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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १४७४-१५०८ ४८-आचार्यश्री कक्कसूरिजी (बारहवें)
प्राचार्यस्तु स कक्कसरि रभवद्यो पाप्य नागान्वये । जाति स्वामपि नाहटेति विदितां रत्वं यथाऽभूषयत् ॥ लक्षस्य द्रविणस्य धारणतया हारेण कण्ठे प्रभोः। भक्तिं भक्तजनः सुरक्तमन सा चक्र कृती सुव्रती ॥ पत्न्या साधर्मनेक भूरि जनतां दीक्षायुतां मुक्तिगाम । कृत्वा प्राप्य च सरि पद्धतिमय जैनमतं चोन्नयन् । वन्यो वै बहुशः स्वधर्म निरतो धन्यः सुमान्यो भवेत् ।
भैंसा शाह जनात्स्वयं गदइया शाखामकादिपि ॥ * रस प्रभावक, परम पूज्य, आचार्य देव श्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली,
प उप विहारी, शुद्धाचारी, सुविहित शिरोमणी, बाल-ब्रह्मवारी, कठोर तपस्वी, चन्द्र की
SHREE तरह शीतल, सूर्य की भांति तेजस्वी, मेरू सदृश अचल, पृथ्वीवत् धैर्यवान, विविध गुणगरणालंकृत, धर्म-प्रचारक, महान् शक्तिशाली प्राचाय हुए है। आपका जीवन-काल जन कल्या हुआ। आप अनेक लब्धियों, विद्याओं एवं कलाओं में पारङ्गत थे। श्री रत्नप्रभ सूरि प्रतिबोधित सञ्चायिका देवो के सिवाय जया, विजया, सिद्धायिका, अम्बिका, मातुलादि अनेक देवियाँ आपके परम पवित्र, अनुपम उपदेशामृत का आस्वादन कर अपने जीवन को सफल मानती थीं। कई राजा महाराजा आपके चरण कमलों की सेवा करने में अपने को परम भाग्यशाली समझते थे। पट्टायली रचयिताओं एवं चरित्रकारों ने आपका जीवन विस्तार से लिखा है पर ग्रन्थ-कलेवर बढ़ जाने के भय से यहाँ उतना विशाद रूप न देकर सामान्यतया मुख्य २ घटनाएँ ही लिखी जाती हैं।
विश्व-विश्रुत भारत भू० अलंकार स्वरूप, इन्द्र की अमरापुरी से भी स्पर्धा में विजय शील, गुर्जर प्रान्तीय राजधानी अणहिल्लपुर नामक परम उन्नतशील नगर था। इस नगर की स्थापना के विषय में जैन ग्रन्थकारों ने लिखा है कि
पंचासरा के चैत्यवासी श्राचार्य श्री शीलगुण सूरि एक समय विहार कर क्रमशः जङ्गल में जा रहे थे। मार्ग में एक वृक्ष की शाखा पर झोली में रक्खे हुए नवजात शिशु को झूलता हुआ देखा। प्रकृति नियमानुसार सय वृक्षों की छाया बदल कर पश्चिम की ओर जा रही थी तब बालक पर स्थित छाया किसी भी रूप में परिवर्तित न होकर मन्त्र शक्ति के आलौकिक आश्चर्य के समान नवजात शिशु पर तथावत् रूप में स्थित थी। उक्त अद्भुत आन्धर्य को देख सूरिजी ने विचार किया कि-यह अवश्य ही कोई भाग्यशाली एवं होनहार बालक होना चाहिये जिसके कारण प्रकृति का नैसर्गिक नियम भी सहज ही में परिवर्तित हो गया। बस वे
आश्चर्य चकित हो विचार संलग्न हो गये । उस बालक की बाल क्रीड़ा जो भावी अभ्युदय का स्पष्ट सूचन कर रही थी-सूरिजी देख २ कर प्रसन्न एवं हर्षित हो गये। कुछ ही समय के पश्चात् उस बच्चे की माता बच्चे के समीप आई । सूरिजी ने बाई को देखकर पूछा-बाई ! इस विकट जंगल में तुम्हें अकेली रहने का क्या धनराज चावड़ा और पाटण
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