काल पड़ा कि जिससे ज्ञान ध्यान में स्खलना होने लगी। जैनागमों तथा उसपर की गई वृत्तियों का भी उच्छेद हो गया । इसको देख शासन देवीने रात्री के समय अभयदेवसूरि को कहा कि दुर्भिक्ष के कारण श्रीशीलाझाचार्य रचित टीकाओं में केवल दो अंग की टीका ही अवशिष्ट रह गई हैं और बाकी सव विच्छेद हो गयी हैं अतः श्राप अवशिष्ट नव अङ्गों को टोका बनाकर साधु समाज पर उपकार और शासन की अमूल्य सेवा करें । इस पर सूरिजी ने नौ अंगों पर टीका रचकर विद्वान् आचार्यों से उनका संशोधन करवाया श्रीभगवतीजीसूत्र की टोकामें स्वयं आचार्यश्री लिखते हैं कि टीकाओं का संशोधन मैंने द्रोणाचार्य से करवाया जो चैत्यवासियों के अग्रगण्य नेता थे । इनके अलावा सूरिजीने अपनी टीका में यह भी सूचित किया है कि पूर्वाचार्य रचित टीका चूर्णियों के आधार से मैंने टीका की रचना की है । देवी के कहने से प्रथम प्रति देवी के भूषण से लिखवाई और बादमें कई भावुक श्रावकों ने अपने द्रव्य से आगम लिखवा कर आचार्यश्री को अर्पण किये तथा भण्डारों में स्थापित किये । एक समय अभयदेवसूरि विहार करके धोलका नगर में पधारे । वहां अशुभकर्मोदय से आपके शरीर में कुष्टरोगोत्पन्न हो गया। इससे कई इर्ष्यालु लोग कहने लगे कि टीका बनाने में उत्सूत्र भाषण एवं लेखन से ही अभयदेवसूरि के शरीर में रोग हुआ है । लोगों के मुख से उक्त अपवाद को सुनकर आचार्य अभयदेव सूरि को बड़ी चिन्ता होने लगी। पुण्योदय से एक दिन की रात्री में धरणेन्द्र ने आकर सूरीश्वरजी के शरीर का अपनी जिभ्या से स्पर्श किया इसपर अज्ञात सूरिजी ने सोचाकि मेरा आयुष्य नजदीक आगया है पर दूसरे ही दिन धरणेन्द्र ने प्रगट हो कर कहा कि आपके शरीर का स्पर्श करने वाला मैं हूँ। रोगापहरण के लिए ही मैंने ऐसा किया था अतः एतद्विषयक किञ्चित् भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये सूरिजीने कहा-धरणेन्द्र ! रोग और मरण का तो मुझे तनिक भी भय नहीं है पर इसके लिये इर्ष्यालु लोग शासन की हीलना करें यह जरा विचारणीय या भयोत्पादक है । धरणेन्द्र ने कहा-इस बात कां आप तनिक भी खेद न करें। जिन बिम्बके प्रभाव से आपके शरीर का यह रोग निश्चय ही चला जायगा। अब एतदर्थ मेरी बात जरा ध्यान पूर्वक सुनिये । श्रीकान्त नगरी का निवासी धनेश नामका एक धनाढ्य श्रावक जहाजों में माल भर कर समुद्र मार्गसे जारहा था । मार्ग में बाणव्यन्तर देवता ने किसी कारण वश उन जहाजों को स्तम्भित कर दिया और उपदेश दिया। इससे धनेश श्रावकने भूमिसे तीन प्रतिमाएं निकाली एवं घरपर ले आया उक्त तीनों प्रतिमाओं में एक की स्थापना चारूप नगरमें की जिससे वह चारूप तीर्थ कहलाया और दूसरी की स्थापना अण डिल्ल पाटणमें की। बची हुई तीसरी प्रतिमा को स्तम्भन प्राम की सेडिका नदी के तट स्थित भूगर्भ में स्थापन की है जिसको आपश्री जाकरके प्रगट करें। पूर्व नागार्जुन ने भी वहां रस सिद्धि प्राप्त कर स्तम्भनपुर नाम का प्राम आवाद किया । जिन विम्ब के प्रगट होने से आपके कुष्ट रोग का क्षय होगा और आपकी कीर्ति भी बहुत प्रसरित होगी। इतना कह कर धरणेन्द्र देव तो अदृश्य हो गया। प्रातःकाल होते ही सूरिजी ने सब हाल धोलका नगर-निवासी श्रीसंघ को कहा | धरणेन्द्र देवागमन और रोगापहरण का सफल उपाय सुनकर श्रीसंघ के हर्ष का पारावार नहीं रहा । बस, ९०० गाडों के साथ श्रीसंघ व सूरिजी चलकर सेटी नदी के किनारे पर आये। गोपाल को पूछने पर ज्ञात हुआ कि यहां गाय का दूध स्वयं सवित होता है । अप्रगण्य लोगों ने उक्त भूमि को Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास खोदना प्रारम्भ किया तो अन्दर से पार्श्वनाथ भगवान् की मनोहर मूर्ति प्रगट हो गई । प्राचार्य अभयदेव सूरि ने 'जयतिहुश्रण' स्तुति बनाकर प्रमुस्तुति की और श्रीसंघ ने मूर्ति का विधि पूर्वक प्रक्षालन किया जिसको शरीर पर लगाने से आचार्यश्री का रोग चलागया। और स्तम्भन तीर्थ की स्थापना हुई। श्री मल्लवादी के शिष्य के उपदेश से श्रावकों ने चतुर एवं शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलवाकर जिनेश्वर का विशाल एवं सुंदर मन्दिर बनवाया। इस मन्दिरजी की देख रेख के लिये अप्रेश्वर की ओर से उसको प्रतिदिन एक द्रम्म के रोजगार से रक्खा । उन्होंने उस द्रव्य को अपने कार्यों में खर्च करने से बचाकर उसी मन्दिर में एक देहरी करवाई वह अद्यावधि विद्यमान है जब मन्दिर तैय्यार होगया तो आचार्य श्री अभयदेव सूरि से उसकी प्रतिष्टा करवाकर जैनधर्म की प्रभावना की। तदन्तर धरणेन्द्र ने सूरिजी को कहा-प्रभो! आपने जो ३२ काव्य का स्त्रोत्र बनाया है उसमें से दो काव्य निकाल दीजिये । कारण, दो काव्यों के रहने से कोई भी व्यक्ति इन काव्यों को पढ़ेगा तो तत्काल मुझे पाकर हाजिर होना पड़ेगा इससे मुझे कष्ट होगा। सूरिजी ने भी भविष्य को सोचकर धरणेन्द्र के कथनानुसार दो काव्य निकाल दिये पर अब भी इस स्त्रोत का पाठ करने वालों का संकट दूर हो सकता है । इस तीर्थ के प्रथम स्नात्र का सौभाग्य धवलका के श्रीसंघ को मिला। इस स्म्तभन पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्राचीनता के लिये मूर्ति के पृष्ठ भाग पर शिलालेख खुदा हुआ है जिसमें लिखा है कि इक्कवीसवें नमिनाथ के शासन के २२२२ वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् गौड़ देश के आसाढ़ नामक श्रावक ने तीन प्रति. माएं बनाई उसके अन्दर की एक यह प्रतिमा है। प्राचार्य जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् शासन प्रभावक श्री अभयदेव सूरि ने पाटण के कर्ण राजा के राज्यत्व काल में सं० ११३५ स्वर्गवास किया। आचार्य अभयदेवसूरि ने हर तरह से शासन की बहुत ही प्रभावना की । ऐसे परम प्रभावक आचार्यश्री के गुण, श्लाघनीय एवं आदरणीय हैं । सकल जैन समाज पर आपका महान् उपकार हुआ है। प्राचार्य कादीदेवसरि स्वर्ग सदृश गुर्जर देश के अष्टादशशति प्रान्त में मदुहृत (मदुश्रा) नामका एक अत्यन्त रमणीय प्राम था। यहां पर प्राग्वटवंशावतंस श्री वीरनाग नाम के एक कुलसम्पन्न घराने के गृहस्थ रहते थे। इनकी धर्मपत्नी का नाम जिनदेवी था। एक दिन रात्रि में जिनदेवी चन्द्र का स्वप्न देख कर जागृत हुई । प्रातःकाल होते ही उसने अपने गुरुदेव आचार्य चन्द्रसूरिजी को अपने स्वप्न का हाल सुनाया। स्वप्न को सुन कर सूरिजी ने कहा-बहिन ! यह स्वप्न अत्यन्त शुभ एवं भावी अभ्युदय का सूचक है। तेरे भाग्योदय से देव-चन्द्र के समान कोई पुण्यशाली जीव अवतरित हुआ होगा। जिनदेवी ने सूरिजी के वचनों को शुभ एवं आशीर्वाद रूप समझ कर खूब ही हर्ष मनाया । बास्तव में भाग्योदय का हर्ष किस प्राणी को न हो ? समयानन्तर माता जिनदेवी ने एक मनोहर पुत्र रत्न को जन्म दिया जिस का नाम पूर्णचन्द्र रक्खा । क्रमशः जब पूर्णचंद्र आठ वर्ष का हुआ तो एक दिन प्राम में उपद्रव ने अपना पैर पसार लिया। अनन्योपाय न होने से वीरनाग मदुहत प्राम को छोड़ कर लाट देश के भूषण स्वरुप भरोंच पत्तन में चलागया। भाग्यवशात् चन्द्रसूरि का भी वहां पर पदार्पण हो गया। वीरनाग को भरोंच आया हुआ देख कर १२५४ स्तम्भन तीर्थ की स्थापना Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ सूरिजीने भरोंच निवासियों को इशारा किया जिससे सकल श्रीसंघने मिल कर वीरनाग का पर्याप्त सम्मान किया एवं उन्हें सर्व प्रकार सहायता पहुँचाकर स्वधर्मी वत्सलता का परिचय दिया। एक समय पूर्णचन्द्र कुछ नमक श्रादि पदार्थ लेकर नगर में बेचने को गया। मार्ग में उसे एक ऐसे श्रेष्टिवर्य का घर मिला जिसके वहां पूर्वजों द्वारा सम्चित सोनैया कोलसे के रूप में बन गया था। उस श्रेष्टि ने उक्त द्रव्य को कोयला समम कर बाहर डालना प्रारम्भ किया इतने ही में बालक पूर्णचन्द्र भाग्यवशात् वहां पहुंच गया । यद्यपि वह सौनया श्रेष्टि को कोयले के रूप में दीखता था पर पूर्णचन्द्र को वह स्वर्ण रूप ज्ञात होने लगा। वह तत्काल बोल उठा - श्रेष्टिवर्य ! श्राप सौनयाँ को बाहिर क्यों कर फेंक रहे हैं। सेठ समझ गया कि निश्चित् ही यह कोई भाग्यशाली पुरुष है । कारण, मेरे भाग्य में न होने के कारण मुझे यह कोलसों के रूप में मालूम होता है पर वास्तव में यह है सौनया ही । अतः स्वर्णावसर का सदुपयोग कर सेठ ने कहा-वत्स ! इस पात्र में डालकर यह सब मेरे घर में रख दो । पूर्णचन्द्र ने भी उनको एक पात्र में इकट्ठा कर निर्दिष्ट स्थान पर रखदिया जिसके उपलक्ष में सेठने बच्चे को सौ सौनया दिया । पूर्णचन्द्र सहर्ष अपने घर पर आया और अपने पिताश्री को सब हाल कह सुनाया। वीरनाग ने भी दूसरे दिन प्रसन्न चित्त होकर आचार्य चन्द्रसूरि को पुत्र कथित सब वृत्तान्त कहा, इस पर सूरिजीने कहावीरनाग ! तुम्हारा पुत्र वड़ा ही भाग्यशाली है । यदि यह दीक्षा ले तो अपनी आत्मा के साथ ही जगत के जीवों का उद्धार कर सकेगा। वीरनाग ने कहा-पूज्यवर ! यह मेरे एक ही पुत्र है पर आपश्री के आदेश की उपेक्षा भी नहीं कर सकता हूँ। आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। इसपर आचार्य चन्द्रसूरि ने भरोंच के श्रावकों को सूचित कर दिया जिससे उन्होंने वीरनाग को ताजीवन के लिये आवश्यकता से अधिक पर्याप्त सहायता पहुँचादी। उधर शुभमुहूर्त में बालक पूर्णचन्द्र को शिक्षा दीक्षा देकर उसका नाम मुनि रामचन्द्र रख दिया। मुनि रामचन्द्र पुण्यशाली एवं कुशाग्र मतिवन्त थे अतः थोड़े ही समय में उन्होंने स्वपर मत के शास्त्रों का गम्भीर मनन पूर्वक अध्ययन कर लिया। इतना ही क्यों पर मुनि रामचन्द्र पर सरस्वती देवी की भी पूर्ण कृपा थी एवं उसने मुनि रामचन्द्र को वरदान भी दिया था यही कारण है कि आप सर्वत्र विजय पताका फहरा रहे थे। क्रमशः वे इतने प्रवीण हो गये कि-- १-धोलका में अद्वैतवादी ब्राह्मणों को परास्त किया। २-काश्मीर के वादी सागर को पराजित किया। ३-सत्यपुर के वादियों से विजय प्राप्त की। ४-नागपुर के गुणचन्द्र दिगम्बर को शास्त्रार्थ में हराया। ५-चित्रकूट में भगवत शिवभूति को , , ६-गोपगिरि में गङ्गधर वादी को परास्त किया। ७-धारा में धरणीधर वादी को , , ८-पुष्करणी में वादी प्रभाकर ब्राह्मण का पराजथ किया । ९-भृगुक्षेत्र में कृष्ण नामके ब्राह्मण को हराया। इस प्रकार मुनि रामचन्द्र ने वाद विजय में बड़ी ही प्रख्याती प्राप्त करली । अब तो श्रापके अनुपम आचार्य वादिदेवसरि का बाद विजय १२५५ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७४-८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पाण्डित्य, तर्क शक्ति के वैचित्र्य एवं विषय प्रतिपादन शैली की अपूर्वता से सकल जन समाज आपकी ओर । प्रभावित हो गया । वादी लोग तो आपके नाम श्रवण मात्र से ही घबराने लगे। पं० मुनि विमलचन्द्र प्रभानिधान, हरिश्चन्द्र, सोमचन्द्र, कुलभूषण, पार्श्वचंद्र, शान्तिचन्द्र, तथा अशोकचन्द्र आपके सहपाठी-विद्या, मन्त्र का अभ्यास करने वाले साथी थे । __आचार्यश्री ने मुनि रामचन्द्र को सूरिपद योग्य सम्पूर्ण गुणों से सम्पन्न एवं पट्ट का निर्वाह करने में सब तरह से समर्थ जान कर सकल श्रीसंघ की अनुमति से आपको सूरिपद विभूषित कर दिया। सूरिपद अर्पणानंतर आपका नाम देवसूरि स्थापित किया । श्राचार्य देवसूरि ने वीरनाग की वहिन को दीक्षा देकर उसका नाम चन्दनबाला रक्खा । चन्दनबाला साध्वी भी दीक्षानन्तर तप संयम में संलग्न हो गई। एक समय आचार्य देवसूरि ने धोलका की ओर विहार किया। उस समय वहां के एक श्रद्धासम्पन्न, धर्मनिष्ठ श्रावक ने श्री सीमंधर स्वामी का एक विशाल मन्दिर बनवाया जिसकी प्रतिष्ठा के लिये उसने सूरिजी से प्रार्थना की । सूरिजी ने भी उक्त प्रार्थना को मान देकर श्रीसीमंधर स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़ी धूमधाम पूर्वक करवाई। तदनन्तर सूरिजी ने वहां से सपाद लक्ष प्रान्त की ओर विहार किया । क्रमशः आचार्य श्री आबूपर आये तब आपके साथ आये हुए अम्ब प्रसादजी मन्त्री को सर्प ने काट खाया। इस पर वादी देवरि के चरणोदक छांटनेसे मन्त्री तत्काल ही विष मुक्त हो गया । पश्चात् युगादीश्वर की यात्रा कर अनन्त पुण्योंपार्जन किया। उसी दिन रात्रि में अम्बादेवी ने प्रगट होकर देवसूरि को कहा कि-सपादलक्ष प्रान्त का विहार बन्द करके वापिस आप शीघ्र ही पाटण पधार जाइये कारण आपके गुरुदेवश्री का आयुष्य केवल आठ मास का ही अवशिष्ट रहा है । सूरिजी ने भी देवी के कथन को स्वीकार कर तत्काल ही पाटण की ओर विहार कर दिया। क्रमशः पाटण पहुँच कर गुरुदेव को वंदन किया व अम्बादेवी कथित वचन आचार्यश्री को कह सुनाये । आचार्यश्री चन्द्रसूरि अपने आयुष्य काल को नजदीक जानकर अन्तिम संलेखना में संलग्न होगये । पाटण में एक भागवत् वादी देवबोध नामका पण्डित श्रआया। उसने अपने पाण्डित्य के गर्व में एक श्लोक लिखकर द्वार पर लटका दिया कि जो कोई पण्डित हो वह मेरे उक्त श्लोक का अर्थ करे एक द्वि त्रि चतुःपंच षण्मेनकमनेनकाः देवबोधे मयि क्रुद्ध षण्मेनक मनेनकः ॥१॥ छः मास व्यतीत होगये पर कोई भी उस श्लोक का अर्थ न बतला सका। इस बात का पाटण नरेश को वहुत ही दुःख हुआ कि आज तक मैंने इतने पण्डितों का सत्कार कर राज सभा में रक्खा पर आज एक विदेश का पण्डित इस प्रकार पाटण की राजसभा के परिणतों का पराजय कर चला जायगा। रात्रि के समय अम्बिकादेवी ने राजा को कहा कि हे राजन् । “तू इतनी चिन्ता क्यों करता है ? इस श्लोक का अर्थ करने में तो आचार्यश्री देवसूरि समर्थ हैं।' इतना कह कर देवी अदृश्य होगई। देवी के कथनानुसार राजा ने दूसरे ही दिन देवसूरि को बड़े ही सत्कार के साथ राजसभा में बुलाया । देवसूरि ने भी राजसभा में उपस्थित होकर वादी के श्लोक का स्पष्ट अर्थ इस प्रकार किया कि एक प्रत्यक्ष प्रमाण को मानने वाला चार्वाक, प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों को स्वीकार करने वाले बौद्ध व वैशेषिक, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण को मानने वाला सांख्य, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, १२५६ पाटण में देवबोध का श्लोक Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चार्य ककसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ -immorerror और उपमान प्रमाण को मानने वाले नैयायिक, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव रूप ६ प्रमाण को मानने वाले मीमांसक । इन छ प्रमाण वादियों को चाहने वाले मुम देवबोध के कोपायमान होने पर ब्रह्मा विष्णु और सूर्य भी मेरे बनजाते हैं अर्थात् सामने कुछ भी नहीं बोल सकते हैं तो फिर विद्वान मनुष्य जैसे सामान्य तो मेरे सामने वाद करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसप्रकार श्लोकार्थ को कह सुनाने से राजा बहुत ही सन्तुष्ट हुआ। वह देवसूरि को सभाकी लाज रखने वाला परम निष्णात, मेधावी व गुरु समझ कर बहुत ही आदर सत्कार करने लगा और बादिका गर्भ गल जाने से नतमस्त होचला गया। पाटण निवासी एक बहड नाम के धनी भक्त ने सूरिजी से पूछा कि-भगवन् मुझे कुछ धन-व्यय करने का है सो वह किस कार्य में किया जाय ? इस पर सूरिजी ने उसे जिन मन्दिर बनाने की सलाह दी। बहड़ ने भी गुर्वाज्ञा को शिरोधार्य कर मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया । चतुर, शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलाकर एक विशाल मन्दिर बनवाया। मन्दिर में स्थापन करने के लिये चरम तीर्थङ्कर भगवान महावीर स्वामी की मूर्ति बनवाई । प्रतिमाजी के नेत्रों के स्थान ऐसी मणिये लगवाई कि वे रात्रि में भी सूर्य की भांति सदा प्रकाश करती रहती थी । वि० सं० ११७८ में मुनिचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हुआ उसके एक वर्ष पश्चात् ही देवसूरि ने बहड के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई। श्राचार्य देवसूरि पाटण से विहार कर नागपुर पधारे तो वहां का राजा आल्हदान सूरिजी के स्वागत के लिये स्वयं सन्मुख आया । अत्यन्त समारोह पूर्वक आचार्यश्री का नगर प्रवेश महोत्सव करके उन्हें उचित सम्मान से सम्मानित किया। वहां पर देवबोध नामका वादी आया और उसने देवसूरि को प्रणाम कर एक श्लोक बोलायो बादिनो द्विजिद्वान् साटीपं विषय मान मुद्रितः शमयति सदेवसूरि-नरेन्द्रवंद्यः कथं न स्यात् ॥६६। एक समय सिद्धराज ने अपनी सेना के साथ नागपुर पर चढ़ाई करके उसको चारों ओर से घेर लिया। कुछ समय के पश्चात् जब उसने सुना कि यहां देवसूरि विराजमान हैं तो यह सोचकर उसने अपना पड़ाव हटालिया कि जहां हमारे गुरुदेव सरि विराजमान हैं; मैं उस राजा के दुर्ग को कैसे ले सकता हूँ। बस, उक्त विचारानुसार वह पाटण लौट गया पाटण पहुँचने पर सिद्धराज ने देवसूरि को आमन्त्रित कर पाटण में ही चतुर्मास करवा दिया । चतुर्मास के दीर्घ अवसर को प्राप्त करके सिद्धराज ने तत्काल नाग. पुर पर चढ़ाई की और वहां के किले पर अपना अधिकार कर लिया । एक समय करणावती श्रीसंघ ने भक्ति पूर्वक देवसूरि से प्रार्थना कर अपने यहां चतुर्मास करवाया। अचार्यश्री ने भी अरिण्टनेमि के चैत्य में व्याख्यान देकर के अनेक भव्यों को प्रतिबोध दे उनका उद्धार किया। करणाटक देश के राजा और सिद्ध सेन की माता का पिता जयकेशरी राजा का गुरु दक्षिण में रहने वाला, वादियों में चक्रवर्ती, जयपत्रिकी पद्धति को डावे पैर पर लगाने वाला, अभिमान रूपी गज और गर्व रूपी पर्वत पर आरूढ़ हुआ, जैन होने पर भी जैन मत्तद्वेषी, वर्षाकाल व्यतीत करने के लिये वासुपूज्य चैत्य में ठहरा हुआ, श्रीदेवसूरि के व्याख्यान से इर्ष्या करने वाला, कुमुदचंन्द्र नाम के दिगम्बर वादी ने चारणों को वाचाल बनाकर देवसूरि के पास भेजा। वे चारण भी कुमुदचंद्र की मिथ्या प्रशंसा करते हुए व श्वेताम्बरों को अपमान सूचक शब्द बोलते हुए कहने लगे कि-“हे श्वेताम्बरों! सर्वशास्त्र के पारगामी दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचंद्र के चरण युगलों की सेवा करके अपना कल्याण करो" इत्यादि । आचार्य देवसूरि का विहार १२५७ winninwww.inindia. inwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmonianusinneronmunnawwanimuwww.anirunt Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चारण के आडम्बर पूर्ण मिथ्याप्रलाप सूचक शब्दों को सुनकर के देवसूरि के मुख्य शिष्य माणक्य ने कहा कि हे चारण ! सिंह के कण्ठ पर रहे हुए केसरा को अपने पैरों से कौन स्पर्श कर सकता है ? तीक्ष्ण भाले को श्रांखों में कौन फेर सकता है, शेषनाग के मस्तक की मणि लेने में कौन समर्थ है उसी प्रकार श्वेताम्बराचायों के साथ वाद विवाद करने में कौन शक्तिशाली है । शिष्य के उक्त शब्द सुनकर के देव सूरि ने कहा- हे शिष्य ! कर्कश बोलने वाले दुर्जन पर क्रोध करने का अवकाश नहीं है । अर्थात् दुर्जन पर क्रोध नहीं पर दयाभाव ही करना चाहिये । 1 देवसूरि की समताने वादी के अभिमान को द्विगुणित कर दिया । वादी ने एक वृद्धासाध्वी पर उपद्रव कर उसकी बड़ी विडम्बना की । जब साध्वी उपद्रव से मुक्त हुई तो देवसूरि के पास में आकर उपालम्भ पूर्ण शब्दों में कहने लगी- आपका ज्ञान, आपकी विद्वत्ता और आपका वादजय किस काम का है ? जब कि वादी के सामने आप समता पकड़ कर बैठ गये, इत्यादि । श्राचार्यश्री देवसूरि ने साध्वी को सन्तोष पूर्ण वचन कह कर पाटण के श्रीसंघ पर एक पत्र लिखा कि यहां दिगम्बर वादी कुमुदचन्द्र आया है अतः हम चाहते हैं कि पाटण में इनके साथ वाद विवाद हो । पाटण के संघने इस पत्र का जवाब लिखा कि:आप कृपा करके अवश्य ही पाटण पधारें । राजा सिद्धराज की राजसभा में आप दोनों का वाद विवाद करवाया जायगा आपकी विजय के लिये ३०७ श्रावक श्राविकाएं श्रयम्बिल कर रहे हैं । देवसूरि को पाटण के श्रीसंघ का पत्र पढ़ कर बहुत ही प्रसन्नता हुई। उन्होंने चारण के साथ वादी को कहला दिया कि हम पाटण जाते हैं, अतः आप लोग भी पाटण पधार जावें । राजा सिद्ध राज की राज सभा में अपना परस्पर वाद विवाद होगा। इस बात को मुकुदचन्द्र ने सहर्ष स्वीकार करली। जिस शुभ दिन सूर्य मेषलन में चन्द्रमा सातवें और रिपुद्रोही राहु छटे लग्न स्थित रहते तथा और भी शुभ शकुन होते हुए आचार्य श्री देवसूरिने करणावती से पाटण के लिये प्रस्थान कर दिया रास्ते में भी बहुत अच्छे शकुन और शुभ निमित करण मिलते गये । इधर दिगम्बरचार्य भी पाटण की ओर बिहार करने लगे तो उस समय एक व्यक्ति को छीक हो ई जो प्रस्थान के लिये अशुभ थी पर विजयकांक्षी दिगम्बरों ने उस पर थोड़ा भी विचार नहीं किया । आचार्य देवसूरि क्रमश: विहार करते हुए पाटण पधारे तो मार्ग में उन्हें अच्छे शकुन हुए । पाटण पहुँचने पर पाटण श्रीसंघ ने नगर प्रवेश का बड़ा भारी महोत्सव किया । सूरिजी ने संघ धर्म देशना दी पश्चात् राजा सिद्धराज से मिले । इधर दिगम्वराचार्य कुमुदचन्द्र ने करणावती से विहार किया तो मार्ग में उन्हें बहुत ही अपशकुन हुए पर विजयाकांक्षी की भांति किसी की भी परवाह नहीं करते हुए वे पाटण चले आये । दोनों के वाद के लिये राजा ने मन्त्री गंगिल को कह कर यह शर्त करवा ली कि यदि दिगम्बर हार जायं तों देश से चोरों के बाहिर निकाल दिये जांय और श्वेताम्बर हार जावें तो पाटण में श्वेताम्बरों की सत्ता के स्थान पर दिगम्बरों की सत्ता स्थापित कर दी जाय । बाद में राजा जयसिंह सिद्धराज ने अपने पण्डित कवि श्रीपाल को देवसूरि के पास भेज कर कहलाया कि स्वदेशी हो या परदेशी, सब ही पण्डितों के लिये सरीखा मान है तथापि आप ऐसा वाद करें कि हमारे सभा की शोभा बनी रहे । देवसूरि ने कहा- आप विश्वास रक्खें, गुरु महाराज के दिये हुए ज्ञान से १२५८ बादी का आडम्बर - सूरिजी की समना Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ मैं दृढ़ता पूर्वक वादी को परास्त कर दूंगा। वि० सं० ११८१ के वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन वाद प्रारम्भ हुआ। राजानीतिज्ञ राजाने निर्दिष्ट स्थान व समय पर दोनों वादियों को आमन्त्रित किया । दि० कुमुदचन्द्राचार्य छत्र, चंदर आदि मान्बर के साथ सुख पालकी में बैठ कर वादस्थल में आये । प्राचार्य देवसूरिको न देख करके वे कहने लगे कि क्या श्वेताम्बराचार्य पहिले ही से डर गया जो सभा में हाजिर न हुआ । इतने में देवसूरि भी आ गये । देवसूरि को देखकर दिगम्बराचार्य बोला कि बेचारे श्वेताम्बर मेरे सामने कितनी देर तक ठहर सकेंगे । देवसूरि ने कहावाग्युद्ध में तो श्वान भी विजय प्राप्त कर सकता है । इतने थाहड़ और नागदेव नाम के दो श्रावक आये । वे कहने लगे पूज्य आचार्य देव ! मैंने आपसे प्रार्थना की थी उससे भी दुगुना द्रव्य व्यय करने को तैयार हूँ । सूरिजीने कहा-अभी द्रव्य व्यय की श्रावश्यकता नहीं है कारण, आज रात्रि में ही गुरुवर्य श्राचार्यश्री चन्द्रसूरिजी ने स्वप्न में मुझे कहा है कि वाद में स्त्री निर्वाण का विषय लेना और वादी वैताल शांतिसूरि ने उत्तराध्ययन की टीका में जैसा वर्णन किया है उसके अनुसार ही वाद करना सो तुम्हारी विजय होगी । महर्षि उत्साहसागर और प्रज्ञावन्त राम राजा की ओर से सभासद । भानु और कवि श्रीपाल देवसूरि के पक्षकार । तीन केशव नाम के गृहस्थ दिगम्बरों के पक्षकार । सर्व प्रकार से वाद विवाद योग्य विषयों का निर्णय हो जाने के पश्चात् देवसूरि ने कहा-कुछ प्रयोग कीजिये। दिगम्बराचार्य बोले-खी-भव में मुक्ति नहीं होती है । कारण अल्पसत्व स्त्रियां मोक्ष जाने लायक पुरुषार्थ कर नहीं सकती हैं। देवसूरि-सभी पुरुष या सभी स्त्रियां एक सी नहीं होती हैं। कई स्त्रियां महासत्व वाली भी होती हैं। माता मरुदेवी मोक्ष गई, सती मदन रेखा आदि सत्व शील महिलाओं ने पुरुषों से भी विशेष कार्य करके बतलाया है । अतः उक्त हेतु स्त्री निर्वाण का बाधक नहीं हो सकता है। इस प्रकार के लम्बे-चौड़े वाद विवादानन्तर मध्यस्थों ने स्वीकार कर लिया कि देवसूरि का कहना न्यायानुकूल एवं पूर्ण सत्य है। राजा की ओर से मन्जूर किया गया कि देवसूरि विवादमें विजयशील रहे अतः राजा प्रजा ने वाद्यन्त्रों के साथ देवसूरि का स्वागत करके अपने स्थान पर पहूँचाये । सिद्धहेमशब्दानु शासन के कर्ता कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेम चन्द्र सूरि फरमाते हैं कि यदि देवसूरि रूप सूर्य कुमुदचन्द्र रूप अंधकार को हटाने में समर्थ नहीं होते तो क्या श्वेताम्बर मुनि कमर पर कपड़ा धारण कर सकते ? दिगम्बर वादी इस प्रकार हार खाकर वहां से चला गया। बाद में पाटण नरेश सिद्धराज ने आचार्य देवसूरि को तुष्टिदान देने लगा पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया । अन्त में उस द्रव्य से जिन मन्दिर बनाने का निश्चय हुआ। द्रव्य की अल्पता के कारण उसमें कुछ और द्रव्य मिलाकर मेरु की चूलिका के समान सुंदर मन्दिर बनवाया जिसके लिये स्वर्ण कलश एवं दण्ड ध्वजा सहित पीतल की मनोहर मूति तैय्यार करवाई । इस मन्दिर की प्रतिष्ठा देवसूरि आदि चार आचार्यों ने की । इसले शासन की पर्याप्त प्रभावना पाटण राज सभा में शास्त्रार्थ १२५९ naramananearernmen Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हुई । इस प्रकार अनेक वादों को जीत करके देवसूरि ने शासन के गौरव को अक्षुण्ण रक्खा । देवसूरि वाद विवाद में सिद्ध हस्त थे । चौरासी वादों में विजय प्राप्त करने से आप वादी देव सूरि के नाम से विख्यात हुए । आप विद्या मन्त्र एवं कई प्रकार की लब्धियों में निपुण थे । जैनधर्म के उत्कर्ष के लिये आप कमर कस करके तैय्यार रहते थे। आपश्री ने स्याद्वाद रत्नाकर नामक महान् ग्रन्थ का निर्माण कर अखिल विश्व पर महान उपकार किया । अन्त में आप अपने पट्टपर भद्रेश्वर सूरि को स्थापित करके वि० सं० १२२६ श्रावण कृष्णा सप्तमी के दिन स्वर्ग वासी हो गये।। आपका जन्म ११४३ में हुआ दीक्षा ११५२ में अङ्गीकार की, सूरिपद ११७४ में प्राप्त हुआ और स्वर्गवास १२२६ में हुआ । सवार्युः ८३ वर्ष का पूर्ण किया । ___ प्राचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरि ___ क्लेश के आवेश से रहित गुर्जर प्रान्तमें अणहिल्लपुर नाम के एक विख्यात नगर है जिसके अन्तर्गत धुंधका नाम का एक अत्यन्त रमणीय प्राम था जहां पर मोढ़ वंशीय चाच नामके सेठ निवास करते थे। श्राप श्री की परम सुशीला धर्मपरायणा धर्मपत्नी का नाम पाहिनी था । एकदा माता पाहिनी ने स्वप्न में चिन्ता मणि रत्न देखा और भक्ति के आवेश में उसने वह रत्न अपने गुरु को दे दिया। इस प्रकार का स्वप्न देख सेठानी हर्ष के मारे फूल्ल गई। वहां पर चद्रगच्छ रूप सरोवर में पद्मसमान अनेक गुणों से सुशोभित श्रीदेवचन्द्रसूरि विराजमान थे जो प्रद्युम्नसूरि के शिष्य थे। प्रातःकाल होते ही पाहिनी ने उस दिव्य स्वप्न को अपने गुरु की सेवा में निवेदन किया तब गुरु ने शास्त्र विहित अर्थ बताते हुए कहा-'हे भद्रे ! जिन शासन रूप महासागर में कौस्तुभमणि के समान तुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी जिसके सुचरित्र से आकर्षित हो देवता भी उसका गुणगान करेंगे।" कालान्तर में पाहिनी को श्री वीतराग बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाने को दोहला उत्पन्न हुआ जिसको सुनकर श्रेष्ठी ने प्रमोद पूर्वक पूरा किया । समय के पूरे होने पर माता पाहिनीने शुभनक्षत्र में रत्नवत् अलोकिक पुत्र रत्न को जन्म दिया जिसके कई महोत्सव मनाये गये और कुटुम्बों की सलाह के अनुसार बारहवें दिन सान्वय 'चंगदेव' नाम स्थापित किया गया। क्रमशः द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ते हुए चङ्गदेव को पांचवे वर्ष में ही सद्गुरु की सेवा करने की इच्छा उत्पन्न हुई। परिणामतः एक दिन मौढ़ चैत्य में देव चन्द्रसूरि चैत्यवंदन कर रहे थे कि उसी समय माता पाहिनी पुत्र सहित मंदिर में आई । वह प्रदक्षिणा देकर भगवान् की स्तुति कर रही थी कि चंगदेव गुरु के आसन पर जा बैठा। इस कौतूहल को देख कर गुरु ने कहा-भद्रे ! वह महा स्वप्न तुझे याद है या नहीं ? देख यह निशानी उस स्वप्न के फल की भावी सूचिका है । इस प्रकार कहने के पश्चात् गुरु ने माता के पास से पुत्र की याचना की तब पाहिनी ने कहा- प्रभों! आप इसके पिता के पास से याचना करें यह युक्त है । इस पर गुरु कुछ नहीं बोले तब पाहिनी ने उस स्वप्न का स्मरण करके गुरु के बचनों को अनुलंघनीय समम स्नेहसे दुःखित हृदय वाली भी उसने अपने प्यारे पुत्र को गुरु महाराज के चरणों में अर्पण कर दिया । गुरुदेव भी चंगदेव को लेकर के स्तम्भन तीर्थ पर आये। वहां पार्श्वनाथ मन्दिर में माघमास की शुक्ल चतुर्दशी के दिन ब्राह्ममुहूर्त में और शनिवार के दिन आठवें धिष्ण्य For Private & Personal use only आचार्य हेमचन्द सरि का जीवन Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ धर्म स्थित और वृषभ के साथ चन्द्रमा का योग होने पर वृहस्पति लग्न में सूर्य और भौम के शत्रु स्थित रहते हुए अर्थात् सर्वाग शुद्ध शुभ मुहूर्त में श्रीमान् श्रेष्टि उदय के महामहोत्सव पूर्वक गुरुमहाराज ने चंगदेव को दीक्षा दी और उसका सोमचन्द्र नाम रक्खा | क्रमशः यह बात चाच श्रेष्ठी को ज्ञात हुई तो वह तत्काल कुपित होकर स्तम्भन तीर्थ श्राया और कर्कश वचन बोलने लगा तब उदय श्रावक ने उनको आचार्यश्री के पास में लेजाकर मधुर वचनों से शान्त किया । इधर मुनि सोमचंद्र ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा सम्पन्न शक्ति द्वारा शाघ्र ही तर्क शास्त्र, व्याकरण और साहित्य विद्या का अध्ययन कर लिया। इतने में एक दिन एक पद से लक्षपद की अपेक्षा भी अधिक पूर्व का चिन्तवन करते हुए उन्हें खेद हुआ कि - अहो ! मुझ अल्प बुद्धि को धिक्कार है । मुझे अवश्य ही काश्मीर वासो देवी का आराधन करना चाहिये । उक्त विचार से प्रेरित हो उन्होंने गुरु महाराज से प्रार्थना की तो देवी का सन्मुख आना जानकर के उन्होंने (गुरु ने ) यह प्रार्थना मान्य की । पश्चात् गीतार्थ साधुत्रों के साथ मुनि सोमचंद्र ने ताम्रलिप्ति से काश्मीर की ओर प्रयाण किया । मार्ग में आये हुए नेमिनाथ के नाम से प्रसिद्ध ऐसे रैवतावतार चैत्य में ठहरकर गीतार्थों की अनुमति से सोमचंद्र मुनि ने एकाग्र ध्यान किया । नासिका के अप्रभाग पर दृष्टि स्थापन करके ध्यान करते हुए मुनि सोमचन्द्र को आधीरात में सरस्वती देवी साक्षात् प्रगट होकर के कहा - 'हे निर्मल मति वत्स ! तू देशान्तर में मत जा । तेरी भक्ति से सन्तुष्ट हुई मैं यहां पर ही तेरी इप्सितेच्छा पूर्ति कर दूंगी।' इतना कह कर देवी भारती अदृश्य होगई । इस प्रकार सरस्वती के प्रसाद से मुनि सोमचंद्र सिद्ध सारस्वत व विद्वानों में अग्रसर हुए । श्रीदेवचन्द्र सूरि ने अपने अन्तिम समय में मुनिसोमचन्द्र को सूरिपदयोग्य जानकर के श्रीसंघ के समक्ष कुशल नैमित्तिकों से निकाले हुए शुभ मुहूर्त में सूरिपद अर्पण कर दिया । तभी से मुनिसोमचन्द्र हेमचंद्र सूरि नाम से विख्यात हुए । सूरि पदारूढ़ानंतर श्रापकी मातुश्री ने भी चारित्र यानि दीक्षा अङ्गीकार की और उन्हें श्रीसंघ की अनुमति से प्रवर्तनी पद व सिंहासन बैठने की आज्ञा प्रदान की । एकदा आचार्य हेमचन्द्रसूरि विहार करके हिलपुर नगर में पधारे। किसी दिन रबाड़ी से निकला हुआ सिद्धराज राजा बाजार में एक वाजू खड़े हुए सूरिजी के पास अंकुश से हाथी को लेजाकर कहने लगाआपको कुछ कहना है ? तब आचार्य बोले - हे सिद्धराज ! शंका बिना गजराज को आगे चलावो । दिग्गज भले ही त्रास को प्राप्त हो पर इससे क्या ? कारण पृथ्वी को तो तुमने ही धारण कर रक्खा है यह सुनकर राजा बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और दोपहर को हमेशा राजसभा में आने की प्रार्थना की । आचार्यश्री के प्रथम दर्शन से ही उसको आनंद हुआ व दिग्यात्रा में उसकी जय हुई | एक दिन मालव प्रान्त को जीत करके राजा सिद्धराज आया तो सब दार्शनिकों ने उसको आशीर्वाद दिया । इस पर श्राचार्य हेमचन्द्रसूरि एक श्रवणीय काव्य से आशीष देते हुए बोले- हे कामधेनु ! तू तेरे गोमय-रस से भूमि को लीप दे हे रत्नाकर ! तू मोतियों से स्वस्तिक पूरदे, हे चंद्रमा ! तू पूर्ण कुम्भ बनजा; हे दिग्गजों ! तुम अपनी सूड़ को सीधी करके कल्पवृक्ष के पत्तों से तोरण बनाओ कारण, सिद्धराज पृथ्वी को जीत करके श्राता है। इससे तो राजा की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । वह रह रह कर बारम्बार राजसभा में धर्मोपदेशार्थ पधारने के लिए प्रार्थना करने लगा । एक दिन अवन्तिका के भण्डार की पुस्तकों को देखते हुए राजा की दृष्टि में एक व्याकरण आया मुनि सोमचन्द्र पर सरस्वती की कृपा १२६१ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८.८३७ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जिसको लेकर गुरु से पूछा-भगवन् ! यह क्या है ? श्राचार्य श्री ने कहा-यह भोज व्याकरण तरीके प्रसिद्ध है। विद्वानों में शिरोमणि मालवपति ने सब विषयों में अनेकों ग्रंथ बनाये हैं । यह सुनकर राजा ने प्राचार्य श्री से जगजीवोपकारार्थ नवीन व्याकरण बनाने की प्रार्थना की । सूरिजी ने कहा-राजन् काशमीर में भारतीदेवी के भण्डार में व्याकरण की आठ पुस्तकें हैं उनको आप अपने आदमी भेज करके मंगवाओ जिससे व्याकरण शास्त्र रचने में सहूलियत हो । गुरु के वचनों को सुन करके राजा ने अपने आदमियों को काश्मीर देश में भेजे । प्रवरा नाम के प्राम में सरस्वती देवी की चंदनादिक से पूजा करने लगे। इससे संतुष्ट होकर देवी ने अपने अधिष्ठायक को आदेश किया कि-मेरेप्रसाद पात्र श्री हेमचन्द्रसूरि मेरे ही अनुरूप हैं अतः उनके लिये व्याकरण की आठों पुस्तकें देकर के उनको सम्मान पूर्वक विदा करो। आठों पुस्तकों को लेकर के जब वे अणहिल्लपुर आये और राजा के सम्मुख उक्त चमत्कार पूर्ण घटना का वर्णन करने लगे तो राजा को आश्चर्य के साथ ही हर्ष एवं अपने राज्य में वर्तमान ऐसे गुरु के लिये गौरव पैदा हुआ। आचा श्री हेमचन्द्रसूरि ने आठों व्याकरण का अवलोकन करके "श्रीसिद्धहम" नामका नवीन एवं अद्भुत व्याकरण बनाया जिसको लिखवा २ कर राजा ने बहुत दूर तक फैलाया । काकल नाम के आठ ध्याकरण के ज्ञाता विद्वान् को उक्त व्याकरण का अध्यापन कराने के लिये नियुक्त किया। एक दिन पण्डितों से शोभायमान् राजा की राजसभा में एक चारण आया। उसने अपभ्रंशभाषा में एक गाथा बोली। हेमसूरि अच्छाणिते ईसरजे पण्डिआ । लच्छिवाणि महुकाणि सांपइ भागी मुहमरुम ॥ इस गाथा को तीन बार बोलनेसे सूरिजीने उसको सभ्यों के पाससे ३० हजार रुपया इनाम दिलवाया। एक दिन राजा सिद्धराज ने गुरु महाराज से पूछा-अहो भगवन् ! आपके पट्ट योग्य अधिक गुणवान् शिष्य कौन है ? आचार्यश्री ने कहा-सुज्ञशिरोमणि रामचन्द्र नामका मेरा शिष्य है जो समस्त कलाओं में पारंगत एवं श्रीसंघ से सम्मानित है । उसी समय प्राचार्य ने राजा को उक्त शिष्य बताया तो शिष्य ने राजा की स्तुति करते हुए कहामात्रायाप्यधिक किञ्चिन न सहन्ते जिरिषवः । इतीव व धरानाथ ? धारानाथ ममाकृथाः ॥ इससे राजा सन्तुष्ट हुआ और प्राचार्यश्री के समान ही शासन प्रभावक होने की भावना प्रगट की इधर इर्ष्यालु ब्राह्मणलोग सूरिजी के तपस्तेज व अलौकिक पाण्डित्य जन्य प्रतिभा से असूया को धारण करके राजा को उनके विपरीत अनेक तरह से भ्रम में डालने का प्रयत्न करने लगे पर सुज्ञ राजा उनकी ओर उपेक्षा ही करता रहा । एक दिन प्रसङ्गोपात आचार्यश्री के व्याख्यान में नेमिनाथ चरित्रान्तर्गत पाण्डवों का चरित्र चल रहा था। उसमें पाण्डवों के शत्रुञ्जय पर सिद्ध होने का वर्णन आया तो ब्राह्मण लोग वेदव्यास विरचित महाभारत से विपरीत प्रसङ्ग को सुनकर राजा से कहने लगे कि अहो स्वामिन् ! वेदव्यास ने अपने भविष्य ज्ञान से युधिष्ठिरादिक का अद्भुत वृत्तांत कहा है उसमें अन्तिम समय में हिमालय पर्वत पर जाने व केदार में रहे हुए शंकर आदि के अर्चन पूजन से अन्तिम आराधना करने का उल्लेख है। पर ये श्वेताम्बर मुनि विपरीत भ्रम फैलाकर जन समाज को धोखे में डाल रहे हैं अतः इसकी रुकावट होनी १२६२ करमीर की ८ पुस्तके का व्याकरण Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१७३७ चाहिये । इर्ष्यालु ब्राह्मणों के मुख से उक्त बात सुन कर राजा ने उचित विचार करने का आश्वासन देकर उन्हें विदा किया। इधर राजा ने हेमचन्द्राचार्य को बुला कर पूछा- अहो भगवन् ! क्या पाण्डवों ने जैन दीक्षा ली, और शजय पर परमपद प्राप्त किया ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है ? __ आचार्य ने कहा-हाँ, उल्लेख तो है पर यह नहीं कहा जा सकता कि वेदव्यास रचित महाभारत में वर्णित हिमालय पर गये हुए ही ये पाण्डव हैं या अन्य हैं। राजा ने पुनः प्रश्न किया-आचार्यदेव ! क्या पाण्डव भी पहिले बहुत से हो गये हैं ? सूरिबोले- राजन् ! मैं कहता हूँ सो ध्यान पूर्वक सुनिये | व्यास रचित महाभारत में गांगेय पितामह का वर्णन अाता है । उन्होंने युद्ध में प्रवेश करते हुए अपने परिवार को कहा था कि-जहां अबतक किसी का अग्नि संस्कार न हुआ हो वहां मेरा अग्नि संस्कार करना" पश्चात संग्राम में भीष्म पितामह प्राण मुक्त हुए तो उनके वचनानुसार उनके शव को पर्वताप्रभाग पर कुटुम्ब के लोग अग्नि संस्कार के लिये ले गये जहांपर कि मनुष्यों का सञ्चार भी नहीं होता था पर वहांभी दिव्य वाणी हुई किअत्र भीष्म शतं दग्धं पाण्डवानां शतत्रयम् । द्रोणाचार्य सहस्रं तु कर्णसंख्या न विद्यते ॥ अर्थात्-यहां सौ भीष्म जलाने में आये हैं, तीन सौ पाण्डव और हजार द्रोणाचार्य बालने में आये हैं। उसी प्रकार कर्ण की संख्या तो हो ही नहीं सकती है। उक्त प्रमाणानुसार उस समय जैन पाण्डव भी हो सकते हैं कारण, शत्रुलजय पर उनकी प्रतिमाएं हैं। नासिक के चंद्रप्रभ मन्दिर में व केदार महातीर्थ में भी पाण्डवों की प्रतिमाएं हैं। हेमचन्द्राचार्य के शास्त्रसम्मत युक्ति पूर्ण समाधान से राजा बहुत प्रसन्न हुश्रा उसके मन में सूरिजी के प्रति अधिकाधिक श्रद्धा एवं स्नेह पूर्ण सद्भावनाएं पैदा होने लगी। एक समय आभिग नामका राजपुरोहित क्रोध व इर्ष्या के वश राजसभा में विराजमान श्राचार्यश्री को कहने लगा कि- तुम्हारा धर्म शम और कारुण्य से सुशोभित है पर उसमें एक न्यूनता है कि श्राप लोगों के व्याख्यान में स्त्रियां सर्वदा शृंगार सजकर के श्राती हैं और तुम्हारे निमित्त अकृत और फ्रासुक आहार बनाकर आपको देती हैं तो तुम्हारा ब्रह्मचर्य किस तरह से स्थिर रह सकता है ? कारणविश्वामित्र पराशर प्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशना स्तेऽपि । स्त्रीमुख पङ्कजं सललितं दृष्टैव मोहंगताः ॥ आहारं सुदृढ़ ( सुघृतं ) पयोदधियुतं ये भुंजते मानवा । स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यःप्लवेत्सागरे ॥ जल फल और पत्र का श्राहार करने वाले विश्वामित्र और पराशर मुनि स्त्री के बिलास युक्त मुख को देख करके मोह मूढ़ बन गये तो दूध दधि रूप स्निग्ध आहार भोगी मनुष्यों का इन्द्रिय निग्रह तो समुद्र में विन्ध्याचल पर्वत के तैरने जैसा है। आचार्यश्री ने कहा-हे पुरोहित ! तुम्हारा यह वचन युक्त नहीं है क्योंकि चित्त वृत्तिये विभिन्न प्रकार की होती हैं जब पशुओं में भी विचित्रता ( भिन्नता) दृष्टिगोचर होती है तब चैतन्य युक्त मनुष्य की क्या बात ? कारणधर्म द्वोषियों के प्रश्न सूरिजी का समाधाक १२६३ Jain Education international Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सिंहोबली हरिणशूकरमांस भोजी , संवत्सरेण रतिमेतिकिलैकवारम् । पारापतः खर शिलाकण भोजनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः॥ अर्थात् बलिष्ठ सिंह हरिण और शूकर के मांस को खाता हुआ भी वर्ष में एक बार रति सुख को भोगता है और कबूतर शुष्क धान्य खाने वाला होने पर भी प्रतिदिन कामी होता है; इसमें क्या कारण है ? इस उत्तर का राजा व राजसभा के पण्डितों पर बहुत ही प्रभाव पड़ा । “आचार्य हेमचन्द्रसूरि और पाटण का राजा सिद्धराज जयसिंह का चरित्र बड़ा ही चमत्कारी है साथ में एक देवबोध भागवताचार्य का विस्तार से वर्णन किया है पर हमारा संक्षिप्त उद्देश्य के अनुसार हमने यहाँ साररूप ही लिखा है चाहे जैन धर्म के कितने ही द्वेषी क्यों न हो पर उनके मुह से भी साहस निकल ही जाता है जैसे कि पातु वो हेमगोपालः कंबलं दंडमुद्वहन । पट्दर्शनपशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे ॥ ९० ॥ राजा सिद्धराज के सन्तान नहीं थी अतः वह उदासीनता धारण का प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के साथ तीर्थ यात्रार्थ निकल गया पर राजा पैदल चलता था एक समय राजा ने सूरिजी से प्रार्थना की कि श्राप बाहन पर सवारी करावे ? सूरिजी ने इस बात को स्वीकार नहीं करके अपना साधु धर्म का परिचय करवाया इस पर राजा ने भक्ति के वस होकर कहा कि आप जड़ हो सूरिजी ने कहा हम निजड़ हैं । इस पर राजा को बड़ा ही आश्चर्य हुआ । पर उस दिन से सूरिजी का और राजा का ३ दिन तक मिलाप नहीं हुआ तब राजा ने सोचा कि सूरिजी गुस्से हो गये होंगे राजा चल कर सूरिजी के तंबु में आये वहां सूरिजी श्रांविल कर रहे थे जो पानी में लुखी रोटी डालकर खा रहे थे जिसको राजा ने देखा तो उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा राजा ने सूरिजी से प्रार्थना की भगवान् मेरे अपराध की क्षमा बक्सीस करो इस पर सूरिजी ने कहा कि । 'भुंजी महीवय भैक्ष्य जीर्ण वासो वसी महि शयी महि पृष्ठे कुर्वी महि किमीश्वरैः।। हम भिक्षालाकर भोजन करते हैं जीर्ण वस्त्र पहनते हैं और भूमि पर शयन करते हैं फिर हमें रांक और राजा से क्या प्रयोजन है । सूरिजी की निस्पृहता देख राजा को बड़ी श्रद्धा हो गई । राजा ने सूरिजी का बड़ा भारी सत्कार किया बाद राजा सूरिजीके साथ शत्रुजय पर चढ़े और राजाने भाव सहित युगादीश्वर की पूजा कर बारह प्राम भेंट (अर्पण) किये और अपने जन्म को कृतार्थ माना । बाद गिरनारतीर्थ जाकर भगवान् नेमिनाथ के चरण युगल की पूजा की राजाने नेमिनाथ का प्रसाद देखकर खुशी मनाइ इसपर सजन मंत्री ने कहा नरेश ! इसका पुन्य आपने ही उपार्जन किया है कारण नौ वर्ष पूर्व में यहां का सूबा था और राज्य की आमन्द से सतावीस लक्ष द्रव्य लगा कर तीर्थ का उद्धार करवाया था आपकी स्मृति में न हो तो मेरे से अभी द्रव्य ले लिरावे ? राजा ने उसका बड़ा भारी अनुमोदन किया और रत्न सुवर्ण पुष्पादि से पूजा कर कई मर्यादाएं स्वयं राजा ने बांधी वह अभी तक चलती हैं बाद सूरिजी के साथ राजा प्रभासपहन शिव दर्शनार्थ गये और सूरिजी भी साथ में थे सूरिजी ने शिवजी की स्तुति की। यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्य भिद्याय यया तया। वीत दोष कुलुषः स चेद् भवानेक एव भगवान्नमोस्तु ते ॥ १॥ किसी भी समय किसी भी तरह किसी भी नाम से क्यों न हो पर जो आप दोष कलुष से रहित हो तो हे भगवान् ! श्राप और जिन एक ही हो आपको मेरा नमस्कार हो। वहां से व्याकुल चित एवं संतान १२६४ राजाने शजय को बारह ग्राम भेट Jain Education international Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ की चिन्ता सहित अंबा देबो के दर्शन पूजन किया उस समय आचार्यश्री ने अष्टम तप कर देवी की धाराधना की जिससे देवी आई और कहा कि राजा के भाग्य में संतान नहीं है राजा के भ्राता का पुत्र कुमारपाल है वह पुन्य प्रतापी और राज्य के योग्य है और भी नये राजाओं को जीतकर नाम कमावेगा इत्यादि । बाद सूरिजी से राजा ने सब हाल सुन कर वहां से पाटण आ गये ।। क्षत्रियों में शिरोमणि देवप्रसाद जो राजा करण का भाइ था उसका पुत्र त्रिभुवनपाल और उसका पुत्र कुमारपाल जो राज लक्षण कर संयुक्त था देवी ने भी उसके लिये ही कहा था पर फिर भी राजा ने निमितादि शास्त्रों से निर्णय किया तो उन्होंने भी यही बतलाया। भवितव्यता बलवान होती है। सिद्धराज का कुमारपाल पर द्वेष था और उसको मरवा डालने का निश्चय किया था पर कुमारपाल को खबर होने से वह शरीर के भस्म लगा जटा बढ़ा कर एवं शिव भक्त होकर निकल गया। एक समय किसी ने आकर राजा को कहा कि यहाँ ३०० तापस आये हैं । जिसमें कुमारपाल भी है आप सबको भोजन के लिए आमन्त्रण करके देखें जिसके पैरों के चैत्य पद्म चक्र ध्वजादि चिन्ह हों वही तुमारा वैरी कुमारपाल है ऐसा समझ लेना। ठीक राजा ने सब तोपसों को भोजन का आमन्त्रण दिया और उनके पैर भी धोये जब कुमारपाल का वारा आया तो उसके पैरों में पद्मादि शुभ चिन्ह देख कर राजा जाण गया की यही मेरा दुश्मन है कुमारपाल भी समझ गया अतः वह अकस्मात् कमंडल लेकर चला तो वहाँ से हेमचन्द्रसूरि के उपाश्रय गया वहाँ ताड़ पत्रों का ढेर लगा हुआ था उसमें उसको छिपा दिया राजा के आदमी आये देखा पर नहीं मिला अतः चले गये । बाद किसी समय कुमारपाल जारहा था तो राजा के सवारों ने उसका पिछा किया इतने में एक कुम्हार का घर आया कुमारपाल के कहने से उसने अपने निबाड़ा में छिपा लिया। जब सवार निराश होकर चले गये तब कुम्हार के वहाँ से निकल कर कुमारपाल चल धरे और वह खम्मात नगर में पाया वहाँ एक उदायन नाम का बड़ा ही धनाढय मंत्री राज्य के काम करता हुआ रहता था उसके पास एक ब्रह्मचारी लड़का रहता था उसने मंत्री के पास जाकर कुमारपाल से सुना हुआ सब हाल कह सुनाया और कहा कि कुमारपाल भुखा प्यासा है कुछ खाने को दें ? पर उदायन ने राज भय से कुछ भी नहीं दिया और कहा कि उसको कहदें कि शीघ्र ही चला जावे । ठीक कुमारपाल चार दिनों का मुखा प्यासा था फिर भी वह चल कर हेमाचार्य के उपाश्रय में आया हेमाचार्य वहाँ चातुर्मास किया था कुमारपाल का आदर कर कहा कि हे भवी नरेश। तुमको सातवे वर्ष में राज की प्राप्ति होगी। इस पर कुमारपाल ने गुरु का परम उपकार माना और उसके मांगने पर गुरु ने श्रावक को कह कर ३२ (चलनी रुपये) दिलाया और कहा कि अब तुम्हारे पास दरिद्र नहीं श्रावेगा। बस कुमारपाल गुरु को नमस्कार कर वहां से देशान्तर चला गया कभी कापड़िया के रूप में कभी यति सन्यासी के रूप में कभी अवधूत के रूप में भ्रमन करता था कुमारपाल की राणी भोपाल देवी भी पति का पिच्छा नहीं छोडा वह भी प्रच्छन्नपण उनके पिच्छे पिच्छे भ्रमन किया करती थी इस प्रकार कुमारपाल ने सुख दुख का अनु भव करते हुए सात वर्ष ज्यों त्यों कर निकाल दिये। संवत् ११९९ में सिद्धराजा का देहान्त हो गया। न जाने कुमारपाल के भाग्य ने ही उसको खबर दी हो वह नगर के बाहर श्रीवृक्ष के नीचे श्राकर बैठ गया ठीक उस समय दुर्गादेवी ने मधुर स्वर से कुमारपाल को गाना सुनाया कुमारपाल ने कहा हे ज्ञाननिधान देवी ! यदि मुझे राज मिलने को हो तो तू मेरे मस्तक पर बैठकर मधुर गाना सुना । ठीक देवी ने ऐसा किया और कहा कि निश्चय ही तुमको राज मिलेगा बाद waamannaworanwwwwwwwwwwanawanewmannawwanm wwwimmmmmmmmmmmmmmwww सिद्धराज का कुमारपाल पर द्वेष Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तथाऽस्तु कहकर कुमारपाल नगर में गया । श्रीमान् संबसे मिला और हेमाचार्य के उपाश्रय गया कुमारपाल गुरु को नमस्कार कर उनके आसन पर बैठ गया इससे पुनः गुरु ने कहा इस निमित्त से तुम निश्चय ही राजा होगे कुमारपाल ने सूरिजी का उपकार मानता हुआ वहाँ से उठकर नगर में जा रहा था । कि दशहजार अश्व का मालिक कृष्णदेव जो आपका बेनोइ लगता था रात्रि में मिला। इधर पाटण के राजधूरा चलाने वालों की सिद्धराज के शिव मन्दिर में सभा हो रही थी कि पाटण का राजा किसको बनाया जाय इस विषय का विचार करते थे वहां पर दो राजपुत्र आये वे ठीक स्थान पर बैठ गये । इतने में कृष्णदेव कुमारपाल को भी सभा में लाये वे अपने वस्त्र को संकलित कर योग्यासन पर बैठ गये इस पर गज शुभचिंतकों ने भविष्य का विचार कर सबकी सम्मति से पाटण के राज सिंहा. सन पर कुमारपाल का राज्याभिषेक करबाया तत्पश्चात् कुमारपाल के दुःखमय भ्रमन के समय जितने लोगों ने सहायता दी थी उन सबकों बुलवा कर सबका यथाशक्ति सम्मान किया भोपालदेवी को पट्टराणी पद दिया और भी यथासंभव मंत्री महामंत्री वगैरह पद पर नियुक्त किये । गुरु हेमचन्द्रसूरि के लिये तो कहना ही क्या था जो आगे लिखा जायगा। राजा कुमारपाल के राजसिंहासन पर बैठते ही सपादलक्ष के चौहान राजा अर्णोराज के साथ विग्रह हुआ जिससे सैना लेकर चढ़ाई की पर सफलता नहीं मिली अतः लौटकर वापिस आया इस प्रकार कई वक्त सैना लेकर गया इसमें कई ११ वर्ण खत्म हो गया पर अर्णोराज को पराजय नहीं कर सका तब कुमारपाल ने अपने मंत्री वाग्भट्ट से जो मंत्री उदायण का पुत्र था उपाय पूछा उसने उत्तर दिया कि हे नरेश ! जबकि आपकी प्राज्ञा से आपके भाई कीर्तिपाल ने सोराष्ट्र के राव नोधण पर चढ़ाई की उसमें मेरा पिता उदायण भी था उसने नाते समय शत्रुजय युगादिनाथ का दर्शन पूजन किया और युद्ध विजय के लिये भी प्रार्थना की बाद वहाँ का जीर्ण मन्दिर देख उद्धार करवाने की प्रतिज्ञा की बाद नोंषण से युद्ध किया। जिसमें कीर्तिपाल के पास में रह कर मंत्री उदायण वीरता से युद्ध करता था और विजय भी मिली पर उदायण के चोट न लगने पर भी वह भूमि पर गिर पड़ा कीर्तिपाल ने उदायण के पास जाकर अन्तिम वात करी उदायण ने कहा कि मेरी अन्तिमावस्था है पर आप मेरे पुत्र वाग्भट्ट को कहना कि मेरी प्रतिज्ञा (तीर्थोद्वार) को वह पूर्ण करे इत्यादि हे राजन! यदि भाप भी विजय की इच्छा रखो तो अजितनाथ का इष्ट एवं मान्यता रखो इत्यादि । राजा ने कहा ठीक है वाग्भट्ट अब मुझे याद आ गया है कि मैं मेरी मुसाफरी में भ्रमन करता खम्मात गया था बोसिरि द्वारा मैं उदयन से कुच्छ याचना की पर वह नितिज्ञ एवं राजभक्त उस समय वे मेरी कुच्छ भी सहायता नहीं कर सके पर मैंने उस पर गुस्सा न कर उसकी राजभक्ति की सराहना की बाद हेमाचार्य के पास गया उसने मेरी सहायता कर राज मिलने का विश्वास दिलाया इत्यादि राजा ने मंत्री की प्रशंसा की बाद में राजा ने वाग्भट्ट को कहा कि राज खजाना से धन लेकर पहले शत्रुजय का उद्धार करवा कर मंत्री की प्रतिज्ञा को सफल करो। बाद मंत्री वाग्भट्ट के साथ राजा कुमारपाल पार्श्वनाथ के मन्दिर में जाकर के दर्शन पूजन वगैरह भति कर युद्ध विजय की बोलवां की जिसमें मंत्री वाग्भट्ट को साक्षि रूप में रखा। बाद प्रमु को नमस्कार करके अजित मन्दिर हो कर अपने स्थान आये और शीघ्र ही सेना को सजधज कर विजय की आकांक्षा करते हुये पाटण से प्रस्थान कर दिया और क्रमश: चंद्रावती के पास आकर डेरा डाल दिया वहां के सामंत राजा ने भी अच्छा स्वागत किया। Amann १२६६ कुमारपाल को पाटण का राज Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ किसी विक्रमसिंह ने राजा कुमारपाल को जान से मार डालने के लिये षड़यंत्र रचा पर राजा के प्रबल पुन्य प्रताप के सामने दुश्मनों की क्या चलने वाली थी उस षड़यंत्र से राजा वाल बाल बच गया और सेना लेकर अजयपुर के किल्ला पर धावा बोल दिया खूब जोरदार युद्ध हुआ आखिर इष्ट के प्रभाव से अर्णोराज को पकड़ कर कैद कर लिया और नगर खजाना वगैरह खूब लूटा राजा कुमारपाल बड़ा ही उदार था जो लूट में जिसको माल मिला वह उसको दे दिया कि कई पुश्तों तक भी खाया हुआ नहीं खूटे । तत्पश्चात् विजय के नकारे बजाते हुये राजा ने पट्टन में बड़े ही महोत्सव के साथ प्रवेश किया जनता सिद्धराज की अपेक्षा कुमारपाल की अधिक प्रशंसा करने लगी। ___ राजा नगर प्रवेश के समय जब भगवान् अजितनाथ का मन्दिर आया तो वहां जाकर सुगंधी धूप पुष्पादि से भगवान् का पूजन किया बाद पार्श्वनाथ के मन्दिर में पूजन की तत्पश्चात् राज महिलों में प्रवेश किया याचकों को पुष्कल दान दिया और जिन लोगों ने युद्ध में काम दिया उन सब की कदर की एवं पुष्कल पारितोषक दिया। षड़यंत्र रचने वाले विक्रम को बुला कर उसके कुकृत्य याद दिला कर कैद किया और उसके भाई रामदेव के पुत्र यशोधबल को चंद्रावती का सामंत राज बनाया । एक समय राजा कुमारपालने वाग्भट्ट मन्त्री को कहा कि धर्मके लिये कौनसे गुरु ठीक है कि अपनेकों सदुपदेश दे सके ? मन्त्रीने भगवान हेमचंद्रसूरि का नाम बतलायाराजाने पूर्व स्मृति हो पाने से मंत्रीसे कहा कि शीघ्र गुरुजी को बुलाओ अतः मन्त्री गुरुजी को लेकर गजभुवनमें पाया राजा खड़े होकर सूरिजी का सत्कार किया और प्रार्थना की भगवान मुझे जैनधर्म का उपदेश दें । सूरिजीने अहिंसापरमोधर्मः के विषयमें खूब जोरों से उपदेश दिया मांसादि अभक्ष पदार्थों का विवेचन किया जिसका त्याग करना राजा ने स्वीकार किया बाद राजाने चैत्यवन्दन सामयिक पोषध प्रतिक्रमणादि धर्म क्रिया का एवं तात्विक ज्ञान सम्पादन किया जिससे जैनधर्म पर राजा की अटल श्रद्धा हो गई एक दिन राजनेगुरुजी से कहा भगवान् मैंने इन दांतों से मांस खाया है अतः इनको गिरा देना चाहता हूँ सूरिजीने कहा हे राजन् इस प्रकार अज्ञान कष्ट से पापों से छुट नहीं सकता है अतः ३२ दांतों के स्थान उपबन में ३२ जिन मन्दिर बना कर कृतार्थ हो राजा ने ऐसा ही किया । जो ३२ सुन्दर जिनमन्दिर बना कर सूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई। गजा के नेपाल देशसे २१ अंगुल की चन्द्रकान्त मणि भेटमें आई थी अतः राजाने वाग्भट्ट को कहा कि तेरा बनाया मन्दिर मुझे दे दे कि मैं इस मूर्ति को स्थापन करूं उत्तर में मन्त्री ने बड़ी खुशी बतलाते हुए कहा कि जरूर मेरा मन्दिर लिरावें। __मन्त्री ने राजा को याद दिलाई कि मेरा पिता अन्त समय कीतिपाल से शत्रजय के उद्धार के लिये कह गये थे और आपने भी फरमाया था कि हमारे खजाने से द्रव्य ले कर जीर्णोद्धार करवादो । इसलिये श्रापको पुनः स्मरण करवाया है । राजा ने बड़ी खुशी के साथ मंत्री को इजाजत देदी बाद मंत्री आदि बहुतमे धर्म भावना वाले बड़े बड़े सेठिये चलकर श्रीशत्रुब्जय पर गये वहां का मन्दिर वगैरह देखा शिल्पज्ञो को भी दिखाया नकशा भी तैयार करवाया । सब लोग डेरा तंबू लगा कर वहां ठहर गये भगवान् की पूजा भक्ति करते हुये जीर्णोद्धार का काम चालू कर दिया। पालीताना के पास में एक गामड़ा था वहाँ एक दालिद्र बाणिया (श्रावक ) बसता था उसके पास कुमारपाल की विजय यात्रा १२६७ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास केवल ६ द्रम्भ (टका) थे जिससे घृत लाकर संघ के पड़ाव में बेचता था जिससे उसको एक रुपया एक द्रम्म पैदास हुई उनमें एक रुपया का केसर धूप पुष्प वगैरह लेकर प्रभु की उत्साहपूर्वक पूजा की शेष १ द्रम्म बचा वह पहले ६ के साथ मिला कर सात द्रम्म बड़े ही जाबता से बांध लिये वे उनके लिये सात लक्ष जितने थे दालिद्र के तो ऐसा ही होता है। मन्त्री को देखने के लिये वह दालिद्र वणक उनके तंबू के दरवाजा पर आकर खड़ा हुआ छेन्द्रों से अन्दर बैठा हुआ मन्त्री उसके देखने में आया तो उसने पूर्व संचित पुण्य पाप के फलों पर विचार किया कि कहां तो मेरे पाप जो कि पूरी रोटी भी नहीं और कहां इसका पुन्य कि राज साही ठाठ साधारण राजा जागीरदार भी इसकी सेवा में खड़े रहते हैं फिर भी यह दादा के मन्दिर का जीर्णोद्धार कर पुण्य का संचय करते हैं इत्यादि विचार करता था इतने में चपड़ासी आकर उस मैले कपड़े वाले को वहां से हटा दिया जिसको मंत्री देखता था उसने बाद मंत्री अपने पास बुला कर उस दालिद्रसे सब हाल पूछा उसने एक रुपया के पुष्पादि से पूजा करने का हाल सुनाया अतः मन्त्री ने अपना साधर्मी भाई समझ कर आसन पर बैटाया इतने में जीर्णोद्धार की टीप लेकर कई सेठिये आये और सलाह करने लगे मन्त्री दालिद्र कों पूछा कि तुम्हारे भी कुछ कहने का है। उसने कहा कि ७ द्रम्म मेरा लगादो तो मैं कृतार्थ हो सकूँ । इसको देख मन्त्री ने बड़ा ही श्राश्चर्य किया कि इसने बड़ी उदारता की अपने पास का सब का सब द्रव्य दे दिया यह तो मेरा साधर्मी भाई है अतः आदमी को कह कर भंडार से तीन बढ़िया रेशमी वस्त्र और ५०० द्रव्य मंगा कर उसको इनाम में देने लगे। इस पर वह गरीब श्रावक गुस्सा कर बोला कि क्या आप धनवान इसलिये हुये हैं कि गरीबों के पुण्य को मूल्य दे खरीद कर उनको परभव में भी गरीब ही रखना। मन्त्री सुन कर आश्चर्य में डूब गया और उसको अपने से भी अधिक धर्मज्ञ समझ कर धन्यवाद दिया जब वह गरीब अपने घर पर गया और औरत को सब हाल कहा पर औरत थी क्लेश प्रिय किन्तु न जाने उसको उसदिन सद्बुद्धि कहांसे आई कि पतिसे सहमत होकर सुकृत का अनुमोदन किया बाद पतिसे कहा कि अपनी गाय बार बार खूटा उखेड़ कर भाग जाती है अतः खूटा को भूमि में कोसदो ? बस पति ने हाथ में कदाली लेकर भूमि खोदने लगा कि अंदर से ४००० सुवर्ण मुद्रिकाए निकली गरीब वणिक ने अपनी स्त्री को ले जा कर द्रव्य बताया तो उसने भी खुश होकर कहा कि यह आदीश्वर बाबा की पूजा का फल है अतः यह द्रव्य अपने नहीं रखना तब वणिकने मंत्री को अपने घर पर लेजा कर कहा कि इस द्रव्य को प्रहण करो ? मन्त्री ने कहा हमारे काम का नहीं तेरे भाग्य का है अतः तूही काम में ले पर वणिक तो मंत्री को कहता ही रहा इसमें दिन पुरा हो गया रात्रि में कपिद यक्ष ने आकर वणिक को कहा मैंने तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर यह द्रव्य दिखाया है यह तेरे ही तकदीर का है दूसरे दिन दम्पति ने तीर्थ पर आकर खूब उत्साह से प्रभु पूजा की इत्यादि खैर । ___ मन्त्री का कार्य सम्पूर्ण हुआ कि सं० १२१३ में प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के हाथों से प्रतिष्ठा करवा कर पिता की प्रतिज्ञा को पूर्ण की । राजाकुमारपाल ने कुमार बिहार बना कर चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति की तथा ३२ अन्य मन्दिरों की हेमाचार्य से प्रतिष्ठा करवाई राजा ने अपने राज में सात दुर्व्यसन को दूर किया अपुत्रियों का द्रव्य नहीं लेने की प्रतिज्ञा की। ____कल्याण कटक के राजा की गुजरात पर चढ़ाई करने की खबर कुमारपाल को मिली तो गुरु को १२६८ मंत्री वाग्वट का तीर्थ उद्धार Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १९७८-१२३७ पूछा, आचार्यश्री ने कहा कि शासनदेवी आपकी रक्षा करेगी । सूरिजी ने सूरि मंत्र का जाप किया अधिष्टायक आया और कहा बिना उद्यम ही स्वयं संकट दूर होगा । चार दिनों में ही सुना कि राजा मृत्यु शरण हो गया है । राजा को गुरु के ज्ञान पर आश्चर्य हुआ। आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपनी जिन्दगी में बहुत प्रन्थों का निर्माण किया था जिसको लिखाने के लिये राजाकुमारपाल ने प्रयत्न किया पर ताड़ के वृक्ष अग्नि से दग्ध हो गये थे प्रदेश से मंगाये वह भी नष्ट हो गये व इस पर राजा को विचार हुश्रा कि अहो मैं कैसा हतभाग्य हूँ कि गुरु महाराज ने तो इतने प्रन्थ बनाये तब मैं लिखाने में भी असमर्थ इत्यादि शासनदेवी से प्रार्थना करने से सब वृक्ष पत्र सहित हो गये जिस पर शास्त्र लिखवावे । गुरु उपदेश से राजा ने तारंगा पहाड़ पर भगवान् अजितनाथ का उतंग मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा सूरिजी के कर कमलों से हुई । मन्त्री उदायण का बड़ा पुत्र अबंड बड़ा ही पराक्रमी था जिसने कुंकण के राजा माल्लकार्जुन का शिर छेद कर डाला और भी कई स्थान पर दुश्मन का दमन कर पाटण की प्रभुता स्थापन कर राजभक्ति का परिचय दिया। __ भरोंच के मुनिसुव्रत मन्दिर जीर्ण हो गया था जिसका उद्धार अबंड की ओर से हुआ बत्तीस लक्षण पुरुष के लिये योगनिये अबंड को कष्ट देने लगी इससे अबंड ने गुरु महाराज को कहा। गुरू महाराज ने देवी देवतों को संतुष्ट कर अंबड़ को कष्ट मुक्त किया भरोंच का जीर्णोद्धार करवा कर प्रतिष्ठा कराई। राजा ने गुरू महाराज से सम्वक्त्व धारण किया उस समय राजा ने कहा कि:तुह्माण किं करोहं तुम्हें नाहा भवो यदि गयस्य सयल धणाई समेउ मइ तुह्य स माप्पिउ आप्पा । मैं आपका दास हूँ और भवसागर में आप ही एक मेरे नाथ हो भले धन राज भी मुझे सब मिला है तथापि मैंने मेरी आत्मा तो आपको ही अर्पण की है अतः राजा ने अपना राज सूरिजी को अर्पण कर दिया पर सूरिजी ने कहा हे राजन् ! हम निम्रन्थ निःसंगी को राज से क्या प्रयोजन है फिर भी राजा ने नहीं मानी तब मन्त्रियों ने बीच में पड़ कर यह निर्णय किया कि आज से राजा राज सम्बन्धी कोई भी विशेष कार्य करेगा वह श्रापको पूछ कर ही करेगा। एक समय राजा हस्ती पर आरूढ हो बाजार से जा रहा था एक पतित साधु वैश्या के कन्धे पर हाथ रख कर घर से निकला जिसको राजा हस्तीपर रहा हुआ नमन किया इस बात की सूरिजी को खबर हुई तो आपने व्याख्यान में कहा किपासत्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती निज्जरा होइ काया किलेसे एमेव कुणइ तह कम्म बंधवा । इधर राजा के नमस्कार से उस साधु को बड़ी भारी लज्जा आई कि वह दुर्व्यवहार को छोड़ मार्ग पर आया अन्त में अनशन किया जिसकी खबर राजा को मिली तो राजा अपनी राणीयों वगैरह को लेकर उस मुनि को वन्दन करने को आया मुनि ने कहा राजन् । आप मेरे गुरु हो कि मुझे दुर्गति में गिरते को मार्ग पर लाये हो इत्यादि। . आचार्यश्रीने राजा को विशेष तत्व बोध के लिये योगशास्त्र, त्रिषष्ट सिलाग पुरुष चरित्र, प्रन्थों की तथा वीतराग स्तोत्रादि की रचना की जिसको पढ़ कर राजाने अच्छा बोध प्राप्त किया राजा ने जैनधर्म की प्रभावना राजा कुमारपाल का सम्यवस्व धारण Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एवं प्रचार करने में कुच्छ भी उठा नहीं रखा हेमाचार्य जैसे गुरु और कुमारपाल जैसे भक्त फिर कमी ही क्या १८ देशों में राजा कुमारपाल की आज्ञा वतै रही थी तलाव कुवापर गरणीयों बंधा दी थी की कई मनुष्य तो क्या पर पशु भी विना खाणा पाणी नहीं पी सके तथा राजा ने उदघोषणा करवा दी थी कि मेरे राज्य में कोई भी इलता चलता जीव को मार नहीं सकेगा पर एक समय एक बुढिया ने अपनी पुत्री के बाल समारते समय एक जू को हाथ से मार डाली जिसको प्राण दंड देने का हुक्म हो गया पर पुनः उस पर दया आने से एक जिन मन्दिर उसने बनाया जिसका नाम युक् प्रसाद रखा । पूर्व जमाने में वीतभय पट्टन के राजा उदायन के प्रभावती राणी थी उसके वहाँ भगवान् महावीर की मूर्ति थी पर देवयोग से पट्टन दहन होने से मूर्ति भूमि में दब गई सूरिजी के व्याख्यान से अवगत होकर राजा ने अपने आदमियों को भेज कर वहाँ की भूमि खुदवाई जिससे मूर्ति भूमि से निकली जिसको पट्टण में बड़े ही महोत्सव से लाये राजा ने अपने अन्तेवर गृह में रत्न का मन्दिर बनाना चाहा पर सूरिजी ने मनाई कर दी की अन्तेवर घर में इतना बडा मन्दिर न हो । राजाने दूसरी जगह मन्दिर बनाया । और उस मूर्ति की प्रतिष्ठा गुरुजी से करवाइ। __जैसे सम्राट् सम्प्रति ने जिन मन्दिरों से मेदनि मंडित करवादी थी वैसे कुमारपाल ने भी पाटण तारंगा जालोर वगैरह सर्वत्र हजारों मन्दिर वना कर जैन धर्म की महान् प्रभावना की थी। पूज्याचार्य देव के उपदेश से परमाहत राजा कुमारपाल ने तीर्थाधिराज श्रीशत्रुजय गिरनारादि की यात्रार्थ वडाभारी विराट् संघ निकाला जिसमें राजा की चतुरंगनी सैना एवं सर्व लवाजमा तो था ही साथराजान्तेवर भी था तथा पूज्याचार्यदेवादि श्वेताम्वर दिगम्बर साधु साध्वियों और अन्य साधु एवं लाखो नर नारियाँ थे कारण उस समय पाटण में १८०० करोड़ पति थे और लक्षाधिशों की तो गिनती भी नहीं थी जब हेमचन्द्राचार्य जैसे गुरु कुमारपाल जैसे भक्त राजा फिर उस संघ में जाने से कौन वंचित रहे केवल पाटण का संघ ही नहीं पर और भी अनेक प्राम नगरों के श्रीसंघ भी इस यात्रा में शामिल हुए थे संघ का ठाठ दर्शनीय था बहुत से भावुक तो छ री पाल नियमों का पालन करते थे तब राजा कुमार पाल गुरु महाराज की सेवा में पैदल चलता था क्रमशः चलते हुए जब तीर्थ का दूरसे दर्शन हुआ तो मुक्ताफल से वधाया तत्पश्चात् चतुर्विध श्रीसंघ ने युगादीश्वर भगवान का दर्शन स्पर्शन सेवा पूजा कर अपने कर्मों का प्रक्षालन कर अपने को अहो भाग्य समझे । तीर्थ पर अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजारोहण स्वामिवात्स ल्यादि शुभ कार्य कर संघ पुनः पाटण आया वहां भी मन्दिरों में अष्टान्दिका महोत्सव स्वामिवात्सल्य पूजा प्रभावना और साधर्मी भाइयों को पहरावनी दे कर राजा ने अपनी भक्ति का यथार्थ परिचय दिया । धन्य है भगवान् हेमचन्द्रसूरि को और धन्य है जैन धर्म का उद्योत करने वाले राजा कुमारपाल को सम्राट सम्प्रति के पश्चात् जैनधर्म का उद्योत करने वाला एक राजा कुमारपाल ही हुआ था इनको अन्तिम राजा कह दिया जाय तो भी अत्युक्ति नहीं है। प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के पुनीत जीवन के विषय में बड़े प्राचार्यों से अनेक प्रन्थों का निर्माण किया है पर मैंने यहाँ प्रभाविक चरित्र के अनुसार संक्षिप्त से ही केवल दिग्दर्शन मात्र ही करवाया है। प्राचार्य हेपचन्द्रसूरि का जन्म वि० सं० ११४५ कार्तिक शुक्ला पर्णिमा के शुभ लग्न में हुआ था सं० ११५० वर्ष पांच वर्ष की बालावस्था में दीक्षाली और सं० ११५६ वर्ष गुरु ने सर्व गुण सम्पन्न जान कर आचार्य पद १२७० राजा कमारपाल का यात्रार्थ संघ ww.jainelibrary.org Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ पर अलंकृत किये और ७३ वर्ष जिन शासन की बड़ी २ सेवायें की सं० १२२९ में आप स्वर्गवासी हुए । जैन संसार में आप साढ़े तीन करोड़ो प्रन्थ के निर्माण कर्ता कालिकाल सर्वज्ञ के नाम से बहुत प्रसिद्ध हैं । चार्य हेमचन्द्रसूरि का समय चैत्यवासियों का समय था उस समय कई चैत्यवासी शिथिलाचारी थे और कई चैrयवासी सुविहित उपविहारी भी थे श्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के चरित्र से पाया जाता है कि आप मध्यम स्थिति के श्राचार्य थे श्राप जैसे उपाश्रय में ठहरते थे वैसे कभी २ चैत्य में भी ठहरते थे जैसे कि - श्रीवतावतारे, च तीर्थे श्रीनेमिनामतः । सार्थे माधुमतेतत्रावात्सीद वहित स्थितिः ॥ २४ ॥ अर्थात् श्राचार्य श्री खम्मात से विहार कर पहले मकाम नेमि चैत्य में किया था इससे स्पष्ट पाया जाता है कि हेमचन्द्राचार्य चैत्यवास के विरुद्ध नहीं पर सहमत्त ही थे यही कारण है कि हेमचन्द्रसूरि ने चैत्यवास के विरोध में कही पर उल्लेख नहीं किया हाँ जिस किसी ने शिथिलाचार का ही विरोध किया है । श्राचार्य हेमचन्द्रसूरि च० चन्द्रगच्छ (कुल) की शाखारूप पूर्णताल्लगच्छ के आचार्य थे आपके गुरु का नाम देवचन्द्रसूरि तथा आप प्रद्यम्नसूरि के पट्टधर थे तथा हेमचन्द्रसूरि के पट्टपर रामचन्द्रसूरि आचार्य हुए थे I प्रभाविक चरित्र के अलावा भी कहा कहीं पर श्राचार्य हेमचन्द्रसूरि और कुमारपाल के चमत्कारी जीवन के विषय उल्लेख मिलते हैं पर यहाँ पर तो संक्षिप्त ही लिखा गया है । ७४॥ शाह की पुराणी ख्यातें जैन संसार इस बात से तो पूर्णतया परिचित है कि प्राचीन समय में ७४ ॥ शाह हो गये हैं और इनके लिये यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है कि बन्ध लिफाफे पर ७४ ॥ का अंक अंकित किया जाता है जिसका मतलब यह है कि जिसका नाम लीफाफे पर है उसके अतिरिक्त कोई दूसरा व्यक्ति उस लिफाफे को खोल नहीं सके यदि खोल लेगा तो ७४ ॥ शाहाओं की आज्ञा का भंग करने वाला समझा जायगा । कई लोग यह भी कहा करते है कि चित्तोड़ पर मुसलमानों ने श्राक्रमण किया था और आपस में युद्ध हुआ जिसमें मरने वालों की जनेऊ ७४ ॥ मण उतरी थी इससे बन्द लिफाफे पर ७४|| का अंक लिख जाता है कि बिना मालिक के लिफाफे खोलने वाले को ७४ ॥ मण जनेऊ में मरने वालों का पाप लगेगा । पर यह कथन केवल कल्पना मात्र ही है कारण अव्वल तो जनेऊ प्रायः ब्राह्मण ही धारण करते हैं वे प्रायः युद्ध में नहीं जाया करते है यदि कभी गये भी हो तो इतने नहीं; कारण ७४ || मण जनेऊ को करीब दशलक्ष मनुष्य धारण कर सकते है अतः इतने जनेऊ धारण करने वाले युद्ध में मनुष्य ही नहीं थे तो मरना तो सर्वथा संभव ही है दूसरा जब कि उस युद्ध में मरने वालों की ही ठीक गिनती नहीं लगाई जा सकती थी तब He व्यक्तियों की जनेऊ का तोल माप कौन लगाने को निटोल बैठा था इत्यादि कारणों मात्र कल्पना रूप ही है । वद किंवदन्ति प्रस्तुत ख्यात का नाम ७४ || शाह लिखा हुआ मिलता है और इस नाम पर ही दीर्घदृष्टि से विचार किया जाय तो स्वयं ज्ञात हो सकता है कि शाह शब्द खास तौर महाजन संघ से ही उत्पन्न हु है और उस समय महाजन संघ का इतना ही प्रभाव था कि उनकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं करत था। दूसरा शाह एक महाजन संघ के लिये गौरवपूर्ण पदवी थी और उन लोगों ने देश समाज एवं धर्म ७४ || शाह की पुरांणी ख्यातें १२७१ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की बड़ी २ सेवायें की जिसमें लाखों करोड़ों नहीं पर अरबों खरबों द्रव्य व्यय कर के सुयश कमाया था इससे ही वे शाह कहलाये थे । उस समय महाजनों को अपनी शाह पदवी का बड़ा ही गर्व था और वे इसमें अपना गौरव अनुभव करते थे । इस पदवी को पाने के निमित्त शाहों ने कई एक महान कार्य किये हैं जिनमें से कतिपय उदाहरण यहां दिये जाते हैं: एक समय गुर्जर भूमि (गुजरात) में महा भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा उस समय चांपानेर बादशाह र से एक सूबा ( हाकिम ) रहता था उसने एक बार महाजनसंघ के अप्रेश्वरों को बुलबा कर कहा कि बादशाह के नाम के पीछे शाह आता है परन्तु तुम्हारे नामों के पहले शाह शब्द क्यों लगाया जाता है ? उत्तर में महाजन संघ के प्रेश्वरों ने कहा कि हमारे पूर्वजों ने देश और देशवासी भ्राताओं की बड़ी २ सेवायें की हैं उन्हीं से हमें शाह पदवी राजा बादशाहों ने प्रदान की है। सूबाने तर्क करके फिर कहा कि तुम्हारे पूर्वजों ने जैसे महत् कार्य किये हैं वैसे कार्य क्या आप लोग भी कर सकते हैं महाजनसंघ ने आशा चाही। सूबा ने देश की दुर्दशा बतला कर अकाल पीड़ित व्यक्तियों और पशुओं की अन्न वस्त्र और घास से सहायता करने को कहा और साथ ही यह भी कहा कि मैं तभी समभूंगा कि आप सचमुच ही शाह कहलाने के योग्य हैं। वरन् आपकी शाह पदवी छीन ली जायगी । इस पर महाजनसंघ अपनी स्वाभाविक उदार वृत्ति से अकाल पीड़ितों की सहायता का वचन देकर अपने स्थान पर आये और एक वर्ष के ३६० दिन होते हैं जिसके लिये एक २ दिन के लिये मितियों का लिखना प्रारम्भ कर दिया। कुछ दिन तो चांपानेर में लिखे गये । पश्चात वे पाटण गये वहां भी कुछ दिन लिखवाये गये वहां से आगे घोळके की ओर जाते हुए रास्ते में एक हाडोला नाम का एक छोटासा ग्राम आया वहां एक ही घर महाजन का था अतः वहां ठहरना उचित न समझ कर ग्राम के बाहर शौचादि से निवृत होकर संघ के लोग प्राम बाहर से ही निकल जाना ठीक समझ कर आगे चलने लगे । जब इस बात की सूचना वहां के रहने वाले शाह खेमा को लगी तो वह उनके पीछे जाकर संघनायकों को अपने घर पर लाया । पर उसका साधारण मकान एवं घर का व्यवसाय देख कर उन संघ के अग्रेश्वरों ने सोचा कि इस निर्धन व्यक्ति को एक दिन के लिये भी क्यों कष्ट दिया जाय कारण एक दिन का व्यय भी तो लाखों रुपयों का होता है । स्नैर शाह खेमा के श्राग्रह से वे संघ के लोग वहीं बाजरी की रोटी और भैंस का दही भोजन कर प्रस्थान करने लगे तो उनसे इस प्रकार गमन करने का कारण शाह खेमा ने पूछा इस पर संघनायकों ने सारा हाल कह सुनाया और चंदा की टीप सामने रख कर कहा कि आप भी यदि चाहे तो इसमें एक दिन लिखवायें । इस पर शाह खेमा ने कहा कि मेरे पिता शाहदेदा वृद्धावस्था के कारण दूसरे मकान पर हैं मैं उन्हें पूछ कर आता हूँ | टीप की चौपड़ी लेकर खेमा अपने पिता के पास आया और सब हाल कह कर पूछा कि इसमें अपनी ओर से कितने दिन लिखाये जायें। शाह देदा ने विचार विनिमय के पश्चात् कहा कि खेमा ! ऐसा सुअवसर तुम्हें कब मिल सकता है ? और तेरे घर पर चांपानेर का संघ कब आएगा ? तथा तेरे द्रव्य के सदुपयोग का अन्य क्या अच्छा साधन होगा ? मेरी राय यह है कि तुम सारा ही वर्ष लिखादो । पिता का कथन खेमा ने बड़े ही हर्ष के साथ शिरोधार्य कर शाह खेमा संघ के पास आया और एक वर्ष अपनी ओर से कह दिया। इस पर संघ बालों को ज्ञात हुआ कि यह कोई पागल मनुष्य है कारण १२७२ दुष्काल और क्षेमा देदाणी Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ कि चांपानेर और पाटण के अरबपति और कई करोड़पतियों में से किसी ने भी एक पूरा वर्ष नहीं लिखाया हैं तब वह बाजरे की रोटी खाने वाला साधारण व्यक्ति कैसे एक वर्ष लिख सकता है ! संघ के लोगों ने खेमा के सम्मुख देखा तघ खेमा ने कहा कि श्राप तो भाग्यशाली हैं और आपको तो सदैव लाभ मिलता ही है । मैं एक छोटे से ग्राम का रहने वाला मुझे तो यह प्रथम ही अवसर मिला है कि श्राज श्रीसंघ ने मेरे घर को पवित्र बनाया है। श्राप प्रसन्नतापूर्वक इस वर्ष का लाभ मुझे दिलवाइये परन्तु बही चौपड़े में मेरा नाम न लिखें । पश्चात् शाह खेमा ने अपने घास के झोंपड़े में संघ वालों को लेजा कर अपना सारा खजाना, जेवरात आदि बतलाया । संघ वाले जेवरात देख कर चकित रह गये । खेमा का खजाना देख कर उसको शालिभद्र सेठ की स्मृति हो श्राई । बस । शाह खेमा को साथ लेकर सब लोग वापिस चांपानेर अाये और कई लोगों ने सूबा के पास जाकर कहा कि आपने जो श्राज्ञा दी उसमें कई लोगों ने भाग लेना चाहा किन्तु हमारे महाजनसंघ में एक ही शाह ने साग्रह सम्पूर्ण वर्ष का व्यय अपनी ओर से देना स्वीकार कर लिया है । सूबा ने संघ की बात पर विश्वास नहीं किया और कहा कि उस शाह को मेरे निकट लाओ अतः शाह खेमा को कीमती बढ़िया वस्त्राभूषणों से सुशोभित कर एक पालकी में बिठा बड़े ही समारोह से सूवा के पास लाये और संघनायकों ने सूबा से निवेदन किया कि एक वर्ष के लिये हमारी जाति का एक शाह ही सम्पूर्ण वर्ष में जितना नाज और घास चाहियेगा अकेला ही दे सकेगा जो आपकी सेवा में उपस्थित है । आपका नाम शाह खेमा है इत्यादि महाजनों में बोलने एवं षात वनाने का चातुर्य तो स्वाभाविक होता ही है । सूबा ने संघ वालों के मुंह से सारा हाल सुना और शाह खेमा को देखा तो उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा। सूबा ने शाह खेमा से वार्तालाप किया और तत्पश्चात् शाह खेमा की प्रशंसा की एवं सत्कार तथा सम्मान किया और कहा कि शाहजी आपको किसी वस्तु की एवं प्रबन्ध की आवश्यकता हो तो फरमाइयेगा । आपने बड़ा भारी कार्य करने का निश्चय किया है । इस पर शाह खेमा ने बड़ा अच्छा अवसर देख कर सूबा से निवेदन किया कि आपकी कृपा से सब काम हो जायगा । यदि आप मुझे कुछ देना चाहें तो मेरे गांव के पास पास बारह प्राम हैं वहां जीवहिंसा का निषेध कर देने का फरमान करदें सूबा ने सोचा कि शाह खेमा कितना परोपकारी है करोड़ों रुपये अपने गृह से व्यय करने को उतारू हुए हैं फिर भी अपने स्वार्थ के निमित्त कुछ न मांग कर जीव हिंसा का निषेध चाहते हैं यह भी परोपकार का ही कार्य है अतएव सूवा ने उसी समय सख्त फरमान लिख दिया और शाह खेमा को शिरोपाव ( वस्त्र विशेष ) के साथ फरमान प्रदान कर के अपने प्रधान पुरुषों को संग भेज कर शाह खेमा को विदा दिया । जैनकथासाहित्य में शाह खेमा का चरित्र अति विस्तार से लिखा है किन्तु स्थानाभाव के कारण मैंने यहां संक्षेप में ही परिचय दिया है। इसी प्रकार एक बार देहली के बादशाह ने महाजन लोगों को बुलवा कर कहा कि हमें सोने के पाट ( स्तम्भ ) की आवश्यकता है अतः एक माह में पाट लाकर उपस्थित करो अन्यथा आप लोगों की शाह पदवी छीन ली जायगी "अाज भले इस शाह पदवी का मूल्य एवं गौरव नहीं रहा हो अथवा जिसके चित्त में पाया वही अपने नाम के पूर्व शाह शब्द लगा देते हों परन्तु उस काल में इस पदवी का बड़ा भारी गौरव समझा जाता था।" स्त्रैर इसके लिये महाजन बादशाह का कथन स्वीकार करके अपने स्थान पर आये और विचार करने लगे कि सोने के पाटों की रकम का तो अभी कोई प्रश्न ही नहीं है यदि जवाहिरात मांगी होती तो इससे आचार्य देवसरि का विहार १२७३ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भी अधिक देदी जाती परन्तु मोना इतना कहाँ से लायें । दूसरे, बादशाह ने पाटों की संख्या भी तो नहीं बतलाई न जाने कितने पोट माँगेंगे । खैर ! महाजनों ने अत्यन्त गहन विचार करके निश्चय किया कि यह कार्य तो इष्ट बली मनुष्य ही पूर्ण कर सकेगा। अतः देहली से पाँच अप्रेश्वर निकल गये और प्रामोप्राम इष्टबली व्यक्ति की शोध करते जा रहे थे राह में एक स्थान पर पता चला कि गुढ़ नगर में आर्य जाति का शाह लूना बड़ा ही इष्टबली है और चारणी देवी का उन्हें इष्ट है। बस ! वे पाँचों अप्रेश्वर चल कर साह लूना के पास आये और सारा वृतान्त कह सुनाया। इस पर शाह लना ने कहा ठीक है । इसमें ऐसी फौनसी बड़ी बात है जब तक महाजन का एक बच्चा रहेगा तब तक तो महाजनों की शाह पदवी को कोई नहीं छीन सकेगा। पदवी की रक्षा माताजी करेंगी। आप पूर्ण विश्वास रखें उसी दिवस रात्रि में शाह लूना ने अपनी इष्टदेवी का स्मरण किया अत: तत्क्षण देवी श्राकर उप. स्थित हुई और लूना से कहा कि कल पार्श्वनाथ प्रक्षालन करवा कर तुम्हारे मकान के पृष्ठ भाग में जितने काष्ठ के पाटादि लकड़े रक्खे हैं उर पर प्रक्षालन का जल छिड़कवा देना तुम्हारा मनोरथ सफल हो जायगा बस ! इतना कह कर देवी तो अदृश्य हो गई और शाह लूना ने प्रातः होते ही देवी के कथनानुसार प्रमु प्रतिमा का प्रक्षालन करवा कर उस प्रक्षालन के जल को देवीके बतलाये हुए काष्टादि पाटों पर छिड़का बस ! फिर तो था ही था । देवी के कथनानुसार सब लकड़ स्वर्णमय बन गये । अतः शाह लूनाने संघ नायकों को ले जाकर बतलाया कि आपको कितने पाटों की आवश्यकता है ? श्रावश्यकीय पाट इन स्वर्णमय पाटों में से ले लीजिये। संघ नायकों ने सोचा कि अभी महाजन संघ के पुण्य प्रबल हैं। भाग्य रवि मध्याह्न में तप रहा है । उन्होंने शाह लूना की भूरि प्रशंसा की और कहा कि अपने पूर्वजों ने जो शाह पदी प्राप्त की थी उसकी रक्षा का सारा श्रेय आप ही को है शाह लूना ने कहा कि मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूँ परन्तु श्राप लोग धन्यवाद के पात्र हैं कि आपने इस पदवी के गौरव को स्थाई रखने और उसकी रक्षा के निमित घर का सारा कार्य त्याग कर सफल प्रयत्न करने को कमर कसी हैं यह जो कार्य सफल हुआ है यह भी श्रीसंघ के ही पुण्य बल से बना है। इसमें मेरी थोड़ी भी प्रशंसा का स्थान नहीं है । अहा ! हा ! वह कितनी निरभिमानता का समय था कि दोनों ओरसे मान न करते हुए श्रीसंघ के पून्यों का ही अनु. मोदन करते रहे ! खैर । देहली के अप्रेश्वर सत्वर चल कर देहली आये और बादशाह के पास उपस्थित होकर निवेदन किया कि सोने के पाट मौजुद तैयार हैं। आपको कितने पाट किस नमूने के चाहिये । ताकि उत्तने ही पाट मँगवा दिये जॉय । इत्यादि । बादशाह ने सोचा कि महाजन लोगो में बुद्धि विशेष होती है केवल वनावटी बाते ही बनाते होंगे क्या यह भी कभी संभव है कि सोने के पाट किसी के यहाँ जमा रक्खे हों अतएव बादशाइ स्वयं ही पाटों को देखने के लिये तत्पर हो गया। बादशाह खूब सजधज कर उन संघ नायको के साथ२ चलकर शाह लूनाके गृह पर आये । जब शाह लूना की सूरत देखी तो बादशाह को संघ की बात पर विश्वास नहीं आया और समझा कि यह क्या स्वर्ण के पाट दे सकेगा ? परन्तु जब मकान के पीछे लेजाकर बादशाह को उन पड़े हुए स्वर्णमय पाटों को दिखलाया गया तो बादशाह देख कर मन्त्र मुग्ध सा बन गया और सोचने लगा की वास्तव में महाजन लोग ही इस पदवी के योग्य हैं जो कार्य बादशाह नहीं कर सकते वे कार्य भी शाह तर सकते हैं शाह लना और देहली के महाजनों की प्रतिष्ठा बढ़ाई, खूब सम्मान किया । शाह लूना ने बादशाह को भोजन करवाया बादाशाह प्रसन्न होकर शाह लूना को कहा शाहजी आप १२७४ शाह लूनाशा के चारणी देवी का इष्ट www Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८ -१२३७ को किसी बात की जरूरत हो तो कहिये ? शाहने १२ ग्रामों में जीव नहीं मरने का फरमान मांगा बादशाह ने उसी समय हुकम निकाल दिया पश्चात सभी व्यक्ति अपने २ स्थान को गये । इस प्रकार प्राचीन वंशाववलियों आदि में कई कथाएँ लिखी मिलती हैं। इसमें सत्यता का अंश कितना है इसके लिये निश्चयात्मक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है किन्तु महाजन संघने इष्ट बलसे ऐसे २ अनेक कार्य किये हैं । अतः उपर्युक्त कथन यदि सत्य मी हो तो इसमें कोई श्राश्च 'नहीं। शाह खेमा और लूना ये दोनों ७४ ॥ | शाह में सम्मलित हैं । उस समय महाजनसंघ की संख्या करोड़ों की थी। जिनमें ७४ || विशेष कार्य करने वाले भाग्यशाली शाह हुए हों तो यह असंभव नहीं है। प्राचीन पट्टावलियों श्रादि जैनसाहित्य का अवलोकन करने से यह पाया जाता है कि उस समय महाजनसंघ में अनेकानेक दानवीर तथा उदार नर रत्न विद्यमान थे जिन्होंने देश, समाज एवं धर्म के कार्यों में लाखों करोड़ों तो क्या परन्तु कई अरबों द्रव्य व्यय करके यश कमाया था । एक २ ने तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकालने में सहस्रों, लक्षों नर नारियों को सुवर्णमुद्राएं एवं स्वर्णाभूषण प्रभावना के तौर पर वितरण किये थे । एकेक ने मन्दिर बनवाने में करोड़ों रुपयों का द्रव्य बात की बात में व्यय कर दिया था तथा एक-एक व्यक्ति दुष्काल के समय में सर्वस्व अर्पण कर देते थे । इस प्रकार जनोपयोगी कार्य करने से ही महाजन मां-बाप कहलाते हैं और राजा, महाराजा, बादशाह और नागरिकों की ओर से महाजनों को जगत सेठ, नगरसेठ, टीकायत चोवटिये, पंच, बोहरा, साहुकार और शाह जैसे गौरवपूर्ण पद प्रदान किये गये थे । श्रतः इतनी बड़ी समाज में ७४ ॥ शाह विशेष जनोपयोगी कार्य करने वाले हुए हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । इस समय ७४ ॥ | शाह की पाँच प्रतियाँ मेरे पास प्रस्तुत हैं उन पाँचों प्रतियों में लिखे हुए शाह के नाम या काम कुछ शाहाओं को छोड़ के मिलते हुए नहीं हैं इससे पाया जाता है कि ७४|| शाह केवल एक प्रान्त में ही नहीं पर प्रान्त प्रान्त में भिन्न २ शाह हुए हैं। जब हम इन पाँचों प्रतियों को इतिहास की कसौटी पर कस कर देखते हैं तब स्थूल दृष्टिले तो हमारे संकीर्ण हृदय में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो जाती हैं कि एक-एक शाह ने एक-एक धर्म एवं जन कल्याणार्थ इतनी बड़ी रकम क्यों कर व्यय की होगी १ एक-एक संघ में लाखों नर नारियों को स्वर्ण मुद्राएँ एवं स्वर्णाभूषण कहाँ से दिये होंगे ? जब कि वर्तमान में पाँच, पच्चीस एवं सौ पचास रुपये मासिक नौकरी करने वाले तथा तैल, नमक, मिर्च का व्यापार करने वाले और कमीशन एवं सट्टे से आजीविका चलाने वाले कि जिन्होंने अपने जीवन में पाँच पैसा भी कदाचित धर्म के नाम पर व्यय किया हो उन लोगों को उपर्युक्त शंका होना स्वभाविक ही है इतना ही क्या पर इन बातों को कानों में सुनने जितनी भी उन लोगों में उदारता कदाचित ही हो। कारण जैसे कुत्रा का मिंडक के सामने समुद्र के विशालता की बात की जाय तो वह कब मान लेगा कि समुद्र इतना विशाल होता है चूकि उसने तो कुआ के अलावा कोई विशाल स्थान जिन्दगी भर में देखा ही नहीं । इस प्रकार दरिद्रता के साम्राज्य में जन्मे और पेट एवं कुटुम्ब का हुए अपनी जिन्दगी के अन्त तक वही हाल देखा है कि नौकरी के पैसे लाने निर्वाह करना उसी प्रकार ताँबे पर सोने का पानी चढ़वा कर पहनने वाले के सकती है कि प्राचीन काल में महाजनसंघ के पास इतना पर्याप्त सोना था पर बने हुए विमलशाह तथा वस्तुपाल के मंदिर तथा राणकपुर के बने हुए धना शाह के मंदिर और तारंगा शत्रुंजय के मन्दिर देखते हैं तब कुछ अंशों में उनकी शङ्का निवारण हो जाती है ! कब यह बात समझ में आ पर जब लोग अर्बुदगिरी निर्धनता का सम्राज्य में शाह ख्यति पर श्रद्धा | १२७५ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आप इतिहास के कुछ पृष्ठों को खोल कर देखिये कि अत्याचारी व विदेशियों ने भारत के जवाहिरात और स्वर्ण आदि द्रव्य को किस निर्दयता से लूटा है वह भी एक दो दिन या एक दो वर्ष ही नहीं प्रत्युत सात सौ श्रासौ वर्षों तक लूटते ही रहे जो जवाहिरात एवं स्वर्ण से उँट ही नहीं पर ऊँटों की कतारे भर-भर कर ले गये थे । एक नादिरशाह बादशाह चन्द घंटों में देहली के जौहरी बाजार से जवाहिरात के ऊँट के उँट भरवा कर ले गया था तब सात सौ आठसौ वर्षों का तो हिसाब ही क्या ? अस्तु जब अंग्रेजों का नम्बर आता है तो अंग्रेज भी भारत से कम जवाहिरात तथा कम स्वर्ण नहीं लेगये हैं। भारत में अंग्रेजों के आने के पूर्व उनका इतिहास देखने से पता चल जायगा कि युरोप में उस समय कितना सोना था और आज कितना है । वह द्रव्य कहाँ से आया जो आज पाश्चात्य लोग करोड़ों पौण्ड विद्या प्रचार में तथा नये-नये आविष्कारों में व्यय कर रहे हैं इत्यादि । विचार करने पर यही कहा जा सकता है कि भारतवर्ष धन की खान है और वह द्रव्य विशेष कर महाजनों के ही पास था । अनुमानतः एकसौ वर्ष पूर्व टॉड साहब ने भारत का भ्रमण करने पर लिखा था कि भारत का आधा द्रव्य जैनियों के पास है । चीन काल की यह बात है तब प्राचीन काल की सत्यता में क्या शंका की जा सकती है । महाजन लोगों को अपने देव गुरु धर्म पर पूर्ण इष्ट था कि इष्ट के बल से वे मनुष्यों से तो क्या पर देवताओं से भी काम निकलवा लेते थे और ऐसे अनेक उदाहरण भी मिलते हैं । "जैसे कइयों को पारस मिला, कइयों को सुवर्णसिद्धि रसायण, कइयों को तेजमतुरी मिली, कइयों को चित्रावल्ली, तब कइयों को स्वर्णमय पुरुष मिला, एक को जड़ी बूटी मिली जिससे स्वर्ण बनवा लिया, एक को देवीने अक्षय थैली दी तो कइयों को अक्षय निधान बतला दिया । इनके अलावा बहुत से लोग विदेशों व्यापार कर समुद्रोंसे प्राप्त हुई बहुत से जवाहिरात भी ले आये थे । अतः उन महाजनों के घरके द्रव्य का कौन पता लगा सकता था । दूसरा उस जमाने के महाजनों की यह एक बड़ी भारी विशेषता थी कि वे प्राप्त लक्ष्मी को संचय नहीं कर धर्म कार्य एवं जनोपयोगी कार्यों में लगा देने में अपना कल्याण एवं लक्ष्मी का सदुपयोग समझते थे और ज्यों-ज्यों वे लक्ष्मी सद्कार्यों में व्यय करते थे त्यों त्यों लक्ष्मी उनके वहाँ विना बुलाये ही श्राकर स्थिरवास कर दिया करती थी । श्रतः उन शाहात्रों के किये हुए कार्यों में समझदारों को शंका करने की जरूरत नहीं है । अस्तु, उन शादाओं का समय तो बहुत प्राचीन काल से प्रारम्भ होता है और उस समय की अपेक्षा से श्राज बीसवीं शताब्दी सब तरह से गई गुजरी है धन में और संख्या में इसका पतन अपनी सीमा तक पहुँच गया है । तथापि महाजन संघ एकेक धर्म कार्य में दश दश, बीस-बीस लक्ष रुपये खर्च कर देना तो एक बाँया हाथ का खेल ही समझते हैं। जिसके लिये कदम्बगिरी के मन्दिर तथा पालीतांणे का आगम मन्दिर प्रत्यक्ष उदाहरणरूप हैं तथा मुट्ठी भर मूर्तिपूजक समाज के केवल मन्दिरों का खर्चा प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का हो रहा है । तब श्राज से १४००-१५०० वर्ष पूर्व का महाजनसंघ जो उन्नति के ऊँचे शिखर पर था उस समय में पूर्वोक्त कार्य किया हो तो इसमें शंका करने जैसा कोई भी कारण नहीं हो सकता है । कदाचित पच्चीस, पचास एवं सौ रुपये मासिक नौकरी करने वालों की समझ में एकदम यह बात नहीं आवे तो बालों पर सुगंधी तेल लगाकर किसी सौरभयुक्त बाटिका में बैठकर शान्त चित से विचार करें कि इस बीसवीं शताब्दी के पूर्व उन्नीसवीं शताब्दी महाजनों के लिये कैसी थी और उन्नीसवीं के पूर्व १२७६ देव गुरु धर्म पर श्रद्धा का ही फल है Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] । ओसवाल सं०११७८-१२३७ अठारहवीं तथा अठारहवीं के पूर्व सतरहवीं और सतरहवीं के पूर्व सोलहवीं शताब्दी महाजनों के लिये तन, जन तथा धन के लिये कैसी थी। इसी प्रकार एक-एक शताब्दी पूर्व का इतिहास देखते जाइये । श्रापको महाजनों की ऋद्धि एवं समृद्धि का पता लग जायगा। इतने पर भी दरिद्रता के साम्राज्य में फंसे हुए व्यक्तियों की समझ में नहीं आए तो कर्मों की गहन गति पर ही संतोष करना पड़ता है। महाजन संध का समय विक्रम पूर्व कई शताब्दियों से ही प्रारम्भ हो जाता है अर्थात् भगवान महावीर के समय के आस पास का ही समय महाजन संघ का समय था और उस समय के आस पास में भारत कैसा समृद्धिशाली था जिसके लिये कतिपय उदाहरण निम्नलिखित हैं। (१) भगवान महावीर के समय राजा श्रणिक की रानी धारणी जो मेघकुंवर की माता थी जिसका शयनगृह का तला पांच प्रकार के रत्नों से जड़ा हुआ था। (२) राजा श्रणिक ने कलिंग की खण्डगिरी पहाड़ी पर जैन मन्दिर बनवा कर सुवर्णमय मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी तथा सदा १०८ सुवर्ण के चावलों का स्वस्तिक करता था उनके पास कितना सुवर्ण होगा। (३) सेठ शालिभद्र के घर की जवाहिरात मनुष्य गिन नहीं सकता था। एक समय तो उसने यहाँ तक भी कह दिया था कि राजा श्रेणिक अपने घर पर आया है तो उसको सस्ता या महँगा खरीद कर भंडार में डाल दो । अर्थात् सुख साहिबी में उसे यह भी पता नहीं कि राजा क्या वस्तु है ? (४) नंदराजाओं ने अपने द्रव्य को भूमि में दबवा कर उनके ऊपर पांच स्तुप बनवाये थे। जिसको शृंगवंशी राजा पुष्पमित्र ने खुदवा कर द्रव्य निकाल लिया था। वह अपार द्रव्य था । (५) चंद्रगुप्त मौर्य ने पीत सुवर्ण नहीं पर श्वेत सुवर्ण की मूर्ति बनवाई थी जिसको सम्राट सम्प्रति ने अर्जुनपुरी (गंगाणीग्राम ) के मन्दिर में प्रतिष्ठा करवाई थी। (६) महाजन संघ को देवी ने वरदान दिया था कि "उपकेशे बहुल्यं द्रव्यम्" । (७) सम्राट सम्प्रति ने सवालक्ष नये मन्दिर और सवा करोड़ मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई थी। (८) महाजन संघ का इतिहास बतला रही है कि इन महाजनों ने सवर्णमय बड़ी २ मूर्तियों को बना कर प्रतिष्ठा करवाई थी तब कई एकों ने हीग पन्ना माणक स्फटिक रत्नों की मूर्तियां बनवाई थीऔर कई स्थानों पर अद्यावधि विद्यमान भी है जो विधर्मियों की लूट से बच गई थी। (९) महाजन संघ के पास के द्रव्य का हिसाब तो बृहस्पति भी नहीं लगा सकता था वे शाह ख्याति में लिखे हुये कार्य किये हों उसमें शंका करना महाजनसंघ के उस समय के इतिहास के अनभिज्ञों लोगों का ही कार्य है। ___ इतना विवेचन करने के पश्चात् अब हम प्रस्तुत शाह ख्याति पर कुछ ऐतिहासिक प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे कि इसमें थोड़ा बहुत ऐतिहासिक तथ्य है या नहीं ? ऐतिहासिक दृष्टि से ७४|| शाह की ख्याति में प्रत्येक शाह के लिये कम से कम पाँव पाँच वातों पर विचार किया जाय । यथा शाह का नाम २ शाह की जाति ३ शाह के नगर ४ समय और उनके किये हुये ५ शुभ कार्य । जिसमें नाम के लिये तो बहुत से नाम ऐतिहासिकहैं जैसे:-शाहसोमा, शाइसारंग, शाहदेशल, शाह सामंत, शाहविमल, शाहवस्तुपालतेजपाल शाहगोशल, शाहसभरा, शाहपेथा, शाहपेथड़, शाहपुनड़, शाह पाता, शाहरावल, शाहरावण, शाहराणा, शाहखेमा, शाहभोमा, शाहमीमा, शाहभैसा, शाहगधा, शाहलूना, शाहथेरुक, शाहधवल, शाहधरण, शाहकल्याण, प्राचीन समय के कई उदाहरण १२७७ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८.८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शाहनारायण, नेतासीशाइ, खेतमीशाह राजसी, शाहजाबड़, शाह जगहू, शाहराका, शाहपद्मा, इत्यादि पूर्वोक्त शाहों के नाम अन्य स्थानों पर भी मिलते हैं । इनके अतिरिक्त और भी कई नामख्याति में हैं उनके लिये भी हम शंका नहीं कर सकते क्योंकि करोड़ों की संख्या में उस समय महाजनसंघ थे तब उनके नाम भी कुछ न कुछ होंगे ही । जब हमें अपने पूर्वजों की पांच सात पीढ़ियों के सिवाय नाम भी स्मरण नहीं हैं तो शाहों के नामों के विषय की शंका करना तो निर्मूल ही है। हां अर्वाचीन लेखकों ने नामों के अन्त में मल चन्द राजादि शब्द जोड़ दिये हो इसको अर्वाचीन लेखन पद्धति ही समझना चाहिये । दूसरी बात जाति की है उस समय महाजनसंघ में जातियों की सृष्टि हो गई थी उस की गिनती भी नहीं थी और जो जातियां ख्याति में लिखी हैं वे जातियां ठीक हों तो भी कुछ कहा नहीं जा सकता । अतएव यह शंका भी निर्विवाद अस्थान है । तृतीय बात है शाहों के निवास नगरों की । इसके लिये इतना विचार हमें अवश्य करना पड़ेगा कि कई प्राचीन नगर तो विधर्मियों के आक्रमण से नष्ट हो चुके हैं और कई एक नगरों के नाम अपभ्रंश होकर बिल्कुल ही बदल गये । और कई प्राचीन नामों के स्थान नये नगर बस गये और उनके नाम भी वही रक्खे गये हैं जो प्राचीन थे। अतएव नगरों के विषय में ऐसी कोई बाधक शंका नहीं उठती है । चतुर्थ बात है उनके समय की यह बात अवश्य विचारणीय है क्योंकि ख्याति में जो समय अंकित है वह कुछ थोड़े नामों को छोड़ कर प्रायः सब काल्पनिक हैं। एक यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि एक ही जाति में एक नाम के अनेक महाजन हो जाने से भी समय लिखने में गड़बड़ी हो जाती है । और ऐसी गड़बड़ केवल इन शाहाओं की ख्यात के लिये ही नहीं किन्तु अन्य भी ऐतिहासिक प्रन्थों में भी दृष्टिगोचर होती है जैसे कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्रसूरि रचित परिशिष्ट पर्व प्रन्थ, प्राचार्य प्रभाचन्द्रसूरि का प्रभाविक चरित्र, प्राचार्य मेरुतुंग सूरि रचित प्रबन्ध चिन्तामणि, प्राचार्य जिनप्रभ सूरि रचित विविध तीर्थ कल्पादि प्रमाणिक ग्रन्थों में भी समय के विषय कई स्थानों पर त्रुटियां मालूम होती है इसका मुख्य कारण घटना समय के सैकड़ों वर्ष पश्चात् ग्रन्थ लिखे गये हैं इस हालत में ख्याति में समय की त्रुटियां रह जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । पर समय के रद्दोबदल हो जाने पर भी वह घटना कसित नहीं कही जा सकती है हां अन्य साधनों द्वारा संशोधन कर उसको ठीक व्यवस्थित बनाना हमारा कर्तव्य है और हमने इस विषय में कुछ प्रयत्न भी किया है जैसे बहुत से आचार्यों ने सांवत्सरी पांचवीं के स्थान में चतुर्थी को करने वाले कालकाचार्य को बीर की दशवीं शताब्दी में होना लिखा है वास्तव में वे कालकाचार्य वीर की पांचवीं शताब्दी में हुये थे इसी प्रकार एक नाम के एक नहीं पर अनेक शाह हो जाने से समय का रहोबदल हो ही जाता है। एक समय को ठीक संशोधन कर लिया जाय तो शाहका नाम तथा जातिका भी पता लग जायगा कि उस समय वे जातियाँ अस्तित्व में आ गई थी ? या नहीं ? तथा नगर का भी पता लग जायगा कि उस समय यह नगर था या नहीं ? अर्थात् इन शाहाओं की ख्यातों का ऐतिहासिक तथ्य केवल एक समय पर ही निर्भर है अतः सब से पहले हमको सगय की ओर लक्ष देना चाहिये । अर्थात सब से पहले समय की शोध करनी चाहिये इसके पश्चात् पाँचवीं बात है शाहओं के कार्यों की। इसके हेतु यह समझना कठिन नहीं है कि उस समय जैन समाज में जैनमन्दिर बनाना, तीर्थों के संघ निकालना, संघ पूजा करना, न्याति जाति को अपने घर आमन्त्रित करना इन कार्यों में संघ को पहरावनी (प्रभावना) देना जिसमें अपनी शक्ति के अनुसार कोई भी कमी नहीं रखते थे क्योंकि उस समय इन बातों का बड़ा भारी गौरव समझा जाता था। शक्ति के होते हुये पूर्वोक्त कार्य में १२७८ ऐतिहासिक कसौटी और ख्याति Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१७३७ से कोई भी कार्य कर अपने श्रापको वे कृतार्थ सप्रमते ये । ख्याति का समय तो बहुत प्राचीन कालसे प्रारम्भ होता है परन्तु गोडबाड़ प्रान्त में तो इस बोसवीं शताब्दी तक भी अपने घर पर प्रसंग श्राने पर ५२ प्राम ६४, ७२, ८४ तथा १२८ प्रामों के महाजनों को आमन्त्रित किये जाते थे और प्रभावना-लहण-पहरावणी में लड्डुओं के साथ पीतल के बर्तन तथा वस्त्रादि दिये जाते थे कई २ चांदी के बरतन भी देते थे तब उस प्राचीनकाल में सुवर्ण दिया जाता हो तो आश्चर्य की कौनसी बात है ? क्योंकि उस समय लोगों के पास नीति न्याय और सत्यतासे उपार्जित द्रव्य ही आया करता था और यह ऐसे ही शुभ कार्यों में लगता था। कई लोगों ने मन्दिर के लिये भूमि पर रुपये बिछवा कर रुपयों के बराबर भूमि ली थी तब कई एकों ने एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक रुपयों के छकड़े के छकड़े जोड़ देने की उदारता दिखलाई थी। सब से उत्तम बात तो यह थी कि उस समय के लोगों के चित्त में पुण्य नाश का कारण माया कपट और तृष्णा बहुत कम थी और देव गुरु धर्म पर उनकी अटल एवं पूर्ण श्रद्धा थी। वे यही समझते थे कि लक्ष्मी स्थिर नहीं पर चंचल है इसे जितनी शुभ कार्यों में व्यय की जाय वही अपने संग चलेगी अतः वे लोग येनकेनप्रकारेण जहां सुअवसर देखा लाखों करोड़ों द्रग शुभ कार्यों में व्यय कर दिया करते थे फिर भी समय २ की रुचि और प्रवृत्ति भिन्न होती हैं, जैसे वर्तमान में विद्यालय तथा औषधालय श्रादि प्रचार को अधिक महत्व दिया जाता है और इन कार्यों के लिये आज भी लाखों करोड़ों का व्यय किया जाता है । (अवशेष) वैसे ही उस समय मन्दिर बनाने यात्रार्थ संघ निकालने न्याति जाति के लोगों को अपने घर पर बुलवा कर उनका सत्कार सन्मान एवं पूजा कर लहण एवं पहरावणी देना तथा याचकों को पुष्कल दान देने में ही वे लोग अपना गौरव समझते थे । वास्तवमें वे लोग अपने कल्याण के साथ दूसरों का भला भी करते थे अतः इसके अलावा गौरव की बात ही क्या हो सकती है। वर्तमान में हमारी समाज में ऐसे विद्वानों (।) की भी कमी नहीं है कि प्राचीन प्रन्थ पदावलियों बंशावलियों की बातों को ऐतिहासिक साधनों की आड़ लेकर कल्पित ठहरा देते हैं। यदि वे विद्वान थोड़ा सा कष्ट उठा कर ठीक शोध खोज करें तो उनको पता मिल जायगा कि हमारे पूर्वाचार्यों ने लिखा है बह ठीक यथार्थ ही है और विशेष सोध खोज करने पर उन बातों के लिये इतिहास का भी सहारा मिल जायगा पर परिश्रम करने वाला होना चाहिये । इतिहास के विषय हम अन्यत्र लिखेंगे। इस समय ७॥ शाहात्रों की मेरे पास पांच प्रतियां विद्यमान है उनको अलग २ न छपा कर एक ही साथ नम्बरवार छपा देना उचित समझा है कारण ऐसा करने से एक तो पाठकों को एक ही स्थान पांचों प्रतियां पढ़ने की सुविधा मिल जायगी दुसरा एक ही समय में किस २ प्रान्त में कौन कौन शाह हुआ, तीसरा कौन शाह केसा मान्य हुआ और किस शाह का नाम सब प्रातियों में मिलता है और किस २ ने या २ सामान एवं विशेष काम किया इत्यादि। अन्त में मैं यह आशा करता हूँ कि इन ख्यातों द्वारा प्राचीन समय के महाजन संघ का समृद्धशाली पना तथा उनकी उदार भावना देख कर उनकी संतान को गौरव रखना चाहिये कि हमारे पूर्वजों ने किस किस मौलिक गुणों से धन राशि सम्पादन की थी और परोपकार के लिये उस सम्पति का किस प्रकार सदुपयोग किया था । उन गुणों के अभाव हमारी कैसी पतित दशा हुई है ? यदि अब भी हम चाहें तो उन गुणों को हासिल कर हमारे पूर्वजों के पंथ के पंथिक बन कर वे ही कार्य कर सकते हैं ? खैर इन ७४॥ शाहाओं की ख्यातों को पढ़ कर सद्भावना से अनुमोदन करेगा तो मैं मेरे परिश्रम को सफल हुआ सममूंगा । Jain Eestiuit aanzet 751 TTIETIE A1FT १२७९ary.org Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] शाद प्रति नंबर नंबर १ २ ४ ५ ६ mr 30 5 २ ३ ४ ५ ३ ४ ५ १ mr xs २ ३ ४ ५ ४ शाह नाम शाह श्रीपाल Jain Edu??ernational "" "" "" 13 19 ,י "" 29 S "" 39 99 222222: " " नरबद गोदो " 33 "" 39 "" "" 25 " "" 39 39 59 "" "" "" धन्नो पर्वत जालो बरधो 33 राघो नों पातो सावंत "" सो दुर्गो निंबो 123 دو धरण लाख‍ भैसो "" 33 सांगो "" धर्मो समरो 33 ,, पुनड़ पिता का नाम हाप्पासा "" 35 गिरधरसा दीरमसा करथासा घोरासा " वासासा रावलसा देवासा पातासा जैतासा जोधासा " दासासा जोगासा थोभा " " नागासा सारंगसा खद्दरथासा "" " आदूसा ... लाखासा आदूसा पेथासा [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जाति का नाम श्रादित्यनाग 53 " श्रेष्ठितोत्र सुचंतिगो० बप्पनाग ! तप्तभट्टगो० 27 मोरक्षगो० वाइगो० प्राग्वट "" श्री श्रीमाल चरड़गो० 27 विरहट भद्रगो० चिंचटगो० "" 59 श्रेष्टिगो० कुलहटगो० आदित्यनाग "" प्राग्वट कुम्मटगो० 17 सुचंति कनोजिया लघुश्रेष्ट नगर का नाम उपकेशर 93 35 सत्यपुरी माडव्यपुर डिडूनगर भीनमाल " नागपुर श्राभापुरी पद्मावती " कोरंटपुर श्री घाटनगर "" खटकूपनगर मेदिनीपुर चन्द्रावती "" "" भद्रावती नारदपुरी डिडूनगर "" "" पल्हिका 21 सत्यपुरी उपपुर " 99 वि० सं० १११ १ "" 39 15 23 39 "" " 93 19 " " "1 "" "" "" "" 12 "" 11 समय 33 "1 31 19 11 "" 17 "" कार्य ११५ २ १२७ ३ १३३ ४ १३५ ५ १४१ ६ १४२ ७ १४९ । ८ १५६ ९ १५९ १० १६२ ११ १६७ १७४ १२ १७८ १३ १९१ १४ 17 59 १९८ १५ २०३ १६ २०९ १७ २२१ १८ २२९ १९ " २० 35 २४४ २१ २४८ २२ For Private & Personal Use Onl शाहाओं ख्याति का नम्बरवार नाम Wainelibrary.org Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ शाइ प्रति नंबर नंबर शाह नाम पिता का नाम जाति का नाम नगर का नाम समय कार्य शाह सारंग श्रीपाल ऊकारमा श्रोटासा लुंगगोत्र कुलहटगोत्र उज्जैन मांडवगढ़ वि. सं. , चाहड़ " २६६ भूतासा शोमासा अगरी सुघड गो० वप्पनाग चोरडिया पद्मावती शंखपुर चंदेरी चापट भोलापा .. २७७ हाप्पाश कर्णाट गो० सत्यपुरी शेरासा. भूरि गोत्र नांदावतो 50 भोमो कदर्पिसा घटियागोत्र विराटनगर "३२२ -r03 03-03rm 03-rrrrrs , मुंजल , लाखो ब्रह्मदेव खूमाणसा डिडू गो. अदित्यनाग पल्हिकापुरी नागपुर "३३२ , लाघो , मुशल मोकलसा लाहुसा सुचंति श्रीश्रीमाल माडगढ़ रत्नपुर ३३९ ४० ३ " डुगर , जहण भैरूसा रांणासा भादासा गोमासा मुग्धपुर पद्मावती " ३४३ समदड़िया पोकरणा कुम्मट प्राग्वट कोरंटपुर "सर राणा ३ शिवपुरी ५८ विजो भोजपुर "३३८ ३० " धवल रत्नासा गोशलसा लाघासा चरड़गो० भूरिगो० अदित्यनाग वीरपुर उपकेशपुर "वीरम २८८ " _७४॥ शाहों की ख्याति १२८१ Jain Education www.dainelibrary.org 0:0 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास | प्रति चाहनाम नंबर पिता का नाम जाति का नाम नगर का नाम सभय ه गोविन्दसा | चोरड़िया देवपाटण वि० सं० ३९१ ४२ ه س शाह अचलो " " " " , ठाकुर बालो लालो ه जगासा जैसिंहसा पैथासा م मोरक्ष देसरड़ा श्रेष्टिगो० जावलीपुर भीनमाल م शिवगढ़ م م तप्तभट्ट शंखपुर भीमदेव धरमो धन्नासा केसासा ه विरहटगो० उपकेशपुर م م भाजो करणासा नाहटा धोलागढ़ م " س जैतासा भुरंट माडव्यपुर ه م राजपुर बालकिस० हापुसा मुकनासा कुम्मट तातेड م विजयपुर م س रावलसा कनोजिया कनौज ه م गोकलसा चोरडिया मारोटकोट مه له سه लाधासा करणावट | कीराटकूप ه م م निरमल - सदासुख गुलच्छा नागपुर ع " س ه ४ , नाथो भेसो गमनासा रोडासा प्राग्वट चन्द्रावती आदित्यनाग भवानीपुर , ५०३ ५६ , ५.८५७ م vWRanavAAAAAYwww Prevere १२८२ Jain Eddation International ७४॥ शाहाओं की ख्याति Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरी का जोवन ] शाह प्रति नंबर नंबर १९ २० २१ १ | शाह राजसी om 20s २ ~20 २ ३ ४ 20 5m 20s on 20 s ५ २२ १ २ ४ ५ २३ १ २ २४ १ ३ 39 33 "" "" 37 39 19 "" "" 19 == 29 " " 99 99 99 99 " 32 " 19 15 "" == " 19 शाह नाम 99 53 "" नरपत्त देशाल ऊमो सोमो 37 नैनो 19 अगरो 39 डुगर "" 99 39 आखो 19 मण्डन 99 23 अगरो 59 ५ रोड़ो "3 लादण 35 शोभन पिता का नाम सारंगसा "" जसासा पातासा कोलासा कैसासा 39 विमल करमणसा 39 19 जैतासा दुर्गा डाबरसा "" 91 36 ७४ || शाहाओं की ख्याति - "" 11 19 नोंघसा 13 यशोवीर "" 32 मोतसा 99 लुँबासा "" साहरणसा "" धवलसा जाति का नाम करणावट "" 29 श्री श्रीमाल गान्धी विग्हट चरडगो० 39 वर्धमाना 33 पोकरणा "" कांकरिया 33 "9 મંદિ - 39 59 तातेड़ 33 प्राग्वट 97 " गोलेच्छ 29 शंका "" श्रीमाल " भटेवरा [ओसवाल सं० १९७८-१२३७ नगर का नाम खटकूप 39 99 भीनमाल टेलीपुर चित्रकोट ऊकारपुर " जाबलीपुर "" देवकीपाटण 99 चंदेरी "" " मेदिनीपुर 39 73 चन्द्रपुरी "" चन्द्रावती : 27 "" जोग! पुर "" वल्लभोपुरी 33 शिवपुरी " कोरंटपुर समय वि० सं०५१६ ५८ 29 SSSSSS 39 19 " . 19 99 "" "3 35 39 23 ==== : "" 99 " 39 "" "" "" 29 " 39 22 " " 93 "1 ५३४ ५५२ ५६५ ५७० 35 ५७२ ," ५९० 39 39 ६०१ 99 99 ६०३ "1 ६०७ " 39 ६१३ कार्य 31 ६२९ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० 19 ६३७ ७१ " ६५० ७२ १२८३ www.ainerbrary.org Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शाह प्रति मंवर नंबर शाह नाम पिता का नाम जाति का नाम नगर का नाम समय शाह भारमल देदासा जंघड़ा मालपुरो चान्दो पोमा सलखण मामण घीरा सा पदमा सा हीरा सा पोखर सा कुलहट नाहटा तातेड़ पारख मालपुरा अघाटनार पद्मावती उपकेशपुर दीपा सा कनोजिया माडव्यपुर प्रज्जड चोखा सा प्राग्वट नाणापुर तिलोक करमा सा कंकरिया ब्रह्मपुरी arms rrrror arros rrrrrrrrrrros अजरो विनो खेतसी साहरण सा भुरंट चोरलिया लोद्रबापुर नारदपुरी गोखरू विमल वागो अखो दोला सा जैता सा भोजा सा ढेलीवाल आयोध्या० जाबलीपुर अजयपुर तोडियाणी a संचेती धरमो गमो चतरा सा , नवला सा जोगा सा भारमल सा पोकरणा केसरिया श्रेष्टि चित्रकोट सत्यपुरी ਦਵੜੈਚ चंदेरी TAV खेमो खीवसी सा कुम्मट माडवगढ - Jain E१२८४mational ७४॥ शाहोंकी ख्याति ary.org Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककक्सूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ शाह प्रति नंबर नंबर शाह नाम पिता का नाम जाति का नाम नगर का नाम समय कार्य लालासा - सुंचंति उपके शपुर चैनासा तौलो ,, कानड़ | श्री श्रीमाल | शीतल पुर आर्य गोत्र गोसलपुर भावुजीसा " or morm or r0. 1 , थोमण कर्मासा चंडालिया अर्जुनपुरी " "" नरसिंह दीपासा सुघड़ पुरनगर कांनसा छाजेड़ भीन्नमाल शाह रांणो खेतासा चोरडिया पालिहका शाह रासो जोरासा आर्य देवपट्टन 05 or शाह शंकर कानासा धाकड़ नागपुर शाह श्रासो सांगासा देसरड़ा उपकेशपुर शाह कल्याण शाह लालो एकलंगसा सांडासा कांकरिया चंडालिया आभापुरी रत्नपुर norm 01 शाह नन्दो हरबुसा श्रेष्टि गो० हंसावली " ९१७ १०३ E७४॥ शाहाओं की ख्याति- For Pivate & Personall १२८५ www.jaiternorary.org Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७) [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शाह प्रति नंबर नंबर शाह नाम पिता का नाम जाति का नाम नगर का नाम समय शाह दामोदर कोलासा सुघड़ उज्जैन वि. सं. ९१९ १०४ , धरमशी लोद्रवा मांडासा खूबासा गुलच्छा भटेवग जैतलपुर मोकमसा गंणवत बुन्दी पटण सेरासा ताते नागपुर " " भादासा बाफरणा पाली orr03-rrrrrrrrrrrrrror com कल्यण देदासा आर्य | वीरपुर श्रासासा प्राग्वट करणावती सहजासा छाजेड़ माडव्यपुर १००२ राजसी दैपालसा श्रीमाल कुन्तीनगरी हंसासा ढेलड़िया देवपटण आ नंनगसा पारख अपहल पटण " १०३६ ११४ " Jain E t ernational ७४॥ शाहाओं की ख्याति y.org Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ शाह प्रति नंबर नंबर शाह नाम पिता का नाम जाति का नाम नगर का नाम समय कार्य शाह रावल करणासा कुंकुम शाकम्भरी वि. सं. १०४४ ११५ गंका " लाढ्द , विमल डूगासा वरघासा अजयपुर शाकम्भरी संचेती ,, १०६३ ११६ , १०७०११७ मंत्री विमल वीरासा प्राग्वट पाटण ___१०८० ११८ " " or or or or or or or or orar rosorror खरथासा चोरडिया डिडवाना ११००/ ११९ गधासा राहूल करण मालाशा ठाकुरसा डुगासा वाफना वोत्थरा घटिया डिडवाना नागपुर जाबलीपुर " , १२० , ११२२ १२१ , ११२८/१२२ " " " घोकल मोकासा सालेवा कोरंटपुर , ११४२ १२३ " पातो कुसलासा सुरांणा खपुर , ११५३ १२४ sorrors or arror " धवल भैसासा गादइया भीन्नमाल , ११.८ १२५ , भुतो भारमलसा . । नाहट | सोजालो " ११७३ १२६ ७४॥ शाहाओं की ख्याति १२८७ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] शाह प्रति नंबर नंबर ४९ १ २ ५० ३ 20 १ २ ३ ४ ५ ५१ १ २ ४ ५ ५२ १ २ ३ ४ Sorm 20s 20 ५३ १ २ ३ ४ ४ ५ शाह मोडीराम =============== "1 33 "" " " " खूबो " "" 35 "" "" भीम " कुम्भो "" 36 " शाह नाम "" "" "" "" भैरू 91 31 "" " चोखो " मोभण Jain Educatorational " "" पारस ५ ५४ १ २ ३ 39 "" ऊमो "" धन्नो घोरीदास " चतरो 91 " " सादो "" " 35 " ," "" पिता का नाम भावजीसा 12 हरजीसा 27 51 पांवासा 93 नाथासा 25 कानासा 35 मेरा धवलसा ," 99 सांगासा 99 गोकलसा 36 सेगसा गुमनसा 36 59 खेमासा " रूपासा "" " ار " जाति का नाम सालेचा "" लोढ़ा " " हरणा " वागडया "" छावत " सुरवा चोरलिया 16 [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 13 गुरुड ا, 35 कंकरिया " 39 नेपाला गन्धी "" सुरांणा 99 "" बोरवरा 99 "" "" नगर का नाम नाणपुर 93 विजयपुर " 33 शिवपुरी 33 भवानीपुर "" पाली "3 पाट नागपुर 19 "" फल वृद्धि " शिवगढ 99 राजपुर डामरेपुर 93 15 घाटनगर "" पद्मावती "" "" 97 95 "" वि.११२२ १२७ 31 "3 " "" " 35 93 "" 35 31 59 " समय 29 "" "3 " 35 "" "" ") 35 " " 11 " " 39 " "" ११३४ १२८ 33 "" ११४५ १२९ " 33 59 ११६४ १३१ "; " १९७२ १३२ ११७८ १३३ कार्य 39 १९८१ १३४ 95 १९९४ १३५ " 21 १. ९९ १३६ | "" १३० 31 १२२१ १३७ 19 39 १२४१ १३८ 11 " 19 ७४ || शाहाओं की ख्याति Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] शाह प्रति नंबर नंबर ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ w १ शाह वछो २ ३ ४ ܘ ܕ 13 30 5 on m २ Do so ४ ५ २ m S rm 20s on ४ ∞ to " "" 33 "" 39 ५ समरो वस्तुपाल तेजपाल १ ≈ 3 27 12 "" " "" " "" 4 "" "" 93 "" 33 23 22 " S 66 39 " " "" 12 शाह नाम "" 27 33 भोजो " गोघो " "" फूसा "" 4 23 "" "" पुनड़ "" 33 भैसो " सांखला "" सहदेव 35 22 धरण जगडु "" "" 25 Jain ७४ ॥ शाहों की ख्याति पिता का नाम शेरा साह 35 गोविन्दसाह "" रूपाशाह 35 29 मयाराम साह 35 सालगसाह आसराज 77 "3 "" 99 नारायण साह 35 " करणासाह " सुन्दर साह 19 अड़कमल साह "" "1 कानासाह सरदासाह 11 23 " जाति का नाम देसरडा "" धाड़ीवल "" खीसरा "3 55 रातडिया "" भंडारी प्राग्वट "" "" " "" वरदया 22 55 " चोरड़िया " करणावट 99 लोढ़ा ! " " श्रीमाल श्रीमाल " "" 29 [ ओसवाल सं० १९७८ से १२३७ नगर का नाम डूंगरपुर "" "2 खटकूप 25 " सोजाली "" नारदपुरी पाटण " "" "" "" नागपुर "3 55 नागपुर "" मेदनीपुर "" रुणावती "" "" भद्रावती भद्रावती 19 "" "" | वि० सं० १२५२ १३८ "" "" "" == 121 " " "" "" 33 "" "" "" समय "3 "" " "2 "" "" "" "" 33 " "" "9 13 55 १२५९१३९ "" १२६० १४० १२६३ १२६५१४१ १२७२१४२ १२८५ १४३ 11 "" 29 "" कार्य १२८७ १४४ "2 35 १२९३ १४५ "1 १३०७ १४६ "" १३०९१७ 23 32 "1 ," १३१० १४८ "" 1220 १३१३ १४९ " ww२२ary.org Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मति शाहनाम पिता का नाम जाति का नाम नगर का नाम नंबर सभय शाह खेमो देवासा हडाणा श्रीमाल होडला वि.सं० १३१५/१५० " " به س शाह लुणासा टोटासा आर्य गुढ़नगर ” १३५०१५१ ه م م शाह देशल गोशलसा वेदमहता पालनपुर " १३६. १५२ ع م ه م शाह समरो देशलशा वैदमहता पाटण م م سم ه م م शाह रतनो कुशलासा भंडारी नागपुर " १४००१५४ " م س शाह तेजपाल हरखो ऊकारसा चन्द्रभाणसा सावंतसा प्राग्वट सुगंण नक्षत्रगो० पाली नागपुर उज्जैन १४३२/१५५ " १४६५ १५६ १४८६१५७ ه م م सुगाल " م س " देतो जैतसीसा सालेचा मथुरापुरी ه م م टीबो नाथासा कटारिया विराटपुर " डाबर थानासा वरडिया सिरोही م س به م " Jain Ed amational ७४॥ शाहों की ख्याति Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ प्रति शाह नंबर शाह नाम पिता का नाम | जाति का नाम नगर का नाम समय कार्य नंबर L مم शाह दलपत " कल्याण देशलसा जीतमलसा संखलेचा कोचर मालपुर मांडव्यपुर वि. सं. १५६३/१६१ " १५६६१६२ م س ه " م चांपक م साचू नेणासा गोरखसा धनासा जैतासा भंशाली पामेचा कटारिया वैदमहता मंगलपुर देहली सत्यपुरी शुभटपुर , १५७०१६३ १५८२१६४ १५९११६५ १६०११६६ ع राणू पातो س ه " १६०७/ " १६७ م गुमानसा पोकरणा पद्मावती مه समरथसा गुलच्छा फल वृद्धि ع س " " x " सुखो م मालासा भंडारी भैरूसा मुनोयत मोखमसिंह सा| चंडालिया पाली लौद्रवा धारानगरी १६०८/१६८ १६०९१६९ , १६१४१७० " पृथ्वीराज م م س सिरोही शाह हाथी शाह करमचन्द लुंबासा संप्रामसा लोंकड़ वच्छावत बीकानेर १६१६१७१ , १६३५/१७२ ه م शाह भोमो भारमलसा कावड़िया उदयपुर , १६४२१७३ ~ orms शाह सूरा सेरासा सुरपुरिया , १६४४/१७४ " " or orm शाह थेरू भंडासाली जैसलमेर , १६६५/१७५ - E७॥ शाहों की ख्याति १२६.१ brary.org Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] । भगवान पाश्वनाथ की परम्परा का इतिहास शाह प्रति नंबर शाह नाम पिता का नाम जाति का नाम नगर का नाम समय शाह हेमराज गोकुलशाह सुराणा देहली वि०सं०१६७० १७६ م م س " " पर्वत कैसाशाह गादइया , १६७२ १७७ ه م م م س धूनाड़ा " जाबलीपुर अलवर वासा हंसराज हरखाशाह भीमाशाह हथुडिया वैदमहता , १६७९ १७८ १६८९ १७९ प्राग्वट पाली सांगाशाह पद्ममाशाह १७०१ १८० १७१६, १८१ जीतो मांडोत | उज्जैन ه م م नरसिंह खेताशाह गेललाहा मुर्शदाबाद १७३२ १८२ م ه ه م कोष्टक में अन्तिम कोष्टक कार्य का है और उसके नीचे जो अंक रक्खे गये है वे फूटनोट के हैं और तदनुसार शाहात्रों के किये हुए कार्य क्रमशः अंकानुसार फूटनोट के तौर पर लिख दिया जाता है । १-दुष्काल में अन्न वस्त्र घास देकर देश सेवा की तथा तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला और संघ पूजा कर साधर्मी भाइयों को एक-एक सुवर्ण मुहर की लहण दी। २-चौरासी देहरिया वाला मन्दिर बनाकर सुवर्ण कलश चढ़ाया प्रतिष्ठा में सकल श्रीसंघ को बुलाकर तीन बड़े यज्ञ (जीमणवार ) कर संघ पूजा कर पहरामणी दी। ३-सर्व तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला। चतुर्विधश्रीसंघ के साथ यात्रा की। तीर्थ पर ध्वजारोहण कर बहत्तर लक्ष द्रव्य में संघमाला पहरी । संघ पूजा कर एक-एक मुहर दी। ४-आपको चित्रावल्ली मिली थी। जिसके प्रभाव से ८४ मन्दिर प्रथक् २ स्थानों में बनाकर प्रतिष्ठा कर वाई । सर्व तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला । संघ पूजा में एक-एक सुवर्ण थाली में रख लहण दी। ५-पांचबार यात्रा संघ निकाला पृथ्वी प्रदक्षिणा दी। समुद्र तक सर्वत्र साधर्मी भाइयों को वस्त्र तथा लाढू में एक-एक सुवर्ण लेहण में प्रदान कर नाम कमाया। ६-प्रदेश से केसर की बालद आई थी जिसको मुंह मांगा मूल्य देकर सर्व मन्दिरों में अर्पण करदा तथा चार बार संघ को घर पर बुलवाकर पूजा कर पहरामणी दी। Jain Edu१२९२mational For Private & Personal use Only ७४॥ शाहों की ख्याति.ary.org Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ७-श्री शत्रुजय गिरनार की यात्रार्थ संघ निकाला । तीर्थ पर दो मन्दिर बनाये । संघ को स्वामिवात्सल्य जीमाकर सात-सात सुवर्ण सोपारियाँ प्रभावना के तौर दीं। ८-भ० महावीर की १०८ अंगुल सुवर्णमय मूर्ति बनाकर नये मन्दिर में प्रतिष्ठा करवाई। दुष्काल में करोड़ों द्रव्य व्यय किया । संघपूजा में वस्त्र भूषण पहरामणी में दिये । ९-सम्मेतशिखरजी तीर्थ की यात्रार्थ संघ निकाल चतुर्विधश्रीसंघ को पूर्व देश की सर्व यात्रा करवाई वापिस आकर संघ पूजा कर एक-एक सुवर्ण मुद्रा लढ्ढ़ में डाल गुप्तपने लहण दी। १०-आपको देवी की कृपा से पारस मिला था । लोहे का सुवर्ण बनाकर धार्मिक एवं जनोपयोगी कार्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । संघपूजा कर साधर्मी भाइयों को सोने की कंठियाँ तथा बहिनों को सोने के चूड़े पहरामणी में देकर शासन की खूब प्रभावना की। ११-दुष्काल में मनुष्यों को अन्न वस्त्र पशुओं को घास दिया जिसमें सात करोड़ द्रव्य खर्च किया तथा चार बड़े तालाब, चार बावड़ियाँ और सात मन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई। १२- श्री शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला । संघपूजा कर सोने की सोपारियों की लहण दी। १३-सात बार श्रीसंघ को घर पर बुलाया भोजन करवाकर एक-एक मुहर की लाहणी दी। १४-सात आचार्यों को सूरिपद दिराया। श्री भगवतीजी सूत्र का महोत्सव पूजा करके व्याख्यान में बँचाया जिसमें पांच करोड़ द्रव्य व्यय कर शासन का बड़ा भारी उद्योत किया। ज्ञान भण्डार स्या० । १५-सम्मेतशिखरादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल चतुर्विधश्रीसंघ को यात्रा करवाई तथा जाते आते समय पृथक् मार्ग में समुद्र तक साधर्मियों को एक-एक सुवर्ण मुद्ररा की लहण दी। १६-केशर, कस्तूरी, धूप, कर्पूर की पुष्कल बालदों को खरीद कर मन्दिरों में अर्पण कर दिया । १७-शजयादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल कर भ० आदिनाथ को चन्दन हार अर्पण किया। १८-सम्मेतशिखरजी तीर्थ की यात्रार्थ संघ निकाल पूर्व की तमाम यात्रायें श्रीसंघ को कराई। वापिस आकर स्वामिवात्सल्य कर श्रीसंघ को वस्त्राभूषण पहरावणी में दिये।। १९- सत बड़े यज्ञ (जीमणवार ) किये संघ को घर पर बुलवा कर पूजा की एक एक मुहर दी २०-आपको गुरु कृपा से तेजमतुरी प्राप्त हुई थी जिससे पुष्कल सुवर्ण वनाकर तीर्थो का संघ निकाला नये मन्दिर बनाये जीर्ण मन्दिरों का उद्धार करवाया निराधारों को आधार दिया जैनधर्म के प्रचारार्थ करोड़ों का द्रव्य व्यय किया। संघपूजा कर सेर भर की थाली लहण में दी। २१- शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाल चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा करवाई । तीर्थ पर स्वर्णमय ध्वज दंड चढ़ाया। बावन जिनालय का 'दिर बनवाया। संघ पूजा कर पाँच पाँच मुहरें लहण में दी। २२-दुकाल में चौरासी देहरी का मन्दिर बनाया। सात तालाब सात कुए बनाये पुष्कल द्रध्य खर्च किया । और सात यज्ञ करवा कर श्रीसंघ की पूजा कर पहरामणी दी। २३- शत्रुजय गिरनार की यात्रार्थ संघ निकाला जाते आते सर्वत्र एक एक सुवर्ण मुहर की लहण दी । २४-सात आचार्यों को सूरिपद दिलाया जिसका महोत्सव व साधर्मी भाइयों को पहरामणी भी दी। २५- सम्मेतशिखरजी की यात्रार्थ संघ निकाल पूर्व की यात्रा की संघपूजा में पुष्कल द्रव्य व्यय किया। २६-शत्रुजय गिरनारादि की यात्रार्थ संघ निकाल चतुर्विधश्रीसंघ को यात्रा करवाई एवं लहण भी दी। ७॥ शाहों की ख्याति १२९३ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ } [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २७-तीन वर्ष तक निरन्तर दुष्काल में आपने खुले दिल से मनुष्य और पशुओं को अन्न वस्त्र एवं घास देकर अनेकों के प्राण बचाये जिसमें बीस करोड़ द्रव्य खी और संघपूजा कर लाहणी दी। २८-आपको एक महात्मा से स्वर्णरस मिला जिससे पुष्कल सुवर्ण बनाया अपने घर में सुवर्ण मन्दिर एवं रत्नमय मूर्ति स्थापन की सात तालाव सात वापि सात मंदिर सात वर संघ निकाले तथा साधर्मी भाइयों को सातवार घर पर बुला कर संघ पूजा कर सुवर्ण थाल प्याला पहरावणी में दिये २९-सम्मेतशिखरादि तीर्थों का संघ निकाला यात्रा की। संघ पूजा--सोने के प्याले पहरामणीमें दिये। ३०-चौरासी देहरी का विशाल मंदिर बनाया सोने की ९६ अंशुल की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवा संघ पूजा की जिसमें बढ़िया वस्त्र तथा एक एक सुवर्ण मुद्रा लहण में दी। ३१-दो दुकाल में अन्न वस्त्र घास दिया तथा चार तालाब चार कुवें चार मंदिर बनाये। संघ पूजा की। ३२-शत्रुजय गिरनार की यात्रार्थ संघ निकाल तीर्थ पर ध्वजारोहण बहुतर लक्ष द्रव्य में माला पहरी घर पर आकर स्वामिवात्सल्य कर संघपूजा पुरुषों को सुवर्ण कड़े स्त्रियों को सुवर्ण हार पहिनाये । ३३-एकादश आचार्यों के सूरिपद के समय महोत्सव-वीस करोड़ द्रव्य जैनधर्म के प्रचार में दिया। ३४-आपका व्यापार विदेशों में था एक नीलमणि लाये जिसकी मूर्ति बनाकर घर देरासर में स्थापना की ३५-दुष्काल में देशवासी भाइयों को अन्न वस्त्र पशुओं को घास देकर उनके प्राण बचाये पुष्कल द्रव्य खर्चा। ३६-तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल सकल तीर्थों की यात्रा की आते जाते समुद्र के अन्त तक साधर्मी भाइयों को एक एक सुवर्ण मुद्रिका लहण में देकर जैनधर्म का बड़ा ही उद्योत किया। २७-सात बार बड़े यज्ञ किये शिखरवन्ध मंदिर बना कर प्रतिष्ठाकरवाई बावन मण केशर की बालद भ० ऋषभदेव को चढ़ाई संघ पूजा कर पाँच पाँच मोहरें लहण में दी। २८-आशापुरी माता तुष्टमान हुई संघ निकाल यात्रा की समुद्र तक सब साधर्मियों को एक एक मोहर दी। २९-गुरु कृपा से चित्रावल्ली मिली बावनतसु सोने की मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा करवाई पराहवणी में मोहरें दी। ३०-सात बड़े यज्ञ किये ८४ न्याति घर पर बुला कर भोजन पहरामणी दी। तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाला पुष्कल द्रव्य व्यय किया । संघ पूजा करके पहरामणी दी। ३१-सकल तीर्थों की यात्रा कर संघमाला पहरी समुद्र तक एक एक सुवर्ण मुद्रिका लहण में दीनी म्लेच्छों के बंध में पड़े गरीब लोगों को करोड़ों द्रव्य देकर मुक्त कराये। संघ पूजा, तीन यज्ञ किये । ३२-चार बार चौरासी ऑगणे बुलाई ५ यज्ञ किये संघ पूजा कर एक एक मुहर लहण में दी। ३३-आपके पास पारस मणि थी लोहे का सोना बनाकर १०८ अंगुल सुवर्ण की मूर्ति बना कर प्रतिष्ठा करवाई सव तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला संघ को सोने मुहरों की पहरावणी दी। ३४-सकल तीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकाला संघपूजा कर छः छः सोना मुहरें लहण में दी। ३५-चार यज्ञ चार वार चौरासी अंगणे बुलाई पुरुषों को सोने की कंठियां बहिनों को सोने के चुड़े दिये । ३६--सर्व तीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकाला तीर्थ पर माला पहरी संघ को पांच २ मुहर प्र. में दी। ३७-चौरासी तालाब खुदवाये चौरासी मंदिर बनवाये राजा को प्रसन्न कर सर्वत्र जीव दया पलाई । ३८-दुकाल में अपना करोड़ों का द्रध्य देशहित अर्पण कर दिया सात बार संघ पूजा भी की। ३९-दुकाल में अन्न वस्त्र व घास दिया चौरासी देहरी का मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा में पुष्कल द्रव्य व्यय किया। ००० Jain Education international ७४॥ शाहों की ख्याति Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ४०-शत्रुजय तीर्थ के लिये संघ निकाला वहुत्तर लक्ष में ध्वजा चढ़ाई पाँच २ मुहरे पहरावणी में दी। ४१-सातवार चौरासी को आगणे बुलाय भोजन करवा सर्व तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला समुद्र तक __ साधर्मो भाइयों को एक २ मुहर पहिरावणी में दी । ४२-संघ निकाला मंदिर बनाये ८४०० मूर्तियों की अंजन सलाका करवा कर प्रतिष्ठा करवाई। ४३-पांच वार दुकाल को सुकाल बनाया सातबार तीर्थ का संघ निकाला सात सात मुहरों की लहण की। ४४-सर्व तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला चार बार चौरासी घर पर बुलाइ एक एक मुहर लहण में दी। ४५-पाँच वार दुकाल को सुकाल बनाया यात्रार्थ संघ निकाला । सघ पूजा कर पहरामणी दी। ४६-आपको पारस मिल जाने से घर सोने से भर गया १०८ सुवर्ण की मूर्ति सोने के थाल प्र. में दी। ४७- सर्व तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला ध्वजा चढ़ाई माला पहरी संघ पूजा मोतियों की कंठिया पहरा. मणी में देकर जैन शासन को प्रभावना की। ४८--राजा को खुश कर हिंसा बंद करवाई दुकाल में अन्न दिया धर्म प्रचार में वीस करोड़ धन व्यय किया सिंध के जैनों को. म्लच्छों ने पकड़ कैद कर दिया तब आपने १८ पाट सोने के देकर छुड़ाया देवी की कृपा से अक्षय निधान मिला-सघ पूजा की। ४९-शत्रुजय तीर्थका सङ्घ तीर्थ पर माला की बोली एक करोड़ द्रव्य खर्च कर माला पहरी सङ्घ पूजादि कार्य । ५०-आठ प्राचार्यों को पदवी दिलाई संघपूजा की जिसमें दश करोड़ द्रव्य व्यय किया। ५१- सर्व तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला म्लेच्छ के बंदी को छुड़ाया बीस करोड़ द्रव्य ---संघ पूजा की । ५२-चारबार चौरासी बुलाई शत्रुजय का संघ निकाला आठ आठ सोना मुहरें सर्वत्र पहरामणी में दी। ५३-आपके पास रसकुपिका थी जिससे पुष्कल सोना बनाया। सोने का घर देरासर रत्न की मूर्ति संघ पूजा । सिवाय गुरु के शिर न झुकाने से राजा ने वेड़ियां डाल कारागृह में बन्द कर दिया पर गुरू इष्ट से बेड़िया स्वयं टूट पडी । मन्दिर बनाया साधर्मियों को पहरामणी दी। ५४-तीन दुकाल में अन्नदान चौरासी देहरी वाला मंदिर बनाकर प्र० कराई संघ में पाँच २ मुहरें दी। ५५-सर्व तीर्थों की यात्रा तीनवार पृथ्वी प्रदक्षिणा दी संघ पूजा कर समुद्र तक लहण दी। ५६-सम्मेत शिखरजी की यात्रार्थ संघ निकाल पूर्व की सब यात्रायें की साधर्मी भाइयों को सोने का माला अर्पण की। संघ पूजा करके पहरामणी दी। ५७-गिरनार पर श्वे० दि० के चार संध आये एक करोड़ द्रव्य व्यय कर शाह पदवी प्राप्त की संघ पूजा में करोड़ द्रव्य व्यय किया। ५८-सर्व तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला संघपूजा स्वामिवात्सल्य कर दो दो मुहरें पहरामणी में दी। ५९-चार बड़े यज्ञ किये चौरासी मंदिर बनाकर १०००० मूर्तियों की अंजनसलाका करवाई ५ करोड़ द्रव्य व्यय किया। संघ पूजा कर पहरामणी भी दी। ६०-चौरासी न्यात को घर पर बुलाकर भोजन वस्त्र पाँच पाँच मुहरें लहण में दी। ६१-सम्मेतशिखर की यात्राथ संघ निकाल पूर्व की यात्रा स्वामिवात्सल्य संघपूजा पहरावणी में सुवर्ण । ६२-जैन मंदिर बनाकर सुवर्ण के तीन कलश ध्वज दंड चढ़ाकर प्रतिष्ठा संघपूजा पहिगमणी में मुद्रिकाएं । ६३ -- पूर्व के सव तीर्थों की यात्रार्थ संघ । अष्टापद के मंदिर में सुवर्ण मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई। ७४॥ शाों की ख्याति १२९५ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६४ - तीन दुकाल में अन्न घास दिया ८४ देहरी का मंदिर मूलनायक की सुवर्णमय मूर्ति बनाकर प्र० करवाई । ६५ - शत्रु जय गिरनार की यात्रार्थ संघ निकाला मार्ग में ८४ मंदिरों की नींव डरवाई वापिस आकर संघ भोज देकर संघ पूजा की । लड्डू के अन्दर एक एक स्वर्ण मुहर प्रभावना में दी । ६६ - दुष्काल में गरीबों को ही नहीं पर राजा महाराजाओं को अन्न वस्त्र पशुओं को घास दी विशाल मंदिर बनाकर सुवर्णमय मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई संघ को पहरामणी दी । ६७ - आचार्यों को सूरिपद दिलाया ४५ आगम लिखा कर अर्पण किये संघपूजा की पहरामणी दी । ६८ - तीर्थों का संघ निकाल सर्वत्र यात्रा की तीर्थ पर नौलक्ष मूल्य का हार अर्पण किया संघपूजा | ६९ - बीस बार यात्रा कर बीस मंदिर करवाया संघ को घर श्रांगण बुलाकर पूजाकर लक्ष्ण दी । ७० -- यात्रा करते हुये पृथ्वी प्रदक्षिणा दी सर्वत्र साधर्मियों के घर प्रति एकेक मुहर की लक्ष्ण दी । ७१ - सात बड़े यज्ञ किये सात मंदिर बनाये सात वार संघ निकाल यात्रा की पहरामणीभी दी। ७२ – सम्मेतशिखर की यात्रार्थ संघ निकाल चतुर्विधश्रीसंघ को पूर्व की यात्रा करवाई समुद्र तक एक एक मुहर की लहण दी संघपूजा कर पाँच २ मुहरों की पहरामणी दी । ७३–ग्लेच्छों ने गरीबों को कारागृह कर दिये करोड़ों द्रव्य देकर मुक्त करवाये बावन जिनालय का मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई संघ पूजा कर पाँच २ मुहरें प्रभावना में दीं। ७४ - आपके पास चित्रावल्जी थी जिससे आपका घर द्रव्य से भर गया आपने जनोपयोगी कार्यों में एवं धार्मिक कार्यों में पुष्कल द्रव्य व्यय कर पुन्योपार्जन किया ७ वार संघ पूजा की। ७५ - शत्रु जय गिरनार की यात्रार्थ संघ निकाला संघ पूजा एक एक मुहर पहरावणी में दी । ७६ – बावन मंदिर बावन तालाब कुए बावन मुसाफिरगृह बनाये सात बार संघ निकाले संघ पूजा वस्त्राभूषण और पाँच २ सुवर्ण मुद्रिकाएं पहरामणी में दीं। ७७ - ग्यारह श्राचार्यों को सूरिपद दिराया जिसका महोत्सव एवं साधर्मी भाइयों को पहरामणी दी तथा प्रत्येक आचार्य को ४५-४५ आगम लिखवा कर भेंट किये । ७८ - सम्मेद शिखरजी तीर्थ की यात्रार्थ संघ निकाले पूर्व के तमाम तीर्थों की यात्रा की वापिस आकर स्वामिवात्सल्य कर संघ पूजा कर एक एक मुहर पहरामणी में दी । ७९—जनसंहारक भयंकर दुष्काल में बिना भेदभाव खुले दिल से सर्वत्र दानशालाएं खुलवाकर अन्नवस्त्र घास दी । सात मन्दिर सात तालाब बनाये प्रतिष्ठा में संघ पूजा कर सात २ सुवर्ण सोपारियां संघ को पहरामणी में दीं। ८० - यात्रार्थ संघ निकाल कर सर्वत्र पृथ्वी प्रदक्षिणा देकर साधर्मी भाइयों को एक एक मुहर प्रभावना के तौर पर दी और स्वामिवात्सल्य कर संघ पूजा की । ८१ - बावन जिनालय बनाकर मूलनायक भ० महावीर की ९६ अंगुल सुवर्णमय मूर्ति बनाई जिसके नेत्रों के स्थान दो मणि लगाई जो रात्रि को दिन बना देती थीं संघ पूजा भी की । ८२-पांच वार तीर्थों का संघ, ८४ मंदिर प्रतिष्ठा में पांच २ मुहरें पहरामणी में । ८३ - जैनागमों की एक एक पेटी प्रत्येक प्राचार्य को दी संघ पूजा और पहरामणी दी । ८४ - तीन दुकालों में अन्नघास दिये सात यज्ञ किये। संघ पूजा कर पहरामणी दी । १२९६ ७४ || शाहों की ख्याति Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ८५-चार चौरासी सात यज्ञ ११ बार संघ निकाल संघ पूज कर पहरामणी दी। ८६-संघ निकाला सर्व यात्रा की सोने की सुपारियां पहरामणी में दी। ८७-चौरासी ज्ञानभण्डार स्थापना करके सर्व आगमों की पेटियां दी। ८८-सात बार तीर्थों के संघ, संघ पूजा एक एक मुद्रिका दी। ८९-शत्रुजयतीर्थ के मंदिरों का उद्धार पुनः प्रतिष्ठा करना सोने की ध्वजा चढ़ाई। ९०-केशर और कस्तूरी की वालद मंदिरों में चढ़ाई। ९१-सात वार चौरासी तीन बार संघ, मंदिर पर स्वर्ण कलश चढ़ाये । ९२-एक शत्रुजय एक गिरनार पर सोने का तोरण चढ़ाया माला पहराई । ९३-सम्मेतशिखरजी का संघ समुद्र तक सोना मुद्रा की पहरामणी दी। ९४-चौरासी देहरी का मंदिर संघ पूजा, पांच-पांच मुहरें पहरामणी में दी । ९५-दुष्काल में अन्नघास दिया, संघ पूजा स्वर्ण मुद्रिका दी। ९६-आपके पास पारसमणि थी, लोहे का सोना बनाकर संघ पूना की सेर की थाली पहरामणी में दी। ९७-सकल तीर्थों की यात्रा की संघ पूजा कर एक एक मुहर पहरामणी में दी। ९८-चौरासी देहरी का मंदिर बनवा कर स्वर्ण प्रतिमा स्थापन कराई संघ पूजा की । ९९-सात वार चौगसी घर श्रांगण बुलाई वस्त्राभूषणों की पहरावणी दी। १००-चार यज्ञ किये दुकालों को सुकाल बनाये ४ मंदिरों की प्रतिष्ठा की। १०१-आब और गिरनार पर मंदिर बनवा कर स्वर्ण कलश चढ़ाये संघ पूजा की। १०२-चार बार चौरासी न्याति घर आंगन बुलाई एक करोड़ द्रव्य व्यय किया । १०३-केसर की बालद ऋषभदेव के मन्दिर पर चढ़ाई और संघ पूजा की। १०४-जनसंहार और तीन वर्ष लगातार दुष्काल पड़ा पांच करोड़ रुपये व्यय किये । १०५-सात मन्दिर बनवाये स्वर्ण कलश ध्वजा दंड की प्रतिष्ठा और संघपूजा । १०६-एक बीस आचार्यों को सूरिपद । आगम लिखा कर दिये । संघपूजा को । १०७-श्रमण सभा करवाई । संघपूजा में सोने की कंठियाँ तथा याचकों को दान दिया। १०८-सात बार संघ निकाला यात्रा की संघ पूजा और एक मोहर दी। १०९-चार चौरासी घर बुलाई पहरावणी में सोने की सुपारियाँ दी। ११०-सकल तीर्थों की यात्रा मन्दिर बनवा कर यात्रा कराई और संघपूजा की। १११-दुकाल में अन्न घाम दिया सहधर्मियों के अर्थ एक करोड़ द्रव्य दिया। ११२-सम्मेतशिखर की यात्रार्थ संघ और संघ को पांच पांच मुहरें दी। ११३-केसर धूप कस्तूरी की गुणे मन्दिरों में चढ़ाई संघपूजा की। ११४-मन्दिर बनवा कर मूर्ति सुवर्ण की बनवाई नेत्रों के स्थान दो मणियां लगाई। ५१५-सर्व तीर्थों का संघ निकाल पृथ्वी प्रदक्षिणा की एक एक मोहर पहरावणी में दी । ११६-आपके पास चित्रावल्ली थी संघ पूजा और पच्चीस २ मुहरों की पहरावणी दी। ११७-तीन दुष्कालों में तीन करोड़, सात क्षेत्र में सात करोड़ द्रव्य व्यय किया तथा संघपूजा कर ७४॥ शाहों की ख्याति १२९७ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लड्डू के अन्दर पांच पांच मुहरें गुप्त रूप से सब साधर्मियों को दी। १९८-श्राप पाटणके राजा भीम के मुख्य सेनापति थे आपने अाबू के ब्राह्मणों से भूमि पर रुपये एवं सोने के पत्रे बिछवा कर भूमि प्राप्त की और उस पर भ० ऋषभदेव का मन्दिर बनाया जो अद्भुत एवं शिल्प का एक आदर्श ही है आज भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान उन मन्दिरों के दर्शन कर मुक्तकंठ से भरि भूरि प्रशंसा कर रहे हैं विमलशाह ने कई बार तीर्थों की यात्रा कर साधर्मी भाइयों को पहरावणी दी एवं जैन शासन का उद्योत किया । और अनेकों जनोपयोगी कार्य भी किये । ११९- श्राप पहिले गरीबावस्था में थे पर जैन शासन के पक्के भक्त एवं स्तम्भ थे गुरु कृपा से छाणे (कंडे) स्वर्ण बन गये जिससे गादिया सिक्का चलाया इससे आपकी जाति चोरड़ियासे गादिया बन गई । आपने डीडवाने में एक कुत्रा तथा नगरप्रकोट बनाया गरीब भाइयों को गुप्त सहायता पहुँचाई । अापकी माता ने शत्रुजय का श्रीसंघ निकाल चतुविध संघ को यात्रा कराई पुष्कल द्रव्य शुभ कार्यों में लगाया। संघ पूजा कर संघ को पहरावणी दी । गुजराती लोगों से तैल घृत के व्यापार में कायल बना कर भैसा पर पानी लाना तथा एक लंग छुड़वाई और भी जैनधर्म का बहुत ही उद्योत किया । १२०-आप भी साधारण गृहस्थ थे पर भैंसाशाह की सहायता से आपके बहुत पुन्य बढ़ गये । आपने सर्व तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल कर चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा कराई । सातवार संघ को घर आंगणे बुलवा कर भोजन करवा कर पहरावणी दी भ० महावीर का मन्दिर बना कर स्वर्णमूर्ति स्थापन की प्राचार्य श्री को ४५ आगम लिखा कर अर्पण किये और भी जैनधर्म का काफी प्रचार किया। १२१-चार यज्ञ किये संघनिकाल यात्रा कर संघ पूजा में पर्याप्त द्रव्य दिया। १२२-शत्रुजय का मंदिर बनवाकर सुवर्ण कलश चढ़ाया एक एक मुहर पहरामणी दी। १२३-चार बावनी की चार तालाब खुदाये मंदिर की प्रतिष्ठा करवाकर पहरामणी दी। १२४-देवी की कृपा से अक्षय निधान मिला जिससे धार्मिक सामाजिक काम किये । १२५-पूर्व देश के तीर्थों की यात्रा कर समुद्र तक साधर्मियों को पहरामणी दी। १२६-शत्रुजय गिरनार की यात्रार्थ संध निकाल कर पहरामणी में स्वर्ण दिया । ६२७-सात बार चौरासी अपने घर प्रांगन बुलाई वस्त्राभूषणों की पहरामणी दी। १२८--चार यज्ञ, चार मन्दिर, चार तालाब बनवाये संघ पूजा में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । १२९-सकल तीर्थों की यात्रा करके साधर्मी भाइयों को सुवर्ण मालाओं की पहरामणी दी। १३०-दो दुष्कलों में करोड़ों रुपयों का नाज घास दिया संघ पूजा की। १३१-दुष्काल में अन्न वस्त्र और पशुओं को घास देकर देश की सेवा की। १३२- केशर की बालद खरीद कर के मंदिरों को चढ़ाई और संघ पूजा की। १३३-चित्रावल्ली से असंख्य द्रव्य पैदा कर धर्म एवं जनोपयोगी कार्यों में व्यय किया। १३४-तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल साधर्मी भाइयों को एक-एक मुहर दी। १३५-चार बावनी बुलाई, घर पर चार वार बड़े समय यज्ञ किया, वस्त्राभूषणों की पहरामणी दी । १३६ -सर्व तीर्थों की यात्रा कर पृथ्वी प्रदक्षिणा दी एक-एक सुवर्ण मुद्रा सर्वत्र प्रभावना दी संघ पूजा की। १३७-देवी ने प्रसन्न हो अक्षय निधान बतलाया जिससे आपने साधर्मी भाइयों को ही नहीं पर देशवासी १२६८ ७४॥ शाहों की ख्याति Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याचार्य ककसूरि का जीवन [ओसबाल सं० ११७८-१२३७ भाइयों को धन से सुखी बनाया। सर्व तीर्थों की यात्राकी सात बार न्याति घर अांगने पर बुलाकर सुवर्ण नारियल की प्रभावना दी। १३८-सात यज्ञ किये जिसमें ४९ मन हींग लगी संघपूजा कर एक-एक मुहर पहरामणी में दी। १३९-चौरासी तालाब खुदवाये ८४ यात्रीगृह और ८४ मंदिर बनवाये संघ पूजा की। । १४०-दुष्काल में एक करोड़ द्रव्य तय किया ७ तालाब खुदवाये संघ पूजा की। १४१- सर्व तीर्थों का संघ निकाला, यात्रा की, सात-सात सुवर्ण सुपारियाँ सघ में बांटी। १४२-शत्रुजय की यात्रार्थ संघ निकाला तीर्थ पर सुवर्ण ध्वजा चढ़ाई । इक्कीस प्राचार्यों को सूरिपद ४५ ४५ आगम लिखवाकर अर्पण किये संघ पूजा की। १४३-मंत्री श्रआसपाल ने विधवा कुमारदेवी से पुनर्लग्न किया था जिस कुमार देवी के चार पुत्र हुये जिसमें वस्तुपाल तेजपाल भी दो पुत्र हैं आपके ही कारण संघ में दो पार्टियां बन गई थीं वे अद्यावधि लोड़े साजन बड़े सजन के नाम से प्रसिद्ध हैं। जैनस सार में धार्मिक कार्यों में विनो भेद जितना द्रव्य वस्तुपाल तेजपाल ने व्यय किया उतना द्रव्य उनके बाद शायद ही किसी ने किया हो । जिस समय संघ में इन युगल बन्धुओं के लिये मतभेद खड़ा हुआ उस समय यदि किसी ने इनका साथ नहीं दिया होता और शायद वे जैनसघ से खिलाफ हो नुकसान पहुँचाना चाहते तो जितना धर्म का उद्योत किया उससे कई गुना अधिक नुकसान पहुँचा सकते । फिर भी जैनसघ का अहोभाग्य था कि कई लोगों ने जमाना को देख उनका साथ देकर जैनधर्म में उनको स्थिर रखे । कलिकाल की कचहरी में उन युगलवीरों को साथ देने वालों को यह इनाम मिला कि उस समय से आज पर्यन्त उनके साथ रोटी व्यवहार होते हुए भी बेटी व्यवहार नहीं किया जाता है। उस समय के बाद मांस मदिरादि दुर्व्यसन सेवी राजपूतादि की शुद्धि कर उनके साथ रोटी बेटी व्यवहार कर लिया पर अपने सदृश्य श्राचार व्यवहार वालों से अभी तक परहेज ही रक्खा जाता है । यही कारण है कि इतर लोग कहते हैं कि जैन तोड़ जानते हैं पर जोड़ नहीं जानते हैं। खैर वस्तुपाल तेजपाल ने अपने जीवन में क्या २ काम किया जिसको संक्षिप्त में कहा जाय तो ५५०४ देवभुवन के सदृश्य शिखरबन्ध जैनमंदिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई । २०३०० प्राचीन जैनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया जिसमें पुष्कल द्रय व्यय किया। १२५००० नयी जिन प्रतिमाएं बनाई जिसमें पाषाण सर्वधातु तथा सुवर्ण रत्नों की भी शामिल हैं इस कार्य में कई १८ करोड़ रुपयों का उस समय खर्चा हुआ था। ३ नये ज्ञानभंडार स्थापन करवाये जिसमें स्व-परमत के सर्व शास्त्र संग्रह किये थे और प्राचीन ग्रन्थों को ताड़पत्र या कागजों पर सुवर्ण स्याही से भी लिखवाया था। ७०० शिल्पकला के आदर्श नमूना रूप हाथीदांत के सिंहासन । ९८८ धर्म साधन करने के लिये धर्मशालाएं एवं पौषधशालाएं बनाई । ५०५ समवसरण के लायक सलमा सितारे एवं जरी मुक्ताफल के चन्दरवे करवाये ? १८९६००००० तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय पर जिन मंदिर एवं जीर्णोद्धार करवाने में व्यय किये । १८८०००००० तीर्थ श्री गिरनारजी पर भ० नेमिनाथ का मंदिर बनवाने में तथा अन्य कार्यों में । १२८०००००० तीर्थ श्री अर्बुदाचल पर भ० नेमिनाथ का मंदिर बनवाने मेंतथा आप दोनों की पनियां ५४॥ शाहों की ख्याति १२९९ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ललितादेवी और अनुपादेवी ने दो गोक्ष बनाने में अष्टादश लक्ष रुपये खर्च किये जो दंगणी जेठाणी के गोखले के नाम से अद्यावधि विद्यमान हैं जिसको भारतीय ही नहीं पर पाश्चात्य भी सैकड़ों विद्वान देखकर दंग रह जाते हैं। ३००००० सोनइयों के खर्च से बनाया हुआ एक तोरण तीर्थ श्रीशत्रुजय पर अर्पण किया ३०००.० सोनइयों के खर्च से बनाया हुआ एक तोरण तीर्थ श्रीगिरनार पर अर्पण किया ३००००० सोनइयों के खर्च से बनाया हुश्रा एक तोरण तीर्थ श्रीअर्बुदाचल पर अपण किया २५०० घर देरासर बनाये जिनमें कई देरासरों में रत्नों की मूर्तियां भी स्थापन की २५०० भगवान की रथयात्रा के लिये सुन्दर कारीगरी के काष्ठ के रथ वनवाये २४ भगवान की रथयात्रा के लिये सुन्दर कारीगरी के दान्त के रथ वनवाये १८००००००० रुपये व्यय कर ज्ञान भंडारों के लिये प्राचीन ग्रंथों को लिखवाया ७०० ब्राह्मण धर्म वालों के लिये सुन्दर धर्मशाएं बनवा कर उनके सुपुर्द करदी ७०० आम जनता की सुविधा के लिये नित्य चलने वाली दानशालाएं बनाई ३००४ वैष्णवों के मन्दिर बनाकर उन लोगों के सुपुर्द कर दिये ७०० तापसों के ठहरने के लिये सर्वानुकूलता सहित आश्रम बनाये ६४ मुसलमानों के लिये मसजिदें बनाकर उनको भी संतुष्ट किया ८४ पक्के घाट वन्ध सरोवर बनाकर आम जनता को आराम पहुँचाया ४८४ साधारण घाट वाले तालाक पृथक् २ स्थानों पर कि जहाँ जरूरत समझी ४६४ जनता के गमनागमन करने के मार्ग पर वावड़िया बनवा दी ४००० मुसाफिर लोगों के ठहरने के लिये मकान वनवाये जहाँ जरूरत थी ७०० पानी पिलाने के लिये सदैव चलने वाली प्याऊ बनवादी ७०० पानी के कुवे बनाकर जनता की पानी की तकलीफों को सदैव के लिये मिटा दिया ३६ राजा महाराजाओं को निर्भय बनाने के लिये बड़े २ किले बनवाये ५०० अापकी उदरता के स्वरूप हमेशा ब्राह्मणों को रसोई करवा कर तृप्त किये जाते १००० तापस सन्यासी एवं आगन्तुक लोगों को भोजन करवाया जाता था ५००० जैन श्रमण श्रमणियाँ आपके रसोड़ा से निर्वद्य आहार पानी वेहरते थे २१ श्राचार्यों को महामहोत्सव पूर्वक सूरिपद दिलाया २००० सोनाइयों को ताबावती नगरी में सुकृत के कार्यों में व्यय किया इनके अलावा भी अनेक सुकृत के कार्य कर अपनी उदारता का परिचय दिया उस समय तथा उसके बाद भी बहुतसों के पास लक्ष्मी आई और गई पर वे लक्ष्मी के सद्भावमें भी लक्ष्मी के प्रमाण में भी सुकृत नहीं कर सके। यह बात तो निश्चित ही है कि संसार में जन्म लेकर अमर कोई नहीं रहा पर जिन लोगों ने इस प्रकार सुकृत का कार्य किया है वह आज भी अमर ही हैं । वस्तुपाल तेजपाल और इनकी पत्नियों ने केवल लक्ष्मी से ही सुकृत किया हो ऐसा नहीं है पर उन्होंने अपने शरीर से भी प्राचार्योपाध्याय एवं मुनियों की सेवा करने में कमी नहीं रखी थी इन सब बातों को उसी समय के जैनेत्तरों ने भी लिपि बद्ध की थी। १३०० ७४॥ शाहों की ख्याति Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ १४४-श्राप श्रीमान् नारायण सेठ की परम्परा में एक महान् प्रभाविक पुरुष हुये जब आपने मारवाड़ के नागपुर से श्रीशत्रुजय तीर्थ का विराट संघ लेकर गुर्जर धरा में प्रवेश किया तब वस्तुपाल तेजपाल ने सुना तो वे बहुत दूर से चल संघपति पुनड़ से मिले और आपके इस शुभ कार्य की खूब ही प्रशंसा की । शाह पुनड़ का मान पान केवल जैन समाज में ही नहीं पर देहली पति बादशाह भी आपका श्रादर करता था और इस आदर से शाह पुनड़ ने जैनधर्म के भी अनेक कार्य किये थे १४५-शाह करणा चोरडिया के चार पुत्र थे शाहवालो शाहटीकु शाहभैसो और शाहासल एवं चारों भाई बड़े ही भाग्यशाली थे प्रत्येक ने एक २ नाम्बरी का कार्य किया जैसे शाह वाला ने नागपुर में भग० आदीश्वर का मन्दिर बना कर सर्व धातुमय विशाल मूर्ति स्थापन की थी। वादशाह के भय से उस समय मन्दिरों पर शिखर नहीं कराये जाते थे अतः उस समय के बने हुये मन्दिर पर अभी सं० १९९३ में शिखर करवाये गये । शाहटी कुने टीकुनाडो बनाया कहा जाता है कि हिन्दू मुर्दा के जलाने का टैक्स बादशाह दो स्वर्णमुद्रा लेता था जिसको टीकूशाह ने छुड़वा कर नगरवासियों को उस जुल्ली कर से मुक्त किया शाह श्रासल ने गोचरभूमि के लिये बड़ी रकम देकर कई कोसों तक भूमि छुड़ादी जिसमें आज भी गायादि पशु सुख से चर रहे हैं। शाह भैसा ने तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाल साधर्मी भाइयों को एक एक मुहर लहण में दी। १४६-देवी ने प्रसन्न हो एक अक्षय थैली दी कि जिससे सर्व तीर्थों की यात्रा की चौबोस भगवान का एक मन्दिर शत्रुजय पर बना कर सुवर्णमय मूर्ति और सोने का कलश चढ़ाया तथा सघ पूजा कर संघ को सुवर्ण जनेऊ की पहरामणी दी। १४७ --दुष्काल में एक करोड़ द्रव्य व्यय कर मनुष्यों को अन्न वस्त्र पशुओं को घास तथा तीन बड़े तलाव तीन वापी और एक मन्दिर बनाया प्रतिष्ठा में संघ को पांच पकवान भोजन करवा कर वस्त्र तथा लड्डू में एक एक स्वर्ण मुद्रिका गुप्त रख पहरावणी दी। १४८-चार बार सकल सौंघ को घर श्रांगणे बुलाया तिलक कर सुवर्ण सुपारी दी। १४९-आप पर गुरु कृपा थी तेजमतुरी मिली जिससे सुवर्ण बना कर तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाला पूजा की सं० १३११-१२ में सुवर्ण द्वारा पुष्कल धान का देश देश में सचय किया और उसमें शुरु से ही ताम्रपत्र लिखा कर डाला कि यह धन मैंने एक गरीबों के लिये सचय किया है वि० सं० १३१३-१४-१५ लगातार तीन दुष्काल पड़े जिससे साधारण जनता ही नहीं पर राजा महाराजा और बादशाह ने भी जगडुशाह का संचा हुश्रा धान खाकर प्राण बचाये।। राजा महाराजा तथा बादशाह ने जगडु से प्रार्थना की कि आप हमारा राज लो और हमको खाने के लिये धान दो। इस पर जगडु ने कहा कि सचय किया धान मेरा नहीं है आप उसमें उस समय के ताम्रपत्र देखलें वह धान निराधार रांक भिक्षुओं का है यदि आपको जरूरत हो तो आप भी ले लीजिये । आखिर लाचार हो उस धान को लिया एक कविता में इस प्रकार लिखा है-- १- सिन्ध के राव हमीर को ८० ० मुंडा धा दिया। २-- उज्जैन के राजा को १८००० मुंडा ३- देहली के बादशाह को २१००० , ४-प्रतापसिंह को ३२००० , ७४॥ शाहों की ख्याति १३०१ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८०८३७ । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ५-कंदहार के राजा को १२००० मुडा धान दिया। ६-पाटण के राजा को ८००० मुंडा ७-शेष जनता को ८०००० , ८--मारवाड़ को १००० , जगडु ने ११२ दानशालायें खोली १०८ मन्दिर बनाये ३ वार यात्रार्थ संघ निकाला दुष्काल में बहुत से तालाव बावड़ियां भी बनाई धन्य है ऐसे नरपुंगवों को १५०-खेमा देदेणी की उदारता का हाल ऊपर प्रस्तावना में लिखा गया है ऐसे उदार नर रत्नों से हो जैन शासन पूर्ण शोभायमान था । ऐसे तो कइ गुप्त रूप में शाह रहे होंगे ? १५१-आपके चारणी देवी का इष्ट था । बादशाह के मांगे हुये स्वर्ण पाट देकर शाह पदवी का रक्षण किया लुनाशाह ने और भी धर्म कार्य कर करोड़ द्रव्य व्यय कर नाम कमाया। १५२-आपने चौदह बार संघ निकाल कर सर्व तीर्थो की कई बार यात्रा की और संघपूजा कर पहरामणी दी जिसमें चौदह करोड़ रुपये व्यय कर यश कमाया । १५३---आपके समय सं० १३६९ बादशाह अलाउद्दीन ने तीर्थ श्रीशत्रुजय के सर्व मंदिर मूर्तियां तोड़ फोड़ कर नष्ट भ्रष्ट कर डाली थी उस समय गुरु चक्रवर्ति आचार्य सिद्धसूरि के उपदेश से उन मुसलमानों के कट्टर शासन में समराशाह ने केवल दो वर्षों में ही शत्रुजय को पुनः स्वर्ग र. दृश्य बनाकर आचार्यश्री के करकमलों से १३७१ में पुनः प्रतिष्ठा करवाइ जिस मूर्ति का आज तक असंख्य लोग सेना पुजाकर लाभ उठा रहे हैं। इस पुनीत कार्य में तथा संघ निकालने में शाह समरा ने करोड़ों रुपये पानी की तरह वहा दिये सं० १०८ में प्राग्वट जावड़ ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया वाद सं० १२२३ में मंत्री उदायन के निश्चयानुसार उसके पुत्र वाग्भट ने भी उद्धार कराया पर ओसवाल जाति में श्रीमान् समरासिंह ही भाग्यशाली हुश्रा कि जिसने सबसे पहिले इस तीर्थ का उद्धार कर अनन्त पुन्य के साथ सुयश कमाया। इस समरासिंह के उद्धार को अपनी आँखों से देखा है उन्होने उसी समय सब हाल को लिपिवद्ध किया था कि भरतादि महान् शक्तिशालियों ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया था पर समरासिंह के उद्धार का महत्त्व सब से बढ़ चढ़ के है कारण भरतादि के उद्धार के समय में तो समय एवं सर्व साधन अनुकूल थे पर समरा के समय में तो मुसलमानों में भी अलाउद्दीन का धर्मान्धशासन उसके कर शासन में केवल दो ही वर्षों में तर्णोद्धार करवा कर निर्विघ्नतया प्रतिष्ठा करवा देना एक टेड़ी खीर थी पर समरसिंह ने अपने बुद्धि विवेक चातुर्य से असाध्य कार्य को भी सुसाध्य बना दिया इसमें खास विशेषता तो गुरु चक्रवर्वि प्राचार्यसिद्धसूरिके सदुपदेश एवं कृपा की ही थी। उस समय के लोग धनकुबेर राज्यमान्य होने पर भी उन लोगों की धर्म पर कितनी अटूट श्रद्धा और गुरु वचनों पर कितना विश्वास था कि उनके थोड़ेसे उपदेश से बात की बात में वे लोग करोड़ों रुपये व्यय करने को कटिवद्ध हो जाते थे । धन्य है उस समय के आचार्यों एवं उनके भक्त लोगों को । क्या ऐसा समय हम लोगों के लिये भी श्रावेगा। ६५४-देवी ने श्रापको अक्षय निधान बतलाया जिससे आपका घर धन से भर गया। देवी की स्वर्ण मय मूर्ति बनाई बावन जिनालय का मंदिर बनाया सुवर्णमय १०८ अंगुल की मूर्ति बना कर प्रतिष्ठा करवाई पांच वार संघ निकाल के सर्व तीर्थों की यात्रा की । श्री संघ को ११ बार घर अंगणे बुलाया अंतिम & उस समय का माप एक मुंडा कई मण धान का होता था। १३०२ ७४॥ शाहों की ख्याति Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन [ओसवाल सं० ११७८-१७३७ ___ पहरामणी में पुरुषों के वस्त्रों के साथ पच्चीस पच्चीस तोले की कंठियाँ बहिनों को चूड़े प्रदान किये । १५५-सकल तीर्थों की यात्रा की संघपूना कर पाँच २ मुहरे पहरामणी में दी । १५६- चार यज्ञ कर संघ को घर आंगणे बुलाकर तिलक कर पहरामणी दी पुष्कल द्रव्य व्यय किया। १५७-दुकाल में आये हुये भूख पीड़ित मनुष्य पशुओं का पालन किया भ. आदीश्वर का विशाल मंदिर बनाया तीर्थों की यात्रा कर सघ पूजा की एक एक मुहर लहण में दी। १५८-सम्मेत शिखरजी की यात्रार्थ संघ निकाल पूर्व की सब यात्रा की आते जाते सर्वत्र लहण दी स्वामि___वार सत्य कर संघ को पहरामही में पुष्कल द्रव्य दिया याचकों को भी दान दिया। १५९-आपने निराधार सानियों के लिये एवं जैनधर्म के प्रचार के लिये बीस करोड़ द्रव्य व्यय कर जैन धर्म की सेवा की सात यज्ञ कर सघ पूजा की पुष्कल द्रव्य व्यय किया। १६:-सातवार चौरासी घर प्रांगणे बुलई सात मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई और संघ पूजा कर एक एक सुवर्ण सुपारी प्रभावना में दी। १६१ - अापने विदेश से एक पन्ना लाकर ११ अंगुल की मूर्ति बनाकर घर देरासर में प्रतिष्ठा करवाई तथा सघ पूजा कर वस्त्राभूषण वगैरह पहरामणी में दिये । १६२-आपको पारस प्राप्त हुआ था । लोहे का सोना बनाकर धर्म कार्य में व्यय किया एवं दुष्कालादि में जनसेवार्थ भी पुष्कल द्रव्य व्यय किया तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाला शत्रुजय पर नया मंदिर बनाया स्वर्णमय ध्वजा दंड चढ़ाया और संघ पूजा कर पच्चीस २ मुहरें वस्त्र लड्ड, पहरामणी में दिये । १६३-तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला संघ को पहराणी दी जिसमें सोने की डिबियें दी। १६४ - चौरासी न्याति को अपने घर प्रांगणे बुलवा कर पांच पकवान भोजन करवा कर सुंदर वस्त्र पोशाक ___ की पहरामणी में दी। १६५ -दुकाल में बड़ी उदारतापे स्थान स्थान पर शत्रुकार मंडावा दिये तथा तीर्थ यात्रा कर संघपूजा की। ६६६-सात बड़े यज्ञ किये साधर्मियों को पहरामणी दी। याचकों को मनोवांछित दान दिया। १६७-आपके विदेश व्यापार से अनाशय तेजमदुरी हाथ लग गई जिससे पुष्कल सुवर्ण बना कर चार मंदिर चार तालाब चार यज्ञ और चार वार तीर्थों के संब निकाल कर सर्व तीर्थों की यात्रा की संघ पूजा की पांच २ मुहरें पहरावणी में दी। १६८ -श्रीशत्रुजय गिरनागदि तीथों का संघ निकाला संघपूजा कर पहरामणी दी। १६ -चार बड़े यज्ञ किये ८४ चार वार घर अंगण बुलाई पहरामणी दी। १७०-सम्मेतशिखरजो की यात्राथ संघ निकाला जाते आते सर्वत्र लहण दी स्वामिवात्सल्य कर संघ को पहरामणी दी और याचकों को दान दिया। १७२-शत्रुजय गिरनार की यात्रार्थ सघ निकाला दुकाल में उदारता व संघ पूजा कर पहरामणी दी । १७१-शत्रुजय गिरनार का संघ ७६ लक्ष द्रव्य में संघमाल सघ को पहरामणो । १७३-सात वार वावनी, ३ बार चौगली बुलबा कर भोजन के साथ पहरामणी । १७४-सात बड़े यज्ञ किये जैन मंदिर बनवा कर स्वर्ण प्रतिमा स्थापन की। १७५-शजय गिरनार का संघ निकाल एक एक सुवर्ण मुद्रिका पहरामणी में दी। ७. ॥ शाहों की ख्याति १३०ibrary.org Jain Education international Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १७६- आपके पास सेजमतुरी थी जिससे सुवर्ण की सुपारियां बना कर सघ को पहरामणी दी। १७७-आपके पास चित्रावली थी जिससे स्वर्ण के नारियल बनाकर संघपूजा में दिये । १७८-सम्मेतशिखर की यात्रार्थ संघ निकाल समुद्र तक पहरामणी दी। १७९-दुर्भिक्ष में पुष्कल द्रव्य व्यय कर देशवासी भाइयों के पशुओं के प्राण बचाये। १८०-श्री शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाल यात्रा की जाते आते सर्वत्र लहण दी स्वामिवात्सल्य कर ___ संघ को पहरामणी में बहुत द्रव्य व्यय किया । १८१-दुकाल में मनुष्यों को अन्न पशुओं को घास के लिये देश २ स्थान स्थान पर शत्रु कार खोल दिया बिना भेद भाव के खुले दिल दान किया चार मंदिर चार तालाब बनाये व संघपूजा पहरामणी दी। १८२-गरीब निराधारों को गुप्तसहायता दी तीर्थों की यात्रा की घर पर आने वाले साधर्मी भाइयों का सम्मान कर निराधार को द्रव्य दिया करते आपने अपनी उदारता से राजा महाराजा और बादशाहों के सहकार से जैनधर्म एवं श्रोसवाल जाति का सुयश बढ़ाया । जैन संघ ने केवल अपने धर्म के लिये ही नहीं पर जन साधारण के लिये भी कैपी कैसी सेवाए की जिसके लिये कई प्राचीन कवित कविताए मिलती है जिसको भी यहाँ दर्ज करदी जाती है। ॥ बंदिवान छोड़नेवाला भेरुशाह लोडाका छंद ॥ | पीडिजे लोक प्रभोमि लीजे, डराये दहु दिसि डरै ॥ असुर सेन दल संभरि भाइ, पंधवि मुगलां बंदि चलाइ । मेलीया ते ओसवाल उदिवंत, सोन क्रिपणां लाइयं । पहुसम परज कर पुकार कीधा चरित किसौ करतारं ॥ पुनिवंत सारं पछे भेरू बहुत बंदि छु इयं ॥ जगड भीम जगसी नहीं, सारंग सहजा तंन; कविता. वाहर चढि हा तणां, महि भैरू महिवन छुडाइ सब बंदि, अवनि अखीयात उबारो। मृगनैणी मंनि औदकै, परवति *'पालो' जाई । अलवरि गढि उब , सिपति सहु करे तुहारी ॥ कैलोढा' तुमथी उबरै, के खुरसाण विकाइ सो परिभू भैसाहि, तिपुर सोनया समप्या। छंद. जीवदया जिनधर्म, दांन छह दरसणि प्या ॥ खुरसाण काबिल दिसह खंचहि एक रूसन बरसये। डाहाज साह अंगो भमी, भणति भांण जगि जस घणो। असवरै यो मुलितान लीजै, करब चेडी दखये ॥ बंदी छोड बिरद भेरू सदा दिन दिन दोलति दस गुणो ॥ खटहडै कोट दुरंग पाडी, धरा असपति धावये । जुगति जोग रप्त भोग, अचल आसण मेवातह । पुनिवंत सारंग पछे भैरू, बहुत बंदि छुडावये ॥ डेड खग खिति मझि बथ मेखलि निगातह ॥ भड सुइड ते मैं भंति भगो, को न वाहर आवये । तनु बभुति धन रिधि, बचन बोलीये सुछ जहि । फिरि राज कवरी वाट हालै, अम्हे कोण छुडावये ॥ श्रवन न द सोवनं सबद सीरी सीगी बजै ॥ अहिवात अविचल दिये 'लोढौ,' सीख संचिगां लाइयं । । आदेस खान सुरताण नै, भगि सीह सि रवि तवै। पुनिवंत सारंग पछे भैरू, बहुत बंदि छुडाइयं ॥ भैरवां ग्यान गोरख तु, चहु दिसि चेला चक्रवै ॥ बामणी विणाणी पवणी सारी, दे असोहा अति घणी। हाटि बसै मेवात भो नवनिधि किराणे । लख बरस 'लोढा' प.घ कायम, किति चहु खंडी तुम तणी। बिणज करे जस काजि, बेसि अलवर गढ थाणे ॥ सांचोया सुक्रत निवाण निश्चल, भांग सुजस सुणाइयं ॥ डांडिय दुरिजन राइ, पाई पलडा लहतरी । पुनिवंत सारंग पछे भेरू, बहुत बंदि छुटाइयं ॥३॥ बाद न को उघटै खान सोदागर सतरि ॥ बिलबिलै बालक माय पाखै, एक रणमै रडवडै । भणि सीह डाहासा तन भेरू करी कंचन श्रवे । १३०४ ७४॥ शाहों की ख्याति Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ पाणीयो वसु विधि निमियो, जिंहि तुल न तुल्या चक्रवे ॥ | जे रावल राजा रांण राजवी, कोडि कला मंडलिक मिली। किताइक क्रपण करप काजि नवि किणही आवे । दरबारि तुहारै रामनरेसुर. सेवै राज छतीस कुली. ॥ सुख मारग सेविए सूलसां मही भजावे ॥ भुमिर्या भुपतिक राह महा भड. ते दिसे दरबारि खडा। तु सारंग दूसरा, दूनी संकडे सधारी' । जे बंभण भट दिवाण, दरसंण, जगातिहुजिदार बढ़ा ॥ भड भोपति दगिया, अचल अखियात उबारी ॥ जे मंगण गीत करै कवि, मांहि महाजन मेल मिली। मति हीण मूल वर्प बढियो, छाया तर धर तौ धरा । दरबार तुहारै रामनरेसुर, सवै राज छतीस कुली ॥ भेरवां तरोवर तु पखे, पछितावे पंखी खरा ॥ जे मीर मीया सीकदारत खोजा, खांन मुम्मिक तुरुक तुचा । तुझ बीण असूर अनंत संक नवी कोइ माने । खांजांदा मलिक जु मेर मुकदम, ज्वांन पठाण मुगल बचा ॥ तुझ विण पात कुपात भला को भेव न जाणे ॥ जे जामलगाह बलोच हबसी, खेड खत्री जनु मेलमिली। तुझ विण बंदी बंदिजात, काबिल न बहोडे । दरबारि तुहारै रामनरेसुर, सवै राज छतीस कुली ॥ तुझ विग चाडी करे, चाडके नाक न फोडे ॥ कवित-राजकुली दरबारि, एक बीनती पठावै। भणि सीहू तुझ विणि दांन गौ, कछु न बात दीसे भली। इक उभा वोलगै इक बड सेवा भावै ॥ भैरवा आव इक बार तु, इती अनीति अलवर चली ॥ छाजै वंसि छतीस एक जी जी करि जपै। प्रथम हमीर चहूबांन, बंस जिस हवो हमारी । मनि भावै सो करै एक थाप्या उथपै ॥ दुजे खीलची साहि, जास माफुर बजीरा ॥ अलवर साहि आलम थपियो, कहे जस कीरति भल । ती पीछे पेरोज, चढ बिमलु खां दल कुटयो । दरबारि रामडाहा तणौ, मोंड बंधी मागै महल ॥ बहू रांग भुगइ साहि महमुद अहुटयो विचित्र देशोनुं वर्णन. अवसान अंति आयो नको, पातिसाह परगट करें। दिसि जिणि सूर उदै दरसायं, जिति लगन दीनि न्याj जायं । भेरू नरिंद संभारि भj. तुय जस करि कंकण बहुः ॥ दु अविचल जित लग ध्रु तारी, तितलग कीरति राम तुहारी ॥ उदधि बार लगि अखल, भगति परवरी हित । बडा पहाड जे थि भैवं का, लंका परे तथि पड लंका । ग्रह्या कोट पुतली असुर आग्रह्या अगम गति ॥ सौ मण दंत हस्ति मुख सारी, तितलग कीरति राम तुहारी॥ महा बेगम के बैर, लु लथबध गहि लुटत । जित लग पुरुष पंगु रन पाने, समझे नहीं तेथि परि साने । जो न हुति क्रम दसा, हीयो ततखिन फुनि फुटत ॥ अर्क तेज उतरे अवारी, तितलग कीरति राम तुहारी ॥ भेरू न उब.रत खगतलि, अतुर वचन अनदिन सह । जित लग रूप महातर जैसा, उन सेवंतां ग्लै अदेसा। उचरति उभय सरसुरि निसुनि, तब तुहि तीरथ कुण कहत । सो पर चंदन परउपगारी, तितलगि कीरति राम तुहारी॥ भेरूशाहका भाइ रामाशाहकी कीर्ति साटिक-रामचंद्रो रामरुपस्य, रामरुपि मनोहरो। नेक निजरि करै साहिआलम, राम च्यारि पतिसाहा मालिम रो स्वेण भये राम, संकरे देसांतरि गत ॥ बहतरि पाल मेदात वसावै राजकुलो निति सेवा आवै. ॥ दोहा-किति समंदां कंठलै, परभै कीयौ प्रवेस । छंद.. रांम सदाहा रूपके, न वै जपै नरेस ॥ सेवै कछवाहा, जोधक जादौ. भारथ जोगे भीछ भला। छंद. निरवांग चौहाण चंदेल सोलंखी, देल्ह निसाण जिके दुजला ॥ जिणि देस नरेन जपै गुण तोरी, जीव भखे पापांण जरे । बड गुजर ठाकुर छेछर छीभर, गौड गहेल महेल मिली। संपुर समंद वहंते सायर, टघण साम्है नीरति परै ॥ दरबारि तुहारे रामनरेसुर, सेवै राज छतीस कुली. । निणि देस में निख सकै नहि जाइ, घोडी दूधम थांण घुरै । जे तुंवर तार पंवारक सोढा, सांखला खीची सोनगरा। तिणि देस नरेसुरराम तुहारी, कीरति कोडि किलोल करै ॥ राठौड जी के रायजादा रावत, स्वामि कामि संग्राम खडा ॥ जिणि देस अजाइब बात जपंता, पीछी मीढामानि वसै; * दुनियाके संकट में प्रबल आधार देनेव ला. मेंढा जीतना वीछु महाजन संघ के प्राचीन कवित Jain Education Inte, exal १३०५ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जिणि देस अजियर ऊंट अरोगैर भाहर सदा लोक बसै ॥ जिणि दस मोमत्त होई हसती, भति अजाइब बंनि भरे । जिंणि देसि इसा गुण नारी जांग, भील गुंजाहल मांग३ मरै। नव निधि सिरोमणि तास निमंधि रोस भयंकर रंग मरे ॥ तिणि देस नरेसुरराम तुहारी, कीरति कोटि किलोल करै।। | हिब होइ जिये दिसि बाह हसी, झालण देइ न मदि झरे। जिणि देस सदा प्रति धेन सवारी, सत सवामण दूध श्रवै।। तिणि देस नरेसर राम तुहारि कीरति कोडि किलोल करे । जिणि देस पदमणि पीन पयोहर, खोले राखे काय खवै ॥ जिणि देसि बिह जण जोडी जांमे, एक बिहु घर वास हुवे । जिणि देस पिता बीण आपण जोइ, बिरहनि पंच भ्रतार बरे। सुखसेज सदा वृष पुरे संपति, साथ अवासे मांहि सुवै । तिणि देस नरे सुर राम तुहारी, कीरति कोटि किलौल करे ॥ जगदीस इसी किम कीधो जोडी आपण माहि न होइ अरे । जिणि देसि सलोभी मानव जाये, खाड गजा ले मौलि खणै। जिणि देस नरेसुर राम तुहारि कीरति कोडि किलोल करें । इम जाणि करे नर इसर बोहण, बंभणि एसा मंत्र भणै। हणवंत जीये दिसि मारे हाका, हेक पुरिषां देह हरै। बंदि छोडानेवाला करमचंद चोपडा. तिणि देस नरेसुर राम तुहारि कीरति कीढि किलोल करे ॥ | गरोहो मंडियो सुभट सावंत रुकाणा। जिणि देस उभै मण पितलि जोडै घाट अजाइब लोक घडै । पवन छतीसे बंदि हुधा इक अकथ कहाणा ॥ जिणि देसि निपंखी लोहणि ताला, जोनि जितनी काजि जडै ॥ ओसवाल भूपाल दाम दे बंदि छुडाइ । जिणि देस पदमणि पीता पाणी पावस दीसै पुठि परै।। करणी करतब करन, वदे सहु कोइ वडाई ॥ तिणि देस नरेसुर राम तुहारी कीरति कोटि किलोल करे ॥ समधर भणे ताल्हण सुतन, न्याइ बिहु पखि निरमला । जिणि देस कलेस न आवे जीवा, इक बाहै इक इस लुणे । | चोतोड भिडं ते चौपडे, करमचंद चाढी कला ॥ जिणि देस समुंद्री कांठल जाये. चंदाबदनी लाल चुणै ॥ नेतसी छाजेड. सोवंन जिण दिसि सीधु साट, मांना कोय न भुख मरे । । पवन जदि न परवरे, बाब बागो उत्तरधर । तिणि देस नरेसुर राम तुहारी कीरति कोटि किलोल करे ॥ धर मुरधर मानवो, भइ भेभंत तासभर ॥ जिणि देस दहैं जणह कण जीमण, भोजन भायां सीर भिले; मात तनुज परहरे विम ह मृगनेनी छारे । उण देस कहे जगनाथ उडीसा, मानव कोडि अनेक मिले ॥ उदर काजि आपने देस परदेस संभारे ॥ समरंगणि ठाइहणे मिल उपरि, साच पटंतर काज सरे । खित्त खीन दीन व्यापी खुधा नर नीसत सत छंडीया । तिणि देस नरेसुर राम तुहारी कोर त कोडि किलोल करे ॥ तिण द्योस साह जगमाल के, नेतसीह नर थंभीया । जिणि देस महेसन मेछ जुहारे जोति अगनि पाषाण जलै । अन्नदाता धर्मसी. बुद्धि एह अचंभ बिहुणे बालणि पारह मास अखुट बलै ॥ दीपक दीदा दिसे, प्रथी पदरा परमाणे । परताप सकति व बुडे पाणि, चावल होम जिगंन जरे । कडलनेर कडादि सिप त साची सुरताणे ॥ तिणि देस नरेसुर राम तुहारि कीरति कोडि किलोल करे ॥ इकतीसे से झति, इला असमै आधारी, जिणि देस इसा किम जंगम वासे. कान बधारि बिहाथ करे। धर गुजर धरमसी, जुगति दे अन्न जिवाडी॥ मुख आखि न दीसे मुछां आगे, मीच घणां दिन जाय मरे ॥ | खरड विरद खाटे खरां, अचल गंग सुभ उचरे । फल फुल अहार करे नबि फेरो, जोग अभ्यासन बिख जरे।। तिणि देस नरेसुर राम तुहारि, कीरति कोडि किलोल करे ॥ वर्धमा तणि वंसि बाचिये, सु तायागी सुरतांगरे ॥ जिणि देस उभै खटमास अंधारी सुर न दीसे पंथ सही। लाखों को जीवानेवाला संघवी नरहरदास. परवत्त अलंग महा बिहु पासै, बाट बियालै तेथि बही॥ साहिन को साहि पतिसाहि जहा गाजी राजी। निसि द्यौस न दीसे राह चलंतौ, धुनां दीपक हाथि धरे । | ह्र के रावरेकु सिरपाव xx दीये हे ॥ तिणि देस नरेसुरराम तुहारि कीरति कोडि किलोल करे ॥ जेतेक जिहांन मैं खवानी खांन सुलितान । करत वखांन सनमान बहु दीये हे । २उंट लेजावे एसे बडे अजगर. | कोटि जुग राज कीजे, नरहरदास भुवः ॥ १३०६ महाजन संघ के प्राचीन कवित Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरी का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ स्वामीदास नंद के सरां हो हाथ हिये हे। भागे नरसिघ हवा; अंन्न दूरभखमै दीया । सबहीको सूमि अभिलःख कवि सुंदर जु ॥ रतनसीह रंगीक, प्रगट प्रासाद ज कीया ॥ नोखी के पाये केउ लाख जीव जीये है। कुलवट येह भचार दान बहु समाज दिजे । सुराणा की उदारता. वोसवंस उदिवंत किति कहुखडि भणिजे ॥ सूराणा उगम लगै, अलवेसरि उदार । सिवराज घरे सजन भगति; कहि किसनां की रतिभल । पर उपगारी कारणे: उदया इण संसार ॥ गढमल तणो गुण को निलो; ते छजमल्ल जगे भारमल ॥ उदया इण संसार महा दीसत उन्नत कर । जगडू-शाहा का महात्व, खिदरखांन दीयोमान राज काजे धुरिंधर ॥ सांवरांण परणीयो; मांड बंधीयो मंडोवर । ज दिन चणा नवेसर; रावराणा सा छंड यो । मंडोवर रे धणी; सेर नहीं दीनो सधर ॥ रेल्हण छाजूनंद; त दिन पुरिख न मनि मंड्यो । मिली कोडि मंगता, कोइ उर वोड न सके। नरसिंघ मोल्हातसो सर्यों करतब सवायो । महाजनको मोड; साह निति बारो अंके ॥ बोइथ के चोलराज आनंदे जगत जिवायो॥ मेवाड धणी मंडोवरा, येता थया अनंगमा । पूनाहल जंपक कुल इरल; करमसीह सच्चो को। जगढबे साह जिमाडिया, सऊ लाख एकणि समा ॥ बासठे समे बेरोजगढ; सूराणे सत संग्रह्यो । बेता हरो बदे खुदियालम; उपाडीये बिलसीये आथि । सोहिलशाहकों छंद. कासिब हरे कीयो कर मुकतो संचे नंद न लेगो साथि ॥ कवियण कलत्र कहे सुण कंता परहरि पोय परदेसे चिंता। जहांगीरशाह की महेमानी करनेवाला जगतशेठ दरि दिसावर मम करि तकह सइण सदाफल सोहिलमंगोहु ।। झवेरी हीरानंद. तुछ काम जे मुटा मुटा बोले; ते नर सोहिल सरि किम तुले ? मुकरयखानु पुछिया नृप नूरजहाँनी । त्यागि वार देहि मुह मोडा, दूसम समै अंन देखें थोडा ॥२॥ कब चला घर नंदके लेने महमानी?॥ असमे थोडो अंन गर्व मनाहि आंणे . कछुक महतल किजिये; हे लोक नमेरा । पंतिभेद जे करे लाहि लाहणि नही जाणे ॥३॥ कियो अखा घर देखिये हीरानंद केरा ॥ ढिल मंडली मेवात करे संघ मांहि हित भंता । क्या मे नौसरखांनंदी क्या लोकातोइ ? । मंगिणहारा बेसि; सरस अति घाले मंता. ॥ मै सोदागर साहिदी मुझइ हे बडाइ ॥ तहा रंग न रहे चोख कहि सरस चरचि दस खचि करि । बंदा पापणा जांणि के कजिये बडेरा । संसार इसा नर अक्तया, किम पुजे सोहिल सरि ॥ एक पियाला खुस करो खुसबुइ केरा. ॥ दानवीर छजमल बाफणा. मैगल घणा उमाहिया जनू बदल काले। सुपरिसो सेणिकराइ जेम सुधम निय । आपण सहिजां चलणे ते सद मतिवाले ॥ नंद मंद जिम बरखत; जाचिक जना लछि बहु दिनिय ॥ मुख अंधियारी मलीया; गलि चोर बंबाले । सपुत भांण दलपति मनोह : कहि गिरधर सोभाजगि लिनिय। दिढ गाढे बहु जीतणे; गढ कोटावाले ॥ २० बंदे आसकरण आचारिज; करणी अजब स करमण किंनिय ॥ सुछ नभित्र सुछत्र, सीसकर चउर ढलं दे। उतपति भोयस थान; साख बापर्णा संकज नर । साहिजादे संग उबरे; सब पायपुलंदे ॥ सांगानेर मझारिकियो जिन प्रासाद उच कर॥ मुखमल अर जलबार दी पायंदाज बिछाया । ओसवाल भुवाल साइ भेरू घरि सुंदर । जहांगीर से पातिसाहनुं ले घरि माया ॥ २७ प्योहथहरा सुचाइ, बंधव छजमल उनत कर ॥ धरोया हीरा पेस सुण्या दिठा नहुनेरा। प्रतिष्ठा करे श्री जिन तणी कहे धनोजी तब जीयो । हुणकया भाषां लाख ते; कीमति अधिकेरा। स्यागियां तिलक ठाकुर तणे करमचंद जगि जस कीयो ॥ येक जीह केसे क णती जो भाया। ANMAmAAN महाजन संघ के प्राचीन कवित १३८७ www.sinelibrary.org Jain Education Intem Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भवर जवाहर कया सहुँ; जो नजरि दिखाया ॥३०॥ कही देखिये ढेरिया, सोने दी भारी। कही देखिये ढेरिया रूपे अधिकारी ॥ कही देखीये ढेरीयां; कोमांच लगाये। पेसकसी जहांगीरनु, हीरानंद ल्याये ॥ ३१ ॥ संवत् सोलहै सतसठे; साका अतिकीया। मिहमानी पतिसाहती करिके जस लीया। x x + चुनि चुनि चोखी चुंनी; परम पुरांणे पंना। कुंदनकु देने करि लाये घन तावकमंना ॥ डाक लाल लाल लागी; कुतुब बस कुसांन । बिबधि बरण बने; बहुत बनाउके जान ॥ रुपके अनूप आछे; अबल के आभारन । देखे न सुने न कोइ असे राजा राउके ॥ बाउन मतंग माते नंदजु उचित कीने । जरसेती जरि दीने, अंकुस जरावके । दान के विधानको बखांन हु लो को लू करो। बीरानिमे हीरादेत हीरानंद जैहरी ॥ पाइये न जेते जवाहर जगमांझ ढूँढे । जे तो ढेर जोहरी जवाहरको लायो हे। कसबी कोमांच मुखमल जरबाफ साफ । झरोखा लो ग्रह लग मगमें बिछायो हे । जंपति जगन बिधि आनन बरणी जात । जहांगीर आये नंद आनंद सवायो हे॥ करसी छिटकी काहुँ कहुँ उबरा उनकी । पेसकसी पेखते पसीनां तन आयो हे ॥६॥ कोरपाल सोनपाल लोढा. सगर भस्थ जगि जगढ जावड भये । पोमराइ सारंग सुजस नाम धरणी ॥ सेबूंजे संघ चलायो सुधन सुखेत बायो । संघ पद पायो कवि कोटि किति बरणी ॥ लाहनि कडाहि ठाम ठाम दुक भांन कहि । भानंद मंगल घरि घरि गावे घरणी ॥ बस्तुपाक तेजपालं जैसे रेखचंद नंद । कोरपाल सोनपाल कीनी भलो करणी ॥१ कहि लखमण लोढा; दुनोकु दिखाइ देख । लछि को प्रमान जोपे एसो लाह लीजिये ॥ आँम संघपति कोउ संघजोपे कीयो चाहे । कोरपाल सोनगल को सो संघ कीजीये॥ सबल राइ बिभार; निबल थापना चार । बाधा राइ बंदि छोर अरि उत्साजको । अडेराय अवलंभ; खितपती रायखंभ । मंत्रीराय आरंभ; प्रगट सुभ साजको ॥ कबि कहि रूप भूप शइन मुकट मंनि त्यागी राइ तिलक; विरद गज बाजको ।। हयगय हेमदांन; भांन मंदकी समान । हिंदु सुरतणि सोनपाल रेखराजको ॥४॥ सैन बर आसमके, पैज पर पासनके निज दल रंजन, भंजन परदल को । मदमतवारे; विकरारे अति भारे भारे । कारे कारे बादर से वास वसु जलके। कबि कहि रुप नृप भुपति निके सिंगार । अति बडवार औरापति सम बलके ॥ रेखराजनंद कोरपाल सोनपाल चंद । हेतवंनि देत एसे हाथि निके हलके । ठाकुरसी मेहता [ श्रेष्टिगौत्र वैद्य साखा ] इला तेगबरियांडनिति बैद्यसि भाभरण । हुवे रिण तालुधर लग बलिठो । फोजहा जमरी उपरे फोरवे नाखियो ठाकुरे तुरी नीलो ॥१॥ लीयो भालममु ओझडे लोहडा; खांग मोटां सीरे खाग खाले । खेग अमराहरो भैलियो खेरवे; किलम घडसेविची बडो काले ॥ बड दान दीये मिलिया बडपात्रा; अरी हाथल रहचणो अबीह । ठाकुरसीह कहावे ठाकुर; लीह कहावे ठाकुरों ठाकुरसीह ॥३॥ जिणदासोत सुदिन दे जाणी; खगतलये सिर दीये खल । बोलावे राजिंद तणा ब्रद बोलावे जगि सरस बल ॥४॥ सीमाहरो सुदिन सुरातन मौहती ददू विधि निरभे मंण । जगि भूपाल लंकाल कह्यो जिणि बडोसु जोसी ब्राह्मण ॥५॥ बकसी जिण रांग बभीषण लंका घटबीसवीयो न्याय घणो । ग्रहे चढ़े तिणि देत तणे गढ, ताइ बकसो जिणदास तणो ॥६॥ राखे रह्या दुरग सह राक्षस, हेम उतरे नहिं हीये । ठाकुरसी जिता सहु ठेले, दिनहकै परवाह दीये ॥७॥ जेसलमेर पयंपे जांनो, काले जिसे न आयो कोय । गढा गाहरण गिरद मेवासण धर गिणे, महाजन संघ के प्राचीन कवित Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककासूरि का जीवन ] [ओसवाल सं. ११७८-१२३७ + खडग जड बाजती अचल खेले। धारा नगरीके वैद मुहत्ता. सीधरे हुकमी जिणदासरो सीघलो ठाकुरो आठवे अनड ठेले १ धाराधिप देहलने, पद मंत्री सिर था। कहर कोठेतणां बेरहर कांपिणं, शाहा मोटो सामन्त, जगत सगलो दुःख कापै । जुडण जंमजाल सोइ घात जाणे नब खंड नाम देशल कियों, सोनपाल सुत्त जाणे सहु ॥ आभि थाभादीये बैदबंसी आभरण, दुनियों राखण दुकालमें, वैद मुहत्तोतणां गुण केता कहु ॥ आठ कुल बाथगहि हाथ आणे जैन हत्थुडिया राठोड शाह रत्नसी. भीछभीम रामरे लंकदल भांजियां, साकर गढ सा पुरुर, खारदीवा खेतडा । भीछ डम धजरो थाट भंजे । पुथीयाल(ने) दानका माल अपहो आपे त्तदा । पिसण पाधोरि बातणो कोइ पांतरो खेमशी लखीपाल लख ओपमा केम वखाणु ॥ गिरसिखर हाथलां मारि गंजे नवखंड देश खेरडाबडा वडा नाम परीयाणु । पाडि भड देवडा, मेछ परतालीया ओसवाल गोत थारो अचल वाचामे लखमी वसी ॥ पिसणतो सरस कुग थाइपुजे घोरम सुत्तन किजे बहुत युग युग राज रत्नसी। त्रिजड हय सोह अणबीह माहरा, + + धकारी मारीयो मेह धुजे ॥ सरवर फूटा जल वहा, अब क्या करो जतन । कलब भीरसहन भारी भुज भीम सम, जाता घर शाहजपाँ का, राखा एवं रतन ।। भरथीमल भारथ जोधन की धुरसी वावन काटटे छप्पन दरवाजा, पीनामई नाहन वहा राजा । रठमठ करन कठिन गढ कोट गाढे. महाजत मदद जमाया राज, बिन महाजन गँवाया राज। ढुकि ढोहि ढाहि देत तनक में तुरसी शूरवीर संचेती. जिनदासनंद जरजरी जर बकसत, थान सुधीर रिणथंभ, मान आपै महीपति । बल्ह कवि बिरद कुरसी दर कुरसी दुनियों सेवत द्वार सदा चित्त चक्रवत है संचति ॥ साहिनि मालिम सिकबंध निके सिरताज, आथ हाथ उधमै करे उपकार जग केतही। साकरे सनाह सुन्यो ठाकुरसी पातशाहा पोषीजे, जुगत दीखावे जैतसही ॥ भाद्र गौत्र समदडिया साखाके वीर. सरदर से इण संघमें सिरे, जगह जुग तालोलीलो। गुरु कक्कसूरि करी कीरपा, जैतसी सुत जग उगीयों । 'मेहराज' सिंह 'दाता' समुद' आदू सुत्त उदयो इसो ॥ सगलों सिरे संघपति, यो पारसनाथ भल पूमियो॥ + + तुरी चढीया तीन हजार, गज उगणीस मद झरतां । सेवत दुवार बडे बडे भूपत, देख सभा सम्पति हो भूले । उँटों लदीजे भार लहरा सात भरडाटा करतो ॥ रइस धराधर सोभीतद्वारे, जैसे वनमें केसर फूले ॥ सहस चार रथ जाण सहस दस गाडी साथे । संचेती कूलदीपक प्रगटयो, देख कबिजन एसे बोले । नरनारी नही पार गीणती कण लेवे हाथे ॥ सिंह 'मेहराम' के नन्द करंद, केहत कमीच सतरारूसोलो ॥ भाद् गोत्र उदयो भलो समुदो सम अथाहा । रणथंभोर के संचेतीयो का संघ । समदडिया कुल उजालोयों धर्मशी बद्ध वहा । मारवाड मेवाड सिंध धरा सोरठ सारी। टीकुशाह की उदारता कस्मीर कागरू गवाड गीरनार गन्धारी ॥ पडियो भयंकर काल महा विकराल भुजंग जिसो ॥ अलवर धरा भागरो छोड्यो न तीर्थ थान । भू ब्रह्मांड थइ एक, तब पुच्छे राय करवं किसो । पूर्व पश्चिम उत्तरदाक्षिन पृथवी प्रगटयो भान ॥ शाहा सिरे लक्ष्मी घरे इणनगरी काहा टीक वसे ॥ नरलोककोइ पूज्या नहीं, सचेतीथारे सारखो। तेखाव्यो तीणबार जब, जातो काल डग डग हसे । चंन्द्रभान नाम युग युग अचल, पहपलटे धनपारखो। महाजन संघ के प्राचीन कवित १३०९ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० [सं० ७७८-८३७] सोजत के वेद मुहता । ++ रोगट सोजत विंटी रायमल कोट अणखोले 'पतो' कहै। मोटी रीत घरे मुहतोरे, राज मुहतों गढ़ रहे ॥ ++++ वीवर गढ़ है कीणी खेतावती, अजमालीत रहे गढ़ और रीत उमाण वह 'राजद' जगतो रह्यो माजोर सोजत असीमियाणी, सोनीगरा जुडता आया । आद जुगाद मुरचरतणा, मुद्दतो घर मान सर्वाया ॥ वीर वैद महत्ता पाताजी को गीत. ठाकुर पांचो पांच भूतथी तरहे । संकेतन नित राखे । ससाखो हुव सीमयाणो 'पातळ' मरू कीरती पाले ॥ + 1 + + नाडी नाडी नित सुरज भुरजि, धुडतो जाय अरियों थाष्ट । हंस 'पतो' बुगलो को लायो। देदी दुरंग हुवो दह वाट ॥ मोटाइ पण तुं हाल 'मुहत्ता' मह कोइ छडेन फोझमझार नारायण कन्हे ला नारायण, तु आयो बन्ध तलवार ॥ खमे न ताप व्हारो दल खल | सनमुख छडे पाखर शेर । दानी हाथ रायमल दुजा सूरढा चमक्या देखी समसेर ॥ 1 + + + अहिरण रण, खेत हाथोडो अवध सास धर्माणि तप गेस सहई । आठि पोहर अथकित उभो धडदल रयण घडे घण घाई ॥ करीयो रोस कोप्यो दावानल, धडधड उमर धाइ पडे । बैनाणी 'पातावत' अरिबद्ध जडा उखेडत त्रिजड जडै ॥ सीवाणा का वैद मुहता राजमी. गढ सीवाणो गाजियो, राजियों के तरवार प्राण देइ पण राखियों, सुखी कोयो संसार ॥ धम्मं हेते धन खरचियों, पोपाशाहा प्रधान । + + वेदों ने वरदान | आगे ही सचायिका तणो । खपिया तेरह खान | तपियों मुहतो तेजसी३ ॥ + + कोडो द्रव्य लुटावियों। होदा उपर हाथ । १ अजो दील्ली को पातशाहा । राजा तो रूघनाथ २ ॥ + + + भोपाल उचारणा । भोमा हंदी वाढ । तन धन सघलो ते दीयो । राख्यो देवा मेंवाढ ॥ १ जोधपुरमरेश. १भंडारी ओसवाक ३ जाखीरा वदमुता. जीमणवार १३१० [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लाख जखोरो निपजे । वह पीपल की साथ । नटीयों मुत्तो नेणसी। साथ देण तलाक ॥ + + जगहू ग जीवाडीयों दोनों दान प्रमाण | तेरा सो पनोतरे । अब विच उगो भांण ॥ + + सौ सौनारो एक ठग । सो ठग ठाकुर एक । सौ ठाकुर भेला हुवे | जद अक मुत्सद्दी एक ॥ X + + थेरू जैसाणे हुवो। आसकरण मेडते । भरी मेवाडमे शाहा भोमो कण्डरी धरतीमे जगडवो कहिजे जिम जगमें टॉपरेशाहा टामो ॥ एक चारण अपने यजमान कि तारीफ. वागो जब यज्ञः मांडियों । तब नीवतियो सब मेवाड । गोलारोठांरी गाली । जदा हुवा धूधला पहाड ॥ इस पर एक जैन कविने कहा किनगरूप जुग जिमाडियों । निवतिया सब नव खण्ड | सिर सपिया वालंग तणा । काजलिया ब्रह्ममंण्ड ॥ आर्य जाति के वीर शारद मात नमु सरस्वती। कर वीणा पुस्तक बाँचती । मावा वरदो सुधरे मती करूँ ख्यात आयरिया ती ॥ १ ॥ उमानन्द शरण तो पाउ भक्ति कर गणपति मनाउ । मात चारणी शीश नमाड कुछ अवतंस यादुवंश गाउ ॥ २ ॥ मच्छदेश उजारण आये शत्रु दलबल खलसांच मचावे | सुभट भट से सहल संघाते सिन्ध धराधर जीव बचाते ॥ ३ ॥ मिल्या गुरु वसुदेव सम वाणी सुन उपदेश आत्म उराणी । रिधि सिधि सम धर्म बतायो । अक्षय निधान तसु वयणे पायो ॥ + + + पारसदेवक, नगर बसायो । छुटो राज, राज पुनः पायो । 1 दिन दिन परगल पुन्य सवायो कल्पतरू निज अंगण आयो ॥ जैनधर्म फलियो तरकाले । गोसल सुकृत कर धर्म संभाले । पट्टधर आसल नाम कमायो। संचयत कुळवर ओर सवायो ॥ देशल देश देश जुग चावो । सांगण सुभट झूजर ही पावो । सुलतान सूर उदयो अवचल । धर्म कर्म देपाळ दाता बल ॥ हाम भण हरपाल हंस भलेरी । दुर्जग सज्जन समरीत कजेरी ॥ राम बिड मण्डण सुमंदण | कारण भोग रिपु दल खंडण ॥८॥ तस सुत गोसह राम-राम तज । महाजन संघ की प्राचीन कवित Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ व्यापार करण मन रज सज ॥ पास तणे टोटो पट्टोधर खरा विरुद्ध खाटे भलवेसर वर व्यापार अपार पामे बह लच्छही। तस घर लुणो अवतरियो, नवखंड कियो ज नाम काटण पाप संताप संचे सेपत सच्ची ॥ देवी चारणी सहनिध करे, सुघर सुधारे सहु काम पुहवी पसरिया नाम काम सुवदिता । सुवर्ण लाट बादसाह मांगी दीली शाह मील अति तांगी देवधर दातार दुर्बल की भाजे चिता ॥ गुड़ नगर चलके साहु आये लुणो देवी तुरत मनावे शाह पदवी पामी सघर जपी मंत्र नवकार । आशा पुरी शाह की जग में अमर नाम । संघपती दुनियो नमे गोवाल सुत गुणधार ॥ लुणो ते संसार में कियो केतो बड़ो काम ॥ अगर चंदन कुकुमो पूजिजे जिनपाय । + धर्म हित धन वावरे सहसगुणा हो जाय ॥ आर्य गोत उदार सिन्धुदेश प्रसिद्धो, देवधर सुत गोल्हु दीपे दिन दिन भाण । लखमणसिंह लेख देव सुजस मयिल जिण लीधो ___ कल्हण दाता समै गत दालिद्रपिाण ॥११॥ राबसिंह रड़ियाल तास सुत छाबड़ जाग', कल्हण कल्पतरु हुओ लखमसी। धनदतने वली पासदत शाह टोटा बखारणो तसु वरदान कर लच्छी वसी॥ वंश लुणा घर अवतरी संघ जैन शत्रुजय कियो, देव गुरु धर्म हित धारी कीती कहु ओर विस्तरी। नगराज भादि एक दशतनु पुत्र पौत्रादि विस्तरियो __ + + + इल उदय अवर कत सीत करण निस्तरी। टोटा तण उध्यो कल्पतरु । सहसमल वसियों खिवसर । सिन्धधरा त्यागी लखमसी। | उदयो लुण गढ़े अण भंग दानेसर सता एक परणी महेसर। भूमिवास मरुधर मनवसी॥ शाह सारंग जब त्या आवियों। विविध भोज लुणे करावियो । सत हत घर देश बासहीपुरो। शाह समझावे बहु बहु परे । न्यात न माने एक लगार ॥ __ सघन अनगल उंग्यो धर्म अंकुरो । निज सुता सारंग तणी। परणाइ शाह लुणा प्रीत अपार ॥ संवत बारे चोदोतड़े वरसे। आठ नन्दन महसरणी के हुए। अष्ट सद्धि कियो घरवास । वद वैशाख तीज सीत सरसे ॥ जस कत बहुपरि सारंग साजी । न्याति लोग जड़ न मति भाजी। शुभ दिन लखमसी भाप महाबल । निज सुता शाह लुणा कर समरप्प। तब जाति मनु समजि अपराप्प वित वहेलेव वास कियो अतुली वल ॥ सधर सुत एकादस लुणाघरे । तसुभागे बहु लछी अनुसर । जिणे प्रसाद कराव्यो सुबर्ण कलस समेत । जात सतुजै बहुविध करे । प्रगललछी त्या सुवावरे ॥ शुभ प्रतिष्ठा पर दियो याचक दाम अमेत ॥ उदयकुल आर्य नवखण्ड कियो ज नाम । लखमसी लाहो लखमी तणो । कविवल्लण इम उच्चरे लुणा लावण्य काम ॥ मात चारणी सुप्रभाव गणो ॥ वेदमुता नारायणजी रो गीत तस पट्ट हुओ राजसी रढ़िया लो। वरसौ सो लगे सुपुहवी वरतण खत्रबट तणे भरोसे खाये । लंकालो एव राव राणों सिरे ॥ नारायणे कहे दलनायक नर न्हा सै सुजा किसे भ्याये ॥१॥ कुल उजालण राजदो सिरे, धर्म कर्म कीर्ति समद्र पारो फिरे । घी लेजा ग्रास तणा गढ पतियां तेग वाजियो नख में ताव । राजप्सी घर चाहड़ हुआ। दान यश दुनियो उबरे कवि लोभण कठे काम करसौ जगदीसर आगली जवाब ॥२॥ धनदतथी धन मच्छर करे अचर लइव न विचरे पातल तणे पुण पट्टोधर जीवम जाणो बुहै जुआ। पासदत पारस सम पारस लोहा सुवर्ण करे । आगली घणजी के उतरया हरी आपली सरषारू हुआ ॥३॥ शत्रुजय जत्त जय, दलबल सज जात समाचरे परमल दान उदार याचक जन कीर्ति करे गीत-नारायणजी दुरसाजीरो । चार सुत चउ स्थल सहवाथा, जथ्थ जिणोद्धर सवायो मोटाई पीसण तु हाल मुहता मुह कोइ छोड़े न फोजमझार । महाजन संघ के प्राचीन कवित १३११ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नारायण कन्दडो सजधजे तु आयो बान्ध तलवार ॥ | मोटी रीत घरे मुहतो रे राज महतो गढ़ रहे ॥ १॥ खमे न ताप तुहारो खलदल श्रीमुखाड़े पाखर सैर । | स्वीवरगढ़ है कीली नेमावती अजमालौत रहे गढ़ सिवाणे । दीनी हाथ रायम दूजा सुरड़ा बातों तीका सम सैर ॥ रीत उज लग वले राजड़ो जगदुतण रहयो गढ़ जालौर ॥ २ ॥ कबिलातों ते खाय किलेघर भारथ भाजे लख भट्ट । + + + रावण कंस स्मरियों रूठे तुठे दिन्हो भी जह ॥ कोट मीठो मित्र चन्द कीलाधर निसल हरे कियो जागीर नाम सु सिलहा सिन्धुडा सहित भाजे अरिया चसै भारथी। । ढाहा हरा सोनीगरा चूटा कुल तहारा सरीतो काम ॥३॥ पृथ्वी तणे सादार पातात हाथ तणो खग दोनों हथे। + सोजत अणे सीमी पाणे सोनीगरा जुड़ता आपा कवित आद जुगादी मुरधर तगा मुइता मरण तणी मोतादि गले ज रह मेखली, डंड पर गृह बोजु जोगाती। + + + टोप पत्र शिर छत्र, अंग वभूत परमल ॥ जोधपुर के मूता पाताजी का गीत योग बहे जर कमर, जुड़बड़ लख जमातो। परगटेक मस्तक कह हाथ पग। नजा सखण के नयन तीम । ध्यान ज्ञान गज तुरी, त्रिखड़ बंधेकटि ताती ॥ अजण तणामृत हुभा जाण खोलौ । जीव पखे वय हुओ जिम ॥ तिडिसिंघ भुयण लेवानो गति सत्र सहि करी जोड़े। नमी माथो वल पमणन हाले बीथका अंगसहु वस्यिाम । क्षत्री जोगीन्द रयण पालालरे खड़सिंह मोटो खत्ती॥ खेत कलो घर हंस खेलीया काडी शरीर सरै कोई काम ॥ खीवसर के वैदमुहता. भारण ते आहट अगनि सै आतस । धरम हित धन खरचियो पोपाशाह स.हवास । अति गारी घाट अनूप, घावडियों आरेण विविध पडै । | खीवसर में शत्रुकार दिया गयो काल जट नास ॥ भांजै घड़े घड़ि भाजै भूप गलणी छाड़ी वाड़ा ग्रह गाले । संचेतियों का कवित. गजसु दगर करी तेग ग्रही सारधार लोहार असंकित । दीपक बडा दरियाव चतुर अवसर नहीं चूके। सत्र शंके लै किया सही ॥ संचेती सर्व जाण मान मन हु नहीं मुके ॥ मोरक्ष पौकरणानाथा का कवित दुर्ग बडो दरियाव भाव जस वास वाणिजे । कांते आवो रे दुकाल नाथा के दरबार में । साच वाच सुरगण सुजस संसार सुणिजे ॥ माम न पावेगा तु तो जा जा देशपार में ॥ मंगियोमोल संपजै समद कवियो कुरंद जकापणे। कुत कोरा दौरा लगत हुन विछोरा तेरा तौर में । राखवे हरख चक्रतल आद् सुसंवद आपणे ॥ अनाथ को सनाथ भयो नाथो उगत ही भौर में । + संचेतीयों का कवित संचेति सर्वजाण मभरी आच्छा मोढे । सायर अहदसिंह भले रंग रंग भणिजे । आदू को अनाथह कवियो दर्द तोड़े ॥ डावर दिल दिल दरियाव, कथन ताह बछो कहिजे। कवियां करण कुबेर मेर पटंबर जिसो मग । दशरथ कु भावत वखत मोटो बखाणे । ओसवा उद्योत दिये दिन मान बडा दान ॥ सुहमकमा रूपसी इन्द्र सीखो अही नणे ॥ परथा अमट कवरेख पट समपै खेतमा जको । हर राज अने टाहो हुओजोर नाव किंधा जिया। पखरो सुजसपुर पुहब यह जेता महार जको ॥ सातल भालो नध सहसी सिरहर आज संचेती॥ + + + गीत तेजपाल संचेतीरो सोजत के वेद महता सबल मूल सोलाग पति परगढ़ प्रदेशो । गढ सोजत रह्यो रायमल कोठ अण खोले पातो कहे। शाख सकल संतोष सात फल यह यशः केसो? १३१२ महाजन संघ के प्राचीन कवित Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० ११७८-१२३७ विहंग गुणरस राम दान संबंध सोहे दिशा । पत्त धरे छत्रपति माया करे तुझ पाण। साहादर सतपर छेह जान रिध कारजगावशा ॥ दीवाणरे सिर सरोवर मांडे सतीदास ॥ हरदास कहे महाराजरो व्यापक वचन उच्चरे । बड़ा लखारारी रीत मीढ़ ओपे बड़ालाजु । तागीया तिलक सहुतणा तेजपाल रणथंभ तरे ॥ तेगधारी बड़ी कहाके वासरे तौल । + + + नीर रा चढ़ाउ नरसिंह राउ दे नेम । नवसोने बाड़ीतरे गढचट कोइ न भायो गाज । बहादरातों जैहा करबाजे रहे बोल ॥ विषमी वार संचेती बदिया हाप्यो तो फावियो हरराज ॥ वाद बदी हाथियों सेठ लाटली कौन वैदें। मारवाड़ मेवाड़ सिन्ध धर सोरठ सारी । सारी समागलाजी हाँ हूँ चकै किसी बल ।। कारनीर कांगरू गौड़ गिरनोर गन्धारो ॥ दी ठोउ वे राज हरो सार सोधी वाण उगे। अलवर घर आगरी छटा भाखरपुर थाणे । जाजमा रू वैजोर वस रोउ जाल। पूर्व उत्तर पश्चिम दक्षण घरा पार आंगणे ॥ मती जोध भाणं अचल कचरारी जोर कहे। नरलोग कोई पजिया नहीं समवड़ थारी सारखो । माइदास बखतेरू सपतु संबन्ध ॥ चन्द्रमाण नाम युग युग भवचल यह पलटे धन पारखे ॥ जोधु वधु आपु माइ दास हुकमचंद जौ रहै प्रताप धरा ॥ कवित मारूजी संचेतीरो बलाह रांक झालरो गीत षितपुगढ़ मालमखेत प्रसद्ध सायर मेहा। कटी लटी करवाल अस चढ अवनी चाले । छहड़ जीम बात्तत नाम जन्दराज वेहा ॥ रायभक्त रण चढी रिपदल भक्षण काले ॥ धन कालु धनराज तोल आदू जत विजै । वीडतां वीड असराल झाकाने केता झाले । मतिसागर महराज दान सहु अलख दीजै ॥ सुदृढ सुभट भट सिंदूर दुर्जन दे साले ॥ तीणपट संचेती तेजहर छत मोटी विरुदछाता। बलाह गोत बांकावरवीर रांका राव सम उद्धरे। सर्व जाण अभंग चंदभाण भूप उजलदाता ॥ कवि कल्हण जंग जीतण इला झालो जग सरासिरे ॥ कर को करपण न सके काठ का वीहतो न पातै बाथ । कुम्मट विंजारो कवित भंजा भुको कियो भैर हर हरखावत लाग्यो हाथ ॥ रव पुडरीक गणु रडवडियो वरण अठारा दीपा वरांसो। | पढ्यो इन्द्र घर काल विकराल मृतलोगे पडायो । मैक मेच होडी सोभा हितशाखा धनराज हरा ॥ बलबल करते बाल मृगणी पति न पायो । लाख घj घणुं लहसाणा लोभ्या किणही न षै टोलार । | समरे कुक्ष जननी जनक हाहा सहु को करे । भीमैतिया सुरताण सहोवर पकड़ी बाह आदि पार ॥ धन विजा त्रीय विश्व में अन्नदानधिकोकरे ॥ पहवो सुप्रसिद्ध नयर मोखोणो अवचल । शव रंक सरिखा भया आवे विजा द्वार पे। केसीपुरी पोकरणि शाख सुखा सुनिश्चल ॥ प्राण रखो पृथ्वी ग्रहो अमर नाम संसार पै ॥ तस सुत गोशल कल्पवृक्ष अविचल जम छाजै । ॥ओसवाल ज्ञातिनो रासो ।। खीमेड़ियो गढ़ कलहसिं जुडील गल गाजै॥ सोह वधौ संसार सीर, इल राखण इखियात; पीथड़ सिखरो प्रगट नर सुकविगंद समुच्चरे । नखिन अभीच निमंधियो निज उजलावण न्याति ॥ पग्विजा सयण खीवराजरो धनराज सहसीरे ॥ जहां साढीबाहर न्याति सराहा श्रीमाली वोसवाल सवे । डीडू, बघेरवाल दाखी जै, चित्रावाल पलीवाल चवे ॥ जोधपुर का समदड़िया मुता सतीदास का कवित. खैखाल, नराणा, हरसौरा, जुगती जै ओपम जाणे । वादै वाजीराव जा रए हो वाजीरारै सिरै। अती ओसवाल न्याति उजालं, बधौ बडि महथ वाखाणे ॥ बाम आखीए आदि तजै हरे बहु जास ॥ पीणी पोकरवाल मणी जे, वली मेडतवाला कारमहे । महाजन संघ के प्राचीन कवित १३१३ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास खंडेलवाल लहुवै जस खाटै, सगली विधि ठठवाल सहे ॥ खटबड़ असौचीया डांगी हीगड, खित पगारिया मांभरा पटे ॥ वदागात बखणे अम बेरसल, खरी न्याति हीरा खांणे। खीची अपरी कुहाड़ गोखरू, घीया भरगं गवाल धणे। अती ओसवाल न्याति उजालं. बघौ बडि महथ वाखाणे ॥ येती ओसवाल न्याति उठजालं, वधौ वड़ि महथ वाखाणे ॥ आयचां, तातहट भूरा आखीये, करणांटा बाकण। कहे । टोटखाल टिकलिया तबिजे, ककड़ बीरोलिया कहीये । चीचड अराभंड कूकड़ा, चावा लहुडीडू कुभटा लहे ॥ नादेचा रातड़ीया ढाबरीया नखै, निकलकं नाखरीया नहीये । सेठीया भिरह मोर सुसंचीती श्री श्रीमाली सुरताणे। | मगदीया अचलिया छोहरीया महि, हीरण घमारी दलिद हणे येती ओसवाल न्याति उज्जालं, बघौ बड़ि महथ वाखाणे ॥ येति ओसवाल न्याति उज्जालं, वधौ बड़ि महथ वाखाणे ॥ शंका अर लिंगा वैद कहि रूपक सलहां लोढा सूरोणा। वडहरा भांगरीया जोधपुरा वलि, नागौरी वधवाल नर । नाहर बोथरा चोपड़ा निरमल घण दांनी पारिख घणा ॥ नरवै मीठडीया नलवाया नीधननर, हित जालोरी दलिहरं ॥ सांडि सीखा गोलेछा बहु विधि, जगपुर चं रडया जाणे। चिंडालोया परद पालेरचा चाचवि, इगरिया जड़ीया डाणे । येती ओसवाल न्याति उज्जालं, बघौ बड़ि महथ बाखांणे ॥ येति भोसवाल न्याति उज्जालं, वधौ बड़ि महथ वाखाणे ॥ गादहोया चंब चौधरी दूगड विनाइकाया वंभ भणे । रूणवाल भटेवरा जांगड़ा राजे, धुपीया खांटहड कहा घने । दरड़ा प्रामे का बड़ दाखा, भुत सखवाला सुजस सुणे ॥ पीपाड़ा वोरोदीया चतुर पणि मेड़तवालां कहे मने ॥ भंडसाली अधिक छाजहड़ भल्ल पण इल कांकरिया अहिनाणे | असम गोत्र रोटागिण आखा, बुरड़ घांध बहु विधि वाणे। येती ओसवाल न्याति उज्जालं वधौ बड़ि महथ वाखाणे ॥ येति ओसवाल न्याति उज्जालं, वधौ वड़ि महथ वाखाणे ॥ वागरेचा वौहरा मीठडिया वलि. छजलांणी डागा छाजै । | भड़कतीया मंडोरा भणीये, मंडलेचा अघीका मुणीये । हाकलिया सांड सांकला डाही. काबेडिया कयावर काजे ॥ वलि वीरोला डुगरवाला वाचीजै थंभ महेवचा जस थुणिये ॥ लणिया सीसोदिया वांगाणी, पूरे वगड़ परियांणे। दिल्लीवाल महमबाल दूधेडीया, प्रगट वोपमा परमाणे । येती ओसवाल न्याति उज्जालं, वधौ वढ़ि महथ वाखाणे॥ | येति ओसवाल न्याति उज्जालं, बधो वड़ि महथ वाखाणे । छलोया केलाणी भेलडीया छलि, ललवाणी लोकड़ लेखे । सोजतीया मदोवरा सुणि जे माणहंडिया रेहड मंडे । सीरोहिआ मालू सौ विधि सुंदर. दीपक मालवीया देखे ॥ गजदाता सुर हुवो गुण हडीयो, बढ़पात्रा दालिद विहडै ॥ गणधर चौपड़ा देसलहर गाजै, विधि कहि फोफलीया मांणे । अमराव तेज तूज हो अबिचल, भुवनंतर उगै भाणे । येती ओसवाल न्याति उज्जालं, वधौ वड़ि महथ वाखाणे ॥ येति ओसबाल न्याति उज्जालं, वधौ वढि मत्थ वाखाणे ॥ कूकड़ लुणावत खीवसरा कहि सहसगणा माहे सोह। ॥ जर्दा जद गोत्रना प्रसिद्ध श्रीमालीयो । बाबेल लुणावत फलोधीआ वहु, मतिसागर जोगह मोहै ॥ | आगे अधिकारी थे अनंत तिस नाम कहूँ श्रीमालका, कुलण नाहटा भंडारी कहीये, वले वांठिया निधि वाणे । इस कलि में सांडा कोडिया दे कनक टका कलिकालका, येती आसवाल न्याति उज्जाल, वधोवदि महथ वाखांणे ॥ इस परि भीम तंबोल त्यागी, हेम मुकत अरू लालका, मुहणोत अनै भंडसाली मोटिम, बरहडिया विधि विधि वाया। उदेसी वीधू टाक दांनि, जासा अरू देपाल का, पंशुल प्रामेचा सोनी सफला सह विधि मोहांणी साचा॥ उह दिली गोपा बदलीया जेजिया छुटया दर हाल का, भगलीया कोठारी पोकरणा मणि, येम गहलडा आपणे । । रतनागर नाहा भांडिया ढिली ढिग झझरवाला, येती ओसवाल न्याति उज्जल, वधौवडि महथ वाखाणे ॥ । राय सधारह सीरी वछ भंडारी सेर संभालका. डोसी कटारिया पाल्हवत समदडीया गिडीया साचा । लिखी सतीदास चिंडालिया, जो देसक माने चालका, राखेचा वाघरेचा बांसि रूपक, विहु डोहीया नहु वाचा ॥ लाकज नरसी रैपती करी नर बोहरा नरपाकका, थोरवाल वोपमा लालण, जुगति नाग गोत्रा जाणे । इस जुग में वेगो महाराज थे, सिधुद अमिट भटालिका, येति भोसवान्याति उज्जाल, वधौवडि महथ वाखाणे ॥ | इण काण्योपन घिरिया जुनिवाल, हरखारड हरपालका, बड़ गोत्रा आछा गोत्रा बड़ला धाड़ीवाहा घवलधरे।। | वो कीरतिमल कुकड़ी आंदरोज करनाल का, १३१४ महाजन संघ के प्राचीन कवित Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरी का जीवन | वो जोनपुर भरहा ढोर जानि पाँगी पथ वाघ मुखाक्षका, अरधान मांन रस्तगि हुये, मीठीया कहूँ महिपालका, अधिकारी टाळन धांधीया, जस पल्हवड राजपाल का, ब्रिती भैरू मा परगटे, मेवात बहतरि पालका, गोल्छा सारग समरथ साह, तांबी मेघ प्रनाल का, वर्णा विरद अब संकिपाण तिस ऊपरि हठी हठाक था, नचित्रज तेरा भारमल अभीच जनम अरिसाल का, ममैवासी को जेर चढि गिर सुधा सुरताल का, जगि उपरि बलि विक्रम जिसा, दाखिर कल्पा जंजाल का राजा रोडरमल शुं प्रति ज्यों सरवर मांन मगल का, + + + + साचा गुन खेते का, संवत सोळा तालका । हुकमज अकबर पातिसाह परताप जो भारहमाउका ॥ ओसवाल भोपालों का रासा ( चाल चौपाई ) । । २ ॥ शारद मात नभू शिरनामी कवियों की तँ अंतजमी विणा पुस्तक धारणी माता | हंस बाहनि वयण वर दासा ॥ १ ॥ बारह न्यात बली चौरासी । ओसवाल सब में गुण रासी रास भणु मन घरी उल्टा जाति नामक कर प्रकाश ॥ पार्श्वनाथ वर उट्टे पट्टाम्बर स्वप्रभसूरि सूरिवर आवे मरुचर देश मझारी उएश नगरे उस विहारी ॥ ३ ॥ शिष्य पांचसी थे गुणवन्ता माउ दोमास तप आचरंता कोई नहीं पुच्छे न अन्नपाणी | ज्ञान ध्यान तपस्या मन ठाणी राय जमात अही विष ग्रह्यो । सूरि समीप लाइने धर्यो || चरण प्रक्षाल लटकावे । तत्क्षण कुंवर सचेतन थावे ॥ ५ ॥ राजा मंत्री नागरिक सारा । गुरु उपदेश शिर पैधा । सात दुर्व्यसन दूर निवारी सवाल सख्या नरनारी ॥ ६ ॥ जिनके गोत्र प्रसिद्ध अठारा खातेदा कर्णावट सारा वलाह गोत्र की शंका शाखा । मोरक्ष ते पोकरणा लाखा ॥ ७ ॥ विरहट कूलर मे श्री श्रीमाल संचेती श्रेष्टि उजमान | आदित्यनाग चोरड़िया वाजे । भूरि भाद्र समदड़िया गाजे ॥८॥ चिंच- देसरड़ा कुम्ल्ट भेटी । कनौजिया डिडु लघुश्रेष्टि ॥ चर गोत कांकरिया आखा । लुंगगोत चंडालिया शाखा ॥ ९ ॥ सुघड़ दूधड़ ने घटिया गोत । ऐता आदू भोसवंश उद्योत । महाजन संघ थाप्यो गुरुराय । दिन दिनवृद्धि अधिकी थाय ॥ १० वीर संवत् के थे सीतर वर्ष । अपूर्व था उस संघ का दर्श महाजन संघ के प्राचीन कवित | ओसवाल सं० १९७८-१२३७ I अमर यशः सूरीश्वर हिनो धर्म कलि में स्थिरकर दिनो ॥ ११ ॥ आर्य छाजेड़ राखेचा काग गरुड़ सालेचा चरो जिन माग । घाघरेचा कुंकुम मे सफला । नक्षत्र आभड़ बहुरी कला ॥ १२ ॥ छत्त वाघमार पिण्डोडिया धुड़ियों ने शुभ कार्य किया । मंडोवरा मल गुदेवा जाण । गच्छ उएश ऐते पहचान ॥ १३ यद जिम शाखा विस्तरी गणती तेनी को नहीं करी । भानुं ताप प्रचण्डमध्यान्द महाजन संघ को बडियो मान १४ तप्तभट्ट तातेड़ कहलाया । तोडियाणी आदि मन भाया ॥ बावीस शाखा बिस्तरी भाग्य रवि ने उन्नति करी ॥ १५ ॥ बाप्पनाग प्रसिद्ध बाफना नाहरा जंगड़ा वैताळा घणा ॥ पटवा वालिया ने दफ्तरी बावन शाखा विस्तारी ॥ १६ ॥ करणावट की सुनिये वात जिनसे निकली चौदह जात ॥ वाह वास वलभी करे। शिलादित्य राजा से अटे ॥ १७ ॥ कांगसी ने उत्पात मचायो । वल्लभी को भंग करायो ॥ शंका बांका नाम कमायो जाति रांका सेठ पद पायो ॥ १८॥ छवीस शाखा पृथक कही । समय उन्नति को मानो सही ॥ मोरक्ष गोउ पोकरणा आदि । सत्तरा शाखा भाग्य प्रसाद्धि ॥ १९ ॥ कुलट शाखा सूरक्षा कमी जाति अठारह प्रकट हो जागी। विरहट गीत भुइँयादि सत्तरे । यह जिम शाखाएं बिसरे ||२०| श्रीश्रीमालो ने सोनो पायो । मान राज से मिलियो रूवायो । निलडियादि बावीस जात । शुभ कार्यों से हुई विख्यात ॥२१॥ राव उपलदेव ने नाम कमायो श्रेष्ठिगीत वैद्य मेहता पद पायो | माला रावतादि एकतीस श्रेष्ठ काम करते शिसि ॥२२॥ सुचंति शुभ सूचना करे। संचेती हिंगड़ नाम ज धरे ॥ शाखा तेतालीस निकली । उन्नति में सत्र फूली फली ॥ २३ ॥ 1 अदित्यनाग था पुरुष प्रधान । प्रकट हुआ था नवनिधान ॥ धर्म तणो किनो उद्योग महाजन संघ में जागति जोत ॥ २४ ॥ चोरड़िया गुलेच्छाजात पारख गाड्या सुप्रभात || सामसुखा ने वृचा आदि चौरासी शाखा है प्रसादि ॥ २५॥ बूच्चा । श्रीसवंश में नाम कमायो । विस्तार पायो संघ सवायो || इस गोत में भैसा शाह चार । जिन कि महिमा अपरंपार ॥ २६॥ भूरि गोत भटेवरा लाखा । विस्तरी बड़जिम वीस खा ॥ भाद्र गोत समदडिया नाम । गुणतीस शाखा वड़िया काम ॥ २७ ॥ चिचट गोत देसरडा जागो। उन्नीस जाति सुकाम प्रमाणो ॥ कुम्मट शाखा काजलिया परे । बीस जाति सेवा शिर धरे ॥ २८॥ डिब्रू गोत फीचर प्रमाण । तेवीस शाखा शुभ कार्य जाण ॥ १३१५ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८ से ८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कनोजिया की उन्नति कही । उन्नीस शाखा मानो सही ॥२९॥ मामड़झावक दूधेडिया कही। छजलाणी छलाणी सही ॥४६॥ लघ श्रेष्टि फिर इनकी जात । वर्धमानादि सोलह विख्यात । घोडावत हरिया कल्हाणी। गोखरू चोधरी नागड जाणी॥ चरड गोत कांकरिया जाणो । नव शाखा के काम पहचाणो॥ छोरिया सामड़ा लोडावड वीर । सूरिया मीठा नाहर गंभीर ॥४॥ सुंघड़ दूघड़ के संडासियासात।लुंग-चण्डालिया चार हुई जात। जड़िया आदि ओर विवेक । नागपुरिया तपा सूरि नेक ॥ गटिया गोत टीबांणी तीन । धर्म कर्म में रहते लीन ॥ दुर्व्यसन छोडाइ जैन बनाया। उनका उपकार सदा सकया ॥४॥ अठारह चार सब बाबीस मूल। पांच सौ पन्द्रह जाति हुई कूल। | वरदिया-वरडिया वंश जतावे । वरहुरिया शिलालेखषतावे ॥ उन्नति के यह हनाण । नामी पुरुष हुए प्रमाण ॥ | बांठिया कवाड थे बड़े ही वीर। शह-हरखावत साहस स धीर ॥४९॥ जन्होंने धार्मिक कार्य किये । धर्म काम में बह द्रव्य दिया। छत्रिया लालाणी ने रणधीर । ललवाणी हुए वडे गंभीर ॥ राज काज व्यापार से कही । कई हाँसी से जातिये बन गई। गान्धीराज वैदबलगोन्धी। जिन्होंने प्रीत प्रभु से सान्धी ॥५०॥ टोय हजार वर्ष निरन्तर । उपकेश-सरियों ने बराबर। खजानची और डफरिया जाण। बुरड संघी मनौत पहचान । अजैनों को जैन बनाते रहे। उनकी जाति की गिनती कोन कहे॥ पगारिया चौधी व सौलंकी। गुजरांणी कच्छोला जिनको १५१॥ भन्याचार्यों ने जैन बनाये। महाजन संघ के साथ मिलाये।। मरडेचा सोलेचा और खटोल। विनायकिया लुंकड सराफ अमोल जिससे संगठन बढ़ता गया। अलग रखने का नाम न लिया। अंचलिया मिन्नी ने गोलिया, ओस्तवाल गोठी दोलिया ॥५२॥ महाजन (संघ) समृद्धशाली भया। तन धन मन उतंग नभ गया। मादरेचा लोलेचा व भाला। गुरु प्याल पी लो मतवाला ॥ क्रिया भेद गच्छ पृथक हुआ तब श्रीगणेश पतन का हुआ॥ वृहद तपागच्छ के सूरि सधीर। जैन बनाये क्षत्री वीर ॥५३॥ चैत्य निश्रय अनिश्रय कृतदोय । गोष्टिक बमाये सुयोग्य को जोय गिरते नरक से स्वर्ग बताया। परम्परा हम चलते आये ॥ इसने गड़बड़ मचाइ पुरी। ममत्व भाव नहीं रही अधूरी ॥३७॥ उपकार तणो नहीं आवे पार। प्रतिदिन वन्दन वार हजार ॥५४॥ हाल इसका है विस्तार । केता लिखू नहीं आवे पार ।। गालहा आथ गोता बुरड जाणा । सुभद्रा बोहरा व सियाकाण ॥ वर्तमान जो प्रनलीत है वात। जिसका ही लिख द अवदाता ॥३८॥ कटारिया कोटेचा रत्नपुरा । नागदगोत मिटदिया वदशूरा ॥५॥ मतमतिर निकले नहीं मान । ले ले जातियां मांडी दुकान। घर गान्धी देवानन्द धरा । गोतम गोत ढोसी सोनोगरा ॥ जातियों ने उनका साथ दिया। उनके ही इतिहास का खूनकिया। कांटिया हरिया देदिया वीर । बोरेचा और श्रीमाल वडधीर ५६ तोड़ संगठन अपनी की थाप । कृतघ्नी बन किया वत्र पाप। अंचल गच्छ सूरीश्वर राया। भजनों को जैन बनाया । पतन दशा का कारण यही । अनुभव से सब जाणी सही ॥ उपकार आपका अपरम्पार । स्मरण करिये प्रत्युपकार ॥५॥ भवितव्यता टारी नहीं टरे। होन हार अन्यथा कोन करे। पगारिया बंब गंग कोठारी। गिरिभा गहलदा ओर है न्यारी ॥ अन्य गच्छ के कहलावे गोत्र । वंशावलियों से पाई जोत ॥ मलधार गच्छ के सूरि जाण । भावक बनाये जाति प्रमाण ॥५॥ मंडोत सुंघेचलने रातडिया। बोत्थरा बछावत व फोफलिया। सांढ सिबाल पुनमियाधार । सालेचा मेघाणी धनेरा सार । कोठारी कोटड़िया कपुरिया। घाडिवाल धाकदा सेठिया ॥ पूनमिया गच्छ के सूरिराय श्रावकबनाये करुणा लाय ॥५१॥ धूवगोता नागगोता वली नाहर धाकड़ और खीबसरा सार। रणधीरा कावडिया सुजाण,। ढहाश्रीपति तेलेरा मान ॥ मथुरा मिन्नी सोनेचा सुजाण । मकवाणा फितुरिया को जाण ॥ कोठारी नाणावाल गच्छ सार । सूरि कितो जबर उपकार ॥६०॥ खाबिया सुखियाने संखलेचा। डाकलिया पाडूगोता पोसालेचा। सुरांणा सांखला सोनी जिसा। भणवट मिटड़िया है किसा । बाकुलिया सहुचेती नागणा। खीवाणदिया बडेरा वापणा ॥ | ओस्तवाछ खटोड ओर नाहर । सरांणा गच्छ का परिवार ॥६॥ कोरंटगच्छ के ये श्रावक जाण । वंशावलियों में हैं प्रमाण । धर्मघोष सूरि का उपकार । नहीं भूले एक क्षण लगार ॥ नन्नप्रभसूरि आदि प्रभाविक । जिन्होंने बनाये जैनी भाविक ॥ धोखा-बोहरा डुगरवाल कही। पल्लीवाल गच्छ की कृपा सही गोहलाणि ने नवलखाण । भुतेदिया ये एक ही प्रमाण । धेड़िया कटोतिया गंग जाति। बंब और खाबड़िया साति ॥ पीपाड़ा हिरण ने गोगड़ा। शिशोदिया है इसमें बड़ा ॥४५॥ कदरसा गच्छ के सूरि महन्त । हम पर किया उपकार अनंत रूणीवाल ने वेगाणी दानी। हिंगड़ गिा ने रायस नी॥ भंडारी गुगलिया धारोला । चूतर दूधेडिया बोहरा झोला । १३१६ __ महाजन संघ के प्राचीन कवित Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ) [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ कांकरेचा और शिशोदिया वीर । गच्छ सांढेराव सदा सधीर ॥६४॥ झोटा झवरवाल ने झलेबी। टाटिया टोडरवाल और टकेगी। उपकार तणो नहीं वे पार । विनय भक्ति वन्दन वार हजार ॥ टाडुलिया टोकायत टुकलियां। टांचा टाकलिया टांकीवादियां। गच्छ मंडोवरा आगमिया गच्छ । द्विवन्दनिक जीरावला है स्वच्छ॥ ठावा ठाकुर ठेठवाल ठंठेर । ठगणा ठंठवाल और ठंडेर ॥ चित्रवाल गच्छ छापरिया और । चौरासी गच्छों का था ॥ डागा डांग' डावा डाकलिया। डोडिया डावणां ने डावरिया। थोड़े बहत प्रमाण में सही। अजैनों को जैनब ये कहीं कहीं। दाबरिया ढेलिवाल टेढिया । ढुंढवाल हुँढेडा लिया। साधु साध्वी हुए विच्छेद तमाम । कहीं २ कुल गुरु माण्डे नाम ॥ तोडरवाल तोलावत् तुल्ला । तीखा तेजावत् ने तोमुला। साहित्य का है आज अभाव । प्रकाशित नही हुभा स्वभाव ॥ थोथा थाभलेचा थानावत् । थाका, धीरा और थोरावत् ॥ भोसवंश रत्नाकर था विशाल । गोत्र जातियाँ थी रत्नों की माल॥ दादा दरड़ दक ने देदावत् । दाउ दीलीवाल और दीपावत् । संवत् सतरहसौ सीर मझार । सेवग प्रतिज्ञा की दीलधार ॥ देवड़ा दीसावाल दीवाना । धमाणी धोंगड़ धूपिया आना ॥ तमाम जातियों का लिखसुनाम । पिच्छे कारसु घर का काम ॥ धोखा धंधलिया धनेचा । धावा धोग धींगा धूलेचा । दशवर्ष तक भ्रमण बहुकिया।चौदहसोचमालोस नाम लिख लया नावरिया नाडोला नांदेचा। निधि नेमाणो ने नाथेचा ॥ रह गई एक दोसी जात । डोसी और घणेरी होसी साचीबात नवसरा नाथसरा नौवेरा । नाणावटी नारा निबेडनेरा । पना परांणा मिलियो ज्ञान भण्डार । लिख सुजातियो उनके आधार पंवार पामेचा पालीवाले। पाटणिया पटवा पोमावत् चाले । ऊपर लिखी जातियों करसु बाद । फिरभी रह जाता है अपवाद॥ पडिहार पाड़िया पाकरेचा। पोकरवाल पितलिया पादेचा। आमी अरणोदिया और अतार । अच्छा मामदेवा आलझडा सार॥ पालावत् पिपलिया पुहड़ा वीर । पाथवत् पोपटिया पग धीर॥ आवगोता आखा अर्बुदा जाण । भालीजा ओसरा आसांणी मान ॥ फूला फूलपगर फोकटिया जाण । फक्कड़ा फेफावत् फला प्रमाण। ओरड़िया इज्जारा इन्दाणी परे । ऊटड़ा उबड़ा उमरावज सरे ॥ बडोलिया बडाला वलोटा धीरा बालडाबहुबोका बावला वीरा ॥ अनिया ऊकारा उसकेरिया मान कटक कटारा कणेरा प्रमाण ॥ वाबेल बांगाणी बघेरवाल । बाबेलिया बोचा वांकीवाल । कदिया कटोतिया कसाराकट । कागदिया काजलिया करकट ॥ बुरद बुर्कचा बोकडियामान । बोरूदिया बोगा बजाज पहचान ॥ कासतवाल कांकलिया कापडिया। कान्धल कविया काल दिया। बुबकिया बुद्ध बेगडा खरा । बालिया बोरेचा बगला धरा । किराड कंबोज कंकर कंडसार। कुचेरिया कंपढ़ कसरिया धार ॥ | भक्कदमहगतियांभंडेसरा सही। भीलडिय केलवाल केरिया केवढ़ा भारी। कोलिया काबर कंडीरकारी। भंडावत् भोपाला भुंगढ़ी धीर । भीम्नमालाभादवत भुनिडवीर। खंगार खंगणी खर भंडारी । खडभंशाली खरवदा उपकारी ॥ भाला भोगरवाल और भरा। भाटी भलभला ने भक चूग॥ खाटा खारीबाल खेलची जाणो। खीची खीचिया खेंचाताणों। मरडिया मीनोयार मे मागदिया। मेड़तिया ममाइया भालुकिया। खेरिया खेतरपाल खेतसी वीर खेमानन्दी खुतड़ खेताणीगंभीर ॥ महुतीयाणी मीनारा ने मुशल । मोथात है मोडो मीठा कुशल खुखुवालखे तसार खंडिया। खाउ खेलू खेतासर खोजुरिया। माडलेचा मालविया ने मेवाड़ा । मालावत मुगा मोथा चाड। ॥ खखरोटा खेडीवाल खोसिया। गट्टा गलगट गडवाणी लिया ॥ मच्छा मुलीवाल अरू मुर्गीपा: । मकाणा मादरेचा वे सुविशाल॥ गुलगुला गेमावत और गौरा । गुजरा गोल किया गीया भौरा। मोदी मर्ची और मोतिया वडवीर । मोहीवाल मेंदीवाल हए रणवीर गुणतिया गुलखण्डियां गोदा। गोगावत गोवरिया योद्धा ॥ रायजादा राय भणसाणी ने राठौड़ । राजावत् रासाणी रोडा कोद गोसलाणी गोहिल गुजरा । घोघा गीरवा घंघवाल धार । | लालन लुणिया लुणावत जाण । लुबक लोला लेवा पहचान ॥ चौसरा चीमाणी चौमोहल्ला । चूंगीवाल चेतावत् चंदोला ॥ | लाखाणी लखेसरा ने लोलेचा । संभरिया साचोरा ने सोलेच।। चूंदड़िया चाव ने चामड़ । चील चितोड़ा और चौखंड । सिरोया सरवाला ने सेवइयाँ । सोढा सांगाणी शृंगारारिया ॥ चोखा चूदावाल ने चंचल । चिनीचुदावत चूंगा अतलीबल ॥ सुरपुरियां सांगरिया सोनीगरा ।सोजतिया सिंहावत् उत्तमधरा छ छोड़ छोगा छोटा छा ही। छालिया छीटिया छीवरसाही। संखवाल साच्चा सुखा सही। हरसोला हादा हेमावत कही ।। माला जोगद जोगावत् शूरा जाणेचा । जीनाणी जेताव जोतूरा ॥ हांसा हंसाणी हाला खेडी वीर। हापड़ा हुला हरियागंभीर ॥ नक्षगोता जालौरी जिन्दा । जेलमी जोगनेरा जेबी प्रसिद्धा। संक्षिप्त से मैं किया विचार । ओसवंश रत्नाकर नहीं भावे पार ॥ महाजन संघ के प्राचीन कवित Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७) [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एक एक नाम की जातियाँ सही । मूल गोत्र से निकली कही॥ पुत्र पिता भीड़ पास महल सहलां सुख माणे। जिणसु नाम आवे वारम्वार । शंका छोड करजो विचार ॥ तीण अवसर रिषीराज रत्नप्रभु मास म्यामणे । वंशावलियों से एक ही की। चौपाइ संघ समे धरी ॥ शिष्य चौरासी साथ व्रत संयम तप साधे । और जातियों कितनी रही। जिसको कैसे जावे कही। धरे ध्यान एकतार देव जिनराज आगधे । जब था समय उन्नति करी। वड जिम शाखा विस्तरी ॥ शहर में गये शिष्यवहरवा धर्म लाभ करत। फिरे ॥ पत्तन चक्र का उलटा काम । अब रह गये पुस्तक में नाम ॥ इण नगर माहि दात्ता न को वसे सुम सारा शीरे । फिर भी है गौरव की बात । अतित संभालो मुप्रभात ॥ घर घर सब फिर गये पवित्र आहार न पायो । ज्ञानसुन्दर सेवः दिल बसी। भल देख मत करजो हंसी। विप्र एक तीणवार वचन ऐसो बतलायो । दो हजार भाद्रपदमास । कृष्ण एकादसी पुरी पास। हम गृह पावन करो धन धनभाग हमारी । गुरुवार भलोसुखवास । अजयगढ़ में रहे चौमास ॥१॥ आज हुओ आवणो मुनि यह देश तुमारो ॥ पूज्य मुनिराजश्री दर्शन विजयजी महाराज को नारायण | सुझतो आहार दोषण बिनो खीर खांड बहेवियां । गढ़ के गुरांसाहब गणपतरायजी से प्राप्त हुये कुछ त्रुटक पन्ने | उजले चित दोऊ जण ते गुरू के पाप्त आविया ॥ मिले जिसको आपश्री ने ताः २६ जौलाई १९४१ के ओस- देख गुरू गोचरी ध्यान धर ने आरोहण किया। घाल अखबार में मुद्रित करवाया था यद्यपि इन कवितो में | सबद तणो पाषण तोय ब्राह्मण घर लिया ॥ वे ही भाटों की बहिया के अनुसार कुछ कुछ गड़बड़ अवश्य नगर मही ना लाख बसे घर एक सरीखा । हुई है फिर भी ये बात निश्चित है कि आचार्य रत्नप्रभसूरिजी शक्त पन्थ मत्त बाद शीस संदूरी टीका ॥ महाराज ने उपकेशपुर नगर के राव उत्पलदेवजी आदि पाखों समझ हुमा थिर मन ध्यान अन्तर सू खोले । वीर क्षत्रियों नागरिक लोगों को मांस मदिरा आदि दुर्व्यसन शिष्य प्रति महाराज मुसक पुख वायक बोले ॥ छुड़ाकर जैन बनाये इसी बात को लक्ष में रखकर वे कवित गरू कहे वार लागी गणीत कहो शिष्य कीण कारणे । ज्यों के त्यों यहाँ पर दर्ज कर दिया जाता है । शिष्य कहे माहार मिल्यो नहीं मैं फिरीयो घर२ बारणे । राजा उपलदेव पंवार नगर ओसियो नरेश्वर । शिष्य मुख से सुन वैण आहार परथवी परठायो । राज रीत भोगवे सक्ता (देवी) सचिया दीनहुवर ॥ पीवण सर्प हुअ गयो महल नृप सुत के आयो । नव सौ चरू निधान दिया सोनइया दंवी । पीवण सांप पी गयो कंवर ने चैन न ताई । इंला उपरी अंगज किया सुपा नामा केवी ॥ नहीं आशा विश्वास सोग हगयो सताई ॥ इमकरी राज भोगवे अदल बहत खलक वदीत होय। हाहाकार हुओ शहर में दाग देणे चली दुनि । नहीं राजपूत चिंतानिपट सगत प्रगट कही कथा सोय॥ रतनप्रभ सांबल रुदन दया देख बोले मुनि ॥ हे राज ! किण काज करो चिंता मन माहीं । मुनि वायक सुणी वैन भ्रम राजन टांगों। सुत न उदरत य लिख्यो देउ किम अंक बनाई ॥ कौन नाम गुरू कहे सांच देखावे ठीकाणो ॥ नृपत होय दलगीर दीन वायक इम मुख भाखे । नृपत वचन जो सुन कहे मुनि उत्तर इस धारो । पुत्र विना सुर राय राज मारो कुण राखें । उस खेजड़े प्रस्थान कंवर ने लेइ पधारो ॥ देवी दया विचार वचन दिनो निरदोशी । साधो सरणे आय नृपत विनती करावे । रहो रहो रायनिक पुत्र निश्चय एक होसी ॥ निश्चय हे त्रास हरो मुकट ऋषि चरण धारावे ॥ जुग जाहिर जल पुर सुख घणा मरोपण हलटसी। माफ करो तकसीर अब आप चूक बक्साई । उदुवाणा आणा फिरसी अहे पवारा गढ़ पलटसी॥ ये मौ बृद्ध काल की लाज है गुरु कुंवरजीवाइये ॥ देवी के वरदान पुन्य राजा फल पायो । करूणासिन्धु दयाल नृपत कुँ हसी वर दियो । नाम दियो जयचन्द वरस पनरो परणायो ॥ गयो रोस तत्काल मृतक सुत ततखीण जियो ॥ १३१८ महाजन संघ की प्राचीन कवि Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३५ धरियो खास सिवास नैन खुलिया मुख वाचा । निर हिंसक निर कपट है, चलत जैन की राह ॥ रोग सोग सब दूर शब्द सतगुरु का साचा । पट्टावली आदि प्राचीन ग्रन्थों में ओर उपरो आलस मोड उहियों कहे निंद आइ भलो । कविता में क्या २ फरक है वो नीचे लिखा जाता है: किस काज मने ल्याया अठे रस कहो साची गलो। (१) राब उत्पलदेव 4 मारवंशी नहीं पर सूर्यवंशी था खमा खमा सब कहे उठ गुरु चरणे लागा। मंगल धवल अपार बधावा भाणंदवागा ॥ (२) सूरिजी के साथ ८४ नहीं पर ५०० साधु थे तोरणछत्र निशाण कलस सौवन वधावा ।। (३) राजा के पुत्र नहीं होना और बाद में देवी ने पुः भर मोतियन का थाल सखियन मिल मंगल गावे ॥ दिया सो बात नहीं है पर राजा के पाँच पुत्र थे। ओछांडिया महल बजार घर सनो चोक पुराविया । (४) मुनि भिक्षा के लिये नगर में गये थे पर शु जदी खीन खाप पग पातिया रतनप्रभ पधराविया ॥ आहार न मिलने से ज्यों के त्यों लौट आये पर ब्राह्मण के घ नृपत करे विनती जोड़ कर हाजर ठाडो । की भिक्षा और उसको पारठ देना तथा परठ। हुआ आहार स कृपा करो महाराज धरममें रह सु गाडो ॥ बन जाना और राज पत्र को काटना ये सब कल्पना मात्र है पटा परवाना गाम खजाना खास खुलावु । सांपकाटा था मंत्री के पुत्र को जो राजा के जमाई कबहु न लोपु कार हुकम श्रवण सुन पाउ ॥ (५) नूतन श्रावकों की संख्या के विषय सवका म गुरु कियो त्याग धन वैकार एक वचन मोय दीजिये । | एक नही है। कारण केई सवालाख १२५००० कोई ८००० मिथ्या त्याग जैनधर्म ग्रहो दान शील तप कीजिये। | तथा केई १८४००० और केई ३८४००० भी लिखते तहत वचन उर धार नृपत श्रावक ब्रत लिया। इसका मुख्य कारण ये है कि सबसे पहले तो १२५०० पुर दुडिं फरवाय नार नर भेला किया । सवालाख को ही जैन बनाये बाद सूरिजी वहाँ ठहर व भिन्न भिन्न वख्यान सुणे गुरु के वायक । समय समय उपदेश देते गये और जैन बनाते गये इस प्रक खट काया प्रति पाल शील संयम सुख दायक । संख्या बढ़ती गई आखीर की संख्या उपकेशपुर में ३८४०० कर मनसो यों सकल मिल मौड कर जोडिया। घरों की बन गई हो तो ये 'सम्भव हो सकता है। सिद्धान्त जान जिन धर्म को शक्त पन्थ मुख मोडिया ॥ शील धर दृढ़ साच करे पौषाद पडीक्ररमा । ओसवाल जाति का कवित सामायिक सम भाव समझ वै दिन दिन दुणा ॥ "श्रीमान पूर्णचन्द्रजी नाहर के लिखे एवं संग्र हिंसा कहु नहीं लेस देश में आण फोराई । किये लेख प्रबन्धावली' नामक पुस्तक में मुद्रित हु धर्म तण फल मिष्ट सबे सांभल जो भाई ॥ है जिसके अन्दर से एक त्रुटककावतइह भांत जैन धर्म धारियो शक्त पंथ मुख मोड़के दोहा। गुरो वचन शिरधरी नृप मान मोड़ कर जोड़के श्री सुरसती देज्यो मुदा, भासै बहुत विशाल । इष्ट मिलियौ मन मिल गयो, मिल मिल मिल्यो मेल नासै सब संकट परो, उत्पत्ति कहुँ उसवाल ॥१॥ फूल वास त दुध जिय, ज्यो, तिलयन मांही तेल देश किसे किण नगर में, जात हुई छे एह'। सहस चौरासी एक लख घर गणती पुर माह सुगुरु धरम सिखावियो, कहिस्यु अब ससनेह ॥२॥ एकण थाल अरोगिया, भिन्न भाव कुच्छ नाह छन्द । भोटा जगदा छोढिया, गढ़ मढ़ शस्त्र सीपाह । पुर सुन्दर धाम वसै सकलं, किरन्यावत पावस होय भलं नोट:-इसके भागे का कवित किसी सजन के पास चऊटा चउराशि विराज खरे, पग मेलय जोर सुग्यान धरै होवे उसको प्रकाशित करवादे या मेरे पास भेज देखें कि इस भिन मालक नित राजपरं, भल भीम नरेंद उपति वरं मधुरा कवित को पुरा कर दिया जाय । पटराणी के दोय सुतन्न भरं, सुरसुन्दर उपल'मत्त धरं महाजन संघ के प्राचीन कवित १३१६ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ७७८-८३७] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अलका नगरी जिह रीत स्वरी, अठवीस बबाकरीलोभ धरी । वाहड़मेर १७ जेठू, दीपनगर १७ हरचन्द नाहटो, नागोर तस नारी वसै बहु सुख करी दुःख जाबे न पासै सुदूर टरी ॥ १९ नरहर सिंघवी, नागोर २० डूंगरसी, मांडवनगर, पाप त्रिय सुन्दर ओपम कुल कली. कना मयसं उतरी बिजली । फोफलीया २१ डोसी सजो पोरवाल, जायलवाल २२ कोठारी मुगताम्बर जेम चले, पधरं, बहुरूप भलो मनुकाम हरं ॥ रिणधीर, मेडते ९३ राजसी लोढ़ो मेडतै २४ अमेचौ हरषौ, सुर सुन्दर जेठ सहोदर छै, लघु ऊपल राव जोधार भछै । मेडते २५ तेजपाल वस्तपाल, जात पोरकाल २६ विमलशाह सुरसुन्दर लोक में भीम गया पधरा, आबू ऊपर कमठाणा कराया २७ गाधइयो भैर परथासै वास. भीन्नमाल को राज बडो जुकरा ॥ | पाटण २८ बधमान, वास नवै नगर २९ लोलण, अमरावत पुन दोव सहोदर मित्र भला, सम रूप मयंक सुधार कला । ३० श्रीमाल आसकरण, नाथावत ३१ वांठियो तेजपाल, नलराजमनमथ रूप जिसा, महिगंण अथांग सोभाय इसा॥ वास भुजनगर ३२ श्रीमाल दिल्ली में ३३ शिरदारमल पैमो किरणाल तपै पुन भाग भलं, अरिदूर भजै इक आप चलं । नै रस्नौ ३४ भारमल, वास वैराट देश ३५ सामीदास रेवंतजी नगराज उदार दीपंति खरा, किल छात पँवार मुगट धरा ॥ रो, वास तिजारै ३६ अषौ चोपड़ो, वास संत्रावै २७ भासदोहा। करण मेडतै ३८ होलो धनावत, पाप वागरेचा ३९ साहे द्ग मांहि मंत्री तणा बेटा दोय सरूप । मौवास चौकड़ो, षांप पोहकरणो ४० आसकरन, नवेनगर वही दुरग मांहि रहै रुपिया कोड अनूप ॥१॥ ४१ नालसा, मेवाड़ ४२ करमो डोसी सात बीसी ध्वजा महर माहि छोटो वसै लाख घाट छै कोड । सेजे चाढ़ी ४३ पासवोर नाहटो ४४ लोढ़ो गोसल इग्यावडै भ्रात ने इस कहै करु कोडरी जोड ॥२॥ डोतरे काल म अन्न दियौ ४५ डागौ रतनसो वयासिये एक लाख देवे खरा दुरग वसू हूँ आय । डिगती प्रजा थांभी ४६ माडूगढ़, सांड कोडियौ म्हौर लायण बलती भोजाई कहै वचन सुनो चित लाय ॥३॥ | मुल्क में दीवी ४७ सोनी भीमवास, पाटण १८ सोपुर, देवरजी सुणज्यो तुम्हें किसो कोट छै सून । भूमोसाह पौल पखाह म्हौर दीनी ४९ पाल्ही; कुभलमेरे ५० या विण आयां ही मरे, रखो ये अब मून ॥४॥ मेडतै, मेघराज ५१ हेमराज, नागोर ५२ वलराज अजू, बड़ऊ धरण बखाणिये छोटो ऊहड जाण । अजमेर ५३ गोपचन्द, दिल्ली जे नियो छुड़ायो ५४ साह उठीयो बचन सुणी करी, लघु बंधव हरिरांण ॥५॥ तालो पीपाड़ ५५ हेमौताम्हारी, पीपाड़ ५६ सिरदारमल कोप अंग तिण बेल घण को बसाउ द्रंग । सुराणो, वास जयतारण ५७ केलराज चौहोत्तरे अन्न दे प्रजा एम कही आयो सहर बहुलो पोरस अंग ॥ थांभी ५८ बहत्तर पाल. मेवात मे अन दियौ ५९ ठाकुरसी उपलने वासै जइ वदे पाठली बात । १० भरंमल वैरार हुवौ घोड़ा दोयसौ इकीस दिया ६१ भोजाई मोसो दियो सुवाली मुज तात ॥७॥ केसव धांधियो ६२ वसतपाल वास दादरी ६३ गंजवगस ओसवालों में दातार हुआ तिणारा नाम गैलडो, आगरै ६४ राममल हरषारौ अकबर कनै ६५ श्रीमाल १जगडू सोलावत, पाप रांका २ सारंग, वास सौरठ ३ | अंचलदास, वास अमरसा ६६ वौहरौ बपती, देवारी ६७ करमचन्द मुहती वछावत, सांगैरो ४ भोमौ का वडियो, वास घेबरी सीह माळ ( श्रीमाल ) ? वांस चाटसू ६८ हीरानन्द चीतोड ५ सूरोगुरु हडियो नग्भवतः वास आकोले ६ जगडल- साहरै, पाससाह जहाँग र घरे आयो ६९ इतरा आगरे, वले लवाणी, जोधपुर ७ हीरजी संघ वाले चौ, जोधपुर ८ लोढ़ा हुवा दूर्जण चंदू नेमिरास नाण जी ७० राजसी; अमी; भैरुदास ९ नै मो, अलवल गढ़, ( मेवाड़ में) इत आगर, शेव्रुजै सिंघ कियौ ७३ भासकरन अमीपाल, चोपड़ा ७२ हुभा .. श्रीमाल हीरानन्द ११ लोढ़ा कवरौ नसुनपाल पेतसी, भोजावत, षांप भीमाल ४३ शाह हरषौ नाणजौरी (?) तेजसो बरहडियो अकबर पातसाह मानियौ १२ मुंहतो ७४ नाणजी पूरख में हुवौ हाथी दान किया ७५ पोरवाल रायमल बैद, सोझत १३ मालोर, लोढ़ौ हमीर १४ भीनमाल, चापसीदास, वास पट्टमै ७६ श्रीमाल तोतराज ७७ श्रीमाल लोलो १५ श्रीमाली पदराज, नगरथटे १६ वींजो पारष, । जसराज, वास खम्भायच । १३२० महाजन संघ के प्राचीन कवित Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२३७-१२२२ ४३-आचार्य देवगुप्तसूरि (९वाँ) आचार्यस्तु स देवगुप्त इतियो गोत्रे सुचिन्त्यात्म के, विद्यारत्न नयादि भूषित तया राज्ञां समूहेर्नुतः । गच्छानामपि सूरिश्गमद्यस्थ समीपे स्वयं, गूढज्ञान विचार भव्यसरणौ रन्तु मनाः श्रद्धया । Sars ज्यपाद, प्रातः स्मरणीय, सुरासुरेन्द्रमानवेन्द्रार्चितचरणारविन्द. श्रीमद्देवगुप्रसूरि, प्रखर प्रतिभासम्पन्न अनन्य विद्वान, प्रचण्ड तेजस्वी, वादीगजकेशरी महाशासन प्रभावक सुविSAME हित शिरोमणि, उपबिहारी युग प्रवर्तक श्राचार्य हुए। आपश्री का जीवन अनेक चमत्कारों से परिपर्ण. जनकल्याण की पवित्र भावनाओं से ओतमोल, वाचक वृन्द को चार पथ का पथिक है। पट्टावली निर्माताओं ने आपश्री के जीवन चरित्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म दिग्दर्शन कराते हुए विशद रूप में लिखा है। हम ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से उतना विस्तृत तो नहीं पर पाठकों के आत्मकल्याण की इच्छा से संक्षिप्त रूप में लिख देते हैं। मरुधर के वक्षस्थल पर अलंकार रूप पालिका (पाली ) नाम की जनमनमोहक नगरी थी। भारत के व्यापारिक क्षेत्रों में इस नगरी ने भी पर्याय नाम कमाया था। इस नगरी की थावादी एवं शोभा के विषय में किसी कवि ने इसका साक्षात्कार "वापी वा विहार वर्ण वनिता वाग्मी वन वाटिका । वैद्यो ब्राह्मण वादी वैस्म विबुधा वैश्या वाणिग्वाहिना ।। विद्या वीर विवेक वित्त विनय वाचंयमा वल्लकी । वस्त्रं पारण वाजि वैशर वरं चै ति पुरं शोभते" ॥१॥ अर्थात्-वापी (वावड़िया) परकोट, मन्दिर, चारवर्ण के लोग, सुन्दर, मधुर भाषी देवाङ्गना जैसी स्त्रियां, सभाशृंगार पण्डित, उद्यान, वाटिकाएं श्रायुर्वेद विशारद वैद्य, वेदपाठी ब्राह्मण, तर्क वादी कोविद, उच्च २ अट्टालियों वाले मकान, देवस्थान, वैश्याएं, व्यापारी, चतुरङ्गिणीसेनाएं, विद्याकलाकुशल परम दक्ष वीर सुभट, विवेको लोग, धन-लक्ष्मी, स्वाभाविक विनयगुणसम्पन्न व्यक्ति, त्यागी, महात्मा, सन्यासी, बढ़िया वस्त्र, मदझरते मदोन्मत्त मत्तंगज, पवनवेगगामी अश्वराशि, स्त्रियों के नाक के भूपण इत्यादि अट्ठावीस प्रकार व० कार से यह नगरी शोभायमान थी। इसी पाल्दिका नगरी में उपकेश वंशीय सुचंति गोत्रीय, शाह राणा नामक एक प्रसिद्ध व्यागरी निवास करते थे। आपकी ग्रहदेवी का माम भरी था। प्रार पूर्वजन्मोपार्जित सुक्रतपुञ्जोदय से अपार सम्पत्ति एवं विशाल कुटुम्ब के स्वामीचेचारका व्यापार आस्त के सिवाय विदेशों चीन, जापान, मिश्र, जावा, बलोचिस्तान वगैरह कई स्थानों में आपकी पेढ़ियाँ स्थापित थीं। जल और स्थल दोनों मार्गों से माल का आना, जाना, लाना, लेजाना प्रारम्भ था । सारांश यह कि आपका व्यापार बड़ा ही जोरों से चलता था । विविध प्रकार के रेशम, हीरा, माणक, पन्ना, पोखराज, मोती, झीनेकपड़े, कटलरी, बख्तर, गुंथणाकाम, भरतकाम, अत्तर, तेल, दशा, तेजाना, हाथीदांत, जवाहिरात, सोना और क्वचित पाल्ली नगर का वर्णन Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८६२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चांदी उस काल के व्यापारियों को मुख्य वस्तुएं थी । यह व्यापार पूरेजोश में होने के साथ ही साथ व्यवस्थित रूपेण चलता था। उपर्युक्त यादी की पीतल, सीसा, कलाई, सोना, चाँदो आदि खनिज वस्तुएं दाक्षादि, लीला मेवा, सूखामेवा आदि खेती से पैदा हुए पदार्थ, धातु के खिलौने, बर्तन, रेशम, कीमती पत्थर, मोती, कांच, और चीनी मिट्रो के वर्तन आदि मोज शोख की वस्तुएं. जानवरों में घोड़े आदि हिन्द की पायात वस्तएं थी। इसके विपरीत जानवरों में बन्दर, मयूर, कुत्ता, हाथी आदि, कीमती पत्थर, सोना और धातु के बर्तन और उसी प्रकार सामान आदि खनिज वस्तुएं, पालाद, लोखंड, कटलरी, बख्तर, हथियार, सूती कपड़े, मलमल, रेशम, रेशमी कपड़े, वाहन, मिट्टी और पॉलिस के बर्तन, आदि तैयार माल, रुई, सुखड, साग आदि खेती के पदार्थ, हाथीदांत, रंग, गली, तेल, अन्तर आदि मोज शोख की वस्तुएं, मरी, सूंठ सौपारी, लविंग, तज ऐलची आदि, तेजाना चोखा वगैरह अनाज और कपूर आदि वस्तुओं का निकास था। पहिले के जमाने में हिन्द के कच्चे माल को तैय्यार करके पर-देश भेजते थे। जिसमें सूती कपड़ा तो चीन से लगाकर कॅप ऑफ गुड हपो पर्यन्त हमारे देश का ही काम में लेते थे। रंग गुली वगैरह का तो कंट्राक्ट (इजारा) ही था। इनके सिवाय रंग बेरंगी छींटे और सोने, रूपों की छापों का वस्त्र भी काफी तादाद में विदेशों में जाता था। इसको विशेषोत्पत्ति शौर्यपुर आदि नगरों में थी। लोहे का शुद्ध पोलाद बना कर भांति २ के पदार्थों के रूप में परदेश खाते भेजा जाता था। कई विदेशी व्यापारी लोग भारत में आकर भारतीय व्यापारिक केन्द्रों का निरीक्षण कर आश्चर्यान्वित हो जाते थे और भारतीय कलाकौशल एवं हन्नर उद्योग की शिक्षा पाकर अपने देश में उसका विस्तृत प्रचार करते थे। उपरोक्त व्यापार के सिवाय भारतीय व्यापारीवर्ग अपनी करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति लगाकर भाड़त का व्यापार भी किया करते थे । वे पूर्व के देशों का माल खरीद कर पश्चिमीय देशों में बेचते । भारतीय साहसी व्यापारी जापान, लङ्का, चीन, मलाया, आदि देशों का माल खरीद कर अरबस्थान, इरान, इजिप्ट, ग्रीस, इटली आदि देशों में विक्रयार्थ भेजते थे । इस विषय का विस्तृत वर्णन व्यापारिक प्रकरण में कर आये हैं अतः यहां ज्यादा नहीं लिखा जा रहा है।। तदनुसार शाह राणा का व्यापारिक क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था । शुभ कर्मों के उदय से आपने व्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया था। आपका अधिक लक्ष्य स्वधर्मीभाइयों की सेवा की ओर रहता था। हर एक प्रकार से स्वधर्मी भाई को सहयोग देकर उसको उन्नत अवस्था में लाने के लिये आप तन, मन एवं धन से प्रयत्नशील रहतं थे। तात्पर्य यह कि परोपकार को अपने जीवन कर्तव्य का एक अङ्गही बना लिया था शाह राणा जैसे द्रव्योपार्जन करने में कुशल थे वैसे उस न्यायोपार्जित द्रव्य का व्यय करने में भी कुशल थे। तीर्थ यात्रा जन्य अतुल पुण्य राशि को सम्पादन करने के लिये आपने तीन बार तीर्थयात्रार्थ संघ निकाले। स्वधर्मी भाईयों को स्वर्णमुद्रिकाओं की पहिरावणी देकर अपने आप को कृतार्थ किया। पट्टावली कर्ताओं ने लिखा है कि इस शुभ कार्य में, शाह राणा ने पांच करोड़ रुपयों का द्रव्य व्यय किया था। पाल्हिकादि कई स्थानों में सात मन्दिर बनवाकर दर्शनपद की आराधना की। एक दुष्काल में लाखों करोड़ों रुपयों का अन्न, घास देकर देशवाशी भाइयों एवं पशुओं के प्राण बचाये । शाह राणा इतना उदार वृत्तिवाला व्यक्ति था किइसके घर पर या घर के पास से यदि कोई याचक निकल जाता तो उसकी आशा को बिना किसी भेद भाव के पूर्ण की जाती थी । इसी औदार्य एवं गाम्भीर्य गुण से राणा की शुभ्रकीर्ति चतुर्दिक में विस्तृत थी। शाह राणा के ११ पुत्र ७ पुत्रियां और अन्य बहुत विशाल परिवार था परन्तु इतना बड़ा व्यापारी एवं विशाल कुटुम्ब का स्वागी होने पर भी शाह राणा की यह विशिष्ट विशेषता थी कि वह अपने षट्कर्मप्रभुपूजा, सामायिक व्रत, व्याख्यानश्रवण, पर्वादितिथि में पौषधव्रत, प्रतिक्रमण चतुर्दशी के व्रत वगैरह नित्य नियम में कभी त्रुटि नहीं आने देता था । देव गुरू धर्म पर अटूट श्रद्धा सम्पन्न, श्रावक गुणव्रत, निषम निष्ठ १३२२ __ शाह राणा का व्यापारिक क्षेत्र Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तरि का जीवन ] [भोसवाल सं० १९३७-१२६२ परमधार्मिक श्रावक था। नित्य नियम तथा पवित्र श्रद्धा से शाह राणा को देव दानव आदि कोई भी स्खखित करने में समर्थ नहीं था। 'यतोधर्मस्ततोजयः' इस अटल सिद्धान्त पर पूर्वकालीन जन समुदाय का गहरा विश्वास था। इसी कारण से उस समय के लोग धन, जन, कुटुम्ब परिवार आदि सम्पूर्ण सुखों से सम्पन्न थे। शाह राणा जैसे धर्मज्ञ एवं कर्मठ था वैसे ही उनकी धर्मपत्नी एवं पुत्रादि कुटुम्ब परिवार भी धर्म कार्य में तत्पर थे। ___एक समय पुण्यानुयोग से जगविश्रुत, शान्तिनिकेतन, परम व्याख्याता आचार्य श्री कक्कसूरिजी म. पाल्हिका नगरी को पधारे । श्रीसंघ ने सूरिजी का बड़ा ही शानदार महोत्सय किया। श्रेष्टिगौत्रीय शाह दयाल ने तीन लक्ष द्रव्य शुभक्षेत्रों में व्यय किया । आचार्यश्री ने भी स्थानीय मन्दिरों के दर्शन कर भागतजन मण्डलीको संक्षिप्त किन्तु हृदयग्राहिणी देशना दी । इस प्रकार के अपूर्वोपदेश को श्रवण कर जनता भी मन्त्र मुग्ध बन गई । आचार्यश्री ने भी अपना व्याख्यानक्रम नित्यनियम की भांति प्रारम्भ ही रक्खा।। सूरिजी षट् दर्शन के परमज्ञाता थे अतः जिस समय तुलनात्मक दृष्टि से एक २ दर्शन का विवेचन करते थे-तब जनता सुनकर दांतों तले अंगुली लगाने लगती । पक्षपात की ज्वाज्वल्यमान अग्नि में प्रज्वलित व्यक्ति भी आचार्यश्री के व्याख्यान से प्रभावित हो नत मस्तक हो जाता। उसके हृदय में भी सूरीश्वरजी के समा गम से जैन धर्म रूप श्रद्धा के अंकर अंकरित होने लगते । जिस समय सरिजी संसार की असारता. चंचलता, कौटम्बिक व्यक्तियों का स्वार्थजन्य प्रेम शरीर की क्षणभङ्गुरता, श्रायुष्य की अस्थिरता के विषयो का वर्णन करते-जनना योगियों की भांति संसार से विरक्त होजाती। शाह राणा और आपका सब कुटुम्ब भी सूरिजी का व्याख्यान हमेशा सुनते थे । सूरीश्वरजी के व्याख्यान से संसारोद्विग्न हो शाह राणा का एक पुत्र मल्ल, सांसारिक मोह पाश से विमुक्त होने के लिए श्राचार्यश्री की सेवा में दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गया। उसने अपने उक्त दृढ़ संकल्पानुसार माता पिताओं से एतद्विषयक निवृत्यर्थ श्राज्ञा गांगी किन्तु माता, पिता, स्त्री, पुत्रादि कुटुम्ब कब चाइते थे कि एक घर के सम्पूर्ण भार को वहन करने वाला प्राणप्रिय मल्ल हमको बातों ही बातों में छोड़ दें ? अतः उन्होंने अनेक प्रलोभनादि अनुकूल उपसर्गों एवं परिषदादि प्रतिकूल भयोत्पादक असगों से मल्ल को समझाने का प्रयत्न किया किन्तु उक्त सर्व प्रयत्न पानी में लकीर खींचने के समान निष्फल ही सिद्ध हुए। कारण जिसको वैराग्य का सञ्चा रंग लग गया है, जिसने संसार को काराग्रह समझ लिया है वह सहस्रों अनुकूल प्रतिकूल प्रयत्रों से भी घर में नहीं रह सकता है। विवश हो परिवार वालों को श्रादेश देना ही पड़ा। शाह राणा ने नवलक्ष द्रव्य व्यय कर मल्ल का दीक्षा महोत्सव किया। मल्ल ने भी साथ पुरुष एवं ग्यारह बहिनों के साथ में वि० सं० ७६६ के फाल्गुन शुक्ला तृतीया के शुभ दिन सूरीश्वरजी के कर कमलों से भगवती जैन दीक्षा स्वीकार को। दीनानन्तर मल्ल का नाम श्री ध्यानसुन्दर मुनि रख दिया गया। मुनि ध्यानसुन्दरजी ने ३८ वर्ष के गुरुकुल वास में सम्पूर्ण शास्त्रों में असाधारण पाण्डित्य एवं सूरिपदयोग्य सम्पूर्ण गुण सम्पादित कर लिये । अतः आचार्य श्री कक्कसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में उपकेशपुर के महावीर मन्दिर में श्री संघ के समक्ष विक्रम सं०८३७ में २०ध्यानसुन्दर को सूरिपद प्रदान कर आपका नाम देवगुप्रसूरि रख दिया। प्राचार्यश्री देवगुप्तसूरिजी महान प्रतिभाशाली श्राचार्य हुए। आप दीक्षा लेकर ३८ वर्ष तक आचार्य श्री कक्कसूरिजी की सेवा में रहे। इस दीर्घ अवधि में आपश्री ने आचार्यश्री के साथ देशाटन भी खूप किया। आचार्यश्री कक्कसूरि के समय में दो अत्यन्त विकट प्रश्न उपस्थित थे। एक चैत्यवासियों की आचार शिथिलता का और दूसरा वादियों के संगठित आक्रमणों का। उक्त दोनों प्रश्नों को हल करने में उ० ध्यानसुन्दरजी की भी पूर्ण सहायता थी अतः आपश्री भी एतद्विषयक बातों के पूर्ण अनुभवी बन गये थे । ये दोनों प्रश्न आपके शासन में भी थोड़े बहुत रूप में यथावत् विद्यमान रहे । यद्यपि प्राचार्यश्री कक्कसूरिजी ने इन आचार्यश्री का शुभागमन १३२३ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८९२ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दोनों की प्रबलता को निर्बल बना दिया था तथापि इनका समूल नाश नहीं हुआ था। जैसे ग्यारहवें गुण स्थान में मोह उपशान्त हो जाता है पर उसकी सत्ता नष्ट न होने से नीचे गिरने पर वह पुनः बलवान बन जाता है यही हाल हमारे सूरिजी के सामने पूर्वोक्त दोनों प्रश्नों का था। यद्यपि वादियों की शक्ति नष्ट हो चुकी थी अतः उनका सामना करना साधारण बात थी किन्तु घर की बिगड़ी हुई हालत को सुधारना टेड़ी खीर थी। श्राचार्यश्री के सहवास से देवगुप्तसूरिजी ने यह अनुभव कर लिया था कि-दूषित पक्ष की निंदा करना, उनको हलका बताना या अपने आप उनसे पृथक होकर अपनी उच्चता की डींग हांकना-समाज में सुधार करने की अपेक्षा बिगाड़ ही करता है। अपने से विलग हुए भाइयों को शान्ति, प्रेम और एकता से अपनी ओर जितना प्रभावित कर सकते हैं उतना उनको ठुकरा करके या अवहेलना करने से नहीं । प्रेम पूर्वक उपालम्भ देकर उनमें आई हुई शिथिलता को दूर करने से उन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है । शर्म व संकोचवश वे अपने दूषणों को त्यागने का प्रयत्न करते हैं किन्तु इसके विपरीत जब दूषित पक्ष की निःशंकतया निन्दा की जाती है तब सम्मुख पक्षीय व्यक्ति भी बेधड़क निर्भय हो जाता है। फिर क्रमशः कुछ मनुष्य उनको भी सहायता देने वाले मिल जाते हैं और इस तरह दो पार्टियां हो समाज की केन्द्रित-संगठित शक्ति नष्ट हो जाती है। परिणाम स्वरूप उन्नति कोसों दूर भाग जाती है और अवनति का भीषण ताण्डव नृत्य नयनों के समक्ष प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होने लगता है। कालान्तर में उन्नति का, उत्कृष्ट प्राचार का दम भरने वाली श्रमण मण्डली भी शिथिल हो पूर्व दूषित पक्ष से भी जघन्य श्रेणी की हो जाती है और इस तरह क्रियोद्धारकों के रूप में नवीनर शाखा प्रशाखाओं का प्रादुर्भाव हो जाता है। क्रमशः संघ में कलह, फूट, ईया द्वेष का ही नवीन रूप देखने को मिलता है; प्रेम और सद् भावना तो डरके मारे भग ही जाती है। सूरिजी इस बात के पक्के अनुभवी थे अतः आपने भी आचार्य श्री कक्कसूरिजी म. के मार्ग का अनुकरण करना ही शिथिलाचार निवारण के लिये श्रेयस्कर समझा । शान्ति एवं प्रेम को अपनाकर पूर्वाचार्यों के आदश-प्रादर्श का अनुसरण करने से शिथिलाचारियों के बजाय सुविहितों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गई । . एक समय आचार्यश्री अपनी शिष्य मण्डली के साथ सिन्ध धरा में परिभ्रमण कर रहे थे। आप श्री के बिहार की यह पद्धति थी कि मार्ग के छोटे २ ग्रामों में सर्व साधुओं का यथोचित निर्वाह न होने के कारण थोड़े २ मुनियों को इधर उधर आस पास के क्षेत्रों में प्रचारार्थ भेज देते और बड़े शहर में पुनः सकल शिष्य समुदाय के साथ एकत्रित हो जाते । उक्त पद्धत्यनुसार एक समय ऐसा मौका आया कि आप सौ साधुओं के साथ बिहार कर रहे थे ओर शेष साधुओं को आपने ग्राम की लघुता के कारण इतर क्षेत्र में भेज दिये थे। मार्ग में सूर्यास्त हो जाने के कारण आचार्यश्री अवशिष्ट शिष्य वर्ग के साथ एक दीर्घकाय वटवृक्ष के नीचे शास्त्रीय नियमानुसार ठहर गये। मार्ग जन्य श्रम से श्रमित मुनि समुदाय संथारा पौरसी कर सोगये। कुछ ही क्षणों के पश्चात् थकावट की अधिकता के कारण उन्हें निद्रा आ गई पर आचार्यश्री तो अभी तक भी बैठे ही थे। बड़ों पर गच्छ मुनि वर्ग का सकल उत्तरदायित्व रहता है अतः आचार्यश्री भी अपने कर्तव्यानुसार बैठे २ संग्रहणी शास्त्र का स्वाध्याय करने लगे। थोड़े ही समय के पश्चात् वट वृक्षाधिष्ठायक देवता वहाँ आया तो वृक्ष के पृष्ठ भाग पर मुनि समुदाय को निंद्रित अवस्था में सोता हुआ देखकर क्रोध से लाल पीला हो गया। क्रोध के कर आवेश में अपने कर्तव्याकर्तव्य का भान भूल कर सोये हुए साधुओं को दण्ड देने के लिए उद्यत हा वह नीचे की ओर आया और तत्काल उसके कानों में सरिजी की स्वाध्याय के कर्णप्रिय शब्द पडे। ये शब्द यक्ष को इतने रूचिकर प्रतीत हुए कि वह अपने क्रोध को भूलकर उन्हीं शब्दों को सुनने में तन्मय हो गया । क्रमशः एकाग्रचित्त से जब सुना तब तो यक्ष के आश्चर्य का पार नहीं रहा। वह सोचने लगा कियह सब तो हमारे देव भवन की ही संख्या, लम्बाई, चौड़ाई, हमारे सामायिक देवों की परिषदा का वर्णन देवियों की गिनती है। क्या ये मुनि हमारे देव भवन को देख के आये हैं ? यदि ऐसा न हो तो इनको ठीक २ संघ सभा में सुरिजी का उपदेश Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [प्रोसवाल सं० १२३७-१२६२ इस विषय की माहिती कैसे है ? इत्यादि शंकाओं के उलझनपाश में वह उलझ गया। . अब तो देव से रहा नहीं गया। उसने पूछा-आप कौन हैं ? आप जो हमारे देव भवन का वर्णन कर रहे हैं वह आप कैसे जान सके हैं ? सूरिजी ने कहा-हम जैन श्रमण हैं। हमारे तीर्थक्कर देव सर्वज्ञ थे। उन्होंने केवल एक आपके ही नहीं पर तीनों लोक के चराचर प्राणियों के भावों का वर्णन किया है। उसी सर्वज्ञ प्रणीत प्रन्थ का ही मैं स्वाध्याय कर रहा हूँ। यह सुनकर यक्ष बड़ा ही प्रसन्न हुआ और अपने किये हुए कुभावों का पश्चाताप कर कहने लगा-भगवन् ! मैंने तो अज्ञानता से सबको मार डालने का विचार किया था। अहो ! मैं कितना पापी एवं जघन्य जीव हूँ। प्रभो ! क्या मैं इस संकल्प जन्य पाप से बच सकता हूँ? सूरिजी ने कहा-महानुभावों ! आपको जो देवयोनि मिली है वह पूर्व जन्म की सुकृत राशि का ही फल है। इस देव जैसी उत्कृष्ट योनि में ऐसे दुष्ट संकल्पों से निकाचित कर्मों का बन्धन करना सर्वथा अनुपयुक्त है। ये तो साधु हैं; इनकी हत्या का विचार करना तो उत्कृष्ट से उत्कृष्ट पाप का फल नरकादि दुर्गति रूप ही तः पाप से सवेथा बच कर ही रहना चाहिये। भव भवान्तर में भी कृतकर्मों का शुभाशुभ फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है। अभी तो पूर्वोपार्जित पुण्य राशी की अधिकता के कारण इसकी कटुता का अनुभव नहीं होने पाता है किन्तु पापोदय के समय ऐसी दारूण यातना का उपभोग करना पड़ता है कि उसका वर्णन शब्दों से सर्वथा अगम्य ही है। सूरिजी के उक्त उपदेश का यक्ष पर इतना प्रभाव पड़ा कि वह तत्काल सूरीश्वरजी के चरण कमलों पर गिर पड़ा । अत्यन्त कृतज्ञता सूचक शब्दों में निवेदन करने लगा-पूज्यवर ! प्रापश्री ने मुझ पामर प्राणी पर महान उपकार किया है। यदि आपश्री के शब्द मेरे कानों में न पड़े होते तो मैं इतने श्रमणों के हत्या जन्य पाप से अवश्य हो नरक का पात्र बनता किन्तु आप श्री ने जो मेरे पर अवर्णनीय कृपा की है उसके लिये मैं आपका जन्म भर आभारी रहूँगा । प्रभो ! आपके इस उपकार ऋण से मैं कैसे ऊऋण हो सकूँगा ? सूरिजी-महानुभाव ! अज्ञानता के वशीभूत जीव किन कमों को नहीं कर बैठता है ? मैं तो आपक धन्यवाद ही ता हूँ कि आप अपने किये हए संकल्प जन्य पाप का भी इतना पश्चाताप कर रहे हैं। मेरे उपकार के लिये आपको इतना विचार करने की आवश्यकता नहीं कारण हमारा तो कर्तव्य ही यही है कि अज्ञानता जो मार्ग से स्खलित हुए व्यक्ति को पुनः सत्पथ पर आरूढ़ करना । मैंने तो एक मात्र अपने कर्तव्य धर्म का ही पालन किया है फिर भी यदि आपको अपनी आत्मा का कल्याण करने की प्रवल इच्छा है तो आप अपनी इस दिव्य देव ऋद्धि का सदुपयोग जिन शासन के प्रभावना के कार्यों में करके पुण्य सम्पादन करने में भाग्यशाली बनें। यक्ष-पूज्य गुरुदेव ! हम पामर, अधम, जघन्य प्राणी जैन धर्म की सेवा कैर कर सकते हैं ? हमारा जीवन तो नाटफ, तमाशा, खेल, कोतूहल, दूसरों को कष्ट पहुँचाकर उसी में प्रसन्नता का अनुभव करने में व्यतीत होता है। प्रभो ! उक्त निकृष्ट कार्य तो हमारे जीवन के अङ्ग ही बन गये हैं अतः यदि आप श्री की सेवा में रहने का परम सौभाग्य प्रदान करने की कृपा करें तो कुछ अंशों में उतकार्य जन्य लाभ सम्पादन किया जा सकता है। सूरिजी-हरिकेशी मुनि की सेवा में देवता रहता था। एक तपस्वी मुनि की सेवा में यक्ष रहता था, विक्रम की सेवा में आगिया बैताल रहता था वैसे आप भी रह सकते है। यक्ष-पूज्य गुरुदेव ! मैं तो आपकी सेवा में ही रहा करूंगा। सूरिजी-यक्षदेव ! मुझे तो कुछ भी काम नहीं है। हां, जहाँ शासन सम्बन्धी कार्य हो वहां कुछ सहयोग प्रदान करोगे तो अवश्य ही सुकृतोपार्जन कर सकोगे। सरिजी का स्वाध्याय और देव की प्रसन्नता १३२५ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८४२] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यक्ष-ठीक है पूज्यवर ! आपको मैं वचन देता हूँ कि आप जब मुझे याद करेंगे आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। इस प्रकार वचन देकर देव तो अदृश्य होगया। इधर प्रतिक्रमण का समय होने से सकल साधु समुदाय भी निद्रा से निवृत्त हो क्रमशः प्रतिक्रमण प्रतिलेखनादि क्रियाओं को कर प्रातःकाल सूरीश्वरजी के साथ ही रवाना हो गये । मार्ग से कुछ ही दूर वीरपुर नामक नगर था अतः श्राचार्यश्री को भी वहीं पर पदार्पण करना था। आचार्यश्री मार्ग को अतिक्रमण कर चल रहे थे कि मार्ग के एक मठाधीश सन्यासी ने अपनी मन्त्र शक्ति के जरिये मार्ग में सर्प ही सर्प कर डाले । चारों तरफ सर्प ही सर्प दीखने लगे। एक पैर रखने जितना स्थान भी साधुओं को दृष्टिगोचर नहीं होने लगा। इधर आचार्यश्री का आगमन सुनकर जो भक्त लोग सामने आये थे वे भी सों की भयङ्करता के कारण वहीं पर रुक गये । इससे श्राचार्यश्री ने जान लिया कि निश्चित ही यह सन्यासी के मन्त्र की ही करतूत है अतः सूरिजी ने भी स्वाधीष्टित यक्ष का स्मरण किया। स्मरण करते के साथ ही यक्ष तत्काल अपने वचनानुसार सूरिजी की सेवा में उपस्थित होगया और सर्पो के जितने ही मयूर के रूप बनाकर सो को लेकर आकाश में उड़ गये । इससे सन्यासी को बहुत ही लज्जा ई। वह आचार्यश्री के पैरों में नत मस्तक हो कहने लगा-भगवन ! मैं भी आपका शिष्य हूँ। प्रभो ! मुझे यह विश्वास नहीं था कि जैन श्रमण इतने करामाती होंगे अतः आप जैसों के सामने मैंने मेरी अज्ञानता का परिचय दिया। क्षमा कीजिये दयानिधान! आपको मुझ पापी के द्वारा बहुत ही कष्ट पहुँचा है। कृपा कर आज का दिन तो श्राश्रम में ही विराजें जिससे मैं अपने पाप का कुछ प्रक्षालन कर सकूँ। आपकी थोड़ी बहुत सेवा का लाभ लेकर कृतार्थ हो सकू। सूरिजी भी सन्यासी के आग्रह से वहीं पर ठहर गये । नागरिक लोग आचार्यश्री का प्रभाव देख मन्त्र मुग्ध बन गये। सब लोग एक स्वर से सूरीश्वरजी की प्रशंसा करने लगे कि सूरीश्वरजी बड़े ही चमत्कारी एवं प्रभावक पुरुष हैं। दिन भर दर्शनार्थियों के श्रावागमन की अधिकता के कारण सन्यासी सूरीश्वरजी के सत्सङ्ग का लाभ नहीं उठा सका पर रात्रि में जब एकान्त स्थल में सूरिजी के साथ श्रात्म कल्याण विषयक जिज्ञासा दृष्टि से सन्यासी ने प्रभ किया तब सूरिजी ने स्पष्ट समझाया-सन्यासी जी! आत्म कल्याण न तो यन्त्रों में मन्त्रों में हैं और न चमत्कार दिखाने में ही हैं। ये तो सब बाह्य क्रियाएं है जो समय २ पर अहसत्व को बढ़ाने वाली व आत्मा के उत्कृष्ट ध्येय से आत्मा को पतित करने वाली होती है । आत्म कल्याण तो आत्माराम में परम निवृत्ति पूर्वक विचरण करने से ही होता है । सन्यासी जी ! हमारे साधु सन्यासी हैं और आप भी सन्यासी हो किन्तु आपके और इनके त्याग में कितना अन्तर है ! आप जल, अग्नि, कन्द, मूल, फल, वनस्पति आदि सब का उपभोग करते हैं और आरम्भ समारम्भ भी करते हैं पर हमारे श्रमणों के इन सब बातों का ताज्जीवन त्याग होता है। यदि आपकी भी आन्तरिक अभिलाषा त्याग वृत्ति स्वीकार करने की है तो श्राप भी ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना करें। सूरिजी का कहना सन्यासी को बड़ा ही रुचिकर ज्ञात हुआ। उसने कहा पूज्य गुरुदेव ! आपका कइना सत्य है पर हम लोग अभी तक सभी तरह से आजाद रहे हुए हैं अतः इतने कठिन नियम हमारे से पाले जाने ज़रा दुष्कर हैं। दूसरा हमने इतने वर्षों तक इसी वेष में पूजा, प्रतिष्ठा पाई है अतः अब इसका यकायक त्याग करना जरा अशक्य है । इस पर सूरिजी ने कहा-सन्यासीजी ! मैंने तो आपको सलाह की तौर पर कहा है । चारित्र वृत्ति लेना न लेना तो आपकी इच्छा पर निर्भर है पर पूर्व काल में भी अम्बड परित्राजक वगैरह ने इसी वेश में रह कर परम पवित्र जैनधर्म की आराधना की है। जैनधर्म के प्रताप से देव लोक की दिव्य ऋद्धि के स्वामी हए और एक भव करके मोक्ष के आराधक भी हो जावेंगे। arenawwarnawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww १३२६ सन्यासी का चमत्कार और सरिजी Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देषगुप्तसूरि का जीवन ] [ घोसवाल सं० १२३०-१२१२ सन्यासी - मैं आपके इन वचनों को स्वीकार करता हूँ और मेरे हृदय की एक शंका को भी आपकी सेवा में अर्ज कर देता हूँ। मेरी शंका यह है कि - जैसे वैदान्तिक, बौद्ध, चार्वाकादि नाम हैं वैसे जैन भी एक नाम है अतः यह तो दुनियाँ मैं अपने २ नाम की बाड़ाबन्दी ही है । मेरा वेश परिवर्तन करना भी इस बाड़े से छूट कर दुसरे वाड़े में जाने रूप ही हैं । अतः एतद् विषयक वाड़ाबन्दी से क्या लाभ है । सूरिजी - धर्म की पहिचान के लिये व एक नाम से दूसरे में भिन्नत्व का ज्ञात कराने के लिए ही वस्तु स्वरूप को नाम से सम्बोधित किया जाता है । जब दूसरे धर्म वालों ने अपने २ धर्म नाम रखे तो इस धर्म की पहिचान के लिये भी किसी न किसी नाम करण की आवश्यकता थी ही अत: जैन धर्म यह विशिष्ट अर्थ का बोधक है। उदाहरणार्थ - दस पांच वस्तुओं का एक स्थान पर एकीकरण होने के पश्चात् यदि उनके नामों में पारस्परिक भिन्नत्व न होगा तो वे वस्तुएं कैसे पहिचानी जा सकेंगी ? दूसरा एक दुर्गन्धयुक्त स्वास्थ्यगुण नाशक मकान को छोड़कर यदि स्वास्थ्यप्रद रमणीय, मनमोहक प्रसाद का आश्रय ले तो उसमें हानि नहीं पर लाभ ही है। इसी प्रकार सारम्भी, सपरिमही धर्म को छोड़कर त्याग, वैराग्य और श्रात्म शान्ति रूप परम धर्म की आराधना करना कौन सी वाड़ाबन्दी है ? सूरीश्वरजी के उक्त स्पष्टीकरण से सन्यासीजी को जैन धर्म की विशेषता का ज्ञान हो गया । उन्होंने तत्काल मिथ्यात्व का वमनकर सम्यक्त्व के साथ श्रावक के बारह व्रत धारण कर लिये । इधर वीरपुर नगर में सर्वत्र सूरिजी और सन्यासी जी के चमत्कार की बातें होने लगी । जैनियों के हर्ष का पार नहीं रहा । आचार्यश्री के इस अपूर्व प्रभाव ने उनके हृदय पर गहरा प्रभाव डाला । वे लोग बड़े ही समारोह के साथ स्वागत की तैयारियां करने लगे। इधर वीरपुर नरेश सोनग को आचार्यश्री के चमत्कार का मालूम हुआ तो वह भी आचार्यश्री के दर्शन एवं स्वागत के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हो गया । सूरीश्वरजी के स्वागतार्थ सम्मुख जाने के लिये अपनी चतुरङ्गिनी सेना को खूब सजधज कर तैय्यार करवाई। नगर में चारों ओर यथा समय निर्दिष्ट स्थान पर उपस्थित रहने लिये घोषणा करवादी । बस, फिर तो था ही क्या ! सूर्य देव के सहस्रकिरणों से उदयाचल पर उदय होते ही नर नारियों एक वृहज्भूएड एकदिशा की ओर जाने के लिये प्रोत्साहित होगया | राव सोनग भी अपने राव उमरावों के साथ सूरिजी की सेवा में उपस्थित हुआ । सूरीश्वरजी ने भी अपनी शिष्य भण्डली एवं सन्यासी के साथ नगर में प्रवेश किया। पश्चात् सार्वजनिक सभा में, सारगर्भित धर्मोपदेश दिया जनता पर आचार्यश्री के उपदेश का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। राव सोनग के पूर्वजों ने जैनाचार्यों के पास दीक्षा ली थी अतः आपका घराना कई समय से जैनधर्मोपासक ही था । जैनाचार्य भी समय २ वीरपुर पधार कर राजा प्रजा को धर्मोपदेश दिया करते थे अतः उन सबों के हृदय पर जैनधर्म के स्थायी संस्कार ज हुर थे । राव सोनग यों तो सब प्रकार सुखी थे पर सन्तत्यभाव रूप जबर्दस्त चिन्ता उनको रद्द २ कर सन्तापित करती थी । एक समम मध्याह्न काल में विशेष धर्म चर्चा करने के लिये सूरीश्वरजी की सेवा में राव सोनम उपस्थित हुए तो अन्यान्य बातों के साथ ही साथ वह बात भी प्रसङ्गतः निकल आई। इस पर धैर्यावलम्बन देते हुए सूरिजी ने कहा- राजन ! जैन धर्म कर्म सिद्धान्त को प्रधान मानता है। सिवाय पूर्व सचित कर्मोदय हुए शुभ या अशुभ कार्य हो ही नहीं सकते अतः इस विषय की चिन्ता में श्रार्तध्यान करना निकाचित कम को बन्धना है । सर्व अनुकूल सामग्री के सद्भाव होने पर धर्म साधन करना ही उभय लोक के लिये कल्याणास्पद है । धर्म ही सर्व मनो कामनाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष है। जब धर्म से मोक्ष रूप अक्षय सुख की प्राप्ती हो सकती है तब सांसारिक पौद्गलिक सुखों की कीमत ही क्या है । आप जानते हैं कि किसान लोग धान्य की आशा से खेत में बीज बोते हैं किन्तु चारा-घास फूस तो सहज ही में उसके साथ बिना प्रयत्न के हो जाता है । घास के लिये पृथक् बीज बोने या प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती है । अतः समझ सूरिजी का उदेश सन्यासी की दीक्षा १३२७ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८९२] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दार व्यक्तियों को चाहिये कि धर्म की करनी केवल मोक्ष प्राप्ति की आशा से ही करें। सांसारिक तुच्छ पौद् गलिक आशाओं में करणी के अमूल्य-मूल्य को हार जाना अदूरदर्शिता है। यह याद रखने की बात है किधर्माराधन के लिये शुद्धोपयोग और शुद्ध योग्य की आवश्यकता है। शुद्ध उपयोग को निवृत्ति और शुभयोग को प्रवृति कहते हैं। निवृत्ति से कर्म निर्जरा होता है और प्रवृत्ति से शुम पुन्य संचय होता है। श्रापको भी मोक्ष प्राप्ति के लिये धर्माराधन में दत्त चित्त रहना चाहिये । अपने पुण्यों पर सन्तोष करके परम निवृत्ति पूर्वक धर्म ध्यान करना चाहिये। सूरिजी के उपदेश से राजा की आत्मा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। उनकी पुत्राभावरूप मानसिक चिन्ता भी सर्वदा के लिये विलीन हो गई । वे बिना किसी पौद्गलिक सांसारिक आशा के धर्म ध्यान में संलग्न हो गये । इस प्रकार सूरिजी के व्याख्यान ने कई लोगों पर कई तरह का प्रभाव डाला। चातुर्मास का समय नजदीक आने से व श्रीसंघ तथा राजा सोनग के अत्याग्रह से आचार्य श्री ने वह चातुर्मास भी वीरपुर में ही कर दिया। आचार्य श्री के चातुर्मास से वीरपुर की जनता को बड़ा ही हर्ष हुआ। सब लोग अपनी २ रूचि के अनुकत कल्याण मार्ग की आराधना करने में संलग्न हो गये। इस चातर्मास के विशेषानन्द का अनुभव तो सन्यासी एवं राव सोनग को हुआ। वे आचार्यश्री के प्रदत्त चातुर्मास के अपूर्व लाभ से अपने श्रापको कृतकृत्य समझने लगे। राव सोनग ने तो प्राचार्यश्री के उपदेश से शासनाधीश भगवान महावीर का नया मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया और सन्यासीजी सूरीश्वरजी की सेवा भक्ति कर ज्ञान ध्यान पढ़ने सुनने में संलम हो गये। जैन शालों का अभ्यास चिन्तवन एव मनन करने के पश्चात् उनके हृदय में एक बात खटनके लग गई। वे सोचने लगे-मैंने साधु होकर के गृहस्थ के व्रत लिये अतः मेरा दर्ता हल्का हो गया है। मुझे गृहस्थों की श्रेणी में बैठना पड़ता है। मैं जैन साधुओं के आचार विचार से अवगत हो चुका हूं अतः मुझे भी साधुत्व वृत्ति स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है। उक्त संकल्प को सुदृढ़ बना सन्यासीजी सूरीश्वरजी की सेवा में आये और अपने मनः संकल्प को शब्दों के रूप में प्रगट करने लगे। सूरिजी ने भी 'जहा सुह' शब्द से उन्हें सन्तोष दिया। सूरिजी बड़े ही समयज्ञ थे अतः दूसरे ही दिन प्रापश्री ने अपने व्याख्यान में प्रसनोपात साध के आचार के विषय में स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया कि-जैन श्रमण दो प्रकार के होते हैं- १-जिनकल्पी २-स्थविर कल्ली। इनमें जिनकल्पी साधु तो पाणि पात्र अर्थात् कुछ भी उपाधि नहीं रखते हैं। सुधादि परिपड़ों से सन्तापित होने पर गृहस्थों के यहाँ भिक्षार्थ जाकर जो कुछ समय पर मिलता है; हाथ में लेकर भिक्षा कर लेते हैं। कई २ जिनकल्पी कुछ उपकरण विशेष भी रखते हैं। वे कम से कम रजोहरण और मुख दधिका और अधिक से अधिक बारह उपकरण रख सकते हैं-तथाहि पत्तं? पत्ताबंधो२ पायहवयं३ च पायकेसरिया । पडलाइं५ रयत्ताण६ गुच्छो पायनिजोगो ।। तिन्नेव य पच्छागा१० स्यहरणं११ चेत्र होइ मुइपत्ति । एसो दुवालस विहो उवहि विणकप्पियाणं तुः ।। उक्त बारह और दो के बीच की संख्या में उपकरण रखना जिनकल्ली के मध्यम अकरण कहे जाते हैं। एतोचेव दुवालस्स मत्तग१ अइरेग चोलपट्टो य । एसो चउद्दस विहो उवहि पुण बेरकप्पंमि ॥ १३२८ राव सोनग को सूरिजी का उपदेश Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देव गुप्तसूरि का जीवन ] [ श्रोसवाल सं० १२३७-१२१२ उक्त बारह उपकरण तथा मात्रक ( घड़ा या तृपणी विशेष ) और चोलपट्टा ये चौदह उपकरण स्थविर कल्पी साधु रख सकते हैं । साध्वी इनकी अपेक्षा कुछ अधिक उपकरण रख सकती है। कारण स्त्रीपर्याय होने से उन्हें ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये अधिक भण्डोपकरण रखना अनिवार्य हो जाता है । उक्त १४ स्थविर कल्पियों के उपकरणों के सिवाय साध्वी ११ उपकरण और रख सकती है तथाहि उग्गहत १५ पट्टो १६ उडढो रु १७ चलखिया १८ य बोद्धग्बा । आभिंतर १६ बाहरि२० नियंत्रणीय २१ तह कंचुएचेव २२ ॥ उगच्छ्रिय२३ वेगच्छिय२४ संघाडी २५ चेव खंधकरणीय । श्रोहिम एए श्राणं पनवीसं तुं ॥ ऊपर बतलाये हुए उपकरणों का परिमाण एवं प्रयोजन निम्न प्रकारेण हैं ( १ ) पात्र - भिक्षा ग्रहण करने के लिये - इसका परिमाण "तिनी विद्दत्थी चउरंगुल च भाणस्स मज्झिमप्पमाणं । इत्तो हीरा जहन्नं श्रइरेगयरं तु उक्कोसं ॥ अर्थात् - चालीस अंगुल प्रमाण परधीवाला पात्र मध्यम श्रेणी का गिना जाता है। इससे कम जघन्य और अधिक उत्कृष्ट पात्र समझा जाता है । पात्र रखने का प्रयोजन छकाय रक्खणडा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं । ने य गुणा संभोए हवंति ते पायग्गहणे ॥ अतरंत बालबुड्ढासेहाएसा गुरु असहुवग्गे । साहारणुग्गहा लद्धिकारणा पायगहणं तु ॥ अर्थात्[-छकाय जीवों की रक्षा के लिये और बालवृद्ध ग्लानि की वैयावश्च के लिये जिनेश्वरों ने पात्र प्रण एवं धारण करना फरमाया है । (२) पात्रबंधन ( झोली ) - जिसके अन्दर पात्र रख कर के भिक्षा लाई जाय । इसका परिमाण - पयाबन्धप्पमाणं भाणष्पमाणेण होइ नायव्वं । जहगंठिभि कयंमि कोणा चउरंगुला हुंति ॥ अर्थात् - पात्रों को बांध देने के पश्चात् किनारा चार अंगुल रह सके उतने प्रमाण की झोली होनी - चाहिये । पत्तद्ववणं तद् गुच्छश्रो य पाय पडिलेहणीया य । तिपि य प्यमाणं विहत्थि चउरंगुलंचेव । जेहिं सविया नदीसइ अंतरि तारिसा भवे पडला । तिन्निव पंच व सत्त व कदलीगन्भोषमा भणिसा ।। (३) पात्र स्थापन - प्रत्येक पात्र के नीचे ऊन का खण्ड रखा जाता है । ( ४ ) पात्र केसरिका - छोटी चरवाली जो पात्र प्रमार्जन के काम में श्राती है। ( ५ ) पडिला - गौचरी जाते समय झोली पर डाले जाने वाला वस्त्र विशेष । इसकी संख्या - शीतकाल ५ उष्णकाल में ३ और वर्षाकाल में ७ रहती है। मुख्य हेतु जीवों की रक्षा का व पात्र आहार गुप्त रहे । (६) रजखाण - प्रत्येक पात्र के बीच में रखने के वस्त्र विशेष । पात्र और जीवों की रक्षार्थ । (७) गोच्छक - पात्रों को झोली में बांधने के पश्चात् उस पर ऊन के दो खण्ड ऊपर नीचे गुच्छे की आकृति से बांधे जाते हैं उसे गोच्छक कहते हैं । इन पडिला एवं रजताण का परिमाण निम्न है अड्ढाइजा हत्था दीहा छत्तीस अंगुले रुंदा, बीयं पडिग्गह। ओ ससरीराओ य निष्पन्नं ॥ मातु रत्ताणे भाण प्रमाणेण होइ निष्पन्नं, पायहिणं करतं मज्झे चउरंगलं कमइ ॥ जैन श्रमणों के धर्मोपकरण Jain Education Inational १६७ १३२६ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८६२ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अर्थात् — पात्र स्थापन, गोच्छक और पात्र प्रति लेखनी; इन तीनों का परिमाण १६ अंगुल का है । पडिला - अढ़ाई हाथ लम्बा और छतीस अंगुल चौड़ा होना चाहिये । रजखाण - वर्तन के प्रमाण से चार अंगुल बढ़ता हुआ होना चाहिये । प्रयोजन - संयमाराधना और जीव रक्षा - तथाहि रमाइरक्खणट्ठा पत्तग ठवणं वि उवइस्संति, होइ पमजण हेउ गुरुछश्रो भाणवत्थाणं || पायपमजण हेउं केसरिया पाए २ इक्किका, गुच्छ पत्तगठवणं इक्किकं गणणमाणेणं ॥ पुफ्फफलोदयस्यरेणु सउण परिहार पायरक्खणट्ठा, लिंगस्स य संवरणे वेश्रोदय रक्खणे पडला ॥ मूसगर उकेरे वासे सिन्हारएयरक्खाणट्टा, हुंति गुणा रत्ताणे पाए २ य इक्केक्कं ॥ अर्थात् - गोचरी लाते समय पात्रों के नीचे घृतादिक का लेप लग जाने से भूमि पर रखने में जीवों की विराधना होती है उसकी रक्षा के लिये अथवा रजसे सुरक्षित रखने के लिये प्रत्येक पात्र के नीचे ऊन का खंड रखना बतलाया है । प्रमार्जन एवं जीव रक्षा के लिये पात्र केसरिया - चरवाली का उल्लेख किया है । पुष्प, फल, रज, रेणु, शकुन के परिहार के लिये व वेदोदय के रक्षण के लिये पडिले का उल्लेख किया है। मूषकोपद्रव व रज वगैरह से सुरक्षित रखने के लिये तथा वर्षा ऋतु में पकाय के जीवों की रक्षा के लिये एक २ पात्र में एक २ रजताण तथा पात्र बन्धन पर गुच्छा रखने का कहा । ८- ६-१० - चादर - इसका परिमाण - कप्पा श्रायपमाणा श्रृड्ढाइज्जायवित्थरा हत्या | दो चेव सुत्तिया उ उन्निय तइश्रो मुयव्वो । अर्थात् -- अपने शरीर के प्रमाण लम्बी और श्रदाई हाथ चौड़ी दो सूत की ओर एक ऊन की एवं तीन चादर रखना—कहा गया है। इसका प्रयोजन तणगहणानलसेवा निवारणा, धम्म सुक्कज्झाणहा । दिहं कप्पग्गहणं गिलाण मरणट्टया चैव || अर्थात् - तृण गृहण एवं अनल सेवन से निवारण करने के लिये व धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान को ध्याने के लिये तथा ग्लान एवं सरणार्थ के लिये तीर्थंकरों ने वस्त्रग्रहण फरमाया है । (११) रजोहरण -- जीवरक्षार्थ एवं प्रमार्जनार्थ बत्तीसंगुलदीहं चउवीसंगुलाई दण्डो से अट्टागुला दसा श्री एगतंर ही महियं वा ॥ अर्थात् -- बत्तीस अंगुल के रजोहरण में चौवीस अंगुल प्रमाण दण्डी और आठ अंगुल की दसियां ( फलियाँ) होनी चाहिये । कदाचित् दण्डी लम्बी हो तो दसियां कम और दसियां लम्बी हो तो दण्डी कम, परन्तु रजोहरण बत्तीस अंगुल का होना चाहिये । प्रयोजन उन्न उट्टियं वा विकंचलं पाय पुच्छणं तिपरीयल्लमणिस्सिट्टं रजहरणं धारए इक्कं । 1 अर्थात् —ऊन का, व ऊंट के बालों का व कम्बल इन तीनों में से किसी एक तरह के रजोहरण को धारण कर सकते हैं। किसी स्थान पर पाँच प्रकार के रजोहरण लिखे हैं जिसमें अम्बाड़ी व मूंज का भी रजोहरण रख सकते हैं । आयाणे निक्खेवे ठाण निसीयण तुयट्ट संकोए पुव्र्वपमजणट्टा लिंगठ्ठा चेव रयहरणे || अर्थात् वस्तुओं को ग्रहण करते हुए, रखते हुए, खड़े होते हुए, बैठ हुए, सोते हुए, संकुचित होते हुए पूर्व प्रमार्जनार्थ व जैन धर्म का चिन्ह स्वरूप रजोहरण का कथन किया गया है । अन्यत्र इसको धर्म ध्वज भी कहा गया है । १३३० जैन श्रमणों के धर्मोपकरण Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ोसवान सं० १२३०-१२६२ (१२) मुखवत्रिका-इसका परिमाणचउरंगुल विहत्यि एवं मुहणंतगस्सउप्पमाणं । बीयं मुहप्पमाण गणण पमाणेणं इक्विकं ॥ अर्थात्-१६ अंगुल प्रमाण अपने अंगुल से तथा मुखप्रमाण मुख वत्रिका एक ही रखे । प्रयोजन संपाइमरयरेणु पमाणहायति मुहपति । नासं मुहं च बंधह तीए वसहि पमंजतो ॥ अर्थात्-मक्खी, मच्छर, पतंगिये वगैरड् जीवों की रक्षा के लिये व रजरेणु प्रमार्जन के लिये मुखवत्रिका का विधान है तथा वसति प्रमार्जन के समय व अशुचिस्थान के कारण के समय व दोनों किनारे कान में डाल कर नाक पर्यन्त अछादन कर सकते हैं। (उक्त १२ उपकरण जिनकल्पी मुनियों के लिये कहे गये हैं) (१३)-मात्रक- (घड़ा या तृपणी विशेष ) इस का परिमाण जो मागहो पत्था सविसेसयरं तु मत्तगपमाणं । दोसुवि दव्वगहणं वासावापासु अहिगारो ।। भावार्थ-मागधदेश के परिमाण विशेष का पात्र बतलाया है । इसका प्रयोजनपायरिए य गिलाणे पाहुणए दुबलह सहसदाणे । संसत्तए भत्तपाणे मत्तगपरिभागणुनाउ । संसत्तभत्तपाणसु वा वि देसेसु मत्तए गहणं । पुव्वंतु मत्त पाणं सोहेउ मुहंति इयरेसु॥ अर्थ-आचार्य, गलानि, अतिथि वगैरह साधुओं के स्वागतार्थ विशेषोप्रयोग में आते हैं। (१४)-चोलपट्टा-ये कटि भाग में पहिनने के काम में आता है-इसका परिमाणदुगुणो चउराणोवा हत्थो चउरंस चोलपट्टोय । थेर जुवाणाणा सरहे थूलंमि य विभासा ।। अर्थात्-यह वन एक हाथ के पन्ने का होता है। स्थविर और युवक के कटिबन्धानुक्रमशः दो हाथ और चार हाथ का होता है । स्थविर के सन्ह युवक के स्थुल इस प्रकार से इसका प्रयोजन वेउव्ववाउडे वाइसे हीए खद्ध पजणणे चेव । तेसिं अणुग्गहटा लिंगुदयट्टा य पट्टो उ ॥ अर्थात्-शीतोष्णा से रक्षा करने के लिये, तथा लज्जा निवारण के लिये व लिंगाच्छादन के लिये चोलपट्ट की अावश्यकता रहती है। ( उक्त चौदह उपकरण स्थविर कल्पी मुनियों के होते हैं ) साध्वी के लिए उक्त १४ उपकरणों के सिवाय ११ उपकरण और भी है। (१५)-अवग्रहान्तक-होड़ी के थाकार वाले गुप्त स्थान को अच्छादित करने का वस्त्र विशेष । (१६)-पट्ट-चार अंगुल चोड़ा कमर बांधने के काम में आता है। अवग्रहांतक इसी के आधार पर रहता है। (१७)-अोसक-कमर से आधी साथल तक पहिनने की चडी। (१८)-चलणिका-चडी के आकार का ढीचण पर्यन्त पहिनने का वस्त्र विशेष । ये दोनों बिना सीये कसों से ही बांधे जाते हैं। (१६)-अभ्यन्तर र्निवसनी-कमर से जंधापर्यन्त घाघरे के आकार का अन्दर पहिनने का वा । (२०)-बहिर्निवसनी-कमर से पैर की एटी पर्यन्त लम्बे घाघरे के आकार वाला वस्त्र । यह वस्त्र कटि भाग पर नाड़ी से बांधा जाता है । उक्त सर्व कमर के नीचे रखने के लिये साध्वियों के आवश्यक उपकरणों का विधान किया है। जैन साध्वियों के धर्मोपकरण १३३१ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. ८३७-८९२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (२१)-कंचुक-अपने शरीर के प्रमाण कसों से बांधे जाने वाला । स्तनों पर कंचूकाकार । (२२)-उपकक्षिका-डेड़ हाथ समचोर से दाहिनी काख ( कक्षभाग) ढके उतना वस्त्र । (२३)-वैकक्षिका-यह पट्टे के आकार की होती है । बायीं बाजू पहिनी जाती है। यह उपकक्षिका और कंचुक को ढकती है। (२४)-संघाटी-अर्थात् साध्वियें चार चादर रख सकती हैं । ये चारों ३।। से चार हाथ लम्बी चद्दर निम्न प्रकार के काम की होती है: [१]-दो हाथ चोड़ी चादर उपाश्रय में श्रोढ़ने के काम में आती है। [२]-तीन हाथ चोड़ी चद्दर गोचरी के लिये जाते समय काम में आती है। [३] —तीन हाथ चौड़ी चद्दर स्थण्डिल भूमिका जाते हुए ओढ़ने के काम में आती है। [४]-चार हाथ के पने की चादर मुनियों के व्याख्यान में या स्नात्रादि धर्म महोत्सव में जाने के समय काम में आती है क्योंकि, वहां अनेक प्रकार के मनुष्य एकत्रित होते हैं अतः साध्वी को अपने अङ्गोपाङ्ग इस तरह से आच्छादित करने पड़ते है कि नाक को अणी और पग की एड़ी भी पुरुष नहीं देख सकते हैं। (२५)-स्कंधकारिणी-ऊन का चार हाथ समचोरंस वस्त्र जो स्कंध पर डाला जाता है । इत्यादि यह तो औधिक उपकरण का उल्लेख हुआ है पर इनके अलावा औपग्रहिक उपकरणों का भी शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। इन औपग्राहिक उपकरणों में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपकरणों के नाम हैं । जैसे उत्तरपट, दण्डपञ्चक, पुस्तकपनक वगैरह । इन सबका प्रयोजन ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना में सहायक होने का ही है। जैन धर्म एक ऐसा विशाल धर्म है कि इसमें अनेकान्त दृष्टि से सब बातों का समावेश अत्यन्त सुमता पूर्वक हो सकता है। जैन धर्म का हृदय समुद्र के समान गम्भीर है यही कारण है कि इधर पाणिपात्र जिनकल्पी और उबर औधिक औपग्रहिक उपकरणों को रखने वाले साधु को भी मोक्ष मार्ग की आराधना के लिये स्थान दिया गया है। उपकरण-उपाधि रक्खे या न रक्खे-यह अपनी रुचि एवं दैहिक सामर्थ्य-संहनन शक्ति पर निर्भर है पर परिणामों में विशुद्धता एवं विकास किसी भी अवस्था में होना आत्मोन्नति के लिये आवश्यक ही है। आगे चल कर सूरिजी ने कहां-सज्जनों! आप जानते हैं कि भूमि शुद्ध होने से उसमें बोया हुआ बीज भी यथानुकूल फल को देने वाला होता है अतः प्रसङ्गोपात दीक्षा लेने वाले मुमुक्षुओं का हाल जान लेना भी आवश्यक है कारण धर्म बीज बोने के लिये भी उचित क्षेत्र, गुण, व्यवसाय, पराक्रमादि की नितान्त आवश्यकता रहती है । दीक्षा लेने वाला सब प्रकार से योग्य एवं निर्दोष होना चाहिये । जैसे: १-बाल न हो-बाल दो प्रकार के होते हैं, एक वय बाल--जो छोटी अवस्था के कारण दीक्षा के महत्व को समझता नहीं हो और दूसरा ज्ञान बाल जो वय में अधिक होने पर भी दीक्षा के स्वरूप एवं ज्ञान से अनभिज्ञ हो । ये दोनों ही बाल, दीक्षा के लिये सर्वथा अयोग्य हैं। २-वृद्ध-जिसका शरीर एवं इन्द्रिय बल क्षीण हो चुका है जो दीक्षा रूप भार को वहन करने में असमर्थ है। ऐसा वृद्ध भी दीक्षा के लिये अयोग्य है। ३-नपुंसक-स्त्री और पुरुष दोनों की अभिलाषा रखता हो कई प्रकार की कुचेष्टाएं कर अपना व पर का अहित करने वाला हो वह भी दीक्षा के लिये अयोग्य है । ४-कृत नपुंसक-जिसके मोहनीय कर्म का प्रबल उदय हो, स्त्रियों को देखने मात्र से काम विकार पैदा हो जाता हो। ५-जड़-जड़ तीन प्रकार के होते हैं ? भाषा जड़ अस्पष्ट भाषी, क्रोधी या बहुत वाचाल हो ।२-शरीर जड़-अर्थात्-शरीर स्थूल, वक्र व प्रमाद परिपूर्ण हो ३-करणजड़-कर्तव्य मूढ़-हिताहित को नहीं जानने १३३२ जैन साध्वियों के धर्मोंपकरण Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] वाला | ये तीनों जड़ दीक्षा ले लिये अयोग्य हैं । ६ - रोगी - जिसके शरीर में खास करके श्वास, जलंदर, भगंदर कुष्टादि रोग हो । ७- अप्रतीत-संसार में चोरी जारी आदि कुकृत्य किये हो । जिसकी किसी भी तरह से प्रतीतिविश्वास नहीं होता हो ऐसा भी अयोग्य ही है । ८- कृतघ्नी- राजद्रोही, सेठ द्रोही, मित्र द्रोही आदि घृणित कार्य किये हो । -पागल- बेभान - परवश हो । जिसको भूत प्रेत शरीर में आता हो । १० - हीनांग - अन्धा, बहरा, मूक, लूला, लंगड़ा हो । ११ - स्त्यानगृद्धि - निद्रा वाला हो । जो निद्रा में सग्राम तक भी कर आवे । १२ – दुष्ट परिणामी – दुष्ट विचार या प्रतिकार की बुरी भावना रखने वाला हो। (जैसे कषाय दुष्ट साधु ने क्रोधावेश में अपने मृत्गुरु के दाँत तोड़ डाले । ) विषय दुष्ट स्त्रियों को देख दुष्टता, कुचेष्टा करने वाला हो । १३- मूढ़ - विवेक हीन, जो समझाने पर भी न समझे । [ सवाल सं० १२३७-१२१२ १४ - ऋणी - कर्जदार हो । १५ - दोषी - जातिकर्म से दूषित हो; जिसके हाथ का पानी ब्राह्मण, वैश्य नहीं पीते हों । १६ - धनार्थी - रुपये की प्राप्ति या धनाशा से मन्त्रादि विद्या का साधन करने वाला हो । १७ - मुद्दती देवाला - किसी साहुकार के कर्ज की किश्तें करदी शें पर बीच में ही दीक्षा लेना चाहता हो । १८- श्रज्ञा-माता, पिता, कुटुम्ब वगैरह की आज्ञा न हो । उक्त १८ दोष वाला पुरुष और गर्भवती व छोटे बच्चे की मातारूप २० दोष वाली स्त्रियाँ दीक्षा के लिये सर्वेथा अयोग्य होती हैं । इन दोषों से दूषित व्यक्तियों को दीक्षा नहीं दी जाती है । जातिवान्, कुलवान, बलवान्, रूपवान् लज्जावान, विनयवान्, ज्ञानवान्, श्रद्धावान्, जितेन्द्रिय, वैराग्यवान्, उदारचित्त, यत्नवान्, शासन पर प्रेम रखने वालों व आत्म कल्याण की भावना वाला, अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं १२ प्रकृतियां तथा तथा मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, सर्व १५ प्रकृतियों के क्षय अथवा क्षयोपशम वाले व्यक्ति को ही दीक्षा देनी चाहिये। ऐसा योग्य पुरुष ही वैराग्य की भावनाओं से ओत प्रोत होता है और वही पुरुष स्वपर की आत्मा का कल्याण करने में समर्थ होता है। श्रोताओं ! दीक्षा कोई साधारण बालोचित क्रीड़ा नहीं है कि इसको हर एक चलता फिरता आदमी ही ग्रहण करले । यह तो हस्तियों के उठाने रूप भार है; जो समर्थ हस्ति ही उठा सकता है। शृगाल जैसा तुच्छ पामर प्राणी इसका आराधन कदापि काल नहीं कर सकता है। इसके लिये तो आत्मा संयम, दृढ़ वैराग्य, संसार त्याग की उच्चतम भावनाओं का होना जरूरी है। इसके साथ ही साथ यह भी याद रखने की बात है कि दीक्षा को अङ्गीकार किये बिना जीव का आत्म कल्याण हो ही नहीं सकता। चाहे इस भव में दीक्षा को स्वीकार करो या अन्य भव में- दीक्षा स्वीकार करना तो मोक्ष मार्ग की आराधना के लिये आवश्यक हो ही जाता है। जन्म, जरा और मृत्यु के विषम, भयावह दुःखों से विमुक्त करने के लिये भी सबसे समर्थ, साधकतम कारण व अनन्योपाय दीक्षा रूप ही है। बड़े २ चक्रवर्ती राजा महाराजाओं को भी मोक्ष मार्ग की आराधना के लिये चारित्र वृत्ति का आराधन करना ही पड़ा। बिना पौदगलिक पदार्थों का त्याग किये आत्म कल्याण नितान्त अशक्य है । इस प्रकार सूरिजी ने खूब ही प्रभावोत्पादक वक्तृत्व दिया जिसको श्रवण कर कई भोगी भी योगी बनने के इच्छुक हो गये | सन्यासीजी ने तो व्याख्यान में ही निश्चय कर लिया कि- मुझे अब शीघ्र ही सूरीश्वरजी म० की सेवा में दीक्षा स्वीकार करना है अस्तु, दीक्षा धारण करने के लिये योग्यायोग्य १३३३ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८६२ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् एक कोड़ी - अर्थात् २० मुमुक्षु दीक्षा के लिये सन्यासीजी के साथ और तैयार होगये । बस फिर तो देरी ही क्या थी ? ठीक समय में राव सोनग ने बड़े ही समारोह पूर्वक दीक्षा का महोत्सव किया। सूरीश्वरजी ने भी चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष सन्यासी प्रभृति २० भावुकों को शुभ मुहूर्त एवं स्थिर लग्न में भगवती दीक्षा देकर उनकी आत्मा का कल्याण किया । दीक्षानन्तर सन्यासी का नाम ज्ञानानन्द रख दिया । दीक्षा वगैरह माङ्गलिक कार्यों के सानन्द सम्पन्न होने पर आचार्यश्री ने शीघ्र ही वहां से बिहार कर दिया। इधर राव सोनग के द्वारा बनवाये जाने वाले मन्दिर का काम भी बड़े ही जोरों से व शीघ्रता से प्रारम्भ कर दिया गया। आचार्यश्री ने भी सिन्ध प्रान्तीय उच्चकोट, मारोटकोट, रेणुकोट, मालपुर, कपाली, धारु, जाकोली, डामरेलपुर, देवपुर, सीलार, धारकोट, नागरकोट, खीणी, वेलाव रुदरी, गोसल - पुर, आपली, दीवकोट वगैरह ग्राम नगरों में फिर कर खूब ही धार्मिक क्रान्ति मचाई। चातुर्मास के समय में डामरेल नगर के श्रीसंघ के अत्याग्रह से डामरेलपुर में ही सूरिजी ने चातुर्मास कर दिया । aar के रावसोन ने जिस दिन भगवान्महावीर के मन्दिर की नींव डाली उसी दिन आपकी रानी के गर्भ रह गया । क्रमशः नव मासानन्तर आपके पुत्ररत्न का जन्म हुआ अत: जैन धर्म पर व सूरिजी पर रावजी की श्रद्धा बहुत ही बढ़ गई। जब रावजी ने सुना कि सूरिजी का चातुर्मास डामरेल नगर में हो चुका है तो दर्शनार्थ आप स्वयं जाने को तैय्यार हो गये । सारे नगर में अपने जाने के साथ ही साथ यह घोषणा करवादी कि जिस किसी को आचार्य जी के दर्शन के लिये डामरेलपुर चलना हो वह सहर्ष मेरे साथ चल सकता है । उसके सम्पूर्ण खर्चे का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर रहेगा । राव सोनग की उक्त घोषणा को सुन बहुत से दर्शनेच्छुक भावुक डामरेल, आचार्यश्री के दर्शनार्थ जाने को तैय्यार हो गये । क्रमशः राव सोनग ने भी अपनी रानी, नवजात शिशु एवं दर्शनाभिलाषी भाबुकों के साथ डामरेलपुर की ओर प्रस्थान कर दिया डामरेल पहुंच कर सबने खुशी एवं भक्ति के साथ आचार्यश्री को वन्दन किया महात्मा ज्ञानानन्दजी मुनि भी उस समय सूरिजी के ही साथ थे। राव सोनग ने कृतज्ञता सूचक प्रसन्नता प्रकट करते हुए नवजात बालक पर आचार्यश्री के कर कमलों से वासक्षेप डलवाया। साथ ही वीरपुर पधार कर मन्दिर की प्रतिष्ठा करने के लिये विनय पूर्ण शब्दों में आग्रह भरी प्रार्थना की। सूरिजी ने वर्तमान योग - कह कर संतोष दिया। राव सोनग भी आठ दिवसपर्यन्त स्थिरता कर पूजा, प्रभावना स्वाभीवात्सल्य, अष्टान्हिका महोत्सव, और सूरिजी के पीयूषरस प्लावित उपदेश श्रवण का लाभ उठाया । पश्चात् पुनः संघ सहित अपने नगर को लौट आये । सूरिजी की सेवा में ऐसे ही एक तो यक्ष था और दूसरे मंत्र यंत्रादि नाना विद्या परायण ज्ञानसुन्दर नाम के सन्यासी शिष्य थे अतः आपने सिन्धधरा में सर्वत्र परिभ्रमन कर धर्म का खूब ही प्रचार किया। समय पर वीरपुर पधार कर शुभमुहूर्त में राव सोनग के बनवाये हुए महावीर मन्दिर की बड़ी धामधूम से प्रतिष्ठा करवाई | रावजी ने जिनालय प्रतिष्ठा की खुशाली में आगत संघ - समुदाय को भी सुवर्ण मुद्रिका की प्रभावना दी इससे अन्य लोगो पर जैनधर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा । क्रमशः इधर उधर परिभ्रमन एवं धर्म प्रचार करते हुए आचार्यश्री ने तीसरा चातुर्मास गोसलपुर में किया । गोसलपुर के चातुर्मास के सानन्द सम्पन्न होने पर आपश्री ने पंजाब प्रान्त में पदार्पण किया। पंजाब प्रान्तीय इतर श्रमण मण्डली को धर्म प्रचार के मार्ग में सविशेष प्रोत्साहित एवं अग्रसर करते हुए आप श्री ने दो चातुर्मास पंजाब प्रान्त में भी कर दिये । पंजाब प्रान्त में आपश्री के आज्ञानुयायी बहुत से मुनि वर्तमान थे अतः मुनि विहीन क्षेत्र में धर्म प्रचारार्थ जाना आप को विशेष श्रेयस्कर एवं हितकर ज्ञात हुआ इसी कारण से आपने पंजाब प्रान्त में ज्यादा स्थिरता न कर पूर्व की ओर पदार्पण कर दिया । क्रमशः पूर्व प्रान्तीय तीर्थों के दर्शन करते हुए व ग्राम नगरों में धर्मोद्योत करते हुए आचार्यश्री ने पाटलीपुत्र में चातुर्मास कर दिया। वहां का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न करके आपश्री ने कलिङ्ग की ओर पदार्पण किया । कलिङ्ग प्रान्तीय शत्रुञ्जय, गिरनार अवतार तीर्थ की यात्रा १३३४ राव सोनग द्वारा महावीर मन्दिर Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १२३७-१२१२ कर कुछ समय पर्यन्त कलिङ्ग प्रान्त के आस पास के प्रदेशों में परिभ्रमन कर धर्मोद्योत किया । तत्पश्चात् आप बिहार करके महाराष्ट्र प्रान्त में पधारे। महाराष्ट्र प्रान्त में आपके आज्ञानुवर्ती श्रमण वर्ग पहिले ही से विचरते थे । आचार्यश्री के पदार्पण के शुभ समाचारों ने महाराष्ट्र प्रान्तीय श्रमण मण्डली के हृदयों में नवीन एवं पूर्व लगन पैदा कर दी। वे सबके सब और भी उत्साह एवं परिश्रम पूर्वक धर्म प्रचार के कार्य में संलग्न हो गये । इस समय तक महाराष्ट्र प्रान्त में वैदिक धर्मानुयायियों का भी खूब जोर बढ़ गया था पर आचार्य श्री के आगमन के समाचारों ने वैदिक धर्म प्रचारकों का एकदम हतोत्साहो कर दिया। इधर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर समुदाय के पारस्परिक प्रेम में भी अभूतपूर्व वृद्धि हो गई अत धर्म प्रचार का कार्य बहुत ही सुगम तया होने लगा आचार्य श्री के पधारने से उनके उत्साह में कई गुनी वृद्धि हो गई अतः वैदिक धर्म का विस्तृत प्रचार एक बार पुनः दब गया । सूरीश्वरजी के व्याख्यान की स्टाइल बहुत ही आकर्षक थी । एक बार आ चार्यश्री के व्याख्यान श्रवण करने वाला व्यक्ति दररोज बिना किसी विघ्न के व्याख्यान श्रवण की उत्कट इच्छा एवं प्रबल आकांक्षा से प्रेरित हो व्याख्यान के ठीक समय में व्याख्यान श्रवणार्थ उपस्थित होता ही था आपने अपनी प्रखर विद्वता सम्पन्न प्रतिभा का प्रभाव साधारण जनता पर ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजाओं पर भी डाला । इस समय का इतिहास बतलाता है कि राष्ट्रकूट, चोल, पाण्डच, पल्लव, चौलुक्य, कलचुरी, होयल, गग, कदंब वंशी राजा महाराजा जैनधर्म के परमोपासक एवं प्रचारक थे । सूरीश्वरजी म० को वैदिक धर्म की जड़ को खोखली करने के लिये महाराष्ट्र प्रान्त में ज्यादा स्थिरता करना भविष्य के लिये लाभप्रद ज्ञात हुआ अतः आपश्री ने जैन धर्म की पता का को महाराष्ट्र प्रान्त के इस छोर से उस छोर तक फहराने के लिये क्रमशः पाञ्च चातुर्मास महाराष्ट्र प्रान्त में ही किये। इन चातुर्मासों की दीर्घ अवधि में कई मार्ग स्खलित बन्धुओं को मार्गारूढ़ किया, कितने ही जैनेतरों को जैनत्व के संस्कारों से संस्कारित किये । एवं नये जैन बनाये कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवाकर नये जैनों के संस्कारों को स्थायी एवं दृढ़ किये। कई भावुकों को दीक्षा देकर उनकी आत्माओं का कल्याण किया । कालान्तर में बीजापुर राजधानी में महाराष्ट्र प्रान्तीय श्रमणों की एक सभा की जिसमें श्वेताम्बर व दिगम्बर कई श्रमण एकत्रित हुए। श्रागत श्रमण मण्डली को आचार्यश्री ने ओजस्वी वाणी के द्वारा उपदेश दिया श्रमण बन्धुओं । इस संघर्ष के भयानक आप स्थत समय में ही आपकी कसोटी- परीक्षा है । यद्यपि बाह्य नामों के विशिष्ट एवं क्रियाओं की पारस्परिक विभिन्नता के कारण अपना समुदाय श्वेताम्बर, दिगम्बर रूप में विभक्त है किन्तु जैन धर्म के विस्तृत प्रचार के समय स्वश्राम्नाय की संकीर्ण भावना रखना अपने आप अपने पैरों में कुठाराघात करना है । अतः भ्रातृत्व के अनुराग पूर्ण व्यवहारों से- जैसा कि अभी दोनों समुदायों के श्रमणों में दृष्टिगोचर है-* जैन धर्म का प्रचार करते रहना चाहिये । अपन श्वे० दि० के रूप में अलग २ दीखते हैं पर भगवान् महावीर के अहिंसा एवं स्याद्वाद धर्म का रक्षण, पोषण, एवं प्रचार करने में एक ही है। याद रक्खो; जब तक अपनी संगठित शक्ति का अभेद दुर्ग जैसा का तैसा रहेगा वहाँ तक कोई भी विधर्मी अपने शासन को किसी भी तरह से धक्का पहुँचाने में समर्थ नहीं होगा और हम अपने कार्य में निरन्तर सफल ही होते जायेंगे। संगठन एवं प्रेम पूर्ण व्यवहार ही अभ्युदय के पाये हैं अतः कभी भी इनमें किसी भी तरह का फरक नहीं आने देना चाहिये । सूरीश्वरजी के उक्त पक्षपात रहित उपदेश एवं प्रेम पूर्ण भ्रातृत्व भाव के बर्ताव ने दिगम्बर एवं श्वेता उस समय के मन्दिर मूर्तियों गुफाए स्थम्भ के तथा दानपत्रादि बहुत से प्रमाण उपलब्ध हो चूके हैं और अन्य कई स्थानों पर प्रकाशित भी हो चूके हैं अतः यहाँ पर समय एवं स्थान के अभाव नहीं दे सके तथापि पाठक ! प्रकाशित हुए प्रणामों को पढ़कर खात्री कर सकते हैं। श्राचार्यश्री महाराष्ट्र प्रान्त में १३३५ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८६२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास म्बर सुनियों के हृदय पर गहरा प्रभाव डाला । उनके उत्साह में विशेष वृद्धि करने के लिये आगत श्रमण मण्डली में से पद योग्य मुनियों को उपाध्याय, गणि, गणावच्छेदक आदि पद से विभूषित किये । पञ्चात् सूरीश्वरजी के आदेशानुसार विभिन्न २ क्षेत्रों के विभिन्न २ मुनियों ने विभिन्न २ क्षेत्रों में बिहार किया। आचार्य : श्री भी विदर्भ देश को पावन करते हुए कोकण पधार गये । क्रमशः सौपार पट्टन के सफल चातुर्मासानन्तर आपश्री ने क्रमशः सौराष्ट्रप्रान्त की ओर पदार्पण किया । सौराष्ट्रप्रान्तीय तीर्थाधिराज शत्रुज्जय गिरनार आदि पवित्र तीर्थक्षेत्रों की यात्रा कर आत्म शान्ति या अनुपम निवृत्ति आनन्दानुभव करने के लिये आपश्री ने कुछ समय पर्यन्त वहाँ पर स्थिरता की । तत्पश्चात् क्रमशः बिहार करते हुए लाट, आवन्तिका और मेदपाट प्रान्त के ग्राम नगरों में बहुत समय तक धर्म प्रचार किया । बाद में आपने मरुधर भूमि को पावन करने का निश्चय किया जब मरुधर वासियों ने आचार्य श्री के आगमन के शुभ समाचार सुने तो उनकी प्रसन्नता का पारवार नहीं रहा दिग्वजय करके आये हुए चक्रवर्ती के समान ग्राम २ एवं नगरों २ में आपका समारोह पूर्वक स्वागत होने लगा । आचार्यश्री ने मरुभूमि में परिभ्रमन करते हुए एक चातुर्मास डिडू नगर में दूसरा नागपुर में और तीसरा उपकेशपुर में किया । उपकेशपुरीय चातुर्मास में देवी सञ्चायिका ने आकर परोक्ष रूप में सूरीश्वरजी को एकदिन सविनय वन्दन किया। सूरीश्वरजी ने भी देवी को उच्चस्वर से धर्मलाभ दिया । तत्पश्चात् देवी ने कहा पूज्य गुरुदेव ! आपश्री ने इत उत परिभ्रमन करते हुए सारे आर्यावर्त की ही प्रदक्षिणा दे डाली । धन्य है दयानिधान ! आपकी उत्कृष्ट धर्म प्रचार को पवित्र भावनाओं को और धन्य है आपश्री के उच्चतम त्याग वैराग्य को । प्रभो ! आपका धर्म स्नेह, पुरुषार्थ, एवं पराक्रम स्तुत्य तथा आदरणीय है । इसपर सूरीश्वरजी ने कहा देवीजी ! इसमें धन्यवाद की क्या बात है ? देवीजी ! परिभ्रमन करते हुए स्वशक्त्यनुकूल जन समाज को धर्म मार्ग की ओर प्रेरित करते रहना तो हमारा परम कर्तव्य ही है । धन्यवाद तो है हमारे परमाराध्य पूज्यपाद, प्रातः स्मरणीय आचार्यश्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी प्रभृति पूर्वाचार्यों को कि जिन्होने, ताड़ना, तर्जना, मानावलिना रूप असंख्य परिषदों को सहन करके भी सर्वत्र महाजन संघ की स्थापना कर कण्टकीर्ण मार्ग परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बना दिया है । हमारे लिये तो कोई ऐसा क्षेत्र ही अवशिष्ट नहीं रक्खा कि जहा हमें धर्म प्रचार करने में किञ्चित् भी कष्ट सहन करना पड़े। उनके मार्ग का अनुसरण करके हम सुखी अवश्य है पर कर्तव्य के सिवाय धन्यवाद योग्य और कोई किया ही नहीं है । हमारे पूर्वाचार्यों इन सब क्षेत्रों में जैन धर्म की नींव डालकर शासन की बहुत ही प्रभावना की है किन्तु हमारे से तो उनके द्वारा किये गये कार्यों का एवं शतांश होना भी अशक्य है देवी जी ! जनता हमेशा भद्रिक एवं सरल परिणामों वाली होती है । यदि उनको साधुओं के आवागमन से बराबर उपदेश मिलता रहे तो वे धर्म में स्थिर रहते हैं अन्यथा मिध्यात्व का आश्रय ले शिथिल हो किञ्चित् काल में धर्म से पराङ्मुख बन जाते है । इन्हीं सभी उच्चतम, अभीप्सित भावनाओं से प्रेरित हो हमारे पूर्वाचार्यों ने आर्यावर्तीय सकल प्रान्तों में मुनि समाज को भेज कर जैन धर्म का विस्तृत प्रचार किया व करवाया । आज जिन मधुर फलों का हम आस्वादन कर रहे हैं वह सबी पूर्वाचायों को ही कृपा दृष्टि का ही परिमाण है आज भी उन्हीं के आदर्शानुसार प्रत्येक प्रान्त में साधुओं का विहार होता रहता है अतः मेरा भी सब प्रान्तों में परिभ्रमन कर उत्साह वर्धन करते रहना एक कर्तव्य हो जाता है । इससे कई तरह के लाभ होते हैं - एक तो जन समाज को साधारण तथा उपदेश मिलते रहने से धर्म जागृति होती है दूसरा प्रान्तीय मुनियों के आचार विचार व्यवहार एवं धर्म के प्रचार का निरीक्षण हो जाता है । तीसरा - तीर्थों की यात्रा का अपूर्व लाभ प्राप्त होता है और चौथा चारित्र की निर्मलता यथावत् बनी रहती है अस्तु, देवी - पूज्यवर ! इन सबों का विचार तो वही कर सकता है - जिसके हृदय में धर्म प्रचार की उत्कट १३३६ सूरिजी उपकेशपुर में देवी का आगमन wwwjanelibrary.org Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२३७-१२६२ mom अभिलाषा एवं कार्य करने का अदम्य उत्साह हो । वास्तव में आपको शासन के प्रति अपूर्व गौरव एवं सम्मान है अतः आपको बारम्बार धन्यवाद है। प्रभो ! अब आपकी वृद्धावस्था हो चुकी है अतः आप मरुभूमि में ही विराजकर हम अज्ञानियों पर कृपा करे; यही मेरी प्रार्थना है। सूरिजी ने 'क्षेत्र स्पर्शना' के रूप में उत्तर दिया और देवी भी सूरिजी को वंदन कर क्रमशः स्वस्थान को चली गई। इतने समय पर्यन्त इतर प्रान्तों में दीर्घ परिभ्रमन करने के कारण मरुधर प्रान्तीय श्रमणवर्ग में कुछ शिथिलता आ गई ऐसे समाचार यत्र तत्र कर्णगोचर होने लगे। उक्त समाचारों ने प्राचार्यश्री के हृदय में पर्याप्त चिन्ता एवं दुःख का प्रादुर्भाव कर दिया । शिथिलता निवारण के लिये श्रमण सभा योजना का निश्चय किया और उक्त निश्चयानुसार अपनी मनोगत भावना को दूसरे दिन व्याख्यान में श्रीसंघ के समक्ष प्रगट करदी। श्राचार्यश्री की उक्त योजना को श्रवण कर श्रीसंघ ने प्रसन्नता पूर्वक इसका उत्तरदायित्व अपने सिर पर ले लिया । उपकेशपुरीय श्री संघ ने तो शासन के इस महत्व पूर्ण कार्य का लाभ प्राप्त करने के लिये अपने को परम भाग्यशाली समझा। वास्तव में इससे अधिक शासन प्रभावना का कार्य हो ही क्या सकता था ? शासन की बड़ी से बड़ी या कीमती सेवा तो यही थी अतः श्री संघ ने विनय पूर्वक प्रार्थना कीभगवन् ! इस सभा का निश्चित दिन निर्धारित कर दिया जाय तब तो हमें हमारे सब कार्य करने में सुविधा रहे । सूरिजी ने कहा-आप लोगों का कहना यथार्थ है पर सभा का समय कुछ दूर रक्खा जायगा तो पासपास के क्षेत्रों के साधु व सुदूर प्रान्तीय साधु भी यथा समय सम्मिलित हो सकेंगे अतः मेरे मन्तव्यानुसार कुछ दूर का ही शुभ दिन मुकर्रर करना चाहिये-श्रीसंघ ने कहा-जैसी आप श्री की इच्छा। सर्व मुनियों को एक स्थान पर एकत्रित होने में तो अवकाश चाहिये ही अतः दूर का मुहूर्त रखना ही अच्छा रहेगा। सूरिजी ने फरमाया-माघ शुक्ला पूर्णिमा का दिन निश्चित किया जाता है जिससे; चातुर्मासानन्तर तीन मास में श्रमण वर्ग अनुकूलता पूर्वक सम्मिलित हो सके । दूसरा-गुरु महाराज की स्वर्गारोहण तिथी भी है श्रतः सर्व कार्य गुरुदेव की कृपा से निर्विघ्न तया सानन्द सम्पन्न हो सके । श्रीसंघ ने भी प्राचार्यश्री की दीर्घदर्शिता की प्रशंसा करते हुए सूरीश्वरजी के कथन को सहर्ष स्वीकार कर लिया। बस, समयानुकूल श्रीसंघ ने भी अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया। यत्र तत्र सर्वत्र अपने योग्य-प्रमाणिक पुरुषों के द्वारा आमन्त्रण पत्रिकाएँ भिजवा दी। श्रमणवर्ग की प्रार्थना के लिये उचित पुरुषों को भेज दिये इससे जन समाज के हृदय सागर में उत्साह की ऊर्मियां उछलने लगी। बहुत समय बीत गया । ज्यों ज्यों श्रमण सभा का निर्धारित दिन नजदीक आता गया त्यों त्यों उनके हृदय में नवीन २ आशाओं-कल्पनाओं का सुदृढ़ दुर्ग निर्माण होता गया । सब ही लोग माघ शुक्ला पूर्णिमा के परम पावन दिन की प्रतीक्षा करने लगे। ठीक समय पर चारों ओर से श्रमण संघ का शुभागमन हुआ। श्रीसंघ की ओर से बिना किसी भेद भाव के सबका यथोचित सम्मान किया गया । कुछ समय के लिये मुनियों एवं श्रावकों के आवागमन की अधिकता के कारण उपकेशपुर तीर्थ धाम ही बन गया। इससे सबके हृदय में श्राशातीत उत्साह एवं कार्य करने की शक्ति का सञ्चार हुआ। आगुन्तक श्रमण वर्गों में उपकेशपुरशाखा भिन्नमालगच्छ, कोरंटगच्छ एवं वीर परम्परागत मुनियों को मिला कर कुल पांच हजार श्रमण आये थे। ठीक पूर्णिमा के दिन सभा का कार्य सूरिजी के अध्यक्षत्व में प्रारम्भ हुआ । सर्व प्रथम सूरिजी के सन्यासी शिष्य ज्ञानानन्द मुनि ने सभा करने के मुख्य उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं की ओर जन समाज का ध्यान आकर्षित करते हुए संक्षिप्त स्पष्टीकरण किया तत्पश्चात् आचार्यश्री ने श्रागत श्रमण मण्डली का आभार व्यक्त करते हुये व उनके शासन विषयक इस अदम्य उत्साह की सराहना करते हुए फरमाया कि जिन किन्हीं महानुभावों को सभा के उक्त उद्देश्यानुसार किसी विषय का स्पष्टीकरण करना हो तो वे इस समय खुले दिल से प्रसन्नता पूर्वक अपने मानसिक उद्गारों को प्रगट कर सकते हैं । आचार्यश्री की उक्त सूचना के होने पर भी सभा तो एक दम निस्तब्ध रही उपकेशपुर में संघ सभा १३३७ १६८ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७८६२] [भगवान पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास नहीं गलने कारण श्रागत श्रमण समुदाय व सकल संघ आचार्यश्री की अमृतवाणी का ही श्रवणेच्छुक था। दूसरा वह जमाना ही विनय व्यवहार का था। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता को देखकर ही आगे कदम बढ़ाता था। अतः किसी ने भी बोलने का सो साहस नहीं किया पर आचार्यश्री की इस अनुपम उदारता के लिये सब ने प्रसन्नता प्रगट की। तत्पश्चात् सूरिजी म० ने अपना प्रभावोत्पादक, हृदयस्पर्शी वक्तृत्व प्रारम्भ किया। सर्व प्रथम श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर प्रभृति प्रभावक आचार्यों के श्रादर्श इतिहास को बड़े जोशीले शब्दों में सुनाया! उन महापुरुषों ने धर्म प्रचार के लिये जिन २ कष्टों को सहन किया है। उनमें से एक सहस्रांश कष्ट भी हमको धर्मोद्योत के कार्यों में प्राप्त नहीं होता है। उन प्राचार्य देवों ने जिन २ प्रान्तों में धर्म के बीज बोये वे आज फले फूले, फलकुसुमादि ऋद्धि समृद्धि समन्वित चतुर्दिक में लहराते हुए दीखते हैं। इसका एक मात्र कारण श्रमण वर्ग का तत्तत् प्रान्त में परिभ्रमन कर धर्मोपदेश रूप जल का सींचन करना ही है । विधर्मियों के अनेक आक्रमणों के सामने हमारे श्रमण वर्गखव दट कर रहे हैं और उनकी कहीं पर दी इसका मुझे बहुत हर्ष है। इतना ही क्यों पर मैं स्वयं प्रान्तों २ में परिभ्रमन कर मुनियों के प्रचार कार्य के अपनी आंखों से देखकर आया हूँ अतः श्रमणसंघ के लिये मेरे हृदय में बड़ा भारी गौरव है किन्तु रंज इस बात का है कि कुछ श्रमणों ने सिंह के रूप में भी शृङ्गाल के समान चैत्यों में स्थिरवास कर अपने आचार व्यवहार को एक दम कुत्सित बना दिया है। इससे वे अपनी आत्मा के अहित के साथ ही साथ इतर अनेक आत्माओं का भी अहित कर रहे हैं। श्रमणों ! भगवान महावीर ने आप पर विश्वास कर शासन को आपके ताबे में दिया है । यदि, आप सच्चे वीरपुत्र हैं, अपने वीरत्व का आपको वास्तविक गौरव है आपकी धमणियों में वीरत्व का उष्ण रुधिर प्रवाहित हो रहा हो तो कटिबद्ध होकर शासन प्रभावना एवं प्रचार के समराङ्गण में कूद पड़िये । आज सौगतानुयायियों की तो इतनी प्रबलता रही भी नहीं है। वह तो मृत्यु शय्या पर पड़ा हुधा चरम श्वास ले रहा है पर वैदान्तियों के अपने ऊपर सफल आक्रमण हो रहे हैं अतः अपने को भी कमर कस कर यत्र तत्र सर्वत्र उनकी दाल नही गलने देने का प्रयत्न करना चाहिये । यदि इस भयानक संघर्ष के समय में हम यों ही गफलत में रह गये तो शासनोत्कर्ष के बजाय शासनापकर्ष ही है। पूर्वाचार्यों के पवित्र कुल के लिये शिथिलता कलंक रूप ही है अतः अपने कर्तव्यों का विचार अपने को अपने आप ही कर ले चाहिये । अभी तो सावधान होने का समय है अन्यथा कुछ समय के पश्चात् अपनी ही शिथिलता वा अपने को रह २ कर पश्चाताप करना पड़ेगा। जन समाज अपने को अकर्मण्य, प्रमादी, निरुत्साही, निस्तेज समझेगा अतः धर्म प्रचार के कार्यों में चैत्यवास की स्थिरता व आचार व्यवहार की शिथिलता को तिलाञ्जली देकर अपने को अपने आप अपने कर्तव्य मार्ग की ओर अग्रसर हो जाना चाहिये। इस प्रकार यानि श्रमण वर्ग के लिये मार्मिक उपदेश देने पर प्राचार्यश्री ने दो शब्द श्राद्ध समुदाय के लिये भी कहे-महानुभावों ! जैन शासन की रक्षा के लिये चतुर्विध संघ की स्थापना कर आधी जुम्मेवारी श्राद्ध वर्ग पर भी रक्खी है। साधुओं के जीवन व प्राचार व्यवहार विषयक पवित्रता श्रावकों पर भी निर्भर है। यदि श्रावक वर्ग अपने कर्तव्य की ओर ध्यान देता रहे तो श्रमण समुदाय में उतनी शिथिलता आ ही नहीं सकती। ठाणांग सूत्र में श्रावकों को साधुओं के माता पिता कहा है इसका कारण भी यही है कि कोई साधु अपने पवित्र मार्ग से च्युत हो जावे तो माता पिता के भांति हर एक उपायों से श्रावक च्युत हुए साधु को सन्मार्ग पर ला सकते हैं। सूरीश्वरजी के उक्त मार्मिक, हृदयग्राही उपदेश का प्रभाव उपस्थित चतुर्विध संघ पर इस कदर पड़ा -उनके हृदय में बिजली की भांति नूतन ज्योति चमक उठी। वे अपने कर्तव्य धर्म का गहरा विचार करने लगे तो आचार्यश्री के उपदेश का एक २ शब्द उन्हें महत्वपूर्ण तथा आदरणीय ज्ञात होने लगा। सूरीश्वरजी का कथन उन्हें सौलह आना सत्य प्रतीत हुआ। वे सूरीश्वरजी की प्रशंसा करते हुए कहने लगे-अहो ! वृद्धावस्था जन्य ऐन्द्रीय शक्तियों की निर्बलता होने पर भी आपश्री ने सारे आर्यावर्त की प्रदक्षिणा कर डाली तो क्या १३३८ सूरीश्वरजी का सचोट उपदेश Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १२३७-१२६२ अपना कर्तव्य इसी प्रकार धर्म प्रचार करने का नहीं हैं ? वास्तव में अपन लोग अपने मार्ग से स्खलित हो गये हैं अतः आचार्यश्री के उपदेश को शिरोधार्य करके अपने को भी अपने कर्तव्य पथ में अग्रसर होजाना चाहिये । इस तरह सूरीश्वरजी के उपदेश को सक्रिय कार्यान्वित रूप देने का विचार करते हुए आचार्यश्री की पुनः पुनः प्रशंसा करने लगे । पश्चात् भगवान महावीर को और आचार्य रत्नप्रभसूरिजी की जय ध्वनि के साथ सभा विसर्जित हुई। दूसरे दिन एक सभा और भी हुई । उसमें योग्य मुनियों के योग्य पदाधिकारों के विषय में और साधुओं के पृथक २ क्षेत्र में विहार करने के विषय में विचार किया गया। इस प्रकार श्रमण सभा का कार्य सानन्द सम्पन्न होने पर संघ विसर्जित हुआ। उपकेशपुरीय श्रीसंघ ने आगन्तुक संघ का खूब ही सन्मान किया और योग्य पहिरावणी देकर उन्हें विदा किया। उपकेशपुर श्रीसंघ को अपने कार्य में सफलता मिल जाने के कारण आशातीत प्रसन्नता हुई। उन्होंने आचार्यश्री के परमोपकार की एवं अनुग्रह पूर्ण राष्ट की भूरि २ प्रशंसा की। इस सभा के पश्चात् श्राचार्यश्री का विहार भी प्रायः मरुभूमि में ही होता रहा । केवल एक बार मथुरा और एक बार संघ के साथ शत्रुञ्जय की यात्रा का उल्लेख पट्टावलियों में इस अवधि के बीच-मिलता है। अन्त में आपश्री ने उपकेशपुर में ही अपने सुयोग्य शिष्य उपाध्याय कल्याणकुम्भ मुनि को सूरिमन्त्र की आराधना करवाकर चतुर्विध श्रीसंघ के समद भगवान महावीर के चैत्य में विक्रम सं० ८६२ के माघ शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन शुभ मुहूर्त में सूरि पद से अलंकृत कर परम्परानुक्रम से आपका नाम सिद्धसरि रख दिया श्राप स्वयं २७ दिन के अनशन पूर्वक पञ्च परमेष्टि का स्मरण करते हुए समाधि के साथ स्वर्ग पधार गये । आचार्य देवगुप्तसूरि महान प्रतिभाशाली तेजस्वी प्राचार्य हुए। आपने अपने ५५ वर्ष के शासन में जैनधर्म की बहुत ही अमूल्य सेवा की। आपकी शासन सेवा का वास्तविक वर्णन करने में साधारण मनुष्य तो क्या पर वृहस्पति जैसे समर्थ भी असमर्थ हैं। इस उपकेश गच्छ में अजैनों को जैन बनाने की प्रवृति शुरु से ही चली भा रही थी और इस गच्छ में जितने प्राचार्य हुए उन्होंने थोड़े बहुत संख्या में अजैनों को जैन बनाने का क्रम चलु ही रखा था इसका मुख्य कारण यह है कि इस गच्छ के प्राचार्यों के किसी एक प्रान्त का प्रतिबन्ध नहीं था वे प्रत्येक प्रान्त में विहार किया करते थे। दूसरा इस गच्छ में शुरू से ही एक आचार्य होने का रिवाज था और सब साधु उन एक प्राचार्य की आज्ञा में विहार करते थे अतः जहां उपकेशवंश की थोड़ी घणी बस्ती हो वह उनके मुनि गण विहार करते ही रहते थे जब तक वगेचा को अनुकूल जलवायु मिलता रहता है वह हरावर गुजझार रहता है जैसे अन्य लोगों में पृथ्वी प्रदिक्षण देने का व्यवहार था वैसे इस गच्छ के आचार्यों के सूरिपद पर आरूढ़ होने पर वे कम से कम एकवार तो सब प्रान्तों में विहार कर वहाँ के चतुर्विध श्रीसंध की सार सम्भार कर ही लेते थे। उन आचार्यों को इस बात का भी गौरव था कि हमारे पूर्वाचार्यों ने महाजन संघ की स्थापना की थी उनका पोषण एवं वृद्धि भी की थी अतः उनका यह कर्तव्य ही बन जाता था कि वे प्रत्येक प्रान्त में विहार कर अजैनों को जैन बनाकर उनकी शुद्धि कर महाजन संघ के शामिल मिला ही देते थे उस समय का महा. जन संघ भी इतना उदार एवं दीर्घदृष्टि वाला था कि नये जैन बनने वालों के साथ बड़ी ही साइनुभूति वात्सल्यता का व्यवहार रखते थे और जैन बनते ही उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार चनु कर देते थे और हर तरह से उनकों सहायता पहुँचा कर अपने बराबरी का बनाना चाहते थे-तब ही तो लाखों की संख्या का महाजनसंघ करोड़ों की संख्या तक पहुंच गया था श्राचार्य देवगुप्तसूरिजी महाराज बड़े ही प्रभावशाली आचार्य थे आपका श्रीसंघ पर बड़ा भारी प्रभाव था आपने पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित शुद्धि प्रजैनों को जैन बनाने की मशीन १३३९ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८४२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की मशीन खूब रफ्तर से चलाई थी नमूना के तौर देखिये । ___आचार्य श्री देवगुप्तसूरि एक समय लोद्रवा पाट्टन की ओर पधार रहे थे। मार्ग में कालेर नाम का एक ग्राम आया। ग्राम से एक कोस के फांसले पर एक देवी का मन्दिर था। मन्दिर के समीप ही एक ओर हजारों स्त्री पुरुष 'जय हो देवीजी की' बोलते हुए खड़े थे और दूसरी ओर देवी को बलि देने के लिये स्रो पुरुषों की संख्या के अनुरूप ही हजारों भैंसे व बकरे व करुणा जनक शब्दों में आतंक्रन्दन करते हुए बन्धे हुए खड़े थे । आचार्यश्री का मार्ग मन्दिर क्षेत्र से बहुत दूर था तथापि बहुत मनुष्यों के समुदाय को एकत्रित हुआ देख विशेष लाभ की आशा से या अज्ञानियों के इस बाल कौतूहल को धर्म रूप में परिणत करने की प्रबल इच्छा से आचार्यश्री ने भी उधर ही पदार्पण करना समुचित समझा । क्रमशः वहाँ पहुँचने पर पशुओं की करुणा जनक स्थिति को देखकर आचार्यश्री के दुःख का पार नहीं रहा। वे इस विभत्स करुणाजनक दृश्य को देखकर मौन न रह सके । उपस्थित जन समुदाय के मुख्य २ पुरुषों को बुलाकर आचार्यश्री समझाने लगे-महानुभाव ! आप यह क्या कर रहे हैं ? उन लोगों ने कहा-महात्माजी ! हमारे ग्राम में कई दिनों से मारि रोग प्रचलित है अतः कई जवान २ व्यक्ति भी रोग की करालता के कारण कराल काल के कवल बन चुके हैं । अब आज हम सब मिलकर देवी की पूजा करेंगे व भविष्य के लिये शान्ति की प्रार्थना करेंगे। सूरिजी-महानुभावों ! यह आपका सोचा हुआ उपाय तो शान्ति के लिए नहीं प्रत्युत् अशान्ति का ही वधक है। आप स्वयं गम्भीरता पूर्वक विचार कीजिये कि-रुधिर से भीना हुआ कपड़ा भी कर साफ किया जा सकता है ? अरे आप लोगों के पापों की प्रबलता के कारण तो यह रोग ग्राम भर में फैला और फिर इसकी शांति के लिये धर्म नहीं किन्तु पाप का ही भयङ्कर कार्य कर शान्ति की आशा कर रहे होयह कैसे सम्भव है ? इस तरह के हिंसात्मक क्रूर कमों से शान्ति एवं आनन्द की आशा रखना दुराशा मात्र है । महानुभावों ! जैसे आपके शरीर में आत्मा है उसी तरह इन पशुओं के देह में भी हैं । जैसे आपको दुःख । प्रतिकूल है और सुख की अभिलाषा प्रिय है वैसे इन पशुओं को भी दुःख प्रतिकूल सुख की इच्छा अनुकूल है। आपने किञ्चित् जीवन के लिये इन मूक पशुओं की जान लेना कहाँ तक समीचीत है । मरते हुए ये जीव आपको किस तरह का दुराशीष देते होंगे; इसके लिये आप स्वयं ही विचार करलें । आचार्यश्री के उक्त गम्भीर एवं सार गर्भित शब्दों के बीच ही में समीपस्थ जटाधारी बोल उठे-श्राप लोग तो जैन नास्तिक हैं । श्राप इन विषयों के विशेष अनुभवी भी नहीं है । देवी की पूजा करने पर देवी संतुष्ट हो हमारे रोग को शीघ्र ही शान्त कर देगी। यह बलि देने का विधान तो वेद विहित एवं अनादि हैं। यह कोई आज का नया विधान नहीं है । इससे तो हमारी हर एक अभिलाषाओं की पूर्ति बहुत ही शीघ्र हो जातो है । जब २ रोगोपद्रव होता है तब २ इस प्रकार से देवी का पूजन करने पर शान्ति का साम्राज्य हो जाता है। सूरिजी-यह तो आप लोगों का अज्ञानता परिपूर्ण भ्रम मात्र है। देवी तो जगत् के चराचर जीवों की माता है । देवी के लिये जैसे अाप पुत्र स्वरूप प्रिय हैं वैसे ये मारने के लिये बांधे हुए पशु भी हैं। क्या माता को एक पुत्र को मरवा कर दूसरे पुत्र की शान्ति देखना इष्ट है ? दूसरे इन जीवों को मारकर इनके मांस भक्षण का उपयोग भी आप लोग ही करोगे न कि देवी फिर; अपने क्षणिक स्वार्थ के लिये देवी के मिस देवी को बदनाम करना आप लोगों को शोभा नहीं देता। यदि इन जीवों को देवी के ही अपर्ण करना है तो रात्रि पर्यन्त इन सबको यहीं रहने दीजिये। देवी को इनके प्राणों की बलि लेना ही इष्ट होगा तो वह स्वयं रात्रि के समय इन पशुओं को भक्षण कर लेगी। पास ही कालेर ग्राम के राव राखेचा' बैठे हुए थे । उनको सूरिजी का कहना बहुत ही युक्तियुक्त ज्ञात -राव के पांच पुत्रों में राखेचा भी एक था। इसको कालेर ग्राम जागीरी में मिला था । १३४० जंगली लोगों को सदुपदेश Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ोसवास सं० १२३०-१२६२ हुआ अतः वे बोल उठे-महात्माजी का कहना तो ठीक है पर हम उक्त कथन को इस शर्त पर स्वीकार कर सकते हैं कि महात्माजी के प्रयत्न से हमारे ग्राम में पूर्णतः शान्ति हो जाय। सूरिजी-महानुभावों ! इन पशुओं को तो आप रात्रि भर यहीं रहने दो और मैं आपके साथ ग्राम में चलता हूं व शान्ति का उपाय बतलाता हूँ वह कोजिये। यदि आपके शुभ कर्मों का उदय होगा तो शीघ्र ही शान्ति हो जायगी। सूरिजी के वचनों के विश्वास पर सब लोग ग्राम में आ गये। ग्राम में आने के पश्चात् सूरिजी ने राव राखेचा से कहा कि आपके ग्राम का सकल जन समुदाय आज रात्रि पर्यन्त मेरे कहे हुए मन्त्र का जाप करे । व कल प्रातः काल शान्ति स्नात्र पूजा करवाई जाय जिससे आपके ग्राम में सब तरह से शान्ति हो जाय । गरजवान क्या नहीं करता है ? रावजी ने भी ग्राम भर में उद्घोषणा करवादी कि शान्ति के इच्छुक महात्माजी के द्वारा बतलाये जाने वाले मंत्र का सब लोग रात्रि पर्यन्त जाप करें। सूरिजी का वह मंत्र था "नवकारमंत्र" । रावजी एवं ग्रामवासियों ने रात्रि पर्यन्त नवकार मंत्र का जाप किया जिससे उस रात्रि में मरने का एक भी केस नहीं हुआ। बस दूसरे ही दिन मन्दिर के वहां बांधे हुए सभी पशुओं को राव राखेचा ने छुड़वा दिये । फिर शान्ति स्नात्र पूजा करवाने से तो ग्राम भर में सर्वत्र शान्ति हो गई अतः सूरिजी के व्यक्तित्व का उन लोगों पर गहरा असर हुआ । आचार्यश्री ने भी कुछ समय पर्यन्त वहां स्थिरता कर राजा प्रजा को सदुपदेश दिया व जैन धर्म के तत्वों को समझाया । उन लोगों को जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा देकर अहिंसा भगवती के परमोपासक बनाये । तथा वहाँ पर एक जैन मन्दिर की नींव भी मुलवादी पट्टावलीकारों ने इस घटना का समय वि० सं०८७८ चैत्र विद ८ का बतलाया है। कालेर के बहुत से लोग सूरीश्वरजी के प्रभाव से प्रभावित हो जैन धर्म व अहिंसा भगवती के परम भक्त बन गये थे। राव राखेचा को तो दया धर्म पर बहुत ही रुचि बढ़ गई। उसने आचार्यश्री से विनम्र शब्दों में प्रार्थना की गुरुदेव । नजदीक ही नवरात्रि का त्यौहार आरहा है अतः आप अभी कुछ समय पर्यन्त यहीं पर स्थिरता करें । कारण, पाखण्डी लोग जन समाज में भ्रम फैला कर देवी के नाम पर पशुवध न कर डालें ? आचार्यश्री ने भी लाभ का कारण सोचकर कुछ समय वहीं पर ठहरने का निश्चय किया अतः कई साधओं को तो आस पास के ग्रामों में विहार करवा दिया और थोड़े बहन साधुओं के साथ आप तो वहीं पर ठहर गये । सूरीश्वरजी के अन्य साधुओं ने भी वहां के लोगों को जैन धर्म के विधि विधान एवं नित्य कृत्य की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। और इधर आचार्यश्री ने अहिंसा के संस्कारों को दृढ़ करने के लिए व्याख्यान के रूप में अहिंसा का विशद स्वरूप बताना शुरू किया। क्रमशः नवरात्रि की स्थापना का दिवस आने लगा तब तो ग्राम भर में बड़ी भारी चहल पहल मच गई । जितने मुंह उतनी बातें सुनाई देने लगी। कई कहने लगे दया तत्व को स्वीकार करने वाले देवी को बलि देकर पूजेंगे या नहीं ? कई कहने लगेपरम्परानुसार दी जाने वाली बलि देवी के लिए नहीं दी गई तो देवी रुष्ट हो सबका संहार कर डालेगी। तब कई कहने लगे-देवी देवता ऐसे घृणित पदार्थ को छूते ही नहीं क्योंकि देवता का भोजन ही अमृत है, इत्यादि । लोगों के हृदय में नाना प्रकार की कल्पनाएँ नवरात्रि के लिये प्रादुर्भूत होने लगी व कुछ क्षणों के पश्चात् विलीन भी। इधर राव राखेचा ने प्राचार्यश्री के पास आकर ग्राम के सम्पण हालको निवेदन किया। इस पर सूरिजी ने कहा-रावजी ! आप घबरा नहीं । आज रात्रि में ही आपको मालूम हो जायगा कि दया धर्म का कैसा महात्म्य है ? यह सुनकर राव राखेचा को हर्षान्वित संतोष एवं आनन्द हुआ। वे प्राचार्यश्री को वन्दन करके अपने घर लौट आये। उस ही रात्रि को श्राप सोये हुए थे कि देवी ने आकर कहा-रावजी ! गुरुदेव बड़े ही भाग्यशाली रावजी की अहिंसा-उद्घोषणा १३४१ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८६२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हैं। उनके तप तेज का अतिशय प्रभाव मेरे ऊपर पड़ चुका है। मेरे स्थान पर आज से कोई भी किसी भी जीव का वध नहीं कर सकेगा। मेरे मन्दिर के पीछे पश्चिम दिशा में नव हाथ दूर एक निधान भू भाग में स्थित है उसे निकाल कर धर्म कार्य में सदपयोग करना । वह तुम्हारे ही भाग्य का है अतः कल ही खोद कर निकाल लेना । इतना सुनते ही रावजी एक दम चोंक बैठे। वे एक दम आश्चर्य सागर में गोते खाने लगे कि ये देवी के ही वाक्य है या स्वप्न है ? सारी रात इस ही प्रकार की विचित्र २ विचार धारा में व्यतीत हुई । प्रातःकाल होते ही सूरीश्वरजी की सेवा में उपस्थित हो वंदन करके स्वप्न का सारा वृत्तान्त अथ से इति पर्यन्त उन्हें कह सुनाया तब आचार्यश्री ने कहा-रावजी ! आप परम भाग्यशाली हैं आपने जो कुछ देखा एवं सुना वह स्वप्न नहीं किन्तु देवी भगवती को ही साक्षात् सूचना है। अतः अब तो देवी के नाम पर होने वाली जीव हिंसा को रोकने के लिये ग्राम भर में अमारी घोषणा हो जानी चाहिये। साथ ही। धार्मिक कार्यों के आधारानुसार जैनधर्म की प्रभावना एवं उन्नति भी करनी चाहिये । आचार्यश्री के उक्त कथन को हृदयङ्गम कर रावजी अपने घर आये और मंत्री शाह मुदा को हुक्म दिया कि-"ग्राम भर में देवी के नाम पर कोई किसी भी जीव की बलि नहीं चढ़ावे" इस प्रकार की उद्घोषणा करवादो। मंत्री ने भी रावजी के आदेशानुसार ग्राम के चतुर्दिक में अमारी पडहा उक्त घोषणा के साथ बजवा दिया। इस विचित्र एवं नवीन धोषणा को सन पाखण्डियों के हृदय में खलबली मचगई। वे लोग श्राचार दोषारोपण करने लगे की यह सेवड़ा ग्राम भर को मरवा डालेगा। इस प्रकार की इर्ष्याग्नि के प्रज्वलित होने पर भी राज सभा के सामने उन बेचारों की कुछ भी दाल नहीं गल सकी। जब नवरात्रि के नव ही दिन आनन्द मंगल से निकल गये और किसी भी प्रकार का उपद्रव नहीं हुआ तब जाकर सूरिजी का जनता पर पूरा २ विश्वास हुआ। रावजी भी देवी के बताये हुए निर्दिष्ट स्थान से दूसरे दिन निधान निकाल कर ले आये । सूरिजी से उसका सदुपयोग करने के लिये परामर्श किया तो आचार्यश्री ने कहा-रावजी । गृहस्थों के करने योग्य कार्यों में जिन मन्दिर का निर्माण करना, तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकालना, स्वधर्मी बन्धुओं की हर एक तरह से सहायता करना व अहिंसा धर्म का विस्तृत प्रचार करना इत्यादि मुख्य २ कार्य हैं। राव राखेचा ने भी सूरिजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर अपने ग्राम में एक विशाल मन्दिर व भगवान् महावीर की मूर्ति बनवाना प्रारम्भ किया। तीन बार तीर्थों का संघ निकाल कर यात्रा जन्य पुण्य सम्पादन किया । जैन मुनियों के चातुर्मास करवा कर परम प्रभावक श्री भगवती सूत्र का महोत्सव कर संघ को सूत्र सुनवाया । स्वधर्मी बन्धुओं को सहायता प्रदान कर सेवा का सच्चा व आदर्श लाभ लिया। जीव दया के लिये अपूर्व उद्यम कर अनेकों मूक जीवों को अभय दान दिया। जिन शासन में आप भी प्रभावक पुरुषों की गिनती में जैन धर्म के प्रचारक पुरुष हुए। जिस समय जैनाचार्यों का अहिंसा परमोधर्म के विषय खूब जोरों से प्रचार हो रहा था ग्राम नगरों में सर्वत्र अहिंसा भगवती का झंडा फहरा रहा था तब पाखण्डियों ने जंगलों में पहाड़ों के बीच देव देवियों के छोटे बड़े मन्दिर बना कर वहाँ निःशंकपने जीवों की हिंसा कर मांस मदिरा को खाते पीते एवं व्यभिचार करने लग गये थे फिर भी भाग्यवशात् कहीं-कहीं उन जंगलों में भी उन प्राचार्यों का पदार्पण हो ही जाता था और वे अपने अतिशय प्रभाव एवं सदुपदेश द्वारा उन जघन्य कर्म का त्याग करवा कर सद्धर्म की राह पर लाकर उन जीवों का उद्धार कर ही डालते थे अतः उन पूज्याचार्य का समाज पर कितना उपकार हुआ वह हम जबान द्वारा कह नहीं सकते हैं। राव राखेचा की सन्तान राखेचा कहलाई। आपके चार पुत्र व तीन पुत्रिये व और भी बहुत सा. परिवार था । वंशावलियों में लिखा है १३४२ राव राखेचा की धर्म भावना Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन] [ओसवान सं० १२३७-१२६२ wwwmany राव-राखेचा (आपने जैनधर्म का बहुत प्रचार किया ) आदू जादू (आसल ने पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया) मुदा गोल्हा जोगड़ १ (१-शत्रुजय का संघ निकाला) भानु राणु नारो . दारो देवो अज्जो + सांगण सिंहो जालो राणक पातो (+शत्रुजय का संघ) इस प्रकार आपकी वंशावली बहुत ही विस्तार से लिखी है। इन्होंने अपने बाहुबल से अपने राज्य का विस्तार पुंगल पर्यंत कर दिया था। वि० सं० १०१२ में पुंगल के राखेचा भोपाल ने तीर्थ श्री शत्रुक्षय का संघ निकाला तथा दुष्काल में मनुष्यों व पशुओं को खूब ही सहायता दी इससे राखेचा भोपाल की सन्तान पुंगलिया कहलाई। इन राखेचा गौत्र की वंशावलियों में वि० सं०८७८ से वि० सं० १६८३ के नाम लिखे मिलते हैं। उक्त नामावली में १३६ मन्दिर बनवाये जाने का ४२ संघ निकालने का ७ दुष्कालों में पुंगलिया गौत्रीय महानुभावों से जन, पशु रक्षणार्थ पुष्कल द्रव्य के दान देने का, ११ कूप व तीन तालाब खुदवाने व ४१ वीरां. गनाओं का अपने पति की मृत्यु के पश्चात् उनके साथ सती होने का उल्लेख मिलता है । वंशावल्योक्त समय के पश्चात् भी वीर राखेचा एवं पुंगलियों ने स्व-पर कल्याणाथ किये हुए कार्यों की शोध खोज करने पर इसका पता सहज में ही लगाया जा सकता है । इनकी परम्पराओं के द्वारा निर्मापित मन्दिर मूर्तियों के शिलालेख भी हस्तगत हुए हैं; वे यथा स्थान दे दिये जावेंगे। २- राठोड़ अड़कमल कितने ही सरदारों को साथ में लेकर धाड़े पाड़ रहे थे एक समय अचानक इधर से तो अड़कमल अपने साथियों के साथ जंगल में जारहे थे और उधर से भू भ्रमन करते हुए प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरि अपने शिष्य समुदाय के साथ पधार रहे थे । दोनो की परस्पर एक स्थान पर भेंट हो गई। मुनियों ( भिक्षुओं) को देख कर सवारों ने उदास एवं खिन्न चित से कहा-अरे ! आज तो भिक्षुकों के दर्शन हुए हैं । अतः शुकन ही अप शुकन है । आज धन माल की आशा रखना तो दूर है किन्तु जुधा तृप्ति के लिये भोजन मिलना भी दुष्कर है । किसी ने कहा-इनके शरीर को छेद कर थोड़ा सा खून निकाला जाय तो शुकन पाल हो सकते हैं। इत्यादि प्राचार्यश्री ने उन सरदारों की बातें सुनी। वे विचारने लगे-यदि इनके हृदय का भ्रम नहीं मिटाया जायगा तो भविष्य में कभी अन्य जैन श्रमणों को बुरी तरह से सम्तापित करेंगे । अतः आपश्री ने निर्भीकनिःशंक चित से कहा-आप लोग क्या कह रहे हैं ? क्या आप लोग हमारे खून को चाहते हैं ? यदि हमारे खून की ही एकमात्र आवश्यकता हो तो आप निस्संकोच खून ले सकते हो । हम सब अपना खून देने के लिए तैय्यार हैं । आपके जैसे खानदान राजपूत-सरदार हम साधुओं के ग्राहक और कब मिल सकते हैं ? राठोड़ राव अड़कमल की धाड़ १३४३ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०८३७-८९२] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूरिजी के निस्पृह, स्पष्ट वचनों को सुनकर रुधिरेच्छुक सवार का मन लज्जा से अवनत होगया । मारे लज्जा के मुंह को नीचा कर वह कहने लगा-महात्मन् ! आप आपने सीधे रास्ते पधार जाइये । आपके खून की हमें किश्चित् भी दरकार नहीं यदि आपको कुछ देने की इच्छा हो तो आप हमें ऐसा शुभाशीर्वाद दीजिये कि हमारे मन की अभीप्सित अभिलाषाएं शीघ्र ही सफलीभूत हो जॉय । आचार्यश्री ने मनोऽभिलाषा पूरक सर्वदुःख विनाशक परम पवित्र धर्मोपदेश दिया। जिससे उन्होंने भी भविष्य के अभ्युदय को आशा पर सूरिजी के चरणों में नत मस्तक हो जैन धर्म स्वीकार कर लिया। सूर्यास्त हो जाने से सूरीश्वरजी वृक्ष के पृष्ठ भाग पर अपना आसन जमा कर प्रतिक्रमणादि मुनीत्व जीवन के नित्य नैमेत्तिक कार्यों में संलग्न हो गये और इधर अड़कमलादि राठोड़ सवार भी वही पर स्थित हो गये। रात्रि में कुंकुंम देवी ने अड़कमल को स्वप्न में कहा कि इस जगह भूमि के अन्दर भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा है अतः प्रतिमाजी को निकाल कर यहां पर शीघ्र ही मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर देना । देवी के उक्त कथन को सुन अड़कमल ने पूछा-आपके कथानुसार मन्दिर तो बनवा दूं पर मेरे पास तदनुकूल द्रव्य नहीं हैं अतः उसके लिये भी तो कोई सुख साध्योपाय होना चाहिये । देवी ने कहा-इस विषय की जरा भी चिन्ता न करो-प्रतिमाजी के पास ही अक्षय निधान भगर्भ में स्थित है उसे निकाल कर अविलम्ब यह शुभ कार्य प्रारम्भ कर देना । अकमल ने देवी के वचनों को 'तथास्तु' कह कर स्वीकार किया। देवी भी अदृश्य हो पुनः स्वनिर्दिष्ट स्थान पर लौट आई। इस स्वप्न के समाप्त होते ही अड़कमल की आंखें खुल गई । वह प्रातःकाल शीघ्र ही उठकर आचार्यश्री के पास आया और परम कृतज्ञता पूर्वक रात्रि में आये हुर स्वप्न का हाल निषेदन किया । आचार्यश्री ने प्रत्युत्तर में फरमाया-अड़कमल । आप परम भाग्यशाली हैं । देवी की आप पर पूर्ण कृपा है। इस कार्य को करके तो अवश्य ही पुण्योपार्जन करना पर देवी का नाम भी साथ ही में सदा के लिये भूमण्डल में अमर कर देना । इस पर अड़कमल ने अत्यन्त दीनता पूर्वक कहा-पूज्य गुरुदेव ! मैं तो एक पामर-अधर्म-जधन्य जीव हूँ। यह सब तो आपकी ही उदार कृपा का परिमाण है ! तत्क्षण ही आचार्यश्री को साथ में लेकर अड़कमल देवी के किये हुए संकेत स्थान पर गया । भूमि को खोदी तो देवी के कहे हुए वचनानुसार एक भव्य पार्श्वनाथ प्रतिमा दीख पड़ी। दूसरे ही क्षण प्रतिमाजी के वाम पाव को खोदा तो एक निधान भी निकल गया। बस, फिर तो था ही क्या ? अड़कमल की सकल हृदयान्तर्हित अभिलाषाएं पूर्ण हो गई । अब तो चतुर शिल्पज्ञों को बुलवाकर एक ओर तो मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया और दुसरो ओर नया नगर बसाने का कार्य । कुंकुंम देवी के दर्शन व स्वप्न के कारण मन्दिर का नाम कुंकुंम विहार व नगर का नाम देवीपुरी रखने का निर्णय किया गया। आचार्यश्री ने उक्त घटना के पश्चात् शीघ्र ही अन्य प्रान्तों की ओर विहार करना प्रारम्भ कर दिया जब तीन वर्षों के पश्चात् मन्दिर का सम्पूर्ण कार्य सानन्द सम्पन होगया तो अड़कमल ने आचार्यश्री को बुलवाकर बड़े धूम धाम से-महोत्सव पूर्वक मन्दिर व नगर की प्रतिष्ठा करवाई। कुंकुंम देवी को कुलदेवी स्थापित की अतः देव गुरू कृपा से देवीपुरी भी थोड़े ही समय में अच्छा आबाद हो गयी । राव अड़कमल के एक पुत्र हुआ जिस का नाम कुंकुंम कुंवर रक्खा । बाद में अड़कमल के क्रमशः पांच पुत्र व तीन पुत्रिय हुई। इसका समय पट्टावली निर्माताओं ने वि० सं०८८५ का लिखा। अड़ कमल का मूल स्थान कनौज था। अड़कमल के पुत्र कुंकुंम ने श्रीशत्रुजय का बड़ा भारी संघ निकाला। स्वधमी बन्धुओं को स्वर्ण मुद्रिकाओं की पहिरावणी दी तथा ओर भी कई शुभ कार्य किये जिससे कुंकुम की धवल कीर्ति दूर २ के प्रदेशों में फैल गई । इन सन्तान परम्परा भो क्रमशः कुंकुम जाति के नाम से पहिचानी जाने लगी। वंशावलियों में आपका परिवार इस प्रकार लिखा है -मनुष्य के पुन्य प्रबल होते हैं तब बिना प्रयत्न ही देव देवी सहायक बन जाते हैं । १३४४ रावजी के पुत्र कुंकुंम का धर्मकृत्य Jain Education interational Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२३७-१२६२ अड़कमल ऊकार घजड़ देव मंगल (इनके भी वंशावलियों में बहुत परिवार बतलाये हैं) (इनकी वंशावली बहुत विस्तार से लिखी है) । सारंग श्रीपति (मंदिर) लाखण चूड़ा तोलो पातो (व्यापार) (व्यापार) खुमान (शत्रुञ्जय का संघ) इस प्रकार राव अड़कमल के परम्परा की वंशावली का बहुत ही विस्तार पूर्वक उल्लेख है। क्रमशः कुंकुम गौत्र कालातिक्रमण के साथ ही साथ कई शाखा प्रतिशाखाओं के रूप में भी प्रचलित होगया। जैसे कुंकुम, चोपड़ा, गणधर, कूकड़, धूपिया, वरवटा, राकावाल, संघवी और जाबलिया। उक्त सब ही शाखाएं एक कुंकुम गौत्र की हैं। अतः ये सब ही एक पिता की सन्तान-बन्धुतुल्य हैं। इनकी कुलदेवी कुंकुम देवी है । कोई सच्चायिका को भी इनकी कुलदेवी मानते हैं । वंशावलियों में उपरोक्त जातियों का समय एवं कारण इस प्रकार बतलाया है १-कुंकुम गौत्र-राव कुंकुम की सन्तान कुंकुम कहलाई। २-चोपड़ा-यह नाम चोपड़ा ग्राम के नाम पर हुआ। ३-गणधर-शाह भैरा ने शत्रुञ्जय का संघ निकाला और वहां पर १४५२ गणधरों का एक पट्ट बन वाया तब से भैरा की सन्तान गणधर जाति के नाम से पहिचानी जाने लगी। ४-फूंकड़-शाह नरसी ने एक लक्ष रुपये देकर मरते हुए कुंकड़े को प्राणदान दिया तब से ही नरसी की सन्तान कुंकड जाति के नाम से प्रसिद्ध हुई। ५-धूपिया-शाह जोगो ने धूप का व्यापार प्रारम्भ किया पर जब मन्दिरजी के लिये धूप बनाने का मौका आता तब इतनी कस्तूरी एंव इत्र डाल देता था कि मन्दिर के आसपास के मकान व महल्ले भी धूष की अपूर्व सौरभ से सौरभशील हो जाते । अतः लोग उन्हें धूपिया २ कहने लगे । कालान्तर में यही जाति के रूप रूड़ शब्द हो गया। ६-वटवटा-शाह नाथो वड़ा ही धर्मात्मा पुरुष था। उसने एक देवी का मन्त्र साधन किया था पर स्पष्टोच्चारण नहीं कर सकने के कारण देवी ने अप्रसन्न हो उसे श्राप दे दिया जिससे वह वटवटा बोलने लगा अतः लोग उसे वटवटा कहने लगे। कालान्तर में उनकी सन्तान के लिये भी वटवटा शब्द रूड़-प्रचलित होगया। ७-रांकावाल-गणधरपुरा के पुत्र के रांका से रांकावाल कहलाने लगे। ८-संघवी-साएव्यपुर से शाह सावत ने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला और स्वधर्मी बन्धुओं को पांच २ स्वर्ण मुहरें व बढ़िया वस्त्रों की पहिरावणी दी अतः आपकी सन्तान संघवो के नाम से प्रसिद्ध हुई । वीर अड़कमल का परिवार १३४५ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww 95 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८३७-८६२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६-जाबलिया-यह नाम हंसी मस्करी या उपहास में पड़ा है। इस जाति में मुत्सद्दी एवं व्यापारी बड़े २ नामी नररत्न हुए हैं। मेरे पास जो वंशावलिये वर्तमान हैं उनका टोटल लगाकर देखा गया तो ३६१--जैन मन्दिर बनाये जीर्णोद्धार कराये । ८१-धर्मशालाएं बनवाई। ८५-बार संघों को निकाल कर तीर्थ यात्रा की। १०१-बार श्रीसंघ की पूजा कर पहिरावणी दी। ६-आचार्यों के पट्ट महोत्सव किये । ३-बार दुष्काल में शत्रुकार खुलवाये । इस जाति की वंशावलियों में वि० सं० १६०५ तक के नाम लिखे हुए हैं। ऊपर जिन सत्कार्यों एवं धर्मकार्यों का उल्लेख किया गया है वह एक ग्राम या कुटुम्ब के लिये नहीं अपितु इस जाति के तमाम धर्मवीरों के लिये जो मेरे पास की वंशावलियों में हैं लिखे गये हैं। एक समय आचार्यश्री अनुदाचल की ओर बिहार कर रहे थे तो एक गिरिकन्द्रा के पास देवी के मन्दिर में बड़ा ही रव शब्द हो रहा था उन्होंने सुनकर अपने कतिपय शिष्यों के साथ वहाँ गये तो कई बकरों को काट रहे और बहुत से बकरे भैंसे थर थर काम्प रहे थे। सूरीजी ने उस करुणाजनक दृश्य को देखकर बड़े ही निर्डरता पूर्वक उन लोगों को उपदेश दिया। बहुत तर्क वितर्क के पश्चात् राव विनायक पर सूरीजी के उपदेश का कुछ प्रभाव पड़ा और उसने हुक्म देकर शेष बकरे भैंसों को अभयदान पूर्वक छोड़ दिये । जब एक मुख्य सरदार पर असर हुआ तो शेष तो बिचारे कर ही क्या सके ? राव विनायक सूरिजी से प्रार्थना कर अपने ग्राम भंभोरिया में ले गये । सूरिजी ने भी लाभालाभ का कारण जान वहाँ पर एक मास की स्थिरता करदी और अहिंसामय उपदेश देकर राव विनायक के साथ हजारों क्षत्रियों को जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बना लिये । राब विनायक ने अपनी जागीरी के २४ ग्रामों में उद्घोषणा करवादी कि कोई भी लोग बिना अपराध किसी जीव को नहीं मारे इत्यादि। राव विनायक ने अपने ग्राम में भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाकर समयान्तर आचार्य देव के करकमलों से प्रतिष्ठा करवाई। पट्टावलीकारों ने इस घटना का समय वि० सं० ६३३ का लिखा है तथा श्रापकी वंशावली भी लिखी है। राव विनायक सं०६३३ माधव सोमदेव तोड़ो कोलो ( इन सबकी बंशावलियाँ विस्तार से लिखी हैं) राजधर चमुडराय लाखण मालो (व्यापार में) (शत्रुञ्जय का संघ) | दो रागी क्षत्री पुत्री उपकेशवंश कन्या मुंजल रावत (शत्रुञ्जय का) भोजो रावल साल्ह जोगड़ सोहरण (व्यापार) (महावीर मंदिर) १३४६ Jain Education international विनायकिया जाति की उत्पत्ति ainelibrary.org Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२३७-१२६२ दीक्षा ली धरण ने पुनड़ ने फागुने पूज्याचार्य देव के ५५ वर्षों के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ १-उपकेशपुर चोरड़िया जाति शाह रावत ने २-क्षत्रीपुर चंडालिया ३-ब्रह्मपुरी नाहटा खूमाण ने ४-राजपुर पौकरणा सारंग ने ५-धोलपुर रांका ६-चर्पट प्राग्वट नाथा ने ७-रामपुर जोघड़ने ८-नागपुर देवा ने ६-पाटोली सूरा ने १०-भवलीपुर श्रीमाल ११-तीगरडी देसरड़ा राजसी ने १२-सुरपुर गुलेच्छा पेथा ने १३-नंदपुर पल्लीवाल दुर्गा ने १४-माथाणी ब्राह्मण शंकर ने १५-डागाणी जंघड़ा दोला ने १६-पारसोली पारख पोमा ने १७-हर्षपुर श्रेष्टि फागु ने १८-मालपुर तोडियाणी कल्हा ने १६-वीरपुर समदड़िया भैरा ने २०-डामरेल बोहरा माण्डा ने २१-तारापुर क्षत्रिय रामसिंह ने २२-नेनाग्राम प्राग्वट आखा ने २३-कीराकुंप प्राग्वट सेहला ने २४-गालुदी प्राग्वट समरा ने २५-सनाणी श्रीमाल सांगण ने २६-हापडी श्रीमाल रांणा ने २७-ढेढिया ग्राम भूरंट पोकर ने २८-चामड़ीया भटेवरा नारायण ने २६-मांडवगढ़ करणावट चेला ने ३०-उज्जैन हिंगड़ खेमा ने ३१-आघाट नगर अग्रवाल जैता ने ३२-चित्रकोट अग्रवाल खीवसी ने ३३-दान्तिपुर प्राग्वट गोमा ने ३४-चंदेरी हीरा ने ३५-मथुरा रावल ने सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएँ वीर शाह सिन्धुड़ा डिडू १३४७ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. ८३७-८९२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य देव के ५५ वर्षों के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ १-पीलाडी के सुघड़ जाति के शाह गोमा ने भ० पार्श्वनाथ का मन्दिर करवाया २-नागोली के श्रेष्ठि , रामा ने भ० पाश्वनाथ का , ३-देवजग्राम के मल्ल , शोभा ने भ० महावीर .. ४-नागपुर के कुम्मट शादल ने " ५-पद्मावती के प्राग्वट । संगण ने , ६-माण्डवपुर के , भीमा ने भ० शान्तिनाथ ७-उंसाणी ग्राम के , भोमा ने , ८-राजलपुर के श्रीमाल चोखाने भ० पद्मप्रभु -सोहागाटी के सुचंति चतरा ने भ० अजितनाथ १०-थानपुर के गुलेचा छाजू ने भ० पार्श्वनाथ ११-जावलीपुर के दाखा छहाड़ ने , १२-ब्रह्मपुरी के मोसाला नोढ़ा ने १३-शिवपुरी के लघुष्टि गुणाढ़ ने भ० महावीर १४-हालण ग्राम के देसरड़ा पुरा ने १५-मुरक्की ग्राम के श्रीमाल नोंधण ने , १६-आनन्दपुर के ,, नागड़ ने १७-डामरेलपुर के , देपल्ल ने वीसविहरमान १८-नरवार के पल्लीवाल धरमण ने अष्ठपद १६-रणथंभोर के पोकरणा जेहल ने भ० महावीर २०-क्षत्रीपुर के रावल देशल ने २१-बीजोड़ीग्राम के अग्रवाल , मेंकरण ने भ० शान्तिनाथ २२-आधाट नगर के कुलहट , नांनग ने भ० नेमिनाथ २३-रत्नपुरा के कोपरा , गोसल ने भ० आदीश्वर ४-पल्हिकापुरी के नाहटा , अजड़ ने भ० धर्मनाथ २५-भृगुपुर के भुतेड़ा , आखा ने भ० मल्लिनाथ २६-सोपार पट्टन के वलहारांका ,, राखेचा ने भ० शान्तिनाथ २७-पद्मपुर के करणावट ,, मोकल ने भ० महावीर २८-रूणावती के चिंचट , सांगा ने , २६-कुन्तीनगरी के भुंरट , चांपा ने , ३०-हर्षपुर के तोडियाणी ,, पेथा ने भ० पार्श्वनाथ ३१-बेनातट के भटेवरा , , संकला ने आचार्यश्री के ५५ वर्षों के शासन में संघादि शुभ कार्य १-चन्द्रावती से प्राग्वट लाखा ने श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ का संघ निकाला २-उपकेशपुर से श्रेष्टिवर्य हाप्पा ने ३-नागपुर से चोरडिया जैसिंग ने १३२८ सूरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाएँ mammarwanamanwr Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२३७-१२६२ ४-सोपार पट्टन से श्रीमाल सांगा ने ५-ताम्बावती से रांका नरसिंग ने ६-चंदेरी से करणावट लाधासोभा ने ७-आघाट नगर से पारख आल्हण ने ८-भवानीपुर से नाहटा जोगड़ ने ६-खटकूप नगर से कनोजिया हरपाल ने १०-मथुरापुरी से भुरंट देदा काना ने ११-मालपुर से सुचेति कुम्भा रामा ने १२-भद्रावती से प्राग्वट नाथा ठाकुरसी ने १३-शिवनगर से मंत्री कोरपाल ने १४-बनारसी से समदड़िया गजा ने श्री सम्मेत शिखरजी का संघ निकाला १५-खंडेला नगर से श्रीमाल सूरजन ने श्री शत्रुञ्जय १६–पाल्हिका से भटेवराथाना ने १७-कोरटपुर से प्राग्वट राजा ने १८-पद्मावती से प्राग्वट कंपा ने १६-नागपुर के तांतेड़ गोमा ने सं० ८४७ में दुष्काल पड़ा उसमें करोड़ द्रव्य व्यय कर देश वासी भाइयों एवं निराधार पशुओं के प्राण बचाये। २०-पाल्हिका के प्राग्वट रामाने सं० ८५२ में बड़ा भारी दुष्काल पड़ा जिसमें करोड़ों द्रव्य व्यय किये २१-उपकेशपुर के श्रेष्ठि गोपाल ने सं०८६४ में भयंकर दुष्काल पड़ा उसमें मनुष्यों को अन्न पशुओं ___ को घास दिया। २२-मेदनिपुर के जाघड़ा रावल ने एक वापी बनाई जिसमें एक लक्ष द्रव्य खर्च किया। २३–ब्रह्मपुरी के श्रीमाल कर्मा की विधवा पुत्री धापी ने एक तलाब बनाया असंख्य द्रव्य लगाया। २४-जोगणीपुर के चंडालिया नेणसी की माता ने एक तलाब एक वापि खुदाई जिसमें बहुत द्रव्य व्यय किया। २५-उपकेशपुर के देसरड़ा भीमसिंह युद्ध में काम आया उसकी औरत शृंगारदे सती हुई छत्री पूजिजे । २६-चन्द्रावती रामा जिस युद्ध में काम आया उसकी स्त्री भोली सती हुई छत्री माघ नौवी को। २७–राजपुरा का मंत्री राणक युद्धमें काम आया उसकी स्त्री सुगनी सती हुई छत्री वैशाख वद ३ मैला इत्यादि वंशावलियों से संक्षिप्त से नामावली मात्र लिखी गई है। सचेती कुन तिलक आप थे, पट्ट तेतालीसवा पाया था। देव गुप्त सूरीश्वर जिन का, देवों ने गुण गाया था । भूपति भ्रमर चरण कमलों में, झुक झुक शीश नमाते थे । विद्वता की धाक सुनकर, बादी सब घबराते थे। ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के पट्ट तेतालीसवें आचार्य देवगुप्त सूरीश्वर महान् प्रतिभाशाली प्राचार्य हुए ।। सुरीश्वरजी के शासन में संघादि शुभ कार्य १३४६ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८६२-६५२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास wwwwwwww ४४-आचार्य-श्रीसिद्धसूरि (९वें) वीर रेष्ठिकुले तु हीरकसमः सिद्धाख्यसूरिर्महान् । दक्षो वादि समूहमानगजतानाशे सुतीक्ष्णाङ्कशः ॥ नित्यश्चैव तु राजमण्डलगतः कृत्वा परास्तान् परान् । लब्धाऽलभ्ययशश्च धर्मविजयं सम्पाद्य पूज्योऽभवत् ॥ के रम पूज्य आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी म. जैन धर्म रूप शुभ्र गमन में सूर्य की भांति प्रकाश करने वाले, प्रखर विद्वान्, अतिशय प्रभावशाली, जिनधर्म प्रचारक आचार्य हुए । आपश्री ने विद्या सम्पादन करने में जितनी निपुर्णता, दक्षता एवं कार्य कुशलता से काम लिया वैसे ही ज्ञान दान करने में, शास्त्राध्ययन करवाने में एवं तात्विक सिद्धान्तों के मर्म को समझाने में चातुर्यकला परिपूर्ण पाण्डित्य का परिचय दिया। ज्ञान दान की अत्यन्त उदारवृत्ति के साथ ही साथ तपश्चर्या रूप कठोर तपश्चरण को अङ्गीकार करने में भी आप कर्मठ महात्मा थे। तपस्तेजपुञ्ज के अतिशय अवर्णनीय प्रभाव से प्रभावित हुए सुरासुरदैत्यदानवेन्द्र आदि से आप पूजित पादपद्म थे। आपश्री के चरणारविन्दःमकरन्द के अभिलाषी मिलिन्द आपश्री की ज्ञान, तप रूप सौरभ से आकर्षित हो सदैव सेवा के लिये पिपासुओं की भांति उत्कण्ठित एवं लालायित रहते थे। तपश्चर्यादि संयमित जीवन की कठोरता के कारण कई विद्याओं को आप सिद्ध कर चुके थे। सारांश आपके पावन जीवन का अवतरण भी लोक कल्याणार्थ ही हुआ । पट्टावली निर्माताओं ने आपके जीवन के विषय में विशद् प्रकाश डाला है किन्तु ग्रन्थ विस्तार भय से मैं यहाँ संक्षेप में ही लिख देता हूँ। मरुधर भूमि के अलंकार और स्वर्ग के सदृश डिडूपुर नाम का एक अत्यन्त रमणीय नगर था । वहाँ के निवासी धनधान्य से बड़े ही समृद्धिशाली और इष्टबली थे। व्यापार में तो वे इतने अग्रसर थे कि-देश विदेश आदि में उनका व्यापार प्रबल परिमाण में चलता था। व्यापारिक उन्नति के मुख्यतया न्या और पुरुषार्थ रूप तीन साधन हैं व्यापारिक अवस्था की प्रबलवृद्धि के साथ ही साथ उक्त तीनों ही साधन प्रचूर परिमाण में वृद्धि गत हो रहे थे । अतः वहाँ के सब लोग सब तरह से सुखी एवं आनंदित थे। नगर के अन्दर व बाहिर कई जिन मन्दिर थे जिनके उच्च शिखरों के स्वर्णमय कलश मध्यान्ह में सहस्र राशि की प्रखर रश्मियों से प्रदर्शित हो चमकते थे। पवन की तीव्रता के साथ ही साथ मन्दिर की उच्चत्तम पताकाएं फहराती हुई जैन धर्म के भावी अभ्युदय का सूचन कर रही थी। उस नगर के प्रमुख व्यापारियों में अधिक लोग उपशवंश के ही थे। इन्हीं में श्रेष्टि गौत्रीय शाह लिम्बा नामक एक सेठ बड़ा ही विख्यात था। आपकी गृहदेवी का नाम रोली था। आप अपने न्यायोपार्जित शुभ द्रव्य का शुभ स्थानों में उपयोग कर अपने जीवन को सफल किया करते थे। तदनुसार आपने तीन बार तीर्थों की यात्रार्थ बृहत संघ निकाल कर अक्षय पुण्यराशि का सम्पादन किया। आगत स्वधर्मी भाइयों को स्वर्णमुद्रिकाएं एवं अमूल्य वस्त्रों की पहिरावणी दी। सात बड़े यज्ञ (जीमणवार ) किये । याचकों को पुष्कल दान दिया । इस प्रकार और भी अनेक जनोपयोगी शुभ कार्य किये। स्वधर्मी भाइयों की ओर तो आपका सदैव लक्ष्य ही रहता था अतः जब कभी किसी तीय बन्धुओं की विशेष परिस्थिति से आप अवगत होते उसे हर तरह से सहायता पहुँचाने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसूरि का जीवन Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य सिद्धमुरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १२६२-१३५२ करते । उस समय के धर्माचार्यों का जातीय प्रेम विषयक उपदेश ही ऐसा मिलता व आप स्वयं भी इस बात के पूरे अनुभवी थे कि स्वधर्मी बन्धु रूप उपवन हरा भरा गुल चमन रहा तो न्याति जाति समाज एवं धर्म की भी उन्नति ही है। यही कारण था कि उस समय हमारे आत्म बन्धुओं से दरिद्रता ने आश्रय नहीं लिया था । वे लोग साधारण धार्मिक सामाजिक कार्यों में लाखों रुपये व्यय कर देते थे किन्तु इतने में भी उनको किसी प्रकार की कल्पना नहीं होती। शाह लिम्बा के सात पुत्र और पाँच पुत्रियां थी । उक्त पुत्रों में एक फूभड़ नाम का लड़का अत्यन्त तेजस्वी भाग्यशाली एवं धीमान था । आपकी वीरता, उदारता, गम्भीरता, धर्मज्ञता, परोपकार परायणता व स्व० पर की कल्याण भावनाओं की उत्कर्षता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही थी। देव, गुरु, धर्म पर तो शिशुकाल से ही आपकी दृढ़ श्रद्धा थी । तात्पर्य यह कि-लघुकर्मी जीव में होने वाले रात्र ही गुण पूनड़ में यथावत् वर्तमान थे। भाग्यवशात् एक समय भू-भ्रमन करते हुए आचार्यश्री देवगुप्त सूरीश्वरजी महाराज अपनी शिष्य मण्डली के साथ डिडूपुर नगर की ओर पधार रहे थे। डिडूपुर निवासियों को जब इस बात को खबर हुई तो उनके हृदयों में धर्म प्रेम का अपूर्व उत्साह प्रादुर्भूत हो गया। वे अत्यन्तोत्साह पूर्वक आचार्य श्री के नगर प्रबेश महोत्सव के कार्य में संलग्न हो गये । क्रमशः सूरीश्वरजी के पदार्पण करने पर डिडूपुर श्री संघ ने पुष्कल द्रव्य व्यय कर जैनेतर जन समाज को आश्चर्य चकित करने वाला उत्साह प्रद नगर प्रवेश महोत्सव किया । स्थानीय मन्दिरों के दर्शन के पश्चात् आचार्यश्री ने आगत जन समाज को प्रारम्भिक माङ्गलिक धर्म देशनादि पश्चात् सभा विसर्जित हुई । सूरीश्वरजी की व्याख्यानशैली की अपूर्वता ने जन समाज को अपनी ओर इतना आकर्पित किया कि व्याख्यान स्थल व्याख्यान के समय बिना किसी भेदभाव के समाधि पूर्वक खचाखच भर जाता था। जैन और जैनेतर सब ही व्याख्यान श्रवण के लिये उमड़ पड़ते। एक दिन प्रसङ्गवशात् आचार्यश्री ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि-महानुभावों ! जीव अनादि काल से इस संसार चक्र में चक्रवत परिभ्रमन करता रहा है स्वकृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार अरहट्ट माल की भांति सुख एवं दुःख का विचित्र अनुभव कर रहा है। कभी शुभ कर्मों की प्रबलता से देव ऋद्धि के अनुपम सुख का आस्वादन करता है तो कभी पाप कर्मों की जटिलता से नरक की नारकीय वेदना का। इस प्रकार सुख दुःख मिश्रित विचित्र अवस्थाओं में इस जीव ने अनन्त जन्म धारण किये हैं । कहा है एगया देवलोए सु नरएसु वि एगया । एगया आसुर कायं अहा कम्मेहिं गच्छइ । एवं भव संसारे संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहिं । जीवो पमाय बहुलो समयं गोयम मा पमायए । अर्थात्-यह जीव स्वोपार्जित कर्मों के वशीभूत कभी देव लोक में तो कभी नरक में कभी स्वर्ग के अनुपम देव रूप में तो कभी राक्षसीय रूप में प्रमाद वश ८४ लक्ष जीव योनि का पात्र बनता रहता है अतः धर्म कार्य में या आत्म श्रेय में क्षण मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । धर्मकार्य में मन को दृढ़ रखते हुए वीतराग की आज्ञा का आराधना हो इस लोक और परलोक के लिये कल्याण कारी व भव भ्रमन से मुक्त करने वाला है। वीतराग के मार्ग की आराधना करने में भी उत्तम सामग्री की आवश्यकता है वह सामग्री भी अनन्तकाल परिभ्रमन करते हुए कभी पुन्योदय से ही मिलती है। अतः आज प्राप्त सामग्री का सदुपयोग करने में ही जीवन के अभीष्ट सिद्धि की सार्थकता है। यदि सुरदुर्लभ धर्म करने योग्य उत्तम साधनों के हस्तगत होने पर भी मोक्ष मार्ग की आराधना न की जाय तो पुनः पुनः ऐसी सामग्री मिलना बहुत कठिन है। इस मानव देह की अलोकिकता के लिये विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है। आप एवं विचारज्ञ हैं। अस्तु आचार्यश्री का उपदेश १३५१ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०८२२-६५२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास करे। समझदारों का तो सर्वप्रथम यही कर्तव्य हो जाता है कि वे मोक्षमार्ग की सुष्टुप्रकारेण अाराधना नमार्ग की आराधना या चारित्रवत्ति की उत्क्रप्रता कोई असाध्य वस्त नहीं हैं। इसमें तो केवल भावों की ही मुख्यता है। सांसारिक विषय कपायों की ओर से मुंह मोड़कर आत्मोन्नति की ओर लक्ष्य दौड़ाने से यात्म श्रेय का अनुपमानन्द सम्पादन किया जा सकता है। आप लोग जितना कष्ट धनोपार्जन एवं कौटम्बिक पालन पोषण व रक्षण के लिये उठाते हैं उसमें से एक अंश जितना कष्ट आत्मोन्नति के कार्य में उठाया करें तो मोक्षमार्ग की आराधना बहुत ही सुगमता पूर्वक की जा सकती है । शास्त्रकारों ने फरमाया है णाणं च दंसणं चेव चारत च तवोतहा । एय ग्गमणुपत्ता जीवा गच्छन्ति सौग्गइं॥ आर्थात्-शान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों की आराधना करने से मोक्षमार्ग की आराधना होती है। यदि मोक्ष के उक्त चार अङ्गो की जधन्य आराधना भी की जाय तो आराधक जीव १५ भवों में तो अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार आचार्यश्री ने उपस्थित जन समाज को वैराग्यमय एवं मार्मिक उपदेश दिया कि सभा में आये हुए सभी लोगों के हृदय में वैराग्य की लहरें हिलोरें खाने लग गई । उन्हें संसार अरुचिकर एवं घृणा स्पद ज्ञात होने लगा। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से सब लोगों के विचार तो विचारों में ही विलीन होगये पर शा० लिम्बा के पुत्र पूनड़ के हृदय पर उसका गम्भीर असर हुअा। उसे क्षण मात्र भी संसार में रहना भयानक ज्ञात होने लगा। वह सोचने लगा-सूरिजी का कहना अक्षरशः सत्य है । यदि प्राप्त स्वणोवसर का सदुपयोग मोक्ष मार्ग की आराधना में न किया जाय तो जीवन की सार्थकता या विशेषता ही क्या है ? ऐसे अवसर पुण्य की प्राप्ति प्रबलता से ही सम्भव है अतः समय को सांसारिक विषय कषायों में खो देना अयुक्त है। इस प्रकार के वैराग्य की उन्नत भावनाओं में आचार्यश्री का व्याख्यान समाप्त होगया। सब लोगों ने वीर जयध्वनि के साथ अपने २ घरों की ओर प्रस्थान किया । पुनड़ भी विचारों के प्रवाह में बहता हुआ अपने घर गया पर उसके मुख पर प्रत्यक्ष झलकती हुई वैराग्य की स्पष्ट रेखा छिपी नहीं सकी । उसने जाते ही माता पितायों से दीक्षा के लिये आज्ञा मांगी। पर वे कब चाहते थे कि गार्हस्थ्य जीवन का सकल भार बहन करने वाला पूनड़ उन सबों को छोड़ कर बातों ही बातों में दीक्षा लेले । उन्होंने पूनड़ को मोह जनक विलापों से संसार में रखने का बहुत प्रयत्न किया पर जिसको आत्मस्वरूप का सज्ञान हो गया वह किसी भी प्रकार प्रलोभन से भी संसार रूप काराग्रह में नहीं रह सकता है। पुनड़ का भी यही हाल हुआ। पानी में लकीर खेंचने के समान माता-पिताओंके समझाने के सकल प्रयत्न निष्फल हुए। पुनड़ के वैराग्य की बात सारे नगर भर में फैल गई। कई महानुभाव तो पूनड़ के साथ दीक्षा लेने को भी उद्यत हो गये। सूरिजी के त्याग वैराग्यमय व्याख्यान जल ने वैरागियों के वैराग्यांकुर को और प्रस्फरित एवं विकसित कर दिया। ८७० माघ शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन शा० लिम्बा के महामहोत्सव पूर्वक वैरागी पूनड़ श्रादि १६ नरनारियों को सूरिजी ने भगवती जैन दीक्षा दे पूनड़ का नाम कल्याणकुम्भ रख दिया ! मुनि कल्याणकुम्भ ने भी २२ वर्षे पर्यन्त गुरुकुलवास में रह कर वर्तमान साहित्य का गहरा अध्ययन किया। आचार्य पट्ट योग्य सर्वगुण श्राचार्यश्री की सेवा में रहकर सम्पादित कर लिये । अतः श्रीदेवगुप्तसूरि ने अपने अन्तिम समय में कल्याण कुम्भ मुनि को उपकेशपुर में श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक सूरि पदार्पण कर श्रापका नाम परम्परानुसार सिद्धसूरि रख दिया। पट्टावलीकारों ने आपके सूरिपद का समय वि० सं० ८६२ माघ शुक्ला पूर्णिमा लिखा है। आचार्यश्री सिद्धसूरिजी गहान् प्रतिभाशाली उग्रविहारी, धर्मप्रचारक प्राचार्य हुए | आपके त्याग, वैराग्य की उत्कृष्टता एवं भावों की उच्चता का जन समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता था। आपके शासन समय में चैत्यवास की शिथिलता ने उग्र रूप धारण कर लिया था पर आपके हितकारी उपदेश से एवं क्रियाओं १३५२ शाह पुनड़ की दीक्षा-सारिद w.jainelibrary.org Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १२६२-१३५२ की कठोरता से उनकी शिथिलता में आशातीत सुधार हुआ। आप कर्म सिद्धान्त के पूर्ण मर्मज्ञ थे अतः आप समझते थे कि-जिस जीव का जितना क्षयोपशम हुआ है वह जीव उतना ही निर्मल चारित्र पाल सकेगा। इस विषय में प्रोपेगण्डा कर साधु समाज में छल, कपट, मायामिथ्यात्व का बर्धन काना तो प्राप्त शिथिलता से भी अधिक घातक एवं समाजोन्नति का बाधक है। अस्तु, जहां तक किसी व्यक्ति से शासन का अहित न होता हो वहां तक उसे सर्वथा हेय नहीं समझना चाहिये । यदि उन्हें क्रियाओं की शिथिलता के कारण समाज से पृथक् कर दिया जाय तो शासन की उन्नति के बजाय अवनति ही की विशेष सम्भावना है। समाज का एक दल उन्हें अवश्य ही मान एवं प्रतिष्ठा से सम्मानित करेगा और इस तरह हमारी अदूरदर्शिता के कारण सामज में वैमनस्य एवं कलह का भीषण ताण्डव नृत्य दृष्टिगोचर होने लगेगा । अतः शासन के एक अङ्ग को अपना कर रखना ही भविष्य के लिये हितकर है। दूसरी बात चैत्यवासियों का कई राजा महाराजायों पर प्रभाव है और जैनधर्म की उन्नति में इनका विशेष सहयोग भी है अतः इनके साथ अच्छा बर्ताव रखने से एक तो जैन संव का संगठन दृढ़मजबूत रहेगा और दूसरा राजकीय सत्ताओं के आधार पर चैत्यवासियों से जैनधर्म का प्रचार बहुत ही सुगमता पूर्वक कराया जा सकेगा। आपसी प्रेम एवं एक्यता की सुदृढ़ शक्ति के कारण वादियों का सुसंगठित आक्रमण भी हमारे शासन बल को विच्छिन्न करने में समर्थ नहीं हो सकेगा। इस प्रकार के श्रापके निर्मल विचार शासन के हित साधन में सदा ही उपकारी सिद्ध हुए । सूरीश्वरजी म० इस प्रकार वात्सल्य भाव को अपनाये हुए भूमण्डल में इधर उधर धर्म प्रचारार्थ परिभ्रमण करने लगे। सालचा जाति-आचार्यश्री सिद्धसूरिजी म० विहार करते हुए क्रमशः खेटकपुर नगर में पधारे । वहां पर आपश्री का व्याख्यान क्रम प्रति दिन के भांति प्रारम्भ ही था। जैन व जैनेतर समाज आचार्यश्री की दन शैली से आकर्षित हो सदैव बिना किसी विधन के व्याख्यान श्रवणक्रम प्रारम्भ ही रखती। चालक्य वंश का वीर सालू भी एक बड़ा ही भजनी सरदार था। वह निरन्तर भगवद् भक्ति या भजन में ही मस्त रहता । उसने भी जब श्राचार्यश्री के व्याख्यान की प्रशंसा सुनी तो भगवद्भक्ति का अनुरागी प्रेमवश श्राचार्यश्री का व्याख्यान श्रवण करने नियम पूर्वक आने जाने लगा। एक दिन प्रसङ्गतः सूरिजी के व्याख्यान में भगवद् भक्ति का प्रसङ्ग चल पड़ा । आये हुए विषय का स्पष्टीकरण करते हुए श्राचार्यश्री ने ध्येय व ध्यान का विशद विवेचन किया । विषय का विस्तार करते हुए अापने फरमाया कि-ध्यान का लक्ष्य ध्येय पर ही अवलम्बित है। कई भद्रिक महानुभाव ध्येय को और ध्यान नहीं देते हए एकमात्र भजनादि में ही संलग्न रहते हैं पर ध्येय के साङ्गोपाङ्ग स्वरूप को पहिचाने बिना वे भजन आदि धार्मिक कृत्य उस तरह की इष्ट सिद्धि को करने वाले नहीं होते जैसे कि ध्येय को पहिचान कर ध्यान करने वालों के कार्य होते हैं । अतः ध्यान अथवा भजनादि पारमार्थिक-आत्मोन्नति के कार्य ध्येय-लक्ष्य बिन्दु को स्थिर करके ही किये जाने चाहिये। उदाहरणार्थ-एक किसी व्यक्ति को सौ कोस दर नगर को जाना है। वह सौ कोस को पार करने के लिये प्रति दिन १५-२० कोस चलता है पर उसको नगर की निर्दिष्ट दिशा व स्थान का निश्चित ज्ञान नहीं होने के कारण वह अधिक चलने वाला होने पर भी इत उत मार्ग से स्खलित होने के कारण भटकता फिरेगा तब एक आदमी इसके विपरीत एक या आधा कोस ही प्रति दिन चलता है पर वह निर्दिष्ट नगर के ठीक रास्ते से प्रयाण करता है तो अवश्य ही कुछ दिनों के पश्चात् बिना किसी विन्न के वह अपने लक्ष्य बिन्दु नगर को प्राप्त कर लेगा। चलने की अपेक्षा उसका परिश्रम अत्यन्त कठोर व कई गुना ज्यादा है तब लक्ष्य बिन्दु की निश्चिन्तता के कारण अल्प परिश्रमी भी स्वइष्ट सिद्धि को प्राप्त कर सकता है । अतः मनुष्य का भी यह कर्तव्य है कि वह पहले अपने ध्येय को ( जिसका ध्यान करता है उसको) पहिचान ले इत्यादि । राव सेलु के यह बात जच गई अतः वह किसी समय आचार्यश्री के पास में आकर पूछने लगा-महात्मन् ! सालेचा जाति का उत्पत्ति wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०८६२-६५२ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आपने अपने व्याख्यान में ध्येय व ध्यान के विषय में जो कुछ फरमाया था उसे मैं अच्छी तरह से समझना चाहता हूँ । सूरिजी ने भी ईश्वर के सत् स्वरूप को समझाते हुए कहा रावजी ! प्रत्यक्षतो न भगवान् ऋषभो न विष्णु रालोक्यत न च हरो न हिरण्य गर्भः तेषां स्वरूप गुणमागम सम्प्रभावात । ज्ञात्वा विचार मत कोऽत्र परापवादः।। अर्थात्-इस समय प्रत्यक्ष में न तो भगवान ऋषम आदि देव हैं और न भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, महा. देव ही हैं, पर उनके जीवन के विषय को आगमों से तथा उनकी श्राकृति ( मूर्ति ) से उनकी पहिचान की जा सकती है कि ईश्वरत्व गुण किस देव में है ? जिस देव में राग, द्वेष, मोह प्रेम, क्रीड़ा, इच्छादि कोई भी विकार नहीं वही सच्चा देव है। उनकी ही भक्ति, भजन, उपासना करने से जीवों का कल्याण होता है। इस तरह ईश्वर के सकल गुणों का आचार्यश्री ने खूब ही स्पष्टीकरण किया। आचार्यश्री का कहना राव सालू के समझ में आगया। उसने अपने कदम्ब सहित जैन धर्म को स्वीकार कर लिया। अतः प्रभृति वह वीतराग देव का अनन्य भक्त व परमोपासक बन गया। राव सालू जैसे द्रव्य सम्पन्न था वैसे पुत्रादि विशाल परिवार का स्वामी भी था। उसके पाँच सुयोग्य, वीर पुत्र थे। राव सालू को आचार्यश्री के व्याख्यान में इतना रस अाता था कि वह प्राचार्यश्री के साथ धर्मालाप करने में अपने बहुत से समय को लगा देता था। धर्म प्रेम के पवित्र रंग से वह रंगा गया । जैन धर्म के प्रति उसकी अपूर्व श्रद्वा एवं दृढ़ अनुराग हो गया । धर्म का प्रभाव तो उस पर इतना पड़ा कि-राव सालू ने भगवान् ऋषभदेव का एक मन्दिर बनवाया। शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा के लिये संघ निकाल कर स्वधर्मी भाइयों को पहिरावणी दे अपने जीवन को कृतार्थ किया । क्रमशः सब तीर्थों की यात्रा कर अतुल पुण्य सम्पादन किया। इस तरह राव सालू ने अपने जीवन में अनेक धर्म कार्य किये । राव सालू की सन्तान सालेचा जाति के नाम से पुकारी जाने लगी। इस घटना का समय वंशावलियों में वि० सं०६१२ का लिखा है । सालेचा जाति को वंशावली बहुत ही विस्तार पूर्वक मिलती है-तथाहि राव सालू वि० सं० ११२ सांगण रावल नोंधण मुरारी माधू (पार्वमन्दिर ) (व्यापार) कोक काल्हण (व्यापार) अरमी आदू आदू संगार खंगार दारी झालो जोगड़ (महावीर का मन्दिर) (शत्रुञ्जय संघ) वीरम संगो आनो मानो जैतो देवो नारायण भीमा खेत गान (शत्रुञ्जय संघ ) कीतू सांगो wwwwwwwwwwwwwwwwww (आगे बहुत विस्तार से है) सालेचा जाति की वंशावली ... Jain Edu१३५४ national Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १२६२-१३५२ marwanamurarimmanna इनके वैवाहिक सम्बन्ध के लिये वंशावलीकार कहते हैं कि राजपूतों और उपकेशवंशियों दोनों के ही साथ इनका विवाह सम्बन्ध था। मेरे पास जो वंशावलियें वर्तमान हैं उनसे पाया जाता है कि सालेचा जाति के लोग व्यापारादि के कारण बहुत से ग्रामों में फैल गये थे। बोहरगतें करने से इनको सालेचा बोहरा भी कहते हैं। इस जाति के उदार नररत्नों ने अनेक ग्रामों में मन्दिर बनवाये। कई बार तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाले । स्वधर्मी भाइयों को पहिरावणी में पुष्कल द्रव्य देकर वात्सल्य भाव प्रकट किया। याचकों को तो इतना दान दिया कि उन लोगों ने आपके यशोगान के कई कवित्त एवं गीत बनाकर आपकी धवल कीर्ति को अमर बना दिया। तुण्ड गौत्र-बाघमार-बाघचार जाति-तुंगी नगरी में सुहड़ राजा राज्य करता था। वह ब्राह्मण धर्म का कट्टर उपासक था। उसने ब्राह्मणों के उपदेश से एक यज्ञ करने का निश्चय किया था, और शुभ मुहूर्त में यज्ञ का कार्य प्रारम्भ कर दिया था। उस यज्ञ के निमित्त हजारों मूक पशु एकत्रित किये गये थे। पुण्यानुयोग से उसी समय आचार्यश्री सिद्धसूरिजी भू-भ्रमण करते हुए तुंगी नगरी में पधार गये। जब आपको मालूम हुआ कि यहाँ यज्ञ में हजारों जीवों की बलि दी जायगी तब तो आपका हृदय पशुओं की करुणाजनक स्थिति से भर गया। आप बिना किसी संकोच के राजा को अहिंसा धर्म का प्रतिबोध देने के लिये राज सभा में पधार गये । राज सिंहासन से उठ कर वन्दन किया सूरिजी ने धर्मलाभ आशीर्वाद देकर फरमाने लगे कि-राजन् ! महान पवित्र दया के सागर स्वरूप अनेक महापुरुषों की खान-इक्ष्वाकु (सूर्य) वंश में उत्पन्न होकर भी अनर्थ परिपूर्ण यह क्या जघन्य कार्य कर रहे हैं ? राजा-महात्मन् ! वर्षा के अभाव से गत वर्ष यहाँ दुष्काल था व इस वर्ष भी वर्षा के चिन्ह नहीं दिखलाई पड़ रहे हैं अतः ब्राह्मणों के कहने से देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिये ही यह सब यज्ञ--प्रपश्च किया जा रहा है। देवी देवताओं के सन्तुष्ट होने पर वर्षा निर्विन हो जायगी अतः सकल जन समुदाय में शान्ति एवं प्रानन्द का नवीन सौख्य लहराने लगेगा। सूरिजी-राजन् ! यह शान्ति का उपाय नहीं पर इस भव और पर भव में अशान्ति का ही कारण है । दुनियाँ को तो पुन्य पाप आदि जैसे शुभाशुभ कर्मों का उदय होगा-भोगना पड़ेगा पर इस जघन्य कार्य से आपको तो इन जीवों का यदला अवश्य देना पड़ेगा। भला-ये तृण भक्षण कर अपने प्यारे प्राणों की रक्षा करने वाले निरपराधी मूक प्राणी यज्ञ में तड़फ २ कर मरते हुए आपको कैसा आशीर्वाद देवेंगे? इनकी दुराशीश से श्रापका इस भव परभव में क्या परिणाम होगा? आपको जीव हिंसा रूप कटुफल का अनुभव नारकीय असह्य यातनायों द्वारा करना पड़ेगा इसका भी आप जरा विचार कीजिये । इस प्रकार सूरिजी ने हिंसा की भीषणता का व नारकीय जीवन की करालता का साक्षात् चित्र राजा के हृदय पटल पर अङ्कित कर दिया। आचार्यश्री के द्वारा कहे गये इन मार्मिक शब्दों ने राजा के हृदय में दया के अङ्कर अंकुरित कर दिये । अतः राजा ने प्राचार्यश्री के वचनों को हृदयङ्गम करते हुए कहा-महात्मन् ! यह यज्ञ तो मेरे द्वारा प्रारम्भ कराया जा चुका है अतः पूरा भी करवाना पड़ेगा पर भविष्य में अबसे जीव हिंसा रूप यज्ञ कभी नहीं करूंगा। मैं आपके सामने ईश्वर की साक्षी पूर्वक उक्त प्रतिज्ञा करता हूँ। सूरिजी-राजन ! हमें तो इसमें किञ्चित् भी स्वार्थ नहीं है हम तो एक मात्र आपके हित के लिए कहते हैं कि परभव में भी आपको किसी प्रकार की यातना का अनुभव नहीं करना पड़े। आप स्वयं अपनी बुद्धि से विचार सकते हैं कि जितने जीवों को इस समय आप यज्ञ के लिये मरवा रहे हैं वे ही जीव भवान्तर में अापके शत्रु हो आपके प्राणों के हर्ता बनेंगे। आपको भी इसी तरह की बुरी मौत से मरना पड़ेगा। इस प्रकार आचार्यश्री ने परभवों के दुःखों का साक्षात् चित्र राजा के नयनों के समक्ष चित्रित कर दिया। सूरीश्वरजी के उपदेश से प्रभावित राजा ने किसी की सलाइ लिये बिना ही सब पशुओं को छोड़कर अभयदान तुंग गौत्र घाघमार जाति की उत्पत्ति १३५५ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८६२-६५२] [ भगवान् पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास दे दिया। वे बेचारे निरपराधी मूक जीव भी श्राचार्यश्री का उपकार मानते हुए व तुङ्गोपुर नरेश को सहृदयता पूर्वक आशीर्वाद देते हुए चले गये और अपने २ बाल बच्चों से उत्सुकता पूर्वक मिले । जब यह सम्वाद स्वार्थलोलुपी ब्राह्मणों को मिला तो घे एक दम निस्तेज हो गये। उनके होश हवास उड़ गये । उनकी लम्बी चौड़ी सम्पूर्ण आशाओं पर पानी फिर गया। वे सबके सब उद्विन्न चित्त हो राजा के पास आये और कहने लगे-नरेश ! आपने नास्तिकों के कहने में आकर यह क्या अनर्थ कर डाला? गत वर्ष तो दुष्काल पड़ा ही था किन्तु इस वर्ष जो दुष्काल पड़ गया तो सब दुनियाँ ही यम का कवल बन जायगी। देवी देवतात्रों को रुप होने पर तो न मालूम क्या २ दुःख सड़न करने पड़ेंगे। राजन् ! किसी क्षुधातुर व्यक्ति के सामने षट्स संयुक्त भोजन का थाल रखकर पुनः खेंच लेना कितना अयुक्त एवं भयङ्कर है ? आपने भी तो यही कार्य यज्ञ को प्रारम्भ कर देवी देवताओं के लिये किया है। प्रभो ! अभी तक तो कुछ भी नहीं बिगडा है। अभी भी आप पशओं को मंगवा कर देवतायों को यज्ञ विहित बली देकर जन समाज को सुखी बना सकते हैं। यह नपोचित परमपरागत धर्म भी है। राजन! आपके पर्वजों ने भी ऐसा ही किया व आपको भी ऐसा ही करना चाहिये । ब्राह्मणों ने हर एक प्रकार से राजा को समझाने में कमी नहीं रक्ली। भावी भय व यज्ञ से होने वाले सुख रूप प्रलोभन पाश में बद्धकर स्वस्वार्थ साधना का उन्होंने सफल प्रयोग किया पर अहिंसा के रङ्ग में रंगे हुए राजा पर उनके वचनों का किञ्चित भी असर नहीं हुआ। राजा के हृदय में तो अहिंसा भगवती ने अपना अडिग आसन जमा लिया था अतः उसने साफ शब्दों में कह दिया-पशुवध रूप यज्ञ करवा कर भयङ्कर पाप राशि का उपार्जन करना मुझे इष्ट नहीं है। कुछ भी हो ऐसा हेय-निन्दनीय कार्य अब मेरे से नहीं किया जा सकेगा। राजा का इस प्रकार एक दम निराशाजनक प्रत्युत्तर सुनकर उद्विग्न मन हो ब्राह्मण खस्थान चले गये। ____ इधर राजा ने सूरिजी को बुलाकर कहा-पूज्य महात्मन् ! ब्राह्मण अप्रसन्न हो चले गये-इसकी तो मुझे किञ्चित् भी चिन्ता नहीं पर वर्षा जल्दी होनी चाहिये अन्यथा ब्राह्मण लोग मेरे विरुद्ध बहका कर कहीं नया उपद्रव राज्य में नहीं खड़ा करदें ? भगवन ! दया धर्म के प्रताप से राज्य भर में वर्षा वगैरह के कारण प्रजा को हर तरह से सुख चैन रहा तो मैं आपका शिष्य बनकर तन, मन, धन से पवित्र जैन धर्म की आराधना करूंगा । इस पर सूरिजी ने कहा-राजन ! धर्म एक तरह का कल्पवृक्ष या चिन्तामणि रत्न है। विशुद्ध श्रद्धा पूर्वक धर्म की आराधना करने से वह हर एक अभिप्सित अभिलाषा को पूर्ण करने वाला व जन्म, मरण के भयंकर चक्र को मिटाकर मोक्ष के शाश्वत् सुख को देने वाला है। इस प्रकार धर्म के महत्व को बहुत ही गम्भीरता पूर्वक राजा को समझाते रहे। राजां भी आचार्यश्री के वचनों पर विश्वास कर वंदन कर स्वस्थान चला आया। रात्रि में जब संस्तारा पौरसी भणाकर प्राचार्यश्री ने शयन किया तो विविध प्रकार के तर्क वितको की उलझन में उलझे हुए सूरिजी को निद्रा नहीं आई। आप सोते सोते ही विचार करने लगे-राजा कर्म सिद्धान्त से सर्वथा अनभिज्ञ है । अतः इसका निर्णय स्वयं देवी के द्वारा ही करना चाहिये । बस सूरिजी एकाग्र चित्त से देवी का ध्यान करने लगे। देवी सच्चायिका ने भी अवधिज्ञान से आचार्यश्री के मनचिन्तित भावों को देखा तो तत्काल परोक्ष रूप में या वार्यश्री की सेवा में उपस्थित हो वंदन किया। आचार्यश्री ने भी धर्मलाभ देते हुए अपने मनोगत भाव पूछे तो देवी ने कहा-पूज्य गुरुदेव! आप बड़े ही भाग्यशाली हैं। आपकी यशः रेखा बड़ी जबर्दस्त है । वर्षा तो आज से आठवें दिन होने वाली है और इसका यशः श्रेय भी आपको ही मिलने वाला है। देवी के उक्त वचनों से आचार्यश्री को पूर्ण सन्तोष होगया। देवी भी आचार्यश्री को चंदन कर यथा स्थान चली गई। १३५६ राव सुहड़ यज्ञ और सूरिजी का उपदेश Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १२६२-१३५२ इधर राज्य द्वार से लौटे हुए निराश ब्राह्मणों ने जनता को बहकाने व भ्रम में डालने का प्रपञ्च प्रारम्भ किया। नगरी में सर्वत्र इस बात का शोर गुल मच गया। हर जगह ये ही चर्चाएं होने लगी। जब क्रमशः यह चर्चा राजा के कर्णगोचर हुई तब तो वह एक दम विचार मग्न हो गया । उद्विग्न मन हो वह पुनः चलकर सूरिजी के पास आया और बोला-प्रभो ! मेरी लज्जा रखना आपके हाथ है । दयानिधान ! सारे शहर में ब्राह्मणों ने मेरे विरुद्ध उग्र आन्दोलन मचा दिया है । सूरिजी-राजन् ! आप निश्चिन्त रहें । जो होने का है वह होकर ही रहेगा। आप तो जैन धर्म पर अचल श्रद्धा बनाये रक्खें । धर्म के प्रभाव से सदा आनन्द ही रहेगा। लोग अपनी स्वार्थ साधना के लिये मिथ्या अफवाहें फैला रहे हैं उन्हें उनका प्रयत्र करने दीजिये । हम लोग भी अभी तो यहीं पर ठहरेंगे। आप तो धर्माराधन में दृढ़ चित्त रहिये । सूरिजी के इस कथन से राजा के हृदय को कुछ शान्ति का अनुभव अवश्य हुआ पर ब्राह्मणों के उग्र प्रपञ्च ने राजा के संकल्प विकल्प की और भी वर्षित कर दिया । क्रमशः चिन्तानिमग्न राजा के विचारधारात्रों में सात दिन निकल गये । पर वर्षा के कुछ भी चिन्ह नभमण्डल में दृष्टिगोचर नहीं हुए अतः उसे और भी प्रपाश्चिक व्याकुलता सताने लगी। इधर आठवें दिन वर्षा के चिह्नों के थोड़े से चिन्ह होते ही मूसलधार जलवृष्टि हुई जिससे राजा ही क्या पर, ब्राह्मणों के सिवाय सब ही नगरी के लोग प्रसन्न हो गये । सब नगर निवासी सूरिजी व सूरिजी के धर्म और राजा की भूरि २ प्रशंसा करने लगे। राजा और प्रजाने भी जैन धर्म व अहिसा धर्मः का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर बिना विलम्ब जैन धर्म स्वीकार कर लिया। इस घटना का समय वंशावलियों में वि० सं० ६३३ ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमी का बतलाया है। राजा सुहड का नाम कहीं कहीं सूर्यमल्ल भी लिखा है। सूर्यमल्ल का पुत्र सलखण था। एक बार सलखण घोड़े पर चढ़कर कहीं जा रहा था । मार्ग में सूर्यास्त होने का समय हो जाने के कारण वेणी नगर के पास पहुंच कर दरवाजे के बाहिर एक मकान में ठहर गया। एक अपरिचित व्यक्ति को वहां ठहरा हुआ देख किसी देणी ग्राम वासी ने कहा--महानुभाव ! यहां रात्रि में एक बाघ आता है और मनुष्यों को मार डालता है। अतः इस ग्राम के दरवाजे भी रात्रि में बन्द रहते हैं। कोई भी मनुष्य बाघ के भय से रात्रि में बाहर नहीं जाता है इसलिये आप भी नगर में ही पधार जाइये । सलखण ने अपनी शक्ति के अभिमान में उक्त व्यक्ति की बात को नहीं सुनी। लोगों ने राजकीय सत्ता के द्वारा सलखण को वहां से हटाने का प्रयत्न किया पर राजकीय सुभटो-अनुचरों के वचनों की भी परवाह नहीं की। वह युवावस्था के अभिमान में सावधान हो नगर के बाहिर ठहर गया। रात्रि के समय इधर से बाघ आया और उधर से अप्रमत्त सलखण ने शस्त्र चलाया जिससे बाघ वहीं ठार हो गया । प्रातःकाल कौतूहल देखने के लिये अनेकगण नगरी के बाहिर आये तो बाघ को मरा हुआ देख कर राजा के पास सब समाचार भिजवा दिये । राजा भी उक्त बहादुर व्यक्ति के पराक्रम को देखने के लिये स्वयं चलकर आया और परम हर्ष पूर्वक सलखण से मिला। प्रसन्नता प्रगट करते हुए व सलखण के शौर्य की प्रशंसा करते हुए सम्मानपूर्वक उसे अपनी नगरी में लेगया। उसके क्षत्रियोचित बल कौशल से प्रसन्न होकर लाख सरपाव और एक अच्छी जागीरी प्रदान कर उसे अपने यहां पर ही रख लिया। इस सलखन की सन्तान ही भविष्य में बाघमार के नाम से सम्बोधित हुई । किन्ही २ वंशावलियों में बाघमार गौत्र के 'मा' के स्थान पर भूल से 'चा' लिखा गया है । अतः बाघमार के बदले बाघचार भी पाया जाता है । वास्तव में मूल गौत्र तो बाघमार ही है। बाघचार तो अपभ्रंश के रूप में पीछे से रूढ़ हुआ है। इस जाति के उदार नर पुङ्गवों ने जैन जाति की अवर्णनीय सेवा की है। इनकी वंशावली निम्न प्रकारेण है राव सुइड के सफल मनोरथ और जैनधर्म Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८६२-६५२] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सूर्य मल्ल-वि० सं० ६३३ में जैन बना था सलखण-इनके समय से बाधमार गौत्र प्रचलित हुई (भियाणीपुर में ) पुहड़-इन्होंने सम्मेत सिखरजी की यात्रा के लिये संघ निकाला। भाणु-इन्होंने श्री पार्श्वनाथजी का मन्दिर बनवाया। टीबा-इनके दो स्त्रिये थी। (व्यापार करने लगा) रुक्मणि सोनल ( महावीर मन्दिर) (उपकेशवंशीय ) (क्षत्रिय पुत्री) वारीशाल (शत्रुञ्जय संघ) कर्मोन मूलो जोगड़ (मन्दिर) जावड़ डाबर पोमो अजित शम्भू दुजेनशाला (दुष्काल में) खेतो जीवो ( बहुत विस्तार पूर्वक वंशावली है ) (आगरे गये ) ( मथुरा-मन्दिर ) ग्रन्थ वढ़ जाने के भय से सबकी सब वंशावलियाँ यहाँ उद्धृत नहीं की गई हैं। इसी बाघमार जाति से कई कारण पाकर फलोदिया, हरसोणा, सिखरणीया, तेलोरा, संघवी, लडवाया, सूरवा, साचा, गोदा, ख जाञ्ची आदि कई शाखाएं निकली जिनकी महत्व पूर्व घटनाओं का उल्लेख वंशावलियों में उपलब्ध हैं। इस जाति के वीर, उदार, दानीश्वरों ने देश, समाज एवं धर्भ की बड़ी २ सेवाएं की हैं । मेरे पास वर्तमान वंशावलियों के टोटल के अनुसार बाघमार जाति के श्रीमन्तों ने २७३ जिन मन्दिर बनवाये तथा कई मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाये । ८७ बार यात्रार्थ तीर्थों के संघ निकाले । १०१ बार श्री संघ को अपने यहां बुला कर श्रीनंघ की पूजा को । ५४२ सप्त धातु की मूर्तियां बनवाई। २६ मन्दिरों पर सोने के कल रा चढ़ाये । २६ तीन बावड़िये १६ कूए और सात तालाब खुदवाये । १५३ वीर पुरुष १३२ युद्ध में काम आये और १८ वीरांगनाएं सतियां हुई। १७ प्राचार्यों का पट महोत्सव किया तथा कई बार महोत्सव कर महा प्रभाविक श्री भगवती सूत्र बंचवाया । सात बड़े ज्ञान भण्डार स्थापन करवाये। ७ बार दुष्कालों में करोड़ों का द्रव्य व्ययकर देश बन्धुओं की सेवा की। उक्त ऐतिहासिक घटनाओं के सिवाय भी वंशावलियों में इनके कार्यक्रम का विस्तार से उल्लेख मिलता Jain E१३५८mational राव सुहड की वंशावली org Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १२६२-१३५२ है पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से विशद विवेचन नहीं किया गया है । इस जाति के लोगों को चाहिये कि वे अपनी जाति के महापुरुषों के इतिहास का संग्रह करें। __ मंडोवरा जाति-प्रतिहार देवा वगैरह क्षत्रियों को वि० सं० ६३५ में आचार्यश्री सिद्धसूरिजी ने मांस मदिरा का त्याग करवा कर जैन बनाये। आपका मूल स्थान माण्डव्यपुर होने से आप भण्डोवरा के नाम से प्रख्यात हुए । इस जाति की एक समय बहुत ही उन्नत अवस्था थी। मण्डोवरा जात्युत्पन्न महापुरुषों ने देश, समाज एवं धर्म के हित करोड़ों का द्रव्य व्ययकर अपनी उज्वल सुयश ज्योत्स्ना को चतुर्दिक में विस्तृत की । इस जाति के वीरों के नाम से रजपुर, बोहरा, कोठारी, लाखा, पातावत आदि कई शाखाएं निकली। इन शाखाओं के निकलने के कारण एवं समय का विस्तृतोल्लेख वंशावलियों में मिलता है पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से केवल नामावली मात्र लिख दी जाती है। मेरे पास जितनी वंशावलिये हैं उनके आधार पर मण्डोवरा जाति के श्रीमन्तों ने १३६-जिन मन्दिर एवं धर्मशालाएं बनवाई। १३-बार तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाले । ७-कूए, तालाब एवं बावड़ी खुदवाई । १७६-सर्वधातु एवं पाषाण की मूर्तियां बनवाई । २६-बार संघ को अपने यहां बुला, श्री संघ की पूजा की। ५-बार पैतालीस २ आगम लिखवा कर ज्ञानवृद्धि की। १-एक उजमणी में तो नवलक्ष रूपये व्यय किये। इत्यादि, कई महापुरुषों ने अनेक शुभ कार्य कर स्वपर के कल्याण के साथ जैन धर्म की प्रभावना की। मल्न जाति-खेड़ीपुर के राठौड़ रायमल्ल को वि० सं०६४६ में आचार्यश्री सिद्धसूरिजी ने प्रतिबोध देकर जैन धर्म में दीक्षित किया। आपकी सन्तान उपकेश वंश में मल्ल जाति के नाम से प्रसिद्ध हुई। मल्ल जाति का इतना अभ्युदय हुआ कि कई नामी पुरुषों के नाम पर कई शाखाएं चल पड़ी जैसे-भाला, वीतरागा कीडेचा, सोनी, सुखिया, महेता नरवरादि कई जातियें बनगई। मेरे पास की वंशावलियों से इस जाति के दानवीरों ने निम्नलिखित शुभ कार्य किये ७५- मन्दिर व धर्मशालाएं बनवाई। ३७-बार यात्रार्थ तीर्थों के संघ निकाले । ४८-चार श्रीसंघ को अपने घर पर बुलाकर संव पूजा व पहिरावणी दी। २८-वीर योद्धा युद्ध में काम आये और १२ स्त्रियां सत्ती हुई।। १-खेड़ीपुर से पूर्व दिशा में पगवावड़ी बन्धवाई जिसमें सवालक्ष रुपये व्यय हुए। ४-बार जैनागम लिख कर भण्डार में रखवाये। इत्यादि, अनेक शुभ कार्य किये । यह तो केवल मेरे पास की वंशावलियों के आधार पर ही लिखा है पर इनके सिवाय भी बहुत से सुकृतोपार्जन के कार्य किये जो दूसरी वंशावलियों में पाये जाते हैं। __छाजड़ जाति-आचार्यश्री सिद्धसूरिजी म० एक समय विहार करते हुए शिवगढ़ पधार गये । शिवगढ़ निवासियों ने आपनी का नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही ठाठ से किया । सूरीश्वरजी ने भी तदुपयोगी अहिंसादि के विषयों पर अपना व्याख्यान क्रम प्रारम्भ रक्खा । जिस समय आचार्यश्री शिवगढ़ में विराजते थे उस समय शिवगढ़ नरेश राठौड़ राव आसल के पुत्र कज्जल का विवाह था। एक दिन आचार्यश्री के शिष्य थंडिल भूमिका को गये हुए एक साधु वृक्ष की अोट (श्राड़) में बैठा था कि इधर से किसी एक राजपूत मंडोवरा एवं मल्ल बाति की उत्पत्ति wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०८९२-६५२ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ने शिकार के लिये बाण फेंका । भाग्यवशात् वह बाण स्थण्डिल भूमिकार्थ बैठा हुआ साधु की जंघा से प्रार पार निकल गया। साधु भी तीर की भयङ्कर पीड़ा से अभिभूत हुआ वहीं पर मूर्छित हो गिर पड़ा। जब दूसरे साधु ने आकर मूर्छित साधु को देखा तो बाण फेंकने वाले असावधान शिकारी राजपूत पर उसे बहुत ही क्रोध आया। क्रोधावेश में मुनि ने दो चार शब्द अत्यन्त ही कठोर कह दिये । अब तो क्षत्रिय का चेहरा भी तमतमा उठा । अपराध स्वीकार करने के बदले उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया-जाओ तुम चाहो सो कर सकते हो। यह मुनि यहां क्यों बैठा था। मैं कुछ भी नहीं जानता। यदि तुमने भी ज्यादा किया तो दूसरे बाण से तुमको भी घायल कर दूंगा । इत्यादि साधु सीधा वहां से रवाना हो आचार्यश्री के पास श्रा गया और मूर्छित साधु के विषय का सब हाल कह सुनाया। सूरिजी ने कहा मुनियों ! जैन धर्म के स्वरूप को ठीक समझो। इस साधु के असातावे. दनीय कर्भ का उदय था । बाण वाला तो केवल निमित्त कारण ही था। मुनि ने कहा-पूज्य गुरुदेव । आपका कहना तो सर्वथा सत्य है पर क्षत्रिय लोग उदंडता से अत्याचार कर रहे हैं उनको भी तो किसी न किसी तरह रोकना चाहिये । भगवन् ! यदि क्षत्रियों को इस निष्ठुरता या नृशंसता पूर्ण क्रूरता के लिये कुछ भी न दी जायगी तो दसरे साध साध्वियों का इधर विचरना भी कठिन हो जायगा । वे हर एक मुनि के प्रति इस तरह का दुष्ट व्यवहार करने में नहीं हिचकिचावेंगे । आचार्यश्री को भी मुनि का उक्त कथन अक्षरक्ष वास्तविक ज्ञात हुआ। वे भी इसका सफल उपाय सोचने में संलग्न होगये।। इधर शिवगढ़ निवासी महाजनसंघ को मनिराज की मर्जितावस्था का सब हाल कर्णगोचर हा तो उन लोगों के क्रोध एवं दुःख का पार नहीं रहा । शिवगढ़ के जैन अशक्त किंवा बणिकोचित संग्राम भीरु नहीं थे। वे क्षत्रियों का सामना करने में बड़े ही बहादुर एवं शरवीर थे। उनकी संख्या भी शिवगढ़ में कम नहीं थीं। श्रेष्टि कहलाने वाले वे धर्मानुयायी ओसवाल जैसे संख्या में अधिक थे वैसे वीरता में भी बड़े प्रसिद्ध थे । उनको तीक्ष्ण तलवार चलाने की दक्षता ने बड़े २ युद्धविजयी योद्धाओं को घबरा दिया था। क्षत्रियत्व का अभिमान रखने वाले राजा लोग भी उन्हें लोहा मानते थे। अतः धर्मावहेलना से दुःखित हृदय वाले महाजनसंघ की कोपान्वित अति भयकर स्थिति होगई । दोनों ओर दो पार्टिये बन गई एक ओर अहिंसाधर्मोपासक जैन महाजनसंघ था तो दूसरी ओर क्षत्रिय वर्ग । इस साधारण वार्ता के इस भीषण स्थिति में पहुंच जाने पर भी महाजनों ने क्षत्रियों से कहा-आप लोग, आप लोगों के द्वारा किये गये अपराधों के लिये आचार्यश्री से क्षमायाचना कर लेवें तो इसका निपटारा शान्ति से हो जायगा पर वीरत्व का अभिमान रखने वाले क्षत्रियों को यह स्वीकार करना रुचिकर नहीं ज्ञात हुआ अतः वे तो संग्राम के लिये ही उद्यत होगरे । परिणाम स्वरूप इसका निपटारा तलवार की तीक्ष्ण धार पर आपड़ा। आचार्यश्री के सामने तो दोनों ओर की विकट समस्या आ पड़ी। इधर एक मुनि के लिये परस्पर रक्तपिपासु होना उन्हें उचित्त ज्ञात न हुआ तो उधर शासन की लघुता व जैनियों की अकर्मण्यता भी भविष्य के लिये घातक ज्ञात हुई। इस विकट उलझन में उलझे हुए आचार्यश्री ने रात्रि में देवी सच्चायिका का स्मरण किया और देवी भी अपने कर्तव्यानुसार तत्काल प्राचार्यश्री की सेवा में उपस्थित होगई । देवी ने वंदन किया और सूरिजी ने धर्मलाभ देते हुए कहा-देवीजी ! यहां बड़ी ही विकट समस्या खडी हुई है अब इसका निपटारा किस तरह किया जाय । देवी ने उपयोग लगा कर कहा-गुरुदेव ! इस विषय में आपको किसी तरह से चिन्ता करने की अवश्यकता नहीं । यह मामला तो प्रातःकाल ही शान्ति पूर्वक सानन्द निपट जायगा । आप परम भाग्यशाली हैं आपको तो इस मामले में सुयश-लाभ ही मिलेगा। इतना कह कर देवी तो बन्दन कर स्वस्थान चली गई । इधर क्षत्रियों ने रात्रि में मांस पकाया । अकस्मात् उसमें किसी जहरी ले जानवर का जहर भी मिल गया। रात्रि में आसल, कज्जल प्रभृति सकल क्षत्रिय समुदाय ने उस अभक्ष्य १३६० छाजेड़ जाति की उत्पत्ति का वर्णन Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ भोसवाल सं० १२६२-१३५२ भोज्य का भोजन किया अतः वे सबके सब विष व्यापी शरीर वाले होगये । प्रातःकाल होते ही लोगों ने उन्हें अचैतन्यावस्था में देखा तो सर्वत्र हाहाकार मच गया। कोई कहने लगे-निरपराधी साधु के बाण मारने का यह कटुफल मिला है तो कोई-मन्त्र तत्र विशारद साधु समुदाय ने ही कुछ कर दिया है। कोई जैन मुनियों की करामात है। इस प्रकार जन समाज में विविध प्रकार को कल्पनाओं ने स्थान कर लिया। जब यह बात ओसवालों को ज्ञात हुई तो उन्होंने सोचा कि यह तो एक अपने ऊपर कलंक की ही बात है अतः शेष बचे हुए मांस की परीक्षा करवानी चाहिये। मांस की परीक्षा करने पर स्पष्ट ज्ञात होगया कि मांस में विषैला पदार्थ मिला हुआ है। इतने में ही किसी ने कहा जैन महात्मा बड़े करामाती हीते हैं। उनके पास जाकर प्रार्थना करने से वे सबको निर्विष बना देवेंगे। बस, सब लोग श्राचार्यश्री के पास आकर करुणाजनक स्वर में प्रार्थना करने लगे। सूरिजी ने भी हस्तागत स्वर्णावसर का विशेषोपयोग करते हुए उन लोगों को धर्मोपदेश दिया तथा देव, गुरु, धर्म की आशातना के कटुफलों को स्पष्ट समझाया इस पर उन लोगों ने अपना २ अपराध स्वीकार करते हुए आचार्यश्री से क्षमा याचना की और कहा-महात्मन् ! यदि आप इन सबों को निर्विष कर देवेंगे तो हम सब लोग आपश्री का अत्यन्त उपकार मानेगें । जैसे महाजन लोग आपके भक्त हैं वैसे हम और हमारी सन्तान परम्परा भी आपके चरण किङ्कर होकर रहेंगे। इत्यादि । महाजनों ने आचार्यश्री के चरणों का प्रक्षालन कर वह जल उन विषव्यापी क्षत्रियों पर डाला। सूरीश्वरजी के पुन्य प्रताप से व देवी सच्चायिका की सहायता से वे सब क्षत्रिय सचेतन हो बैठ गये । कजल के साथ सब ही क्षत्रियों ने आचार्यश्री के चरणों में नमस्कार किया। सूरिजी ने कहा महानुभावों । भविष्य में साधु तो क्या पर किसी भी निरापराधी जीवों कों कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिये आप क्षत्री है अतः स्वात्मा परात्मा की रक्षा करना चाहिये । इत्यादि तदान्तर सूरिजी ने तुलनात्मक धर्म का स्वरूप समझाया । कारण केवल चमत्कार देखकर अज्ञातपने से धर्म स्वीकार करने वालों की नींव बड़ी कमजोर होती है। अतः समयज्ञ सूरिजी ने उन लोगों को इस प्रकार समझाया कि वे स्वयं हिंसामय धर्म एवं लोभी गुरुओं से घृणित हो पवित्र अहिंसामय धर्म एवं निस्पृही त्यागी गुरु की ओर आकर्षित होकर विना विलम्ब:उन सपने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। इससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना हुई । इतर धर्म व दर्शनों पर भी जैनियों के महात्म्य का अच्छा प्रभाव पड़ा। इस घटना का समय पट्टावलीकारों ने वि० सं० १४२ का लिखा है। क्षत्रियों ने इस दिन की स्मृति के लिये शिवगढ़ में भगवान महावीर का मन्दिर भी बनवाया है। क्रमशः राव कज्जल का पुत्र धवल हुआ और धवल का पुत्र छाजू हुआ। छाजू बड़ा ही भाग्यशाली था। छाजू पर देवी सच्चायिका की पूर्ण कृपा थी। देवी की कृपा से इनको निधान भी मिला था। छाजू ने शिवगढ़ में भगवान् पाश्वनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया तथा शत्रुञ्जयादि तीर्थों के लिये संघ निकाल कर स्वधर्मी बन्धुओं को वस्त्र व स्वर्णमुद्रिकादि के साथ मोदक की प्रभावना एवं पहिरावणी दी । इन शुभ कार्यों में छाजू ने एक करोड़ रुपये व्यय कर अपने कल्याण के साथ अपनी धवल कीर्ति को चतुर्दिक में अमर बना दी । इस छाजू की सन्तान ही आगे छाजेड़ जाति से सम्बोधित की जाने लगी। इस जाति का क्रमशः इतना अभ्युदय हुआ कि इनको संख्या कई ग्राम नगरों में वट वृक्ष के भांति प्रसरित होगई । इनका वैवाहिक सम्बन्ध जैसे क्षत्रियों के साथ था वैसे उपकेशवंशियों से भी प्रारम्भ था । छाजेड़ जाति से-नखा, चावा, संघवी, भाखरिया, नागावत, मेहता, रुपावतादिक कई शाखाएं निकली । मेरे पास जितनी वंशावलिये हैं उनमें वर्णित इस जाति के नर पुङ्गवों के द्वारा किये गये कार्यों का टोटल लगाया तो २५३-जैन मन्दिर, धर्मशालाएं तथा जीर्णोद्वार करवाये । सुरीधरजी का चमत्कार १३६१ wwwwwwwwwwwww Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०८९२-६५२] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६१-बार तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाल संघ को पहिरावणी दी। ११४-बार संघ को घर बुलाकर श्रीसंघ की पूजा की। ७-आचार्यों के पद महोत्सव किये। १६-ज्ञान भण्डारों में आगम पुस्तकादि लिखवाकर रक्खीं। ११-कूए, तालाब, बावड़ियाँ बनवाई । ८-बार दुष्काल में करोड़ों का द्रव्य व्यय कर शत्रुकार दिये । ४६-वीर पुरुष युद्ध में काम आये और १४ स्त्रियां सती हुई। इसके सिवाय भी इस जाति के बहुत से वीरों ने राजाओं के मन्त्री, महामन्त्री, सेनापति आदि पदों पर रह कर प्रजाजनों की अमूल्य सेवा की । कई नरेशों की ओर से दिये हुए पट्टे परवाने अब भी इस जाति की सन्तान परम्परा के पास विद्यमान है। छाजेड़ जाति का वंश वृक्ष राव आसल (सोमदेव) कजल (महावीर का मन्दिर बनाया) धवल तीर्थों का संघ यात्रार्थ ] छाजू [छाजेड़ कहलाये - उदो धरण खूमाण लाल्लग भीमसिंह सज्जनसिंह कुलधर अजित (अजितनाथ का मन्दिर) सावंत सोढ़ ( तीर्थों की यात्रार्थ संघ) लाखो (पार्श्वनाथ का मन्दिर) लुंगो माडण रूंघो (८४ बुलाकर संघ पूजा) सीमधर साहरण (पार्श्वनाथ का मन्दिर) भाणो (शत्रुजय का संघ) भोपाल ( यहाँ तक राज किया) धोकल ( व्यापार में) देवो ( महावीर मन्दिर) तारो ( यात्रार्थ संघ) रामसिंह ( महामंत्री) पातो 一一一一一一 कानो हरखो जावड़ नहारसिंह भानो चन्द्रभान धरमशी ( दुकाल में द्रव्य) मोडो (महावीर का मन्दिर) जैतसिंह (यात्रार्थ संघ) हरिसिंह (दुकाल में दान) रामचन्द Jain Ed९३६२ For Private & Personal use Only छाजेड़ जाति की वंशावली Nayalnenorary.org Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२६२-१३५२ मोडो (महावीर का मन्दिर) मानो अंबो हरिसिंह (दुकाल में दान) रामचन्द सावंतसिंह (शत्रुजय का संघ स्वर्णमुद्रि लहण में) सहसमल दलपतसिंह कल्याणमल ठाकुरसिंह (भ० महावीर मन्दिर) पुनमचन्द राजसिंह ( संघ पूजा) वोरीदास रूपो मलुकचन्द गोपीचन्द कमलसिंह खेमराज उतमचन्द बख्तावरमल करमसिंह ( दुकाल में अन्नदान) जोरावरसिंह तिलोकचन्द हंसराज धीरजमल सूरजमल पेमराज बछराज रुगनाथमल सुगालचन्द हेमराज भारमल दोलतराज रावतमल जतनमल राजमल जसराज सुखमल दुर्गाचन्द (कोसाना की शाखा) लालचन्द फोजमल समरथमल नथमल (वि० सं० १६१० तक थे) गंभीरमल यह तो क्रमशः मूल नाम लिखे हैं इनका परिवार एवं शाखें तो विस्तार से वंशावलियों में है यदि उन सबको लिखा जाय तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन जाता है वे दिन इस जाति के उन्नति के दिन थे गान्धी जाति-प्राचार्य परमदेवसूरि एक समय आबंदाचल की ओर पधार रहे थे । जंगल में एक देवी के मन्दिर के पास एक ओर तो बहुत से क्षत्री लोग खड़े थे दूसरी ओर बहुत से भैंसे बकरादि निरापरधि मूक पशु बन्धे हुए थे। आचार्यश्री के दो मुनि रास्ता की भ्राति से उस देवी के मन्दिर के पास आ निकले और उन्होंने उस जघन्य कार्य को देख शीघ्र ही जाकर सूरिजी को कहा और सूरिजी चलकर वहाँ आये तथा उन लोगों को उपदेश देने लगे । पर उन घातकी लोगों पर कुछ भी असर नहीं हुआ फिर भी सरिजी हताश न होकर उनके अन्दर कुछ लोगों को अलग लेकर समझाया तो उनके समझ में आ गया कि देवी जगदम्बा है चराचर प्राणियों की माता है रक्षा करने वाली है। अतः इन भैंसा बकरादि को मुक्त कर अभयदान दिया और बहुत से क्षत्रियों ने सूरिजी के समीप अहिंसामय जैन धर्म को स्वीकार कर लिया जिसमें मुख्य राव खंगार, रावचूड़ा, रावअजड़, रावकुम्भादि थे इसका समय वंशावलियों में वि० सं०५०६ का बतलाया है । गान्धी जाति की उत्पत्ति १३६३ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८६२-६५३] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राव खगार की-सन्तान परम्परा की सातवीं पुरत में राव कल्हण हुआ । आपके नौ पुत्रों में एक सारंग नाम के पुत्र ने केसर कस्तूरी कर्पूर धूप इत्र सुगन्धी तैलादि का व्यापार करने से लोग उनको गान्धी कहने लग गये तब से वे उपकेशवंश में गान्धो नाम से प्रसिद्ध हुए। आगे चल कर शाह वस्तुपाल तेजापल के कारण जाति में दो पार्टियाँ होगई जैसे छोटाधड़ा बड़ाधड़ा अर्थात् ल्होड़ा साजन और बड़ा साजन, गान्धी जाति में भी दोनों तरह के गान्धी आज विद्यमान है। २-दूसरा राव चूड़ा की--सन्तान परम्परा में राव खेता बड़ा नामी पुरुष हुआ उस पर देवी चक्रेश्वरी की पूर्ण कृपा थी जिससे उसने अंभोर में भ० पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया तीर्थों का संघ निकाल सब यात्रा की साधर्मी भाइयों को पहरावणी दी तब से खेता की संतान उपकेशवंश में खेतसरा कदलाई। आगे चलकर खेता को परम्रा में शाह नारा ने चन्द्रावती दरबार के भण्डार का काम करने से वे खरभंडारी के नाम से प्रसिद्ध हए। ३-तीसरा राव अजड़ की सन्तान परम्परा में शाहालाधा ने बोरगत जागीरदारों को करज में रकम देन लेन का धंधा करने से वे बोहरा के नाम से मशहूर हुए। ४ चौथा रावकुम्भा की--सन्तान परम्परा की आठवीं पुश्त में शाह सवलो हुआ आपने शत्रुञ्जय गिरनार की यात्रार्थ संघ निकाला । भ० आदीश्वरजी का मन्दिर बनाया। और १४५२ गणधरों की स्थापना करवा कर संघ को वस्त्र सहित एक एक सुवर्ण मुद्रिका पहरावणी दी। उस दिन से लोग आपको गणधर नाम से पुकारने लगे। अतः आपकी सन्तान की जाति गणधर कहलाई । इत्यादि आपका वंशवृक्ष विस्तार से लिखा हुआ है। ढलडिया बोहरा-श्राचार्य सिद्धसूरि के अाज्ञावर्ती पं० राजकुशल बहुत मुनियों के परिवार से विहार करते हुए चन्द्रावती नगरी पधार रहे थे। उधर से जंगल से कई घुड़सवार आ रहे थे उन्होंने बड़ वृत के पास वापी पर विश्राम लिया। भाग्यवशात् पण्डित राजकुशल भी अपने मुनियों के साथ वटवृक्ष के नीचे विश्राम लिया । उन राजपूतों में से एक आदमी पंण्डितजी के पास आकर पूछा श्राप कौन हैं और कहाँ जा रहे हैं ? पं. जो ने कहा हम जैन श्रमण हैं और हमारे जाने का निश्चय स्थान मुकर्रर नहीं है। हम धर्म का उपदेश देते हैं जहाँ धर्म का लाम हो वहीं चले जाते हैं आदमी ने पूछा कि आप भूत भविष्य को या निमित शात्र को भी जानते हैं। यदि जानते हैं तो बतलाइये हमारे रावजी के संतान नहीं है आप ऐसा उपाय बतलायें कि हम सब लोगों की मनोकामना पूर्ण हो जाय ? पण्डितजी ने अपना निमित ज्ञान एवं स्वरोदय बल से बात जान गये कि रावजी के पुत्र तो होने वाला है । अतः श्रावने कहा कि यदि आपके रावजी के पुत्र हो जाय तो आप क्या करोगे ? श्रादमी ने कहा कि आप जो मुँह से मांगें वही हम कर सकेंगे । जो ग्राम परगना मांगें या धन मांगें ? पण्डितजी ने कहा कि हम निस्पुड़ी निर्ग्रन्थों को न तो राज की जरूरत है और न धन की यदि आप के मनोरथ सफल हो जाय तो आप अपने रावजी के साथ भवतारक परम पुनीत जैनधर्म को स्वीकार व.रले कि जिससे आपका शीघ्र कल्याण हो । आदमी ने जाकर रावजी को सब हाल कहा अतः रावजी भी पण्डितजी के पास आये और पण्डितजी ने रावजी को वासक्षेप दिया और रावजी प्रार्थना कर पण्डितजी को अपने नगर सोनगढ़ में ले आये पण्डितजी एक मास वहाँ स्थिरता की हमेशा व्याख्यान होता रहा रावजी आदि आपका सब परिवार एवं राज कर्मचारी व्याख्यान का लाभ लिया करते थे। इतना ही नहीं पर उन लोगों को श्रद्धा एवं रूची भी जैन धर्म की ओर झुक गई पर जब तक रावजी जैन धर्म स्वीकार न करें वहाँ तक दूसरे गी कैसे धारण करे । खैर एक मास के बाद पण्डितजी वहाँ से विहार कर दिया। १३६४ चार सरदारों की सन्तान चार जाति Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२६२-१३५२ पीछे राव माधवजी की राणी ने गर्भ धारण किया जिससे रावजी वगैरह को सुनिजी के वचन स्मरण में आने लगे क्रमशः गर्भ स्थिति पूर्ण होने से रावजी के देव कुँवर जैसा पुत्र का जन्म हुआ जिसके खुशी और आनन्द मंगल का तो कहना ही क्या था अब तो रावजी को रह रह कर पण्डितजी ही याद आने लगे महाजनों को बुलाकर कहा कि पण्डितजी कहाँ पर हैं तथा उन महात्माओं को जल्दी से अपने यहाँ बुलाना चाहिये ? महाजनों ने कहा उनका चातुर्मास सिन्ध धरा में सुना था पर वे चातुर्मास में कहीं पर भ्रमन नहीं करते हैं । तथापि रावजी ने अपने प्रधान पुरुषों को सिन्ध में भेजकर खबर मंगवाई वे प्रधान पुरुष खबर लेकर आये कि पण्डितजी का चातुर्मास मालपुर में है । खैर चातुर्मास के बाद रावजी की अति आग्रह होने से पण्डित जी सोनगढ पधारे रावजी ने नगर प्रवेश का बड़ा ही सानदार महोत्सव किया और रावजी अपने परिवार अन्तेवर और कर्मचर्य के साथ पण्डितजी से जैन धर्म स्वीकार कर लिया इससे जैन धर्म की अच्छी प्रभावना हुई। रावजी ने अपने नगर में भ० महावीर का सुन्दर मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य सिद्ध सूरिजी ने करवाई । रावजी ने शत्रुञ्जय गिरनारादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ भी निकाला और साधर्मी भाइयों को लहणी एवं पहरावणी भी दी उसका रोटी बेटी व्यवहार जैसे राजपूतों के साथ जैसे ही महाजन संघ के साथ भी शुरु हो गया इत्यादि राव माधोजी की इग्यारवीं पुश्त में शाह नोधणजी बड़े ही भाग्यशाली हुए उन्होंने ढेलड़िया गाँव में बोरगत ( लेनदेन ) का धंधा किया जिससे लोग उनको ढेलड़िया बोहरा कहने लगे इस जाति के अनेक दान वीर उदार नर रत्नों ने देश समाज एवं धर्म की बड़ी बड़ी सेवाएं करने में खुल्ले दिल लाखों करोड़ो का द्रव्य व्यय किया जिसका उल्लेख वंशावलियों में विस्तार से मिलता है। ढेलडिया जाति के कई लोग ब्यापार करने लगे तब कई लोग राज के मंत्री महामंत्री आदि उच्च पदों पर नियुक्त हो राजतन्त्र भी चलाते रहे । इस जाति की जन संख्या भी बहुत विस्तृत हो गई थी जिससे कई शाखाएँ भी फैल गई जिसमें एक शाखा के कतिपय नाम यहाँ लिख दिये जाते है। चापशी इनके अलावा और भी बहुत सी शाखाओं का इतिहास वर्तमान में विद्यताराजी | मान है पर स्थानाभाव यहाँ पर दिया नहीं गया है प्रत्येक जाति वालों को चाहिये कि वे अपनी २ जाति का यथार्थ इतिहास लिख कर जनता के समाने ही नहीं पर अपनी सन्तान को तो अवश्य पढ़ाना चाहियेभानाजो वंशावलियों के देखने से मालुम होता है कि जैन धर्म पालन करने वाली जातियों में प्रत्येक जाति को वंशावली में कम से कम उनके पूर्वजों द्वारा मन्दिरों का लिखमीचन्दजी निर्माण यात्रार्थ तीथों के संघ एवं संघ पजा का तो उल्लेख मिलता ही है पर सबका उल्लेख करने के लिये इतना ही विशाल स्थान चाहिये जिसका अभाव है। मानमलजी श्राचार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज अपने समय के एक बड़े ही युग प्रवर्तक शिवदानमलजो श्राचाय थे। आपका सारा जीवन जिन शासन की सेवा से ओत प्रोत है। जहां जाना वहाँ नये जैन बनाना व पुराने जैनों की रक्षा करना तो आपश्री का ध्येय ही इन्द्रमलजी बन गया था। विशेषता यह थी कि आपके शासन में करोड़ों की संख्या में जैन थे पूनेमलजी पर किसी भी स्थान पर पारस्परिक मनोमालिन्य नहीं था। यदि कहीं पर किसी कारणवश क्लेश ने जन्म भी ले लिया तो वह अपनी अवधि को अधिक समय तक मूलचन्दजी स्थायी नहीं रख सकता । कारण, समाज पर आपका अधिक प्रभाव था। आपके लालचन्दजी । समय में चैत्यवास का साम्राज्य था और उनमें सुविहित व शिथिलाचारी दोनों देवड़िया बोहरों की उत्पत्ति १३६५ रूपजी Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८६२-६५२ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्रकार का समाज था पर आप उनको एक रथ के दो पहिये समझ कर शासन रथ को चलाने में बड़ी ही कुशलता से काम लेते थे । अतः आपका प्रभाव दोनों पर समान रूप से था । आप श्री का शिष्य समुदाय भी बहुत विशाल था व उग्रविहारी सुविहित मुनियों की भी कमी नहीं थी । अतः कोई भी प्रान्त उपकेशगच्छीय मुनियों के विहार से रिक्त नहीं रहता । स्वयं आचार्य श्री भी प्रत्येक प्रान्त में विहार कर धर्म प्रचारार्थ प्रेषित जन मण्डली को धर्म प्रचार के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे । आचार्यश्री इस छोर से उस छोर तक भारत की प्रदक्षिणा कर मुनियों के कार्यों का निरीक्षण करते थे । आपने अपने ६० वर्ष के शासन में अनेक मुमुक्षुभावुकों को दीक्षा दी। अनेकों अजैनों को जैन बनाये । अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवा कर जैन शासन की ऐतिहासिक नींव को दृढ़ की । श्रीसंघ के साथ कई बार तीर्थों की यात्रा कर पुण्य सम्पादन किया । वादियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजयपताका को फहरायी । I इस प्रकार आचार्यश्री का जैन समाज पर बहुत ही उपकार है । इस अवर्णनीय उपकार को जैन संघ का प्रत्येक व्यक्ति स्मृति से विस्मृत नहीं कर सकता है। यदि हम ऐसे उपकारियों के उपकार को भूल जावें तो जैन संसार में हमारे जैसे कृतघ्नी और होंगे ही कौन ? शास्त्रकारों ने तो कृतघ्नता को महान् पाप बतलाया है। इतना ही क्या पर जिस समाज में उपकारी के उपकार को भूला जाता है उस समाज का पतन करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं रुक सकता है। हमारी समाज के पतन का मुख्य कारण भी कृतघ्नत्व ही है । आचार्यश्री सिद्धसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में नागपुर के आदित्यनाग गौत्रीय चोरलिया शाखा के परम भक्त श्रद्धा सम्पन्न शाह मलुक के नव लक्ष द्रव्य व्यय से किये हुए महा महोत्सव पूर्वक आदिनाथ भगवान् के चैत्य में चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय मुक्तिसुन्दर को सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम परम्परानुसार कक्कसूरि रख दिया। इस शुभ अवसर पर योग्य मुनियों को पदवियां प्रदान की गई। अन्त में आप अपनी अन्तिम संलेखना में संलग्न हो गये । क्रमशः २४ दिन के अनशन के साथ समाधि पूर्व स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया । पूज्याचार्य देव के ६० वर्षों के शासन में मुमुक्षुओं की दीक्षाएँ । प्राग्वटवंशी जाति के शाह १ - चन्द्रपुर २- भद्रावती ३- नरवर ४- उच्चकोट ५ त्रिभुवनगढ़ ६- मालकोट ७ - वीरपुर -तेजोड़ी ६- राजाणी १० - दुखी ११ - सराउ १२ - जैतपुर १३- हाडोली १४ - करजी १५ - वर्धमानपुर, १३६६ As As "" 23 श्रेष्टि गौत्र चोरड़िया नाहटा चरड मल चंडालिया कुबेरा पोकरणा शंका हिंगड़ गुलेच्छा मोडियारणी भूतिया 35 33 23 " "" " 27 "" "" "" 35 35 " "" " " 19 39 99 ," "" 35 " "" 35 " "" 59 मुं देवाने कुम्भाने आसलने हाका मोकमने रूपाने धनाने फूलने दुर्गा जाल्हाने पोमाने मानाने कुशल राजसीने सूरिजी के पास दीक्षा ली 33 35 23 22 "" " 33 39 "" " "" 39 59 "" ני " " 19 "" 39 "" " "" 11 35 "" 35 "2 सूरीश्वरजी के शासन में दीचाएं Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १२६२-१३५२ पारसने हरखाने पोकरण दुघड़ १६-चाकोली धावड़ा जाति के शाह नेतसीने सूरिजी के पास दीक्षा ली १७-विजापुर आच्छा " रत्नसीने १८-हथुड़ी भाभू " " भीमाने १६-गुढ़नगर पारख रणधीराने २०-नाणापुर सुरवा २१-ब्राह्मणपुर राजसरा" २२-श्रीपुर झाबाणी पुनड़ने २३-बीसलपुर भाला चमनाने २४-नैवर चतराने २५–हालोर बिंबा दलपतने २६-ब्रह्मी चोसरिया , कानड़ने २७-सारंगपुर सोलागोत्र मेघाने २८-वरखेरी उड़कगोत्र नोदाने २६-नंदपुर बाराने ३०-सारणी वर्धमाना कुमारने ३१-भवानीपुर केसरिया हाफाने ३२-आघाट श्रीमाल समराने ३३-वीरपुर श्रीमाल बुचाने ३४-मालपुर प्राग्वट पाबुने ३५-मोकांणो __" " , मेमाने ३६-धनपुर भालाने ३७-पल्हिका " " , देपालने इनके अलावा भी वंशावलियों में दीक्षा लेने वाले नर नारियों के बहुत से नामों का उल्लेख मिलता है पर मैंने मेरे उद्देश्यानुसार केवल थोड़े से नाम नमूने के तौर पर लिख दिये हैं जिससे आचार्यश्री के विहार का पता लग जाय कि आपश्री का विहार क्षेत्र कितना विशाल था। पूज्याचार्यदेव के ६० वर्षों के शासन में जैन मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं । १-सुसोली के जंघड़ा जाति के शाह धर्मदेव ने भ० महावीर का म०प्र० २-खाबड़ी भमराणी , ,, शाहदेव ने , , ३-खुखोरी के लालांगने ४-राजपुर काजलिया, भ० पार्श्वनाथ का ५-चन्द्रावती के धापा ६-हर्षपुर के वडवडा -हंसावली के गुगलेचा भाणाने भ० ऋषभदेव का ८-गाघोडी जमधटा t-बुचासणी के भंभोलिया , , खेताने भ० शान्तिनाथ का १०-गरासणी के सेठिया बोहत्थने सूरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाएं . १३६० पाचोरा , " " गांगाने " छाजूने " करत्थाने चाहड़ने " Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ८६२-६५२] भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास * ለ वासा ने तातेड़ जैता ने ,, महावीर सेठ डुगा ने ११-खेरीपुर के श्रीमाल जाति के । माल्ला ने भ० शान्तिनाथ का म०प्र० १२-सोतलपुर के श्रीमाल मेराज ने ,, विमलनाथ १३-पद्मावती के प्राग्वटा , सज्जन ने ,, धर्मनाथ १४-रातगढ़ प्राग्वटा ,, अजितनाथ १५-मालगढ़ के प्राग्वटा ईसर ने , आदिनाथ १६-आरडी पासु ने ,, भ० आदिनाथ का १७-मोटा गांव के देसरड़ा १८-क्षत्रीपुरा के श्रेष्टि रामा ने १६-लुद्रवा के चोरलिया बाला ने २०--कानोड़ी कोठारी पैरू ने ,, पार्श्वनाथ २१-काकपुर के रूघा ने २२-खारोली के सेठिया जाला ने २३-पाटली के पल्लीवाल करण ने ,, नेमिनाथ २४-गोदाणी के पांमेचा ,, सीमंधर २५-हंसावली के अग्रवाल भोला ने अष्टापद २६-मेदनीपुर के चौहाना साहरण ने , महावीर २७-फलवृद्धि के बोहरा सन्तु ने २८-महमापुर गुदगुदा देदा ने २६-देवपटण भरंट पांचा ने ३०-सोपारपटण के कनौजिया सेला ने ,, पार्श्वनाथ ३१-सुधा पाटण के डिडू धरण ने , शान्तिनाथ ३२-करोली के महासेणा , देसलने ३३-भंजाणी के टाकलिया ,, ___अज्जड़ ने मल्लीनाथ ३४-मोहलीगाव के डांगीवाल, नोंधण ने , नेमिनाथ ३५ -सुरपुर के हिंगड़ ____ अर्जुन ने , चौमुखजी पूज्याचार्य देव के ६० वर्षों के शासन में संघादि शुभ कार्य १-नागपुर के चोरड़िया शाह सिंहाने शत्रुजय का संघ निकाल यात्रा की २-मुग्धपुर के श्रेष्टि जाति , भोजाने ३-हडमानपुर के भटेवरा , करमणने ४-पलिहकापुरी के रांका-सेठ नरसिंगने ५-नारदपुरी के जाघड़ा हाल्लाने ६-शिवपुरी के संचेती कैसाने ७-किराटकूप के कनौजिया लाधाने ८-भरोंच प्राग्वट -सोपार के पोकरण १०-वीरपुर के भूतिया राणाने १३६८ सूरीश्वरजी के शासन में संघादि कार्य 1 III** 1 रवाने सूजाने www Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १२६२-१३५२ ११-उपकेशपुर के डागरेचा , आसलने १२-रत्नपुर के वागड़िया , भीमाने १३-पद्मावती के पल्लीवाल , रोडाने १४-चित्रकूट के प्राग्वट वालाने १५-डिडूपुर के प्राग्वट धन्नाने १६-मदनपुर के विरहटगौत्री शांखला की विधवा पुत्री ने एकलक्ष द्रव्य से वापी करवाई। १७-मालपुर के प्राग्वट जाजा की धर्म पत्नी ने तीन लक्ष में एक तलाव बनाया। १८-उपकेशपुर के तांतेड़ दाना ने अपने पिता के श्रेयार्थ शत्रुञ्जय पर बावड़ी वधाई। १६-नागपुर के पारख रघुवीर ने गायों चरने की भूमि खरीद कर गोचर पनाया। २०-धर्मपुर के डिडू मैकरण ने सदैव के लिये शत्रुकार खोल दिया। २१-पल्हिकापुरी के मंत्री गुणाकार ने दुकाल में एक करोड़ द्रव्य व्ययकर लोगों को प्राणदान दिया। २२-हंसावली का संचेती लाढ़ इक ने दुकाल में सर्व स्वार्पण किया कुलदेवी ने अक्षय निधान वानर्थ । २३-चन्द्रावती के प्राग्वट भैराकों पारस प्राप्त हुआ जिससे जनसंहार कहत में राजा राणों का अन्न दाता । २४-शिवगढ़ का श्रेष्टि०-सारंगा युद्ध में काम आया उसकी दो स्त्रियाँ सती हुईं छत्री पूजी जाती है। २५-डमरेल का भाद्र गो०-मंत्री सल्ह युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई। २६-उपकेशपर का चिंचट-गणपत यद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हई। २७-चन्द्रावती का प्रावट-मोकल युद्ध में काम आया उसकी पत्नी सती हुई माघ सप्तमी का मेला लगे। २८-कोरटपुर का श्रीमाल-लाखण युद्ध में काम आया उसकी पत्नी सती हुई छत्री बनाई थी। चउ चालीसवें सिद्ध सूरीश्वर श्रेष्टि कुल दिवाकर थे, दर्शन ज्ञान चरित्र बारधि, गुण सब ही लोकोत्तर थे । थे वे पयनिधि करूणा रसके, पतित पावन बनाते थे, ऐसे महापुरुषों के सुन्दर, सुरनर मिल गुण गाते थे । इति भगवान पार्श्वनाथ के चौचालीसवें पट्ट पर प्राचार्य सिद्धसूरि महान् प्रतिभाशाली आचार्य हुए। CRDX HAN सूरीश्वरजी के शासन में शुभ कार्य १३६६ www.jainenbrary.org Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ammarnamannaamaaya वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ४५-आचार्यश्री ककसरि (१०वें) भूषार्यान्विगस्तु कक्क इति यो सूरिर्मनः सत्कृती । सम्मेते शिखरेतु कोटि गणना संख्यात्म वित्तं ददौ ॥ संघायैव च नित्यमुन्नति करो जैनस्य धर्मस्य वै । येनाद्यापि तदीय शक्ति ज रविर्दैदीप्यतेऽस्मनमः ।। PREVEN चार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज महान् प्रतापी, प्रखर विद्वान् कठोर तप करने वाले धर्म आ प्रचारक एवं युग प्रवर्तक आचार्य हुए। आपश्री के जीवन का अधिकांश भाग आत्म Feet कल्याण या जन कल्याण के काम में ही व्यतीत हुआ । सूरिजी ने विविध प्रान्तों एवं देशों में परिभ्रमण कर जैन धर्म का खूब ही उद्योत किया । पट्टावली निर्माताओं ने आपके पवित्र जीवन का बहुत ही विस्तार पूर्वक वर्णन किया है पर यहां पर मुख्य २ घटनाओं को लेकर आपके जीवन पर संक्षिप्त प्रकाश डाल दिया जाता है। ..पाठकवृन्द पिछले प्रकरणों में पढ़ आये हैं कि आचार्यश्री देवगुप्त सूरि के उपदेश से राव गोशल ने जैन धर्म की दीक्षा लेकर सिन्ध धरा पर एक गोसलपुर नाम का नगर बसाया था। आपके जितने उत्तराधिकारी हुए वे सब के सब जैनधर्म के प्रतिपालक एवं प्रचारक हुए। आपकी सन्तान आर्यों के नाम से मशहूर हुई थी। आर्य गौत्रीय बहुत से व्यक्ति व्यापारिक धन्धों में भी पड़ गये थे। उक्त व्यापारी आर्यों में शाह जगमल्ल नाम का एक धनी सेठ भी गोसलपुर में रहता था। आपका व्यापार क्षेत्र बहुत विशाल था। आपने न्याय नीति पूर्वक व्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया तथा उस द्रव्य को आत्म कल्याणार्थ खूब ही खुले दिल से ( उदारवृत्ति से) शुभ कार्यों में व्यय कर अतुल पुण्य राशि को सम्पादन किया। शाह जगमल्ल ने अपने जीवन काल में तीन बार तीर्थो की यात्रार्थ संघ निकाले, कई बार स्वधर्मी बन्धुओं को पहिरावणी में स्वर्ण मुद्रिकादि पुष्कल द्रव्य दिया । दीन, अनाथों को एवं याचकों को तन, मन, धन से सहायता कर शुभ पुण्य राशि के साथ ही साथ सुयश राशि को भी एकत्रित किया । याचकों ने तो कवित्त, सवैयादि छन्दों के द्वारा आपके यशोगान को जग जाहिर कर दिया। पूर्वोपार्जित पुण्योदय की प्रबलता से शाह जगमल्ल द्रव्य में दूसरे धन वैश्रमण थे वैसे कौटम्बिक परिवार की विशालता में भी अग्रगण्य ही थे। आपकी गृहदेवी भी आपके अनुरूप रूप गुण वाली, पातिव्रत नियमनिष्ट, धर्मप्रिय थी। श्रापकी धर्मपत्नी का नाम सोनी था। माता सोनी ने अपनी पवित्र कुक्षि से सात पुत्र व चार पुत्रियों को जन्म दे स्त्रीभव को सार्थक किया था। उक्त सातों पुत्रों में एक मोहन नाम का पुत्र अत्यन्त भाग्यशाली, तेजस्वी एवं बड़ा भारी होनहार था। ___एक बार पुण्यानुयोग से लब्धप्रतिष्ठित श्रद्धेय आचार्यश्री सिद्धसूरि जी म० का आगमन क्रमशः गोस. लपुर में हुआ। आपश्री के उपदेश से प्रभावित हो शाह जगमल्ल ने सम्मेत शिखरजी की यात्रा के लिये एक विराट् संघ निकाला । 'छ री' पाली संघ के साथ शाह जगमल्ल का श्रात्मज मोहन भी था। मोहन की बालवय से ही धर्म की ओर अभिरुचि थी। उसे धार्मिक प्रश्नोत्तरों एवं चर्चाओं में बहुत ही आनंद आता था। अतः वह आचार्यश्री के साथ पैदल ही धर्म चर्चा एवं मनोद्भव शंकाओं का समाधान करता हुआ संघ के साथ सम्मेतशिखरजी की यात्रा के लिये चलने लगा। जब उसने पाद विहार के कष्टों का अनुभव किया तो १३७० गोसलपुर का राव जगमक्ष Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन 7 [ओसवाल सं० १३५२-१४११ उसे मुनित्व जीवन के परम पवित्र आचार विचार एवं महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व पर बहुत ही आश्चर्य हुआ। पादत्राणभाव में पैदल चलने के साधारण कष्टों के सिवाय अन्य २२ परिपहादि के कष्टों का उसे ज्ञान हुआ व आचार्यश्री के साथ प्रत्यक्षानुभव किया तब तो उसकी विस्मय जन्य कौतूहल के साथ ही साथ जिज्ञासा वृति भी बढ़ गई । समय पाकर आचार्यश्री से पूछने लगा-भगवन् ! आप तो श्रीसंघ के नायक हैं, बड़े बड़े राजा महाराजा एवं कोटाधीशों के गुरु हैं फिर, आप इस तरह साधारण दीनवृत्ति से निर्वाह कर इन दारुण दुःखों को व्यर्थ ही में क्यों सहन कर रहे हैं ? सूरिजी-मोहन ! अभी तुम बालक हो । मुनित्य जीवन की चारित्रविषयक सूक्ष्म वृत्ति का तुम्हें ज्ञान नहीं हैं। साधुत्व जीवन के निर्मल आचार-व्यवहार से सर्वथा अनभिज्ञ हो । मोहन! हमारी, तुम्हारी सुख ऋद्धि की तो बात ही क्या पर नवनिधान के स्वामी अक्षय सम्पत्ति के मालिक चक्रवर्तियों ने भी अपनी सुख साहिबी को लात मार कर इस प्रकार के कष्टों (!) को सहन करना स्वीकार किया था। मोहन ! बाह्य दृष्टि से तुम्हें या अन्य किसी को यह कष्ट दीखता हो पर हम लोगों को तो तुम लोगों द्वारा देखे जाने वाले इन कष्टों में भी सौख्य का ही अनुभव होता है। जब तुम लोगों को कभी हजार दो हजार की कमाई का स्वर्णावसर प्राप्त होता हो और उसमें थोड़ा बहुत कष्ट भी सहन करना पड़ता हो तो क्या उस किञ्चित् कष्ट को देख प्रगादी की तरह उस अलभ्य अवसर को यों ही हाथ से जाने दोगे? मोहन-नहीं गुरुदेव ! हस्तागत ऐसे अवसर को थोड़े कष्टों के लिये खोदेना तो अदूरदर्शिता ही है। हम लोग तो ऐसे समय में साधारण क्षुधापिपास के कष्टों को ही क्या पर जीवन की भीषण यातनाओं को भी विस्मृत कर जी जान से इस प्रकार के द्रव्योपार्जन में संलग्न हो जाते हैं । पर आचार्य देव ! उसमें तो हमको रुपयों पैसों का लोभ होता है । अतः थोड़ी देर का या चिरकाल का कष्टसहन करना भी हमें अनिवार्य हो जाता है पर आपको तो यावज्जीवन के इस दारुण कष्ट में क्या लोभ या लाभ है । जिसके कारण कि साक्षात् दीखने वाले दुःख को भी सुख समझते हैं। सूरिजी-मोहन ! तुम्हारे रुपयों का लाभ तो क्षणिक आनन्द को देने वाला किञ्चित् पौद्गलिक सुख स्वरूप है पर हमको मिलने वाला लाभ तो शाश्वत तथा भव भवान्तरों के सुख के लिये भी पर्याप्त है। मोहन--गुरुदेव ! ऐसा कौनसा अक्षय लाभ है, कृपा कर मुझे भी स्पष्टीकरण पूर्वक समझाइये । सूरिजी-मोहन ! क्या तुम भी उस लाभ को प्राप्त करने के उम्मेदवार हो ? मोहन-आचार्य देव ! कौन हतभागी होगा कि लाभ का इच्छुक न रहता होगा ! फिर आपके द्वारा वर्णित किया जाने वाला लाभ तो अक्षय लाभ है फिर ऐसे लाभ को कौन नहीं चाहता होगा? सूरिजी-मोहन ! जीव अनादि काल से जन्म, जरा, मरण रूप असह्य दुःखों का अनुभव कर रहा है। उन अपरिमित यातनाओं का अन्त करने वाली और अक्षय सुख को सहज ही प्राप्त कराने वाली यह भगवती दीना है । देखो 'देहदुक्खं महाफलं' अर्थात् सम्यग्दर्शन व ज्ञान के साथ इस शरीर का जितना दमन किया जाय उनना ही भविष्य के लिये अात्मिक सुख के अक्षय आनन्दता को प्राप्त कराने वाला होता है। इसी से पूर्वोपार्जित दुष्कर्मों की निर्जरा होती है और कर्मों की निर्जरा होना ही मोक्ष है अतः मुनिजन चारित्र जन्य कष्ट को भी सुख ही समझते हैं। मोहन-सूरिजी के द्वारा कहे गये थोड़े से शब्दों में अपने जीवन के वास्तविक महत्व को समझ गया। उसके हृदय में दीक्षा लेने की भावना रूप वैराग्याङ्कर अङ्कुरित होगया । कष्टों को सहन करने का नवीनोत्साह आगया । मार्ग में होने वाले पाद विहार जन्य कष्ट में भी आत्मिकानन्द की लहर लहराने लगी। उसे इस बात का अच्छी तरह से अनुभव होगया कि सुख दुःख आत्मिक परिणामों की जघन्योत्कृष्टता पर अवलम्बित है। उदाहरणार्थ-चक्रवर्ती महाराजाओं को पुष्प शय्या पर सोते हुए एक पुष्प कलि के अव्यवस्थित होने पर www सुरीश्वरजी और मोहन Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६५२-१०११] । भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उन्हें संकल्प विकल्प जन्य नाना तरह का परिताप होता है पर दूसरे ही दिन इस प्रकार की सुख साहिबी का त्याग कर दीक्षा अङ्गीकार करके अनेक कष्टों को सहन करते हुए भी उन्हें आत्मिकानन्द का वास्तविक अनुभव होता है। पुण्यवंत योग्य सख शैया पर शयन करने वाले चक्रवर्तियों को पशुओं के ठहरने योग्य कण्टकाकीर्ण स्थान में भी पारमार्थिक सौख्य का मान होता है । वास्तव में परिणामों की उत्कर्षापकर्षता का तारतम्य ही जीवन में सुख दुःख का उत्पादक है। उसी जीव और शरीर के एक होने पर भी विचार श्रेणी की निम्नोन्नतावस्था जीवन की वास्तविक कार्य को विचारों की निम्नोच्चतानुसार परिवति एवं परिवर्तित कर देती है। इस प्रकार वह भावनाओं में बढ़ता ही गया। मोइन का वयक्रम अभीतक १८ वर्ष का ही था फिर भी उसका दिल संसार से एक दम विरक्त हो गया । जब क्रमशः श्रीसंव सम्नेत शिखर तीर्थ के पवित्र स्थान पर पहुंचा तब मोहन ने अपने माता पिता से स्पष्ट शब्दों में कहा-पूज्यवर ! मेरी इच्छा श्रावार्यश्री के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करने को है। वज्र प्रकारवत् पुत्र के दारुण शब्दों को सुनकर माता पिताओं के आश्चर्य व दुःख का पार नहीं रहा । माता सोनी ने मोहन के विचारों को अन्यथा करने का प्रयत्न किया पर मोहन के अचल निश्चय को अनुकूल प्रतिकूल अनेक आशाजनक उपायों से भी चलायमान करने में माता सोनी समर्थ नहीं हुई । आखिर मोहन को दीक्षा का आदेश देना ही पड़ा। मोहन ने भी अपने कई साथियों के साथ बीस तीर्थक्करों की निर्वाण भूमि पर बड़े ही समारोह-महोत्सव पूर्वक आचार्यश्री के हाथों से दीक्षा स्वीकार की। सूरीश्वरजी ने भी २३ नर नारियों को दीक्षा दे मोहन का नाम मुनिसुन्दर रख दिया। मुनि-मुनिसुन्दर ने २४ वर्ष पर्यन्त गुरुकुल में रह कर जैनागम-न्याय-व्याकरण-काव्य-साहित्य-ज्योतिष-तर्क-अलङ्कार-गणित-मंत्र यंत्रादि अनेक विद्याओं एवं सामयिक साहित्य का अध्ययन कर लिया। आचार्यश्री ने भी मुनि मुनिसुन्दर को सर्वगुण सम्पन्न जानकर वि० सं० ६५२ में नागपुर में चोरलिया गौत्रीय शाह मलूक के महा महोत्सवपूर्वक आदिनाथ भगवान के चैत्य में चतुर्विध श्री संघ की मौजूदगी में सूरि पद दे दिया। आचार्य पदवी के साथ ही परम्परानुसार आपका नाम ककसूरि रख दिया गया। __ आचार्यश्री ककसूरिश्वरजी महाराज महा प्रभाविक आचार्य हुए । आपश्री जैसे आगमों के ज्ञाता थे वैर मंत्र यंत्र विद्याओं में भी सिद्धहस्त थे। एक बार आप पांचसौ साधुओं के साथ विहार करते हुए सौराष्ट्र प्रा त में पधारे । क्रमशः सौराष्ट्र प्रान्तान्तर्गत तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय की पवित्र यात्रा करनेके पश्चात सौराष्ट्र प्रान्त में परिभ्रमण कर धर्म प्रचार करते हुए आपश्री ने कच्छ प्रदेश को पावन किया। जब आपश्री अपनी शिष्य मण्डली के सहित भद्रेश्वर में पधारे तब कच्छ प्रान्तीय आपके आज्ञानुयायी अन्य श्रमण वर्ग शीघ्र ही आचार्यश्री के दर्शनों के लिये भद्रेश्वर नगर में उपस्थित हुए । आगत श्रमण समुदाय को उचित सम्मान से सम्मानित कर आचार्यश्री ने उनके धर्म प्रचार के श्लाघनीय कार्य पर प्रसन्नता प्रगट की। उनका समुचित स्वागत करते हुए योग्य मुनियों को यथायोग्य पदवियां भी प्रदान की। ऐसा करने से मुनियों को अपने पदों के उत्तरदायित्व का स्मरण हुआ और वे पूर्वापेक्षा भी अधिक उत्साह पूर्वक धर्म प्रचार के कटिबद्ध हो गये । एक चातुर्मास कच्छ प्रान्त में कर आपश्री ने सिन्धान्त की ओर पदार्पण किया। सिन्ध प्रान्त में जैसे उपकेशवंशीय श्रावकों की संख्या अधिक थी वैसे आचार्यश्री के आज्ञानुवर्ती श्रमण समुदाय की संख्या भी विशाल थी। पातोली, वीरपुर, उच्चकोट, मारोटकोट, डामरेल, जजोकी, तीतरपुर वगैरह ग्राम नगरों में विहार करते हुए सूरिजी ने डामरेल में चातुर्मास कर दिया। आपश्री के डामरेल के चातुर्मास में धर्म की पर्याप्त प्रभावना हुई । चातुर्मास के पश्चात् आपश्री ने विहार कर अपनी जननी जन्मभूमि गोसलपुर की ओर पदार्पण किया । आपश्री के पधारने से गोसलपुर निवासियों के हृदय में धर्म स्नेह उमड़ पाया। एक माई का सुपुत्र जिस नगर में जन्मधारण कर अपने कुल गौत्र के साथ ही साथ अपनी जन्म भूमि को भी १३७२ मुनि मुनि-सुन्दर का सूरिपङ कार्य में mawmarimmmmmm Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १३१२-१४११ अमर बना दी तथा प्राचार्य पद से विभूषित हो चातुर्दिक में जन कल्याण करते हुए अपने वर्चस्व से सबको नतमस्तक बनाते हुए पुनः उसी नगर को पावन करे तो कौन ऐसा कमनसीब होगा कि उसको इस विषय में आनंद न हो ? किस हतभागी को अपने देश कुल एवं नगर के नाम को उज्वल करने वाले के प्रति गौरव न हो ! वास्तव में ऐसा समय तो नगर निवासियों के लिये बहुत ही हर्ष एवं अभिमान का है । अतः गोसलपुर का सकल जन समुदाय (राजा और प्रजा ) आचार्यश्री के पदार्पण के समाचारों को श्रवण करते ही आनन्द सागर में गोते लगाने लग गया। क्रमशः अत्यन्त समारोह पूर्वक आचार्यश्री का नगर प्रवेश खूब महोत्सव किया । सूरिजी ने भी स्वागतार्थ श्रागत जन मण्डली को प्रारम्भिक माङ्गलिक धर्म देशनादी ! आचार्यश्री की पीयूष वर्षिणी मधुर, ओजस्वी व्याख्यान धारा को श्रवण कर गोसलपुर निवासी आनन्दोद्रक में श्रोत प्रोत हो गये । किसी की भी इच्छा आचार्यश्री के व्याख्यान को छोड़ कर जाने की नहीं हुई। वे सब सूरिजी के वचनामृत का पिपासुओं की भांति अनवरत गतिपूर्वक पान करने के लिये उत्कण्ठित हो गरे । कालान्तर में सबने मिलकर चातुर्मास का लाभ देने की आग्रहपूर्ण प्रार्थना की। सरिजी ने भी धर्मलाभ को सोचकर गोसलपुर श्रीसंघ की प्रार्थना को सहर्ष स्वीकृत करली । क्रमशः आचार्यश्री के त्याग वैराग्यादि अनेक वैराग्योत्पादक, स्याद्वाद, कर्मवादादि तत्त्व प्रतिपादक, सामाजिक उन्नतिकारक व्याख्यान प्रारम्भ हो गये । सूरिजी के वैराग्यमय व्याख्यानों से जन समुदाय के हृदय में यह शंका होने लगी कि सूरिजी अपने साथ ही साथ अन्य लोगों को भी संसार से उद्विग्न कर कहीं दीक्षित न करलें ? कोई कहने लगे इसमें बुरा क्या है ? हजारों मनुष्य ऐसे ही मर जाते हैं। ऐसा कौन भाग्यशाली है कि आचार्यश्री के समान पौदगलिक सुखों को तिलाअलि दे विशुद्ध चारित्र वृत्ति का निर्वाह कर स्वात्मा के साथ अन्य अनेक भव्यों का भी कल्याण करे । देखो, मोहन ने दीक्षा ली तो क्या बुरा किया ? अपने माता पिता एवं कुल जाति के साथ ही साथ सारे गोसलपुर के नाम को उज्वल बना दिया । धन्य है ऐसे माता पिताओं को एवं धन्य है ऐसे महापुरुषों को। इस प्रकार आचार्यश्री की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। ___आचार्यश्री का मोहनी मन्त्र (वैराग्य ) गोसलपुरवासी बहुत से भावुकों पर पड़ ही गया । करीब ११ भाई, बहिन दीक्षा के उम्मेदवार बन गये । कई मांस मदिरा सेवी भी अहिंसा धर्म के अनुयायी हो गये । चातु. मासानन्तर ११ भावुकों को दीक्षा दे सूरिजी ने पञ्जाब प्रान्त की ओर पदार्पण किया। दो चातुर्मास पञ्जाब प्रान्त में करके आचार्यश्री ने खूब ही धर्म प्रचार किया । श्रावस्ति नगरी में एक संघ सभा की जिसमें कुरु, पञ्चाल, शूरसेन, सिन्ध वगैरह में विहार करने वाले मुनिवर्ग व आसपास के प्रदेश के श्राद्ध समुदाय भी एकत्रित हुए । सूरिजी के उपदेश से श्रीसंघ में अच्छी जागृति हुई। मुनियों के हृदय में धर्मप्रचार का नवीन उत्साह प्रादुर्भूत होगया । संघ सभा की सम्पूर्ण कार्यवाही समाप्त होने के पश्चात् आगत श्रमण समुदाय के योग्य मुनियों को उपाध्याय, गणि, गणावच्छेदक आदि पदवियों से विभूषित कर उनके उत्साह में वर्धन किया । वहां से तीर्थयात्रा करते हुए श्राप मथुरा में पधारे। वहां श्रीसंघ ने श्रापका अच्छा सत्कार किया। जिस समय सूरिजी मथुरा में विराजते थे उस समय मथुरा में बोद्धों का कम पर वेदान्तियों का विशेष प्रचार था तथापि जैनियों का जोर कम नहीं था। जैन लोग बड़े २ व्यापारी उत्साही एवं श्रद्धा सम्पन्न थे। प्राचार्यश्री कक्कसूरिजी म० प्रखर धर्म प्रचारक थे। आप जहां २ पधारते वहां २ खूब ही धर्मोद्योत करते । मथुरा में आपने पुनः जैनत्व का विजयडका बजवा दिया। मथुरा में आई हुई धार्मिक शिथिलता को आपने निवारित कर सुप्त जन समाज को जागृत किया व धर्म कार्य में कटिबद्ध होने के लिये प्रेरित किया। पश्चात् मथुरा से विहार कर क्रमशः छोटे बड़े ग्राम नगरों में पर्यटन करते हुए मत्स्य देश की राजधानी वैराट नगर में पधारे। वहां से अजयगढ पधार कर सरिजी ने चातर्मास वहीं पर कर दिया। मरुधर वासियों को आचार्य श्री के अजयगढ़ में पवारने की खबर लगते ही बहुत आनंद आगया । सूरिजी के दर्शनार्थ पाने प्राचार्य कक्कसूरिजी का विहार क्षेत्र १३७३ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जाने वालों का तांता बंध गया । श्रावक लोग अपने २ नगर को पावन करने के लिये आचार्यश्री से आग्रह पूर्ण प्रार्थना करने लगे । सूरिजी ने भी अजयगढ़ के चातुर्मासानन्तर १२ पुरुष, महिलाओं को दीक्षित कर मारवाड़ प्रदेश की ओर पदार्पण कर दिया । क्रमशः पद्मावती, शाकम्भरी, डिडूपुर, हंसावली, पद्मावती मेदिनीपुर, मुग्धपुर, होते हुए नागपुर पधारे । श्रीसंघ के आग्रह से वह चातुर्मास भी नागपुर में ही आचार्य श्री ने कर दिया। मुग्धपुर में एक प्रभूत धन का स्वामी, विशाल कुटुम्ब वाला सदाशंकर नामका ब्राह्मण रहता था। उसके हृदय की यह आन्तरिक अभिलाषा थी कि मैं किसी भी मंत्र तंत्रादि के प्रयोग से किसी नगर के राजा प्रजा को अपनी ओर आकर्षित कर अपना परम भक्त बनालू जिससे मेरा जीवन निर्वाह शान्ति एवं सम्मान पूर्वक किया जासके । उक्त भावना से प्रेरित हो किसी विशेष आशा से एक समय बह ब्राह्मण किन्हीं चैत्यवासियों के उपाश्रय में गया और चैत्यवासी आचार्यों की विनय, भक्ति, वैयावच्च कर प्रार्थना करने लगा-पूज्येश्वर ! कृपा कर मुझे कोई ऐसे मंत्र की साधना करवावें कि मेरा मनोरथ शीघ्र सफल हो जाय। पहले तो आचार्यश्री ने कई बहाने बना कर उदासीनता प्रगट की पर जब भूदेव ने अत्याग्रह किया तो आचार्यश्री ने उसके ऊपर दया लाकर एक नक्षत्र की साधना बतलाही । छः मास की साधना विधि बतलाने पर ब्राह्मण ने भी आचार्यश्री के कथनानुकूल मंत्र साधन प्रारम्भ कर दिया। जब मन्त्र साधन के केवल तीन दिन ही अविशिष्ट रहे तब वह अन्तिम दिनों में मंत्र की साधना के लिये शमशान में जाकर ध्यान करने लगा। अन्तिम दिन में रात्रि को देवोपसर्ग हा जिससे वह चलायमान हो पागलों की तरह नक्षत्र नक्षेत्र करने लग गया। सदाशंकर पागल होजाने के कारण उसके कौटम्बिक पारिवारिक बड़े ही दुःखी होगये । उन लोगों ने सदाशंकर के पागलपन नाशक बहुत ही उपाय किये पर दैविक कोप के आगे वे सबके सब उपचार निष्फल होगये। इस प्रकार कई अर्सा व्यतीत होगया । भूदेव के उठने, बैठने, खाने, पीने, हलने, चलने में सिवाय नक्षत्र २ चिल्लाने के कोई दूसरी बात नहीं थी । चातुर्मास के पश्चात् आचार्यश्री कक्कसूरिजी म. मुग्धपुर पधारे । ब्राह्मण लोग आचार्यश्री के प्रभाव व तपस्तेज से पहिले से ही प्रभावित थे अतः आचार्य पदार्पण करते ही वे सदाशंकर को सूरिजी के पास खाकर प्रार्थना करने लगे-पूज्य महात्मन् ! हम लोग बड़े ही दुःखी हैं। आपतो परोपकारी महात्मा हैं अतः हमारे इस संकट को शीघ्र हो मिटाने की कृपा कोजिये ! दयानिधान! हम आपके उपकार को कभी नहीं भूलेंगे। सूरिजी-~-यदि यह ठीक हो जाय तो आप लोग इसके बदले में क्या करेंगे? ब्राह्मणवर्ग-आपको मनोऽभिलषित अभिलाषा की पूर्ति करेंगे। श्राप जो कहेंगे उसी आदेश के अनुसार बढ़ेंगे। सूरिजी-हमें तो किसी वस्तु या पोद्गलिक पदार्थ की आवश्यकता नहीं है ! हाँ; आप लोगों को अपने आत्म कल्याण के लिये जैनधर्म अवश्य स्वीकृत करना होगा। इसमें हमारा तो किञ्चित भी स्वार्थ नहीं है । आचार्यश्री के इन वचनों से वे लोग विचार विमुग्ध बन गये। किसी के भी मुंह से हां या ना का कोई सन्तोषप्रद प्रत्युत्तर नहीं प्राप्त हुआ तब, आचार्यश्री ने पुनः कहना प्रारम्भ किया--ब्राह्मणों ! जैनधर्म किसी व्यक्ति या जाति विशेष का धर्म नहीं। इसको पालन करने में सकल जन समुदाय जातीय बन्धनों से विमत स्वतंत्र है। आप ब्राह्मण लोगों के लिये तो जैनधर्म ही आदि धर्म है। सर्व प्रथम भगवान् ऋषभदेव की शिक्षा से चार वेद बनाकर भरतेश्वर चक्रवर्ती ने आपके पूर्वजों को दिये। आपके पूर्वजों ने वेदों के द्वारा विश्व में सद्धर्म का प्रचार किया पर स्वार्थ लोलुपी ब्राह्मण कालान्तर में धर्मभ्रष्ट होघेदों के असली तत्व को ही परिवर्तित कर दिया । अतः भगवान महावीर ने पुनः ब्राह्मणों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया जिससे इन्द्रभूत्यादि ४४०६ ब्राह्मणों ने जैन दीक्षा को स्वीकार स्वात्मा के साथ अनेक भव्यों का उद्धार किया । क्रमशः शय्यंभवभट्ट, १३७४ मुग्धपुर के ब्राह्मण सदाशंकर Jain Education international w.jainelibrary.org Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १३५२-१४११ यशोभद्र, भद्रबाहु, मुकुन्द, रक्षित, सिद्धसेन और हरिभद्रादि अनेक वेद निष्णात, अष्टादशपुराण स्मृतिपारङ्गत विद्वान ब्राह्मणों ने अपने मूलधर्म को स्वीकार कर उसकी आराधना की। आपको भी स्वार्थ के लिये नहीं किन्तु आत्म कल्याण के लिये ऐसा करना ही चाहिये । हां, यदि जैनधर्म के सिद्धान्तों के विषय में आपको किसी भी तरह की शंका हो तो आप लोग मुझे पूछकर निश्शंक तया उसका निर्णय कर सकते हैं । इत्यादि ब्राह्मणों को आचार्यश्री का उक्त कथन सर्वथा सत्य एवं युक्तियुक्त ज्ञात हुआ। उन्होंने आचार्यश्री के वचनों को हर्ष पूर्वक स्वीकार कर लिया। तब सूरिजी ने कहा-सदाशंकर को रात्रि पर्यन्त हमारे मकान में रहने दो और आप सब लोग अपना अवसर देखलें ( पधार जावें)। आचार्यश्री के वचनानुसार सब लोग वहां से चले गये । रात्रि में आचार्यश्री ने न मालूम क्या किया कि प्रातःकाल होते ही सदाशंकर सर्वथा निर्दोष होगया । ब्राह्मणों ने भी अपनी प्रतिज्ञानुसार जैनधर्म को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उस दिन से वे नक्षत्र नाम से कहलाने लगे। इतना ही क्यों पर नक्षत्र नाम तो उनकी सन्तान के साथ में भी इस प्रकार चिपक गया कि इनकी सन्तान परम्परा ही नक्षत्र के नाम से पहिचानी जाने लगी । क्रमशः यह भी एक जाति के रूप में परिणित होगई। इस घटना का समय पट्टावली निर्माताओं ने वि० सं० ६६४ मिगसर सुद ११ का लिखा है। किसी व्यक्ति, जाति एवं धर्म का अभ्युदय होता है तब चारों ओर से अनाशय उन्हें लाभ ही लाभ होता है । यही बात पुनीत जैनधर्म के लिये भो समझ लीजिये वह समय जैनधर्म के अभ्युदय-उन्नति का था। उस समय जैनियों की सुसंगठित शक्ति ने वादियों के आक्रमणों को सफल नहीं होने दिया। समाज पर जैनाचार्यों का अच्छा प्रभाव था। उनके हुक्म को समाज देव बचन के भांति शिरोधार्य करता था। हजारों श्रमण श्रमणियां एक आचार्य की आज्ञा के अनुयायी थे। जैन श्रमण जहां कहीं जाते-नये २ जैन बनाकर ओसवाल संघ में शामिल करते । जैन महाजन संघ की भी इतनी उदारता थी कि-राजपूत हो, वैश्य हो, या ब्राह्मण हो, जिस किसी ने जिस दिन से जैनधर्म का वासक्षेप ले लिया उसी दिन से वह जैन समझा जाने लगा। उनके साथ रोटी बेटी ब्यवहार करने में भी किसी भी तरह का संकोच नहीं किया जाता जिससे उनके हृदय में नये पुरानों के बीच मतभेद के भाव या सकीर्णता के विचार ही प्रादुर्भूत नहीं होते । आर्थिक सहायता प्रदान कर स्वधर्मी बन्धु के नाते उन्हें अपने समान बना लेने में तो उनकी विशेष उदारता थी। व्यापार क्षेत्र तो श्रोसवालों का पहिले से ही विस्तृत था अतः वे जब कभी चाहते हजारों नवीन ओसवाल भाइयों को व्यापार क्षेत्र में भगा देते। नवीन जैन बने हए व्यक्तियों के साथ रोटी बेटी व्यवहार हो जाय और उदार वृत्ति पर्वक उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की जाय फिर तो उनके उत्साह में कमी ही किस बात की रह सकती ? वे लोग भी प्रसन्न चित्त हो हर एक सुविधा को पा धर्माराधन में संलग्न हो जाते। उस समय महाजन संघ का राजा प्रजाओं में भी बड़ा आदर था प्रायः राजतंत्र, वोहरगत एवं व्यापार उनके ही हाथ में था। ये लोग अत्यन्त उदार वृत्ति वाले थे। काल, दुकाल में करोड़ों का द्रव्य व्यय कर देशवासी बन्धुओं को सहायता करते थे यही कारण था कि जैन बनने वाले नवीन व्यक्तियों को हर एक तरह से सुविधाएं प्राप्त थीं। वंशावलियों में नक्षत्र जाति की वंशावली को बहुत ही विस्तार पूर्वक लिखी है। इस जाति के उदार नर रत्नों ने बहुत २ अद्भुत कार्य किये हैं। इन्हीं शुभ कार्यों के कारण इस जाति के महापुरुषों की धवल कीर्ति आज भी वंशावलियों में अङ्कित है नक्षत्र जाति की उत्पत्ति Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६५२-१०११] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सदाशंकर मदन गोकुल रामो श्रीपति वल्लभ नारायण बलदेव श्रीकरण मोहन ( इन सभी के परिवार, स्थान तथा धार्मिक कार्यों का विस्तार से उल्लेख है) मुरारी मुकुन्द आम्र पालक भानो (पार्श्व० नन्दिर) (शत्रुञ्जय का संघ ) इसी नक्षत्र जाति से वि० सं० ११२३ में घीया शाखा निकली। घीया शाखा के लिये लिखा है कि व्यापारार्थ गये हुए नक्षत्र जाति वाले कई लोगों ने लाट प्रदेश खम्भात में अपना निवास स्थान बना लिया था। उक्त प्रान्त में उन्हें व्यापारिक क्षेत्र में बहुत ही लाभ पहुँचा। उन्होंने व्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया । कालान्तर में नक्षत्र जात्युद्भूत शाह दलपत ने एक विशाल मन्दिर बनवाना प्रारम्भ किया। एक दिन वह भोजन करने के निमित्त थाली पर बैठा ही था कि घृत में एक मक्षिका पड़कर मर गई। दलपत ने घृत में मृत मक्षिका को अपने पैर पर रखदी । उसी समय किसी विशेष कार्य के लिये एक कारीगर भी वहां आगया। उसने भी सेठजी की उक्त करतूत देखली अतः उसके हृदय में शंका होने लगी कि ऐसा कृपण व्यक्ति भी कहीं मन्दिर बनवा सकता है ? सेठजी की उदारता की परीक्षा के लिये कारीगर ने कहा-सेठ साहब ! मन्दिीर की नींव खुद गई है। प्रातःकाल ही १०० ऊंट घृत की जरूरत है अतः इसका शीघ्र ही प्रबन्ध होना चाहिये । सेठ ने कहा-इसकी चिन्ता मत करो, कल आ जायगा । दूसरे दिन प्रातःकाल ही १०० ऊंट घृत के यथा समय आ गये । कारीगरों ने सेठजी के सामने ही घृत को नींव में डालना प्रारम्भ किया तब सेठजी ने कहा-कारीगरों ! मन्दिरजी का कार्य है। काम कच्चा नहीं रह जाय, घृत की और आवश्यकता हो तो और मंगवा लेना पर मन्दिर का कार्य सुचारु रूप से मजबूत करना । सेठजी की इस उदारता पर गत कल चक्षुदृष्ट बात की स्मृति से कारीगर को हंसी आ गई । सेठजी ने हंसी का कारण पूछा तो कारीगर ने कहा-सेठजी! कल घृत में एक मक्खी गिर गई जिसको तो आपने पैरों पर रगड़ी और यहां ऊंट के ऊंट घृत के भरे हुए डालने को तैयार होगये अतः मुझे कल की बात याद आ कर हंसी आगई । सेठजी ने कहा-कारीगरों ! हम महाजन हैं। बेकार तो एक रत्ती भी नहीं जाने देते और आवश्यकता पड़ने पर करोड़ों रुपयों की भी परवाह नहीं करते । भला-तुम ही सोचो, यदि मक्खी को यों ही डाल देता तो कितनी चींटियें आ जाती ? पैरों पर रख देने से तो चर्म नरम होगया और कीड़ियों की हिंसा भी बच गई । कारीगर ने कहा-सेठजी ! धन्य है आपकी महाजन बुद्धि को और धन्य है आपकी दया के साथ उदारता को !!! शा० दलपत ने ५२ देहरीवाला विशाल मन्दिर बनवाया व आचार्यश्री के कर कमलों से बड़े ही समारोह पूर्वक मन्दिरजी की प्रतिष्ठा करवाई। जिसमें आगत साधर्मियों को पांच पांच मुहरें लड्डू में गुप्त डाल कर पहरावणी दी । दलपत की सन्तान ही भविष्य में 'घीया' शब्द से सम्बोधित की जाने लगी। ___संघवी-नक्षत्र गौत्रीय शा माला ने वि० सं० ११५२ में नागपुर से विराट् संघ निकाला अतः माला की सन्तान संघवी कहलाई। गरिया-नक्षत्र जाति के शा० सबला की गरिया ग्राम के जागीरदार के साथ अनबन होने के कारण १३७६ शाह दलपत के ५२ मिनालय का मन्दिर Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १३५२-१४११ वे पाटण में चले गये । वहां उनको गरिया २ कहने लगे अतः इनकी सन्तान गरिया कहलाने लगी। __खजाची-वि० सं० १२४२ में गरिया गौत्रीय रूपणसी ने धारा नगरी के राजा के खजाने का काम किया जिससे रूपणसी की सन्तान खजाश्ची कहलाई । रूपणसी के पुत्र उदयभाण ने धारा में भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया। इसकी प्रतिष्ठा वि० सं० १२८२ में माघ शु०५ को सूरिजी ने करवाई। मूल नक्षत्र जाति और उनकी शाखाएं--वंशावलिये जो मेरे पास हैं उसमें इस जाति के कुल धर्म कार्य निम्नलिखित मिले हैं ८७-जैन मन्दिर, धर्मशालाएं और जीर्णोद्धार । २३-बार यात्रार्थ तीर्थों के संघ निकाले । ४२-बार श्रीसंध को अपने घर बुलाकर संव पूजा की। ४-बार सूत्र महोत्सव कर ज्ञानाचना की। ३-आचार्यों के पद महोत्सव किये। १-मुग्धपुर में बड़ी वापिका बनवाई । १३-इस जाति के वीर योद्धा युद्ध में काम आये और ७ स्त्रियां सती हुई। २-दुष्काल में अन्न और घास देने का भी उल्लेख है। इस प्रकार नक्षत्र जाति के वीरों ने अनेक प्रकार से देश, समाज एवं धर्म की बड़ी २ सेवाएं की हैं। इस समय नक्षत्र जाति के ओसवालों के घर कम रहे हैं। कई लोगों को तो अपनी मूल जाति का भी पता नहीं-यह भी समय की बलिहारि ही कही जा सकती है। कागजाति-आचार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज एक समय लोद्रवा पट्टन की ओर पधार रहे थे। मार्ग में एक काग नामक नदी आई । नदी के तट पर कागर्षि नाम का एक सन्यासी तापस चौरासी धूनिये लगाकर तपस्या कर रहा था। उक्त तापस के तपस्तेज से प्रभावित हो रोली ग्राम के जागीरदार भाटी पृथ्वीघर तापस के लिये भोजन लेकर आये हए खड़े थे। जब प्राचार्यश्री काग नदी के तट पर पहुंचे तो तापस आसन से उठकर सूरिजी का अच्छा सत्कार-सम्मान किया । और पास में पड़े हुए एक श्रासन को लेकर तापल ने कहा-महात्मन् ! बिराजिये । पर सूरिजी भूमिका प्रमार्जन कर अपने पास की कम्बली बिछाकर आचार्यश्री वहीं पर विराज गये। पास ही में आपका शिष्य समुदाय भी यथा स्थान स्थित हो गया। तब तापस ने पूछा-क्या आप हमारे श्रासन पर नहीं बैठ सकते हैं ? सूरिजी-हम तो आपके अतिथि हैं किन्तु हमारा आचार भूमि को प्रमार्जन करके ही बैठने का है। देखिये यह रजोहरण भी इसी काम के लिये है। इससे प्रमार्जन करते हुए किसी भी जीव का विधात नहीं होता है। तापस-तो क्या हमारे आसन के नीचे जीव हैं ? सूरिजी-जीव हैं या नहीं, इसके लिये तो हम कुछ भी नहीं कह सकते पर हमारा व्यवहार भूमि प्रमार्जन करने का है। बस, तापस ने अपना आसन उठाया तो उसके नीचे बहुत सी चीटियाँ पाई गई । अब तो तापस पूर्ण लजित हो गया। सूरिजी ने कहा-तपस्वीजी! एक आसन में ही क्या पर इस ज्वाजल्यमान अग्नि में भी न मालूम कितने जीवों का अनायास ही संहार होता होगा? क्या इस विषय में भी आपने कभी गम्भीरता पूर्वक विचार किया है ? यदि आपको आत्म कल्याण करना ही इष्ट है तो इन बाह्य निरर्थक कर्म बन्धक क्रिया काण्डों से क्या लाभ है ? श्रात्मकल्याण के लिये तो आभ्यन्तरिक आत्मशुद्धि होना आवश्यक है। सुरीश्वरजी और तापस का वार्तालाप १३७७ Jain Education Intem१७३ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६५२-१०११ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तापस भद्रिक परिणामी और सरल स्वभावी था अतः उसने कहा महात्मन् ! हमारे गुरुओं ने जो हमें मार्ग बतलाया है उसी का अनुसरण करते हुए हम परम्परा से चलते आरहे हैं। कृपाकर अब आप ही श्रान्तरिक शुद्धि का विस्तृत स्वरूप समझाने का कष्ट करें। श्राचार्यश्री ने भी तापस के आत्म कल्याणार्थ आत्मस्वरूप, आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए कर्मों का सम्बन्ध स्वरूप कर्म आदान व मिध्यात्व के कारण और कर्मों से मुक्त होने के लिये सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र और तप का विस्तृत स्वरूप कह सुनाया । अन्त में श्राचार्यश्री ने तपस्वीजी को सम्बोधित करते हुए कहा-तपस्वी जी ! गृहस्थ लोग अपने खजाने के ताला लगाया करते हैं । उसको खोलने वाली चाबी छोटी सी होती है पर बिना चात्री के ताले को कितना ही पीटो पर वह खुल नहीं सकता । घृत, दधि में प्रत्यक्ष स्थित होता है उसको कितनी ही बार इधर उधर कर लीजिये पर बिना यंत्र ( बिलोने) के घृत नहीं निकलता है । इसी प्रकार आत्म स्वरूप को भी समझ लीजिये । आत्मा स्वयं सच्चिदानन्द परमात्मा स्वरूप है पर वह बिना सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, एवं तप के विशुद्ध नहीं होता । जैसे ताला चाबियों के द्वारा सहज ही में खोला जा सकता है । घृत - यन्त्र द्वारा बहुत ही सुगमता पूर्वक निकाला जा सकता है वैसे ही उक्त साधनों के द्वारा आत्ममल को दूर कर परम निर्मल सच्चिदानन्दमय ईश्वरीय स्वरूप आत्मा बनाया जा सकता है । तापस - तो हमें भी कृपा कर आत्मा से परमात्मा बनने के विशुद्ध स्वरूप को बतलाइये । सूरिजी - आप इस हिंसा मय बाह्य क्रियाकाण्ड को त्याग कर अहिंसा भगवती की पवित्र दीक्षा से दीक्षित होजाइये | आपको अपने आप आत्मा से परमात्मा बनने का उपाय व सन्मार्ग का चारु मार्ग ज्ञात हो जायगा । सूरिजी और तापस की पारस्परिक चर्चा को पास ही में बैठे हुए रोती ग्राम के जागीरदार पृथ्वीधर बहुत ही ध्यान पूर्वक सुन रहे थे। उनके साथ श्राये हुए अन्य क्षत्रियों की आकांक्षा वृत्ति भी धर्म के विशिष्ट स्वरूप को जानने के लिये जागृत हो उठी। वे सब के सब उत्कण्ठित हो देखने लगे कि अब तापसजी क्या करते हैं ? तापसने थोड़े समय मौन रह कर गम्भीरता पूर्वक विचार किया, पश्चात् निवृति को भङ्ग करते हुए आचार्यश्री के सामने मस्तक झुका कर कहने लगा-प्रभो ! मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करने के लिये तैय्यार हूँ । बतलाइये मैं क्या करूं ? सूरिजी ने भी उनको जैन दीक्षा का स्वरूप समझा कर अपना शिष्य बना लिया । तपस्वीजी का नाम गुणानुरूप तपोमूर्ति रख दिया । पृथ्वीधर आदि उपस्थित क्षत्रिय समुदाय को वासक्षेप पूर्वक शुद्ध कर उपकेश वंश में सम्मिलित कर दिया । कागर्षि की स्मृति के लिये सूरिजी ने कहाआज से आप उपकेश वंश में काग जाति के नाम से पहिचाने जायेंगे । पृथ्वीधर प्रभृति क्षत्रिय वर्ग ने सूरिजी का कहना स्वीकार कर लिया। इसके साथ में ही प्रार्थना की कि गुरुदेव ! आप हमारे ग्राम में पधार कर हमें श्री की सेवा का लाभ दें व मार्ग स्खलित बन्धुओं को जैनधर्म की दीक्षा देकर हमारे समान उनका भी कल्याण करे | सूरिजी ने लाभ का कारण सोचकर अपने शिष्य समुदाय के साथ रोली ग्राम में पदार्पण किया । वहां की जनता को सदुपदेश दे जैनधर्म में उन्हें दीक्षित किया । इस घटना का समय पट्टावली निर्माताओं ने वि० सं० १०११ के वैशाख सुद पूर्णिमा का बताया है। इस जाति में भी बहुत से दानी, मानी, नामी नर रत्न पैदा हुए जिन्होंने अपने कार्यों से संसार में बहुत ही नाम कमाया। इस जाति का मूल पुरुष पृथ्वीधर - भाटी राजपूत था। इनकी वंश परम्परा निम्न है - - १३७८ काग जाति की उत्पति Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १३५२-१४११ पृथ्वीधर (भ० पार्श्व० मन्दिर) सोमधर देवधर सोमधर गुणधर राधर (रोली में मन्दिर बनवाया ) (धर्मशाला बनवाई ) (संघ निकाला) सलखण आसल सामन्त घोघा नोघड़ (शत्रुञ्जय का संघ) (मन्दिर बनवाया) १-वि० सं० १०४५ में धामा ग्राम में सोमधर के पुत्र जोधड़ ने शान्तिनाथजी का मन्दिर बनवाया। २-वि० सं० १०८६ में सोमधर के दूसरे पुत्र प्रासल ने शत्रुञ्जय का संघ निकाल कर स्वधर्मी बन्धुओं को पहिरावणी दी व तीन स्वामी वात्सल्य किये। ३-वि० सं० ११३८ में घोघा के पुत्र दैपाल ने लोद्रवा में पार्श्वनाथ भावान का मन्दिर बनघाया। ४-वि० सं० १२२१ मादल पुर में शाह रामा ने भगवान महावीर का मन्दिर बनवाया। ५-वि० सं० १२३६ नागपुर से काग जाति के शाह वीर ने शत्रुञ्जय का संघ निकाला। ६-वि० सं० १६१५ तक की वंशावलियाँ मेरे पास में हैं उनमें काग जाति की खासी नामावाली लिखी है। वंशावलियों से पाया जाता है कि काग जाति के व्यापारी वर्ग भी व्यापार निमित्त सुदर प्रान्तों में जाकर बस गये थे। इस जाति की हंसा, जालीबाहु, कुंकड़, निशानिया, भंगिया, संघवी, कोठारी, मेहतादि कई शाखा-प्रतिशाखाएं निकली थी। इससे पाया जाता है कि एक समय यह जाति बहुत उन्नति पर थी। वर्तमान में तो काग जाति का मादलिया ग्राम में एक घर ही रह गया है ऐसा सुना जाता है। वंशालियों के आधार पर इस जाति के उदारचित्त श्रीमन्तों ने निम्न शासन प्रभावक कार्य किये ६२-मन्दिर एवं धर्मशालाएं बनवाई । २६-बार तीर्थों की यात्रा के लिये संत निकाले । ३६-बार संघ को बुलाकर संघ पूजा की। ४-वीर योद्धा इस जाति के युद्ध में काम थाये । २----वीरांगनाएं अपने मृत पति के साथ सती हुई। इत्यादि अनेक कीर्तिवर्धक कार्यों का उल्लेख वंशावलियों में इस जाति के सम्बन्ध में पाया जाता है। एक बार आचार्यश्री ककसूरिश्वरजी महाराज अपनी शिष्य-मण्डली के साथ विहार करके पधार रहे थे। मार्ग में भयानक अरण्य को अतिक्रमण करते करते ही भगवान भास्कर अस्ताचल की ओर प्रयाण कर गये। सूर्यास्त होजाने के कारण आप चारित्र वृत्ति विषयक नियमानुसार अरण्य स्थित एक मन्दिर में ही ठहर गये । आपश्री का शिष्य समुदाय मार्ग जन्य श्रम से श्रमित होने के कारण जल्दी ही निद्रादेवी की सुखभय गोद का आश्रय लेने लग गया पर आचार्यश्री की आंखों में निद्रा का था प्रमाद का किञ्चित् मात्र भी विकार पैदा नहीं हुआ। वे ज्ञान ध्यानादि पवित्र क्रियाओं में निमग्न होकर समय को व्यतीत करने लगे। मध्य रात्रि के शून्य एवं निनाद विहीन नीरव समय में यकायक सिंह पर बैठी हुई एक देवी मन्दिर में आई। वहां पर साधुओं को सोते हुए देख देवी के क्रोध का पारावार नहीं रहा। देवी क्रोधाभिभूत हो बोल उठी-अरे साधुओं ! तुम लोग यहां क्यों पड़े हो ? यहां से शीघ्र ही प्रयाण करदो अन्यथा सब ही को अभी अपना पास सूरिजी और देवी का संवाद १३७६ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बना लँगी। देवी के कोप मिश्रित कठोर वचों को सुनकर आचार्यश्री ने कहा-देवीजी! जरा शान्ति रक्खें। जंगल के बहुत से निरपराध मूक पशुओं के मारने पर भी आपकी क्षुधातृप्ति नहीं हुई हो और निर्मल चारित्र वृत्ति के निर्वाहक सुसंयमी साधुओं को भी मारना चाहती हो तो मार सकती हो पर मुनियों के प्राण लेने के पश्चात् तो आपश्री की तुपा शान्त हो जयागी न । खैर ! आज से ही इस बात की प्रतिज्ञा कर लेवें कि मुनियों के प्राण हरण करने के पश्चात् मैं किसी भी जीव का अपघात नहीं करूंगी। इस प्रकार की भविष्य के लिये प्रतिज्ञा कर आप अपना ग्रास पहिले मुझे ही बनावें । आचार्यश्री के निडरता पूर्ण, उपदेशप्रद स्पष्ट वचनों को श्रवण कर देवी एक दम निस्तब्ध होगई। कुछ क्षणों के लिये वह आश्चर्य विमुग्ध हो विचार संलग्न होगई । पश्चात् धीमे स्वर से बोली-आप लोग हमारे इस मकान में क्यों व किस की आज्ञा से ठहरे ! कल मेरी यहां पूजा होने वाली है अतः आप लोग यहां से शीघ्र प्रस्थान कर देवें। सूरिजी-ठीक है कल आपकी पूजा होगी तो हम भी आपकी पूजा करेंगे। दवा-नहीं, में आप लोगों की पूजा नहीं चाहती हैं; आप लोग यहाँ से चले जावें। सूरिजी-देवीजी ! हम जैननिर्ग्रन्थ (मुनि) हैं। रात्रि में गमनागमन करना हमारे लिये शास्त्रीय व्यवहार से एकदम विपरीत है। अतः शास्त्रीय आज्ञा का लोपकर किञ्चित् भय या दवाव से ऐसा करना सर्वथा प्रयुक्त है। इस पर आप तो जगदम्बा माता कहलाती हो । जब पुत्र माता के यहां आवे तब पुत्रों के आगमन से माता को इस प्रकार कोप करना व क्रोधावेश में अपने प्रिय लाडिले पुत्रों का अपमान करना क्या माता के लिये शोभास्पद है ? देवीजी ! जरा ज्ञानदृष्टि से भी विचार कीजिये कि पूर्व जन्म के सुकृतोदय से तो आप को इस प्रकार दिव्य देवर्द्धि प्राप्त हुई है पर इन निन्दनीय, घृणास्पद क्रूर, निष्ठुर, राक्षसीय जधन्य अकरणोय कार्यों को करके भविष्य में कैसी गति प्राप्त करेंगे ? पूर्व जन्म में तो आप बहुत से जीवसत्वों के रक्षक प्रति पालक थे अतः सुरलोक के सुख के पात्र हुए पर इन सब पुण्योत्पादक कार्यों के विपरीत इस देव योनि में जगत् की माता के रूप में भी जीव भक्षक बनकर अपना न मालूम कितना अधःपतन करेंगे। देवीजी ! मेरे इन वचनों को आप किञ्चिन्मात्र भी बुरा मत मानियेगा । मैं आपसे जिज्ञासा वृत्ति पूर्वक पूछना चाहता हूँ कि इस प्रकार के पापाचार या जीव भक्षक कार्यों में आपका क्या स्वाथ साधन होता है ? निरपराध मूक पशुओं की अलक्ष्य बलि लेकर अपने आपको कृतकृत्य मानना कहां तक समुचित है ? देवीजी ! बिना स्वार्थ के या किसी विशेष प्रयोजन के अभाव में तो मन्द मनुष्य भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता फिर आप तो ज्ञानवान देव हैं। आपको ऐसा कौन गुरु मिला कि पापाचार का उपदेश देकर सीधा नरक का भयङ्कर रास्ता बतलाया। देवीजी ! सच्चा सपूत तो वही हो सकता है, जो अपनी माता का हित इच्छुक हो उसके भावी जीवन को निर्माण करने के सुखमय साधनों को उपलब्ध करे। उसके भविष्य के कण्टकाकीर्ण मार्ग को शतशः प्रयत्नों द्वारा स्वच्छ कर चारु रमणीय बना दे। उसकी गति को सुधारे। अतः मैं भी पुत्र के रूप में आप से यही निवेदन करूंगा कि आप इस जघन्य निकृष्टतम पापाचार को सर्वथा त्याग दें। भविष्य के लिये भी सुदृढ़ प्रतिज्ञा करलें कि-मैं किसी भी जीव का किसी भी प्रकार से बध नहीं करूंगी । इत्यादि । देवी ने आचार्यश्री के एक २ शब्द को बहुत ही ध्यान पूर्वक सुना। आचार्यश्री के परमार्थ प्रदर्शक हितप्रद वक्तव्य के समाप्त होने पर देवी ने उन बचनों पर गहरा विचार किया तो सूरिजी का एक २ शब्द सत्य एवं युक्तियुक्त ज्ञात हुआ। वह स्थिर चित्त से विचार करने लगी-जीवों का बदला तो भव भवान्तर में देना ही पड़ेगा। फिर भी इस जीवबध में मेरा तो किञ्चित् भी स्वार्थ नहीं है। केवल मेरे नाम के बहाने ये पाखण्डी लोग हजारों जीवों को अपना स्वार्थ साधन करने के लिये मार कर खा जाते हैं। रुधिर एवं मांस से सनी हुई अस्थि राशियां मेरे पवित्र स्थान पर छोड़ जाते हैं, जिसकी दुर्गन्ध का अनुभव मुझे कई दिनों तक करना पड़ता है । सब तरह से जीव हिंसा में सिवाय हानि के किञ्चित् भी लाभ तो है ही नहीं १३८० देवी ने जीव हिंसा छोड़दी Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १३५२-१४११ अतः विचार कर देवी बोली-भगवन् ! अज्ञानता के कारण मार्गस्खलित हो, सुखावह चारु पथ का त्याग कर अरण्य के भयावह, दुःखप्रद, मार्ग से प्रयाण करती हुई मुझ अभागिनी को आपश्री ने आज सन्मार्ग पर आरुढ़ कर बहुत ही उपकार किया है । मैं आज से ही आपकी चरण किकरी-सेविका होकर आपश्री की सेवा में रहने की प्रतिज्ञा करती हूँ। अब से मेरे नाम पर एक भी प्राणी का आघात नहीं हो सकेगा। प्रभो ! मैं व्य घेश्वरी देवी हूँ। श्राप जिस समय मुझे याद फरमागे उसी समय मैं आपश्री की सेवा में उपस्थित हो जाऊँगी। इस पर सूरिजी ने कहा-देवीजी ! शास्त्रकारों ने फरमाया है कि देव योनि में विवेक एवं ज्ञान होता है, यह सत्य है फिर भी मैंने आपको अपनी ओर से अत्यन्त कठोर शब्द कहे इसके लिये आप क्षमा प्रदान करें। साथ ही आपने जो प्रतिज्ञा की है उसके लिये धन्यवाद भी स्वीकार करें। अब से आप वीतराग जिनेश्वरदेव को भक्ति-सेवा किया करें जिससे आपके पूर्वापार्जित अशुभ कर्मों का क्षय होवे और भविष्य के लिये शुभ गति एवं सद्धर्म की प्राप्ति होवे । सूरिजी के उक्त कथन को देवी ने तथास्तु कह कर शिरोधार्य किया । पश्चात् वंदन करके अदृश्य होगई । प्रातःकाल इधर तो आचार्यश्री अपने शिष्य समुदाय के साथ प्रतिक्रमणादि क्रिया से निवृत्त हुए और उधर से व्याघ्रपुर नगर के रावगजली एवं अन्य नागरिक लोग खूब सजधज कर उत्साह के साथ भैंसे एवं बकरे की बलि को लिये हुए मन्दिर के समीप आ पहुँचे । जब आगतजन समुदायने मन्दिर में साधुओं को देखे तो उन लोगों ने कहा-महात्माजी ! आप लोग बाहिर पधार जाइये । यहां अभी हम लोग देवी को पूजा करेंगे अतः आपको इतना कष्ट देना पड़ता है। सूरिजी ने कहा-सरदारों ! आप लोग देवी के भक्त हैं और देवी की पूजा करने आये हैं पर ये भैंसे बकरे क्यों लाये हैं ? सरदार-इससे आपको क्या प्रयोजन है ? हम कहते हैं कि आप मन्दिर से बाहिर पधार जाइये। सूरिजी-जैसे आप देवी के भक्त हैं वैसे हम इन भैंसे बकरों के भी प्राण रक्षक हैं । इनको मारने तो क्या पर कष्ट पहुँचाने तक भी नहीं देवेंगे, समझे न सरदारों ? सरदार-महात्मन् ! यदि हम देवी को वल बाकुल न देखेंगे तो देवी कुपित हो हम सब को मार डालेगी। सूरिजी-यदि आपको देवी के कोप का ही भय हो तो उसका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है। आप निस्संकोचतया इन पशुओं को छोड़दें। सरदार-पर, आप पर विश्वास कैसे किया जाय ? सूरिजी-सरदारों ! मैंने देवी को उपदेश दिया और देवी ने भी प्राणिवध रूप बलि को नहीं लेने की दृढ़ प्रतिज्ञा करली है। आप भी निर्भीक होकर इन पशुओं को निर्भीक होकर अभय दान दे देवें। सूरिजी के उक्त कथन पर एक सरदार को विश्वास नहीं हुआ। उसने एक बकरे के गले में निर्दयता पूर्वक छुरा चला ही दिया । पर देवी की प्रेरणा से वह घाव बकरे के गले में न लग कर स्वयं मारने वाले सरदार के गले ही में लग गया। इस चमत्कार पूर्ण दृश्य को देख कर तो सब ही आश्चर्य चकित एवं भय भ्रान्त हो गये । अब तो सूरिजी के कहने पर सब को विश्वास होगया । आचार्यश्री ने भी तत्र उपस्थित राव गजसी आदि क्षत्रिय वग को उपदेश देकर जैन धर्स की दीक्षा से दीक्षित किया। उन्हें अहिंसा धर्म के परमोपासक बनाकर उपकेश वंश में सम्मिलित किया । उनको समझाया कि आप लोगों की कुल देवी व्याघ्र श्वरी है। देवी की पूजा भी कुंकुंम, चंदन, श्रीफल, मोदक आदि सात्विक पदार्थों से ही की जाती है न कि प्राण बध रूप विभत्स्य बलि से। इस घटना का समय वंशावली निर्माताओं ने वि० सं० १००६ का लिखा है। रावगजसी की वंशावली निम्न प्रकारेण हैसूरिजी देवी के मन्दिर में १३८१ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रावगजसी के दो रानिये थीं। एक क्षत्रिय वंश की दूसरी उपकेशवंश की। क्षत्रिय रानी से चार पुत्र हुए-१ दुर्गा २ काल्हण ३ पातो और ४ सांगो रावगजसी का पट्टधर ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा था। एक समय दुर्गा और बाघा के परस्पर तकरार होगई। आपसी कलह में दुर्गा ने बाघा को व्यङ्ग किया-तेरे में कुछ पुरुषोचित पुरुषार्थ हो तो नवीन राज्य क्यों नहीं स्थापित कर लेता ? इस ताने के मारे अपमानित हो बाघे ने व्याघ्रश्वरी देवी के मन्दिर में जाकर तीन दिवस पर्यन्त अटल ध्यान जमाया। तीसरे दिन देवी ने प्रत्यक्ष कहा-बाधा ! राज्य तो तेरे तकदीर में नहीं लिखा है, पर मैं तुझको सोने से भरे हुए सोलह चरु बतला देती हूँ। उस धन को प्राप्त करके तो तू राजा से भी अधिक नाम कर सकेगा । बाधा ने भी देवी के कथन को सहर्षे शिरोधार्य कर लिया। देवी ने भी अपने मन्दिर के पीछे भूमिस्थित १६ चरु स्वर्ण से परिपूर्ण बतला दिये । बस फिर तो था ही क्या ? बाघा ने भी रात्रि के समय उन १६ चरुओं को लाकर अपने कब्जे में कर लिया। देवो को कम से प्राप्त द्रव्य का सदुपयोग करने के निमित्त सब से पहिले बाघा ने अपने नगर के बाहिर भगवान महावीर स्वामी का ८४ देहरियों वाला एक विशाल मन्दिर बनवाया। मन्दिर के समक्ष ही धर्म ध्यान करने के लिये दो धर्मशालाएं बनवाई। इस प्रकार वह देवी से प्राप्त द्रव्य से पुण्योपार्जन करता हुआ सुख पूर्वक विचरने लगा। उसी समय प्रकृति के भीषण प्रकोप से एक महा-जन संहारक भीषण दुष्काल पड़ा । दया से परिपूर्ण उदार हृदयी बाघा ने देश भाइयों की सेवा के निमित्त करोड़ों रुपयों का दान कर स्थान २ पर मनुष्यों एवं पशुओं के लिये अन्न एवं घास की दानशालाएं उद्घटित की। एक बड़ा तालाब खुदवा कर जल कष्ट को निवारित किया । जब पांच वर्ष के अनवरत परिश्रम के पश्चात् मन्दिर का सम्पूर्ण कार्य सानन्द सम्पन्न हो गया तब आचार्यश्री देवगुप्तसूरि को बुलवा कर अत्यन्त समारोह पूर्वक मन्दिरजी की प्रतिष्ठा करवाई। आचार्यश्री का चातुर्मास करवाकर नव लक्ष द्रव्य व्यय किया । भगवती सूत्र का महोत्सव कर ज्ञानार्चना की। चातुर्मास के बाद संघ सभा कर जिन शासन की प्रभावना की व योग्य मुनियों को योग्य पदवियों प्रदान करवाई। उसी समय पवित्र तीर्थ श्रीशत्रुञ्जय की यात्रा के लिये एक विराट् संघ निकाला। संघ में सम्मिलित होने वाले स्वधर्मी बन्धुओं को पहिरावणी प्रदान करने में ही करोड़ों रुपयों का द्रव्य-व्यय किया । देवी के वरदानानुसार शा० बाघा ने केवल जैन संसार के हित के लिये ही नहीं अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये अनेक जनोपयोगी कार्य किये । अपना नाम इन शुभ कार्यों से राजाओं की अपेक्षा भी अधिक विस्तृत किया । शाह बाघा की उदारवृत्ति की धवल ज्योत्स्ना इन उस चतुर्दिक में प्रकाशित होगई । यही कारण है कि शा० बाधा की सन्तान भी भविष्य में बाधा के नाम से बाघरेचा शब्द से सम्बोधित की जाने लगी । वंशावलियों में बाघ की सन्तान परम्परा का विस्तृतोल्लेख है पर नमूने के तौर पर यहां साधार रूप में लिख दी जाती हैं तथाहि उपकेशवंश की रानी से पांच पुत्र पैदा हुए तथाहि-(१) रावल (२) माइदास ( ३ ) हर्षण (४) नागो (५) बाघो। १३८२ वाघरेचा जाति की उत्पति Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कत्रि का जीवन ] [ओसवाल सं० १३५२-१४११ शा० पायो कानो मानो नो नम्बो करमो सावत सरवण (मन्दिर बनवाया) (संघनिकाला) (क्षत्रिय पुत्री से विवाह किया) गोपाल-मन्दिर | गोपाल-मन्दिर र दूधो खेमो भोजो वीरो देवो देयाल रावल (क्षत्रियों से०) लाखो (संघ ति० यात्रा) 1 राणों देदो (महावर मन्दिर ब०) पुनड़ जोरो (संघ निकाला) (दीक्षा ली) फूसो खेतो जैतो नाथो जैमल भाणो लालो आशो (आगे वंशावली विस्तार से है ) (महोत्सव) (मन्दिर बन०) (संघ निकाला) इस प्रकार बहुत ही विस्तृत वंशावलियां हैं पर स्थानाभाव से यहां उतनी विशद नहीं लिखी जासकी। मेरे पास वर्तमान वंशावलियों के अनुसार बाघरेचा जाति के उदार नर रत्नों ने निम्न प्रकारेण देश समाज एवं धर्म के कार्य किये हैं । यथा १४२-मन्दिर, धर्मशालाएं एवं जीर्णोद्धार करवाये । ५३-बार तीर्थ यात्रा के लिये संघ निकाले। १६--बार आगम बाचना का महोत्सव किया। ७२-बार संघ को घर बुलवा कर संघ पूजा की। ६-बार दुष्काल में शत्रु कार ( दान शालाएं ) उद्घाटित की। ७-आचार्यों के पद महोत्सव किये। ५३-वीर योद्धा संग्राम में वीर गति को प्राप्त हुए। १३-वीराङ्गनाएं अपने पतियों के पीछे सतियां हुईं। इनके सिवाय भी अनेक प्रकार के धार्मिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय कार्य करके इस जाति के नर रत्नों वाघरचा जाति के सुकृत कार्य १३८३ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास द समझ ने अपनी उज्वल कीर्ति को सर्वत्र अमर बना दी । एक समय तो इस जाति को इतनी संख्या बढ़ गई थी कि कालान्तर में कई नामी पुरुषों के नाम से कई शाखाएं प्रतिशाखाएं चल निकली । जैसे-सोनी, संघवी, जालोरी, सोडा, आडूना, लेरियादि ये सब बाघरेचा जाति की ही शाखाएं हैं। वर्तमान में तो किन्हीं २ स्थानों पर इस जाति के घर दृष्टिगोचर होते हैं पर जिस समय जैनियों की संख्या करोड़ों की थी उस समय इस जाति की भी विस्तृत-संख्या थी। चढ़ती पड़ती का चक्र संसार में चलता ही रहता है। समय तेरी भी अजव गति है। आज तो इस जाति के सपूत अपने पूर्वजों के गौरव को भी भूल बैठे हैं वही पतन का कारण है। __ इस प्रकार आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने अनेक क्षत्रियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर महाजन संघ की अभिवृद्धि की । उस समय के आचार्यों का-जिसमें भी उपकेश गच्छाचार्यों का तो यह मुख्य ध्येय ही था। जिन २ नवीन क्षेत्रों में पदार्पण करना उन २ क्षेत्र निवासियों को जैनत्व के संस्कार से संस्कारित कर महाजन संघ में सम्मिलित करना तो उन्होंने अपना कर्तव्य ही बना लिया था। यही कारण था कि उस समय का जैन समाज धन, जन, कुटुम्ब परिवार, संख्यादि सब में बढ़ता हुआ था। प्राचार्यश्री ककसूरिजी म० के चमत्कार के विषय में कई उदारण मिलते हैं पर स्थानाभाव से उन सबको यहां पर स्थान नहीं दिया जा सकता है। उपरोक्त थोडे बहत उदाहरणों से ही पाठक सकेंगे कि उस समय के आचार्यों का विहार क्षेत्र बहुत विशाल था। प्राचार्य बनने के पूर्व प्राचार्य पद योग्य उन्हें कितनी योग्यताएं हासिल करनी पड़ती इसका अनुमान भी सूरीश्वरों की कार्यशैली से सहज ही लगाया जा सकता है । उनकी उपदेश शैली का जन समाज पर कितना प्रमाव पड़ता था, वे देवी देवताओं को भी कितनी निर्भीकता पूर्वक प्रतिबोध देते थे, नये जैनों को बनाकर उनके साथ किस तरह का व्यवहार रखते, सर्व साधारण जनता के लिये भी उनका हृदय कितना विशाल एवं गम्भीर था इत्यादि अनेक बातों का स्पष्टीकरण आचार्यश्री के जीवन वृत्त को पढ़ने से किया जा सकता है। उनके जीवन की मुख्य विशेषता तो यह थी कि उस समय में भी आज के समान कई गच्छ, समुदाय एवं शाखाओं के वर्तमान होने पर भी उनमें परस्पर क्लेश, कदाग्रह नहीं था। वे एक दूसरे को अपने से जघन्य सिद्ध कर जिन शासन की लघुता नहीं प्रदर्शित करते । वे तो अपने कर्तव्य-धर्म की ओर लक्ष्य कर जिन शासन की प्रभावना में ही अपने मुनित्व जीवन की सार्थकता समझते। तब ही तो वे पारस्परिक प्रेम एवं स्नेह के बल पर शासन का इतना अभ्युदय कर सके थे। आचार्यश्री ककसूरिजी ने अपने ५६ वर्ष के शासन में दक्षिण महाराष्ट्र से पूर्व दिशा के प्रान्तों पर्यन्त विहार करके लाखों मनुष्यों को मांस मदिरा का त्याग करवाया। उन्हें जैन दीक्षा से दीक्षित कर पूर्वाचार्यों के समान उपकेश वंश की वृद्धि की । अनेक तापस, सन्यासी एवं गृहस्थों को जैन दीक्षा देकर उन्हें मोक्षमार्ग के आराधक बनाये । कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवाई। देवी देवताओं के बहाने बलि दिये जाने वाले कई मूक पशुओं को अभयदान दिया। कई योग्य मुनियों को पद प्रतिष्ठित कर विविध २ प्रान्तों में विहार करवाया। आप स्वयं ने सब प्रान्तों में परिभ्रमन कर मुनियों के उत्साह को वृद्धि गत किया। इस प्रकार आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने जैन धर्म की अमूल्य सेवा की जिसको जैन समाज एक क्षण भर मी नहीं भूल सकता है। अन्त में देवी सच्चायिका के परामर्शानुसार अपनी आयु अल्प जान कर आचार्यश्री ने व्याघ्रपुर के शा० बाधा के महामहोत्सव पूर्वक उपाध्याय पद्मप्रभ को सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया । अन्त में १४ दिन के अनशन समाधि पूर्वक आचार्यश्री कक्कसूरिजी म० स्वर्ग पधार गये । आपके मृत शरीर के निर्वाण महोत्सव में शा० बाघा ने नव लक्ष द्रव्य व्यय किया । केवल चन्दन के काष्ठ से ही आपका अग्नि संस्कार किया गया। आपश्री की अग्नि संसार की रक्षा पर भी लोग इस प्रकार उमड़ पड़े कि रक्षा के अलावा भूमि में खासी खड़ पड़ गई। अहा! हा !! उस समय उन चमत्कारी, उपकारी १३८४ आचार्यश्री के अपूर्व चमत्कार Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १३५२-१४११ दीक्षा ली महात्माओं पर जनता की कैसी श्रद्धा एवं भक्ति थी ? सच कहा जाय तो उस विश्वास एवं श्रद्धा ही उनके अभ्युदय का मुख्य कारण था। चाहे सुविहित हो चाहे शिथिल चैत्यवासी हो पर परस्पर एक दूसरे की श्रद्धा न्यून नहीं करते थे वे जानते कि आज मैं दूसरों की श्रद्धा विश्वास न्यून कर दूंगा तो दूसरा मेरा विश्वास उठा देगा इससे गृहस्थ लोग श्रद्धा एवं विश्वासहीन हो जायंगे। इससे शासन एवं समाज का पतन होना निश्चय है अतः वे दीर्घदर्शी प्रत्येक व्यक्ति की प्राचार्य एवं मुनियों के लिये श्रद्धा बढ़ाया करते थे जब से मुनियों में ऐसी कुत्सित भावना पैदा हुई कि अपनी प्रशंसा, दूसरों की निंदा तब से ही समाज का पतन प्रारम्भ हुआ। क्रमशः उसने उग्र रूप धारण कर ही लिया। यों कहो तो उन भाग्यशाली पुरुषों का पुन्यबल बड़ा ही जबर्दस्त था कि उनके जरिये से जो शासन का कार्य होता वह अच्छे से अच्छा लाभप्रद ही होता था आज हमारे संकीर्ण हृदय में उस समय की विशाल बातों को स्थान नहीं मिलता हो पर वास्तव में उनके जीवन की एक एक घटना सञ्चाई को लिये हुए प्रमाणिक ही कही जा सकती है। पूज्याचार्य देव ने अपने ५६ वर्षों के शासन में मुमुक्षुओं को जैन दीक्षाएं दीं। १-रणथंभोर बाफना जाति के मोहन ने २-गोपगिरी तोडियाणी पारस ने ३-सारंगपुर समदाड़िया पुड़न ने ४-योगनीपुर छाजेड़ पेथा ने ५-ब्रह्मपुरी आय्य ६-राजपुर राखेचा गोमाने ७-नाणपुर श्रेष्टि बालु ने ८-विजयपुर चोरडिया वीरम ने १-कालेरा सचेति भोजा ने १०-लोद्रयापुर श्रीश्रीमाल तोला ने ११-दीववंदर नक्षत्र पद्मा ने १२-राजोरी गुरुड़ पर्वत ने १३-पाटली चंडालिया वाघा ने १४-बुरड़ो कंकरिया आणाने १५-दात्रीपुरा पोकरणा खेता ने १६-विजोरा देसरड़ा भैरा ने १७-नादुली कुंकुंम जैनसी ने १८-मेदिनीपुर सुघड़ १६-आमेर भुरंट मूला ने २०-संगानेर गोगला लाखण ने २१-करोखी केसरिया धीराने २२-अर्जुनपुरी आखा ने २३-भाभेसर प्राग्वट २४-विराटपुर आदू ने सूरीश्वरजी के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ १३८५ मलुका ने डिडू भाला ने Jain Education ernational १७४ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं. ९५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास परमा ने २५-कोरंटपुर प्राग्वट जाति के नारा ने दीक्षा ली २६-वीरपुर झाला ने २७-कीरादपुर वरधा ने २८-प्रल्हादनपुर अमारा ने २६-ढेलडिया नागजी ने ३०-पुनासरी श्रीमाल सहजा ने ३१-चोकड़ी तोड़ा ने ३२-मादलपुर गुणाढ़ ने ३३-तीतरी पारख भीमा ने ३४-डामरेल काग मेधा ने ३५-गोसलपुर बोगड़ा रूपा ने ३६-भरोंच गांधी गोरा ने ३७-सोपार बोहरा . माना ने ३८-कांकाणी कुम्मट दुर्गा ३६-झमाग्राम चोरड़िया इनके अलावा अन्य प्रान्तों में तथा पुरुषों के साथ बहिनों ने भी बड़ी संख्या में सूरिजी के शासन में आत्म कल्याण के उद्देश्य से भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की थी जब कि आचार्य देव ने ५६ वर्ष जितना दीर्घ समय सर्वत्र भ्रमन किया आपका उपदेश भी प्रायः त्याग वैराग्य और आत्म कल्याण को लक्ष में रखकर ही हुआ करता था दूसरे उस जमाने के जीव भी हलुकर्मी होते थे कि उनको उपदेश भी शीघ्र लग जाता था। आचार्य श्री के ५६ वर्षों के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं १-नंदपुर के श्रेष्टि जाति के सहदेव ने भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर की प्र० २-रनपुर पुरा ने ३-राजपुर के संघवी लाल ने महावीर ४-दान्तिपुर के प्राय , जोधा ने ५--बेनातट श्रीश्रीमाल जसा ने ६-बीसलपुर के गांधी जेहल ने স্থানীশ্বৰ ७-शंखपुर के ८-ऊचकोट के अग्रवाल पोमा ने ह-रेणुकोट के कल्हण ने नेमिनाथ १०-वडियार करणावट ,, भोपाल ने शान्तिनाथ ११-तीतरी देसरडा , सज्जन ने महावीर १२-वीरपुर विनायकिया,, मुंझल ने १३-गोसलपुर के मालगढ़ा, रामपाल ने १४-भद्रावती के गणपत ने १५-खीखरी के बोहथ ने पाश्वनाथ १६--मधुपुरी के प्राग्वट , खेतसी १३८६ सूरीश्वरजी के शासब में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ Jain Education international राखेचा डुगर ने रांका श्रीमाल, For Private & Personal use only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कत्रि का जीवन ] [ओसवाल सं० १३६२-१४११ कूपा ने नक्षत्र नेमिनाथ १७-जुरोरी के प्राग्वट जाति के चणोट ने । भगवान् पार्श्वनाथ मन्दिर की प्र० १८-वर्धमानपुर के १६-खेटकपुर के हडाउने २०-करणावती के जावड ने २१-चन्द्रावती के गुणधर , अजित ने धर्मनाथ १२-कुन्तिनगरी के सांढा ने विमलनाथ १३-चंदेरी के गुरुड , लाखा ने पाश्वनाथ १४-हर्षपुर के चोरडिया, समधर ने ५-भवानीपुर के पोकरणा, भाला ने सीमंधर १६--नागपुर के प्राग्वट भोपाल ने पदमनाथ १७-उपकेशपुर के मणण ने आदिनाथ ८-नारदपुरी के माला ने. -सीतलपुर के रूघा ने -सोजलपुर के जावड़ ने मल्लिनाथ १-सीसरी माडा ने पार्श्वनाथ सावंत ने ३-धोलपुर के ,, ठाकुरसी ने महावीर , पूज्याचार्य श्री के ५६ वर्षों के शासन में तीर्थ यात्रार्थ संघादि शुभ कार्य १-खटप के श्रेष्टि जाति के सिहक ने शत्रुसय तीर्थ की यात्रार्थ संघ २–पालिका के तातेड़ पूंजा ने ३-नारदपुरी के संचेति ४-चन्द्रावती प्राग्वट कर्मा ने ५-नागपुर चोरलिया श्रादू ने ६-डमरेल पोषीवाल अर्जुन ने ७-मथुरा पारख देवड़ा ने सम्मेत शिखरजी की यात्रार्थ संघ -चन्द्रपुरी के छाजेड़ पोलाक ने शत्रुञ्जय की यात्रार्थ संघ ६-श्रामापुरी के मल्ल गुणाढ़ ने सम्मेत शिखरजी की यात्रार्थ संघ -पद्मावती प्राग्वट फूसा ने शत्रुक्षय की यात्रार्थ संघ निकाला १-स्थम्मनपुर श्रीमाल रामाने , २-बटपुर श्रीमाल मरवण ने , ३-रूपनगर के राखेचा साखना ने ,, ४-विजयपुर के नक्षत्र ५-हस्तीकून्ट के हथुडिया ६-काकपुर के कलावत माडा ने , -शाकम्मरी के लघुश्रेष्टि राजसी ने 7-उपकेशपुर के कुम्मट शाह नारा ने दुकाल में अन्न वस्त्र घास दिया परीश्वरजी के शासन में संघादि शुभ कार्य १३८७ am.janelibrary.org पारस ने भोजा ने मादू ने , " Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ६५२-१०११ ] १६ पाल्हिका के २० - शाकम्भरी के के २१ - नारदपुरी २२ - विजयपद्दन के के २३- क्षत्रिपुर २४ - चर्पटनगर २५- पद्मावती के २६- नागपुर २७ - गोदांगी २८ -- उपकेशपुर के के २६ -- कलिरा के के के ३० - लोद्रवा ३१ - चन्दावती के बाफणा जाति के राका प्राग्वट पोकरण छाजेड़ भटेवड़ा " प्राग्वटवंश के, 59 १३८८ " "" " 12 [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शाह नागदेव ने दुकाल में अन्न वस्त्र घास दिया देवपाल ने पोमल ने 37 35 33 लाख की पत्नी जैती ने तालाब खुदवाया । बाकी विधवा पुत्री सुन्दर ने एक वापि बंधाई । राजी ने तालाब बनवाया । श्रेष्ट वीर समरथ राखेचा वीर ठाकुरसी समदडिया वीर रुघवीर प्राग्वट वीर रोडा "" "" 23 "" 55 33 99 *"" "" "" लाला की कोला की माता ने घाट बन्ध तालाब बंधाया । कनोजिया वीर वीरम युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई । कामदार वीर रणजीत 35 99 "" 39 "" 33 35 35 "" 33 33 33 39 39 " "" "" 33 " 55 39 "" इनके अलावा भी सूरीश्वरजी के शासन में अनेक महानुभावों ने अपनी न्यायोपार्जित चंचल लक्ष्मी को देश समाज एवं धर्म के हित व्यय करके कल्याणकारी पुन्य जमा किया उसमें जैसे आचार्यों का उपदेश था वैसे ही भावुक लोग सरल हृदय और भव भीरू थे कि ऐसे पुनीत कार्य में पीछे नहीं पर सदैव आगे पैर बढ़ाते ही रहते थे । "" पट्ट पैंतालीस कक्कसूरीन्द्र आर्य्यगौत्र ऊजागर थे, चन्द्र समान शीतलता जिनकी जैनधर्म प्रचारक थे 1 वीर वाणि उपदेशामृत से भव्यों का उद्धार किया, प्रतिष्ठा श्री दीक्षा देकर शासन का उद्योत किया ॥ इतिश्री भगवान् पार्श्वनाथ के पैंतालीसवें पट्टधर कक्कसूरि नाम के महा प्रतिभाशाली आचार्य हुए। सूरीश्वरजी * www.jalnelibrary.org Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४११-१४३३ ४६-आचार्यश्री देवगुप्तसूरि (१०वाँ) सूरिश्वोरडिया प्रधान पुरुषो गुप्तोत्तरो देवमाक् । शिष्यान् स्वान् स विहार माज्ञपितवान् प्रान्तेषु सर्वेषु च ॥ जित्वा वादीजनामनेक गणना संख्यापितान् सुव्रती । शिष्याँस्ताँग्ध विधाय कीर्ति लतिकामास्तीर्णवान् भूतले ॥ न रम पूजनीय आचार्यश्री देवगुप्त सूरिश्वरजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली, उग्र विहारी, सुविहित शिरोमणि, प्रखर विद्वान , सफल वाङ्गमय साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित, जिनशासन के प्रखर प्रचारक आचार्य हुए। आप दशपुर नगर के आदित्य नाग गौत्रीय चोरड़िया शाखा के मंत्री सारङ्ग की पतिधर्म परायण, परम सुशीला, गृहिणी रत्नी के होनहार लाडिले पुत्र थे ! आपके जन्म के समय मन्त्री सारङ्ग ने महोत्सव मात्र में ही एक लक्ष द्रव्य व्यय किया था। कारण, आपके पूर्व इनके कोई भी सन्तान नहीं थी । अतः पुत्रोत्सव के अपूर्वोत्साह में इतने रुपये व्यय करना भी नैसर्गिक ही था। माता रत्री की कुक्षि में जब एक पुण्यशाली जीव श्रावतरित हुआ तब अर्धनिशा में उसने षोड़शकला से परिपूर्ण चंद्र का स्वप्न देखा । जन्म महोत्सवानन्तर पूर्वदृष्ट स्वशानुवत् पुत्र का नाम भी चन्दकुंवर ही रख दिया। मन्त्री सारङ्ग पहिले से ही अपार सम्पत्ति का धनी धन वेश्रमण था पर चन्द्र के जन्म के पश्चात् तो उसके घर में हरएक प्रकार की ऋद्धि सिद्धि लहराने लगी । इकलौते पुत्र का पालन पोषण भी बहुत ही लाड़ प्यार से होने लगा । जब क्रमशः चंद २-३ वर्ष का हुआ तब तो उसकी तुतलाती हुई मधुर वाणी ने केवल माता पिताओं के ही मन को नहीं अपितु हर एक दर्शक के हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। कौटम्बिक पारवारिक लोगों के लिये तो चक्षवत अ लम्बन भूत व दीर्घ कालीन चिन्ता शोक के शमन के लिये शान्ति मन्त्र सिद्ध हुआ। गार्हस्थ्य जीवन की जटिल समस्याओं में उलझा हुआ उद्विग्न खिन्न हृदय व्यक्ति भी चन्द की तोतली वाणी को श्रवण कर चिन्ता मुक्त हो जाता । इस तरह हरएक व्यक्ति को हर्षित एवम् प्रमुदित करने वाला चन्द, द्वितीया के चन्द्र की भांति हर एक बातों में बढ़ने लगा। जब चन्द की वय विद्या पठन योग्य हुई तब सारङ्ग ने चन्द के लिये धार्मिक, व्यापारिक, राजनैतिक आदि हरएक विषय में सविशेषानुभव पूर्ण परिपक्कता प्राप्त करने के लिये योग्य साधनोंको उपलब्ध कर दिया। कुशाग्रमति चंद भी शिशु अवस्थोचित बाल चापल्य में यौवन-गाम्भीर्य को प्रकट करता हुआ एकाग्र चित्त से पठन कार्य में संलग्न हो गया। इधर चंद की माता रत्री ने भी चन्द के पश्चात् क्रमशः चार पुत्र एवं तीन पुत्रियों को जन्म देकर अपने स्त्री जीवन को सफल बनाया । चारों पुत्रों के नाम-सूगो, गोरख, अमरो और लालो तथा पुत्रियों के नाम पाँची, सरजू, वरज निष्पन्न कर दिये। जब चंद की वय सोलह वर्ष की होगई तब तो उसने आवश्यक विद्या एवं कलाओं में भी पूर्ण निपुणता प्राप्त करली। अब सो रह रह कर सारङ्ग के पास बड़े बड़े उच्च घरानों के चंद के लिये विवाह के प्रस्ताव आने लगे। इतना होने पर भी मन्त्री सारङ्ग की आन्तरिक अभिलाषा चन्द की परिपक्कावस्था ( २५ वर्ष की वय) में विवाह करने की थी चंद भी पिता के इन दूरदर्शिता पूर्ण विचारों में सहमत था पर माता रत्नी को इन दोनों के उक्त विचार रुचिकर नहीं ज्ञात हुए । वह तो नव दशपुर नगर का मन्त्री सारङ्ग १३८६ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०११-१०३३] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वधू को गृहागत देखने के लिये तीन उस्कण्ठित एवं लालायित थी। आखिर माता के अत्याग्रह से चन्द का विवाह २१ वर्ष की वय में श्रेमिकुलोत्पल शाह देवा की पुत्री मालती से होगया । जैसे चंद सब विद्याओं का निधान था वैसे मालती भी स्त्रियोचित सब कार्यों में प्रवीण थी। दोनों पति पत्नियों में परस्पर रूप एवं गुणों की अनुकूलता होने के कारण उनका दाम्पत्य जीवन बहुत ही प्रेम एवं शान्ति पूर्वक व्यतीत हो रहा था। चन्द अपने माता पिताओं की सेवा चाकरी विनय करने में अग्रेश्वर था वैसे मालती भी विनयशील लज्जाशील एवं गृहकार्य में कुशल थी। चंद और मालती के गार्हस्थ्य सुख के सामने स्वर्ग के अनुपम सुख भी नहीं के बराबर थे, ऐसा लिखना भी कोई अत्युक्तिपूर्ण न होगा। मन्त्री सारङ्ग का घराना शुरु से ही जैनधर्मोपासक था। माता रत्नी नित्य नियम और षट्कर्म करने में सदैव तत्पर रहती थी। सारङ्ग के पिता अर्जुन ने भी दशपुर में एक मन्दिर बनवाया था। सारङ्ग ने तो अपने घर देरासर बनवा कर स्फटिक की प्रतिमा स्थापन करवाई थी। शत्रुञ्जय गिरनारादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाले थे। स्वधमी बन्धुओं को स्वामीवात्सल्य के साथ एक २ स्वर्ण मुद्रिका व बदिया वस्त्रों की प्रभावना दी। इस प्रकार अन्य बहुत से शुभकार्यों में खूब उदारवृत्ति से द्रव्य व्यय कर अनन्त पुण्योपार्जन किया। सारङ्ग के बाद मन्त्री पद चंद को मिला। चंद अमात्यावस्था में चंद्रसेन के नाम से प्रसिद्ध हुए । जमाने की गति विधि को देख मन्त्री चन्द्रसेन दे अपने लघु भ्राताओं को व्यापार में जोड़ दिये जिससे अन्य भाई स्वरुचि के अनुकूल व्यापारिक क्षेत्र में लग गये । मन्त्री सारङ्ग का परिवार वंशावली रचयिताओं ने इस प्रकार लिखा है-- मन्त्री अर्जुन सारंग संगण सामन्त दलो पेथो झंजो . गोपो धनो होनो मेरो राजसी चदा सूजी गोरख अमर लाला ( इन चारों का बहुन परिवार है) धर्मसी नेतसी जीवण जोथो मन्त्री चंद्रसेन जैसे पारिवारिक सुख से सम्पन्न थे वैसे लक्ष्मीदेवी के भी कृपा पात्र थे। चंद्रसेन ने भी शत्रुखयादि तीर्थों का संघ निकाल कर स्वधर्मी भाइयों को खूब उदार वृत्ति से प्रभावना दी। याचकों को भी पुष्कल (मन-इप्सित) द्रव्य प्रदान कर संतुष्ट किया जिससे आपकी सुयश ज्योत्स्ना चारों ओर छिटकने लगी। एक समय आचार्यश्री ककसूरिजी महा० क्रमशः विहार करते हुए दशपुर में पधारे श्रीसंघ ने आपका शानदार स्वागत किया । मन्त्री चंद्रसेन ने नगर प्रवेश महोत्सव एवं प्रभावना में सवालक्ष द्रव्य व्यय किया । १३४० मन्त्री अर्जुन का वंशवृक्ष Jain Education Tnternational Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४११-१४३३ नगर के प्रवेश के पश्चात् स्थानीय मन्दिरों के दर्शन कर आपश्री ने प्राथमिक माङ्गलिक देशना प्रारम्भ की। इस तरह आपने अपना व्याख्यान क्रम प्रतिदिन की भांति यहां पर भी प्रारम्भ रक्खा। सूरिजी स्वयं बड़े ही त्यागी वैरागी एवं गुणानुरागी थे अतः आपश्री के व्याख्यान में भी वही रंग बरसता था। जिस समय या संसार की असारता त्याग की उपादेयता एवं आत्म कल्याण की आवश्यकता पर विवेचन करते थे तब लघु कर्मी जीवों का हृदय गद्गद् हो जाता था। उन्हें संसार के प्रति उदासीनता एवं पुद्विग्नता के वैराग्योत्पादक भाव पैदा हो जाते थे। वे आचार्यश्री के व्याख्यान के आधार पर इन विचारों में निमग्न हो जाते कि-मनुष्य भवयोग्य सुदुष्कर उत्तम साधनों के मिलने पर भी उनका यथावत् सदुपयोग नहीं किया तो भविष्य के लिये ये ही साधन व्यर्थ किंवा पश्चाताप के हेतु हो जावेंगे। उन्ही विचारशील मेधावियों में मन्त्री चन्द्रसेन भी एक था। मन्त्री ने खूब तर्क वितर्क एवं मानसिक कल्पनाओं से आत्मा को काल्पनिक सन्तोष देना चाहा पर अन्त में आचार्यश्री के गम्भीर उपदेश से वह इसी निर्णय पर पहुँचा कि-सांसारिक प्रपञ्चों से सर्वथा विमुक्त होकर सूरीश्वरजी की सेवा में भगवती दीक्षा स्वीकार करना ही भविष्य के लिये हितकर है। वास्तव में-"बुद्धिफल तत्व विचारणंच" मनुष्य सम्यग्दृष्टि पूर्वक आत्म शान्ति के अमोघ उपाय की गवेषणा करे तो उसे यथा सम्भव शीघ्र ही यथा साध्य सुगम मार्ग मिल ही जाता है। बस, मन्त्री चद्रसेन ने भी अपने कुटुम्ब को एकत्रित कर कह दिया-अब मेरो इच्छा संसार को तिलाञ्जली देकर दीक्षा लेने की है। यदि अन्य किसी को भी आत्मकल्याण सम्पादन करने की उत्कृष्ट भावना हो तो वह शीघ्र ही मेरे साथ तैयार होजाय । मंत्री के एक दम सूखे वचन श्रवण कर सकन परिवार के लोग निराशा सागर में गोते खाने लगे। चारों ओर इन वैराग्योत्पादक वचनों से करुण आक्रंदम मचगया। मंत्री के परिवार वालों में से कोई भी यह नहीं चाहता था कि हमारे सिर के छत्ररूप चन्द्रसेन हमको इस प्रकार यकायक छोड़कर चारित्र वृत्ति स्वीकार करलें । वे तो उनसे तमाम जिन्दगी मुफ्त में काम लेना चाहते थे। पर मंत्री कोई नादान बालक या किसी के बहकावे में आया हुअा नहीं था। उसने तो आत्म स्वरूप को विचार करके ही आत्मिक उन्नत परिणामों के आधार संसार को तिलाञ्जली देने का ( चारित्रवृत्ति लेने का) विचार किया था, अतः किसी प्रकार से सांसरिक-प्रापञ्चिक स्वरूप को समझाकर अपने परिवार वालों से दीक्षा के लिये सहर्ष आज्ञा प्राप्त करली । जब यह खबर नगर के घर घर पहुँच गई तब तो आपके अनुकरण रूप में १७ पुरुष व आठ महिलाएं और भी तैय्यार होगई। चंद्रसेन के पुत्र धर्मसी ने अपने पितादि की दीक्षा के महोत्सव में सवालक्ष से भी अधिक द्रव्य व्यय कर शासन की खूब प्रभावना की प्राचार्यश्री ने भी उक्त २६ मुमुक्षुओं को भगवती दीक्षा देकर उनका आत्मोद्धार किया। क्रमशः मंत्री चंद्रसेन का नाम दीक्षानंतर मुनि पद्यत्रभ रख दिया। मुनि पद्मप्रभ ऐसे तो पहिले से ही विचक्षम मतिवान् कुशाग्र बुद्धि वाला था। उसने सांसारिक अवस्था में रहते हुए भी व्यवाहारिक एवं धार्मिक विद्याओं में निपुणता प्राप्त करली थी फिर सूरिजी म० की अनुपम कृपादृष्टि और स्थविरों की विनय, वैयावृत्य रूप श्रद्धा पूर्ण भक्ति से उसने अल्प समय में ही वर्तमान साहित्य, आगम, न्याय, व्याकरण, कोष, काव्यादि सकल तत् समयोपयोगी विषयों में भी अनन्यता हस्तगत करली । क्रमशः आचार्यश्री की सेवा में रहते हुए आचार्य पद के सम्पूर्ण गुण भी प्राप्त कर लिये । आचार्यश्री ने पद्मप्रभ मुनि को अपने पट्ट के लिये सर्वथा योग्य समझ कर गुरु परम्परा से आई हुई विद्या, मन्त्र एवं आम्नायों को पद्मप्रभ मुनि को प्रदान करदी। विनयवान् पद्मप्रभ मुनि ने भी ३३ वर्ष पर्यन्त गुरुदेव श्री की सेवा में रह कर सूरिजी म० की बहुत श्रद्धा पूर्ण सेवा की फिर ऐसे विनयशील शिष्य के लिये गुरु कृपा से कौनसी बात ढसाध्य रह सकती है? __पहिले के प्राचार्यों का प्रभाव एवं चमत्कार बढ़ाने के मुख्य कारण भी उनके जीवन के प्रमुख अङ्ग विनय गुण, नम्रता एवं लघुता ही हैं । वे प्रखर प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् एवं सर्वगुग्म सम्पन्न होकर भी मान या मन्त्री चन्द्रसेन की दीक्षा : १३88 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०१०११-१०३३] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास wwwmannarrornwww. mm कीर्ति की कुत्सित, भविष्य के हित की घातक आकांक्षा से गुरुकुल बास से दूर नहीं रहना चाहते थे। वे तो गुरुकुल में रह कर यात्मिक गुणों की उन्नति करने में ही अपने को भाग्यशाली एवं गौरवशील समझते थे। इसके विपरीत आज का शिष्य समुदाय लाधारण मारवाड़ी जनता या शाखानमिज्ञ मनुष्यों का मनरंजित करने के लिये कलमूत्र ( इसका भी साङ्गोपाङ्ग पूर्ण मर्मज्ञता के साथ अध्ययन नहीं) एवं श्रीपाल चरित्र पढ़ कर व्याख्यान बांचने में ही अापने ज्ञान यान की इतिश्री समझ लेता है या अपने आपको इतने में ही कृतकृत्य बना लेता है। इतने से अध्ययन के पश्चात् तो गुरु से अलग रह कर अलग विचरने में ही अपने को सौभाग्यलाशी समझता है । इसी अविवेकला एवं मिथ्याभिमान के कारण योग्यता उनसे हजार हाथ दूर भागती है। इससेतो वे अपना भनाकर सकते हैं और न किसी दलर का कल्याग ही। इतना ही क्या पर, यह देखादेखी रूप चेपी रोग के सर्वत्र फैल जाने के कारण वर्तमान में हमारे आचार्य नाम धराने वाले कई हुजन श्राचार्यों के विद्यमान होने पर भी शत्रुञ्जय जैसे पवित्र तीर्थ के साठ हजार रुपये प्रति वर्ष करके देने पड़ते हैं. कारण आज के प्राचार्य केवल जाममात्र के ही हैं। उनमें कोई विशेष चमत्कार या दसरों पर स्थायी प्रभाव डालने वाली अलौकिक शक्ति नहीं है। हमारे चरित्र नायक मुनि पद्मप्रभ को सूरिजी ने उनकी योग्यतानुसार पण्डित, वाचनाचार्य और उपाध्याय पद से भूपित किया और अन्तिम समय में तो आचार्य ककसूरि ने व्याघ्रपुर नगर के शाह बाधा के महा महोत्सव पूर्वक सूरि पद प्रदान कर आपका नाम आचार्य देवगुप्त सूरि रख दिया। श्राचार्य देवगुप्त सूरि जैन संसार में एक महा प्रभावक आचार्य हुए। आपको विद्वत्ता के सामने कई वादी सदा ही नत मस्तक रहते थे। आप अपने पूर्वजों के आदर्शानुसार प्रत्येक प्रान्त में विहार कर धर्मोद्योत करने में संलग्न थे। आपके आदेशानुसार विविध २ प्रान्तों में विचरण करने वाले आपके आज्ञानुयायी हजारों साधु साध्वियों की समुचित व्यवस्था का सम्पूर्ण भार आपश्री पर था। यही कारण था कि, उस समय आचार्य पद एक उत्तरदायित्व पूर्ण एवं महत्व पूर्ण पद समझा जाता था। वर्तमान कालानुसार हरएक को (चाहे वह सूरि पद के योग्य न भी हो ) सूरि नहीं बना दिया जाता था। प्राचार्यश्री के विहार क्षेत्र की विशालता के लिये पट्टावलियों एवं वंशावलियों में बहुत ही विस्तारपूर्वक उल्लेख है । मरुधर, लाट, कोकन, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्ध, पञ्जाब, कुरु, कुणाल, बिहार, पूर्वकलिङ्ग, शूरसेन, मत्स्य, बुन्देलखण्ड, चेही आवन्तिका, मेदपाट और मरुधरादि विविध २ प्रदेशों में आपका सतत विझर होता ही रहता था। आपने इन क्षेत्रों में परिभ्रमन कर धर्म प्रचार भी खून बढ़ाया। आचार्य देव गुप्त सूरि विहार करके एक समय पावागढ़ की ओर पधार रहे थे। इधर प्रतिहार राव लाधा अपने साथियों के साथ मृगया यानि जीव वध रूप शिकार करने को जा रहा था। मार्ग में आचार्य श्री एवं राव लाया दोनों की परस्पर भेंट हो गई। सूरिजी ने उनको अहिंसाधर्म का तात्विक उपदेश देकर जैनधर्मानुयायी बना लिया । परम्परानुसार उनको उपके शवंश में सम्मिलित कर उपकेशवंश का गौरव बढ़ाया। इस घटना का समय पट्टावलीकारों ने विक्रमी सं० १०२६ का लिखा है। राव लाया की वंश-परम्परावंशावली के आधार पर निम्न प्रकारेण है। winnrv १३९२ रिजी का विहार और राव लाधा की मेट Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवान सं० १३५२-१४११ राव जाधो चूंडा चोपो रोड़ो र हारो पुरा नादो गोपी (म० मं०) (इन सबों का परिवार वंशावली में बहुत विस्तृत है) (शत्रुज्जय का संघ) लाखण सांगण करमण (पावा में मंदिर) रावण पातो (शत्रुञ्जय का संघ) दुल्लो दुर्गो धर्मसी दोलो ___दुल्ला ने गुंद का बहुत ही जोरदार व्यापार किया इससे आपकी सन्तान गुंदेचा नाम से प्रसिद्ध हुई। राव दुल्ला ने श्री शत्रुञ्जय का बहुत ही बड़ा संघ निकाला था और स्वधर्मी भाइयों को स्वर्ण मुद्रिकादि की प्रभावना व याचकों को पुष्कल दान दिया था जिससे आपकी कीर्ति चतुर्दिक में प्रसरित होगई थी। इस गुंदेचा जाति की एक समय बहुत ही उन्नति हुई थी। गुंदेचा जात्युत्पन्न महानुभावों में बहुत से तो ऐसे महापुरुष पैदा हुए कि जिनके नाम की अनेक प्रकार की जातियां शाखाएं एवं प्रशाखाएं होगई। उदाहरणार्थ-गंगोलिया वागोणी, मच्छा, गुदगुदा, रामानिया, धामावत् इत्यादि अनेक शाखाएं गुंदेचा गोत्र की ही हैं । इस जाति की वंशावलियाँ बहुत विस्तृत है तथापि इस जाति के नरपुङ्गवों से किये गये कार्यों का टोटल वंशावलियों के आधार पर निम्न प्रकारेण है १०६ जैन मन्दिर, धर्मशालाएं एवं जीर्णोद्धार करवाये । २४ बार यात्रार्थ तीर्थों के संघ निकाले । ५२ बार संघ को अपने घर बुलाकर संघ पूजा की। ५ बार जैनागम लिखवा कर ज्ञान भण्डार में स्थापित करवाये । १३ वीर संग्राम में वीरता पूर्णक वीर गति को प्राप्त हुए। ६ वीराङ्गनाएं पतिदेव के पीछे सती हुई। इत्यादि अनेक पुण्योपार्जन के कार्य कर जैन धर्म की उन्नति एवं प्रभावना की। इस जाति की कुछ वंशावलियां विक्रम सं० १०२६ से १६०६ तक की लिखी हुई मुझे प्राप्त हुई हैं; उन्हीं के आधार पर इस जाति के महापुरुषों के द्वारा किये गये कार्यों के आंकड़े लिखे हैं। दूसरी तो न जाने कितनी वंशावलियां और होंगी ? इस जाति के महानुभावों को अपने पूर्वजों के इतिहास को एकत्रित कर जन समाज के सम्मुख रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। इस प्रकार आचार्य देवगुप्तसूरि ने भू भ्रमन कर अनेकों मांस मदिरादि कुव्यसन सेवियों को प्रतिराव लाधा का वंशवृक्ष १३४३ www.gamelibrary.org Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास बोध देकर अाद्विसाधर्मोपासक-जिनधनानुयायी बनाये। उन्हें उपकेश वंश में सम्मिलित कर पूर्वाचार्यों के आदर्शानुसार उपकेश वंश की वृद्धि की। यह कार्य तो आपके पूर्वजों से अनवरत गति पूर्वक चलग ही आ रहा था। - आर्यनी देवगुप्रसूरि का शिष्य समुदाय भी खूब विशाल संख्या में था! वे जिस किसी क्षेत्र में जाते; नये जैन बनाकर अपनी चमत्कार पूर्ण शक्ति का एवं प्रभाविकता का परिचय दे ही दते थे। एक समय प्राचार्यश्री देवगुपसूरिजी म० शिवगढ़, दाबलीपुर, भिन्नमाल, सत्यपुर, कोरंटपुर, शिवपुरी इत्यादि नगरों में धर्म प्रचार करते हुए चंद्रावती पधारे । तत्रस्थ श्रीसंघ ने आपका बड़ा ही शानदार स्वागत किया। सूरिजी ने अपनी वैराग्योत्पादि का व्याख्यान धारा चन्द्रावती में भी नित्य नियमानुसार प्रारम्भ रक्खी। त्याग, वैराग्य एवं आत्म कल्याण विषयक प्रभावोत्पादक व्याख्यानों को श्रवण कर संसारोद्विग्न कई भावुक संसार से विरक्त हो गये । प्राग्वट वंशीय शाह भूता ने जो अपार सम्पत्ति का स्वामी था; जिसके भाणा, राणा, खेमा और नेमा नाम के चार पुत्रादि विशाल परिवार था-स्त्री के देहान्त हो जाने से आत्म कल्याण करना ही अपना ध्येय बना लिया था। श्रीशत्रुशय का एक विराट् संघ निकाल कर पवित्र तीर्थाधिराज की शीतल छाया में दीक्षित होने का उसने मनोगत दृढ़ संकल्प कर लिया। अपने साथ ही अपने आत्म-कल्याण की उत्कट भावना वाले भावुक व्यक्तियों को भी दीक्षा के लिये तैयार कर लिये। उक्त मनोगत विचारों की दृढ़ता होने पर श्री संघ के शा. भूता ने सूरिजी से चातुर्मास की प्रार्थना की। सूरिजी ने भी लाभ का कारण जान चातुर्मास चन्द्रावती में ही कर दिया। बस फिर तो था ही क्या ? नगर निवासियों का उत्साह खूब ही बढ़ गया। शाह भूता ने भी आचार्यश्री एवं चतुर्विध श्रीसंघ का आदेश लेकर संघ के लिये आवश्यक तैय्यारियाँ करना प्रारम्भ कर दी । समयानुसार खून दूर २ आमन्त्रण पत्रिकाएँ एवं मुनियों की प्रार्थना के लिये योग्य मनुष्यों को भेज दिये । उनको अपने द्रव्य का शुभ कार्यों में सदुपयोग कर दीक्षा द्वारा आत्म कल्याण करना था अतः किसी भी तरह के शुभ कार्य में विलम्ब करना उचित न समझा। शाह भूता के पुत्र भी इतने विनयवान एवं आज्ञा पालक थे कि उन्होंने अपने पिताश्री के इस कार्य में किञ्चिन्मात्र भी विघ्न उपस्थित नहीं किया। वे सब एकमत सेठजी के इस कार्य में सहमत थे। वे इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि जनकोपार्जित द्रव्य पर किञ्चित भी हमारा अधिकार नहीं: फिर इस धर्म कार्य में द्रव्य का सदपयोग तो मानव जीवन के लिये उभयतः श्रेयस्कर ही है । अहा ! वह कैसा स्वावलम्बन का पवित्र समय था कि सब लोग अपने भाग्य पर विश्वास रखते थे। वे दूसरे की आशा पर जीना (चाहे अपना पिता ही क्यों न हो) कृतघ्नता समझते थे। चातुर्मास समाप्त होते ही मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी के शुभ दिवस आचार्यश्री ने शाह भूता को संघपति पद अर्पण कर संघ को शत्रुञ्जय यात्रार्थ प्रस्थान करवा दिया । चार दिवस पर्यन्त नगर के बाहिर ठहर कर मौन एकादशी की आराधना चन्द्रावती में ही अत्यन्त समारोह पूर्वक की । बाद शुभ शकुनों से रवाना हो मार्ग के मन्दिरों के दर्शन करते हुए पवित्र तीर्थराज की स्पर्शना की। आठ दिवस पर्यन्त अष्टान्डिका-महोत्सव, पूजा, प्रभावना, स्वधर्मी वात्सल्यादि धार्मिक कृत्य कर संघपति भूता ने संघ में आगत स्वधर्मी बन्धुओं को स्वर्ण मुद्रिका के साथ मोदक एवं अमूल्य वस्त्रादि वस्तुओं की प्रभावना दी। अपने पुत्रों की अनुमति ले आपने १० साथियों के साथ सूरिजी के कर कमलों से दीक्षा स्वीकार को । सूरिजी ने भूता का नाम विनय रुचि रख दिया । दीक्षा के माङ्गलिक कार्य के पश्चात् प्राचार्यश्री वहां से विहार कर कच्छ, सिन्ध, आदि प्रान्तों में परिभ्रमः करते हुए पञ्जाब प्रदेश में पधार गये। इधर नव दीक्षित मुनि विनयरूचि को ज्ञानावरणीय कर्म के प्रगाढ़ोदय से बहुत परिश्रम करने पर ज्ञान नहीं आ सका। उनकी बुद्धि इतनी कुण्ठित थी कि वे जिस पाठ को दिन को रट रट कर कण्ठस्थ करते थे रात्रि १३६४ संघपति भूता के निकाला तीर्थों का संघ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवगुप्तरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १३५२-१४११ में वह अपने आप ही विस्मृत हो जाता था। परिणाम स्वरूप मुनि विनयरुचि ने बारह मास में प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रियाएं भी बड़ी कठिनाइयों से सीखीं फिर अधिक की तो आशा ही क्या की जासकती है ? इतना सब प्रकृति का प्राकृतिक कोप होते हुए भी मुनि विनयरुचि ज्ञान ध्यान से हताश नहीं हुआ। उन्होंने तो अहर्निश नियमानुसार कटाकट क्रिया एव कण्ठ शोषन प्रारम्भ ही रक्खा । तीब्र स्वर से पाठोच्चारण कर घोखने के नित्य क्रम से समीप में शयन करने वाले मुनियों को निद्रा भी नहीं आने लगी। अतः एक साधु ने रोज की कटाकटी से उद्विग्न हो अधीरता पूर्वक व्यङ्ग किया-मुनिजी! आप रात दिन इस प्रकार का कण्ठ शोषन कर ज्ञानाध्ययन करते हो तो क्या किसी राजा को प्रतिबोध देकर जिनशासन का उद्योत करोगे ? मुनि विनयरुचि ने उक्त मुनिश्री के उक्त व्यङ्ग का शान्ति एवं नम्रता पूर्वक प्रत्युत्तर दिया-पूज्य-मुनिजी ! मैं तो एक साधारण साधु हूँ। मेरी तो शक्ति ही क्या ? पर आपश्री जैसे मुनि पुङ्गवों के शुभाशीर्वाद से यह कार्य भी कोई सर्वथा असम्भव नहीं है । मुनि विनयरुचि के हृदय में ज्ञान पढ़ने की तीब्र उत्कण्ठा तो पहिले से ही थी पर अब तो मुनिश्री के उक्त कटाक्ष पूर्ण व्यङ्ग से राजा को प्रतिबोध देने की भावना ने भी जन्म ले लिया। ___ एक दिन रात्रि के समय मुनि विनयरुचि प्राचार्य देव की सेवा में बैठे हुए ज्ञान ध्यान कर रहे थे कि ज्ञान नचढ़ने के कारण अचानक सूरीश्वरजी से पूछा भगवन् ! मैंने पूर्वजन्म में ऐसा कौनसा कठोर कर्मोपार्जन किया है कि इतना परिश्रम करने पर भी मैं यथावत् मनोऽनुकूल ज्ञानोपार्जन नहीं कर सकता हूँ। गुरुदेव ! कृपया मुझे ऐसा कोई अमोघ उपाय बताइये कि जिसके द्वारा मैं मेरा मनोरथ सिद्ध कर सकूँ। सूरिजी ने एक सरस्वती देवी का मन्त्र और उसकी साधना विधि बतलाते हुए कहा-तुम काश्मीर जाकर सरस्वत्याराधन करो, तुम्हारे मनोरथ सफल हो जावेंगे। सूरिजी के वचन को तथास्तु कह कर मुनि विनयरुचि ने बड़ी प्रसन्नता के साथ स्वीकार कर लिया। काश्मीर जाने की उत्कट अभिलाषा ने उनके हृदय में अडिग आसन जमा दिया । क्रमशः आचार्यश्री की आज्ञा प्राप्त कर मुनि विनयरुचि ने थोड़े मुनियों को साथ में ले काश्मीर की ओर विहार कर दिया । काश्मीर पहुँच कर मुनि विनयरुचि ने तो चउविहार उपवास की तपस्या पूर्वक सरस्वती के मन्दिर में ध्यान लगा दिया और साथ में आये हुए अवशिष्ट मुनिगण नगर के बाहिर अवस्थित हो मुनित्व क्रिया करने में संलग्न हो गये । चउविडार २१ उपवास की अन्तिम रात्रि में देवी ने अदृश्य होकर कहा-मुनिजी ! मैं आपकी श्रद्धा पूर्ण भक्ति से बहुत प्रसन्न हुई हूँ अब जो कुछ इच्छा हो लीजिये मैं देने को तैय्यार हूँ। मुनि ने कहा-माताजी ! मुझे और क्या चाहिये ? केवल एक विद्या के लिये वरदान चाहिये जिससे मेरा पढ़ा हुआ ज्ञान स्खलित न हो सके । देवी, मुनिजी के सर्वथा निस्पृह वचनों को सुन कर बहुत ही प्रसन्न हुई। मुनिश्री की इच्छानुकूल उन्हें वरदान दिया कि आप जो चाहोगे वह ज्ञान सर्वथा अस्खलित रहेगा और आपको सर्वत्र हो विजय श्री प्राप्त होगी। देवी के वचनों को 'तथास्तु' शब्द से सहर्ष स्वीकार कर मुनि विनयरुचि जहाँ अन्य मुनि ठहरे हुए थे, वहाँ आये और २१ दिन के चउविहार उपवास का पारणा किया । अब तो जिस मुनि को एक पद याद करना मुश्किल था आज उसी को सब के सब शास्त्र एक बार के पठन मात्र से ही कण्ठस्थ हो जाने लगा। इधर श्रीनगर निवासियों को मालूम हुआ कि यहां जैन श्रमण आये हैं तो जैनियों के उत्कर्ष के असहिष्णु कई गीर्वाण भाषा विशारद विप्रगण मुनिश्री को पराजित या लजित करने के बहाने मुनि विनयरुचि के स्थान पर आकर उनसे संस्कृत भाषा में धर्म सम्बन्धी कई तरह के प्रश्नोत्तर करने लगे। मुनिश्री ने भी सरस्वती देवी की अतुल कृपा से उन्हें ऐसे समुचित प्रत्युत्तर दिये कि वे लोग आश्चर्यान्वित हो दांतों तले अंगुली दबाने लगे। उन्होंने मुनिश्री की विद्वत्ता से प्रभावित हो उपदेश श्रवण की इच्छा प्रगट की और नित्य अपना इसी प्रकार का क्रम जारी रखने के लिये विनम्र प्रार्थना की। मुनिश्री ने भी कई दिनों तक वहां स्थिरता कर षदर्शनों का प्रतिपादन एवं जैनदर्शन का महात्म्य बताया, जिसको श्रवण कर बहुत से लोग जैनधर्म की mowinwwwwwwwwwwmanwwwwwwwwwww मुनि विनयरुची को ज्ञान नहीं चढ़ने का कारण १३६५ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ओर अाकर्पित हुए । तदनन्तर आवसीधे प्राचार्यश्री की सेवा में पधारे । आचार्यश्री ने भी देनी प्रदत्त वरदान के वृत्तान्त को श्रवण कर खूब सन्तोष गगट किया। इस तरह पजाब प्रान्त में धर्म जागृति को नवीन कान्ति मचाते हुए आचार्यश्री ने भगवान पार्श्वनाथ की कल्याण भूभि स्पर्शनार्थ काशी की ओर विहार किया । श्रीसंघ ने आपश्री का बहुत ही समारोह पूर्वक स्वागत किया। प्राचार्यश्री ने भी जन समाज में धर्म द्योत करने के लिये अपना व्याख्यान क्रम प्रारम्भ ही रक्खा । उस समय काशी के ब्राह्मण जै नेयों से बहुत ही द्वेष रखते थे। उन्हें जैनियों का अभ्युदय, मान, प्रतिष्ठा किञ्चित् भी सहा नहीं हो सकती थी। ये लोग यदा कदा अपनी काली करतूतों का परिचय दे दिया करते थे। तदनुसार एक दिन अाचायश्री के आदेश से काशी क्षेत्र में मुनि विनयरुचि ने व्याख्यान दिया। आपश्री ने अपने व्याख्यान में षट्दर्शन के स्वरूप को तुलनात्मक दृष्टि से प्रतिपादन करते हुए जैन दर्शन को सर्वोत्कृष्ट सकल साध्य बतलाया। भला-मुनिवय्य की यह सत्य किन्तु ब्राह्मणों को अरुचिकर ज्ञात होने वाली बात काशी नगरी के विप्र समुदाय को कैसे सहन हो सकती थी ? बस, पूर्वापर का विचार किये बिना ही उन्होंने जैनों को अहलान कर दिया कि जैन श्रमणों ने जो मुंह से कहा-वही प्रमाणों से सिद्ध करने को तैर पार हो जाय तो हम उनके साथ शास्त्रार्थ करने को तैय्यार हैं। । उस समय काशीपुरो में उपकेशवंशियों की घनी आबादी थी। वे सबके सब बड़े व्यापारी एवं लक्षाधीश-कोट्याधीश धर्म प्रिय श्रावक थे। वे लोग आचार्यश्री के परम भक्त, देव, गुरु, धर्म के अनुरागी थे। उन लोगों ने ब्राह्मणों की जाहिर घोषणा के लिये प्राचार्यश्री से शास्त्रार्थ करने के बारे में परामर्श किया तो सूरिजी ने सहर्ष उत्तर दिया इसमें आनाकानी की बात ही क्या है ? शास्त्रार्थ करके धर्म की वास्तविकता को जगजाहिर करना तो हमारा परम कर्तव्य ही है। काशी के ब्राह्मणों से धर्म चर्चा करने में मैं क्या ? मेरे शिष्य ही पर्याप्त हैं। बस, फिर तो था ही क्या? ब्राह्मणों के प्राइवान को जैनियों ने तुरन्त स्वीकार कर लिया। ठीक समय में मध्यस्थों के अध्यक्षत्व में शास्त्रार्थ विषयक निर्णय के लिये एक सभा हुई। इधर से मुनि विनयरुचि और उधर से ब्राह्मण समाज । दोनों के शास्त्रार्थ का विषय था-वेदविहित हिंसा, हिंसा न भवति । ब्राह्मणों ने अपने पक्ष की प्रमाणिकता के विषय में जो प्रमाण पेश किये थे, मुनि जी ने उन्हीं प्रमाणों को युक्त पुरस्सर खण्डित कर अहिंसा भगवती का इस प्रकार प्रतिपादन किया कि वादियों को अपने आप मस्तक झुकाना पड़ा । इससे जैनधर्ग की बहुत ही प्रभावना हुई । काशी के सकल संघ की अनुमति से मुनि विनपरुचि को पण्डित पद से विभूषित किया तथा श्रीसंघ के अत्याग्रह से प्राचार्यश्री ने वह चातुर्मास वहीं पर कर दिया। इस चातुर्मास कालीन दीर्घ अवधि में जैनधर्म के उद्योत के साथ ही साथ बहत सा ब्राह्मण समाज भी सरिजी का भक्त एवं अनुरागी बन गया। चातुर्मासानन्तर आचार्यश्री ने यहां से प्रस्थान कर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए मथुरा नगरी में ए किया । वहां के श्रीसंघ ने सूरिजी का सुन्दर सत्कार किया। आचार्यश्री का व्याख्यान तो हमेशा होता ही था अतः जैन, जैनेतर सकल जन समाज महरी तादाद में आचार्यश्री के व्याख्यान का लाभ उठाने लग गये । मथुरा में उस समय बो द्वों का बहुत कम प्रभाव था पर त्राह्मणों का पर्याव प्रचार था। सूरिजी के अतिशय प्रभाव के सामने तो वे कुछ नहीं कर सके कारण, उन्होंने पहिले से ही काशी के शास्त्रार्थ की पराजय को सुन रक्खा था। श्रीसंघ के अत्याग्रह से सूरिजी ने वह चातुर्मास मथुरा में ही कर दिया । बलाह गोत्रीय रांका शाखा के शा० सादा, लाच दोनों भ्राताओं ने श्रुतज्ञान को भक्ति निमित्त सवालक्ष रुपये आगम लिखवाने में व्यय किये। इसके सिवाय भी कई प्रकार के उपकार हुए । चार बहिने व ३ पुरुष प्राचार्यश्री के व्याख्यान से प्रभावित हो, भव विध्वंसिनी दीक्षा लेने को उद्यत होगये । चातुर्मास समाप्त होते ही उन महानुभावों को दीक्षा देकर सूरिजो ने यहां से विहार कर दिया। १३६६ For Private & Personal use Only काशीपुरी के ब्राह्मणों को ईर्षामि www.jamelibrary.org Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन 7 [ोसवाल सं० १३५२-१४११ क्रमशः विहार करते हुए और धर्मोपदेश देते हुए आपश्री अजयगढ़ पधारे । वहां से आपने मरुभूमि की ओर पदार्पण किया । आचार्यश्री के पदार्पण के शुभ समाचारों से मरुधरवासियों के मारे खुशी के हर्ष का पार नहीं रहा। आपश्री के पूर्वजों से ही यह प्रवृत्ति चली आई थी कि जब आचार्यश्री विशाल शिष्य समुदाय के साथ किसी बड़े नगर से विहार करते तब मार्ग जन्य कठिनाइयों एवं असुविधाओं के कारण अपने योग्य मुनियों के साथ थोड़े २ साधुओं को देकर आसपास के छोटे बड़े ग्रामों की ओर विहार करवा देते और किसी बड़े शहर में या योग्य क्षेत्र में पुनः सव सम्मिलित हो जाते । तदनुसार आचार्य देवगुप्तसूरि ने अजयगढ़ से विहार किया तो थोड़े २ साधुओं को योग्य मुनियों के साथ समीपस्थ प्रत्येक ग्रामों की ओर विहार करवाया जिसमें उपाध्याय विनयरुचि को शाकम्भरी नगरी की ओर विहार करने की आज्ञा प्रदान की। मुनि विनयरुची ने भी गुरुदेव की आज्ञा को विनय के साथ शिरोधार्य कर शाकम्भरी की ओर पदापण कर दिया। शाकम्भरी निवासियों को उपाध्याय श्रीविनयरुचिजी के पधारने के समाचार प्राप्त हए तब उन लोगों को बहुत ही प्रसन्नता हुई । क्रमशः मुनिश्री के शाकम्भरी पधारने पर शाकम्भरी निवासियों ने आपश्री का अत्यन्त समारोह पूर्वक स्वागत किया। मुनि श्रीविनयरुचिजी थे देवी सरस्वती के परमोपासक अतः आपका व्याख्यान भी अत्यन्त मधुर, रोचक एवं चित्ताकर्षक था । व्याख्यान को श्रवण करने वाला जन समाज व्याख्यान श्रवण मात्र से मन्त्रमुग्ध हो जाता। जैनधर्मानुयायी आपके व्याख्यान का लाभ उठावे इसमें तो आश्चर्य ही क्या ? पर अजैन राजा प्रजा भी आपके व्याख्यान का लाभ अत्यन्त रुचि के साथ लेने लगे। कहा है जहाँ सहस्र सज्जन होते हैं वहां एक दो दुर्जन तो मिल ही जाते हैं, तदनुसार तत्रस्थ वाममार्गियों ने सुनिश्री के विरुद्ध एक बबण्डर उठाया । वे लोग स्थान २ पर जन समाज को भ्रम में डालने लगे कि जैन नास्तिक हैं, सत्यधर्म का विध्वंस करने वाले हैं पर इसमें वे ज्यादा सफलता नहीं प्राप्त कर सके । जैन लोगों का मुनिश्री पर पूर्ण विश्वास था अतः उन्होंने राज सभा में शास्त्रार्थ करवाकर वाममार्गियों को सर्वदा के लिये लज्जित करने का निश्चय कर लिया । निर्दिष्ट निश्चयानुसार ठीक समय में सभा एवं शास्त्रार्थ हुआ पर सरस्वती प्रदत्त वरदान धारक उपाध्याय विनयरुचिजी की विचक्षण प्रज्ञा के सामने वे पांच मकार से मोक्ष मानने वाले बेचारे वाममार्गी कहां तक ठहर सकते थे ? आखिर वे पराजित हो अपना मुंह नीचे कर चले गये । इस शास्त्रार्थ की अपूर्व विजय से वहां के राजा प्रजा पर उपा० श्री के पाण्डित्य का गजब का प्रभाव पड़ा। वे लोग उपा० विनयरुचिजी म० की एवं जैन धर्म की भूरि २ प्रशंसा करने लगे। इस तरह उपा० श्री ने कई स्थानों पर जैन धर्म की प्रभावना की। पूज्याचार्यश्री के शासन में और भी कई प्रभाविक मुनि हुए जिसमें एक सोमसुन्दर मुनि का समुन्नत उदाहरण पाठकों के सामने रख देना ठीक समझता हूँ कि एक समय प्राचार्यश्री अपने शिष्यों को आगमों की वांचना दे रहे थे उसमें अष्टमा नंदीश्वर द्वीप का वर्णन आया, जिममें ५२ जिनालयों का वर्णन सूरीश्वरजी ने बड़े ही विस्तार से किया, इस पर सूरिजी के एक शिष्य जिसका नाम सोमसुन्दर था उसने सविनय सूरिजी से प्रार्थना की कि भगवन् ! मेरी उत्कृउ भावना है कि मैं इन शाश्‍वाते जिनालयों की यात्रा कर अपने जीवन को सफल बनाऊं ? सूरिजी ने कहा वत्स ! नन्दीश्वर द्वीप नज़दीक नहीं है कि भूचर-मनुष्य पैरों से चलकर यात्रा कर सके । उस तीर्थ की यात्रा तो देवता ही कर सकते हैं या जंघाचारण, विद्याचारण मुनि तथा आकाशगामिनी विद्या जानने वाला ही कर सकता है । इस पर शिष्य ने कहा प्रभो ! कुछ भी हो मुझे नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा अवश्य करनी है। सूरिजी ने कहा मुने ! इसके लिये दो ही रास्ते हैं या तो तपश्चर्या द्वारा आकाशगामिनी विद्या हांसिल करो या किसी सम्यग्दृष्टि देवता की आराधना करो कि तुम्हारे मनोरथ सिद्ध हो सकें। ठीक उसी दिन से मुनि सोमसुंदर ने तपश्चर्या करना प्रारम्भ कर दिया । कहा है कि सच्चे दिल की भावना होती है वह येनकेन प्रकारेण सफल हो ही जाती है। मुनिजी ने छः मास तक निरन्तर अष्टम-अष्टम तप के मुनि सोमसुन्दर की भावना १३९७ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पारणारूप तप कर के सम्यग्दृष्टि देव की आराधना की जिससे आपके पूर्व भव का ग़रीब साधर्मी भाई जो पूर्वभव में आपकी सहायता से धर्म से चलचित्त होता हुआ स्थिर मन होकर अन्त में समाधि पूर्वक मर कर देव हुआ था, उसका उपयोग मुनि सोमसुन्दर की भावना की ओर लगा कि वह अपने पूर्वभव का महान् उपकारी समझ कर मुनि की सेवा में उपस्थित होकर वंदन किया। और अपने अवधिज्ञान से पूर्वभव में किया हुआ उपकार का हाल सुना कर बोला कि पूज्य गुरु महाराज ! मुझे जो देव ऋद्वि प्राप्त हुई है वह आपकी पूर्ण कृपा का ही फल है अब आप कृपा कर मेरे लायक कार्य हो वह फरमाकर मुझे कृतार्थ बनावें? मुनिजी को तो इतना ही चाहता था मुनि ने कहा महानुभाव ! मुझे नन्दीश्वर द्वीप के बावन जिनालयों की यात्रा करने की उत्कृष्ट इच्छा है । इस देव ने कहा कि आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये मैं आपको नंदीश्वर द्वीप में लेजा कर उतार दूंगा। आप यात्रा करलें, पुनः यहां पर लेआऊंगा पर स्मरण रखें कि आप वहां अधिक नहीं ठहर सकोगे । बस यात्रा की उत्कठ भावना वाले मुनि देव की पीठ पर सवार होगये देव चलता हुआ मुनिजी से कह रहा था कि अब जम्बुद्वीप का उल्लंघन कर लवण समुद्र पर आये हैं अब घातकी खण्ड पर आये एवं कालोदधि समुद्र पर | पुष्कराद्ध के यहां तक मनुष्य बसते हैं और सूर्यचन्द्र का चराचर भी यहीं तक है आगे पुनः पुष्कराई तदन्तर पुष्कर समुद्र : बाद वारुणी द्वीप, वारुणी समुद्र, क्षीर द्वीप, घृत समुद्र, इक्षु द्वीप, इक्षु समुद्र इनका लम्बा चौड़ा लक्ष योजन जम्बुद्वीप है बाद स्थान दुगुणा करने से इतु समुद्र ८१६२००००० अर्थात् इक्यासी करोड़ बानवें लाख योजन का लंबा चौड़ा है इसके नंदीश्वर द्वीप आता है वह १६३८४८०००० योजन का लम्बा है। जब मित्र देव ने मुनिजी को नन्दीश्वर द्वीप के मध्य भाग में आया हुआ पूर्व के अञ्जनगिरी पर्वत पर उतार दिये। मुनिजी वहां के रत्नमय मन्दिर की रचनादि को देख आँखों में चकाचौंव हो गये पुनः देव के साथ ही साथ मन्दिर का सर्वत्र अवलोकन कर मूल गभारा में आकर चौमुख भगवान के दर्शन चैत्यवन्दन स्तुति कर अपने जीवन को कृतार्थ बनाया मुनि के हर्ष का पारावार नहीं रहा ऐसा मुनि के कहने से प्रतीत हुआ। अस्तु मुनिजी ने वहां पर जितने पदार्थ एवं मन्दिरों की ऊंचाई चौड़ाई वगैरह देखी वह अ वह अपनी शीघ्र गामिनी प्रज्ञा से याद रख वहां की यात्रा कर पुनः देव की पीठ पर सवार हो शीघ्र ही स्वस्थान आगये साथ में वहाँ के देवताओं की की हुई पूजा से एक सुगन्धी पुष्प देवा देश से ले आए थे। देवताने मुनि को अपने स्थ न पर उतार कर बन्दन किया और पुनः प्राथना की कि हे परोपकारी गुरु महाराज! आपका तो मेरे ऊपर असीम उपकार हुआ है अतः भविष्य में मेरे लायक सेवा हो तो स्मरण कीजिए कि आपके ऋण से किंचित उऋण होऊं इत्यादि कह कर स्वस्थान चला गया। बाद आचार्य श्री तथा अन्य साधु निंद्रा मुक हो अपने स्वाध्याय एवं ध्यान में लग गये पर मकान अनुपम पुष्प की सौरभ से एक दम सुवासित होने से वे सोचने लगे कि आज इतनी सुवास कहां से आरही है, क्या आल पास में ऐसे पदार्थ का प्रादुर्भाव हुआ है ? इतने में तो मुनि सोमसुन्दर ने आकर आचायश्री के चरणाविंद में वन्दन करके हस्तवदन और पूर्ण हर्ष के साथ निवेदन किया कि पज्याराध्यदेव । आपकी अतल कृपा से मेरा चिरकाल का मनोरथ सफल होगया है। आचार्यश्री के स्मृतिज्ञान में आ गया कि मुनि की भावना नंदीश्वर की यात्रा की थी शायद किसी देश की सहायता से इसके मनोरथ सफल हो गये हों अतः आचार्यश्री ने सब हाल पूछा और मुनि ने अथ से इति तक सब हाल सनाया। साथ में वड़ों से लाए हये पुष्प के भी समाचार कह कर वह पुष सरिजो के सामने रख दिया जिसकी सौरभ से केवल एक उपाश्रय ही नहीं वरन् आस पास का प्रदेश भी सुगन्ध युक्त बन गया। देवताओं का पुष्प वनस्पति का नहीं था कि जिसकी सुगन्ध स्वल्प समय में ही समाप्त हो जाय पर यह पुष्य तो रनमय था जिसके वर्ण गंध रस और स्पर्श कई अर्से तक कम हो ही नहीं सके। प्रातःकाल होते ही मोहल्ले वालों में इस बात की चर्चा होने लगी पर किसी को पता भी नहीं लगा। १३९८ मुनि सोमसुन्दर-नन्दश्विर द्वीप Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १३५२-१४११ जब श्रावक वर्ग सूरिजी के पास व्याख्यान सुनने को आए और उस सुगन्ध के आश्चर्य की चर्चा व्याख्यान में की तब सूरीश्वरजी महाराज ने फरमाया कि श्रावकों ! सुगन्ध का मूल कारण मुनि सोमसुन्दर है। यह मुनि नन्दीश्वर तीर्थ की यात्रार्थ नन्दीश्वर द्वीप में गया था और वहां की यात्रा कर पुनः आते समय एक देवनामी पुष्प साथ में लेता आया उस पुष्प की सौरभ सर्वत्र प्रसारित हुई है। इस पर उपस्थित सब लोगों को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ। हां आचार्य पादलीप्त सूरि वगैरह के चरित्र में आकाश गमन विद्या का वर्णन तो आता है, प्राचार्य वज्रसूरि आकाश गमन विद्या से दुर्भिक्ष में संघ का रक्षण किया तथा प्रभू पूजा के लिये श्रावकों के अत्याग्रह से बीस लक्ष पुष्प आकाश गमन विद्या के बल से ले आए पर नंदीश्वर द्वीप की यात्रा करने का अधिकार आज पर्यन्त नहीं सुना था। आचार्यश्री ने मुनि सोमसुन्दर को सभा में बुलवा कर संघ के समक्ष सब हाल कहने को कहा इस पर मुनि सोमसुन्दर ने नन्दीश्वर द्वीप का सब हाल कह सुनाया। यद्यपि यह सब हाल शास्त्रों में विद्यमान है तथापि आपने अपनी आँखों से और देव की सहायता से जो देखा सुना वह यथावत् अर्थात् ज्यों का त्यों कह दया। जैसे: १-नन्दीश्वर नाम का आठवां द्वीप है १६३८४००००० लम्बा चोडा है। २-इस द्वीप के मध्य भाग में अरिष्ट रत्नोंमय चारों दिशाओं में चार अंजनगिरी पर्वत हैं और प्रत्येक अंजनगीरी १००० योजन धरती में और ८४००० योजन धरती ऊपर ऊंची है। भूमि पर दस हजार योजन का विस्तार चौड़ा है बाद क्रमशः कम होता-होता ऊपर एक हजार योजन का विस्तार रह जाता है। ३-अंजनगिरी पर्वत के ऊपर का तल रत्न जड़ित है जिस पर एक सिद्धायतन है जिसको देख कर मेरे हर्ष का पारावार नहीं रहा। जहाँ-जहाँ नज़र दौड़ाई तो रत्नों को चमक दमक ने मेरे दिल में बड़ा भारी आश्चर्य उत्पन्न कर दिया। वह जिन मन्दिर एक सौ योजन का चौड़ा पचास योजन का पहुल बहुतर योजन का उँचा था जहां तक मनुष्य की दृष्टि पहुँच ही नहीं सकता है तथा उस मन्दिर के चारों दिशाओं में चार दरवाजे हैं वह सोलह योजन ऊंचा आठ योजन चौड़ा है। उन चारों मुख्य मंडयों के आगे चार प्रक्षेप मंडप हैं जो सौ योजन लम्बा पचास योजन चोड़ा है । साधिक सोलह योजन ऊँचा है उन प्रक्षेप मंडपों के मध्य भाग मणिपीठ चबुतराहे जो पाठ योजन लम्बा चार योजन चोड़ा उस पर एक सिंहासन देवदष वस्त्रसहित तथा एक वनमय अंकुश और उन अंकुशों के अन्दर घट के प्रमाण की मुक्ताफल की मालाएँ सुन्दर ढङ्ग से पोई हुई और पीछे फून्दा भी लगा हुआ है उन प्रक्षेप घर मंडपों के आगे एक-एक स्तूप जो साधिक सोलह योजन के विस्तार वाला है प्रत्येक स्तूप के चारों दिशाओं में चार मर्णिपीठ चबूतरे हैं उन मणिपीठ पर चार चार शांत मुद्राएं पद्मासन सहित जिन प्रतिमाएं हैं जो स्तूप के सन्मुख मुंहकर विराजमान हैं। वहाँ पर हमने बड़े ही हर्प और आनन्द से स्तुति-दर्शन किया उन प्रत्येक स्तूप के आगे एक-एक मणिपीठ चबूतरा है और उस प्रत्येक मणिपीठ पर एक-एक चैत्यवृक्ष जो उनके सर्वाङ्ग विचित्र रत्नोमय है उन चैत्यवृत्तों के आगे और पाठ योजन का मणिपीठ आता है और प्रत्येक मणिपीठ पर एक-एक महिन्द्रध्वज सहस्र ध्वजाओं के साथ चौसठ योजन ऊंची आकाश के तले को उल्लंघन करने वाली खूब लहरा रही है उन प्रत्येक इन्द्रध्वज के आगे जाने पर एक-एक नन्दापुष्करजी वापि आती है वह एक सौ योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी और दस योजन गहरी जो अनेक प्रकार के कमल, तोरण, ध्वज, चामर, छत्र से बहुत ही शोभायमान दर्शकों के मनको आनन्द पहुंचाने वाली है। उन नन्दा पुष्करणी के आगे एक-एक बन खण्ड आ गया है जिसकी शोभा का वर्णन एक जिह्वा से नहीं किया जा सकता है मेरा दिल वहाँ से हटने को बिलकुल नहीं होता था और उन बन खण्डों के प्रत्येक दिशा में ४००० गोल व ४००० चौखूटे आसन लगे हुए हैं जो देवांगना एवं देवता वहाँ यात्रार्थ आते हैं, उनके बैठने के लिये काम आते हैं यह सो एक अंजनगिरी पर्वत का मूल एक मन्दिर के चार नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा का वर्णन १३६६ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १५२-१०११] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सा दरवाजों के चारों तरफ के पदार्थ हैं उनको देख मैं मूल मन्दिर में गया वहां सोहल योजन का मणिपीठ है उसके ऊपर एक देवच्छन्दा जो सोलह योजन लम्बा चौड़ा और साधिक सोलह योजन ऊंचा है जिसके अन्दर शांतमुद्रा पद्मासन एवं वीतराग भाव को प्रदर्शित करने वाली १०८ जिन प्रतिमाएं विराजमान है जिनके दर्शन करते ही मैं तो आनंद सागर में मग्न हो गया। मेरे आत्मा के एक-एक प्रदेश में वीतराग भावना का प्रादुर्भाव हुआ। और वीतराग वर्णीत आगमों के लिये मैं बार-बार विस्मित चित्त होने लगा । खैर, जब मैं देव के दूसरे अंजनगिरी पर जाकर दर्शन किया तो जो रचना पहले अंजनगिरी पर है वह दूसरे और बाद में तीसरे और चौथे अंजनगिरी पर देखी। दर्शन चैत्यवन्दन स्तुति कर अपने जीवन को कृतार्थ बनाया। प्रत्येक अंजनगिरी पर्वत के चारों ओर चार-चार बावड़ियां हैं जो एक लक्ष योजना लंबी पचास हजार योजन चौड़ी और एक हजार गहरी तोरण दरवाजा ध्वजा चामर छत्र अष्ठाष्ठ मंगलीक से सुशोभित है प्रत्येक वापि के मध्य भाग में एक-एक दधि मुखा पर्वत है एक हजार योजन भूमि में और ६४००० योजन भूमि से ऊंचा दस हजार योजन का मूल में चौड़ा तथा इतना ही ऊपर के तला में चौड़ा है सफेद दही के समान रत्नों के वे पर्वत हैं अर्थात् चार अंजनगिरी के चारों तरफ १६ बावड़ियां और सोलह बावड़ियों में सोलह दधिमुखा पर्वत हैं और उन १६ पर्वतों र १६ सिद्धायतान सब चार-चार दरवाजे वाले जैसे अंजनगिरी के मंदिर का मैंने पूर्व में वर्णन किया है उसी प्रकार के ही ये मंदिर हैं। . पूर्व कथित १६ बावड़ियों के अन्तर में दो-दो कनकगिरी पर्वत आये हैं और ऐसे ३२ कनकगिरी पर्वत हैं। ये एक-एक हजार योजन के ऊंचे हैं और उतने ही चौडे पलकाकार सर्व कनकमय ३२ कनकगिरी पर ३२ जिन मन्दिर हैं जो पहले कहे प्रमाण वहां भी जाकर मैंने बड़े ही हर्ष के साथ दर्शन चैत्यवन्दन स्तुतियें की जिसका आनन्द या तो उस समय मेरी आत्मा ही अनुभव कर रही थी सो जानती है या परमात्मा जानते हैं इन ५२ पर्वतों के अलावा चार रति करे पर्वत जो रत्नोंमय हैं उन चारों पर्वतों के चारों ओर सोलह राजधानियां हैं जिनमें आठ तो शक्रेन्द्र की अग्नम हेषियों और आठ ईशानेन्द्र की अग्रम हेषियों को है जब भगवान के कल्याणक दिनों में तथा अन्य पर्वादिक में वे देवांगना नन्दीश्वर में जाती है तब ये देव देवियों अपनी राजधानियों में विश्राम लेती है बनखण्डों में आराम करती हैं इत्यादि उन नन्दीश्वर द्वीप के महात्म्य का कहां तक वर्णन किया जा सकता है यदि देवता के लौट कर वापस आने की अवधि नहीं होती तो मैं वहां से वापिस आने की इच्छा तक भी नहीं करता पर क्या किया जाय देव के साथ मुझे वापिस आना पड़ा मैने वहां से रवाना होते २ देखा कि आकाश के अन्दर कई चारण मुनि भी शायद् वहां यात्रार्थ आरहे थे मैंने वहाँ की स्मृति के लिये एक पुष्प लाया हूँ जो इस मकान को ही नहीं पर मोहल्ले तक को सौरभमय बना रहा है । मुनि सोमसुन्दर ने ऊपर बतलाया हुआ नन्दीश्वर द्वीप के पदार्थों को एकेन्द्र गिनती निम्न लिखित है: १-चार अंजनगिरी पर्वत ऊंचा ८४००० योजन प्रमाण । २-सोलह वापियों-लाख योजन लंबी पचास हजार योजन चौड़ी। ३-सोलह दधिमुख पर्वत ऊंचा ६४००० योजन । ४-बत्तीस कनकगिरी पर्वत ऊंचा एक हजार योजन । ५--पूर्वोक्त बावन पर्वतों पर बावन जैन मंदिर १००-५०-७२ योजन । ६-पूर्वोक्त बावन जैन मन्दिर चौमुख चार हार वाले हैं। ७--पूर्वोक्त बावन मन्दिरों में ५६१६ जिन प्रतिमाएं हैं वे जघन्य सात हाथ उत्कृष्ट पाँच सो धनुष की सर्वरत्ननोमय पद्मासन पर विराजमान हैं। ८-सब मन्दिरों के २०८ मुख मंडप हैं। --मुख मंडप के आगे २०८ प्रक्षेप घर मण्डप हैं। १४०० For Private a personal use नन्दीश्वर द्वीप में क्या क्या पदार्थ है ? Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] I १०–प्रक्षेप घर मंडप के आगे २०८ स्तूप आये हैं । ११ - स्तूपों के चारों ओर जिन प्रतिमाएं ८१६ हैं - स्तूपों के आगे चबूतरों पर २०८ चैत्यवृक्ष हैं । १३ - चैत्यवृक्ष के आगे चबूतरों पर २०८ इन्द्रध्वजें है । १४ - इन्द्रध्वजें के आगे २०८ पुष्करणी वापियाँ हैं । १२ १५ - वापियों के आगे २०८ सुन्दर बन खण्ड हैं । १६–बनखण्ण्डों के अन्दर देवताओं के बैठने के गौल एवं चौखुने चबूतरे हैं। इस प्रकार मुनि सोमसुन्दर के मुंह से नन्दीश्वर द्वीप का वर्णन सुनकर चतुर्विध श्रीसंघ ने मुनिजी की यात्रा का साधर्य अनुमोदन किया और अपने जीवन को कृतार्थ समझा और शास्त्र कथित नन्दीश्वर द्वीप पर विशेष श्रद्धा सम्पन्न बने । मुनि सोमसुन्दर ने अपनी प्रतिभा का जनता पर अच्छा प्रभाव डाला इतना ही क्यों पर मुनि सोमसुन्दर ने इधर उधर भ्रमण कर कइ दश हजार जनता को जैनधर्म की दीक्षा देकर महाजन संघ में वृद्धि की । देवादि की सहायता से केवल एक सोमसुन्दर मुनि ने ही ऐसे तीर्थों की यात्रा की हो ऐसी बात नहीं है पर और भी कई महात्माओं ने देवादि की मदद से तीर्थों की यात्रादि कर शुभ कार्य किये हैं जैसे आचार्य सूर की की यात्रा का वर्णन हम पहले कर आये हैं तथा आचार्य यशोभद्रसूरि का चमत्कारी ना पूर्व जीवन प्रसंगोपात यहां लिख देते हैं जिससे जैनधर्म की महान् प्रभावना हुइ थी । [ सवाल सं० १४११-१४३३ भगवान् महावीर की संतान के ८४ गच्छ हुए कहे जाते हैं यदि शुरु से संख्या लगाई जाय तो गच्छों की संख्या तीन सौ अधिक मिलेगी। पर प्रचलित शब्द ८४ का ही चला आता है। खैर, उन गच्छों में संदेश (व) गच्छ भी एक प्राचीन गच्छ है इस गच्छ में भी बड़े २ प्रभाविक आचार्य हुए हैं और उन्होंने जैन शासन की प्रभावना के साथ कई अजैनों को जैन बनाया महाजन संघ की खूब ही वृद्धि की थी इस गच्छ के आचार्यों की परम्परा भी ईश्वरसूरि, यशोभद्रसूरि, शालिभद्रसूरि, सुमतिसूरि और शांतिसूरि इन पांच नामों से ही क्रमशः परम्परा चली आ रही है जैसे उपकेशगच्छ एवं कोरंटगच्छ तथा पल्लीवालादि गच्छ में प्रवृत्ति थी । यों तो इस गच्छ में बहुत प्रभाविक आचार्य हुए थे पर यहां पर तो मैं एक यशोभद्रसूरि के विषय में ही कुछ लिखूंगा । चार्य शोभद्रसूरि का जन्म मारवाड़ के पलासी नाम के ग्राम में प्राग्वट वंशभूषण शाह पून्यसार के गृहदेवी गुणसुंदरी की पवित्र कुक्षि से वि० सं० ६५७ तथा एक पट्टावली में ६४७ वर्षे आपका जन्म हुआ था । उस होनहार पुत्र का नाम सौधर्म रखा था । और सौधर्म की दीक्षा अति बाल्यावस्था में हुई थी और इस दीक्षा का एक ऐसा चमत्कारी कारण बताया गया है कि: सांढेराव गच्छ के आचार्य ईश्वरसूरि अपने ५०० मुनियों के परिवार में बिहार कर रहे थे पर आपके पीछे पट्टधर योग्य कोई साधु उनके लब में नहीं याये तब वे एक समय मुडारा ग्राम में आये और वहां पर दरीदेवी की आराधना की जिससे देवी आई सूरिजी ने उसे अपने पात्र में उतारली जब देवी जाने लगी तो सूरिजी ने साग्रह उससे पूछा कि देवी ! क्या मेरा गच्छ विच्छेद होगा या कोई योग्य पुरुष मिलेगा ? देवी ने कहा पलासी का प्राग्वट पून्यसार गुणसुन्दरी का पुत्र सौधर्म छोटी अवस्था में पाठशाला में पढ़ता था और वहां एक ब्राह्मण का लड़का भी पढ़ता था । एक दिन सौधर्म ने ब्राह्मण लड़के से दुवातियां मांगा ब्राह्मण बालक ने अपना दुवातिया सौधर्म को दिया पर असावधानी से भूमि पर गिरने से वह फूट गया बाद में ब्राह्मण बालक ने सौधर्म से दुवातिया वापस मांगा तो बदले में अच्छे-अच्छे दुवातिये देने लगा पर ब्राह्मण बालक ने इट पकड़ ली कि मेरा दुवातिया हो मैं लूंगा । इस पर आपस में बहुत खेंचाताणी हो गई जिससे आचार्य यशोभद्रसूरि का जीवन १७६ १४०१ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०११-१०३३] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास डेश्व दोनों अध्यापक के पास गई उन्होंने भी गगझाया पर जामण बालक ने अपना हठ नहीं दड़ा इतना ही क्यो पर उसने शोध में आकर एक प्रतिज्ञा भ करली । विप्र पुत्र धुरि दई गाली, क्रूर करंबु तुझ कपाली। जु षउ तुं बांमण सही, नहीं तरी परइड भणिजे भई । ____ इस पर सौधर्म ने भी गुस्सा कर के कहा कितब ते घइ बोलिउ सुधर्म, जो जे वांमण भाहरु कर्म । भूओ न मारूं तुझ प्राणिउ, नहीं तर नहीं सुघड वणियो॥ (लवण्य समयकृत यशोभद्रसूरि रास ) देवी कहती है कि उस सौधर्म को लाकर दीक्षा दो वह आपके गच्छ का भार वहन करेगा। देवी अदृश्य होगई । बाद में आचार्य ने संव से कहा और संघ के साथ चलकर आचार्य पलासी आए और गुणसुन्दरी के पास जाकर पुत्र की याचना की पर यह कब बन सकता था कि माता अपना इकलौता पुत्र वह भी बालभाव वाले को मांगा हुआ दे दे पहले तो गुणसुन्दरी खूब गुस्से हुई पर बाद में श्रीसंघ ने उसको खूब समझाई और उसको सौधर्म की दीक्षा के भावी लाभ तथा इसमें तुम्हारा ही गौरव है इत्यादि उपदेश से प्रभावित होकर गुणसुन्दरी ने अपने एक मात्र इकलौता सा पुत्र को गुरु चरणों में अर्पण कर दिया। बाद में रि ने उस पांच छः वर्ष के होनहार बालक को दीक्षा दे दी। बाद दीक्षा के छः मास में ही वह शात्रों का पारंगत पंडित हो गया। इतना ही क्यों पर वे सूरिपद के योग्य सर्वगुण भी सम्पादित कर लिये। तत्पश्चात् ईश्वरसूरि पुनः मुंडारा में आये बारह गौत्र के साथ बदरीदेवी की आराधना की । देवी स्वयं आकर संघ समीक्षा सौधर्म मुनि के तिलक कर गले में पुष्पों की माला डालकर सूरिपद अर्पण कर आपका नाम यशोभद्रसूरि रख कर अदृश्य हो गई । यशोभद्रसूरि विकार का पराजय करने के लिये छः विगई का त्याग रूप अंविल करना प्रारम्भ कर दिया। यशोभद्रसूरि बिहार कर पाली श्राए श्रीसंघ ने अपूर्व महोत्सव कर नगर प्रवेश करवाया सूरिजी की अमृतमय देशना श्रवण कर श्रीसंघ ने अपने जीवन को कृतार्थ किया । एक दिन सूरिजी सूर्य के मन्दिर के पास निर्वद्य भूमि देख थडिले बैठे सूर्य ने सूरिजी की ब्यय के अनुसार विकट तपस्या जान:कर हीरा, पन्ना, मणि, मुक्ताफल डाल दिये पर सूरिजी ने तो उनके सामने देखा तक नहीं इस पर सूर्य ने सोचा कि ऐसा पवित्र सूरि मेरे मन्दिर में आये तो मैं कृतार्थ बनूं । सूर्य ने वरसात बरसाई जिसमें सूरिजी सूर्य के मन्दिर में चले गय सूय ने कपाट बन्द कर कहा कि आप कुछ मांगो ? सूरिजी ने कहा हम निन्थ है हमको कुछ भी नहीं चाहिये । सूर्य बहुत आग्रह किया तो सूरिजी ने सूक्ष्म (बहुत छोटे) जीव देखने का चूर्ण दीरावें । सूर्य ने कहा कि कल में चूर्ण लेकर आपके मकान पर अऊंगा । इत्यादि वार्तालाप कर सूरिजी अपने स्थान पर आ गये । सूर्य ने सुवर्णाक्षरों से अनेक विद्याओं के यंत्र एक पुस्तक में लिख कर तथा एक अंजन-कुपिका ले विप्रवेश धारण कर सूरिजी के पास आया और दोनों वस्तु सूरिजी के आगे रख कर सूर्य अदृश्य होगया सूरिजी ने अंजन आंखों में लगा कर देखा तो सब जीवों की राशी (छोटा से छोटा) भी दीखने लगा। तथा पुस्तक से विद्याएं भी सिद्ध करली। बाद में विचार किया कि पीछे के लोग ऐसी विद्याओं का दुरुपयोग न कर डालें अतः अपने शिष्य मुनि वलभद्र से कहा कि जाओ इस पुस्तक को सूर्य के मन्दिर में रख आयो । पर मार्ग में पुस्तक खोलकर पढ़ना नहीं ! मुनि बलभद्र पुस्तक लेकर जा रहा था उसके दिल में आई कि इसमें कौनसी विद्या है। अतः मार्ग में पुस्तक खोल तीन पन्ने निकाल लिये। बाद में पुस्तक को सूर्य के मन्दिर में रख कर मुनि जोर से रोने लगा इस पर सूर्य ने कहा कि हे भद्र ! रोता क्यों है ? जा मैंने तुझे तीन पन्ने दिये बस! बलभद्र मुनि स्वस्थान आगये। ___ यशोभद्रसूरि उन विद्याओं से मनिधि अष्टलिद्धि तथा आकाशगामिनी वगैरह कई विद्याओं को सिद्ध २४०२ चमत्कार nanimoonn ___ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४११-१४३३ करली थी जिससे प्रतिदिन शत्रुञ्जय, गिरनार, सम्मेनशिखर, अष्टापद चम्पा-पावापुरी तीर्थों की यात्रा करके ही भोजन करते थे। सूरिजी पाली से बिहार करके साढेराव आये वहां मन्दिर की प्रतिष्ठा पर धारणा से अधिक लोग बाहर से आये उनके लिये भोजन बनाने में घृत कम होगया इस बात को खबर सूरिजी को पड़ते ही पाली का एक जैनोतर धनिक के यहां से घी मंगवा दिया, जब कार्य समाप्त हुश्रा तो सूरिजी ने कहा कि पाली के व्यापारी के घी के दाम चुकादो। जब सांढेराव वाले पाली जाकर उस सेठ को घृत के दाम देने लगे तो उसने कहा मैंने घृत ही नहीं दिया तो दाम किस बात के लेऊ। पर जब उसने अपने घृत की कोठियां देखी तो उसको सूरिजी के चमत्कार पर महान आश्चर्य हुआ उसने कहा कि संसार में राजदंड, यमदंड, चोरदंड, अग्निदंड और जलदंड हम सहन कर लेते हैं पर मेरी दुकान से एक महात्मा ने घृत मंगवाया वह भी श्रीसंघ के काम के लिये इसके दाम यदि मैं न लेऊं तो मन्दिर प्रतिष्ठा जैसे पुण्य कार्य में मेरा इतना-सा सोर हो जायगा । इस बात की खबर जब सूरिजी को मालूम हुई तो उस भव्य को लघुकर्मी जान, और सेवा में आने पर प्रति बोल देकर जैन धर्मी बनाया। सूरिजी विहार करते हुए एक दफा चित्रकूट पधारे। जब आगट नगर से राजा अल्लट का मंत्री गुण. धर ने एक मंदिर बनवाया जिसकी प्रतिष्टा के लिये चित्रकोट जाकर यशोभद्र सूरि को लाया और बड़े ही समारोह के साथ प्रतिष्ठा करवाई जिसका राजा पर भी बड़ा भारी प्रभाव पड़ा। एक दफे राजा के साथ सूरिजी एवं संघ चैत्यपरिपाटी करने को चले तो रास्ते में एक अवधूत मिला उसने अपने मुंह का स्पर्श किया इस पर सूरिजी ने दोनों हाथों से मसल दिया जिससे हाथ श्याम हो गये। अवधूत चमत्कार पाक चला गया। इस पर राजा ने पूछा कि अवधून के और आपके क्या संकेत हा, हम समझ नहीं सके। इस पर सूरिजी ने कहा हे राजन् ! उज्जैन नगरी के महाकालेश्वर के मन्दिर में दीपक की अग्नि से चंद्रवा जलने लगा अबधूत ने मुंह स्पर्श कर संकेत किया मैंने विद्या बल से उसे हाथों से मसल कर बुझाया जिससे हाथ नाम होगये राजा ने इस बात की खात्रि करने के लिये अपने आदमियों को उज्जैन भेजे। वहां जाकर उन्होंने ठीक तपास की तो उसी समय उसी टाइम उसी तरह से चंद्रवा जलने का प्रमाण मिला तो फिर वापिस आकर राजा को सब हाल सुनाया जिससे राजा को गुरु वचनों पर पूर्ण श्रद्धा हो गई। अतः राजा अल्लट ने गुरु से जैन धर्म स्वीकार कर जैन धर्म का पालन करने लगा। एक दिन श्राघट नगर', रहेट २, कवि लाण' संभरी और भैसर इन पांचों नगरों के संघ प्रतिष्ठा के लिये आये सूरिजी ने सब को एक ही मुहुर्त दिया और कहा कि प्रतिष्ठा के समय में आकर प्रतिष्ठा करवा दूंगा बस, ठीक समय पर विद्याबल से पांच रूप बना कर पांचों जगह एक साथ प्रतिष्ठा करवा दी । जब कविलाण में जन संख्या अधिक होने से नखसुत कुवों का पानी बिलकुल समाप्त हो गया। इस प्रकार ६५ कुवों में सूरिजी ने अथाह जल कर दिया इस चमत्कार को देख राजा प्रजा गुरु के पके भक बन गये। __ आधाट नगर का एक श्रेष्टिवर्य ने श्रीशत्रुञ्जय का संघ निकाला जिसमें प्राचार्य यशोभद्र सूरि को भी साथ में लिया। संघ क्रमशः अण इनपुर पट्टन के पास पहुँचा तो वहां का राजा मूलराज बड़े हो समारोह के साथ सूरिजी के दर्शनार्थ अाया, सूरिनी ने धर्मोपदेश दिया जिसको सुन राजा ने प्रार्थना की कि हे भगवन् ! आप तो सदैव के लिये पाट्टण में ही निवास कर भव पीड़ितजनों का कल्याण करें । सूरिजी ने उत्तर में कहा कि नरेश! हम निर्ग्रन्थों का ऐसा प्राचार नहीं कि हम एक स्थान पर डी ठहर जायं । तथा बार मकान पवित्र करने को प्रार्थना की कि सूरिजी राज भवन में पधारें। राजा बाहर निकल कर मकान के कपाट बंद कर दिय सू रेजो ने लघुरूप बना कर किवाड़ के छिद्र से निकल कर आकाशगामिनी विद्या से संघ में शामिल हो गये और एक आदमी के साथ राजा को धर्म लाभ कहलाया। राजा ने मकान को देखा तो १.-आघट नगर उहपुर के पा स में,२-रहेट शायद रोहट या करहेट होगा,३-साकम्बरी ४-भैसरोड होगा। पांच रुपकर पांच प्रातष्ठाए करवाई For Private & Personal use only १४.३ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०११-१०३३] [ भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य नहीं इससे सूरिजी के चमत्कार ने राजा बड़ा ही आश्चर्यान्वित हुः । संघ मार्ग में त्रागे चल कर पानी के अगाय से दुःखी हुआ। एक सू तालाब को सूरिजी ने विद्याबल से भर दिया । इत्यादि बहुत चमत्कारों के साथ संघ तीर्थ पर पहुँचा । त्रुञ्जय की यात्रा कर गिरनार गये यहां प्रभो को रत्नजड़ित भूषण धारण करवाये । सब लोग नीचे आगे संधपति प्रभु दर्शनार्थ गये तो प्रतिमा पर एक भी भूषण नहीं देखा सूरिजी के पास आकर प्रार्थना करी कि प्रभो! यह आक्षेप संघ पर आवेगा ! सूरिजी ने कहा कि एक मनुष्य आभूषण लेकर आपाट गया है बीसवें दिन पकड़ा जायगा। ऐसा ही हुआ भूषण वापिस लाकर प्रभो को धारण करवाये। सूरिजी वल्लभपुर में पधार कर चातुर्मास किया और वहाँ पर एक अवधूत योगी आया जो कि दुवातिया वाला ब्राह्मण ही था उसने ब्याख्यान की सभा में अपनी दाड़ी के बालों के दो सप बना कर छोड़े पर सूरिजी ने दो नौकुल बना कर छोड़े कि सर्प को पकड़ पछाड़े। एक समय एक साध्वी सूरिजी को वन्दन करने को आती थी अवधूत ने उसे पागल बना दी । जब सूरिजी को ज्ञात हुआ तो आपने घास का एक पुतला बना कर संघ को दिया कि यदि अवधूत न माने तो एक अंगुली काट देना ।-श्रावक पुतला लेकर अवधून के पास गये और उसको बहुत समझाया कि साधी को अच्छी कर दो पर उसने एक भी नहीं सुनी तो फिर श्रावक ने पुतने की एक अंगुली काटी तत्काल अवधून की अंगुली कट गई फिर कहा अभी भी समझ जा वरना सिर काट दिया जायगा । तब अवधूत ने कहा कि १०८ पानी के बड़ों से इसको स्नान करा दो ताकि यह ठीक हो जायगी। इस प्रकार करने से साध्वी ठीक हो गई । इसी प्रकार कवधूत ने कई प्रपंच किये पर सूरिजी के सामने उसकी कुछ भी नहीं चल सकी आखिर राज सभा में ८४ बाद हुए उनमें अवधूत ही पराजय हुआ। सोमकुल रत्न पट्टावली में कवि दीपविजय ने यह भी लिखा है कि सं० १०१० में यशोभद्रसूरि और एक शिव भक्त के आपस में विद्यावाद हुआ इसमें दोनों ने एक-एक मन्दिर उड़ाकर नाडोलाई में ले आये वे दोनों मन्दिर अद्यार्वाय वहाँ विद्यमान हैं इत्यादि सूरिजी के चमत्कार अपार हैं और इन विद्या चमत्कारों से एक तो जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना की और दूसरा अवधूत योगियों के, जैनधर्म पर बहुत घातिक आक्रमणों से जैनधर्म एवं जैन संघ की रक्षा भी की। आचार्य यशोभद्रसूरि अपने सदुपदेश एवं आत्मीय चमत्कारों से कई राजाओं एवं साधारण जनता को जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ की खूब वृद्धि की । एक समय आप नारदपुरी में पधार कर राव लाखण के लघु भ्राता रावधा को उपदेश देकर जैनी बनाया। रावदधा की संतान भाशापरी माता के भंडार का काम करने से वे आगे चल कर भंडारी कहलाये । इसी प्रकार गुगलिया, धारोला, कांकरिया दुधेड़िया, बोहरा, चतुर, शिशोदियादि १२ जातियों के आदि पुरुषों को आचार्य यश भद्रसूरि ने उपदेश देकर जैनधर्मी श्रावक बनाये थे। जब सूरिजी ने अपने ज्ञान द्वारा अपनी आयुष्य शेष छः मास का रहा जाना तब श्रीसंघ के समीक्ष आलोचन, निंदवना कर शुद्ध भावों से निशल्य हो गये तथा श्रीसंघ को कहा कि मेरे मरने के बाद मेरे मस्तक की खोपड़ी फोड़ तोड़ के चूर चूर कर डालना नहीं तो कहीं मेरी खोपरी अवधूत के हाथ लग गई तो जैनधर्म का काफी नुकसान करेगा । इत्यादि कह कर प्राचार्य यशोभद्रसूरि ने समाधि पूर्वक स्वर्ग के अतिथि बन गये। पीछे से श्रीसंघ ने गुरु आज्ञा का पालन किया बाद में अवधत आया पर उसके मनोरथ सफल हो नहीं कारण उसके आने के पूर्व ही गुरु आज्ञा का पालन श्रीसंघ ने कर दिया था। . आचार्य यशोभद्रसूरि जैसे संसार में एक महान् प्रतिभाशाली एवं चमत्कारी प्राचार्य हुए हैं आपके अलौकिक जीवन के लिये कई महात्मात्रों ने विस्तृत संख्या में ग्रन्थों का निर्माण किया था पर अभी तक वह १४०४ भंडारी जाति की उत्पति Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देव गुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १४११-१४३३ साहित्य प्रकाश में नहीं आया है केवल आपका ही क्यों पर अभी तो ऐसे बहुत महापुरुषों का जीवन अन्धेरे में ही पड़ा है फिर भी जमाना स्वयं प्रेरणा कर रहा है । अतः जितना मशाला मिला है उसके आधार पर मुनिवर्य श्री विद्याविजयजी महाराज ने आचार्य यशोभद्रसूरि के जीवन के विषय में एक विस्तृत लेख लिख कर जैन श्वे० कान्फ्रेन्स का मासिक पत्र हेरल्ड में मुद्रित करवाया था उसके आधार या कुछ अन्यत्र देखकर मैंने पूज्याचार्य देव का संक्षिप्त से जीवन लिखा है आचार्यश्री के लिये दो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं । ( १ ) सोहम कुलरत्न पट्टावली में कवि दीपविजयजी लिखते हैं: १ ॥ २ ॥ ३ ॥ ४ ॥ ५॥ ६ ॥ सांडेरा गच्छ में हुआ जसोभद्र सूरिराय । नवसें हें सतावन समें जन्म वरस गछराय ॥ संवत नवसे हैं अडसठें सूरि पदवी जोय । बदरी सूरी हाजर रहें पुन्य प्रघल जस जोय ॥ संवत नव गण्यतरे नगर मुंडाडा महेिं । सांडेरा नगरें वली किधी प्रतिष्ठा त्याँह ॥ किन्नरसी वली खीम रोषि मुनिराज । जसोभद्र चोथा सहु गुरु भाई सुख साज ॥ हाथी गछ निकल्यो मलधारा तस नाम । किंन्न रसीथी निकल्यो किंन्न रसी गुन खाँन ॥ खीम रसीथीय निपनो कोरं वट बालग गछ जेह । जसोभद्र सांढेर गछ च्यारे गछ सनेह ॥ आबु रोहाई विचे ग्राम पलासी माहें । विप्र पुत्र साथै बहु भणता लडिया त्यांहें ॥ ७ ॥ खडिओ भागो विप्रनो करे प्रतिज्ञा एम । माथानो खडीओ करूं तो ब्राह्मण सहि नेम ॥ ८ ॥ ब्रह्मण जोगी थई विद्या सिखी श्राय । चोमासुं नडुलाईमें हुता सूरि गछराय ॥ ६ ॥ तियां आयो तिहिज जटिल पूरव द्वेष विचार । बाघ सरप बिछी प्रमुख किधा केई प्रकार ।। १० ।। संवत दस दाहोतरें किया चौरासी बाद। वल्लभीपुरथी आणि ऋषभदेव प्रासाद ॥ ११ ॥ ते जोगीपण लावि सिव देहरो मन भाय । जैनमति सिवमति बेहु दोय देहराँ ल्याय ।। हम प्रासाद है नडुलाई सेंहेंर मकार । एहनो वरवरण हैं बहु कथा कोस विस्तार ।। (२) १२ ।। १३ ।। नाड़ोलाई में संवत् १५५७ का शिला लेख है जिसकी नकल । ॥ ६० ॥ श्रीयशोभद्रसूरि गुरुपादुकाभ्यां नमः संवत् १५५७ वर्षे वैशाखमासे । शुक्लपक्षे पष्टयां तिथौ शुक्रवाससि पुनर्वसु ऋक्षप्राप्त चन्द्रयोगे । श्री संडेरगच्छे | कलिकाल गौतमावतार | समस्तभविकजन मनोऽबुज बिबोधनैकदिनकर । सकललब्धिनिधानयुगप्रधान । जितानेकवादीश्वरवृन्द प्रणतानेकनरनायक मुकुटकोटिस्पृष्टपादारविंद । श्रीसूर्यश्व महाप्रसाद | चतुः षष्टि सुरेन्द्र संगीयमान साधु वाद । श्रीपंडेरकीयगण रक्षका वतंस । सुभद्राकुक्षि सरोवर राज [हं] सयशोवीर साधु कुलर नभोमणि सकलचारित्रिचक्रवर्ति चक्रचूडामणि भ० प्रभुश्री यशोभद्रसूरयः । तलट्टे श्री चाहुगानवंशशृंगार । लब्धसमस्तनिरवद्यविद्याजलधिपार श्रीबदरीदेवी गुरुपदप्रसाद स्वविमल कुलप्रबोध नैक प्राप्त परमयशोबाद भ० श्री शालिसूरिः तत्र श्रीसुमतिसूरिः । त० श्रीशांतिसूरिः । त० श्री ईश्वरसूरिः । एवं यथा क्रममनेक गुणमणिगण रोहण गिरीणां महासूरीणां वंशे पुनः श्रीशालिसूरिः । त० श्रीसुमतिसूरिः तत्पट्टालंकारहार भ० श्रीशांतिसूविराणां सपरिकराणां विजयराज्ये ॥ अह श्रीमेदपाटदेशे । श्रीसूर्यवंशीय महाराजाधिराज श्रीशिलादित्यवंशे श्रीगुहिदत्तराउल श्रीवपाक श्रीषुम्माणादि महाराजान्त्रये । राणा हमीर श्रीषेतसीह | श्रीलषमसीह पुत्र श्रीमो कलमृगांक वंशोधोतकार प्रताप मार्तण्डावतार । आसमुद्र महिमण्डलाखण्डल | अतुलमहाबल राणा श्री कुम्भकर्ण पुत्र राणा श्रीरायमल विजयमान प्राज्यराज्ये । तत्पुत्र महाकुमार श्री पृथ्वीराजानुशासनात् । श्रीऊपकेशवंशे राय भण्डारीगोत्रे राउलश्री लाखणपुत्र श्रीमं० दूदवंशे मं० मयूर सुत साहूलहः । मं० नाडोलाई के मन्दिर का शिलालेख Jain Education international १४०५ www.ahelibrary.org Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०११-१०३३] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तत्पुत्राभ्याँ सं० सीडा सदाम्यां सांव। म० कभी-नारा लाखादि सुकुटम्ब युताभ्यां श्रीनन्दकूलवत्यां पुर्या सं०६४ श्रोवरामसारमंत्रशक्तिलगानीटयां सायर कारित देवकृतिकाबद्वारितः सायर नाम श्रीजिनवसत्यां श्रीयादीश्वरस्य स्थापना कारिता कताश्री शान्ति पूरि पट्टे देव सुन्दर इत्यपरशिष्य नाम : प्रा० श्रीईश्वरसूरिभिः इति लघुनास्तिरिय लि. आचाच श्रीईश्वरसूरि गा उत्कीर्णा सूत्रधार सागकेन ।। शुभम् ।। (श्री नाड.लाई ग्राम के मन्दिर में वर्तमान है) "इति महाप्रभाविक प्राचार्य यशोभद्रसूरि का संक्षिप्त जीवन" जैसे मुनि सोमसुन्दर ने आत्मीय चमत्कार से देव के जरिये श्री नन्दीश्वरहोप के ५२ जिनालय की यात्रा खूब आनन्द के साथ की इसी प्रकार आचार्य यशोभद्रसूरि भी अपने प्रात्सीय चमत्कारों से प्रतिदिन पंच महातीर्थों की यात्रा किया करते थे इन महा पुरुषों के अलावा भी बहुत से प्रतिभाशाली आचार्य हुए हैं कि जिन्होंने अपने सत्यशील एवं ब्रह्मचर्य के प्रकाण्ड प्रभाव से नरनरेन्द्र तो क्या पर सुरसुरेन्द्र को पायनमी बना कर प्रशासन की प्रभावना के कई कार्य किये थे। आचार्य वीरसूरि का चत्र हम ऊपर लिख आये हैं कि आपने भी देवता की सहायता से अष्टाप : तीर्थ की यात्रा की थी और वहाँ से वापिस लौटते समय देवताओं के प्रभु को चढ़ाघे चावल ले आये थे जैसे सोमसुन्दर मुनि पुष्प लाया था अस्तु । आर्य देव गुप्तरि के शासन में ऐसे ऐसे कइ प्रतिभाशाली मुनि हुए थे और ऐसे चमत्कारी मुनियों के प्रभाव से ही शासन की सपत्र विजय विजयती फहरा रही थी सूरिजी को आज्ञावर्ती अन्योन्य मुनिराज आदेशानुसार अन्य प्रान्तों में विहार करते हुए जैन शासन का उद्योत करते थे अनेक मांस मदिरा सेवियों को प्रतिबोध देकर महाजनसंघ के शामिल कर उसकी संख्या में खूब वृद्धि कर रहे थे । एक समय सूरिजी महाराज विहार पुर पधारे । तथा अन्यत्र विहार करने वाले मुनिराज भी सूरिजी के दर्शनार्थ नागपुर में आकर सूरिजी के दर्शन किये उस समय का नागपुर अच्छा नगर था । उपकेशवंशियों की आबादी का तो वह एक केन्द्र स्थान ही था। धन, जन एवं व्यापारिक स्थिति में सब से सिरताज था । श्रीसंघ के अत्याग्रह से वह चातुर्मास तो सूरीश्वरजी ने नागपुर में ही कर दिया। आदित्य नाग गौत्रीय गुजेच्छा शाखा के शा० देवा ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय कर श्री श्रुतज्ञान की आराधना की । महाप्रभावक भगवती सूत्र को बाँचकर प्राचार्यश्री ने संघ को सुनाया। इसके सिवाय भी कई भावुकों ने अनेक प्रकार से तन, मन एवं धन से लाभ उठाया। विशेष में प्राचार्यश्री का प्रभावोत्पादक व्याख्यान श्रवण कर भद्र गौत्रीय मन्त्री करमण के पुत्र राज्जन ने छ मास की विवाहित पत्नी को त्याग कर दोनों ने सूरिजी की सेवा रे भगवती, भव विध्वंसिकी दीक्षा लेने का निश्चय किया। चातुर्मासानन्तर उन भावुकों का अनुकरण कर करीब १६ स्त्री पुरुष दीक्षा के लिये और भी तैय्यार हो गये । शुभ मूहूर्त एवं स्थिर लग्न में सूरिजी ने सज्जन प्रभृति १६ वैरागियों को दीक्षा देकर उनका आत्म कल्याण किया। उसी शुभ मुहूर्त में बप्पनाग गौत्रीय नाइटा शाखा के धर्मवीर शा० दुर्गा के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई जिससे जैनधर्म को आशातीत प्रभावना हुई । तत्पश्चात् सूरिजी ने मुन्धपुर, कुर्चपुर, मेदिनीपुर, फलवृद्धि, हर्षपुर, खरकुम्पनगर, शंखपुर, आशिकादुर्ग, माण्डव्यपुर होते हुए उपकेशपुर की ओर पधारे । उपकेशपुर निवासियों को इस बात की खबर पड़ते ही उनके धर्मात्साह का पारवार नहीं रहा । सुवन्ति गौत्रीय शा० लाला ने तीन लक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी के नगर प्रवेश का शानदार महोत्सब किया। सूरिजी ने भी चतु. विध श्रीसंघ के साथ भगवान महावीर एवं आचार्य रनप्रभसूरि की यात्रा कर आगत जन समाज को संक्षिप्त किन्तु सारगामत माङ्गलिक देशना दी। सूरिजी म० का इस समय उपकेशपुर में बहुत ही असे से पधारना हुआ था अतः जनता के हृदय में अत्य त हप एवं धर्म-स्नेह बढ़ गया। देवी सचायिका भी यदा कदा वन्दन के लिये आचार्य श्री की सेवा में उपस्थित हो कर पुण्य-सम्पादन किया करती थी। सूरिजी भी उनसे शासन १४०६ प्राचार्य श्री का नागपुर में पधारना Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४११-१४३३ सम्बन्धी वार्तालय एवं परामर्श समयानुकूल किया करते थे। एक दिन देवी ने आचार्य श्री से प्रार्थना कीपूज्यवर ! आपने अपने परमोपकारी शरीर से जैनधर्म एवं गच्छ की बड़ी कीमती सेवा की है। अब आपकी वृद्धावस्था है अतः आप अपने पट्ट पर योग्य मुनि को सूरि पद प्रदान कर परम निवृत्ति पूर्वक आत्म साधन करें । अब यहीं पर स्थिरवास कर हमको कृतार्थ करें जिससे हमें दर्शन का लाभ बराबर मिलता रहे। इस पर सूरिजी ने कहा-देवीजी ! श्रापका कहना सौलह आना सत्य है। मेरी इच्छा उपा० विनयरुची को पद प्रतिष्ठित कर सर्वथा निवृत्ति मय मार्ग का अनुसरण करने की है। देवी-उपा० विनयरुची आपके पट्टधर होने के सर्वथा योग्य है। इस प्रकार कह कर सञ्चायिका ने आचार्य श्री को वन्दन किया । सूरिजी ने भी उन्हें धर्म लाभ दिया। देवी भी धर्मलाभ रूप शुभाशोर्वाद प्राप्त कर स्वस्थान चली गई। आचार्यश्री की वृद्धावस्था के कारण व्याख्यान कभी २ उपा० विनयरुची दिया करते थे। एक समय संघ के अग्रेश्वरों ने मिलकर प्रार्थना की पूज्य गुरुदेव ! आपकी वृद्धावस्था है अतः योग्य मुनि को सूरि पद प्रदान कर आपश्री गच्छ के भार से सर्वथा चिन्ता मुक्त हो जावें । यहाँ के श्रीसंघ की इच्छा है कि उपा० विनयरुची को सूरि पद से विभूषित किया जावे फिर तो जैसा आपको योग्य एवं उचित ज्ञात हो कुछ भी हो सूरि पद महोत्सव का लाभ तो यहां के श्रीसंघ को ही मिलना चाहिये । सूरिजी को यह बात पहिले देवी ने कही थी और आज श्रीसंघ की भी अग्रह पूर्ण प्रार्थना हुई अतः समयज्ञ सूरिजी ने यह प्रार्थना अविलम्ब स्वीकार करली । डिडू गौत्रीय शा० तेजसी ने सूरि पद के महोत्सव के लिये चतुर्विध श्रीसंघ से आदेश मांगा और श्री संघ ने भी उन्हें सहर्ष आज्ञा प्रदान की। वि० सं० १०३३ के आषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा के शुभ दिन डिडू गौत्रीय शा० तेजसी के किये हुए महा-महोत्सव के साथ भगवान महावीर के चैत्य में चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय पद विभूषित उपा० विनयरुची को आचार्यश्री ने सूरि पद से विभूषित किया । और परम्परानुसार आपका नाम सिद्ध सूरि रख दिया इसके साथ ही साथ अन्य योग्य मुनियों को उनकी योग्यतानुसार उपाध्याय, पण्डित, वाचनाचार्य, महत्तर, प्रवर्तकादि पदवियाँ प्रदान की। इस सुअवसर पर बहुत से भक्त जन बाहर से आये थे वे स्वधर्मी बन्धु भी महोत्सव में सम्मिलित थे। शाह तेजसी ने सकल श्रीसंघ के नरनारियों को वढ़िया स्वर्णमुद्रिकादि की प्रभावना देकर नवलक्ष रुपये व्यय किये। इससे जैन शासन की अत्यन्त प्रभावना हुई व शाह तेजसी ने अक्षय पुण्योपार्जन किया। उपकेशगच्छाचार्यों का यह नियम था कि अपने पद पर किसी योग्य मुनि को सूरि पद कभी क्यों न दे देते पर चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति जो रत्नप्रभसूरि से चली आई थी-जिस दिन नूतनाचार्य के हस्तगत करते उसी दिन से वे पट्टकर गिने जाते। पूज्याचार्य देव के २२ वर्षों के शासन में मुमुक्षुत्रों को जैन दीक्षाएं १-नागपुर चोरडिया जाति के शाह माना ने सूरिजी के पास दीक्षाली २-मेदिनीपुर - आर्य सलखण ने , ३-पासोडी भुरंट रामा ने ४-दात्तिपुर संकासेठ हरखाने ५-हर्षपुर श्रेष्टि दुर्जन ने ६-विजासणी जांघडा फूसा ने ७---भवानीपुर दरड़ा दुर्गा ने ८-पाटण पोकरणा नाथा ने सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएं १४०७ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०१०११-१०३३ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है-रूणावती १०-जवृद्धि ११- कर्चुपुर १२-दासोडी १३–पद्मावंती १४–सोनगढ़ १५-डागीपुर १६-राजपुर १७-हापड़ी १८--चर्पट १६-क्षत्रीपुर २०-मानपुर २१-पाल्ली २२-पालनी २३-मूलीप्रम २४-रायपुर २५-धनपुर २६-सरोली २७-योगनीपुर २८-रामपुर २६-वोरपुर ३०-त्रीभुवन ३१-डागरेल ३२-मालपुरा ३३-नीनोड़ी ३४-उचकोट ३५-रेणुकोट के गुलेच्छा जाति के शाह गोधा ने सूरीजी के पास दीक्षाली श्रीश्रीमाल गोवीन्द ने , संचेती राव गोल्हा ने , सुखा गोशल ने साचा नाथा ने घुघुरा न्यरावना ने कंकरिया नरसिंह ने सुघड़ नोंधणो ने चंडालिया नवल्ल ने बापण नंदा ने तानेड़ देगल में गान्धी चतुरा ने चंडालिया जीवण ने ढे नाडया जोधा ने ढोरया लाधा ने छाजू ने कनोजिया डुगरे ले प्राग्वट रूपा ने मुंजल ने वस्तपाल ने कूपा ने सारंग ने सेहारण ने सेजपाल ने धोकल ने पूर्णज ने पघा ने आचार्यश्री के २२ के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं के सुरवा जाति के शाइ शूरा ने अ० महापीर के म० प्रतिष्ठा करवाई के साच्चा आसल ने नोला ने पारख छटाड ने के नाहटा वैना ने के आर्य भोजा ने भ० पार्श्वनाथ के छाजेड कुमार ने के श्रीमाल साखला ने सूरिश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाएं . श्रीमाल १-चांदपुर २-नदुकुली ३-देवपाण ४-आघाट ५-सीदड़ी ६-चित्रकोट ७-गदरपुर ८-कीरणकूप 市市币市市 maa nnnnnnnnnnnno १४०८ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १४११-१४३३ " करमण ने १-छागाणी के श्रीश्रीमाल जाति के शाह सुरजण ने नेमिनाथ भ० की प्रतिष्ठा करवाई १०-नाणापुर के सोडियाणी , सारंग ने ११-ब्राह्मणपुर के सालु सज्जन ने शान्तिनाथ १२-कुकडग्राम के सुघड़ डाबर ने १३-राजपुर के सटेवरा छाजू ने मल्लिनाथ १४-मंगलपुर के बोहरा जोधा ने १५-मुडस्थल के कठारी ॐकार ने आदीश्वर १६-जाबलीपुर के जालेचा उदा ने १७-जुजारी के मोरवाल अर्जुन ने १८-पादवाडी के कंकरिया भोपाल ने म० महावीर १६-खीवसर के चाकला महराज ने २०-मुग्धपुर के राखंचा महीपाल ने २१-अजयगढ़ के कुम्मट हरपाल ने विमलनाथ २२-वीरपुर के कनोजिया नांनग ने सुमतिनाथ २३-चन्द्रावती के कल्याणी नारायण ने आदिनाथ २४-टेलिग्राम के मंत्री नरशी ने २५-नंदपुर के जंघड़ा कोला ने शान्तिनाथ २६-दशपुर के समदड़िया , २७-उज्जैन के प्रावट काना ने २८-महादुर्ग के , करत्था ने भ० पार्श्वनाथ २६-नारायणगढ़के , राणा ने ३०-ओनन्दपुर के , राणांक ने ३१--सोपारपट्टणके रामा ने ३२-मरोंचनगर के चुड़ा ने म० महावीर ३३-करणावती के श्रीमाल आदू ने ३४-वडप्रद्र के ओटाने ३५-खस्मात के आखा ने प्राचार्यश्री के २२ वर्षों के शासन में तीर्थों के संघादि शुभकार्य १-उपकेशपुर गुलेच्छा जाति के शाह मोकल ने शत्रुञ्जय का संघ निकाला २- पद्मावती सुचंति मैकरण ने ३-भरोंच श्रेष्टि मोकम ने ४-सोपार देसरड़ा माला ने ५-खम्भात कुम्मट राजसी ने ६-उज्जैन खेतसी ने ७-माण्डव नोलखा सावंतसी ने ८-पाल्ली के मुगेड़ा मारू ने सूरीश्वरजी के शासन में मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ १४०४ Jain Education Interacal डिडू . Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १.११-१०३३] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास -चन्द्रावती के छाजेड़ जाति जीवा ने शत्रुञ्जय का संघ निकाला १०-कोरंटपुर के आर्य , भोला ने ११-वीरपुर के विनायकिया , विजा ने १२-भुजपुर सुघड़ मापत ने १३-वर्धमानपुर चंडालिया सलखण १४-धोलागढ़ कांकरिया चौखा ने १५-वैराटनगर सुखा अज्जड़ ने १६-चन्देरी भटेवर अजरा ने १५-मथुरा रांका अगाराने १८-शालीपुर गान्धी मथुरा ने १६--नारदपुरी परमार विमाला ने २०-आघाटनगर के कोठारी वीरम ने २१-पाटण पल्लीवाल वीरदेव ने २२-रनपुर बोहरा भासल ने २३--श्रीनगर वर्धमाना कुम्भा ने सम्मेत शिखर का २४-तीतरपुर अग्रवाल भीमदेव ने २५-नरवर चोरडिया भारमल ने , २६-मालगढ़ भटेवर खीवसी ने २७-रॉणकदुर्ग समदड़िया नोधण ने तालाब खुदवाया २८-चित्रकोट प्राग्वट देदा ने बावड़ी बनाई २६-रणथंभोर साहरण ने तालाब खुदाया ३०-पाराकर पोखर ने कुँवा बनाया ३१-थरापद्र लोढण ने ३२-राजपुर रोड़ो युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई ३३-नागपुर श्रीमाल मएडण ३४-शिवपुरी के यशोवीर ३५-अर्जुनपुरी , दुर्गा , " " छ चालीस पट्ट पर शोमे, देवगुप्त सूरीश्वर थे, अवतंस थे चोरड़िया जाति के, ज्ञान के दिनेश्वर थे। देश विदेश में धर्म प्रचार की, आज्ञा शिष्यों को करदी थी, नूतन जैन बनाये लाखों को, जैन ज्योति चमकादी थी। इति भगवान् पार्श्वनाश के छीयालिसवे पट्टधर महान् प्रतिभाशाली देवगुप्तसूरीश्वर नामक आचार्य हुए। " " १४१० सूरीश्वरजी के शासन में संघादि शुभ कार्य Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४३३-१४७४ पुत्र--पूप पिताजी ! आपश्री का कहना किसी अंश में ठीक अवश्य कहा जा सकता है पर धर्म रूप अमूल्य रत्न का सर्वदा के लिये विक्रय कर नारकीय यातनाओं का कारण भूत हिंसा धर्म का अनुगामी होना और वह भी नगण्य द्रव्य के प्रलोभन से-क्या श्रेयस्कर कहा जासकता है ? पिताजी सा० हम तो आपके अनुभव एवं ज्ञान के सम्मुख एक दम अल्पज्ञ हैं, पर आप ही गम्भीरता पूर्वक विचार करिये कि यदि योगी की किञ्चत् बाह्य कृपादृष्टि से अपने को अक्षय द्रव्य की प्राप्ति भी होगई तो क्या वह परलोक के लिये श्रेयरुप हो सकेगी ? लक्ष्मी तो प्रायः पापका ही हेतु है धार्मिक भावों की प्रबलता में दारिद्रय जन्य दारूण दुःख भी सुख रूप है और धन्य वेश्रमण की अनुपमावस्था में अधार्मिक वृत्ति रूप सुख भी दुःख रूप है कुछ भी हो पताजी सा० ! हम तो ऐसा करने के लिये सर्वधा तैय्यार नहीं । दैन्यवृत्तिप्रादुर्भूत विषय विषमावस्था में भी पुत्रों के सराहनीय सहन शक्ति एवं प्रशंसनीय धर्मानुराग को देख लाडुक, गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी प्रापचिक जटिलता को स्मृति-विस्मृत कर हर्ष विमुग्ध बन गया। कुछ क्षणों के लिए उसे पारिवारिक धार्मिक भाव से भी ज्यादा सुख का अनुभव होने लगा। वह अपने आपको इस विषम दशा में भी भाग्यशाली एवं सुखी समझने लग गया। इस तरह के दीर्घ विचार विनिमय के पश्चात् दृढ़धर्म रंग रक्त लाडुक योगी से कहने लगा-महात्मन् ! आपकी इस उदार कृपा दृष्टि के लिये मैं आप का अत्यन्त आभारी हूँ। मुझे आपकी इस अनुपम दया के लिए हार्दिक प्रसन्नता है । इसके लिये मैं आपका हार्दिकाभिनन्दन करता हुआ कृतज्ञता पूर्ण उपकार मानता हूँ, पर मैं पवित्र जिनधर्मोपासक हूँ। इस प्रकार के मन्त्र तन्त्र एवं पाखण्ड धर्म को मैं धर्म समझ कर विश्वास नहीं करता। धर्म रूप अक्षय निधि के बलिदान के बदले भौतिक-दुःखोत्पादक-आध्यात्मिक सुख विनाशक अक्षय कोष को प्राप्त करना मुझे मनसे भी स्वीकार नहीं । क्षणिक प्रलोभन के बाह्य सुख आवेश में पारमार्थिक जीवन को मिट्टी में मिलाना निरी अज्ञानता है। यदि आप अपनी सिद्धि से दुनियां को सुखी बनाना चाहते हैं तो संसार में कई लोग इसकी निनिभेष दृष्टि पूर्वक आशा लगाये बैठे हैं, उन पर ही आपश्री उदार कृपा करें। मुझे तो मेरे धर्म एवं कर्म पर पूर्ण विश्वास है। - गार्हस्थ्य-जीवन-यापन करने योग्य अवर्णनीय यातनाओं का अनुभव करने वाले लाडुक की इस प्रकार वार्मिक निश्चलता, सुदृढ़ता, एवं स्थिरता को देख योगी के मानस क्षेत्र में पाशा-निराशा का विचित्र द्वन्द्व मच गया। द्रव्य के क्षणिक प्रलोभन के बदले धर्म परिवर्तन करवाने की विशेष आशा से आये हुए सविशेषोत्सुक योगी को लाडुक का सूखा प्रत्युत्तर श्रवण कर आश्चर्य के साथ ही साथ अपनी मनोगत सम्पूर्ण प्राशाओं पर पानी फिरने का पर्याप्त दुःख हुआ। मुख पर ग्लानी एवं उदासीनता की स्पष्ट रेखा झलकने लगी फिरभी चेहरे की उद्विग्नता को कृत्रम हर्ष से छिपाते हुये लाडुक को पूछने लगे-लाडुक ! तुन्हें ऐसा अपूर्व और निश्चल ज्ञान किसने दिया है ? लाडुक हमारे यशस्वी गुरुदेव श्रीदेवगुप्तसूरि बड़े ही ज्ञानी एवं सुविहित महात्मा हैं; उन्हीं की महती कृपा दृष्टि का कुछ अंश मुझ अज्ञ को भी प्राप्त हुआ है । उनके जैसे उत्कृष्ट त्यागी वैरागी महात्मा अन्य दूसरे मिलना जरा दुर्लभ है। ___ योगी-अच्छा, त्याग एवं निस्पृहता की अमिट छाप डालने वाले आप श्री के गुरुदेव इस समय कहां पर वर्तमान हैं ? क्या मैं उनसे मिलना चाहूँ तो मिल सकता हूँ? __लाडुक-बेशक, के कुछ ही दिनों में यहाँ पधारने वाले हैं, ऐसा सुना गया है । आपश्री भी कुछ दिवस पर्यन्त यहीं पर विराजित रहें तो आप भी उन महा पुरुष के दर्शन करके अपने आपको कृतकृत्य बना सकेंगे। __ एकदा लादुक अपने मकान का स्मर काम करवा रहा था तो भूमि खुदवाने पर सुकृत पुञ्जोदय के कारण भूगर्भ से उसे एक बड़ा भारी निधान प्राप्त हो गया। अस्तु, वह विचार करने लगा-'अह सूरीश्वरजी के शुभागमन की खबर Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०११-१०३३] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यदि मैं धर्म का बलिदान कर धन के किञ्चित् प्रलोभन से उस योगी की जाल में फंस जाता तो भविष्य में मेरी क्या दशा होती ? पवित्र और आत्मकल्याणकारी धर्म के मुकाबले धन की क्या कामात वास्तव में धन के व्यामोह में धर्म का त्याग करना निश्चित ही अदूर दर्शिता है । जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त ने तो मुझे इस अवस्था में अपनी सम्पूर्ण दशाओं का सक्रिय अनुभव करवा कर कर्मवाद पर अटूट श्रद्धाशील बना दिया है। जैन धर्म के सर्वज्ञ गदित अनुभवात्मक सिद्वान्तों के समक्ष अन्य दर्शनीय सिद्धान्त क्षणभर भी नहीं स्थिर रह सकते हैं । धन्य है परम-पवित्र, पाप भञ्जक, मङ्गल कारी जिनधर्म को और धन्य है दृढ़ धर्म प्रेम में रंगे हुए निश्चल जिनधर्मानुयायियों को इस प्रकार भक्ति भावना में डूबे हुए भव्य भावना भूषित लाडूक ने इस निधान को भी संसार-बन्धन और भव वृद्धि का कारण समझ अनन्त पुण्योपार्जन के साधन रूप सप्तक्षेत्रों में लगाना प्रारम्भ कर दिया । गार्हस्थ्य जीवन की असह्य यातनाओं को दैन्यवृत्ति से सहन करने वाले स्वधर्मी बन्धुओं को प्रचूर पारेमाण में आर्थिक सहायता कर अपने जीवन को सार्थक करने लगा। आशा पूरक दान वृत्ति से याचकों के द्वारा यशः सम्पादन करने में अपने आपको सौभाग्यशील समझने लग गया। संघ निस्सारण, स्वामीवात्सल्य संघ पूजा एवं ज्ञानार्चनादि धार्मिक अङ्गों की आराधना करने में उदार वृत्ति से द्रव्य का सदुपयोग कर जैन म के बढ़ते हुये प्रभाव को प्रभावना के द्वारा बढ़ाने लग गया। योगी को उसकी गजब की दान शक्ति जब किसी तरह शालूम हई कि मैं जिसे साधारण स्थिति का मनुष्य समझता था वह इस कदर दान पुण्य कर रहा है, तो बड़ा आश्चर्य हुआ। उसकी इस आशाजनक, सन्तोष पूर्ण स्थिति को देख कर तो योगी का रहा सहा उत्साह भी धराशायी (नष्ट) होगया । वह जिस कार्य के लिये आया था, उसमें अपने आपको पूर्ण निष्फल सगझ अपना शाम मुंह लेकर बैठ गया। एकदा पुण्यानुयोग से पार्श्व कुलकमल दिवाकर, भव्यपुण्डरीक-विबोधक, प्रत्यूषप्रार्थ्य परम पूज्य आराध्य देव प्राचार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वरजी का पदार्पण ग्रामानुग्राम लोद्रवपट्टन नगर में होगया। संसार जलनिधितरूप, पुरुषवरपुण्डरीक आचार्यश्री के शुभ शुभागमन से देवपट्टनपुर निवासियों के हर्ष का पारावार नहीं रहा । भव्य लाडूक ने भक्तिरस से ओतप्रोत हृदय से सवालक्ष द्रव्य व्यय कर श्रीसंघ के साथ सूरीश्वरजी का प्रवेश महोत्सव बड़े शान और समारोह के साथ किया । जब उस कृत्रिम योगी को खबर लगी कि महादानी लाडूक के गुरु का पदार्पण इस नगर में होगया है तब वह लाडुक को साथ लेकर परमहितैषी सूरिजी के पास गया और अपने मन में जो इस प्रकार की शंकाएं थी कि आत्मा के साथ कों का सम्बन्ध कैसे, क्योंकर होता है ? और उनका फल किस प्रकार मिलता है ? स्याद्वाद का वास्तविक रहस्य क्या है ? जैन दर्शन के मुख्य २ सिद्धान्त क्या हैं ? आदि सूरिजी के सामने उपस्थित की। सूरिजी उस भव्य योगी को ऐसे उत्तम ढंग से समझाया कि लादुक और योगी के विचारों में एकदम विरक्ति पैदा होगई । संसार उन्हें अरुचिकर कारागृह रूप लगने लग गया। जीवन के महत्व को समझ कर वे सूरिजी के पास ही दीक्षा लेने के इच्छुक बन गये । सूरीश्वरजी को विरक्ति का कारण बतला कर अनुमति प्राप्त्यर्थ वे वंदन कर स्वस्थान लौट गये। जब लाडुक ने अपने कौटम्बिक लोगों को एकत्रित कर अपने वैराग्य के कारण का स्पष्टीकरण किया तो उनका रहा सहा शान्ति सुख भी हवा होगया । वे लोग आश्चर्य के साथ ही साथ बहुत दुःखी होगये । घर के अाधारभूत लाडुक के वियोग को वे क्षण भर भी सहन करने में समर्थ नहीं हुए। ___लाडुक ने भी संसार के सत्स्वरूप को समझा कर कई लोगों को ( उनमें से ) वैराग्यान्वित बना दिये। उनकी पत्री तो उनके साथ ही दीक्षा लेने के लिये उद्यत होगई । बस लाडुक ने अपने पुत्रों को गृहकार्य में स्थापित कर छापने निधान को उन्हें सौंप दिया। पित्रादेशपालक विनयवान पुत्रों ने भी अपने माता पिता योगी प्रवृति भगवती दीक्षेच्छुक भावुकों का, आधा निधान व्ययकर दीक्षा महोत्सा किया । लाडुक ने भी १४१४ मूरिजी और योगी की भेट Jain Education Hernational Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] भासवाल सं० १४३३-१४७४ ४७-आचार्यश्री सिद्धसूरि (१०वाँ) सिद्ध सूरि रितीह नाम्नि सुघड़ गोत्रे सुधर्मा यती । यो मन्त्रस्य सुजान बन्धन विधेरात्मानमापालयत् ॥ दासत्वं सुनिधानमेव कृतवान् प्राप्तः ससूरेः पदम् । धर्मस्योन्नयने च देव भवने यत्नस्यकत्रे नमः ॥ आ चार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज अपने समय के अनन्य, परोपकार धर्मनिरत परम प्रतापी, सहस्ररश्मि की शुभ्र रश्मिराशिवत् तपस्तेज की प्रकीर्णता से प्रखर तेजस्वी, षोडश कला से परिपूर्ण कलानिधि की पीयूषवर्षिणी शान्ति सौख्य प्रदायक रश्मिवत् शीतल गुणधारक, शान्तिनिकेतन, ज्ञानध्यानादि सत्कृत्य कर्ता, उपकेशवंश वर्धक, जिनेश्वर गदित यमनियम परायण, जिनधर्म प्रचारक, महा प्रभावक सूरि पुङ्गव हुए। इस रखगर्भा भरत वसुन्धरान्तर्गत मेदपाट प्रान्तीय देव पट्टन नामक विविध सरोवर कूप तड़ाग वाटिकोपवन उपशोभित, उत्तुंग २ प्रसाद श्रेणी की अट्टालिकाओं से जनमनाकर्षक, परम रमणीय नगर में आपश्री का जन्म हुआ। आप सुघड़-गौत्रीय पुण्यशील शाह चतरा की सुमना भार्या भोली के 'लाडुक' नामाङ्कित बड़े मनस्वी पुत्र थे। आपके पूर्वज अक्षय सम्पत्ति के आधार पर अनेक पुण्योपार्जन कार्य कर अपने पवित्र नाम को जैन इतिहास में अक्षय बना गये थे। करीब तीन बार शत्रुञ्जय, गिरनारादि पवित्र तीर्थाधिराजों की यात्रा के लिये विराट् संघ निकाले व संघ में आगत स्वधर्मी बन्धुओं को स्वर्ण मुद्रिकादि योग्य प्रभावनाओं से सम्मानित किया ! दशन पद की आराधना के लिये शत्रुञ्जय तीर्थ पर प्रभु पार्श्वनाथ का जिनालय बनवाया । मुनियों के चातुर्मास का अक्षय लाभ लेकर लक्षाधिक द्रव्य से ज्ञानार्चना की व ज्ञान भण्डार की स्थापना की। पर काल की गति अत्यन्त ही विचित्र है : पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों की कराल कुटिलता तदनुकूल फलास्वादन कराये बिना नहीं रहती हैं इसी से तो शास्त्रकारों ने भव्य जीवों के हितार्थ स्थान २ पर भीषण यातनाओं का दिग्दर्शन करवाते हुए “कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि" लिखा है। मेधावी-मननशील मनीषियों को सतत आत्म स्वरूप विचारते हुए कर्मोपार्जन कार्यों से भयभीत रहना चाहिये । निकाचित कर्मों का बंधन करना सहज (उपहास मात्र में ही सम्भव ) है, पर उनके द्वारा उपार्जित कटु फलों का अनुभव करना भुक्त भागियों से ही ज्ञातव्य है। धन्य वे श्रमणवत् उदारवृत्ति से लाखों रुपयों को व्यय करने वाली चतरा की सन्तान लाडुक आज लाभान्तराय की भीषणता के कारण लक्ष्मीदेवी के कोप का भाजन बन गया था । गृहस्थोचित साधारण स्थिति के होने पर भी धर्म प्रिय लाडुक ने अपने नित्य नैमेत्तिक धार्मिक कृत्यों में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आने दी। उधर अन्तराय कर्म की प्रबलता से दीनता एवं गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी प्रापचिक जटिलता अपना दो कदम भागे बढ़ा रही थी और इधर लाडुक उन सब बातों की उपेक्षा करता हुआ धर्मकार्य में अग्रसर होवा जारहा था । देवी सहायिका का सकल मनोरथ पूरक, कल्पवृक्ष-चिन्तामणि रत्नवत् वाञ्छितार्थप्रद सुदृढ़ इष्ट होने पर भी अपने अपने कर्मों के विपाकोदय को सोच कर आर्थिक चिन्ता निवारणार्थ देवी की आरामरुधर का लोद्रवापुर पट्टन १४११ wwwwwwnwor Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७४] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास धना कर देवी से द्रव्य यारा करना मुनासिब नहीं समझा । लाडुक, ने तो धर्म कार्य में संलग्न रह कर भविष्य को सुधारना ह य बना लिया। ___एक समय योग तिष्णात एक योगी देनपट्टन नगर में आया। उसने अपने नाना प्रकार के भौतिक चमत्कारों से उक्त नगर निवासियों को अपनी ओर सहसा आकर्षित कर लिया । अन्ध श्रद्धालु जनसमाज उसका परम भक्त बन गया । क्रमशः कई दिनों के पश्चात् यकायक किसी प्रसङ्ग पर किसी विशेष व्यक्ति के द्वारा लाटुक की गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी चिन्तनीय स्थिति विषयक सच्ची हकीकत योगी को ज्ञात हुई। उक्त वार्ता के मालूम होने पर योगी को लाडूक की निस्पृहता एवं निरीहतापर परम विस्मय हुआ। कारण अधिकांश नगर निवासी, चमत्कार प्रिय जन समुदाय उसकी ओर आकर्षित एवं आश्चर्यान्वित था पर लाडुक विचारणीय स्थिति का साधारण गृहस्थ होने पर भी मंत्र यंत्रादि की विशेष आशाओं से विलग-योगी के आश्चर्य का कारण ही था । बहुत दिनों की प्रतीक्षा के पश्चात् भी लादुक द्रव्य के लोभ से योगी के पास न आया तब योगी ने स्वयं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये, जाने का निश्चय किया । क्रमशः लाडुक के पास आकर योगी कहने लगालाडुक ! किन्हीं हितैषी व्यक्तियों के द्वारा तुम्हारी वास्ताविक गृह स्थिति का पता चलने पर तुम्हारी निस्पृहता पर आश्चर्य तथा अज्ञानता पर दुःख हुआ अतः मैं स्वयं ही ( मेरे यहां तुम्हारे नहीं आने के कारण ) उपस्थित हुआ । लाडुक । तुम किसी तरह की चिन्ता मत करो । मैं तुम्हें एक शर्त पर एक ऐसा दारेद्रय विनाशक मंत्र बतलाऊंगा कि जिसके द्वारा तुम्हारा कोष ही सर्वदा के लिये अक्षय हो जाचमा । पर तुम्हें इस उपकार के बदले जैनधर्म को छोड़ कर हमारा धर्म स्वीकार करना होगा। योगी के उक्त सर्व बचनों को शान्ति पूर्वक श्रवण करते हुए मननशील लाडुक सोचने लगा-क्या मैं इस तुच्छ, क्षण विनाशी, चञ्चलचपला व चपललक्ष्मी के नगण्य प्रलोभन से अपने अमूल्य-आत्मीय धर्म क याग कर आत्मप्रतारण के दोष से दूषित होऊ ? नहीं, यह तो कभी हो ही नहीं सकता । जैन दर्शन में दुःख और सुख धन और निधनता को कर्मों का परिणाम कहा है। कर्म की मेख पर रेख मारने में तो अनन्त शाक्तिशाली तीर्थकर, चतुर्दिक विजयी चक्रवर्ती भी समर्थ नहीं । कर्मों के शुभाशुभ विपाकोदय को न्यूनाधिक करने में या रद्दोबद्दल करने में शक्तिशालियों का शक्ति शन्त्र भी कुण्ठित हो जाता है तो मिथ्यात्व क्रूर परिणामों वाले कुत्सित रंग में रक्त योगी मेरे कर्मों को अन्यथा करने में कैसे समर्थ होसकता है ? फिर भी लाडुक अपनी गृहभार्या की कसौटी या धर्म परीक्षा के लिये योगी कथित सकल मंत्र प्रयोगी एवं धर्म बलिदान रूप वार्ता को कहकर उनसे उचित परामर्श पाने के निमित्त पूलने लगा-भद्रे ! आर्थिक संकट निवारक योगी का आज स्वर्णापम संयोग हुआ है। यदि कहो तो उनके धर्म को अपनाकर अक्षयनिधि रूप मन्त्र प्राप्त कर लिया जाय । पत्नी-क्या पैसे जैसे क्षणिक द्रव्य के लिये भी पाप धर्म को तिलाञ्जली देने के लिये उद्यत होगये ? मैं तो ऐसे पातक प्रयोगों का अनुमोदन करने मात्र के लिये तत्पर नहीं हूँ। ये सब भौतिक साधन भौतिक सुख के साधन अवश्य हैं तथापि धर्म रूप कल्पवृक्षवत् अक्षय सुख के दातार नहीं। ककर तुल्य द्रव्य निमित्त चिन्तामणि रत्न रूप धर्म का त्याग करना मेरी दृष्टि से समीचीन नहीं। __ अपने ही विचारों के अनुरूप दृढ़ धर्म विचार या अपने से भी दो कदम आगे बढ़े हुए धर्मानुराग को देख लाडुक को बहुत ही सन्तोष एवं आत्मिकानन्द का अनुभव होने लगा। वह रह २ कर पतिव्रत धर्म परायण पत्नी के गुणों पर अपने आपको गौरवशील समझने लग गया। पत्नी की दृढ़ता को देख पुत्रों की परीक्षा निमित्त लाडुक, पुत्रों को समझाने लगा-प्रिय पुत्रों ! गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी अनेक जटिलता पूर्ण समस्याओं को सुलझाने के लिये आज स्वोपम योगी प्रदत्त अक्षय कोष प्राप्ति का अनुपम संयोग प्राप्त हुआ है। यदि तुम लोगों की इच्छा हो तो केवल धर्म परिवर्तन रूप साधारण कार्य से ही उक्त कार्य साध्य किया जा सकता है। Jain Edu B rnational For Private & Pers. योगी का चमत्कार और लाडुक की धर्म दृढ़ता org raamanawwamiwwmarrrrrrrrrrrrrrrror Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४३३-१४७४ योगी के साथ स्वयं सपनी सूरिजी के पदाम्बुजों में भव विनाशिनी दीक्षा परम वैराग्य पूर्वक ग्रहण करली । आचार्यश्री ने भी लाडुक को "सोम-सुन्दर" अमिधान से अलंकृत किया। __ मुनिश्री सोम सुन्दर गुरु चरणों की भक्ति में अनुरक्त रह तत्कालीन एकादशाङ्गादि जितने भागम थेसबका सम्यक् रीत्या अभ्यास कर लिया। इसके सिवाय अध्यात्मवाद, नयवाद, परमाणुवाद, ज्योतिष, मन्त्र यन्त्र विद्याओं में भी अनन्यता प्राप्त करली । अन्य दर्शनों का अभ्यास करने में तो किसी भी तरह की कभी नहीं रक्खी, क्योंकि उस जमाने में इसकी परम आवश्यकता थीं। राजा महाराजाओं की राजसभा में उस जमाने में खूब शास्त्रार्थ हुआ करते थे और वादियों के शास्त्रों से ही वादियों को पराजित करने में बड़ा गौरव समझा जाता था और यह तब ही हो सकता था जब उनके शामों का अभ्यास किया गया हो । इस तरह अपने दर्शन के साङ्गोपाङ्ग अध्ययन के साथ ही साथ मुनि सोभसुन्दर ने अन्य दर्शनों में भी अनन्यता रली। कुशाग्र बद्धि मनि सोमसन्दर ने गरुदेव कृपा से किसी भी तरह की कभी नहीं रहने दी। उन्होंने तो स्थविरों की वैयावश्च कर मुनि जीवन योग्य सब गुणों को प्राप्त करने में किसी भी तरह की कमी नहीं रहने दी। इधर मुनि सोमसुन्दर (लाडुक) के साथ जिस योगी महात्मा ने दीक्षाली थी, उसका नाम दीक्षानंतर मुनि धर्मरन रख दिया था। मुनि धर्मरन ने भी जैनधर्म के सम्पूर्ण तत्वों, सिद्धान्तों एवं आगमों का अवगाहनमन्थन कर जैन दर्शन में गजब की दक्षता प्राप्त करली । योग बल की चमत्कार शाक्ति एवं तात्विक बुद्धि की श्लाघनीय पटुता के कारण मुनि धर्मरत्न ने स्थान २ पर जिनधर्म का अभ्युदय कर जैन धर्म की प्रभावना की । कालान्तर में अलग विचरने योग्य सर्व गुण सम्पन्न हो जाने पर आचार्यश्री ने पाठक पद से विभूषित कर मुनि धर्मरत्न को १०० मुनियों के साथ धर्म प्रचारार्थ अन्य प्रान्तों में विहार करने की आज्ञा प्रदान की। मुनि धर्मरत्न ने भी गुर्वादेश को शिरोधार्य कर अपनी चमत्कारिक शक्तियों से जैन धर्म की आशातीत प्रभावना की। प्राचार्यश्री देवगुपसूरि ने मुनि सोमसुन्दर को सकल शास्त्र निष्णात, विविध विद्या पारङ्गत गच्छभारवाहक सर्वगुण सम्पन्न समझ परम्परागत सूरि मन्त्राराधन करवाकर मन्त्र, यन्त्र, चमत्कारिक शाक्तियां एवं आम्नायों को प्रदान की । पश्चात् अपनी अन्तिम अवस्था में अपना मृत्यु समय जान कर जाबलीपुर के आदित्यनाग गौत्रीय पारख शाखा के धर्म प्रेमी, श्रावकव्रत नियम निष्ठ श्रावक श्री नेमाशाह द्वारा किये गये महा-महोत्सव के साथ आपको आचार्य पद से विभूषित कर श्रापका नाम "सिद्धसूरि" के रूप में परिवर्तित कर दिया । इधर धर्मरत्न मुनि की बढ़ती हुई योग्यता का आदर कर आचार्यश्री ने उनको उपाध्याय पद प्रतिष्ठित किया। सच है योग्य पुरुषों से योग्य व्यक्तियों का योग्य सत्कार होता ही है। स्वनाम धन्य आचार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज महान् चमत्कारी विद्वान् एवं धर्म प्रचारक थे । स्वपर मत के सकल शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ होने से आपके गम्भीर उपदेश प्रायः राजाओं की राज सभा में बड़ी ही निडरता के साथ होते थे । यही कारण था कि अनेक सेठ, साहूकार, राजा, महाराजा और मन्त्रियों पर आपका गहरा प्रभाव था। ओसवालों में गरुड़ जाति-प्राचार्यश्री सिद्धसूरिजी अपने शिष्य मण्डल के साथ परिभ्रमन करते हुए मरुधर प्रान्तीय सत्यपुर शहर की ओर पधार रहे थे कि मार्ग में एक अरण्य के भयानक स्थान में एक देवी के मन्दिर के पास बहुत से मनुष्यों को एकत्रित होते हुए देखा । जन समुदाय के समीप ही बहुत से दीन, मूक पशु दीन वदन से क्रंदन करते हुए व बहुत से वनचर जीवों के रक्त रंजित कलेवर भूमि पर बिखरे हुए दृष्टिगोचर हए । आचार्यश्री सिद्धसूरि ने मकजीवों का जंगल में ऐसा करुणाजनक दृश्य दे निरपराध मूक पशुओं के वात्सल्य भाव के कारण आपका हृदय दया से परिप्लावित होगया । आप से ज्यादा समय लाडुक और योगी की दीचा १४१५ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पर्यन्त मौन वरिपरता सकी । शीघ्र ही देवी के मन्दिर के पास स्थित जन समुदाय के सन्मुख जाकर कहा-महानुभाग!आसनने में तो उच्च खान दान एवं कुलीन घराने के मालूम होते हैं। मुख पर क्षत्रियोचित स्वाभाविक जन रक्षक प्रतिभा गुण की झलक झलक रही है, फिर भी न मालूम आप लोग ऐसे जघन्य कुत्सित एवं हेय कार्य में प्रवृत्त क्यों हो रहे हैं ? मैं यह बात अच्छी तरह से समझता हूँ कि इसमें आप लोगों का किञ्चिन्मात्र भी दोष नहीं है। यह तो किसी आमिष भक्षी नरपिशाच की कुसंगत एवं मिथ्या उपदेश के कुसंस्कारों का ही परिणाम है । उन्हीं की जाल में फंस कर ही आप लोगों ने ऐसे अनुपादेय कार्य को कर्तव्यरूप समझा है। इसको धर्म एवं सौख्य का कारण समझने वाले केवल आप ही नहीं पर बहुत से क्षत्रिय हैं जो मांस भक्षियों की कुसंगति से अपना अधःपतन करते ही जा रहे हैं। क्षत्रिय वीरों का परमधर्म तो दुःखी जीवों के रक्षक बन कर अपने जातीय कर्तव्य को अदा करने रूप था पर मिथ्या उपदेशकों के वाग्जाल रूप औषदेशिक प्रपञ्च के भ्रम में फंसे हुए उन लोगों ने अपने परम पवित्र कर्तव्य व परम्परागत जातीय व्यवहार की स्मृति विस्मृति कर रक्षक रूप पवित्र एवं आदरणीय धर्म को छोड़ दिया। आज तो वे रक्षक होने के बजाय निरपराध मूक पशुओं को यमवत निष्ठर हृदय से आहत कर भक्षक बन गये हैं। इसी में अपने शौर्य, पराक्रम, कर्तव्य एवं धर्म की इति श्री समझनी है। इतना सब कुछ होते हुए भी अहिंसा भगवती के उपासक आचार्यों के सदुपदेश श्रवण से व उनकी आलोकिक चमत्कार पूर्ण शक्तियों की अलौकिकता से बहुत से क्षत्रियों ने, अपने पूर्वजों का पवित्र, वीरत्व वर्धक धर्मभार्ग प्रवर्तक इतिहास श्रवण कर इस क्रूर कर्म का त्याग कर दिया है उन्होंने उन महापुरुषों की सत्संग से अपने जीवन को अहिंसा धर्म से ओतप्रोत बना लिया है। अब तो केवल इस प्रकार लुक छिप कर जंगलों में अपनी पापवृत्ति का पोषण करने वाले थोड़े बहुत लोग ही रह गये हैं । इस समय आप स्वयं गम्भीरता पूर्वक विचार कर इस निर्णय पर पहुँच सकते हैं कि यदि यह कार्य शास्त्र विहित व जनकल्याणार्थ ही होता तो इस प्रकार छिप कर क्यों किया जाता ? अच्छा कार्य तो पब्लिक में सर्व समक्ष किया जाता है, इत्यादि। सूरिजी के इस परमार्थिक एवं निस्पृह उपदेश को श्रवण कर बहुत से लोग लज्जाशील बनगये । पर इस कार्य के करने में जो अग्रेश्वर या प्रमुख व्यक्ति थे वे बीच ही बोल उठे-महात्मन् ! आपको किसने आमन्त्रित किया कि आए आकर इस प्रकार हमें उपदेश देने लगे। यह तो हमारी वंश परम्परा से चला आया आदरणीय, स्तुत्य, हित, सुख एवं कल्याण का कारण है । शास्त्र या वेद विहित होने से सब प्रकार से करणीय है। बलिदान से देवी प्रसन्न होगी व बलि दिये जाने वाले पशु को भी स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इससे उभय पक्ष में श्रेय एवं कल्याण का ही कारण होगा। आप इस बात को अच्छी तरह से नहीं समझते हैं अतः आप यहाँ से पधार जाइये । हमारे परम्पारागत कार्य को बीच में आपको बकवाद करने की आवश्यकता नहीं। सूरिजी-देवानुप्रिय ! यदि इन मूक प्राणियों को आप स्वर्ग में भेजकर देवी को प्रसन्न करना चाहते हो तो आप खयं या आपके कौटम्बिक लोग देवी को प्रसन्न करने के साथ स्वर्ग के सुख का अनुभव क्यों नहीं करते। . इस प्रकार सूरिजी ने अकाट्य प्रमाणों, प्रबल युक्तियों एवं उदाहरणों से इस प्रकार समझाया कि उन लोगों में चौहान वीर महाराव आदि को उन पशुओं पर दया भाव पैदा होगया ! सूरिजी के उपदेशाजुसार उन्होंने हुक्म दे दिया कि इन सब पशुओं को शीघ्र ही बन्धन मुक्त अमर कर दिये जाय । बस, फिर तो देर ही क्या थी ? अनुचरों ने सब पशुओं को छोड़ दिये । वे मूक प्राणी भी अपनी अन्तरात्मा से सूरिजी को आशीर्वाद देते हुए स्वनिर्दिष्ट स्थान की ओर भाग छूटे। मानो उन्होंने नूतन जन्म को ही प्राप्त किया हो इस तरह अत्यन्त उत्सुकता के साथ अपने बाल बच्चों से जा मिले । १४१६ गरुड़ जाति की उत्पति Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ श्रोसवाल सं० १४३३-१४७४ तत्पश्चात् सूरिजी ने राव महाराव आदि वीर क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर जैनधर्म में दीक्षित किये । सत्यपुर से तीन कोस की दूरी पर मालपुरा नामका रावजी की जागीरी का ग्राम था अतः रावजी ने अपने ग्राम को पावन बनाने के लिये व अपने समान अन्य बन्धुओं का उद्धार करने के लिये सूरीश्वरजी से अत्यन्त विनयपूर्वक प्रार्थना करने लगे । रावजी की प्रार्थनानुसार उपकार का कारण जान कर सूरिजी थोड़े साधुओं के साथ वहाँ गये एवं वहीं ठहर गये । उस ग्राम के लोगों को धर्मोपदेश देकर के श्रावकों के करने योग्य कार्यों का बोध करवाया | जैनधर्ग के तत्वज्ञान एवं शिक्षा दीक्षा से परिचित किया। उस समय के जैनाचार्यों की दूरदर्शिता तो यह थी कि वे जहां नये जैन बनाते वहां सब से पहिले धर्म के भावों को सर्वदा के लिये स्थायी रखने के लिये जिन मन्दिर निर्माण का उपदेश देते। कारण, प्रभु प्रतिमा धर्म की नींव को मजबूत बनाने के लिये व धार्मिक भावनाओं की स्थिरता के लिये प्रमुख साधन हैं । तदनुसार सूरिजी ने रावजी को उपदेश दिया और रावजी ने सूरिजी के कहने को स्वीकार कर मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया । कुछ दिनों पर्यन्त सूरिजी ने वहां स्थिरता की पश्चात् अपने कई साधुओं को वहां रख आपने अन्यत्र विहार कर दिया । इस घटना का समय पट्टावली कारों ने वि० सं० १०४३ का लिखा है । जब राव महाराव का बनवाया हुआ मन्दिर तैयार होगया तो प्रतिष्ठा के लिये आचार्यश्री सिद्धसूरि को आमन्त्रित कर सम्मान पूर्वक बुलवाया। श्रीसूरिजी ने भी वि० सं० १०४५ के माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन बड़े ही धूमधाम से प्रतिष्ठा करवाई जिससे जैनधर्म की बहुत प्रभावना हुई। अहा ! जैनाचार्यो का हम लोगों पर कितना उपकार है ? प्राणियों के रुधिर से रंजित हस्तवाले, जैनधर्म की निंदा व जैन श्रमणों का तिरस्कार करने वाले प्याज जैनधर्म को विश्व व्यापी बनाने की उन्नत भावना में अग्रसर होगये हैं । अस्तु वंशावलियों में राव महाराव का परिवार इस प्रकार लिखा है राव महाराव ( पार्श्व० मन्दिर) पारस शिव सांवत सबलो (गरुड कहलाये ) संखला गोकल रावल हरपाल ( इन चारों के परिवार का विस्तार से उल्लेख है ) काम्हण केलो १७८ रेखो आखो जालो भूतो नारायण ( इनका परिवार भी बहुत विस्तृत है । वंशावलियों से ज्ञेय है ) खेतो T चूंढो गोविंद देवपाल सोनल ( इन बन्धुओं की वंशावली भी पर्याप्त परिमाण में विशद है ) भीमो ( भ० महावीर का मन्दिर ) गेनो पातो नोथो जोधी (शत्रु का संघ निकाला ) गरुड़ जाति की उत्पति और वंशवृक्ष T देदो १४१७ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इत्यादि, वि० सं० १८४२ तक की वंशांवलियां लिखी मिलती हैं । राव महाराव का पुत्र शिव और शिव का पुत्र सांवत था। सांवत ने सत्यपुर को अपना निवास स्थान बना लिया था। सांवत को साङ्गोपाङ्ग भक्ति से प्रेरित हो देवी ने गरुड़ पर सवार हो रात्रि के समय स्वप्न में सावत को दर्शन दिये । उस समय सांवत अर्धनिद्रा निद्रित था । अतः सवार को न देख गरुड़ को ही देख सका । इतने में यकायक आवाज हुई भक्त ! तेरे गायें बान्धने के स्थान की भूमि में एक गुप्त निधान है। वह निधान तेरी भक्ति से प्रसन्न हो मैं तुझे अर्पण करती हूं। इस द्रव्य को धर्म कार्य में लगाकर अपने जीवन को सफल बनाना, इतना कह कर देवी अदृश्य होगई। सांवत जागृत होकर चारों ओर देखने लगा तो न दीखा गरुड़ और न दीखा कहने वाला ही । तथापि सांवत ने इसको शुभ स्वप्न समझ शेष रात्रि को धर्मध्यान में व्यतीत की। प्रातःकाल होते ही उसने सीधे मन्दिर में जाकर भगवान के दर्शन किये । पास ही में स्थित पौषधशाला में विराजिन गुरु महाराज के दर्शन कर उनकी सेवा में रात्रि को आये हुए स्वप्न का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। सांवत के मुख से स्वप्न वृत्त को श्रवण कर गुरु महाराज ने कहा-सांवत ! तू बड़ा ही भाग्यशाली है । तेरे पर भगवती देवी की पूर्ण कृपा हुई । पर ध्यान रखते हुए इसका सदुपयोग सदा गर्म कार्यों में या शासनोत्कर्ष मेंही करना। गुरुदेव के शुभ वचनों को शिरोधार्य कर गुरु प्रदत्त धर्मलाभ रूप शुभाशीर्वाद को प्राप्त कर सांवत अपने घर पर चला आया। ___जिस रात्रि में सांवत ने देवी कथित निधान का स्वप्न देखा, उसी रात्रि में सांवत की स्त्री शान्ताजो क्षत्रिय वंश की थी-स्वप्न में पार्श्व प्रभु की प्रतिमा को देखकर जागृत हुई। जब उसने अपने पतिदेव से अपने स्वप्न की सारी हकीकत कही तो सांवत के हर्ष का पारावार नहीं रहा । हर्षोन्मत्त सांवत ने अपनी पत्नी को कहा-प्रिय ! तू भाग्यशालिनी है। तेरी कुक्षि में अवश्य ही कोई भाग्यशील जीव अवतरित हुआ है। जिसके प्रभाव से जैसा तुझे स्वप्न आया है वैसे मुझे भी निधान प्राप्त होने रूप एक महा स्वप्न अाया है । समयज्ञ सावंत देवी के बताये हुए स्थान की भूमि को खोदकर निधान निकाल लाया वस, अक्षयनिधि की प्राप्ति के साथ ही साथ जनोपयोगी, पुण्य सम्पादन करने योग्य कार्य भी प्रारम्भ कर दिये । सांवत को कोई इस स्थिति के सम्बन्ध में पूछता तो वह कहता था कि यह सब गरुड़ का प्रताप है। अतः कालान्तर में लोग उन्हें गरुड़ नाम से सम्बोधित करने लग गये। आगे चलकर तो आपकी सन्तान भी गरुड़ आति के नाम से मशहूर हो गई । इस प्रकार ओसवालों में हंसा, मच्छा, काग, चील, मन्नी, सांड, सियाल आदि कई जातियां बन गई। इधर सांवत के प्रबल पुन्योदय से आचार्यश्री ककसूरिजी महाराज का पधारना सत्यार में होगया। सांवत ने सवालज्ञ द्रव्य व्यय कर सूरिजी :का बड़े ही समारोह पूर्वक पुर-प्रवेश करवाया। आचार्यश्री के उपदेश से शत्रुञ्जय की यात्रार्थ एक विराट् संघ निकाला जिसमें नव लक्ष द्रव्य व्यय किया । स्वधर्मी बन्धुओं को स्वर्ण मुद्रिकाओं की प्रभावना दी । इस तरह के अनेक कार्यों से जैनधर्म की प्रभावना के साथ ही साथ स्वयं ने अक्षय पुण्य सम्पादन किया। इसके विषय में कई कवित्त भी मिलते हैं जिसमें इनको चारणों ने गरुड़ नाथ श्रीकृष्ण की उपमा दी है। सांवत की स्त्री शांता ने शुभ समय में एक पुत्र को जाम दिया जिसका नाम पारस रक्खा गया। जब पारस क्रमशः आठ वर्ष का हुआ तब सत्यपुर के राजा के अनबन के कारण सांवत ने रात्रि समय सत्यपुर का त्याग कर नागपुर की ओर पदार्पण किया। जब सत्यपुर नरेश को इस बात की खबर हुई तो उन्होंने चार सशस्त्र सवारों को सांवत का पीछा करने के लिये भेजा । सांवत को मार्ग में ही सवार मिल गये अतः उन्होंने नृपादेशानुसार उनको पुनः सत्यपुर की ओर चलने के लिये जबरन प्रेरित किया। सवारों की उक्त बात को सांवत ने स्वीकृत नहीं किया तब परस्पर दोनों में मुठभेड़ होगई । सांवत भी वीर एवं महापराक्रमी था १४१५ सांवत की स्त्री शान्ता के पुत्र पारस Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४३३-१४७४ किन्तु एक ओर तो चार सशन्न सवार और एक ओर अकेला पूरी शस्त्र सामग्री से रहित सांवत । इतना होने पर भी सांवत ने चारों सवारों को धराशायी कर दिया पर सांवत भी सुरक्षित न रह सका। उसके शरीर पर बहुत ही भयङ्कर घाव लग गये परिणाम स्वरूप कुछ ही समय के पश्चात् वह भी स्वर्ग का अतिथि बन गया। सांवत की स्त्री शान्ता ने पतिदेव के साथ चिता में सती होने का आग्रह किया पर पारस के करुणाजनक रुदन एवं बालोचित स्नेह के कारण वह ऐसा करने से सहसा रुक गई। इस समय स्त्री म्वभावोचित निर्बलता बतलाना अपने ही हित एवं भविष्य का घातक होगा ऐसा सोच कर उसने बहुत ही धैर्य एवं वीरता के साथ अपने माल को सुरक्षित कर आगे चलना प्रारम्भ किया। क्रमशः वे फल वृद्धि नाम के एक नगर को प्राप्त हुए उस समय फलवृद्धि नगर में हजारों घर जैनियों के थे। पट्टावलियों के आधार पर यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि धर्मघोष सूरि ने अपने ५०० मुनियों के साथ फल वृद्धि में चातुर्मास किया था । अतः उक्त कथन में संशय करने का ऐसा कोई स्थान ही नहीं रह जाता है। पारस अपनी माता के साथ सानन्द फलवृद्धि नगर में रहने लगा। उस समय स्वधर्मी बन्धुत्रों के प्रात जाताय महानुभावा का बहुत ही सम्मान एवं आदर था। वे अपने स्वधर्मी बन्धु को अङ्गाजवत् पालन पोषण करते थे व समृद्धिशाली बनाते थे। तदनुसार पारस तो अन्य स्थान से आया हुअा तेजस्वी, होनहार लड़का था । अतः कालान्तर में पारस का विवाह पोकरण जाति के शा० साधु की कन्या जिनदासी के साथ हो गया। वे सब सकुटुम्ब फल वृद्धि में ही आनन्द पूर्वक रहने लगे। पारस पूर्व सञ्चित कर्मादय के कारण साधारण स्थिति में आ पड़ा था तथापि पारस की माता वीर क्षत्रियाणी एवं जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त की मर्मज्ञ थी। वह पारस के कार्य सहायक बन, उसे सांत्वना प्रदान कर बड़ी ही दक्षता के साथ अपना कार्य चलाया करती थी। एक समय पारस अर्ध निद्रावस्था में सो रहा था कि अर्द्धरात्रि के समय देवी पद्मावती ने स्वप्नान्तर होकर कहा-पारस ! नगर की पूर्व दिशा में केर के झाड़ के बीच जहां एक गाय का दूध स्वयं सूषित हो जाता है,-भगवान पार्श्वनाथ की श्यामवर्णीय चमत्कारी प्रतिमा है । जिस समय तू उसको जाकर देखेगा, वणे के पुष्प उस स्थान पर पड़े हुए मिलेंगे। उस प्रतिमा को निकाल कर एक मन्दिर बनवाना व शुभ मुहूते में उसकी प्रतिष्ठा करवाना । इत्यादि पारस ने सावधान बने हुए मनुष्य के समान देवी की सब बातों को ध्यान पूर्वक सुनी। प्रत्युत्तर में उसने निम्न शब्द कहे-देवीजी ! मैं सत्र कार्य आपकी कृपा से यथावत् कर सकूँगा इसके लिये मैं अपने आपको भाग्यशाली समझंगा पर इस समय मेरे पास इतना अधिक द्रव्य नहीं है कि मैं एक विशाल मन्दिर बनवा सकू देवी ने कहा-तेरे पास क्या है ? पारस बोला-मेरे पास तो खाने के लिये जव मात्र हैं। देवी-जब तुझे द्रव्य की आवश्यकता हो-एक जष की छाब भर कर रात्रि के समय प्रस्तुत केर के माड़ के नीचे रख आना सो प्रातःकाल होने ही वे सब स्वर्णमय हो जावेंगे। पर याद रखना मेरे ये वचन तेरी माता के सिवाय तू किसी को मत कहना, अन्यथा सुवर्ण होना बन्द हो जायगा । पारस ने भी देवी के उक्त वचनों को 'तथास्तु' कह कर शिरोधार्य कर लिये । देवी भी तत्क्षण अदृश्य होगई। प्रातःकाल पारस ने सब बात अपनी मासा से कही तो माता के हर्ष का पारावार नहीं रहा । वह सहसा कह उठी-पारस ! तू बड़ा भाग्यशाली है भगवती पद्मावती देवी की तेरे ऊपर महती कृपा है। पारस देवी के बतलाये हुए निर्दिष्ट स्थान पर अब बिना विलम्ब चलें और चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा को अपने घर ले आवें । पारस यथा योग्य पूजा सामग्री और गाजे बाजे के साथ संघ को लेकर देवी के किये हुए संकेत स्थान पर गया। वहां केर के झाड़ के बीच जहां पञ्चवर्ण के पुष्पों का ढेर देखा-भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवती पद्मावती की स्तुति कर भूमि को खोदी तो श्यामवर्ण, विशालकाय चमत्कारिक पार्श्व पारस को स्वप्न में देवी का दर्शन १४१६ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७४ ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मा प्रतिमा निकल आई। प्रतिमाजी के बाहिर निकलते ही अष्ट द्रव्य से पूजन कर, जयध्वनि से गगनाङ्गण गुञ्जाते हुए समारोह पूर्वक बधाया। एश्चात् कई लोगों ने मूर्ति को उठाने का प्रयत्न किया पर वह इतनी भारी बनगई कि किसी के उठाये न उठाई जासकी। जब पारस स्वयं उठाने गया तो प्रतिमाजी पुष्पवत् कोमल या भार विहीन हो गई । पारस ने अपने सिर पर भगवान पार्श्व-प्रतिमा को उठाई व गाजे बाजे के साथ बड़े ही उत्साह पूर्वक अपने घर पर लाया । सकल श्रीसंघ एवं नागरिक लोग इस चमत्कार पूर्ण घटना से प्रभावित हो पारस की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे। वे आपस में वार्तालाप करने लगे-पारस बड़ा ही भाग्यशाली है पारस के घर को आज पार्श्व प्रभु ने स्वयं पावन किया है। बस, पारस ने भी चतुर, शिल्पकला निष्णात शिल्पज्ञों को बुलवा कर बावन देहरी वाला विशाल मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया। प्रतिदिन देवी के वचनानुसार एक छाब जव निर्दिष्ट स्थान पर रख आता और प्रातःकाल वापिस स्वर्ण जव ले आता । इस प्रकार देवी की कृपा से प्राप्त द्रव्य की पुष्कलता के कारण भन्दिर शीघ्र ही तैयार होने लगा। भवितव्यता किसी के द्वारा मिटाये मिट नहीं सकती है। यही कारण था कि एक दिन किसी ने पारस से द्रव्य आदान का कारण पूछा तो उसने देवी के बचन को विस्मृत कर सहसा स्वर्ण जब के भेद को बतला दिया। फिर तो था ही क्या ? देवी का कहना अन्यथा कैसे हो सकता ? दूसरे दिन जव स्वर्ण न होकर जव ही रह गये। पारस को इसका बहुत ही पश्चाताप एवं अपनी भूल का दुःख हुआ पर अब उससे होना जाना क्या था ? मन्दिरजी का मूल गुब्बारा, रंग मण्डप शिखर आदि बना पर शेष काम यों ही श्रधूरा रह गया। पारस की माता ने कहा-बेटा चिन्ता करने का कोई कारण हो नहीं है। जितना काम होने का था उतना ही हुआ, अब इसके लिये व्यर्थ ही पश्चाताप न करो। अब तो इस मन्दिर को प्रतिष्ठा करवाकर भाग्यशाली बनो। तीर्थङ्करों की इतनी बड़ी मूर्ति जो अतिथि के रूप में अपने घर पर विराजमान है, गृहस्थ के घर में रह नहीं सकती। इसकी प्रतिष्ठा जल्दी करवाने में ही श्रेय है क्योंकि भविष्य न मालूम क्या कहेगा ? पारसने भी माता के उक्त हितकर कथन को सहर्ष स्वीकार कर लिया और वह प्रतिष्ठाकी सामग्री का संग्रह करने में संलग्न होगया। उस समय प्राचार्य धर्मघोषसूरि ने पांच सौ शिष्यों के साथ फल वृद्धि नगर में चातुर्मास किया था। अतः पारस ने जाकर सूरिजी से प्रार्थना की-प्रभो ! मन्दिर की प्रतिष्ठा करवा कर हमको कृतार्थ कीजिये। सूरिजी ने कहा-पारस ! प्रतिष्ठा करबाने के लिये मैं इन्कार नहीं करता हूँ पर नागपुर विराजित आचार्यश्री रि को भी प्रा मी प्रार्थना पर्वकले आवो-हम सब मिल करके ही प्रतिष्ठा करवावेंगे। अहा! हा! कैली उदारता ? कैसी विशाल भावना ? कितना प्रेम व कैसा उच्चतम आदर्श ? सूरिजी जानते थे कि पारस, उपकेशगच्छीय श्राचार्यों का प्रतिबोधित श्रावक है । अतः ऐसे स्वर्णोपम समय में उन आचार्यों का होना जरूरी है। शासन मर्यादा व व्यवहार उपादेयता भी यही है । सूरिजी के उक्त कथन को लक्ष्य में रख पारस ने नागपुर जाकर आचार्यश्री देवगुप्तसूरि से प्रतिष्ठार्थ पधारने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा-वहां प्राचार्यश्री धर्मघोषसूरिजी विराजते हैं, वे भी तो प्रतिष्ठा करवा सकते थे। पारस-पूज्य गुरुदेव ! मुझे स्वयं आपकी प्रार्थना के लिये आचार्यश्री ने ही भेजा है। ___यह सुनकर सूरिजी बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रार्थना को स्वीकृत कर नागपुर से तत्काल फलवृद्धि की ओर विहार कर दिया । क्रमशः फलवृद्धि के समीप पहुँचने पर वहां के श्रीसंघ एवं आचार्यश्री धर्मघोष सूरि ने अपने शिष्यों के साथ सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। इस प्रकार आचार्य द्वय के पारस्परिक अपूर्व वात्सल्य भाव से श्रावकों में भी आशातीत अनुराग मिश्रित सद्भाव का सञ्चार हुआ । इन दोनों आचार्यों के सिवाय फल वृद्धि में और भी बहुत से साधु साध्वी विराजमान थे। अतः उन सबके अध्यक्षत्व में फलवृद्धि नगर में वि० सं० ११८१ माघ शुक्ल पूर्णिमा को भगवान् पर्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े ही समारोह से करवाई। १४२० प्रभु पार्श्वनाथ की मूर्ति और पारस Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४३३-१४७४ ___ पट्टावल्यादि ग्रन्थों से पाया जाता है कि फलवृद्धि के पार्श्वनाथ मन्दिर का जो अवशिष्ट काम रह गया था उसको नागपुर के सुरागों ने पूरा करवा कर वि० सं० १२०४ में पुनः वादी देव सूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई थी। फलौदी के मन्दिर में इस समय कोई लेख नहीं है पर एक डेहरी के पत्थर पर निम्न शिला लेख है “संवत् १२२१ मार्गसिर सुदि ६ श्री फलवर्द्धिकायां देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ चैत्ये श्रीप्राग्वट वंशीय रोपिमुणि मं० दसादाभ्यो आत्म श्रेयार्थ श्रीचित्रकूटीय सिलफट सहितं चंद्रको प्रदत्तः शुभम् भवतु" "बाबू पूर्ण० सं० जैन लेख सं० प्रथम खण्ड शि० ले० नं०८७०” । ___इस लेख से पाया जाता है कि वि० सं० १२२१ के पहिले इस मन्दिर की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। इस प्रकार इस जाति के महानुभावों ने जैन संसार में बहुत ही ऐतिहासिक कार्य किये जिनका वर्णन उपलब्ध है। ____ पारस श्रेष्टि ने पूज्याचार्य देव से साग्रह प्रार्थना की भगवान् आप कृपा करके यह चातुर्मास हमारे यहाँ करावे हमारी भावना और भी कुछ लाभ लेने की है ? सूरिजी ने कहा-पारस ! मेरे चतुर्मास के लिये तो क्षेत्र स्पर्शना होगा वही बनेगा पर तेरे जो कुछ भी लाभ लेने का विचार हो उसमें विलम्ब मत करना कारण अच्छे कार्यों में अनेक विघ्न उपस्थित हो जाते हैं दूसरा मनुष्यों को प्रायुष्य का भी विश्वास नहीं है इत्यादि । इस पर पारस ने कहा पूज्य गुरु महाराज आप फरमाते हो कि कारण से ही कार्य होता है । अतः आपका कारण से ही मेर) कार्य सफल होने का है। सूरिजी ने कहा ठीक कहता है। एक समय फलवृद्धि संघ एकत्र हो बहुत आग्रह से सूरिजी से पुनः चातुर्मास की विनंती की और लाभालाभ का कारण जान कर सूरिजी ने संघ की प्रार्थना को स्वीकार करली बस ! फिर तो था ही क्या पारस को बड़ा ही हर्ष हुआ एक ओर तो पारस के धर्म की ओर भाव बढ़ने लगा दूपरी ओर व्यापारादि कार्य में द्रव्य भी बढ़ता गया अतः एक दिन सूरिजी से पारस ने अर्ज की प्रभो ! मेरा विचार श्रीशत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकालने का है सूरिजी ने कहा 'जहाँ सुखम्' ठीक पारस ने श्रीसंघ से श्रादेश लेकर संघ के लिये सब सामग्री जमा करना प्रारंभ कर दिया था और चातुर्मास के बाद मार्गशीर्ष शुक्ला १३ को सूरिजी की नायकता एवं पारस के संघपतित्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया। इस कार्य में पारस ने खुले दिल से पुष्कल द्रव्य व्यय किया। यात्रा से आकर साधर्मी भाइयों को वस्त्र, लड्डू में एक-एक सुवर्ण मुद्रा गुप्त डालकर पहरावणी में दी इत्यादि पारस वास्तव में पारस ही था आपकी सन्तान परम्परा ने भी जैनधर्म की अच्छी से अच्छी सेवा की थी। वंशावलियों में बहुत विस्तार से उल्लेख मिलता है। मेरे पास जो 'गरुड़' जाति की वंशावलियां हैं जिसमेंइस गरुड़ जाति के उदार वीरों ने शासन-सम्बन्धी इस प्रकार के कार्य किये। ६२ जैन मन्दिर, धर्मशालाएं व जीर्णोद्धार करवाये । २६ बार तीर्थों की यात्रार्थ विराट संघ निकाला। ३८ बार संघ को अपने घर पर बुलवा कर प्रभावना दी। ३ आचार्यों के पद महोत्सव किये । ४ बार आगम लिखवा कर भण्डारों में स्थापित करवाये। ६ कूदे बनवाये १ बावड़ी बन्धवाई । १४ वीर पुरुष संग्राम में वीर गति को प्राप्त हुए। ४ वीराङ्गनाएं अपने मृत पति के साथ सती हुई। इस प्रकार अनेक कार्यों का उल्लेख वंशावलियों को पढ़ने से जाना जा सकता है। आज इस जाति के नाम के कोई भी घर दृष्टिगोचर नहीं होते पर वंशावलियों के आधार पर यह निश्चयरूपेण अनुमान लगाया जा सकता है कि एक समय इस जाति की संख्या पर्याप्त परिमाण में थी। इस गरुड जाति के अनेक महा फलोदी मन्दिर की प्रतिष्ठा और शिला लेख Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १.३३-२०७४ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास Aman.anaamaananaanaar पुरुषों के नाम पर अनेक शाखा, :प्रशाखाएँ प्रचलित हुई। जैसे कि-गरुड़, घोडावत, सोनी, भूतड़ा, संघी खजाश्ची, पटवा, फलोदिया आदि । भूरा जाति-पॅवर सरदार भूरसिंह अपने साथी सरदारों के साथ प्रामान्तर जा रहे थे इधर विहार करते हुए प्राचार्य परमानन्द सूरि अपने शिष्यों के साथ जंगल में पारहे थे जिन्हों को देखकर एक सरदार पशुकन की भावना कर दो चार शब्द साधुओं से कहे इतने में पीछे से आचार्यश्री भी पधार गये और उन सरदारों को जैन मुनियों के प्राचार विचार के विषय में उपदेश दिया तथा अपने रजोहरण के अन्दर रहा हुधा अष्ट मंगलरूप पाटा दिखाया सूरिजी का उपदेश सुन राव भूरसिंह ने जैन मुनियों के त्याग वैराग्य और शुभभावना पर प्रसन्न होकर धर्म का स्वरूप समझने की जिज्ञासा प्रकट की फिर तो था ही क्या सूरिजी ने क्षत्रियों का धर्म के विषय युक्ति पुरस्सर समझाया कि भूरसिंह पहले शिव भक्त था और भजन खूब करता था उसके हृदय में यह बात ठीक जच गई कि आत्म कल्याण के लिये तो विश्व में एक जैनधर्म ही उपादेय हैं सूरिजी से प्रार्थना की कि यहां से चार कोस हमारा नारपुर ग्राम है वहाँ पर आप पधारे हम आपका धर्म सुनेंगे क्योंकि मेरी रुचि जैनधर्म की ओर बढ़ी है इत्यादि । सूरिजी भूरसिंह का कहना स्वीकार कर नारपुर की ओर चल दिये । भूरसिंह ने सूरिजी की खूब भक्ति की और हमेशा सूरिजी का व्याख्यान मुन गहरी दृष्टि से विचार किया और आखिर कई लोगों के साथ उसने जैनधर्म को स्वीकार कर उसका ही पालन किया। भूरसिंह ने नारषुर में भ० पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया भूरसिंह के सात पुत्र थे वे भी सबके सब जैन धर्म की आराधना करते थे उन्होंने भी अनेक कार्य जैनधर्म की प्रभावना के किये इससे भूरसिंह की सन्तान को भूरा भूरा कहने लगे धागे चलकर भूरा शब्द जाति के नाम से शुरु होगया इस जाति की उत्पति के अलावा वंशावलियाँ सुझे नहीं मिली अतः यहाँ नहीं लिखी गई हैं। छावत गोत्र- आचार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज परिभ्रमन करते हुए मालवा प्रदेश में पधारे। मालवा निवासी परमार वंशीय आमिषाहारी, हिंसानुग्रामी क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर उन्हें अहिंसा भगवती एवं जैन धर्म के उपासक बनाये। उक्त समुदाय में मुख्य राव लाहड़ था। लाह समुदाय में मुख्य राव छाहड़ था। लाहड़ का पुत्र मल बड़ा ही धर्मात्मा था। उसने अपने न्यायोपार्जित द्रव्य से शत्रुञ्जय का संघ निकाल कर जिनशासन की प्रभावना की थी। धारानगरी के बाहिर भगवान महावीर का मन्दिर बनवाकर आपने प्रतिष्ठा करवाई थी। इस तरह दर्शन पद की आरा. धना के साथ ही साथ अनेक शासन-अभ्युदय के कार्य किये। आपका समय पट्टावलीकारों ने वि० सं० १०७३ का लिखा है। आपकी संतान छावत के नाम से प्रसिद्ध हुई। आपकी वंशावली इस प्रकार मिलती है। राव गहड़ - कुंपा तोला माला (संघ) हडमंत दोलो खरत्थो I (महावीर म०)। दलपत कालिया । लणे पाचो दुर्गा गोगो पातो कानड़ पुनड़ (संघ निकाला) महादेव का चतरी चैनो सुखो बारम करमण Jain Edu१४२२ national ry.org Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४३३-१४७४ इस प्रकार बहुत ही विस्तार पूर्वक वंशावलियां मिलती हैं। वि० सं० १९०३ के फाल्गुन शुक्ला २ तक के नाम वंशावलियों में लिखे मिलते हैं। इस जाति के उदार नर पुङ्गवों ने शासनोत्कर्ष एवं पुण्य सम्पादन करने के लिये इस प्रकार के सुकृत कार्य किये हैं-अर्थात ७-जैन मन्दिर एवं धर्मशालाएं बन बाई । २६-बार तीर्थ यात्रार्थ विराट संघ निकाले । ३१-बार संघ को घर बुलवाकर पहिरावणी दी। ५-बार आचार्य पद के महोत्सव किये। ६-बार जैनागमों को लिखवाकर भण्डारों में स्थापित करवाये १५-वीर पुरुष युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए। ११-वीराङ्गनाएं अपने मृत पति के साथ सती हुई। इत्यादि कई ऐसे कार्य किये जिसका वंशावली आदि ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन मिलता है। यदि उन सब कार्यों को पृथक् २ विशद रूप में वर्णन किया जाय तो एक २ जाति के लिये एक २ ग्रन्थ बन जाय । _आचार्यश्री सिद्ध सूरिजी महाराज महान् प्रभावक पुरुष हुए | आपने अपने पूर्वजों की भांति अनेक प्रान्तों में परिभ्रगन कर जैनधर्म की पर्याप्त प्रभावना की । कई वैरागी भावुकों को भगवती दीक्षा देकर जैन श्रमण समुदाय में वृद्धि की। कई जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं करवा कर जैन इतिहास की नींव को दृढ़ की। कई वार तीर्थ यात्रार्थ संघ निकलवा कर तीर्थ यात्रा की। इस प्रकार आपने शब्दतोऽगम्य जैनशासन की सेवा की जिसको एक क्षण भर भी नहीं भूला जा सकता है। ___ अन्त में आपश्री ने चित्रकोट नगर में श्रेष्टि गौत्रीय शा० मांडा के महामहोत्सव पूर्वक उपाध्यायश्री भुवन कलश को सूरि पद से विभूषित कर वि० सं० १०७४ वैशाख शुक्ला १३ के दिन सौलह दिनों के अनशन पूर्वक समाधि के साथ स्वगे पधार गये। आचार्यश्री शिष्य के जम्बुनाग का जीवन वृत्त-आचार्यश्री सिद्धसूरि के शासन में जम्बुनाग नाम के एक मुनि जो अनेक चमत्कार पूर्ण विद्याओं में पारङ्गत एवं ज्योतिष विद्या विशारद थे-महा प्रभावक हुए। आपने अपनी आत्म-सत्ता के बल पर या चमत्कार पूर्ण अलौकिक शक्तियों के आधार पर कई जैनेतरों को जैनधर्म में प्रति-बोधित किया। एक समय जम्बुनाग मुनि यथाक्रम पृथ्वी पर विहार करते हुए मरुधर प्रान्तीय लुद्रुया (लोद्रवा ) नामके शहर में पधारे । वह भीम सदृश महा-पराक्रमी तणु भाटी नाम का राजा राज्य करता था। लोद्रव संध ने जा-युनाग मुनि से विज्ञप्ति की-प्रभो! हम लोगों का विचार यहां पर जिन मन्दिर बनवाने का है पर यहां के ब्राह्मण लोग हमें वैसा करने नहीं देते हैं। इस समय आप जैसे विद्यावली, चमत्कारी पूज्य पुरुषों के चरण कमल यहां होगये हैं फिर भी हमारे मन के मनोरथ सफल न हों तो फिर कभी होने के ही नहीं हैं। श्रीसंघ की विनम्र पूर्ण प्रार्थना को श्रवण कर जम्बुनाग मुनि ने कहा-आप लोग सर्व प्रथम राजा के पास जाकर मन्दिर निर्माणार्थ भूमि मांगो । श्रीसंव ने भी मुनिश्री के वचनामृतानुसार राजा के पास जाना निश्चय किया। क्रमशः राजा के पास उपहार ( ननराना ) भेंट करते हुए जिन मन्दिर बनाने के लिये योग्य भूमि की याचना की। राजा ने भी उपकेशवंशियों की इस उचित प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार कर भूमि प्रदान करदी । राजा की उदारता से बिना कष्ट भूमि के प्राप्त होजाने पर उन लोगों ने जिन मन्दिर का काम प्रारम्भ किया तो ब्राह्मणों ने अपनी सत्ता के घमण्ड में आकर मन्दिर का काम रोक दिया। जम्बुनाग को इस बात की खबर लगते ही वे ब्राह्मणों के पास जाकर कहने लगे-त्रिजगजनपूजनीय, मुनि जम्बुनाग का लद्रवा में पदार्पण Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७१] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास परमाराध्य, प्रत्यक्ष पार्थ्य, परमपिता परमात्मा श्री जिनदेव के मन्दिर निर्माण रूप परम पावन कार्य में आप लोग विघ्न रूप अन्तराय कर्मोपार्जन क्यों कर रहे हैं ? यदि आपके हृदय में धार्मिक इर्ष्या की ज्वाज्वल्य नाम ज्वाला ही प्रज्वलित हो रही हो या आपको अपने शास्त्र पाण्डित्य के मिथ्याभिमान का जोशीला नशा ही इस प्रकार के अनुचित कार्य में प्रवृत्ति करवा रहा हो तो आपके इप्सित विषय के पारस्परिक शास्त्रार्थ से आपका नशा मिटाया जा सकता है। मेरे साथ मनोऽनुकूल विषय पर शास्त्रार्थ कर आप लोग निर्णय करले कि आपका अहमत्व कहां तक ठीक है? मुनि जम्बुनाग के सचोट शब्दों से ब्राहाणों के हृदय में अपमान का अनुभव होने लगा उन्होंने न्याय व्याकरण, व दार्शनिक विषयों को छोड़कर अपने सर्व प्रिय ज्योतिष विषय में शास्त्रार्थ करना निश्चित किया। वे लोग इस बात को समझ रहे थे कि जैन श्रमण धर्मापदेश देने में या दार्शनिक तत्वों का प्रतिपादन करने में ही कुशल होते हैं, ज्योतिष विषय में नहीं। अतः ज्योतिष निर्णय में वे लोग हमारी समानता करने में या हम तक पहुँचने में सर्वथा असमर्थ हैं। इस विषय में वे हमको कभी पराजित कर ही नहीं सकेंगे इस मिथ्याभिमान के कारण ज्योतिष के विषय को ही शास्त्रार्थ का मुख्य विषय बना लिया। ..मुनि जम्बुनाग ने भी सर्वतोमुखी विद्वत्तासम्पन्न प्रतिभा के आधार पर ब्राह्मणों के उक्त शास्त्रार्थ विषय को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके लिये मध्यस्थ वृति पूर्वक जजमेन्ट प्राप्त करने लिये दोनों पक्ष के महानुभावों ने लुद्रुवा नरेश को ही मध्यस्थ निर्वाचित किया। राजा ने जज चुन लिये जाने पर उन्होंने दोनों की परीक्षार्थ (मुनि जम्बुनाग एवं ब्राह्मणों को) अपना ( राजा का) अलग २ वर्षफल लिख लाने का आदेश किया। साथ ही यह घोषणा की कि-मेरा गत भाव विभावक वर्ष फल जिसका अधिक होगा वही विजयी समझा जायगा । इस पर सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने राजा के दिन २ का भावी फल लिखा तब जम्बुनाग ने घड़ी २ का भावी फल लिखा। क्रमशः वर्ष फल के लेखन कार्य के समाप्त हो जाने पर दोनों पक्ष के महानुभावों ने अपने अपने लेख राजा को सौंप दिये । राजा ने उनको पढ़कर (बन्धी खामण) खजाश्ची को सौम्पते हुए कहा-"इनको सर्वथा सुरक्षित रखदो, जिसका लिखना सत्य होगा वही विजयश्री प्रतिष्ठित किया जायगा" । अस्तु, जम्बुनाग ने अपने भावीफल में लिखा था कि, अमुक दिन में इतनी घड़ी होने पर शत्रु यवन सम्राट मुम्मुचि पचास हजार घोड़ों के साथ सुसनद्ध हो तेरे राज्य को लेने की इच्छा से आधेगा। यदि पड़ाव करने के समय आप यवनों पर आक्रमण करोगे तो यवन आपके हस्तगत हो जावेंगे। हे राजन् ! उस समय आप यह विचार मत करना कि मेरे पास फौज कम है और शत्रु के पास फौज विशेष है फिर मैं इसको कैसे जीत सकूँगा । देखो, यवन सम्राट को आप जीत सकोगे, विश्वास कराने वाला तुझे यही संकेत जानना चाहिये कि-जब आप यवनों को जीतने को जानोगे, तब मार्ग में आप एक पाषाण के दो टुकड़े करोगेविश्वास कर लेना कि मैं अवश्य जीतूंगा। इस प्रकार जम्बुनाग मुनि के द्वारा लिखे हुए समय में ही यवनों ने अचानक आकर पड़ाव डाल दिया राजा भी उस लिखित संवाद के विश्वास पर अपने हृदय में धैर्य धारण कर चंचल घोड़ों को एवं अपनी फौज को साथ में ले पृथ्वीतल को कम्पाता हुआ यवनों की ओर चल पड़ा। अपने नगर के उद्यान के निकटस्थ मन्दिर में स्थित सुस्वान नाम की अपनी गौत्र देवी को जीतने की इच्छा से नमस्कार करने के लिये गया। ऊपर लिखा हुभा मुनि जम्बुनाग से लगाकर वाचक पमप्रभ तक का सम्बन्ध उपकेश गच्छ चरित्र श्लोक ३५० से जगा कर श्लोक ४३९ तक का अनुवाद पहा है स्थानाभाव मब श्लोड यहाँ इसलिये नहीं दिये गये हैं किसी अन्धक भन्त में उपकेका गच्छ चरित्र भी मुद्रित करवा दिया जायगा १४२४ मुनि जम्बुनाग द्वारा ब्राह्मण पराजय Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १४३३-१४७४ उस मन्दिर के अग्र भाग में स्थित एक पाषाण स्तम्भ को देख, मुनि जम्बुनाग के कथन का विश्वास जानने के लिये उस स्थम्भ को खड़ा से आहत किया तो एक दम वह दो टुकड़े होगये । मुनि जम्बुनाग के वचनों की उक्त प्रतीति के कारण राजा ने उस यवन सेना पर एकदम आक्रमण किया। जिस प्रकार मंदराचल पहाड़ ने सागर मथा वैसे ही परिवर भाटी राजा ने यवन सैन्य को मथ डाला। क्षण भर में यवन राज मुम्मुचि को कारागर में आबद्ध कर उसका सारा खजाना लूट लिया । यवन सेना अनाथ (मालिक रहित) होकर नष्ट भ्रष्ट हो चारों दिशाओं में भाग गयी। भाटी राजा भी मुम्मुचि को साथ में ले, आयार्य जम्बुनाग के पास आया और प्रणाम कर बोला-पूज्य गुरुदेव ! आपके आदेश और प्रसाद से मैंने इस शत्रु को जीता है। प्रभो! आपका कथन सौलह पाना सत्य हुआ। अतः अब मुझे मेरे योग्य सेवा कार्य फरमाकर कृतार्थ करें। इस पर मुनि ने कहा-हम निस्पृहियों के लिये क्या जरुत है ? हमें तो किसी भी वस्तु या अनुकूल आदेश की आवश्यकता नहीं पर फिर भी आपकी आन्तरिक अभिलाषा मेरे मनोगत भावों को पूर्ण करने की है तो आप अपने शहर में जिमराज का एक भव्य मन्दिर बनवाने दीजिये । राजा ने भी गुरु के वचन को तथास्तु कह कर शिरोधार्य कया और ब्राह्मणों को तिरस्कृत कर अपने नगर में जिन मन्दिर का निर्माण करवाया। मुनि जम्बुनाग ने स्वयं भगवान् महावीर का मूल प्रतिबिम्ब स्थापित किया उस दिन से लेकर ब्राह्मणों की भी जम्बुनाग पर उत्तम प्रीति हो गई। मुनि जम्बुनाग ने साहित्य क्षेत्र में भी सर्वाङ्गीण उन्नति की। आपश्री ने कौन २ से ग्रन्थों का निर्माण किया इसका यथावत् पता तो नहीं चलता है पर इस समय आपके बनाये केवल दो ग्रन्थ विद्यमान हैं। एक वि० सं० १००५ का बनाया हुआ मुनिपति चारित्र तथा दूसरा वि० सं० १०२५ में रचा हुत्रा जिनशतक (स्तोत्र ) नमाका विद्वज्जन प्रशंसनीय चण्डिका शतक के समान ही दुरुइ और अनेक अर्थों वाला, विद्वानों के मन को मुग्ध करने वाला-ग्रन्थ है । इस प्रकार की साहित्य सेवा के अलावा आपने अनेक मांस मदिरा सेवियों को भी प्रतिबोध कर जैनधर्म की दीक्षा दी है। निधी जम्बुनाग के अन्यान्य शिष्यों में देवप्रभ नामके महाप्रभावक, महत्तर पद विभूषित शिष्य हुए। आपने भी श्री जिनशासन की बहुत ही प्रभावना की देवप्रभ के पश्चात् आपके शिष्य श्रीकनकप्रभ महत्तर पद पर अवस्थित हुए। कनकप्रभ के शिष्य जिनभद्र मुनीश्वर हुए जिनको गच्छ के अधिनायकों ने उपाध्याय पद प्रदान किया । उक्त तीनों भहापुरुषों का जीवन चरित्र, 'उपकेश गच्छ चरित्र' में विशद रूप से नहीं मिलता, तथापि पट्टवल्यादि अन्य ग्रन्थों से पाया जाता है कि आपने जैन शासन का बहुत ही अभ्युदय किया ।। ___ एक दिन जिनभद्र मुनीश्वर अपने शिष्य समुदाय के साथ विहार करते हुए गुर्जर प्रांत में पधारे। उस ससय पाटण में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि प्रतिबोधित राजा कुमारपाल का राज्य था । हेमचंद्राचार्य का उन पर पर्याप्त प्रभाव था। श्री उपाध्यायजी म० ने पाटण में अपना व्याख्यान क्रम प्रारम्भ रक्खा । वैराग्योत्पादक व्याख्यान श्रवण से एक क्षत्रिय कुमार जो सांसारिक सम्बन्ध में पाटण नरेश (कुमार पाल के पहिले के राजा) सिद्धराज के भतीजा लगता था-संसार से विरक्त हो गया । उपा०जी स० के सन्मुख उक्त क्षत्रिय कुमार ने अपने हृदयान्तर्हित भावों को प्रगट किया । उपाध्यायजी म० ने भी उसके मुख की त्तत्रियोचित स्वाभाविक प्रविमा व शुभ चिह्न, लक्षणों को देखकर यह अनुमान लगा लिया कि यदि यह संसार से विरक्त हो दीक्षित होवेगा तो अपने साथ ही अन्य कितने ही भावुकों का कल्याण व जिन शासन का अभ्युत्थान करेगा। इस पर इसकी स्वयं की भावना भी दीक्षा लेने की है ही अतः उसकी माता को समझा कर [ तुम्हारा पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली एवं वर्चस्वी है। यदि यह दीक्षित हो जाय तो घर के नाम को उज्वल करने के साथ ही साथ जिन शासन को उत्कर्षावस्था में पहुंचाने वाला व अपने नाम के साथ ही साथ माता पिताओं के एवं कुल के नाम को अपने असाधारण कार्यों से जैन संसार में अमर करने वाला होगा] जम्बुनाग की परम्परा १४२५ arrammarunawwar १७१ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७४ ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ले लिया ! शता ने भी उसके बढ़ते दए वैराग्य को एवं जिनभद्र सुनीश्वर के वचनों को लक्ष्य में रख उसे दीसा लेने की महर्ष श्राज्ञा प्रदान कर दी । उपाध्यायजी ने भी भावी प्रभावक, तेजस्वी क्षत्रिय-कुमार को दीक्षित कर. नि पद्मप्रभ नाम रख दिया। मुनि पद्मप्रभ को सर्व गुणों का आधार व शासन की उन्नति करने का प्रधान हेतु समझ, शास्त्राभ्यास करवाना प्रारम्भ करवा दिया। नवदीक्षित मुनि ने पूर्व जन्म में ज्ञानार्चना, भक्ति, एवं ज्ञानाराधना को विशेष परिमाण में की थी। अतः वे कुछ ही समय में शास्त्रमर्मज्ञ व अने समय के अनन्य विद्वान हो गरे । वीणावाद में मस्त बनी सरस्वती की आप पर इतनी कृपा थी कि संगीत एवं वक्तृत्व कला में तो आप असाधारण पाण्डित हस्तगत कर लिया कि श्राप जिस समय व्याख्यान देना प्रारम्भ करते थे नव मानव देहधारी तो क्या पर देव देवांगमा भी स्तभित हो जाते थे। जब समय हो जाने पर माप व्याख्यान समाप्त कर देते थे तो श्रोताजन को बड़ा ही अायात पहुँचता था और वे पुनः व्याख्यान के लिये लालायित रहते थे इत्यादि । आप इस प्रकार व्याख्यान के लिये सर्वत्र प्रसिद्ध हो गये। मुनि पद्मप्रभ की योग्यता पर प्रसन्न होकर श्री उपाध्यायजी महाराज ने मुनि पद्मप्रभ को वाचक पद से विभूषीत कर उसका सम्मान किया। एक समय आप पुनः इत उत परिभ्रमन को हुए पाटण पधारे । नित्य नियम क्रमानुसार वाचकजी के कई व्याख्यान (पब्लिक) हुए । मुनि पद्मप्रभ की प्रतिपादन शैली की अलौकिकता से आकर्षित हो जन समाज नित्य नूतनोत्साह से विशाल संग्या में व्याख्यान श्रवण का लाभ लेने लग गया। तात्विक विषयों के स्पष्टी करण की असाधारणता के कारण नगर भर में आपका सुयश ज्योत्स्ना विस्तृत होगई । अनन्तर श्री हेमचंद्रसूरि ने उस नवदीक्षित पद्मप्रभ को जनोत्तर (अति अलौकिक-सर्वश्रेष्ठ ) वाचक गुण सम्पन्न प्रखर व्याख्याता, जानकर व्याख्यान के समय (प्रातःकाल) उस पद्मप्रभ को कौतुक से बलाया। प्राचार्यश्री स्वयं प्रच्छन्न स्थान पर बैठ कर बहुत ही ध्यानपूर्वक मुनि एद्मप्रभ के व्याख्यान-विवेचन शक्ति व तत्व प्रतिपादन को श्रवण करने लगे। राजा कुमारपाल भी मुनि श्री के आश्चर्योत्पादक व्याख्यान सभा में उत्कण्ठित हो सम्मिलित हुआ । नव मुनिजी विवेचन एवं स्पष्टीकरण करने की अलौकिकता बोलने की मधुरता, श्रोताओं को चुम्बक बत् आकर्षित करने की विचित्रता ने समासीन जन समाज, राजा कुमारपाल एवं श्राचार्यश्री हेमचंद्रसूरि को भी आश्चर्य विमुग्ध बना दिया । इस व्याख्यान ने सूरिजी के हृदय में मुनि पद्मप्रभ के प्रति अगाध स्नेह पैदा कर दिया। उनकी इच्छा वाचकजी को अपने पास रखकर अपने चुग के असाधारण महाप्रभावक बनाने की होगई। अतः उक्त इप्सित अभिलाषा से प्रेरित हो उन्होंने उपाध्याय जी से वाचक मुनि पद्मप्रभ की याचना की। इसमें सूरिजी का-वाचकजी के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करवाने का ही परम स्तुत्य, आदरणीय ध्येय होगा पर यह बात उपा० ने स्वीकृत नहीं की। अब तो हेमचन्दसूरिजी जबरन भी उसको लेने का प्रयत्न करने लगे अतः उपाध्यायजी को बहुत ही चिन्ता हो गई। वे सोचने लगे कि यहां का राजा कुमारपाल हेगचन्द्राचार्य का भक्त है। अतः यहां पर ऐसी स्थिति में रमा भयावह है। बस. दोनों गरु शिष्य रात ही में ऐसे विषम मार्ग से विहार कर सिनपल्ली (सिनवली) नामक एकान्त व विशाल स्थान में पहुँच गये कि जहां राजाओं की सेना या गुप्तचरों से भेद लगना भी दुःसाध्य था। जब हेमचन्द्राचार्य को इस बात की खबर लगी कि उपाध्यायजी म. रात्रि में ही चले गये हैं तो उन्होंने राजा कुमारपाल को पतद्विषयक प्रेरणा की। राजा ने भी योग्य पुरुषों को उपाध्यायजी को ढूंढ़ने के लिये भेजा पर विषम मार्ग का अनुसरण करने वाले उपाध्यायजी का पता वे न लगा सके । अन्त में हताश हो वे जैसे के तैसे पुनः लौट आये । उपाध्यायजी व वाचक पद्मप्रभ मुनि जिस स्थान पर ठहरे थे उसके नजदीक ही एक ग्राम था। वहां की विसोई नाम की देवी किसी पात्र के शरीर में अवतीर्ण हो कहने लगी-हे भद्रपुरुषों ! तुम्हारे यहां जो कल दो श्वे० साधु पधारे हैं उनको शीघ्र ही जाकर इस बात की सूचना करो कि वाचक पद्मप्रभ मुनि को देवी ने १४२६ क्षत्री कुमार की दीक्षा और पद्मप्रभ नाम Jain Educationnerational For Private & Personal W.jainelibrary.org Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४३३-१४७४ बुलवाया है। अतः शीघ्र ही देवी के निर्दिष्ट स्थान पर चलो। उस ग्राम के भद्रिक पुरुषों ने देवी प्रोक्त वचनों को ग्राम स्थित सुनियों को वंदन कर कह सुनाये । उपाध्यायजी म. ने भी वाचक पद्मप्रभ को देवी के पास भेज दिया । जब वाचकजी विसोई देवी के स्थान पर गये तो देवी ने कहा-“हे भाग्यशाली ! मैं त्रिपुरा देवी को नमन करने गई थी। उन्होंने मुझे कहा था कि तुम्हारे वहां पद्मप्रभ नामक श्वे० साधु आवेगा उसको मेरी ओर से कह देना कि तुमने तीन भव तक मेरी आराधना की पर स्वल्प आयुष्य होने के कारण मैं सिद्ध न हो सकी । अब तुम हमारी आराधना करो मैं तुम्हारे लिये वरदाई (सिद्ध) हो जाऊंगी।" ऐसा कह कर त्रिपुरादेवी ने मुझे विसर्जित की और मैं आपको सूचना देने के लिये यहां आई । आपको देवी कथित सकल वृतान्त कह दिया अब आप इस बात को नहीं भूलें । आप त्रिपुरादेवी का स्मरण कीजिये कि आपको पूर्व साधित मन्त्र भी स्मृति रूप हो जाय। वाचक पद्मप्रभ ने देवी विसोई की बात को सुनकर त्रिपुरादेवी का ध्यान लगा लिया। बस देवी के प्रभाव से पूर्व जन्म पठित देवी साधक मन्त्र की ताजा स्मृति हो आई। मन्त्र-स्मरण के साथ ही वाचकजी अपने गुरु उपाध्यायजी के पास आये और उन्हें विनय पूर्वक सब हाल सुना दिया । उपाध्यायजी को देवी की अनुपम कृपा के लिये अत्यन्त प्रसन्नता हुई और ऐसा होना सम्भव भी था । अपने या अपने शिष्य के अनुपमेय उत्कर्ष में किसी को अपसिमित आनन्द का अनुभव न हो ? अब उपाध्यायजी की यह इच्छा हुई कि किसी योग्य प्रदेश में जाकर देवी के कथनानुसार वाचकजी को मन्त्र साधन की अनुष्ठान क्रिया करवाई जाय । इस उच्चतम विचारधारा से प्रेरित हो वे सपादलक्ष प्रान्त में परिभ्रमन करते हुए नागपुर शहर में पधारे । उन वाक् संयम श्रेष्ठ मुनि ने नागोर में पदार्पण कर वहां के नागरिक-श्रावकों को अनुष्ठान के लिये कहा परन्तु भवितव्य के कारण उन्होंने शिर धून दिया कारण उनके तक़दीर ही इस काम के योग्य नहीं थे। अनन्तर वे गुरु शिष्य सिन्ध प्रान्तान्तर्गत डंभरेल्लपर नगर में पधारे। वहां गच्छ में पूर्ण भक्ति रखने वाला यशोदित्य नामका श्रेष्टि भक्त श्रावक रहता था। उसी डंभरेल्लपुर में हमेशा प्रातःकाल उठकर सवा करोड़ स्वर्ण मुद्रा का दान करने वाला सुहड़ नामका राजा राज्य करता था। श्री उपाध्यायजी म० के वहां पधार जाने पर गुरु आगमन के महोत्सव में मंत्रीय-शोदित्य ने डंभरेल्लपुर नरेश को भी आमन्त्रित किया । भक्ति परायण वह राजा भी मन्त्री की प्रार्थना को मान दे सपरिवार पुर प्रवेश महोत्सव में सम्मिलित हआ। समय पाकर वाचक पद्मप्रभ मुनि ने अपनी अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न विद्वत्ता द्वारा राजा और प्रजा की सभा में मधुर एवं हृदय ग्राही छोजस्त्री गिरा में व्याख्यान दिया । अश्रुतपूर्व मनोमुग्धकारी व्याख्यान को श्रवण कर प्रसन्नता के मारे राजा ? विनयपूर्वक अर्ज करने लगा-स्वामिन ! मेरे द्वारा समर्पित किये हुए ३२००० द्रम्म ( उस समय का प्रचलित सिक्का विशेष ) ३२००० घोड़े व ३२००० ऊँटनिये आप स्वीकृत करें। यह सुन गुरु महाराज ने उत्तर दिया-राजन् ! परम निस्पृह, परिग्रह को नहीं रखने वाले, म हे कार्यों का आचरण करने वाले, परोपकार धर्म निरत, मधुकरी पर जीवन निर्वाह करने वाले हम भिक्षुकों को इस लौकिक द्रव्य से क्या प्रयोजन है ? हमें तो ऐसे धन की किञ्चित भी दरकार नहीं । इस पर राजा ने कहामेरा किया हुआ दान अन्यथा नहीं हो सकता-किये हुए दान को मैं अपने पास नहीं रखना चाहता हूँ। यह सुन समीपस्थ सेठ यशोदित्य बोले-राजन् ! इन द्रम्मों को तो किसी धर्म कार्य में भी लगाया जा सकता है पर इन अश्व एवं ऊंटों का क्या किया जा सकता है ? इसके प्रत्युत्तर में राजा ने घोड़ों और ऊंटनियों की संख्याक्रम के अनुसार ६४०००) हजार द्रम्म (सिके) मूल्य स्वरूप लेलो यह सेठ को कहा । सेठ ने भी राजा को प्रसन्न रखने के लिये ६४ हजार द्रम्म ग्रहण कर सामरोदी नामकी नगरी में श्री उपाध्यायजी महाराज से प्रतिष्ठित एक भव्य जिनालय बनवाया। तदन्तर वाचक पद्मप्रभ ने यशोदित्य की सहायता से पाश्चाल (पञ्जाब) प्रान्त में जाकर त्रिपुरादेवी विसनोई देवी द्वारा त्रिपुरादेवी का संदेश १४२७ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की बाङ्गोपाङ्ग साधना की। त्रिपुरादेवी भो उक्त साधा से प्रसन्न हो प्रत्यक्ष कर वाचकजी से कहने लगीप्रभो ! आप की आराध भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हुई हूँ। अतः आपको जो कुछ इष्ट हो मांगो-मैं प्रसन्नता पूर्वक आपकी मनोकामना को पूर्ण करने के लिये तैय्यार हूं। इस पर वाचकजी ने वचन सिद्धि रूप सफल वर मांगा। सष्टवादी, कुशाग्रमाते वाचकजी को 'तथास्तु' कह कर देवी अन्तरध्यान होगई । इधर वाचकजी का भी वाक्य सिद्ध हो गया। वे जैसा अपने मुख से बोलते ठीक वैसा ही होने लगा। ___ एक दिन उपाध्यायजी कहीं बाहिर जा रहे थे तो मार्ग में उन्हें कोई उपासक बैल की पीठ पर बोझा लादे विदेश से आता हुआ मिला । श्रीवाचकजी से भेंट कर उस उपासक ने उनको बंदना की तब वाचकजी ने उससे पूंछा-तुम्हारे पास क्या माल है ? यह सुन उपासक ने, शायद उपाध्यायजी को कुछ देना पड़े इस भय से काली मिर्च को भी उड़द बताया। वाकचजी के "ऐसा ही हो' कहने पर सचमुच वे मिरचे भी उड़द हो गई । अब तो वह घबराता हुआ इसका कारण खोजने लगा। जब उसे पता चला कि ये वाक्य सिद्ध हैं, तो उनकी वचन महिमा को जानकर बड़े ही विस्मय के साथ अपने असत्य भाषण के लिये वह पश्चात्ताप करने लगा। वह वाचकजी के सम्मुख अपने अपराध की क्षमा याचना करता हुआ गिड़गिड़ाने लगा। वाचकजी ने भी सहज दयाभाव से प्रेरित हो कहा-“यदि तेरे उड़द वास्तव में काली मिर्च थे तो अब भी वही हो जॉय” उनके ऐसा कहने पर तत्क्षण वे उड़द काली मिर्च बन गये। एक ऐसा ही उदाहरण और बना । तदनुसार एक ब्राह्मण भिता में मिले हुए चाँवल धान्य (चौलों ) को सिर पर उठाये जाते हुए वाचकजी को मिला । वाचकजी ने उससे सहन ही पूछा-हे ब्राह्मण ! तुम्हारी गांठ में क्या चाँवल हैं ? उसने कहा-नहीं, ये तो चौले हैं। मुनि ने कहा- चौलें नहीं चाँवल हैं। ब्राह्मण ने अपनी गांठ खोल कर देखा तो उसे चांवल ही नजर आये। __ इस तरह वाचक मुनि पद्मप्रभ, त्रिपुरादेवी के वरदान से वाक्य सिद्ध गुण-सम्पन्न हो गये तब उनके गुरु ने उन्हें वाचनाचार्य नाम वाले योन्य पट्टपर उन्हें स्थापित कर दिया । वाचनाचार्य पट्ट पर विभूषित होने के पश्चात् दोनों गुरु शिष्यों ने क्रम : गुर्जर प्रान्त की ओर विहार कर दिया। उस समय किसी भीम देव की प्रधान रानी अहंकार में मस्त हो किसी दार्शनिक साधु सन्यासी या विद्वान के सामने बैठ जाने पर भी अपना आसन नहीं छोड़ती थी। उसके इस जवन्य अहंकार को मिटाने के लिये एक दिन वाचनाचार्य मुनि पद्मप्रभ उसके घर गये । रानी ने मुनिजी का न सत्कार किया और न वह आसन छोड़ करके ही मुनिजी के सन्मानार्थ दो कदम आगे आई। . वाचनाचार्यजी-बहिन ! आपको यह गौरव ( अभिमान ) किस निमित्त है, ? क्या व्याकरण, काव्य, तर्क, छंद आदि की परीक्षा करना चाहतो हो ? रानी-इन तत्वों से हमें क्या प्रयोजन है ? मैं तो अध्यात्म योग विद्या के अभिज्ञ साधु समझती हूँ | इसके सिवाय केवल मस्तक मुण्डाने से क्या होता है ? जब अध्यात्म योग विद्या में निपुर्णता ही किसी साधु में दृष्टिगोचर नहीं होती तब किसका नमन व किसका पूजन किया जाय ? यह सुनकर जरा मुसकान के साथ पद्मप्रभ ने उत्तर दिया-श्रीमतीजी ! क्या आप तर्क, व्याकरण, साहित्य, निमित्त (शकुन-ज्योतिष ) गणित आदि के ज्ञान को प्रत्यक्ष देखती हो ? . रानी-इन निःसार वस्तुओं में क्या ? मैं तो अध्यात्म विद्या में स्थित है और समग्र ब्रह्माण्ड को स्वयं रूप में जानती हूँ। मुझसे पृथक् मैं किसी को नहीं देखती जिसको कि मैं नमःकार करूं। वाचनाचार्य-रानीजो ! मैं अष्टांग योग और कुम्भक पूरक तथा रेचक इन विविध प्राणायामों को जानता हूँ। इस पर रानी ने आश्चर्यान्वित कहा-पूरक तथा रेचक प्राणायाम के कुछ चमत्कार बताओ। मुनि ने बनियों से रूई मंगवा कर कहा-जब मैं पूरक प्राणायाम को श्वास वायु द्वारा पूर्ण करके निश्चल हो १४२८ वाचनाचार्य पद्मप्रभ वचन सिद्ध Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ श्रोसवाल सं० १४३३-१४७४ बैठ जाऊ' तब तत्क्षण मेरे मस्तक, कान, नाक मुंह और आंखों के छिद्रों में रुई के फोहे रख देना । ऐसा कह पद्मासन जमा पूरक को पूर्ण कर एड़ी से चोटी तक एकदम स्थिर हो गये । रानी से प्राणायाम करने के पूर्व ही पूछा था कि निरुद्ध श्वास वायु को किस छिद्र से छोडूं ? उनके ऐसा कहने पर रानी ने प्रत्युत्तर दियादशम द्वार ( ब्रह्मरन्ध्र) से पवन को छोड़ो क्योंकि एक यही द्वार छिद्र रहित है। रानी का प्रत्युत्तर सुन मुनि पद्मप्रभ ने पूरक द्वार से भरे हुए श्वास वायु को उस रानी के कथनानुसार दशम द्वार से छोड़ा जिससे तत्रस्थ रूई उड़ गई और अन्य स्थान स्थित ज्यों की त्यों रह गई । इस चमत्कार को देख रानी ने अपने आसन से उठकर मुनि के चरणों में नमस्कार किया और कहाआज से आप हमारे पूज्य आराध्य तथा सदा सेवनीय गुरू हैं। यह कह कर स्वर्ण निर्मित चतुष्काष्ठी (चौकी) तथा कपरिका (कवली) एवं श्रेष्ठ श्रव वाले मोती और रत्नों से युक्त एक भुंवना बनवा कर गुरू को भेंट किया । इस पर मुनि ने नहीं स्वीकार करते हुए जैन श्रमणों के यम नियमों को समझाया और उस द्रव्य को शुभ कार्य में लगाने के लिये प्रेरित किया । इस प्रकार योग विद्या और वचन सिद्धि से प्रभावित हो वाचनाचार्य श्री पद्मप्रभ के चरण कमलों में बड़े २ राजा महाराजा आकर मस्तक नमाते थे । कहना होगा कि आपश्री ने अपनी चमत्कार शक्ति से जैन धर्म की बहुत ही प्रभावना की । इस प्रकार राजा आदि महापुरुषों से निरन्तर पूज्यमान महामुनि वाचनाचार्य पद्मप्रभ एक समय सपाद लक्ष ( सांभर, अजमेर ) देशों में बिहार करने के लिये निकले उस समय खरतर गच्छ के आचार्यश्री जिनपति सूरि के साथ पद्मप्रभ वाचनाचार्य ने गुरु के काव्याष्टक के सम्बन्ध में विवाद किया । श्री सम्पन्न अजयमेरु (अजमेर) के किले पर राजा वीसलदेव की राज सभा में श्री जिनपति सूरि को जीत लिया । इस प्रकार जम्बुनाग आचार्य की संतति ( शिष्य परम्परा ) का वाचनाचार्य पद्मप्रभ तक वर्णन किया है । इन महापुरुषों ने अपने पाडित्य व चमत्कारिक शक्तियों से जैन शासन की आशातीत उन्नति एवं प्रभाना की है। इन्हीं तेजस्वी आचार्यों की अलौकिक सत्ताने जिन शासन को अन्य दर्शनों के सामने आदर्श के रूप में रक्खा । ऐसे महापुरुषों के चरण कमलों में कोटि २ वंदन हो । १- सत्यपुरी २----मीन्नमाल ३- भूर्ति ४ - शिवगढ़ ५- सोनाली ६ - दामाणी ७- चोसरी 5- • कोरेटपुर ६ - खीमाड़ी नगरी के आचार्यश्री के शासन में भावुकों की दीक्षाएँ जाति के शाह सूराने विजा ने छाजेड़ आर्य पारख राखेचा पोकरणा पाल्लीवाल प्राग्वट 23 श्रीमाल आचार्यश्री के शासन में दीचाएं "" "" 25 " 39 35 55 "" 55 31 39 "" "" "" " "" कुम्भा ने पाता ने भोला ने जैता ने करमा ने जीवा ने डावर ने सूरिजी के पास दीक्षाली "" 99 "" 39 * खरतर गच्छ की पढाचली के अनुसार जिनपति सूरि का जन्म वि० सं० १२१० में हुवा | वि० सं० १२१८ में दीक्षा, वि० सं० १२२३ में आचार्य और वि० सं० १२७७ में स्वर्गवास हुआ और अजयगढ़ में विशलदेव का राज सं० १२२४ तक रहा तब वाचनाचार्य पद्मप्रभ का समय के लिये राजा कुमारपाल का राज्य- समय वि० सं० ११९९ से १२४९ का है, इसी समय में उपाध्याय जिनभद्र व वाचक पद्मप्रभ हुए । 27 "" १४२६ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७४] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास साहू ने १०-लाजोरी ११-राणकपुर १९-जावलीपुर १३-पावगढ़ १४-उपकेशपुर १५-माडबपुर १६-क्षत्रीपुरा १७-विजयपुर १८-विलासपुर १६-शंखपुर २०-कुर्मापुर २१-नागपुर २२-भवानीपुर २३-मोदनीपुर २४-आधाटपुर २५-चित्रकोट २६-दशपुर २७-चन्देरी २८-रायपुर २६-मथुरा पुनडे ने लादक ने सुखा अग्रवाल जाति के शाह मुंजल ने सूरिजी के पास दीक्षाली ब्राह्मण ___ भाखर ने मात्रीकोर काग हाप्पा ने श्रेष्टि पर्वत ने रांका दुर्गा ने कांकरिया करण ने चंडालिया जगमाल ने सुघड़ धन्ना ने डिडू धोकल ने देसरडा डूगर ने कुम्मट राजसी ने सालेचा गुणाढ़ ने मंडावरा चोरड़िय मेहराप ने मुरेठा मोकल ने भोला ने भट्टेश्वर वीरा ने प्राग्वट नोढ़ा ने आचार्यश्री के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएं बापणा जाति के शाह रूपणसी ने भ० महा० तोला ने , खजांची गौरा ने , पातावत नागजी ने आये काग धीरा ने गुलेच्छा जीवण ने नाहटा वरधा ने गुरुड नारायण ने , सुरवा सुगाल ने साहरण ने कनोजिया भैरु ने शान्ति वर्धमाना रामाने श्रेष्टि छाजू ने संचेती अजड़ ने , भाचार्यश्री के शासन में प्रतिष्ठाएँ पोकरणा साने " १-देवपट्टन २-मादलपुर ३-रत्नपुर ४-हर्षपुर ५-अजयगढ़ ६-साकम्भरी ७-पद्मावती ८-ओजास है-इन्द्रोडी १०-आनन्दपुर ११-वीरपुर १२-मालपुर १३-देवीकोट १४-रेणुकोट १५-नरवर आदि० कुम्मट के Jain Education international Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] २६ - थेरापाद्र १७ - पुनारी 5- लाव्यपुरी २६- शालीपुर २० - सोपारपट्टन ११-- पद्मपुर २२ - उज्जैन २३- माण्डवापुर २४ - चन्द्रावती २५- टेलिपुर २६ - शिवपुरी २७-देबाज २८ - जावली ४ - भुजपुर ५- नरवर ६-- नागपुर ७ खटकुप ८ - उपकेशपुर - आमेर -- १० - मथुरा ११ - शौरीपुर १२ - शालीपुर १३ - पालीकापुरी १४- नारदपुरी १५ - चन्द्रावती १६ - पहलनपुर 希希希希希希希希 १-खम्भात नगर २ ३ - अणहीलवाडा पटण से श्रीश्रीमाल नागपुरिया छाजेड़ भटेवरा चोरडिया प्राग्वट 55 से "" 17 श्रीमाल " " "" जाति के श्रेष्टि राखेचा जांघडा बाफणा सुखा शंका प्राग्वट से प्राग्वट से श्रीमाल से से "2 आचार्यश्री के शासन में संघादि 33 " "" 32 33 "" "" "" 27 39 " शाह "" लुंबाने दीपा ने धीरा ने फूमा ने जुजार ने 33 33 सादु ने पोपा ने "" "" 33 59 "" "2 प्राग्वट रामा ने श्रीमाल देवशी ने जिनदेव ने आर्य चोरडिया अर्जुन ने कनोजिया दैपाल ने जैसिंग ने "" " "" आचार्यश्री के शासन में संघादि शुभ कार्य श्रीमाल संखला ने गोकल ने जोध्दा ने सहारण ने भोपाल ने रावल ने [ ओसवाल सं० १४३३-१४७४ सुखा ने रावण ने हरपाल ने चांपसी ने सुगाल ने बादर ने गोपाल ने छाजेड भुतेडिया १७- नादपुर १८ - विसनगर १६- माडव्यपुर के कुम्मट लुगा की पत्नी ने एक तालाब खुदाया । २०- नागपुर चोरडिया भोला की पुत्री ने एक बावड़ी बनाई । २१ - डीडूपुर के जेतावत जगदेव ने एक कुआ खुदवाया । २२ - कोरेटपुर के श्रीपाल सेवा ने एक तालाब खुदवाया । गोवीद ने मुकन्द ने तोला ने 35 "" " 99 37 19 93 "" 11 " "" "" श्री शत्रुञ्जय का 22 19 "" भ० 39 "" "" " 99 33 "" "" 33 "" 39 "" "" मल्लि० महावीर " " "" "" पाश्व० " "" "" सीमं० श्रादी० " "" "" "3 35 " " "" 15 39 59 " 39 संघ निकाला "3 33 99 प्र० 39 39 " "" "" 19 35 35 39 ور 39 "" "" १४३१ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०३३-१०७४] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २३-एमावती के प्राग्वट हरपाल की पता ने तलाव खुदाया। २४-राणकपुर के संचेती नाथा ने दुकान में करोड़ों का दान दिया । २५--पाली का पल्लीवाल सांगा ने दुका। में अज वस दान में दिये। २६-वीरपुर का अार्य नानग युद्ध में काम आया उनकी स्त्री सती हुई। २७-उपकेशपुर का चोरड़िया भारमल शुद्ध में काम 'पाया उसकी स्त्री सती हुई। २८-चन्द्रावती का प्राग्वट कल्हण युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई। संतालीसवें पट्ट प्रभाकर, सिद्ध सूरीश्वर नामी थे। दथे दर्शन ज्ञान चरण में, शिव सुन्दरी के कामी थे । ग्रन्थ निर्माण किये अपूर्व, कई ग्रन्थ कोष थपाये थे। ___ उन्नति शासन की करके, मन्दिरों पे कलश चढ़ाये थे । जम्जुनाग ज्योतिष विधा में, सफल निपुणता पाई थी। बोद्रवा में जाकर, विप्रों से, विजय भेरी बजवाई थी। जो नहीं करने देते थ यहाँ पर, गन्दिर प्रतिष्ठा करवाई थी। ग्रन्थ किया निर्माण आपने, विद्वता की बया दिखाई थी ।। इति श्रीभगवान पार्श्वनाथ के सेंतालीसवें पट्टधर आचार्यश्री सिद्धसूरीश्वर महाप्रभाविक आचार्य हुए wwwmarwwwmomwwwwww १४३२ Jain Education international आचार्यश्री के शासन में संघादि शुम कार्य ... For Private & Personal use only W.jainelibrary.org Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४७४-१५०८ ४८-आचार्यश्री कक्कसूरिजी (बारहवें) प्राचार्यस्तु स कक्कसरि रभवद्यो पाप्य नागान्वये । जाति स्वामपि नाहटेति विदितां रत्वं यथाऽभूषयत् ॥ लक्षस्य द्रविणस्य धारणतया हारेण कण्ठे प्रभोः। भक्तिं भक्तजनः सुरक्तमन सा चक्र कृती सुव्रती ॥ पत्न्या साधर्मनेक भूरि जनतां दीक्षायुतां मुक्तिगाम । कृत्वा प्राप्य च सरि पद्धतिमय जैनमतं चोन्नयन् । वन्यो वै बहुशः स्वधर्म निरतो धन्यः सुमान्यो भवेत् । भैंसा शाह जनात्स्वयं गदइया शाखामकादिपि ॥ * रस प्रभावक, परम पूज्य, आचार्य देव श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली, प उप विहारी, शुद्धाचारी, सुविहित शिरोमणी, बाल-ब्रह्मवारी, कठोर तपस्वी, चन्द्र की SHREE तरह शीतल, सूर्य की भांति तेजस्वी, मेरू सदृश अचल, पृथ्वीवत् धैर्यवान, विविध गुणगरणालंकृत, धर्म-प्रचारक, महान् शक्तिशाली प्राचाय हुए है। आपका जीवन-काल जन कल्या हुआ। आप अनेक लब्धियों, विद्याओं एवं कलाओं में पारङ्गत थे। श्री रत्नप्रभ सूरि प्रतिबोधित सञ्चायिका देवो के सिवाय जया, विजया, सिद्धायिका, अम्बिका, मातुलादि अनेक देवियाँ आपके परम पवित्र, अनुपम उपदेशामृत का आस्वादन कर अपने जीवन को सफल मानती थीं। कई राजा महाराजा आपके चरण कमलों की सेवा करने में अपने को परम भाग्यशाली समझते थे। पट्टायली रचयिताओं एवं चरित्रकारों ने आपका जीवन विस्तार से लिखा है पर ग्रन्थ-कलेवर बढ़ जाने के भय से यहाँ उतना विशाद रूप न देकर सामान्यतया मुख्य २ घटनाएँ ही लिखी जाती हैं। विश्व-विश्रुत भारत भू० अलंकार स्वरूप, इन्द्र की अमरापुरी से भी स्पर्धा में विजय शील, गुर्जर प्रान्तीय राजधानी अणहिल्लपुर नामक परम उन्नतशील नगर था। इस नगर की स्थापना के विषय में जैन ग्रन्थकारों ने लिखा है कि पंचासरा के चैत्यवासी श्राचार्य श्री शीलगुण सूरि एक समय विहार कर क्रमशः जङ्गल में जा रहे थे। मार्ग में एक वृक्ष की शाखा पर झोली में रक्खे हुए नवजात शिशु को झूलता हुआ देखा। प्रकृति नियमानुसार सय वृक्षों की छाया बदल कर पश्चिम की ओर जा रही थी तब बालक पर स्थित छाया किसी भी रूप में परिवर्तित न होकर मन्त्र शक्ति के आलौकिक आश्चर्य के समान नवजात शिशु पर तथावत् रूप में स्थित थी। उक्त अद्भुत आन्धर्य को देख सूरिजी ने विचार किया कि-यह अवश्य ही कोई भाग्यशाली एवं होनहार बालक होना चाहिये जिसके कारण प्रकृति का नैसर्गिक नियम भी सहज ही में परिवर्तित हो गया। बस वे आश्चर्य चकित हो विचार संलग्न हो गये । उस बालक की बाल क्रीड़ा जो भावी अभ्युदय का स्पष्ट सूचन कर रही थी-सूरिजी देख २ कर प्रसन्न एवं हर्षित हो गये। कुछ ही समय के पश्चात् उस बच्चे की माता बच्चे के समीप आई । सूरिजी ने बाई को देखकर पूछा-बाई ! इस विकट जंगल में तुम्हें अकेली रहने का क्या धनराज चावड़ा और पाटण १४३३ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० २०७४- ११०८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कारण है ? सूरिजी के उच्छ सरल एवं शान्तिप्रद बचनों को सुनकर उसके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी । तपित वासोच्छ्रास की प्रबलता से यह संष्ट ज्ञात होता था कि वह किसी महान् दुःख से दुखित थी वह बोलने व अपने भावों को यथावत् व्यक्त करने में हिचकिचा रही थी पर सूरीश्वरजी ने प्रदायक आश्वा सन सूचक शब्दों में पूछा तब उस बहिन ने अपना हाल निम्न प्रकारेण सुनाया । महान् ! मेरा नाम रूपसुन्दरी है। एक दिन मैं राज-महलों में रहने वाली मोतियों से भी मंहगी थी पर दुर्दैव वशात् आज मेरी यह दशा हुई है कि इस भयावह अरण्य में भी मुझे अकेलो को ही रहना पड़ा है। अभी ही पुत्र को जन्म दिया है और येनकेन प्रकारेण फल फूलों के आधार पर मैं अपना जीवन यापन कर रही हूँ । प्रभो ! मेरी कष्टजनक हालत का दुःखानुभव मुझे ही है शत्रु को भी परमात्मा यकायक ऐसा दुःख प्रदान न करे | सूरिजी ने रानी का हाल सुनकर उसको धैर्य दिलाते हुए कहा - माता उद्विग्न एवं खिन्न होने का समय नहीं है । कर्मों की करालता के सन्मुख तुम हम जैसे साधारण पुरुष को तो क्या ? पर तीर्थङ्कर चक्रवर्ती जैसे अनन्त शक्ति के धारक पदवी घरों का भी वश नहीं चलता है कर्मों की स्वाभाविक गति ही अत्यन्त विचत्र है अतः स्वोपार्जित पुरातन पापकर्मों का इस प्रकार कठोर उदय समझ करके ही सर्व प्रकारेण शान्तिपूर्वक सहन करते रहना चाहिये । अब किञ्चिन्मात्र भी मत घबराओ सब तरह से आनन्द एवं कल्याण ही होगा । इस तरह रूपसुन्दरी को कर्म - महात्म्य बताते हुए शांत्वना प्रदान कर आचार्यश्री स्वयं पश्वासरा में आये और योग्य श्रावकों को एतद्विषयक सर्वप्रकारेण अनुकूल सूचना दी। आचार्यश्री के उक्त उचित परामर्श को पाकर श्रीसंघ के प्रतिष्ठित श्रावक सूरिजी कथित निर्दिष्ट स्थान पर गये और रूपसुन्दरी व उनके नवजात शिशु को बड़े ही सन्मान पूर्वक अपने घर पर ले आये, उनकी अच्छी तरह से हिफाजत कर उन्हें हर तरह से अपनाने का श्रेय सम्पादन किया । रानी रूपसुन्दरी भी आचार्यश्री शीलगुण सूरि का महान उपकार समझ कर उनकी परम भक्तिवान् श्राविका बनगई और सूरीश्वरजी के नित्यप्रति अनुपम उपदेशों को सुनकर अपने दिन आनन्द पूर्वक व्यतीत करने लगी । उसका बच्चा जो वन में जन्मा था और वन में जन्मने के कारण वनराज नामाङ्कित था द्वितीया के चन्द्र के समान नित्यप्रति हर एकबातों में बढ़ रहा था । धार्मिक पवित्र संस्कारों से ओतप्रोत अपनी माता के साथ में वनराज भी प्रतिदिन सूरीश्वरजी के उपाश्रय में आया जाया करता था । इससे उसके कोमल वज्ञस्थल पर धार्मिक संस्कारों का आश्चर्यकारी प्रभाव पड़ा जब वनराज क्रमशः शिक्षा प्राप्त करने योग्य हुआ तो धार्मिक शिक्षा के साथ ही साथ राजकीय एवं व्यापारिक शिक्षा का भी अच्छा प्रबन्ध कर दिया । वनराज भी कुशाग्रमति एवं व्यवहार कुशल था । अतः उसने कुछ ही समय में हर एक विषयों में आशातीत प्रगति करली | एक समय वनराज हवाखोरी के लिये जंगल में गया था। वहाँ उसने कई गवालों को गायें चराते हुए देखा | किन्हीं बातों के स्वाभाविक प्रसङ्ग से वनराज ने अपने हृदयान्तर्हित उद्गारों को व्यक्त करते हुए गोपालों से नये राज्य - स्थापन करने के विषय में कहा। इस पर एक प्रतिष्ठित गोपाल ने कहा -- यदि आप मेरे नाम से नया नगर व नया राज्य आबाद करना चाहें तो मैं आपको एक ऐसा उत्तम स्थान बताऊँ कि जिसके आधार पर सब कार्य सुगमता पूर्वक किये जासके । वनराज ने गोपाल की उक्त हितकर बात को सहर्ष स्वीकार करली और गोपाल ने भी पूर्व दर्शित एक सिंह के सामने बकरे के द्वारा बतलाई गई वीरता अद्भुत स्थान को नवराज्य स्थापना के लिये बतला दिया। गवाल का नाम 'अहिल्ल' था अतः नवीन नगर भी दर पत्तन नाम से बसाने का निश्चय कर लिया। सायंकाल के समय जब वनराज अपने घर आया तब उसने गोपालों के साथ हुए अखिल वृत्त को सूरीश्वरजी की सेवा में कइ सुनाया । सूरिजी ने भी अपने स्वरोदय एवं निमित्त ज्ञान से भविष्य के लाभ को जान कर वनराज के इस अनुपम उत्साह को और १४३४ For Private & Personal Use o शीलगुणसूरि और राजमाता रूपसुन्द shell Mary.org Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य कक्कसूरि का जीवन] [ओसवाल सं० १४७४-१५०८ भी अधिक वर्धित किया । बस, फिर तो था ही क्या ? वनराज ने भी अपने से वयस्थविर, ज्ञान स्थविरों के उचित परामर्शानुसार उक्त उन्नत भूमि पर छड़ी रोप दी । जब मनुष्य के शुभ कमों का उदय होता है, सुकृत पुञ्ज का आधिक्य रहता है तब तत्सम्बन्धी अखिल निमित्त भी अच्छे ही मिल जाते हैं । तदनुसार वनराज को भू गर्भ से अक्षय द्रव्य राशि प्राप्त होगई। अब तो उसके उक्त विचार और भी अधिक परिपक्कावस्था को प्राप्त होगये । उसका उत्साह द्विगुणित होगया। उसने एक ही साथ राजमहल, देवमन्दिर और गुरु महाराज के उपाश्रय, इन तीनों की नीव एक साथ ही डाली। नगर सम्बन्धी उचित सामग्री के तैय्यार हो जाने पर उसने मरुधरवासी अनेक उपकेशवंशियों, श्रीमालों, प्राग्वष्टों को बहुत सन्मानपूर्वक आमन्त्रित किये और उन्हें हर एक तरह की अनुकूल सुविधाएं प्रदान की। जैसे-भूमि का कर (टेक्स) नहीं लेना, उच्च एवं योग्य पदों पर आसीन करके उनको हरएक तरह से सम्मानित करना, नगर में अग्रगण्य स्थानों को देना इत्यादि । इस प्रकार के उचित आदर को प्राप्त कर व अनेक प्रकार की अनुकूल सुविधाओं के प्रलोभन से बहुत से लोग आ आ करके उक्त नवीन नगर में बसने लग गये।। वि० सं०८०२ के वैशाख शुक्ला तृतीया के रोहिणी नक्षत्र में अणहिल्लपुर पट्टन में गुरु महाराज के वासक्षेप पूर्वक वनराज का सिंहासनाभिषेक होगया। ठीक उसी समय वल्लभी से बलाह गौत्री शाह धवल को बड़े ही सम्मान पूर्वक बुलवाया जिनको सुवर्ण पद अकसीस कर नगर सेठ बनाये तब से धवल की सन्तान सेठ नाम से मशहूर हुई-गज्याभिषेकानन्तर वनराज ने अपने पूर्व परिचित चाम्पा शाह को मन्त्री पद पर नियुक्त किया । चाम्पा शाइ स्वयं राजनीतिज्ञ एवं व्यवहार कुशल था । अतः उनके मन्त्रीत्व में वनराज के राज्य ने कुछ ही समय में आशातीत उन्नति करली। इसके सिवाय भी अन्य महाजनों को योग्य स्थान में नियुक्त कर वनराज ने अपने राज्य की नींव को सुदृढ़ बनाने का स्तुत्य प्रयत्न किया जो बहुत अंशों में यथावत् सफल भी हुआ। अनेक प्रकार के अनुकूल साधनों के सद्भाव से दिन प्रतिदिन नगर की आबादी, व्यापारिक उन्नति बढ़ती गई। वास्तव में जहां व्यापारी और व्यापार की उन्नति होती है वहां आबादी बढ़ने में देर भी क्या लगती है। आचार्य प्रवर श्री शीलगुण सूरि और आपके शिष्य श्री देवचन्द्रसूरि का प्रभाव वर्धक व्याख्यान हमेंशा होता था । धार्मिक विषयों के स्पष्टीकरण के साथ ही साथ राजकीय गम्भीर विषयों पर भी समयानुकूल प्रकाश डाला जाता था। राजा के साथ प्रजा का कैला सम्बन्ध होना चाहिये ? व प्रजा के साथ राजा का क्या कर्तव्य है ? राजा प्रजा को उन्नति के मुख्यतया क्या २ उपाय हैं ? राष्ट्र के साथ धर्म का कैसा सम्बन्ध होना चाहिये इत्यादि विषयों पर सामान्यतया हमेशा प्रकाश डाला जाता था । व्याख्यान के सिलसिले में एक दिन आचार्यश्री ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि-व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और धर्म की उन्नति में मुख्य कारण संगठन है । संगठन में एक ऐसी अपूर्व शक्ति रही हुई है कि उसकी समानता लन योद्धाओं को विच्छिा शक्ति भी नहीं कर सकती है। व्यक्ति भिन्न २ प्रकृति वाला होता है पर वह जातीय संगठन में संगठित हो जाने पर स्वच्छाचारी या जीर्ण शक्ति नहीं बन सकता है। जातियों के प्रथक २ होने पर भी यदि वह एक विशेष समाज में संगठित हो तो उसमें दुःशील, दुराचार बढ़ नहीं सकता है और न किसी विनाशकारी शक्ति का प्रादुर्भाव ही हो सकता है। समाज के अलग २ होने पर भी यदि धर्म संगठन की सुदृढ़ शक्ति-सम्बन्ध से सम्बन्धित हो तो फूट, कुसम्प रूपी चोर घुस ही नहीं सकता है । धर्म संगठन धर्मोपदेशकों के आधार पर अवलम्बित है । यदि एक श्रद्धा प्ररूपना वाले एक ही आचार वाले धर्मोपदेशक होते हैं तो धार्मिक संगठन बड़ा ही मजबूत रहता है। इसके विपरीत जहां भिन्न २ श्रद्धा, प्ररूपना एवं आचरना वाले धर्मोपदेशक होते हैं; उनसे धर्म के नाम पर जनता में उतनी ही अधिक राग, द्वेष, कलह, कदाग्रह, फूट, कुसम्प फैलकर संगठन रूपी दुर्ग का एक २ जमा हुआ पत्थर पृथक् २ हो संसार का भयंकर पतन होता जाता पाटण की जनता का संघठन १४३५ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है। इत्यादि संगठन विषयक हृदयग्राही उपदेश दिया जिसका राजा प्रजा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा । धार्मिक रासाउन शक्ति को यथावत् बनाये रखने के लिये आचार्यश्री के उक्त उपदेशानुसार राजा वनराज चावड़ ने चतुर्विध श्री संघ को एकत्रित कर पाटण शहर के लिये सबके परामानुसार यह मर्यादा बांधदी कि पाटण में सिवाय चैत्यवासियों के कोई भी श्वेताम्बर साधु नहीं ठहर सकता है। यदि अन्य साधुओं को ठहरना ही होवे तो वे चैत्यवासियों के परामर्शानुसार ही ठहर सकते हैं। उक्त प्रस्ताव में आचार्यश्री शीलगुणसूरिजी को न बो कोई निजी स्वार्थ था और न किन्हीं भावनाओं में एतद्विषयक परिवर्तन ही करना था। शीलगुणसूरि तो निवृत्ति कुल के आचार्य थे पर उस समय पाटण में अनेक गच्छ के चैत्यवासियों का ही आना जाना और चैत्यवासियों के ठहरने योग्य ही चैत्य, उपाश्रय थे। अतः किसी को भी इस विषय की रोक टोक नहीं थी। केवल पाटण के राजा प्रजा को यही भय था कि चैत्यवासियों के अलावा दूसरे साधु क्रिया उद्धारक एवं सुविहितों के बहाने से हमारी संगठित शक्ति को छिन्न विछिन्न न कर डालें । वास्तव में उनका उक्त विचार भी था यथार्थ एवं दूरदर्शितापूर्ण ही था। . पाटण के श्रीसंघ का किया हुआ ठहराव करीब पौने तीन सौ वर्ष पर्यन्त धारा प्रवाहिक रूप में चलता रहा। यही कारण था कि आचार्यश्री सिद्धसूरि के शासन में पाटण सर्व प्रकारेण उन्नति के उच्च शिखर पर आरूढ़ था । जैनसंघ की पर्याप्त श्राबादी थी। जैन समाज तन, धन, कुटुम्ब परिवार से पूर्ण सुखी था। उस समय पाटण में कई अरबपति और करीब ढाई हजार कोट्याधीश रहते थे। उस समम लक्षाधीश तो साधारण गृहस्थों की संख्या में गिने जाते थे। अतः उनकी तो संख्या ही नहीं थी। इन सबों में परस्पर भ्रातृभावजन्य प्रेम एवं धर्म स्नेह का नाता था। सर्वत्र स्नेह का ही साम्राज्य था। कलह कदाग्रह, इा, फूट ने अपनी अवहेलना का स्थान देख कर पाटण को दूर से ही त्याग दिया था। पाटण नगर में बाप्पनाग गौत्रीय नाहटा जाति का श्रीचंद नामक कोट्याधीश व्यापारी रहता था। आपका व्यापार भारत पर्यन्त ही परिमित नहीं था किन्तु पाश्चात्य प्रदेशों पर्यन्त उग्र रूप से था । जल एवं स्थल दोनों ही मार्ग से व्यापार प्रबल रूप में चलता था। आपके पिताश्री पुनड़ शाह व्यापारार्थ विदेशों में गये थे। वहां से वे एक बहुमूल्य माणक लाये थे। उसकी सात अंगुल प्रमाण की भगवान महावीर की मूर्ति बनवा कर घर में देरहासर स्थापित किया था। उस प्रतिमा की सेवा पूजा का लाभ सेठ श्रीचंद के सब कुटुम्ब वाले परम श्रद्धापूर्वक किया करते थे। शाह श्रीचन्द के पूर्वज व्यापारार्थ मरुधर के उपकेशपुर से आये थे । वंशावलियों से पता मिलता है कि श्रीचंद की पांचवी पीढ़ी के पूर्व शाह बरदेव उपकेशपुर से पाटण आये थे, उस समय पाटण नया ही बसा था । पाटण आने के बाद वरदेव का वंश वटवृक्ष की भांति फलता फूलता रहा। शाह श्रीचन्द्र के पांच पुत्रों में सबसे लघु भोजा था । वह भी अपने पिता के समान ही कोट्याधीश एवं प्रबल व्यापारी था । भोजा ने कई बार व्यापारार्थ विदेश की यात्रा की थी। और वहां से कई प्रकार के जवाहरात भी लाये थे । भोजा की धर्मपत्नी का नाम मोहिनी था । भोजा के लाये हुए रत्नादि जवाहिरात में से बढ़िया २ नग चुनकर भगवान की प्रतिमा के कण्ठ में धारण करवाने के लिये परम भक्तिवान, दृढ़ श्रद्धालु श्राविका मोहिनी ने एक सुन्दर हार बनवाया। इस सुन्दर हार के चातुर्य एवं कला को देखकर विविध कला निष्णात मनुष्य भी आश्चर्य विमुग्ध हो जाते । पतिव्रत धर्म परायणा मोहिनी ने हार को सुन्दर ढंग से तैयार कर अपने परमाराध्य पति देव को कहा-पूज्यवर ! कृपया इस हार को प्रभु-प्रतिमा के कण्ठ में पहिनाकर चैत्य वंदन कीजिये, मैं भी अभी ही आती हूँ । शा० भोजा हार की रचना देख बहुत खुश हुआ और अपनी स्त्री की भूरि भूरि प्रशंसा की। बाद में आप आदीश्वर के मंदिर में जाकर द्रव्य पूजा की और प्रभु के कण्ठ में हार पहिनाकर परम भक्ति पूर्वक चैत्यवंदन किया। जब चैत्यवंदन करके भोजा बाहिर आया उसी समय श्राविका मोहिनी मन्दिर में गई पर मूर्ति के कण्ठ में हार नहीं देखा। प्रभु प्रतिमा के कण्ठ में हार को न देख १४३६ नाहटा जाति का श्रीचन्द Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन [ओसवाल सं० १४७४-१५०८ उसके दिल में विचार हुअा कि हार, बहुमूल्य होने से शायद पतिदेव ही अपने साथ ले गये होंगे। इस तरह उसका मानसिक निश्चय होजाने पर भी उसने शान्ति-पूर्वक चैत्य वन्दन किया और अपने मकान पर आकर मानसिक भ्रम के कारण अपने पतिदेव को मधुर उपालम्भ दिया। उसने कहा-देव ! आप भाग्य शाली हैं कि विदेश में जाकर इस तरह के अमूल्य रत्न, जवाहरात लाये और उसका हार प्रभु के कोमल कण्ठ में स्थापन कर भक्ति का खूब ही लाभ लूटा पर मैं कैसी अभागिनी हूँ मुझे हार सहित प्रभु प्रतिमा की भक्ति का लाभ ही नहीं गिला । पतिदेव ! इतनी तो मेरे ऊपर भी कृपा रखनी थी। मैंने कोई ऐसा अक्षम्य अपराध भी नहीं किया कि जिसके आधार पर मैं इतना अधिकार प्राप्त करने से वंचित रहूँ। प्रभो ! हार भी मैंने ही तैय्यार किया था तो क्या मुझे इतना अधिकार भी नहीं कि मैं चैत्य वन्दन करूं वहां तक प्रभु के कण्ठ में हार देख सकू। अपनी धर्मपत्नी के मधुर किन्तु उपालम्भ सहित वचनों को सुनकर भोजा ने अफसोस के साथ कहामैंने खास आपके लिये ही हार भगवान् के कण्ठ में रख छोड़ा था फिर यह उपालम्भ कैसे ? श्राविका मोहिनी-तो क्या मैं असत्य कहती हूँ, प्रभो । १ वरदेव (उपकेशपुर से पाटण गये) जयपाल विजयपाल गुणपाल जिनपाल राजपाल देपाल हरपाल सागण खेतो जेतो लालो ।।। रामो | फार | पद्मा दुर्गो धनो मनो सामो नेमो खेमो हाप्पो हर्षण जसो कर्मो धर्मो पन्नो सूजो मालो डाहो डाबर जाला उदो कालो पुनड़ रावल पातो लाखण सांलग (धार्मिक कार्यों में मन्दिर बनाना संघ निकालादि) सूजो श्रीचन्द मलुक मोहन जघडु नस्यो देसाल । दानो कानो मातो राजो भोजो (नोट-शाह भोजा के सिवाय भी वंशावलियों में सबकी परम्परा को बहुत ही विस्तार पूर्वक बतलाया है) सारंग अजड़ भीम भोपाल Anmomorrown maharani प्रभु के कण्ठ में दिव्याहार की चर्चा १४३७ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भोजा-नहीं आप सांसारिक कार्यों में भी असत्य का आचरण नहीं करती तो फिर इस पवित्र धर्म के कार्य में तो झूठ बोल ही कैसे सकती हो ? पर मैं भी झूठ नहीं कहता हूँ। मैं भी बराबर भगवान् के कण्ठ में हार रखकर बाहिर आया था। उसके बाद सिवाय आपके और कोई आया भी तो नहीं फिर यह सम्भव श्राविका-फिर हार कहाँ गया, आप जाकर भी तो जरा निगाह कीजिये। भोजा-मेरे जाने की क्या जरुरत है; मैंने सो भगवान को चढ़ा दिया अब उसकी जुम्मेवारी अधिष्टायिक के ऊपर है। श्राविका-श्रापने हार भगवान को अर्पण कर दिया यह तो अच्छा किया और इसमें मेरी भी सन्मति थी पर हार की निगाह तो अवश्य ही करनी चाहिये। यदि आपने उसकी सारी जुम्भेवारी अधिष्ठायिक के ऊपर रक्खी है और उसके अनुसार यदि अधिष्ठायिक उस ओर लक्ष्य देता तो हार कैसे चला जाता ? हार का सुष्ठ-प्रकारेण पता लगने पर ही मुझे सन्तोष होगा। इस प्रकार यकायक हार के लापता हो जाने के विषय में परस्पर दम्पत्ति के हमेशा वार्तालाप हुआ करता था। इधर जिन शासन शृंगार, परमोपकारो, महा-प्रभावक आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज विहार करके पाटण की ओर पदार्पण कर रहे थे। इसकी खबर वहाँ के श्री संघ को हुई तो पाटण वासी जन-समाज के हर्ष का पारावार नहीं रहा। श्रीसंघ ने सूरीश्वरजी का बहुत ही ठाट पूर्वक नगर-प्रवेश महोत्सव किया। आचार्यश्री ने भी समयानुकूल माङ्गलिक धर्म देशना दी जिसका जन-समाज पर पर्यात प्रभाव पड़ा। इस प्रकार आचार्यश्री का व्याख्यान प्रतिदिन होता था। प्रसङोपात एक दिन सरिजो ने मनध्य ज सामग्री की दुर्लभता और संसार की प्रसारता पर अत्यन्त प्रभावोत्पादक व्याख्यान दिया। उक्त वैराग्य पूर्ण व्याख्यान को श्रवण कर कई मुमुक्षु संसार से विरक्त हो गये उनमें शाह भोजा भी एक था। व्याख्यान श्रवणानंतर भोजा जब अपने निर्दिष्ट स्थान पर आया तो आपकी धर्सरशी ने कहा-अहा! आज सरिजी ने कैसा रोचक एवं उदयग्राही व्याख्यान दिया है। भोजा-तो क्या तुमको भी उस विषय का कुछ रङ्ग लगा है ? मोहिनी-रङ्ग तो लगता है पर यकायक संसार छूटता कहाँ है ? भोजा-तो फिर तुम उस बन्दर वाली ही बात करते हो । मोहिनी-सो कैसे। भोजा--एक छोटे मुँह का घड़ा था। उसमें चने भरे हुए थे। एक बन्दर ने अपने दोनों रिक्त हाथ चने के प्रलोभन से घड़े में डाले और दोनों हाथों में चने भर लिये पर अब भुट्टी भरी झेने से हाथ घड़े से बाहिर नहीं निकल सके । अतः वह निरुपाय हो चिल्लाने लगा कि-चने ने मुझे पकड़ लिया है, पर बतलाइये चने ने बन्दर को पकड़ रक्खा है या बन्दर ने चने को पकड़ रक्खा है ? इस पर मोहिनी ने कहा-बने ने बन्दर को नहीं पकड़ा है पर बन्दर ने चने को पकड़ा है। बस यही बात आप अपने लिये भी समझ लीजिये । संसार ने आपको नहीं पकड़ा है पर आपने संसार को मजबूती से पकड़ रक्खा है। यदि आप चाहें तो आज भी संसार का त्याग कर आत्म कल्याण कर सकती हो। पतिदेव के उक्त वचनों को श्रवण कर मोहिनी ने कहा तो--क्या आप मुझे संसार छोड़ने का उपदेश दे रहे है ? भोजा-हां, मैं स्वयं भी संसार को छोड़ना चाहता हूं। मोहिनी-तो फिर किस की ओर से विलम्ब है ? यदि आप संसार को छोड़ दें तो मैं आपके साथ १४३८ For Private & Personal use Only हार के विषय में दम्पति का संवाद.org Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १४७४-१५०८ भोजा-अब दीक्षा लेने के बाद तो हार का झगड़ा तो नहीं रहेगा न ? मोहिनी-यद्यपि हार से मेरा ममत्व नहीं है पर 'किम् जातं' यह खटका तो रह ही जायगा। जैसे एक गृहस्थ ने अपनी गर्भवती स्त्री का त्याग कर किसी सन्यासी के पास दीवाली पर जब ध्यान करने बैठा तो उसके मन में रह २ कर यह विचार आने लगा कि मेरी स्त्री के लड़का हुआ या लड़की ? इन्हीं विचारों में दिन व्यतीत होने लगे पर प्रभु-ध्यान में उक्त विचारों का मन स्थिर न हो सका । इस प्रकार जब छः मास व्यतीत हो गये तब उसके गुरु ने कहा-वत्स! तेरा चित्त ध्यान में क्यों नहीं लगता है ? क्या 'किम् जातं' का रोग तो नहीं लग गया है ? शिष्य ने कहा--गुरुदेव ! मेरे हृदय से यह 'किं जातं' का रोग ही नहीं निकलता है और इसी कारण से ध्यान में भी मन स्थिर नहीं रहता है । गुरु ने कहा तो आज तुम अपने घर पर भिक्षा के लिये जाओ शिष्य गुर्वादेशानुसार भिक्षा के लिये नगर में गया तो कौतूहलवश सब से पहिले अपने घर पर गौचरी के लिये गया। वहां नवजात शिशु को बालोचित क्रीड़ा करते हुए देखा तो अपने आप 'किं जातं' का रोग मिट गया। बस, तत्काल ही भिक्षा लेकर अपने गुरु के पास आया और निर्विन्नतया ध्यान में संलग्न हो गया । उसके हृदय से पुत्र को देख कर 'किं जातं' का रोग ही मिट गया और उसे सन्तोष हो गया कि मेरी औरत के पुत्र हुआ है। दैवयोग से उसी रात्रि को अधिष्ठायिका ने वह हार रात्रि में लाकर भोजा को दे दिया। प्रातःकाल अपनी धर्मपत्नी को हार दि वलाते हुए भोजा ने कहा-प्रिये ! यह हार रात्रि में मुझे अधिष्टायिका ने लाकर दिया है। बोलो अब इस हार के लिये क्या करना चाहिये ? सेठानी मोहिनी ने कहा-हार वापिस अधिष्ठायिक को दे दीजिये और जल्दी में ही दीक्षा की तैय्यारी कीजिये। अब एक क्षण का विलम्ब भी असह्य है । पत्नी के उक्त वचनों के बल पर ओजाने अधिष्ठायिक की आराधना को और अधिष्ठायिक को उक्त हार सौंप दिया। अधिष्ठायिक ते भी ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि श्रीसंघ के दर्शनों के समय तो हार प्रभु के कण्ठ में दृश्यमान होता और पश्चात् अदृश्य हो जाता । यह एक दिन के लिये नहीं पर हमेशा का ही क्रम था। इधर शाह भोजा और आपकी पत्नी दीक्षा लेने को बिल्कुल तैयार होगये । नगर भर में यह दीर्घ उद्घोषणा करवादी कि जिस किसी को भी किसी भी प्रकार की आवश्यकता हो-मैं तन, मन, धन से उसकी सहायता सेवा करने को तैयार हूँ । जो कोई चाहे दीक्षा ले; चाहे आचार्यश्री की सेवा में रह कर आत्म कल्याण करे। इस पर ३४ नर नारी दीक्षा लेने के लिये तैयार होगये । वि० सं० १०५५ वैशाख शुक्ला तृतीया के शुभ दिन शाह मोजा के किये हुए महामहोत्सव के साथ सूरिजी ने उन मोक्षाभिलाषी ३६ स्त्री पुरुषों को भगवती दीक्षा दकर निवृत्ति पथ का पथिक बनवाया। शाह भोजा का नाम भुवनकलश रख दिया। भूवनकलश की वय ४१ वर्षकी थी पर सूरिजो की उदार कृपा और भवनकलश मुनि के अनुपम उत्साह से आप थोड़े ही समय में वर्तमान साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित बन गये। उस समय की यह एक विशिष्ट विशेषता थी कि कोई भी मुनि कितना ही विद्वान क्यों न हो जावे; वह गुरुकुल वास से अलग रहना नहीं चाहता था। जो गुण, योग्यता और गौरव गुरुकुल वास से प्राप्त होता है वह अलग रहने में नहीं। मुनि भुवनकलश ने लगातार १६ वर्ष गुरुकुल वास में रह कर सर्व प्रकार से योग्यता हस्तगत करली थी। आचार्यश्री सिद्धसूरि ने भी वि० सं० १०७४ के माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन, श्रेष्टि पद्मा के महामहोत्सव पूर्वक मुनि भुवनकलश को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया। आचार्यश्री ककसूरिजी म० परमप्रभावक, जैन धर्म के जगमगाते सितारे थे। वादियों पर तो आपकी इतनी धाक जमी हुई थी कि आपका नाम सुनते ही ये दूर दूर भागते थे। आचार्यश्री ने जिस दिन सूरिपद का भार अपने कन्धे पर लिया था उसी दिन छट छट पारणा तथा पारणे में केवल एक ही विगय लेने की करती थी। इस प्रकार शुद्ध निर्मल और कठोर तपस्या के कारण आपको कई अपूर्व २ मुनि भुवनकलश का सूरिपद १४३६ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-१६०८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जब्धियां एवं चमकार पूर्ण शक्तियां पा होगई थीं। देवियां आपके चरणों की सेविकाएं बनगई थीं ! आपकी व्याख्यान शैली इतनी मधुर, रोचक, पाचक एवं हृदयग्राहिणी थी कि बड़े २ राजा महाराजा भी सुनने के लिए लालायित रहने पापभी की तत्व समझाने की शैली इतनी सरस, सरल एवं रोचक थी कि श्रवण करने वाले श्रोताओं का मन सूरिजी की सेवा से विलग रहना नहीं चाहता था । आपश्री क्रमशः विहार करते हुए नागपुर (नागौर) पधारे। वहां के श्रीसंघ ने अत्यन्त समारोह पूर्वक आचार्यश्री का स्वागत किया और चातुर्मास के लिये अत्यन्त आग्रह पूर्ण प्रार्थना की। निदान १०७५ का वह चातुर्मास आपने नागपुर में ही किया। आपश्री का व्याख्यान हमेशा धाराप्रवाहिक न्याय से होता था। एक दिन आपने परमपावन तीर्था धिराज श्री शत्रुञ्जय का महात्म्य बतलाते हुए उक्त तीर्थ का इतना रोचक वर्णन किया कि व्याख्यान सभा स्थित सकल जन समाज का मन सहसा ही तीर्थ यात्रा करने के लिये आकर्षित होगया। तत्काल ही आदित्यनाग गोत्रीय चोरलिया शाखा के धन वेश्रमण शा० करमण की इच्छा संघ निकालने की होगई । शत्रुञ्जय तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालने की उन्होंने उसी व्याख्यान में खड़े होकर आज्ञा मांगी और श्रीसंघ ने धन्यवाद के साथ सहर्ष आदेश भी दे दिया। बस फिर तो था ही क्या ? शा० करमण ने अपने आठों पुत्रों को बुला कर संघ सामग्री तैय्यार करने की आज्ञा देदी । शा० करमण ने सुदूर प्रदेशों में अपने आदमियों को भेजकर साधु, साचियों को विनती करवाई और श्राद्धवर्ग के लिये स्थान २ पर आमन्त्रण पत्रिकाएं भिजवाई। मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा के दिन सूरिजी की नायकता और संघपति करमण के अध्यक्षत्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया ! पट्टावलीकार लिखते हैं कि इस संघ में ३००० साधु साध्वियां और एक लक्ष से अधिक श्राद्धवर्ग थे । जब संघ क्रमशः खटकुम्न नगर पहुँचा तो वहां के संघ ने उक्त संघ का अच्छा स्वागत किया। परस्पर प्रेम भावना को बढ़ाने के लिये दोनों की ओर से एक २ दिन स्वामीवात्सल्य हुआ। मन्दिरों में ध्वजा महोत्स्व आदि हुआ। बाद वहां से रवाना हो संघ, उपकेशपुर नगर आया। वहा भो पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य, अष्टाह्निका महोत्सव एवं ध्वजा महोत्सव किया। वहां से ग्रामों एवं नगरों के मन्दिरों के दर्शन करता हुआ घ ने तीथोधिराज का दूर से दर्शन कर मोतियों से बधाया और तीर्थ पर जाकर सेवा पूजा भक्ति कर अपने जन्म को पवित्र बनाया जिस समय नागपुर का संघ शत्रञ्जय पर आया था उस समय करीब पां नगरों के संघ और भी वहां उपस्थित थे। सबका समागम परस्पर प्रेम में एवं अानन्द में वृद्धि कर रहा था। पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य, अष्टान्हिका महोत्सव एवं ध्वजारोहण में संवपति करमण ने अत्यन्त उदा. रतापूर्वक द्रव्य व्यय किया। जब माला का समय आया तो साढ़े सात लाख की बोली से माला मरुधर के आदित्यनाग गौत्रावतंस संघपति करमण के कण्ठ में सुशोभित हुई। __मरुधर वासियों में धर्म का बड़ा भारी गौरव था। वे धार्मिक क्षेत्रों में तन मन और धन से द्रव्य व्यय करते थे; यही कारण था कि शा० करमण माला के लिये साढ़े सात लाख का द्रव्य बोलने में नहीं हिच किचाया। सम्पूर्ण कार्यों के सानंद सम्पन्न होने पर संघ वापिस लौटते समय पाटण नगर में आया जो सूरिजी की जन्मभूमि थी । पाटण के संघ ने आगत संघ का अच्छा सत्कार किया। शा० राजा ने संघ को प्रीति-भोज और पहिरावणी दी। संघपति करमण ने पाटण के मन्दिरों के दर्शन कर चढ़ाया चढ़ाया। तत्पश्चात् संघ रवाना होकर नागपुर आया। श्रीसंघ ने आगत संघ का समारोह पूर्वक स्वागत कर बड़े ही महोत्सव के साथ बधाया । संघपति करमण ने संघ को स्वामीवात्सल्य, और साथ में स्वर्ण मुद्रिका तथा सुंदर वनों की प्रभावना देकर विसर्जित किया । अहा ! उस समय जैन समाज की धर्म पर कितनी श्रद्धा थी ? एक २ धार्मिक कार्यों में लाखों रुपये व्यय कर वे महापुरुष लाखों मनुष्यों के पुण्य बध के कारण बन जाते थे। इधर आचार्यश्री भी संघ के साथ नागपुर पधारे और वहां से उपकेशपुर की ओर विहार कर दिया। १४४० प्राचार्यश्री का बिहार www.jainenbrary.org Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्करि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४७४-१५०८ Arran सं० १०७६ का चातुर्मास उपकेशपुर श्रीसंघ के आग्रह से उपकेशपुर में ही किया। चातुर्मास कालपर्यन्त आपके विराजने से धर्म की अच्छी उन्नति एवं प्रभावना हुई । आपके त्याग वैराग्य सय उपदेश से सात पुरुष और तीन स्त्रियों ने वैराग्य पूर्वक दीक्षा ली। वहां से विहार कर सूरिजी मरुभूमि के छोटे बड़े ग्रामों में धर्मोपदेश देते हुए पाली नगर में पधारे । १०७७ का चातुर्मास पाली में किया। वहां पर बप्पनाग गौत्रीय शा. मूला ने आगम भक्ति कर भगवती सूत्र बचवाया। तप्त भट्ट गौत्रीय शा० बाला मेडराज ने अष्टाह्निका महोत्सव करवाया जिसमें एक लक्ष द्रव्य व्यय किया । स्वधर्मी बन्धुओं को यथायोग्य प्रभावना दी। चातुर्मास के पश्चात् श्रेष्टिगौत्रीय शा० भाणा के सुपुत्र उता ने ६ मास की विवाहित पत्नी का त्याग कर सजोड़े आचार्यश्री के चरण कमलों में भगवती दीक्षा अङ्गीकार की। इस दीक्षा महोत्सव समारोह में प्रभावनादि पुन्योपात्रिक कायों में सवालक्ष द्रव्य व्यय कर जैन-शासन की महत्ता बढाई। इस तरह सानंद चात र्मास के सम्पन्न होने पर भिन्नमाल, सत्यपुर, शिवगढ़, जावलीपुर, कोरंटपुर वगैरह नगरों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए चंद्रावती पधारे । श्रीसंघ के अत्याग्रह से १०७८ का चतुर्मास चन्द्रावती में ही किया । आपश्री के विराज ने से उक्त नगर में जैन-धर्म का पर्याप्त उद्योत हुआ । आपने ३६० पंवार क्षत्रियों को जैन बनाकर प्राग्वट वंश सम्मिलित कर दिया। इधर शाकम्भरी नगरी में किसी दैविक प्रकोप से मरी रोग का प्रचण्ड उपद्रव प्रारम्भ हो गया था। ब्राझर। समुदाय ने अपने मन्तव्यानुसार रोगोपशमन के लिये जप, जाप, यज्ञ, हवन वगैरह बहुत उपाय किये फिर भी अभीष्ट की सिद्धि न होसकी। रोग-शान्ति के अभाव में संघ के प्रमुख २ व्यक्ति चलकर के आचार्यश्री कक्कसूरि के पास में प्रार्थनार्थ आये और सूरीश्वरजी को अथ से इति पर्यन्त नगरी सम्बन्धी दुःख गाथा कह सुनाई । आचार्यश्री को एतदर्थ शाकम्भरी नगरी पधारने के लिये आग्रह पूर्ण प्रार्थना की । सूरिजी ने भी उपकार का कारण जानकर चातुर्मास समाप्त होते ही शाकम्भरी की ओर पदार्पण कर दिया। इससे जैनियों को ही नहीं अपितु सकल नागरिकों को विश्वास हो गया कि जैन साधु बड़े ही उपकारी, निस्पृही, संयमी, ब्रह्मचारी एवं दयालु होते हैं । इनके पदार्पण से हम लोगों का दुःख निश्चिय ही मिट जायगा। इधर आचार्यश्री ने भी जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव शान्ति स्नात्र आदि प्रारम्भ करवा दिया। आप अष्टम तप कर अपने इष्ट की आराधना में संलग्न होगये । विधि विधान पुरःसर वृहद् शान्ति स्नात्र पूजा करवाई ! देवी देवताओं को समुचित बल बालकुल दिया। इस तरह क्रमशः सर्व प्रकारेण उपद्रव शान्ति होगई । इस तरह के चमत्कार से बहुत से जैनों ने आचार्यश्री के उपदेश से प्रभावित हो जैनधर्म स्वीकार किया। सूरिजी ने भी उन्हें जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ में सम्मिलित कर दिया। __ पूर्व कालीन यह एक विशिष्ट विशेषता थी कि महाजन संघ जैनधर्म स्वीकार करने के पश्चात् हर एक व्यक्ति को अपनाने में निश्चिन्मात्र भी नहीं हिचकिचाता था । स्वधर्मी बन्धु के नाते उसे हर तरह की सहायता प्रदान कर धार्मिक संस्कारों को सुदृढ़ बनाता रहता था इसी से भीषण २ धार्मिक संघर्ष कालों में भी जैनधर्म उन्नत बदन से यथावत् संसार के अन्य धर्मों के सामने स्थिर रह सका । हमारे धर्म गुरु (श्राचार्यों) का समाज पर इतना प्रभाव था कि उनके आदेश का उल्लंघन कोई समाज का व्यक्ति कर ही नहीं सकता था। जहां कही नये जैन हुए उन्हें अपना भाई समझ कर महाजन संघ तत्काल ही उनके साथ रोटी बेटी व्यवहार कर लेता था। इससे जैनधर्म स्वीकार करने वालों को किसी भी तरह की तकलीफ नहीं होने पाती। इतना ही क्यों पर सब तरह से सम्मानित होने के कारण उन्हें जैनधर्म स्वीकार करने में अपूर्व आनन्दानुभव होता। श्री संघ की एकत्रित प्रार्थना से वि० सं० १०७६ का चातुर्मास आचार्यश्री को शाकम्भरी नगरी में ही करना पड़ा। नित्य क्रमानुसार प्राचार्यश्री के व्याख्यान का जन-समाज पर आशातीत प्रभाव पड़ा । सूरिजी ain शाकम्भरी नगरी में बीमारी और सूरिजी. Private & Personal Use Only १४४१ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास AMAnanve.viwwwmarnal के उपदेशश से सुचंति गौत्रीय शाह फागु ने भगवान महावीर का मन्दिर बनवाना प्रारम्भ किया और मन्दिरजी के समीप ही पौषध, सामाणिक, प्रतिक्रमण आदि धार्मिक कृत्यों के लिये गौषधशाला भी डिडू गौत्रीय शा० अर्जुन ने वीतगग प्रणीत आगम-ज्ञान की भक्ति कर महा प्रभाविक श्री भगवती सूत्र व्याख्यान में बंचाया। उक्त शाखोत्सव में एक लक्ष द्रव्य व्यय किया । इस तरह उक्त वतुर्मास में प्राचार्यश्री के विराजने से जैनधर्म की महती प्रभावना हुई। एक समय आचार्यश्री स्थण्डिल भूमि को पधार कर वापिस लौट रहे थे। इधर एक ओर से बहुत से अश्वारोही किसी अनिश्चित स्थान की ओर जारहे थे। मार्ग में परस्पर दोनों का समागम (मिलन ) होगया। विचक्षण आचार्यश्री ने उन सैनिकों के बाह्य चिन्हों को देख कर ही यह अनुमान कर लिया कि ये अवश्य ही क्षत्रिय वंशोत्सन्न व्यक्ति हैं और आखेट (शिकार ) के लिये वन की ओर जारहे हैं । सूरिजी का प्रभाव उनकी विद्वत्ता एवं आचार विचारों की निर्मलता के कारण पहिले से ही इत उत सर्वत्र प्रसरित था अतः आचार्यश्री के तपस्तेज का प्रभाव उन अवरोही सैनिकों पर भी तत्काल पड़ा। उन घुड़ सवारों में से प्रमुख व्यक्ति चौहान राव आभड़ ने घोड़े पर बैठे हुए सूरिजी को वंदन किया । सूरिजी ने धर्म लाभ देते हुए पूछा-रावजी ! आज किधर जाना हो रहा है ? रावजी ने कहा-महाराज! हम लोग तो सांसारिक मायाजाल एवं प्राञ्चों में फंसे हए पातकी जीव और पाप के कार्य को ही लक्ष्यीभत बना अपने मार्ग की ओर अग्रसर हो रहे हैं। सूरिजी-रावजी! पाप का कद्रफल भी तो आपको ही भोगना पड़ेगान ? रा० आभड-हाँ, यह तो निश्चित एवं सर्वधर्म सम्मत निर्विवाद कथन है महात्मन् ! पर किया ही क्या जाय ? हम लोगों के लिये तो यह एक व्यसन ही होगया। सूरिजी-- यदि किसी सिंह को मनुष्य मारने का व्यसन पड़ जाय तो ? रा० आभड-तो क्या तत्काल ही उसे मौत के घाट उतारना चाहिये। सूरिजी-तो उसी तरह फिर आपके लिये.................. ? आचार्य देव के उक्त कथन का उत्तर देते न बना । रावजी ने एकदम मौनावलम्बन ले लिया । अतः सूरिजी ने पुनः अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया महानुभावों ! जैसे आपको अपना जीवन प्यारा है वैसे ही सकल चराचर प्राणियों को अपने २ प्राण प्रिय है। भगवान ने आचाराङ्ग सूत्र में कहा है कि “सव्वे सुह साया, दुह पडिकूला, अप्पिय वहा पिय जीविणो तम्हा गातिवाएञ्च किंचणं" अर्थात् सुखेच्छा व सुख प्राप्ति जगज्जीवों के लिये अनुकूल है और दुःख सर्वथा प्रतिकूल है। जीवन सब को प्रिय है भरना सबको अप्रिय है अतः किसी भी जीव को मन, वचन काया से तकलीफ-यातना नहीं पहुँचानी चाहिये । क्योकि-"सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउं न मरिजिउँ" अर्थात् संसार के सकल प्राणी जीने की इच्छा करते हैं भरने की नहीं। अतः किसी भी प्राणी का वध करके पाप का भागी होना निश्चय ही दुःखप्रद है। दूसरी बात किसी मृत कलेवर का स्पर्श हो जाने पर तो आप लोग स्नान वगैरह से शुद्धि करते हो पर जीते हुए जीवों की घात करके उसका मांस भक्षण करने से आप लोगों की क्या गति होगी ? आप जैसे वीर क्षत्रियों को यह शोभा नहीं देता है। भगवान रामचन्द्र, श्रीकृष्ण तथा महाबली पाण्डवों का रक्त आपकी नसों से निकल गया है इसी वास्ते श्राप ऐसे जन-गर्हित कार्य को करने में भी अपनी बहादुरी समझते हो। अरे! आप लोगों के रसास्वादन के लिये तो कुदरती गुड़, शक्कर, घृत, मेवादि असंख्य पदार्थ वर्तमान हैं फिर बेचारे निरपराधी एक प्राणियों का वध करके परभव के लिये पाप का भार क्यों लाद रहे हो ? ___ इस प्रकार अहिंसा विषयक सूरिजी के लम्बे चौड़े वक्तृत्व ने उन लोगों के ऊपर इतना प्रभाव डाला कि उन सबों का हृदय दया से लबालब भर आया। पाखिर क्षत्रिय तो क्षत्रिय ही थे । दया उनके लिये कोई १४४२ For Private & Personal use Only राव भाभड़ और सूरिजी का संवाद womaiwwwmanoranawwanmanursinommaraww Jain Education international Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्करि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४७४-१५०८ बाहिर की वस्तु नहीं थी। केवल बुरी संगति के कारण दया पर पर्दा पड़ गया था सो आचार्यश्री के उपदेश से वह भी दूर होगया । उन सैनिकों के प्रमुख राव आभड़ ने कहा-गुरुदेव ! आपका कहना अक्षरांश सत्य है और हम भी आज से ही शिकार और मांस, मदिरा का त्याग करते हैं । हम ही क्या ? पर हमारी संतान परम्परा भी अद्य-प्रभृति कभी भी मांस मदिरा का स्पर्श नहीं करेगी। राव आभड़ के सुदृढ़ वचनों को सुन कर सूरिजी ने कहा-रावजी ! मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। मुझे इतनी उम्मेद नहीं थी कि आप मेरा थोड़ा सा उपदेश श्रवण करके ही इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेंगे । खैर इस प्रतिज्ञा पालन के लिये कुसंगति का त्याग कर सुसंगति में रहना चाहिये। रावजी ! आप जानते हो कि यह मानव जन्म बड़ी ही कठिनाइयों से मिलता है । आत्म-कल्याण के लिये खास कर यह ही उपयोगी है। सिवाय मनुष्य-भव के अन्य भवों में यात्म कल्याण सम्भव नहीं है अतः श्रापका भी कर्तव्य है कि शाप लोग सन्मार्ग की ओर प्रवृत्ति कर आत्म-साधन करें। रावजी की लूरिजी पर इतनी श्रद्धा होगई कि वे आचार्यश्री की सेवा से बिलग रहना ही नहीं चाहते थे। उनके हृदय में यह बात अच्छी तरह से ठस गई कि सूरिजी निस्पृही और परोपकारी महात्मा हैं । इनका कहना निस्वार्थ भाव से हमारे हित के लिये ही होता है अतः रावजी ने कहा-गुरुदेव ! हम अज्ञानी लोग आत्म-कल्याण के कार्यों में समझते ही क्या हैं ? हमारा विश्वास तो आप पर है । अतः आप बतलावें वही करने को हरा यार हैं । सूरिजी ने कहा-आप वीतराग-प्रणीत जैन धर्म को स्वीकार कर इसकी आराधना करें जिससे आप लोगों का शीघ्र ही कल्याण हो । रावजी ने सूरिजी का उक्त कथन सहर्ष स्वीकार कर लिया और नगर में आकर करीब तीन सौ श्री पुरुषों ने सूरिजी से वाल-क्षेप पूर्वक जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। उसी दिन से राव आभड़ ग्रादि क्षत्रियवर्ग महाजन संघ में समिलित हो गये और उनके साथ सब तरह का सम्बन्ध प्रारम्भ होगया। रावजी के दिल में बड़ा ही उत्साह था। वे सूरिजी के व्याख्यान का प्रतिदिन बिना लंघन के लाभ लेते थे और धमें कार्य में हमेशा तत्पर रहते थे। एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में मन्दिर बनवाने का वर्णन इस प्रकार किया कि एक नगर देरासर या कम से कम घर देरासर बनवाना तो श्रावक का कर्तव्य ही है। सकल जीवों के हितार्थ नगर देरासर बनवाना तो श्रावक के लिये परमावश्यक ही है पर इतना समागे न हो तो घर देरासर बनावाने में तो आगे-पीछे करना ही नहीं चाहिये । आचार्यश्री के उक्त उपदेश ने सब लोगों पर बहुत ही प्रभाव डाला पर राव श्रामड़ पर तो उसका आशातीत प्रभाव पड़ा । उसने तत्काल ही घर देरासर बनवाने का निर्णय कर लिया। जब घर देरासर के लिये नींव खोदी तो भाग्यवशात् भूमि से अक्षय निधान मिल गया। बस फिर तो था ही क्या ? रावजी की श्रद्धा धर्म पर और भी दृढ़ होगई और उनका उत्साह द्विगुणित हो गया। जब रावजी ने आकर सब हाल गुरु महाराज से कहा तो सूरिजी ने प्रसन्नता के साथ में उनके उत्साह को बढ़ाते हुए कहा-रावजी ! आप परम भाग्यशाली हैं। यह सब धर्म का ही प्रताप है। धर्म में ही मनुष्य का अभ्युदय होता है। आपको जो निधान मिला है यह तो एक साधारण सी बात है पर धर्म से जन्म, जरा, मरण के भयंकर दुःख भी सहसा मिट जाते हैं और अक्षय सुख की प्राप्ति हो जाती है। राव आभड़ ने घर देरासर के सिवाय नगर में चिन्तामणि पार्श्वनाथ का एक विशाल मन्दिर बनवाना भी प्रारम्भ किया । चातुर्मास के पश्चात् ही धर्म के रंग में रंगे हुए राव आभड़ ने शत्रुनय की यात्रा के लिये एक मिराट् संघ निकाला। संत्र पतित्व की माला को धारण कर सूरिजी के साथ में राव आभड़ने परम पवित्र तीर्थों की यात्रा की । पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य और स्वधर्मी बन्धुओं को पहिरावणी देकर रावजी ने परमार्थ के साथ इस लोक में भी अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली । वास्तव में मनुष्यों का जब अच्छा उदय काल होता है तब उसको निमित्त कारण भी तथावत् अभ्युदन के मिल ही जाते हैं। जब तीन वर्षों के अथाह परिश्रम एवं द्रव्य व्यय के पश्चात् मूरिजी का उपदेश और रावजी १४४३ Jain Edalon internationa Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्थनाय की परम्परा का इतिहास मन्दिर बनकर तैयार हो गया तब सूरिजी को बुलवाकर रावजी ने बड़े ही समारोह के साथ प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रतिष्ठा के समारोह से इतर धर्मानुयायियों पर पवित्र जैन धर्म के संस्कारों का ऐसा सुदृढ़ प्रभाव पड़ा कि उन लोगों ने कई समय के मिथ्यात्व का वमन कर परम पावन जैनधर्म अङ्गीकार कर लिया। राव आभड़ की संतान प्रोसवंश में आभड़ जाति के नाम से विख्यात हुई । इस जाति का वंशावलियों में बहुत विस्तार मिलता है पर मैं इनकी वंशावली संक्षिप्त रूप में ही उद्धृत करता हूँ-तथापि १ राव आभड़ २ जेतो खेतो पाबू नांनग रामदेव साहो पेथो दुर्गों पातो दलपत सांगो जोगड़ जालो नाथो नारायण ३ हानो जामाल दास्थ करावा ३ हानो जामाल दशरथ रुषो पातो हरदेव मालो ४ बाघो भूतो लाढूंक सांगण मांधू गोरख नोधण मालो (शत्रुखय का संघ निकाला) ५ राजपाल सेजपाल पृथ्वीधर (महावीर मन्दिर) ७ धरण करण खेतो मधो जैतो इसके अलावा प्रत्येक व्यक्ति की वंश परम्परा की रूपरेखा पृथक् २ बतलाई जाय तब तो बहुत ही विस्तार हो जाता है। अतः ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से इसको इतना विशद रूप न देकर सामान्य रूप में नमूने के बतौर ही लिखना हमारा ध्येय है। अपनी २ जाति के उत्कर्ष को चाहने वाले उत्साही व्यक्ति अपनी परम्परा का विशद इतिहास जन-समाज के सम्मुख प्रत्यक्ष रखकर जातीय उन्नति में हाथ बटावें। इस प्राभड़ जाति के शूरवीर दानवीरों ने अनेक स्थानों पर जैन मन्दिर बनवाये। कई स्थानों से तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाले, कई दुष्कालों में स्थान २ पर दानशालाएं उद्घाटित की इत्यादि अनेक शासन-प्रभावक कार्य किये जिनका पृथक् २ वर्णन लिखा जाय तो निश्चित ही एक स्वतन्त्र ग्रन्थ बन जाता है। मैं केवल मेरे पास आई हुई वंशावलियों में वर्णित कार्यों की जोड़ लगाकर यहां आंकड़े लिख देता हूँ। १४४४ राव प्रामड़ का वंशवृक्ष N.jainenorary.org Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४७४-१५०८ mmmmmm or mox ur १ इस जाति के उदार नररत्नों ने ८७ जिन मन्दिर बनवाये । २ इस जाति के कार्य परायण महानुभावों ने १६ पार तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाले । , ३७ ,, संघ को अपने यहां बुलाकर संघ पूजा की। " , ७, दुष्काल में शत्रुकार दिये । , ५, तीन तालाब और दो कुए खुदवाये । ६ इस जाति के २२ शूरवीर युद्ध में काम श्राये और साथ में महिलाएं सती हुई। इसके सिवाय अन्य भी कई छोटे मोटे परमार्थ के कार्य किये जिनका ग्रन्थ विस्तार भय से विशेष वर्णन नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार आचार्यश्री ने आठ वर्ष पर्यन्त मरुधर प्रान्त में लगातार विहार करके जैनधर्म का पर्याप्त उद्योत किया। अजैनों को जैन बना कर ओसवंश में सम्मिलित करना तो आपश्री के पूर्वजों से ही चला आया था। अतः आप उनके मार्ग का अनुसरण करने में पीछे कैसे रहने वाले थे ? एक समय उपकेशपुर में विराजते हु। आपको विचार आया कि मरुधर प्रान्त में विचरण करते हुए तो पर्याप्त समय होगया है। अतः किन्हीं दूसरे प्रा-तों में धर्म प्रचारार्थ विचरण करना चाहिये । पर किन प्रान्तों में विहार करना यह उनके लिये विचारणीय या निर्णय का प्रश्न बन गया था। इतने में देवी सच्चायिका ने परोक्षपने श्राचार्यश्री के निवास स्थान पर प्रवेश कर वंदन किया । सूरिजी ने भी देवी को धर्मलाभ रूप आशीर्वाद दिया। आचार्यश्री के मनोगत भावों को अवधिज्ञान के द्वारा जानकर देवी ने स्वयमेव कहा-पूज्यवर ! श्राप मेदपाट प्रान्त से ही अपना विहार क्षेत्र प्राराम कीजिये । निश्चित् ही आपको समय २ पर अच्छा लाभ होगा । सूरिजी ने भी देवी के वचनों को हृदयङ्गम करते हुए कहा-देवीजी ! आपने ठीक मौके पर आकर मुझे सलाह दी है। इस तरह शासन सम्बन्धी कुछ और वार्तालाप करके देवी अदृश्य होगई । सूरिजी ने भी अपना विहार मेदपाट की ओर करना निश्चित किया ! क्रमशः शुभ मुहूर्त में ५०० मुनियों के साथ विहार भी कर दिया। पट्टापली निर्माताओं ने आपके विहार का वर्णन भी अन्यान्य वर्णनों के साथ विस्तारपूर्वक किया है । यहां इस वर्णन को इतना विशद रूप न देकर इतना ही लिखना पर्याप्त है कि आपने १०८४ का चतुर्मास आघाट नगर १०८५ का चतुर्मास चित्रकूट में, १०८६ का उज्जैन में, १०८७ का चंदेरी में चतुर्मास किया। वहां पर सर्वत्र धर्मोद्योत करते हुए श्राप मथुरा पधारे। उस समय वहां पर कोरंट गच्छाचार्य सर्वदेवसूरिजी विराजमान थे। श्राचार्य सर्वदेव सूरी और सकल श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया। उस समय कोरंटगच्छाचार्यों का विहार क्षेत्र मथुरा भी प्रमुख रूप से बन गया था। मथुरा में कोरंट गच्छीय मुनियों का श्रावागमन प्रायः प्रारम्भ ही था। उनसे यह क्षेत्र कदाचित् ही खाली रहता । इसी कोरंट गच्छ में एक माथुरी शाखा थी। इस शाखा का प्रादुर्भाव आचार्य नन्नप्रभसूरि से हुआ था। इस शाखा के प्राचार्यों के भी ये ही तीन नाम होते थे जैसे-नन्नप्रभसूरि, ककसूरि और सर्वदेवसूरि जिस समय हमारे चरित्रनायक आचार्य ककसूरिजी महाराज मथुरा में पधारे उस समय माथुरी शाखा के सर्वदेवसूरि वहां विराजमान थे। उनके तथा तत्रस्थ श्रीसंघ के अत्याग्रह से हमारे चरित्रनायकजी का वह चातुर्मास मथुख में ही होगया । उस समय मथुरा में बौद्धों का कोई प्रभाव नहीं था पर बौद्ध भिक्षु यत्र तत्र स्वल्प संख्या में अपने मठों में रहते थे। वैदान्तिकों का प्रचार कार्य अवश्य बढ़ता जारहा था पर जैनियों की आबादी पर्याप्त होने से उन पर वह अपना किश्चित् भी प्रभाव न डाल सका। आचार्यश्री के विराजने से तो सबका उत्साह और भी बढ़ गया था। सूरिजी की प्रभावोत्पादक व्याख्यान शैली जन समाज को मन्त्र मुग्ध बना कर उन्हें अपने कर्तव्य मार्ग की ओर अग्रसर करने में परम सहायक हो रही थी। इतर धर्मावलम्बियों को जैनियों का उक्त प्रभाव कैसे अच्छा लगने वाला था ? अतः उन्होंने कई प्रकार के मिथ्या आक्षेप कर अपने पाण्डित्य के अहमत्व में उन्हें शास्त्रार्थ के लिये प्रामविहार का विचार और देवी की सम्मति amawwwmwww. maawaranwaroo Jain Educauen internatoria " Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४- ११०८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास त्रित किया पर मथुरा के जैन भी इतने कमजोर नहीं थे जो उनकी शृगा भकियों के सहज ही में डर जावें । आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज का विराजना तो निश्चित हा उनके उत्सव था । अतः उन्होंने निशंक उनके पत्र को स्वीकार कर लिया । बेचारे वादियों के पास जैन ईश्वर एवं वेद को नहीं मानने वाला एक नास्तिक मत है । परपरागत इस मिथ्या प्रलाप के सिवाय और बोलने का ही क्या था ? पर आचार्य कक्कसूरि ने सभा के बीच प्रबल प्रमाणों और अकाट्य युक्तियों द्वारा यह साबित कर बतलाया कि जैन कट्टर आस्तिक एवं सच्चिदानंद वीतराग सर्वज्ञ को मानने वाले ईश्वर भक्त हैं। पर सृष्टि का कर्ता, हर्ता एवं जीवों के पाप पुण्य के फल को देने दिलाने वाला नहीं मानते हैं। इस प्रकार न मानना भी युक्ति सङ्गत एवं प्रमाणोपेत है। असली वेदों को मानने के लिये तो जैन इन्कार करते ही नहीं हैं और पशु हिंसा रूप वेदों को मानने के लिये जैन तो क्या पर समझदार अजैन भी तैय्यार नहीं हैं। आचार्यश्री के प्रमाणों से सकल जनता हर्षित हो जय ध्वनि बोलती हुई विसर्जित होगई । इस तरह शास्त्रार्थ में विजयमाला जैनियों के कण्ठ में ही शोभायमान हुई। जैनधर्म का तो इतना प्रभाव बढ़ा कि कई जैन व्यक्तियों ने प्राचार्यश्री की सेवा में जैनधर्म को स्वीकार कर परम्परा के मिध्यात्व का त्याग किया । / एक दिन सूरिजी ने तीर्थंकरों की निर्धारण भूमि का महत्व बताते हुए पूर्व-प्रान्त स्थित सम्मेतशिखर, चम्पापुरी, पावापुरी के रूप २२ तीर्थंकरों की निर्वाण भूमिका प्रभावोत्पादक वर्णन किया। जन समुदाय पर आपके ओजस्वी व्याख्यान का पर्याप्त प्रभाव पड़ा । परिणामस्वरूप वप्पनाग गौत्रीय नाहटा शाखा के सुश्रावक श्री आसल ने आचार्यश्री के उपदेश से प्रभावित हो चतुर्विध संघ के सम्मुख प्रार्थना की कि मेरी इच्छा पूर्व प्रान्तीय तीर्थों के यात्रार्थ संघ निकालने की है। यदि श्रीसंघ मुझे आदेश प्रदान करे तो मैं अत्यन्त कृतज्ञ होऊगा । श्रीसंघ ने भी सहर्ष धन्यवाद के साथ आसल को संघ निकालने के लिये आज्ञा प्रदान करदी | श्रीसंघ के आदेश को प्राप्तकर आसल ने सब तरह की तैय्यारियां करना प्रारम्भ कर दिया। सुदूर प्रान्तों में आमंत्रण पत्रिकाएं भेजी व मुनिराजों की प्रार्थना के लिये स्थान २ पर मनुष्यों को भेजा । निर्दिष्ट तिथि पर संघ में जाने के इच्छुक व्यक्ति निर्दिष स्थान पर एकत्रित हो गये । वि० सं० १०८६ मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा के दिन सूरिजी की नायकता और आसल के संघपतित्व में संघ ने तीर्थयात्रार्थ प्रस्थान किया । मार्ग के तीर्थस्थानों की यात्रा करता हुआ संघ क्रमशः सम्मेतशिखर पहुँचा । बीस तीर्थंकरों के चरण कमलों की सेवा पूजा यात्रा कर सब ने अपना अहोभाग्य समझा। वहां पर पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य अष्टान्हिका महोत्सव एवं ध्वजारोहण प्रभावना, सुकृतोपार्जक कार्य कर अक्षय पुण्य राशि का अर्जन किया । पश्चात् वहां से बिहार कर संघने चम्पापुरी और पावापुरी की यात्रा की। राजगृह आदि विशाल क्षेत्रों का स्पर्शन कर संघ ने कलिंग की ओर प्रस्थान किया। वहां कुमार, कुमरी ( शत्रुञ्जय, गिरनार ) अवतार की यात्रा की। इस प्रकार अनेकों तीर्थ स्थानों की यात्रा के पश्चात् आचार्य कक्कसूरि ने अपने मुनियों के साथ पूर्व की ओर विहार किया । आचार्य सर्वदेवसूरि के अध्यक्षत्व में संघ पुनः मथुरा पहुँच गया। इधर सूरिजी का पूर्वीय प्रान्तों की ओर परिभ्रमन होने से जैनधर्म का काफी उद्योत एवं प्रचार हुआ । आचार्यश्री का एक चतुर्मास पाटलीपुत्र में पश्चात् समेत शिखरजी की यात्रा कर आप आस पास के प्रदेशों में धर्मोपदेश करते हुए वहीं पर परि १ इस लेख से पाया जाता है कि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी पर्यन्त सो पूर्व की ओर व कलिंग प्रान्त में जैनियों की पर्याप्त आबादी थी। कलिंग देश की उदयगिरि खण्डगिरि पहाड़ियों पर प्राप्त विक्रम की दसवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी के शिलालेखों से पाया जाता है कि विक्रमी दशवीं ग्यारहवीं शताब्दी पर्यन्त जैनियों का अस्तित्व रहा है | इतना हो क्यों पर विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में कलिङ्ग देश पर सूर्यवंशीय प्रतापरुद्र नामक जैन राजा का शासन था। जब राजा ही स्वयं जैन था तब थोड़े बहुत परिमाण में प्रजा जैन हो, यह तो प्रकृति सिद्ध-स्वाभाविक ही है । १४४६ मथुरा से सम्मेत शिखर का संघ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ककरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४७४-१५०८ भ्रमन करते रहे । पश्चात् क्रमशः छोटे बड़े ग्राम नगरों में होते हुए आपने भगवान पार्श्वनाथ की कल्याणक भूमि श्री बनारस की यात्रा की । श्रीसंघ के अत्याग्रह से वह चतुर्मास सूरिजी को वहीं पर करना पड़ा । चतुमासानन्तर सूरिजी ने पञ्जाव प्रान्त की ओर विहार किया। वहाँ पर आपके आज्ञानुयायी बहुत से मुनि पहिले से ही विचरण करते थे । जब आचार्य महाराज पञ्जाब में पधारे तब आपके दर्शनार्थी साधु, साध्वी एवं श्रावक श्राविकाओं के दर्शन का तांतासा लग गया। जहां २ श्राप विराजले वहां २ का प्रदेश एक तरह से यात्रा का धाम ही बन जाता। इस तरह आपने केवल दो चतुर्मास ही पञ्जाब में किये । एक शालीपुर दूसरा लव्यपुरी । लोहाकोट में आपने एक श्रमण सभा की जिसमें पञ्जाब प्रान्तीय मुनिवर्ग सब ही सम्मिलित हुए। आचार्यश्री ने तदुपयोगी उपदेश देने के पश्चात् योग्य मुनियों को योग्य पदवियां प्रदान कर उनके उत्साह में खूब ही वृद्धि की तदनन्तर सूरिजी ने सिन्ध भूमि में पदार्पण किया। प्राचार्यश्री के आगमन को श्रवण कर वहां की जनता के हप का पारावार नहीं रहा । जिस समय आप सिंध में पधारे उस समय सिंध प्रान्त में जैनधर्म का काफी प्रचार था । बहुतसे मुनि जो सिन्ध प्रान्त में विचरते थे-आचार्यश्री ककसूरि के पदार्पण के समाचारों को सुनकर कोसों पर्यन्त सूरिजी के स्वागतार्थ पधारे । सूरिजी ने भी क्रमशः एक चातुमास गोसलपुर, दूसरा डामरेल, तीसरा मारोटकोटनगर, इस प्रकार तीन चतुर्मास सिंध प्रान्त में किये और चतुर्मासानंतर सिंध के प्रायः सभी क्षेत्रों का स्पर्शन कर जनता को धर्मोपदेश दिया। वीरपुर नगर में एक श्रमण सभा की। वहां भी योग्य मुनियों के योग्यता की कदर कर योग्य पदवियों से उन्हें सम्मानित किया। तदनन्तर सूरिजी ने कच्छ भूमि में प्रवेश किया। वहां पर भी आपके आज्ञानुवर्ती श्रमणगण विचरण करते थे। आपश्री ने एक चतुर्मास कच्छ के भद्रेश्वर नगर में किया। वहां से सौराष्ट्र प्रान्त की ओर पदार्पण किया। सर्वत्र परिश्रमन करते हुए परम पावन तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय की तीर्थ यात्रा की । जिस समय आप सिद्धिगिरि पर पधारे उस समय सिद्धिगिरि की यात्रार्थ चार पृथक् २ नगरों के चार संघ आये थे। इनमें तीन संघ तो मरुधर वासियों के और एक संघ भरांच नगर का था। स्थावर तीथों की यात्रार्थ आये हुए भावुकों को स्थावर तीर्थ के साथ ही मूरिजी रूप जंगम तीर्थ की यात्रा का भी लाभ मिल गया। मरुधर वासियों ने पूरिजी के दर्शन की बड़ी खुशी मनाई और मरुभूमि की ओर पदार्पण करने की आग्रह पूर्ण प्रार्थना की। सूरिजी ने भी क्षेत्र-स्पर्शना शब्द कह कर उन्हें विदा किया। इस तरह कई अर्से तक आचार्यश्री ने शत्रुक्षय की शीतल छाया में रह कर निवृत्ति का सेवन किया बाद वहाँ से विहार कर सौराष्ट्र एवं लाट प्रान्त में परिभ्रमन कर वह चतर्मास भरोंच में किया। बीसवें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी की यात्रा कर तत्रस्थित जन समाज को धर्मोपदेश दिया । आपश्री के चतुर्मास पर्यन्त वहां पर विराजने से धर्म का बड़ा भारी उद्योत हुआ । चतुर्मासानन्तर विहार कर कांकण की राजधानी सौपारपट्टन तक परिभ्रमन केया और वह चतुर्मास शौर्यपुर में किया। उस समय शौर्यपुर जैनियों का केन्द्र स्थान था। अतः आपके विराजने से वहाँ जिन शासन की खूब उन्नति हुई । तदनन्तर श्राप विहार करते हुए करीब पन्द्रह वर्ग के पश्चात पुनः मरुधर प्रान्त में पधारे। इन पन्द्रह वर्षों के परिभ्रमन की दीर्घ अविध में आपने १५० नरनारियों को श्रमण दीक्षा दी। हजारों मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित कर श्रोसवंश में सम्मिलित किये। कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवाई। कई वादियों को शाबार्थ में पराजित कर शासन की प्रभावना की । इस तरह आपने अपनी सकल शक्तियों के संयोग से जैन धर्म की पर्याप्त सेवा की। __ आचार्य श्री की अब नितान्त वृद्धावस्था होगई । अब आप अपनी शेष जिन्दगी मरुभूमि में ही व्यतीत करना चाहते थे । मारवाड़ी भक्त लोग भी यही चाहते थे कि सूरीश्वरजी महाराज मरुभूमि में विराज कर हम लोगों पर उपकार करते रहें। सच्ची भावना फलवती हुए बिना नहीं रहती है तदनुसार सूरीश्वरजी महाराज मरुधर में परिभ्रम न करते हुए उपकेशपुर में पधार ही गये । श्रीसंघ ने भी श्राचार्यश्री की शक्ति को जीर्ण देखसूरीश्वरजी का प्रत्येक प्रान्त में विहार १४४७ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर अत्याग्रह से उपकेशपुर में स्थिर वास करने की प्रार्थना की । सूरिजी ने अपने शरीर की हालत देख तथा लाभालाभ का विचार वि० सं० ११०५ का चातुपद उपकेशपुर में वहीं स्थिरवास कर दिया। आपके पास वों तो बहुत से मुनि- र उनमें देवचन्द्रोपाध्याय नामक एक शिष्य सर्वगुण सम्पन्न, स्वतंत्र शासन चलाने में समर्थ था। का उस पर पहले ही विश्वास था फिर भी विशेष निश्चय के लिये देवी सच्चायिका की सम्मनि । उचित परामर्शानन्तर सूरिजी ने अन्तिम समय में चिंचट गोत्रीय देसरड़ा शाखा के शा० अकरण के द्वारा सप्त लक्ष द्रव्य व्यय कर किये गये अष्टान्दिका महोत्सव के साथ भगवान् महावीर क मन्दिर में चतुर्विध श्री संघ के समक्ष उपाध्याय देवचन्द्र को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया। बस, आचार्यश्री कक्कसूरिजी म० गच्छ चिन्ता से विमुक्त हो अन्तिम संलेखना में संलग्न हो गये अन्त में २१ दिन के अनशन पूर्वक समाधि के साथ आपश्री ने देह त्याग कर सुरलो में पदार्पण किया। . प्राचार्यश्री कक्कसूरिजी म० महान प्रभावक प्राचार्य हुए । श्राप २१ वर्ष पर्यन्त गृहवास में रहे ३४ वर्ष सामान्य व्रत और ३४ वर्ष तक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हो ८६ वर्ष का आयुष्य पूर्ण किया। वि० सं० २१८८ के चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन आपका स्वर्गवास हो गया। प्राचार्य कसूरिजी के पूर्व क्या वीर सन्तानिये और क्या पार्श्वनाथ सन्तानिये, क्या चैत्यवासी सुविहित और क्या शिथिलाचारी अनेक गच्छों के होने पर भी सब एक रूप हो शासन की सेवा करते थे। सिद्धान्त भेद, क्रिया भेद, विचार भेदादि का विविध २ गच्छों में विभिन्नत्व नहीं था। एक दूसरे को लघु दिखलाने रूप नीच कार्य में किसी के हृदय में जन्म नहीं लिया। यही कारण आ कि उस समय पर्यन्त जैनियों की संगठित शक्ति सुदृढ़ थी। धर्मवीर भंसाशाह और गदइया जाति-डिडूपुर-डिडवाना नामक एक अच्छा श्राबाद नगर था। वहाँ पर महाजनों की घनी आबादी थी डिडवाना निवासी अच्छे धनाढ्य एवं व्यापारी थे। उक्त व्यापारी समाज में आदित्यनाग गौत्रिय चोरडिया जाति के प्रसिद्ध व्यापारी एवं प्रतिष्ठित साहूकार श्री भैंसाशाह के नाम के धन वैश्मण भी निवास करते थे। आप जैसे सम्पत्तिशाली थे वैसे उदारता में भी अनन्य थे। अपने धर्म एवं पुण्यों के कार्य में लाखों ही नहीं पर करोड़ों रुपयों का सदुपयोग कर कल्याणकारी पुण्योपार्जन किया। स्वधर्मी बन्धुओं की ओर आपका विशेष लक्ष्य रहता था। जहाँ कहीं उन्हें किसी जैन बन्धुओं की दयनीय स्थिति के विषय में ज्ञात हुआ वहाँ तत्काल समयोपयोगी सहायता पहुँचाकर उसकी दैन्य स्थिति का अपहरण किया । इस प्रकार के धार्मिक कार्यो में आपको विशेष दिलचस्पी थी और इसीसे श्राप धर्म सम्बन्धी प्रत्येक काय में अग्रगण्य व्यक्तिवत् लाखों रुपया व्यय कर परमोत्साह पूर्वक भाग लिया करते थे। तीर्थयात्रार्थ पाँच बार संघ निकाल कर अापने संघ में श्रागत स्वधर्मी बन्धुओं को स्वर्णमुद्रिकाओं की प्रभावना दी। कई बार संघ को अपने घर पर आमन्त्रित कर तन, मन, धन से संघ पूजा की। यों तो आप प्रकृिति के परम भद्रिक एवं सबके साथ स्नेह पूर्ण वात्सल्यभाव रखने वाले सज्जन एवं कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे पर बप्पनाग गौत्रीय वीरवर गधाशाह के साथ आपका विशेष धर्मानुराग था । धर्म कार्य एवं अन्य सर्व समान्य कृत्यों में दोनों का सहवास एक दूस की सविशेष सहयोगप्रद था। किसी समय दुदेव वशात् गधाशाह की स्थिति अत्यन्त नरम हो गई उस समय भैसाशाह ने आपको अच्छी सहायता प्रदान कर अपनी समानता सा बना लिया। वि० सम्वत् १०६ में जब एक भीषण जन संहारक दुष्काल पड़ा था-भैंसाशाह ने लाखों रुपये व्यय कर दुष्काल को सुकाल बना दिया । भैंसाशाह और गधाशाह के नाम भले ही पशुओं जैसे हों पर इन दोनों महापुरुषों में वर्तमान गुमाताओं से भी अधिक थे। समय परिवत शाल है। ज्ञानियों ने बारम्बार फरमाया है कि संसार प्रसार है, लक्ष्मी चंचल है, Jain Ed?885 For Private & Personal use Only वीरं भैसाशाह और गदइवा जाति. ora Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४७४-१५०८ सम्पत्ति स्वप्नवत् है, कुटुम्ब स्वार्थी है। शुभाशुभकर्मों का चक्र दिन रात की भांति हमेशा चलता ही रहता है न जाने किस समय किस भव के संचय किये हुए कर्मों का उदय होता है और किस परिस्थिति में उसे भोग लिये जाते है। अतः मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि अनुकल सामग्री के सद्भाव होने पर आत्म-कल्याण के परम पवित्र कार्य में संलग्न हो जाना चाहिये । ठीक, भैंसाशाह का भी यही हाल हुआ । एक दिन वह अपार सम्पत्ति का मालिक था पर अशुभ कर्मोदय से लक्ष्मी भैंसाशाह पर यकायक कुपित हो गई। फिर तो कहना ही क्या था ! शाह पर चारों ओर से आपत्तियों के आक्रमण होने लगे । कर्मों की विचित्रता के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कारणकम तारी कला न्यारी हजारों नाच नचावे छ । घड़ी मां तु रडावे ने घड़ी मां तू हसावे छै ।। भैंसाशाह भी कर्मों की पाशविक सत्ता से अछूता न रह सका। रह २ कर उस पर आपत्तियों के पहाड़ गिरने लगे। इधर तो देशावर भेजा हुआ माल व जहाजें समुद्रशरण हो गई और उधर दूसरे व्यापार में भी भारी क्षति उठानी पड़ी। क्रमशः पापकर्म पुत्र के आधिक्य से भैंसाशाह को अपने कुटुम्ब परिवार का निर्वाह करना भी कठिन हो गया। कहा है कि जब मनुष्य के दिन मान फिर जाते हैं तब अन्य तो क्या पर शरीर के कपड़े भी शत्रु हो जाते हैं। भैंसाशाह का श्वसुराल भिन्नमाल नगर में था। भैंसाशाह की धर्मपत्नी यापसी गृह-क्लेश के कारण अपने पुत्रों को लेकर भिन्नमाल में चली गई थी। केवल भैंसाशाह भौर आपकी वृद्ध मातेश्वरी ही घर पर रही। इतना होने पर भी भैंसाशाह को इस बात का तनिक भी रंज नहीं था। वे तो इससे और भी अधिक प्रसन्न हुए कारण उन्हें हमेशा की अपेक्षा धर्माराधन का समय विशेष रूप में प्राप्त होता गया। वे निर्विघ्नतया धर्म कार्य में संलग्न हो प्रात्मःकल्याण करने लग गये। गधाशाह ने अपने परमोपकारी सुहद्वर, एवं स्वधर्मी बन्धु भैंसाशाह की इस प्रकार की परिस्थिति देखकर समयानुसार एक दिन भैंसाशाह से कहा कि आपकी कृपा से मेरे पास बहुतसा द्रव्य है। अतः आप को जितने द्रव्य को आवश्यकता हो उतना मेरे से ले लीजिये । इसमें संकोच या शर्म की कोई बात ही नहीं है कारण, एक तो आप हमारे स्वधर्मी बन्धु हैं दूसरे श्रापका मेरे ऊपर महान उपकार है आज जो मैं सुख, शांति एवं आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ यह सब भी आपकी ही कृपा का मधुर फल है । यह सब धनराशि आपकी ही दया के बदौलत है। अतः मेरी प्रार्थना है कि श्राप इसे स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें। भैंसाशाह-धाशाह ! आप जानते हो कि संसारी जीव अपने कृतकों के अनुसार ही सुख दुःख भोगते हैं। कमों के कटुफलों का यथार्थानुभव किये बिना तीर्थङ्कर जैसे महापुरुष भी उन्हें अन्यथा करने में समर्थ नहीं हुए हैं। दूसरा समग्यदृष्टि जीवों का तो कर्तव्य भी है कि उदीरणा करके पूर्व सश्चित कर्मों को उदय में लावे और उन्हें शान्ति के साथ भोगे। जब उदीरणा किये बिना स्वयं ही कर्म उदय में भाजावें तब तो बढ़ी ही खुशी के साथ कमों को भोगने चाहिये । कमों की सम्यगनिर्जरा के समय में इस प्रकार किसी से नया कर्जा लेना निश्चित ही नूतन कर्मोपार्जन के साधन है। शाहजी ! इस समय मैं किसी की भी सहायता नहीं चाहता हूँ और आपकी उदारता एवं मेरे प्रति दर्शाई गई सद्भावना के लिये आपका उपकार मानता हूँ। गधाशाह-भैंसाशाह ! मैं श्रापको कर्ज की तौर पर रकम नामे लिखकर नहीं देता हूँ पर स्वधर्मी भाई के नाते प्रार्थना करता हूँ कि इसे आप स्वीकार करें। भैंसाशाह-आप किसी भी रूप में दें पर मेरा हक ही क्या है कि मैं इस प्रकार का कर्जा लेकर नये कर्मों का सञ्चय करूँ। गधाशाह-यदि आपकी किसी भव की रकम मेरे यहाँ जमा होगी तो उसको वसूल करनेमें क्या हर्ज है। भैंसाशाह के साधर्मी भाई गधाशाह १४४६ Jain Education o g Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास - भैंसाशा-यदि अमा होगी तो भी उस जमा को उठाना मेरा कर्तव्य नहीं है। पूर्व की जमा बन्दी होगी तो उसे यों ही रहने दीजिये । ___ गधाशाह ने कई प्रकार से प्रयत्न किया पर भैंसाशाह ने उनकी एक भी बात को स्वीकार नहीं की। उन्होंने तो स्वोपार्जित कर्मों को इसी तरह भोगकर उनसे मुक्त होना ही समुचित समझा। एक गधाशाह ही नहीं पर बहुत से व्यक्ति भैंसाशाह की मेहरबानी से सम्पत्तिशाली बने थे अतः अपने कर्तव्य ऋण को अदा करने के लिये उन सबों ने उनसे प्रार्थना की व भैंसाशाह के सुसुराल वालों ने भी भिन्नमाल पधार जाने के लिये प्रयत्न किया पर भैंसाशाह ने किसी की भी नहीं सुनी। एक समय गधाशाह भैसाशाह के मकान पर गया। समय रात्रि का था। जब भैसाशाह किसी भी तरह सहायता लेने को बाध्य न हए तब गधाशाह ने गुप्त रीति से भैंसाशाह के घर पर एक बहमल्य गहना छोड़ दिया। प्रातःकाल होते ही गहने को अपने घर में पड़ा हुआ देख भैंसाशाह के आश्चर्य का पारावार नहीं रहा । वे सोचने लगे कि यह आभूषण मेरा तो नहीं है । शायद किसी सजन पुरुष ने मेरी हालत को देखकर मेरी सहायतार्थ डाला है पर बिना अधिकार का द्रव्य मैं काम में कैसे ले सकता हूँ। बस, उन्होंने नगर भर में उद्घोषणा करवादी कि जिसका गहना हो वह ले जावे अन्यथा मैं मन्दिरजी में अर्पण कर दूंगा । गधाशाह जानते थे कि मेवर मेरा है । पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा । गधाशाह के सिवाय उस गहने का कोई दूसरा मालिक तो था ही नहीं तब दूसरा बोल भी कौन सकता था ? उघोषणानन्तर भी उसकी मालकियत ज्ञात न हुई तो भैंसाशाह ने अधिकार बिना के द्रव्य का उपभोग करना अनुचित समझ कर उसे मन्दिरजो में अर्पित कर दिया। हम पूर्व लिख आये हैं कि जैन धर्म की मुख्य मान्यता निश्चय पर थी। निश्चय को आधार बना लेने वाले व्यक्ति के हृदय में चिन्ता व आर्त-ध्यान स्थान कर ही नहीं सकता है । धर्मवीर भैंसाशाह भी निश्चय पर अडिग थे और उन्होंने उत्कृष्ट परिणामों की तीव्र धारा में अपने पूर्वोपार्जित निकाचित कर्मों की इस प्रकार निर्जरा कर डाली कि अब उनके कोई अशुभ कर्मोदय अवशिष्ट रहा ही नहीं। अब तो पुण्य की प्रबलता किसी शुभ निमित्त की राह देख रही थी। इधर परमोपकारी, लब्धिपात्र, करुणासागर आचार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज ने भूभ्रमन करते हुए डिडवाना की ओर पदार्पण किया। जब आचार्यश्री के पदार्पण के समाचार श्रीसंध को ज्ञात हुए तो उनके हृदय में सूरीश्वरजी के पदार्पण के समाचारों से अभूत पूर्व हर्ष का सञ्चार हुआ। श्रीसंघ ने क्रमशः सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही समारोह पूर्वक किया । गधाशाह ने सवाल व रुपये व्यय कर सूरिजी की उत्साहपूर्वक भक्ति की । पर भैंसाशाह की निर्मल अन्तःकरण पूर्वक कीगई परम श्रद्धापूर्ण भक्ति से प्राचार्यश्री बड़े प्रसन्न थे । सूरिजी ने लाभालाभ का विचार कर डिडवाने में मासकल्प पर्यन्त स्थिरता की । एक मास की सुदीर्घ अवधि में सूरीश्वरजी का शिष्य समुदाय भिक्षार्थ हमेशा नगर में जाता था पर भैसाशाह के ऐसी अन्तराय थी कि उनके वां एक दिन भी भितार्थ मुनिराजों का शुभागमन न हो सका। शाइ को इस बात का बड़ा रंक था पर वे क्या कर सकते थे ? अन्यथा कहा मासकल्प के अन्तिम दिन देवानुयोग से गौचरी के लिये स्वयं सूरिजो पधारे। भैंसाशाह ने अपने वहां आने के लिये आचार्यश्री को बहुत ही आग्रह किया तव दया करके सूरिजी भी उनके वहां गये । सुपात्र का अनुकूल संयोग मिलने पर भी भैंसाशाह के पास प्राचार्य श्री के पात्रों में डालने के लिये क्या था? केवल बाजरी के सोगरे और गवार की फली । भैसाशाह इन घर वस्तुओं को ले तो बहत ही संकचित हए फिर भी अन्य योग्य बस्त के अभाव में उक्त नीरस वस्त को भी परमश्रल कष्ट भावना से पात्र में प्रक्षिप्त किया। यद्यपि आहार सामान्य था पर भावों की प्रवल उत्कृष्टता ने उसने किश्चित् भी सामान्यता या न्यूनता नहीं आने दी सूरिजी भी उनकी आन्तरिक JainEdu१४१mational For Private & Perso गधाशाह की सहायता से भैंसाशाह का इन्कार ...ora Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १४७४-१५०८ भावों की निर्मलता से बहुत ही प्रसन्न हुए। क्रमशः वापिस लौटते हुए समीप स्थित कण्डे की राशि पर भाग्य की प्रेरणा से या पुण्योदय से आचार्यश्री ने अपना रजोहरण फेर दिया जिससे वे सबके सब स्वर्ण के रूप में परिणित हो गये । बस, सूरिजी ने तो अपना उक्त चमत्कार बतलाकर शीघ्र ही प्रस्थान कर दिया । इधर भैंसाशाह भी गोमायु-राशि को स्वर्णमय देख कर आश्चर्य चकित हो गया । वह रह २ कर सूरिजी का परमोपकार मानने लगा । भैंसाशाह के अशुभ कर्मों का अन्त हो चुका, उपादान कारण उज्वल था ही केवल एक निमित्त कारण की आवश्यकता थी सो सरिजी जैसे अनन्य आचार्य का समयानसार सिल ही गया। वास्तव में महात्मा लोगों की कृपा से क्या दुःसाध्य है ? अर्थातू-कुछ भी नहीं । कालकाचार्य ने वासःक्षेप डाल कर कुम्भकार के निवाड़े (भट्टी) को स्वर्णमय बना दिया। सिद्धसेन दिवाकर ने विद्या से स्वर्ण किया तो वज्रसूरि ने एक पट्ट पर बैठा कर दुष्काल के समय में श्रीसंघ को सुखी बनाया। जावड़ शाह एवं जगडू शाह को तेजमतूरी मिली जिससे सारा घर ही स्वर्णमय होगया सेठ पाता को एक थैली मिली शा० जसा को पारस मिला। जैतारण के भण्डारीजी की थैली तो एक दम अखूट बन गई। मेड़ता के शाह की सम्पत्ति अक्षय हो गई इत्यादि २ महात्माओं की कृपा से अनेक भावुकों के मनोरथ सफल हो गये। भैंसाशाह पर भी तो उसी तरह गुरू कृपा थी। आज उनके घर से दारिद्रय सहसा, बिना किसी प्रयत्न के भाग छूटा । लक्ष्मी ने तो कुंकुममय पवित्र पैरों से भैंसाशाह के मकान पर पदार्पण किया जिससे कण्डे की राशि मात्र कनक कण्डे के रूप में परिवर्तित हो गई। इस घटना के दूसरे दिन ही सूरिजी ने विहार कर दिया । भैंसाशाह ने भी अपने ऊपर उपकार करने वाले गुरुदेव की यथोचित सेवा भक्ति कर अपने घर पर चले आये । उस अक्षय स्वर्ण राशि का गदइया नामक सिक्का बनाया और पुण्य की प्रबलता से प्राप्त उस द्रव्य के द्वारा बहुत से सामाजिक एवं धार्मिक कार्य किये भैंसाशाह के अनुपम गुणों एवं उदारता की स्मृति करने वाली तोन वस्तुएं तो अद्यावधि भी विद्यमान हैं। (१) जैन मन्दिर ( २ ) पानी की सुविधा के लिये बनवाया हुआ कूप (३) नगर रक्षण के लिये परकोट । अस्तुः ___ उस गदइया सिक्के के कारण भैंसाशाह को लोग गदइया कहने लगे जो कालान्तर में उनकी सन्तान परम्परा के लिये जाति के रूप में व्यबहत होने लगी। यों तो भैंसाशाह पहिले से ही उदार दिल वाला था पर अनायास प्राप्त धन राशि के सदुपयोग में तो उन्होंने अनन्य उदारता बतलाई । याचकों को प्रभूत दान दिया जिससे उनकी कीर्ति दशों दिशाओं में सुविस्तृत हो गई। संसार के रंगमञ्च पर नित्यप्रति विचित्रता के विचित्र नृत्य हुअा ही करते हैं तदनुसार हजारों सज्जनों में एक दो दुर्जन भी तो प्रकृतितः मिल जाते हैं इन दुर्जनों ने अपने वाक् प्रपञ्च से भैंसाशाह और डीडवाना नरेश के ऐसा परस्पर कलह करवा दिया कि भैंसाशाह को डिडवाना छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा। कर्मानुयोग से उस ही समय भैसाशाह का साला भी वहां पर आगया। उसने शाह को भिन्नमाल पधारने की आग्रह पूर्ण प्रार्थना की। अतः भैंसाशाह भी अपनी मातेश्वरी एवं सकल धन राशि लेकर भिन्नमाल चले गये । अब से आप सकुटुम्ब भिन्नमाल में ही निवास करने लगे। इधर श्राचार्य ककसूरीश्वरजी महाराज ग्रामनुग्राम परिभ्रमन करते हुए एक समय भिन्नमाल पधारे। शा० भैंसा ने नवलक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव किया। कुछ समय के पश्चात् सूरीश्वरजी के उपदेश से भैंसाशाह ने एक संघ सभा भरने का भी आयोजन किया जिसमें सुदूर प्रान्तीय चतुर्विध संघ को यथायोग्य आमन्त्रण पत्रिकाओं एवं योग्य पुरुषों को भेज कर मामन्त्रित किया । योग्य तिथि पर प्राचार्यश्री के नेतृत्व में इस विराट् संघ का कार्य प्रारम्भ हुआ । सर्व प्रथम सूरिजी ने सभा के उद्देश्यों का स्पष्टीकरण करते हुए वर्तमान कालीन सामाजिक परिस्थिति पर जबर्दस्त भाषण दिया जिसका उपस्थित जन-समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। सभा में कृत प्रस्तावों को क्रियात्मक रूप देकर प्राचार्यश्री ने योग्य Jain E सूरिजी की कृपा से भैंसाशाह का भाग्योदय vate & Personal use Only, १५५१ mamiwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwe www.anemerary.org Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पोकरणा दूधा ने सुरवा मुनियों को योग्य पदवियाँ प्रदान की। मुनि देवभद्र को सूरि योग्य सकल गुणों से सुशोभित देखकर उन्हें सूरि पदार्पण किया। परम्परागत नामावली के अनुसार आपका नाम श्री देवगुप्तसूरि रख दिया। इसके सिवाय-ज्ञान कल्लोलादि सात मुनियों को उपाध्याय पद, हर्षवर्द्धनादि ७ मुनियों को गणिपद, देवसुन्दरादि नवमुनियों को वाचनाचार्य, शांति कुशलादि ग्यारह मुनियों को पण्डित पद से विभूषित किया । इस शुभ कार्य में भैंसाशाह ने ग्यारह लक्ष द्रव्य व्यय कर कल्याणकारी पुण्योपार्जन किया। पूज्याचार्य देव के ३४ वर्षों के शासन में मुमुक्षुओं की दीक्षाएँ १–क्षत्रीपुर डिडूगौत्र जाति के शाह कल्हण ने सूरिजी की सेवा में दीक्षाली २-राजपुर देसरड़ा " " डूगर ने ३-मेदिनीपुर नक्षत्र पद्मा ने ४-कुचूरपुर सिंघवी देवा ने ५-भोभारी बोहरा कुम्मा ने ६-ब्रह्मपुरी रोड़ा ने ७-कांतिपुर रांका भाखर ने ८-उपकेशपुर चीला वरधा ने ६-नागपुर गुलेच्छा चंपसी ने १०-शंखपुर जांघडा ११-कोरंटपुर धन्ना ने १२-पान्हिका भुरंट भाला ने १३-डांगीपुर संचेती नारायण ने १४-पासोली मादलिया जैता ने १५-भानापुर चंडालिया करमण ने १६-आघाट नगर चौमुहला साहरण ने १७-मोकलपुर काजलिया छाजू ने १८-जाबलीपुर तोडियाणी मल्हा ने १६-पद्मावती श्रेष्टि गुणाढ़ ने २०-दशपुर बाफरणा खेमा ने २१-चित्रकोट सेखाणी चेला ने २२-माडवगढ़ पाल्लीवाल जोगड़ ने २३-उज्जैन प्राग्वट वंश , मजा ने २४-भरोंच माना ने २५-स्तभनपुर हाप्पा ने २६-सोपार हरपाल ने २७-करणावती भादू ने २८-ठाणापुर श्रीमाल वंश , पोमा ने २६-बर्धमानपुर के अर्जुन ने ३०-सालरी नांगदेव ने ३१-देवपुर वीरम ने १५५२ Jain Education Interational For Private & Personal use Only सराश्वरजी के शासन में दीक्षाएँ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १४७४-१५०८ आचार्यश्री के ३४ वर्षों के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं १-शाकम्भरी के चोरड़िया जाति के शाह भैरा ने भ० पार्श्व० के मन्दिर की प्र० २-दुधानी के भरकोटा " पोलाक ने , ३-पादोरी नाहटा पेथड़ ने ४-नागपुर पारख पुनड़ ने महा० ५-भवानीपुर समदाड़िया नेणसी ने ६-भीनमाल तातेड़ वछा ने ७-रालोड़ी करणावट कोला ने ८-रामपुर आर्य खरथा ने शान्ति -कीराटकुम्प छाजेड़ जोगड़ ने १०-मुधार भटेवरा गोंदा ने आदिश्वर ११-देवपटन मकवाणा रावल ने केसरिया १२-सुसाणी राखेचा सारंग ने मल्लिक १३-बेलकावी डुगरवाल चतार ने १४-खटकूप काग धुहड़ ने महा० १५-हर्षपुर कांकरेचा भारमल ने १६-कुकाणी रावत भीम ने १७-अरणीग्राम हिंगड़ गोदा ने १८-रेणूकोट मोसालिया नोंघण ने १६-भाराटेकोर सुघड़ डावर ने २०-वीरपुर चंडालिया राजा ने सीमं० २१-मालपुर मल्ल केसा ने पाव २२-थेरापद्र नेना ने २३-नार कांकरिया फूया ने २४-लालपुर रोला ने ऋषम० २५-पृथ्वीपुर देसरड़ा टोड़ा ने वास० २६-सोपारपटन प्राग्वट वंश खीवसी ने विमल २७-राहोड़ी रांणा ने शान्ति २८-नाकुलवाडा , भोजा ने पार्श्व० २१-श्रीपुर , देदा ने , ३०-लोद्रवापुर श्रीमाल वंश दुगों ने महा० ३१-दीवकोट सज्जन ने पूज्याचार्य देव के ३४ वर्षों के शासन में तीर्थों का संघादि शुभ कार्य १-नागपुर के चोरडिया शादुल ने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला २-उपकेशपुर के श्रेष्टि लाडुक ने ३-नारदपुरी के बाफणा वीरा ने " _dain Eसूरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाएँ १४५३ अजित० " Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास AnnARMAN पन्ना ने सुखा ने ४-जाबलीपुर के भूरंट कर्मा ने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला ५-चन्द्रावती के संचेती हरपाल ने ६-चित्रकोट प्राग्वट माला ने ७-सोपरपट्टन के श्रीमाल खंगार ने ८-मथुरा सालेचा नापा ने -धौलागढ़ छाजेड़ दुल्ला ने १०-पाल्दिका श्रीश्रीमाल पोकर ने ११-वीरपुर श्रायं साहूने १२-कोरंदपुर के कुम्भट १३-उज्जैन के रांका १४-दांतीपुर के श्रीश्रीमाल नाथा ने दुकाल में करोड़ों द्रव्य व्यय कर अन्न घास दिया। १५---विणापुर के पोकरणा बखता ने दुकाल में पुष्कल द्रव्य व्यय कर भाईयों के प्राण बचाये। १६-खेड़ीपुर के महता नहारसिंह युद्ध में काम आया उसकी पत्नी सती हई छत्री कराई। १७-चन्द्रावती के प्राग्वट दूधो युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई। १८-राजपुर के श्रीश्रीमाल मालदेव , १६-नागपुर के गुलेच्छा समरथ , २०-पलासी के प्राग्वट रामो २१-भलासणी के आर्य धरमा की पुत्री सारी ने तालाब खुदाया जिण में पुष्कल द्रव्य व्यय किया। २२-चंदपुर के छाजेड़ भैरा की माता ने बावड़ी बनाई , २३-अर्जनपुरी के समदड़िया गौरा ने एक तालाब एक कुआ बनाया ,, , इनके अलावा भी सूरिजी के शासन में अनेक शुभ कार्य हुए जिनके विस्तृत उल्लेख वंशावलियों में मिलते हैं । पर स्थानाभाव यहाँ नमूना मात्र बतलाया है। बप्पनाग नाहटा जाति, जिनके वीर शिरोमणि थे । आठ चालीस वे पट्ट विराजे, कक्कसूरीश सुरमणि थे। भैंसाशाह का कष्ट मिटाया, कंडा. सुवर्ण बनाया था। सिक्कचलाया वीर भैंसा ने, जिससे गदिया पद पाया था । इति भगवान पार्श्वनाथ के अडचालीसवें पट्टपर प्राचार्य कक्कसूरि महान् प्रतिभाशाली आचार्य हुए। AAAAAAna १४५४ सूरीश्वरजी के शासन में संचादि Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १५०८-१५२८ ४९-आचार्य देवगुप्तसूरि (बारहवें) सुरिः पारख जाति शृङ्ग वदयं, देनाख्य गुप्तः सुधीः भंसा शाह कभित्रमाल नगरे, भक्तोऽभवद्यः स्वयम् । निष्कास्यैष च सोत्सवं विधियुतं, सिद्धाचलं संघकम् : चके व प्रति शोधनं च जनताभ्यो गुर्जरेभ्यो व्रती । सूत्रेः सूर समः स्वकर्म करणे देवालय स्थापने, ग्रन्थानां बहुधा च संकलनता, निर्माणतास्त्र प्ययम् । दीक्षादान सुधा प्रपासु नितरां धर्मोन्नतेः कारकः ख्याति प्राप्य तपस्यया विजयतां स्वाध्याय शीलः सदा ॥ सन प्रभावक धर्म प्रचारक, दीर्घ तपस्वी, नानाविद्याविभूषित, विविध लब्धि कला सम्पन्न श्रीमान् देवगुप्तसूरि नामक जग विश्रुत आचार्य हुए। आपश्री के अलौकिक चमत्कार पूर्ण जीवन के सम्बन्ध में पट्टावल्यादि ग्रन्थों में सविशद उल्लेख मिलता है पर ग्रन्थ विस्तार भय से यहां संक्षिप्त रूप में मुख्य २ घटनाओं को लेकर ही पाठकों की सेवा में आपका जीवन चरित्र उपस्थित कर दिया जाता है। पाठकवृन्द, पूर्व प्रकरणों में बराबर पढ़ते आ रहे हैं कि एक समय सिन्ध भूमि पर जैन धर्म का पर्याप्त प्रचार था। उपकेश गच्छीय मुनियों के निरन्तर भ्रमण व उपदेश वगैरह के सविशेष प्रभाव से सिन्ध धरा धर्म भूमि बन गई थी। यदाकदा उपकेशगच्छाचार्यों के पदार्पण करते रहने से वहाँ विपुल धार्मिक क्रान्ति व सविशेषोत्साह फैलता रहता था । श्राद्ध समुदाय के आधिक्य से सिन्ध धरा जिन मन्दिरों से सुशोभित थी। वहाँ के श्रावक लोग बहुत ही धार्मिक श्रद्धासम्पन्न एवं देव गुरु भक्ति में लाखों रुपये सहज ही में व्यय करने वाले थे यद्यपि यहां व्यापारार्थ आगत जैन मरुधर व्यापारी ही निवास करते थे पर जैनाचार्यों के द्वारा नवीन जैनों के बनाये जाने से व उनको उपकेश वंश में सम्मिलित करने से शनैः २ जैनियों की घनी याबादी होगई थी। प्रायः सिन्धभूमि पूर्वाचार्यों एवं मुनियों के पुनः २ वि वरण करते रहने से जैनमय ही बन गई थी। इसी सिन्ध भूमि में डामरेलपुर एक प्रमुख नगर था जो व्यापारिक एवं सामाजिक स्थिति में सर्व प्रकारेण समुन्नत था। मरुधर व्यापारी समाज में आदित्यनाग गौत्रीय गुलेच्छा शाखा के दानवीर धर्मपरायण, लब्ध प्रतिष्ठित पद्मा शाह नाम के एक प्रमुख व्यापारी थे । शाह पद्मा जैसे विशाल कुटुम्ब के स्वामी थे वैसे अक्षय सम्पत्ति के भी मालिक थे पर्यायान्सर से वे धन-वैश्रमण ही थे। शाह पद्मा का व्यापार क्षेत्र भारत भूमि पर्यन्त ही परिमितावस्था में नहीं अपितु पाश्चात्य प्रदेशों के साथ में भी घनिष्ठतम व्यापारिक सम्बन्ध था जिससे आपके नाम की ख्याति इत उत सर्वत्र प्रसरित थी। स्थान २ पर आपकी पेढ़ियां थी । सैकड़ों ही नहीं पर हजारों स्व. धर्मी एवं देशवासी बन्धुओं को व्यापार में अपने साथ रखकर उनको हर तरह से लाभ पहुंचाने के प्रयत्न में रहते थे शाह पद्मा के तेरह पुत्र और छः पुत्रियें थी। इनमें एक चोखा नाम का पुत्र बड़ा ही होनहार एवं परम सिन्ध प्रान्त का डामरेल नगर १४५५ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास MarwAAAAAAmrunam भाग्यशाली था पद्मा शाह ला चोखा पर अत्यन्त अनुराग था। पितृ भक्त चोखा भी अपने पिताश्री को हरएक कार्य में सहयोग प्रदान कर उनकी हर तरह से सेवा किया करता था। जब चोखा की वय क्रमशः बीस वर्ष की हुई तो उस ३५० के भाद्र गौत्रीय समदाड़ेया शाखा के शाह गोसल की सुपुत्री, सर्व कलाको विदा रूपगुण सम्पन्ना रोली' के साथ सम्बन्ध (सगपण) हो गया था अब तो वय की अनुकूलता के कारण विवाह की भी समारोह पूर्वक तैय्यारियाँ होने लगी। इधर परम प्रभावक, शासन उद्योतक आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराजने भी अपने शिष्य समुदाय के साथ डामरेलपुर की ओर पदार्पण किया। जब ये शुभ समाचार वहां के श्रीसंघ को मिले तो उनकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। उन्होंने बड़े ही समारोह पूर्वक सरिजी के नगर प्रवेश का महोत्सव किया। सरिजी ने भी स्वागतार्थ आगत जन मण्डली को धर्मोपदेश देकर उन्हें कृत्तकृत्य किया जिससे उपस्थित जन-समुदाय पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ा । व्याख्यान क्रम तो आचार्य देव का नित्य नियम की भांति सर्वदा प्रारम्भ ही था। प्रसङ्गोपात एक दिन के व्याख्यान में नरक निगोदों का वर्णन चल पड़ा। उनके दुःखों का वर्णन करते हुए नारकीय जीवन का शान वर्णित ऐसा वास्तविक चित्र खेंचा कि श्रोता वर्ग एक दम वैराग्य की अपूर्व धारा में बहने लगे। संसार भय से उद्विग्न मनुष्यों का हृदय व्याख्यान श्रवण से भयभीत एवं कम्पित होने लग गया । वे लोग भविष्य कालीन इस प्रकार के दुःखों से विमुक्त होने के लिहे प्रयत्न करने लगे। संविग्न जन मण्डली को एक क्षण भी संसार में रहना अच्छा नहीं लगने लगा। __ पुण्यानुयोग मे उस दिन शाह पद्मा का सारा कुटुम्ब भी व्याख्यान में उपस्थित था । परम श्रद्धालु, धर्म प्रेमी पन्नात्मज चोखा ने भी आचार्यश्री का व्याख्यान बहुत ध्यान लगाकर सुना था। उसके हृदय में तो सूरिजी के शास्त्रीय वर्णन से आत्म-कल्याण की उत्कट भावनाएं जागृत होगई । वह रह रह कर सोचने लगा कि इस जीव ने पुराकृत पापपुञ्ज के आधिक्य से अनन्तबार नरक निगोद के असह्य दुःखों को भी सहन किया है । वर्तमान समय में एतत् सम्बन्धी दुःख राशि से विमुक्त होने के लिये हमें सब साधन भी यथावत् उपलब्ध हैं। केवल विषय कषाय की प्रबलता के कारण ही इसका दुरुपयोग किया जारहा है । अरे ! नरक निगोद के असह्य दुःखों से स्वतंत्र होने के लिये तो हमें यह स्वर्णोपम समय मिला है और उसमें भी यदि दुःखों की वृद्धि के ही विषम कार्य किये जाँय तो दुःख से मुक्त होने के सफल उपाय ही क्या हैं ? प्राचार्य देव का कथन तो सर्वथा सत्य है कि दुःखों से विमुक्त होने की इच्छा रखने वाले भव्यों को दुःख मय असार संसार का त्याग कर दीक्षा स्वीकृत करलेनी चाहिये । बस, कुमार चोक्खा की भावना सूरिजी के पास दीक्षा लेने की होगई व्याख्यान समाप्त्यनंतर वह तत्काल ही अपने घर गया और अपने माता पिता से कहने लगा कि यदि आप आज्ञा प्रदान करें तो मैं दीक्षा स्वीकार करना चाहता हूँ। प्यारे पुत्र के संसार से विरक्त दुःखोत्पादक वचनों को सुनकर माता भोली को मूर्छितावस्था प्राप्त होगई । जब जलवायु के उपचार से उसे सारधान किया गया तो वह नैत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित करने लगी। वह रोती हुई ही बोली-बेटा । तेरा यह शब्द मुझे शूलवत् हृदय विदारक मालूम होता है । यदि तू मुझे जीवित अवस्था में ही देखना चाहता है तो भूल चूक करके भी अब से ऐसे शब्द मत निकालना । शाह पद्मा ने कहा बेटा! यह तो तुम्हें अच्छी तरह से मालूम है कि तुम्हारी सगाई कब से ही करदी गई है। दो मास के पश्चात् तो तेरी शादी का शुभ मुहूर्त है अतः लोगों में व्यर्थ ही में हंसी हो, ऐसे अप्रासङ्गिक शब्दों को निकालना तुझे उचित नहीं है । बेटा ! तेरी मांग (जिसके साथ वाग्दान-सम्बन्ध हुआ उसको) दूसरा कोई परणे यह हमारी प्रतिष्ठा में निश्चित ही कलंक कालिमा पोतने वाला है अतः यूपको अपनी इज्जत एवं खानदान का भी विचार करना चाहिये । तीसरा-कुछ भी हो मैं तुम्हें दीक्षा अङ्गीकार करने की आज्ञा कभी भी प्रदान नहीं करूंगा। इस तरह चोखा एवं उनके माता पिता के बीच पर्याप्त बोलाचाला होती रही, उसको फुसलाने का अनुकूल प्रतिकूल प्रयत्नों से पर्याप्त परिश्रम किया १४५६ पद्माशाह का पुत्र चौखा वैरागी Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ गया पर वैराग्य रञ्जित स्वान्त चोखा पर संसार वर्धक, मोहोत्पादक वचनों का किञ्चित् भी प्रभाव नहीं पड़ा। इधर जमाई चोखा के वैराग्य के समाचारों को चोखा के श्वसुर शा० गोसल ने सुना तो वे आश्चर्य चकित हो गये। वे नाना प्रकार के विचारसागर में गोते खाने लगे और रह रह कर उनको ये भावनाएं सताने लगी कि जमाई चोखा यदि दीक्षा के लिये उद्यत हैं तो मैं मेरी प्रिय पुत्री का विवाह इस हालत में उनके साथ कैसे कर सकता हूं ? असमंजस में पड़े हुए शा० गोसल ने उक्त सकल समाचार अपनी धर्मपत्नी से कहे, इस पर सकल कुटुम्ब परिवार में वड़ी भारी हलचल मच गई । जब श्रेष्टि सुता रोली ने सुना कि जिसके साथ मेरा भावी सम्बन्ध जोड़ा जा रहा है; वे असार संसार से विरक्त हो दीक्षा लेने को तैय्यार होगये हैं तो उसके आश्चर्य का पारावार नहीं रहा। वह चिन्तामग्न हो विचारने लगी कि यदि यह सत्य है तो मझे क्या करना चाहिए । निदान अनेक तर्क वितर्कों के पश्चात् उसने यह निश्चय किया कि जब एक पतिदेव को मैं अपने हृदय से अपना जीवन अर्पणकर चुकी हूँ तो इस भव में वे ही मेरे जीवनाधार पति बन चुके हैं। यदि वे वैराग्य भावना से दीक्षा स्वीकार करेंगे तो बड़ी ही खुशी की बात है, मैं भी उनके साथ ही दीक्षा स्वीकार कर आत्म कल्याण के मार्ग में संलग्न हो जाऊंगी। क्या भगवान् नेमिनाथ के साथ राजुलदेवी ने दीक्षा अङ्गीकार नहीं की थी ? दी ज्ञा तो निश्चित ही आत्मोद्धार का साधन है और वह आत्म कल्याण इच्छुक भावुक व्यक्तियों से ग्राह्य भी है । इस प्रकार के सुनिश्चित विचार से उसकी आत्मा में अपूर्व आनंद का सद्भाव होने लग गया। एक समय शा० पद्मा और गोसल की आपस में भेट हुई तो शा० पद्मा ने कहा-शाहजी ! चोखा अभी नादान है । सूरिजी के वैराग्योत्पादक व्याख्यान को श्रवण कर वह दीक्षा लेने के आग्रह पर तुला हुआ है। अभी तो मैंने उसको येनकेन प्रकारेण समझा कर रक्खा है पर अभी के वैराग्य को देख कर उसका ज्यादा समय पर्यन्त संसार में रहना कठिन ज्ञात होता है अतः विवाह कार्य जल्दी ही सम्पन्न कर देना चाहिये जिससे सांसारिक प्रपञ्चों में पड़ा हुआ उसका मन कभी भी दीक्षा के लिये उद्यत न हो सकेगा। शा० झा के उक्त वचनों को सुन कर शा० गोसलने कहा कि विवाह जल्दी करने के लिये तो मैं भी तैय्यार है पर वे जब इस तरह वैराग्य की प्रबल भावनाओं से आकर्षित हो दीक्षा के लिये तैय्यार हैं तो फिर पुत्री को यकायक वैरागी व्यक्ति के साथ ग्रन्थित करने में जरा विचार है। इस पर शा० पद्मा ने कहा-शाहजी ! आप इस बात का जरा भी विचार मत कीजिये । वह तो बालोचित नादानी के कारण ही बाल हठ करता है पर विवाह होजाने के पश्चात् उसकी वैसी अवस्था नहीं रहेगी। मैंने उसको अच्छी तरह समझा दिया है अतः अब अविलम्ब लग्न की तैय्यारियां होने दीजिये ।। शा० पद्मा के आश्वासनजनक वचनों को सुनकर गोसल शाह अपने घर पर आया और अपनी प्राण प्रिय पुत्री को बुलाकर उसकी माता के सामने पूछने लगा कि कुंवरजी दीक्षा लेने को तैय्यार हैं तब शा० पद्मा विवाह के लिये जल्दी कर रहे हैं । अतः तुम लोगों की इसमें क्या सम्मति है। रोली तो माता पिताओं की शर्म एवं स्वाभाविक लज्जा के कारण अपने हृदय के वास्तविक उद्गार प्रगट नहीं कर सकी पर रोली की माता ने कहा-जमाईजी जब अाज ही दीक्षा की बातें करते हैं तब ऐसे वैरागी दीक्षेच्छुकों को पुत्री देने में वह क्या सुख प्राप्तकर सकेगी ? अभी तो रोली कुंवारी है और कुंवारी के सौ घर और एक वर ऐसी लोकोक्ति भी है। अतः अगर कुंवर चोखा दीक्षा ले लेवेंगे तो रोली की सगाई दूसरे के साथ करदी जावेगी। ___ माता के अपने निश्चय से प्रतिकूल उक्त वचनों को श्रवण कर रोली से नहीं रहा गया । उसे इस समय में लज्जा रखना या अपने मानसिक भावों को दबाना अनुचित ज्ञात हुआ। वह बीच में ही बोल उठी"मां ! क्या एक कन्या के दूसरा पति भी हो सकता है ? दीक्षा लेना और न लेना तथा सुख, दुःख को प्राप्त करना तो पूर्व संचित कर्म राशि के आधार पर है. पर मैंने एक पति का नाम धारण कर लिया है । अतः अब कुँवर चोखा का वैराग्य १४५७ १८3 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दूसरा पति कदापि नहीं करूंगी।" गोशल शाह अपनी पुत्री के उक्त दृढ़ संकल्प को सुन कर पुत्री का लग्न शाह पद्मा के आत्मज कंवर चोखा के साथ में जल्दी से ही करने को तैय्यार होगये। उन्होंने शा० पद्मा के यशं कहला दिया कि मैं आपके आदेशानुसार जल्दी ही लग्न करने को तैय्यार हूँ और आप भी अपनी ओर से जल्दी ही तैय्यारी कीजिये । बस, दोनों ओर से विवाह की जोरदार तैय्यारियां होने लगी। चोखा की आन्तरिक इच्छा विवाह करने की नहीं थी पर माता पिता के दबाव एवं लिहाज से ही उसने ऐसा करना स्वीकार किया । क्रमशः शुभ तिथि मुहूर्त में विवाह का कार्य भी सानंद सम्पन्न होगया। जब प्रथम रात्रि में कुंवर चोखा अपनी पत्नी के महल में गया तो वहां योगीश्वर की भांति परमनिवृत्ति पूर्वक ही बैठ गया। राग, रंग एवं भोग-विलास सम्बन्धी साधनों के पूर्ण अभाव को देख कर कुंवरी रोली ने लज्जा त्याग कहा पूज्यवर ! मैंने सुना है कि आप दीक्षा लेने वाले हैं। चोखा-हां, मेरी इच्छा दीक्षा लेने की थी और अब भी उसी रूप में है। रोली-तो फिर आपने विवाह ही क्यों किया ? चोखा-विवाह करने की आन्तरिक इच्छा के न होने पर भी माता पिता के लिहाज के कारण विवश, मुझे ऐसा करना पड़ा। रोली-यह सत्य है कि आप माता पिता के लिहाज मात्र से ही इस ओर प्रेरित हुए होंगे पर इस मिथ्या लिहाज के वशीभूत हो एक बाला के जीवन को धोखे में डालना आपको शोभा देता है ? यदि आपका इष्ट किसी के लिहाज से बिना इच्छा के ही कार्य करने का है तो थोड़ी लिहाज मेरी भी रखिये मैं आपसे विनय पूर्वक प्रार्थना करती हूँ कि आप कुछ अर्से तक संसार में रह कर मेरे मनोरथ को पूर्ण कीजिये । कुछ अर्से के पश्चात् मैं भी आपके साथ दीक्षा स्वीकार कर लूंगी। चोखा-जब आपकी अन्तिम इच्छा भी दीक्षा लेने की है तब फिर थोड़े दिनों पर्यन्त संसार में रहने से क्या फायदा है ? संसार तो महान् दुःखों की खान है । सिवाय कर्म :बंध के इसमें कुछ लाभ तो है ही नहीं। दूसरा थोड़े दिनों का विश्वास भी तो नहीं किया जासकता है कारण न मालूम कालचक्र किस दिन, किस समय कण्ठ पकड़ कर अपने घर ले जायगा । अतः मेरी सलाह है कि आप भी जल्दी कीजिये जैसा कि शालिभद्रजी के बहनोई और बहिन ने किया था। रोली अपने मन में अच्छी तरह से समझ गई कि आपके हृदय में दीक्षा का पक्का रंग लगा हुआ है। किसी भी तरह वे अपने कृत निश्चय से चलविचल नहीं हो सकते हैं अतः उसने भी उनके निश्चय में सहर्ष अपनी सम्मति देदी और उनके साथ ही दीक्षा के लिये तैयार हो कहने लगी-आप अब निर्विघ्न दीक्षा स्वीकार कर सकते हैं। मैं भी आपके ही पथ का अनुसरण कर अपने आपको सौभाग्यशाली बनाऊंगी। आप मेरी ओर से सर्वथा निश्चिन्त रहें। चोखा-धन्य है आपको और आपकी माता की कुक्षि को। आपका निश्चय निश्चित ही सराहनीय एवं अनुकरणीय है । मुझे यह आशा नहीं थी कि आप सहज ही में मेरे निर्दिष्ट निश्चय में सहयोग प्रदान कर इस तरह आत्मकल्याण के मार्ग में सहसा उद्यत हो जावेंगे । मैं, आपके द्वारा कृत निश्चय का हार्दिक अभिनंदन करता हूँ। इस प्रकार दम्पति का एक दिल से दीक्षा लेने का निश्चय होगया । फिर तो था ही क्या ? अभी लग्न की उत्तर क्रिया तो होने की ही थी पर प्रातःकाल में सर्वत्र नगर में यह बात बिजली की भांति फैल गई कि कुंवर चोखा ने एक ही रात्रि में अपनी पत्नी को उपदेश देकर दीक्षा के लिये तैय्यार करदी । अब तो ये निकट भविष्य में ही दीक्षा स्वीकार कर लेंगे । जिन्होंने यह बात सुनी उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा । ठीक है बात भी आश्चर्य करने काबिल थी कारण, यह तो एक दूसरा ही जम्बुकुमार निकला । १४५८ चोखा का लग्न और दम्पति की भावना Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १५०८-१५२८ इधर शाह पद्मा और शाह गोसल दोनों एकत्रित हो विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिये? दीक्षा की भावनाओं को परिवर्तित करने के लिये तो जल्दी से जल्दी लग्न किया पर यहां तो एक के बदले दोनों ने दीक्षा लेने का विचार कर लिया। दोनों शाहों ने अपने पुत्र पुत्रियों को बहुत कुछ समझाया पर वहाँ भी हलद पतंग का रंग नहीं था कि वे सहसा ही अपना कृत निश्चय त्याग देते । वहां तो लग्न का महोत्सव ही दीक्षा के रूप में परिणत होगया। इस प्रकार दम्पति के प्रबल वैराग्य को देख कर के कई स्त्री पुरुष उनका अनुकरण करने को तैय्यार होगये । इधर पूज्यवर आचार्य देव का त्याग एवं वैराग्यमय उपदेश भी धाराप्रवाहिक रूप से प्रारम्भ था जिसके प्रभाव से नागरिकों के सिवाय इधर तो शाह पद्मा अपनी धर्मपत्नी के साथ और उधर शाह गोसल अपनी पत्नी के साथ दीक्षा की तैय्यारियां करने लगे। इस महोत्सव में दोनों की ओर से करीब पन्द्रह लक्ष द्रव्य व्यय करके बड़े ही समारोह के साथ उत्सव किया गया । स्वधमी बन्धुओं को प्रभावना व याचक को पुष्कल दान दिया। वि० सं० १०७६ के फाल्गुन शुक्ला पंश्चमी के शुभ मुहूर्त और स्थिर लग्न में ४२ नर नारियों को आचार्यश्री कक्कसूरि ने भगवती दीक्षा देकर चोखा का नाम देवभद्र मुनि रख दिया। इस प्रभावोत्पादक कार्य से सिन्धधरा में जैनधर्म का पर्याप्त उद्योत हुआ। । वास्तव में वह लघुकर्मियों का ही समय था कि वे थोड़े से उपदेश को श्रवण करके ही दुःखमय सांसारिक जीवन का सहसा त्याग कर आत्म-कल्याण के मार्ग में संलग्न हो जाते थे. वह भी एक दो के अनुकरण में अनेक । यही कारण है कि उस समय प्रत्येक प्रान्त में सैकड़ों साधु साध्वी विहार करते थे और उन तपस्वी मुनियों के त्याग वैराग्य का प्रभाव भी जैन जैनेतरों पर पर्याप्त रूप में पड़ता था। मुनि देवभद्र पर सूरिजी की पूर्ण कृपा थी। उन्होंने सूरिजी के चरण-कमलों में रहकर आपका विनय, वैय्यावच्च एवं सेवा भक्ति करके आगमों के ज्ञान को इस प्रकार सम्पादन करना प्रारम्भ किया कि थोड़े ही समय में आप धुरंधर विद्वान बन गये । आप अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के सविशेष प्रभाव से न्याय, व्याकरण, तर्क, छन्द, अलंकार, ज्योतिष और अष्टांग योग निमित्तादि ज्ञान में बड़े ही निपुण हो गये। यही कारण था कि सं० १०५८ चन्द्रावती के संघ ने महा महोत्सव पूर्वक आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया और भिन्नमाल नगर में शाइ भैंसा ने सप्तलक्ष द्रव्य व्यय कर आचार्य पद का अति समारोह पूर्वक महोत्सव किया। वि० सं० ११०८ के वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन आचार्य पद प्रदान कर कक्कसूरीश्वरजी महाराज ने आपका नाम परम्परानुसार देवगुप्तसूरि रख दिया। अखिल गच्छ का भार आपको अर्पण कर आप परम निवृत्ति पूर्वक आत्म-ध्यान में संलग्न हो गये। प्राचार्य देवगुप्तसूरिजी महाराज महा प्रतिभाशाली, बाल-ब्रह्मचारी, धुरंधर विद्वान एवं धर्म प्रचारक आचार्य हो गये हैं। आपके अलौकिक तपस्तेज को सविशेष सत्ता से जन-समाज आपकी ओर स्वयमेव आकर्षित हो जाता था ! आपश्री की व्याख्यान शैली तो इतनी मधुर, रोचक एवं हृदयग्राहिणी थी कि जिस किसी ने आपका एक बार भी व्याख्यान सुन लिया वह हमेशा के लिये व्याख्यान श्रवण की इच्छा से उत्कंठित बना रहता। षट दर्शन के पूर्ण मर्मज्ञ होने से आप वस्तु तत्व का विवेचन इतनी स्पष्टता पूर्वक करते थे कि जैन व जैनेतर शास्त्र विदग्ध समाज भी दांतों तले अंगुली लगाने लग जाता। अपने गुरूदेव की साङ्गोपाङ्ग सेवा-भक्ति कर आपने कई चमत्कार पूर्ण विद्याओं एवं कलाओं को हस्तगत कर लिया था कि जिनका शासन के उत्कर्ष के लिये समय २ पर उपयोग किया करते थे। इन्हीं विद्याओं के बल पर स्थान २ पर आपने शासन की इतनी प्रभावना की कि जिसका वर्णन करना निश्चित ही लेखन शक्ति से बाहिर है। आपश्री का शिष्य समुदाय भी विस्तृत संख्या में था योग्य मुनिवर्ग योग्य पदों पर प्रतिष्ठित थे और समयानुसार प्रत्येक प्रान्तों में विचरण कर जैनधर्म का उद्योत करते रहते । कहना होगा कि आचार्य देवगुप्तसूरि अपने समय के अनन्य युग प्रधान आचार्य थे। चोखा पत्नी के साथ दीक्षा ली १४५६ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास amananmainaramarriarrr .. प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने भैंसाशाह के अत्याग्रह से वह चातुर्मास भिन्नमाल नगर में कर दिया । शाह भैंसा ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय कर आगम-महोत्सव किया और व्याख्यान में महाप्रभावक श्रीभगवतीसूत्र बचवाया । शाह की माता ने गुरु गौतम स्वामी के द्वारा पूछे गये ३६००० प्रश्नों की ३६००० स्वर्ण मुद्रिकाओं से परम श्रद्धापूर्वक अर्चना की। इस प्रकार आपके चातुर्मास में धर्म का बहुत ही उद्योत हुआ। धर्मवीर भैंसाशाह की धर्मनिष्ठा माता की कई दिनों से यह भावना थी कि यदि गुरु महाराज का शुभ संयोग मिल जाय तो परम पावन तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय की यात्रा के लिये संघ निकाल कर यात्रा की जाय, क्योंकि अब उनकी अत्यन्त वृद्धावस्था हो चुकी थी और काल का क्या पता कि वह किस वक्त आकर के अचानक हमला करदे । वे अपने मनोरथसिद्धि की इन्तज़ारी कर रही थी कि उनके प्रबल भाग्योदय से सूरिजी का चातुर्मास वहीं होगया । हस्तागत इस अमूल्य स्वर्णावसर का सविशेष सदुपयोग करने के लिये धर्मिष्ठा माता ने अपने परमप्रिय पुत्र भैंसाशाह से एतद्विषयक परामर्श किया। भैंसाशाह जैसे धर्मानुरागी पुरुष ऐसे पुण्योपार्जक कार्यों के लिये इन्कार हो ही कैसे सकते थे ? अपने मातेश्वरीजी के इन परमादेय वचनों को सहर्ष स्वीकार करते हुए उनकी इस उत्तम भावना के लिये भैंसाशाह ने हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की और समारोह पूर्वक शत्रुञ्जय की यात्रा के लिये विशाल संघ निकालने की अनुमति देदी । अब भैंसाशाह की ओर से संघ के लिये विपुल तैय्यारियां होने लगी। निर्दिष्ट समय पर चतुर्विध संघ विशाल संख्या में निर्दिष्ट स्थान पर एकत्रित होगया। आचार्यश्री के द्वारा बतलाये हुए शुभ मुहूर्त में संघ ने तीर्थाधिराज की ओर प्रस्थान कर दिया परन्तु किन्हीं खास कारणों से भैंसाशाह का संघ में जाना न होसका । माता ने पूछा-परम प्रिय वत्स! यदि मार्ग में कहीं खर्च के लिये रकम की आवश्यकता पड़ जाय तो उसके लिये कोई ऐसा समुचित उपाय तो होना ही चाहिये जिससे कठिनाई का सामना न करना पड़े । यद्यपि मार्ग व्यय के लिये मेरे पास रकम कम नहीं है पर प्रसङ्गतः किसी कारण विशेष से हमें विशेष जरुरत ज्ञात पड़े तो क्या किया जायगा ? पुत्र ने उत्तर दिया-माताजी जहाँ आपको आवस्यकता दृष्टिगोचर हो वहां मेरे नाम से रकम ले सकती हो, मेरे नाम से रकम देने में कोई भी आपको इन्कार नहीं करेगा। फिर भी कर्तव्यशील भैंसाशाह ने अपनी मां को विश्वास दिलाने के लिये एक डिबिया में अपनी मूछ का बाल डालकर उसे भली प्रकार से पेकिंग कर अपनी माताजी को दिया और कहा-यदि आपको आवश्यकता पड़े तो इस डिबिया को गिरवे (बंधक ) रख कर, जितनी आवश्यकता हो उतनी रकम ले लेना परन्तु मार्ग में किसी भी तरह से खर्च करने में संकीर्णता-कृपणता न करना । उदार हृदय से इच्छानुकूल द्रव्य का सदुपयोग कर खूब लाभ लेना। इतना कह कर भैसाशाह ने अपनी माता और संघ को तीर्थयात्रा के लिये बिदा किया। माता, प्राचार्यश्री के नेतृत्व में संघ को लेकर क्रमशः छोटे बड़े तीर्थों की यात्रा करती हुई सिद्धाचल पर पहुँची । परमपावन तीर्थ की यात्रा कर अपने मानसिक तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालने की पवित्र भावनाओं के सफलीभूत हो जाने से भैंसाशाह की माता ने खूब ही उदार हृदय से द्रव्य का व्यय किया अष्टाह्निका महोत्सव, पूजा, प्रभावनादि कार्यों को सानन्द सम्पन्न कर माता ने खूब ही लाभ लिया। लाभ भी क्यों नहीं लेती जिसके भैंसाशाह जैसे धर्मनिष्ठ सुपुत्र फिर खर्च करने में कमी ही किस बात की होती ? शत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रा कर संघ पुनः स्वस्थान की ओर लौट रहा था तब मार्ग में पाटण नामक एक विशाल नगर आया। संघ ने वहां की भी यात्रा की । उस समय पाटण में सैंकड़ों कोटिध्वज थे। उनके ऊंचे २ मकानों पर उन्नत पताकाएं फहरा रही थीं । लक्षाधीशों की तो धनिक वर्ग में गिनती ही नहीं गिनी जाती थी ? ऐसे पाटण में भैंसाशाह की माता ने भी उनकी स्पर्धा में खूब ही द्रव्य व्यय किया । यही कारण था कि माता का खजाना खाली होगया । भैंसाशाह के पूर्वोक्त कथनानुसार भैंसाशाह की माता अपने कार्यकर्ता व्यक्तियों को साथ लेकर पाटण में ईश्वरदास नामक एक श्रेष्ठी के यहां गई। माता के कार्यकर्ताओं ने श्रेष्ठी से कहा-ये भैंसाशाह की माता का संघ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ घोसवाल सं० १५०८ - १५२८ दान कुबेर भैंसाशाह सेठ की मानेश्वरी हैं । आप संघ को लेकर तीर्थों की यात्रा करने गई थीं । इन माताजी धर्मकार्य में परमोत्साह पूर्वक उदार दिल से इतना द्रव्य व्यय किया है कि इस समय इनका खजाना खाली हो गया है । आप कुछ द्रव्य इनको दीजिये । वतन पहुँचते ही हम आपकी रकम शीघ्र भिजवा देवेंगे । आप इस विषय में सर्वथा निश्चिन्त रहिये अन्यथा यह डिबिया गिरवे रख लीजिये । सेठ ने उक्त बातों पर सविशेष लक्ष्य न देते हुए हंसी ही हँसी में कह दिया- हम भैंसाशाह को नहीं जानते, हमारे यहां कई भैंसे पानी भरते हैं, उन्हें ही हम तो भैंसे समझते हैं। सेठ के उक्त अहंकार पूर्ण उपेक्षणीय वचनों को सुनकर माता के दिल में बड़ा ही रोष हुआ । बस, वे सत्वर वहां से अपने संघ में चली आईं। संघ में आगत लोगों को जब यह मालूम हुआ कि संघ की अभिनेत्री पाटण में द्रव्य का इन्तजाम करने गई थीं और इस तरह की अनहोनी घटना घटी तो उन लोगों को भी अपार दुःखानुभव हुआ। उन्होंने मिलकर इतना बेशुमार द्रव्य माता के सामने रख दिया और कहा- हे धर्म माता ! आपको जरुरत हो उतना द्रव्य काम में लीजिये । यह सब द्रव्य आप ही का है। किसी भी तरह का विचार या चिन्ता न करते हुए आप इसका स्वेच्छानुपूर्वक उपयोग कीजिये । माता उस द्रव्य में से ऋण लेकर अपना कार्य करती हुई क्रमशः भिन्नमाल के पास आपहुँची ।। संघ के सानन्द निवृत्ति के समाचारों से भैंसाशाह के हर्ष का पार नहीं रहा। उन्होंने संघ का बड़े ही समारोह से स्वागत करके नगर प्रवेश करवाया और मातेश्वरी से कुशल-क्षेम के समाचार पूछे । माता ने कहा- वत्स ! तुम्हारे जैसे सौभाग्यशाली मेरे सुपुत्र हों फिर यात्रा की कुशलता का कहना ही क्या, बड़े ही आनन्दपूर्वक मैंने यात्रा करके अपना जीवन सफल किया है। भैंसाशाह ने पूछा माता मेरा नाम कहां तक प्रचलित है ? माता ने कहा - 'इस नगर के दरवाजे तक' । माता के इस शुष्क, नीरस किन्तु सत्य उत्तर 'भैंसाशाह समझ गये कि माता को अवश्य ही मार्ग में तकलीफ उठानी पड़ी है। अतः सविस्मय उन्होंने अपनी जननी से पूछा- माता ! यह क्या कह रही हो ? इस पर उनकी माता ने पाटण का समस्त हाल कह सुनाया। भैंसाशाह को अपनी जननी के मुख से पाटण श्रेष्ठी के उपेक्षणीय समाचारों को सुनकर अतिशय दुःख हुआ । उन्होंने इसका प्रतिकार करने का अपने मन दृढ़ निश्चय कर लिया । एक दिन वीर भैंसाशाह ने अपने व्यापारियों को इस गर्ज से पाटण भेजा कि वहां जाकर वे घृत और तेल की इतनी खरीदी कर लेवें कि वहां के व्यापारी किसी हालत में भी इतना घृत तेल नहीं तोल सके । मारवाड़ के व्यापारी तो व्यापार में इतने कुशल एवं प्रकृतितः इतने हिम्मत बहादुर होते हैं कि उनके मुकाबले में दूसरे व्यापारी तनिक भी नहीं ठहर सकते हैं । तुम लोग जाकर शीघ्र ही अपनी मरु भूमि का गौरव एवं व्यापारिक कुशलाता का वहाँ ऐसा अक्षय परिचय दो कि मारवाड़ियों के व्यापार की छाप उन पर सर्वदा के लिये अंकित हो जाय । मरुधर वासियों की व्यापारिक कुशलता को वे लोग स्मृति विस्मृत न कर सकें । ऐसे तो मारवाड़ी व्यापारी समाज स्वभावतः व्यापार निष्णात होती ही है; उस पर अपने सेठ की सर्व सुविधाजनक आज्ञा तो निश्चित ही उनको अपनी सर्वाङ्गीण योग्यता दिखलाने के लिये पर्याप्त थी । बस, मारवाड़ के कुशल व्यापारी मालिक भैंसाशाह की आज्ञा को पाकर पाटण में जाकर घृत-तेल की खरीदी करनी प्रारम्भ करदी | ज्यों २ खरीदी होती गई त्यों २ भाव भी बढ़ाते गये । पाटण के व्यापारियों ने जब खूब तेज भाव देखा तो अपने आस पास के ग्रामों के आधार पर अधिक माल देना कर दिया । शाह के व्यापारियों को भी अब पाटण के व्यापारियों को छकाने का अच्छा अवसर हाथ लग गया । बस, शाह के व्यापारियों ने जिन २ से माल लेना किया था उन्हें तो रकम देदी और निकटस्थ ग्रामों में अपने आदमियों को भेज कर सब माल तेजी के भाव से खरीदना प्रारम्भ कर दिया। अब तो पाटण व्यापारियों को आसपास के ग्रामों माल - घृत, तेल मिलना महामुश्किल होगया। इधर भाव में तेजी होजाने के कारण लोभवश समीपस्थ शाह के व्यापारियों का गुजरात में जाना १४६० www.janexbrary.org Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९०८-११२८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ग्रामों के आधार पर जो माल देना किया था, उसकी भी पाटण निवासियों को सप्लाई करना कठिन मालूम पड़ने लगा कारण, पाटण के व्यापारियों को पहिले रुपये देकर फिर ग्रामों से माल खरीदना प्रारम्भ कर दिया अतः पाटण के व्यापरियों को ग्रामों का माल भी नहीं मिल सका। अब निश्चित मुद्दत पर पहिले लिये हुए रुपयों का घृत तेल देना भी उनके लिये विकट समस्या होगई । इधर माल तोलने की मुद्दत भी निकट थी । उस समय रेलवे आदि का कोई साधन तो था ही नहीं कि जिसके आधार पर मुद्दत पर दूर देशों से माल मंगवा कर तोंल देते । जब भैंसाशाह के व्यापारी माल तुलवाने के लिये आये तो पाढण के व्यापरियों ने जो थोड़ा बहुत माल इधर उधर से मंगवा कर इकट्ठा किया था सोही फिलहाल तोलने के लिये तैय्यार होगये । इधर भैंसा शाह के व्यापारियों ने ग्राम के बाहिर नदी के अन्दर दो खड्डे तैयार करवाये और एक खड्डे में खरीद किया हुआ घृत और दूसरे खड्डे में तेल तोल २ कर डालने के लिये पाटण के व्यापारियों को कह दिया । यह देखकर पाटण के व्यापारीगरण अत्यन्त आश्चर्या food हुए कि लाखों करोड़ों रुपयों का घृत तेल इस प्रकार मिट्टी में डलवाने वाले ये समर्थ व्यापारी कौन हैं ? कारण, यह तो उनके लिये एक दम नूतन एवं आश्चर्योत्पादक ही था । आज तक उन लोगों ने लाखों करोड़ों के माल को इतने तेज भाव में खरीद कर के उपेक्षादृष्टि से इस प्रकार मिट्टी में डालने वाले निश्चिन्त एवं शक्तिमन्त व्यापारी को नहीं देखा था। खैर, जो माल उन व्यापारियों के पास हाजिर था उसे तोल, तोल कर नदी के किनारे कृत खड्डों में भर दिया। शेष बहुतसा माल लेना रह गया पर पाटण के व्यापारियों के पास अब अवशिष्ट रुपयों के देने का माल कहां था ? बेचारे सब व्यापारी बड़ी आफत में फँस गये । अपने पास किसी भी प्रकार से अवशिष्ट रुपयों का माल देने का समर्थ साधन न होने के कारण पाटण का व्यापारी- समाज हताश एवं निरुत्साही हो भैंसाशाह के व्यापारियों के पास गया और उनसे पूछने लगे कि आप लोगों का मूल निवास स्थान कहां का है ? आपने यह माल किसके लिये खरीदा है । रुपये देकर या लाखों करोड़ों के द्रव्य को व्यय करके आप लोग माल की खरीदी कर रहे हैं और उसे इस कदर नदी की मिट्टी में क्यों डलवाया जारहा है ? व्यापारियों ने उत्तर दिया- हम लोग स्वनाम धन्य, वीररत्न, व्यापारी समाज के अधिनायक, धन वेश्रमण श्रीमान् भैंसाशाह के व्यापारी एवं मुनीम गुमास्ते हैं, और उनकी आज्ञा से ही सब माल की खरीदी गई है। उनका पुण्य इतना प्रबल है कि नदी की बालुका में डाला हुआ घृत और तेल उनकी दुकान में, जो माण्डवगढ़ में है वहां पहुँच जाता है । जितना आप लोगों ने माल तोला है, उतना ही वहां पहुँच जायगा । शेष जो माल तोलना है वह जल्दी से ही तोल दीजिये जिससे हम शीघ्र ही हमारे निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच जायें पाटण निवासी आश्चर्यविमूढ़ हो विचार करने लगे कि न मालूम ऐसा कौनसा व्यापारी है जो इस कदर व्यापारिक कुशलता बतलाते हुए व माल खरीदी करते हुए किञ्चित् भी नहीं हिचकिचाता है । मुनीमों ने नागरिकों को मुग्ध देख कर स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि शायद आप लोग जानते होंगे कि एक समय हमारे श्रेष्टवर्य की माता श्रीशत्रुञ्जय की यात्रार्थ संघ लेकर गई थीं और पुनः लौटते हुए पाटण में भी एक दो दिन की स्थिरता को थी । खर्च के लिये द्रव्य समाप्त हो जाने से आपके यहां के किसी प्रतिष्ठित श्रेष्ट से कर्ज मांगा था, इस पर कहा गया था कि भैंसा तो हमारे यहां पानी भरता है, उसी नरपुङ्गव भैंसाशाह के हम मुनीम हैं । अब आप देर न कीजिये और शीघ्र शेष माल तोल दीजिये कि हमको रुकना न पड़े । अब तो पाट के गुर्जर व्यापारियों की आंखें खुल गई । उन व्यापारियों में श्रेष्टिवर्य ईश्वर भी शामिल थे, उन्हें अपनी भूल स्पष्ट नजर आने लग गई। अब उनके पास कोई दूसरा साधन न होने से उन व्यापारियों ने क्षमा मांगते हुए निवेदन किया कि हमने आसपास के ग्रामों में भी माल लाने के लिये आदमी भेजे परन्तु आपने तो वहां से भी माल खरीद लिया अतः हम सब तरह से लाचार हैं। आप अपनी रकम वापिस १४६२ घृत तेल की खरीदी और गुर्जरा Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ ले लीजिये और नफे नुकसान के लिये जो आप हुक्म फरमावें हम नजर करने को तैय्यार हैं। नरवीर भैंसाशाह के गुमाश्तों ने कहा-हमें नफा नुकसान लेने की तो हमारे मालिक की इजाजत ही नहीं है और बिना इजाजत के हम ऐसा करने के लिये पूर्ण लाचार हैं। हमें तो केवल माल ले जाने का ही आदेश है अतः आप अपनी ज़बान एवं इज्जत रखना चाहें तब तो किसी भी तरह जितना माल देना किया है उतना माल शीघ्र तोल दें । अब बेचारे वे लोग बड़े ही पशोपेश में पड़ गये कारण, उन्हें माल मिलने का कोई जरिया ही नहीं रहा। जहां २ माल था वहाँ २ से तो इन लोगों ने तेज भाव में भी खरीद लिया था अतः जब जिले भर में ही माल न रहा तो वे लोग उन्हें सप्लाई भी कैसे करते ? किसी प्रकार का साधन न होने के कारण पाटण निवासियों ने एतद्विषयक बहुत अनुनय विनय किया परन्तु मुनीम, गुमास्तों के हाथ में भी क्या था कि वे नरवीर भैंसाशाह की बिना इजाजत कुछ सैटल कर देते । अन्त में पाटण के अग्रगण्य नेता मिलकर सब भिन्नमाल गये और वहां जाकर नरकेशरी भैंसाशाह से मिले । बहुत अनुनय विनय करने के पश्चात् उन लोगों ने उनकी माता के किये गये अपमान के लिये हार्दिक क्षमा-याचना की। तब भैंसाशाह ने कहा-आप हमारे स्वधर्मी बन्धु हैं। आपको इतना विचार तो करना था कि एक व्यक्ति संघ निकाल कर यात्रा करता है तो क्या आपसे कर्ज रूप में ली हुई रकम को वह अदा नहीं कर सकेगा ? यदि उसके पास इतना सामर्थ्य न हो तो वह संघ यात्रा के लिये तैय्यार भी कैसे हो सकता है। यह तो किसी कारण से ऐसा संयोग प्राप्त होगया कि आपसे कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ गई। खेर, स्वधर्मी बन्धु के नाते भी यदि आप कर्ज देने को तैय्यार न हुए तो कम से कम ऐसे अपमानजनक शब्द तो नहीं कहने थे। इसके सिवाय आपके पूर्वज भी इसी मरुभूमि से गुर्जर प्रान्त को गये तो आप लोग भी मूल मारवाड़ के ही निवासी हैं। अतः अपनी मातृभूमि के गौरव को भी नहीं भूलना चाहिये था।" इस प्रकार मधुर किन्तु हृदयविदारक शब्दों को सुनकर पाटणियों ने अपनी प्रत्येक भूल स्वीकार कर मुहुर्मुहूः क्षमा याचना की। इस पर वीर भैंसाशाह ने कहा कि-आपके गुजरात में भैंसे पर पानी लाने की जो प्रथा है उसे सर्वथा बंद करवादें तो मैं आपको माफ कर सकता हूँ। पाटण के व्यापारीगण ने किसी भी तरह इस कर्ज से विमुक्त होने के लिये उपरोक्त शर्त को सहर्ष स्वीकार करली। कई वंशावलियों में यह भी लिखा है कि भैंसाशाह ने गुजरातियों की एक लांग खुलवाई थी जो आज पर्यन्त खुली ही रहती हैं। कई स्थानों पर ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि पाटण के मारवाड़ की ओर दरवाजे पर नररत्न भैसाशाह की ऊंचे पैर की हुई एक पाषाण की मूर्ति स्थापन की गई थी कि जिसके नीचे से पाटण के लोग निकले । खैर, कुछ भी हो, पाटण के व्यापारियों ने अपनी भूल के लिये भैंसाशाह से माफी जरूर मांगी। पाटण बाहिर जिस नदी में तेल और घृत डाला गया था, उस नदी का नाम ही तेलिया नदी पड़ गया है। आज भी प्रायः लोग इस नदी को तेलिया नदी के नाम से पुकारते हैं। प्राचीनकालीन लोगों को इष्ट बल था, चारित्र शुद्धि थी, सत्य और ईमान पर बड़ी श्रद्धा थी, धर्म में सुदृढ़ता और गरीबों से सहानुभूति रखने रूप बड़ी ही दयालुता थी। यही कारण था कि वे लोग सहसा ही बड़े २ कार्यों को कर गुजरते थे । नरवीर भैसाशाह को देवी सञ्चायिका का बड़ा इष्ट था इसी से पाटण की नदी में डाला हुआ घृत तेल माण्डवगढ़ की दुकान की घृत तेल की वापिकाओं में पहुँच जाता था। श्रीमान चन्दनमलनी नागोरी, भैलाशाइ सम्बन्धी एक लेख में लिखते हैं कि माण्डवगढ़ में भैंसाशाह की घृत-तेल की वापिकाओं के खण्डहर आज भी कहीं २ दृष्टिगोचर होते हैं। माण्डवगढ़ में भैंसाशाह की घृत तेल की जंगी दुकान होने का यह अच्छा प्रमाण है। हाँ, एक बात है कि श्रीमान नागोरीजी के लेख में भैसाशाह के समय में अवश्य अन्तर पड़ता है पर इसका कारण यह है कि आदित्यनाग गोत्रीय चोरडिया शाखा में भैंसाशाह नाम के चार व्यक्ति हुए हैं अतः समय में भूल एवं भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक ही है। गुर्जर में भैंसा पर पानी लाना छुड़ाया १४६३ Jain E Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९०८-११२८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्यश्री ककसूरि की महती कृपा से एक दिन का दुःखी भैंसाशाह परम ऋद्धि को प्राप्त हुआ और उस ऋद्धि बल से अनेक पुण्योपार्जक कार्य किये । वीर भैंसाशाह ने जिस लग्न और जोश के साथ धर्म प्रचार कर शासन की प्रभावना की वह निश्चित ही वर्णनातीत है ! ____ पट्टावलीकार लिखते हैं कि श्रीमान् भैंसाशाइ की माता संघ लेकर वापिस भीनमाल आई उस समा भैंसाशाह ने स्वामिवात्सल्य करके संघ को एकादरा एकादश सुवर्ण मुद्रिकाएं रख कर बढ़िया वस्त्रों युक्त पहरावनी दी थी । याचकों को तो इतना दान दिया कि उन्होंने आपकी शुभ कविता से ब्रह्माण्ड गुंजा दिया था। मात चली जत जात, बेटा जब बाल समर पे । कत पड़त तोय काम, धन नाम मम लेत करपे ॥ परगल बहे वित्त खीत खजाना सुकृत भरपे । चलत पाटण श्राय ईश घर मात पयं पे ॥ बाल ग्रहो मम पुत के श्रापो ग्रन्थ उद्दीन मोपे। घर घर भैंसा पानी भरे, कित भैसा मात छै तो पे । पुत पुच्छे निज मात को, कुशल जात की बात । कित केता तुम पुत्र का, नाम चलत सु प्रभात || उत्तर माता ने दिया, नगर दुवार तुझ नाम । ठगी बाल दे मात को, भैसा रुड़ोज कियो काम ॥ व्यापारी पठाय के खरीद किया धी तेल । धन देइ सोदा किया, प्रबल बुद्धि का खेल । छोटा मोटा गांव में, दइ मोल अण तौल। हारिया गुजर बाणिया वोल्यो न पाले बोल ।। भैंसे नीर छुड़ावियो लाग खुलाइ एक । खरहत्थ सुत भैसो भलो, राखी मरुधर टेक ॥ छप्पन कोटि गुजरात बात जग सकल प्रसिद्धि । सञ्चायिका प्रसिद्ध रहे शिर पै सिद्ध सिद्धि ॥ नव खण्ड हुओज नाम राव राणा सब जाणे । ग्यारह सा आठ हल्ल कवि कीर्ति बखाणे ॥ अइच्च गोत मण्डण मुकुट, सुधन सुखते बोइयो। भैंसाज सेठ खरहत्थ तणो, अपणा बोल निभाइयो॥ इत्यादि वंशावलियों में बहुत से कवित मिलते हैं पर स्थानाभाव से सबके सब यहां दिया नहीं जाता है तथापि उपरोक्त नमूना से ही पाठक अच्छी तरह से समझ सकते हैं। . प्राचार्य देवगुप्तसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली युग प्रवर्तक आचार्य हुए हैं आपका विहार क्षेत्र बहुत विस्तृत था । उपकेशगच्छ के पूर्वावाय की पद्धति अनुसार प्राचार्यपद प्रतिष्टित होने के बाद कम से कम एकवार तो मरुधर लाट कांकण सौराष्ट्र कच्छ सिन्ध पंजाब कच्छ शूरसेन मत्स्य आवंती मेदपाटादि प्रान्त में विहार करके धर्म प्रचार अवश्य किया करते थे तदनुसार आचार्य देवगुप्तसूरि भी प्रत्येक प्रान्तों में विहार कर अपने आज्ञावृति साधुओं की सार संभाल श्रावकों को धर्मोपदेश तथा अजैनों को जैन बनाने में अच्छी सफलता प्राप्त की भी थी इस विहार के अन्दर जैसे अजैनों को जैन बनाये थे कैसे अनेक मुमुक्षुओं को श्रमण दीक्षा दे उनका उद्धार किया तथा जैनधर्म की नींव मजवत रखने को अनेक भावकों के बनाये जैन मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी करवाई थी इसी प्रकार दर्शन शुद्धि के लिये कई स्थानों से आप स्वयं एवं आपके आज्ञावृति मुनिराजों ने तीर्थ यात्रार्थ संघ निकलवा कर तीर्थों की यात्रा भी की थी। आपका जीवन पट्टावलीकारों ने बहुत विस्तार से लिखा था पर मैंने यहां स्थानाभाव से संक्षिप्त में ही लिखा है। __एक समय सूरीश्वरजी महाराज चन्द्रावती नगरी की विशाल परिषदा में व्याख्यान दे रहे थे उस समय एक भद्रिक प्राणी उस परिषदा का अपूर्व ठाठ और सूरिजी के व्याख्यान देने की छटा को देख सहसा बोल उठा है कि क्या आज का दिन उत्तम है कैसे हम लोगों के शुभ कर्मों का उदय है कि जैसे गहाविदह क्षेत्र में तीर्थकरों का व्याख्यान होता है वैसे ही आज यहां पर पूज्य गुरुदेव का व्याख्यान हो रहा है इत्यादि । १४६४ __ चन्द्रावती में सूरिजी के व्याख्यान की प्रशंसा Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास OYOYOYOYOYOY@Y@Y@Y@Yor तीर्थङ्करदेव के समवसरण की अनेक स्थानों पर रचना बनाई गई नन्दीश्वर द्वीप की रचना फलोदी व नागोर में श्री संघ ने करवाई Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [श्रोसवाल सं० १५०८-१५२८ स पर सूरीश्वरजी महाराज ने फरमाया कि महानुभाव ! आपका भाव कितने ही भक्ति का हो पर कोई भी त अपनी मर्यादा में होती है तबतक ही शोभा देती है मर्यादा का उल्लंघन करने पर गुण भी अवगुण एवं शिंसा भी निंदा का रूप धारण कर लेती है क्योंकि कहां तो सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् और कहां मेरे जैसा अल्पज्ञ ? तीथेकर भगवान् केवलज्ञान केवलदर्शन से लोकालोक के चराचर पदार्थों के भाव एक ही समय में इस्तामल की तरह देखते हैं तब मेरे जैसे अल्पज्ञ को प्रायः कल की बात भी याद नहीं रहती है। अतः आपने परी प्रशंसा नहीं बड़ी भारी निन्दा की है और मैं इससे सख्त नाराज भी हूं। आयन्दा से सब लोगों को वयाल रखना चाहिये कि कोई भी शब्द निकाले पर पहले उनको खूब सोचे समझे बाद ही मुँह से निकालें। पसंगोत्पात मैं आज थोडासा तीर्थकर देवों के व्याख्यान का हाल श्रापको सुना देता हूँ। तीर्थङ्कर भगवान अपने कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन द्वारा सम्पूर्ण लोकालोक के सकल पदार्थ को प्रगट इस्तामल की माफिक जाना देखा है उन तीर्थङ्करों की विभूतिरूप समवसरण अर्थात् जिस पवित्र भूमि पर तीर्थङ्करों को कैवल्य ज्ञानोत्पन्न होता है वहाँ पर देवता समवसरण की दिव्य रचना करते हैं । जैसे वायुकुमार के देवता अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ति द्वारा एक योजन प्रमाण भूमि मण्डल से तृण काष्ट कांकरे कचरा धूल मिट्टी वगैरह अशुभ पदार्थों को दूर कर उस भूगि को शुद्ध स्वच्छ और पवित्र बना दिया करते हैं। ___मेघकुमार के देवता एक योजन परिमित भूमि में अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ति द्वारा स्वच्छ निर्मल शीतल और सुगन्धित जल की वृष्टि करते हैं जिससे बारीक धूल-रंज उपशान्त हो सम्पूर्ण मण्डल में शीतलता छा मृत देवता अर्थात पट ऋतु के अध्यक्ष देव षट ऋत के पैदा हए पांच वर्ण के पुष्प जो जल से पैदा हुबे उत्पलादि कमल और थल से उत्पन्न हुए जाइ जूई चमेली और गुलाबादि वह भी स्वच्छ सुगन्धित और ढीश्च ण (जानु) प्रमाण एक योजन के मण्डल में वृष्टि करते हैं और देवता उन पुष्पों द्वारा यथास्थान सुन्दर और मनोहर रचना करते हैं। यथा समवायंग सूत्रे __ "जलधलय भासुर पभूतेणं विठंठाविय दसवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाण मित्ते पुष्फोवयारे किजई" प्रभु के चौंतीस अतिसय में यह अठारवां अतिशय है। व्यनार देव अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ति द्वारा मणि-चन्द्रकान्तादि रन-इन्द्र नीलादि अर्थात् पांच प्रकार के मणि रजों से एक योजन भूमि मण्डल में चित्र विचित्र प्रकार से भूमि पिठीका की रचना करते हैं। पूर्वोक्त पांच प्रकार के मणि रत्नों से चित्र विचित्र मण्डित, जो एक योजन भूमिका है उस पर देवता समवसरण को दिव्य रचना करते हैं। जैसे-अभिंतर, मध्य, और बाहिर एवं तीन गढ अर्थात् प्रकोट बना के उनको भीतों ( दिवारों ) पर सुन्दर मनोहर कोसी से ( कांगरों) की रचना करते हैं । जैसे कि (१) अभिंतर का प्रकोट रनों का होता है, उसपर मणि के कांगरे और वैमानिक देव रचना करते हैं। (२) मध्य का प्रकोट सुवर्ण का होता है, उसपर रनों के कांगरे और ज्योतिषी देव रचना करते हैं। (३) बाहिर का प्रकोट चांदी का होता है, उसपर सोने के कांगरे, और रचना भुवनपतिदेव करते हैं । इन तीनों प्रकोटों की सुन्दर रचना देवता अपनी वैक्रय लब्धि और दिव्य चातुर्य द्वारा इस कदर करते हैं कि जिसकी विभूती अलौकिक है, उस अलौकिकता को सिवाय केवली के वर्णन करने को असमर्थ है। . समवसरण की रचना दो प्रकार की होती है। (१) वृत-गोलाकार (२) चौरांस-जिस में वृताकार समवसरण का प्रमाण कहते हैं कि समवसरण की भीते ३३ धनुष ३२ अंगुल की मूल में पहली है, ऐसी छः भीते हैं पूर्वोक्त प्रमाण से गिनती करने से दो सौ धनुष होती है और वह प्रत्येक भीत ५०० धनुष ऊंची होती है । भिंते और प्रकोट का अन्तर शामिल करने से ८००० धनुष अर्थात् एक योजन होता है। अब प्रकोट २ के बीच में अंतर बतलाते हैं कि चांदी के प्रकोट और स्वर्ण के प्रकोट के बीच में ५००० सोवाणा अर्थात् पगोतिये होते हैं । प्रत्येक एक हाथ के ऊंचे और पहूले होने से १२५० धनुष के हुए और दरतीर्थकर भगवान् का समवसरण १४६५ 9 -10 Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाजे के पास ५० धनुष का परतर (सम जगह ) एवं १३०० धनुष का अन्तर है। तथा स्वर्ण प्रकोट और रत्न प्रकोट के बीच में पूर्वोक्त १३०० धनुष का अन्तर है। मध्य भाग में २६०० धनुष का मणि पीठ है। दूसरी और १३००-१३०० का अन्तर एवं २००-२६००।२६००।२६०० कुल ८००० धनुष अर्थात् एक योजन हुआ, और चांदी का प्रकोट के बाहर जो १०००० पगोतिये हैं वे एक योजन से अलग समझना । प्रत्येक गढ के रत्नमय चार २ दरवाजे होते हैं। तथा भगवान के सिंहासन के भी १०००० पगोतिये होते हैं। भगवान के सिंहासन के मध्य भाग से पूर्वादि चारों दिशाओं में दो दो कोस का अन्तर है वह चांदी का प्रकोटे के बाहर का प्रदेश तक समझना । वृत ( गोल ) समवसरण की परिधी तीन योजन १३३३ धनुष एक हाथ और आठ अंगुल की होती है । इस प्रकार वृत समवसरण का प्रमाण कहा अब चौरस का प्रमाण कहते हैं। दूसरा चौरंस समवसरण की भीते १००-१०० धनुष की होती है, और चांदी सुवर्ण के अन्तर १५०० धनुष का तथा स्वर्ण व रनों के प्रकोट का अन्तर १००० धनुष का । एवं २५०० धनुष । दूसरी तरफ भी २५०० ध० तथा मध्य पीठिका २६०० ध० और ४०० धनुष की चारों दिवारें । २५०० ! २५००। २६००। ४०० । कुल आठ हजार धनुष अर्थात् एक योजन समझना । शेष प्रकोट दरवाजे, पगोतिये वगैरह सर्वाधिकार वृत समवसरण के माफिक समझना। अब प्रकोट ( गढ़) पर चढ़ने के पगोथियों का वर्णन करते हैं। पहिले गढ़ में जाने को समधरती से चांदी के गढ़ के दरवाजे तक दश हजार पगोथिए हैं, और दरवाजे के पास जाने से ५० धनुष का सम परतर श्राता है। दूसरे प्रकोट पर जाने के लिए ५००० पांच हजार पगोथिये हैं। दरवाजे के पास ५० धनुष का सम परतर आता है और तीसरे गढ़ पर जाने के लिये ५००० पगोथिये हैं । और उस जगह २६०० धनुष का मणिपीठ चौतरा है। उस मणिपीठ से भगवान के सिंहासन तक जाने में दश हजार पगोथिए हैं। समवसरण के प्रत्येक गढ़ के चार २ दरवाजे हैं। और दरवाजे के आगे तीन २ सोवाण प्रति रूपक (पगोथिये) हैं समवसरण के मध्य भाग में जो २६०० धनुष का मणिपीठ पूर्व कहा है उसके ऊपर दो हजार धनुष का लम्बा, चौड़ा और तीर्थक्करों के शरीर प्रमाण ऊंचा एक मणिपीठ नामक चौंतरा होता है कि जिस पर धर्मनायक तीर्थकर भगवान का निहासन रहता है । तथा धरती के तल से उस मणिपीठका के ऊपर का तला ढाई कोस का अर्थात् धरती से सिंहासन ढाई कोस ऊंचा रहता है । कारण ५००० । ५००० । १०००० एवं वीस हजार सोपान हैं प्रत्येक एक २ हाथ के ऊंचे होने से ५००० धनुष का ढाई कोस होता है। अब अशोक वृक्ष का वर्णन करते हैं। वर्तमान तीर्थंकरों के शरीर से बारह गुणा ऊंचा और साधिक योजन का लम्बा पहुला जिस अशोक वृक्ष की सघन शीतल ओर सुगंधित छाया है तथा फल फूल पत्रादि लक्ष्मी से सुशोभित है । पूर्वोक्त अशोक वृक्ष के नीचे बड़ा ही मनोहर रत्नमय एक देवछंदा है, उस पर चारों दिशा में सपाद पीठ चार रत्नमय सिंहासन हुआ करते हैं। उन चारों सिंहासन अर्थात् प्रत्येक सिंहासन पर तीन २ छत्र हुश्रा करते हैं, पूर्व सन्मुख सिंहासन पर त्रेलोक्यनाथ तीर्थकर भगवान् विराजते हैं, शेष दक्षिण, पश्चिम, और उतर दिशा में देवता तीर्थकरों के प्रतिबिम्ब ( जिन प्रतिमा) विराजमान करते हैं । कारण चारों ओर रही हुई परिषदा अपने २ दिल में यही समझती हैं कि भगवान हमारी ओर बिराजमान हैं; अर्थात् किसी को भी निराश होना नहीं पड़ता है। समवसरण स्थित सब लोग यही मानते हैं कि भगवान् चतुर्मुखी अर्थात् पूर्व सन्मुख आप खुद विराजते हैं। शेष तीन दिशाओं में देवता, भगवान के प्रतिबिम्ब अर्थात् जिन प्रतिमा स्थापन करते हैं और वह चतुर्विध संघ को वन्दनीक पूजनीक भी है। ____ समवसरण के प्रत्येक दरवाजे पर आकाश में लहरें खाती हुई सपरवार से प्रवृत्तमान सुन्दर ध्वजा, छत्र, चामर मकरध्वज और अष्टमङ्गलिक यानी स्वस्तिक, श्रीवत्स; नन्दावृत, वर्द्धमान, भद्रासन, कुंभकलश, १४६६ For Private & Personal use Only वायकर भगवान् का समवसरण - M Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ श्रोसवाल सं० १५०८ - १५२८ मच्छयुगल, और दर्पण एवं अष्टमंगलिक तथा सुन्दर मनोहर विलास संयुक्त पूतलियों पुष्पों की सुगन्धित मालायें, वेदिका और प्रधान कलश मणिमय तोरण वह भी अनेक प्रकार के चित्रों से सुशोभित है और कृष्णागार धूप घटीए करके सम्पूर्ण मण्डल सुगन्धिमय होते हैं । यह सब उत्तम सामग्री व्यन्तर देवताओं की बनाई हुई होती है | एक हजार योजन के उत्तंग दंड और अनेक लघु ध्वजा पताकाओं से मण्डित महेन्द्रध्वज जिसके नाम धर्मध्वज, मणिध्वज, गजध्वज, और सिंहध्वज गगन के तला को उलांघती हुई प्रत्येक दरवाजे स्थित रहे । कुंकुंमादि शुभ और सुगन्धी पदार्थों के भी ढेर लगे हुए रहते हैं। विशेष समझने का यही है कि जो मान कहा है, वह सब आत्म अङ्गुल अर्थात् जिस जिस तीर्थकरों का शासन हो उनके हाथों से ही समझना । समवरण के पूर्व दरवाजे से तीर्थंकर भगवान् समवसरण में प्रवेश करते हैं, प्रदिक्षणा पूर्वक पादपीठ पर पाँव रखते हुए पूर्व सन्मुख सिंहासन पर बिराजमान हो सबसे पहिले " नमो तित्थस्स" अर्थात् तीर्थ को नमस्कार करके धर्मदेशना देते हैं ? अगर कोई सवाल करे कि तीर्थकर तीर्थ को नमस्कार क्यों करते हैं ? उत्तर में ज्ञात हो कि - ( १ ) जिस तीर्थ से आप तीर्थंकर हुए इसलिए कृतार्थ भाव प्रदर्शित करते हैं । ( २ ) आप इस तीर्थ में स्थित रह कर वीसस्थानक की सेवा भक्ति आराधन करके तीर्थंकर नामगौत्र कर्मोपार्जन किया इसलिये तीर्थ को नमस्कार करते हैं । (३) इस तीर्थ के अन्दर अनेक केवली या तीर्थङ्करादि • उत्तम पुरुष एवं मोक्षगामी होने से तीर्थंकर तीर्थ को नमस्कार करे बाद अपनी देशना प्रारंभ करते हैं । ( ४ ) साधारण जनता में विनय धर्म का प्रचार करने के लिये इत्यादि कारणों से तीर्थंकर भगवान् तीर्थ को नमस्कार करते हैं । देशना सुनने वाली बारह परिषदा का वर्णन करते हैं, जो मुनि, वैमानिकदेवी, और साध्वी एवं तीन परिषदा श्रमिकोण में - भवनपति, ज्योतीषी व्यंतर इनकी देवियों नैरूत्य कौण में - भवनपति, ज्योतीषी, व्यंतर ये तीनों देवता वायव्य कौणमें, वैमानिकदेव, मनुष्य, मनुष्य स्त्रियों एवं तीन परिषदा ईशान कोण में । अतएव बारह परिषदा चार विदिशा में स्थित रह कर धर्मदेशना सुनती हैं । पूर्वोक्त बारह परिषदा से चार प्रकार की देवांगना और साध्वी एवं पांच परिषदा खड़ी रह कर और चार प्रकार के देवता, नर, नारी और साधु एवं सात परिषदा बैठकर धर्मदेशना सुने। यह बारह ही परिषदा सबसे पहिले, ओ रनों का प्रकोट है, उसके अन्दर रह कर धर्मदेशना सुनती हैं । पूर्वोक्त वर्णन आवश्यक वृति का है । फिर चूर्णीकारों का मत है कि मुनि परिषदा समवसरण में बैठ करके तथा वैमानिक देवी और साध्वी खड़ी रह कर व्याख्यान सुनती हैं। और शेष नव परिषदा अनिश्चित पने अर्थात् बैठकर या खड़ी रह कर भी तीर्थंकरों की धर्मदेशना सुन सके। तथा आवश्यक नियुक्तिकारों का विशेष है कि पूर्व सन्मुख तीर्थंकर विराजते हैं । उनके चरण कमलों के पास अग्निकौन में मुख्य गणधर बैठते हैं और सामान्य केवली जिन तीर्थ प्रत्ये नमस्कार कर गणधरों के पीछे बैठते हैं उनके पीछे मन पर्यवज्ञानी उनके पीछे वैमानिक देवी और उनके बाद साध्वियां बैठती हैं । और साधु साध्वियों और वैमानिक देवियों एवं तीन परिषदा, पूर्व के दरवाजे से प्रवेश होकर के, अग्निकौन में बैठे । भवनपति व्यन्तर व ज्योतीषियों की देवियों एवं तीन परिषदा दक्षिण दरवाजे से प्रवेश होकर नैरूत्य कौन में, पूर्वोक्त तीनों देव परिषदा पश्चिम दरवाजे से प्रवेश होकर वायु कौन में और वैमानिक देव नर व नारी एवं तीन परिषदा उत्तर दरवाजे से प्रवेश होकर के ईशान कौन में स्थित रह कर व्याख्यान सुने, पर यह ख्याल में रहे कि मनुष्यों में अल्पऋद्धि महाऋद्धि का विचार अवश्य रहता है । अर्थात् परिषदा स्वयं प्रज्ञावान होती है कि वह अपनी २ योग्यतानुसार स्थान पर बैठ जाती हैं, परन्तु समवसरण में राग, द्वेष, इर्षा, मान, अपमान लेशमात्र भी नहीं रहता है । दूसरे स्वर्ण के प्रकोट में तिर्यञ्च अर्थात् सिंहव्याघ्रादि, तथा हंस सारसादि पक्षी जाति वैरभाव रहित, अन्यान्य ग्रन्थों में समवसरण Jain Education Internation १४६७ www.jainexbrary.org Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शान्त चित्त से जिन देशना सुनते हैं। तथा ईशान कौन में देवरचित देवछंदा है। जा तीर्थकर पहिले पहर में अपनी देशना समाप्त करने के बाद उत्तर के दरवाजे से उस देवबन्दे में पधारते हैं, तब दूसरे पहर में राजादि रचित सिंहासन पर बिराजके तथा पादपीठ पर विराजमान हो गणधर महाराज देशना देते हैं। तीसरे प्रकोट में हस्ती अश्व सुखपाल जाण रथ वगैरह सवारियों रखी जाती हैं, चौरस समवसरण में दो २ और वृतुल में एकेक सुन्दर वापियों हुआ करती हैं, जिसमें स्वछ और निर्मल जल रहता है। प्रथम रत्नों के गढ़ के दरवाजे पर एकेक देवता हाथ में अवध लिए प्रतिहार के रूप में खड़े रहते हैं। (१) पूर्व दिशा के दरवाजे पर सुवर्ण क्रान्ति शरीर वाला सोमनामक वैमानिक देवता, हाथ में ध्वज लेकर खड़ा रहता हैं। (२) दक्षिण के दरवाजे पर श्वेत वर्णमय यम नामक व्यन्तर देव हाथ में दण्ड लेकर दरवाजे पर खड़ा रहता है। (३) पश्चिम के दरवाजे पर रक्तवर्ण शरीर वाला वारूण नामक ज्योतिषी देव हाथ में पास लेकर खड़ा रहता है। (४) उत्तर के दरवाजे पर श्यामवर्णमय कुबेर (धनद ) नामक भुवनपति देव हाथ में गदा लेकर खड़ा रहता है । ये चारों देव समवसरण के रक्षार्थ खड़े रहते हैं। दूसरे सुवर्ण प्रकोट के प्रत्येक दरवाजे पर देवी युगल प्रतिहार के रूप में स्थित है, जिनके नाम जया, विजया, अजिता, अपराजिता, क्रमशः उनके शरीर का वर्ण श्वेत, अरूण, ( लाल ) पीत, (पीला ) और नीला हाथ में अभय अंकुश पास और मकरध्वज, नाम के अवध (शस्त्र ) हैं। तीसरे चान्दी के प्रकीट के प्रत्येक दरवाजे पर प्रतिहार देवता होते हैं जिनके नाम तुम्बरू, खड्गी कपालिक, और झटमुकुटधारी, इन चारों देवताओं के हाथ में छड़ी रहती है, और शासन रक्षा करना इनका कर्तव्य है। तीर्थंकरों के समवसरण का शास्त्रों में बहुत विस्तार से वर्णन है, पर बालबोध के लिये ज्ञानियों ने लघु अन्य में सामान्य, (संक्षिप्त) वर्णन किया है। इस समवसरण की देवताओं का समूह अर्थात् इन्द्र के श्रादेश से चार प्रकार के देवता एकत्र होकर रचना करते हैं । अगर महाऋद्धि सम्पन्न एक भी देवता चाहे सो पूर्वोक्त समवसरण की रचना कर सकता है फिर अधिक का तो कहना ही क्या ? पर अल्पऋद्धिक देव के लिए भजना है-वह करे या न भी कर सके। समवसरण की रचना किस स्थान पर होती है ? वह कहते हैं कि जहां तीर्थंकरों को कैवल्यज्ञानोत्पन्न होता है वहां निश्चयात्मक समवसरण होता ही है और शेष पहिले जहां पर समवसरण को रचना नहीं हुई हो अर्थात् जहां पर मिथ्यात्व का जोर हो अधर्म का साम्राज्य वर्त रहा हो, पाखण्डियों की प्राबल्यता हो, ऐसे क्षेत्र में भी देवता समवसरण की रचना अवश्य करते हैं। और जहां पर महाऋद्धिक देव और इन्द्रादि भगवान् को वन्दन करने को आते हैं, वे देवता भी आवश्यकता समझे तो समवसरण की रचना करते हैं जिससे शासन का उद्योत, धर्म प्रचार और मिथ्यात्व का नाश होता है। शेष समय पृथ्वी पीठ और सुवर्णकमल की रचना निरन्तर हुआ करती है जिस पर विराजमान हो प्रभु देशना देते हैं इस प्रकार के समवसरण प्रत्येक तीर्थंकरों के एक केवलज्ञान उत्पन्न हो वहां और एक अन्यत्र एवं दो दो समवसरण तो होते ही है पर इस अवसर्पिणी काल में भ० ऋषभदेव के आठ समवसरण हुए कारण उस समय के लोग प्रायः भद्रिक थे और युगलधर्म को नजदीक समय में ही छोड़ा था अतः उनके लिये खास जरुरत थी तब भ० महाबीर के शासन में १२ समवसरण हए कारण उस सयम मिथ्यत्व का जोर हुआ था यज्ञ वादियों की बड़ी प्राबल्यता थी। अतः बारह समवसरण हुए शेष २२ तीर्थकरों के दो दो ही wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Jain E१४६८ For Private & Personal use Only समवसरण की रचना किस स्थान पर.org Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १५०८-१५२८ , धर्मा ने हुए इत्यादि विस्तार से व्याख्यान करते हुए सूरिजी ने कहा महानुभावों ! तीर्थंकरों का व्याख्यान में दो प्रकार की लक्ष्मी-विभूति होती है १-बाह्य २-अभिन्तर । जिसमें बाह्य तो अष्ट महाप्रतिहार्य होते हैं और अभिन्तर में केवलज्ञान केवलदर्शन । उन लोकोत्तर महापुरुषों की अपेक्षा यहाँ अंश मात्र भी नहीं है । धन्य है उन महानुभावों को कि जिन्होंने तीर्थकर भगवान् के समवसरण में जाकर उनका व्याख्यान सुना है इत्यादि सूरिजी के व्याख्खान का जनता पर काफी प्रभाव हुआ और सब की भावना हुई कि श्रीतीर्थकर भगवान के समवसरण में जाकर उनका व्याख्यान सुने । इस प्रकार प्राचार्य देवगुप्त सूरीश्वरजी महाराज ने २० वर्ष तक शासन की भति उच्च भावना से सेवा की आपने बहुत से मांस मदिरा सेवियों को उपदेश रूपी अमृत पान करवा कर जैनधर्म में दीक्षित किये बहुत मुमुक्षुओं कों श्रमण दीक्षा दी और कईएको श्रावक के व्रत दिये इनके अलावा जैनधर्म को स्थिर रखने वाले जिनालयों की प्रतिष्ठाएं करवाई तथा जन कल्याण को उज्ज्वल भावन को लक्ष में रख तीर्थों की यात्रार्थ बड़े बड़े संघ निकलवा कर भावुकों को यात्रा का लाभ दिया इत्यादि आपश्री के किये हुए उपकार को एक जिभ्या से कैसे कहा जासकता है खैर सूरिजी ने अपनी अन्तिमावस्था में योग्य मुनि को सूरि बनाकर आप अन्तिम सलेखना एवं अनसन और समाधि पूर्वक स्वर्ग पधार गये। पूज्याचार्य श्री के शासन में मुमुक्षुओं की दीक्षाएँ १-नागपुर चोरडिया जाति के शाह पोमा ने सूरिजी के पास दीक्षाली २-जाखोड़ी पोकरणा ३-नन्दपुर सगंण ने ४-कोरंटपुरी जांघड़ा खेमा ने ५-पलडी राखेचा गोमा ने ६-दातरडी सालेचा खीवसी ने ७-चन्द्रावती आर्य नोंधण ने ८-शिवपुरी छाजेड़ खुमाण ने १-ढेज़ीपुर चमना ने १०-मालपुर गोविन्द ने ११-राजपुर भोपाला भूता ने १२-हापड़ विनायकिया चूड़ा ने १३-मानपुर काग चहाड़ ने १४-कुश्मपुर बोत्थरा धोकल ने १५-पारिहका रांका कुम्पा ने १६-गुंदडी देदां ने १७-नारणपुर कुम्मट माधु ने १८-रणथम्भोर नाटा लाधा ने १६-नरवर संचेती डूगर ने २०-कीराटकुंप पारख करमा ने २१-बीरपुर प्राग्वट २२-दान्तिपुर मेकरण ने सूरीश्वरजी के शासन में दीक्षाएं १४६६ सुखा भुरंट हुल्ला ने wwwmamaanana wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwmaw Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २३-राणकपुर २४-सादड़ी २५-चंदपुर २६-पद्मावती २७-भगवानपुर " " " " " " १-भादली २-नादुरकुली ३-खीखोड़ी ४-नागपुर ५-चाचाड़ी ६-रनपुर ७-गाजु ८-गोलु १-दोगण १०-डेढियाग्राम ११-डागीपुर १२-खेतड़ी १३-क्षत्रीपुरा १४-चंद्रावती १५-कुंतिनगरी १६-करणावती १७-भवानीपुर १८-रोलीग्राम १६-भुताग्राम २०-बड़नगर २१-थेरापद्रा २२-राजोड़ो २३-बुचोड़ी २४-मदनपुर २५-धनपुर प्राग्वट जाति के शाह पाता ने सूरिजी के पास दीक्षाली रामा ने राजा ने श्रीमाल दुगो ने " " हीदू ने आचार्यश्री के २० शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएं समदड़िया जाति के शाह चोखाने भ० महा० के मन्दिर की प्र० आर्य अर्जुन ने , " " वीरा ने , " मंत्री सारंग ने ,, पाव पारख मेघा ने तातेड़ नागदेव बाफणा भोजा ने , , छाजेड़ कुम्भा ने , महा० सालेचा समर्थ ने , , के बोहरा नाथा ने भटेवरा गणधर ने " " देसरड़ा मोहण ने , आदी मडोवरा देसल ने , , प्राग्वट रोड़ा ने श्रीमाल देपाल ने ,, अजित शीशोदिया राणा ने , शान्ति करणावट कोला ने नाहटा चतराने हरपाल ने खजानची द्वारका ने प्राग्वट सी ने थ काग भुता ने नेना ने , " १-उपकेशपुर २-माडव्यपुर ३–मेदिनीपुर ४-आघटनगर गोमा ने श्रीमाल रामा ने ,, महावीर , प्राचार्यश्री के २० वर्षों के शासन में संघादि शुभ कार्य के श्रेष्टि जाति के शाह सांगा ने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला के मंन्त्री , प्रभु रघुवीर ने के गुलेच्छ , केसवा ने के बाफणा , शाह जावडा ने सूरिजी के शासन में मन्दिरों की प्रातष्ठाएं १४७० For Private &Personal use only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ दुर्जण ने लुबा ने जुजार ने ५-चित्रकोट के तोडियाणी , भोपा ने ६-उज्जैन के समदडिया , भोमा ने ७-चंदेरी पोकरण ८-मथुरा आर्य कचरा ने ६-चन्द्रावती प्राग्वट १०-लाव्यपुर मंत्री जाति के सम्मेत शिखर का ११-बनारसी श्रेष्टि कुमार ने १२-पद्मावती के श्रीमाल ,, रावण ने शत्रुञ्जय का संघ निकाला १३-रत्नपुर के छाजेड़ , भोमा ने १४-राजपुर के चोरडिया , धरण ने १५-नागपुर के समदड़िया , जैतसी ने १६-नारायणगढ़ के डिडु जाति के शाह रत्नसी ने सं० १११४ का दुकाल में करोड़ द्रव्य व्यय किये। १७-चन्द्रावती के प्राग्वट जाति के भाण ने सं० ११२२ का दुकाल में १८-देवकीपाटण के श्रीमाल जाति के शाह भूता की पुत्री सिणगारी ने तालाब में एक लक्ष द्रव्य लगा। १६-बेनातट के सचेती नरसी की माता रुकमणी ने एक वावड़ी बन्धाने में लक्ष द्रव्य लगाया। २०-वीरपुर का श्रेष्टि जाति के मंत्री राघो युद्ध में काम आया उसकी स्त्री सती हुई। २१-उच्चकोट का आर्य वीरम युद्ध में २२-उपकेशपुर का लघु श्रेष्टि थिरो ,, २३-नागपुर का चोरडिया पेथो , २४-नारदपुरी का प्राग्वट अमरो चार चौरासी घर प्रांगण बुलाकर पांच २ सुवर्ण मुद्रा लाद में दी। २५-शिवपुर श्रीमाल शूरा ने सात वड यज्ञ (जीमणवार ) कर संघ पूजा में सुवर्ण थाली दी। २६-चित्रकोट पोकरणा कुम्मा ने चौरासी न्याति को अपने वहाँ बुलाकर सुवर्ण की कटियों पहरावणी में दी। उनपचासवें पट्ट पारखवर, देवगुप्त सूरीश्वर थे । सिद्धगिरी का संघ साथ में, मैंसाशाह बग्रेश्वर थे । अपमान किया माता का गुर्जर, बदला जिसका जीना था। उद्योत किया सूरि शासनका, अमरनाम शुभ किना या ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के उनपचासवें पट्ट पर महान् प्रतिभाशाली देवगुप्तसूरीश्वर आचार्य हुए। AANAAKAM PuvvvvvwwANN सूरिजी के शासन में तीर्थों के संपादि १४७१ Jain Education Here tonal www.taimentry.org Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्री उपकेश गच्छ में पळूप शाखा-श्राचार्यश्री ककपूरि के अनन्तर श्रीसिद्धसूरि नाम के प्राचार्य हुए। आप सूरि पद के योग्य सर्वगुण सम्पन्न शाक्तिशाली आचार्य थे, पर खटकूप नगर के भक्त श्रावकों के अत्याग्रह से आप खटकूप नगर में कई अर्से तक स्थिरवास करके रह गये । इस पर गच्छ के शुभचिन्तक श्रमणों ने विचार किया कि बिना ही कारण गच्छनायक आचार्य श्रीसिद्धसूरि एक नगर में स्थिरवास कर बैठ गये यह ठीक नहीं किया। इसका प्रभाव अन्य श्रमण समुदाय पर बहुत बुरा पड़ेगा कारण आज तक उपकेशगच्छाचार्यों ने अति विकट एवं दीर्घ विहार करके महाजन संघ का रक्षण, पोषण एवं वर्धन किया है। अब इस प्रकार आचार्यश्री का एक नगर में स्थिर वास कर बैठ जाना उपकेशगच्छ के सञ्चालन में शिथिलता का द्योतक है अतः अवश्य हो आचार्यश्री को भी प्रान्तीय व्यामोह छोड़ कर अपना विहार क्षेत्र विशाल बनाना चाहिये । उक्त अादर्श विचार श्रेणी से प्रेरित हो अग्रगण्य मुनियों ने आचार्यश्री सिद्धसूरि से नम्रता पूर्वक प्रार्थना की-“प्रभो ! क्षमा कीजियेगा, हमें विवश हो आपश्री को एक स्थान पर स्थिरवास को देख कर कहना पड़ता है कि-आप सब तरह से समर्थ शक्तिवंत हैं। अतः पूर्वाचार्यों के अनुपम आदर्श को अभिमुख होकर आपश्री को भी जिनधर्म की प्रभावनार्थ एवं मुनिसमुदाय पर आदर्श प्रभाव डालने के लिये छावश्य ही दोध विहार रखना चाहिये"। इस विनम्र प्रार्थना पर सूरिजी ने न तो लक्ष दिया और न विहार ही किया। इस हालत में श्रमणों ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया -"आपको हर एक दृष्टि सेहि कदम बढ़ाना चाहिये अन्यथा हमें आपश्री के स्थान पर दूसरा आचार्य निर्वाचित करना पड़ेगा।" इस पर भी सूरिजी ने किञ्चित् भी लक्ष्य नहीं दिया अतः श्रमण संघ ने परस्पर परामर्श कर देवविमल नाम सुयोग्य मुनि को सूरि पद से अलंकृत कर आपका नाम श्रीसिद्धसूरि रख दिया ! खटकूध नगर में रहने वाले सिद्धसूरि और उनके शिष्य गण के सिवाय अखिल गच्छ का सञ्चालन कार्य नूतन सिद्धसूरि करने लगे-जो गच्छ का भार वहन करने में सर्वथा समर्थ थे। खटकूप नगर में रहने वाले सिद्धमूरि की आज्ञा में भी बहुत से साधु साध्वी थे पर वे अपने अन्तिम समय में किसी को भी अपना पट्टयर नहीं बना सके अर्थात् बिना सूरि पद अर्पण किये ही आप अकस्मात स्वर्गवासी होगये । अतः भापके विद्वान शिष्य 'यतमहत्तर' ने स्वर्गीय सिद्ध सूरि के गच्छ का सब भार अपने ऊपर लेकर उसका यथानुकूल सञ्चालन करने लगे। यह तो श्राप अच्छी तरह पढ़ते आ रहे हैं कि अब तक उपकेश गच्छ में जितने मत, एवं गच्छादि पृथक २ हए हैं इनमें (समदाय विभिन्नत्व में ) अधिक सहायता श्रावक लोगों की ही है। खटकंग नगर के श्रावक यदि सिद्धसूरि का पक्ष नहीं करते तो इस शाखा का प्रादुर्भाव ही नहीं होता पर काल को ऐसा ही अभीष्ट था । जैसे भिन्नमाल के संघ ने मुनि कुंकुंद का पक्ष कर उनको आचार्य बना दिया तो उपकेश गच्छ में दो शाखाएं होगई । इसी प्रकार खटकूप नगर के श्रावकों ने सिद्ध सूरि का पक्ष किया तो कुंकुंद शाखा के भी दो टुकड़े होगये । एक भिन्नमाल की शाखा दूसरी खटकुम्म की शाखा । इतना सब कुछ होनेपर भी उस समय इतनी मर्यादा तो अवश्य ही थी कि बिना क्रिया अनुष्ठान और बिना किसी योग्य पुरुष द्वारा पद दिये कोई अपने आप प्राचार्य नहीं बन सकता था। यही कारण था कि सिद्ध पूरि के पट्ट पर कोई योग्य आचार्य नहीं बना। केवल यक्षमहत्तर मुनि ने ही उस गच्छ का सब उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया। एक समय यक्षमहत्तर भ्रमन करते हुए मथुरा नगरी की ओर पधारे। वहां किसी नन्नभट्ट नाम के प्रभावक व्यक्ति ने आरण्यक (दिगम्बर) मुनि के पास दीक्षा ली और नगर के बाहर सिद्वान्ताभ्यास कर रहा था जिसको मुनि यक्षमइत्तर ने देखा । उस नग्न मुनि को होनहार समझ कर यज्ञमहत्तर ने उन्हें उपदेश दिया एवं श्वेताम्बर दीक्षा से दीक्षित कर लिया । कालान्तर में नन्नमुनि को सर्वगुण सम्पन्न, गच्छ धुरावाहक समझ कर सिद्धमरि के पटपर उन्हें सूरि बनाकर आपका नाम कमरि रख दिया। आचार्य १४७२ कुंकुंदाचार्य की शाखा से एक और शाखा Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ गृहस्थों को श्रमण दीक्षा देकर अपने गच्छ में श्रमण समुदाय की पर्याप्त वृद्धि की। दीक्षा के इच्छुक उक्त भावुकों में कृष्णार्षि नामका एक प्रज्ञाशील, तपः शूरा विप्रश्रमण भी था । कृष्णार्षि तेजस्वी एवं सर्व कलाकुशल था पर दुर्भाग्य वशात् श्रापकी दीक्षानंतर कुछ ही समय में आचार्यश्री फक्कसूरि का स्वर्गवास होगया। अतः आप उनकी सेवा का ज्यादा लाभ न उठा सके । उस समय यतमहत्तर मुनि अपनी वृद्वावस्था के कारण खटकुंपनगर में ही स्थिरवास कर रहते थे। अतः कृष्णर्षि आचार्यश्री के देहावगमनानन्तर शीघ्र ही चल कर यक्षमहत्तर मुनि के पास आगये। थोड़े समय पर्यन्त वीर मन्दिरस्थ यक्षमहत्तर मुनि की सेवा में रहते हुए कृष्णार्षि ने उपसंपदादि करणीय क्रियाओं का अनुष्ठान किया पर कुछ ही काल के पश्चात् यज्ञमहत्तर मुनि अपने गच्छ का सम्पूर्ण भार कृष्णार्षि को सौंप कर अनशन पूर्वक स्वर्ग पधार गये। कृष्णार्पि ने देवी चक्रेश्वरी के आदेशानुसार चित्रकूट में जाकर किसी आचार्य के पास अपने एक शिष्य को पढ़ाया । उसको सब तरह से योग्य व सर्वगुण सम्पन्न बनाकर आचार्य पद पर स्थापित कर दिया । परम्परानुसार आपका नाम देवगुप्त सूरि निष्पन्न किया । जब गच्छ का सम्पूर्ण भार देवगुपसूरे ने सम्भाल लिया तो कृष्णार्षि स्वतंत्र होकर विहार करने लगे। आर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए एक समय नागपुर में ग्वारे नागपुर निवासियों ने आपका बहुत ही शानदार स्वागत किया। आपने भी अपना प्रभावशाली वक्तृत्व पारम्भ रख्खा । जन समाज बड़े ही उत्साह से प्रति दिन व्याख्यान में उपस्थित होने लगी। आप बड़े ही विद्याबली एवं चमत्कारी महात्मा थे। अतः अपनी चमत्कार शक्ति के अनुपम प्रयोग से नागपुर निवासी सेठ नारायण को जैनधर्म की ओर आकर्षित करके उनके ४०० कुटुम्बियों को जैन धर्मानुयायी बना लिये । श्रेष्टि वर्यश्रीनारायण तो कृष्णार्षि का पूर्ण भक्त बन गया। वास्तव में सर्वत्र चमत्कार को ही नमस्कार किया जाता है । कृष्णार्षि के अनुपम उपदेश को श्रवण करने से नारायण के हृदय में जैन मन्दिर बनाने की पवित्र एवं नवीन भावना ने जन्म ले लिया। अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का सदुपयोग करने में जिन मन्दिर निर्माण को ही उन्होंने सर्वोत्तम साधन समझा । बस, उक्त भावना से प्रेरित हो वह समय पाकर कृष्णार्षि से प्रार्थना करने लगा-गुरुदेव ! मेरी भावना एक जिन मन्दिर बनवा कर द्रव्य का सदुपयोग करने की है। कृष्णार्षि-जहासुह" श्रेष्टिवर्य ! मान्दिर बनवा कर दर्शनपद की आराधना करना श्रावकों का परम कर्तव्य है। पूर्वकालीन अनेक उदार नररत्नों ने जैन मन्दिरों का निर्माण करवा कर पुण्य सम्पादन करने के साथ ही साथ अपने नाम को भी अमर कर दिया। मन्दिर एक धर्म का स्तम्भ है, यह महान् पुण्योपार्जन कारण एवं अनेक भावुकों के कल्याण का साधन है। इस कार्य में जरासा भी विलम्ब करना बहुत विचारणीय है । श्रेष्टि ने भी गुर्वाज्ञा को 'तथास्तु' कह कर शिरोधार्य कर लिया। अपने मनोगत भावों की सिद्धि के लिये बहुमूल्य भेंट को लेकर वहां के राजा के पास गया और मन्दिर के लिये भूमि की प्रार्थना करने लगा राजा पर श्रेष्टि का अच्छा प्रभाव था अतः राजा ने कहा-श्रेष्टिवर्य ! तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो जन कल्याणार्थ मन्दिर बनवाकर आत्म कल्याण कर रहे हो । इस अात्म कल्याण के कार्य में मेरी ओर से तुम्हें भूमि के लिये छूट है । मन्दिर के लिये तुम्हें जो स्थान योग्य मालूम पड़े-तुम प्रसन्नता के साथ आवश्यकतानुकूल परिमाण में ले सकते हो । इस परम पुण्यमय कार्य में इतना हिस्सा तो मेरा भी रहने दो । भूमि के लिये लाई हुई इस भेंट को पुनः लेजाओ । सेठ ने अत्यन्त कृतज्ञता पूर्वक राजा के हार्दिक भावों का अभिनन्दन किया। वह वंदन कर अपने घर आया और अपने गुरुश्री से इस विषय में परामर्श कर नागपुर के दुर्ग में मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया। जब क्रमशः मन्दिर तैय्यार होगया तो नारायण सेठ ने कृष्णार्षि से प्रार्थना की प्रभो ! मन्दिर तैय्यार होगया है। अतः इसकी प्रतिष्ठा करवा कर हमें कृतार्थ करें। आपश्री के मन्त्रों से तो पाषाण भी पूजनीय बन जाता है। कृष्णार्षि ने कहा कि हे-भाग्यशाली ! तुमने बड़ा ही उत्तम कार्य किया है। जब मन्दिर तैय्यार हो मुनि कृष्णर्षि का चमत्कारी जीवन १८५ १४७३ Jain Education Intemational Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गया तो प्रतिष्ठा भी जल्दी ही होनी चाहिये पर श्रेष्टिवर्य ! हमारे पूज्य आचार्यश्री देवगुप्तसूरिजी अभी गुजरात में विचरते हैं अतः प्रतिष्ठा भी उन्हीं पूज्य पुरुषों के हाथ से होना अच्छा है । तुम आचार्यश्री को श्रामन्त्रणपत्र भेज कर यहां बुलाने का प्रयत्न करो। गुरु के वचनों को विनयपूर्वक स्वीकृत कर सेठ नारायण ने अपने पुत्रों को प्रार्थना पत्र के साथ आचार्यश्री के सेवा में गुर्जर प्रान्त की ओर भेजा । उन्होंने प्राचार्यश्री के निर्दिष्टस्थान पर जाकर सूरिजी को प्रार्थना पत्र दिया व नागपुर पधारने की प्राग्रहपूर्ण प्रार्थना की। सूरिजी ने भी लाभ का कारण सोचकर प्रार्थना को स्वीकार करली । आचार्यश्री जय क्रमशः विहार करते हुए नागपुर पधारे तो तत्रस्थ श्रीसंघ एवं * नारायण सेठ ने आपका भव्य स्वागत समारोह किया। तत्पश्चात् शुभ मुहूर्तकाल में सूरिजी एवं कृष्णर्षि ने सेठ के मन के मनोरथ को पूरी करने वाली महामाङ्गलिक प्रतिष्ठा करवाई जिससे जैनधर्म की पर्याप्त प्रभावना हुई । श्रेष्टिवर्य नारायण का बनवाया हुआ मन्दिर इतना विशाल था कि उस मन्दिर की व्यवस्था के लिये ७२ पुरुष व ७२ स्त्रियां सभासद निर्वाचित किये गये । इससे यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि उस समय स्त्रियां भी मन्दिरों की सार सम्भाल में सभासद के रूप चुनी जाती थी। मुनि कृष्णार्षि जैसे उत्कृष्ट तपस्वी थे वैसे विद्यामन्त्र में भी परम निपुण थे। आपने सपादलक्ष प्रान्त में परिभ्रमन करके जैन धर्म का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित कर दिया । क्या राजा और क्या प्रजा ? सब ही आपकी ओर आकर्षित थे। मुनि कृष्णार्षि ने कठोर तप के प्रभाव से बहुत सी लब्धियां प्राप्त करली थी। आपने अपने लब्धि प्रयोग से गिरनार मण्डन भगवान नेमिनाथ के दर्शन कर गुडाग्राम होते हुए मथुरा नगरी के पार्श्वनाथ के दर्शन किये। पश्चात् क्षीर समुद्र के जल सदृश दुग्ध क्षीर से पारणा किया। एकदा कृष्णार्षि ने प्राचार्यश्री देवगुप्तसूरि से प्रार्थना की-पूज्यवर ! आप, अपने पट्ट पर किसी योग्य मनि को सरिमन्त्र की आराधना करवा कर पट्टधर बना दीजिये। इससे गच्छ परम्परा र परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रहेगी। कारण, आचार्यश्री ककसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् भी कई अर्से तक पट्ट खाली रहा फिर मैंने अन्य गच्छियों से आपको सूरिसदाराधन करवाया अतः आप अपनी मौजूदगी में ही योग्य मुनि को सूरिपदारूढ़ करदें तो भविष्य के लिये हितकर होगा। आचार्यश्री देघगुप्त सूरि ने कृष्णार्षि की बात को यथार्थ समझ कर अपने पट्टपर मुनि जयसिंह को सूरि मन्त्र की आराधना करवा कर अपना पट्टधर बना लिया । परम्परानुसार आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया । सिद्धसूरि ने भू भ्रमन कर कई नर नारियों को दीक्षा देकर गच्छ को खूब वृद्धि की । श्रीसिद्धसूरि ने भी अपने वीरदेव नाम के शिष्य को सूरि बनाकर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया । कक्कसूरि ने अपने शिष्य वासुदेव को सूरि बनवा कर उनका नाम श्रीदेवगुप्तसूरि निष्पन्न किया। इस प्रकार इस शाखा में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई पर कलिकाल के इस क्रूर साम्राज्य में एक गच्छ की इस प्रकार वृद्धि होना प्रकृति से असह्य था । परिणाम स्वरूप आचार्यश्री देवगुप्त सूरि के स्थान पर सिद्धसूरि हुए। आप एक समय अमरपुरी सदृश समृद्धिशाली चन्द्रावती नगरी में पधारे । श्रीसंघ ने आपका बहुत ही समारोह पूर्वक शानदार स्वागत किया । आपका व्याख्यान हमेशा होता था जिसका जन समाज पर अच्छा प्रभाव पड़ता था। एक समय आचार्यश्री सिद्धसूरि के शरीर में उज्जवल वेदना उत्पन्न होगई । आपश्री के शरीर की चिन्तनीय हालत को देख कर श्रीसंघ ने आग्रह किया-पूज्यवर ! आप चिरकाल तक शासन की सेवा करते रहें यह हमारी शुभ भावना है फिर भी अपने पट्ट पर किसी योग्य मुनि को पट्टधर बनादें तो अच्छा है। श्रीसंघ की उक्त प्रार्थना पर सूरिजी ने विचार किया शरीर का क्या विश्वास है ? यदि श्रीसंघ का ऐसा आग्रह * भागे चलकर देवी चक्रेश्वरी के वरदान से प्रेष्ठि मारायण की सन्तान वरदिया नाम से प्रसिद हुई। इन्हीं को आज वरदिया कहते हैं। वरदिया का ही वरडिया अपभ्रंश है। इनकी परम्परा में पुनड़शाह बड़ा ही नामी हुभा। १४७४ ... नागपुर के नारायण सेठ के मन्दिर की प्रतिष्ठा Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १५०८ - १५२८ है तो मेरा भी कर्तव्य है कि मैं अपने पट्टपर किसी योग्य मुनि को पट्टधर बना दूं । बस, श्रीसंघ की समुचित प्रार्थना को मान देकर शुभ मुहूर्त में अपने सुयोग्य शिष्य हर्षविमल को सूरिजी ने सूरि पदारूढ़ कर दिया । परम्परानुसार आपका नाम कक्कसूरि रख दिया । अपने पास में साधुओं की अधिकता होने से कक्कसूरि को आसपास में विहार करने की आज्ञा दे दी। सूरिजी के आदेशानुसार नूतनाचार्य भी कई मुनियों के साथ विहार कर गये । कालान्तर में श्रीसिद्धसूरिजी पुण्य कर्मोदय से सर्वथा रोग विमुक्त होगये पर नूतनाचार्य ककसूरि वापिस आकर आचार्यश्री से न मिले इससे सिद्धसूरिजी ने अपने पास के साधुओं को भेजकर ककसूरि बुलवाये पर वे गच्छ नायकजी के बुलवाये जाने पर भी सेवा में उपस्थित न हुए। इस हालत में सूरिजी के हृदय में शंका पैदा हुई कि - मेरी मौजूदगी में भी इनकी यह प्रवृत्ति है तो मेरे बाद ये गच्छ का निर्वाह कैसे करेंगे ? अब पुनः गच्छ के समुचित रक्षण के लिये नूतन आचार्य बनाना चाहिये । बस, श्रीसंघ के परामर्शानुसार आपश्री ने अपने विद्वान एवं योग्य शिष्य श्री मेरुतिल कोपाध्याय को सूरि पद प्रदान कर उनका नाम सूरि रख दिया । तत् पश्चात् आचार्यश्री सिद्धसूरि अनशन पूर्वक चन्द्रावती में स्वर्गस्थ होगये । इस समय सिद्धसूरि के दो पट्टवर हो गये थे । उन दोनों का ही नाम ककसूरि ही था । पहिले सूरि बनाये ये कसूर की शाखा चंद्रावती की शाखा और बाद में बनाये कक्कसूरि की मूल खटकुंप शाखा ही रही। इन दोनों शाखाओं के आचार्यों की पट्टपरम्परा ककसूरि, देव गुप्तसूरि और सिद्धसूरि के नाम से चली आ रही है । चन्द्रावती की शाखा कहां तक चली इसका पता नहीं पर खटकुंप नगर की शाखा तो नंगी पौसालों के नाम से बीसवीं शताब्दी में भी विद्यमान है । खेतसीजी और खीवसीजी नाम के दो यति अच्छे विद्वान एवं प्रसिद्ध इस शाखा में थे । आपकी गादी पर एक यति इस समय भी मौजूद है । इन सिद्धसूरि की सन्तान परम्परा के कई आचार्यों ने मान्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई जिनके शिक्षा लेख मिलते हैं । श्रस्तु । 1 आचार्य श्री कक्कसूरि - मारोट कोट नगर । में जोइया ( क्षत्रिय) वंश का काकू नाम का माण्डलिक राजा राज्य करता था । उसने अपने प्राचीन किले प्रकोट को, अपनी विशाल बल वृद्धि लिये व दृढ़ दुर्ग बनाने के हेतु नींव के लिये भूमि खुदवाई । नींव से भगवान् नेमिनाथ की विशाल मूर्ति निकल आई। प्रभु प्रतिमा को भूगर्भ से निकली हुई देख राजा की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । उसको भविष्य का शुभ शकुन समझ राजा ने विद्वान ज्योतिषी को बुला कर इस विषय में पूछताछ की तो उन्होंने कहा - राजन् कार्यारम्भ में प्रभु प्रतिमा से बढ़कर और क्या शुभ शकुन हो सकता है ? यह तो नगर के व आपके लिये परमहित, सुख, क्षेम एवं कल्याण का कारण है। इस प्रकार अपने मनको पूर्ण संतुष्ट कर राजा ने नागरिकों को बुलवा कर कहा- हमारे सुकृतोदय से प्रत्यक्ष भगवान की प्रतिमा प्रगट हुई है। अतः इसे आप सम्भालें और मेरे द्रव्य से मन्दिर बनवा कर प्रतिमाजी की प्रतीष्ठा करवावें । श्रावकों ने बड़े ही हर्ष के साथ राजा के देशको शिरोधार्य कर लिया। बस, शुभमुहूर्त में शिल्पज्ञ कारीगरों को बुला कर मन्दिर बनाने की आज्ञा दी । कारीगरों ने वृहत् संख्या में मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया और क्रमशः वह निर्विघ्न सम्पन्न भी होगया । मन्दिर बनाने में विशेषता यह थी कि राजा व अन्तःपुर समाज भी अपने महल में रह कर प्रभु प्रतिमा का दर्शन निर्विघ्नतया कर सकता था । इसी सुअवसर पर आचार्यश्री ककसूरिजी का पधारना सिंध प्रान्त में होगया । आचार्यश्री के पदार्पण के शुभ समाचारों को प्राप्त कर राजा की ओर से प्रधान मंत्री और नगर के नागरिक सूरिजी की सेवा में हाजिर हुए । उन्होंने अपने मारोटकोट नगर के सब हाल कह कर प्रतिष्ठा के लिये आग्रह पूर्ण प्रार्थना की। सूरिजी ने भी लाभ का कारण सोचकर श्रीसंघ की प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार करली। आप तत्क्षण मारोट कोट, उक्त प्रार्थनानुसार पधार भी गये। राजा आदि नागरिकों ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया । राजा के त्याग्रह से सूरिजी ने शुभमुहूर्त में बड़े ही समारोह से नेमिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । राजा सिद्धसूरिजी के पट्टपर दो श्राचार्य १४७५ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास की ओर से भगवान की भक्ति के लिये परिकर व पूजा की अत्युत्तम सामग्री का यथोचित प्रबन्ध कर दिया गया। उस समय मारकोट में श्रावकों के चार सौ घर तथा पांच पौषधशालाएं थी। इससे अनुमान किया जाता है कि मारोटकोर एक समय जैनियों का केन्द्र स्थान था। जैनियों की इतनी विशाल आबादी के अनुसार मारोटकोट में इसके पूर्व भी कई मन्दिर * होंगे ऐसा अनुमान किया जाता है । __ मारोटकोट के राजा के बनवाये मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने से राजा प्रजा पर जैनधर्म का बहुत ही प्रभाव पड़ा। यथा राजा तथा प्रजा की लोकोक्तयानुसार राजा ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया तो प्रजा के लिये कहना ही क्या था ? ___ सूरिजी मारोटकोट की प्रतिष्ठा के पश्चात् भ्रमन करते हुए राणकदुर्ग में पधारे। वहां भी आपका व्याख्यान हमेशा हुआ करता था। वहां के राजा सुरदेव भी हमेशा श्रापके व्याख्यान में आया करते थे। सूरिजी ने एकदा मन्दिर बनवाने के कल्याणकारी पुण्य एवं भविष्य के लाभ को बतलाते हुए फरमाया किजहांतक मन्दिर यथावत् बना रहता है वहां तक श्रावक समुदाय उनकी सेवा पूजा किया करता है। उनके इस लाभ का यत्किञ्चित भाग मन्दिर बनाने वाले को भी मिलता है । इसके स्पष्टी करण के लिये मारकोट के राजा का ताजा उदाहरण सुनाया जिससे राजा सुरदेव की इच्छा भी अपनी ओर से मन्दिर बनवाने की होगई । उसने श्रावकों को बुलवा कर अपने निजके द्रव्य से भगवान शान्तिनाथ के मन्दिर को बनाने की आज्ञा प्रदान करदी। बस, फिर तो देर ही क्या थी ? श्रावकों ने यथा क्रमः शीघ्र ही मन्दिर तैय्यार करवा दिया । जब मन्दिर अच्छी तरह से तैय्यार होगया तो राजा ने सूरिजी को बुलवा कर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । इस शुभ कार्य में राजा ने स्वराजकीय प्रभावनानुसार पुष्कल द्रव्य व्यय किया और आने वाले स्वधर्मी बन्धुओं को अच्छी प्रभावना दी। सूरिजी बड़े ही दीर्घदर्शी थे । अतः आपश्री ने पूर्वोक्त दोनों मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाकर उन भपतियों को ऐसा उपदेश दिया कि प्रति वर्ष उन दोनों की ओर से अपने २ मन्दिर में अष्टाह्निका महोत्सव भी होने लगा। राजा ने सूरिजी के सर्व अनुकूल वचनों का देव वाणी के अनुसार सादर स्वीकार कर लिया। आचार्यश्री ककसूरि के पास एक शान्ति नामका मुनि था । वह जैसे विद्वान एवं वक्तृत्वकला में निपुण था वैसे धर्माभिमानी भी था। कभी २ सरिजी के साथ भी वाद करता था पर वह बाद केवल शकवा था अपितु परमार्थिक रहस्य को लिये हुए रहता था। एक दिन गुरु शिष्य मन्दिर के विषय में बातें कर रहे थे, इतने में सूरिजी ने पूछा-शान्ति ! तू भी किसी राजा को प्रतिबोध देकर मन्दिर बनवावेगा ? इसके उत्तर में शान्ति ने तुरन्त उत्तर दिया-पूज्येश्वर ! यदि मैं किसी राजा को प्रतिबोध देकर मन्दिर बनवाऊंगा तो प्रतिष्ठा करने को तो आप पधारोगे न ? सूरिजी ने कहा-बेशक ! बस, फिर तो था ही क्या, शान्ति मुनि ने सूरिजी की आज्ञा लेकर विहार कर दिया। क्रमशः त्रिभुवनदुर्ग में जाकर वहां के राजा को प्रतिबोध दिया। धर्मोपदेश देते हुए मन्दिर के विषय को मुख्य रक्खा । जैन मन्दिर बनवा के अनन्त पुण्योपार्जन करने के किले के खोद काम से भूगर्भ से नेमिनाथ भगवान की जैन प्रतिमा मिली इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि एक समय सिन्ध प्रांत में जैनधर्म राजाओं का धर्म रहा था । आचार्यश्री यक्षदेवसूरि और कक्कसूरि के जीवन वृत्त से स्पष्टतया पाया जाता है कि-सिन्ध प्रान्त में प्रायः राजा प्रजा का धर्म जैनधर्म ही था । आगे चलकर हम इस विषय में बतलावेंगे कि-विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में सिन्ध प्रान्स में केवल एक उपकेश गच्छीय प्रावक के भधिकार में पाँच सो मन्दिर थे। चौदहवीं शताब्दी तक सिंध में लुनाशाह जैसे दानी मानी पुरुष सिंध धरा के अलङ्कार रूप बसते थे। मुसलमानों के करताप यानी तापूर्ण भत्याचार से सिंध प्रान्त का त्याग कर श्रावक लोग मरुधरादि प्रान्तों में चले गये थे। दूसरे मुनियों के विहार का भी अभाव होगया इसी से भाज सिंध धरा जैन समाज विहीन होगई है। १४७६ Jain Education international For Private & Personal श्राचार्य श्री के शिष्य शान्ति मुनि का ताना....ra Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ दृष्टान्त, उदाहरण बतलाये । राजा ने मुनि शान्ति के उपदेश को हृदयङ्गम कर अपने दुर्ग में एक मन्दिर बनवाया। जब मन्दिर तैयार होगया तो राजा ने शान्ति मनि को बलवाकर कहा-गरुव मन्दिर तैय्यार है इसकी प्रतिष्ठा करवाइये । मुनि ने कहा-राजन् ! प्रतिष्ठा तो हमारे प्राचार्य ही करवा सकते हैं। आप आचार्यश्री कक्कसूरि को बुलवाइये। इस पर राजा ने अपने प्रधान पुरुषों को भेजकर सूरिजी को बुलवाया। जय सूरिजी त्रिभुवनदुर्ग में पधारे तो राजा, प्रजा एवं शान्ति मुनि ने गुरुदेव का भव्य स्वागत किया। शान्तिमुनि ने सूरिजी से अर्ज की, आचार्य देव ! मन्दिर तैय्यार है, प्रतिष्ठा करावें । सूरिजी ने धर्म स्नेह से कहा-शान्ति ! तू भाग्यशाली है। सूरिजी ने शुभ मुहूर्त एवं स्थिर लग्न में प्रतिष्ठा करवाकर जैनधर्म की पर्याप्त प्रभावना की । सूरिजी के प्रखर प्रभाववर्धक उपदेश से राजा ने अपने राज्य में सर्वत्र अहिंसा की उद्घोषणा कर जैनधर्म का प्रचार बढ़ाया। अहा-ताना-माना हो तो भी ऐसा हो कि जिससे जैनधर्म की प्रभावना हो । प्राचार्यश्री ने तो केवल ताने में ही शान्ति मुनि को कहा था पर शान्ति मुनि ने तो उसे ही प्रत्यक्ष करके बतला दिया, क्या यह कम महत्व की बात है। उस समय के आचार्य चाहे चैत्य में ठहरते हों पर जैनधर्मानुराग तो उनके नस २ में भरा हुआ था। वे जहां जाते वहां ही नये जैन बना देते । इससे पाया जाता है कि उस समय के आचार्य बड़े ही प्रभावशाली, उप्रविहारी, उत्कृष्टाचारी थे तभी तो राजा महाराजाओं पर उनका प्रभाव पड़ता था। आचार्य ककसूरिजी म० युगप्रवर्तक, महाप्रभाविक आचार्य हुए। आपश्री का जैन समाज पर जो उपकार है वह भूला नहीं जा सकता है। प्राचार्यश्री देवगुप्तसूरि और वीणावाद-चंद्रावती के प्राग्वट वंशीय वीर जगदेव ने आचार्यश्री ककसूरि के उपदेश से दीक्षा ली थी। समयान्तर जब उन्होंने सूरिपद योग्य सम्पूर्ण गुणों को धारण कर लिया तब आचार्यश्री ककसूरिजी म० ने आपको सूरिपद प्रदान कर परम्परानुसार आपका नाम देवगुप्तसूरि निष्पन्न कर दिया। जब आचार्यश्री ककसूरि का स्वर्गवास होगया तत्र गच्छ का सम्पूर्ण भार श्री देवगुप्तसूरि पर था पड़ा। गच्छ का असाधारण उत्तरदायित्व आपके सिर पर था तथापि आप जिनभक्ति में इतने तल्लीन रहते कि कभी २ भक्त्यावेश में बीणा को भी बजाने लगते । या कार्य चारित्र वृत्ति विघातक था। अतः श्रीसंघ के प्रमुख व्यक्तियों ने उनसे कहा-प्राचार्य देव ! यह कार्य आप जैसे महापुरुषों के लायक नहीं है। यदि आपकी भी इस प्रकार की प्रवृत्ति ( साधुधर्म के प्रतिकूल ) हो गई तब तो आपके शिष्य समुदाय पर भविष्य में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ? पर इस प्रकार की विनयपूर्ण प्रार्थना पर अमल करने के बजाय आप अपनी प्रवृत्ति पूर्वापेक्षा भी दूनी रफ्तार से बढ़ाने लगे। विवश सकल श्रीसंघ एक स्थान पर एकत्रित हो आचार्यश्री को वीणा बजाने रूप अनुचित प्रवृत्ति के लिये सख्त उपालम्भ दिया। इस व्यसन को सर्वथा त्याग करने के लिये उन्हें हर तरह से बाध्य किया पर सूरिजी को तो जिनभक्ति रूप गायन व वीणा की झंकार ( जो जिन भक्ति को द्विगुणित करती थी) इतनी प्रिय थी कि वे उसे नहीं त्याग सके । जैसे मदोन्मत्त हाथी अंकुश की किञ्चित भी परवाह नहीं करता उसी तरह सूरिजी ने श्रीसंघ की इस बात पर कुछ भी लक्ष्य नहीं दिया। आचार्यश्री ने प्राग्वट जैसे पवित्र एवं उच्च खानदान में जन्म लिया था। ये स्वभाव से ही गम्भीर एवं शास्त्रमर्मज्ञ थे। वे समझ गये कि वीणावादन शास्त्र निंद्य मुनि नियम विघातक है। मेरी यह प्रवृत्ति साधु धर्म के प्रतिकूल एवं अनुचित है पर अब मेरे से छूटना भी अशक्य है, फिर भी शास्त्र एवं श्रीसंघ के खिलाफ इस प्रकार की प्रवृत्ति रखने में जिन शासन को क्षति ही है । अतः या तो इस हेय प्रवृत्ति को छोड़ना या इस वाणीवाद और आचार्य देवगुप्तसरि १४७७ www.aneitorary.org Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पद का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। इस पर खूब दीर्घ दृष्टि से विचार कर सूरिजी ने संघ के समक्ष गद्गद् स्वर से कडा-महानुभावों में यह जानता हूँ कि मेरी यह प्रवृत्ति सर्वथा अनपादेय है पर अब मैं मेरी आत्मा पर विजय प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ हूँ। मेरी आन्तरिक अभिलापा तो मेरे पद पर अन्य किसी योग्य मुनि को सूरि बना कर अन्य प्रदेश में चले जाने की है जिससे आप (सकल श्रीसंघ ) को सन्तोष हो और मेरी जिनभक्ति में भी किञ्चित् बाधा उपस्थित न हो। आचार्यश्री के एकदम ममत्व रहित वचनों को सुनकर श्रीसंघ को आश्चर्य एवं दुःख हुआ कारण, एक सुयोग्य आचार्य बिलकुल निर्जीव कारण के लिये पद त्याग करें यह सर्वथा विचारणीय था। श्रीसंघ ने सूरिजी को बहुत ही समझाने का प्रयत्न किया पर परिणाम सन्तोषजनक न निकला । लाचार संघ को आचार्यश्री का कहना स्वीकार करना पड़ा । सूरिजी ने भी अपने योग्य शिष्य गुणभद्र मुनि को सूरि पद प्रदान कर परम्परानुसार आपका नाम श्रीसिद्धसूरि रख दिया। आप पदत्याग कर सिद्धाचल पर चले गये और अपनी जिन्दगी शत्रुञ्जय गिरनारादि पवित्र तीर्थों पर तीर्थकरों की भक्ति में ही व्यतीत की। __ कर्म के अकाट्य सिद्धान्तानुसार जिस जिस जीव के जिन २ कर्मों का क्षयोपशम एवं उदय होता है, तदनुसार ही जीव की प्रवृत्तियां होजाती हैं फिर भी जाति एवं कुलका यथोचित प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। श्रीसंघ के उपालम्भ एवं शास्त्र मर्यादा एवं जिन शासन की भावी क्षति को लक्ष्य में रख सूरिजी ने अपना पद त्याग करने में भी विलम्ब नहीं किया । केवल पदत्याग ही नहीं अपितु अपने वेश में भी यथानुकूल परिवर्तन कर डाला । यद्यपि भक्ति करना बुरा नहीं था तथापि साधु कर्त्तव्य के प्रतिकूल होने से आपने साधु वेश का भी त्याग कर दिया। इस घटना का समय पट्टावली में वि० सं० ६६५ का बतलाया है । ये भिन्नमाल शाखा के प्राचार्य थे ऐसा पट्टावलियों में उल्लेख है। आचार्य ककसूरिजी जिस समय डामरेल नगर में जैनधर्म का प्रचार खूब जोरों से बढ़ा रहे थे पर यह बात कई स्वार्थी लोगों से सहन नहीं हुई अतः उन लोगों ने किसी विद्यामन्त्र बादी को डामरेल नगर में बुलवाकर अपना प्रचार-कार्य बढ़ाने का प्रयत्न शुरु किया और भद्रिक जनता को भौतिक चमत्कारों से अपनी ओर आकर्षित भी करने लगा। ठीक है परमार्थ के अज्ञात लोग इस लोक के स्वार्थ में अन्ध बनकर अपने इष्ट में शंका करने लग गये साधारण जनता ही क्यों पर वहाँ के राव हमीर भी उन मन्त्र बादियों के भ्रम चकर में भ्रमित हो गया अतः अग्रेश्वर लोगों ने सूरिजी से प्रार्थना की। इस पर सूरिजी के पास गुणसुन्दर मुनि जो विद्यामन्त्रों का पारगामी था उसको आदेश दे दिया। अतः मुनि गुणसु दर राज सभा में गया और राव हमीर को कहा कि श्राप परम्परा से जैनधर्म के उपासक हैं और आत्म कल्याण के लिये जैनधर्म सर्वोत्कृष्ट धर्म है पर इसके साथ जैनधर्म में विद्यामन्त्र की भी कमी नहीं है यदि आपको परीक्षा करनी हो तो हम तैयार हैं इत्यादि प्रेरणात्मिक शब्दों में रावजी को उत्साहित बनाया इस पर रावजी ने आये हुये विद्यावादियों को कहा और उन्होंने अपनी परीक्षा देने की उत्कएठा बतलाई उन लोगों का ख्याल था कि इतने दिनों में जैन सेवड़े कुछ भी बोल नहीं सके तो अब वे क्या कर सकेंगे। जैन सेवड़े केवल त्याग वैराग्य के ही उपदेशक है इत्यादि ठीक निश्चय दिन दोनों पक्ष के साधु व उनके भक्त लोग गज सभा में उपस्थित हुए और अपने २ विद्यामन्त्र की परीक्षा देनी प्रारम्भ की। पट्टावलीकार लिखते हैं कि विविध प्रकार से प्रयोग किया पर आखिर में विजयमाला जैनों के ही कण्ठ में शोभायमान हुई । यही कारण था कि दूसरे दिन वादी गुपचुप रात्रि में ही पलायन होगया और आचार्य कक्कसूरि अपने शिष्यों के परिवार से वह चातुर्मास डामरेल नगर में ही कर दिया। १४७८ Jain Educaton international For Private & Per विद्यामन्त्र बाद में विजयमाला जैनों के कण्ठ में rainelibrary.org Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १५२८-१५७४ ५०-आचार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज (११ वाँ) सिद्धसूरि रथाज निष्ठ गई शाखा सुरनं महत् , विद्या लन्धि गणेषु लब्ध महिमो वापाख्य नागान्वये । कंदर्पण च निर्मिते सुभवने गच्छीय सूररेयम् , लोके भाव हरेति नामक तया ख्यातस्य चोपद्रवम् । शान्त्वानेक जनाँश्च जैन मतकान् कृत्वा सुधर्मा व्रती, जाताऽनेक जनादृतः शुभ गुणो धर्म प्रभा वर्धकः साहित्यक सुसेवया च समयं नीत्वा व्ययं अव्ययम् दृष्टवा ज्ञान मयेन शुद्ध नयन द्वन्द्वन प्राप्नोसरम् ॥ रम श्रद्धेय, शासन प्रभावक, नाना चमत्कार विद्या-कला विभूषित, दीर्घ तपस्वी, न्याय व्याकरण-काव्य-तर्क छन्द अलंकारादि विविध शास्त्र विशारद चारित्र चूडामणि, उत्कृष्ट क्रियापालक, महोपकारी आचार्यश्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज जैन जगत के के अलङ्कार स्वरूप परमादरणीय-पूजनीय थे। आपने अपनी सकल शक्तियों के संयोग एवं अपार पाण्डित्य के आधार पर जिन-शासन की जो सेवा प्रभावना एवं वृद्धि की है वह निश्चित ही स्तुत्य है। आपके जीवन सम्बन्धी छोटी मोटी चमत्कार पूर्ण घटनाओं का सविशद उल्लेख किया जाय तो सम्भवतः एक खासा मोटा ग्रन्थ तैय्यार हो जाय पर हम उतना लम्बा चौड़ा वर्णन नहीं करते हुए आपके जीवन सम्बन्ध की प्रमुख घटनाओं का हमारे इप्सित उद्देश्यानुसार संक्षिप्त ही वर्णन करेंगे। इन्हीं घटनाओं के श्राधार पर वाचक समुदाय आचार्यश्री के चमत्कार पूर्ण चरित्र का सविशेषानुमान कर सकेगे। भारतीय विविध प्रान्तों में व्यापारादि से समृद्धिशाली, भारत-भू-अलंकार स्वरूप सुविशाल मरुधर प्रान्त जग विश्रुत है । इसी पवित्र मरुभूमि में भिन्नमाल नामक एक ऐतिहासिक नगर था। इसके पूर्व इस नगर का नाम श्रीमालपुर था । लक्ष्मीदेवी वहां की अधिष्ठायिका थी अतः वहां के लोग कोट्याधीश लक्षधीश हो तो आश्चर्य की बात ही नहीं है। दरिद्रय दुःख तो उनसे कोसों दूर भाग गया था। जिस नगर की अधिष्ठायिका ही लक्ष्मी हो वहां दरिद्रता का निवास सम्भव भी कैसे है ? लोग धनधान्य, जन परिवार से समृद्धिशाली एवं पूर्ण सुखी थे। उद्विग्नत एवं खिन्नता के स्थान पर सर्वत्र प्रसन्नता ही दृष्टिगोचर होती थी। भिन्नमाल नगर का प्राकृतिक दृश्य मन मोहक एवं आनंदोत्पादक था। विविध वर्षों से वर्णित प्रासाद श्रेणियों की उतुंगता एवं फल पुष्य पादपय कलि कादि से परिशोभित उपवनों की कमनीयता, कुञ्ज, निकुञ्ज कूप सरोवर वापिकाओं की रमणीयता स्वर्गपुरी के सौंदर्य का स्पर्धा के साथ तिरस्कार कर रही थी । बसन्त ऋतु के सुन्दर समय में आनन्दोन्मत्त कोकिलकाकली, वृक्षों पर बैठी हुई विहंगम राशि कलरव श्रम से अत्यन्त अमित मानव के अथाह श्रम को क्षण भर में अपहरण कर लेता था । विविध ऋतुओं का विविध सौंदर्य निश्चित ही अपूर्व था। ___ पाठक, पूर्व प्रकरणों में पढ़ आये हैं कि आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने सर्व-प्रथम मरुभूमि में पदार्पण मरुधर देश और भिन्नमाल नगर १४७६ Jain Education Internationa Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास किया था । मारवाड़ प्रान्तीय भीमाल ( भिन्नमाल ) नगर में आपने सब से पहिले जैनधन के बीजारोपण किये । राजा जयसेनादि १०००० घरों को परम पवित्र जैनधर्म की दीक्षिा से दीक्षित कर उन्हें सत्पथानुगामी बनाया। इस तरह श्राचार्यश्री के कठोर प्रयत्न से रक्तामिषाहारी भिन्नमाल नगर धर्मपुर बनगया। सर्वत्र जैनधर्म की अहिंसा-पताकाएं दृष्टिगोचर होने लगी। पर काल की कुटिल गति एवं भयानक चक्र से कोई भी सुरक्षित न रह सका । यही कारण था कि कालान्तर में राजपुत्र भीमसेन और चंद्रसेन के परस्पर मनो मालिन्य होगया। बस चन्द्रसेन ने आबू के पास चंद्रावती नगरी बसाई जिससे भीमसेन की धर्मान्धता से पीड़ित जैन जनता नूतन नगरी चंद्रावती में जाबसी। अब तो श्रीमाल नगर में शिवधर्मोपासक ही रह गये । इस हालत में राजा भीमसेन ने अपने श्रीमाल नगर के तीन प्रकाट वनवाये, जिसमें प्रथम पर कोट में कोट्याधीश एवं अर्बपति, दूसरे में लक्षाधीश एवं तीसरे परकोट में सर्व साधारण जनता । इस प्रकार नगर की व्यवस्था कर आपने अपने नाम पर नगर का नाम भिन्नमाल रख दिया । जिस समय का हम इतिहास लिख रहे हैं उस समय भिन्नमाल में पोरवालों श्रीमालों के सिवाय उपकेश वंशीय लोग भी सुविशाल संख्या में आबाद थे और वे जैसे व्यापारी थे वैसे राज्य के उच्च पदाधिकारों पर भी प्रतिष्ठित थे। ये लोग धनाढ्य एवं व्यापार कला पटु थे। इनमें जगत्प्रसिद्ध, नरपुङ्गव भैंसाशाह सेठ भी एक थे। पाठक वर्ग भैंसाशाह की जीवन घटनाओं, व्यापारिक कुशलताओं एवं आपकी माता के द्वारा निकाले गये संघ के वृत्तान्त को तो पूर्व प्रकरणों में पढ़ ही आये हैं । जैन समाज के लिये ही नहीं अपितु समस्त व्यापारी एवं जन साधारण समाज के लिये आप गौरव के विषय थे। आप पर आचार्यश्री ककसूरिजी महाराज एवं आपके पट्टधर श्रीमान् देवगुप्त सूरीश्वरजी महाराज की परम का थी। देवी सच्चायिका का आपको इष्ट था और उसी प्रबल इष्ट के आधार पर आपने कई असाधारण कार्य कर दिखलाये थे । अापने अपने जीवन रंगमञ्च पर कर्म सूत्रधरों का विचित्र २ नाटक देखा उनके भीषण यातनाओं एवं दारिद्रय जन्य असह्य दुःखों को सहन किया पर अपने कर्तव्य मार्ग से किञ्चित भी स्खलित नहीं हुए। आपका ही नहीं पर आपकी धर्मपरायणा धर्म-पत्नी श्रीमती सुगनीवाई का भी इस भयंकर अवस्था में इतना उच्चकोटि का धैर्य्य गुण रहा कि वे दुःखित होने के बजाय समय २ पर अपने पति देव प्रोत्साहन एवं सहायता दिया करती थी । नीतिकारों ने महिलाओं के गुण बतलाये वे सब गुण माता सुगनी में विद्यमान थे। माता सुगनी उदार दिल से प्रत्येक धर्म कार्य में परमोत्साह पूर्वक भाग लिया करती थी। आपका जीवन बड़ा ही शान्तिमय एवं कल्याण की शुभ भावनाओं से ओतप्रोत था। भैंसाशह और सुगनी के सात पुत्र व पांच पुत्रियां थी। इनमें धवल नाम का एक पुत्र बड़ा ही होनहार एवं पुण्यशाली था। भैंसाशाह की सघ अाशाएं उसी पर अवलाम्बित थी । गाईस्थ्य जीवन, सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों एवं व्यापारिक स्थलों में धवल का सहयोग स्तुत्य, प्रशंसनीय एवं आदरणीय था। जिस समय भैंसाशाह की माताने तीर्थ श्रीशत्रुञ्जय का संघ निकाला था और किसी विशेष कारण से भैंसाशाह का संघ में जाना न होसका तब उस विराट् संघ की सब व्यवस्था का भार धवल पर ही अबलम्बित था । धार्मिक कार्य में कुमार धवल की शुरु से ही अभिरुचि थी यही कारण था कि प्राचार्यश्री देवगुप्त सूरि की सेवा भक्ति में धवल सदैव उपस्थित रहता था। आचार्य देवगुप्तसूरि ने धवल की धवल आत्मा जानकर एक दिन उपदेश दिया-धवल ! यदि तू दीक्षा ले लेतो निश्चित ही मेरे जैसा आचार्य होकर संसार का उद्धार करने में समर्थ बन सकता है। धवल-पूज्य गुरुदेव ! मेरा ऐसा भाग्य ही कहां है कि दीक्षा लेकर आपश्री के चरणारविंद की सेवा कर सकूँ । पूज्येश्वर ! हम गृहस्थ हैं और हमारे पीछे उनके उपाधियां लगी हुई हैं, जिनसे मुक्त होना दुःसाध्य १४८० धवल की विमलात्मा पर उपदेश का प्रभाव , Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १५०८-१५२८ है। धन्य है श्राप जैसे त्यागी वैरागी श्रमण निर्ग्रन्थों को जिन्होंने सांसारिक जीवन सम्बन्धी सम्पूर्ण उपाधियों एवं प्रपश्चों का त्याग कर मोक्षमार्ग जैसे उत्कृष्टतम मार्ग आराधन में संलग्न होगये। गुरुदेव ! दीक्षा, कोई साधारण कार्य नहीं है । यह इस्तिों का भार हम जैसे गीदड़ कैसे सहन कर सकते हैं ? सूरिजी-धवल ! तेरा कहना कुछ अंशों में ठीक है कि संसारी जीवों के अनेक उपाधियां लगी रहती हैं और उन उपाधियों से मुक्त होकर सर्वथा स्वतंत्र होने के लिये ही तीर्थंकर देवों ने उपदेश दिया है उनके उपदेश से केवल साधारण व्यक्तियों ने ही नहीं अपितु बड़े २ राजा महाराजा एवं चक्रवर्तियों ने भी सब उपाधियों का त्याग कर दीक्षा स्वीकर की है। हमारे पास में जितने साधु वर्तमान हैं उनके पीछे भी थोड़ी बहुत उपाधियां तो अवश्य थी पर संसार भ्रमन से भयभ्रान्त हो सर्पकंकुलवत् उसका त्याग कर आज प्रमोदपूर्वक मोक्ष मार्ग की आराधना कर रहे हैं । दूसरा दीक्षा का पालन करना कठिन है, यह बात तो सर्वथा सत्य ही है पर जब नरक निगोद के दुखों का श्रवण करेगा तो ज्ञात होगा कि दीक्षा का दुःख उस दुःख के समक्ष नगण्य ही है । तुम तो क्या ? पर सेठ शालीभद्र को तो देखो कि वे कितने सुकुमाल और कितने धनी थे ? पर जब उन्होंने भी ज्ञान एवं अनुभव दृष्टि से संसार के दुःखों का अनुभव किया तब बिना किसी संकोच एवं कठिनाई के सहसा ही संसार सम्बन्धी सम्पूर्ण सुख साधनों का त्याग कर दीक्षा स्वीकार करली अतः आत्म कल्याण की भावना वालों के लिये दीक्षा जैसा कोई सुख ही नहीं है । शास्त्रों में तो यहां तक बतलाया है कि पन्द्रह दिन की दीक्षा वालों को जितना सुख है उतना व्यन्तर देवताओं को भी नहीं है। इस तरह क्रमशः एक वर्ष के दीक्षित व्यक्ति के सुखो की बराबरी सवाथे-सिद्ध महाविमान के अनेक ऋद्धियों के स्वामी देवता भी नहीं सकते हैं। धवल ! जरा गम्भीरता पूर्वक आन्तरिक आत्मा से भात्मिक अनंत सखों का विचार तो कर ! अरे ये पौद्गलिक सुख साधन तो अपनी सीमित अवस्था को लिये हुए ही पैदा होते हैं। अतः सर्व समर्थ साधनों के होते हुए हमें मोक्ष के अक्षय सुखों की प्राप्ति का ही उपाय करना चाहिये जिससे कभी भी हमें सांसारिक जन्म जरा मरण रूप दुःखों का अनुभव नहीं करना पड़े। धवल-गुरुदेव ! श्रापका कहना तो सत्य है, पर यदि मैं दीक्षा लेने का विचार भी करूं तो मेरे मातपिता मुझे कप दीक्षा लेने देबेंगे। सूरिजी-धवल ! तू दीक्षा ले या मत ले; इसके लिये हमारा कोई अाग्रह नहीं है उपदेश देकर किसी भी भव्यात्मा का कल्याण करना हमारा परम कर्तव्य है और उसी कर्तव्य धर्म से प्रेरित हो मैंने तुझे उपदेश दिया है। यदि तेरी आन्तरिक इच्छा दीक्षा लेने की हो तो मेरे अनुमान से भैंसाशाह कभी भी इस पवित्र में अन्तराय नहीं डालेंगे। पहिले तो तू तेरी आत्मा का निश्चय करले । आत्मिक दृढ़ता एवं मनः स्थिरता के बिना संयम साधक वृतियों का निर्वाह सर्वथा दुःसाध्य है। अतः सर्व प्रथम आत्मा को वैराग्य के पक्के रंग से रंगता अनिवार्य है। धवल-गुरु महाराज ! मैंने तो मेरी आत्मा से यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मेरे माता पिता मुझे सहर्ष दीक्षा के लिये आज्ञा प्रदान करेंगे तो मैं बिना किसी हिचकिचाहट के आपकी सेवा में शीघ्र ही भगवती दीक्षा स्वीकार करलूंगा। सूरिजी-धवल ! अपना कल्याण करना यह तो एक साधारण बात है और वह गृहस्थावस्था में रह कर ही सहज साध्य है पर दीक्षा लेकर शासन की सेवा और हजारों का कल्याण करना यह निभित ही विशेष कार्य है । मुझे यह पूर्ण विश्वास है कि तू दीक्षा लेगा तो गच्छाधिपति बनकर अनेक भव्यों का कल्याण करेगा। धवल-तथास्तु गुरुदेव ! इस प्रकार सूरिजी के आदरणीय वचनों को सहर्ष स्वीकार कर आचर्यश्री सूरिजी और धवल के आपस में वार्तालाप ... १४८१ Jain Edation International Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८ - ११२= ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को वंदन किया और तत्काल अपने कार्य में लग गया । इधर सूरिजी के सम्पर्क से धवल की वैराग्य भावना द्विगुणित होने लग गई। जब संघ यात्रा कर पुनः भिन्नमाल आया तब धवल ने अपने माता पिता से कहा - पूज्यवर ! यदि आप आज्ञा प्रदान करें तो मेरी इच्छा सूरिजी के पास दीक्षा लेने की है । पुत्र के इस प्रकार वैराग्यमय वचनों को श्रवण कर धवल की माता को दुःख हुआ पर भैंसाशाह ने तनिक भी रंज नहीं किया। वे तो प्रसन्न चित्त होकर कहने लगे बेटा ! तू भाग्यशाली है। मेरे दिल में केवल एक यही बात थी कि मेरे घर से कोई एक भावुक दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करे तो मैं सर्वथा कृत्यकृत्य होजाऊं कारण अब मेरे यही कार्य शेष रहा है। देख, मन्दिर मैंने बना लिया, और संघ माताजी ने निकाल दिया । सूरिपद का महोत्सव, चातुर्मास एवं आगम भक्ति भी कर चुका हूँ। बस अब यही एक कार्य अवशिष्ट रहा है जिसकी पूर्ति तेरे द्वारा हो रही है। बेटा मेरा कर्तव्य तो यह है कि मैं भी तेरे साथ दीक्षा लूं और दीक्षा अङ्गीकार करना मैं अच्छा भी समझता हूँ पर क्या करूं अन्तराय एवं चारित्र मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से दीक्षा के लिये मेरा उत्साह नहीं बढ़ता । दूसरी मेरी वृद्धावस्था आचुकी है और वृद्धा माता की सेवा करना मेरा परम कर्तव्य भी है। अतः इच्छा के होते हुए मैं दीक्षा के लिये सब प्रकार से लाचार हूँ । अपने पतिदेव के उक्त समर्थक एवं वैराग्यवर्धक वचनों को सुनकर धवल की माता को अतिशय दुःख हुआ। उसने कोप के साथ कहा- आप भले ही धवल को दीक्षा दिलाने का प्रयत्न करें पर मैं धवल को कभी भी दीक्षा नहीं लेने दूंगी | भैंसाशाह ने कहा- मैं धवल की दीक्षा के लिये प्रयत्न नहीं करता हूँ पर धवल का निश्चित विचार दीक्षा लेने का होगा तो मैं अनुमोदन अवश्य करूंगा। आपको भी मोह जन्य प्रेम का त्याग कर मेरी बात का समर्थन करना चाहिये क्योंकि संसार में जन्म लेकर मरने वाले तो बहुत हैं पर अपने माता पिता एवं कुल के नाम को उज्ज्वल करने वाले विरले ही हैं "स जातो येन जातेन याति वंश समुन्नतिम् । परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ " भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र एवं राजा श्रेणिक ने अपने कुटुम्ब को आदेश दे दिया था कि हमारे से तो अन्तराय कर्मोदय के कारण दीक्षा ली नहीं जाती है पर जो कोई दीक्षा लेना चाहता हो उसके लिये हमारी सहर्ष आज्ञा है । दीक्षा का महोत्सव भी हम लोग करने को तैय्यार हैं। भला अपने स्वल्प स्वार्थ के लिये दीक्षा जैसे महत्वपूर्ण कार्य में अन्तराय देना कितनी भूल है ? अब तो आपको प्रसन्न चित्त होकर धवल को दीक्षा की आज्ञा प्रदान करनी चाहिये । इस प्रकार भैंसाशाह ने अपनी धर्मपत्नी को समझाया कि वह भी हर्षल को दीक्षा के लिये आज्ञा प्रदान करने को उद्यत होगई । धर्मनिष्ठ भैंसाशाह ने आचार्यश्री देवगुप्तसूरि की सेवा में जाकर निवेदन किया कि पूज्यवर ! बड़ी खुशी की बात है कि धवल आपश्री के पास दीक्षा लेने चाहते हैं । हमको इस विषय का बड़ा ही गौरव है। आप खुशी से उसे दीक्षा देकर उसका आत्म-कल्याण करें। सूरिजी ने भैंसाशाह के उक्त निस्पृह एवं मोह रहित वचनों सुनकर आश्चर्य किया कि इस प्रकार अपने सुयोग्य पुत्र को दीक्षा के लिये आज्ञा देना इस मोहराजा के साम्राज्य में एक भैंसाशाह ही है। कुछ समय तक गम्भीरतापूर्वक मनन करने के पश्चात् सूरिजी ने कहा- शाहजी ! धवल बड़ा भाग्यशाली है पर आप उनसे भी अधिक पुन्यशीली हैं कि जिससे निर्मोही की तरह अपने पुत्र को सहर्ष दीक्षा के लिये आज्ञा प्रदान कर रहे हैं। आपके जैसे उदार गम्भीर एवं निर्मोही श्रावक संसार में कम ही हैं। इस तरह परस्पर वार्तालाप होने के पश्चात् भैंसाशाह ने जिन मन्दिरों में अष्टा न्हिका महोत्सव करवाना प्रारम्भ किया। सूरिजी ने भी दीक्षा के लिये वैशाख शुक्ला तृतीया का शुभ मुहूर्त निश्चित किया । धवल के अनुकरण रूप में करीब ११ नर नारियां दीक्षा के लिये उद्यत हो गये । भैंसाशाह के १४८२ Jain Education international • साशाह की पुत्रों को दीक्षा की श्राज्ञा For Private & Personal Use On www.jamullalary.org Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ महा-महोत्सव पूर्वक निर्दिष्ट समय पर सूरिजी ने द्वादश मुमुक्षुओं को भगवती जैन दीक्षा देदी और धवल का नाम दीक्षानंतर मुनि इन्द्रहंस रख दिया। इस महा महोत्सव में उदारचित्त दानवीर भैंसाशाह ने पूजा, प्रभावना व स्वधर्मी बन्धुओं को प्रभावना देने में पाँच लक्ष द्रव्य 'व्ययकर कल्याणकारी पुण्योपार्जन किया। इधर मुनि इन्द्रहंस सूरिजी की सेवा में रहकर विनय, वैयाक्तृत्य भक्तिपूर्वक ज्ञान-सम्पादन में संलग्न होगया। आपकी बुद्धि पहिले से ही कुशाग्र थी फिर सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा तब तो कहना ही क्या ? श्राप स्वल्प समय में ही धुरंधर विद्वान हो गये। जैनागमों के अलावा व्याकरण, काव्य, तर्क, छन्द वगैरह के पारंगत हो गये । षट् द्रव्य एवं षट् दर्शनों के तो आप बड़े ही मर्मज्ञ थे कई वादियों के साथ राज-सभाओं में शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजयपताका चारों ओर फहरा दी थी। वादियों पर आपकी इतनी धाक जमी हुई थी कि वे आपके नाम मात्र से दूर २ भागते थे। आचार्य देवगुप्त सूरि धर्मोपदेश करते हुए एक समय जाबलीपुर नगर में पधारे । वहां के श्रीसंघ ने आपका बड़ा ही शानदार स्वागत किया। सूरिजी महाराज ने भी संघ को प्रभावशाली धर्म देशना दी जिसका जन समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। श्रीसंघ के अत्याग्रह से वह चातुर्मास आपने जाबलीपुर में ही किया। श्रापश्री के विराजने से जनता का खूब उत्साह बढ़ गया। श्रेष्टि गौत्रीय शाह निम्बा ने सवालक्ष द्रव्य व्यय कर महा-प्रभावक श्रीभगवती सूत्र का महा महोत्सव किया। वरघोड़ा चढा कर शानदार जलूस के साथ हाथी पर भगवती सूत्र की स्थापना कर चातुर्मास में बांचने के लिये प्राचार्यश्री के करकमलों में समर्पण किया। सूरिजी ने भी अपने अथाह पाण्डित्य व ओजस्वी वक्तृत्वशैली से श्रवणेच्छुक भावुकों को भगवती सूत्र सुना कर जाबलीपुर में नवीन धार्मिक क्रान्ति मचा दी। प्रसङ्गानुसार एक दिन सूरिजी ने परमपावन तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय के महात्म्य का बड़े ही प्रभावो. त्पादक शब्दों में विवेचन किया जिससे सकल श्रोताओं की इच्छा तीर्थ यात्रा करने की होगई । बोथरा गौत्रीय शाह लाखण ने व्याख्यान में ही चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष तीर्थयात्रार्थ संघ निकालने की प्रार्थना की श्रीसंघ ने शाह लाखण को धन्यवाद के साथ सहर्ष संघ निकालने की अनुमति देदी । सूरिजी ने भी शाह लाखण के इस धार्मिक उत्साह की भूरि २ प्रशंसा की। श्रीसंघ से सहर्ष आदेश को प्राप्त कर शाह लाखण यात्रार्थ सामग्री एकत्रित करने में संलग्न होगया । इधर चातुर्मास समाप्त होने के पश्चात् शुभदिन यात्रार्थ प्रस्थान करने का महतं दिया। शाह लाखण ने भी उक्त महर्त के पर्व स्थान २ पर निमंत्रण पत्रिकाएं भेजी व साध साध्वियों की विनती के लिये योग्य पुरुषों को प्रेषित किये । निर्दिष्ट समय पर सब ही निर्दिष्ट स्थान पर एकत्रित होगये । आचार्य श्री के नेतृत्व व शाह लाखण के अध्यक्षत्व में विराट् संघ शत्रुञ्जय की यात्रा के लिये रवाना हुआ। मार्ग में आये हुए छोटे मोटे तीर्थों की यात्रा कर संघ जब शत्रुञ्जय के सन्निकट पहुँचा तक रत्न, मोती व जवाहिरातों से बधाया । क्रमशः शत्रुञ्जय पहुँचते ही पूजा, प्रभावना, अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजा रोहण आदि विपुल धार्मिक कार्यों में विपुल द्रव्य व्यय कर शाह लाखण ने अनन्त पुण्योपर्जन किया। आचार्य देव की वृद्धावस्था व शरीर की अत्यन्त कमजोर हालत को देखकर समयानुसार शाह लाखण ने प्रार्थना की-भगवन् ! आपकी वृद्धावस्था होचुकी है अतः हमारी प्रार्थना है कि शत्रुञ्जय के परम पावन स्थान पर आपके सुयोग्य व विद्वान शिष्य मुनिश्री इन्द्रहंस को आचार्य पद प्रदान किया जावे। हमारी दृष्टि से तो मुनि इन्द्रहंस सब तरह से योग्य हैं फिर आपको जैसा उचित ज्ञात हो । आचयश्री ने भी समयानुकूल की गई शाह लाखण व समस्त श्रीसंध की प्रार्थना को मान देकर शाह लाखण के महामहोत्सव पूर्वक शत्रुञ्जय के पवित्र स्थान पर शुभ दिन मुनि इंद्रहंस को सूरिपद से अलंकृत कर दिया। परम्परानुसार आपका नाम श्रीसिद्धसूरि स्थापित किया। आचार्यश्री सिद्धसूरि के शासन में उपकेशपुर, उपकेशवंशियों का केन्द्र स्थान था। कलिकाल की प्राचार्य देवगुप्तसूरि का जाबलीपुर में पदार्पण ४०.१४८३ary.org Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विकराल-क्रूरदृष्टि के कारण उपकेशवंश में पारस्परिक मनोमालिन्य एवं क्लेश कदाग्रह ने अपना श्रासन जमा लिया था । गृह क्लेश की इस असामयिक जटिलता के कारण कितने ही आत्मार्थी सजनों ने “संकिलेसकरं ठाणं दूरओ परिवजए" इस शास्त्रीय वाक्यानुसार अपना मूल निवास स्थान एवं गृह का त्याग कर निर्विघ्न स्थान पर अपना निवास स्थायी बना लिया था । वास्तव में जिस स्थान पर रहने से क्लेश कदाग्रह वर्धित हो और निकाचित को बन्धन के कारण अपना उभयतः अहित हो ऐसे स्थान को दर से छोड देना ही भविष्य के लिये हितकर है। अहा वह कैसा पवित्र समय था? जन समाज कर्म बन्धन की ऋटिलता से कितना भीरु एवं धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत था ? इस कर्म बंध से डरकर हजारों लाखों की जायदात का त्याग कर देना, तृणवत् मातृभूमि का निर्मोही के समान मोह छोड़ देना, बड़े २ व्यवसाय वाले लक्षाधीश एवं कोट्याधीशों का हजारों वर्षों के निवास स्थान को त्याग कर अपरिचित क्षेत्र में चले आना-साधारण बात नहीं थी। यह तो उन्हीं महानुभावों से बन सकता है जो पाप भीरु एवं धर्मानुरागी हों । उपकेशपुर का त्याग करने वालों में कोट्याधीश श्रीमान् बसट श्रेष्ठिवर्य भी एक थे। श्राप कौटम्बिक क्लेश से उद्विग्न हो कौराटकूप नगर में जा बसे थे। वैसे ही सुचंति कुल दिवाकर शा० कदी मेठ भी अपने कुल-क्लेश के कारण उपकेशपुर का त्याग कर निकल गये थे। आपने क्रमशः अणहिल्लपुर पट्टन तक पहुंचे जब वहां के साघर्मियों को इस बात की खबर मिली तो उन लोगों ने अपने साधर्मी भाई समझ कर सत्र तरह की सुविधा के लिए आमन्त्रण किया सेठजी ने उन साधर्मियों का सहर्ष उपकार माने और उनके आमन्त्रण को स्वीकार भी किया तत्पश्चात उन स्थानीय साधर्मी भाइयों की सलाह लेकर आप बहुमूल्य भेट के साथ वहां के धर्म प्रेमी नरेश महाराजा सिद्धराज जयसिंह के दरबार में हाजिर होकर भेट अर्पण की इस पर राजा ने प्रसन्न हो सेठजी को अपने श्रागमन का कारण पूछा तो सेठजी ने कहा-राजन् ! मैने आपकी बहुत ही समय से कीर्ति सुनी हे। अतः मेरी इच्छा आपश्री की छत्रछाया में रह कर निर्विघ्न समय यापन करने की है। इस समय मैं सकुटुम्ब आपश्री के सुखप्रद राज्य में रहने के लिये ही पाया हूँ। उस समय के नरेश इस बात को भली भांति जानते थे कि उपकेशवंशी लोग बड़े ही धनाढ्य एवं जबरदस्त व्यापारी होते हैं । व्यापार ही राज्य की आमदनी एवं उत्कर्ष का मुख्य जरिया है। इसीसे राज्य को मान प्रतिष्ठा है। यही कारण था कि राजा ने सेठ कदी का बहुत ही आदर सत्कार किया । मकानादि अनुकूल पदार्थों की सगबड़ कर उन्हें सन्तुष्ट किया बस फिर तो था ही क्या ? सेठ कदी ने उपकेशपुर के समान पाटण को ही अपना निवास स्थान बना लिया। पूर्ववत अपना व्यापार क्रम प्रारम्भ कर दिया। पुन्योदय से सेठ कदी,ने ब्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया। पुण्यानुयोग से आचार्यश्री सिद्धसूरिजी का चातुर्मास पाटण में होगया। सेठ कदी सूरिजी का परम भक्त था अतः वह निरन्तर आचार्यश्री के व्याख्यन-श्रवण का लाम उठाता एवं तन, मन, धन से उनकी सेवा भक्ति करता । एक दिन ब्याख्यान में प्रसङ्गानुसार जिनालय निर्माण का विषय चलपड़ा अतः शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर मन्दिर बनाने के अक्षय पुण्य का वर्णन करते हुए सूरिजी ने फरमाया ___ "काउंपि जिणायणेहिं मंडियं सयल मेइणीवर्से । दाणाइचउक्केणवि सुट्ठोवि गच्छिा अच्चुअयंण परउ गोयम गिहित्ति ।।" अथात्-जिनेश्वर भगवान के मन्दिरों से समस्त पृथ्वी को शोभायमान करके तथा दान श्रादि चार प्रकार धर्म का अच्छी तरह सेवन करके श्रावक बारहवें देवलोक तक जासकता है। हे गौतम! उससे ऊपर नहीं जा सकता है । यह तो उत्कृष्ट विधान है पर एक मन्दिर भी बनावे तो भी दर्शनपद की आराधना होजाती है। १४८४ उपकशपुर का सेठ कदी पाटण में Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ ___ इस प्रकार शास्त्रीय प्रमाणों से मन्दिर निर्माण के पुण्य फल का स्पष्टीकरण करते हुए उदाहरण दिया कि-जैसे एक मनुष्य कूवा खोदता है। खोदते समय वह मिट्टी कीचड़ आदि जुगुप्सनीय पदार्थों से अवश्य व्याम शरीर वाला होजाता है पर जब कूवे से पानी वगैरह निकल पाता है तब वह मिट्टी, कीचड़ एवं अन्य घृणास्पद वस्तुओं को हटा कर एक दम निर्मल बना देता है । इतना ही नहीं पर कूए को स्थिरता पर्यन्त कूप निर्माता का नाम भी अमर बन जाता है । कूप के जल का आस्वादन करने वाले उसे शुभाशीर्वाद देते हुए अपनी तृषा को शांत करते हैं उसी प्रकार मन्दिर बनवाने में पत्थर, पानी, चूना, मिट्टी वगैरह पदार्थों की जरुरत रहती है और वे पदार्थ भी सब आरम्भ रूप ही दीखते हैं पर मन्दिर के तैय्यार हो जाने पर जब भगवान की प्रतिमा तख्तनशीन होती है तब निर्मल भक्ति एवं पवित्र भावना के पवित्र जल से उक्त सब पातक (जो भविष्य में पुण्य का हेतु ही है ) प्रक्षालन हो जाता है। इसके साथ ही साथ जब तक वह मन्दिर रहता है तब तक जिनालय निर्माता का नाम अमर हो जाता है। हजारों, लाखों भव्य जीव जिन दर्शन पूजा कर अनेक प्रकार से लाभ हासिल करते हैं। मन्दिर बनाने वाले को धन्यवाद देते हैं और मन्दिर बनाने वाला मी अक्षय पुण्य का भागी होता है । देखिये- सम्राट सम्प्रति को हुए कई शताब्दियां बीत गई पर लोग अभी तक उनके बनवाये हुर मन्दिरों की सेवा पूजा कर अपना कल्याण कर रहे हैं। जिनालय निर्माताओं का पवित्र यशोगान करके अपने कण्ठ को पवित्र एवं उनको ख्याति को अमर कर रहे हैं। श्रावक के कुल में जन्म लिया तो अनुकूल सामग्री के सद्भाव होने पर मन्दिर बनवाना, संघ निकालना, भगवती आदि प्रमाविक सूत्रों को महा महोत्सव पूर्वक बंचवाना, आवायाँ का पद महोत्सव करवाना, स्वामी वात पूजाप्रभावनादि जिन धर्म प्रभावक कार्यों को अवश्य ही करना चाहिये । ये श्रावकों के मुख्य कर्त्तव्य एवं धर्म प्रभावना के प्रधान हेतु हैं। चाहे जब जितना मन्दिर एवं तिल जितनी प्रतिमा ही क्यों न करावे पर अपने जीवन काल में मन्दिर बनवा कर दर्शन पद को आराधना एवं सुलभ बोधित्व पुन्य सञ्चय अवश्य ही करना चाहिये इत्यादि। सूरिजी का प्रभावशाली वक्तृत्व श्रवण कर श्रेष्ठिवर्य कदी की इच्छा एक जिन मन्दिर बनवाने की हुई । समय पाकर कदी सूरिजी के पास आया और विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगा पूज्यवर ! मेरी मानसिक अभिलाषा है कि मैं जिनालय बनवाने में भाग्यशील बन अपने जीवन को कृतार्थ करूं। सूरिजी ने कहा “जहामुहम' पर धर्म कार्य में विलम्ब या विशेष विचार की आवश्यकता नहीं है। उस समय पाटण में राजा सिद्धराज राज्य करता था। जैनाचार्यों का राजा पर गहरा प्रभाव था। सेठ कदपी बहुमूल्य भेंट लेकर राजा के पास गया और भंट को सम्मुख रखते हुए हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। राजा ने कहा-मेठजी ! आपको किस बात की जरूरत है ? सेठ ने कहा-राजन ! परम पूज्य श्राचार्य देव के प्रभाव से मेरी इच्छा मन्दिर बनवाने की हुई है अतः आपश्री से मान्दिर योग्य भूमि की याचना करने के लिये ही मैं आपश्री की सेवा में उपस्थित हुआ हूँ यह सुन राजा के हर्ष की सीमा न रही उन्होंने उत्फुल्ल हृदय से कहा-सेठजी ! इसमें भेंट की क्या आवश्यकता है ? यह तो जैसे आपका कर्तव्य है वैसे मेरा भी कर्तव्य ही है । भला-आप जैसे भाग्यशाली निज के द्रव्य को व्यय कर परमार्थ के लिये मन्दिर बनवाने का अक्षय लाभ प्राप्त कर रहे हैं तो भूमि प्रदान का साधारण लाभ मुझे भी मिलना चाहिये। सेठ-नरेश ! आप परम भाग्यशाली हैं जो इस प्रकार सहानुभूति बतलाकर मेरे उत्साह में वृद्धि कर रहे हैं पर यह भेंट ती केवल मैं मेरे फर्ज को अदा करने के लिये ही नजर कर रहा हूँ न कि, भूमि के मूल्य रूप में। हम गृहस्थ लोगों का यह कर्तव्य है कि देव, गुरु या स्वामी (राजा) के पास जावे तो यथाशक्ति भेट देकर अपना कर्तव्य धर्म पूरा करे। अतः मैंने मेरे कर्तव्य के सिवाय यह कोई विशेष कार्य नहीं किया। इस प्रकार परस्पर सहानुभूति प्रदर्शक श्रेष्ठाचार की बातें बहुत समय तक होती रही। राजा ने भी सेठ कदी की मन्दिर बनाने की भावना . wwwwwwwwwww १४८५ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं०:११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अपनी ओर से मन्दिर के लिये आवश्यक भूमि को प्रदान कर सेठ के गौरव को बढ़ाया । क्रमशः राजा का श्रामार स्वीकार करता हुश्रा सेठ कदी गुरुदेव के पास आकर अपने व नृप के पारस्परिक वार्तालाप को सुनाने लगा। वृत्तांत श्रवण के पश्चात् आचार्यश्री ने कहा-कदी ! तू बड़ा ही भाग्यशाली है । कदी ने भी सूरिजी के वचन को आशीर्वाद रूप में समझ कर शुभ शकुन के भांति गांठ लगादी। साथ ही अविलम्ब चतुर शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलाकर मन्दिर कार्य प्रारम्भ कर दिया। जब मन्दिर के लिये कुछ मुञ्ज वगैरह सामान अन्य प्रदेशों से मंगवाया तो चुङ्गी महकमा के अधिकारियों ने उस माल का टेक्स मांगा । कदी ने कहा-महानुभाव ! यह सामान मन्दिर के लिये आया है अतः इसका हांसिल आपको नहीं लेना चाहिये । धर्म के कार्य निमित्त आने जाने वाली वस्तुओं का टेक्स राजनीति विरुद्ध है, पर महकमा वालों ने हांसिल छोड़ना नहीं चाहा । जहां मन्दिर के लिये लाखों का ब्यय करना स्वीकार किया वहां चुङ्गी का थोड़ासा द्रव्य भारी नहीं था पर कदी ने इससे होने वाले भविष्य के परिणाम को सोचा कि इस प्रकार हांसिल लेना और देना अच्छा नहीं है। यदि कोई साधारण व्यक्ति ऐसा कार्य करे तो उनके लिये कितना मुश्किल है। बस कदी तत्काल पाटण नरेश के पास गया और चुङ्गी महकमे की आय की रकम में कुछ विशेष वृद्धि कर दाण महकमा अपने हस्तगत कर लिर हाथ में लेने के साथ ही साथ यह उद्घोषणा करवादी कि मन्दिर या परमार्थ के कार्य के लिये आने जाने वाली वस्तुओं का अब से हांसिल नहीं लिया जायगा। कदी का प्रारम्भ किया हुआ मन्दिर बहुत ही तेजी के साथ हो रहा था । जब मन्दिर का मूल गम्भारा एवं रंगमएडआदि तैय्यार होगये तो कदी की इच्छा भगवान की अलौकिक प्रतिमा तैय्यार करवाने की हुई । मूर्ति मुख्यतः स्वर्णमय एवं कुछ अंश में पीतल आदि दूसरी धासुमों के मिश्रण से बनाने का निश्चय किया गया । इसके लिये इस कार्य के सविशेष मर्मज्ञों को बुलवाया गया। जिस स्थान पर कदी ने मन्दिर बनवाया था उसके पास ही भावहड़ा गच्छ का प्राचीन मन्दिर था उस समय उस मन्दिर में भावइड़ा गच्छीय वीर सूरि नाम के प्राचार्य रहते थे। शायद उनको इर्षा हुई होगी कि कदी का विशाल मन्दिर बनजाने से हमारे मन्दिर की कान्ति एक दा फीकी पड़ जायगी अतः इस नवीन मन्दिर का बनना उन को खटकने लगा। श्रीवीरसूरिजी बड़े ही चमत्कारी एवं विद्याबली आचार्य थे। उन्होंने इस मन्दिर के कार्य में विन्न करना चाहा अतः इधर तो ४३ अंगुल की मूर्ति बनाकर उस पर अच्छी तरह से लप कर सब प्रकार की तैय्यारी करली और उधर सुवर्णादि सर्व धातुओं का इस अनि प्रयोग से तैय्यार होता कि वीरसूरि अपने मत्र बल से आकाश में बादल बनवाकर केवल उसी स्थान पर जहां मर्ति बन थी वर्षा बरसाना प्रारम्भ कर देता। बप्त रस शीतल हो मन्द पड़ जाता अतः इस दुर्घटना से मूर्ति बन ही नहीं सकी। जब कदी ने किसी अज्ञात कारण को जानकर दूसरी वार रस तैय्यार करवाया पर दूसरी वार भी यही हाल हुआ तब तो उसके दुःख का पारावार नहीं रहा । वह नितान्त उद्विग्न एवं खिन्न होगया। आचार्यश्री सिद्वसूरि के पास आकर विवरा प्रार्थना करने लगा-पूज्यवर ! मेरा ऐसा क्या दुर्भाग्य है कि उज्वल भावना से किया हुआ कार्य भी एक दम माङ्गलिक रूप होने के बजाय विघ्न रूप हो रहा है। यह सुन सूरिजी को भी आश्चार्य एवं दुःख हुआ। उन्होंने शीघ्रता से पूछा-कदी ! ऐसा क्या बिन्न हुआ करता है ? सेठ ने सब हाल अथ से इति पर्यन्त कह सुनाया और प्रार्थना की पूज्यवर ! श्राप जैसे जङ्गम कल्पतरु की विद्यमानता में भा मैं इस कार्य में सफल न होसका तो फिर उसकी आशा रखना ही व्यर्थ है। इधर सूरिजी ने कुछ समय पर्यन्त गम्भीरता से विचार किया तो जान गये कि यह सब दूसरे को उन्नति को नहीं देखने रूप अहिष्णुता का ही परिणाम है। जिस नूतन मन्दिर के लिये खुशी मनानी थी, उत्साहप्रद शुभ वचनों से सेठ जी के उत्साह का वर्धन करना था वहाँ श्री वोरसूरि जैसे प्रभावक महात्मा सुवर्णमय मूर्ति बनाने में वीरसूरि का विन Jain Edu१४८६ For Private & Personal use Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १५०८ - १५२८ को विघ्न करना सूझा ? खैर ! कदर्पी को सूरिजी ने कहा - किसी भी तरह से घबराने की आवश्यकता नहीं इस बार मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। तुम तो अपना कार्य पूर्ववत् प्रारम्भ रक्खो । बस आचार्यश्री के सन्तोषप्रद वचनों को श्रवण कर सेठ कदर्पी ने तीसरी बार क्रिया की और वीर सूरि ने भी अपनी पूर्ववत् प्रवृत्यानुसार पुनः आकाश में बादल बनवाये । इसको देख सिद्धसूरिजी ने मन्त्र बल से उन बादलों को छिन्न भिन्न कर डाले अतः उनका थोड़ा भी प्रभाव प्रतिमा पर नहीं पड़ सका । बस सूत्रधारों ने सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्ति तत्क्षण तैयार करदी । सेठ ने मूर्ति के दोनों नेत्रों के स्थान दो ऐसी अमूल्य मणियां लगाई कि जिनका प्रकाश सहस्ररश्मिवत् रात्रि को भी दिन करने लगा। सेठजी का कार्य निर्विघ्नतया सफल होगया तब वह अञ्जनशलाका एवं प्रतिष्ठा की तैय्यारियां बहुत ही समारोह पूर्वक करने लग गया। आचार्यश्री सिद्धसूरि ने सर्व दोष विवर्जित शुभमुहूर्त दिया तब उक्त मुहूर्त पर खूब धूमधाम से प्रतिष्ठा करवा कर चरमतीर्थङ्कर संग वान् महावीर स्वामी की मूर्ति स्थापित करदी । सेठ कदर्पी ने इस प्रतिष्ठा में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । स्वधर्मी बन्धु को स्वर्ण मुद्रिका की प्रभावना देकर उनका सत्कार किया । उस मन्दिर में जो अवशिष्ट काम रह गया था उसको करवाने में सेठ कदप तो सर्व प्रकार से समर्थ था पर आपके आत्मीय सम्बन्धी बप्पनाग गौत्रीय शा० ब्रह्मदेव ने बहुत ही आग्रह किया कि - " इतना लाभ तो मुझे भी मिलना चाहिये” । अतः शेष रहा हुआ कार्य ब्रह्मदेव सम्पन्न हुआ । अहा ! यह कैसा मान पिपासा की आशा से रहित पवित्र समय था कि एक समर्थ धनाढ्य ने अपने द्रव्य से सम्पूर्ण मन्दिर बनवाया पर थोड़े से कार्य के लिये सहर्ष उदारवृत्ति पूर्वक दूसरे को श्रज्ञा प्रदान करदी । आज सवा सेर घृत की बोली से पूजा करनी हो और दूसरे ने भूल से करली हो तो मन्दिर में ही जंग मच जाता है। इसका मुख्य कारण यही कि आज नाम पैदा करने की कुत्सित भावना ही रह गई है जिसकी पूर्व जमाने में गन्धमात्र भी नहीं थी । श्रतः सेठ कदप के मन्दिर का शेष कार्य ब्रह्मदेव ने सम्पूर्ण करवा दिया । आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज जैसे जैनागमों के पारंगत थे वैसे विद्या मंत्र एवं निमित ज्ञान के भी परम ज्ञाता थे। पास में रहे हुए आचार्य वीर सूरिजी की करामात आपके सामने नहीं चल सकी तब अन्य मतियों के लिये तो कहना ही क्या था यदि उस समय इस प्रकार के चमत्कार एवं विद्याबल न होता तो अन्य मतियों के आक्रमण से जैनधर्म की रक्षा करना एक बड़ा भारो प्रश्न बन जाता जब कि उस समय के साधारण मुनियों के पास भी कई प्रकार की विद्या एवं लब्धियाँ थीं तब आचार्यपद धारक के लिये तो परमावश्यक ही था हो वे अपनी विद्या लब्धियों को काम में ले या नहीं ले पर होना बहुत जरुरी बात थी और इस प्रकार वादियों के आक्रमण से जैनधर्म की रक्षा करसके उनको ही अखिल शासन की जुम्मेवरी का सूरि पद दिया जाता था हम प्राचीन इतिहास को देखते हैं कि कई आचार्यों का पट्ट खाली रह जाता पर वे अयोग्य को आचार्य पद जैसे जुम्मेवरी का पद नहीं देते थे तब ही वे सूरि हो शासन की प्रभावना कर सकते थे जिसमें भी उपकेश गच्छ में तो प्रभु पार्श्वनाथ से एक ही आचार्य होते आये थे हाँ कोई शाखा अलग निकल गई और उनके आचार्य अलग होगये यह बात दूसरी पर उन पृथक् शाखा में भी आचार्य एक ही होता था उन आचार्यों में कितनी योग्यता थी कि वे एक होते हुए भी सर्व प्रान्तों में बिहार करने वाले तमाम साधु साध्वियों की सार सम्भार किया करते थे । आचार्य सिद्धिसूरिजी महाराज महान प्रभाविक युग प्रवर्तक आचार्य हुए आपका विहार क्षेत्र बहुत विस्तृत था आप प्रत्येक प्रान्त में विहार कर जैन धर्म का खूब जोरों से प्रचार किया करते थे शुद्धि की मशीन आपके पूर्वजों से ही चली आ रही थी जहाँ आपका पधारना होता वहां थोड़ी बहुत संख्या में अजैनों को जैन बना ही डालते और उन नूतन जैनों के आत्म कल्याणार्थ जैन मन्दिर एवं ज्ञान प्रचारार्थ पाठशाला आदि स्थापना करना देते उस समय धार्मिक पढ़ाई तो प्रायः जैन मुनि ही करवाते थे जिससे गृहस्थों में सिद्धसूरि का चमत्कार और प्रतिष्ठा १४८७ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विनय भक्ति का व्यवहार बढ़ता रहने से उन लोगों की देवगुरु धर्म पर दृढ़ श्रद्धा बनी रहती थी और थोड़ा भी सज्ञान गुरु गम्यता से लेने से वह जीवन पर्यन्त विस्तार पाता रहता था जब आज हम सबके सब उस समय से विपरीत होना देखते हैं गृहस्थ तो क्या पर जिस गच्छ में एक दो दर्जन आचार्योपाध्याय होने पर भी उनके शिष्य अन्यमतियों के पास पढ़ते हैं। अरे शिष्य ही क्यों पर वे आचार्योपाध्यायजी उन अन्यमतियों के पास पढ़ते हैं न जाने वे शासन का क्या उजाला करेंगे । सबसे पहले तो इस ब्राह्मणी पढ़ाई में जैनधर्म के मूल विनय गुण का ही सर्वनाश हो जाता है कारण एक ओर तो पण्डितजी गादी लगाकर बैठ जाते हैं तब दूसरी ओर मुनि या आचार्यादि जिसमें कौन किसका विनय करे कारण पण्डितजी तो विद्या गुरु होने का घमण्ड रखते हैं तब मुनि या श्राचार्य अपने त्यागवृति एवं संयम का गौरव रखते हैं । भला यह पढ़ाई क्या भाव पड़ती है ? जमाने ने तो यहाँ तक प्रभाव डाला है कि युवा साध्वियाँ भी अन्य मती पण्डितों के पास एकेली बैठ कर पढ़ती हैं। जब कि वे साधु साध्वियों जिनाज्ञा का अाराधना नहीं करके अर्थात् जिनाज्ञा का भंग करके पढ़ाई कर भी ले तो वे सिवाय उदरपूर्ति के अलावा क्या कर सकते हैं ? आज हम देखते हैं कि नये जैन बनाने तो दूर रहे पर जो पूर्वाचार्य बना गये उनका रक्षण भी हमारे से नहीं होता है हाँ समाज में थोड़ी थोड़ी बातों के लिये क्लेश कदाग्रह करके फूट कुसम्प अवश्य फैलाया जाता है और यही उनकी मान पूजा प्रतिष्ठा का मुख्य कारण है इससे ही सबका निर्वाह होरहा है खैर प्रसंगोपात दो शब्द लिख दिये हैं। आचार्य सिद्धसूरिजी महाराज का परोपकारी जीवन पट्टावलीकारों ने बहुत विस्तार से लिखा है पर यहाँ स्थानाभाव मैं इतना ही कह देता हूँ कि प्राचार्यश्री ने अपने ४१ वर्ष के शासन में सर्वत्र विहार कर लक्षों मांस श्राहारियों को जैन धर्म में दीक्षित किये अनेकों को जैन धर्म की श्रमण दीक्षा दी अनेक जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ करवाई कई वार यात्रार्थ भावकों को उपदेश दे श्रीसंघ को तीर्थों की यात्रा का ला यह थी कि श्राप भ० पार्श्वनाथ की परम्परा के होते हुए भ० महावीर की परम्परा के साथ खीर नीर की तरह मिल कर रहते थे खुद आपके भी कई शाखाएँ निकली पर उनके साथ भी आपका द्वितीय भाव नहीं था यही कारण है कि उस समय के साहित्य में किसी के साथ किसी का खण्डन मण्डन का उल्लेख नहीं मिलता है । तब ही तो वे सबको साथ में लेकर जैन धर्म की विजय विजयंति सर्वत्र फहरा रहे थे। प्रसंगोपात हम अन्य गच्छों के आचार्यों द्वारा बनाये हुए नूतन जैनों का संक्षिप्त उल्लेख कर देते हैं। १ कोरंट गच्छाचार्यों के बनाये हुए अजैनों से जैन श्रावकों की जातिये-जैसे उपकेशगच्छाचार्यों ने अजैनों से जैन बनाने की मशीन स्थापन कर लाखों नहीं पर करोड़ों जैनतरों को जैन बना कर जैनधर्म को जीवित रखा है इसी प्रकार कोरंट गच्छाचार्यों ने भी अजैनों को जैन बना कर उनके हाथ बटाये थे।। __ पाठक पिछले पृष्ठों में पढ़ आये हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के छट्टे पट्टधर श्राचार्य रनप्रभूसूरि हुए आपके लघु गुरु भ्राता कनकप्रभूसूरि थे जिनको कोरंटपुर के श्रीसंघ ने श्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किये तब से पार्श्वनाथ परम्परा की दो शाखाएं होगई । जैसे उपकेशपुर के आस पास विहार करने वाले प्राचार्य रत्नप्रभूसूरि की सन्तान उपकेशगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई तब कोरंटपुर के आस पास विहार करने वाले श्राचार्य कनकप्रभसूरि के श्रमण वर्ग कोरंटगच्छ के नाम से मशहूर हुए। और उपकेशगच्छ में आचार्य रत्नप्रभसूरि, यज्ञदेवसूरि, कक्कसूरि, देव गुप्तसूरि और सिद्धसूरि एवं पांच नामों से क्रमशः परम्परा चली आ रही थी। इसी प्रकार कोरंटगच्छ में आचार्य कनकप्रभसूरि, सोमप्रभसूरि, नन्नप्रभसूरि, ककसूरि और सर्वदेवसूरि इन पांच नामों से क्रमशः परम्परा चली आई। इस प्रकार ३५ पट्ट तक तो उपरोक्त दोनों में पांच-पांच नामों से पट्ट क्रम चला आया पर उसके आगे देवी सचायिका के आदेशानुसार उपकेश गच्छ में रत्नप्रभसूरि और यक्षदेवसूरि ये दो नाम रखना बन्द कर दिये अर्थात् उपरोक्त दो नाम भए डार कर दिये कि १४८८ _ अन्य गच्छीय आचार्यों के बनाये श्रावक varnarann Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ घोसवाल सं० १५२८-१५७४ भविष्य में होने वाले आचार्यों के प्रस्तुत दो नाम नहीं रखे जाँग पर ककसूरि देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन नामों से ही परम्परा चले और इसी प्रकार ३५ वें पट्ट के पश्चात् उक्त तीन नाम से ही परम्परा चली आई है इसी प्रकार कोरंटगच्छ वालों ने भी आचार्य कनकप्रभसूरि सोमप्रभसूरि इन दो नामों को भंडार कर शेष आचार्य नन्नप्रभसूरि, कक्कसूरि और सर्वदेवसूरि इन तीन नामों से ही अपनी परम्परा चलाई । आचार्य स्वयं नभसूरि ने श्रीमाल नगर और पद्मावती नगरी में जिन जैन राजा प्रजा को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बनाये थे और आगे चलकर ग्राम नगरों के नाम पर श्रीमाल और प्राग्वट वंश से प्रसिद्ध हुए तब आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के राजा प्रजा के लाखों वीर क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर महाजन संघ की स्थापना की और आगे चलकर समयान्तर में वे उपकेशवंशी कहलाये । उधर श्रीमाल नगर से अर्बुदाचल तक का प्रदेश एवं आचार्य स्वयंप्रभसूरि के बनाये श्रीमाल एवं प्राग्ववंश आचार्य कनकप्रभसूरि और आपकी सन्तान परम्परा के आचार्यों की आज्ञा में रही और उपकेश वंश आचार्य रत्नप्रभसूरि और उनकी परम्परा के आचार्यों की आज्ञा में रहे । आज्ञा का तात्पर्य यह है कि उन लोगों को व्रत प्रत्याख्यान करवाना आलोचना सुनकर प्रायश्चित देना संघादि शुभ कार्यों में वासक्षेप देना और सार सम्भाल, रक्षण, पोषण वृद्धि करना इत्यादि शायद संकुचित दृष्टि वाले इन कार्यों को बाड़ा बन्दी समझने की भूल न कर बैठे पर इन कार्यों को संघ की व्यवस्था कही जा सकती है और इसी प्रकार संघ व्यवस्था चलती रही वहां तक संघ में सर्वत्र सुख, शांति, प्रेम, स्नेह, एकता और संगठन का किला मजबूत रहा कि जिसमें राग, द्वेष, क्लेश कदाग्रह रूप चोरों को घुसने का अवकाश ही नहीं मिला तथा इस प्रकार की व्यवस्था से उन आचायों के अन्दर आपसी प्रेम एकता की वृद्धि होती गई । और इस एकता के आदर्श स्वरूप एक श्राचार्यों के कार्यों में दूसरे आचार्य हमेशा सहायक बन मदद पहुंचाते थे प्राचीन पट्टावलि - यादि ग्रंथों में बहुत से ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि उपकेत गच्छ के आचार्यों ने जिस प्रदेश में विहार किया कि जहां श्रीमाल, प्रावट वंश की अधिक वस्ती थी वहां अजैनों का जैन बना कर उन्हें श्रीमाल, प्राग्वट वंश में शामिल कर दिये और जिन कोरंटगच्छाचाय्यों ने ऐसे प्रदेश में विहार किया कि जहां उपकेश वंश के लोगों की अधिक संख्या थी वहां उन्होंने अजैनों को जैन बना कर उपकेशवंश में शामिल कर दिये थे। हां, ये तो दोनों गच्छ पार्श्वनाथ की परम्परा के थे पर जब हम इतिहास को देखते हैं तब यह भी पता मिलता है कि भगवान् महावीर की परम्परा के आचार्यों ने जहाँ तहाँ अजैनों को जैन बनाये थे वहाँ श्रीमाल, प्राग्वट और उपकेशवंश इन तीनों वंशों में से जिस किसी भी विशेष्ट अस्तित्व होता उनके ही शामिल मिला देते थे । यदि उनके हृदय में संकीर्णता ने थोड़ा ही स्थान प्राप्त कर लिया होता तो वे अपने बनाये श्रावकों (जैनों को जैन ) को पूर्व स्थापित वंशों में न मिला कर अपने बनाए जैनों का एक अलग ही वंश स्थापन कर देते पर ऐसा करने मैं वे लाभ बजाय हानि ही समझते थे उनको बाड़ा बन्दी नहीं करनी थी पर करनी थी जैन शासन की सेवा एवं जैन धर्म का प्रचार । जहां तक दोनों परम्परा के आचायों का हृदय इस प्रकार विशाल रहा वहां तक दिन दूनी और रात चौगुनी जैन धर्म की उन्नति होती रही । जैन जनता की संख्या बढ़ती गई, यहां तक कि महाजन संघ शुरु से लाखों की संख्या में थी वहां करोड़ों की संख्या में पहुँच गई। प्राचीन पट्टावलियों एवं वंशावलियों से हमें यह भी स्पष्ट पता चल रहा है कि उपकेशवंश, श्रीमालवंश और प्राग्वटवंश यह एक ही महाजन संघ की, नगरों के नाम पर पड़े हुए पृथक् २ नाम एवं शाखाएं हैं। परन्तु उन सब शाखाओं का रोटी बेटी व्यवहार शामिल ही था । अरे ! इतना ही क्यों ? पर जिन क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर महाजन संघ में शामिल कर लिया था बाद में भी कई वर्षों तक उनका बेटी व्यवहार जैनोतर क्षत्रियों के साथ में भी रहा था । वे समझते थे कि किसी क्षेत्र को संकीर्ण कर देना पतन का ही कारण है और हुआ भी ऐसा ही ज्यों ज्यों वैवाहिक क्षेत्र संकीर्ण होता गया त्यों त्यों समाज का पतन होता गया । पर पूर्व जमाने में समाज का विहार क्षेत्र hari १४ Patelbrary.org Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की बागडोर प्रायः जैनाचाय्यों के ही हाथ में थी वे लोग जो कुछ करते उसको महाजन संघ शिरोधार्य कर लेता था तथा इस उदारवृत्ति का प्रभाव अन्य लोगों पर काफी पड़ा था जिन जैनेतरों ने जैन धर्म स्वीकार किया था वे केवल धर्म को अपना ही नहीं पर कई लोग अपनी व्यवहारिक सुविधाएं को भी साथ में देखी थी और जैन लोग भी नये जैन बनने वालों को सब तरह की सुविधाएं कर देते थे । कारण उस समय के महाजन संघ के हाथ में एक तो व्यापार और दूसरा राज तंत्र ये दो शक्तियें महान थी कि नये जैन बनने बालों को उनकी योग्यतानुसार किसी भी कार्य में लगा कर उनको सहायता पहुँचा सकते थे । और यह क्रम विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक थोड़ा बहुत प्रमाण रूप में चला ही आरहा था, जिन मांस मदिरा सेवी क्षत्रियों को आचार्यों ने प्रतिबोध देकर जैन बनाये उसी समय उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार बड़े ही उत्साह के साथ चालू कर देते थे इसकी साबूती के लिये भिन्न-भिन्न जाति के राजपूत पृथक २ समय में जैनधर्म स्वीकार किया था पर उन सबका रोटी बेटी व्यवहार अद्यावधि शामिल चला आ रहा है । प्रसंगोपात इतना लिखने के पश्चात् अब हम कोरंटगच्छाचार्यों के बनाये श्रावकों की जातियों की उत्पत्ति का हाल संक्षेप से लिख देते हैं । पहले तो मुझे इस बात का खुलासा कर देना जरूरी है कि उपकेशवंशादि वंश की जितनी जातियां पूर्व जमाने में थी एवं वर्त्तमान में है वे किसी आचार्यों ने स्थापन नहीं की थी न उन जातियों के नाम कारण होने का निश्चय समय ही है ओर न जैनों से जैन बनते ही वे जातियां बन गई थी परन्तु पूर्वाचार्यों ने तो श्रजैन लोगों का अभक्ष खान पान एवं अत्याचार और अधर्म एवं हिंसादि छुड़ा कर जैन श्रावक बनाये थे वह समयान्तर में कई-कई कारणों से जातियों के नामकरण होते गये। जिन कारणों को इसी ग्रन्थ के पिछले पृष्ठों पर हम लिख आये हैं जिज्ञासु महानुभाव पृष्ठ पलट कर देख लें । यह बात भी हम ऊपर लिख आए हैं कि पूर्व जमाने में किसी गच्छ समुदाय के आचार्यों ने अजैनों को जैन बनाये वे पूर्व बनाये हुए वंशों में शामिल कर दिये थे पर अपनी बाड़ा बन्दी के लिये अपने बनाये श्रावकों को पृथक् २ नहीं रखे थे। पर विक्रम की नवमीं दसवीं शताब्दी के आचार्यों के हृदय ने पलटा खाया और वे अपने बनाये श्रावकों को अपने गच्छ के उपासक बनाये रखने को उन नूतन श्रावकों की जातियों को अपने गच्छ के नाम से ओल खाने लगे जिसमें कोरंटगच्छ के आचार्य भो शामिल आजाते हैं । कोरंटगच्छ के आचार्यों के लिये मैं ऊपर लिख आया हूं कि पहले पांच नामों से और बाद में तीन नामों से ही उनकी पट्ट परम्परा चली आई थी। जैसे उपदेशगच्छ की परम्परा पाठकों की सुविधा के लिये यहां दोनों गच्छ के आचार्यों की नामावली लिखदी जाती है इसका एक कारण यह भी है कि जैसे उपकेश गच्छाययों का समय लिखा मिलता है वैसे कोरंटगच्छ के सब आचार्यो का समय लिखा हुआ नहीं मिलता है | अतः उपकेश गच्छाचायों की नामावली साथ में दे देने से कोरटगच्छाचार्यों के समय का भी अनुमान लगाया जा सकेगा । भगवान् पार्श्वनाथ से ३५ वें पट्ट तक तो दोनों गच्छों के आचायों की पांच-पांच नामों से परम्परा चलती आई बाद में तीन तीन नाम से जिनकी नामावली यह दे दी जाती है । १४६० भगवान् पार्श्वनाथ 1 १- गणधर शुभदत्ताचार्य २ - आचार्य हरिदत्तसूरि ३- आचार्य समुद्रसूरि उपकेशगच्छ कोरंटगच्छाचार्यों की नामावली Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धत्रि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ Inmmmniwwwmaniwwwwwwwwwwwwwwwwwww ४-आचार्य केशीश्रमणाचार्य ५-श्राचार्य स्वयं प्रभसूरि ६-आचार्य रत्नप्रभसूरि (१) १-श्राचार्य कनकप्रभसूरि (१) ७-आचार्य मझदेवसूरि २-आचार्य सोम प्रभसूरि ८-आचार्य ककसूरि ३-आचार्य नन्नसूरि ६-आचार्य देवगुप्तसूरि ४-श्राचार्य ककसूरि १०-आचार्य सिद्धसूरि ५-प्राचार्य सर्व देवसूरि ११-आचार्य रमप्रभसूरि (२) ६-आचार्य कनकप्रभसूरि (२) १२-श्राचार्य यज्ञदेवसूरि ७-आचार्य सोमप्रभसूरि १३-आचार्य ककसूरि ८-श्राचार्य नन्नप्रभसूरि १४-आचार्य देवगुप्तसूरि है-आचार्य ककसूरि १५-आचार्य सिद्धसूरि १०-आचार्य सर्व देवसूरि १६-श्राचार्य रमप्रभसूरि (३) ११-आचार्य कनकप्रभसूरि (३) १७-आचार्य यज्ञदेवसूरि ११५ १२-प्राचार्य सोमप्रभसूरि १८-प्राचार्य ककसूरि १५७ १३--आचार्य नग्नप्रभसूरि १६-आचार्य देव गुप्तसूरि १७४ १४-आचार्य ककसूरि १२०-प्राचार्य सिद्धसूरि १७७ १५-आचार्य सर्व देवसूरि २१-आचार्य रत्नप्रभसूरि (४) १६६ १६-आचार्य कनकप्रभसूरि (४) २२-आचार्य यज्ञदेवसूरि २१८ १७-आचार्य सोम प्रभसूरि २३-आचार्य ककसूरि २३५ १८-श्राचार्य नन्नप्रभसूरि २४-प्राचार्य देवगुप्तसूरि २६० ११-आचार्य ककसूरि २५-श्राचार्य सिद्धसूरि २०-आचार्य सर्व देवसूरि २६-श्राचार्य रत्नप्रभसूरि (५) २६८ २१-श्राचार्य कनकप्रभसूरि (५) २७-प्राचार्य यज्ञदेवसूरि ३१० २२-आचार्य सोम प्रभसूरि २८-आचार्य ककसूरि २३-आचार्य नन्नप्रभसूरि २६-आचार्य देवगुप्तसूरि ३५७ २४-श्राचार्य ककसूरि ३०-श्राचार्य सिद्धसूरि २५-श्राचार्य सर्व देवसूरि ३१-आचार्य रमप्रभसूरि (६) ४०० २६-श्राचार्य कनकप्रभसूरि (६) ३२-आचार्य यज्ञदेवसूरि ४२४ २७-आचार्य सोमप्रभसूरि ३३-आचार्य कक्कसूरि ४४० २८-आचार्य नन्नप्रभसूरि ३४-आचार्य देवगुप्तसरि ४८० २१-आचार्य ककसूरि ३५-आचार्य सिद्धसूरि ५२० ३०-आचार्य सर्वदेवसूरि ___ इस समय दोनों गच्छों में आदि के दो नाम भण्डार कर दिये गये । फिर बाद में दोनों गच्छो में तीन-तीन नामों से पट्ट क्रम चला जैसे:३६-श्राचार्य ककसूरि ५५८ ३६-आचार्य नन्नप्रभसूरि उप० गच्छ कोरंठ गच्छाचार्यों की नामावली vate & Personal use Only २८२ ३३६ ३७० १४४ ww.jalnelibrary.org Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास KE Cx ३७-आचार्य देवगुप्तसूरि ६०१ ३७-आचार्य ककसूरि ३८-आचार्य सिद्धसूरि (७) ६३१ ३८-आचार्य सर्वदेवसूरि (७) ५६-आचार्य ककसूरि ६६० ३६-आचार्य नन्नप्रभसूरि ४०-आचार्य देवगुप्तसूरि ६८० ४०-श्राचार्य ककसूरि ४१-आचार्य सिद्धसूरि (८) ७२४ ४१-श्राचार्य सर्वदेवसूरि (5) ४२-आचार्य कक्कसूरि ७७८ ४२--श्राचार्य नन्नप्रभसूरि ४३-श्राचार्य देवगुप्तसूरि ८३७ ४३-प्राचार्य ककसूरि ४४-श्राचार्य सिद्धसूरि (९) ८६१ ४४-आचार्य सर्वदेवसूरि (६) ४५-प्राचार्य ककसूरि ६५२ ४५--प्राचार्य नन्नप्रभसूरि ४६-आचार्य देवगुप्तसूरि १०११ ४६-आचार्य ककसूरि ४७-आचार्य सिद्धसूरि (१०) १०३३ ४७-आचार्य सर्वदेवरि (१०) ४८-आचार्य ककसूरि १०७४ ४८-प्राचार्य नन्नप्रभसूरि ४६ - आचार्य देवगुप्तसूरि ११०८ ४६-श्राचार्य कक्कसूरि ५०-आचार्य सिद्धसूरि (११) ११२८ ५०-श्राचार्य सर्वदेवसूरि (११) कोरंटगच्छ के आचार्यों में ४५ वें पट्ट के पूर्व हुए प्राचार्यों ने अजैनों को जैन बनाए उनको तो वे पूर्व स्थापित उपकेशवंश में ही शामिल मिलाते गये पर ४५वें पट्टधर प्राचार्य से उनके बनाये अजैनों को जैन, जिनकी आगे चल कर जातियां व नाम संस्करण हुए वे जातियां प्रायः अपने गच्छ के नाम से ही रखी गई थी उन जातियों के विषय में ही यहां लिखा जाता है। कोरंटगच्छ के अन्तिम श्रीपूज्य सर्वदेवसूरिजी जिनका प्रसिद्ध नाम अजीतसिंह था वे विक्रम संवत् १६०० के आस पास बीकानेर पधारे थे वहां पर उपकेशगच्छ के श्राचार्य ककसूरिजी विद्यमान थे उन्होंने कोरंटगच्छ के श्रावकों को तथा श्रीसंघ को उपदेश देकर आगत श्रीपूज्य का अच्छा स्वागत सॉभेला करवाया और उनको उपकेशगच्छ के उपाश्रय में ही ठहराया । दोनों गच्छ के श्रीपूज्य एक ही स्थान पर ठहरे इससे पाया जाता है कि उनके आपस में अच्छा मेल मिलाप था । वे कई दिन तक दोनों बीकानेर में श्रीपूज्यजी ठहरे और आपस में बार्तालाप करते रहे जब कोरंटगच्छ के श्रीपूज्य विदा होने लगे तब उनके पास कोरंट गच्छाचार्यों द्वारा प्रतिबोध पाये हुए ३६ जातियों की उत्पत्ति एवं उनकी वंशावली की एक बड़ी बही थी, जो उनके पीछे कोई योग्य शिष्य न होने से उपकेश गच्छाचार्य कक्कसूरिजी की सेवा में भेंट करदी यह उनकी दोघं दृष्टि ही तो थी। वह वही यतिवर्य माणकसुन्दरजी के पास थी। वि० सं० १६७४ का मेरा चातुर्मास जोधपुर में था। उस समय यतिवर्य लाभसुन्दरजी रायपुर से, माणकसुन्दरजी राजलदेसर से, और यतिवर्य चन्द्रसुन्दरजी आदि जोधपुर आये थे और उनसे गच्छ संबंधी वार्तालाप हुआ था। कई प्राचीन पट्टावलियां राजाओं, बादशाहों के मिले फरमान, पट्टे, सनदें वगैरह मुझे भी दिखाये उनके अन्दर कोरंटगच्छाचार्यों की दी हुई वह बही भी थी यद्यपि उस समय इस विषय पर मेरी इतनी रुचि नहीं थी तथापि कोई भी नई बात नोट करलेने की मेरी शुरु से ही श्रादत थी तदनुसार मैंने उनके अन्योन्य लेखों के साथ कोरंटगच्छाचार्यों के प्रतिबोधक श्रावकों की जातियों की उत्पत्ति वगैरह की नोंध मेरी नोंध पुस्तक में करली तदनुसार मैं यहां पर उन जातियों की उत्पत्ति लिख रहा हूँ। Jain E१४६.२rernational कोरंटगच्छाचार्यों की बही..y.org Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ कोरंटगच्छ के पट्ट क्रम में ४५ वें पट्ट पर प्राचार्य नन्नप्रभसूरि एक महान् प्रतिभाशाली प्राचार्य थे आपकी कठोर तपश्चर्या से कई विद्या एवं लब्धियों आपको स्वयं वरदाई थी। आपकी व्याख्यानशैली तो इतनी आकर्षित थी कि मनुष्य तो क्या पर कभी कीभी देव देवियां भी आपकी अमृतमय व्याख्या देशना सुनने को ललायित रहते थे। एक समय आचार्यश्री विहार करने जा रहे थे कि जंगल में आपको कई घुड़ सवार तथा अनेक सरदार मिले क्षत्रियों ने सूरिजी महाराज को नमस्कार किया। सूरिजी ने उच्च स्वर से धर्म लाभ दिया। क्षत्रियों ने-महात्माजी केवल धर्म लाभ से क्या होने वाला है कुछ चमत्कार हो तो बतलाओ । सूरिजी-आप लोग क्या चमत्कार देखना चाहते हैं ? क्षत्रिय-महात्माजी । हम निर्भय स्थान चाहते हैं ? सूरिजी-आप अकृत्य कार्यों को छोड़ कर जैन धर्म की शरण प्रहण करलें आप इस लोक में क्यों भवोभव में निर्भय एवं सुखी बन जाओगे ? क्षत्रिय-महात्माजी! आपके सामने हम सत्य बात कहते हैं कि हम लूट, खसोट कर, धाड़ा डालने का धंधा करते हैं यद्यपि हम इस धंधे को अच्छा नहीं समझते हैं तथापि हमारी आजीविका का एक मात्र यही एक साधन है। सूरिजी-महानुभावों ! इस धंधे से इस भव में तो आप त्रसित हो भय के मारे इधर-उधर भटक रहे हैं तब परभव में तो निश्चय ही दुःख सहन करना पड़ेगा। यदि आप इस भव में और परभव में सुखी होना चाहते हैं तो जैन धर्म की शरण लें। क्षत्री-महात्माजी ! हम जैन धर्म स्वीकार कर भी लें तो क्या आप हमारी सहायता कर सकेंगे। सूरिजी-धर्म के प्रभाव में मैं ही क्यों पर महाजन संघ मी आपकी सहायता कर श्रापको सर्व प्रकार से सुखी बना देगा। क्षत्री-ठीक है महात्माजी ! आपके कहने के अनुसार हम जैन धर्म की शरण लेने को तय्यार हैं तो सूरिजी ने उस जंगल में ही मुख्य पुरुष धूहड़ आदि जितने सरदार उस समय उपस्थित थे उन सब को वास क्षेप और मंत्रों से शुद्ध कर जैन धर्म के देवगुरु धर्म का संक्षिप्त से स्वरूप को समझा कर जैन बना लिये और उस दिन से ही उनको सात दुयसनों का त्याग करवा दिया और उन सरदारों ने भी बड़ी खुशी के साथ सूरिजी के वचनों को शिरोधार्य कर लिया । राव धुवड़ सूरिजी को अपने ग्राम सुसाणी में ले गया और वहां अपने कार्य में शामिल रहने वाले आस पास के सब सरदारों को बुलवा कर सूरिजी की सेवा में उपस्थित किये और सूरिजी ने उन सबों को उपदेश देकर जैन वना लिये इस बात की खबर इधर तो पद्मावती और उधर चन्द्रावती नगर में हुई बस उसी समय सैकड़ो की संख्या में भक्त लोग सूरिजी के दर्शनार्थ आये और उन्होंने सरिजी की भरिभरि प्रशंसा की। इस पर सरिजो ने कहा श्रावको! केवल प्रशंसा से ही काम नहीं चलता है पर जैसे हम लोग उपदेश देकर अजैनों को जैन मनाते हैं आप लोगों को भी उनके साथ सामाजिक म्यवहार कर उनका उत्साह बढ़ाना चाहिये । बस, फिर तो कहना ही क्या था उस समय जैनाचार्यो का उतना ही प्रभाव संघ पर था कि इशारा करते ही उन्होंने सूरिजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर उन नूतन जैनों को सब तरह से सहायता पहुँचा कर अपने भाई बना लिये । वे ही लोग आगे चल कर धाड़ावालों के नाम से ओलखाने लगे बाद धाड़ा का धाड़ीवाल शब्द बनगया।। ___ इसी प्रकार एक समय धुवड़ ने पाकर प्राचार्यश्री से अर्ज की कि हे प्रभो! आज माघ कृष्णा त्रयोदशी है बहुत से लोग रातड़िया भैरूं के स्थान पर एकत्र होकर बहुत से भैसों और बकरों को मार कर भैरूं का धाड़ीवाल जाति की उत्पति १४६३ Jain Education international Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 1 मेला मनावेंगे । इत्यादि राव धुवड़ के शब्द सुन कर दया के दरियाव आचार्य ननप्रभसूरि धुवड़ादि कई भक्त लोगों को साथ लेकर पहाड़ों के बीच रातड़िया भैरूं के स्थान पर आये वहां पर देखा तो चारों ओर मानव • मेदिनी मिली हुई है बहुत से भैरूं भक्त वाममार्गियों के नेता लोग गेरु रंगीन लाल वस्त्र पहिने हुए कमर में बड़े • बड़े घूरे लगाये हुए और मदिरा पान में मस्त बने हुए तीक्ष्ण रे हाथों में लिये हुए भैरूं के मन्दिर के बाहर खड़े थे । भैसों और बकरों के गले में पुष्पों की माला डाली हुई थी और भैरू पूजा की तय्यारी होरही थी कि सूरिजी वहां पहुँच गये। बस सूरिजी को देखते ही उन पाखण्डियों का क्रोध के मारे शरीर लाल बंबुल होकर कम्पने लगा। राव धुवड़ ने आकर सूरिजी से कहा प्रभो ! मामला बड़ा विकट है मुझे भय है कि पाखण्डी लोग मंदिर में मस्त बने हुए कहीं आपकी आशातना न कर बैठे। अतः यहाँ से चल कर अपने स्थान पर पहुँच जाना चाहिये। सूरिजी ने कहा धुवड़ घबराते क्यों हो मनुष्य मरना एकबार ही है आप जरा धैर्य रखो । बस ! अहिंसा के उपासक सूरिजी के पास श्राकर एक वृक्ष की छाया में बैठ गये । सूरिजी ने अम्बा देवी का मन से स्मरण किया तत्काल देवी आदर्शत्व सूरिजी की सेवा में आ उपस्थित हुई। सूरिजी ने कहा- तुम्हारे जैसी समग्दृष्टि देवियों के होते हुए भी इस प्रकार के घोर अत्याचार होते हैं। क्या ऐसे निर्दयी मनुष्यों को तुम शिक्षा नहीं दे सकती हो ? देवी ने कहा हे प्रभो ! इन लोगों के आधीन नीच हलके देव देवी . रहते हैं. उन हलके देवों का सामना करने से देव समुह हमारी इज्जत हलकी समझते हैं। अतः इनकी उपेक्षा ही की जाती है। सुरिजी ने कहा कि खैर, इस विषय में तो फिर कुछ कहेंगे पर यह जो मेरे सामने अत्याचार हो रहा है इसका तो निवारण हो ही जाना चाहिये। देवी ने सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य करली। जब वे लोग भैरू के सामने भैंसे बकरे लेजाकर मारने के लिये तलवारें, छुरे और भाले हाथों में लेकर हाथ ऊंचे उठाये तो हाथ ऊंचे के ऊंचे रह गये और भैरू की स्थापन (मूर्ति) से आवाज निकली कि मैं इस बलि को नहीं चाहता हूँ इन सब पशुओं को यहाँ से शीघ्र छोड़ कर मुक्त करदो वरन मैं तुम्हारा ही भोग लूंगा । सब उपस्थित लोग विचार करने लगे कि अपनी वंश परमपरा से वर्ष में इसी दिन भैंरूं की पूजा की जाती है, बलि न देने पर बड़ा भारी क्षोभ रहता है आज यह क्या चमत्कार है कि एक तरफ हाथ ऊंचे रह गये और दूसरी ओर स्वयं भैरूं बोल कर कहता है कि इन पशुओं को छोड़ दो इत्यादि । पर कई लोगों ने कहा कि अरे एक जैन सेबड़ा यहाँ आकर बैठा है यह सब उसी की तो करामात न हो ? बस, जितने लोग वहां थे उन सबके जच गई कि दूसरा कारण हो ही नहीं सकता है। अतः कुछ आगेवान चलकर सूरिजी के पास आये और प्रार्थना की कि आपने यह क्या किया है? आपने हमारे वंश परम्परा से चले आये हुए मेले को बन्द कर दिया ? सूरिजी ने कहा कि सब लोगों को यहां बुलालो फिर मैं उत्तर दूंगा । बस सब लोग सूरिजी के पास श्रागये । तब सूरिजी ने उन लोगों को उपदेश दिया कि महानुभावो ! आपके लिये संसार में बहुत से पदार्थ हैं। गुड़, खांड, घृत, दूध, मेवा मिष्ठान्न फिर समझ में नहीं आता कि आप लोगों की अमूल्य सेवा करने वाले अबोल पशुओं के कोमल कंड पर निर्दयता पूर्वक छूरा चला कर क्यों मारते हो ? क्या इस अनर्थ का भावान्तर में आपको बदला नहीं देना पड़ेगा पर जब भावान्तर में आपके गले पर इसी प्रकार का छूरा चलेगा तब आपको मालूम होगा कि जीवों की हिंसा के कैसे कटु फल लगते हैं इत्यादि । ऐसा उपदेश दिया कि सुनने वालों की आत्मा भय के मारे कम्पाने लग गई। वे लोग बोले कि महात्माजी ! हम लोग तो हमारी जिन्दगी में इस प्रकार देवी देवताओं को एक वर्ष में कई स्थानों पर बलि दी है क्या इन सबका फल हमें नरक में भुगतना ही पड़ेगा । सूरिजी ने कहा कि तुम बाजार से व्यापारी की दुकान से उधार माल लाते हो एक बार या अनेक बार । ऐसे कर्जे को आप चुकाते हो या नहीं अर्थात् वे उधार देने वाले अपनी रकम आप से वसूल करते हैं या नहीं ? सब लोगों ने कहा हाँ, करजा तो चुकाना ही पड़ता है । तब यह भी तो एक कर्ज ही है इसको भी अवश्य चुकाना पड़ेगा। याद रखो आज तुम मनुष्य हो और यह जीव पशु है पर भावान्तर में यह पशु रातड़िया जाति की उत्पतिary.org १४६४ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ श्रसवाल सं० १५२८- १५७४ यदि मनुष्य बन जायगा और तुम पशु बन जाओगे तो क्या वे तुम्हारे कंठ पर छूरा नहीं चलावेंगे इत्यादि । इस पर वे पातकी लोग पराभव के पाप से डर कर बोले कि महात्माजी ! इसका उपाय भी है कि हम इस पाप से बच सकें ! सूरिजी ने कहा कि आपके लिये यही एक उपाय है कि आप इन सातों दुर्व्यसनों को त्याग कर हिंसा धर्म का पालन करो और जहां ऐसा हलका कार्य होता हो वहाँ पर जाकर प्रेम पूर्वक रोको और जीवों को अभयदान दिलाओ। ठीक है सब जीवों के शुभोदय होता है तब उनको निमित्त कारण भी वैसा ही मिल जाता है सूरिजी ने उन सैकड़ों सरदारों को वासक्षेप एवं मंत्रों से शुद्धि कर जैनी बना लिये वे ही लोग भैरू की नाम स्मृति के कारण रातड़िया कहलाये | और अन्य देव देवियों के बजाय उनके कुत्त देवी देवी की स्थापना करदी इत्यादि । उन आचार्यों के एक तो पुण्य बल जबर्दस्त थे दूसरी उनकी साधना इतनी जबर्दस्त थी कि समय पर देव देवी उनके कार्य में सहायता कर दिया करते थे । जब आचार्य श्री को अपने किये कार्य में आशातीत सफलता मिलती गई तो उनका उत्साह बढ़ जाना स्वभाविक ही था । आचार्य श्री इसी कार्य पर उतारू हो गये कि देवी देवताओं के नाम पर होने वाली घोर अहिंसा बन्द करवा कर वीर क्षत्रियों को जैन धर्म में दीक्षित कर समाज की संख्या बढ़ानी । जब पाखण्डियों को इस बात की खबर लगी कि जैन सेवड़े तो अब ग्रामों एवं जङ्गलों में फिर २ कर लोगों को जैन बना रहे हैं और इस प्रकार इनका प्रचार होता रहेगा तो अपनी तो सब की सब दुकानदारी ही उठ जायगी । इसके मुख्य कारण दो हैं । एक तो म्लेच्छों के आक्रमणों से भी देश में त्राहि त्राहि मच गई थी । दूसरा कारण कई काल-दुष्काल भी ऐसे ही पड़ते थे कि लोगों की आर्थिक स्थिति विकट बन गई थी । जैनों के पास पुष्कल द्रव्य होने से वे लोग धन का लालच देकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं तो अपने को भी कहीं पर एक सभा करके अपने धर्म का रक्षण करना चाहिये इत्यादि । इस उद्देश्य से वाममार्गियों के बड़े २ नेता और उनके भक्त लोगों की एक सभा आबू के पास पृथ्वीपुर में जहाँ कि महादेवजी का एक बड़ा ही धाम था जब इस बात की खबर आचार्य नन्नप्रभसूरि को लगी तो वे आप भी पृथ्वीपुर दो कोस सीरोल ग्राम में जहाँ महाजनों के कई सौ घर थे वहाँ धर्म महोत्सव के नाम पर बहुत से ग्रामों में आमन्त्रण देकर भावुक लोगों को एकत्रित किये । बस, दो कोस के फासले पर दोनों धर्मों की सभाओं का आयोजन होगया पर गृहस्थ लोग तो आपस में मिलना भेटना बार्तालाप करना एवं धर्म के विषय में भी थोड़ी थोड़ी चर्चा करने लग गये । पर कई लोगों की यह भी इच्छा हुई कि अलग २ सभाएँ करके लोगों को क्यों लड़ाया जाय । दोनों धर्मों के आगेवान ही एकत्र हो धर्म के विषय में निर्णय क्यों नहीं कर लिया करें कारण गृहस्थ लोग तो हमेशा अज्ञानी होते हैं उनको तो उपदेशक जिस रास्ते ले जाय उस रास्ते ही चले जा सकते हैं। ठीक दोनों ओर के गृहस्थ लोग मिलकर पहले तो आचार्य नन्नप्रभसूरि के पास श्राये और प्रार्थना की कि आप दोनों तरफ के महात्मा एकत्र हो धर्म का निर्णय क्यों नहीं कर लेते हो ? सूरिजी ने कहा हम तो आपके कथन को स्वीकार कर लेते हैं और हम इसके लिये तय्यार भी हैं। बस, बाद में वे लोग चल कर शिवोपासक वाममार्गी एवं ब्राह्मणों के पास आये वहां भी वही अर्ज की पर वे लोग यह नहीं चाहते थे कि हम जैनों के साथ वाद विवाद करें वे तो अपने ही भक्त लोगों को अपने धर्म में स्थिर रहने की कोशिश करते थे पर जब उन लोगों के भक्तों ने एवं वाममार्गियों ने अधिक जोर दिया लाचार होकर उनको भी स्वीकार करना पड़ा। बस, नियत समय पर दोनों ओर के मध्यस्थों के बीच धर्म के विषय में शास्त्रार्थ हुआ जिसमें जैनों का पक्ष तो हमेशा अहिंसा का रहा तब वाममार्गियों एवं ब्राह्माणों का पक्ष तो क्रियाकांड, यज्ञ, होम, देव देवियों को बलि देने का ही रहा था युक्ति प्रयुक्ति भी अपने-अपने मत की पुष्टि के लिये ही कही जाती थी आखिर में हिंसा के सामने हिंसा का पक्ष कहां तक ठहर सकता था । ज्यों ज्यों वाद विवाद में ऊंडे उतरते ये त्यों त्यों हिंसा का पक्ष निर्बल होता गया । आखिर में विजयमाल अहिंसा के पक्ष में ही शोभायमान संखलेचा जाति की उत्पति Jain Education १४६५ www.ainelibrary.org Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास होती नजर भाई हिंसा के पक्ष में पृथ्वीपुर का राव सांखला अग्रेश्वर था उसकी समझ में आया कि हिंसा कभी धर्म का कारण हो ही नहीं सकता है दूसरा जैन निर्ग्रन्थों का आचार विचार परोपकार की तीब्र भावना और उनका निस्पृहता ने रावजी पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा । रावजी ने सूरिजी से आत्मकल्याणार्थ धर्म स्वरूप पूछा उत्तर में सूरिजी ने अहिंसा परमोधर्मः का विस्तृत विवरण के साथ स्वरूप बतलाया और साथ में देवग रु धर्म का भी ठीक २ विवेचन किया और कहा रावजी आत्म कल्याण के लिये सबसे पहले तो देवगुरु पर श्रद्धा होनी चाहिये तब जाकर धर्म के ऊपर निश्चय परिणाम स्थिर हो सकता है। अब आप स्वयं प्रज्ञावान हैं विचार करलो कि कौन से देवगुरूजी की उपासना करें कि जिससे आत्मा का कल्याण हो सके ? रावजी ने ठीक समझ लिया कि सिवाय परोपकार के सूरिजी ने अभी तक तो कोई भी बात स्वार्थ की नहीं कहीं है इनका प्राचार तो वहाँ तक है कि इनके लिये बनाई गई रसोई या इनके लिए सामान लेकर आवे । इनके काम की नहीं। इससे अधिक त्याग क्या हो सकता है। इनकी तपश्चर्या भी बड़ी कठोर है कि अन्य किसी के मत में देखने में नहीं आती है इत्यादि विचार कर रावजी अपने सकुटुम्ब एवं अपने बहुत से साथियों के साथ सूरिजी के चरण कमलों में श्रद्धापूर्वक जैन धर्म को अङ्गीकार कर लिया। राव सांखला ने अपने वहां भगवान पार्श्वनाथ का उतंग मन्दिर बनवाया जिस पर सुवर्ण कलस चढ़ा कर प्रतिष्ठा करवाई । रावजी ज्यों ज्यों धर्म कार्य में आगे बढ़ते गये त्यों त्यों उनके पूर्व संचित पूण्य भी उदय होते गये रावजी को प्रत्येक कार्य में अधिक से अधिक लाभ मिलता गया साथ में प्राचार्यों का उपदेश भी मिलता गया इधर महाजनसंघ के साथ भी रावजी का सब तरह का व्यवहार होने लगा । एक वार राव सांखला ने सूरिजी को बुला कर प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरा विचार तीर्थ यात्रा करने का है। अतः संघ निकाला जाय तो और भी हमारे हजारों भाइयों को तीर्थयात्रा का लाभ मिल सकता है। अतः आपकी इसमें क्या सम्मति है । सूरिजी ने कहा रावजी ! श्राप बड़े ही भाग्यशाली हैं, गृहस्थ का तो यह खास कर्त्तव्य ही है कि साधन सामग्री के होते हुए तीर्थयात्रा अवश्य करे और अपने साधर्मी भाइयों को भी यात्रा करावें । बस, फिर तो था ही क्या रावजी ने बड़े ही पैमाने पर संघ निकालने की तैयारियां शुरू करवा दी और सर्वत्र आमंत्रण भी भिजवा दिये। ठीक समय पर सूरिजी ने वासक्षेप के विधि विधान से राव सांखले को संघपति पदार्पण कर संघ निकाला । सर्व तीर्थों की यात्रा कर, संघ के वापिस आने पर सामीवात्सल्य कर साधर्मी भाइयों को पहरावणी देकर विसर्जन किये । उसी दिन से ही राव सांखला की सन्तान सखलेचा के नाम से प्रसिद्ध हुई और आगे चल कर उनकी जाति ही सखलेचा हो गई। इस संखलेचा जाति का भाग्यरवि इतने प्रताप से तपने लगा कि इनकी संतान की बहुत वृद्धि हुई और व्यापारार्थ एवं राजमान से अनेक स्थानों में वटवृक्ष की तरह फैल गई। इस जाति में बहुत से दानी मानी उदार एवं नररत्न हुए हैं कि देश-समाज एवं धर्म की बड़ी सेवाएं कर अपनी उज्ज्वल कीर्ति को अमर बना दी थी इस जाति में कईयों ने कांसी पीतल के बरतनों का काम किया वे कासटिये कहलाये । कइयों ने राज के कोठार का काम किया जिससे कोठारी कहलाये। कई हाला ग्राम को छोड़ आने से हलखंडी कहलाए । कई विराट संघ निकालने से संवी कहलाए । कइयों ने राज के खजाने पर काम किया जिससे खजांची कहलाये इत्यादि । एक ही जाति की अनेक शाखाएं बन गई । जब तक मनुष्य के पुण्यों का उदय होता है, पुण्यों का ही संचय करता है देवगुरु धर्म पर अटूट श्रद्धा रखता है और मांस मदिरादि दुर्व्यसन छुड़ाने वाले के उपकार को सदेव याद करता है और उसके लिये प्रत्युपकार करता रहता है वहां तक उसके पुण्य बढ़ते ही रहते हैं। अहा ! हा !! उस समय एक सखलेचा ही क्यों पर इस महाजन संघ की जहां देखो वहां चढ़ता सितारा दीख पड़ता था। जब से लोग अपने उपकारी पुरुषों का उपकार भूल कर कृतघ्नीपना का वन पाप शिर पर उठाना १४६६ संखलेचा जाति की शाखाएँ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ श्रोसवाल सं० १५२८-१५७४ शुरु किया । बस ! उसी दिन से इनका पतन प्रारम्भ हुआ । क्रमशः आज जो दशा हुई है वह सबके सामने विद्यमान है मैं तो आज भी शासनदेव से प्रार्थना करता हूँ कि प्रत्येक जातियाँ वाले अपने-अपने परमोपकारी पुरुषों के गुणों का स्मरण कर उनके प्रति पूज्य भाव रखेंगे तो वह दिन दूर नहीं कि पुनः पूर्वावस्था का अनुभव करने लग जायँ । हम ऊपर लिख आए हैं कि कोरंट गच्छाचार्यों का विशेष विहार अर्बुदाचल के आस पास के प्रदेश हुआ करता था जिसमें आचार्य नन्नप्रभसूरि तो इतने प्रभाविक आचार्य हुए कि उन्होंने अपने बिहार क्षेत्र को जैनमय बना दिया था जिसमें अधिक लोग राजपूत ही थे । आचार्यश्री को इतनी सफलता मिलने का मुख्य कारण एक तो उस समय भारत में म्लेच्छ लोगों का क्रूरता पूर्वक आक्रमण हुआ करते थे जिसके मारे राजपूत लोगों की बड़ी दुर्दशा हो रही थी । वे इधर से उधर और उधर से इधर जान बचाते हुए भटकते फिरते थे । दूसरा कारण उस समय जैन समाज की बागडोर जैनाचायों के ही हस्तगत थी वे किसी को भी उपदेश देकर जैन बना लेते तो उनके इशारे मात्र | ही महाजन संघ उनको अनेक प्रकार से मदद कर उसी समय से सारा जैन समाज उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार चालू कर देता था । उस समय महाजन संघ के हाथ में • एक ओर तो राज तंत्र था और दूसरी ओर था व्यापार । श्रतः नये जैन बनने वाले कितने ही मनुष्य क्यों न हो पर उनको योग्यता के अनुसार काम में लगा ही देते थे । महाजन संघ की इस उदारता का भी जन साधारण पर कम प्रभाव नहीं पड़ता था । अज्ञान जनता धर्म की अपेक्षा अपनी सुविधा का पहले विचार करती है जब उनको इच्छा के अनुसार सुविधाएं मिल जाती थी तब धर्मों में अहिंसा परमोधर्म जो सब में प्रधान है, स्वीकार करने में दूसरा विचार ही नहीं करती थी । यही कारण है कि उन आचार्यों को अपने कार्यों में सर्वत्र सफलता मिलती जाती थी । आचार्य नन्नप्रभरि ने वि० सं० १०१३ के आस पास अर्बुदाचल के समीप विहार कर बहुत से राजपूतों को जैनधर्म की दीक्षा दी उनमें मुख्य पुरुष राव धंधल थे । वे चौहान राजपूत थे उनके पुत्र सुरजन और सुरजन के पुत्र संगण था वहां से वे व्यापार करने लग गया था सांगण के पुत्र बोहित्य हुआ । बोहित्य पर कुलदेवी की पूर्ण कृपा थी जिससे उसके एक तरफ तो सन्तान और दूसरी तरफ धन धान्य की वृद्धि होती गई वह इतनी कि बोहित्य ने चन्द्रावती में शासनावीश भगवान् महावीर का मंदिर बनाया तथा श्रीशत्रुञ्जय, गिरनारादि तीर्थों की यात्रार्थ विराट् संघ निकाला और चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा करवा कर पहरावगी में सुवर्ण मुद्राएं सुवर्ण थाल में रख कर दो याचकों को तो इतना दान दिया कि उनके घरों से दारिद्र चोरों की भांति भाग छूटा इत्यादि । बोहित्य ने अपने न्यायोपार्जित लक्ष्मी में से सवा करोड़ द्रव्य पूर्वोक्त शुभ कार्यों में व्यय किया । बोहित्य इतना नामी पुरुष हुआ कि आपके पश्चात् आपके नाम की स्मृति का सूचक बोत्थरा नाम से ओलखाने लगी । फिर तो बोहित्य की सन्तान इतनी फूली फली कि इनके अन्दर ज्यों ज्यों नामांकित पुरुष होते गये त्यों त्यों उनके नाम की शाखाएं भी निकलती गई। जैसे बोत्थरा, बच्छराज के नाम पर बच्छावत् शाखा जिसमें कर्मचंद बच्छावत बड़ा ही मशहूर हुआ। इसी प्रकार फोफलिया - मुकिस वगैरह कई शाखाएं निकलीं । इसी प्रकार कोरंटगच्छ्राचाय्यों में ४५ वें पट्ट पर नन्नप्रभसूरि और ४६ वें पट्ट पर ककसूरि और ४७ वें पट्ट पर सर्वदेवसूरि और ४८ वें पट्टपर पुनः श्रीनन्नप्रभसूरि नाम के आचार्य भी बड़े ही प्रतिभाशाली हुए हैं उन्होंने भी बहुत से अजैनों को जैन बना कर महाजन संघ की खूब वृद्धि की थी और उन प्रतिबोधित श्रावकों के कई-कई कारणों से जातियां बन कर उनके नाम संस्करण हो गये जो आज भी विद्यमान हैं जैसे घाड़ीवाल रातड़िया, संखलेचा और बोथरों की उत्पत्ति ऊपर लिख आए हैं यदि इसी प्रकार शेष जातियों की उत्पत्ति लिखी जाय तो ग्रन्थ बहुत बढ़ जाने का भय रहता है । अतः मैं यह खास मुद्दा की बात ही लिख देता हूँ । Jain कोरंटगच्छ के श्राचार्यों का विहार १४६७ ary.org Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४ [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ५-खींवसर, मूल चौहान राजपूत थे कोरंटगच्छीय आचार्य ककसूरि ने वि० सं० १०१६ में प्रतिबोध देकर जैन बनाये और खींवसर ग्राम के नाम पर वे लोग खींवसरे कहलाए हैं। इनके पूर्वजों ने अनेकों मदिर बनवाये कई बार तीर्थों के संघ निकाले कई बार दुष्कालों में देशवासी भाइयों एवं पशुओं के प्राण बचाए इत्यादि । ६-मिनी यह भी चौहान राजपूत थे इनके पूर्वजों ने भी जैनधर्म स्वीकार करके जैनधर्म की बड़ी २ सेवाएं की है। इस जाति के नामकरण के लिये वन्शावलियों में ऐसी कथा लिखी है कि इस जाति में एक सहजपाल नाम का धनी पुरुष हुआ। वह किसी व्यापारार्थ द्रव्य लेकर जा रहा था कि रास्ते में कई हथियार बन्द लुटेरे मिल गये । जब सहजपाल को लूटने लगे तो सहजपाल पागलसा बन गया था पर उसको बुद्धि ने सिखाया और बोला ठाकुरों ! आप लोग बिना हिसाब धन क्यों ले रहे हैं। हां, आपको धन की जरुरत है तो खत तो मंडवालो, सरदारों ने कहा कि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो तुम अपना खत मांडलो । इस हालत में शाह ने कागद बही निकाल कर ठाकुरों के नाम खत लिख लिया और कहा कि ठाकुरों इस खत में किसी की साख डलवाने की सख्त जरूरी है। ठाकर ने कहा इस जंगल में किस की: जाय ? शाह ने कहा कि साख बिना तो खत किस काम का ? ठाकुरों ने कहा इस लुंकड़ी की साख डालदें। ठीक शाह ने ऐसा ही किया । ठाकुर माल ले गये । शाह ने सबकी जोड़ लगाई तो करीब ५०००) रु० का माल था सेठजी अपने मकान पर आगये । कोई दो चार वर्ष गुजर गये। बाद में एक समय वे ही ठाकुर ग्राम में आये। शाह ने पल्ला पकड़ कर कहा ठाकुरों अभी तक मेरे खत के रुपयो वसूल नहीं हुए ठाकुर ने कहाकौनसे रुपये ? शाह ने कहा-क्या आप भूल गये इत्यादि । आपस में तकरार होगई तब दोनों राज में गये। शाह ने जोर-जोर से कहा कि देख लीजिये इन ठाकुरों ने हमसे द्रव्य लेकर खत लिख दिया और इस खत में मिन्नी की साख भी डलवाई है इस पर ठाकुर बोले-शाहजी आप राज कचहरी में भी झूठ बोलते हैं। मैंन मिन्नी की साख कब डलवाई थी? शाख तो डलवाई थी लुंकड़ो की इस पर न्यायाधीश ने समझ लिया कि ठाकुरों ने रकम जरुर ली है और शाह ने भी बड़ी बुद्धिमत्ता की है कि लुंकड़ी के स्थान पर मिन्नी का नाम लेकर ठाकुरों से सच बोला ही लिया । न्यायाधीश ने कहा ठाकुरों अापने लुंकड़ी की साख डलवाई तब भी सेठजी से रुपये तो जरूर लिये थे इस पर ठाकुरों को सेठजी की रकम का फैसला करना पड़ा उसी दिन से सेठजी की संतान मिन्नी नाम से प्रसिद्ध हुई । समयान्तर तो सेठजी की जाति ही मन्न होगई है। इसी मिन्न जाति में भी बहुतसे दानी मानी नर रत्न होकर कई मंदिर बनाये कई संब निकाल कर यात्रा की और साधर्मी भाइयों को सवर्ण मोहरों को पहरावणी दी। कइयों ने दुष्कालों में लाखों करोड़ों का द्रव्य व्यय कर यशः कीर्ति उपाजेन की। खजांची, रुपाणी, लाटुथा, संघी आदि कई जातियां भी इसी मिन्ना गात्र को शाखाओं में से निकली। इसी प्रकार सूरिजी ने पंवार मागडादिकों को मांसाहारी आदि व्यसन छुड़ाकर जैन बनाया। आपने धर्म कमों में बहुत भाग लिया। अतः आपकी संतान मांण्डोत के नाम से पहचानी जाती है। ____ इसी प्रकार ४८ वें पट्ट पर आचार्य नन्नप्रभसूरि भी बड़े ही प्रतिभाशाली और महाप्रभाविक आचार्य हुए हैं उन्होंने भी हजारों अजैन क्षत्रियों को जैनधर्म में दोक्षित कर महाजन संघ को वृद्धि की थी उनके बनाये हुये गोत्रों के केवल नाम ही लिख दिखे जाते हैं जैसे-सुद्येचा, कोठमी, कोटड़िया, कपुरिया, धाकड़, धूवगोता, नागगोला, नार, सेठिया, धरकट, मथुरा, सोनेचा, मकबाण, फितूरिया, ख बिया, मुखिया, डागलिया, पांडु. गोता, पोसालेचा, बाकीलिया, सहाचेती, नागणा, खीमाणदिया, बडेरा, जोगणेचा, सोनाणां, आड़ेचा, चिंधड़ा, निबाड़ा इस प्रकार कोरंट गच्छाचार्यों की बढ़ी में कुल ३६ जातियों की उत्पत्ति तथा इन जातियों के बनाये हुये मन्दिरों की प्रतिष्ठा तथा तीर्थयात्रार्थ निकाले हुए संघ एवं साधर्मी भाइयों को दी हुई पहरावणी, १४६८ जैन जातियों की उत्पति का वर्णन STTH Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ दुष्काजादि में देश सेवा तथा जनोपयोगी गलाब कुवें वगैरह करवाने का और इन जातियों के वीर पुरुषों ने अपने देश वासियों के तन मन धन एवं बहिन बेटियों के सतीत्व धर्म की रक्षा के लिये युद्ध कर म्लेच्छों को परास्त किये तथा अपने प्राणों की आहती देकर बड़ी बड़ी सेवाएं की तथा उन युद्ध में काम आने वालों की धर्मपलियाँ जो अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा एवं पति के अनुराग से उनके पीछे उनकी धकधक करती हुई चिता की अग्नि में सती होगई इन सब बातों का उल्लेख वंशावलियों में किया गया है पर ग्रंथ बढ़ जाने के भय से यहां पर इतना ही लिखा है। हाँ, कभी समय मिला तो एक अलग पुस्तक रूप में छपवा कर पाठकों के कर कमलों में रख दिया जायगा। ___ बांठिया जाति को वि० सं० ६१२ में आचार्य भावदेवसूरि ने आबू के पास पास परमा नाम के गांव के राव माघुदेवादि को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। उन्होंने तीर्थ श्री शत्रुञ्जय का विराट संघ निकाला जिसमें इतने मनुष्य थे कि जंगल में बांठ-बांठ पर आदमी दीखने लगे और संघपति ने उदारता से बांठ बांठ पर रहे हुए प्रत्येक नर नारी को पहरायणी दो जिससे जनता कहने लग गई कि संघपतिजी का क्या कहना है आपने बांठ बांठ पर पहरावणी दी है बस उसी दिन से आपकी सन्तान बांठिया नाम से प्रसिद्ध हुई । इस जाति में बहुत से ऐसे नामांकित पुरुष हुए कि वि० सं० १३४० के पास पास में बांठिया रनाशाह के संघ में रुपयों की कावड़े ही चल रही थी। इससे वे कवाड़ के नाम से मशहर हए । वि० सं०१६३१ में बादशाह को बोहरे की जरुरत पड़ी, जोधपुर दरबार को कहा तो आपने मेड़ता के बांठियों को बतलाये । पर उनके पास इतनी रकम न होने से कुछ चिंता होने लगी एक दिन शाहजी व्याख्यान में गये थे, पर वे उदास थे। व्याख्यान के बाद आचार्य ने शाहजी को उदासी का कारण पूछा तो शाइजी ने कहा कि दरबार के कहने से हम बादशाह के बोहरे तो बन गये हैं पर हमारे पास इतनी रकम नहीं है न जाने बादशाह किस समय कितनी रकम माँग बैठे। इस पर आचार्यश्री ने कहा कि आपके घर में जितने सिक्के हों उतनी थैलियां बना कर उसमें सिके डाल कर रख देना । शाहजी ने ऐसा ही किया जब समय पाकर आचार्यश्री शाहजी के यहां गये तो उन सिक्के वाली थैलियों पर वासक्षेप डाल कर कहा कि इन थैलियों में से किसी को भी उलटना नहीं, जितना चाहो द्रव्य निकालते ही रहना बल, फिर तो था ही क्या । शाइजी रात और दिन में एक-एक थैली से रुपये निकाले कि शाहजी के घर में ऐसा कोई स्थान ही नहीं कि जहां रुपये रक्खे जाय अतः शाहजी के मकान के पीछे एक पशु बांधने का नोहरा था उसके अन्दर ८४ खाड़े खुदवा कर उनके अन्दर वे ८४ सिक्कों के रुपये भर कर उन पर रेती डाल दी और पाना जाबता भी कर दिया। जब बादशाह ने सोचा कि कमी रकम की आवश्यकता हो जाय तो बोहरे की परीक्षा तो कर ली जाय कि कभी काम पड़ जाय तो कितनी रकम दे सके अतः बादशाह चल कर जोधपुर आया और जोधपुर नरेश को लेकर मेड़ते आये शाहजी को बुला कर कहा कि आप हम को कितनी रकम दे सकेंगे ? शाहजी ने कहा कि श्राप किस सिक्के के रुपचे चाहते हैं। बादशाह ने कहा कि आपके पास कितने सिके हैं ? शाहजी ने कहा हम महाजन हैं मल्क में जितने सिक्के चलते हैं वह हमारे पास मिलते हैं। बादशाह ने सोचा कि महाजन लोग अपनी वाक् पटुता से ही शेखी फांकते हैं। बादशाह ने कहा आप एक एक सिक्के की कितनी रकम दे सकते हो ? शाइजी ने कहा मेड़ता और देहली तक एक एक सिक्के के रुपयों के छकड़े से छकड़ा जोड़ दूंगा । बतलाइये आपको कितनी रकम की जरूरत है ? बादशाह को शाहजी के कहने पर विश्वास नहीं हुआ। बादशाह ने शाहजी से कहा कि चलिये आपके रुपयों का खजाना बतलाइये । शाहजी मकान से उठ कर नौहरे में आये और अपने अनुचरों को बुलाकर तैय्यार रखा बाद में बादशाह और दरबार को बुलाया। उस नौहरे में घास फूस था बादशाह ने कहा कि हम आपकी रकम का खजाना देखना चाहते हैं शाहजी ने नौकरों को आर्डर दिया और वे कुसी पावड़ों से रेती दूर कर एक एक सिक्के का नमूना बतलाने लगे कि बादशाह जैन जातियों की उत्पति का वर्णन १४६६ Jain Education inte www.jaineribrary.org Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास AAAAAAAAAAANAANI एवं दरबार देख कर आश्चर्यान्वित बन गये कि सच्च शाह तो शाह ही है इन महाजनों की बराबरी संसार में क्या राजा और क्या बादशाह कोई नहीं कर सकते हैं ? उस दिन से इन बांठियों की जाति शाह हो गई। इनके भाई हरखाजी थे उनकी संतान हरखावतों के नाम से प्रसिद्ध हुई इस प्रकार बांठियाँ जाति की शाखाएं प्रसिद्धि में आई। बांठियाँ जाति का शुरू से आज तक का कुर्सीनामा श्रीमान् धनरुपमलजी शाह अजमेर वालों के पास विद्यमान है जिज्ञासुओं को मंगवाकर पढ़ लेना चाहिये। २-बरड़िया-आचार्य कृष्णार्षि एक समय बिहार करते हुए 'नागपुर में पधारे वहां पर एक नारायण नाम का सेठ रहता था उसका धर्म तो ब्राह्मण धर्म था पर उसके दिल में कुछ अर्से से शंका थी जब कृष्णार्षि नागपुर में आये तो नारायण ने गुरुजी के पास जाकर धर्म के विषय में प्रश्न किया तो गुरुजी ने अहिंसा परमोधर्म के विषय में बड़ा ही रोचक और प्रभावपूर्ण जोरदार उपदेश दिया जिसको सुन कर नारायण ने अपने ४०० साथियों के साथ जैन धर्म को स्वीकार कर लिया। श्री कृष्णार्षि के उपदेश से श्रेष्ठि नारायण ने एक मन्दिर बनाने का निश्चय किया । अतः वहाँ बहुमूल्य भेट लेकर राजा के पास गया नजराना करके भूमि की याचना की। इस पर धर्मात्मा नरेश ने कहा सेठजी देव मन्दिर के लिये भूमि निमित भेट की क्या जरूरत है ? आप भाग्यशाली हैं कि अपने पास से द्रव्य व्यय कर सर्व साधारण के हितार्थ मन्दिर बनाते हैं तब भूमि जितना लाभ तो मुझे भी लेने दीजिये। अत: आपको जहाँ पसन्द हो भूमि ले लीजिये इत्यादि । सेठ नारायण ने किले के अन्दर ही भूमि पसन्द की। राजा ने आदेश दे दिया बस सेठ ने बहुत जल्दी से जैन मन्दिर बनवा दिया। अधिक कारीगर एवं मजदूर लगाने से मन्दिर जल्दी से तैयार होगया जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य देवगुप्तसूरि के कर कमलों से करवाई और उस मन्दिर की सार संभार के लिये एक संस्था कायम की जिसमें ७२ पुरुष एवं ७२ स्त्रियाँ सभासद बनाये गये इससे पाया जाता है कि एक समय मन्दिरों की सार संभार में स्त्रियाँ भी अच्छा भाग लिया करती थी। इनकी सन्तान परम्परा में पुनड़ नाम का एक नामांकित श्रेष्ठि हुआ। देहलीपति बादशाह का वह पूर्ण कृपा पात्र था अर्थात् बादशाह पुनड़ का बड़ा ही मान सन्मान रखता था एक समय पुनड़ ने नागपुर से एक यात्रार्थ शत्रुञ्जय गिरनार का बड़ा भारी संघ निकाला जब गुर्जर भूमि में पदार्पण किया तो वस्तुपाल तेजपाल ने उस संघ पति एवं संघ का बड़ा भारी सम्मान किया । वस्तुपाल तेजपाल के गुरू आचार्य जगच्चन्द्रसूरि वगैरह संघ में शामिल हुए। ओर अधिक परिचय के कारण श्रीमान पुन शाह उन प्राचार्यों की उपासना एवं समाचारी करने लगा वे अद्यावधि तपागच्छ के ही उपासक बने हुए है। ३-संघी जैन जातियों में यों तो संघी प्रत्येक जाति में पाये जाते हैं कारण जिस किसी ने तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाल कर पहरावणी देता है केही संघी कहलाते हैं पर हम यहाँ पर उस संघी जाति की उत्पति को लिखते हैं कि जो अजैनों से जैन बनते ही वे संघी कहलाए। वि० सं० १०२१ में पारार्य सर्वदेवसूरि विहार करते हुए बाबू के आस-पास पधारे वहाँ एक ढेल. ड़िया नाम का अच्छा कस्बा था वहां पर संघराव नामक पंवार राजा राज करता था जब आचायं सर्वदेवसूरि ढेलड़िया ग्राम में पधारे तो संघराव वगैरह सूरिजी के दर्शनार्थ आये । सूरिजी ने धर्मोपदेश दिया जिसको श्रण कर संघराव प्रसन्न चित्त हुआ तत्पश्चात् संघराव ने सूरिजी से प्रार्थना की कि भगवान मेरे धन सम्पत्ति तो बहुत है पर पुत्र नहीं है ? सूरिजी ने अपने स्वरोदय ज्ञान से देख कर कहा रावजी संसार में धर्म कल्प वृत है । आप जैन धर्म की उपासना करो तो इस भव और परभव में हितकारी है। बस, सूरिजी के वचन पर संघराव ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया । अन्तराय कर्म हटते ही एक वर्ष में ही रावजी के पुत्र हो गया जिसका नाम विजयराव रखा अब तो रावजी की धर्म पर पूर्ण श्रद्धा होगई । जब विजयराव बड़ा हुआ तब उसने अपने माता पिता की इजाजत लेकर विराट संघ निकाला और साधर्मी भाइयों को सुवर्ण मुद्रिकाएं १५०० जैन जातियों की उत्पति का वर्णन Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य सिद्धसुरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ www पहरावणी में दी। इस संघ में रानजी ने लाखों द्रव्य व्यय किया। अपने ग्राम में भी भगवान पार्श्वनाथ का उत्त मंदिर बना कर आचार्यश्री से प्रतिष्ठा करवाई जब से आपकी संतान संघी नाम से प्रसिद्ध हुई। कई भादों ने मंधी जाति को ननवाणा बोहरा से होना भी लिख मारा है पर यह बिलकुल ग़लत बात है उस समय ननवाणा बोहरा का नामकरण भी नहीं हुआ था। ननवागा बोहरा तो करीब विक्रम हवीं शताब्दी में पल्लीवाल ब्राह्मण जोधपुर के पास कोई १० मील के फासले पर नंदवाणा गांव में रहते थे जब वहाँ से अन्यत्र गये तो वे नंदवाणा ग्राम के होने से बोहरगतें करने से ननवाणे बोहरे कहलाये। अतः यह कहना मिथ्या है कि संघी ननवाणे बोहरे थे । वास्तव में संघी पंवार राजपून थे इस जाति का कुछ कुर्सीनामा सोजत के संधियों के पास आज भी विद्यमान है। ___झामड़-जाति-वि० सं०६८८ में प्राचार्य सर्वदेवसूरि अपने ५०० शिष्यों के साथ बिहार करते हुए हथुड़िनगरी के पास पधारे थे, उधर से राव जगमालादि शिकार कर नगर में प्रवेश कर रहे थे जब रावजी के पास शिकार देखी तो आचार्यश्री के दिल में राजा के प्रति बड़ी अनुकम्पा तथा जीव के प्रति करुणा भाव उत्पन्न हुआ। अहो ! अज्ञानी जीव ! कुत्सित संगति से किसी प्रकार कर्मबन्द कर अधोगति के पात्र बन रहे हैं। राजा के साथ ही साथ में सूरिजी ने भी नगरी में प्रवेश किया। राजा घोड़े पर सवार था। सूरिजी को देखकर अपने नेत्र नीचे कर लिये । सूरिजी ने देखा तो सोचने लगे कि जब राजा के नेत्रों में इतनी शरम है तो वह अवश्य समझ सकेंगे। सूरिजोने कहा--नरेश ! कहां पधारे थे। नरेश ने शरम के मारे कुछ भी जवाब नहीं दिया। सूरिजी-नरेश! जरा पर भव को तो याद करो आपको क्षत्रिय वंश में अवतार लेने का यही फल मिला है कि बिचारे निराधार केवल तृण भक्षण कर जीने वाले प्राणियों का रक्षण करना आपका परम कर्त्तव्य था जिसके बदले भक्षण करने को उतारु हुए हो । परन्तु जब भवान्तर में यदि मूक प्राणी मरकर कहीं श्राप जैसे सत्ताधारी होगये और आप इनके जैसे मूक पशु होगये तो क्या आपसे इस प्रकार बदला नहीं लेंगे? नरेश-महात्माजी ! आपका कहना तो सत्य है पर किया क्या जाय यह तो हमारी जाति सम्बन्धी व्यवहार एवं आचार ही हो गया है। सूरिजी-जाति संबंधी व्यवहार तो ऐसा नहीं था पर खराब संगत से कई लोग ऐसी बुरी आचरणाएं कर अपने आपको नरक में डालने का दुःसाहस कर रहे हैं। नरेश-महात्माजी ! हम घुड़ सवार हैं और आप पैरों पर खड़े हैं। अतः इस समय तो हम जाते हैं कल आप राज सभा में पधारें आपका उपदेश हम सुनेंगे।। सूरिजी-नरेश ! आपका विचार अत्युत्तम है पर यह तो नियम करते कि आज से मांस का भक्षण नहीं करूंगा। नरेश-सूरिजी की लिहाज से राजा ने कहा कि आज मैं माँस का भक्षण नहीं करूंगा। बस, राजा अपने स्थान पर गया और सुरिजी भी नगरी में निर्वद्य स्थान में जाकर ठहर गये। राजा ने अपने मकान पर जाकर निर्मल बुद्धि से विचार किया तो आपको ज्ञात हुआ कि महात्माजी का कहना ही यथार्थ है परभव में बदला तो अवश्य देना ही पड़ेगा। जब साथ के लोग जो शिकार लेकर आये थे जिसका माँस तय्यार किया और राजा के लिये थाल में पुरस कर लाये तो राजा ने कहा कि मैंने तो महात्माजी के सामने प्रतिज्ञा की है कि आज मैं माँस नहीं खाऊंगा । अतः मैं आज माँस खाना तो क्या पर सामने भी नहीं देखेंगा इस पर शेष लोगों ने भी विचार किया कि जब राजा मांस नहीं खाते हैं तब हम कैसे खा सकेंगे। पर आज हीं तो कल नही सही राजा कल a suahi fol qùa १५०१ Jain Edu www.sainelibrary.org Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास mmmmmmmmmmmmmm भी तो भोजन करेगा। बस, वह बनाया हुआ मांस का भोजन ज्यों का त्यों पा रहा। अब तो यह बात अन्तेवरादि सर्वत्र फैल गई । दूसरे दिन कुछ समय के बाद सूरिजी राज सभा में पधारे । राजा ने सिंहासन से उतर कर सूरिजी का सम्मान किया और उच्चासन पर बिराजने की प्रार्थना की। सूरिजी भूमि प्रमार्जन कर अपनी कम्बली बिछा कर योग्य स्थान पर बैठ गये। सूरिजी को प्राया देख बहुत से दूसरे लोग भी सभा में आगए । कुछ अन्तर में जनाना सरदार भी बैठ गये । तत्पश्चात् सूरिजी ने अपना उपदेश देना प्रारम्भ किया जिसमें पहले हिंसा के कटु फल का बयान किया। बाद में अहिंसा से होने वाले फायदों का सविस्तार विवेचन किया। तत्पश्चात् जैन तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में अवतार लेकर अहिंसा का खूब जोरों से उपदेश दिया इत्यादि सूरिजी ने ऐसा प्रभावोत्पादक उपदेश दिया कि राजा के एक-एक प्रदेश में सूरिजी का उपदेश खीर नीर की तरह निवास कर दिया । बस क्षत्रिय जैसी वीर जाति के समझ में श्राजाने के बाद तो कहना ही क्या ? राजा और राणी व पुत्रादि सब लोगों ने मांस मदिरादि बुरे कर्मों को त्याग कर जैनधर्म अर्थात् अहिंसा परमोधर्मः को स्वीकार कर लिया फिर तो 'यथा राजास्तथा प्रजा' वाली युक्ति से और भी बहुत से लोगों ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया। राव जगमाल ने अपने नगरी में भ० महावीर का मंदिर बनवाया, राव जगमल के बड़े पुत्र झामड़ ने तीर्थों की यात्रार्थ बड़ा भारी संघ निकाला। श्री शत्रुञ्जय गिरनारादि तीर्थों की यात्रा कर वापस आये और स्वामी वात्सल्य कर संघ पूजा कर पहरावणी दी। आगे चल कर राव झामड़ की संतान झामड़ नाम से मशहूर हुई । तथा कई स्थानों पर यह भी लिखा मिलता है कि झामड के वृक्ष के नीचे शुभ लग्न में सूरिजी ने वासक्षेप दिया था जिससे वे खूब ही फूले फले । इससे वे झामड़ की सन्तान मामड़ कहलाये तथा जाबक जंबक वगैरह इस मामड़ जाति की शाखाएं हैं फिर तो इस खानदान की झामड़ जाति बन झाड़ के नीचे झामड़ कहलाये और इस जाति की उत्तरोत्तर इतनी वृद्धि हुई कि सर्वत्र प्रसरित होगई और कई उदार एवं वीर नररत्नों ने देश समाज एवं धर्म की बड़ी-बड़ी सेवाएं की और कई कारणों से इस जाति की कई शाखायें रूप जातियें बन गई । इस जाति की वंशावलियों तपागच्छ के कुलगुरु लिखते हैं। ४-सुराणा जाति-वि० सं० ११३२ में प्राचार्य धर्मघोषसूरि बिहार करते हुए अजयगढ़ के आस पास में ज्येष्टापुर नगर में पधारे वहांके पंवार रावसूर को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। राव सूर की संतान सुराणा कहलाई। राव सूर के लघु भ्राता राव संखला की संतान संखला कहलाई । कुल देवी माता संसाणी । __ भणवट जाति-वि० सं० ११३२ में आचार्य धर्मबोषसूरि विहार करते हुए वणवली नार में पधारे वहां के चौहान राव पृथ्वीपालादि को प्रतिबोध देखकर वासक्षेत्र के विधि विधान से जैन बनाये ! राव पृथ्वीपाल के सात पुत्र थे उसमें कुमुद और महीपाल व्यापार करने लग गये और मुकुन्द ने अपने नगर में भ० महावीर का उत्तंग मन्दिर बनाया। मुकन्द का पुत्र साहरण हुआ उसने वहां भणवट अर्थात् जहाजों द्वारा विदेशों में माल ले जाना तथा वहां से आते समय वहां का माल एवं जवाहारात वगैरह लाना यह व्यापार किया । साहरण ने व्यापार में अपार द्रव्य उपार्जन किया। इसने आचार्यश्री के उपदेश से तीर्थ यात्रार्थ वड़ा भारी संघ निकाला और साधर्मी भाइयों को सुवर्ण सुद्राएं पहरावणी में दी । आपके वहाणवट का व्यापार होने से वे वहाणवट नाम संस्करण हुआ उसका ही अपभ्रंश भणवट हुआ है। कई भाटों ने भणवटों के लिये एक कल्पित ख्यात बना रखी है कि सं० ६१० में पाटण के चौहान भूरसिंह ने राजा का रोग मिटा कर जैन बनाया उस भूरसिंह की संतान भणवट कहलाई। पर यह कथन सर्वथा मिथ्या है कारण अव्वल तो पाटण में किसी समय चौहानों का राज ही नहीं रहा है और न पाटण की राजधानी में भूरसिंह नाम का कोई राजा ही हुआ है। सुराणा जाति की एक समय इतनी वृद्धि हुई थी कि इस जाति के लोग धर्म की इतनी श्रद्धा वाले लोग -१५०२ For Private &Personal use only जैन जातियों की उत्पति का वर्णन Bibrary.org Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ोसवाल सं० १५२८-१५७४ हुए थे कि उन सुराणों के नाम का एक गच्छ का भी प्रादुर्भाव हुश्रा जिसका ८४ गच्छों में सुराणां गच्छ का भी नाम है सुराणा गच्छ का शुरु ले ही इतिहास नागोर के महात्मा गोपीचन्दजी के पास है उन्हों के पास की वंशावलियों में जैसे धर्मघोष सरि ने सुराणों, सांखलों एवं भणवट के पूर्वजों को उपदेश देकर जैन बनाये हैं वैसे नाहरों के पूर्वजों को भी प्राचार्यश्री धर्मघोषसूरि ने सं० ११२६ में मुदियाड ( मुग्धपुर ) के ब्राह्मणों को उपदेश देकर जैन बनाया बाद में नारा की संतान नारा कहलाई। पर नागपुरिया तपागच्छ वाले अपनी वंशावलियों में नाहर जाति के पूर्वजों को नागपुरिया तपागच्छ के प्राचार्यों ने बनाया बतलाते हैं शायद पूर्व जमाने में महात्मा लोग अपनी वंशावालियों की बहियों को अपने सम्बन्धी अन्य गच्छियों को मुशालादि में तथा बेटी की शादी में पहरावणी में भी देदिया करते थे जैसे सांढेरा गच्छ के महात्मा ने अपने १२ जातियों के नाम लिखने की बदियों को किसी प्रसंग पर आसोप के खरतरगच्छीय महात्माओं को दे दी तब से ही उन ५२ जातियों के गौत्र खरतरगच्छ के महात्मा लिख रहे हैं। दूसरा एक कारण और भी है कि पूर्व जमाने में मन्दिरों के आस पास में रहने वाले गृहस्थों को मंदिरों के गष्टिक ( सभासद ) बनाये जाते थे उसका अर्थ तो इतना ही था कि नजदीक घर होने से वे मंदिर की सार संभाल ठीक तरह से कर सकेंगे। फिर मन्दिर किसी भी गच्छके लोगों ने बनाया हो और सभासद बनने वाले किसी गच्छ के आसायों के प्रतिबोधक श्रावक क्यों न हो ? पर वहां तो केवल मन्दिर की सार संभाल का ही उद्देश्य था एर काफी समय निकल जाने से जिस गच्छ के प्राचार्यों ने उन सब सभासदों (गोष्टिकों ) पर अपने प्राचार्यों में तुम्हारे पूर्वजों को प्रतिबोध देकर जैन बनाये थे। इस प्रकार अपना हक जमा दिया करते थे। हां, वे गाटिक बनने वाले शुरु से या एक दो या चार पुश्त तो इस बात को जानते थे कि हमारे पूर्वजों को प्रतिबोध देने वाले आचार्य अमुक गच्छ के थे। तथा हम अमुक गच्छोपासक श्रावक हैं पर समयाधिक व्यतीत हो जाने से तथा अधिक परिचय के कारण अथवा उनके साथ प्रतिक्रमणादि क्रिया कांड एवं तप व्रतादि करने से उन लोगों के संस्कार भी ऐसे पड़ गये इससे इतनी गड़बड़ मच गई कि कई लोग तो अपने प्रतिबोधक आचार्य एवं उनके गच्छ को भी साफ २ भूल ही गये । इतना ही क्यों ? पर कभी-कभी गच्छों के वाद विवाद का मौका आता है तब अज्ञानी लोग उनके पूर्वजों को मांस-मदिरादि छुड़ाने वालों के अवगुण बाद बोल कर उनकी आशातना करके कृतघ्नी रूप वपाप की गठरी शिर पर उठाने को भी तैयार हो जाते हैं । अथवा कई मूल जातियों से शाखाएँ निकलती है उसमें भी कारण पाकर ऐसे नामों का होना पाया जाता है। एक शिलालेख में नाहर चित्रावल गच्छ के होना भी लिखा है। नाहरों को चाहिये कि वे अपनी जाति की उत्पत्ति का ही पता लगा कर कृतार्थ बनें। १-नागपुरिया तपागच्छ-इस गच्छ में चन्द्रसूरि, वादिदेवसूरि, पद्यसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, गुणसुन्दरसूरि, विजय शिखरसूरि आदि महाप्रभाविक आचार्य हुए हैं जिन्होंने इधर उधर बिहार कर हजारों नहीं पर लाखों मांस मदिरा दुर्व्यसन मेदियों को आत्मीय चमत्कार एवं सदुपदेश देकर जैनधर्मी बना कर महाजन संघ की खूब ही वृद्धि की । उन श्रावकों के कई-कई कारण पाकर जातियाँ बन गई जिसके नाम ये हैं:-- १-गोलाणी, त्वलखा भुतेड़िया । २–पीपाड़ा, हीरण, गोगड़, शिशोदिया। ३-रूलीवाल वेगाणी ४-हिंगड़-लिंगा। ५-रामसोनी। ६-झाबक, झमड़ । ७-छलाणी, छजलाणी, घोड़ावत, 15-हीराऊ केलाणी । -गोखरू, चौधरी। १०-जोगड़ । ११-छोरिया, सामड़ा । १२-लोढ़ा । १३-पूरिया, मीठा । १४-नाहर । १५-जड़िया इत्यादि इन ऊपर लिखी जातियों की उत्पत्ति एवं धर्म कार्यों की नामावली इनके कुल गुरुओं के पास में मिलती है। इनके अलावा श्री श्रीमाल, हींगड़, लिंगा नक्षत्र जाति की नामावली भी इन पोशालों वाले कहीं कहीं लिखते हैं किन्तु यह जातियाँ उपकेशगच्छाचार्य प्रतिबोधित पर ऊपर लिखेनुसार मन्दिरों के गोष्टिक बनने से या वंशावलियों के इधर की उधर चली जाने से या अधिक परिचय के जैन जातियों की उत्पति का वर्णन १५०३ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्पग का इतिहास कारण एक गच्छ के श्रावकों की वंशावलियों दूसरे गच्छ वाले मांडने लग गये हैं। २-अंचल गच्छाचार्यों में आचार्य जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूर, महेन्द्रसूरि, सिंहप्रभसूरि, अजित देवसूरि, आदि बहुत प्रभाविक आचार्य हो गये हैं उन्होंने भी हजारों अजैनों को जैन बना कर महाजन संघ की खूब उन्नति की थी। आगे चल कर उन नूतन श्रावकों की भी कई जातियाँ बन गई जैसे कि १-गाल्ह, २-आथगोता, ३-बुहड़, ४-सुभद्रा, ५-बोहरा, ६-सियाल, ७–कटारिया, कोटेचा, रत्नपुरा बोहरा, ८-नागड़गोला, :-मिटडिया बोहरा, १०-घरवेला, ११–वडेर, १२--गाँधी, १३-देवानन्दा, १४-गोतमगोता, १५-डोसी, १६-सोनीगरा, १७-कोटिया, १८-हरिया, १६-देडिया, २०-बोरेचा। इन जातियों की उत्पत्ति वगैरह का सब हाल पं० हीरालाल हंसराज जामनगर वालों के पास है जिसमें कितनेक हालात तो आंचलगच्छ की बड़ी पट्टावली में छप भी गये हैं । संक्षिप्त जैन गोत्र संग्रह नामक पुस्तक में भी छपा है। ३-मलधारगच्छ-इस गच्छ में भी पूर्णचन्द्रसूरि, देवानंदसूरि, नारचन्द्रसूरि, देवानंदसूरि, नारचन्द्रसूरि, तिलकसूरि आदि महान् प्रतापी आचार्य हुए हैं। इन महापुरुषों ने भू भ्रमन कर हजारों जैनेत्तरों को प्रतिबोध देकर श्रावक बनाए और उस समय से ही उनको महाजन संघ में शामिल मिला लिए तथा उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार चालु कर दिया। आगे चल कर कोई-कोई कारणों से उनकी जातियां बन गई उनके नाम निम्नलिखित हैं: १-पगारिया, ( गोलिया कोठारी संघी), २ कोठारी, गीरिया; ४ बंब, ५ गंग, ६ गेहलड़ा, ७ खींवसरा, आदि कई जातियों की वंशावलीयों को मलाधार गच्छ के कुलगुरु लिखा करते हैं। ____४-पूर्णिमियागच्छ-इस गच्छ में भी महान विद्वान एवं प्रभाविक आचार्य हुए जिसमें चन्द्रसूरि, धर्मघोष सूरि, मुनिरत्नसूरि, सोमलितक सूरि आदि कई प्राचार्य हुए। उन्होंने भी हजारों जैनेतरों को उपदेश देकर जैनधर्मी बना कर महाजन संघ को खूब ही वृद्धि की । अागे चल कर कई-कई कारणों से उन नूनन जैनों की जातियां बनगई जिनके नाम ये हैं: १-साढ़, २-सियाल, ३-सालेचा, ४-पूनमिया ५-मेघाणी, ६-धनेरा इत्यादि । इन जातियों की वंशावलिये पुनमिया गच्छ की पोसालों वाले लिखा करते हैं। ५-नाणावालगच्छ-इस गच्छ में भी कई प्रभाविक आचार्य हुए हैं। जिसमें प्राचार्य शांतिसूरि, सिद्धसूरि, देवप्रभसूरि वगैरह कई आचार्य हुए जिन्होंने अपने बिहार के अन्दर बहुत से अजैनों को जैन बना कर महाजन संघ की अच्छी वृद्धि की थी। आगे चल कर कई-कई कारणों से उन नूतन जैनों की भी कई जातियें बन गई जिनके नाम ये हैं: १- रणधीरा, २-कावड़िया ३-ढढा, श्रीपति-तल्लेरा, ४-कोठारी । इनकी भी कई शाखाएं होगई इन जातियों की वंशावली वे ही नाणावाल पोशालों के कुल गुरु लिखा करते हैं। ६-सुराणागच्छ-इस गच्छ में आचार्य धर्मघोषसूरि हुए जो ऊपर लिख आये हैं आदि कई आचार्य प्रभाविक हुए हैं उन्हीं महापुरुषों ने अपने बिहार के अन्दर कई अजैनों को जैन बना कर महाजन संघ में शामिल करके उसकी खूब वृद्धि की बाद में कई करणों से अलग-अलग जातियां बन गई जैसे १-सुराणा, २-सांखला, ३–भणवट ४-मिटड़िया, ५-सोनी, ६-उस्तवाल, ७-खटोर, 5-नाहरादि जातियों की वंशावली सुराणागच्छ के महात्मा लिखते हैं । जैसे नागोर में म० गोपीचन्दजी वगैरह । * बंद, गंग कदरसागच्छ वाले भाचायों के प्रतियोषित होमा भी कहा जाता है। अतः इसका कारण मैं ऊपर लिख भाया है कि मन्दिरों के गोष्टिक बनाने से या वंशावलियाँ इधर उधर देने से । १५०४ जैन जातियों की उत्सति का वर्णन... Tuner el orta al 14 ary.org Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ ७-पल्लीवालगच्छ-इस गच्छ में भी कई प्रभाविक आचार्य हुए हैं, आचार्य यशोभद्र सूरि, प्रद्योम्नसूरि अभयदेव सूरि वगैरह जिन्होंने कई अजैनों को जैन बनाए । समयान्तर में कई कारणों से उनकी कई जातियां बनगई और उन प्राचार्यों से पल्लीवालगच्छ का भी प्रादुर्भाव हुआ। १-धोखा, २-बोहरा ३डूंगरवालादि जातियाँ पल्लीवाल गच्छोपासक कही जाती हैं। कदरसागच्छ-इस गच्छ में आचार्य पुण्यवर्धन सूरि, महेद्रसूरि, आदि कई प्रभाविक आचार्य हुए हैं। उन्होंने अपने भ्रमण के अन्दर कई जैनत्तरों को जैन बनाये आगे चल कर कई कारणों से उनकी कई जातियां बन गई जैसे-१-खाबड़िया, २~ांग, ३--बंब बंग, ४ दूधेड़िया ५-कटोतिया वगैरह इन जातियों की वंशावलियां इस गच्छ के महात्मा ही मांडते हैं। . सादेरावगच्छ-इस गच्छ में प्राचार्य ईश्वरसूरि, यशोभद्रसूरि, शालभद्रसूरि, सुमतिसूरि, शांतिसूरि, वगैरह महान् प्रतिभाशाली श्राचार्य हुए हैं उन्होंने भी बहुत से जैनेत्तरों को जैन धर्म की दीक्षा देकर महाजन संघ में शामिल किये और आगे चल कर कई जातियां बन गई जिसकी नामावली निम्न है:-१-गुंगलिया, २-भण्डारी, ३-चुतर, ४-दूधेड़िया, ५-धारोला, ६-कांकरेचा, ७-बोहरा, ८-शीशोदिया इत्यादि १२ जातियों के नाम साढ़ेराव गच्छ की पोशालों वाले लिखते थे पर किसी समय एक पोशाल वाले ने अपनी वंशावलियों की बहियां किसी प्रसंग पर आसोप के खरतरगच्छीय महात्माओं को दे दी तब से कहीं कहीं पर उपरोक्त जातियों की वंशावलियां आसोप के खरतरगच्छीय महात्मा भी लिखते हैं। - वृहद्त्तपागच्छ-इस गच्छ में भी महान् प्रभाविक आचार्य हुए हैं जैसे जगच्चन्द्रसूरि, देवीद्रसूरि, धर्मघोषसूरि, सोमप्रभसुरि, सोमतिल कसूरि, देवेसुन्दरसूरि, सोमसुन्दरसूरि, मुनिसुन्दरसुरि, रत्नशिखरसुरि, श्रादि बहुत से आचार्य ऐसे हुए कि जिन्होंने बहुत से अजैनों को धर्मोपदेश देकर जैन बना कर महाजन संघ में शामिल कर उनकी वृद्धि की फिर आगे चल कर कई कारणों से उन नूतन जैनों की कई जातियां बन गई जैसे १-वरड़िया, वरदिया, बाहुदिया, २-बांठिया, कबाड़ शाह, हरखावत, ३ छरिया, ४-डफरिया, ५-ललवाणी, ६-गांधी, बैधगांधी, राजगांधी, ७-खजानची, ८ बुरड़, ६-संघवी, १०-मुनोयत, ११-पगरिया, १२चौधरी, १३-सोलंकी, १४-गुजराणी, १५-कच्छोले, १६-मोरड्ये, १७-सोलेचे, १८-कोठारी, १६-खटोल, २०-बिनायकिया, २१-सराफ, २२-लौकड़, २३-मिन्नी, २४-आंचलिया, २५-गोलिया, २६-पोसवाल, २७गोटी, २७-मादरेच, २६-जोलेचा, ३०-माला, इत्यादि बहुतसी जातियों के नाम हैं। ८-इस महाजन संघ में संघी, कोठारी, खजानची, इत्यादि कई ऐसी जातियाँ हैं कि जिनका नामकरण केवल काम करने से हुए हैं और ऐसे काम प्रत्येक जाति वालों ने किये हैं और प्र प्रत्येक जातियों में पूर्वोक्त नाम मिलते भी हैं तब इनकी पहचान कैसे की जाय? इसके लिये या तो उनके मूल गौत्र एवं जाति का नाम पूछने से या नख पूछने से पता लग जाता है कि यह संघी फलां जाति के हैं। दूसरा एक जाति का नाम एक गच्छ के अलावा दूसरे गच्छ में भी आता है जैसे नाहर, गंग, बंग, नक्षत्रादि के इसका कारण यह हो सकता है कि या तो एक-एक मूल जाति की शाखाएं ऐसी निकल गई जैसे एक गुगलिया जाति है तथा दूसरी किसी जाति वाले ने कहीं पर गुगल का व्यापार किया तब वे भी गुगलिया कहलाने लग गये तथा जब से महात्माओं में लग्न सादी होने लगी तब से एक पोशाल के महात्मा अपनी वंशावलियों की बहियाँ मुशाला में या दत्त-दायजा में भी दूसरे पोशाल वालों को देदेतें नतीजा यह हुआ कि उन जातियों की पहले अन्य गच्छ वाले वंशावलियां लिखते थे बाद दूसरी पोशालों वाले उनके नाम लिखने लग गये फिर दो चार पुश्त तक तो गृहस्थों को ज्ञान रहा कि हमारा मूल गच्छ तो फलां है पर बहियों के बदलने से दूसरे गच्छ के महात्मा हमारे नाम लिखते हैं परन्तु समयान्तर में वे गृहस्थ भी इस बात को भूल जाते हैं और अधिक परिचय के कारण जो वंशावलियों लिखते हैं उनके पास अपने पूर्वजों की नामावली मिल जाने Jain E कई गच्छों के प्राचार्यों द्वारा अजैनों को जैन बनाना... १५०५ Pusonal Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास से उसी गच्छ वालों को अपने पूर्वजों को प्रतिबोधक मान लेते हैं और वे नूतन पोशाल वालों ने भी ऐसी कल्पित बहिये बनाली । जिसमें न तो यथावत् आचार्यों के नाम हैं न स्थान का पता है न जिस मूल पुरुष को उपदेश दिया उनका ही ठिकाना है अर्थात् सत्य इतिहास पर ऐसा पर्दा पड़ जाता है कि जिससे सत्यवस्तु शोध कर निकालना बड़ा मुश्किल बन जाता है जिससे कई जातियों का २४०० वर्ष जितनी प्राचीन होने पर भी उनको ८००-६०० वर्षे जितनी अर्वाचीन ठहरा दी जाती है जब उन जातियों के पूर्वजों ने प्राचीन अर्वाचीन के बीच का समय १५०० वर्ष जितना समय में उन्होंने देश समाज एवं धर्म की सेवार्थ करोड़ों रुपये एवम् अपने प्यारे प्राणों का बलिदान किया था, उनका नाम निशान भी नहीं मिलता है। एक अंग्रेज विद्वान ने ठीक ही कहा है कि जिस राष्ट्र, समाज एवं जाति को नष्ट करना हो तो पहले उन सबका इतिहास को नष्ट करदें वे राष्ट्र समाज जाति स्वयं नष्ट हो जायंगे कारण जब तक अपने पूर्वजों के गौरव पूर्ण कार्य का खून अपनी नसों में नहीं उबलेगा तब तक वे अपनी उन्नति के पथ पर कभी चलेंगे ही नहीं जब जिस व्यक्ति को अपने पूर्वजों के किये हुए गौरव पूर्ण कार्यों का थोड़ा भी ज्ञान नहीं है वे तो यही समझते हैं कि हमारे पूर्वज हमारे जैसे ही होंगे और जैसे हम हमारी जिन्दगी को व्यतीत करते हैं वैसे ही उन्होंने भी अपनी जिन्दगो व्यतीत की होगी इत्यादि । जैसे एक व्यक्ति के पूर्वजों ने एक मंदिर बनाया है तथा किसी अत्याचारियों से अपनी बहन बेटियां एवं धनजन की रक्षार्थ युद्ध कर प्राणार्पण कर दिया उस स्थान पर चबूतरा एवं छत्री बनी है पर उस व्यक्ति को इस बात का थोड़ा भी ज्ञान नहीं है वहाँ तक यह मन्दिर व छत्री, चबूतरा उसकी नज़रों के सामने होने पर भी उस मन्दिर छत्री के लिये उसके हृदय में थोड़ा भी स्थान नहीं है पर कभी पुराने पोथे संभालने में यह किसी अन्य प्रकार से उसको बोध हुआ कि यह मन्दिर या छत्री हमारे पूर्वजों की अमर कीर्ति है तब उसके हृदय में अपने पूर्वजों के गौरव का स्थान अवश्य बन ही जायगा और जहां तक बन सकेगा वह उनकी बेअदबी नहीं होने देगा और उनका जीर्णोद्धारादि कार्य कर उनको चिरायु बनाने की अवश्य कोशिश करेगा। यह एक इतिहास का अपूर्व चमत्कार है। मेरे खयाल से तो इस महाजन संघ की पतनदशा का मुख्य कारण यही है कि वे अपने पूर्वजों के उज्ज्वल अतीत के इतिहास को भूल गये हैं। आज हम अपनी नजरों से देख रहे हैं कि कई जातियां हमारे से हजार दर्जे पतन की चरम सीमा तक पहुंच गई थीं और उनके उत्थान की किसी प्रकार से उम्मेद नहीं थी पर उनके उपदेशकों ने साधारण जनता तक को इतिहास का उपदेश देकर उनको घोर निंद्रा से जागृत किया जिससे वे स्वल्प समय में ही अपनी उन्नति के पथ पर अग्रेश्वर हो गये हैं। अतः महाजन संघ को भी चाहिये कि वे अपने पूर्वजों के गौरव पूर्ण इतिहास से अवगत हो उन्नति के पथ का अवलंबन करें । मेरा यह परिश्रम केवल महाजन संघ को अपने पूर्वजों के इतिहास का बोध करवाने मात्र का है इत्यादि । पूज्याचार्य सिद्धसुरिजी ने अपने ४६ वर्षों के शासन में मुमुक्षुओं को दीक्षाएँ दी १-शंखपुर कनोजिया जाति के शाह माल्ला ने सूरिजी के पास दीक्षा ली २-आशिकादुर्ग करणावट पुनड ने ३-हर्षपुर आर्य __ " " जोगड़ ने ४-मुग्धपुर छाजेड़ ५-भावनीपुर राखेचा जगमाल ने ६-नागपुर चोरडिया मोकल ने ७-पोलसणी खुमाण ने १५०६ For Private & Personal आचार्यश्री के जीवन में भावुकों की दीक्षाrary.org श्रेष्टि wwwww Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ wwwwwww फूत्राने ८-राजपुर तोडियाणी जाति के शाह चुड़ा ने सूरिजी के पास दीक्षा ली ६-खटकूप नाहटा रोड़ा ने १०-डिडुपुर रांका पाता ने ११-अजयगढ़ भुरंट साहरण ने १२-शाकम्मरी सुरवा. गोगा ने १३-मेदिनीपुर काजलिया केसा ने १४-पाली काग नोंधाण ने भाला लांडुक ने १६-माडव्यपुर ढेढिया सुखा ने १७-कोरंटपुर देसरड़ा भाणा ने १८-डामरेल कुम्मट भाला ने १६-रेणुकोट पोकरणा गुणाढ़ ने २०-मालपुर जांघड़ा रावत ने २१-भोजपुर संचेती लाधा ने २२-वीरपुर प्राग्वट लुंबा ने २३-मधुमती २४-वर्तमानपुर हावर ने आचार्यश्री के ४६ वर्षों के शासन में मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं १-लोद्रवा के भाटी जाति के शाह भुरा ने भ० महा० के मन्दिर की प्र० २-देवपुर के काग , विमल ने , " ३-आलोट के सुरवा , __ धरणने " " ४-मंगलपुर भुंरेंट नारायण ने, ५-हरीपुर नार पुरा ने , ६-पाटण भुरा श्रीपाल ने , ७-आनन्दपुर चंडालिया जिनदेव ने , -वल्लभीपुरी प्राग्वट पर्वत ने , १-पाटणअणहिल्ल के श्रेष्टि हाप्पा ने , " १०-स्तम्मनपुर श्रीमाल कोला ने ११-वडप्रद गोरा ने , १२-खेटकपुर के प्राग्वट जाला ने १३-सोपारपटण के सुघड़ खीवड़ाने १४-भरोंच श्रीमाल चाम्पा ने , नेमीनाथ १५-करणावती बाफण १६-गोसलपुर के आर्य जैना ने १७-तक्षशिला के पारख झांझपने १८-शालीपुर के बिह नोदा ने , विमलनाथ, सूरीश्वरजी के शासन में प्रतिष्ठाएँ १५०७ सुचती mn Jain Ede Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० ११२८-११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 市市市帝帝帝帝 कनोजिया, १६-लालपुर के चोरड़िया जाति के शाह धर्मा ने भ० महावीर के मन्दिर की प्र० २०-मथुरापुरी करणावट गोरा ने , " " २१-रंणथंभोर संचेती थेरु ने , " " २२-हंसावली श्रेटि इगो ने , " " २३-अजयगढ के पोकरणा , पेथा ने ,, सीमंधर , २४-शंकम्भरी के चौहान , वख्ता ने ,, भवि तीर्थक्कर , २५-पद्मावती प्राग्वट , वीरम ने , महावीर भाचार्यश्री के ४६ वर्षों के शासन में संघादि शुभ कार्य १-सोपार पटण से श्रेष्टि जाति के मोकल ने श्री शत्रुञ्जय का संघ निकाला २-अणहिल्ल पटण से चोरड़िया , जिनदास ने ३-देवपटण से संचेती मालदेव ने ४-चन्द्रावती चंडालिया छाजू ने ५-कोरंटपुर भाला पोकर ने ६-भीनमाल मल्ल बाहड़ार ने ७-सत्यपुरी घटिया नेणसी ने ८-नारदपुरी छाजेड़ लाखण ने है-कीरादकुम्प से अज्जड़ ने १०-डमरेलनगर ११-मालपुर कुम्मद १२-उपकेशपुर जांघड़ा करमण ने १३-नागपुर रांका धोकल ने १४-खटकूप तातेड़ लाल्ला ने १५-विजयपट्टण भुरंट , गोरधन ने सं० ११४४ के दुष्काल में लाखों के प्राण बचाये। १६-उज्जेन ढेढिया , धन्ना ने सं० ११५६ के दुकाल में करोड़ों द्रव्य व्यय किया। १७-माडवगढ समदड़िया ,, साँखला की माता ने एक वाबडी बंधाइ लाखों का व्यय किया। १८-चित्रकोट पोकरणा , राजा की पुत्री मानी ने शत्रुकार दिया एक कुवा बनाया । १६-पालिका प्राग्वट , मंत्री रणधीर युद्ध में काम पाया आपकी स्त्री सती हुई। २०-मेदिनीपुर से ___ श्री श्रीमाल , हर्षेण , " " २१-राजपुर के प्राग्वट , पनो " , " २२-दात्तीपुर के श्रीमाल , नारायण , , , पट्ट पचासवें सिद्ध सुरीश्वर, गदइय जाति के वीर थ ।। भात्म बज विवगुण पूरण, सागर जैसे गंभीर थे । वीर सरि भवहा गच्छ के, जिनका द्रव्य हटाया था। कदर्षि ने मन्दिर बनाया प्रतिष्ठा कर यशः पाया था। इति भगवान पार्श्वनाथ के पचासवें पट्ट पर प्राचार्य सिद्धसूरि महान अतिशयधारी आचार्य हुए। Jain E U Cernational For Private & Personal use only सूरीश्वरजी के शासन में यात्रार्थ संघy.org गोपाल ने सुजाण ने AAAAAAAH Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [श्रोसवाल सं० १५२८-१५७४ भगवान महावीर की परम्परा के २७ पट्टधरों का हाल तो हम ऊपर लिख आये हैं शेष यहाँ लिखा जाता है। सतावीसवें मानदेवसरिके समय वीरात १००० वर्ष सत्य मित्राचार्य के साथ पर्वो का ज्ञान हुआ । तथा आर्य नागहस्ति १ रेवतीमित्र २ ब्रह्मद्वीप ३ नागार्जुन ४ भूतदिन ५ और कालिकसूरि ६ एवं छः युग प्रधान यथाक्रमः से वनसेनसूरि और सत्यमित्र के बीच के अन्तर में हुए। २८-आचार्य विवुधप्रभसूरि, आप प्राचार्य मानदेवसूरि के पट्टधर आचार्य हुए । २६-प्राचार्य जयानन्दसूरि, आप प्राचार्य विवुधप्रभसूरि के पट्टधर हुए। ३०-आचार्य रविप्रभसूरि, आप आचार्य जयानन्दसूरि के पट्टधर हुए। आप श्री ने वीरात ११७० अर्थात् विक्रम सं० ७०० वर्ष नारदपुरी नगरी में भगवान् नेमिनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई जिससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना हुई । तथा वीरात् ११६० वर्ष पीछे आचार्य उमास्वाति यु०प्र० आचार्य हुए। ३१-आचार्य यशोदेवसूरि-आप आचार्य रविप्रभसूरि के पट्टधर आचार्य हुए आपके शासन समय में चैत्यवासी शीलगुणसूरि देवचन्द्रसूरि आचार्य हुए जिन्होंने बनराज चावड़ा की सहायता की और बनराज चावड़ा ने वि० सं०८०२ में अणहिल्ल पाटण की स्थापना की तथा राजा बनराज चावड़ा ने आचार्य शील गुणसूरि देवचन्द्रसूरि का महान उपकार समझकर तथा श्रीसंघ का संगठन बना रहने की गर्ज से श्रीसंघ के समक्ष एवं सम्मति पूर्वक यह मर्यादा बान्ध दी कि पाटण में चैत्यवासी आचार्यों की सम्मति लिये बिना कोई भी श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकेगा इत्यादि । तथा इसी समय में वायट गच्छ के आचार्य बप्पभट्टिसूरि न्होंने ग्वालियर के राजा आम को प्रतिबोध कर जैन बनाया। आपके एक रानी वैश्य पुत्री थी जिपकी संतान विशाद ओसवंश में शामिल करदी वे लोग राजा के कोठार का काम करने से कोठारी कहलाये। उनकी परम्परा में कर्माशाह चितौड़ में हुया जिसने पुनीत तीर्थ श्री शत्रुञ्जय का सोलहवाँ उद्धार करवाया। आचार्य श्री का समय चैत्यवास का समय था और उस समय जैन समाज का भाग्य रवि मध्यान्ह में तपता था अर्थात् सब तरह से जैनसमाज उन्नति पर था। ३२-आचार्य प्रद्युम्नसूरि-आप आचार्य यशोभद्रसूरि के पट्टधर थे। श्राप श्री भी महान प्रभाविक आचार्य हुए। ३३-प्राचार्य मानदेवसूरि-श्राप आचार्य प्रद्युम्नसूरि के पट्टधर हुए थे। आपने उपधान विधि की रचना की। ३४-प्राचार्य विमलचन्द्रसूरि-पाप आचार्य मानदेवसूरि के पट्टधर थे। ३५--आचार्य उद्योतनसूरि-बाप आचार्य विमल चन्द्रसूरि के पट्टधर हुए थे-आपश्री भी जैन शासन में प्रतिभाशाली आचार्य हुए | आप एक समय अर्बुदाचल की यात्रार्थ पधार रहे थे रास्ते में टेलीग्राम के पास एक विशाल वटवृक्ष आया आपश्री ने वहीं पर निवास कर दिया तथा प्राचार्यश्री ने अपने पीछे शासन का रक्षण करने योग्य विद्वान का विचार कर रहे थे आपने अपने ज्ञान बल से सर्व श्रेष्ट शुभ मुहूर्त एवं निमित कारण जान कर वि० सं०६४ में मनिवर्य सर्वदेव को सरिपद से विभषित किया। कई कई स्थानों पर सर्वदेवादि मुनियों को आचार्य पद प्रदान किया भी लिखा है। आपश्री के वृद्धहस्त्तों से एवं शुभ निमित में दिया हुआ आचार्य पद शासन के लिये हितकारी हुआ इस समय के पूर्व इस परम्परा का नाम वनवासी गच्छ था पर सूरिजी ने वटवृक्ष के नीचे ठहर कर सूरि पद देने से वनवासीगच्छ का नाम वटगच्छ होगया। "प्रधान शिष्य सन्तत्या, ज्ञानादि गुणैः, प्रधान चारितैश्व, वृद्धत्वा, बृहद्गच्छ इत्यादि __३६-प्राचार्य सर्वदेवसूरि आप प्राचार्य उद्योतन सूरि के पट्टधर थे परन्तु कई पट्टावली कर श्री प्रद्युम्नसूरि तथा मानदेवसूरि को पट्टवर नामावली में नहीं मानते हैं उनके हिसाब से ३६ वाँ नहीं पर ३४ वाँ पट्ट ही पाता है। प्राचार्य सर्वदेवसूरि अपने लब्धि सम्पन्न सुशिष्यों के परिवार से रामसेन्य नगर में पधारे वहाँ पर भगवान महावीर की परम्परा wwwwwwwwwwwwwwwwws १५०६ www. eitbrary.org Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि० सं० १९२८ - ११७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वि० सं० १०१० में श्री ऋषभदेव प्रभु के चैत्य तथा चन्द्रप्रभ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाकर धर्म का उद्योत किया । और चन्द्रावती नगरी के मंत्री कुंकुण के बनाये मन्दिर की प्रतिष्ठा करवा कर मंत्री को प्रतिबोध कर उसको भगवती जैन दीक्षा से दीक्षित किया इत्यादि । "चरित्र शुद्धिं विधिवज्जि नागमा, द्विधाय भव्यान भितः प्रबोधयन् । चकर जैनेश्वर शासनोन्नतिं यः शिष्य लब्ध्या भिनवो नु गौतमः ॥ नृपाद शाग्रे शरदां सहस्त्रे १०१०, यो राम सैन्य हृ पुरे चकार । नाभे चैत्येष्ठ तीर्थराज - बिंबं प्रतिष्टितां विधिवत् सदनयेः ॥ चंद्रावती भूपति नेत्र कल्पं, श्रीकुंकुरणं मंत्रिण मुच्च ऋद्धिं । निर्मापितो तुंग विशाल चैत्य, योऽदीक्षयत् बुद्धि गिराप्रबोध्यः ॥ वि० सं० १०२९ में धारानगरी में प्रखर पण्डित धनपाल नामका कवि जो जैनधर्म का परमोपासक था जिसने देशी नाम माला का निर्वाण किया था आपके लघु भ्राता शोमन ने आचार्य महेन्द्रसूरि के पास दीक्षा ली। आप बड़े ही ज्ञानी एवं कवि हुए थे आपने ही धनपाल को जैनधर्म में श्रद्धा सम्पन्न बनाया । आपके बनाये चौबीस तीर्थङ्कर के चैत्यवन्दन स्तुतियां वर्तमान में विद्यमान हैं। वि० सं० १०६६ थिरापद्र गच्छीय वादी वैताल शान्तिसूरि जिन्होंने धारानगरी के राजा भोज की सभा के पण्डितों को पराजय किया था जिसके उपहार में राजा ने सवालक्ष मुद्राएँ प्रदान की पर आप तो थे निर्मन्थ । अतः उस द्रव्य को देव मन्दिर में लगाया पं० धनपाल की तिलक मज्जरी का संशोधन आपने ही किया था तथा उतराध्ययन पर टीका रची और १०९६ में स्वर्ग पधारे । ३७ - आचार्य देवसूरि- - आप आचार्य सर्वदेव सूरि के पट्टधर थे "रूपश्री रिती भूपप्रदत विरुदधारी" अर्थात् राजाने आपको रूपश्री विरुद दिया था आपश्री बड़े ही चमत्कारी जैन शासनमें प्रभाविक आचार्य हुए। ३८ - आचार्य सर्वदेवसूरिरे- आप देवसूरि के पट्टधर आचार्य हुए आपश्री ने जैनशासन का उद्योत किया आपके शिष्य समुदाय भी गहरी तादाद में थे उन्हों के अन्दर से मुनि यशोभद्र और नेमिचन्द्रादि आठ योग्य मुनियों को आचार्य पदार्पण कर शासन के उत्कर्ष को बढ़ाया। ३६–श्राचार्य यशोभद्रसूरि और नेमिचन्द्रसूरि एवं दोनों आचार्य सर्वदेवसूरि के पट्टधर हुए आप दोनों आचार्य महान् प्रतिभाशाली थे आपके शासन समय नौ अंग वृतिकार आचार्य अभयदेवसूरिजी हुए आचार्य अभयदेवसूरि महा प्रभाविक आचार्य हुए आपने नौ अङ्गों पर टीका रचने के अलावा स्तम्भन तीर्थ भी प्रकट किया था आपश्री का जीवन चरित्र प्रभाविक चरित्र के अनुसार पूर्व लिख आये हैं । भगवान् महावीर की परम्परा के उपरोक्त ३६ पट्टधर आचार्यों की नामावली तो हम क्रमशः लिख ये हैं जो कि एक चन्द्रकुल की परम्परा कही जा सकती है। इनके अलावा नागेन्द्रकुल विद्याधर कुल और नकुल के परम्परा के आचार्य तथा इन आचार्यों की शाखा के रूप में कई गच्छ पृथक् निकले जैसे थरापद्रगच्छ, साढेरावगच्छ, हर्षपुरियागच्छ, पूर्णतालगच्छ, भावहडागच्छ, राजगच्छादि कई गच्छों में भी महान् प्रभाविक आचार्य हुए और उन्होंने शासन के उद्योत एवं प्रभावना के प्रभावशाली कार्य किये हैं तथा जैनधर्म के आधार स्तम्भ रूप ग्रन्थों की रचना भी की है। उन सबका विवरण जितना मुझे उपलब्ध हुआ है उस सबको आगे के पृष्ठों में यथाक्रमः दिये जायेंगे । यह बात मैं प्रस्तावना में लिख आया हूं कि मैंने जिस प्रकार इस ग्रन्थ को लिखने का आयोजन पहले से किया था पर कई कारण ऐसे उपस्थित हुए कि उसका पालन हो नहीं सका अतः जैसा सुविधा देखा वैसा ही आगे पीछे लिख दिया है फिर भी पाठकों को एक ग्रन्थ में सब बातें पढ़ने में सुविधा अवश्य हो गई हैं। १५१० For Private & Personal Use भगवान् महावीर की परम्परा के श्र Www.jainelibrary.org Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन 7 [ओसवाल सं० १५२८-१५७८ पहले यथा स्थान लिखना रह गया था वह यहाँ पर लिख दिया जाता है। "मण १ परमोहि २ पुलाए ३ आहार ४ खवग ५ उवसम ६ कप्पे ७ संयम तिग ८ केवल ६ सिजणा १० य. जंबुम्मि बुच्छिण्णा ॥१॥ मनपर्यव ज्ञान, परमावधि ज्ञान, पुलाकलब्धि, पाहारिक लब्धि, खपकश्रेणी, उपशमश्रेणी, तीन संयम (प्रतिहार विशुद्ध सुक्षमसंपराय, यथाख्यात) केवल ज्ञान, और सिद्ध होना अर्थात् मोक्ष एवं दश बोल म० जम्भुस्वामि के पश्चात् विच्छेद हो गये। एक समयं भगवा सकेसु विहरति सामगामे तेन खोपन समयेन निग्गन्त्थो नायपुत्तो पावायं अघुना काल कतो होति तस्स काल किरियाय भिन्न निग्गन्था द्विधिकजाता भंडनजाता कलहजाता विवादपन्ना अण्ण मण्णां मुख सतोहिं वितुदेत्ता विहरंति" "मजिम निकाय बोद्ध ग्रन्थ से" उपरोक्त पाठ का सारांश मैंने पहले महात्मा बुद्ध के सम्बन्ध में जो इस पुस्तक में लिख दिया था जो मुझे मुख जबानी याद था पर अब उसका मूल पाठ भी मिल गया। उसको यहाँ लिख दिया जाता है। इस भ्रांति पूर्ण पाठ का समाधान उसी स्थान पर कर दिया है कि जहाँ इस की चर्चा की गई है यहाँ तो केवल उस ग्रन्थ का मूल पाठ ही लिखा है। wiwwwwwwwwwwwwwwwwsanwwwwwww RamniwanNew dain = पूर्व में रहे हुए कुछ सम्बन्ध के लेख For Private & Personal wwwguary.org Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मन्दिर मूर्तियों पर खुदे हुए शिलालेख श्रीसद् उपकेशगच्छाचार्य विक्रम पूर्व ४०० अर्थात् वीराब्द ७० वर्ष से जैन भावुक भक्तों के बनाये मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाऐं करवाते आये हैं उसमें कई शताब्दियों तक तो ऐसा जमाना गुजर गया था कि उस समय के लोग आत्माश्लाघा व नामवरी के भय से शिलालेख खुदाते ही नहीं थे । उस समय के राजा महाराजाओं ने भी बहुत से मन्दिर एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवाई थी पर वे अपना नाम नहीं खुदाते थे जैसे सम्राट् सम्प्रति ने सवालक्ष नये सन्दिर और सवा करोड़ मूर्तियों की प्रतिष्ठाऐं करवाई थी पर उन्होंने किसी एक मूर्ति पर भी अपना नामांकित नहीं करवाया था जब एक सम्राट् का ही यह हाल है तो साधारण मनुष्य तो अपना नाम कैसे खुदा सकता था अर्थात् शायद वे इस बात को शरम की बात ही समझते होंगे। खैर ! जब मूर्तियों पर नाम खुदाना शुरु हुआ तब उन मन्दिर मूर्तियों पर नाम खुदाया भी होगा पर उस समय की मन्दिर मूर्तियाँ बहुत कम रह गई इस का कारण शायद विधर्मियों की धर्मान्धता हो कि उन्होंने बहुत से मन्दिर मूर्तियों को तोड़ फोड़ कर नष्ट कर दिये हों उदाहरण के तौर पर हमारा पवित्र तीर्थ श्रीशत्रुअय है उस पर बहुत प्राचीन समय से ही मन्दिर थे और समय समय इसके उद्धार भी हए और नये नये मन्दिर भी बनवाये पर आज इतनी प्राचीन मन्दिर मूर्तियाँ वहाँ नहीं मिलती हैं। जैसा हाल मन्दिरों का हुआ वैसा ही शानों का हुआ। प्राचीन समय में जैन श्रमण सब झान मुख जबानी हो याद रखते थे । अतः उनको ग्रन्थ लिखने की आवश्यकता ही नहीं थी इतना ही क्यों पर लिखित पुस्तक अपने पास में रखने की भी सक्त मनाई थी यदि कोई रख भी ले तो उसके लिये प्रायश्चित का भी विधान किया है अतः जैन श्रमण सब ज्ञान कण्ठस्थ ही रखते थे और अपने शिष्यों को आगमादि का ज्ञान भी मुख जबानी ही करवाते थे पर जब काल के बुरे प्रभाव से मनुष्यों की याद शक्ति कम होने लगी और केवल ज्ञान कण्ठस्थ ही रखने का आग्रह किया गया तो पागम विस्मृत होने के भय से प्राचार्यों ने पुस्तक पर लिखने की प्रवृति शुरु की। यह बात जैन शासन में खूब ही प्रसिद्ध है कि आर्य देवर्द्धिगणि तमाश्रमणजी ने वल्लभी नगरी में संघ सभा कर भागमों को पुस्तकारूद करवाया । यद्यपि श्रीक्षमाभमणजी के पूर्व भी पुस्तक के लिखे जाने के प्रमाण मिलते हैं पर क्षमाश्रमणजी के समय से तो जैन श्रमणों में आम तौर से पुस्तकें लिखना लिखवाना प्रारम्भ हो गया था और प्रामोग्राम ज्ञान भण्डार की स्थापना भी करवादी थी पर भाज हम ज्ञान भण्डारों को देखते हैं तो पुज्य क्षमश्रमणजी के समय के ही क्यों पर आपके पीछे भी कई शताब्दियों का लिखा हुआ एक प्रन्थ तो क्या पर एक पन्ना तक भी नहीं मिलता है। इसका कारण भी जैसे विधर्मियों ने मन्दिर मूर्तियों को तोड़ फोड़ कर नष्ट करदी वैसे ज्ञान भएडारों को भी अग्नि में जला कर पानी में सड़ा कर नष्ट कर डाले । यही कारण है कि प्राचीन समय के मन्दिर मूर्तियों और पागम प्रन्थ के साहित्य नहीं मिलते हैं। तथापि हमारे प्राचार्यों की परम्परा से धारणामान भी चला आ रहा था जैसे गा अपने शिष्यों को अपने पूर्वजों से चले आये कण्ठस्थ ज्ञान की शिष्य को शिक्षा देते थे जब वे शिष्य गुरु बनते थे तब वे भी अपने शिष्यों को वह ज्ञान याद करवा दिया करते थे और इस प्रकार परम्परा से चले आये ज्ञान को धारणाझान अर्थात् धारणा व्यवहार के नाम से कहते थे वह जैन शासन में बहुत प्रसिद्ध है और उसी शान के आधार पर पट्टावलियांदि ग्रन्थ लिखे गये थे। ___ कई कई प्राचार्यों के शासन में जितना काम होता वह लिख कर अपने पास में भी रखते थे कि भाचार्यश्री के शासन में किस किस भक्त श्रावक ने शत्रुञ्जयादि तीर्थों के संघ निकाले, किस श्रावक ने कितने Jain Edy Rernational For Private & उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा ry.org Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ x मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवाई इत्यादि और विक्रय सं० ७१५ से तो प्रत्येक आचार्य अपने शासन काल में हुए कार्य की नोंध कर ही लेते थे इतना ही क्यों पर श्रावकों की वंशावलियां भी लिखना प्रारम्भ हो गया था। इस प्रकार दीर्घ दृष्टि से प्रारम्भ किया हा कार्य का फन यह हुआ कि मन्दिर मर्तियां और ज्ञान भण्डारों के नष्ट भ्रष्ट होजाने पर भी हमारे भाचार्य एवं श्राद्ध वर्ग का कितना ही इतिहास सुरक्षित रह सका। और उस साहित्य के भाधार पर आज हम जैनाचार्य एवं उनके भक्त भावकों का इतिहास तैयार कर सकते हैं। इतना ही क्यों पर मैंने इस प्रन्थ में प्रत्येक आचार्य के जीवन के अन्त में भावुकों की दीक्षाएँ, श्रावकों के बनाये मन्दिर एवं मूर्तियों की प्रतिष्टाएँ, तीर्थों के संघ, वीरों की वीरता, दुष्काल में करोड़ों का द्रव्य व्यय कर देशवासी भाइयों एवं पशुओं के प्राण बचाने वालों की नामावली तथा फई जनोपयोगी कार्य जैसे-तालाब, कुँए, वापियां, धर्मशलाएँ वगैरह बनाने वालों की शुभ नामावली दे आये हैं। उक्त साहित्य के अलावा वर्तमान पुरातत्व की शोघ खोज से तथा वर्तमान में विद्यमान मन्दिर मूर्तियों के शिलालेख मिले हैं जिनको शान प्रेमियों ने मुद्रित भी करवा दिये हैं। उन मुद्रित पुस्तकों में भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के प्राचार्यों के करकमलों से करवाई प्रतिष्ठाओं के शिलालेख यहाँ दर्ज कर दिये जाते है। पाठक पढ़कर कम से कम अनुमोदन तो अवश्य करें१-"वरिस सएसु अ णवसु, अठारह समग्गलेसु चेतम्मि । णक्खते बिहुहथे बुहदारे, धवल बीअाए ॥१६॥" तेस सिरि कक्कुरणं जिणस्स, देवस्स दुरियाणिदलणं । कराविश्यं अचलमिमं भवणं भत्तीए सुइ जण्यं ॥२२॥ अप्पि अमेअं भवणं सिद्धस्स धणेसरस्य गच्छमि०। बाबू पूर्ण लेखांक ६४५ ___ मारवाड़ में यह शिलालेख सबसे प्राचीन है घटियाला ग्राम से मिला है। इस शिलालेख में प्रतिहार कक्व ने जिनराज की भक्ति से प्रेरित हो मन्दिर बनाकर धनेश्वर गच्छवालों को सुपुर्द किया लिखा है । २-मारवाड़ के गोड़वाद प्रान्त में हथुड़ी नाम की एक प्राचीन नगरी थी। वहाँ पर राष्ट्रकूट (राठौर) राजाओं का राज्य था और वे राजा प्रायः सब जैन धर्म के उपासक थे जिसमें हरिवर्मन का पुत्र विदग्धराज ने आचार्य केशवसूरि की सन्तान में वासुदेवाचार्य के उपदेश से वि० सं० १७३ में जिनराज का मन्दिर बनवाया था जिसका बड़ा शिलालेख बीजापुर के पास में मिला था वह बहुत विस्तृत है। उस लेख में विदग्धराज के अलावा आपके उत्तराधिकारी मम्मट वि० सं० ६६६ में उस जैन मन्दिर को कुछ दान दिया है । वह भी शिलालेख में लिखा है । तथा मम्मट का पुत्र धवल ने वि० सं० १०५३ में अपने पितामह के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था जिसका उल्लेख भी प्रस्तुत शिलालेख में है उस शिलालेख का कुछ अंश यहाँ दे दिया जाता है। _ "रिपु वधु बदनेन्दु हृतयुतिः समुदपादि विदग्धनृप स्ततः ।। ५॥" स्वाचार्यो रुचिरवाच (नैर्वा ) सुदेवाभिधानै-र्योधं नीसो दिनकर करीर जन्माकरोव । पूर्व जैनं निजमिव यशोंऽकारयद्धस्तिकुंडयां । रम्यं हर्म्यगुरुहिमगिरेः शृङ्गाशृङ्गा रहरी ।। ६ ।। राम गिरिनन्द कलिते विक्रम काले गतेतु शुचिमासे श्रीमद्बलभद्र गुरोविदग्धराजेन दतमिदम् ।। नवसुशतेषु गतेषु तु षण्णवतीसमधिकेषु माघस्य कृष्णकादश्यामिह समर्थितं मम्मट नृपेण ॥ इत्यादि लेख बहुत बड़ा है । श्रीमान् पाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर के जैन लेख संग्रह प्रथम खण्ड पृ० २३४ में मुद्रित हो चुका है। उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तिया की प्रतिष्ठी .conal use only X Jain EMS ५३ www.jamelibrary.org Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३-ॐ संवत् १०११ चेत्र सुदि ६ श्री कक्काचार्य शिष्यदेवदत्त गुरुणा उपकेशीय चैत्यगृह अस्वयुज् चैत्रषष्टायां शान्ति प्रतिमा स्थापनीया गन्धोदकन् दिवालिका भासुल प्रतिमा इति । बाबू पूरणचन्द लेखांक १३४ ___ इस मूर्ति के लिये श्रीमान् पूर्णचन्दजी नाहर लिखते हैं कि-"४८ नं० इण्डियन मिरर स्ट्रीट-घरमतला x x श्रीरत्नप्रभसूरी प्रतिष्ठित-मारवाड़ के प्रसिद्ध उपकेश (ओसियां ) नगरी के श्रीमहावीरस्वामी के मन्दिर के पार्श्व में धर्मशाला की नींव खोदते समय मिली श्रीपार्श्वनाथजी के मूर्ति पर के पश्चात का लेख । मन्दिर की प्रशस्ति ४-निम्न लेख ओसियां के किसी एक मन्दिर के भग्न खण्डहरों में मिला था जिसको सुरक्षित रखने की गर्ज से ओसियां के महावीर मन्दिर के ऊपर के मण्डप में लगा दिया जिसकी प्रतिलिपि निम्नलिखित है। ॥ॐ॥ जयति जनन मृत्यु व्याधि सम्बन्ध शून्यः परम पुरुष संज्ञः सर्व वित्सर्व दर्शी ससुर मनुज राजामीश्वरोनीश्वरोपि, प्रणिहित मतिभिर्य्यः स्मर्य्यते योगिवय्यः ॥ १॥ मिध्या ज्ञान धनान्धकार निकरावष्टब्ध सद्बोध दृग्दृष्ट्वा विष्टपमुद्भवद् घनघृणः प्राणभृतां सर्वदा कृत्वा नीति मरीचिभिः कृत युगस्यादौ सहस्रां शुवत्प्रातः प्रास्ततमास्तनोतु भवतां भद्रंस नाभेः सुतः॥२॥ यो गीर्वाण सर्प-भिद भिहितां शक्ति मश्रधा नः क्रूरः क्रीड़ा चिकीर्ष्या कृत...." वृद्ध......'मुष्टया यस्याहतो सौ मृति मित इयता नामरत्वं यतो भूत्पुण्यैः सत्पुण्य वृद्धिं वितरतु भगवान्वस्स सिदार्थ सूनुः ॥३॥ स्वामिन्किं स्वर्नियासालय बन समयोस्माक माई ........"नस्यावसाने...."उत महती काचिदन्याय देषा इत्युभ्रान्तरात्मा हरि मति भयतः सस्व जेराच्य नीचैर्यत्त्पादांगुष्टकोद्याकनक नगपतौ प्रेरिते व्योत्सवीरः ॥ ४॥ श्रीमानासीत्प्रभुरिह भुवि........यक वीर स्त्रैलोक्येयं प्रकट महिमा राम नामासयेन चक्रे शाक्रं दृढ़तरमुरो नियालिङ्गनेषु स्वप्रेयस्या दशमुख वधोत्पादित स्वास्थ्य वृत्तिः ॥५॥ तस्या काषत्किल प्रेम्णालक्षमणः प्रतिहारताम् ततोऽभवत् प्रतीहार वंशोराम समुद्भवः ॥ ६॥ तद्वंशे सबशी वशीकृत रिपुः श्री वत्प्त राजोऽभवत्कीतिय्यस्य तुषार हार विमला ज्योत्स्नास्तिरस्कारिणी नस्मिन्मामि सुखेन विश्व विरे नवेव तस्माद्वहिनिर्गन्तुं दिगिभेन्द्र दन्त मुसल व्याजाद काष्पीन्मनुः ॥ ७॥ समुदा समुदायेन महता चमूः पुरा पराजिता येन ......... समदा ॥ ८ ॥............ समदारण तेनावनीशेन कृता भिरक्षः सद्ब्राह्मण क्षत्रिय वश्य शूद्रः। समेतमेतत्प्रथितं पृथिव्या मूकेशनामास्ति पुरं गरीयः । ॥..."सक्रान्तं परैः......"मिव श्री मत्पालितं यन्महीभुजा । तस्यान्तस्तपनेश्वरस्य भवनं विभूभृशं शुभ्रतामभ्रस्पृम्हगराज कुञ्जर युतं सद्वैजयन्ती लतम् किं कूटं हिम..." सूत रति ॥ १०॥ तद कार्य्य तार्या बचसा संसार..." या ॥ ११ ॥ क्वचित्..."रबुद्धयोधिकम् धीयते साधवः क्वचित्पटुपटीयसी प्रकटयन्ति धर्म स्थितिम् । क्वचिन्तु भगवत्स्तुति परिपठयन्ति यस्या जिरे.................."ध्वनिमदेव गाम्भीर्य्यत ।। १२ ।। वीक्षणे क्षणदां स्वस्य वर्णलक्ष्मी विपश्चिताम् । बुद्धिर्भवत्यवद्यास्ते यत्र पश्यन्त्यदः सदा ॥ १३ ॥ आचार्य्यादेवचन बन...नि..."मुच्चैः सर्वाव...."पयार्यः प्रतिध्वान दण्डम् सत्यं मन्ये यदु दित मितीवा वादीत्समन्तात्सोयं भूयः प्रकट महिमा मण्डपः कारितोत्र ॥ १४ ।। ........"किं चान्ह ....."यिकार त्रेव......."ब्धः । तारापितं येन सुवंश भाजा सद्दानस माणित मार्गणेन ॥ १५॥ पुत्रस्तस्या उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा..wore १५१४ Jain Education international Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ोसवाल सं० १५२८-१५७४ wwwwwwwww भवत्सोम्यो वणिजिन्दक संज्ञितः । इन्दुवत्कान्ति........'लयः ॥ १६ ॥ चदुहरा....." हयाप्रसाद युक्ता स्वयशोभिरामा । सदानुसी स्वपतिनदीनं मार्गणावात........"तरगा ॥ १७ ॥ तस्मात्तस्यामभूद्धमी त्रिवर्ग .......॥ १८ ॥ यन्नाकारि सितेतरच्छवि ....."नत्वा दिनं याचितै ध्यर्थेनात्थिं जनरपि प्रतिगतं यद्गेहमभ्ययितं । किं चान्यद्भुवने दरोरु सरसि व्याप....."नीर नीर दसित......॥ १६ ॥ लिनेन्द्र धर्म प्रति युक्त पोनयो........"ताये........"कुमतेर्मनागपि । मि......"वंसतोपिहि मण्डलेथवान सन्मणीनां भवतीहकापता........॥ २० ॥ यदि वादि..........."संज्ञिता..........."जाकलावपि ॥ २१ ॥ तत्र ब्रह्म वौ स्वर्गा सम्प्राप्ते तन्महिलया । दुर्गया प्रतिमा कारि स........"प्रधामनि ।। २२ ।। अाम्रकात्सर्वदेव्यातु............. यत......"देवदत्त........ मिवागमे ॥.... प्रतिदिन मिति..........."या कार्य प्रति विदधते यद्वदधिकं ॥ ध्यैर्यवन्तो पिये त्यन्तं भीरबः परलोकतः । भोगि............हिको ........."ञ्च दूरगाः ॥.....ति...."बला षतत्स........."भिः पुत्रयं भूमण्डनो मण्डपः। पूर्वस्या ककुभि त्रिभारा विकलः सन्गोष्ठिकानु........ जिन्दक........"मतदु..... व्य........ कृतयो....नेन:जिनदेव धाम तत्कारितं पुनरमुष्य भूषणं। मत्स दृग्दृश्यते...." द्वेजयत्री भूजयन्त........संवत्सर दशशत्यामधिकायां पत्तरै यो दशभिः फाल्गुन शुक्ल तृतीया भाद्र पदाजा.........सं०१०१३................. या॑म ॥ प्राजापत्यं दधदपि मना गक्षमालोपयोयी शंखं चक्रं स्फुटमपिव........'करोवः पाया......"भुवन गुरुन्नति.................... ॥ भावद्गौYढ़ वह्निर्गुरु भर विन मनमूर्धाभिर्द्धार्यते घोयावन्मेरुर्मरुभिर्नि तियु ते....."। वशिखमुखच्छेद...." श्रीमद्व ....... दशा प्रच.........नित्यमस्तु ।। जयतु भगवांसताव..........."कीर्तिनि रीति वपुः सदा ॥ यस्मादस्मिन्निजम्मन्यवरि पति पति श्री.........."समा...."प्रकट मुतारनो....."सूत्रधारत्व....."व्विति... .....दित मिदं । __"श्रीमान् बाबू पूर्णचन्दजी नाहर के जैनलेख संग्रह प्रथम खण्ड लेखाँक ८०६” ५-सं० १०३५ श्रासाद सुद १० आदित्यवारे स्वाति नक्षत्रे श्री तोरण प्रतिष्ठापि मिति थम खंड लेखांक ७८९ ६-सं० १०७८ फाल्गुन पदि ४ श्रीपार्श्वनाथ:बिंब का०प्र० श्रीककसूरिभिः ७६२ ७-ॐ सं० ११०० मार्गशिर सुदि ६... "शालिभद्र...."देवकर्म श्रेयोर्थ कारित जिनत्रिकम् बाबू पूर्ण० सं० प्रथम खण्ड लेखांक ८०३ । ८-सं० ११२५ वर्षे वैशाख सुद १० श्रीमाली माल्हण भा० न्हाणी निमितं पंचायतीर्थीविष प्र० उ० धातु लेखांक ५३४ मातरसुमति देहरे१-सं० ११७२ फाल्गुन सुदि ७ सोमें श्रीऊकेशीय सावदेव पल्या आम्रदेव्या कारितं कुकुन्दाचार्यः प्रतिष्ठा धातु. लेखांक ११७ १०-सं० १२०२ प्रासाद सुद६ सोमें श्रीप्राग्वटवंशे भासदेव देवकी सुतः । महं बहुदेव धनदेव सूर्यदेव जसायु रमणाख्या बन्धव महं धनदेव श्रेयोऽर्थे तत्सुत बालण धवलाभ्यां धर्मनाथ प्रतिमा कारितं श्रीकुकुदाचार्यैः प्रतिष्ठिताः लेखांक १३५ शत्रुञ्जयतीर्थ पर। उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा १५१५ Jain Education internation Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ११-सं० १२०२ आसाढ़ सुर ६ सोम श्रीप्राग्वटवंशे आसदेव सुतस्य धनदेवस्य पत्न्या श्रे० बोल्ह शीलाइ सुत्ता शान्ति मात्याः श्रेष्टोऽथ तत्सुत महाँ० बालण धवलाभ्यां श्री शान्तिनाथ प्रतिमा कारिता श्री कुकुन्दाचार्ये प्रतिष्टितेतिं ॥ लेखक १३६ श्री शत्रुञ्जय पर १२ – सं० १२०२ श्रासाद सुद ६ सोमे सूत्र० सोढा साहसुत सूत्र केला बोल्द सहब सोहप्या बागदेव्यादिभिः श्रीविमलवसति का तीर्थ श्रीकुंथुनाथ प्रतिमा कारिता श्री कुकुन्दाचार्यै प्रतिष्ठिताः । मंगल महा श्री छः । लेखाँक १४३ तीर्थश्री शत्रुञ्जय पर । महं ताज " "स्वपितृ श्रेयोऽर्थ लेखांक १४७ शत्रुञ्जय तीर्थ पर प्रतिष्ठितं श्रीककुन्दाचार्यैः प्रतिष्ठिताः लेखक १५० तीर्थ श्री शत्रुञ्जयपर जिन० सं० लेखक : २४ । १४ -- सं० १२०२ आसाढ़ सुर ६ सोमे श्री ऋषभनाथ बिम्ब मंगलमहं उ० जसराकेन स्वपितृ उ० बबलु योऽर्थं प्रतिमा कारिताः । १५ – सं० १२१२ ज्येष्ठ बदि ८ भोमे चंद्रा ककुन्दाचार्यैः प्रतिष्ठिता १६ – सा० लाखपुत्रतिहुपसिंह श्री शान्तिनाथं करितं प्रतिष्ठितं श्रीककसूरिभिः १७- सं० १२४५ फाल्गुन सुदि ५ श्रद्येह श्रीमहावीर रथशाला निमितं चंड बन्धु यशष भार्य सम्पूर्ण श्रविकाया श्रात्म श्रेयार्थ समस्त गोष्टि प्रत्येक्षं च श्रात्मीय सज्जन वर्ग समेतेन आत्मीय स्वगृद्ददतं । २२२६ बाबू पूर्ण० लेखांक ८०७ जिन० लेखक २१३ पाल्हिया धीत देव १३- सं० १२०२ आसाढ़ सुद्द ६ सोम श्री० उ० अमरसेरसुत प्रतिमा कारिता श्रीकुकुन्दाचार्यैप्रतिष्ठिताः मंगलमहं छ । १८ - सं० १२४५ फाल्गुन सुदि ५ श्रये श्रीमहावीर रथशालानिमितं पाल्हिया घीय देवन्द्र बन्धु यशोधरभार्य सम्पूर्ण श्राविकया आत्म श्रेयार्थ आत्मीय स्वजन वर्ग समस्तेन खगृहदत्तं बाबू पूर्ण० लेखक ८०६ १६ - सं० १२४६ माघ बदि १५ शनिवार दिने श्री मज्जिनभद्रोपाध्याय शिष्यैः श्रीकनकप्रभ महत्तर मिश्र कायोत्सर्गाः कृतः लेखक ८०८ २० –“सं १२५६ कार्त्तिक सु० १२ सुचेत गुत्री सहदिग पुत्रः शशु दरदी सुखदी सल्ल सर्व प्रसाद विंशतिजिनः मातृ पट्टिका निज मातृ जन्हव श्रेयेथं कारिता श्री कक्कसूरिभिः प्रतिष्ठिता ( ओसियां ) बाबू पूर्ण o जैन लेख संग्रह लेखांक ७६१ २१ – सं० १२६१ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १२ श्री मदुकेशगच्छे श्रे० महाराज श्रे० महिसतयोः श्रेयोर्थ श्रीपार्श्वनाथ विका० प्र० श्री सिद्धसूरिभिः ॥ ईडर २२—सं० १२६२ वर्षे वैशाख सुदे ५ उक्केश ज्ञातौ बापनाग गौत्रे सा० सागण श्र० सीलाइ पु० देवा भीमा भा० राजाइ तत्पु० मालाकेन श्री आदिनाथ बिंब कारापितां प्रतिष्ठा श्री उपकेशगच्छीय श्रीसिद्धसूरि मंगल म० छ० "लेकांख ७८६” २३- सं० १३......वर्षे आसाढ सुदि ३ उकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने श्री श्रीशांतिनाथबिंषं का० प्र० श्रीदेवगुसूरिभिः ॥ बडोदरा - नरसिंहजी की पोल दादापाश्वे जिना० २४ – सं० १३१४ वर्षे फाल्गुण सुदि ३ शुक्रे श्रीसदूके भार्यापन्न दे आल्द भार्या अभयसिरिपुत्र गणदेव देवाभ्यां पितृमातृ श्रेयोर्थ श्रीनेमिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीदेवगुप्त सूरिभिः ॥ जैसलमेर बा० ले २२३६ २५ – सं० १३१५ वर्ष फागुण सुदि ४ शुक्रे । श्रे० वामदेवपुत्र रणदेव धरण मा० आसलदे श्रे० राम श्री पार्श्वनाथ बिम्बं कारितं ( प्र ) श्रीककसूरिभिः । उदयपुर शीतल जिन० For Private & उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा ary.org Jain Edi१५१६emational Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ ओसवाल सं० १५२८-१५७४ २६-सं० १३१५ ( 1 ) वर्ष वैशाख वदि ७ गुरौ (1) श्रीमदुपकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने श्रीवरदेवसुत शुभचन्देण श्रीसिद्ध सूरीणां मूर्तिः कारिता श्रीकक्कसूरि (मिः ) प्रतिष्ठिता। पालनपुर २७-सं० १३२३ माघशुदि ६..........""श्रीपार्श्वनाथबिंब कारितं प्रतिष्ठिातं श्रीदेवगुप्त सूरिमिः ।। शत्रुञ्जय२८-(१) सं० १३३७ फा०२ श्री मामा मणोरथ मंदिर योगे श्रीदेव (२) गुप्ताचार्य शिष्येण समस्त गोष्ठिवचनेन पं० पद्मचंदेण (३) अजमेरु दुर्गे गत्वा द्विपंचासत जिन बिंबानि सच्चिकादेविग (४) (ण) पति सहितानिकारितानि प्रतिष्ठतानि.."सूरिणा॥ लोद्रवा लेखाँक २५६५ २६-सं० १३३७ कार्तिक सुदि २ श्री मामा मणोरथ मन्दिर योगे श्री देवगुप्ताचार्य शिष्येण समस्त गोष्टि वचनेन पं० पद्मचन्द्रेण अजमेरु दुर्गे गत्व द्विपंचाशत जिन बिंबानि सञ्चिकादेविगणपति सहितानि कारितानि प्रतिष्टितानि सूरिणा ( क्या यह लेख दुबारा लि०) ३०-सं० १३४५ श्री उपकेच्छे श्री ककुन्दाचार्य संताने नाहड़ सु० अरसिंह श्रेयशे पुत्रः । उपाराय (?) पंचभिः श्रीशान्तिनाथ का० प्र० श्रीसिद्धसूरिभिः (जैसलमेरनी ) २० २२२६ ३१-सं० १३४६ वर्षे पोरवाड़ पहुदेव भार्य देवसिरि श्रेयसोर्य पुरै वुल्हर झाझण कागड़ादिभिः । श्री आदिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री उव० श्रीसिद्धसूरिभिः ___जैसलमेर न० २२३८ ३२-सं० १३४७ वर्षे वैशाख सुदि १५ रवी श्रीउपकेशगौत्रे भीसिद्धाचार्य संताने श्रे० बेल्हू भा० देसला तत्पुत्र श्रे जनसोहेन सकुटम्बेन आत्मश्रेयंसे पार्श्वनाथ बिंब कारितं प्र० श्रीदेवगुप्तसूरिभिः नाणबेडा (मारवाड़) नं० लेखॉक ६२१ ३३-सं० १३४६ वर्षे माघ शुक्ला ५ उकेशज्ञातौ पापनागगौत्रे स. खेमा मह० पुली पु० चहाड भ० चीणी तत्पुत्र सल्हाकेन श्रीमहावीर बिंबं कारिता ककसूरि पट्टे देवगुप्तसूरि प्रतिष्टितं । नं० ३४-सं० १३५६ ज्येष्ट बद ८ श्रीउपकेशगच्छ श्रीकक्कसूरि संताने सा० सालण भा० सुहवदेवी पुत्र काल्हणेन श्रीशान्तिनाथ बिंब कारितं पित्रो श्रे० प्रति० श्रीसिद्धसूरि “खारवाड़ पार्श्व जिनालय नं० १०४४ ३५-सं० १३५६ श्रोशान्तिनाथ बिंब करितं श्रीकक्कसूरि प्रतिष्ठितं "करेडा पार्श्वनाथ नं० ३६-सं० १३६२ वर्षे वैशाखमासे शुक्लपक्षे ५ पंचम्यां तिथो गुरुदिने उपकेशवंशे मा० सांरग भार्य सुहगदव्या पु. तोलकेन श्री पाश्वनाथ प्रतिमा करिताः प्र० श्रीउपकेशगच्छे सिद्धसूरिभिः । ३७---सं० १३६८ वर्षे ज्येष्टांवदि १३ शनौ श्री श्रीमाल ज्ञा० सौवीर संताने महं-साहण पुत्र श्रादा अंबड़ आर्य पेमल श्रेयं से श्रीआदिनाथ बिंव पु० देवलेन का० प्र० पिप्पलाचार्य श्रीककसूरि 'अहमदाबाद शान्ति जिन. ३८-सं० १३७३ वर्षे श्रीउपकेशगच्छ श्रीककुन्दाचार्य संताने वैद्यशाखायां सा० हसल अमरसिंह श्रेयंसे हसल पुत्र जवात भा० वामादेवाम्पां श्रीशान्तिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्टितं श्री सिद्धसूरिभिः । धातु० नं. १६६ बगेदा-चिंतामणो पाव देहरे ३६-सं० १३७३ हरपाल गगपाल पूतानिमित्तं सिंहांकित ( महावीर) बिंबं का० प्र०.....'गच्छी (उपकेशगच्छीय ) देवेन्द्रसूरिभिः॥ श्री जिन-भाग दूसरा डभोई श्रीशामलापार्श्व जिना. ४० सं० १३७८ वर्षे ज्येष्ठ बदि : सोमे श्री उपकेशिगच्छे श्री ककुदाचार्य सन्ताने मेहड़ा ज्ञाति ( य ) सा० लाहडान्वये धाँधल पुत्र सा० छाजुभोपति भोजा भरह प्रभृति श्रीआदिनाथ कारितः प्रतिष्ठाः श्री भिः । जि० नं० २०६ शत्रुञ्जय उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तिया की प्रतिष्ठां ersonal use Only ४१५१७y.org Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ४१-सं० १३७६ वर्षे आषाढ़ वदि ८ श्री उपकेशगच्छे व्य० जगपाल भा० जासलदे पु० भीम भा० माणल पु० जालाजगसीह जयतापुतेन कुटम्ब श्रेयंसे चतुर्विंशतिपट्टः कारितः ।। प्र० श्री ककुदाचार्य संताने श्री कक्कसूरिभिः ॥ पाटण ४२ --सं० १३८० वर्षे माह सुदि ६ सोमे श्री उपकेशगच्छे बेसट गोत्रे सा० गोसलव्य० जेसंग भा० आसघर श्रे० भ्रातृ पव० श्रा० देसलतत्पुत्र सा० सहजपाल सा० साहण सा० समरसिंह पितृव्य सा० लूपा तत्पुत्र सा० सागत सॉंगण प्रमुखै चतुर्विशतिपट्टः का० प्र० श्रीककुदाचार्य सं० श्रीककसूरिभिः॥ खंभात चिन्तामणी पार्श्व० जिना० ४३--सं० १३८० महा सुदि ६ भौमे अकेशगच्छे आदित्यनाग गोत्रे सा० विरदेवात्मज स० भंटुक भा० मोषाहि पुत्र रुद्रपाल भा० लक्ष्मणा भ्रातृघणसिंह देवसिंह पासचन्द्र पूनसिंह सहिताभ्याँ कटुम्ब श्रेया) श्री शान्तिनाथ बिंबं का० ककुदाचार्य संताने श्रीकक्कसूरिभिः ॥ धातु नं० ७११ पेथापुर ४४-सं० १३८० ज्येष्ठ सुदी १४ श्री उएसगच्छे श्रे० म...."लाभा० मोषलहे पु० देहा कमा पितृमात श्रेय से श्रीआदिनाथ बिंबं कारितं प्र० श्री ककुदाचार्य सं० श्रीककसूरिभिः।। ब० ले० १३५८ चुरु (बीकानेर) शान्ति ४५--सं० १३८५ वर्षे फागुण सुदि....."श्रीपार्श्वनाथ बिम्बं कारिता प्रतिष्ठितं श्रीककसूरिभिः। ___ उदयपुर मेवाड शितल० १०४३ ४६-सं० १३८६ वर्षे ज्येष्ठ वदि ५ सोमे श्री ऊएसगच्छे बप्पनाग गोत्रे गोल्हा भार्या गुणादे पुत्र मोखटेन मातृपित्रीः श्रेयं से सुमतिनाथ बिंबं कारितं प्र० श्रीककुदाचार्य सं० श्रीककसूरिभिः ॥ जैसलमेर-चंद्रपभ-२२५३ १७-सं० १३८७ वर्षे माघ शुदि १० शनौ श्रीउपकेशगच्छ खुरियागोत्रे सा० घीरात्मज सा० झांझण भार्या जयतलदे सुत छाड़ आसाभ्यां मातृपित्रोः श्रे० श्री अजितनाथ बिंबं का. प्र. श्रीककुदाचार्य संताने प्रभु श्रीककसूरिमिः ॥ धातु-बडोदरा-जानिशेरी चन्द्रप्रम-नं० १४३ ।। ४-सं० १३८८ वर्ष माय सुदि ६ सोमे उकेशगच्छे आदिनागगोत्रे शा० खीरदेवात्मज शा० भंदुक भा० मुखाहि पुत्र ऋशाल लक्ष्मणभ्याम् भ्रातृ धनसिंह देवसिंह पासचन्द्र पुनसी सहिताभ्य कटुम्ब श्रे० शांतिनाथ वियं का प्र० ककुदाचार्य संताने श्रीकक्कसूरिमिः ॥ धातु नं० ७०६ पेथापुर ४६-सं० १३६१ श्री ऊकेशगच्छे श्रीककुदाचार्य संताने सोमदेव मार्या लोहिणा आत्मर्थ श्रीसुमति बिंब कारितं श्रीककसूरिभिः ॥ २२६१ जैसलमेर-चन्द्रप्रभ ५० -सं० १३६२ वैशाख सुदि ३ उएशगच्छे कांकरिया शाखायां सा० भाणा भा० भोली पु० देवाकेन श्रीनेमिनाथ बिंबं का० प्र० ककसूरिभिः ।। जैसलमेर ५१-सं० १४०० वर्षे वैशाख शुदि उपकेशवंशे चीचट गोत्रे संघपति सा० देसन्नात्मज सा०पाल भार्या नयणदेव्य संघ० श्रीरंग संग......."सिंह सं० मूरा सं• दादू साहाय्येन श्रीस्तंमतीर्थे सं० धनपत्य..... समवसरणं प्रति० श्रीकक्कसूरिभिः ।। लेखांक १०७६ ५२-सं० १४०५ वैशाख शु. ३ श्री उएसगच्छ तातहड़ गोत्र प्र० साः-ज भा. ब्रह्मादे वही पुत्र संघ सा• पाडूकेन सकुटुबेन श्रीरिषभ बिबं का प्र० श्रीककुदाचार्य संताने श्रीककसूरिभिः ।। बाबू-लेखांक ४.. १५१८ Forporate उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा - - Jain Ed i nternational Paintendrary.org Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ ५३-सं० १४०१ वैशाख ४ श्रीआदित्यनाग गोत्रे संघ० कुलियात्मज सं० झामा पुत्रेण सं ..... पुत्र श्रेयंसो श्रीशान्तिनाथ विंबं कारितं प्रति० श्रीकसूरिभिः बाबू० नं० ७२६ ५४-सं० १४११ वर्ष ज्योष्ट शुक्ला ११ उ० चोर० मा० वाग, नाथा, जोघा पितृ श्रेयंसे श्रीआदिनाथ बिंब का प्र• सिद्धसूरिसंताने देवगुप्तसूरिभिः जैसलमेर ५५-सं० १४१४ वर्षे वैशाख सुदि १० गुरौ संघपति देशल सुत समरा समरश्रीयुग्मं सा० सालिंग सा. सज्जन सिंहाभ्यां कारितं प्रतिष्ठितं ककसूरि शिष्यैः श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । शुभं भवतु जिन लेखांक ३७ ५६-सं० १४२२ वैशाख शु० ११ वुधे श्रीउपकेशाग......."प्र० ककुदाचार्य संताने श्रीदेवगुप्त सूरिभिः ५७-सं० १४२६ वर्षे माघ बदि ७ चिंचट गोत्रे वसट वास्तव्य साधुश्री सहजपाल भार्या नयणा देव्याश्रात्मश्रेय से श्रीशांतिनाथ बिंबं का० प्र० कंकुंदाचार्य संतानीय देवप्रभ सूरिभिः ५८-० १४३० वर्षे उपकेश ज्ञातीय श्रे० रहिया भा० रही पु० रूपा जाल्दण जोगा खेतू एभिः पितुः श्रे० वि० का० प्रतिष्ठितं श्रीदेवगुप्तसूरिभिः बा० लेखांक २२७४ ५६-सं० १४३२ फागण सुदि ३ शुक्रे उपकेश ज्ञातौ चेचट गोत्रे वेशट शाखा यां सं० देसल संताने सं० समरसिंह सु० सा० डुंगरसिंह भा० डूलह देव्या सु० समरसिंह श्रे० श्रीआदिनाथ बिंबं का० प्र० कंकुदाचार्य संताने श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । धातु० लेखांक ६३५ ६०-सं० १४३६ पौष वदि सोमे उपकेश......."हखीमा भार्यावाऊ पुत्र-केन पितुः श्रेयसे श्रीपार्श्वनाथ बिंबं का प्र० उपकेशगच्छे श्रीदेवगुप्तसूरिभिः धातु० लेखांक ६१७ ६१-सं० १४४५ पौष सुदि १२ बुधे ऊ. श्रे. जोला भा० हीरीपुत्रलाला केन श्रीशान्तिनाथ बिंब का० प्र० उ० गच्छे श्रीसिद्धसूरिभिः बाबू खंड १-लेखांक ४६० ६२--सं० १४४५ वर्षे वैशाख वदि ३ सोमे उपकेश ज्ञातो उघुटगोने सा० उदा भा० अनुपमा पुत्राभ्यां सा० रामा-लाखां पां पित्रु श्रे० श्रीशान्तिनाथ वियं का०प्र० उपकेशगच्छे श्रीककुन्दाचार्य संताने श्रीदेवगुप्त सूरिभिः वि०५० नं०६० ६३-सं० १४५७ वर्षे वैसाख सुदि ३ शनौ उपकेशगच्छे धेधड़ भा० केली प्रा. भूपणा भाणेमी पु० सीगकेन (१) पितृ मातृ श्रेयसे श्रीआदिनाथ बिंव का० प्र० श्रीश्रीमाले श्रीरामदेवसूरिभिः बाबू लेखांक १४६० ६४-सं० १४६२ वर्षे वैशाख शुद्धि ३ बुधे श्रीउपकेशगच्छे श्रीककुदाचार्य संताने श्रीकक्कसूरीणां मूर्तिः श्री संघेन कारिता प्रतिष्ठिता श्रीदेवगुप्तसूरिभिः ६५-सं० १४६८ वर्षे ज्येष्ठ वदि १३ रवौ ऊकेशवंशे गाहहीया गोत्रे सा० देपाल पुत्र प्राना भार्या भीमिणि श्रेयोऽथ श्रीशांतिनाथ बिंब कारितं प्रति० उपकेशगच्छे श्रीदेवगुप्तसूरिभिः बाबू पू० १०६२ ६६-सं० १४६८ वर्षे आषाढ़ शुदि ३ रवौ उपके राज्ञातौ वेसटान्वये चिंचट गोत्रे सा० श्रीदेसलसुत साधु श्रीसमरसिंह नंदन सा० श्रीसजनसिंह सुत सा० श्रीसगरेण पितृ मातृ श्रेय से श्रीआदिनाथ प्रमुख चतुविशति जिन पट्टकः कारितः श्री उपके शगच्छे श्रीककुदाचार्य संसाने प्रतिष्ठितं श्रीदेवगुप्तसूरिभिः ___ बाबू पू० लेखांक १०७२ ६७ -सं० १४७० वर्षे माघ सुदि २ गुरौ बाफण गोत्रेसाह लुभा सुत देपाल भा० मेलादे पु० जोगराज भा० जसमादे श्रीपर्श्वनाथ विंबं कारितं प्रतिष्ठितं उपकेशगच्छे श्रीककुदाचार्याभिधान प्र० देवगुप्तसूरिभिः। बाबू पूर्णचन्द २०६२ dain E उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा ersonal use only www.kt?l.org Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास . ६८-सं० १४७१ वर्षे माघ शुदि १३ बुध दिने ऊकेश वंशे बापण गोत्रे सा० सोहड़ सु० दाद भा०... ण पितृ""निमित्तं श्रीशान्तिनाथ विंबं का० प्र० उएसगच्छे श्रीदेवगुप्तसूरिभिः बा० पू० ले. ७७४ ६६-सं० १४८० वर्षे ज्येष्ठ वरि५ उपकेश ज्ञातीय आयचणाग गोत्रे सा० आसा भा० वाष्ठि पु० माजू नाहू भा० रूपी पु० खेमा ताल्हा सांवड़ श्रीनेमिनाथ विंबं का० पूर्वत लि० पु. आत्म श्रे० उपकेश कुक० प्र० श्रीद्धिसूगिमिः बाबू खंड पहला लेखांक ७७ ७-सं० १४८१ वर्षे वैशाख वदि १२ रवौ उपकेश ज्ञाती० सा० कुंत भा० कुँवरदे पुत्र भड़ा भा० भावलदे पु० सायर सहितेन श्रीवासुपूज्य बिंबं का० प्र. उपकेशगच्छे सिद्धाचार्य संताने मेदुरीय श्रीदेवगुप्तसूरिभिः धर्म ले० १२८ उदयपुर शीनलनाथ ७१-सं० १४८२ वर्षे वैशाख वदि ५ उपकेश ज्ञा० रांकागोत्रे सा० भूणा भा० तेजलदे पु० कानू रूल्हा भा० पयणीदे पु० केल्हा हाया शाल्हा तेजा सोभीकेन कारापितं नि० पुण्यार्थ आत्म श्रे० उपकेशगच्छे ककुदावार्य सं० प्र० श्रीसिद्धसूरिभिः लेखांक १०७० ७२.-सं० १४८४ वर्षे वैशाख वदि १२ रवौ उपकेश ज्ञातीय सा० कूता भा० कुंवरदे पुत्र भड़ा भा० भावलदे पु० सायर सहितैः श्रीवासुपूज्य विंबं क० प्र० उपकेशगच्छ सिद्धाचार्य संताने मेदुरया श्रीदेवगुप्तसूरिभिः बाबू लेखाँक १०७२ ७३-संवत् १४८५ वर्षे जेठ सुदि १३ चंद्रवारे उपकेशगच्छ कक्क. उपकेश ज्ञातीय बापणा सा. छाह उत्रजीदा (१) भा० जईतलरे पु० साचा माय शिवराजकेन मातृ पितृ श्रेय से श्री शान्तिनाथ बिंब कारा० प्रतिष्ठितं श्री सिद्धसूरिभिः बाबू लेखांक ३८६ ७४-सं० १४८५ वर्षे वैशाख सुदि ५ उपकेश ज्ञा० बप्पणा गोत्रे सा० देल्हा भा० देल्हणदे पु० नाथू पूना सोढा नाथू भा० साल्ही पु० मेल्हाकेन सीहा पूर्वज नि० श्रीवास पूज्य बिंबं आत्म श्रेयो० श्री उपके० कक सू० प्र० श्री सिद्धसूरिभिः बाबू लेखौंक २१७६ ___७५-सं० १४८५ वर्षे वैशाख सुदि ३ बुधे उपकेश ज्ञातौ बप्पनाग गोत्रे सा० कुड़ा पुत्र सा साजणेन पित्रोः श्रेय से श्री चन्द्रप्रभ बिम्ब का० प्र० श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्री सूरिभिः । बाबू पूर्णचन्द्र लेखांक २३६१ ७६-संवत १४८६ वर्षे कार्तिक सुदि ११ सोमे उपकेश ज्ञातीय सा० छाहड़ भार्या सुषुववे पु० राना साना सलषा (के) न निज मातृ पितृ श्रेयंसे श्रीआदिनाथ प्रासादे श्रीसुमतिनाथ देवप्रतिमा। कारिता उपकेश गच्छे श्रीसिद्धाचार्य सन्ताने प्रतिष्ठितं, श्रीदेवगुप्त सूरिभिः ॥ छ । श्री ।। महनधारीयकैः ।। बाबू लेखांक १९९२ ७७--सं० १४८८ वैशाख सुदि ६..........."सन्ताने श्री.........."भार्या रतन श्री..........."सहज. सहितेन मातृ पितृ श्रेय से श्री पार्श्वबिंब का०प्र० श्री ककसूरिभिः । धातु लेखांक ०. .७८-सं० १४८८ वर्षे पोष सुदि ३ शनी उकेश ज्ञातौ तीवट गोत्रे वेसटाऽन्वये सा० दादू भा० अणुपदे पु० सचवीर० भा० सेत्त पु० देवा श्री वताभ्यां पित्रोः श्रेयसे श्री विमलनाथ बिंबं का०प्र० श्री उकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्री सिद्धसूरिभिः बाबू लेखांक ५५० ७६-० १४८६ वर्षे वैशाख यदि १० दिने गुरुवासरे भी शांतिनाथ बिंबं का० प्र० श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्री श्रीसिद्धसूरिभिः।। १५२० . उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा org Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ ओसवाल सं० १५२८-१५७४ ८०-संवत् १६४१ वर्षे माह सुदि ५ बुध दिने गादहियागोत्रे सा० शिवराज सा० सहजाकेन माता पदमाही निमित्तं श्रीपार्श्वनाथ बिबं कारितं श्री उपकेशच्छे प्र० श्री सिद्धसूरिभिः। बाबू लेखांक १५४६ ८१-संवत् १४६३ वैशाख सुदि ५ उप० ज्ञा० आदित्यनाग गोत्रेः सा० पदमा पुत्र पेढा भ० पूजी पुत्र खीमाकेन श्री श्रेयांसनाथ विंबं का० श्री उपके शगच्छे कुक० प्र० श्री सिद्धसूरिभिः। बाबू लेखांक ११८२ ८२-संवत् १४६३ वर्षे ज्येष्ठ सुदि३ सोमे उपकेश० कनउजगोशे धूपीया शाखीया व० पता सुत सोना केन निम मातुः सभादेव्याः निमितं श्री आदिनाथ विवं का० उप० ककुदाचार्य सन्ताने प्र० श्रीसिद्धसूरिभिः ।। (पश्चतिथि ) धातु प्र० ३५१ ८३-संवत्-१४६४ वर्षे उ० चा प्र..."दीता भा० देवल पुत्र गुणसेन भा० गुरुदे निमित्तं श्री सुविधानाथ विंबं कारापितं प्रतिष्ठितं उपकेशगच्छे भट्टारक श्री सिद्धसूरिभिः । वाघमार ज्ञातीय ॥ बाबू पूर्णचन्द लेखांक २४११ ८४-संवत् १४६५ वर्षे मार्गशीर्ष बदि ४ गुरौ उपकेश ज्ञातौ सुचिंति गोत्रे साह भिस्कु भार्या जयनादे पुत्रा सा० नान्हा भोजकेन मातृ पितृ श्रेयसे श्री शान्तिनाथ बिंब कारित श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने प्रतिष्ठितं भ० श्री श्री श्री सर्व सूरिभिः । बाबू लेखांक ५३१ ____८५-संवत् १४६६ वर्षे मार्गशीर्ष यदि ४ गुरौ उपकेश ज्ञातौ सुंचिती गौत्रे साह लाधा भार्या सरजूदे पुत्र साह रामा राजाकेन मातृ मितृ श्रेयसे शान्तिनाथ विंबं का०प्र० उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने प्रतिष्ठा श्री श्री श्री सर्व सूरिभिः । बाबू लेखांक १६४१ ___८६-संवत् १४६७ वर्षे आषाढ़ यदि ८ रवी उपकेश ज्ञातौ साह सपुरा भार्या सीतादे पूत्र कर्मसिंह ने श्रीनेमिनाथ विबं पितृ मातृ श्रेय ते कारितं उपकेशगच्छे श्री सिद्धाचार्य सन्ताने प्र० श्री देवगुप्तसूरिभिः । बाबू लेखांक २३८ ८७ - संवत् १४६६ वर्षे फागुण यदि १ गुरौ उपकेश सुरगीत्रे साह सिवराज भार्या माकु पुत्र पासा सहसा भातृ बछराज पुण्यार्थं श्री शीतलनाथ विं का० प्रति० श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्री ककसूरिभिः । बाबू लेखांक २१६ ८८-संवत् १४६६ वर्षे फागुण बदि २ उपकेरा ज्ञातौ आदित्यनाग गोत्रे साह देसल भार्या देसलदे पुत्र धमी भार्या सुहगदे युतेन स्वश्रेयोऽथं श्री आदिनाथ बिम्ब का० उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सं० प्रति० श्री कक्कसूरिभिः । वाबू लेखांक ४७१ ८-संवत् १४६६ वर्षे ओसवाल ज्ञातौ मं० जसवीर भार्या सरसू सु० मं० नाईआकेन भार्या नयणादे सु० पचा जावड़ मेघादे धरमनादि कुदुंबयुतेन स्वश्रेयोऽथ श्री महावीर बिंबं का० प्र० तपा श्री मुनिसुँदरसूरिभिः । ६०-संवत् १४६६ वर्षे फागण बदि २ उपकेश सुचिंती गोत्रे साह वीरा भार्या भाउलदे पुत्र देवा भार्या कउतिगदे युतेन श्रीविमलनाथ बिबं का० प्र० उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्रीकक्कसूरिभिः । धातु लेखांक ८२५ ११-संवत १५०१ वर्षे माघ बदि ६ बुधे उपकेश ज्ञातौ प्राविणाग गोत्रे साह कालू पुत्र वील्ला भार्या देवादे आत्मश्रेयसे श्री श्रेयांस बिंब कारितं श्री उपकेशगच्छे ककुदाचा सन्ताने प्रतिष्टितँ श्रीकुन्कुमसूरिभिः । बाबू लेखांक ७३० १२-संवत् १५०१ वर्षे आषाढ़ सुदि २ उपकेशगच्छे आदित्यनाग गोत्रे साह देवसीह भार्या मेवू पुत्र सोनपालेन श्री शीतलनाथ बिम्ब का० प्र० श्री ककसूरिभिः ॥ पञ्चतीर्थी । बाबू लेखांक ७३१ उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा १५२१ Jain Education de 89 Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६३ - संवत् १५०२ वर्षे वैश्वख बाद ४ शुक्रे उनकेशगच्छे श्रेयसे धर्मसिंह भार्या धर्मादे पुत्र धूताकेन भार्या धांधलदेयुतेन स्वमातृ पित्रादिश्रेयोऽर्थं श्री शीतलनाथ बिंबं का० प्र० उकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने म० श्रीककसूरिभिः । धातु लेखांक ८३२ ६४-संवत् १५०२ वर्षे माघ सुदि ३ शुक्रे श्री केशज्ञातीय श्रेयसे चांपा भार्या चपलदे पुत्र वीरायानाम श्रे० स्वामीकेन भा० रही ऋरखु पुत्रकेन पितुर्निमित्तं श्रीचंद्रप्रभ बिंबं का० ऊकेशराच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने प्र० श्री ककसूरिभिः । धातु लेखांक ६८५ ६५ - संवत् १५०३ बर्षे माघ सुदि ३ शुक्रे ऊ० ० चांदण भार्या चांदणदे पुत्र लावा भार्या ललतादे पुत्र गोदेन पितृत्व गोघा भार्या गंगादे पितृ धर्मसी भार्या धर्मादे प्रभृति मातृ पितृ श्रेयोऽर्थं श्री कुंथुनाथ वि का० ॐ० सिद्धाचार्य सन्ताने प्र० भ० श्री कक्कसूरि पट्टे श्री देवगुप्तसूरिभिः ॥ धातु लेखांक १०६६ ६६ - संवत् १५०३ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ११ शु० श्रीउपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने जी पुत्र रामा भार्या जीवदही पुत्र भिलाकेन पत्नी पुत्र स्वश्रेयोऽर्थ भी श्रेयांस बिंबं का० विपड़ गोत्रे साह 11 बाबू लेखांक १६३४ धातु लेखांक ६७ - संवत् १५०४ वर्षे अम्बिका देवी प्र० श्री ककसूरिभिः ६८ - संवत् १५०४ वर्षे फागुन शुक्ला १३ शनौ प्रा० श्रे० गोबल भार्या करमादे तयोः पुत्र पांचा भार्या एतैः मातृ पितृ श्री पद्मप्रभु बिंबं कारापितं प्रति० ऊके० सिद्धा० भट्टारिक श्री ककसूरिभिः धातु लेखांक १०२४ ६६ - संवत् १५०४ वर्षे माघ शुक्ला ६ शुक्रे श्रीउपकेश ज्ञातौ कुर्कट गोत्रे साहू गेला भार्या देसाई पुत्र साह वाघाकेन भार्या वडलदे युतेन पित्रोः पितृव्य श्र े० श्री सुमतिनाथ विंबं का० प्र० श्री उपकेशगच्छे श्रीककुदाचार्य सन्ताने श्री कक्कसूरिभिः वि० ध० नं० २०३ ..... १०० - संवत् १५०४ वर्षे ज्येष्ठ वदि ११ भोमे प्रा० ज्ञातीय महंगोला भार्या देमाई पुत्र बालाकेन स्वश्रेयोऽर्थ श्री पार्श्वनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं उपकेशगच्छे श्री सिद्धाचार्य सन्ताने देवगुप्तसूरिभिः धातु लेखांक ६०४ १०१ - संवत् १५०५ वर्षे माघ वदि ७ गुरौ उपकेश ज्ञातौ साद लखमण भार्या लखमादे पुत्र भोजान निज पितृ मातृ श्रेयसे श्री शांतिनाथ धिंवं का० उपकेशगच्छे श्री सिद्धाचार्य सन्ताने प्र० श्री कक्कसूरिभिः १०२ – संवत् १५०५ आषाढ सुदि ६ श्री उपकेश सुचिंतित गोत्रे साह सीहा भार्या भावही पुत्र साह सोलाकेन पुत्र पौत्र युतेन आत्म पु० 'श्री चंद्रप्रभ त्रिबं का० प्र० श्री उपकेशगच्छे श्रीकक्कसूरिभिः । नं० बाबू लेखक १९४८ १०३ - संवत् १५०५ वर्षे वैशाख सुदी ६ श्रीउप केशज्ञातीय आदित्यनाग गोत्रे साह ठाकुर पुत्र साह धरण सीह भार्या चरणश्री पुत्र साह साधू भार्या मोहण श्री पुत्र श्रीयंत सोनगल भिक्खू एतैः पित्रोः श्रेयसे श्री अजितनाथ चतुर्विंशति पट्टः कारापितः । श्री उपकेशगच्छे श्री ककुदाचार्य संताने प्रतिष्ठितः । भट्टारक श्री सिद्धसूरिः तत्पट्टालंकार हार श्री कक्कसूरिभिः । बाबू लेखांक १४७६ १५२२ 'गोत्रे साइ समवर सु० १०४ -- संवत् १५०६ फाल्गुन वदि ६ श्री उपकेशगच्छे श्री ककुदाचार्य " श्रीपाल भार्या परवाई पुत्र मुद "भव ससदारंगाभ्यां पितुः श्रे० श्री सम्भवनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री सूरिभिः । लेखांक १४४६ उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख मोसवाल सं० १५२८-१५७४ १०५-संवत् १५०६ वर्षे चैत्र गुरु उ०ल. श्रेगोना भार्या चमकू पुत्र हेमा पौमा भार्या देमति नामनी स्वभ्रातृ श्रेयोऽथ भी विमलनाथ बिंबं का० प्र० उपकेशगच्छ सि० भ० ककसूरिभिः। धातु लेखांक १३०५ १०६-संवत् १५०७ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १० उप० चिपड़ गोत्रे साह रावा मार्या जेठी पुत्र देड़ाकेन मातृ पितृ पुण्या० आत्म श्रे० श्री शान्तिनाथ बिंब का० उपकेशगच्छे प्रति० श्रीकक्कसूरिभिः। बाबू लेखांक १०८३ १०७ -संवत् १५०७ वर्षे कार्तिक सुदि ११ शुक्रे प्राग्वाट कोठारी लाखा भार्या लाखणदे पुत्र को० परवत......... भोला डाहा नाना डुंगर युतेन श्रीसंभवनाथ बिंबं कारितं उएसगच्छे श्री सिद्धाचार्य संताने प्रति श्री ककसूरिभिः । बाबू लेखाँक १२५० १०८-सं० १५०७ वर्षे (जेष्ठ) शुक्ला १. उप० चिपड़ गोत्रे सा० रावा भार्या जेठी सु० रडाकेन मातृ पितृ पुण्या० आत्म श्रे० श्रीशान्तिनाथ बिंबं का० उपकेश कु० प्रति० श्रीककासूरिभिः। वि० लेखांक नं० २३३ १०६--संवत् १५०७ वर्षे चैत्र बदि ५ शनौ उपकेश ज्ञातौ कोरंटा गोत्रे साह वीसल भार्या नीतृ पुत्र सालिग सवसलजेसा भार्या सहितेन आत्मश्रेयसे श्रीसुमतिनाथ बिंबं का० उएसगच्छे प्रतिष्ठितं श्रीकक सूरिभिः। बाबू लेखांक २३२५ ११०-संवत १५०७ वर्षे जेठ वदि ४ बुधे दा० सा. भृ० अभिनन्दन बिंब काउ० सिद्धाचार्य संताने प्रति० श्रीककसूरिभिः। धातु लेखाँक ७०० १११-संवत् १५.८ वर्षे माह सुदि ५ गुरौ उप० जातीय........"करणाभ्यां श्रेयसे श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्री संभवनाथ बिम्ब कारितं प्रतिष्ठितं.........."सूरिभिः। बाबू लेखांक २३२७ ।। ११२-संवत् १५०८ वैशाख शुक्ला ५ श्रीउपकेशशातीय मूरुभा गोत्रे साह कउरसिंह पुत्र संताने रउला भार्या महणश्री पुत्र संताने भीमा मार्या भीमभी पुत्र हांसा कान्हा वरदेव सहितैः श्री पार्श्वनाथ बिंब का० श्री उपकेशगच्छे कक ककसूरिरिभिः । धातु लेखांक १३३२ ११३-संवत् १५०८ वर्षे वैशाख वदि । शनौ प्रा० सं० धना भार्या ललितादे सु० बडूबा ठाकूर सीवा प्र० भार्या कर्माइ द्रि० शाणी सुत काज जिणा भार्या पनी युतेन मातृ पितृ धात्रादि श्रेयोऽर्थ श्री सुमतिनाथ बिंब का० उकेशगच्छे सिद्धाचार्य सन्ताने प्रति० श्री ककसूरिभिः । धातु लेखॉक ६६ ११४-संवत् १५०८ वर्षे वैशाख सुदि ५ दिने सोमे श्रोसवाल ज्ञातीय सुचिंती गोत्रे साह धन्ना भार्या अमरी पुत्र तोलूकेन स्वपूर्वज रीजा पुण्यार्थ श्रीवासुपूज्य बिंबं का० प्र० श्रीककसूरिभिः । ___ बाबू-लेखांक १३३२ ११५-संवत् १५०० वर्षे माह सुदि ५ सोमे उपकेश ज्ञाती श्रेष्टिगोत्रे साह कूरसी पुत्र पासड़ मार्या जइनलदे पुत्र पारस भार्या पाल्हणदे पुत्र पदा परवत युतेन पितृ श्रेयसे श्रीसंभवनाथ बिंबं कारितं उ० श्री ककुदाचार्य संताने प्रतिष्ठितं श्रीककसूरिभिः। बाबू-लेखांक १२५६ ११६-संवत १५०६ वैशाख वदि ११ शुक्रे श्रीउपकेशवंशे चीचट गोत्रे देसलहर कुले साह सोला पुत्र साह श्रीसिंघदत्त नाम्ना श्रेयोऽर्थ श्रीकुंथुनाथ मुख्य देवयुतः चतुर्विशति जिन पट्टः कारितः प्र० श्रीऊकेशगच्छे श्रीककसूरिभिः। धातु लेखोंक १७१ ११७-संवत् १५०६ वर्षे चैत्र वदि ११ शुक्रे उपकेश झातीय पीहरेचा गोत्रे साह गोवल पुत्र पदमा भार्या पमलदे तया श्रीमुनिसुव्रत बिंबं का० प्र० श्रीउपकेशगच्छे श्रीककसूरिभिः। वि० ध० नम्बर २५१ उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ११८-संवत् १५०६ वर्षे वैशाख बदि ३ दिने उसपाल ज्ञातीय श्रेठाकुरसी भार्या राजपुत्र श्रे० देवसी भार्य मापरि गुत्र साह वधू भार्या सरू भ्रारा वीरा सहितेन मातृ पितृ श्रेयसे श्रीसुविधिनाथ बिंबं चतुर्विंशति पट्टः कारितः उपकेशगच्छे श्रीककुदाचार्य संताने श्रीकक्कसूरिभिः प्रतिष्ठितं श्रीः॥ वि० ध० नम्बर २२५ ११६ - संवत् १५१० वर्षे चैत्र वदि १० शनौ प्रा० ज्ञा० श्रे० सारंग भार्या सांरू पुत्र जाला तलका प्र० सामलादियुतेन स्वश्रेयसे श्रीसुमतिनाथ बिंबं का० श्रीऊकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने प्र० श्रीकक्कसूरिभिः । धातु लेखांक ८५८ १२०-संवत् १५११ माघ वदि ४ श्री उपकेशगच्छे आदित्यनाग गोत्रे साह धरणिंग भार्या सोनल दे पुत्र चाहड़ेन पितृ श्रेयसे श्रीपद्मप्रभ विंबं का० प्र० श्री कु० श्रीककसूरिभिः । धातु लेखांक ४६८ १२१-सं० १५११ वर्षे माह सुदि ८ वुधे श्री श्रीमाल ज्ञा० सीपा भार्या हर्पू पुत्र धर्मसी ......"भार्या गउरी कुअरी युतेन पितृ मातृ हर्षेण श्रेयोऽथं श्रीआदिनाथ बिंबं का० उपकेशगच्छे सिंहाचार्य संताने श्रीकक्कसूरिमिः ॥ धा० प्रथम भाग १२३६ __१२२-सं० १५१२ वर्षे माघ सुदि ५ सोमे........श्रीसुमतिनाथ बिबं का० प्र० भावगच्छे श्री वीर सूरिभिः ऊकेशगच्छे श्रीकक्कसूरिभिः । बाबू लेखांक ४०१ १२३-सं० १५१२ वर्षे फागुण सुदि ८ शुक्रे श्री उपकेश ज्ञातौ श्रेष्ठि गोत्रे वैद्य शा० सा० धना० भार्या सलखू पुत्र उगम भार्या ऊगमदे पुत्र भादाकेन भार्या भावलदे युतेन आत्मश्रेयसे मातृ पित्रर्थे श्रीविमलनाथ बिंब कारितं उपकेशगच्छे श्रीककुदाचार्य....."सूरिभिः । प्रतिष्ठितं । बाबू लेखांक २३३४ १२४-सं० १५१२ वर्षे वैशाख सुदि ५ ओसवाल गोत्रे साह महणा भार्या महणदे सुत साह सीपाकेन भार्था सुलेसरि प्रमख कुटम्बयतेन श्रीआदिनाथ बिंबं का० श्रीकक्कसूरिभिः।। क५३४ . १२५-सं० १५१२ वर्षे फागुन सुदि १२ श्राहतणा (आईचणा ?) गोत्रे साह घना भार्या रूपी पुत्र मोकल भार्या माहणदे पुत्र हासादियुतेन स्वमाकल श्रेयसे श्रीसंभवनाथ बिंबं का० उकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने प्र० भ० श्रीकसूरिभिः । ६२३ १२६-मं० १५१२ माघ सुदि ७ बुधे श्री श्रोसवाल ज्ञाती आदित्यनाग गोत्रे साह सिंघा पुत्र ज्येल्हा भार्या देवाही पुत्र दशरथेन भ्रातृ पितृ श्रेयसे श्रीअनन्तनाथ बिंबं कारितं श्रीउपकेशगच्छे श्रीककुदाचार्य संताने प्रतिष्ठितं श्रीकक्कसूरीभिः। ११५३ १२७ -संवत् १५१२ माघ वदि ७ बुधे उपकेश ज्ञातौ आदित्यनाग गोत्रे साह तेजा पुत्र सुहका भार्या सोना पुत्र सादा वच्छा, हँसा, पासा, देवादिभिः पित्रोः श्रेयसे श्रीसुमतिनाथ विंबं कारितं प्रतिष्ठितं उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्रीकक्कसूरिभिः । . लेखांक १२६१ १२८-संवत् १५१२ वर्षे फाल्गुन सुदि १२ श्रीउपकेशगच्छे श्रीककुदाचार्य सन्ताने श्रीउपकेशज्ञातौ श्रीश्रादित्यनाग गोत्रे साह आशा भार्या नीबू पुत्र छानू भार्या छाजलदे पितृ मातृ श्रेयोऽथ श्रीआदिनाथ बिंब प्रति० ककसूरिभिः । लेखांक १२६३ १२६-संवत् १५१२ माघ सुदिं १ बुधे श्रीओसवाल ज्ञातौ सुहणाणी सुचिंती गो० सा० सारंग भार्या नयणी पुत्र श्रीमालेन भार्या खीमी पुत्र श्रीवंतयुतेन मातृ श्रेयसे श्रीआदिनाथ विबं कारितं उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सं० प्र० श्रीककसूरिभिः । १३७३ १३०-सं० १५१२ वर्षे वैशाख वदि ११ शुक्रे श्रीमाली ज्ञातीय मं० अर्जुन भार्या खसु पुत्र टोई - १५२४ उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा Jain Educationemational jainelibrary.org Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ोसवाल सं० १५२८-१५७४ आमई........"हदाकेन भार्या लखी सहितेन निज श्रेयसे श्रीअजितनाथ बिंब का० उकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने श्रीकक्कसूरिभिः प्रतिष्टितं । बाबू० लेखांक १५०४ १३१-सं० १५१३ वर्षे चैत्र सुदि ६ गुरौ उप. आदित्यनाग गोत्रे साह वछराज भार्या सनवत पुत्र लखमा भार्या लाखणदे पुत्र समधर सहितेन मातृ पितृ पुण्यार्थं श्रीमुनि सुव्रत बिंबं का० प्र० उकेशगच्छे कुकु० श्रीककसूरिभिः। धातु लेखाँक ८७६ १३२--सं० १५१४ वर्षे माघ सुदि १ कड़ी ग्राम वास्तव्य ओसवाल ज्ञातीय श्रे० धामा० भार्या सलखू सुत परबतेन भार्या चंपाई सुत लखानाकर तथा भ्रातृ नरबद सालिग काहना नारद प्रनुख कुटुम्ब युतेन श्री श्रेयांस बिंबं श्रे० साम श्रेयोऽथ कारितं प्रतिष्ठितं श्रीककसूरिभिः।। वि० ध० नं०२६५ १३३-सं० १५१४ वर्षे फागुण सुदि १० सोमे उपकेश ज्ञातौ श्रेष्ठि गोत्र महाजनी शा० म० पद्मसी पुत्र म० मोषा भार्या महिगलदे पुत्र नीवा धन्नाभ्यां पितुः श्रे० श्रेयांस बिबं का० प्र० उपकेशग० श्रीककुदाचार्य सं० श्रीककसूरिभिः पारस्कर वास्तव्य । बाबू लेखांक २३३५ १३४-सं० १५१४ वर्षे फागुण सुदि १० सोमे उपकेश ज्ञा० श्रोष्ठिगोत्रे महाजनी शाखायां म० वानर भार्या विमलादे पुत्र नाल्ह भार्या नाल्दणदे पुत्र पुंजासहितेन श्रीशांतिनाथ विंबं का० प्र० उपकेशग० ककुदाचार्य सं० श्रीकक मूरिभिः । पारस्कर वास्तव्यः । श्री ।। भ्रातृव्य संग्रामे । बाबू लेखांक २५७७ १३५-सं० १५१४ वर्षे फागुण सुदि १० सोमे उपकेश व्य० सा० कर्मसी भार्या रूपिणी पुत्र अमरा पुत्री साधूतया स्वश्रेयसे श्रीकुंथुनाथ विंबं कारितं प्रतिष्ठितं उपकेशगच्छे कुक्कादाचार्य सं० श्रीककसूरिभिः सुरपत्तन ।। वि०प०२६५ १३७-सं० १५१४ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि १० शुक्र उपकेश ज्ञातौ श्रादित्यनाग गोत्रे सं० गुणधर पुत्र साह डालण मार्या कपूरी पुत्र साह क्षेमपाल भार्या जिणदेवाई पुत्र साइ सोहिलेन भ्रातृ पासदत्त देवदत्त भार्या नानू युतेन पित्रीः पुण्यार्थ श्रीचंद्रप्रभ चतुर्विंशति पट्टः कारितः श्रीउपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्री कक्कसूरिभिः श्रीभट्ट नगरे। १३८-सं० १५१५ वर्षे फागुन सुदि ६ रबौ ऊ० आईचणा गोत्रे साइ समदा सवाही पुत्र दसूरकेन श्रात्मश्रेयसे शीतलनाथ बिंबं का० प्रति श्री कक्क पूरिभिः । बाबू लेखांक ५५८ १३६-५१५ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि १० गुरौ अकेश ज्ञा० वृद्धसंतनीय श्रे० तेजा भार्या तेजलदे पुत्र घोंपा भार्या चांपलदे तया निज श्रेयसे श्री चंद्रप्रभ स्वामि बिंबं का० उपकेशगच्छे सिद्धाचार्य मंताने म० श्री सिद्धसूरिभिः प्र० पूलनामे श्रीशुभं भवतु । धातु प्रथम भाग ८६० १४०-संवत् १५१७ वर्षे माघ यदि ५ दिने श्रीउकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्रीउपकेशज्ञातौ बिंवट गोत्रे सं० दादू पुत्र सं० श्रीवत्स पुत्र सुललित भार्या ललतादे पुत्र साहणकेन भार्या संसारदेयुतेन पितरौ श्रेयसे श्री अजितनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीकक्कसूरिभिः । बाबू लेखक १८८३ १४१-सं० १५१७ वर्षे कार्तिक वदि ६ उपकेश ज्ञाती आदित्यनाग गोत्रे साह धर्मा पुत्र समदा संघ षीमाक भ्रातृ सायर श्रेयसे श्रीकुंथुनाथ बिंबं का० प्र० श्रीउपकेशगच्छे कुंदकुंदाचार्य संताने श्रीककसूरिभिः । पंचतीर्थी। वि० ध० नंबर ३०८ १४२--सं० १५१७ वर्षे माघ वदि ८ सोमे उपकेश ज्ञातीय लघु श्रेष्ठि गोत्रे महाजन शाखायां म० मला पुत्र म० कर्मण पुत्र म० साल्हा भार्या सलखणदे पुत्र म० सहजाकेन स्वमातृ पित्रोः पुण्यार्थं श्रीचंद्रप्रभ विंबं प्रतिष्ठितं उपकेशगच्छे कुकदाचार्य संताने श्रीकक्कसूरिभिः । ले० नं० उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा .. बायू Jain Education Memnation el personal Use Only ww१५२५ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १४३ - सं० १५१७ वर्षे वैशाख मुदि ३ सोमे श्री श्रीमाल ज्ञातीय लघुसंतानीय दोसी महाराज भार्या रूपिणि तया स्वभऽत्मश्रेयसे श्रीशांतिनाथ बिंबं कारपितं द्विवन्दनीकगच्छे भ० श्रीसिद्धसूरिभिः प्रतिष्ठितं दानं कोड़ी प्रामे पंचतीर्थीः । १४४ - सं० १५१८ वर्षे ज्येष्ठ सुदि २ शनौ उपकेश ज्ञातौ कुर्कुट गौत्रे साह ऊदा पुत्र साह लाखा पुत्र साह गणपति पुत्र साह हरिराजेन भार्या हमीरदे पुत्र समरसी जमणसी रत्नसी विजयसी पुत्र साह कर्मसी श्रे० श्री अजितनाथ चित्रं कारितं प्र० श्रीउपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्रीककसूरिभिः ॥ श्रीः ॥ धा० नं० ७६५ १४५ – सं० १५१६ वर्षे ज्येष्ठ शुक्ला १३ सोमे ओसवाल ज्ञातीय शाह धनपाल भार्या धनाढ्यदेव्या पुत्र देवा सुत पु० राज प्रभृति कुटुम्ब समन्वितया सपुत्रे चंपत श्रेयसे शीतलनाथ बिंबं का० प्र० उकेशगच्छे सिद्धाचार्य संताने देवभद्रसूरिणा ॥ धातु प्रथम भाग ६८० १४६ - सं० १५१६ माघ वदि ५ बुधे ओसवाल ज्ञातीय पा० खीमसी भार्या बुलही पुत्र जेसिंगनाथा भ्रातृ गोविन्देन भार्या इन्द्राणीयुतेन स्वश्रेयसे श्री कुंथुनाथ बिंबं का० प्र० श्री ऊकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने श्रीदेवगुप्त सूरिभिः । धातु प्रथम भाग १०६४ १४७ -सं० १५१६ वर्षे ज्येष्ठ वदि ११ शुक्रे उपकेश ज्ञातीय चौरबेडिया गोत्रे उरसगच्छे साह सोमा भार्या धनाई पुत्र साधू भार्या सुहागदे सुत ईसा सहितेन स्वश्रेयसे श्रीसुमतिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीकसूरिभिः सीगोरा वास्तव्यः । धातु लेखांक नं० १४८ - संवत् १५२० वर्षे वैशाख सुदि ३ सोंमे उपकेश ज्ञा० मह० कालू भार्या आधू पुत्र ३ जावड़ रतना करमसी स्वमातृ निमित्तं श्रीचंद्रप्रभ स्वामि बिंबं करापितं उपकेशगच्छे श्रीककसूरिभिः सत्यपुर- वास्तव्यः वि० ध० नं० ३४८ १४ε—–संवत् १५२० वर्षे मार्गशीर्ष वदि १२ उपकेश ज्ञातौ श्रेष्ठि गोत्रे शाह सांगण पुत्र स० सोनाकेन भार्या लाल पुत्र समस्त स० वृद्ध पुत्र संसारचन्द्र निमित्तं श्रीचन्द्रप्रभ स्वामि चित्रं का० प्र० उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्रीककसूरिभिः । बाबू लेखक १२७१ १५० – सं० १५२० वर्षे वैशाख वदि ५ दिने श्रीमालीय ज्ञातौ लघु शाखायां मं० ऊदा भार्या वाऊं पु० मं० साईयाकेन भा० पूरी पुत्र मंत्र खेता वरुश्रा सहितेन श्रीश्रादिनाथ बिंबं का० श्रीउपकेशगच्छे ककसूरि संताने प्र० श्रीककसूरिभिः धातु नं० ४७५ १५१ – सं० १५२० वर्षे मार्ग सुदि ६ शनौ श्रीप्राग्वाटवंशे सं० कउझा भार्या गुरुदे पुत्र सिंघराज सुश्रावके भार्या उकू पुत्र जीवराज भ्रा० हंसराज भ्रातृव्य भोजराज सं० जसराज सहितेन मातुः श्रेयसे श्री पार्श्वनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री श्री श्रोसवालगच्छे श्रीककसूरिभिः । श्रीरस्तु । धा० नं० ७५३ १५२ - सं० १५२० वर्षे वैशाख सुदि ३ सोमे उपकेश ज्ञा० मह (०) कालू भार्या अरघू पुत्र ३ जावड़ रता करमसी समांति मि० ( ? ) श्रीचंद्रप्रभ स्वामि बिंबं कारापितं उपकेशगच्छे श्रीकक्कमूरिभिः सत्यपुर बाबृ ले. १९२८ वास्तव्यः १५३ – सं० १५२० वर्षे ज्येष्ठ वदि ? भोमे पलाड़ा गोत्रे ऊ० साह देवराज भार्या देवलदे पुत्र तेजा भार्या कडू पुत्र मालायुतेन मातृ पितृ श्रेयोऽर्थ श्री श्रीपार्श्वनाथ बिंबं का० प्र० श्रीदेवगुप्तसूरिभिः धातु प्रथम भाग १३१६ १५२६ उपकेश गच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [श्रोसवाल सं० १५२८-१५७४ १५४-सं० १५२१ वर्षे वैशाख सुदि १० श्रीउपकेश ज्ञातीय बापणा गोत्रे साह देहड़ पुत्र देल्हा भायो धाई पुत्र साह लूला भीमा कान्हा स० भीमाकेन भार्या वीराणि पुत्र श्रवणा माडू मामू सहितेन श्रीशांतिनाथ मूल नायक प्रभृति चतुर्विंशति जिनमट्टः का० श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने प्र० श्रीसिद्धसूरि पट्टे श्रीककसूरिभिः ।। शुभम् ॥ बाबू लेखाँक १३८६ १५५-सं० १५२१ वर्षे वैशाख वदि २ रवौ श्री श्रीमाल ज्ञातीय श्रे० करमसी भार्या लामी पुत्र मैघु भ्रातृ गोपा जयता मेघा भार्या भातु पुत्र मातर सालिग डूंगर भूगर पित्राही भ्रातृ भीमु सालिग भार्या लखी पुत्र सूरा कामा युतेन पिट पिट् वा........."स्वश्रेयले श्रीकुंथुनाथ विंबं कारितं ....... गच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने प्रतिष्ठितं भ० श्रीदेवगुप्रसूरिभिः । धातु प्रथम भाग ७७० १५३-० १५२१ वर्षे वैशाख सुदि ३ गुरौ श्रोसवाल ज्ञातीय वृहत् संतानीय श्रे० वीरा भायों वल्हादे सुत पेता गुणीश्रा घेता भार्या अधकू गुणी भार्या गंगादे ताकेन पितृव्य हीरा निमित्तं श्रीविमलनाथ बिंबं का० प्र० श्री बिबंदणीकगच्छे श्रीदेवगुप्तसूरिणां पट्टे श्रीसिद्धसूरिभिः । धातु प्रथम भाग १११ १५५-सं० १५२१ वर्षे वैशाख शुक्ला ३ गुरौ ओसवाल ज्ञातीय वृहत् संतानीय श्रे० वीरा भार्या वल दे पुत्र पेता गुणिआ घेता भार्या अधकू स्वकुटुम्ब युतेन स्वपितृ मातृश्रेयोऽर्थं श्रीशीतलनाथ विंबं का० प० बिवं इणिकगच्छे श्रीदेवगुप सूरीणां पट्टे श्रीसिद्धमूरिभिः। धातु प्रथम भाग १०२ १५८-सं० १५२१ बर्षे माह वदि ५ गुरौ उप० श्राववाण गौत्रे लघु पारेख नाथा भार्या माहू पुत्र कडूा भार्या राणी पुत्र सहदे आत्मश्रे श्रीनेमिनाथ विंबं का० बिबंदनीकगच्छे प्र० श्रीसिद्धसूरिभिः ऊनाउ० १५:-सं० १५२२ वर्षे फागण सुद ३ रखौ................ श्रीशीतलनाथ बिबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीककसूरिभिः । १६.---संवत १५२४ ज्येष्ठ बदि ४ श्रीउपकेश ज्ञाती साह श्रीशक्तिसिंघ भार्या सहजलदे........"साइ सोमा भार्या आशु नाम्न्या श्रात्म श्रेयसे श्री अजितनाथ बिबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीउपकेशगच्छे श्रीककसूरिभिः । श्रीअजितनाथ प्रणमति बाई बापू नाम्न्या। बाबू लेखांक ५० १६१-संवत् १५२४ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि ११ शुक्र उपकेश ज्ञातौ आदित्यनाग गोत्रे साह सीधर पुत्र संसारचन्द्र भार्या सादाही पुत्र श्रीवन्त शिवरताभ्यां मातृ पुण्यार्थं श्रीशीतलनाथ विंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीउपकेशगच्छे श्रीककुदाचार्य सन्ताने श्रीकक्कसूरिभिः । नागपुरे ॥ श्रीः ।। बाबू लेखांक १२७४ १६२-संवत १५२४ वर्षे मार्गशिर वदि ४ रवी उपकंशज्ञातीय लिंगां गोत्रे साह पीघा भार्या ऊदी... पुत्र साह चेड़न भार्या सूइवादे पुत्र शेषा सरूजन अरजन अमरा सहितेन स्वपुत्र श्रीकुन्थुनाथ बिंबं का०प्र० श्रीउपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्रीसिद्धसूरि पट्टे श्रीकक्कसूरिभिः । बाबू लेखांक १४४३ १६३–सं० १५२५ वर्षे ज्येष्ठ वदि १ चिंचट गोत्रे साह श्रीरतन भार्या अमरादे पुत्र साह श्रीसूरपालेन भार्या रामति पुत्र सिंघराज सधारण श्रीवंत साहितेन मातृ पित्रौः श्रेयसे श्रीसुमति बिंबं का० प्र० श्रीकका सूरिभिः । धातु नम्बर २६७ १६४-सं० १५२५ वर्षे फागुण यदि १२ हींगड़ गोत्रे साइ कोल्हा भार्या कमल श्री पुत्र सं० वाला भार्या पुन्नी पुत्र रूपा खेमा हेमा पुत्र नरसिंह भार्या केलू पुत्र जड़तायुनेन श्रीवाम पूज्य बिंबं कारितं उपकेशगच्छे प्र० श्रीककसूरिभिः । धातु नम्बर ६५६ ___ १६५-सं० १५२५ वर्षे ज्येष्ठ वदि १ शुक्रे उपकेश पत्तन वास्तव्य माह देवा भार्या कपूरी पुत्र साह प्रासा भार्या नाकं पुत्र हर्षा भार्या साहना रनसी माद अासकेन रनसी नमि० श्री वासुपूज्य बिंबं उप श० श्रीसिद्धाचार्य सन्ताने प्र० भ० श्रीसिद्धसूरिभिः । बाबू लेखांक ५१ dain E उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा ersonal use only ww१५२७ry.org Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १६६ - संवत् १५२६ वर्षे वैशाख वदि ५ दिने उपकेश ज्ञातो वालत्य गोत्रे सा..... ...दे पुत्र राउल पुत्र सुरज सीहा "मातृ पितृ पुण्यार्थं आत्म श्रेयसे श्रीवास पूज्य बिंबं करापितं प्र० उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने प्र० श्रीकक्कसूरिभिः । बाबू लेखक ६६४ १६७ - संवत् १५२७ वर्षे पौष वदि ५ शुक्रे प्राग्जट श्रे हरराज भार्या श्रमरी पुत्र समधरेण भार्या नाई प्रमुख कुटुम्ब सहितेन स्वश्रेयसे श्रीकुन्थुनाथ बिंबं कारितं प्रति० श्रीउपकेशगच्छे सिद्धाचार्य सन्ताने श्री देवप्रसूरि पट्टे श्रीसिद्धसूरिभिः । धातु लेखांक १६८ - संवत् १५२८ वर्षे वैशाख वदि ६ चंद्रे उपकेश ज्ञातौ आदित्यनाग गोत्रे साह तेजा पुत्र जासो भार्या जयसिरि पुत्र सायर भार्या मेहिणि नाम्न्या पुत्र गुणा पूता सहज सहितया स्वपुण्यार्थं श्रीसंभवनाथ बिंबं का० प्र० उपकेशगच्छ ककुदाचार्य सन्ताने श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । बाबू लेखक ६२५ १६६ - सम्वत् १५२८ वर्षे वैशाख वदि ६ चन्द्रे दिने । उपकेश ज्ञातौ बल ही गोत्रे रांका साखा गोयंद पुत्र सालिग भार्या वाहदे दोल्ह नाम्ना भार्या ललतादे पुत्रादि युतेन) पित्रोः पुण्यार्थ स्वश्रयसेच श्रीनमिनाथ बिंबं का० प्र० उपकेशगच्छीय श्रीककुदाचार्य सं० श्रीदेव गुप्तसूरिभिः || बाबू लेखांक १५७१ १७० - संवत् १५३० वर्षे माघ शुदि १३ सोमे प्राग्वट ज्ञातौ श्रेष्ठ स्वीमा भार्या अरघू पुत्र पंचाय free भार्या सोही पुत्र वच्छादि कुटुम्ब सहितेन श्री श्रेयांसनाथ बिबं कारितं । उवरस गच्छे सिद्धाचार्य संताने प्रतिष्ठितं श्री सिद्धसूरिभिः । ( पंचतीर्थी ) धातु नंबर २५२ १७१ – संवत् १५३० वर्षे वैशाख सुदी ३ उपकेशज्ञातीय गोवर्द्धन गोत्रे साहस मूला भार्या मूजी सुत शवा प्रथम भार्या सोनलदे निमित्तं तत्पुत्र देवा अपर भार्या कुँअरि पुत्र नगराज पौत्र छाजू युतेन श्री अभिन न्दन बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीउपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्रीदेवगुप्तसूरिभिः श्रीपत्तने । धातु नंबर ६४० १७२ - संवत् १५३३ वर्षे पौष वदि १० गुरौ ओसवाल ज्ञातीय बप्पा गोत्रे ० नरसिंह भार्या नयखादे पुत्र देवा व० श्रीपाल भार्या सिरीयादे पुत्र श्रीवत्स युतेन व श्रीपालेन आत्मश्रेयसे कारितं प्र० उ० ककुदाचार्य श्रीदेवगुप्तसूरिभिः ॥ श्रीअरनाथ बिंबं धातु नंबर २०२ १७३ - संवत् १५३३ वर्षे आषाढ सुदि २ खौ प्राग्वाट ज्ञा० पा० तेजा भार्या मनी पुत्र रूपा भार्या धनी पुत्र परिवृती स्वश्रेयसे श्री शान्तिनाथ बिंबं का० ऊकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य सन्तानीय श्रीदेवप्रभसूरिभिः । धातु नंबर १२०५ १७४ - संवत् १५३४ वर्षे माघ शुक्ला ६ उपकेरागच्छे ज्ञातीय गादहीया गोत्रे साह कोहा भार्या रतनादे पुत्र का भार्या यस्मादे पुत्र हर जागड़ मेरादि सहितेन श्रीवासपूज्य चित्रं कारितं श्री उपगच्छे ककुदाचार्य संताने प्र० देवगुप्तसूरिभिः । १७५ - संवत् १५३४ वर्षे आषाढ़ सुदि १ गुरौ उकेश ज्ञातौ श्रेष्ठी गौत्रे म० सिंघा भार्या लखमादे पुत्र साजयुतेन स्वश्रेयसे श्रीपद्मप्रभ त्रिबं कारितं श्री ककुदाचार्य सन्ताने प्रतिष्ठितं श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । बाबू लेखक २०५२ १७६---संवत् १५३५ वर्षे आषाढ़ द्वितिया दिने उपकेशज्ञातीय आर्या गोत्रे लूगाउत शाखायां साह झांझा पुत्र उत्थ भार्या मयलहदे पुत्र मूलाकेन आत्मश्रेयसे श्री पद्मप्रभु त्रिंवं कारितं ककुदाचार्य सन्ताने प्रतिष्ठितं श्री देवगुप्तसूरिभिः बाबू लेखांक १०६२ १७७ - संवत् १५३६ वर्षे प्रा० सुदि ६ सोमे श्री श्रीमाल ज्ञातीय श्रे० परबत भार्या बाई कुतिगदे पुत्र श्रे० १५२८ Jain Education international उपके गच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ हासा भा० धारा की का भार्या देई श्रे० सिद्धराज श्रेयोऽर्थ अंबिका गोत्र देवी कारापिता श्री कक्क पूरि पट्टे श्रीदेवप्रम (? गुप्त) सूरिभिः प्रतिष्ठिता । धातु नंबर २३० १७८-संवत् १५३७ वर्षे वैशाख सुइ ३ उपकेशगच्छे श्री ककुदाचार्य संताने उपकेश ज्ञातीय बाफणा गोत्रो साह"........"वड़ भार्या जसमादे पुत्र सोहड़ादे पुत्र वस्ता आत्मश्रेयोऽर्थ श्री अजितनाथ बिंबं का० प्रतिष्ठितं श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । बाबू लेखांक २१०५ १७६-संवत् १५३८ वर्षे फागण सुद ३ उपकेश ज्ञातौ । वाघमार गोत्रे । मं० कुशला भार्या कमलादे नाम्न्या पुत्र रणधीर रणवीर सूंढा सरवण सादा धरम धीरा सहितया स्वपुण्यार्थं श्री. सुविधिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री उपकेशगच्छे कदाचार्य सन्ताने श्रीदेवगुरु सूरिभिः श्रीगृणीयाणा ग्रामे । १८०-संवत १५४२ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ५ सोमे श्री उपकेश ज्ञातौ । बांगरड़ गोत्रे। सं० ईसर पुत्र सं० हांसा भार्या हांसलदे पुत्र सं० मंडली केन भार्या तारू पुत्र सं० हेमराज युतेन स्व श्रेयसे श्री शांतिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्रीदेवगुण सूरिभिः श्री पत्तने। बाबू लेखांक २५३६ १८१--.............."श्री सुविधिनाथ विंबं प्र० श्री देव गुप्तसूरिभिः। बाबू लेखांक २३८१ १८२-संवत १५१४ वर्षे आपाढ़ वदि = गुरौ उपकेश ज्ञातो हुँडो यूरा गौत्रे सं० गांगा पुत्र पदमसी पुत्र पासा भार्या मोहणदेव्या पुत्र पालड़ा श्रीवा सहितया स्वपुण्यार्थं श्रीआदिनाथ विंबं कारितं प्रतिष्ठितं उपकेशगच्छे श्रीदेवगुममूरिभिः । बाबू लेखांक १३०३ १८३-संवत् १५४५ वर्षे पोष वदि तिथो उपकेश ज्ञाती ठाइड़ीया गोत्रे संघवी धणसी पुत्र सं सोनपाल पुत्र सं० खेता भार्या कुतिगहे सहितेन......."बिबं कारितं प्रतिष्टितं श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । श्रीउपकेशगच्छे धातु प्र० नंबर १०१४ १८४-संवत १५४६ वर्षे माघ वदि ४ सुचिंतित गौत्रे साह सोनपाल सु० साह दासू भार्या लाड़ोवा (ना) म्न्या पुत्र सिवराज भार्या सिंगारदे पुत्र चूहड़ धन्ना आसकरणादि सहितया स्व पुण्यार्थं श्री अजितनाथ चिंबं कारितं प्रतिष्ठितं उअ केशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्री देव गुप्तसूरिभिः । बाबू लेखांक ६० १८५-सं० १५४६ वर्षे आषाढ़ वदि २ ओसवाल ज्ञातौ श्रेष्टि गोत्रे वैद्य शाखायां साह सिंघा भार्या सिंगारदे पुत्र वींझा छाजू ताभ्यां पुत्र पौत्र युताभ्यां श्री चंद्रप्रभ विंबं साह सिंधा पुण्यार्थं कारापितं प्र० श्री देवगुप्तसूरिभिः। बाबू लेखांक १२६३ १८६-लं० १५४८ वर्षे जपेष्ठ वदि ६ बुधे भ० श्री हेमचन्द्राम्नाये स० नगराज पुत्र दामू भा० स० हंसराज हापु . १८७-सं० १५१६ वर्षे वैशाख सुदि १० शु श्रीउपकेश ज्ञातीय पीहरेवा गौत्र साह भावड़ भार्या भरमादे आत्मश्रेयोऽर्थं श्री जीवित स्वामी श्री सुविधिनाथ बिंब कारापितं प्रतिष्ठितं श्री उमवालगच्छे श्रीककारि पट्टे श्री देवगुप्रसूरिभिः । बाबू लेखांक ६७६ ५८८-सं० १५५२ श्रीसुमतिनाथ बिंब ऊ केशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने भ० श्रीककसूरिभिः । (पंचतीर्थी) धातु प्र० १८६-सं० १५५४ वैशाख सुदि ३ श्रीपार्श्वनाथ बिंबं प्र० श्रीचन्द्रसूरिभिः ऊकेशगच्छे।। १६० -संवत् १५५६ वर्षे वैशाख सुदि ६ शनी श्रीस्तंभन तीर्थ वास्तव्य श्रीउसवंश साह गणपति भार्या गंगादे सु० साह हराज भार्या घरमादे सु० ‘साह रनसीकेन भार्या कपुरा प्रमु० कुटुम्बयुतेन राणापुर मंडन श्री चतुर्मुख प्रासादे देवकुलिका का........""श्री उसबालगच्छे श्रीदेवनाथसूरिभिः। बाबू लेखक ७१० उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा १५२६ Jain Education Personal Use Only wwwsanerbrary.org Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १६१ - सं० १५५८ वर्षे शु० ११ गुरौ उपकेश ज्ञातौ श्री रांका गौत्र साह पातघ सुत साब्बू हडेन महामहिय''''''''''युतेन आत्म श्रेयसे श्री मुनिसुव्रत स्वामि बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीमदुपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्रीककसूरि पट्टे श्रीदेव गुप्तसूरिभिः । बाबू लेखांक ६६७ १९२ - संवत् १५५८ वर्षे वैशाख सुदि ११ गुरौ श्री उसवाल ज्ञातौ कठउतिया गोत्रे । सं० पदमसी भार्या पदमलदे पुत्र पासा भार्या मोहणदे | पुत्र पाल्हा श्रीवंत तत्र साह पाल्हाकेन स्व भार्या इंद्रादे पुण्यार्थं श्री श्रेयांस बिंबं का० । प्र० । ककुदाचार्य सन्ताने उपकेशगच्छे भट्टारक श्री देवगुप्तसूरिभिः । बाबू लेखांक १६३४ १६३ - संवत् १५५६ वर्षे आसाढ़ सुदि २ उसवाल ज्ञाती कनोज गोत्रे साह खेड़ा पुत्र सहसमल भार्या सुहिला पुत्र ठाकुरसि ठकुर युतेन आत्म श्रेयसे माल्हण पितृ पुण्यार्थं शीतलनाथ बिबं का० । प्र० श्री देवगुप्तसूरिभिः । बाबू लेखांक ११०१ १६४ ॥ ॐ ॥ संवत् १५५६ वर्षे श्रसाद सुदि १० बुधे ओसवाल ज्ञातौ तातहड़ गोत्रे साह आड़ भार्या गोपाही पुत्र सुललित । भार्या सांगरदे स्वकुटुम्ब युतेन श्री कुन्थुनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री ककुदाचार्य संताने उपगच्छे भ० श्री देवगुप्तसूरिभिः । बाबू लेखांक ११८६ १६५ - संवत् १५५६ वर्षे आषाढ़ सुदि १० आईचणाग गोत्रे तेजाणी शाखायां साह सुरजन भार्या सूरवदे पुत्र सहसमल्लेन भार्या शीतादि पुत्र पाड़ा ठाकुर भार्या द्रोपदी पौत्र कसा पीघा श्रीवंत युतेनात्म पुण्यार्थं श्री सुमतिनाथ बिकारितं प्र० श्री उपकेशगच्छे भ० देवगुप्तसूरिभिः ॥ श्रीः ॥ बाबू लेखांक ५६६ १६६ - संवत् १५५६ वर्षे वैशाख वदि ११ शुक्रे उपकेश ज्ञातौ पीहरेचा गोत्रे साह गोवल पुत्र सा''''''''' भार्या धारू पुत्र साह नर्वदेन भार्या सोभादे पुत्र जावड़ । भार्या चड ...पितुः श्रे० श्रीमुनिसुव्रत बिंब का० प्र० श्री उपकेश श्री कक्कसूरिभिः । श्रीककुदाचार्य संताने । बाबू-लेखांक ६७२ १६७ - संवत् १५५ वर्षे पौष वदि ५ गुरुवासरे उपकेश ज्ञातौ डिंडिभ गोत्रे साह मोकल भार्या हांसू पुत्र ३ सिंघा सादा सिवा सिंघा भार्या रोहिणी पुत्र देवाकेन भार्या देवलदे सहितेन नाड़ा मेघा सहितेन च पूर्वज निमित्तं श्री अरनाथ बिंबं का० प्र० श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्रीकक्कसूरि पट्टे श्री देवगुरुसूरिभिः । जेसलमेर बाबू लेखांक २२०४ १६८ - संवत् १५६२ वर्षे वैशाख सुदि १० रवौ श्री तातड़ गोत्रे स० जेठू भार्या भिवूही पुत्र ३ साह आदू साह छुडू साह छाहड़ तन्मध्यात् साह छाहड़ भार्या मेयाही नाम्न्या स्वश्रेयसे स्वपुण्यार्थं च श्रीसुमतिनाथ बिंबं का० प्र० श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्री देवगुप्तसूरिभिः । बाबू लेखांक १२८ १६६ - संवत् १५६२ वर्षे वैशाख शुक्ला १० रवौ श्रीउपकेश ज्ञातौ श्री आदित्यनाग गौत्रे चोरखेडिया शाखायां व डालरण पुत्र रतनपालेने स० श्रीवंत व० घुघुमल युक्तेन मातृ पितृ श्रे० श्री संभवनाथ बिंबं का० प्र० श्री उपकेशगच्छे कुकुंदाचार्य संताने श्री देवगुप्तसूरिभिः बाबू लेखक ४६७ २००-संवत् १५६२ वर्षे वैशाख सुदि ६ शनौ श्री कुकुट गोत्रे ऊकेश ज्ञातौ साह गुणिय भार्या मा काई सुतसाइ समरसिंहेन भार्या रूपाई धारू प्रमुख कुटुम्ब युतेन श्री सुविधिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री श्रोसवालगच्छे श्री सूरिभिः । २०१–संवत् १५६३ वर्षे माह सुदि ५ गुरौ श्रेष्ठि गोत्रे साह बढा भार्या वालहदे सु० शदा भार्या पल्द सु० छिरा गिरा वा सहलखा युतेन श्री पद्मप्रभु बिम्बं कारितं उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने भ० श्री देवगुप्तसूरिभिः प्रतिष्ठितं । बाबू लेखक २० उपच्छाय द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा by.org १५३० For Private & Pe Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [आसवाल सं० १५२८-१५७४ २०२-संवत् १५६६ वर्षे फाल्गुन सुदी ३ सोमवासरे उपकेशवंशे रांका गोत्रे शाह श्रीरंग भार्या देऊ पुत्र करमा भार्या रूपादे स्वश्रेयसे आत्म-पुण्याथं नमिनाथ चिंबं कारितं प्र० उपकेशगच्छे भ० श्रीसिद्धसूरिभिः । २०३-संवत् १५६७ वर्षे वैशाख सुदि १० बु० श्री उपकेश ज्ञानौ सं० साहिल सुदी सं० हासा भार्या छाजी नाम्नया स्व पुण्यार्थं श्रीपार्श्वनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्रीउपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने भ० श्रीसिद्धसूरिभिः। बाबू-लेखांक १६५६ २०४-संवत् १५६८ वर्षे ज्येष्ठ वदि ८ रवौ उपकेश ज्ञातो चीचट गोत्रे देसल शाखायां साह सूरपाल भार्या रामति पुत्र साह सधारणेन भार्या पदमाई पुत्र सहसकिरण समरसी सहितेन बाई पारवती पुण्यार्थे श्रीअरनाथ बिंध कारितं प्रतिष्ठितं श्रीदेवगुपसूरि पट्टे भ० श्रीसिद्धसूरिमिः । धातु लेखौंक ५३४ २०५-संवत् १५७१ वर्ष फागुण सुदि ३ शुक्र उसयाल ज्ञातीय आदित्यनाग गोत्र साह सहदे पुत्र साह नयणाकन कलत्र पुत्रादि परिवार युतेन पुण्यार्थं श्रीमुनि सुव्रत स्वामि बिंबं कारितं प्रतिष्ठित श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने भट्टारक श्री श्रीसिंहसूरिभिः ॥ अलावलपुरे ।। श्रीरस्तु ।। १५७४ २०६-सं०...७२ वर्षे चैत्र वदि ३ बुधे उसवाल ज्ञातीय चोरवेड़िया गोत्रे सन्ताने सोहिल तत्पुत्र सघव सिंघराज तस्य पुण्यार्थ संताने सिद्धपालेन श्री शान्तिनाथ बिंबं कारापितं श्री उसवालगच्छे श्री सिद्धसूरि प्रतिष्ठितं । पूजक श्रेयसे ।। भीः ।। १५७५ २०७-संवत् १५७४ वर्षे वैशाख सुदी दशमी शुक्र ओसवाल ज्ञातीय रांका शाखायां वलह गोत्रे सं० रनापुत्र स० राजा पुत्र सं० नाथू भार्या बल्हा पुत्र सन्ताने चूहड़ भार्या हीसू पुत्र स० महाराज भार्या संत्रा पुत्र सोहिल लघुभ्रातृ महिपति भार्या माणिकदे सु० भरहपाल भार्या मलूही पुत्र धनपाल स० हेमराज भार्या उदयराजी पुत्र संघा गोराज भ्रातृ सेन्य रत्न भार्या श्रीपासी पुत्र संघराज समस्त कुटुम्ब सहितेन सुश्रावकेन हेमराजेन श्रीधर्मनाथ बिंबं कारापितं श्रीउपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने प्रतिष्ठितं भ० श्रीसिद्धसूरिभिः । भीरस्तु ।। १४५० __२०८-संवत् १५७६ वर्षे वैशाख शुदि ६ सोमे उपकेश ज्ञातौ बप्पणा गोत्रे लघुशाखीय फोफलिया संज्ञायां स० नामण भार्या कल्ली पुत्र ४ संताने अमरसी भाणा भोजा भावड़ सं० अमरसिंहने भार्या अमरादे युतेन स्वपुण्यार्थ श्रीवासुपूज्य बिबं का० प्र० उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने भ० श्रीसिद्धसूरिभिः ।। शुभम् भवतु पूजकस्य पत्तन वास्तव्य । धातु प्र. १०८ २०६-संवत् १५७६ वैशाख सुदि ६ सोमे उपकेशज्ञातौ वलाह गोवे रांका शाखायां साह पास उ भार्या हापु पुत्र पेथाकेन भार्या जीका पुत्र १ देपा दुदादि परिवार युतेन स्वपुण्यार्थ श्रीपद्मप्रभ बिंबं कारित प्रतिष्ठितं श्रीउपकेशगच्छे ककुदचार्य संताने भ० श्री सिद्धसूरिभिः दन्तराइ वास्तव्यः । बाबू लेखांक ७४ २१०-संवत् १५८५ वर्षे आषाढ सुदि ५ सोमे श्रीउसवाल ज्ञातीय आइचणाग गोत्रे चोरवेड़िया शाखायां सं० जइताभ इता भार्या जइतलदे पुत्र सं. चहड़ा भार्या भरी सत ऊधरण चंदपाल आत्मश्रेयोऽर्थ श्री आदिनाथ बिंब कारितं उपकेशगच्छे कुंकुदाचार्य सन्ताने प्रतिष्ठितं श्री श्री श्रीसिद्धसूरिभिः । बाबू लेखांक १५६ २११-संवत १५८८ वर्षे ज्येष्ठ बदि सोमे श्री अलवर वास्तव्य उपकेश ज्ञातीय वृद्ध शाखायां श्रायचणाग गोत्रे चोरवेड़िया शाखायां सं० साहणपाल भार्या सहलालदे पुत्र सं. रत्नदास भार्या सूरमदे श्रेयोऽयं भीउपकेशगच्छे ककुदाचार्य सन्ताने श्रीसुमतिनाथ कारापितं बिम्ब प्रतिष्ठितं श्रीसिद्धसूरिभिः । १४६४ - २१२-संवत् १५६१ वर्षे वैशाख वदि २ सोमे श्रीमाल ज्ञातौ श्रेष्ठ बडूया भार्या बाली पुत्र रत्नाकेन भार्या लखमादे पुत्र सिंघा भार्या वरादि कुटुम्ब युतेन स्वश्रेयसे श्री सुमतिनाथ बिंब का० प्र० चित्रवालगच्छे श्री वीरचंद्रसूरिभिः ।। अहमदाबादे ।। धातु प्रथम भाग dain उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा Personal use Only ४१५३१ary.org Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्थनाय की परम्परा का इतिहास २१३--संवत् १५६२ वर्षे आषाढ़ सुदि : दिने आदित्यनाग गोत्रे तेजाणी शाखायां शाह मुहड़ा पुत्र हासा पुत्र सखारण दा० नरपाल सवारण भार्या सूहवदे ४ श्री करण रंगा समरथ अमीपाला सखारण श्रेयसे कारितं । श्रीउपके रागच्छे भट्टारक श्री सिद्धसूरिभिः श्री अभिनन्दन बिंबं प्रतिष्ठितं । स्वपुत्र पौत्रीय श्रेये मातुः। लेखांक नं०१३८५ २१४-संवत् १५६६ वर्षे वैशाख सुदि ३ सोमवारे श्री आदित्यनाग गोत्रे चोरवेड्या शाखायां साह पाशा पुत्र ऊदा भार्या पऊमादे पुत्र कामा रायमल देवदत्त ऊदा पुण्यार्थं शान्तिनाथ बिंब कारापितं उपकेश० सिद्धसूरिरिभिः प्रति......... । धातु नम्बर १३४७ २१५-१६३४ संवत् वर्षे माघ सुदि : उप० ज्ञाती गादहीया गोत्रे साह कोहा भार्या रतनादे पुत्र श्राका भार्या यस्नीदे पुत्र हरा जावड़ मेरादिसाहि तिथि सति मतं श्रीवासपूज्य बिंब कारितं श्री वपु भी फकुदाचार्य संताने प्र० देवगुप्तसूरिभिः ।। श्री !! बाबू लेखांक ६२८ २१६-||ॐ ॥ अथ संवत्सरे नृप विक्रमादित समयात संवत् १६५६ भाद्रपद मासा शुक्लपक्षे ७ सातमी तिथौ शनिवारे श्री वैद्य गोत्रे । श्री सविद्या किरणोत्रजा। मंत्रीश्वर त्रिभुवन तत्पुत्र पूना. तत्पुत्र मुहता चांदा तत्पुत्र मुहता खेसी तत्पुत्र मुहता नीसल १ चाइमल २ बीसन पुत्र मुहता श्री उरजन तत्पुत्र मुहता पता गढ़सिवाणे साको करो मूउ । पितापुत्र मुहता श्री नाराइण १ सादूल २ सूजा ३ सिंघा ४ सहसा ५ मु. हता श्री नारायणर्नु राणा श्री अमरसिंघजी मया करेने गाँव नाणो दीयो मुहतो नाराइण अरहट १ साइमल देव श्रीमहावीरनु मतर भेद पूजा सारु केसर दीवेल सारु दीधो हींदूनां बरोस । उत्थापे तियेनुं गाई रो..."सुं स । तुरक उत्थापे सियेनुं सुयर रो सुं सवले.............."को उथापजो............."गांव नाणा रो। चढियो गांव वीवलाण......"वो "सि "ए। इजाएन-गांव-दम १ चेटियो........."तको उथापजो । वीजो को उथापसी तिणनु गदहउ गांव मुहता श्रीनारायण भार्या नवरंगदे तत्पुत्र मु० श्री राज....."जणयल ....... 'दा पुत्री ज (ष) खमी........"नाराइण विजी भार्या नवलदे पुत्र जसवंत १ सहितं श्री..... गच्छै भट्टारक श्री सिद्धसरि विदामाने.........10 श्री.....'चंद शिष्य चांपा लिखित ............"ज को....... तिणु... .....। बाबू लेखोंक ८१० २१७-संवत् १७८१ मिती आषाढ़ सुदि १३ कारितं चोरवेड़िया साह सांवल पतिना । प्रतिष्ठितं उ० श्रीकपूर प्रिय गणिभिः। ___ बाबू लेखांक १०२४ २१८-संवत् १६२८ शाके १७६३ मि० माघ सुदि १३ गुरौ श्री क्षेत्रपाल मूर्ति प्रतिष्ठितं शुभं भवतु । २१६---।। ॐ ॥ संवत् १६४० वर्षे वैशाख सुदी ५ भृगुवारे अर्गलपुरे प्रोस २२०-संवत् १२६१ ज्येष्ठ सुदि १२ श्रीमदुपकेशगच्छे श्रीमहाराज श्रे० महिस तयोः श्रेयोऽर्थ श्री पार्श्वनाथ बिंब का० प्र० श्री सिद्धसूरिभिः। धातु प्र० नं० १४०८ २२१-संवत् १२८३ वर्षे ककसूरि"...."गच्छे श्रेष्टि यशधर सुत सहदेव पार्श्वनाथ बिंब का। धातु प्र० न० ३४२ २२२-संवत् १३२३ माघ सुदि ६........ श्रीपार्श्वनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । धातु प्र० नम्बर २३७ २२३-संवत् १४२७ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १५ श्रीकोरण्टगच्छे नन्नाचार्य संताने सहजण भार्या लखमादे सुत गोगन भार्या नागलदे सहितेन पितृ मातृ श्रेयोऽर्थ भीपार्श्व बिंबं का० प्र० ककसूरिभिः (पंचतीर्थी ) धातु प्र० नम्बर १५२ १५३२ Jain Education international For Private उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा laimentialy.org Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ोसवाल सं० १५२८-१५७४ २२४-संवत् १४४३ वर्षे वैशाख सुदि ७ उकेस० साह खीमा भार्या खीमई पुत्र रणमल पुत्र भीमाकेन मातृ पितृ श्रेयोऽथ श्रीचन्दप्रभ बिंब का० प्र० श्री उपकेशगच्छे सिद्वाचार्य संतान श्रीककसूरिभिः । धातु प्र० नम्बर २२५-संवत् ११८५ वर्षे आसाढ़ सुदि ३ रखौ उकेशज्ञा० चिचट गोत्रे साह श्रीसोनपाल पुत्र सदयपरा भार्या विमलादे पुत्र साह शुभकरण मानु श्रेषसे श्री प्रादिनाथ चतुर्विशति पट्ट का०प्र० श्री अकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने श्रीसिद्धसूरिभिः । ___ धातु प्र० नम्बर ११७५ २२६-सं० १४६४ वर्षे माघ सुदि १० शनौ उपकेश ज्ञातौ चिचट गोत्रे वेसटान्वय साह स्गेढल भार्या पलाइदे पुत्र सोमदत्त भैरव संसार चान्दो चित्रो श्रेय से श्री शीतलनाथ बिंबं का० प्र० उपकेशगच्छे सिंहसूरिभिः। धातु प्र० नं० १०१२ २२७-सं० १५०४ वर्षे फागुन सुदि ५ बुधे उ१० ज्ञातौ आदित्यनाग गोत्रे साह डुगर भार्या लाहिणि पुत्र साह साल्हा भार्या सरसती पुत्र सलखाभ्यां आत्म श्रेयो) श्रीकुंथुनाथ सिंबं का० उपकेशगच्छे ककुदाचार्य पं० सं० प्र० श्रीककसूरिभिः । धातु प्रथम नम्बर १३३ २२८-संवत् १५०६ वर्षे आसाइ सुदि ५ बुधे उपकेश ज्ञातौ श्रे० ठाकुरसी भार्या देजा पुत्र हरदासेन पितृ ठाकुरली श्रेयोर्थ भ० श्रीदेवगुप्तसूर उपदेशेन भीसुमतिनाथ विवं का० प्रति....."सूरिभिः। धातु प्र० नंवर ११५२ २२६-सम्बत् १५११ वर्षे माघ सुदि ५ सोमे उसवाल ज्ञाति लिंगा गोत्रे समदड़िया उडकोण सुहड़ भार्या...."पुत्र कर्मा केन भार्या कसीरादे पुत्र हेमा संसार चान्दा देवराजयुक्तेन स्वश्रेयसे श्री नेमिनाथ बित्रं कारितं श्री उसकेशगच्छे श्री ककुदाचार्य संताने प्र० श्री ककसूरिभिः । धातु नम्बर १३ २३०-सं० १५१२ वर्षे वैशाख सुदि ५ श्रोसवाल गोत्रे साह महणा भार्या महणदे सुत सीपाकेन भार्या सुलेसरि प्रमुख कुटुम्बयुतेन श्री ग्रादिनाथ विंबं का० प्र० श्रीककसूरिभिः। बाबू पू० नं० ४०१ २३१-० १५१५ फागण सुदि ११ भोमौ श्री उपके स ज्ञातो आदित्यनाग गोत्रे चोरवड़िया शाखायां साह देवाल. भार्या देवाई पुत्र गुण पर भार्या मानादे पुत्र सलखण भार्या सारणी पुत्र करण झांझण मेकरणादि संयुक्तेन मातृ पितृ श्रेयोसार्थ नेमिनाथ प्रतिमा का० प्र० श्रीउप० सिद्धसूरिभिः। धातु नम्बर २३२-संवत् १५२२ वर्षे वैशाख सुदि १५ उपकेश ज्ञातौ छाजेड़ गोत्रे साह मांडा भार्या भिखी पुत्र साल्हाकेन श्री आदिनाथ विंबं का० प्र० भट्टारक श्री देवगुपसूरिभिः । धातु नम्बर मन्दिर मूर्तियों के मुद्रित शिला लेखों की इस समय . पुस्तकें मेरे पास हैंसन पुस्तकों के अन्दर से छपकेशगच्छाचार्यों द्वारा करवाई प्रतिष्ठाएँ के शिलालेखों को मैंने एकत्र कर उनको संवत् क्रमवार करके मैंने मेरे अन्य में पाना प्रारम्भ किया। जब मैंने प्रसंगोपात अन्य शिलालेखों को देखे तो ज्ञात हमा कि उन पुस्तकों के प्रकाशित करवाने वालों मे ठीक सावधामा नही रखी। भस. बहुत टियाँ सगई हैं कई कई शिहालेख तो सूची में देने से भी गये समको मैंने पीछे से संग्रह किया इसलिये जो मैंने पहले संवतों को क्रमशः रखने की योजना की यह नहीं रह सकी। यही कारण है कि संवत् भागे पीछे आये हैं। दूसरा इस बात का भी ज्ञान हो गया कि केवल मेरी उतावल की प्रवृति से तथा नजर कम पड़मे से मेरे प्रत्य में अशुद्धी रह जाती थी पर उन विद्वानों की पुस्तकों में भी अटियाँ कम नहीं रहती हैं यह भी केवल प्रेस की ही नहीं पर प्रकाशित करवाने वालों की भी घटियाँ बहत रह जाती है इसलिये ही सो कहा जाता है कि यस्थ मनुष्य हमेशा भूल का पात्र हुभा करते हैं। उपकेश गच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा ... १५३३ Annapurnwran wwwwww Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २३३-सं० १५३१ वर्षे ज्येष्ट सुदि ३ उपकेश ज्ञातौ श्रेष्टि धनपाल भार्या मेनी सुत लखमसी भार्या फडू सुत वानर देधर धर्मा मांडण भ्रातृ हेमाकेन भार्या वर्जू प्रमुख कुटम्बयुक्तेन स्वश्रेयसे श्रीअजितनाथ बिंबं का० प्र० श्री कक्कसूरिभिः (त्राभ्राग्रामे) धातु नम्बर १२६० २३४ ---संवत् १५३७ वर्षे पौष बदी १० बुधे उपकेश श्रेष्टि धर्मा भार्या मेतु पुत्र रतना भार्या दुबी पुत्र नाथाकेन भार्या ....."पुत्र हरसा पद्मा की कादि सहितेन स्वश्रेयसे भार्या वर्धन निमित मूल नायक श्रेयसे प्रमुख चतुर्विंशति पट्ट कारिवितः उकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने श्रीककसूरिभिः आचार्यः श्री धनवर्धनसूरि प्रमुख परिवार सहितेन प्रतिष्ठितं धातु नम्बर ३२ २३५---संवत् १५३६ .........."उकेशज्ञा० चो........"साह गोगा भार्या गोगादे पुत्र......... देवा हरपाल'......"आदि........"का० प्र०......"देवगुप्त .......... २३६-संगत् १५४२ वर्षे माघ सुदि १३ उपकेशज्ञातौ भद्रगोत्रे समदड़िया शाखायां साह काना भार्या केली पुत्र लाला वाला रामा जइता सहितेन स्व मातृ पितृ श्रेयसार्थ श्री विमलानाथ बिंबं का० प्र० श्री सिद्धाचार्य संताने भ० देवगुप्तसूरिभिः । धातु नम्बर २३७-सं० १५......."वै०..........."प्राग्वटगो.................रांणा केन श्री..................... प्र............."सिद्धसूरिभिः।। २३८-सं० १४४३ वर्षे वैशाख सुदि ७ उपकेश ज्ञातौ साह खीमा भार्या खेमाई पुत्र रणमल पुत्र भीमाकेन मातृ पितृ श्रेयसार्थ श्रीचन्द्रप्रभ विंब का०प्र० श्रीउपकेशगच्छे सिद्धाचार्य संताने श्रीककसूरिभिः । श्री. २३६----सं० १३७१ वर्षे माघ सुदि १४ सोमे उपकेशवंशे बेसट गौत्रीय साह सलवण पुत्र साह अजड़ तनीय साह गोसल भार्या गुणमति कुक्षि सम्भवेन संघपति श्राशधरानुजेन साह लूणसाहागजेन संघपति साधु श्रीदेशलेन पुत्र साह सहजपाल साह सहणपाल साह सांमत साह समर साह सांगण प्रमुख कुटम्ब समदायोपेतेन निज कुलदेवी श्रीसचिका मतिः कारिता यावद व्यम्रि चन्दाऊ यावन्मेरुमर्ह श्रीसच्चिकामूर्तिः। २४०-सं० १३७१ वर्षे माघ सुदि १४ सोमे श्रीमद् उपकेशवंशे वेसट गोत्रे साह सलखण पुत्र साह अजड़ तनय साह गोसल भार्या गुणमती कुक्षि समुत्पन्न संघपति साह आशघरानुजेन साह लूणसीहाप्रजेन संघपति साधु श्रीदेशलेन साह सहजपाल साह साहणपाल साह सामंत साह समरसिंह साह सांगण साह सोम प्रभृति कुटम्ब समुदायोतेन वृद्ध भ्रातृ संघपति आशधार मूर्ति श्रेष्टि माढल पुत्री संघपति रत्री श्रीमूर्ति समन्वता कारिता आसधर कल्पतरू'....."युगदिदेव प्रणमति । २४१-सं० १३७१ वर्षे माघ सुदि १४ सोमे........"रांणकजी महिपालदेव मूर्ति संघपति श्रीदेशलेन कारित्ता श्रीयुगादिदेव चैते x x उपरोक्त तीनों शिलालेख प्राचीन लेख संग्रह द्वितीय भाग ४४-४५ लेखांक ३४-३५-३६ मुद्रित हुए हैं। nwwwwvvvv उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा ... Jain Education international For Private & Personal use on ganellorary.org Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ श्रीमद् उपकेशगच्छ की द्विवन्दनीक शाखा के आचार्यों के करकमलों से करवाई हुई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाओं के शिलालेख १-संवत् १५२७ वर्षे वैसाख बदि ११ बुधे लांवडी वास्तव्व उकेश ज्ञातीय व्य० षीमसी भार्या वानू पुत्र व्य० गणमा भार्या चाबू पुत्र व्य० केल्हाकेन भार्या मामू बृद्ध भा० घूघा पुत्र मेघादि कुटुम्ब युतेन श्री मुनिसुव्रत स्वामी चतुर्विंशति पट्ट कारितः प्रतिष्ठितः ।। * वम्रगत चांइसगीया श्रीमर्तसूरि श्री उकेश विवंदणीक गच्छे प्रतिष्ठा कारिता । * (अक्षर अस्पष्ट है) जैन लेख संग्रह प्रथम खंड लेखांक १८ २-संवत् १५६६ वर्षे माइ बदि ६ दिने प्राग्वट ६ ज्ञातीय पार विलाईश्रा भार्या हेमाई सुत देवदास भार्या देवलदे सहितेन श्री चन्द्रप्रभस्वामि बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं द्विवंदनीकगच्छे भ० श्री सिद्धिसूरीणां पट्टे श्री श्री कक्कसूरिभिः कालूर ग्रामे ॥ जैन लेख संग्रह खंड वेखांक ६६७ ३-१५८३ वर्षे वैशाख सुदि दिने उसवाल झाति मं० वानर भार्या रही पुत्र मं० नाकर मं० भाजो म० ना० भार्या हर्षादे पुत्र पघु वनु भोजा भार्या भवलादे एवं कुटुम्ब सहित स्वश्रेयोर्थ सुविधिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्टितं विवंदणीक ग० भ० श्री देवगुप्रसूरिभिः । भारठा ग्रामे। जैन लेख संग्रह प्रथम खंड लेखांक ६६८ ४-संवत् १६०३ वर्षे वैशाख सुदि ११ गुरो दिने पूज्य परमपूज्य भट्टारक श्री श्री कक्कसूरिभिः गण २१ सहिता यात्रा सफली कृता श्री कवलगच्छे लि० पं० शिवसुन्दर मुनिना ।। श्रीरस्तु॥ जैन लेख संग्रह प्रथम खंड लेखांक ७१७ ५-संवत् १५१२ वर्षे माह सुदि ५ सोमे वाडिज वास्तव्य भावसार जयसिंह भार्या फाली पुत्र पोचा भार्या जासी पुत्र लीबा लखण लाहू उमालु पोचाकेन । श्री सुविधिनाथ विंबं कारापितं श्रीविवंदणीक गच्छे श्रीसिद्धाचार्य संताने प्रतिष्ठितं श्रीसिद्धसूरिमिः । बाबू पू० लेखांक १६५२ ६-संवत् १५२४ वर्षे वैसाख सुदि ३ विद्यापुर वासि श्री श्रीमालि ज्ञा० म० लषमीधर भार्या जासू पुत्र मं० जूठाकेन भार्या डोरू द्वि जसमादे प्रमु० पुत्रादि कुटुम्बयुतेन स्वश्रेयो) श्रीधर्मनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं । श्री विवदनीय गच्छे श्रीकक्कसूरिभिः । बाबू० पू० लेखांक १७२७ ___ ७-सं० १५१२ वर्षे मार्म (र्ग) बदि २ बुधे वाड़िजवास्तव्य भा० मूलू भार्या धनी पुत्र गोयद पेथा गोयद भार्या हूली पेथा माता नाथी सकलकुटुम्बसहितेन स्वश्रेयसे श्रीकुंथुनाथ विंबं कारितं श्रीद्विवंदनीकगच्छे वृद्रशाखायां भ० श्रीकक्कसूरिभिः । (:) प्रतिष्ठितं ।। श्रीरस्तु ।। वि०३० सं० २७४ -सं० १५१७ वर्षे वैशाष (ख ) सुदि ३ सोमे उ (ओ) सवाल ज्ञातीय लघुसंतानीय श्रे० वीघा भार्या बोझलदे पुत्र (०) नादा भार्या... भोजायुतेन भ्रातृ सादानिम (मि)त्तं श्रीपार्श्वनाथ बिंबं कारापितं विवंदणी ( नि ) कगच्छे भ० श्रीककसूरिभिः प्रतिष्टि (ष्ठि) तं ॥ वि० ध० सं० ३१२ {--संवत् १५२२:वर्षे पौष सुदि १३ सोमे प्राग्वटज्ञातीय श्रेष्ठि धना भार्या मेचू पुत्र वाछाकेन भार्या साधू पुत्र जीवराज सहितेन स्वश्रेयोऽथ श्रीवासुपूज्य बिंबं कारितं द्विवंदनीकगच्छे भट्टारक श्रीककसूरिभिः प्रतिष्टितं झालोडा ग्रामे ।। जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ४६२ १०-सं० १५५२ वर्षे वैशाख सुदि ३ शनौ श्रोसवाल ज्ञातौ मं० दामा भार्या रंगी सुत थावरकेन उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा १५३५ rwwwwwwwwwwwww Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भार्या २ पुडुती खाणिकदे सुत गेला वेला किकादिभिः सहितेन स्व श्रेयसे श्रीमुनि सुव्रत चतुर्विंशति पट्टः का० श्री षिवं दणिकाच्छे श्रीसिद्धाचार्य सन्ताने प्र० श्रीककसूरिभिः । ऊना....." वास्तव्य । धातु लेखांक १५७ ११-सं० १५२४ वर्षे वैशाख सुदि ३ विद्यापुरवासी श्री श्रीमाल ज्ञा० सं० लखमीधर भार्या माँगू पुत्र कडू भार्या बीजू नाम्न्या स्वश्रेयोऽर्थं श्री सम्भवनाब बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं.................(द्विवंदनीक ) गच्छे श्री...""""सूरिभिः । जैन धातु प्र० ले० सं० भाग दूसरा लेखांक ३५० . १२-सं० १५३१ वर्षे माह बदि ८ सोमे प्राग्वाट ज्ञातीय मंत्रिमंडलिक भार्या डाही पुत्र वरसिंह भार्या वईजलदेयुतेन श्रीश्रेयांसनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं द्विवंदनीकगच्छे भ० सिद्धसूरिभिः। जैन धातु प्रतिमा लेख सं० भाग दूसरा लेखांक ५०६ १३-संवत् १५६० वर्षे वैशाख सुदि ३ दिने ओसवाल ज्ञा० लघु संताने सं० ईचाण भार्या संपूरी सुत मं० गोविंद भार्या गंगादे सुतसहितेन स्वश्रेय से श्रीकुंथुनाथ बिंब का० श्री द्विवंदनीकगच्छे सिद्धाचार्य संताने प्रतिष्ठितं श्रीकक्कसूरिभिः पेटकग्रामवास्तव्यः ॥ जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ७२५ १४-संवत् १५६१ वर्षे ज्येष्ठ सुदि २ बुधे श्रीप्राग्वटवंशे वृद्धशाखायां संघपति कुझा भार्या गुरुदे पुत्र सं० हंसराज भार्या हांसलदे सुश्राविकया पुत्र सं० हर्षा मुख्य कुटुम्बसहितया निज श्रेयोऽर्थं श्रीसुविधिनाथ बिंबं का० प्रति० श्रीकक्कसूरिभिः श्रीस्तंभतीर्थे । जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ६६१ १५-संवत् १५६७ वर्षे वैशाख सुदि १० दिने प्रोसवाल ज्ञातीय मं० समधर भार्या कीकी पुत्र मं० नाथा भार्या चंगी पुत्र मं० नारद मं० नरबद द्वितीया भार्या पूतली पुत्र राजपाल सहिजपाल तृतीया भायो रही पुत्र वस्तुपाल सहितेन स्वश्रेयोऽर्थं श्री श्री श्री वासुपूज्य बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री द्विवंदनीकगच्छे सिद्धाचार्ये भ० श्रीदेवगुप्रसूरिभिः मंडलग्रामे वास्तव्यः ।। धातु लेखांक ६६८ १६--सं० १५८६ वर्षे वैशाख सुदि १२ सोमे प्रावट ज्ञातीय श्रे० गोविंद भार्या गौरी पुत्र नरपाल भार्या 'वी:पुत्र नाकर भार्या पना "रदे कुटुम्बयुतेन श्रीसंभवनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं द्विवंदनीकगच्छे भ० श्रीककसूरिभिः ।। जैन धातु प्रतिमा लेख संग्राह भाग दूसरा लेखांक ७२१ १७-संवत् १५७० कार्तिक बदि ५ गुरौ ओसवाल ज्ञातौ श्रे० धनपाल भार्या हालू पुत्र श्रे० लेखा भार्या लखमादे पुत्र साह लाटा भार्या भानू सहितेन स्वश्रेय से श्रीश्रयंसनाथ बिंबं का० श्रोद्विवंदनी कगच्छे सिद्धाचार्य संताने प्र० श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । डिडवाणे वास्तव्यं ॥ धातु प्रतिमा नम्बर १०७८ १७-संवत् १५२१ वर्षे वैसाख सुदि ३ गुरौ ओसवाल ज्ञातीय वृहत्संतानीय थे. वीरा भार्या वल्हादे सुत खेता गुणीश्रा खेता भार्या धकु गुणीश्रा भार्या गंगादे खेताकेन पितृ व्यहोरा निमित श्री विमलनाथ बिंबं का० प्र० श्रीद्विवन्दनीकगच्छे श्री देवगुप्तसूरिणां पट्टे श्रीसिद्धसूरिभिः। धातु प्रथम भाग लेखांक १०२ १८-संवत् १५२१ वर्षे वैशाख सुदि ३ गुरौ ओसवाल ज्ञातीय वृहत्संताने श्रे वीरा भार्या वल्डादे पुत्र खेता गुणीश्रा खेता भार्या अधकू स्वकुटम्ब युक्तेन स्वपितृ मातृ श्रेयोर्थ श्री शीतलनाथ विबं का०प्र० द्विविन्दनीकगच्छे श्री देवगुप्तसूरिणां पट्टे श्री सिद्धसूरिभिः। धातु प्रथम भाग लेखांक १११ १६-संवत् १५१६ वर्षे चैत्र बदि ४ गुरौ श्रोसवाल ज्ञातीय दोसी सोघा भार्या मचकु पुत्र दो० जयलकेन भार्या पुरी पुत्र भीमा सहादेभ्यां सहितेनात्म स्वमातृ पितृ श्रेयोर्थ कारितं प्रतिष्टितं श्रीसूरिभिः । धातु प्रथम भाग लेखांक ६४ १५३६ . उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा wwwwwwwwwwwwwww. For Private & Personal use only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [पोसवाल सं० १५२८-१५७४ २०-संवत् १५२१ वर्षे माघ बदि ५ गुरौ उप• भाववाण गोत्रे लघु० पारेख नाथा भार्या माहू पुत्र कडुश्रा भार्या रांणी पुत्र सहदे पात्म श्रे० श्रीनेमिनाथ बिंबं का० द्विवन्दनीकगच्छे प्र० सिद्धसूरिभिः उनाउ । धातु-प्रथम भाग नम्बर १८८ २१-संवत् १५१७ वर्षे वैशाख सुदि ३ सोमे श्री श्रीमाल ज्ञातीय लघु सन्तानीय दोसी महिराज भार्या रूपिणी तया स्वभत्रऽऽत्म श्रेयसे श्री शान्तिनाथ बिंबं का० द्विवन्दनीकगच्छे भ० श्री सिद्धसूरिभिः । प्रतिष्ठितं दानकोड़ी ग्राम (पंचतीर्थी) धातु-प्रथम भाग नम्बर २३५ ___ २२-सम्वत् १५१४ माह सुदि ६ बुधे उपकेश ज्ञाती लघु सन्तानीय मं० सामल भार्या लाडी पुत्र कल्हाकेन भार्या कल्हणदे पुत्र धीरा सहितेन आत्म श्रेयसे श्री नेमीनाथ बिंबं का०प्र० श्रीउप० द्विवन्दनीक गच्छे श्री सिद्धसूरिभिः डाभी ग्रामे । __धातु-प्रथक भाग नम्बर ४४३ २३--सम्वत् १५२१ वर्षे पोष सुदी ११ शनै उपकेश ज्ञातीय लघुसन्तानीय मं० भोजा भार्या टीबु पुत्र नागा धर्मसी खीमा भार्या मेली पुत्र रतनासहितेन खेमाकेन पितृ मातृ श्रेयोऽयं श्रीनेमीनाथ बिंबं कारितं श्रीद्विवन्दनीकगच्छे वृद्ध शाखायां प्रतिष्ठितं श्री सिद्धसूरिमिः उनाउ प्रामे। धातु-प्रथम भाग नम्बर ४७६ २४-सम्वत् १५०८ वर्षे वैशाख सुदी ५ शनी प्राग्वट ज्ञा० लघु शाखायां.....'करणा भार्या लीलादे सुत लाडा भार्या भोतमा श्री शान्तिनाथ विवं का०प्र० द्विवन्दनीक पते प्र० श्री देवगुप्तसूरिभिः। ____ धातु-प्रथन भाग नम्बर ६८ २५-संवत १४७६ वर्षे पौष बदी ५ शुक्र पोसवाल ज्ञातौ० श्रेष्ठ भादा भार्या लालु पुत्र विशाल भार्या विल्दणदे सुत चुडा कुटम्ब सहितेन उ० विमलनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्टितं द्विवंदनीकगच्छे देवगुप्तसूरिभि । धातु-प्रथम भाग नम्बर ७६६ २६-संवत् १५३७ वर्षे वैशाख सुदि १० सोमे प्राग्वट ज्ञातौ श्रेष्ठ रवा भार्या रायसि पुत्र श्रादा भार्या कपुरी सुत कूरा सहितेन श्री वासपूज्य बिम्ब का०प्र० द्विवन्दनीकगच्छे भ० श्रीसिद्धसूरिभिः । धातु-प्रथम भाग नम्वर ८४४ . २७-संवत् १५७३ वर्षे वैशाख बदि ५ दिने श्री ओसवंशे साह तुला भार्या टीबु सुत साह धनपाल भार्या टबकू पुत्र साह समरा भार्या श्रीयादे साह परबत भार्या पाल्हणदे साह नरसिंह भार्या सलाई साह परबतेन स्वभ्रातृतान्य श्रेयोऽथं श्री संभवनाथ बिंब का० श्री द्विवन्दनीकगच्छे प्र० श्री देवगुप्तसूरिभिः । धातु-प्र० भाग नंबर १०८५ २८-संवत् १५६ वर्षे शाके १४५५ प्रथम ज्येष्ठ बदि २ रवौ उपकेश श्रेष्ठ सूरा भार्या पुद्गली पुत्र नीसल भार्या पुगी पुत्र देवराज युक्तेन श्री चन्दाप्रभ बिम्बं का. ऊकेशगच्छे श्री सिद्धाचार्य सन्ताने द्विवन्दनीक पक्षे भ० श्री देवगुप्तसूरिभिः प्र० श्रीईडर वास्तव्यं । धातु-प्रथम भाग नबर १११५ ____२६-संवत १३३४ वर्षे ज्येष्ट बदि २ सोमे प्राग्वट शातौ ब्य० वरसिंह सुत व्य० सालिग भार्या साडू सुत देवराजकेन भार्या रलाइ० भ्रातृ वानर अमरसिंह प्रमुख कुटम्बयुक्तेन श्री श्रेयंसनाथ बिंबं का०प्र० द्विवन्दनीकगच्छे श्रीसिद्धसूरिभिः । विसलनगर वास्तव्यं । धातु-प्रथम भाग नंबर १५११ उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा .. Jain Eadcanon internation 2 Personal Use Only १५३७ wwa.janelibrary.org Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भागवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में उपकेशगच्छ की दुसरी शाखा में श्रीकोरंटगच्छाचार्यों ने मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवाई जिसके मुद्रित शिलालेख १-संवत् १२६३ वर्षे फागण सुदि ८ कोरंटगच्छे.... भीला....."धर्मनाथ वि कारितं प्रतिष्ठित ककसूरिभिः ॥ बा० पू० लेखाँक २०८० २-(१) ॐ संवत् १३१७ वर्षे ज्येष्ट बदि ११ बुधे श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य सन्ताने...... (२) साह भीमा पुत्र जिसदेव रतन अरयमदन कुन्ता महणराव मातृ लाछी श्रेयो) बिंब (कारि) (३) (ता) प्रतिष्ठितं । श्रीसर्वदेवसूरिभिः॥ जैन लेख संग्रह दूसरा लेखांक १९५० ३-(१) ॐ संवत् १३४० ज्येष्ठ बदि १० शुक्रे पल्लीवाल''भार्या वीरपाल भ्रा० पूर्णसिंह भार्या वय (२) जलदेवि पुत्र कुमरिसिंह केलिसिंह भार्या ठ०... आत्मश्रेयोर्थ ॥ श्रीपार्श्वनाथ बिंब का (३) रितं प्रतिष्ठितं भीकोरंटकीय सूरिभिः ॥ शुभम् ॥ बा० पू० लेखांक १७६२ ४-(१) संवत् १४०६ वर्षे वैशाख मासे शुक्ल पक्षे ५ पंचम्यां तिथौ गुरु दिने श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्ना. चार्य संताने महं महं कउंरा भार्या करदे पुत्र महं मदन नर पूर्णसिंह भार्या पूर्णसिरि सुत महं धांधल मूल मं० जसपाल गेदा रुदा प्रभृति समस्त कुटुम्बं श्रेयसे श्री युगादिदेव प्रसादे महं धांधुकेन श्रीजिनयुगलद्वयं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीनन्नसूरि पट्टे श्रीककसूरिभिः। बा० पू० लेखॉक २०१४ ५-संवत् १४३७ वर्षे वैशाख वदि १० सोमे । श्री कोरंदगच्छे श्रीनन्नाचार्य सन्ताने उपकेश झा श्रे० सोमा भार्या सूमलदे पुत्र सोनाकेन पितृ मातृ श्रे० श्री आदिनाथ बिबं का०प्र० श्री सांवदेव सूरिभिः ।। बा० पू० लेखांक १०५७ ६-संवत् १४८४ वर्षे वैशाख सुदि १० रखौ श्री कोरंटकीयगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने उपकेश ज्ञातीय मं० मलयसिंह भार्या मालणदेवी स० म० मदनेन पुत्र लुणा सहितेन भार्या हेमा श्रेयो) श्रीसंभवनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं कक्कसूरिभिः ॥ ___जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक २१०२ ७-संवत् १४६१ वर्षे फागण सुदि १२ गुरौ कोरंटवालगच्छे उपकेश ज्ञातीय संखवालेचा गोत्रे तपसी पुत्र जाणाकेन श्रेयसे श्री धर्मनाथ बिंबं कारितं प्रति० सांबदेव सूरिभिः॥ बा० पू० लेखांक २०८२ ८-संवत् १४६६ फागुण वदि ६ बुधे उकेश ज्ञातीय साह जमसी भार्या ऊवकू पुत्र्या श्रा० रोहिणी नाम्न्या क० जिणंद वासा स्वभर्तृनिमित्तं श्रीशांतिनाथ बिंबं का० प्रति० श्रीकोरंटगच्छे श्री कक्कसूरि पट्टे श्री सावदेव सूरिः ॥ बा० पू० लेखांक १३३० ...-संवत् १५०६ वर्षे माह वदि । श्रीकोरंटकीयगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने । ऊ ती० सुचन्ती गोत्रे भार्या आभरमुणया पुत्र हाता भार्या हुती पुत्र मांडण भार्या माणिक पुत्र खेतादि श्रीवासपूज्य बिंब कारापितं प्र० श्री सांबदेव सूरिभिः । जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ११८३ १०-संवत् १५०८ वैशाख बदि ११ दिने उपकेश ज्ञातीय डागलिक गौत्रे। साह धिना भार्या वारू पुत्र संघवी पासवीरेण भार्या संपूरदे सहितेन स्वश्रेयसे श्री संभवादि तीर्थकृञ्चतुर्विशति पट्टः का० प्र० श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य सन्ताने श्रीककसूरि पट्टे सावदेव सूरिभिः ॥ श्री॥ जैन लेख सं० भाग दूसरा लेखांक १७३३ १५३८. ___ उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ wwwm ११-सवत् १५०६ वैशाख बदी ११ शुक्र श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने । उवण्स वंशे । संखवालेचा गोत्रे श्रे० लखमसी भार्या सांसलदे पुत्र रामा भार्या रामदे पुत्र तेजा नाम्ना स्वमाता पित्रौः श्रेयसे श्री वासुपूज्य बिंब का० प्र० श्री सांबदेव सूरिभिः। जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक २०१२ १२-सं० १५१७ वर्षे माह सुदि १० बुधे श्रीकोरंटगच्छे उपकेश ज्ञा० काला पमार शाखायां साह सोना भार्या सहजलदे पुत्र सादाकेन भ्रातृ चउड़ा भादा नेमा सादा पुत्र रणवीर वणवीर सहितेन स्वश्रेयसे श्रीचन्द्रप्रभ बिंब कारितं श्री ककसूरि पट्टे श्रीपाद ....." जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक १४०४ १३-संवत् १५१८ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ६ बुधे श्रीकोरंटगच्छे । उपकेश मड़ाहड वा० साह श्रवण भार्या राऊ पुत्र साल्हा भार्या सांपू पुत्र जांजण सहितेन स्वमातृपितृ श्रेयोर्थं श्रीचंद्रप्रभ बिंब कारितं । प्रतिष्ठितं श्री सांवदेव सूरिभिः । जैन लेख सं० भाग दूसरा लेखांक १७२६ १४-संवत् १५३२ वर्षे वैशाख सुदि ६ सोमे श्री कोरंटगच्छे श्रीमन्नाचार्य सन्ताने उप० पोमालेचा गोत्रे साह जगनाथ भार्या जासहदे पुत्र साह सारंग भार्या सँसारदे पुत्र साह मेहा नरसि सहितेन श्रेयसे श्री सुमतिनाथ बिबं प्र० श्री सांबदेव सूरिभिः। जैन लेखांक संग्रह भाग दूसरा लेखांक १३८० १५-संवत् १५३३ वर्षे माह सुदि ५ दिने । बारडेचा गोत्रे साह कोड़ा भार्या सोनी पुत्र साह सीहा सहजा सीहा भायो हीरू श्रेयसे श्री कुन्थुनाथ बिंबं कारितं प्र० श्री कोरंटगच्छे श्री नन्नसूरिभिः । ___ जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक १६६८ १६-संवत् १५६७ वर्षे वैसाख सुदि १० उ० सुचिंति गोत्रे साह जेसा भार्या जस्मादे पुत्र मीडा भार्या हर्ष आत्मपुन्यार्थं श्री आदिनाथ बिंबं कारितं । को० श्री नबसूरिभिः प्रतिष्टितं ॥ श्री ॥ जैन लेख सँग्रह भाग दूसरा लेखांक १६४२ १७-संवत् १३८१ वर्षे माघ सुदि ५ श्री कोरंटगच्छे श्रावक कर्मण भार्या वसलादे पुत्र भाचाकेन म्रातृव्य नाग पितृ कर्मणनिमित्तं श्री महाबीर बिंबं कारापितं प्रतिष्ठितं श्रीवनसूरिभिः । __ जैन लेख संग्रह भाग तीसरा लेखांक २२५१ १८-संवत् १५६५ वर्षे वैशाख सुदि ७ गुरौ उसवाल ज्ञातीय श्रीसुन्धागोत्र साह जगड़ा पुत्र साह होला भार्या हीमादे पुत्र रामा रिणमा पित्रोः पुण्यार्थे श्री अजितनाथ बिबं कारापितं प्र० कोरंटगच्छे भगवान श्री ककसूरिभिः । जैन लेख संग्रह भाग तीसरा लेखांक २४८८ १६-संवत्..."अषाढ़ बदी ८ कोरंटगच्छे जांषदेव भार्या जासू पुत्र चाहड़देव गीदा जगदेव पासदेव पार्श्वनाथ प्रतिमा कारिता प्रतिष्ठिता श्रीककसूरिभिः । जैन लेख संग्रह भाग तीसरा २३७६ २०-संवत् १३४० वर्षे उयसवाल ज्ञातीय साह लाखणा श्रेयोऽर्थं श्रीआदिनाथ बिबं माता चापल श्रेयोऽर्थं श्रीशांतिनाथ बिंब कुमरसिंहेन प्रात्म पुण्यार्थं श्री पार्श्वनाथ भार्या लखमादेवी श्रेयोर्थ श्रीमहाबीर बिंब सुत खेतसिंह पुण्यार्थं श्री नेमीनाथ बिंबं कारितं साह कुमरसिंहेन प्रतिष्ठितं कोरंट कगच्छे श्री नन्नसूरि सन्ताने श्री कक्कसूरि पट्टे श्री सर्वदेवसूरिभिः । जैन लेख संग्रह भाग पहिला लेखांक ११५ २१-संवत १४६२ वर्षे वैशाख वदि ५. श्री कोरंटकीय गच्छे साह ३० शंषवालेचा गोत्रे साह वासमाल भार्या लक्ष्मीदे पुत्र ३ प्रता मिहा सूरांयाभी पितृ श्रेयसे श्री सम्भवनाथ बिंबं कारितं पुताकेन का०प्र० श्रीसावदेव सूरिभिः। जैन लेख संग्रह भाग पहिला लेखांक ७६६ २०-संवत् १५०६ वर्षे वैशाख वदि ११ शुक्रे श्रीकोरंटगच्छे श्री नन्नाचार्य सन्ताने उवएश वंशे डागउपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा...... १५३६ Jain Education ternak www.aimerorary.org Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लिक गोत्रे साह धना पुत्र स० पासवीर भार्या संपूरदे नाम्न्या निज श्रेयोऽथं श्री कुन्थुनाथ बिंब काराषितं प्र० श्री ककसूरि पट्टे सद्गुरु चक्रवर्ति भट्टारक श्री सावदेवसूरिभिः। जैन लेख संग्रह भाग पहिला लेखांक ४१७ २३-सं० १५५३ वर्षे माह सुदि ६ दिने वारडेचा गोत्रे साह कोहा भार्या सोनी पुत्र साह सीहा सहजा सीहा भार्या होऊं श्रेयोऽथं श्री कुंथुनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्री कोरंटगच्छे श्री....सूरिभिः । __जैन लेख संग्रह भाग पहिला लेखांक ३७ २४-सं० १५७६ वर्षे वैशाख सुदि ७ बुधे उशवाल ज्ञातीय वृद्धशाषीय पोसालेचा गोत्रे सा० षीमा भार्या अधी-पुत्र साह श्रीवंत भार्या सोनाई पुत्र सकल युतेन स्वश्रेयसे श्री पार्श्वनाथ विवं कारितं प्र० श्रीकोरंट गच्छे श्रीककसूरिभिः ॥ श्री॥ जैन लेख संग्रह भाग पहिला लेखांक ६०३ २५-संवत् १३६३ वर्षे फागु (ल्गु) ण सुदि ८ सोमे श्रीकोरंटकगच्छे श्री नन्नाचार्य सन्ताने श्री नन्नसूरि (री) णां पट्टे श्री कक्कसूरिभिर्निज गुरुमूर्ति [ : ] कारिता प्राचीन लेख संग्रह भाग पहिला लेखांक ६३ २६-संवत् १४६६ वर्षे वैशाख सुदि ३ सोमे प्राग्वट ज्ञातो मं० सोभित भार्या लाऊलदेवि सुत भादेन पित्रोः श्रे० श्री आदिनाथ बिंबं का० प्र० श्री कोर (रे) ट गच्छे नन्नसूरिभिः । । प्राचीन लेख संग्रह भाग पहिला लेखांक १०१ २७-संवत् १५०७ वर्षे माघ (गर्ग) सुद ५ सोमे उप० सुंघा गोत्र मं० तेजा भार्या रूपी पुत्र मं० नरभसेन प्रात्म श्रे० श्री श्रेयांस बिंबं का० प्र० श्री कोरंटगच्छे भ० श्री सावदेवसूरिभिः।। प्राचीन लेख संग्रह भाग पहिला लेखांक २२६ २८-संवत् १५१७ वर्षे माघ सुदि १० बुधे श्रीकोरंटगच्छे उपकेश ज्ञातीय काला परमारशाखायां श्राविका स्तूनाम्न्या आत्मश्रेयसे श्रीसुमतिनाथ विंबंकारितं प्रतिष्टितं (8) तं श्रीककसूरि पट्टे श्रीसावदेवसूरिभिः।। वरीयानगर वास्तव्य ॥ प्रा०ले०संभाग पहिला लेखांक ३०५ २६-संवत् १५२३ वर्षे वैशा० सुदि ४ बुधे श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने । उसवंशे महाजनी गो० श्रे मना भार्या मीणलदे पुत्र श्रे० नरबदेन भार्या वाळू पुत्र जिणदास युतेन स्वश्रेयसे श्री श्रेयांसजिन बिंब का०प्र० श्रीककसूरि पट्टे श्रीसावदेवसूरिभिः ॥ प्रा० ले० सं० भाग पहिला लेखांक ३७१ ३०-संवत् १५२३ वैशाख शु० ५ बुधे श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने श्री उ० ज्ञा० मंकूश्राणागोत्रे श्रे० गोसल भा० चांपू पुत्र श्रे० चांपा भा० मदी (ही) पुत्राभ्यां नाथा कर्मा सीहाभ्यां श्रेयसे श्रीश्रेयांसजिनबिंब कारितं प्रतिष्टि (ष्ठि) तं श्रीकक्कसूरि पट्टे पूज्य श्रीपा (भा) वदेवसूरि (भिः) श्रीः ।। (सावदेव सूरिः) प्रा० ले० सं० भाग पहिला लेखांक ३७३ ३१-संवत् १५३४ माघ सुदि १३ शुक्रे भीउपकेशज्ञातीय वृद्ध-शाखीय साह जिणद भार्या हांसी पुत्र (०) साह पासा भार्या रामति पुत्र साह भिखाकेन श्रीसंभवनाथ बिंबं का० श्रीकोरंटगच्छे श्रीसावदेवसूरिभिः प्रतिष्ठितं प्रा० ले० सं० भाग पहिला लेखांक ४५६ ३२-संवत् १२७४ वर्षे फाल्गुण सुदि ५ गुरौ श्रीकोरंटकीयगच्छे श्री ककसूरिशिष्य सर्वदेवसूरीणां मूर्तिः श्रोसपुत्र रा० आंबड संघपतिना कारिता श्रीकक्कसूरिभिः प्रतिष्ठिता मंगलं भवतु संघस्य । प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ५५२ ३३-संवत् १४०८ वर्षे वैसाख मासे शुक्ल पक्षे ५ पंचम्यां तिथौ गुरुदिने श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने महं० कउरा भार्या महं० नाकउ सुत महं० पेथड महं० मदन महं० पूर्णसिंह भार्या महं पूर्णसिरि महं० Jain Edu१५४०mational For Private & उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ दूदा महं धांधल म० धारमदे म० चापलदेवी पुत्र मौरसिंह हापा उणसिंह जाणा नीछा भगिनी बा० वीरी भागिनेय हाल्दा प्रमुख स्वकुटुम्ब श्रेयसे म० धांधुकेन श्रीयुगादिदेव प्रासादे जिनयुगलं कारितं । प्रति. श्रीकक्कसूरिभिः॥ प्रा. जैन लेख संग्रह भागदूसरा लेखांक २३६ ३४-सं० १४०८ वर्षे वैशाख मासे शुक्ल पक्षे ५ पंचम्यां तिथौ गुरुदिने भी श्री कोरंटकगछे श्रीनन्नाचार्य संताने महं० कउरा भार्या कुरदे पुत्र महं० मदन म० पूर्णसिंह भार्या पूर्णसिरि सुत महं० दूदा म० धांधल मूल. म० जसपाल गेहा रुदा प्रभृतिकुटुंब श्रेयसे श्रीयुगादिदेव प्रासादे महं० धांधुकेन श्री ( जिन ) युगलद्वयं कारितं प्रतिष्ठितः श्रीनन्नसूरि पट्टे श्रीकक्कसूरिभिः प्रा. जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक २४० ___३५-सं० १४२६ वर्षे वैशाख सुदि २ रवी श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने मुंडस्थलग्रामे श्रीमहापीर प्रासादे श्रीककसूरिपट्टे श्री सावदेवसूरिभि, जीर्णोद्धारः कारिताः प्रासादे कलशदंडयोः प्रतिष्ठा तत्र देवकुलिकायाश्चतुर्विशति तीर्थंकराणां प्रतिष्ठा कृता देवेषुवनमध्यस्थेष्वन्येष्वपि बिंबेषु च शुभमस्तु श्रीश्रमणसंघस्य।। प्रा० जैन लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक २७४ ३६-संवत् १२१२ ज्येष्ठ वदि ८ भोमे श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने श्रीओसवन्ने मंत्रिधाधुकेन श्रीविमलमंत्रिहस्तिशालायां श्रीश्रादिनाथसमवसरणं कारयांचवे श्रीनन्नसूरिपट्टे श्रीकक्कसूरिभिः प्रतिष्ठितं । वेलापल्ली वास्तव्येन। प्रा० जै० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक २४८ ३७.......माघ सुदि १३ श्रीकोरंटकीयगच्छे नन्नाचार्य संताने चैत्ये श्रीककसूरीणां शिष्येण पं०...... प्रा० जैन लेख सँग्रह भाग दूसरा लेखांक ५५५ ३८-संवत् १३१२ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १३ श्रीकोरंटकीय".......... नन्नचार्य संताने श्रीभावदेव भार्या सालूणि पुत्र पासडेन"......"मातुः श्रेयसे श्रीशान्तिनाथ बिंबं का०प्र० श्रीसन्त ( शांति ) देवसूरिभिः ।। जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक २०४ ३६~संवत् १३३२ ज्येष्ठ सुदि १३ श्रीकोरण्टकीयराज्ये श्रीनन्नाचार्य सन्ताने श्रीसावदेव भार्या सालूणि पुत्रणसाडेन स्वमातुः श्रेयसे श्रीशांतिनाथ बिम्ब कारापितं प्र० श्रीसर्वदेवसूरिभिः जैन धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक १८६ __४०-संवत् १४६१ वर्षे माघ सुदि १० सोमे उपकेशज्ञातीय साह अदाभार्या बा० रुपादे तत्सुतेन साह पोपटायेन भार्या श्री० धरमाईसहितेन पितृमातृश्रेयसे श्रीशीतलनाथ बिम्बं कारित प्रतिष्ठितं श्रीकोरंटगच्छे श्रीसावदेवसूरिभिः ।। जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ७४० __४१-सं० १४६६ आषाढ़ सुदि ३ गुरौ श्री श्रीमाली ज्ञा० वृद्धशखीय म० ठाकुरसी पुत्र म० मणोसी भार्या हर्पू पुत्रमहं० सहणकेन समस्तपूर्वजमातृपितृश्रेयोऽथ मूलनायक श्री श्री अभिनन्दन जिनचतुर्विशतिपट्टः कारितः प० श्रीकोरंटगच्छे नन्नाचार्य सन्ताने श्रीकक्कसूरि पट्टे श्रीसावदेव सूरिभिः जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ७६४ ४२-संवत् १५०६ ज्येष्ठ वदि । शुक्र श्रीकरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य सन्ताने ओसवालवन्शे सौन्गधिकठाकुरवाछा भार्या परबुश्रेयसे दौहित्रिक्रमाणिकेन श्रीवासुपूज्यबिम्ब का० प्रतिष्ठा• सावदेवसूरिभिः । जैन० धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक २०३ ४३-संवत् १५०६ वर्षे ज्येष्ठ वदि । शुक्रे श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य सन्ताने श्रीउपकेशवन्शे सौगन्धिकसाधणसी पुत्र साह पाल्हा भार्या पाल्हणदे पुत्र लींबा भार्या रंगाईपुत्रसाहमाणिक नाम्ना सुश्रावकेण श्रात्मपुण्यार्थ श्रीवासुपूज्यमूलनायक युतश्चतुर्विशति तीर्थंकरपट्टः कारापितः प्रतिष्ठितः पूज्य श्रीकक्कसूरि पट्टे dain E उपकेझगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा rsonal use only ०.१५४१ www.ganeirodary.org Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्री श्री श्री सावदेवसूरिभिः साहमाणिक भार्या हर्षाई पुत्र प्राप्तिर्भवत । जैन धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ६७१ ४४-संवत् १५१५ वर्षे फागुण सुदि १२ बुधे श्रीकोरंटगच्छे उपकेशज्ञातीय साहधर्म भार्या धर्मादेपुत्र श्रेष्ठिधारा श्रेष्ठिलाइआ श्रे० लाइआकेन भ्रातृवलाश्रेयोऽर्थ श्रीसंभवनाथ बिम्ब कारितं प्रति० श्रीसोमदेवसूरिभिः जैन धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ८६१ ४५-सम्बत १५३० माघ सुदि ५ दिने श्रीउपकेशवन्शे लघुशाखायां श्रेष्ठि धणपाल भार्या अरघू पुत्र घोघर भार्या नाईनाम्न्या स्वश्रेयसे जीआदिनाथ बिंब कारिन्त श्रीकोरंटगच्छे श्रीकक्कसूरि पट्टे श्रीसावदेवसूरिभिः प्रतिष्ठिन्त अलीणाग्रामे ॥ जैन धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक २१८ . ४६-संवत् १५३१ वैशाख सुदि ५ सोमे श्रीवायडज्ञातीय व्यव० कान्हडभार्या सहजलदे पुत्र कर्मण भार्या खेतू पुत्र नगराज महिराज जावड नगराजेन भार्या रंगीपुत्र धनादियुतेन स्वश्रेयसे श्रीमुनिसुव्रतबिम्बं कारितं श्रीकोरंटगच्छे श्रीसर्वदेवसूरिभिः प्रतिष्ठितं ॥ जैन धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ६६३ ४७-सम्वत् १५३१ वैशाख सुदि ५ सोमे श्रीोसवन्शे वृद्धशाखीय श्रे० श्रीवणसुतश्रे० सारंग भार्या स इजलदे पुत्र श्रे० हापा भार्या मटकूपुत्रश्रे० माणिकजीवाभ्यां पुत्र पौत्र शृगारिताभ्यां स्वश्रेयसे श्रीश्रेयांसबिंब कारितं श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य सन्ताने श्रीककसूरि पट्टे प्रभु श्रीसावदेवसूरिवरैः प्रतिष्ठितं भलाडाग्रामे ।। जैन धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ७४८ ४८-संवत् १५४६ वर्षे माघ सुदि ५ सोमे श्रीकोरंटगच्छे ओसवाल ज्ञा० ध्रुवगोत्रे श्रे० कालू भार्या डाही पुत्र नाथा भार्या नाथी सु० रत्नपाल सहजा वीरपालयुतेन श्रीसुनिसुव्रतस्वामि बिम्बं का प्रतिष्ठित श्रीसावदेवसूरिपट्टे श्रीनन्नसूरिभिः ।। शुभं भवतु ॥ जैन० धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक १२३ ४६-संवत् १५६६ वर्ष ज्येष्ठ मासे शुक्ल पक्ष त्रयोदशीतिथौ भौमवारे श्रीमाली ज्ञातीय लघुशाखीय सा० हादा भार्या हेमादे पुत्र सा० बलिराजेन भार्या षीमाईपुत्र जयचन्दयुतेन स्वश्रेयसे भीवासुपूज्य बिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्रीकोरंदगच्छे भट्टारक श्रीनन्नासूरिभिः श्रीस्तंभतीर्थ नगरे॥ जैन धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक १०६६ ५.-सम्बत् १५७३ वर्षे आसाढ़ सुदि ५ गुरौ ओसवालज्ञा. वृद्धशाखीयसा० घर्मण भार्या धर्मादेपुच्या तथा साह सहसकिरण भार्यया सोनाईनाम्न्या श्रीआदिनाथ बिंब का० प्र० कोरंटगच्छे श्रीनन्नसूरिभिः मातरप्रामे ॥ जैन धातु प्र० सं० भाग दूसरा लेखांक ७६६ ५१-सं० १६११ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १२ शनौ ओ० ज्ञा० साह हेमा सं० साह सिधराजेन श्रीसुपार्श्व बिंबं कारितं श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नसूरिभिः प्रति० ॥ जैन धातु प्र० लेख संग्रह भाग दूसरा लेखांक ६५६ ५२--सं० १६१२ वर्षे शाके १४७८ प्रवर्त्तमाने साह जीवाभार्या जीवादे पुत्रीबाईरनाई बिम्ब कारापितं श्रोशान्निनाथः । कर्मक्षयार्थं प्रतिष्ठितं च श्रीकोरंटगच्छे भट्टारिक श्री ५ नन्नसूरिभिः श्रीशांतिनाथ बिम्ब प्रतिष्ठितं शुभं॥ जैन धातु प्र० लेख सं० भाग दूसरा लेखांक ६६६ ५३-संवत् १५२१ वर्षे वैशाख बदि ६ बुधे उपकेश ज्ञातौ भ० संग्राम भार्या खीमाइ नाम्न्या पुत्र हरिश्चन्द्र तद्वधू कीकीबाई सहितया आत्मश्रेयोऽथ श्री धर्मनाथ विंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीकोरण्ट गच्छे श्री नन्नाचार्य सन्ताने श्रीककसूरि पट्टे श्री सावदेवसूरिभिः । धातु प्रथम भाग नम्बर १४ ५४-संवत १५११ वर्षे.............'बदि ५ रखौ श्री कोरण्टकगच्छे उपकेश ज्ञा० सिया भार्या Forporate उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा १५४२ Jain Education international ww.jainelibrary.org Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ धारू सु० डुगर भार्या देन्हू सँ० कान्हा भार्या दकू डुगर कान्हानिमितं सं० वानर माधवेन श्री विमलनाथ बिंब का० प्र० श्री सावदेवसूरिभिः धातु प्रथम भाग नम्बर २०१ ५५-संवत १४५६ वर्षे ज्येष्ठ सुदि सोमे उपकेश ज्ञातौ मंहं सांगण भार्या सींगारदे पुत्र मनाया सहिते भ्रातृ वाळू भ्रास्ट जाया वल्हणदे श्रेष्ठ श्री संभवनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री कोरण्ट गच्छे श्री नत्रसूरिभिः। धातु प्रथम माग नंबर ३६२ ५३-संवत १५६५ वर्षे माघ बदि १२ लाडउली नगर वास्तव्यं श्रोसवाल ज्ञातीय शाह जेसा भार्या जसमादे पुत्र नरसिंहेन भायों नायकदे पुत्र साइ जयवन्त श्रीवन्त देवचन्द सूरचन्द हरिचन्द प्रमुख कुटम्ब युक्तेन श्री मुनिसुव्रत स्वामि बिम्बं का० प्र० श्री कोरण्ट गच्छे श्री ककसूरिभिः । __ धातु प्रथम भाग नम्बर ४५५ ५७-संवत १३६४ वर्षे चेत्र वदि ५ भोमे....... श्रेयोथं सुत मोहणसिंह का०प्र० सर्वदेवसूरिभिः । धातु प्रथम भाग नम्बर ५८३ ५८-संवत् १५१३ वर्षे श्री धर्मनाथ बिंबं श्री कोरण्ट गच्छे श्री कक्कसूरि पट्टे प्र० श्री सावदेवसूरिभिः । धातु प्रथम भाग नम्बर ७३६ ५६-संवत् १५३० वर्षे माघ वदि ८ सोमे श्री कोरण्टगच्छे उप० ज्ञातौ साह श्रासा भार्या आसलदे पुत्र साह माधवकेन श्री वंसे श्री सुमतिनाथ विवं का०प्र० श्री नमाचार्य सन्ताने श्री ककसूरि पट्टे श्री सावदेवसूरिभिः। धातु प्रथम भाग नम्बर ८११ ६०-संवत् १५५२ वर्षे श्राषाढ सुदि १ रवौ श्री कोरण्टगच्छे श्री नन्नाचार्य सन्ताने उपकेशवंशे शंखवालेचा गोत्रे श्रेष्ठ खेता भार्या खेतलदे पुत्र नाथा पहिराज हरिराज नाम लिखितं श्री अजितनाथ बिंबं का० प्रति० सावदेवसूरि पट्टे श्री नन्नसूरिभिः । श्री नाथ पुण्यया। धातु प्रथम भाग नम्बर ८६२ ६१-संवत् १५२५ फागुण सुदि ७ शनौ ओसवाल ज्ञातौ साजण भार्या मरमटि पुत्र देवराजेन भार्या जासू पुत्र लखमसी युक्तेन स्वमातृ श्रेयसे श्री विमल जिन यिबं का. कोरण्टगच्छे प्र० श्री सरवदेवसूरिभिः । धातु प्रथम भाग नम्बर ८५० ६२--संवत् १५३१ वर्षे वैशाख बदि ११ चन्द्रे श्री श्रोसवंशे सॅ० दुल्हा सु० मं० नाथा भार्या गोमति पुत्र मं० जाणाकेन भार्या पुहती पुत्र हर्षामनादि कुटम्देन शृंगारितेन मातृ पित्रो श्रेयसे श्री चन्द्रप्रभ बिबं का० श्री कोरण्टगच्छे श्री ककसूरि पट्टे श्री सावदेवसूरिभिः प्र०॥ धातु प्रथम भाग नंबर ६५५ ६३-संवत १४६६ वर्षे फागण बदि २ गुरौ ओसवाल ज्ञातीय म छाहड़ भार्या मचू पुत्र वयजा पुत्री माइ पुनी सं० अजितनाथ विंबं का०प्र० श्री कोरण्टगच्छे श्रीसावदेवसूरिभिः । धातु प्रथम भाग नम्बर १०२७ ६४-संवत् १५०६ वैशाख वदि ६ शुक्रे श्री कोरण्टगच्छे श्री नन्नाचार्य सन्ताने उएशवंशे डागलिया गोत्रे साह राववीर भार्या सापू पुत्र बसतानाम्ना पितृ श्रेयसे श्रीकुन्थुनाथ बिंब का प्र० श्री सावदेवसूरिभिः । धातु प्र० भाग नम्बर १८९२ ६५-संवत् १५२५ वर्षे ज्येष्ठ शुक्ला उकेश ज्ञातौ साह सहदेव पुत्र सूरा भार्या रामू पुत्र खीमाकेन श्रात्म श्रेयसे श्री चन्द्रप्रभ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री कोरण्टगच्छे श्री ककसूरिपदे श्री सावदेवसूरिभिः। धातु प्रथम भाग नम्बर १२०३ ६६ सं० १५०४ वर्षे ज्येष्ठ शुक्ला ६ रवौ श्री कोरण्ट गच्छे उपकेश ज्ञातौ साह सालिग भार्या सुलेसरि dan E उपके शगल्लाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा ersonal use only wwwwwwwwwwwwww - ~ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तियों पर के शिखालेख] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पुत्र अदाकेन भार्या मीमी सहितेन मातृ पितृ निमित श्री चन्द्रप्रभ बिंबं का० प्र० श्री सावदेवसूरिभिः । धातु प्रथम भाग नम्बर १२२४ ६७-संवत्१५३१ माघ वदि ८ दिने ऊकेश० साह कल्हा भार्या कपुरादे युः कुत्रा सलाभ्यां भ्रातृ ठाकुर भार्या अमरादे पुराइ प्र० कुटम्ब युक्तेन श्री आदिनाथ विंबं कारितं प्रतिष्ठितं कोरण्टगच्छे श्री सावदेवसूरिभिः धातु प्रथम भाग नम्बर ८११ ६८-संवत् १२२० वर्षे ज्येष्ठ बद : श्री कोरण्टकीवगच्छे श्री पद्मसिंह भार्या विल्लू पुत्र पुण्यसिंह विजयसिंह स्व पितृ श्रेयसे........"बिंबं का० प्र० सावदेवसूरिभिः धातु प्रथम भाग नम्बर १४१८ ६१-सं० १५८२ वर्षे मिती मार्गशीर्ष सुद ११............श्रीकोरंटगच्छे श्रीमालवंशे सा० धुघुक भार्या रूकमाई पुत्र मोकल नारा नारायणमोकल भार्या मांगी पुत्र सहजाकेन श्री पार्श्वनाथ बिंब कारितं प्र. श्री नन्नाचार्य संताने श्री ककसूरि पट्टे सर्व देवसूरिभिः । भालोड़े वास्तव्यम् ॥ ७०-सं० १४८७ वर्षे वैशाख सुदि ११ भी उसवाल वंशे बाप्पनाग गोत्रे जाघड़ा शाखायां सा. तेजपाल भार्या तेजाइ पुत्र केला पौ० जोघड़ केन मातृपितृ श्रेयसे श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा कारितं प्र० श्री कोरंटकिमगच्छे श्री नन्नसूरि सन्ताने सर्वदेवसूरि पट्टे नन्नप्रभसूरिभिः। ___७१-सं० १५०६ वर्षे वैशाख सुदि ५ उकेशज्ञातौ चोपड़ा गोत्रे सा० सादाभायं रूखमी पुत्र जइता भार्या जेतलदे तत्पुत्र हेमा लादा काना मा भार्या हमादे पुत्र सदूलाकेन श्री युगादिदेव बिंबं कारितं प्रतिष्ठा श्री देवगुप्तसूरिभिः। ७२-सं० १५४१ वर्षे माप सुदि १३ प्राग्वट वंश सा० माला भार्या संवाइ पुत्र रामा नाथ जेसाढ़ सर्व कुटम्बिन सहित मातृपितृ श्रेयसे श्री मुनिसुव्रत बिंब कारापितं प्र० श्री उपकेशगच्छे श्री सिद्धसूरिभिः । आसिका दुर्ग वास्तव्य शुभम् ।। ७३-सं० १३६६ ज्येष्ट सुदी ११ दिने श्री उपकेशज्ञातौ सुंचंति गोत्र हिंगल शाखायां सा• तुल्ला भार्या तानाई पुत्र नारायण भार्या नोकी पुत्र रांणा संगण सालु पेथा केन स्व मातृपितृ श्रेयसार्थ भीअजितनाथ बिंबं कारापितं प्रतिष्ठितं श्री उपकेशगच्छीय ककुंदाचार्य सन्ताने श्री ककसूरि पट्टे श्री देवगुप्तसूरिभिः । ७४-सं० १३६१ प्रासाद सुदि १०....."दिने श्री उकेशवंशे बोहरा गोत्रे चंदलिया शाखायां सं० रूपणसी भार्या रूपाइ पुत्र करण भार्या कर्मी पुत्र रावत भीमा सहितेन श्री महावीर बिंब कारितं प्र• भी उपकेशगच्छे आचार्य सिद्धसूरिभिः । ___ इत्यादि इन तीनों शाखाओं के और भी बहुत से शिलालेख हैं पर फिलहाल जो मुद्रित हो चुके हैं उनको ही यहाँ उद्धृत किये हैं। हमने जिन शिलालेखों के नीचे जिन जिन पुस्तकों के नम्बर अङ्क लिखा है उसमें कहीं कहीं असावधानी एवं समय के अभाव से कहीं कहीं गलती रह गई है उसको शुद्धि पत्र में निकालदी गई है कई कई शिलालेख कई अखबारों से या अन्य स्थानों से भी लिये गये हैं कि जिन्हों के नीचे नम्बर नहीं दिये गये हैं। Jain Education international wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww For Private & Personal use only mowwwmaramanawwwvi W w .jaipolibrary.org १५४४ उपशमच्छाचायों की प्रतिष्ठा Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषामार विशेषाभार यों तो इस प्रन्थ को लिखने में जिन २ महानुभावों की ओर से तथा जिन २ प्रन्थों से मुझे सहायता मिली थी उनकी शुभनामावली ग्रन्थ की आदि में प्रकाशित करवादी गई थी पर जिन २ ग्रन्थों से मैंने विशेष सहायता ली है उनका विशेष उपकार मानना मेरा खास कर्त्तव्य समझ कर पुनः यहाँ नामावली लिखदी जाती है। १-श्राचार्य श्री प्रभाचन्द्रसूरि रचित प्रभाविक चरित्र के अन्दर जिन २ प्रभाविक प्राचार्यों का जीवन लिखे हुए थे उन सबका जीवन मैंने हिन्दी भाषा भाषियों के लिये हिन्दी में लिख दिये हैं हाँ कहीं अधिक विस्तार था उनको संक्षिप्त जरूर कर दिया है। -कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्रसूरि के निर्माण किया परिशिष्ट पर्व तथा त्रिषष्टि सिलाग पुरुष चरित्र के अन्दर से भी बहुत कुछ मदद ली गई है। ३-आचार्य मेरूतुंगसूरि विरचित प्रबन्ध चिन्तामणि नामक ग्रन्थ से भी बहुत कुछ मसाला लिया गया है। __४-श्राचार्य विजयानन्द (आत्मारामजी) सूरिजी म० के लिखे जैनतत्व निर्णय प्रसाद जैनतत्त्वादर्श और जैन धर्म विषय प्रभोतर ग्रन्थों से भी जैन धर्म की प्राचीनता तथा चार आर्यवेदादि के विषय में भी कई लेख लिये गये। ५-आचार्य श्री विजय धर्म सूरिश्वरजी आचार्य बुद्धिसागरसूरीजी श्री जिनविजयजी और बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर के मुद्रित करवाये जैन मन्दिर मूर्तियों के शिलालेखों के अन्दर से बहुतसे शिलालेख यथा स्थान पर उद्धृत किये गये हैं। ६-पन्यामजी श्री कल्याणविजयजी म० के लिखी 'वीर निर्वाण सम्बत् और जैन कालगणना तथा श्रमण भगवान महावीर नामक पुस्तकों से सहायता ली गई है। ७-श्रीमान चन्दराजजी भंडारी द्वारा प्रकाशित भारत के हिन्दू सम्राट नामक किताब से मौर्यवंशी सम्राट चन्द्रगुप्त के विषय में कई लेख लिये गये हैं। ८-श्री महावीर प्रसादजी द्विवेदी ने भारत की प्राचीन सभ्यता का प्रचार शीर्षक एक लेख सरस्वती मासिक में मुद्रित करवाया था जिसको उपयोगी समझ यहां दे दिया गया है। -प्राचीन कलिंग और खारवेल नामक पुस्तक तथा प्राचीन जैन स्मारक (बंगालप्रान्त) और जैन साहित्य संशोधक त्रिमासिक पत्र में (पं० सुखलालजी) उड़ीसा प्रान्त से मिला हुश्रा महामेघवाहन चक्रवर्ती राजा खारवेल का प्राचीन शिलालेख हिन्दी अनुवाद के साथ मूल शिलालेख इस ग्रन्थ में दिया गया है। १०-ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी के संग्रह किये हुए प्राचीन जैन स्मारक (बम्बई मैसूर प्रान्त) के अन्दर से जैन धर्म पर विधर्मियों के अत्याचार तथा वल्लभी राजाओं का ताम्रपत्रादि कई उपयोगी बातें ली गई है। ११-श्रीयुत त्रिभुवनदास लेहरचन्द शाह बड़ोदा वाले का लिखा 'प्राचीन भारतवर्ष नामक प्रन्थ से प्रचीन सिके एवं स्तूम्भ और कई देशों के राजाओं की वंशावलियादि। उपरोक्त महानुभावों के अलावा भी किसी भी प्रन्थ से मैंने सहायता ली हो और वर्तमान में उनका नाम मेरी स्मृति में न भी हो तथापि हम उन्हों का आभार समझना तो भूल ही नहीं सकते हैं। "ज्ञानसुन्दर १५४५ Jain Education wional Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भूल-सुधार मेरी लिखी पुस्तकें पढ़ने वाले सज्जन इस बात से तो भलीभांति परिचित हैं कि कई अनिवार्य कारणों कहीं कहीं गलतियाँ रह जाती हैं जैसे एक तो व्याकरण ज्ञान की कमी, दूसरा उतावल से जल्दी काम करने की प्रकृति, तीसरा समय कम और काम अधिक, चतुर्थं चातुर्मास के अलावा भ्रमण में रहने से प्रूफ मिलने में गड़बड़ी तथा प्रेस वालों की लापरवाही, पाँचवाँ सहायक का अभाव और छटा नेत्रों की रोशनी कम होजाना इत्यादि कारणों से कहीं कहीं गलतियाँ रह जाती हैं। दूसरा छपाई का काम ही ऐसा है कि मेरे लिये तो उसे कारण है पर अच्छे २ विद्वान लोग प्रेस में आने जाने और सैकड़ों रूपये पडितों की तनख्वाह के देते हुए भी उनके मन्थों में अशुद्धियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इसका उपाय यही है कि रही हुई अशुद्धियों के लिये ग्रन्थ के अन्त में शुद्धिपत्र दे दिया जाय तदनुवार मैंने भी इस ग्रन्थ में रही हुई सामान्य गलतियों के लिये शुद्धिपत्र दिला दिया है । पर खास लेख लिखने में ही असावधानी रही हुई भूलों के लिये यहाँ पर सुधार लिख दिया जाता है । इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १६३ पर हुए राजा तोरमण के विषय - xxx तोरमण की राजधानी को भिन्नमाज़ में होना लिखा है यह गलती है । x x दूसरा वहाँ पर हरिवार्य रहते थे और उन्होंने तोरम को उपदेश देकर जैन धर्म का अनुरागी बनाया और तोरमण ने वहाँ भ० ऋषभदेव का जैन मन्दिर बनाकर अपनी भक्ति का परिचय दिया। x x तीसरा कुवलयमाल कथा का समय विक्रम की सातवीं शताब्दि का लिखा है । इन तीनों बातों का सुधार निम्नलिखत है जो कुवलयमाल कथा में निम्नलिखित प्रमाण मिलना हैं। यथा "तत्यत्थि जलही दइया सविधा अ चंद भायति । तीरम्मितीय पयड पव्वइया खाम रयण सोहिल्ला ॥ जत्यस्थिठिए भुत्ता पुइदं सिरि तोर शरण ||" "तस्स गुरू हरिउतो प्रायरिओ आसि गुप्त वंसाओ।" सग काले बोलणे वरिमाण सएहिं सत्तहिं गएहिं एग दिप्पूणेहिं रइया अवरयह बेलाए || इसमें कहा है कि उत्तरापन्थ में - चन्द्रभाग नदी के कनारा पर पव्वइया नामक नगर में तोरमण राजा की राजधानी थी और तोरण के गुरु थे गुपवंश के आचार्य हरिगुतसूरि । x x कुवलयमाल कथा का लेखन समय शाक संवत् सात सौ में एक दिन न्यून बतलाया है परन्तु शाक संवत के बदले भूल से विक्रम संवत् छप गया है । तीसरी बात तोरमण ने जैनमन्दिर बनाने की है। इसके लिये मैंने पन्यासजी श्रीकल्याणविजयजी म० ( उस समय के मुनि) की सेवा में जिज्ञाषु होकर कई प्रश्न भेजे थे । उनमें राजा तोरम और उनके उत्तर अधिकारी मिहिरकुत के विषय के प्रश्न भी थे । उत्तर में भीपन्यासजी महाराज ने ता० ५-८-२७ के पत्र में लिखा था कि तोरम ने भ० ऋषभदेव का मन्दिर बनाकर अपनी भक्ति का परिचय दिया । दूसरा मिहिरकुल के विषय में लिखा है कि उसके हाथ राज सत्ता आते ही जैनों ओर बोद्धों पर अत्याचार गुजारना प्रारम्भ कर दिया वह भी यहाँ तक कि सिवाय देश छोड़ने के जन, माल और धर्म की रक्षा होना असम्भव था इसलिये वहाँ का संघ मरुवर प्रान्त का त्याग करके लाटगुर्जर की ओर चले गये। उन जाने बालों में उपवेश वंश के लोग भी थे । पन्यासजी ने यह भी लिखा है कि उपकेश वंश नामकरण विक्रम की पांचवीं शताब्दि के आस पास में हुआ था इत्यादि । प्रश्नों के उत्तर के अन्त में आपश्री ने यह भी लिखा है कि मैंने मन्य प्रशास्त्रियों तथा भाष्य चूर्णियों के आधार पर ही यह उत्तर लिखा है । मैंने यह खुलासा इसलिये किया है कि कई लोगों का यह भी खयाल है कि मिहिरकुल ने केवल बोद्धों १५४६ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भूल सुधार mara पर ही अत्याचार गुजारे थे पर जैनों पर नहीं अर्थात् जैनों पर जुतम करने का प्रमाण नहीं मिलता है । इससे पाया जाता है कि अभी उन लोगों की शोधखोज अधूरी है। अतः इस विषय में और भी उद्यम करना चाहिये। पृष्ठ १७४ पर मैंने उपकेशवंश वालों के साथ ब्राह्मणों का सम्बन्ध क्यों नहीं ? तथा कब और किस कारण से टूट गया ? इस विषय में "श्रीगाली वाणियों का ज्ञाति भेद" नामक पुस्तक के अन्दर से दो श्लोक उद्धृत करके ऊहाड़ मंत्री की कथा लिखी और प्रमाण के लिये उक्त पुस्तक के अनुसार समरादित्य कथा जो आचार्य हरिभद्रसूरि की बनाई हुई है। का नाम लिखा था और जैसे समरादित्य कथा पर से कई प्राचार्यों ने कथा का सार संस्कृत में लिखा वैसे किसी ने प्रस्तुत कथा पर से समरादित्य चरित्र भी लिखा होगा पर श्री अगरचन्दजी नाहटा के एक लेख से ज्ञात हुआ कि श्री शोभाग्यनन्दसूरि ने स्वरचित विमल चरित्र में उपकेश जाति की ख्यात लिख कर उसके अन्त में लिखा है कि "इति समरादित्य चरित्रानुसारेण उपकेश जाति की ख्यात" इस लेख से पाया जाता है कि समरादित्य चरित्र करने उपकेश ज्ञाति की ख्यात लिखी और उस ख्यात को शोभाग्यनन्दसूरि ने अपने विमलचरित्र में उद्धृत की है। अतः मेरा लिखा प्रमाण तो यथार्थ ही है पर उसके प्रमाण के लिये नाम का फरक अवश्य है जो समरादित्य कथा और सार के स्थान पर समरादित्य चरित्र होना चाहिये था । अब पाठक ऐसा ही समझे । और दो श्लोकों को मैं पहले का पीछे और पीछे का पहले छप जाना उस ग्रन्थकार की ही गलती है । जिसको भी सुधार कर पढ़े। - पृष्ठ १६५ पर कोटा राज के अन्तर्गत अटरू नाम ग्राम में भैसाशाह के बनाये मन्दिर में सं०५०८ के शिलालेख के विषय में मैंने उस शिलालेख का मिलना मुन्शी देवीप्रसादजी का नाम लिख दिया था कारण मैंने कोई २० वर्ष पूर्व मुन्शी देवीप्रसादजी की लिखी 'राजपूताना की शोध खोज नामक पुस्तक पढ़कर नोट बुक में नोंध करलो थी जब प्रस्तुत पुस्तक लिखी उसमें उस शिलालेख को मुन्शी देवीप्रसादजी की शोध खोज से मिला लिख दिया । परन्तु श्री अगरचन्दजी नाहटा के लेख से ज्ञात हुआ कि उस शिलालेख में सं०५०८ के साथ चैत्र सुद ५ मंगलवार की मिति भी खुदी हुई है और वह शिलालेख मुन्शी देवीप्रसादजी की शोघ से नहीं पर पण्डित रामकरणजी की शोध से मिला था यदि यह बात ठीक है तो पाठक उस लेख को मुन्शी देवीप्रसादजी की शोध खोज । नहीं पर पण्डित रामकरणजी की शोध खोज से मिला समझे। पर शिलालेख का होना प्रमाणित है। ___ पृष्ठ १६२ पर राजकोष्टागर गोत्र के विषय में मैंने लिखा था कि आचार्य बप्पभट्टिसूरि ने गोपगिरिग्वालियर के राजा श्राम को प्रतिबोध देकर जैन बनाया उसके एक राणी व्यवहारिया कुलोत्पन्न भी थी उसकी संतान को विशाद ओसवंश में मिलादी उन्होंने राज के कोठार का काम किया जिससे उसकी जाति राज कोष्टागर अर्थात् राज कोठारी हुई जो अद्यावधि विद्यमान है । इसी राज कोठारी जाति में विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में स्वनाम धन्य कम्माशाह हुअा उसने तीर्थ श्री शत्रुञ्जय का सोलहवाँ उद्धार करवाया था जिसका शिलालेखा उस समय का खुदवाया हुआ आज भी मौजूद है जिसका श्लोक मैंने यथास्थान दे भी दिया आगे के श्लोकों में कम्र्माशाह के पूर्वजों की नामावली भी दी है वे श्लोक यहाँ पर लिख दिये जाते हैं। श्री सारंगदेव नाम तत्पुत्रोरामदेव नामाऽभूत । लक्ष्मीसिंह पुत्रो (बस) तत्पुत्रो भुवनपाल ख्यः ॥१०॥ श्री भोजपुत्रो....... "रसिंहाख्य एव तत्पुत्रः । ताक स्तत्पुत्रो वरसिंह स्तत्सु................॥११।। तत्पुत्र स्तोलाख्यः पत्नीतस्य ( ) प्रभूतकुन्ज जाता। तारादेऽपर नाम्नी लीलू पुण्य प्रभापूर्णा ॥१२॥ तत्कुक्षि समुद्भूताः षट् पुत्र (:) कल्प पादपा कारा ।। धर्मानुष्ठान पराः श्रीवन्तः श्रीकृतो ऽन्येषाम् ।।१३।। प्रथमोर (ला) ख्वसुतः सम्यक्त्वोयोत कारका कामम् । श्रीचित्रकूट नगरे प्रासादः कारितो येन ||१४|| १५४७ www.ganeshorary.org Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास wwwmarw इन श्लोकों में कर्माशाह के पूर्वज सारंगशाह से लेकर कांशाह के पुत्र तक के नाम हैं जैसे १ सारंग २ रामदेव ३ लक्ष्मीसिंह ४ भुवनपाल ५ भोजराज ६ ठाकुरसिंह ७ क्षेत्रसिंह नरसिंह ६ तोलाशाह १० कर्माशाह ११ भिखो इत्यादि शिलालेख में तोलाशाह के छः पुत्रों का परिवार का उल्लेख किया है। उपरोक्त शिलालेख को अप्रमाणिक एवं जाली मानने का कोई भी कारण पाया नहीं जाता है यदि ऐसे शिला लेखों को भी अप्रमाणिक माना जाय तब तो इसके अलावे हमारे पाल सबल प्रमाण भी क्या हो सकता है इस शिलालेख को परिपुष्ट करने के लिये प्राचार्य बप्पट्टिसूरि और श्राम राजा का विस्तृत जीवन विद्यमान है उसमें भी स्पष्ट उल्लेख है कि प्राचार्य बप्पभट्टिसूरि ने राजा आम को प्रतिबोध देकर जैन बनाया और राजा आम ने ग्वालियर में एक जैन मन्दिर बनाकर उसमें सुवर्णप्रय मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी अतः इस प्रमाण में थोड़ी भी शंका नहीं की जा सकती है। पृष्ठ १६३ पर मैंने वल्लभी का भंग के विषय में कांकसीवाली कथा लिखी थी पर उस समय मेरे पास केवल पट्टावलिया एवं वंशावलियां का ही आधार था पर बाद में आचार्य जिनप्रभसूरि का लेख-"विविध तीर्थ कल्प" नामक ग्रन्थ देखने में आया तो उसमें भी इस कथा का ठीक प्रतिपादन किया हुआ दृष्टिगोचर हा जिसको यहां उद्धृत कर दिया जाता है। "इयो अगुज्जरधराए पच्छिमभागे बल्लहित्ति नयरी रिद्धि समिद्धा । तत्थ सिलाइचो नाम राया तेणय रयण जडिअ कंकसी लुद्धेण रंकोनामसिट्रि पराभूत्रो सो अ कुविओ तबिंग हणहर्थं गजणवह हम्मीरम्स पभूणं धणं दाउणं तस्स महंतं सेएणं अणिइ । तम्मि अवसरे वल्ल डीओ चंदप्पहसामि पडिमा अंबाखितवाल जुता अहिट्ठा यगव नेण गयण पहेण देवपट्टणं गया रहाहिरूढ़ा य देवया बलेण वीरनाइपडिमा अदिठवत्तोए संचरति आसोय पुरिणमाए सिरिमासं पुरमागया, अएणे वि साइसया देवा जड़ोचियं ठाणं गया पुरदेवयाए य सिरि वद्धमाणसूरीणं ल्याओ जाणावि प्रो-जत्थ मिक्खालद्वं खीरं रुहिरं होऊग पुणो खीरं होहिइ तत्थ साहूणेहिं ठायत्वं त्ति । तेण व सिन्नेणं विकमायो अहिं सरहिं पण पाहिं वरिसाणं गर्हि वलहिं भंजिऊण सो राया मारिओ गो सठाणं हम्मीरो।" “विविध तीर्थकल्प पृष्ट २६" प्राचार्य जिनप्रभसूरि लिखते हैं कि बजभी का शिलादित्य राजा रत्नजडित कांकसी के लिये रांका सेठ का अपमान कर जबरन् कांकसी छीन ली जिससे कोपित हो सेठ रांका ने प्रभूत द्रव्य देकर हम्मीर को ससैना लाकर वल्लभी का भंग करवाया राजा मारा गया इत्यादि । हाँ इस घटना का समय सूरिजी ने कम ८१५ का लिखा पर वल्लभी का भंग कडेवार होने से समय लिखने में भ्रांति रह जाना असंभव नहीं है जैसे पंचमी की सावत्सरी चतुर्थी को कलकाचार्य ने वीरान ४५३ के आसपास की थी पर अन्यकालकाचार्य वीरान ६६३ में हो जाने से कइ लेखकों ने पंचमी की चतुर्थी करने का समय भी वीरान ६६३ का लिख दिया है यही बात जिनप्रभसूरि के लिये बन गई हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है खैर कांकसी वाली घटना जिनप्रभसूरि ने लिखी है वह पट्टावलियों से ठीक मिलती हुई है। ___मैंने मेरे ग्रन्थ के पृ० १२२ से २१२ तक में महाजनसंघ, उपकेशवंश और ओसवाल जाति की मूलोत्पति के विषय में प्रमाणों का संग्रह कर यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया है कि महाजन संघ की उत्पति का समय ठीक वीरात् ७० वर्ष का है पट्टावलियों के साथ कई ऐतिहासिक प्रमाण भी उद्धृत किये थे जिनमें मेरी असावधानीसे जो गलतियाँ रह गई थी उसका सुधार ऊपर लिख दिया है। और उपरोक्त प्रमाणों से महाजन संघ की मूलोत्पति का समय विक्रम पूर्ण ४०० वर्ष सिद्ध हो जाता है। . इनके अलावा सम्राट सम्पति का जीवन पर दृष्टि डाली जाय तो इस विषय पर और भी अच्छा प्रकाश पड़ सकता है । इस विषय में एक प्रश्न खड़ा होता है कि महाजन संघ की उत्पति सम्राट सम्प्रति के पूर्व हुई थी या बाद में! marnawww १५४८ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल सुधार पद्मप्र यह बात तो सर्व सम्मतसी है कि आचार्य रत्नप्रभ सूरि जिस समय मरूधर में पधारे थे उस समय मारवाड़ में सर्वत्र नास्तिक-तांत्रिक एवं वामर्गियों के अखाडे जमे हए थे अर्थात मरुधर में सर्वत्र उन लोगों का ही साम्राज्य था जैन धर्म का तो नाम निशान तक भी नहीं था यही कारण था कि उस समय रत्नप्रभसूरि तथा आपके मुनियों को सैकड़ों कठिनाइयों एवं परिसहों को सहन करना पड़ा था और शुद्ध आहार पाणी के अभाव दो दो चार चार मस तक भूखे प्यासे भी रहना पड़ाथा । फिर भी उन महान उपकारी पुरुषों ने उन परिसह-कठिनाइयों की सदन करके भी वहाँ के मांस मदिग एवं व्यभिचार सेषित राजा प्रजा और लाखों वीर क्षत्रियों की शुद्धि कर जैन धर्म में दीक्षित कर एक नया और विलकुल नया काम किया था इससे भी पाया जाता है कि मरुधर में रत्नप्रभसूरि पाये थे उसके पूर्व न तो मरूधर में किसी मुनियों का बिहार हुआ था और न वहाँ जैनधर्म पालन करने वाला एक मनुष्य भी था। अब हम यह देखेंगे कि मरूधर जैन धर्म विहीन था वह सम्राट सम्प्रति के पूर्व था या बाद में ? इसके लिये यह विचार किया जासकता है कि सम्राट सम्प्रति ने मरुधर के पड़ोस में आया हुआ आवंती प्रदेश में रहकर भारत में सर्वत्र जैनधर्म का प्रचार करवाया तथा सवालाख नये मन्दिर एवं सवाकरोड़ नयी मूर्तियों की प्रतिष्टा करवाइ थी उस समय मरुधर जैन धर्म से वंचित तो किसी हालत में नहीं रह सका हो-मारवाड़ में कई स्थानों पर सम्राट सम्प्रति के बनाये हुए मन्दिर मूर्तियें विद्यमान हैं जैसे नारदपुरी ( नाडोल ) में भ० र सम्राट सम्प्रति का बनाया कहा जाता है यर्जनपरी (गांगाणी) में भी सम्राट सम्प्रति ने सुफेद सुवर्णमय मूर्ति की प्रतिष्ठा प्राचार्यसुहस्तसूरी के कर कमलों से करवाइ थी तथा अन्य भी कइ स्थानों पर सम्राट् सम्प्रति के बनाये मन्दिर मूर्तियों का होना पाया जाता है । जब सम्राट ने लाखोमन्दिर मूर्तियें स्थापना करवाइ तो थोड़ी बहुत मरुधर में स्थापित करवाइ हों तो इसमें सन्देह करने जैसी कोई बात ही नहीं है अतः सिद्ध होता है कि सम्राट के समय मरुधर में जैन धर्म का प्रचार था। शायद कोई भाई यह सवाल करे कि सम्राट सम्प्रति के बाद में भी बत्रसूरि के समय द्वादश वर्षीय दुकाल पड़ा था अतः सम्प्रति के बाद किसी समय मरुधर में जैन धर्म का प्रभाव और वाममार्गीयों का सर्वत्र साम्राज्य जम गया हो ? उस समय या बाद में रत्नप्रभसूरि मरुधर में आकर महजन संघ की स्थापना रूपी नया कार्य किया हो तो यह बात संभव हो सकती है। बज्रसूरि का सगय विक्रम की दूसरी शताब्दी का है और उस समय मरुधर में जैन धर्म होने के तथा जैन श्रमणों का मरुधर में विहार होने के कई प्रमाण मिलते हैं जैसे कोरंटापुर के महावीरमन्दिर में एक देवचन्द्रोपाध्याय रहते थे और वे चैत्यवासी एवं चैत्य की व्यवस्था भी करते थे उस समय सर्वदेवसूरि नाम नाम के सुविहित आचार्य बनारसी से शत्रुञ्जय जाने के लिये बिहार किया वे क्रमशः कोरंटपुर में आये और थाप अपने सदुपदेश से देवचन्द्रोपाध्याय का चैत्यवास छोडा कर एवं उनको आचार्य पद देकर उपविहारो बनाये । इसी प्रकार नारदपुरी में आचार्य प्रद्योनसूरिआये और वहाँ के श्रेष्टि जिनदात के पुत्र मानदेव को दीक्षा दी वे मानदेवसूरि होकर नारदपुरी के नेमि चैत्य में स्थिरवास कर रहते थे जिन्होंने लघुशान्ति बनाकर तक्षशीला के उपद्रव्य को शान्त किया। इससे पाया जाता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में भी मरुधर में जैनधर्म मौजूद था । कोरंदपुर में जो महावीर का मन्दिर था वह मन्दिर शायद आचार्य रत्नप्रभसूरि ने दो रूपबना कर एक उपकेशपुर में और दूसरा कोरंटपुर में महावीर मन्दिर को प्रतिष्ठा करवाई थी वही मन्दिर हो ! कारण उनके बाद किसी ने कोरंटपुर में महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाइ हो ऐसा प्रमाण देखने में नहीं आया अतः वह मन्दिर उसी समय का हो तो भी कोई असंभव जैसी बात नहीं है खैर । कुछ भी हो अपने तो विकम की दूसरी शताब्दी में भरूबर में जैन धर्म का अस्तित्व देखना है वह सिद्ध हो गया बाद हूणों के राज समय का प्रमाण मिलता है कि मिहिरकुल के अत्याचारों के कारण मरुधर के कई wwwwwwwwwwwwwwwwwww ranwwwwwnewwwwwww १५४8 www.janorary.org Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास www.Anum जैन जननी जन्म भूमि का त्याग कर लाट गुर्जर की ओर चले गये थे तथा उसके बाद भाष्यचूर्णियों का निर्माण समय में भी मरुधर में जैनधर्म होने के पुष्कल प्रमाण मिल सकते हैं । उपरोक्त प्रमाणों से यह तो स्पष्ट निर्णय हो चुका है कि सम्राट सम्प्रति के समय और आप के बाद में भी किसी समय मारवाड़ जैन धर्म से वञ्चित नहीं था तब आचार्य रत्नप्रभसूरि का मरुधर में पधारना भी सम्प्रति के बाद में तो होना बिलकुल सिद्ध नहीं होता है कारण सम्प्रति के बाद मरुधर ऐसा नहीं था कि मुनियों के विहार में सैकड़ों कठनायाँ उपस्थित हों जिससे जैन श्रमणों को दो-दो चार-चार मास शुद्ध आहार पानी के अभाव भूखा प्यासा रहना पड़े। इससे यह निश्चय हो जाता है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि मरुधर में सम्राट सम्प्रति के पूर्व ही पधारे थे तब यह देखना होगा कि सम्पति के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा में रनप्रभसूरि कब हुए थे ? वस ! पता लग जायगा कि पार्श्वनाथ के छट्टे पट्टधर आचार्य रत्नप्रभसूरि वीरात् ५२ वर्षे सूरिषद प्राप्त हो वीरात् ७० बर्षे उपकेशनगर में पधार कर वहां के राजा प्रजादि लाखों बीर क्षत्रियों को प्रतिबोध कर जैन धर्म में दक्षित किये और उन नूतन जैनों का संगठन मजबूत रखने को तथा भविष्य में शेष रहे मांस भक्षी क्षत्रियों के साथ पुनः मिल न जाय इस गर्ज से उन्होंने महाजन संघ नाम की संस्था स्थापना कर दी जो अद्यावधि विद्यमान है। पाठकों ! अब तो ओसवाल जाति की मूलोत्पत्ति के लिये सूर्य जैसा प्रकाश हो गया कि निःशंकतय ओसवाल जाति की मूलोत्पत्ति वीरात् ७० वर्ष में ही हुई थी यदि इस प्रकार सूर्य के प्रकाश में भी किसी कौशिक को नहीं दीखे तो सिवाय उनके अभिनिवेश का प्रबल उदय के और क्या कहा जा सकता है। प्राचीन अर्वाचीन ग्रामों की नामावली यह बात अनुभव सिद्ध है कि बड़े • नगरों की अपेक्षा ग्रामों में रहने वालों का स्वास्थ्य अच्छा रहता है यही कारण है कि लोग नगरों की बजाय ग्रामों में रहना पसन्द करते हैं। जब हम मन्दिर मूर्तियों के शिलालेखों को देखते हैं तो बहुत से ग्रामों के लोगों ने मन्दिरों को प्रतिष्ठाएँ करवाई थी पर वर्तमान में उन ग्रामों से बहुत से ग्रामों का पता नहीं लगता है इसका मुख्य कारण एक तो विधर्मियों के आक्रमण ने बहुत ग्रामों को नष्ट भ्रट कर दिये जहाँ हजारों घर महाजनों के थे वे ग्राम उजाड़ पड़े हैं जिसमें मन्दिर था जिसको तो हम जान सकते हैं कि यहाँ पहले ग्राम था जैसे राणकपुर मुच्छालामहावोर सोमेश्वर बामणवाडादि पर बिना मन्दिर के ग्रामों को तो हम पहचान भी नहीं सकते हैं दूसरा कई ग्रामों के नाम भी रहो बदल एवं अपभ्रश भी हो गये हैं कुछ नमूने के तौर पर यहाँ लिख दिये जाते हैं। प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम उपकेशपुर ओसियाँ नागपुर नागोर मेदिनीपुर मेड़ता मुग्धपुर मुंदियाड़ खटकुंपपुर खिवसर कच्चुरपुरा कुचेरा हर्षपुर हरसाला खीजूरपुर खजवाणा रूणावती असिकादुर्ग पासोप शंखपुर संखवाय पद्मावती पद्मावती पादुग्राम जाबलीपुर जालौर विजयपट्टण फलोदी पुष्करणी पोकरण हंसावली हरसोर भवानीपटण भासणी धोलापुर (गढ़) धवलेरा चर्पटपुर चोपड़ा दान्तिपुर दांतीवाड़ा Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन अर्वाचीन ग्रामों की नामावली देवपुर बा डमाई प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम राजपुर राजोला ब्रह्मपुरी डागीपुर डांगोयाव बलीपुर वावरडा देवलिया मुगीपट्टण मुदीयाड़ (२) अर्जुनपुरी घांघाणी अहिपुर नागोर रामपुरा रामपुरियो माडव्यपुर मंडोर वीरपुर अज्ञात दशपुर देशरी मादड़ी सादड़ो खंडीपुर खोड़-खारी देवकुल पट्टमा देलवाड़ा शिवपुरी सिरोही पाल्हिका पालो फेफावती पाली सोजाली सोजत ताबावती सोजत करणावती राजनगर (अहमदाबाद) खेटकपुर खेडा वर्द्धमानपुर वढ़वाण प्रल्हादनपुर पालनपुर रांगकपुर मन्दिर रहा है। वल्लभीपुरी वला ईलादुर्ग इडर द्रबावती रूप नगर रूपावास बलीपुर बाला काकपुर काकेलाव सुरपतन सुरपुरा सत्यपुरी सानोर शिवगढ़ शिवाना चुडापट्टन चंडावल आरासण कुंभरिया देवगिरी पतन दौलताबाद लव्यपुरी लोड़ाकोट (लाहौर) महादुर्ग वितौड़ रजपुरी रतलाम मंडपाचल (दुर्ग) माडूगड़ सोपार पट्टण सोपला योगनीपुर देहली देलीपुर देवली शाकम्भरी सांभर ललितपुर लालड़ी चन्द्रावती जंगल रत्रपुरा जंगल डिडूनगर डिडवाना भट्टपुर भेटंडा हनीकुडी विद्यापुर विजयपुर सयांग पतन भीयाणी किरादकुंप कीराडूं वाग्भट्ट करू बाडमेर व्याघ्रपुर वागरो सिनदी मिंदरड़ी किष्कन्दा केकिन्द हटीपुर हापट मुग्धपुर मुढ़ारो कहटक कापरड़ा नंदकुलावती नारडाइ पाटली पुत्र पटना वीरपल्ली वीरपुर सूद्रपल्ली अज्ञात सिंहपल्ली अज्ञात प्रासापल्ली सुवणगिरि जालोर करहेटक करेड़ा देव कुल पटण पुर राटपुर रोयट डामरेल अज्ञात प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम चन्दपुर चांदेलाव बेनापुर बनाड़ क्षत्रीपुरा खेतार रामपुरी रामासणी रत्नपुरा नारपुरी नाडोल कोलापुरपट्टण कोरंटा दशपुर नगर मन्दसौर प्रभावती पण पाली ताबावती खम्भात मधुमति महुआ बामणवाडा वटप्रद-वटपुर बड़ोदा पद्मपुर नासिक विराटपुर बीलाड़ा शौर्यपुर सुरत भद्दलपुर भादलो कुन्ती पहण कुंभरिया आघाट नगर आहेड़ गोपाचल ग्वालियर ठाणापुर थाणा अजयगढ़ अजमेर गुड़ नगर उम्नरी जंगल घटियाला नागहद नागदो मरूकोट मारोट पुलाग्राम पूलुं वृद्धनगर बडनगर इन्द्रप्रस्त देहली पाटइली पालड़ी भीमपल्ली अज्ञात सोनपल्ली नगर नकोड़ा पादलितपुर पालीताणा अज्ञात हथुडी वीरपुर ११" www.javerbsary.org Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम मालपुरा अज्ञात विक्रमपुर अज्ञात त्रिमुवनगिरि , शासक दुर्ग सलखणपुर सनादारी केसरिया पट्टण केसरकोट घंघानकपुर चर्मावती पोलापद्र राहोप तकोली मुकरपुर जावोसी जिलाणी हाप्पा नेनाड़ी नागणा नजोड़ी खोखल खोखरियो लोहारा लवेरा भोजार मोखली खरखोट अज्ञात भीलड़ी ज्ञात कालोडी हाकोडी सजनपुर सोवटी गरगेटी मातर ग्राम (गु०), वारिानगर उनाउ दान क्रोड़ोग्राम विसलनगर गृणीवाणाग्राम (गरणीया), अलावलपुर दन्तराइ कालुरग्राम झालोड़ा रकग्राम मडलग्राम श्रीभट्टनगर पुलग्राम गोवीदपुर भोजपुर प्राचीन नाम अर्वाचीन नाम जंगाल अज्ञात आसलपुर उच्चनगर घृतघटी जंबरी प्राम दाहोती पोतनपुर चोपोट खीखोटी खीखरी जागोडा जाखोडा माणकपु अज्ञात धनाड़ी गगनपुर मेलसरा भालड़ा ग्राम वेलापल्ली डाभीग्राम श्रीपत्तन (गु०) त्राभ्राग्राम उना पारस्कर सोरणोरा " ANASI Sita SARI NO. MrunanrnmarAnnnnarrown Jain Education Internator १५0p Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० २५० २२६ २२२ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [मुख्य २ घटनाओं का समय मुख्य २ षटनामों का समय वीर संवत् पूर्व का समय ३५० वर्ष भगावान् पार्श्वनाथ का जन्म पोष वद.१० भगवान पार्श्वनाथ की दीक्षा पोष वद.११ २५० भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण सम्मेत शिखर पर गणधर शुभदताचार्य संघ नायक पद पर प्राचार्य हरिदत्तसूरि संघ नायक पद पर सावत्थी नगरी में लोहित्याचार्य की दीक्षा २१८ लोहित्याचार्य को महाराष्ट्र प्रान्त में भेज कर धर्म प्रचार १५६ श्राचार्य हरिदत्तसूरि का पद त्याग और समुद्रसूरि संघनायक तथा विदेशी भाचार्य का उज्जैन में पदार्पण राजा राणी व केशीकुँवर की दीक्षा-कौसाबी नगरी में यज्ञ का आयोजन केशीश्रमण द्वारा अहिंसा का प्रचार समुद्रसूरि का पद त्याग और केशीश्रमणाचार्य संघ नायक कपिलवस्तु नगरो के राजा शुद्धोदत के वहाँ राजकुँवार बुद्ध का जन्म क्षत्रियकुण्ड नगर के राजा सिद्धार्थ के वहाँ भगवान महावीर का जन्म पाश्वनाथ संतानिया मुनि पेहित का कपिलवस्तु में जाना और धर्मोपदेश राजकुँवर बुद्धि का अपनी ३० वर्ष की आयु में दीक्षा लेना सिद्धार्थ राजा और त्रिसला राणी का स्वर्गवास " भगवान महावीर का गृहवास में वर्षदान का प्रारम्भ भ० महावीर ने अपनी ३० वर्ष की आयुष्य में दीक्षा ली (एकेले ) महात्मा बुद्ध राजगृह के सुपाश्वनाथ का मन्दिर में ठहरे ( वहाँ तक जैन थे) , मुडस्थल तीर्थ (आबू के पास में ) की स्थापना मूर्ति की प्रतिष्ठा केशीश्रमण ने की भगवान महावीर प्रभु को वैशाख शुक्ला १० को केवल ज्ञानोत्पन्न हुश्रा भ० महावीर रात्रि में ४८ कोश चलकर महासेनोद्यान में पधारे समवसरण हुआ वैशाख शुक्ला ११ के व्याख्यान में इन्द्रभूति आदि ४४११ ब्राह्मणों को दीक्षा दी भ० महावीर राजगृह नगर में पधारे राजकुंवर, मेघकुँवर, नन्दीषण को दीक्षा और राजा श्रेणिक, अभयकुँवार, सुलसादि ने धर्म स्वीकार किया। भ० महावीर ब्राह्मण कुण्ड नगर में पधार कर जमाली आदि ५०० उसकी स्त्री १००० के साथ तथा ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्द को दीक्षा दी भ० महावीर कौशम्बी नगरी में पधारे वहाँ राजा उदाई की भुआ जयन्ति को दीक्षा बाद श्रावस्ति नगरी में पधार कर सुमनभद्र सुप्रतिष्ठकों दीक्षा दी तथा वाणिज्य ग्राम के गाथा पति आनन्द और उसकी स्त्री सिवादेवी को श्रावक के व्रत दिये , भ० राजगृह नगर में पधारे गोतम ने काल के विषय के प्रश्न पूछे प्रभु ने उत्तर दिये तथा प्रसिद्ध सेठ धन्ना शालीभद्र को दीक्षा दी , भ० चम्पानगरी पधार कर राजकुमार महचन्द्र को दीक्षा दी, और वितभयपट्टण में जाकर १५५३ Jain Education ya tional २ wwwram mawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [मुख्य २ षटनाओं का समय २५ वहाँ के राजा उदाई को दीक्षा दी वर्ष भ० बनारस पधार कर कोटाधीश चूलनीपिता और सूरादेव को सस्त्रियों के गृहस्थ धर्म और प्रालंभिया नगरी में पोग्गल सन्यासी को जैन दीक्षा दी ( पाँचवाँ ब्रह्मदेव लोक की मान्यता वाला) वहाँ चूलशतक सस्त्री श्रावक व्रत लिये भ० राजगृह नगर में पधारे राजा श्रेणिक ने दीक्षा के लिये उद्घोषणा की जिससे राजा श्रेणिक के २३ पुत्र तथा नन्दा सुनन्दादि १३ रानियां और कई राजकुमारों ने दीक्षा ली और आद्रक कुमार और गोसाल का सम्बन्ध , बालम्बिया नगरी का ऋषीभद्र पुत्र श्रावक की प्रशंसा तथा मृगावती शिवा राणियों को भगवान ने दीक्षा दी भ० महावीर ने काकन्दीनगरी के धन्ना सुनक्षत्रादि को दीक्षा दी तथा कुडकोलीक व शकडाल पुत्र को श्रावक के व्रत दिमे भ० महावीर ने राजगृह के महाशतक को श्रावक के व्रत पार्व संतानियों को पांच महाव्रत रोहा मुनि के प्रश्न , भ० महावीर ने श्रावस्ति नगरी के नन्दनीपिता शालनीपिता को श्रावक धर्म दिया या रकंदिल सन्यासी को दीक्षा दी भ० महावीर का शिष्य जमाली ५०० मुनियों को लेकर अलग विहार किया, कौसम्बी में सूर्य चन्द्र मूलगे रूप आये, और अभय मुनि का अनसन । भ. महावीर चम्पानगरी पधार कर श्रेणिक के पौत्रे पद्मादि दशों को दीक्षा दी ,, चेटक कूणिक का भयंकर युद्ध । काली आदि १० रानियों ने भ० के पास दीक्षा ली ,, हल्ल विहल राजकुमारों की दीक्षा भगवान् गोसाला का मिलाप जमाली का मतभेद केशी गोतम का सम्बाद शिवराजर्षि के सात द्वीप सातसमुद्र का स० और दीक्षा गोसला के १२ श्रावक । भ० श्रावकों के पन्द्रह कर्मादान का वर्णन ४६ भंगा प्रत्या० , भ० महावीर ने शाल महाशाल को दीक्षा, कामदेव का उपसर्ग, सोमल के प्रश्न, , भ. महावीर कपिलपुर पधारे अंबड सन्यासी ने श्रावक व्रत लिया। महावीर के पास पार्श्व संतानिया गंगइयाजी ने प्रश्न कर चार के पांच महाव्रत लिये मंडुक श्रावक के अन्य तीर्थियों से प्रश्नोत्तर हुए जाली मयाली आदि मुनियों का विपुल गिरि पर अनसन सुदर्शन सेठ का काल के विषय प्रश्न आनन्द का अनसन गोतम का आनन्द के पास जाना जिनदेव के जरिया राजा कीरात का भगवान के पास आना और उसकी दीक्षा अचित पुद्गल भी प्रकाश कर सकते हैं । प्रश्नोत्तर होद का पानी अचित सचीत, महाशतक श्रावक और रेवती का उत्पात भ० महावीर के कई गणधरों की मोक्ष यहाँ तक ६ गणधरों की मोक्ष होगई थी , भ० महावीर के पास पावापुरी में काशी कौशल के १८ राजाओं ने पौषध व्रत किये भ० महावीर की १६ पहेर अन्तिम अपुठ वागरण , भ० महावीर ने गोतम को देव शर्मा को प्रतिबोध करने को भेज दिये , भ. महावीर कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि में निर्वाण-मोक्ष पधार गये पार्श्व संतानियों के चतुर्थ पट्टयर के शीश्रमणाचार्य की मोक्ष १५५४ Jain Education international Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [मुख्य १ घटनाओं का समय १ भगवान महावीर निर्माण सम्वत् वर्ष गणधर इन्द्र भूति-गोतम स्वामी को केवल ज्ञानोत्पन्न , गणधर सौधर्म स्वामी को शासन नायक पद , प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि केशी श्रमणाचार्य के पट्टधर पार्श्वनाथ परम्परा के निग्रन्थगच्छ का नाम विद्याघरगच्छ हुमा गणघर इन्द्रभूति की मोक्ष-गोतम स्वामी की मोक्ष गणधर सौधर्म स्वामी को केवल ज्ञानोत्पन्न होना वैशाल के राजा चेटक का पुत्र शोभनराय कलिंग में जाकर वहाँ का राजा बना गणधर सौधर्म स्वामी की मोक्ष और जम्बु स्वामी संघ नायक पद पर जम्बु स्वामी को केवल ज्ञानोत्पन्न होना शिशुनाग वंशी राजा कूणिक के पद पर राजा उदाई का राज प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि का पूर्व से मरुधर में आना और श्रीमाल. पद्मावती नगरी में नये जैन बनाये आर्य शय्यंभव भट्ट का जन्म विद्याधर रनचूड़ की नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा रत्रचूड़ विद्याधर ५०० के साथ में स्वयंप्रभसूरि के पास दीक्षा ( मूर्ति साथ में रखकर ) आचार्य स्वयंप्रभसूरि का पद त्याग रत्नप्रभसूरि को प्राचार्य पद-गच्छनायक __ मगध के सिंहासन पर अनुरुद्ध का राज्याभिषेक शिशुनाग वंश राज का अन्त और नन्दवंश के राजाओं का राज प्रारम्भ , यशोभद्रसूरि का जन्म आचार्य जम्बुस्वामी की मोक्ष दशबोल का विच्छेद आचार्य प्रभवस्वामी संघ नायक प्राचार्य पद प्रारम्भ श्रार्य संभूति विजय का जन्म आचार्य रत्नप्रभसूरि ५०० मुनियों के साथ उपकेशपुर में पधारे उपकेशपुर के राजा मंत्री और लाखों वीर क्षत्रियों को जैनधर्म की दीक्षा नूतन जैनों का संगठन एवं 'महाजन संव' संस्था का जन्म उपकेशपुर और कोरंटपुर नगरों में महावीर मन्दिरों की एक मुहूर्त में प्रतिष्ठा आचार्य प्रभव स्वामी का पद त्याग और शय्यंभवसूरि संघ नायक राजा उत्पलदेव का बनाया पहाड़ी पर के पाव मन्दिर की प्रतिष्टा उपकेशपुर से उपकेशगच्छ और कोरंटपुर से कोरंटगच्छ नामकरण उपाध्याय वीरधवल को श्राचार्य पद और यक्षदेवसूरि नाम श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का शत्रुञ्जय तीर्थ पर स्वर्गवास संघ ने विशाल स्तूप बनाया आचार्य यशोभद्र सूरि की दीक्षा प्राचार्य यक्षदेव सूरि गच्छ नायक पद पर प्रारूद भ० महावीर के बाद ८४ वर्ष का शिलालेख अजमेर के अजायबघर में , आचार्य भद्रबदु का जन्म ८४ Vy MSRKbrary.org Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास] [ मुख्य २ घटनाओं का समय १५६ १६० १७० ८६ वर्ष आचार्य यक्षदेव सूरि का सिन्ध भूमि की तरफ विहार , सिन्ध का शिवनगर में प्राचार्य यक्षदेव सूरि का व्याख्यान शिवनगर के राजा राजा सूद्राठ के बनाये महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा ,, सिन्ध के राव सूद्राठ राजकुँवर ककव की दीक्षा-महामहोत्सव मुनि कक्कर की प्रतिज्ञा जननी जन्म भूमि का उद्धार करना शय्यंभवसूरि ने म्वपुत्र मणक को दीक्षा दी और दशवैकालिक सूत्र का निर्माण , आर्य शय्यंभवसूरि का स्वर्गवास और यशोभद्रसूरि संघ नायक १०८ , श्रार्य संभूतिविजय की दीक्षा ११६ , श्रार्य स्थुलिभद्र की जन्म मत्तान्तर १२० वर्ष १२८ , प्राचार्य यक्षदेवसूरि का पद त्याग और कक्कसूरि गच्छ नायक पद १३६ आय्ये भद्रबाहु स्वामि की दीक्षा १४८ आर्य यशोभद्र सूरि का पद त्याग और संभूति विजय और भद्रवाहु पट्टधर १४६ आठवाँ नन्द राजा की कलिंग पर चढ़ाई और जिन मूर्ति ले आना १४६ आर्य महागिरि का जन्म १५५ मगद की गादी पर मौर्य चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक और जैन मंत्री चाणक्य । १५० आय्ये स्थुलिभद्र की दीक्षा ,, आर्य संभूतिविजय का पद त्याग और भद्रबाहु संघ नायक , पूर्व में द्वादशवर्षीय दुष्काल के अन्त में पाटलीपुत्र में संघ सभा पूर्व आर्य भद्रबाहु ने तीन छेद सूत्र और दश नियुक्तियों की रचना की आर्य भद्रबाहु का कुमार पर्वत पर अनसन ब्रत । आये भद्रबाहु स्वामी का पद त्याग और स्थुलिभद्र संघ नायक आर्य महागिरी की दीक्षा १८० मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का पद त्याग विन्दुसार मगदेश्वर १६२ अायं सुहस्ती का जन्म १८२ आचार्य ककसूरि का पद त्याग और देवगुप्तसूरि गच्छ नायक २०४ मौर्य राजा बिन्दुसार का पद त्याग अशोक का राज्याभिषेक जिनशासन में आसाढ़ाचार्य तीसरा निन्हव आर्य स्थुलिभद्र का पद त्याग और महागिरि संघ नायक जिनशासन में अश्वमित्र नामक चतुर्थ निन्हव आय्ये सुहस्तीजी की दीक्षा आचार्य देवगुप्त पूरि का पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छ नायक २२८ जिनशासन में गर्गाचार्य नामक पांचवा निन्हव २८८ कलिंग के सिंहासन पर खेमराज का राज २३६ सम्राट अशोक की कलिंग पर चढ़ाई मत्तान्तर'..... २४४ ,, अशोक का पद त्याग और सम्प्रति का राज्याभिषेक २४५ ,, आर्य महागिरिजी का पद त्याग और सुहस्ती सूरि संघ नायक २४६ , सम्राट सम्प्रति ने मगद को छोड़ उज्जैन में राजधानी कायम की १५५६ १७६ २१४ २१५ २२० २२२ २२३ •ww.wwwwwwwwww Jain Education international Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [ मुख्य २ घटनाओं का समय २४६ २५३ २४६ ३८८ २६० २६१ २६३ ३०० ३०४ ३०५ ३१३ ३३४ ३३५ ३३५ ३३६ ३४५ ३७३ वर्ष प्रार्य,महगिरि का गजपद पर स्वर्गवास , श्राचार्य सिद्धसूरि का पद'त्याग और रनप्रभसूरि गच्छ नायक , सम्राट सम्प्रति ने उज्जैन में आर्य सुहस्ती सूरि द्वारा जैनधर्म स्वीकार किया , आचार्य रनप्रभसूरि का पद त्याग और यक्षदेव सूरि गच्छ नायक पद श्रावंती सुखमाल की दीक्षा आर्य सुहस्ती के करकमलों से पावंती पार्श्वनाथ का मन्दिर महाकाल ने बनाया जिस पर ब्राह्मणों ने लिंग स्थापन आर्य बलिसिंह जो आ> महागिरि के पट्टधर का स्वर्गवास श्रार्य सुहस्ती सूरि का पद त्याग आर्य सुस्थी-सुप्रतिबोध संघ नायक सम्राट् सम्प्रति का पद त्याग और वृद्धरथ का राज मत्तान्तर ३०० वर्षे , सम्राट् खारबेल कलिंगपति इसके लिये बहुजनों का मतभेद है। मौर्यराजा वृद्धरम को धोखे से मार पुष्प मित्र मगद का राजा बना पुष्प मित्र का जैन बोद्धों पर अत्याचार एक मस्तक काटने वाले को १०० दिनार सम्राट खारबेल का पद त्याग और वक्रराय का राज्याभिषेक आर्य यक्षदेवसूरि का पद त्याग और कक्कसूरि गच्छ नायक ,, आय्ये उमास्वति जिन्होंने तत्वार्थ सूत्र बनाया , युगप्रधानाचार्य गुणसुन्दर सूरि आर्य सुस्थीसूरि रांका सेठ ने कांकसी के कारण वल्लभी का भंग करवाया उपकेशपुर में महावीर मूर्ति के ग्रन्थ छेद का उपद्रव्य उपकेशपुर में आचार्य कक्कसरि के अध्यक्षत्व में शान्ति स्नात्र में १८ गौत्र के स्नात्रिय आचार्य श्यामाचार्य पन्नवणा सूत्र के कर्ता , श्राचार्य कक्कसूरि का पद त्याग और देवगुप्तसूरि गच्छ नायक , युगप्रधानाचार्य रकन्दिल सूरि मगद के सिंहासन नभवहान का राज धार्या दिन-संघ नायक पद पर युगप्रधान आचार्य रेवती मित्र आचार्य खपटसूरि मत्तान्तर ४८४ वर्ष कालकाचार्य की बहिन साध्वी सरस्वती का अपहरण कालकाचार्य ने म्लेच्छ देश से सैना लाकर गर्दभील को सजा दिलाई उज्जैन पर शक राजाओं का अधिकार ( मतान्तर ४६६) बलमित्र भालुमित्र का भरोंच में राज इन्होंने उज्जैन पर भी ८ वर्ष राज किया कालकाचार्य ने पंचमी की सांवत्सरी चतुर्थी को की प्रतिष्ठितपुर के राजा के कारण आचार्य देवगुप्तसूरि का पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छ नायक , आचार्य पादलिप्त का शिष्य नागार्जुन ने पादलिप्तपुर नगर बसाया , आचार्य कालक ने उज्जैन का भंग करवाया उज्जैन पर शकों का राज मतान्तर है , युगप्रधानाचार्य मांगु , भगवान महावीर' के निर्वाण को ४७० वर्ष हुए ३७३ ३७६ ३६१ ४१४ ४१३ ४५० ४५३ ४५३ ४५३ ४५३ ४५३ ४५ ४६४ ४६७ ४७० w९६५७ary.org Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [ मुख्य २ घटनाओं का समय ammammnama ४७० ४७० ४७० वर्ष राजा विक्रमादित्य ने अपना संवत् चलाया , आचार्य सिद्धसेनदिवाकर ने राजा विक्रम को जैन धर्मोपासक बनाया , आचार्य सिद्धसेन ने आवंति पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रकट की ( कल्याण मन्दिर) विक्रम सम्बत प्रारम्भ , राजा विक्रमादित्य ने श्री शत्रुञ्जयादि तीर्थों का विराट संघ निकाला राजा विक्रम लिंबामंत्री द्वारा वायट नगर के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया बनसेन सूरि का जन्म युगप्रधानाचार्य धर्मसूरि आचार्य जीवदेवसूरि की विद्यमानता आपश्री महान् चमत्कारी विद्यावली बनसेन सूरि की दीक्षा आय्य बनसूरि का जन्म राजा विक्रम ने ऊकार नगर में जैन मन्दिर बनाया आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का प्रतिष्ठित नगर में स्वर्गवास थाचार्य सिद्धसूरि का पद त्याग रत्नप्रभसूरि गच्छ नायक तीर्थ श्री शत्रुञ्जय का उच्छेद अर्थात् तीर्थ बोद्धों के हाथ ही जाना आचार्य विमलसरि ने पद्मचरित्र नामक ग्रन्थ बनाया , युगप्रधानाचार्य भद्रगुप्तसूरि का स्वर्गारोहण आचार्य रक्षितसूरि ने चार अनुयोग पृथक २ किये आर्य रक्षितसूरि का स्वर्गवास मत्तान्तर ६३ वर्ष आचार्य श्री गुप्त का शिष्य.. त्रिरासी मत्त निन्द्रय आचार्य बघ्रसूरि को सूरिपद प्राग्वटवंशीय जावड़ ने श्री शत्रुञ्जय का उद्धार कराया तक्षशील में जगमल राजा का राज जिसके वहां से जावड़ मूर्ति लाया गोष्टिक मालिक नामका सातवां निन्हव । आचार्य सिंहगिरि धनगिरि का समय तथा समति सूरि ने ५०० तापसों को प्रतिबोध भारत में जनसंहार द्वादशवर्षीय दुष्काल अार्य बत्रसूरि का स्वर्गवास आर्य प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का पद त्याग और यक्षदेवसूरि गच्छ नायक आचार्य देवानन्दसूरि ने कच्छ-भद्रेश्वर के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई सत्यपुरी में अष्टदश सुवर्ण भार की प्रतिमा की प्रतिष्ठा जञ्जगदेव सूरि ने की उपाध्याय देवचन्द्र जो कोरंटपुर के महावीर मन्दिर में ठहरते थे कोरंटपुर के मंत्री नहाड के बनाये मन्दिर की प्रतिष्ठा युगप्रधानाचार्य श्रार्य रक्षित सूरि का स्वर्गवास मतान्तर ६३-७४ वर्ष कृष्णर्षि आचार्य के शिष्य शिवभूति द्वारा दिगम्बर मत की उत्पति , आर्य बन्नसेनसूरि के समय द्वादशवर्षीय दुष्काल ११४ ११४ ११५ ११५ १२२ १२३ १२५ १३ १३६ १५५८ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास ] [ मुख्य २ घटनाओं का समय १४० १४६ १५० वर्ष युगप्रधान दुर्बलिकापुष्प सूरि का स्वर्गवास , श्रेष्टि पुत्र चन्द्रनागेन्द्र निवृति और विद्याधर की दीक्षा , आचार्य यक्षदेवसूरि ने दुष्काल के अन्त सोपारपट्टन में भागम बांचना दी आचार्य वनसेन सूरि का पद त्याग चन्द्रनागेन्द्रादि चारों मुनियों को आचार्य पद प्रतिष्ठित किये यक्षदेवसूरि ने , श्राचार्य यक्षदेवसूरि का पद त्याग और कक्कसूरि गच्छ नायक १५० १५३ १५७ १७ १६७ १६८ २०२ २०२ २०२ २०२ २०५ २१८ २१६ २२२ २३० श्राचार्य कक्कसूरि का पद त्याग और देवगुप्तसूरि गच्छ नायक आचार्य देवगुप्तसूरि का पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छ नायक , आचार्य चन्द्रसूरि से कोटीगच्छ का नाम चन्द्रकुल या चन्द्र गच्छ हुआ राजा कनकसेन ने वीरपुर नामक नगर को श्राबाद किया आचार्य सिद्धसूरि का पद त्याद श्रा० रत्नप्रभसूरि गच्छ नायक श्राचार्य जजापूरि ने सत्य पुरी के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई अदित्यनगर गौत्र से चोरड़िया शाखा निकली __ मथुरा में प्राचार्य रकंदिल की आगम वांचना एवं स्वर्गवास , मथुरा का ओसवंश पोलाक ने विवरण सहित आगम लिखवाये , भीनमाल नगर में अजितदेवराज का राज और म्लेच्छों का आक्रमण प्राचार्य सामन्तभद्रसूरि ने बन में रह कर तप करने से चन्द्र गच्छ का बनवासी गच्छ नाम आचार्य रत्नप्रभसूरि का पद त्याग और यक्षदेवसूरि गच्छ नायक युगप्रधानाचार्य नागहस्तिसूरि का स्वर्गवास प्राभानगरी का सेठ जगा शाह ओसियां में आकर महोत्सव कर याचकों को दान दिया श्राचार्य रविप्रभमूरि ने नारदपुरी में नेमि चैत्य की प्रतिष्ठा करवाई आचार्य यज्ञदेवसूरि का पद त्याग भौर ककसूरि गच्छ नायक आचार्य प्रद्योम्नसूरि महान् प्रभाविक आचार्य हुए ,, कपूरि का पद त्ताग और देवगुप्रसूरि गच्छ नायकाचार्य युगप्रधानाचर्य [रोगोपद्रव की शान्ति की] आचार्य मानदेवसूरि जिन्होंने नारदपुरी में रह कर लघुशान्ति बना तक्षशीला का उपकेशपुर के श्रेष्टि सारंग को सुवर्णरसायण प्राप्त हुआ । श्राचार्य देवगुप्तसूर का पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छ नायक प्राचार्य मानतुंगसूरि जिन्होंने भक्ताम्बर स्तोत्र बना कर राजा हर्षदेव को जैन बनाया प्राचार्य सिद्धसूरि का पद त्याग और रनाभसूरि गच्छ नायक श्राचार्य वीरसूरि ने नागपुर में नेभि चैत्य की प्रतिष्ठा करवाई - आचार्य रत्नप्रभसूरि का पद त्याग और यज्ञदेवसूरि गच्छ नायक , आचाये यक्षदेवसूरि का पद त्याग और ककसूरि गच्छ नायकाचार्य श्राचार्य जयानन्दसूरि , युगप्रधानाचार्य सिंहसूरि ( ब्रह्मद्वीपी शाखा के) २३५ २५८ २६० २७८ २८० २८१ ३८२ २९० २६८ ३०० ३३६ ३५३ www १५५६ www.aimembrary.org Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [मुख्य २.घटनाओं का समय manAmAmrAhA ३५७ ३७० ३७५ ३७५ ४०० ४१२ ४१४ ४२४ ४२६ ४३४ ४४० ४५० ४७७ ४८० ४६२ ५०० वर्ष प्राचार्य कक्कसूरि का पद त्याग और देवगुप्तसूरि गच्छ नायक , आचार्य देवगुप्रसूरि का पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छ नायक ,, आचार्य देवानन्दसूरि वल्लभी नगरी का भंग-बलाह गौत्र से रांका शाखा जिसमें:कांकसी का कारण आचार्य सिद्धसूरि का पद त्याग और रनप्रभसूरि गच्छ नायक चैत्यवासियों की प्रबल्य सता का समय प्राचार्य मल्लवादी ने बोद्धों का पराजय कर शत्रुञ्जय पर अधिकार प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का पद त्याग और यक्षदेवसूरि गच्छ नायक बह्मद्वीपी शाखा का प्रादुर्भाव श्राचाय विक्रमसूरि प्राचार्य नरसिंहमूरि , आचार्य सतुद्रसूरि , युगप्रधानाचार्य नागअर्जुनसूरि , प्राचार्य यसदेवसूरि का पद त्याग कक्कसूरि गच्छ नायक पद पर चन्द्रावती नगरी में संघ सभा , आचार्य धनेश्वरसूरि ने शिलादित्य के राज में शत्रुञ्जय महात्म्य ग्रन्थ बनाया , आचार्य कक्कसूरि का पद त्याग और देवगुप्रसूरि गच्छ नायक आर्य देवद्धिगणि ने आचार्य देवगुप्तसूरि से दो पूर्व के ज्ञान पढ़े शिवशर्माचार्य ने कर्मप्रकृति नामक ग्रन्थ लिखा आचार्य यशोभद्रसूरि ने खम्मात के मन्दिर पर ध्वजारोहण कराई भैसाशाह ने अटरू ग्राम में मन्दिर बनाया जिसका शिलालेख भैसाशाह और रोडा बनजादा ने भैसरोडा ग्राम आबाद किया आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण जी ने वल्लभी में पागम पुस्तकारूढ़ किया बादीगधर्व वेताल शान्तिसरि वल्लभी में विद्यमान थे युगप्रधानाचार्य भूतादिन कालकाचार्य वल्लभी में थे उनका मत में १३ वर्ष का फरक अानन्दपुर के राजा धूरसेन के शोक निवाार्थ कल्पसूत्र सभा में वांचना शुरू , आचार्य देवगुप्तसूरि का पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छ नायक कालकाचार्य का स्वर्गवास आचार्य मानदेवसूरि मतान्तर .....समय सत्यमित्र युगप्रधानाचार्य के साथ पूर्वज्ञान विच्छेद प्राचार्य रत्नप्रभसूरि यक्षदेवसूरि दो नाम भंडार में स्थापन किये प्राचार्य सिद्धसूरि का पद त्याग और कक्कसूरि गच्छ नायक युगप्रधानाचार्य हरिल का स्वर्गवास आचार्य विबुधप्रभसूरि आचार्य जयानन्दसूरि भीनमाल में चावड़ा वंशी विघ्रराजा का राज था ५०२ Kkkkkk ५२२ سعد سد و یا ५३० ५५८ ५८५ ५८५ १५६० Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [ मुख्य २ घटनाओं का समय wwwnwww ६०४ ६३१ ६४५ ६६४ ६७६ ६८० ६८४ ७१० ७२० ७२४ ७३० ७३३ ७३४ , श्राचार्य कक्कसूरि का पद त्याग और देवगुप्तसूरि गच्छ नायक , खाशाह ने गिरनार तीर्थ पर सोने का मन्दिर रत्नों की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई , आचार्य देवगुप्तसूरि का पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छ नायक युगप्रधानाचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण-आगमों पर भाग्य बनाये आचार्य सिद्धसूरि का पद त्याग और ककसूरि गच्छ नायक थाणेश्वर में हर्षवर्धन का राज्याभिषेक हीजरी सम्वत् का प्रारम्भ समय श्राचार्य कक्कसूरि का पद त्याग और देवगुप्रसूरि गच्छ नायक आचार्य देवगुतमूरि ने राव गोसल भाटी को जैन बनाया आर्य जाति कहलाई राव गोसल भाटी जैन ने गोसलपुर नगर अाबाद किया गोसलपुर में आचार्य देवगुप्रसूरि का चातुर्मास हुआ आचार्य रविप्रभसूरि नाडोलाई में नेमि चैत्य की प्रतिष्ठा करवाई युगप्रधानाचार्य उमास्वाति चतुर्थ कालकाचार्य ( रत्न संचिय की गाथा से) शंखेश्वर के राजा ने जैन धर्म स्वीकार किया आचार्य देवगुपसूरि का पद त्याग और सिद्धिसूरि गच्छ नायक प्राचार्य स्वातिसूरि से पूर्णिमा की पाक्षी चतुर्दशी को होने लगी जिनदास महत्तर आगमों पर चूर्णियों की रचना की , जिनदास गणि-चूर्णिकार आचार्य सर्वदेवसूरि विद्यमान राजकुमार शंक की जैन दीक्षा ‘जयन्त राजा ......की गादी पर राजा हुआ कुमरिल भट्ट की विद्यमानता तथा मतान्तर.. शंकराचार्य की विद्यमानता दोनों समकालीन राजा भाण के काका की दीक्षा और सोमप्रभाचार्य नाम आचार्य उदयप्रभ सूरि को सूरिपद आचार्य उदयप्रभसूरि ने भीनमाल के ६२ कोटाधीशों को जैन बनाये राजा भाण को उदयप्रभसूरि ने जैनधर्म की दीक्षा दी प्राचार्य सिद्धसूरि का पद त्याग और ककसूरि गच्छ नायक युग प्रधानाचार्य पुष्पमित्र सूरि भाण राजा का जयमल ओसवाल की पुत्री रत्नाबाई से विवाह मतान्तर ....... राजा भाण का तीर्थयात्रार्थ शत्रुञ्जय का संघ आचार्यों की मर्यादा का लिखत और वंशावलियां लिखना प्रारम्भ भिन्नमाल के २४ ब्राह्मणों को जैन बनाना और सेठिया जाति प्राचार्य बप्पभट्टिसूरिका जन्म प्राचार्य शीलगण सरि का उपदेश से बनराज चावडा का जैन होना राज चावड़ा का जैन होना बनराज चावड़ा ने पाटण नगर को श्राबाद किया ७३५ ७४५ ७४६ ७५० ७५० ७६० ७७५ ७७५ ७७८ ७८० ७६० ७६५ ७६५ ८०० ८०२ www.rawwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwwwmaram Jain Education Ingeslona www.jaineilbrary.org Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] प्राग्वट नानग पाटण का दंडनायक प्राग्वट नानग का पुत्र लेहरी राजा की ओर से हस्तियों की खरीद के लिए विदेश गया वनराज चावडा ने पंचासरा पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई आचार्य भट्ट सूरि की दीक्षा सिद्धसेनाचार्यों के हाथों से ८०२ ८०२ ८०५ ८०७ ८१० ८१४ ८१५ ८१५ ८२६ ८३४ ८३४ ८३४ ८३७ ८५४ εξε ६०० ६१५ ६१५ ६३३ ६५२ ६६४ ६६५ ६७३ ६७५ ६६५ ६६६ ६६८ १०११ १०११ १०२४ १०२५ १०२६ १०२६ १०३३ १०४२ १०४५ १०४= "" Jain Equ "" "" "" "" " " 39 29 "3 35 "" 22 "" 29 "" 39 "" " "" "1 " 99 "" " "" 22 "" 35 "" "" 99 " 22 " "" "" राजकुँवार श्रम और मुनि बप्पभट्टि को भेट १५६२nternational भट्ट को हस्ती पर बैठा कर राजा श्राम ने सम्मेलन किया मुनि भट्ट को सूरि पद राजा आम के आग्रह से चम्पाशाह पाटण के मन्त्री ने चम्पानगर बसाया मुख्य युगप्रधान संभूति विजय का स्वर्गवास शंकराचार्य और कुमारेल भट्टका दक्षिण में मिलाप आचार्य उद्योतन सूरि ने कुवलय माला कथा लिखी जावलीपुर में बत्सराज का राज आचार्य ककसूर का पद त्याग- देवगुप्तसूरि गच्छनायक द्वासंधान काव्य का कर्त्ता पं० धनंजय हुए [ मुख्य २ घटनाओं का समय प्रधानाचार्य मंदर संभूति हुए कन्नौज में राजा भोज का राज जिसने जैन धर्म की महान् उन्नति की प्रतिहार राजा कक्कने जैन मन्दिर बना कर धनेश्वर गच्छ वालों को सोंपा शिलालेख कृष्णर्षि के शिष्य जयसिंहसूरि ने उपदेशमाला बनाई शीलागाचार्य ने आगमों पर टीकाएँ बनाई आचार्य सिद्धसूरि का पद त्याग और कक्कसूरि गच्छ नायक यशोभद्रसूरि ने मालानी प्रांत से जैन मन्दिर उड़ा कर नारडाई में लाये यशोभद्रसूरि ने चौरासी वादकर वादियों को पराजय किया हड़ी नगर के राजा विदग्धराज के बनाया जैन मन्दिर का शिलालेख आचार्य विजयसिंह सूरि जिन्होंने भुवनसुन्दरी कथा लिखी थी आचार्य भट्टसूरिका गोपगिरी में स्वर्गवास हड़ी का राजा विदग्धराज के पुत्र मम्मट ने मन्दिर को कुछ दान दिया पाटण में सोलंकी मूलराज का राज्याभिषेक उपकेशपुर के मन्दिर के शिलालेख तथा १०१३ की प्रशस्ति शिलालेख आचार्य कसूर का पदत्याग और देवागुप्तसूरि गच्छनायक पद यशोभद्रसूरि ने पांचरूप बना कर एक साथ पांच नगरों में प्र० की शोभन मुनिजी ने जिनशतक पर टीका रची तक्षशिला का नाम बदल कर गजनी हुआ धनपाल कवि ने देशी नाम माला बनाई आचार्य देवगुप्त सूरिका पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छनायक आचार्य पार्श्वनागसूरि ने आत्मानुशासन की रचना की ओसियां के मन्दिर में तोरण पट का शिलालेख आचार्य अभयदेवसूरि की दीक्षा Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [मुख्य २ षटनामों का समय २०७३ १०७४ १०७८ १०८० १०८० १०६६ ११०८ ११०६ १११३ ११२० ११२२ ११२८ ११२६ ११३२ ११३५ , आचार्य देवगुप्त सूरि ( जयसिंहसूरि ) ने नवपदप्रकरण ग्रन्थ रचा , आचाय सिद्धसूरि का पद त्याग और ककसूरि गच्छनायक , पाटण के राजा दुर्लभ का राजपद त्याग , पाटण में राजा भीम का राज मुहम्मद गजनी ने पट्टन सोमनाथ महादेव का मन्दिर और लिंग तोड़ा , बादि बेताल शान्तिसूरि ने धारा की राज-सभा में विजय प्राप्ती की तथा श्री उत्तराध्ययनजी की टीका रची और बाद आपका स्वर्गवास हुआ आचार्य अभयदेवसूरि को 'सूरि-पद' आचार्य ककसूरि का पद त्याग और देवगुप्तसूरि गच्छनायक , श्री जीरावला पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा , श्री गिरनार तीर्थ के मन्दिर का शिला लेख द्रोणाचार्य ने आचार्य अभयदेवसूरि की टीका का संशोधन किया थेरापद्र गच्छीय नेमिसाधु ने रुद्राट का काव्यालंकार पर टीप्पण श्राचार्य देवगुप्तसूरि का पद त्याग और सिद्धसूरि गच्छनायक प्राचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने उत्तराध्ययन सूत्र पर टीका रची श्राचार्य जिनदत्तसूरि का जन्म आचार्य अभयदेवसूरि का स्वर्गवास मतान्तर ११३९ आचार्य अभयदेवसूरि के पद पर वर्द्धमानसूरि आचार्य हुए आचार्य जिनदत्तसूरि की दीक्षा , आचार्य बादीदेवसूरि का जन्म श्राचार्य हेमचन्द्रसूरि का कार्तिक पूर्णिमा का जन्म सिद्धराज जयसिंह.का पाटण में राजाभिषेक आचार्य हेमचन्द्रसूरि की दीक्षा आचार्य बादीदेवसूररि की दीक्षा आचार्य हेमचन्द्रसूरि को श्राचार्य पद आचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने पूर्णिमायागच्छ निकाला श्राचार्य ने विधि पक्ष नामक गच्छ निकाला जिनवल्लभसूरि ने चितोड़ में आश्विन कृष्णा त्रोदशी को छटा कल्याण की प्ररूपणा की जिनवल्लभ का सूरि पद और स्वर्गवास आचार्य जिनदत्तसूरि को सूरिपद वीसावाल गच्छ के धनेश्वरसूरि की विद्यमानता श्राचार्य सिद्धसूरि का पद त्याग और कक्कसूरि गच्छनायक पद पर .. आचार्य बादीदेवसरि को सरि पद पर ,, मलधारी हेमचन्द्राचार्य की विद्यमानता , प्राचार्य धर्मघोषसूरि ने फलोदी ५०० ठाणे से चातुर्मास किया , श्री फलोदी पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा ११४१ ११४३ ११४५ १९५० ११५० ११५२ ११५६ ११५६ ११६४ १९६७ ११६१ ११७४ ११७७ ११८० ११८१ Vvvvvvvvvv w१५६३ary.org Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [ मुख्य २ घटनाओं का समय मेरी नोटबुक की जानने योग्य बातें १ माण्डवगढ़ का मन्त्री पेथड़ ने तीर्थ श्रीशत्रुञ्जयादि का संघ निकला उस समय रास्ते में चलता हुआ जिस प्राम में जैन मन्दिर की जरूरत थी तथा किसी ग्राम नगर के संघ ने आकर कहा कि हमारे ग्राम में मन्दिर की आवश्यकता है तो मन्त्रीजी ने वहीं मन्दिर की नींव डलवादी जिसमें कतिपय नाम यहाँ दर्ज कर दिये जाते हैं। १ शत्रु | १७ नागपुर ३३ दशपुर ४८ आघाटपुर २ गिरनार तीर्थ पर १८ वटप्रद ३४ पाशुनगर ४६ नगरी३ जुनागढ़ शहर में - १६ सोपार पट्टण ३५ राठगनर ५० वागणपुर ४ घोलकां बंदर में २० चारोप नगर ३६ हस्तनापुर ५१ शिवपुरी ५वणथली २१ रत्नपुर में ३७ देपालपुर ५२ सोनाई ६ ऊकारपुर में २२ कारोड़ नगर ३८ गोकलपुर ५३ पद्यावती ७ वर्द्धमानपुर में २३ कदहर नगर ३६ जयसिंहपुर ५४ चन्द्रावती ८ शरदापाटण २४ चन्द्रावती ३० पाटण ५५ आबुदाचल १ तारापुर २५ चित्रकोट ४१ करणावती ५२ केसरियापट्टण १० प्रभावनी पाटण २६ चिखलपुर ४२ खम्भात ५७ जंगालु ११.सोमेशपट्टण २७ जैतलपुर ४८ उपकेशपुर ४३ वडनगर १२.बाँकानेर में २८ विहार नगर ४६ जाबलीपुर ४३ रनपुर ५० वृद्धपुर १३ गन्धार बन्दर २४ उज्जैन नगरी ४४ वीरपुर ५१ पालिकापुरी १४ धारा नगरी ३० माण्डवगढ़ | ४५ मथुरा ५२ नारदपुरी १५ नागदा नगर ३१ जलंधर ४६ जोगनीपुर ५३ पोतनपुर १६ नासिक | ३२ श्वेतवद्ध 1 ४७ शोरीपुर ५४ सारंगपुर इनके अलावा भी कई स्थानों में मन्दिर बनाया जिसकी संख्या ८४ का उल्लेख मिलता है इससे उस समय के लोगों की धर्म भावना का पता लग सकता है। २ शाह पेथड़ का पुत्र झांझण ने शत्रुञ्जय पर एक मन्दिर बनाकर उस पर सुवर्णपत्रों की खोली सम्पूर्ण मन्दिर के शिखर तक चढ़ादी यह सुवर्ण मन्दिर ही कहलाता था। ३ श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ का उद्धार जावड़ पारवाड़ के बाद बहाड मंत्री का उद्धार तक करीब एक हजार वर्ष में राजा महाराजा और सेठ साहूकारों का संत्रों के अलावा इतर जातियों के भी सैकड़ों संघ आये और यात्रा की जैसे १७०० वार भावसारों के संघ श्राकर तीर्थ की यात्रा की १५०० वार क्षत्रियों के . .. १५०० वार:ब्रह्मणों के ६०० लाडवा फणवीरों , १५६४ aryanvr Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] ५०५ कंसारों 35 "" "" इनके अलावे सवाल पोरवाल श्रीमालों के ८४००० वार संघ आये ४ जैनेतर धर्म में काल का मान इस प्रकार माना है। १७२८००० वर्ष का कृतयुग का काल १२६६००० वर्ष का एक त्रेतायुग काल ८६४००० वर्ष का एक द्वापर काल ४३२००० वर्ष का एक कलि युग काल वर्तमान कलियुग काल है जिसके ५०४४ वर्ष व्यतीत हो चुके शेष ४२६६५३ वर्ष रहे हैं ५ ईरानी बादशाह सिकन्दर भारत में आया उस समय एक ईरानी लेखक ने भारत के विषय में लिखा है कि भारत की जनता १- किसी भी मकान के दरवाजे पर ताला नहीं लगाया जाता था २ - स्त्रियाँ अपने पति के अलावा ब्रह्मचर्य व्रत पालन करती थी ३- भारत के लोग बड़े ही पराक्रमी और परिश्रम जीवी थे [ मुख्य २ घटनाओं का समय ४ - कोई भी व्यक्ति झूठ नहीं बोलता था यानि सत्यवादी लोग थे ६ वि० सं० १५८० कर्माशाह के उद्धार की प्रतिष्ठा के समय तमाम गच्छ के आचार्य और श्री संघ ने यह निर्णय किया कि इस शत्रुञ्जय तीर्थ पर किसी गच्छ का भेदभाव एवं पक्षपात नहीं रखा जायगा ७ बल्लमी नगरी में वि० सं० ५१० में श्रीसंघ सभा हुई आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणजी की अध्यक्षता में आगम पुस्तकारूढ़ हुए उस समय वहाँ पर राजा प्रसेन का राज था । = श्रीमान् देशलशाह ने चौदह वार तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकाला जिसमें चौदह करोड़ द्रव्य खर्चा तथा आपके पुत्र समरसिंह ने शत्रुञ्जय का पन्द्रहवाँ उद्धार करवाया जिसमें २७७०००००० रुपये व्यय किये ६ कर्मासिंह ने शत्रुञ्जय के सोलहवें उद्धार में १२५००००० द्रव्य व्यय किया १० वि० सं० १६६१ में एक जनसंहार दुकाल पड़ा जिसमें संवत्री राजिया वाजिय ने अपने करोंड़ों का द्रव्य अर्थात सर्वस्व देश के अर्पण कर दिया था ११ चीनी लोग भारत की यात्रार्थ आये थे " १ ईश्वी सन् ४४० के आसपास फइयन चीनो आया वह १५०० ताडपत्र के ग्रन्थ लेगया २ ई० सन् ६४० के आसपास हुयनत्संग आया वह १५५० ताडपत्रक प्रन्थ ले गया २१७५ ३ " " "" " "" 99 "" "" 99 ४ ई० सन् ७६४ के अासपास आया वह २५५० ताडपत्र के ग्रन्थ ले गया था । १२ भारत में कई संवत् चलते थे जैसे महावीर संवत्, बुद्धसंवत्, शकसंवत्, विक्रम संवत्, सिंह संवत्, वल्लभी संवत्, गुप्त संवत्, कुशात संवत्, हेमकुमार संवत् इत्यादि १३ गुर्जर प्रदेश के राजाओं के राज में जैन मुत्शदियों का अग्र स्थान था १ श्रीमाल चम्पा शाह, उदायण, चाराड, बाहाङ, अम्बड इत्यादि २ प्राग्वट नीनंग, लहरी, वीर, विमल, वस्तुपाल, तेजपालादि ३ ओसवालादि और भी सन्तु मेहता मुंझलमंत्री पृथ्वीपाल शुक सज्जन समरादि इत्यादि ६०० वर्षों तक वीर उदार जैनों ने ही राजतंत्र चलाया था । १४ गुर्जर एवं सौराष्ट्र देश में कई बन्दर आये हुए हैं जैसे १ खम्भात बंदर २ वेरावल बंदर ३ मांगरोल बंदर ४ दीव बंदर ५ घोवा बंदर ६ भरोंच बंदर ७ गंधार १५६५ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [मुख्य २ घटनाओं का समय बंदर ८ रांदेर बन्दर ६ घणदीव बंदर १० सुरत बन्दर ११ श्रीसाइ बन्दर १२ ठाणा बन्दर इन बन्दरों में करोड़ों का माल आता जाता था जैसे एडन, गौवा, जाउल, अबिसिनिया, अफ्रिका, मलबार, पेगू, सिंहलद्वीप, ईरान, ईराक, अबस्तान, चीन, जापान, सुमित्रा, जावा, काबुल, खंदार इत्यादि । १५ परमाईन् राजा कुमारपाल की आज्ञा से १८ देशों में जीवदया पलती थी १ गुर्जर २ लाट ३ सौराष्ट्र ४ सिन्ध ५ सौवीर ६ मरुधर ७ मेपाट ८ मालवा सपादल ज्ञ १० भंभेरी ११ कच्छ १२ ऊच...१३ जेलंधर १४ काशी १५ आभीर १६ महाराष्ट्र १७ कोकण १८ करणाटदेश इत्यादि । १६ पाहाड़ मंत्री ने शत्रुञ्जय के चौदहवें उद्धार में २६७००००० रु० व्यय किये और श्री गिरनार की पाज बन्धाने में २५७००००० रुपये खर्च किये और राजा कुमारपाल ने ६३००००० द्रव्य व्यय किया। १७ खेमो देदाणी हाडाला ग्राम में रहता था जिसने एक दुकाल को सुकाल बनाया जिसके लिये उसको १२ ग्राम और शाहपद बादशाह ने इनायत किया। १८ कच्छ भद्रेश्वर का जबडुशाह ने सं० १३२-१३-१४-१५ लगेतर दुकाल पड़ा जिसमें साधारण जनता ही नहीं पर राजा महाराजा और बादशाह भी गरीबों के लिये संचा हुमा धान गरीब बनकर लेगये । १६ श्री शत्रुञ्जय तीर्थ के १६ उद्धार-१ भरत चक्रवर्तक २ दंडवीर्य राजा का ३ ईशानेन्द्र ४ महेन्द्र ५ ब्राह्मेन्द्र ६ चमरेन्द्र ७ सागरचक्रवर्ति ८ व्यन्तरेन्द्र चन्द्रयश राजा का १० चक्रधर राजा ११ रामचन्द्र १२ पाण्डव १३ जावा १४ मन्त्री बाहड़ १५ समरसिंह १६ कर्माशाह यह तो बडे उद्धार हैं छोटे उद्धार तो असंख्य हुए। २० श्री शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रार्थ पाने वालों के जानमाज की रक्षाणार्थ गोयल राजपूतों को रखे जिनको प्रत्येक गाड़ी के दो दाई पाने के पैसे दिये जाते थे पर सं० १८७८ में मुकरड़े ४५००) किये थे बाद सं० १६१६ में १००००) तत्पश्चात् १६४२ में १५०२०) बाद सं० १९८३ में यात्रा बन्ध रखी और सं० १९८४ में ६००००) देने का फैसला सरकार ने दिया करार ३५ वर्ष का है। यह तो एक नोट बुक की बातें हैं शेष १२ नोट बुकों की बातें किसी समय पुनः लिखी जायगी। नोट-निम्न लिखित बातें भूल से रह गई थी वे यहाँ पर लिखी जा रही हैं। १ राजा श्रेणिक ने भगवान के पास जैन धर्म स्वीकार किया २ मृगावती राणी और जयन्तिबाई की दीक्षा तथा अानन्द श्रावक को श्रावक के ब्रत दिये ३ राजगृह नगर में धन्ना शालिभद्र सेठ की दीक्षा ४ विनभय पाट्टण के राजा उदाई को दीक्षा दी ५ बनारसी का गाथापति चूजनीपिता तथा सूरादेव सस्त्रियों के साथ श्रावक ब्रत लिये तथा आलंबिया नगरी में पोगाल सन्यासी को दीक्षा दी बहुतों ने ब्रत लिये। ६ राजगृहनगर में राजा श्रेणिक ने दीक्षा की उद्घोषणा करवाई नंदासुनंदादि राजा श्रेणिक की राणियों ने अपने पुत्रों के साथ दीक्षा ली तथा आर्द्र कुमार और गोसालादि का सम्बाद । उपरोक्त घटना समय मैंने कई ग्रन्थों पट्टावलियों के आधार पर लिखना प्रारम्भ किया था पर अजमेर से हमारा विहार होगया और कैसरगंज में हम ठहरे थे, वहाँ सब पुस्तकों का साधन पास में न होने से ऊपर लिखे समय में कुछ त्रुटियों रह: जाने का संभव है। नथा कहीं कहीं ठीक समय न मिलने से पूर्वापर समय को देख कर अनुमान से भी समय लिखा गया है इससे भी कोई स्थान पर गलतियें रह गई हो तो सज्जन समुदाय ठीक सुधार कर पढ़ें। यदि विहार से निवृति मिलने पर साधन मिल गये तो मिलान कर यदि गलतियाँ होंगी तो सुधार कर दिया जायगा ? ऐसी वर्तमान भावना है। Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं० सूरि नामावली | नगर | माता | पिता | जाति । दीक्षा नाम | सूरि पद | स्वर्ग । अज्ञात अज्ञात अज्ञात अज्ञात आज्ञत पा० निर्माण पा० सं०२४ " पा० सं०२४ पा० सं०६४ भगवान् पाश्रनाथ की परम्परा का इतिहास] २८८ पृथुसंन मंत्री | गणधर शुभदत्त श्राचार्य हरिदत्त आचार्य समुद्रसूरि , केशी श्रमणाचार्य , स्वयंप्रभसूरि " रत्नप्रभसूरि , यक्षदेवसूरि कक्कसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि रत्नप्रभसूरि यक्षदेवसूरि कक्कसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि रत्नप्रभसूरि यक्षदेवसूरि कक्कसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि रनप्रभसूरि , यक्षदेवसूरि " ककसूरि देवगुप्तसूरि , सिद्धसूरि " ४५८ उज्जैन अनगसुन्दरी जयसेन राजा पुत्र | केशी श्रमण , १६६ , २५० अज्ञात अज्ञात अज्ञान विद्याधर स्वयंप्रभ वीर सं०१ वी० सं०५२ रथनुपुर लक्ष्मीदेवी महन्द्र विद्याधर रत्नप्रभ वीरात् ५२ वीरान०८४ अज्ञात अज्ञात अज्ञात क्षत्रीवंश वीरधवल १२८ शिवपुर क्षत्रीवंश ककमुनि १८२ भद्रावती राव रूद्राट क्षत्रीवंश देवगुप्तमुनि २२३ चन्द्रपुर कनकसेन क्षत्रीवंश सिद्धार्थ २५३ उपकेशपुर अज्ञात सूर्यवंश लोहाकोट मंत्री ३३४ उपकेशपुर खेतसी सूर्यवंशी लक्ष्मीनिधान ३९१ उपकेशपुर क्षेत्रसिंह लक्ष्मीनिधान उपकेशपुर कुमारदेवी | राव खरत्थो श्रेष्टिगोत्र देवसिंह ऊकारनगर कुल्लीमाता पेथा शाह तप्तभट्ट गुणचन्द्र वीरपुर गुणसेना । वीरधवल सोमकलस कोरंटपुर ललिता लल्ल प्राग्वट देवभद्र नागपुर नन्दामाता अदित्यनाग | विशाल कीर्ति माडव्यपुर कमलादेवी नागदेव श्रेष्टिगोत्र | राजहंस हंसावली पातोली जसाशाह श्रेष्टिगोत्र | रत्नभूषण | सत्यपुरी मांगीदेवी लाखण सुचंतिगौत्र | धर्ममूर्ति लोहाकोट प्रभावती कनकसेन अदित्यनाग निधानकलश चन्द्रावती पन्नादेवी डावर शाह | कुम्मट गोत्र कल्याणकलस उपकेशपुर | चंपादेवी | जैतसी | श्रेष्टिगौत्र |शोभाग्य मूर्ति सं०५२ | क्षत्रीय (७४ भैराशाह २१८ HMM.. [ मुख्य २ घटनाओं का समय १५६७ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ३१० Jain Edu६५६cational Douya जैती ३७० जैती ४०० Naamwwwmovwwwwwwwwwwww भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास ] शिवपुरी ५२० मोरी ५५८ रत्नप्रभसूार , यक्षदेवसूरि , कक्कसूरि , देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि रत्नप्रभसूरि यक्षदेवसूरि ककसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि ककसूरि देवगुपसूरि सिद्धसूरि कक्कसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि ककसूरि देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि ककसूरि , देवगुप्तसूरि , सिद्धसूरि , ककसूरि देवगुप्तसूरि | सोपारपट्टण | राणी माता । ददाशाह भद्रगात्र | गुणातलक वीरपुर राहुली गोसल जयानन्द आभापुरी धरमण शाह | श्रेष्टिगौत्र धर्मविशाल कोरंटपुर. फूल्ली लुम्बाशाह | श्रीमालवंश. पूर्णनन्द जाबलीपुर जगाशाह | मोरक्षगौत्र | अशोकचन्द्र शंखपुर फेंफी धन्नशाह तप्तभट्ट | शान्तिसागर करणावती रोहणी सारंग कनोजिया | प्रमोदरन मैना यशोदित्य चोरलिया जाति सोमप्रभ खटकूम्प राजसी | करणावट | राजहंस चित्रकोट नाथी ऊमासा विरहट गोत्र | शिखरप्रभ मेदिनीपुर कर्मादेवी करमणशाह | श्रेष्टिगोत्र |विनयसुन्दर भद्रावती मातारामा यशोवीर प्राग्वट वंश । मेरुप्रभ मालपुरा दाड़मदेवी देदासा बप्पनाग गोत्र | ज्ञानकलस पद्मावती सरजू सलखण | तप्तभट्टगोत्र दयारत्र नारदपुरी विजोली वीजाशाह चोरलिया विमलप्रभ उपकेशपुर अर्जुनशाह | सुंचतिगोत्र | चन्द्रशिखर गोसलपुर सेणी भीमाशाह | आर्यगोत्र | मूर्ति विशाल | पाल्हिकापुरी राणाशाह | नाहटा जाति | ध्यानसुन्दर डिडूपुर रोली लिम्बाशाह | श्रेष्टि गोत्र | कल्याण कुम्ब गोसलपुर सोनी जगमाल आय गौत्र | मुक्तिसुन्दर दशपुर कानी सारंगशाह चोरलिया । पद्मप्रभ लोद्रावापुर फूआशाह सुघड़ गोत्र | सोमसुन्दर अणहीलपट्टन मणि श्रीचन्द जंघड़ा भुवनकलश डामरेल भोली पद्माशाह गोलेच्छ देवभद्र भिन्नमाल सुगनी भैसाशाह गदइया इन्दहंस २४ re nani AAAAAAAAAA १०११ १०३३ १०७४ ११०८ , ११२८ , ११७४ [मुख्य २ घटनाओं का समय सिद्धसूरि ११०८ ,, ११२८ इस ग्रन्थ में भगवान पार्श्वनाथ के ५० पट्टधरों का इतिहास लिखा गया है अतः यहाँ पर ५० पट्टधरों का संक्षिप्त से कोष्टक में वर्णन · Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श प्रिंटिंग प्रेस, केसरगंज, अजमेर /